संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गांवों में धान से परे भी धन हो सके, इसकी कोशिश हो
05-Feb-2021 2:28 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गांवों में धान से परे भी धन  हो सके, इसकी कोशिश हो

छत्तीसगढ़ में इस बरस बोरों की दिक्कत के बीच भी 92 लाख टन धान की खरीदी हुई है जो कि इस राज्य के अस्तित्व के 20 बरसों में सबसे अधिक है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इसका कुछ हिस्सा पड़ोसी राज्यों से तस्करी से लाए गए धान का भी है क्योंकि तमाम पड़ोसी राज्यों में धान का समर्थन मूल्य कम है, और छत्तीसगढ़ में सरकार बाद में किसानों को अतिरिक्त भुगतान करके देश का सबसे ऊंचा दाम देती है। पड़ोसी राज्यों से छत्तीसगढ़ में धान की तस्करी कोई नई बात नहीं है, और बीते बरसों में भाजपा के राज में भी यह सिलसिला चल रहा था, और उसी दौरान छत्तीसगढ़ को धान की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी का राष्ट्रीय सम्मान भी हासिल हुआ था। 

अब जब इस राज्य के किसान संतुष्ट हैं, और उनका तकरीबन तमाम धान बिक चुका है, तब सरकार को कुछ बातों पर सोचना भी चाहिए। धान की फसल किसान के लिए सबसे आराम की फसल मानी जाती है जिसे बोने के बाद मेहनत दूसरी फसलों के मुकाबले बहुत कम लगती है। छत्तीसगढ़ में पानी कुदरत भरपूर देता है, और नहरों से भी कई इलाकों में पानी आता है, सरकार की मुफ्त, या तकरीबन मुफ्त बिजली के साथ-साथ सोलर पैनल से चलने वाले पंप भी धरती का पेट खाली करके धान की फसल को बढ़ाते हैं। लेकिन कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ के किसान अपनी फसल बेचने के लिए, किसी भी किस्म की कमाई के लिए मोटे तौर पर राज्य सरकार के मोहताज रहते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि किसान को सरकार-आश्रित बनाए रखने के बजाय कौन सा दूसरा काम किया जा सकता है, जो कि हो सकता है शुरू में कुछ अलोकप्रिय हो, लेकिन जो लंबे सफर में किसानों का अधिक मददगार हो। 

छत्तीसगढ़ में जहां-जहां मिट्टी और हवा-पानी साथ दें, वहां-वहां किसानों को धान से परे भी देखने के लिए कहना चाहिए। आसान धान लोगों की कल्पना को कुचल चुका है। किसान और दूसरी फसलों की तरफ देखना भी भूल गए हैं। यह बात धरती के लिए भी ठीक नहीं है, और दूसरी फसलों के लिए भी ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ में भी कुछ हिस्सों में चने की फसल ली जाती थी जो कि किसानों को सरकार को मोहताज भी नहीं रखती थी, और किसी समर्थन मूल्य की फिक्र भी उसे नहीं रहती थी। इस प्रदेश के बनने के भी दशकों पहले तो यहां कृषि विश्वविद्यालय है, और अब तक इसने किसानों के बीच दूसरी फसलों को लोकप्रिय करने का काम कर देना था, लेकिन प्रयोगशाला से सरकार तक होते हुए खेतों तक पहुंचने का सफर, और फिर फसल के मंडी या बाजार तक पहुंचने का सफर बहुत से रोड़ों भरे रास्ते से गुजरता है। धान से परे लोगों ने सोचना बंद कर दिया, और सरकार भी एक लोकप्रिय चुनावी नारे और कार्यक्रम से परे कोई प्रयोग करने के बारे में नहीं सोचती।

लेकिन बात महज किसी और फसल की नहीं है, बात खेती और किसानी की अर्थव्यवस्था की व्यापक तस्वीर की है, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भी है जो कि बुनियादी रूप से किसानों पर ही टिकी हुई है। छत्तीसगढ़ में जहां-जहां लोगों ने फल-सब्जी के प्रयोग किए, मशरूम या शहद के प्रयोग किए, उन्हें धान की फसल के मुकाबले अधिक कमाई भी हुई है। यह एक अलग बात है कि ऐसे प्रयोगों में सरकार की भूमिका बड़ी सीमित रही है, और लोगों की उपज के लिए बाजार जुटाने का काम सरकार नहीं कर पाई। छत्तीसगढ़ में वन विभाग ने वनोपज के दाम शायद देश में सबसे अधिक दिए, लेकिन वनोपज इस प्रदेश से कच्चे माल की तरह ही बाहर जाती है, उसके लिए कोई प्रोसेसिंग यूनिट यहां नहीं लग पाई। यही हाल फल-सब्जी के साथ हुआ, यही हाल कुछ दूसरी फसलों का हुआ। आज छत्तीसगढ़ में जगह-जगह होने वाले कोदो-कुटकी का कोई स्थानीय संगठित बाजार नहीं है, दूसरी तरफ यह देशी-विदेशी ऑनलाईन बाजार में महंगे दामों पर बिकता है। यह एक फासला राज्य सरकार जैसी संगठित कोशिश के बिना पट नहीं सकता। किसान को सरकार-आश्रित रखने के बजाय उसे तरह-तरह की आर्थिक गतिविधियों से जोडऩा होगा ताकि वह सरकारी बजट पर भी कम बोझ रहे। 

आज आखिर क्या वजह है कि गुजरात के एक सिरे पर बसे आनंद से अमूल का दूध और बाकी डेयरी प्रोडक्ट निकलकर 1100 किलोमीटर से अधिक का रास्ता तय करके छत्तीसगढ़ आते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ की डेयरी संभावनाएं पूरी तरह टटोली नहीं जातीं। राज्य का दुग्ध महासंघ राजनीति और भ्रष्टाचार के लिए ही खबरों में अधिक आता है, राज्य में डेयरी और दूध का कलेक्शन और मार्केटिंग नेटवर्क बनाने में इसे कामयाबी मिली थी। अब कुछ निजी कारोबारियों ने बड़े-बड़े डेयरी उद्योग स्थापित किए हैं जो कि कामयाब भी बताए जा रहे हैं, और उनसे जुडक़र गांव-गांव में लोग दुधारू जानवर भी पाल रहे हैं।
 
राज्य सरकार को किसी कारोबार में पड़े बिना लोगों को तरह-तरह की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने में मदद करनी चाहिए ताकि गांव के लोग धान और अनाज से परे भी कमाई कर सकें, जंगलों के लोग वनोपज और लघु वनोपज को कच्चे माल की शक्ल में बेचने को मजबूर न हों, और प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था धान से परे भी धनवान हो। यह बात सुझाना आसान है, लेकिन ऐसा करना धान खरीदने के मुकाबले कई गुना अधिक मेहनत का काम है। छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि किसान धान से परे भी सोच सकें, और गांव सरकारी योजनाओं से परे भी अपने पैरों पर खड़े हो सकें। राज्य सरकार को धान से इतर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के बारे में भी सोचना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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