संपादकीय
भारत में कोरोना-वैक्सीन को लेकर उसकी ट्रायल शुरू होने के पहले से जो हड़बड़ी चली आ रही थी, वह अब तक जारी है। लोगों को अगर यह सिलसिला याद हो, तो जुलाई के पहले हफ्ते में शुरू होने वाले मानव -परीक्षण को लेकर देश की सबसे बड़ी चिकित्सा-विज्ञान संस्था, आईसीएमआर ने एक चिठ्ठी लिखी थी जिसमें वैज्ञानिक संस्थाओं से कहा गया था कि वे परीक्षण तेजी से करें ताकि स्वतंत्रता दिवस पर इसे राष्ट्र को समर्पित किया जा सके। एक वैज्ञानिक संस्था के ऐसे अवैज्ञानिक पत्र को लेकर उसकी जमकर खिंचाई भी हुई थी। अब पिछले चार दिनों से भारत में बनी दो कोरोना-वैक्सीन को लेकर कुछ नए विवाद उठ खड़े हुए हैं। इन्हें बनाने वाली हिन्दुस्तानी कंपनियों के मालिक आपस में भिड़ गए हैं, और एक ने दूसरे की वैक्सीन के बारे में कहा है कि वह सिर्फ पानी की तरह सुरक्षित है। इन दोनों हिन्दुस्तानियों की बहस का जो असर हो रहा है वह इसकी विश्वसनीयता खत्म होने में जो रही-सही कसर थी, वह भी पूरी हो गई।
एक तरफ केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इन दोनों वैक्सीन को लगाने का जो बयान दिया, उसमें हर हिन्दुस्तानी को इसे मुफ्त लगाने की बात कही, और अगले ही दिन उस बयान में जमीन आसमान का फर्क करते हुए यह कहा कि तीन करोड़ स्वास्थ्य कर्मचारियों और फ्रंटलाईन वर्करों को ही यह मुफ्त में लगाई जाएगी। अब देश की बाकी आबादी एक बार फिर अंधेरी सुरंग में छोड़ दी गई है जिसके किसी सिरे पर रौशनी नहीं है। मानो इतना काफी नहीं था, इसके तुरंत बाद एक सरकारी विशेषज्ञ ने यह कहा कि दो हिन्दुस्तानी वैक्सीन में से एक वैक्सीन ही लगाई जाएगी, और उसका असर न होने पर दूसरी वैक्सीन को मानव परीक्षण की तरह लगाया जाएगा। अब सवाल यह है कि वैक्सीन का मानव परीक्षण ही अगर होना है, तो उसे आम लोगों को लगाई जा रही वैक्सीन कैसे कहा जा रहा है? एक तरफ दोनों हिन्दुस्तानी वैक्सीन निर्माता एक-दूसरे की वैक्सीन को पानी बता रहे हैं, दूसरे आरोप लगा रहे हैं, और दूसरी तरफ विशेषज्ञ हिन्दुस्तानी वैक्सीन को लेकर सरकार के पूरे रूख पर अपनी हैरानी जाहिर कर रहे हैं।
वैक्सीन को लेकर दुनियाभर में चिकित्सा विशेषज्ञों के एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन (कोलिशन फॉर इपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशंस, सेपी) की उपाध्यक्ष डॉ. गगनदीप कांग ने भारत में दो कोरोना-वैक्सीन को मिली मंजूरी पर भारी हैरानी जाहिर करते हुए कहा है कि वे पूरी तरह से भ्रमित हैं। उन्होंने कहा- मैंने आज तक ऐसी कोई मंजूरी नहीं देखी है। वैक्सीन के इस्तेमाल शुरू करने के साथ-साथ कोई क्लिनिकल ट्रायल नहीं होती है। कंपनियां सरकारी नियंत्रकों को अर्जी देने के साथ-साथ दुनिया की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिकाओं में भी अपने ट्रायल के नतीजे प्रकाशित करती हैं ताकि लोग सवाल कर सकें। भारत में भी आईसीएमआर अपनी खुद की पत्रिका में उन्हें छाप सकता था, लेकिन मेरी जानकारी यह है कि इनसे जुड़ी जो जानकारी दाखिल की गई है, उसमें कई कमियां हैं। और सच तो यह है कि जिस वैक्सीन की दो खुराकें एक फासले पर लगाई जानी हैं, उनका तो परीक्षण ही पूरा नहीं हो सकता।
एक प्रमुख अंग्रेजी अखबार को दिए एक लंबे इंटरव्यू में इस विशेषज्ञ ने कहा कि यह हड़बड़ी इसलिए खतरनाक है कि इतनी हड़बड़ी मेें जांच की जरूरतें पूरी किए बिना वैक्सीन को लोगों पर इस्तेमाल करके एक खतरा खड़ा किया जा रहा है कि जो लोग वैक्सीन-विरोधी हैं, साईंस-विरोधी हैं उनके हाथ एक हथियार दे दिया जा रहा है जिसका वे इस्तेमाल करेंगे। उन्होंने भारत सरकार और यहां के वैज्ञानिक संगठनों की हड़बड़ी को लेकर एक वैज्ञानिक-आलोचना का इंटरव्यू दिया है।
एक तो वैसे भी यह वैक्सीन 70 फीसदी के करीब कारगर बताई जा रही है। फिर भारत सरकार का अपना किया हुआ दावा यह कहता है कि वह जून 2021 तक 25 करोड़ लोगों के टीकाकरण की कोशिश करेगी। इसका मतलब है देश की एक बड़ी आबादी को यह टीका मिलने में लंबा समय है। टीकाकरण की घोषणा के बाद कल यह बात भी सामने आई है कि बच्चों और गर्भवती महिलाओं को इनमें से एक टीका नहीं लगाया जाएगा। मतलब यह कि बहुत सीमित रफ्तार से इसका सीमित इस्तेमाल होने जा रहा है, और उसका तीन चौथाई से कम लोगों पर असर हो सकता है। फिर मानो ये तमाम सीमाएं काफी न हों, यहां के दो वैक्सीन निर्माता कारोबारी एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी में उतरे हुए हैं, और एक-दूसरे की वैक्सीन पर वे तमाम सवाल खड़े कर रहे हैं जो कि देश के दवा नियंत्रक को करने थे, दूसरी वैज्ञानिक संस्थाओं को करने थे, या वैज्ञानिक-जर्नलों में छपने के बाद दूसरे वैज्ञानिकों को करने थे।
आखिर में हम याद दिलाना चाहते हैं कि ये वैक्सीन तो बहुत ही हड़बड़ी में बनी हैं, 1950 के दशक में एक जर्मन दवा कंपनी ने गर्भवती महिलाओं में सुबह की मितली रोकने के लिए थेलिडॉमाइड नाम की एक दवा बनाई थी जिसका जादुई असर दिखता था। अमरीका जैसे देश में इसका अंधाधुंध इस्तेमाल शुरू हो गया था। लेकिन जब इन गर्भवती महिलाओं के बच्चे पैदा होने शुरू हुए, तो उनमें से बहुत बिना हाथ-पांव के थे जो कि इस दवा का ही असर था। वह तो किसी महामारी से परे की एक कारोबारी और बाजारू दवा थी, जो प्राणरक्षक नहीं थी, और जो असुविधा घटाने वाली ही थी। लेकिन आज तो सरकारें टीकों को मंजूरी दे रही हैं, उन्हें लेकर राजनीतिक घोषणाएं कर रही हैं, और आधी-अधूरी वैज्ञानिक जांच और जानकारी के आधार पर यह कर रही हैं। यह एक खतरनाक नौबत है। दुनिया को किसी टीके को लेकर ऐसी हड़बड़ी नहीं करना चाहिए। आज तो हिन्दुस्तान में बिना इस टीके के ही कोरोना का फैलाव घट गया है, मौतें एकदम कम हो गई हैं, और सरकार ऐसे किसी दबाव में नहीं है कि गिरती हुई लाशों के बीच उसे आनन-फानन में यह करना ही है, टीके तुरंत लगाना ही है। खुद भारत के विशेषज्ञ चिकित्सा-वैज्ञानिक जितने गंभीर शक इन टीकों के कई पहलुओं पर कर रहे हैं, वे एक खतरे की तरफ इशारा करते हैं। टीकाकरण को एक लोकप्रिय, लुभावना, राजनीतिक मुद्दा बनाना ठीक नहीं है। इस बारे में बहुत सावधानी से वैज्ञानिक फैसला लिया जाना चाहिए जिससे नेता अपनी राजनीति को अलग रखें।