संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 130 करोड़ आबादी के पीएम ने खुद को क्यों किया स्टेडियम में कैद?
25-Feb-2021 2:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 130 करोड़ आबादी के पीएम ने खुद को क्यों किया स्टेडियम में कैद?

भारत-इंग्लैंड की खबरों में चल रही टेस्ट क्रिकेट सिरीज के बीच अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम कर दिया गया। एक लाख दस हजार क्षमता वाला यह स्टेडियम सरदार पटेल स्पोटर््स एन्क्लेव के भीतर मौजूद है, और उस एन्क्लेव का यही सबसे बड़ा, प्रमुख, और चर्चित ढांचा है। इसे दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम होने का फख्र हासिल है, और यह दुनिया में किसी भी तरह के स्टेडियमों में दूसरे नंबर पर है। इसे 1983 में उस वक्त की कांग्रेस सरकार ने बनवाया था, और 2006 में भाजपा के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में इसे पूरी तरह तोडक़र 800 करोड़ की लागत से दुबारा बनाया गया था। इस स्टेडियम को पहले गुजरात स्टेडियम कहा जाता था, फिर इसका नाम सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर रखा गया। इसके लिए 1982 में गुजरात की कांग्रेस सरकार ने सौ एकड़ जमीन दी थी, और 9 महीने में सरदार पटेल स्टेडियम को पूरा किया गया था। अभी जब भारत और इंग्लैंड का यह टेस्ट मैच इस स्टेडियम में तय हुआ तब तक इसका नाम मोटेरा स्टेडियम था, और मैच के दिन ही इसका नाम बदलकर नरेन्द्र मोदी स्टेडियम किया गया। 

कल जब यह नया नामकरण हुआ तो देश के बहुत से लोगों ने यह याद दिलाया कि स्टेडियम का नाम तो सरदार पटेल के नाम पर था, और उनका नाम हटाकर मोदी का नाम उन्हीं के सत्ता में रहते हुए ठीक नहीं है। और सोशल मीडिया पर लोगों ने इस पर जमकर लिखा। भाजपा के बहुत से नेता इस पर हक्का-बक्का थे, उनमें से एक नेता ने अनौपचारिक आपसी चर्चा में कहा कि भाजपा के लोग तो पूरे देश को मोदी का मानते थे, अब मोदी ने अपने आपको एक स्टेडियम तक सीमित कर लिया। 

लेकिन हिन्दुस्तान में नामकरणों का इतिहास खासा पुराना है, और विवादों से भरा हुआ भी है। कल से ही मोदी समर्थकों ने यह याद दिलाना या लिखना शुरू किया है कि नेहरू ने अपने शासनकाल में ही अपने आपको भारतरत्न की उपाधि दे दी थी। हालांकि दूसरे जानकार लोगों का यह कहना है कि उस वक्त के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सार्वजनिक और औपचारिक रूप से यह बताया था कि यह फैसला उनका था, और इसका नेहरू से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन इतिहास की तारीखें तो यही बताती हैं कि नेहरू को भारतरत्न नेहरू के कार्यकाल में ही मिला था। और भारतरत्न देने का फैसला देश के राष्ट्रपति निजी हैसियत से नहीं करते, बल्कि केन्द्र सरकार इसे तय करती है। भारत रत्न की औपचारिक प्रक्रिया भी यही थी कि प्रधानमंत्री नाम का प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजते हैं, और वे उसे मंजूर कर लेते हैं। जब 1955 में नेहरू को भारतरत्न दिया गया तो इसकी घोषणा एक कामयाब विदेश यात्रा से लौटे नेहरू के स्वागत में राष्ट्रपति भवन में आयोजित स्वागत-समारोह में राजेन्द्र प्रसाद ने की थी, और इस फैसले को गोपनीय रखा था। राष्ट्रपति ने कहा था कि उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था से परे जाकर, बिना किसी सिफारिश के, या प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल की सिफारिश के बिना खुद होकर यह तय किया था। इसकी खबर भी अगले दिन के प्रमुख अखबारों में छपी थी।  नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच के वैचारिक मतभेद जगजाहिर थे, लेकिन नेहरू की अंतरराष्ट्रीय कामयाबी का सम्मान करने के लिए राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के सारे प्रोटोकॉल तोडक़र नेहरू के स्वागत के लिए एयरपोर्ट गए थे। लेकिन तमाम बातें अलग रहीं, इतिहास तो यही दर्ज करता है कि नेहरू या उनके मंत्रिमंडल ने उन्हें भारतरत्न देने की सिफारिश चाहे न की हो, नेहरू ने उसे नामंजूर तो नहीं किया था, जिसका कि उन्हें पूरा हक था। और ऐसी चुप्पी इतिहास में बड़ी बुरी नजीर के रूप में दर्ज होना तय था। आज जब मोदी के अपने गुजरात में मोदी की अपनी पार्टी की सरकार स्टेडियम का नाम मोदी के नाम पर कर चुकी है, तब भारतरत्न की मिसाल नेहरू विरोधियों के हाथ एक हथियार तो है ही। 

उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने जिस तरह से अंबेडकर, कांशीराम के साथ अपनी प्रतिमाएं लगवाकर और अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की चट्टानी प्रतिमाएं बनवाकर सरकार का शायद हजार करोड़ रूपए खर्च किया था वह मामला तो अदालत तक पहुंचा। लेकिन मायावती और उनकी पार्टी को उस पर कोई अफसोस नहीं हुआ। कुछ ऐसा ही काम दक्षिण भारत में जगह-जगह वहां के मुख्यमंत्रियों को लेकर होता है, और सरकारी खर्च पर उनका महिमामंडन किया जाता है। देश में ऐसी लंबी परंपराओं के चलते हुए आज नरेन्द्र मोदी को पहला पत्थर कौन मारे? कहने के लिए तो भाजपा के नेताओं के बीच भी इस बात को लेकर हैरानी है कि एक पूरे देश के नेता ने अपने आपको अपने जीते-जी एक स्टेडियम तक सीमित कर लिया। बात सही भी है कि जो लोग मोदी को पूरी 130 करोड़ आबादी का नेता मानकर चल रहे थे, उन्हें मोदी का अपने आपको एक करोड़ दस लाख आबादी के स्टेडियम तक सीमित कर लेना निराश कर रहा है। इस देश में नेताओं के गुजरने के बाद उनके सम्मान की भी लंबी परंपरा है। खुद मोदी ने इस परंपरा को अभूतपूर्व ऊंचाई तक पहुंचाया जब उन्होंने जिंदगी भर कांग्रेसी रहने वाले, और आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा को दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाकर रिकॉर्ड कायम किया। इसलिए लोगों के जाने के बाद भी उनके सम्मान की परंपरा रही है। 

अब कुछ दूसरी मिसालों को देखें तो छत्तीसगढ़ में ही 2004-05 में भाजपा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में उस वक्त सरकारी खर्च पर दस हजार ग्राम पंचायतों में अटल चौक बनवाए थे। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी ताजा-ताजा भूतपूर्व प्रधानमंत्री हुए थे, और जीवित थे। छत्तीसगढ़ का इतिहास बताता है कि 2009 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से राज्य के करीब दस हजार गांवों में अटल चौक बनाने की घोषणा की गई थी, जबकि हकीकत यह थी कि अधिकतर जगहों पर अटल चौक बनाए जा चुके थे। कुल मिलाकर अटलजी के जीते-जी उनकी याद में गांव-गांव में अटल चौक सरकारी खर्च पर बनाए गए थे जो कि अब खंडहर भी हो चुके हैं। 

नेहरू और गांधी परिवार के लोगों के नाम पर, इंदिरा और राजीव के नाम पर सडक़ों या सार्वजनिक जगहों और संस्थानों के नामकरण को लेकर इनके आलोचक हमेशा से तीखे सार्वजनिक हमले करते आए हैं। लेकिन नेहरू, इंदिरा, और राजीव के नाम पर उनके जीते-जी नामकरण एकबारगी तो याद नहीं पड़ते हैं। ऐसे में नरेन्द्र मोदी के नाम पर स्टेडियम का नामकरण, और ऐसे स्टेडियम का नामकरण जो कि एक वक्त सरदार पटेल स्टेडियम भी था, यह बात मोदी का सम्मान बढ़ाने वाली नहीं है, उन्हें लेकर एक ऐसा अप्रिय और अवांछित विवाद खड़ा करने वाली है जो दूर तक उनका पीछा करेगा। इस नामकरण से मोदी को विवाद से परे कुछ हासिल हुआ हो यह तो लगता नहीं है, और विवादों से मोदी का कोई नया नाता नहीं है। फिलहाल यह एक पहेली है कि 130 करोड़ आबादी के प्रधानमंत्री ने अपने आपको एक करोड़ दस लाख के स्टेडियम तक सीमित क्यों कर लिया? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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