संपादकीय
सोशल मीडिया के एक तबके की बात छोड़ दें, तो भारत का किसान आंदोलन चल भी रहा है, इसकी खबर मीडिया के कम ही हिस्से में देखने मिलती है। कुछ तो देश का प्रमुख मीडिया सोशल मीडिया के दबाव में भी काम करता है कि वहां कौन सी बातें लिखी जा रही हैं। क्योंकि दोनों के ग्राहक तो एक ही हैं। लोग फेसबुक और ट्विटर पर किसान आंदोलन की दिल दहलाने वाली खबरें पढ़ लेंगे, और अगर उन्हें बड़े समाचार चैनलों और अखबारों से निराशा मिलेगी, तो ऐसे मीडिया के ग्राहक भी टूटेंगे। इस दबाव में भी किसानों की खबरें दिखाई जा रही हैं।
लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन दिल्ली के इर्द-गिर्द, पंजाब और हरियाणा, और अब कुछ हद तक लगे हुए उत्तरप्रदेश के किसानों पर टिका हुआ है। कहने के लिए तो मुम्बई से चलकर शिवसेना के एक सबसे ताकतवर नेता संजय राऊत भी किसानों के समर्थन के लिए दिल्ली के पास किसान आंदोलन पहुंचे, लेकिन मोटेतौर पर बाकी देश में किसानों का समर्थन प्रतीकात्मक अधिक चल रहा है, जमीन पर कम। कांग्रेस के एक प्रमुख नेता दिग्विजय सिंह बार-बार सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से कह रहे हैं कि किसानों के समर्थन में सडक़ों पर निकलें, लेकिन महाराष्ट्र में शरद पवार, पंजाब में सुखबीर बादल, और बाकी प्रदेशों में वामपंथी पार्टियां, कार्यकर्ता किसानों के साथ सामने आए हैं। अगर दिल्ली को इस तरह घेरने की ताकत इस किसान आंदोलन में न होती, तो देश के किसी दूसरे हिस्से में ऐसा आंदोलन अब तक दम तोड़ चुका होता।
यह सोचने की जरूरत है कि जो किसान और जो किसानी देश के लोगों के जिंदा रहने के लिए सबसे जरूरी बातें कही जा रही हैं, वे खुद भी इस आंदोलन में पूरे देश में सामने क्यों नहीं हैं? हिन्दुस्तान में किसानी के काम में लगे हुए करोड़ों खेतिहर मजदूर किसानी पर जिंदा तो हैं, लेकिन वे खुद किसान नहीं हैं, महज मजदूर हैं। और फिर यह मजदूरी भी इतनी अनियमित, इतनी असंगठित, और अनिश्चित है कि ये ही खेतिहर मजदूर मनरेगा जैसी ग्रामीण मजदूरी योजना पर निर्भर रहते हैं। दूसरी बात किसानी करने वाले लोगों में भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो कि भूस्वामी से खेत ठेके पर या किसी और अनुबंध के तहत लेकर मजदूर की तरह उस पर काम करते हैं, और कमाई साझा करते हैं। नतीजा यह है कि किसानी कानून के जितने किस्म के फायदे हैं, या नुकसान हैं, उनके ऐसे अधिया किसान सीधे प्रभावित नहीं होते हैं क्योंकि जमीन उनके नाम पर नहीं है। जमीन का मालिकाना हक किसान को ताकतवर भी बनाता है, और ऐसे आंदोलन में उसे जोडक़र भी रखता है। लेकिन आज हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों में किसान आंदोलन अगर मजबूत नहीं है, जमीन पर नहीं है, तो इसकी एक वजह यह है कि जमीन के मालिकाना हक वाले किसान अपने इलाकों में जरा भी संगठित नहीं हैं, और किसी लंबे आंदोलन के लायक उनकी आर्थिक स्थिति भी नहीं है। अधिकतर किसान बहुत मामूली कमाई, या बिना कमाई की खेती बस करते ही आ रहे हैं, उनके पास किसी लंबे आंदोलन की ताकत भी नहीं है। वे मजबूत किसानों के आंदोलनों के फायदों की ओर तो नजर लगाए हुए हैं, लेकिन खुद अधिक ताकत के ऐसा कोई आंदोलन न शुरू कर सकते, न उसमें शामिल हो सकते।
गणतंत्र दिवस के पहले तक दिल्ली के राजधानी क्षेत्र की सरहद पर चल रहा यह आंदोलन सिक्ख किसानों पर केन्द्रित था, और आंदोलन को चलाने के लिए जो बड़ा समर्थन मिला हुआ था, वह भी सिक्ख संगठनों की तरफ से था। दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर किसानों के नाम पर जो तोडफ़ोड़ हुई, और लाल किले पर प्रदर्शन हुआ, उसके बाद से सिक्ख किसानों को कुछ चुप देखा जा रहा है। और इसके बाद की तमाम खबरों में उत्तरप्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत की अगुवाई दिख रही है। यह एक बड़ा फर्क गणतंत्र दिवस के बाद से आया है, लेकिन यह आंदोलन को किसी तरफ ले जाएगा, उस पर क्या फर्क पड़ेगा, यह समझना अभी मुश्किल है।
आने वाले महीनों में देश में बंगाल सहित कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, और इसे ध्यान में रखकर कल के केन्द्रीय बजट में इन राज्यों के लिए खास इंतजाम किया गया है। लेकिन दिग्विजय सिंह के कहने के बावजूद इन राज्यों के राजनीतिक दल भी किसान आंदोलन का साथ देने के लिए सडक़ों पर उतर रहे हों ऐसा दिख नहीं रहा है। शिवसेना के संजय राऊत का आंदोलन में आकर लौटना भी छोटी बात नहीं है, यह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन की अगुवा पार्टी का नैतिक समर्थन है जिसके अपने राज्य के भीतर भी शिवसेना-गठबंधन सरकार किसानों के साथ जुड़ती है। आज केन्द्र सरकार की रणनीति के मुताबिक जिस तरह किसानों और दिल्ली के बीच कटीले तारों के समंदर फैलाए जा रहे हैं, जिस तरह सडक़ों पर भालों सरीखी नोंक लगाई जा रही है, उससे केन्द्र सरकार और किसान आंदोलन के बीच एक बड़ा फासला बढ़ते दिख रहा है। ऐसे मौके पर बाकी राजनीतिक दलों को भी अपनी प्रतिबद्धता खुलकर सामने रखनी चाहिए कि वे कटीलें तारों के किस तरफ हैं। किसान आंदोलन और आज की नौबत एक बड़ा व्यापक मुद्दा है, हम आज इसे यहां पर छू भर रहे हैं और लोगों के सोचने के लिए इन पहलुओं को सामने रख रहे हैं। राजनीतिक दलों से परे भी समाज के दूसरे तबकों को किसानों के साथ आकर खड़ा होना होगा, वरना भूखों मरने के लिए तैयार रहना होगा।