संपादकीय
लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा देश की न्यायपालिका की चौपट साख को लेकर किए हमले और मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के रिटायर होते ही राज्यसभा में मनोनयन को लेकर उठाए सवालों की गर्द अभी बैठी भी नहीं है कि रंजन गोगोई ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उसका जवाब दिया। उन्होंने मोदी सरकार द्वारा उन्हें राज्यसभा भेजने के बारे में कहा- अगर मुझे सौदा ही करना होता तो क्या मैं एक राज्यसभा सीट से मानता? राज्यसभा अच्छा सौदा नहीं है। यदि सौदेबाजी भी करनी होती तो किसी बड़ी चीज की मांग की जाती, न कि राज्यसभा की। उन्होंने कहा कि वे पहले ही यह लिखकर दे चुके हैं कि अपने राज्यसभा-कार्यकाल के दौरान वेतन नहीं लेंगे।
रंजन गोगोई से पूछा गया था कि क्या वे महुआ मोइत्रा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे क्योंकि उन्होंने कहा था कि गोगोई ने खुद पर लगे यौन उत्पीडऩ के आरोपों का फैसला करके न्यायपालिका को बदनाम कर दिया, इस पर गोगोई का कहना था- अगर आप अदालत जाते हैं तो आपको इंसाफ नहीं मिलेगा।
हिन्दुस्तान के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई की ये दोनों बातें सदमा पहुंचाने वाली हैं, और लोकतंत्र के लिए भयानक अपमानजनक भी हैं। देश की संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, को वे यह कहते हुए नीची नजर से ही देखते हैं कि अगर सौदा होता तो सिर्फ राज्यसभा सीट पर बात नहीं बनती, वे सिर्फ एक राज्यसभा सीट से क्यों मानते, सौदेबाजी होती तो किसी बड़ी चीज की मांग की जाती, न कि राज्यसभा सीट की। भारत के लोकतंत्र में सबसे ऊंचे सदन की सदस्यता को इस कदर नाकाफी करार देना लोकतंत्र के प्रति एक अपमान की बात है। इसी राज्यसभा सदस्यता से लोगों को ढेर सारी सहूलियतों के अलावा ऐसा विशेषाधिकार भी मिलता है जो उन्हें देश के बाकी नागरिकों के मुकाबले अधिक अधिकार देता है। यह भी अगर रंजन गोगोई को काफी नहीं लग रहा है, तो लोकतंत्र के लिए उनके मन में सम्मान नहीं है, हिकारत है। लेकिन बात यही पर नहीं रूकी, उन्होंने जिस तरह अदालत जाने के बारे में कहा कि अदालत जाने पर इंसाफ नहीं मिलता, यह बात भी उस संस्थान के लिए भारी बेइज्जती की है जहां से रंजन गोगोई ने बरसों तक रोटी और घी-मक्खन कमाया है। इसी संस्थान के विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वे मातहत कर्मचारी के यौन शोषण के आरोपों पर रियायत पाते रहे, और पूरी दुनिया ऐसी कोशिशों को धिक्कार रही थी।
इसी जगह पर दो-तीन दिन पहले ही हमने यह लिखा है कि अफसरों और जजों के रिटायर होने के बाद उन्हें किसी किस्म का पुनर्वास नहीं मिलना चाहिए, और रंजन गोगोई की मिसाल उसमें भी दी थी कि सरकार को पसंद आने वाले लगातार कई फैसलों के बाद राज्यसभा की सदस्यता पाना उनकी खुद की नजर में कितनी ही सच्ची बात हो, जनता की नजर में यह एक बहुत बड़ा तोहफा है। लोकतंत्र की इज्जत के लिए और न्यायपालिका की साख के लिए सस्ते या महंगे तोहफों का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। हिन्दुस्तान के ही बहुत से ऐसे जज रहे हैं जिन्होंने सरकार से अपनी दूरी बनाए रखी है, और जो किसी पुनर्वास के फेर में सरकार को खुश करने में नहीं लगे रहे।
वैसे तो आज देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अधिक फिक्र करना देश से गद्दारी में गिना जा रहा है, फिर भी जब कभी भारतीय संसद का इतिहास दर्ज होगा, उसमें यह अच्छी तरह दर्ज होगा कि देश का एक मुख्य न्यायाधीश देश के सर्वोच्च सदन को कितना सस्ता सामान समझते रहा है। अपने पुराने गलत फैसलों, और गलत चाल-चलन का बचाव करते हुए लोग किस तरह आगे और गलत काम करते चलते हैं, यह मिसाल देश के लोगों को भूलना नहीं चाहिए।
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