विचार / लेख
-रमेश अनुपम
पं जवाहर लाल नेहरु की लाजवाब किताब 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' (भारत एक खोज) मेरे लिए कई अर्थों में एक बेमिसाल किताब है।
पंडित नेहरू की यह किताब भारत को एक नए रूप में देखने की कोशिशों का एक सुंदर कोलाज है। मैं उनकी इस दृष्टि और विवेक का हमेशा से कायल रहा हूं।
पं नेहरू ने जिस तरह से भारत को एक नए रूप में विश्लेषित करने का दुस्साहस किया, ठीक वैसा न सही, अपनी अल्प मति से क्या छत्तीसगढ़ को भी फिर से आविष्कृत किए जाने की, नए सिरे से परिभाषित किए जाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए?
मैं पिछले तीस-चालीस वर्षों से छत्तीसगढ़ को जानने और पहचानने की सफल - असफल कोशिशें में लगा रहा हूं। कुछ पागलपन और कुछ जुनून के चलते यह सफर आज भी बदस्तूर जारी है।
इस तरह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पेंड्रा रोड प्रवास तथा विवेकानंद (नरेंद्रनाथ दत्त) के पिता विश्वनाथ दत्त और छोटे भाई महेंद्रनाथ दत्त के साथ रायपुर में बिताए हुए दो वर्ष की कथा की तलाश मेरे लिए बेहद दिलचस्प और रोमांचक यात्रा रही है।
स्वामी विवेकानन्द की तलाश करते - करते मैं डे भवन में एक महान जीनियस हरिनाथ डे से भी टकरा गया। यह महान जीनियस जिन दिनों डे भवन में शैशव अवस्था में अपनी मां श्रीमती एलोकेशी डे की गोद में थे उन्हीं दिनों नरेंद्रनाथ दत्त अपने अनुज महेंद्रनाथ दत्त के साथ धमाचौकड़ी मचाते हुए वहां घूम रहे थे। मेरे लिए यह सब अद्भुत था।
उसी तरह पेंड्रा रोड में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और उनकी धर्मपत्नी मृणालिनी देवी की तलाश करते - करते मुझे उस बंगले का भी ठिकाना मिल गया था जहां माधवराव सप्रे राजकुमार को ट्यूशन पढ़ाने जाया करते थे।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और स्वामी विवेकानंद की तलाश में अनेक बार कोलकाता तथा शांतिनिकेतन में भटकना पड़ा। ठीक वैसा ही अनुभव दुर्ग में जन्मे हुए सुप्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता, निदेशक किशोर साहू की आत्मकथा की तलाश में मुझे हुआ। तीन से चार बार मुझे मुंबई की यात्रा करनी पड़ी।
अंततः इस आत्मकथा को ढूंढकर ही मैंने दम लिया। यह आत्मकथा किशोर साहू के जन्मशताब्दी वर्ष सन 2016 के अवसर पर राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित भी हुई।
मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य था कि राज्य शासन ने मेरे इस काम के महत्व को समझा तथा किशोर साहू के नाम पर किशोर साहू राष्ट्रीय अलंकरण (दस लाख रूपए की राशि के साथ) की घोषणा की। ये कुछ ऐसे कार्य थे जिसे करने का अपना कुछ अलग मजा और सजा था।
यह कुछ - कुछ घर फूकने जैसा भी था। किशोर साहू की सन 1974 में लिखित आत्मकथा को पाने के लिए मुझे ढाई लाख रुपए भी देने पड़े थे। उस समय मेरे पास इतनी राशि नहीं थी। इसलिए ये सारी राशि मैंने डिग्री गर्ल्स कॉलेज के अपने मित्र प्राध्यापक दिनेश कुमार राठौर से उधार लिए और इस तरह ढाई लाख रूपए देकर मैंने मुंबई से किशोर साहू की आत्मकथा प्राप्त की।
बहुत सारे मित्रों को यह मेरा पागलपन लगा। संजीव बख्शी जैसे मित्र पहले से ही मेरे इस पागलपन से परेशान थे।
सो इस तरह छत्तीसगढ़ को खोजने , उसे नए सिरे से अन्वेषित करने का कार्य चलता रहा। इसी क्रम में भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनन्यतम सखा तथा उन्नीसवीं शताब्दी के महानतम साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह की तलाश में मुझे बनारस की यात्रा करनी पड़ी।
महात्मा गांधी के रायपुर कंडेल तथा धमतरी प्रवास को लेकर मुझे कंडेल और धमतरी की यात्राएं करनी पड़ी तब जाकर सन 1920 तथा 1932 की महात्मा गांधी की छत्तीसगढ की यात्राओं के बारे में मैं जान पाया।
बस्तर को जानने और समझने के लिए मुझे कई - कई बार बस्तर जाना पड़ा। इंद्रावती, शंकिनी, डंकिनी, बैलाडीला की पहाड़ियां, अबूझमाड़ तथा वहां के भोले - भाले निश्चल आदिवासियों से साक्षात्कार करना पड़ा। पता नहीं क्यों मुझे आज भी लगता है सन 1910 में केदार नाथ ठाकुर द्वारा लिखी गई 'बस्तर भूषण' से बेहतर और कोई किताब बस्तर पर आज भी नहीं है। बस्तर की इस तलाश में गुण्डाधुर की तलाश भी शामिल है।
अब मेरे सारे मित्रों का यह आग्रह है कि मैं इन सारे प्रसंगों को एक जगह समेटने - सहेजने के कार्य को व्यवस्थित रूप से अंजाम दूं। इधर-उधर बिखरे हुए लेखों को किसी एक जगह सूत्रबद्ध करूं। इसलिए मैं 'छत्तीसगढ़ एक खोज' के नाम से इन सारे प्रसंगों को सूत्रबद्ध करने का प्रयास करूंगा। मैंने तय किया है कि प्रति रविवार को एक - एक प्रसंग को लिखूंगा तथा फेसबुक पर आप सब मित्रों से शेयर भी करूंगा।
प्रथम कड़ी के रूप में मैं स्वामी विवेकानंद के रायपुर प्रवास पर लिखना चाहूंगा।