संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कमजोर घरेलू कामगारों पर भी चर्चा और कानून की जरूरत
26-Dec-2020 4:32 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कमजोर घरेलू कामगारों पर भी चर्चा और कानून की जरूरत

बड़े शहरों में जब बड़े जुर्म होते हैं, तो उनकी गूंज बाकी दुनिया में भी फैलती है। दिल्ली में कुछ बरस पहले एक ऐसा बलात्कार हुआ, जिसने पूरे हिंदुस्तान को झकझोर कर रख दिया। देश में नया कानून बना, हजार करोड़ का एक निर्भया फंड बना, और भी बहुत कुछ हुआ, संसद से लेकर सरकार तक, और अदालतों से लेकर मीडिया तक, महिलाओं के खिलाफ होने वाले यौन-हमलों पर लोगों की सोच बदली, एक नई जागरूकता आई। कुछ लोग इसे शहर-केंद्रित, या राजधानी-केंद्रित सोच भी कह सकते हैं, लेकिन हम अभी उस पर न जाकर यह देख रहे हैं कि ऐसे मामलों का असर कहां तक होता है, और क्या-क्या होता है। ऐसा ही एक मामला है अमरीका में कुछ बरस पहले एक भारतीय अफसर पर वहां के कानून के तहत दर्ज मुकदमे का, जिसमें उसे घरेलू कामगार के शोषण का कुसूरवार करार दिया गया था। वहां पर भारतीय और बाकी देशों के ऐसे घरेलू कामगारों ने प्रदर्शन भी किया था और पूछा था कि भारत सरकार सिर्फ अपने आरोपी अफसर को बचाने में क्यों लगी है, और भारत की ही नागरिक, शोषण की शिकार, शिकायतकर्ता के हक भारत सरकार के लिए मायने क्यों नहीं रखते हैं?

ऐसी घटनाओं को याद करते हुए हम आज भारत में घरेलू कामगारों की हालत पर कुछ चर्चा करना चाहते हैं। देश भर में यह सबसे बड़े असंगठित मजदूर-कर्मचारी तबकों में से एक है, और ऐसे करोड़ों लोग सरकार के किसी कानून के तहत न कोई हिफाजत पाते, न कोई हक पाते। उनकी तनख्वाह को लेकर कोई कानून नहीं है, काम के घंटे, हफ्तावार छुट्टी जैसी कोई बात भी नहीं है। देश के मजदूर संगठनों की नजरों में भी घरेलू कामगार शायद मौजूद नहीं हैं, इसलिए इस असंगठित वर्ग की जरूरतों पर कोई चर्चा भी नहीं होती। यही तबका बाल मजदूरों का भी है, बंधुआ मजदूरों का भी है, हिंसा का शिकार भी है, और देह-शोषण का सबसे बड़ा खतरा भी झेलता है। आज हिंदुस्तान में घरेलू कामगारों की हालत अधिक चर्चा की जरूरत है, और ऐसा न करके राज्य सरकारें और केंद्र सरकार ऐसे कामगारों के मध्यम और उच्च वर्गीय लोगों पर तो मेहरबानी कर रही है, लेकिन उनसे अधिक बड़ी संख्या में जो कामगार और मजदूर हैं, उनको अनदेखा भी कर रही है।

 भारत में मजदूर संगठनों की एक दिक्कत यह भी है कि वे संगठित मजदूरों के आसानी से पहचाने जाने वाले तबके पर परजीवी की तरह पलते हैं, और उसी संगठित मजदूर आंदोलन को वे अपनी जिम्मेदारी और कामयाबी दोनों बताते हैं। देश में निजीकरण के साथ-साथ मजदूर आंदोलन कमजोर हुआ, और आर्थिक मंदी के साथ-साथ वह एक किस्म से अप्रासंगिक सा हो चला है। जबकि जरूरत की हकीकत इसके ठीक उल्टे है, और जैसी-जैसी सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र का दखल कारखानों-कारोबारों से कम होते चल रहा है, वैसे-वैसे निजी शोषण के खिलाफ मजदूर आंदोलन की जरूरत पहले के मुकाबले अधिक है। इसी तरह घरेलू कामगारों जैसे बड़े तबके को संगठित करने की भी जरूरत है ताकि लोग अपने आराम के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दूसरों की मजदूरी का सही दाम देने पर मजबूर किए जाएं। आज लोगों के गंदे कपड़ों को धोने, उनके जूठे बर्तनों को मांजने, उनकी फर्श पोंछने वाले लोगों को भी साधारण मजदूरी भी नसीब नहीं होती है। इसी तरह जब सरकार कर्मचारियों को बढ़ी हुई तनख्वाह मिलती है, तो वे अपने कामगारों को अधिक तनख्वाह देने की जरूरत नहीं समझते।

न्यूयॉर्क से ही सही, जागरूकता का मुद्दा कहीं से भी शुरू हो, उस पर आगे बात होनी चाहिए। और भारत के भीतर के घरेलू कामगारों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, ऐसा इसलिए भी अधिक जरूरी है क्योंकि समाज में जाति, ओहदे, और कमाई की वजह से जो तबके ताकतवर हैं, वे कभी भी ऐसी जिम्मेदारी न खुद निभाते, न ही वे चाहते कि सरकार ऐसा कुछ करे। बिना किसी छुट्टी या रियायत, बंधुआ मजदूरों की तरह काम करने वाले घरेलू कामगारों को भी इंसान और भारतीय नागरिक समझने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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