संपादकीय
हिन्दुस्तान में डीजल करीब 90 रूपए लीटर तक पहुंच रहा है, और पेट्रोल कुछ जगहों पर 95 रूपए लीटर पार चुका है। राजस्थान के एक जिले में 97.23 रूपए लीटर का रेट पेट्रोल का हो गया है। एक खबर के मुताबिक प्रीमियम पेट्रोल की कीमत 100 रूपए पार हो चुकी है। दुनिया में कच्चे तेल की कीमत जब मिट्टी में भी मिली हुई थी, तब भी मोदी सरकार ने पिछले बरसों में लगातार तरह-तरह के टैक्स और ड्यूटी लगाकर पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान पर रखे, और उसका एक जुबानी तर्क यह है कि देश में सरकार को कई तरह के कामों के लिए रकम की जरूरत होती है, और अगर ऐसी टैक्स वसूली न हुई तो खर्च कहां से किया जा सकेगा। अब डीजल-पेट्रोल या रसोई गैस के दामों को लेकर बहुत बड़ा मुद्दा भी नहीं बनता है क्योंकि लोगों को यह मालूम है कि किसी तरह के विरोध का केन्द्र सरकार पर कोई असर नहीं होता है।
अब थोड़ी देर के लिए ईंधन की महंगाई के मुद्दे को छोड़ दें, और यह मान लें कि बीते छह बरसों की तरह अगले चार बरस भी मोदी सरकार इसी तरह पेट्रोल-डीजल से, रसोई गैस से, लोगों को निचोडऩा जारी रखेगी, तो भी सवाल यह उठता है कि इलाज क्या है?
आज हिन्दुस्तान में शहरी आबादी का एक बड़ा हिस्सा निजी गाडिय़ों पर चलता है। दोपहिए, चौपहिए सडक़ों पर पटे हुए हैं, दिन में शहर के व्यस्त इलाकों में पार्किंग की जगह नहीं रहती, और रात में रिहायशी इलाकों में एक-एक इंच पार्किंग भरी रहती है, सडक़ों के किनारे लबालब रहते हैं। फिर इस मंदी के बीच भी जो बाजार रौनक रहा, वह नई गाडिय़ों का है, और सडक़ों के किनारे पुरानी गाडिय़ों के बाजार भी लगे हुए हैं। कुल मिलाकर निजी गाडिय़ों की मोहताज रहने की लोगों की बेबसी घटना तो दूर, बढऩे में बढ़ोत्तरी भी घटती नहीं दिखती है। हर दिन राज्य सरकारों को नई गाडिय़ों के रजिस्ट्रेशन से भी खासा पैसा मिलता है, और पुरानी गाडिय़ों की दुबारा बिक्री से भी।
हिन्दुस्तान में कुछेक महानगरों को छोड़ दें, और उनसे थोड़े छोटे उपमहानगरों को छोड़ दें, तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ढांचा बहुत ही कमजोर है। यह एक अलग बात है कि मुम्बई की लोकल, दिल्ली की मेट्रो, कोलकाता और दूसरे शहरों की तरह-तरह की मेट्रो न होती तो आज उन पर जो भीड़ दिख रही है, वह पता नहीं कैसे लोकल सफर करती। अब हिन्दुस्तान में बहुत से राज्यों में राज्य सरकारें अपनी बसें चलाना बंद कर चुकी हैं, और यह काम निजी बस कंपनियों के लायक मान लिया गया है। कुछ ऐसा ही हाल शहरों के भीतर भी बस चलाने को लेकर हुआ है, और सरकारों ने एक योजनाबद्ध तरीके से शहरी यातायात की दिक्कत को सुलझाने का जिम्मा छोड़ दिया है। देश के दो दर्जन शहरों में एक-दो प्रमुख रास्तों पर मेट्रो बनाई गई हैं, लेकिन जब तक शहर के बाकी हिस्सों से इन मेट्रो स्टेशनों को जोडऩे का काम नहीं हो पाएगा, तब तक लोग निजी गाडिय़ों पर आश्रित रहेंगे ही। इसलिए अकेली मेट्रो से कुछ नहीं होना है, वहां से आगे लोगों को अपने घर-दफ्तर, या काम की जगह पर जाने के लिए जब तक सुविधाजनक इंतजाम नहीं मिलेगा, तब तक तमाम लोग मेट्रो पर ही निर्भर नहीं हो सकेंगे। कुछ लोग उस पर चलेंगे, और बाकी लोग अपनी निजी गाडिय़ों से चलेंगे।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे बहुत से ऐसे शहर हैं जहां अभी मेट्रो के बारे में सोचा भी नहीं गया है। यह नया राज्य बने 20 बरस हो गए हैं, और मौजूदा सरकार को आए भी दो बरस हो चुके हैं। लेकिन इन 20 बरसों में भी राजधानी के शहरी यातायात के बारे में कुछ सोचा भी नहीं गया। राजधानी में कुछ सडक़ें तो बनी हैं, लेकिन मेट्रो या शहरी बसों का कोई इंतजाम नहीं किया गया। गिने-चुने रास्तों पर गिनी-चुनी बसें चलती हैं, जिन पर कोई निर्भर नहीं रह सकते। नतीजा यह होता है कि हिन्दुस्तान के आम शहर की तरह इस शहर में भी निजी गाडिय़ां बढ़ते चल रही हैं, और उनका इस्तेमाल भी बढ़ते चल रहा है। जब इसे पेट्रोल और डीजल की बढ़ती कीमतों से जोडक़र देखें, तो नौबत और भयानक दिखती है कि गरीब लोगों की कमाई का खासा हिस्सा पेट्रोल पर खर्च हो जा रहा है। अभी तक हमने पेट्रोल-डीजल के दाम और शहरी जिंदगी की मुश्किल को पर्यावरण के साथ जोडक़र चर्चा नहीं की है, जबकि हकीकत यह है कि निजी गाडिय़ों की भीड़ से इतना अधिक ईंधन जलता है कि वह धरती के शहरी हिस्सों का दम घोंट देता है। आज हिन्दुस्तानी शहरों को जरूरत है पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बहुत तेजी से बढ़ाने की। इसके लिए कहीं मेट्रो, कहीं फ्लाईओवर बनाना होगा, तो कहीं बसों का जाल बिछाना होगा। इस काम को सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल के अलावा और कोई नहीं कर सकते। सडक़ों पर जिनका एकाधिकार है, जिम्मेदारी भी उन्हीं की है। जनता का पैसा और वक्त, सेहत और पर्यावरण, इन सबको इस रफ्तार से बर्बाद करना जारी रखना ठीक नहीं है। नौबत वैसे भी भयानक हो चुकी है, और अगले 25-50 बरस की जरूरतों को देखते हुए अगर अभी से योजना बनाकर अमल शुरू नहीं होगा, तो बहुत देर हो चुकी होगी। पर्यावरण के मुद्दे पर किसी की लिखी यह बात याद आती है कि इस अर्थ (धरती) की ऐसी ही अनदेखी की गई तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। यही बात गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों की जेब पर भी लागू होती है, और शहरों में बसे लोगों के फेंफड़ों पर भी। यह राज्य सरकारों और स्थानीय म्युनिसिपलों का जिम्मा है कि वे अपने शहरों में सार्वजनिक परिवहन को अधिक से अधिक बढ़ाएं ताकि वहां के लोगों की जिंदगी भी बेहतर हो, और वहां पर कारोबार भी बढ़ सके। दुनिया के सभ्य और जिम्मेदार देशों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को लोगों की जरूरत से अधिक धरती के पर्यावरण की जरूरत मानकर खासे घाटे में चलाया जाता है, या मुफ्त में भी चलाया जाता है ताकि लोग निजी गाडिय़ों का कम से कम इस्तेमाल करें। हिन्दुस्तान में इसे सिर्फ, और सिर्फ नफे-नुकसान से जोडक़र देखा जाता है, और धरती की अपनी कोई आवाज तो है नहीं कि वह अपने नुकसान के आंकड़े भी गिना सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)