संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतांत्रिक आंदोलनकारियों को जो तंत्र परजीवी माने, वह कम से कम लोकतंत्र तो नहीं...
09-Feb-2021 5:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतांत्रिक आंदोलनकारियों  को जो तंत्र परजीवी माने, वह  कम से कम लोकतंत्र तो नहीं...

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्यसभा में देश में चल रहे आंदोलनों के संदर्भ में आंदोलनकारियों पर बड़ा हमला किया। उन्हें परजीवी भी कहा, यानी जो दूसरों पर पलते हैं, और यह भी कहा कि देश को ऐसे आंदोलनजीवी लोगों से बचाकर रखने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि जिस तरह पहले श्रमजीवी या बुद्धिजीवी शब्द सुनाई पड़ते थे, देश में अब एक नई बिरादरी खड़ी हो गई है आंदोलनजीवियों की। किसी का भी आंदोलन चलता रहे ये जाकर उसमें पर्दे के सामने से या पर्दे के पीछे से शामिल हो जाते हैं। उन्होंने आंदोलनों को समर्थन देने वाले ऐसे लोगों की जमकर खिल्ली उड़ाते हुए मोदी ने देश को इन लोगों से सावधान रहने को कहा, देश को इनसे बचाकर रखने कहा। 

पहली नजर में ऐसा लगा कि मानो भरोसेमंद मीडिया ने भी मोदी की बात को तोड़़-मरोडक़र लिखा है, और भला किस लोकतंत्र में प्रधानमंत्री आंदोलनों को लेकर इतनी ओछी बात कर सकता है। लेकिन जल्द ही यह खुलासा हो गया, और राज्यसभा का वीडियो भी चारों तरफ फैल गया कि मोदी ने सचमुच ऐसा ही कहा था। यह बात किसी भी लोकतंत्र को सदमा पहुंचाने वाली है कि वहां के आंदोलनों के संदर्भ में उस लोकतंत्र का प्रधानमंत्री ऐसी सोच रखता है। खासकर आज जब देश में कुल एक, किसान आंदोलन की चर्चा है, और इन आंदोलनकारियों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीन समर्थक, और देश का गद्दार करार देने की भरपूर कोशिश चल ही रही है। इस बीच में प्रधानमंत्री का ऐसा कहना देश के तमाम लोकतंत्रवादियों का भयानक अपमान छोड़ और कुछ नहीं है। 

देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि हर कुछ हफ्तों या महीनों में किसी आंदोलन को समर्थन देते हैं, उसकी हिमायत में बयान जारी करते हैं, या उसके समर्थन में किसी प्रदर्शन में शामिल होते हैं। ऐसा इसलिए नहीं होता कि ये लोग भाड़े पर ट्वीटने वाले लोगों सरीखे भाड़े के आंदोलनजीवी हैं। ये लोग लोकतंत्र पर भरोसा रखते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में, यहां के दर्जनों प्रदेशों में, यहां के लाखों शोषणकर्ताओं के राज में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन तो चलते ही रहते हैं, और जिनका भरोसा लोकतंत्र पर है, उनका भरोसा ऐसे एक से अधिक बहुत से आंदोलनों पर हो सकता है, और रहता है। आज कोई जेएनयू के छात्रों के साथ हैं, तो हो सकता है कि यह उनका धंधा न रहते हुए भी वे शाहीन बाग के आंदोलन के साथ हो सकते हैं, वे यूपी और बिहार में बलात्कार के बाद जबरिया अंतिम संस्कार करने वाली पुलिस के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं, किसानों के आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं, और किसी कॉमेडियन की गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं। इसका मतलब यह कहीं भी नहीं रहता कि वे पेशेवर आंदोलनकारी हैं, या आंदोलन पर पलने वाले परजीवी धंधेबाज हैं। 

लोकतंत्र में आंदोलनों और आंदोलनकारियों को इतनी हिकारत से देखना बहुत ही नाजायज बात है। अटल-अडवानी के वक्त से जनसंघ और भाजपा गौरक्षा के लिए आंदोलन करते आए हैं, या कुछ दूसरे हिन्दू संगठनों के चलाए जा रहे गौरक्षा आंदोलन का साथ देते आए हैं। जनसंघ और भाजपा कश्मीरी पंडितों के मुद्दे से लेकर कश्मीर से धारा 370 हटाने तक के मुद्दों पर आंदोलन भी करते आए हैं, और इन मुद्दों के दूसरे आंदोलनकारियों के साथ भी खड़े रहे हैं। जनसंघ के लोग आपातकाल के खिलाफ चले आंदोलन में समाजवादियों, और माक्र्सवादियों के साथ इंदिरा-विरोधी आंदोलन में शामिल रहे हैं, ये लोग कहीं हिन्दी भाषा के आंदोलन में शामिल रहे हैं, तो कहीं धर्मांतरण के बाद ऑपरेशन घरवापिसी के साथ खड़े रहे हैं। प्रधानमंत्री के बयान के जवाब में सोशल मीडिया ने उबलते हुए सैकड़ों ऐसी तस्वीरें पेश की हैं जिनमें नरेन्द्र मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक, और अरूण जेटली से लेकर सुषमा स्वराज तक तरह-तरह के आंदोलनों में हिस्सा लेते दिख रहे हैं। खुद मोदी धारा 370 के खिलाफ आंदोलन के मंच पर बैठे दिख रहे हैं, अटल बिहारी वाजपेयी पेट्रोल की महंगाई के खिलाफ बैलगाड़ी पर संसद जाते दिख रहे हैं, और स्मृति ईरानी तो गैस सिलेंडर की महंगाई के खिलाफ आंदोलन में सबसे आगे, लेकिन यूपीए सरकार तक, दिख रही हैं। जो पार्टी या जो नेता पूरी जिंदगी किसी न किसी लोकतांत्रिक आंदोलन से जुड़े रहे, उनका आज का मुखिया आंदोलनकारियों को अगर परजीवी कहे, तो यह उस नेता की अपनी पार्टी की विरासत का अपमान भी है। 

कोई भी लोकतंत्र जब तक बेइंसाफी के खिलाफ, हक के लिए, लोकतांत्रिक मुद्दों के लिए आंदोलन नहीं देखता, तब तक वह एक मुर्दा लोकतंत्र रहता है, जिसका रहना न रहना एक बराबर होता है। आज हिन्दुस्तान के जो तथाकथित देशप्रेमी स्वीडन की एक किशोरी, ग्रेटा थनबर्ग पर उबल रहे हैं कि उसने हिन्दुस्तानी किसानों के पक्ष में ट्वीट करके हिन्दुस्तानी घरेलू मामलों में दखल दी है, उन्हें दुनिया के विकसित और सभ्य लोकतंत्रों के माहौल को भी समझना चाहिए जो कि आज भारत में नहीं रह गया है। स्वीडन की यही किशोरी ग्रेटा थनबर्ग 15 बरस की उम्र में अपने देश की संसद के बाहर पर्यावरण बचाने के मुद्दे पर धरने पर बैठी, और उसने पूरी दुनिया के लोगों का ध्यान खींचा, और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से गालियां खाईं। लेकिन उसने अपने देश में अकेले जो धरना और विरोध-प्रदर्शन शुरू किया उसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। दुनिया के देशों में जगह-जगह उसकी प्रेरणा से लोग पर्यावरण बचाने के लिए प्रदर्शन करने लगे। इस लडक़ी ने 2019 में 16 बरस की उम्र में एक समुद्री नौका से इंग्लैंड से न्यूयॉर्क तक सफर किया ताकि संयुक्त राष्ट्र पहुंचकर वह जलवायु पर खतरे के मुद्दे को उठा सके। पन्द्रह दिनों का यह सफर इसने सौर ऊर्जा से चलने वाली इस नौका से तय किया था और न्यूयॉर्क पहुंचकर उसने संयुक्त राष्ट्र के बैनरतले एक प्रेस कांफ्रेंस में दुनिया को प्रभावित किया। लोकतंत्र ऐसे ही आंदोलनों का नाम है, ये आंदोलन अपने देश की सरहद के भीतर हो सकते हैं, और अपने देश की सरहद के बाहर भी। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद के खिलाफ अपनी जिंदगी का पहला आंदोलन शुरू किया था, न तो वे वहां के नागरिक थे, और न ही वहां आंदोलन उनका हक था। आज हिन्दुस्तानी पुलिस ग्रेटा थनबर्ग को हिन्दुस्तान की दुश्मन करार देकर अपने देश के बावले लोगों को नारे लगाने का एक मौका जरूर दे रही है, लेकिन दुनिया में हिन्दुस्तान मखौल का सामान बन गया है। 

देश के चुनावों में सबसे कामयाब नेता होने से भी नरेन्द्र मोदी को यह हक नहीं मिल जाता कि वे इस महान लोकतंत्र में आंदोलन नाम के लोकतांत्रिक हक को एक गाली की तरह इस्तेमाल करें। हो सकता है कि इसके बाद भी उनकी चुनावी संभावनाओं पर कोई फर्क न पड़े, या चुनावी संभावनाएं बढ़ भी जाएं, दुनिया के इतिहास में चुनावी आंकड़ों के मुकाबले लोकतांत्रिक फैसले अधिक मायने रखेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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