संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नया साल, पुराना हाल जारी न रह जाए, सोचें
29-Dec-2020 6:57 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नया साल, पुराना हाल जारी न रह जाए, सोचें

कैलेंडर बदलने के अलावा नए साल का दूसरा बड़ा इस्तेमाल अपने-आपसे कई किस्म की कसमें खाने का होता है। बहुत से लोग पहली जनवरी से दारू, सिगरेट, या तम्बाकू छोडऩे की कसम खाते हैं, बहुत से लोग कसरत, सैर, या जिम शुरू करने की कसम खाते हैं। वजन अधिक हो तो घी-मक्खन, और मीठा छोडऩे की कसम खाई जाती है। लेकिन इनमें से अधिकतर कसमें रेतीली मिट्टी पर खोदी जा रही खदानों की तरह धसक जाती हैं। साल आगे बढऩे लगता है, और लोग पुराने ढर्रे को जारी रखते हैं। दो-चार दिन सोशल मीडिया पर नए साल के संदेश लिखना और पढऩा चलते रहता है, और जनवरी का पहला हफ्ता गुजरने तक श्मशान वैराग्य की तरह नए साल का यह वैराग्य भी चल बसता है। 

लेकिन ऐसा भी नहीं कि थोड़े से लोग भी थोड़ी दूरी तक कामयाब न होते हों। जो लोग अपने-आपसे ईमानदार रहते हैं वे कोशिश जारी रखते हैं, और वे कुछ हद तक कामयाब भी हो जाते हैं। नए साल के संकल्प एकदम ही फिजूल के नहीं होते, वे अपनी कमियों और खामियों की पहचान का मौका देते हैं, बेहतरी और सुधार सुझाते हैं, और उस राह पर दो-चार कदम आगे भी बढ़ाते हैं। लेकिन जिस तरह किसी भी कड़े और लंबे सफर के साथ होता है, संकल्पों के साथ नए साल में आगे बढऩा कुछ उसी तरह मुश्किल रहता है। 

लोगों को यह सोचने की जरूरत है कि खाने-पीने और कसरत-किफायत से परे नए साल के बारे में और कौन सी बातें तय की जा सकती हैं। लोग इसके लिए सोशल मीडिया भी देख सकते हैं जहां पर लोग, प्रधानमंत्री के अलावा बाकी लोग भी, मन की बात लिखते हैं। अभी एक किसी ने लिखा कि उन्हें बहुत शर्म है कि अपनी खरीदी हुई किताबों में से वे बहुत कम पढ़ पाती हैं, और बाकी किताबें अनछुई धरी रह जाती हैं। उन्होंने यह संकल्प किया है कि इस बरस वे उनके पास इक_ा हो गईं तमाम अनछुई किताबें पढक़र खत्म कर लेंगी। किताबों की इस चर्चा से यह याद पड़ता है कि लोगों को अपने पास की पढ़ी हुई, और आगे न पढऩे वाली किताबों को दूसरों को देना भी सीखना चाहिए। एक किताब के लिए एक पेड़ कटता है, और उस पेड़ की शहादत की इतनी तो इज्जत होनी चाहिए कि उससे बने कागज पर छपी किताब अधिक से अधिक लोग पढ़ सकें। डिक्शनरी और सामान्य ज्ञान की किताबों को छोडक़र किस्सा-कहानी की कम ही किताबें ऐसी रहती हैं जिन्हें लोग बार-बार पढऩा चाहें। यह भी समझने की जरूरत है कि बार-बार पढऩे में लगने वाला वक्त नई और दूसरी किताबों को पढऩे के लिए खाली रखना चाहिए। ये तमाम बातें सुझाती हैं कि लोग किताबों को पूरी तरह दान चाहे न कर दें, कम से कम दूसरों को पढऩे के लिए देते चलें। पढ़-पढक़र घिसी हुई, पुरानी पड़ गई किताब अधिक इज्जत का सामान होती है, बजाय जुड़े हुए पन्नों के आलमारी में कैद किताब के। 

लोगों के खाने-पीने और कसरत के संकल्पों के बारे में हमें अधिक कुछ नहीं कहना है क्योंकि उनका अपना भला उससे जुड़ा रहता है। लेकिन यहां बाकी दुनिया के भले के कोई फैसले होते हैं, तो उन्हें तो आगे बढ़ाना चाहिए। लोगों को अपने पास के गैरजरूरी हो चुके इक_ा सामानों से छुटकारा पाना भी आना चाहिए। यह आसान नहीं होता क्योंकि लोग इस दबाव में रहते हैं कि किसी भी दिन इनमें से किसी चीज की जरूरत पड़ जाएगी। दरअसल जिंदगी की जरूरतें बड़ी सीमित रहती हैं, इनसे अधिक जो कुछ रहता है वह शौक रहता है। लोग अगर चाहें तो अपने शौक में कुछ कटौती करके आसपास के जरूरतमंद लोगों के काम आ सकते हैं, और वही नए साल को बेहतर बनाने का एक तरीका हो सकता है। 

निजी संकल्पों से परे लोगों को अपनी सार्वजनिक जिम्मेदारी और जवाबदेही के लिए अधिक करना चाहिए। अपनी चर्बी छांटना जितना जरूरी है, उससे कहीं अधिक जरूरी है सार्वजनिक जगहों को साफ-सुथरा रखना। हिन्दुस्तानियों की आम सोच यह है कि गंदगी करना उनका हक है, और उसे साफ करना म्युनिसिपल की जिम्मेदारी। जब तक इस सोच को नहीं बदला जाएगा तब तक इस देश में सफाई कर्मचारी नालियों और गटर में उतरकर काम करते रहेंगे, और बेमौत मरते रहेंगे। कुछ लोग अपने पहचान के लोगों के साथ रोजाना की सार्वजनिक जगहों पर ऐसे सामूहिक संकल्प ले सकते हैं कि किस तरह सार्वजनिक सम्पत्ति अपनी मानी जाए, और किस तरह उसे साफ और सुरक्षित रखा जाए। 

इन दिनों मोबाइल फोन कैमरे का काम भी करते हैं, घड़ी का भी, कैलेंडर का भी, और डायरी का भी। इसलिए अब नए साल पर कैलेंडर-डायरी का कोई महत्व नहीं रह गया है। अब लोगों को दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की जागरूकता दिखानी चाहिए। पहले लोग अपने कारोबार के कैलेंडर, उसकी डायरी दूसरों को बांटते थे, अब उसकी जरूरत नहीं रह गई तो लोग अच्छी किताबें बांट सकते हैं। 

नए साल के संकल्पों की फेहरिस्त का कोई अंत नहीं होता। लेकिन लोगों को सामाजिक जिम्मेदारी को इसमें ऊपर रखना चाहिए। सार्वजनिक जगहों पर वे अगर कोई गुंडागर्दी या जुर्म देखते हैं, तो उसे अनदेखा करके आगे निकलने का मिजाज छोडऩा चाहिए। यह भी समझना चाहिए कि किसी दिन ऐसी गुंडागर्दी के शिकार उनके परिवार के लोग होंगे, तो और लोग भी उसे अनदेखा कर सकते हैं। लोग अपने-अपने दायरे में इस नए साल में दूसरों के लिए क्या कर सकते हैं यह सोचना चाहिए, इसकी चर्चा करनी चाहिए, और अपने करीबी लोगों को इसके लिए तैयार भी करना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

 

 

 

 

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