संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गरीब-बहुतायत वाली संसद-विधानसभा सीटें गरीब-आरक्षित क्यों नहीं?
23-Feb-2021 6:39 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गरीब-बहुतायत वाली  संसद-विधानसभा सीटें गरीब-आरक्षित क्यों नहीं?

हिन्दुस्तान में चुनाव और राजनीति का सर्वे करने वाले एक गैरसरकारी संगठन की खबर हर प्रदेश या राष्ट्रीय चुनाव के समय आती है कि उम्मीदवारों की अपनी घोषणा के मुताबिक वे कितने करोड़ की दौलत के मालिक हैं। फिर जब चुनाव हो जाता है तब एक बार फिर विश्लेषण आता है कि संसद या किस विधानसभा में कितने अरबपति या कितने करोड़पति पहुंचे हैं। हिन्दुस्तान की तस्वीर अब ऐसी बन गई है कि हर चुनाव सदनों में और अधिक करोड़पति, और अधिक अरबपति पहुंचा देता है। नतीजा यह होता है कि देश के सबसे गरीब लोगों की तकलीफों को रूबरू देखने और समझने वाले लोग देश के सदनों में एकदम कम हो गए हैं। इस मुद्दे पर लिखना आज इसलिए सूझा कि पड़ोस के मध्यप्रदेश में बैतूल के कांग्रेस विधायक निलय डागा के घर से इंकम टैक्स छापे में साढ़े 7 करोड़ रूपए नगद मिले हैं। इनके पास से अब तक कुल 8.10 करोड़ रूपए नगद मिले हैं, और 5 बैंक लॉकर खुलना बाकी है। 

लेकिन यह बात महज कांग्रेस के एक विधायक के साथ हो ऐसा भी नहीं है। अधिकतर पार्टियों के बहुत से नेताओं के पास काली कमाई बढ़ते चलती है, और जाहिर है कि राजनीतिक ताकत को दुहकर इस तरह कमाने वाले लोगों को जनता के प्रति जवाबदेह रहने की जरूरत भी नहीं रहती क्योंकि ऐसे लोग बहुत सारे मामलों में टिकट खरीद लेते हैं, या जीत खरीदने की संभावना साबित करके किसी बड़ी पार्टी की टिकट पा लेते हैं, बहुत लंबा कालाधन खर्च कर चुनाव जीत लेते हैं, और फिर अपने आपको बेचने की मंडी में पेश कर देते हैं। 

क्या अब ऐसे चुनाव सुधार का वक्त आ गया है जब गैरकरोड़पति लोगों के लिए चुनाव टिकटों में एक आरक्षण लागू किया जाए? क्या गरीब आबादी की बहुतायत वाली सीटों को गरीब उम्मीदवारों के लिए ही आरक्षित रखा जाए? जिस तरह देश या कुछ राज्यों में गरीब अनारक्षित तबके के लिए भी पढ़ाई या नौकरी में आरक्षण लागू हो रहा है, उसी तरह गरीब अनारक्षित के लिए लोकसभा और विधानसभा की अनारक्षित सीटों में से कुछ को तय किया जाए? 

अगर देश के गरीबों की तकलीफों की समझ संसद और विधानसभाओं से घटती चली जाएगी, तो वह बात बजट से लेकर दूसरे हर किस्म के विधेयक और कानून पर बहस पर भी असर डालेगी। लोग गरीबों के हित की न सोच पाएंगे, न बोल पाएंगे। इसकी एक छोटी सी मिसाल छत्तीसगढ़ की विधानसभा में पिछली भाजपा सरकार के पहले या दूसरे कार्यकाल में देखने मिली। सरकार ने विधानसभा में एक संशोधन पेश किया कि शहरी कॉलोनियों में गरीब तबके के लिए भूखंड छोडऩे की अनिवार्यता खत्म की जाती है, और उसके एवज में कॉलोनी बनाने वाले लोग सरकार को एक भुगतान कर सकेंगे जिससे सरकार शहर के आसपास अपनी किसी खाली जमीन पर छोटे आवास बनाकर बेघर लोगों को देगी। हर कॉलोनी में कमजोर तबके के लिए भूखंड रखने की शर्त के पीछे बड़ी व्यवहारिक सोच थी कि संपन्न लोगों के घरों में काम करने वाले लोगों को वहीं कॉलोनी में रहने मिल जाएगा जिससे दोनों तबकों को सहूलियत होगी। अब जब किसी कॉलोनी से कई किलोमीटर दूर गरीबों के घर बन रहे हैं, तो जाहिर है कि वहां से महिलाओं को काम पर आने में दिक्कत होती है, वे अपने घर के काम, अपने बच्चों को छोडक़र आसानी से नहीं आ पातीं, और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता इस एक अनिवार्यता के खत्म होने से बहुत बुरी तरह प्रभावित हो रही है। लेकिन विधानसभा में उस वक्त विपक्ष के कांग्रेस विधायकों को भी ऐसी कोई सामाजिक दिक्कत समझ नहीं आई, और यह संशोधन पास हो गया। 
जिस तरह विधायकों और सांसदों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आधार पर सीटें आरक्षित रहती हैं, जिस तरह पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव में अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवार, महिला या ओबीसी उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं, उसी तरह गरीब आबादी वाली सीटों को गरीब उम्मीदवारों के लिए आरक्षित क्यों नहीं किया जा सकता? हो सकता है कि आज भाजपा और कांग्रेस जैसी जमी-जमाई और बड़ी पार्टियों के बीच यह सोचने में भी दिक्कत होगी कि वे किसी गरीब को कहां से ढूंढेंगे? लेकिन ऐसा ही सवाल तो उस वक्त भी हुआ था जब म्युनिसिपल और पंचायतों में महिला आरक्षण लागू किया गया था। उसके बावजूद हर गांव-कस्बे और शहर में महिला उम्मीदवार मिलती ही हैं। 

यह भी हो सकता है कि ऐसी कोई व्यवस्था लागू हो, और अपने-आपको गरीब साबित करने के लिए लोग अपनी दौलत परिवार के दूसरे लोगों के नाम करके एक फर्जी सर्टिफिकेट जुटा लें, लेकिन ऐसे फर्जीवाड़े से बचने के लिए यह शर्त भी लागू की जा सकती है कि आश्रित परिवार या खुद के पास पिछले कितने बरसों में किस सीमा से अधिक संपत्ति न रही हो। जिन लोगों को आज का यह तर्क केवल खयाली पुलाव या जुबानी जमाखर्च लग रहा है, उन्हें देखना चाहिए कि देश की संसद और विधानसभाओं में रात-दिन गरीबों के हित किस तरह कुचले जा रहे हैं। जिस तरह आज सौ दिन पूरे करने जा रहे किसान आंदोलन की वजह से कुछ किसानी मुद्दे राजनीतिक दलों के बीच चर्चा का सामान बन पाए हैं, उसी तरह गरीबों के मुद्दे एक बार फिर चर्चा में लाने की जरूरत है। बड़ी और स्थापित पार्टियां ऐसा करना नहीं चाहेंगी, लेकिन गरीबों के हिमायती मुखर लोगों और संगठनों को ऐसी बहस छेडऩी चाहिए जो कि चाहे गरीब-आरक्षण तक न पहुंच पाए, लेकिन गरीब-मुद्दों तक तो पहुंच ही सके। जब अरबपतियों को लगेगा कि उनकी सीटें गरीब-मुद्दों की वजह से गरीब-आरक्षित हो सकती हैं, तो हो सकता है कि अरबपति भी भाड़े पे कुछ लोगों को रखकर गरीब मुद्दों को तलाशने, समझने, और उठाने का काम करें। 

देश की तीन चौथाई आबादी गरीब है, और शायद दो-चार फीसदी सांसद-विधायक भी गरीब नहीं हैं। इस नौबत को बदलने की जरूरत है। आर्थिक आधार पर आरक्षण महज पढ़ाई और नौकरी तक सीमित न रहे, संसद और विधानसभा की सीटों का भी आर्थिक-आधार पर आरक्षण किया जाना चाहिए।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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