संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दलबदल कानून की सलाखों के आरपार परकाया प्रवेश जारी
20-Feb-2021 5:14 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दलबदल कानून की सलाखों के आरपार परकाया प्रवेश जारी

देश के पिछले आम चुनाव में न सिर्फ एनडीए गठबंधन को, बल्कि उसकी मुखिया भाजपा को अपने दम पर इतनी सीटें मिल गई थीं कि सरकार बनाने के लिए किसी बाहरी सांसद की जरूरत नहीं थी, वरना उस वक्त भी देश भर की पार्टियों से सांसद कूद-कूदकर भाजपा में चले गए होते। आज जब बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं तो शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो जब सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लोग भाजपा में न जा रहे हों। यह सिलसिला ऐसे दूसरे राज्यों में भी चलेगा जहां पर विधानसभा के चुनाव होने हैं। एक-एक करके देश के कई राज्यों में गैरभाजपाई सरकारें पलट दी गई हैं, और अब तो धीरे-धीरे बदनाम ईवीएम की चर्चा भी ठंडी पड़ गई है कि उसकी वजह से भाजपा की सरकार बन रही है। अब तो लोग वोट किसी भी पार्टी के निशान पर डालें, उसके विधायक, और सांसद भी, जाते भाजपा में ही हैं। भारतीय लोकतंत्र में भाजपा एकध्रुवीय ताकत बन गई है, और यह ताकत बढ़ती ही चल रही है। 

लेकिन हम अपनी पहले की बात को यहां दुहराना चाहते हैं जिसका भाजपा की ताकत से कोई लेना-देना नहीं है। हमारी बात मोटेतौर पर लोकतंत्र में दलबदल की है, और खासकर चुनावी दलबदल की है। संसद और विधानसभाओं में दलबदल को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था जिसके हिसाब से दलबदल करने वाले की सदन की सदस्यता खत्म हो जाती थी। उससे पार पाने के लिए अब किसी पार्टी में एक तिहाई सदस्यों को अलग करके नई पार्टी बना दी जाती है, और दलबदल कानून से बच लिया जाता है। दूसरा तरीका यह होता है कि चुनाव के ठीक पहले किसी पार्टी के सांसदों और विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें दूसरी पार्टी अपने निशान पर चुनाव लड़वा लेती है, और पूरी जिंदगी किसी पार्टी को चूसकर चलने वाले लोग रातों-रात अगले पांच बरस चूसने के लिए एक नई देह ढूंढ लेते हैं। 

हम बरसों से इस बारे में लिखते आ रहे हैं कि किसी एक पार्टी के निशान पर जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने वाले लोग अगर उस पार्टी से इस्तीफा देते हैं, या सदन से इस्तीफा देते हैं, तो उनके पांच बरस तक किसी भी पार्टी या निशान से चुनाव लडऩे पर रोक लगनी चाहिए। लोग अगर अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में इस्तीफा देते हैं तो अगले चुनाव में भी उनके चुनाव लडऩे पर रोक लगनी चाहिए। कानून के बेहतर जानकार ऐसी रोक को लोगों के बुनियादी हक के खिलाफ मान सकते हैं, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि लोगों के बुनियादी हकों से परे लोकतंत्र की एक बुनियादी जरूरत भी होती है। और अगर संसद या विधानसभाओं को नीलामी की किसी मंडी का चबूतरा बना दिया जाए, तो यह बात लोकतंत्र के बुनियादी हक के खिलाफ है। हिन्दुस्तान में राजनीति का इससे घटिया और कोई दौर कभी नहीं आया जब खरीदने और बेचने के धंधे में शर्म पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। अब लोग वोट डालते हुए चाहे जो चेहरा, या चाहे जो निशान देखकर वोट डालते हों, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है। कोई लोकतंत्र भला ऐसे कैसे चल सकता है कि जनता किसी को भी वोट दे, और सरकार किसी और की भी बनती चले, मंझधार में डूबती चले, और साथ-साथ जनमत को भी गहरे डुबाती चले? यह सिलसिला जनता के मन में संसदीय राजनीति, नेताओं, और पार्टियों के बीच एक ऐसी हिकारत भर चुका है कि जिसकी अनदेखी आज मुश्किल नहीं है क्योंकि राजनीति संवेदनाशून्य हो गई है, राजनीति के कोई मूल्य नहीं रह गए हैं, कोई नैतिकता नहीं रह गई है। 

अब सवाल यह उठता है कि कानून बनाने का हक संसद के भीतर जिस बहुमत का रहता है, आज का वह बहुमत बहुत सक्रियता से जनमत को खारिज करने के शगल में लगा हुआ है। आज देश में सबसे अधिक दलबदल भाजपा के करवाए हो रहे हैं, सबसे अधिक सरकारें भाजपा गिरवा रही है, दूसरी पार्टियों से लोगों को लाकर अपनी टिकट पर संसद और विधानसभा में भाजपा पहुंचा रही है, तो ऐसे में दलबदल के खिलाफ नया कानून भाजपा की लीडरशिप वाला बाहुबल भला क्यों बनाएगा? अगर दलबदलुओं के चुनाव लडऩे पर अपात्रता का कोई कानून बनेगा तो उससे सबसे बड़ा नुकसान तो भाजपा की रणनीति को ही होगा। इसलिए हमारी लिखी हुई यह बात बिना संभावनाओं वाली एक नैतिक-सैद्धांतिक बात है जिसका कोई भविष्य नहीं है। लेकिन आगे अगर वक्त बदलेगा, संसद और विधानसभाओं में शक्ति संतुलन बदलेगा, तो देश के राजनीतिक दलों पर ऐसा दबाव जरूर डालना चाहिए कि वे खरीद-फरोख्त का, आत्मा को अचानक जगाने का यह धंधा बंद करें। एक वक्त था जब हरियाणा से दलबदल के लिए शुरू हुए आयाराम-गयाराम जैसे शब्द को खत्म करने के लिए दलबदल विरोधी कानून बनाया गया था। आज उस कानून को दशकों पहले की पेनिसिलिन की तरह बेअसर कर दिया गया है, और आज का भारतीय राजनीतिक परकाया प्रवेश इस कानून की सलाखों के आरपार रात-दिन हो रहा है। जो लोग हिन्दुस्तान में लोकतंत्र चाहते हैं उन्हें चाहिए कि इस बात को कम से कम बहस में जिंदा रखें, कम से कम उन पार्टियों के बीच इसे बढ़ाएं जो कि इस धंधे में नहीं लगी हैं, और आने वाले वक्त में संभावनाएं देखकर पार्टियों को मजबूर करें कि इस धंधे के खिलाफ एक नया कानून बने। कुछ दशकों के भीतर दलबदल कानून पूरी तरह से बेअसर हो चुका है, और भारतीय चुनावी लोकतंत्र मंडी में चबूतरे पर खड़े तन और मन नीलाम कर रहा है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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