सामान्य ज्ञान
तिल एक पुष्पीय पौधा है। इसके कई जंगली रिश्तेदार अफ्रीका में होते हैं और भारत में भी इसकी खेती और इसके बीज का उपयोग हजारों वर्षों से होता आया है। यह व्यापक रूप से दुनिया भर के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पैदा किया जाता है। तिल के बीज से खाद्य तेल निकाला जाता है। तिल को विश्व का सबसे पहला तिलहन माना जाता है, और इसकी खेती 5 हजार पहले शुरू हुई थी।
तिल वार्षिक तौर पर 50 से 100 से. मी. तक बढ़ता है। फूल 3 से 5 से. मी. तथा सफेद से बैंगनी रंग के पाये जाते हैं। तिल के बीज अधिकतर सफेद रंग के होते हैं, हालांकि वे रंग में काले, पीले, नीले या बैंगनी रंग के भी हो सकते हैं।
तिल प्रति वर्ष बोया जाने वाला लगभग एक मीटर ऊंचा एक पौधा जिसकी खेती संसार के प्राय: सभी गरम देशों में तेल के लिए होती है। इसकी पत्तियां आठ दस अंगुल तक लंबी और तीन चार अंगुल चौड़ी होती हैं । ये नीचे की ओर तो ठीक आमने सामने मिली हुई लगती हैं, पर थोड़ा ऊपर चलकर कुछ अंतर पर होती हैं । पत्तियों के किनारे सीधे नहीं होते, टेढ़े मेढ़े होते हैं । फूल गिलास के आकार के ऊपर चार दलों में विभक्त होते हैं । ये फूल सफेद रंग के होते है, केवल मुंह पर भीतर की ओर बैंगनी धब्बे दिखाई देते हैं । बीजकोश लंबोतरे होते हैं जिनमें तिल के बीज भरे रहते हैं । ये बीज चिपटे और लंबोतरे होते हैं।
भारत में तिल दो प्रकार का होता है— सफेद और काला । तिल की दो फसलें होती हैं— कुवारी और चैती । कुवारी फसल बरसात में ज्वार, बाजरे, धान आदि के साथ अधिकतर बोई जाती हैं । चैती फसल यदि कार्तिक में बोई जाय तो पूस-माघ तक तैयार हो जाती है । वनस्पतिशास्त्रियों का अनुमान है कि तिल का आदिस्थान अफ्रीका महाद्वीप है । वहां आठ-नौ जाति के जंगली तिल पाए जाते हैं । पर तिल शब्द का व्यवहार संस्कृत में प्राचीन है, यहां तक कि जब अन्य किसी बीज से तेल नहीं निकाला गया था, तव तिल से निकाला गया । इसी कारण उसका नाम ही तैल (तिल से निकला हुआ) पड़ गया । अथर्ववेद तक में तिल और धान द्वारा तर्पण का उल्लेख है । आजकल भी पितरों के तर्पण में तिल का व्यवहार होता है।
वैद्यक में तिल भारी, स्निग्ध, गरम, कफ-पित्त-कारक, बलवर्धक, केशों को हितकारी, स्तनों में दूध उत्पन्न करने वाला, मलरोधक और वातनाशक माना जाता है । तिल का तेल यदि कुछ अधिक पिया जाए तो रेचक होता है।