विचार / लेख
-मनोज खरे
हिंदू धर्म और हिंदुओं को लंबे समय से खतरे में बताया जा रहा है। तो जरूरी है कि हम पहले इस बात की पड़ताल करें कि हिंदुओं को असली नुकसान पहुंचाने वाले ऐसे आंतरिक कारक कौन से जिन्होंने हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज को लगातार नुकसान पहुंचाया है और कमजोर किया है। ऐसे तमाम कारक हमारे अंदर मौजूद हैं जिनमें से चार सबसे प्रमुख हैं।
पहला कारक जो सभी अच्छी तरह से जानते हैं जाति प्रथा है। जाति प्रथा समाज की एकता और समरसता में स्मरणातीत काल से बड़ी बाधा बनी हुई है। समाज के बड़े हिस्से पर यह कैसे अमानवीय और अत्याचार का कारण रही है, यह बताने की जरूरत नहीं है। इसके कारण अधिकाधिक लोग हिन्दू धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म अपनाने के लिए प्रेरित हुए। प्रारम्भ में अपनी आर्थिक संपन्नता के बावजूद सामाजिक स्थिति से असंतुष्ट वणिक समुदाय बौद्ध और जैन धर्म अपनाने को आकृष्ट हुआ। इस्लाम आने के बाद हिंदुओं के मिस्त्री, कारीगर और बुनकर वर्ग की जातियों ने बड़ी संख्या ने इस्लाम धर्म में धर्मांतरण किया। इसी तरह ईसाई धर्म को अपनाने वालों में भी हिन्दू धर्म की दबाई-कुचली जातियों, दलित और आदिवासी की बड़ी संख्या रही। जाति प्रथा के कारण राज्य की रक्षा का भार क्षत्रिय जाति के कंधे पर रहा जिसके कारण विदेशी हमलों का सामना समाज एकजुट होकर नहीं कर पाया। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति में भी जाति प्रथा आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के रूप एक अलोकतांत्रिक उपकरण बन गई है।
दूसरा कारक, जिसने हिंदुओं को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया, पुनर्जन्म का सिद्धांत है। पुनर्जन्म में विश्वास ने समाज को असाधारण रूप से संघर्षहीन, समझौतापरस्त, भाग्यवादी और सहनशील बनाकर रखा है। लोग हर तरह के अन्याय, अत्याचार और दुश्वारियों को पिछले जन्म के कर्मों का फल मानकर भुगतते रहे। एक समाज के रूप में अन्याय से लडऩे की प्रवृत्ति बहुत कमजोर रही। 'कोऊ नृप होय, हमें का हानि' जैसी भावना का उदय भी समाज में इसी का प्रतिफल था। आज इसी का परिणाम है कि दुनिया में जैसा भाग्यवाद भारत में विद्यमान है शायद ही दुनिया में कहीं और हो।
तीसरा कारक है अवतारवाद। जब दुनिया में अनर्थ-अत्याचार बढ़ता जाएगा तो एकदिन कोई अवतारी पुरुष आएगा सब अत्याचार-अन्याय खत्म कर देगा। इस विश्वास में लोग अकर्मण्य हो अवतार, त्राता या तारणहार की प्रतीक्षा में ही बैठे रहते हैं। इसी चक्कर में बहुतेरे बाबा और नेता मसीहा का रूप धर जनता को उल्लू बना कर अपने स्वार्थ सिद्ध करने का मौका पाते हैं। राजनीति में व्यक्तिपूजा के पीछे भी कहीं न कहीं यही धारणा काम करती है।
चौथा कारक सत्यनारायण व्रत कथा जैसी कहानियां हैं जिन्होंने हिंदू धर्म में ईश्वर की एक ऐसी अवधारणा विकसित की जो छोटी-छोटी बातों में नाराज हो जाता है और अपने भक्तों को दंड देने लगता है। क्षणे रुष्ट: क्षणे तुष्ट:। सत्यनारायण को प्रतिशोधनारायण बना दिया। भक्ति काल में हिन्दू ईश्वर प्रेम का स्वरूप था। भक्त और ईश्वर का सम्बंध प्रेमी-प्रेमिका जैसा था। पर आधुनिक युग तक आते-आते हमारे धार्मिक साहित्य ने ईश्वर का एक ऐसा रूप गढ़ दिया जो हमेशा अपने भक्त पर आंख गड़ाए यह देखता रहता है कि उसकी समुचित पूजा हो रही है या नहीं, लोग अपने बोल-बदना पूरे कर रहे हैं या नहीं। अगर नहीं तो ईश्वर परदेस से कमा कर लाए धन को 'लत्रं-पत्रं' में बदलने, शारीरिक व्याधि या काम-धंधा नष्ट करने जैसे दंड देने को तत्पर बैठा है। ईश्वर की ऐसी 'दंडाधिकारी' या दारोगा वाली अवधारणा ने हिंदुओं को अत्यंत धर्मभीरु समाज में बदल डाला जो दिनरात भगवान से डरा रहता है। हर काम करते वक्त वह सशंकित रहता है कहीं उसका काम ईश्वर को नाराज न कर दे।
ऐसे और भी कारक हो सकते हैं। पर ये चार मुख्य नजर आते हैं जो हिन्दू समाज की प्रगति में बाधक हैं। आधुनिक समाज में हिन्दू धर्म को इन्हीं आंतरिक तत्वों से ज्यादा खतरा है। तो लडऩा है तो हिन्दू धर्म के अंदर बैठे इन शत्रुओं से लडिय़े। इनमें जरूरी सुधार-परिष्कार करिए।