संपादकीय
भारत के पड़ोस में बसे हुए म्यांमार में आज सुबह हुई सैनिक बगावत के बाद वहां की सबसे बड़ी निर्वाचित नेता आंग सान सू की सहित बहुत से निर्वाचित नेताओं को सेना ने कैद कर लिया है और देश में एक बरस के लिए इमरजेंसी लागू करके सरकार संभाल ली है। दस बरस पहले म्यांमार के चुनावों में आंग सान सू की जीतकर आई थीं और उनकी पार्टी ने सरकार बनाई थी। वैसे तो लंबे समय तक नजरबंद रहते हुए आंग सान सू की को नोबल शांति पुरस्कार भी मिला था, लेकिन पिछले कई बरसों से उनकी अंतरराष्ट्रीय साख खत्म हो चुकी थी क्योंकि उनकी सरकार ने रोहिंग्या मुस्लिम अल्पसंख्यकों का जिस बुरी तरह मानव संहार करके उन्हें देश से निकाला था, उसकी उम्मीद उनसे और उनकी सरकार से किसी ने नहीं की थी। म्यांमार पांच देशों के बीच बसा हुआ देश है। बांग्लादेश, भारत, चीन, लाओ, और थाईलैंड से उसकी सरहद जुड़ी है, और इन देशों में से रोहिंग्या मुस्लिमों को बांग्लादेश ही शरण पाने के लिए ठीक लगा था, और वे समंदर के रास्ते वहां पहुंचे। अभी बांग्लादेश म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थियों की वापिसी के लिए बातचीत कर ही रहा था कि म्यांमार सरकार चली गई, और वहां जो फौजी तानाशाह आज काबिज हुआ है, वह रोहिंग्या शरणार्थियों के व्यापक मानव संहार का मुजरिम माना जाता है।
करीब साढ़े 5 करोड़ आबादी का यह देश वैसे तो भारत के एक औसत राज्य जितना बड़ा ही है, लेकिन चीन से लगी हुई लंबी सरहद के चलते म्यांमार भारत की विदेश और फौजी नीतियों में बड़ी नाजुक जगह रखता है। चीन की तरह ही म्यांमार बौद्ध बहुल देश है, और वहां सत्तारूढ़ बौद्ध ताकतों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुचलकर भी रखा है। म्यांमार में 85-90 फीसदी बौद्ध हैं, और उनकी मार के आगे 4 फीसदी के करीब मुस्लिमों के बचने की गुंजाइश कम ही थी। नतीजा यह हुआ कि लाखों रोहिंग्या शरणार्थी उनके गांव जला दिए जाने के बाद, व्यापक हत्या और बलात्कार के बाद देश छोडऩे को मजबूर हुए थे।
अंग्रेजों के वक्त से बर्मा कहे जाने वाले इस देश के साथ भारत के मजबूत रिश्ते रहे, लेकिन सांस्कृतिक रूप से आज का म्यांमार अपने बाकी बौद्ध बहुल देशों, चीन, लाओ, और थाईलैंड के अधिक करीब रहा। वैसे भी भारत और बांग्लादेश की सरहद से जुड़े म्यांमार में चीन की दिलचस्पी स्वाभाविक ही है, और नक्शे को देखें तो एक और वजह समझ आती है कि भारत और बांग्लादेश की करीब समुद्री सीमा भी म्यांमार से लगी हुई है, और वह चीन के लिए रणनीतिक रूप से जरूरी भी है। ऐसे में भारत के इस पड़ोसी देश का कमजोर लोकतंत्र जब घोषित रूप से फौजी तानाशाही बन रहा है, तो भारत के लिए यह एक बड़ी फिक्र की बात भी है। चीन के साथ कई मोर्चों पर भारत की तनातनी, और टकराहट जारी है। चीन और भारत के बीच एक दूसरे देश नेपाल को लेकर भी इन दोनों देशों में खींचतान है, और नेपाल से भी भारत के लिए कोई राहत की बात नहीं आ रही है, घूम-फिरकर नेपाल चीन के करीब ही दिखाई पड़ता है।
म्यांमार में 2011 में चुनाव जीतकर सत्ता में आई शांति की प्रतीक दिखती आंग सान सू की म्यांमार के पिछले चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली की फौजी तोहमत भी झेल रही थीं। सरकार और सेना के बीच तनातनी चल रही थी, और आंग सान सू की की पार्टी की चुनावी जीत की आंधी को फौज ने धोखाधड़ी और धांधली करार दिया था। म्यांमार के पिछले दशकों को देखें तो यह जाहिर है कि वहां लोकतंत्र बहुत मजबूत नहीं था, और फौज जरूरत से अधिक बड़ा किरदार निभाते आ रहा था। 2011 के चुनाव के पहले 15 बरस आंग सान सू की नजरबंदी में थी, लेकिन इस पूरे लोकतांत्रिक संघर्ष की उनकी साख रोहिंग्या मुस्लिमों के जनसंहार से खत्म हो गई थी।
भारत के पास आज म्यांमार को लेकर सार्वजनिक रूप से करने को कुछ नहीं है। भारत काफी पहले वह नैतिक ताकत खो चुका है जिससे वह दुनिया भर में दूसरे देशों के मामलों में भी खुलकर बोल पाता था। इसलिए आज जब दूर बैठा अमरीका म्यांमार के आज के फौजी सत्ता पलट पर भारी नाराजगी जाहिर करते हुए नेताओं की रिहाई की मांग कर रहा, और फौजी ताकतों को चेतावनी दे रहा है, तब भारत के करने का कुछ नहीं दिखता। भारत अपनी जमीन पर शरण पाए हुए रोहिंग्या मुस्लिमों को लेकर भी छुटकारा पाने की कोशिशों में लगा हुआ है, और बीते बरसों में इन मुस्लिमों का भारत में कुछ तबकों ने खुलकर विरोध भी किया था। आने वाला वक्त यह साफ करेगा कि म्यांमार की नई फौजी हुकूमत कितने वक्त तक चलती है, उसका रूख क्या रहता है, वहां पर चीन का दखल क्या रहता है, और इस फौजी हुकूमत का भारत के लिए क्या रूख रहता है। फिलहाल हम भारत के किसी भी पड़ोसी देश में लोकतंत्र के कमजोर होने को भारत के लिए एक बड़ी परेशानी मानते हैं, और उसे भारत के लिए एक खतरा मानते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)