संपादकीय
ब्रिटेन की खबर है कि वहां हिन्दुस्तानी उद्योगपति टाटा की एक कंपनी लैंड रोवर जगुआर ने घोषणा की है कि वह अब सिर्फ इलेक्ट्रिक कारें बनाएगी। अगले बारह महीनों में ऐसी कार सडक़ों पर आ जाएगी, और पेट्रोल-डीजल की कारें बनाना कंपनी बंद कर देगी। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान की राजधानी नई दिल्ली में राज्य की केजरीवाल सरकार ने घोषणा की है कि वह दिल्ली का प्रदूषण घटाने के लिए वहां बिजली, यानी बैटरी, से चलने वाली गाडिय़ों को बढ़ावा देगी। राज्य सरकार इन गाडिय़ों के रजिस्ट्रेशन में लाखों की रियायत भी दे रही है, और बैटरी-ऑटोरिक्शा पर अनुदान भी। राज्य सरकार ने 2024 तक राजधानी के एक चौथाई वाहनों के बैटरी से चलने वाले होने का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य भी सामने रखा है। केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक बहुत से लोग अपने लिए बैटरी-कारें इस्तेमाल करने लगे हैं।
यह वक्त बाकी विकसित दुनिया के साथ-साथ हिन्दुस्तान जैसे देश के लिए भी जागने और सम्हलने का है कि कैसे यहां शहरों में बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों या दुपहियों की चार्जिंग का एक ढांचा तैयार हो सकता है ताकि लोग इनके इस्तेमाल की तरफ बढ़ें। गाडिय़ों में अधिकतर ऐसी रहती हैं जो कि एक बार चार्ज की गई बैटरी से पूरा दिन निकाल सकती हैं। लेकिन लोग लंबे सफर पर जाने पर भी गाडिय़ां तो बदल नहीं सकते, इसलिए लोगों की गाडिय़ों के हिसाब से शहरों के साथ-साथ प्रमुख हाईवे पर भी चार्जिंग का इंतजाम होने पर ही इनका इस्तेमाल बढ़ेगा।
इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सार्वजनिक जगहों पर पेट्रोल-डीजल पंपों की तरह बिजली के चार्जिंग पॉईंट काफी संख्या में लगाने पड़ेंगे ताकि लोग बेधडक़ इन्हें लेकर निकल सकें। केन्द्र और राज्य सरकारों के बड़ी कंपनियों और स्कूल-कॉलेज जैसे भीड़ भरे संस्थानों को चार्जिंग के इंतजाम के लिए टैक्स में छूट या अनुदान देने की योजना भी बनानी चाहिए ताकि लोग अपने कर्मचारियों या छात्र-छात्राओं को चार्जिंग पॉईंट दे सकें। इसे सरकारी रियायत या अनुदान के बजाय पर्यावरण को बचाने और सुधारने के खर्च के रूप में देखना चाहिए।
लेकिन पर्यावरण को बचाना एक बड़ा जटिल मुद्दा है जिसका अतिसरलीकरण करके उसे नहीं समझा जा सकता। बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों में दो किस्म के प्रदूषण बढ़ेंगे, इनमें से एक तो बिजलीघरों का है, और दूसरा हर कुछ बरस बाद बेकार हो जाने वाली बैटरियों का। जिस तरह दुनिया के कई देशों में गाडिय़ों के टायर इस्तेमाल के बाद पहाड़ की तरह ढेर हो रहे हैं, उसी तरह एक नौबत बैटरियों को लेकर भी आ सकती है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों को बैटरी गाडिय़ों की बैटरियों की जिंदगी बढ़ाने, और उन्हें ठिकाने लगाने के बारे में भी साथ-साथ सोचना होगा।
हम हिन्दुस्तान के मामूली शहरों में भी अब बड़ी संख्या में बैटरी-ऑटोरिक्शा देख रहे हैं। ये गाडिय़ां दिन में अधिक से अधिक घंटे चलती हैं, और अधिक से अधिक किलोमीटर तय करती हैं। जब डीजल के बजाय ये बिजली-बैटरी से चलकर बिना धुएं काम करती हैं, तो शहर की हवा में जहर बढऩा थम जाता है। इसलिए ऐसी गाडिय़ों को बढ़ावा देने वाले बिजली के ढांचे को शहरी विकास के लिए जरूरी मानना चाहिए, और स्थानीय संस्थाओं को भी यह काम आगे बढ़ाना चाहिए। केन्द्र और राज्य के स्तर पर लंबे सर्वे के बाद ऐसी योजना बनानी चाहिए कि सभी तरह की बैटरी गाडिय़ां दिन और रात में जिन इलाकों में कई घंटे खड़ी रहती हैं, और उन जगहों पर चार्जिंग का कैसा इंतजाम हो सकता है। इस काम में हजारों लोगों को एक नया रोजगार मिल सकता है। और ऐसे चार्जिंग स्टेशन कारोबारियों के लिए एक नया व्यापार भी हो सकते हैं जहां वे मामूली लागत के बाद कुछ कर्मचारियों की मदद से पेट्रोल पंप की तरह बिजली पंप चला सकें। कुल मिलाकर बैटरी-गाडिय़ों के लिए सहूलियतों से परे टैक्स में छूट, बिजली के रेट में छूट, बैटरियों में रियायत का इंतजाम करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग आने वाले बरसों में पेट्रोल-डीजल से बिजली की तरफ मुड़ सकें। आज जितनी जरूरत लोगों में जागरूकता की है, उससे कहीं अधिक जरूरत सरकारों में कल्पनाशीलता की है कि शहरों को छांटकर उनमें ढांचा कैसे विकसित किया जाए, और जब पॉवरग्रिड में बिजली का इस्तेमाल कम रहता है, उन घंटों में गाडिय़ों की बैटरी री-चार्ज करने का इंतजाम कैसे हो सकता है। टेक्नालॉजी तो मौजूद हैं, उसके कल्पनाशील उपयोग की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)