संपादकीय
कांग्रेस की सर्वोच्च अधिकार वाली कमेटी, कांग्रेस कार्यसमिति, ने आज यह तय किया बताया जाता है कि संगठन के चुनाव मई के महीने में होंगे। अगर शाम तक इसकी औपचारिक घोषणा होती भी है तो भी यह अभी चार महीने दूर की बात है। कांग्रेस संगठन के तौर-तरीकों को लेकर करीब दो दर्जन प्रमुख नेता पिछले कुछ महीनों से पार्टी की बिसात पर घोड़े की तरह ढाई घर चल रहे थे, उनको तो अगले चार महीने शांत रखने में यह फैसला असरदार हो सकता है, लेकिन जब तक संगठन के ईमानदार और पारदर्शी चुनाव न हो जाएं, तब तक यह कहना मुश्किल है कि आज पार्टी के भीतर रहकर आवाज उठाने वाले नेता संतुष्ट हो जाएंगे, या उनकी बात का असर होगा। अपने सौ बरस के अधिक के अस्तित्व में कांग्रेस ने बहुत से ऊंचे-नीचे दौर देखे हैं, लेकिन आज जितना बुरा वक्त तो उसने इमरजेंसी के बाद अपनी हार में भी नहीं देखा था क्योंकि उस वक्त उसके पास इंदिरा गांधी सरीखी जुझारू अध्यक्ष थीं। आज कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह जिस राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाए रखने, या बनाने पर आमादा है, वे अध्यक्ष बनना नहीं चाहते। पुरानी कहावत है कि घोड़े को पानी तक ले तो जा सकते हैं, लेकिन उसे पानी पिला नहीं सकते। पार्टी की अध्यक्षता के लिए राहुल को घेर-घारकर तैयार करने की कोशिश तो हो सकती है, लेकिन उससे वे एक जुझारू मुखिया बन जाएंगे यह मानना कुछ ज्यादती होगी।
भारतीय चुनावी राजनीति में पूरे देश की बात हो, या किसी प्रदेश की, किसी एक पार्टी और उसके लीडर की बात बिना दूसरी पार्टियों और उनके लीडरों को साथ रखे बिना नहीं की जा सकती। आज कांग्रेस और राहुल का मुकाबला अगर आराम की राजनीति करने वाले अखिलेश यादव, मायावती, सुखबीर बादल या उमर अब्दुल्ला जैसे लोगों से होता, तो भी चल जाता। दिक्कत यह है कि आज कांग्रेस और बाकी गैरएनडीए पार्टियों का मुकाबला नरेन्द्र मोदी से है जिन पर न परिवार का बोझ है, न जिनके कोई शौक उन्हें काम से परे ले जाते। कम से कम जनता के बीच की जानकारी तो यही बताती है कि वे साल के हर दिन काम करते हैं, दिन में दस-बारह घंटे से अधिक काम करते हैं, और पिछले बहुत बरसों में काम के अलावा उन्होंने और कुछ नहीं किया है। ऐसे में राहुल गांधी के खिलाफ वंशवाद से परे का एक बड़ा मुद्दा बार-बार उठ खड़ा होता है कि वे संघर्ष के हर मौके पर, देश में जलते-सुलगते किसी भी मुद्दे के चलते हुए भी निजी विदेशयात्रा पर चले जाते हैं। निजी यात्रा पर जाना हर किसी का अपना हक है, लेकिन जो पार्टी पिछले कुछ बरसों में कमजोर होते-होते आज खंडहर सरीखी हो चुकी है, जो उजाड़ होती दिख रही है, उस पार्टी का मुखिया क्या भारतीय राजनीति की असल जिंदगी में इतनी छुट्टियां मना सकता है?
न सिर्फ सार्वजनिक जीवन, बल्कि किसी भी किस्म के महत्वपूर्ण ओहदे पर बैठे हुए लोग महत्वहीन कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों जितनी छुट्टियां नहीं ले सकते। सरकारी कामकाज में भी कोई कर्मचारी या अधिकारी किसी हाशिए पर बैठे हों, तो वे छुट्टियां ले पाते हैं, लेकिन किसी महत्वपूर्ण जगह पर बैठकर उन्हें कुर्सी की प्राथमिकता पहले देखनी होती है। हाल के बरसों में जिन्होंने राहुल गांधी को लगातार देखा है, उन्होंने राहुल को संघर्ष की इच्छा से परे पाया है। उन्होंने राहुल को जिम्मेदारी और जवाबदेही के नाजुक मौकों पर अघोषित विदेश अवकाश पर पाया है। अब केरल के एक सांसद की हैसियत से तो वे इतनी छुट्टियों पर शायद जा भी सकें, लेकिन कांग्रेस जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी के विपक्ष के दिनों में कोई भी पार्टी अपने नेता को इतनी और ऐसी छुट्टियां मंजूर नहीं कर सकती।
इन बातों को देखते हुए यह समझने की जरूरत है कि कांग्रेस पार्टी क्या आज सचमुच ही एक पार्टटाईम अध्यक्ष के मातहत गुजारा कर सकती है, या उसे सोनिया-परिवार से परे भी पार्टी की संभावनाएं देखनी चाहिए? और फिर चाहे दिल से या फिर महज जुबान से, राहुल गांधी खुद भी लोकसभा चुनाव में बुरी शिकस्त के बाद दिए इस्तीफे के साथ इसी बात पर अड़े हुए हैं कि सोनिया-परिवार से परे किसी को अध्यक्ष बनाया जाए। इसे देखते हुए यह बात साफ है कि कांग्रेस अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी चुनौती के मौके पर अगर अपने इतिहास का सबसे अनमना अध्यक्ष एक बार फिर चुन लेती है, तो वह महज पार्टी दफ्तर की कुर्सी भर सकती है, संसद की अधिक कुर्सियां भरने की संभावना उसके हाथ से जाती रहेगी। आज भारत की राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी ने तमाम पार्टटाईम नेताओं को अप्रासंगिक बना दिया है। साल के हर दिन राजनीति, चुनाव के पहले सरकार बनाने की राजनीति, और चुनाव हार जाने पर भी सरकार बनाने की राजनीति, इन सबने मोदी और उनकी पार्टी को अभूतपूर्व और बेमिसाल मेहनती बनाकर रखा है। हिन्दुस्तान की बातचीत में साम, दाम, दंड, भेद की जो बात कही जाती है, इन चारों का भरपूर इस्तेमाल नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम सूरज उगने के पहले से आधी रात के बाद तक करते हैं। कांग्रेस पार्टी को भी एक परिवार का महत्व जारी रखने के लिए अपनी संभावनाओं को नकारना नहीं चाहिए। भारतीय लोकतंत्र में भाजपाविरोधी पार्टियां कांग्रेस की ओर देखती हैं। और अगर ऐसे में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष किसी अनजाने विदेश में होने की बात सुनते रहना पड़े, तो वह कांग्रेस की तमाम संभावनाओं से खारिज करने की बात होगी।
कांग्रेस के लोगों को यह तय करना होगा कि वे लीडर की कुर्सी पर सोनिया-परिवार की जीत चाहते हैं, या अगले आम चुनावों में पार्टी की जीत? रामचन्द्र गुहा जैसे घोषित भाजपाविरोधी लेखक ने राहुल गांधी की आलोचना करते हुए बहुत सी बातें हाल के महीनों में ही लिखी हैं। उन पर सबसे अधिक गौर सोनिया-परिवार को ही करना चाहिए क्योंकि पार्टी के बाकी अधिकतर नेता एक गुलाम-मानसिकता के शिकार दिखते हैं जो कि अपने लीडर-परिवार के मातहत ही अपने को महफूज पाते हैं। इस पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका देना चाहिए। राहुल गांधी आज जिन बातों पर अड़े हुए हैं, उन्हें उनका जुबानी जमा-खर्च हम तो नहीं मानते, और हम उनके शब्दों की ईमानदारी पर भरोसा करते हैं कि वे कांग्रेस अध्यक्ष नहीं रहना चाहते। यह पहला मौका है जब यह पार्टी इतने लंबे समय तक बिना अध्यक्ष के है, और अब इसे इस परिवार से परे किसी को अध्यक्ष चुनना चाहिए। यथास्थितिवाद से पार्टी के नेताओं को लग सकता है कि वह झगड़े-झंझटों, विवादों और विभाजन से बची रहेगी, लेकिन हाशिए पर प्रसंगहीन बनी बैठी ऐसी थोपी गई एकता किस काम की रहेगी? कांग्रेस को अपने हजारों नेताओं और लाखों-करोड़ों कार्यकर्ताओं की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए, और किसी नए नेता की राह साफ करना चाहिए ताकि कम से कम पार्टी प्रासंगिक बनी रह सके। वरना भविष्य का इतिहास सोनिया-परिवार को ही कांग्रेस को इतिहास बनाकर छोडऩे की तोहमत देगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)