विचार / लेख
-पुष्यमित्र
बिहार के गांवों में लगातार बढ़ते अपराध के बीच लोग चौकीदारों को ढूंढने लगे हैं, मगर वे दारोगा की घरेलू चाकरी और दूसरे काम-काज में फंसे हुए हैं।
पिछले दिनों बिहार के सुपौल जिले की एक छोटी सी खबर दिखी। कुछ चौकीदारों ने मिलकर मोटरसाइकिल की छीन-झपट करने वाले अपराधियों को गिरफ्तार करवा दिया। खबर बहुत छोटी सी थी, मगर रोचक इस लिहाज से थी कि जहां अब तक अपराध से जुड़े मामलों में सफलता का श्रेय बड़े पुलिस अधिकारियों को दिया जाता है, इस मामले में क्रेडिट चौकीदारों को दिया गया था। खबर में विस्तार से बताया गया कि इस मामले में तफ्तीश और जासूसी के लिए चौकीदारों और दफादारों की ही टीम गठित की गयी थी। इस रिपोर्ट को सुपौल के ही एक मित्र सौरभ मोहन ठाकुर ने मुझे भेजा और कहा कि आप कृपया अपराध नियंत्रण में चौकीदारों की भूमिका पर कुछ लिखिये।
उनकी बात सुनकर किसी के मुंह से सुनी मुझे समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया की वह उक्ति याद आ गयी, जिसमें उन्होंने कहा था कि जब तक चौकीदार की लाठी मजबूत नहीं होगी, देश में समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था, क्योंकि सरकारी अमलों में चौकीदार सबसे निचले दर्जे का कर्मचारी माना जाता है। मगर गांवों में अपराध नियंत्रण में अंग्रेजों के जमाने से उसकी बड़ी भूमिका रही है। एक जमाने में जब कानून-व्यवस्था की देखरेख का जिम्मा अंगरेजों ने जमींदारों पर छोड़ दिया था। उसके अमले के सिपाही टैक्स वसूली भी करते थे और अपराध नियंत्रण भी। तब हर गांव में मौजूद चौकीदार गांव में पहरा भी देते थे और अंग्रेजों के लिए खुफियागिरी का भी काम करते थे।
आज जब कोरोना के बाद से लगातार बिहार में अपराध बढ़ रहे हैं। हाई प्रोफाइल मर्डर को छोड़ दिया जाये तो भी गांवों में हाल के महीनों में फिर से वह 15 साल पुराना दौर आता नजर आ रहा है, जब सुनसान राहों पर बाइक रोककर छीना-झपटी होती थी। सूने पड़े घरों में चोरी होती थी और कभी कभी डकैतियां भी हो जाया करती थी। अब एक बार फिर से बिहार के गांवों में य सब धड़ल्ले से होने लगा है। इसके पीछे नोटबंदी और लॉकडाउन की वजह से तेजी से बढ़ी बेरोजगारी और प्रवासी मजदूरों का बेकार होकर गांव लौटना माना जा रहा है। इन दिनों रेप और यौन अपराध भी तेजी से बढ़े हैं। ऐसे में लोगों को लगने लगा है कि गांव में अपराध नियंत्रण की उस पुरानी पद्धति को फिर से लागू करने की जरूरत है, जिसका मुख्य जिम्मा चौकीदारों और दफादारों पर था।
चौकीदार और दफादार तो अभी भी हैं, मगर वे रात में गश्ती नहीं लगाते या अपने बीट के इलाकों से पुलिस के लिए सूचनाएं नहीं जुटाते। जब से उन्हें स्थायी सरकारी कर्मचारी मान लिया गया है, तब से उनकी ड्यूटी थाने में लगने लगी है।
इस बारे में मैंने बिहार राज्य चौकीदार-दफादार पंचायत के सचिव डॉ संत सिंह से बात की तो उन्होंने कहा कि थाना प्रभारी उन्हें डाक, बैंक और कैदी स्काउट की ड्यूटी देने लगे हैं, जो ड्यूटी पहले होमगार्डों को दी जाती थी। और तो और उनसे निजी निवास पर भी घरेलू काम करवाया जाता है। बस वह काम नहीं करवाया जाता है, जो उसकी असल ड्यूटी है। कई दफा कुछ स्मार्ट चौकीदारों को पुलिस कर्मी ट्रकों और सब्जी वालों से पैसे वसूली के काम में लगा देते हैं। हमलोग अपने साथियों को बार-बार समझते हैं लोभ लालच और भ्रष्टाचार के इस फेर में न पड़ें। मगर अब कई लोगों को इसका चस्का लग ही गया है।
चौकीदार मैनुअल कहता है कि हर साठ घरों की निगरानी के लिए एक चौकीदार होना चाहिए। औपनिवेशिक कालीन चौकीदारी व्यवस्था पर गहन शोध करने वाले डॉ अवनींद्र झा ने मिथिला एक खोज नामक पुस्तक में प्रकाशित एक आलेख में लिखा है कि उन्नीसवीं सदी के आखिर में हर 340 लोगों की आबादी पर एक चौकीदार हुआ करता था। आज एक रेवेन्यू गांव पर भी एक चौकीदार नहीं है। संत सिंह से मिली जानकारी के मुताबिक आज चौकीदारों और दफादारों को मिलाकर बमुश्किल 22 हजार लोग पूरे बिहार में कार्यरत हैं। जबकि सृजित पदों की संख्या 29 हजार है।
बिहार में दूसरे विभागों कि रिक्तियों को देखते हुए यह संख्या बहुत अधिक नहीं लगती, मगर मानक के हिसाब से तो यह बहुत कम है। आज राज्य की आबादी 13 करोड़ के पार चली गयी है। उस लिहाज से अमूमन हर छह हजार लोगों और हर एक हजार परिवार पर एक चौकीदार है। बिहार में रेवेन्यू गांवों की कुल संख्या 45067 मानी जाती है। कम से कम हर रेवेन्यू गांव में एक और बड़े गांवों में आबादी के हिसाब से दो या तीन चौकीदार होने ही चाहिए।
सवाल पदों का भी नहीं है। सवाल यह भी है कि आखिर उनसे उनका असली काम क्यों नहीं कराया जा रहा। संत सिंह कहते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 2016 से कहते-कहते थक गये। कम से कम सात आदेश इस बारे में जारी हुए हैं कि चौकीदारों से बैंक ड्यूटी, डाक ड्यूटी या कैदी स्काउट का काम न कराया जाये, उनसे घरेलू काम न लिया जाए। उनसे वही काम कराया जाये जो उनकी असली ड्यूटी है। मगर थानेदार उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
नीतीश कुमार इसलिए भी गांवों में चौकीदारों की ड्यूटी चाहते हैं, ताकि शराबबंदी के उनके ड्रीम प्रोजेक्ट में मदद मिल सके। चौकीदार गांवों में एक्टिव रहेंगे तो वे शराब तस्करी पर भी नजर रखेंगे। शराबबंदी अभियान के तहत शराब मिलने पर थानेदारों के साथ-साथ चौकीदारों पर भी कार्रवाई की घोषणा की गई है। मगर चौकीदार मजबूर हैं, उन्हें उनकी ड्यूटी ही नहीं मिल रही।
यह अपने आप में बड़ा सोचनीय विषय है कि एक राज्य का मुख्यमंत्री जो कभी काफी सक्रिय प्रकाशक माना जाता था, वह थानेदारों को कंविंस नहीं कर पा रहा है कि वे चौकीदारों से उनका असली काम लें। मगर अगर गांव को अपराधीकरण के इस दौर से बचाना है, तो सरकार को इस फैसले को सख्ती से लागू करना ही पड़ेगा।
(यह लेख साप्ताहिक पत्र ‘गणादेश’ से साभार, जो बिहार और झारखंड से प्रकाशित होता है)