संपादकीय
फोटो : सोशल मीडिया
हिन्दुस्तानी लोगों का सब्र बड़ा बड़ा रहता है। गैरजरूरी और नाजायज नोटबंदी की वजह से देश के एटीएम पर लगी कतार में लोगों को मरते देखकर भी लोगों का सब्र था कि यहां तो दो-तीन दिन ही कतार में लगना पड़ रहा है, कारगिल में तो हमारे फौजी छह-छह महीने बर्फ में चौकसी करते हैं। कोई और तकलीफ आई तो लोगों ने मन को बहलाने का कोई और बहाना ढूंढ निकाला। अब डीजल और पेट्रोल के दाम सरकार ने नाजायज तरीके से आसमान पर बनाए रखे हैं, तो भी केन्द्र सरकार के अनुयायी भक्तजन सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि शेर पालना महंगा पड़ता है तो क्या गधा पाल लिया जाए? ऐसा सब्र कम ही लोकतंत्रों में होता होगा कि मोदी सरकार के चलते अगर महंगाई आसमान पर है, तो भी उनके भक्तों का सब्र बना हुआ है। अब हिन्दुस्तान में शेर अपने आपमें एक बड़ी अजीब मिसाल है। वह शेर जो इंसानों के किसी सीधे काम नहीं आता, जो इंसानों के पालतू जानवरों को भी मारता है, और कभी-कभी इंसानों को भी, उसे हिन्दुस्तान अपना राजकीय पशु बनाकर चल रहा है। जो सीधे-साधे बैल पूरी जिंदगी हिन्दुस्तानी खेतों को जोतते रहे, अनाज उगाकर भुखमरी खत्म करते रहे, वे सरकार की किसी लिस्ट में ही नहीं है। राजकीय पशु होने का सौभाग्य तो उस गाय को भी नहीं मिला जिसे बचाने के लिए पूरी सरकार और कई राजनीतिक दल, कई हिन्दू संगठन अपना सब कुछ दांव पर लगाते हुए दिखते हैं, और जिसका दूध पीकर करोड़ों हिन्दुस्तानी बड़े होते हंै। इसलिए हिन्दुस्तानी सब्र बड़ा अजीब है, जिस शेर को न जोता जा सकता, न दुहा जा सकता, जो न चौकीदारी करता, वह राजकीय पशु बना दिया गया, फिर भले वह लोगों को महज मारने का काम ही क्यों न करे!
लोगों का सब्र लोकतंत्र को हाशिए पर कर दिए जाने पर भी बना हुआ है। एटीएम-मौतों पर लोगों को कारगिल दिखता था, और लोकतंत्र के औजार-बक्से को देश का गद्दार साबित करने के लिए लोगों के पास इमरजेंसी की मिसाल है ही। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का जितना नुकसान इमरजेंसी ने नहीं किया था, उससे अधिक नुकसान अलोकतांत्रिक बातों को जायज ठहराने के लिए बाद में उसकी मिसाल ने किया। आपातकाल के गुजरे जमाना हो गया, उसे लगाने वाली इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी ने चुनावों में उसका दाम चुकाया, और भरपाई के बाद फिर चुनाव में कामयाबी भी पाई, बार-बार जीत हासिल की, लेकिन इमरजेंसी की मिसाल तो बनी ही हुई है।
हिन्दुस्तान में किसान आंदोलन का साथ देते हुए उसके पक्ष में दुनिया के सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच समर्थन जुटाने की एक हिन्दुस्तानी युवती की कोशिश ने उसे जेल पहुंचा दिया। इस सामाजिक कार्यकर्ता को देश का गद्दार करार देने दिल्ली की पुलिस को पल भर नहीं लगा, और उसकी जमानत का विरोध करना तो पुलिस का जिम्मा ही था। लेकिन कल जब उसे जमानत दी गई, तो जज ने जो लिखा है, कहा है, वह आज के इस गद्दार-करार-देने-के-शौकीन-लोकतंत्र में पढऩे लायक है। जज ने कहा- मुझे नहीं लगता कि एक वॉट्सऐप ग्रुप बनाना, या किसी हानि न पहुंचाने वाले टूलकिट का एडिटर होना कोई जुर्म है। जज ने कहा- तथाकथित टूलकिट से पता चलता है कि इससे किसी भी तरह की हिंसा भडक़ाने की कोशिश नहीं की गई थी।
जज ने जमानत देते हुए कहा- ‘मेरे ख्याल से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। सिर्फ इसलिए कि वो राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उससे चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए जरूरी औजार हैं। एक जागरूक और मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार मजबूती से दर्ज है। महज पुलिस के शक के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। एक नागरिक के पास कानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। ये समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक प्लेटफॉर्म देने की तोहमत कैसे लगाई गई है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, सिर्फ इसलिए कि वो सरकारी नीति से सहमत नहीं हैं, उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा इस्तेमाल नहीं हो सकता। सरकार के जख्मी गुरूर पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी अलग-अलग विचारों का सम्मान करने के हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का जिक्र है। ऋग्वेद का एक श्लोक कहता है- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके, और जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।’
कल के अदालत के इस आदेश के बाद सोशल मीडिया पर देश भर के लोग इसकी तारीफ कर रहे हैं, और यह लिख रहे हैं कि देश के आज के माहौल में लोकतंत्र को समझने के लिए इस आदेश को पढ़ा जाना चाहिए। जिन लोगों को हिन्दुस्तान में इमरजेंसी का इतिहास याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि इंदिरा गांधी के चुनावी फैसलों से असहमत एक जज ने उनकी चुनावी जीत को खारिज कर दिया था, और उसके बाद विदेशी साजिश के हाथ की तोहमत लगाते हुए इंदिरा ने इमरजेंसी लगाई थी जिसने हिन्दुस्तान में गैरकांग्रेसवाद की एक जमीन तैयार की थी, और नेहरू की बेटी का नाम काले अक्षरों में लिखा था, और देश की पहली गैरकांग्रेसी, कांग्रेस-विरोधी सरकार को मौका दिया था। लोगों को याद होगा कि इमरजेंसी के दौर में भी सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे जज थे जिन्होंने उसके खिलाफ जमकर लिखा था, और अदालत की इज्जत को बचाया था, बढ़ाया था। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि आज जब देश की सबसे बड़ी अदालत के बड़े-बड़े जज भारतीय न्यायपालिका की साख चौपट कर रहे हैं, तो दिल्ली की एक स्थानीय अदालत के एक एडिशनल सेशन जज धर्मेन्द्र राणा ने लोकतंत्र की एकदम खरी और खालिस व्याख्या करके इस सामाजिक कार्यकर्ता युवती को जमानत दी है, और सरकार के लापरवाही से दिए जा रहे देश के साथ गद्दारी के फतवों को खारिज किया है।
हिन्दुस्तान के लोगों का जो असाधारण सब्र तकलीफ झेलने के लिए बना हुआ है, उसे भी यह जमानत आदेश झंकझोरता है। लोकतंत्र को जिंदा रखने के नाम पर अगर लोकतंत्र को कुचला जा रहा है, और जनता को उसमें कुछ भी खराब या बुरा नहीं दिख रहा है, तो इस नौबत को बदला जाना चाहिए, और उसके लिए एक छोटी सी टूलकिट अदालत के इस जमानत-आदेश की शक्ल में सामने आई है। हिन्दुस्तान के अलग-अलग बहुत से धर्मों ने लोगों को सब्र रखना इस हद तक सिखा दिया है कि वे जुल्म, तानाशाही, और बेइंसाफी की नौबत में भी सब्र धरे बैठे रहते हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र सब्र की भावना में फलने-फूलने वाला पेड़ नहीं है, उसके लिए जिम्मेदारी भी इंसाफपसंद भावना जरूरी होती है। देश के भक्तजनों को कल के इस अदालती आदेश को पढऩा चाहिए जो कि देश की किसी बहुत बड़ी अदालत का तो नहीं है, लेकिन आज के माहौल में देश की एक छोटी अदालत का बहुत बड़ा आदेश जरूर है। और चूंकि इस जज ने जमानत देते हुए भारत की पांच हजार साल पुरानी सभ्यता और ऋग्वेद का भी जिक्र किया है, इसलिए भारतीय संस्कृति के वकीलों को इसे खारिज करना कुछ मुश्किल भी पड़ेगा।