विचार / लेख

अश्वमेध के घोड़े अगर सोच पाते
27-Feb-2021 6:41 PM
अश्वमेध के घोड़े अगर सोच पाते

Sreedharan-Metro-Man photo from social media

-प्रकाश दुबे

फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से अश्वमेध यज्ञ आरंभ करने की परंपरा थी। यज्ञ का आयोजन करने वाले ठोंक बजाकर अश्व चुनते हैं। तेलंगाना में रक्तक्रांति रोकने के लिए पहले जवाहर लाल नेहरू और आपात्काल लगाने से पहले और पूरे कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने के लिए आचार्य विनोबा भावे को अश्वमेध के लिए सजाया। कुछ लोगों को यह बात नागवार लग सकती है। पश्चिम बंगाल से पुडुचेरी तक दलबदल शब्द का प्रयोग होता है। समय ही बताएगा कि ये योद्धा थे? विजयी हुए, वीरगति को प्राप्त हुए या किसी चुनावी अश्वमेध के बाद प्रसाद के रूप में वितरित किए गए? 

अश्वमेध के घोड़े को अपना अंत पता होता होगा? काजू-किशमिश चबाते समय बकरे को अपनी कुरबानी का पता नहीं होता। उसकी पौष्टिकता स्वाद बनकर दान का गर्व और उत्सव का उल्लास बनकर बिखरती है। महत्वपूर्ण, परंतु काल्पनिक सा सवाल है-घोड़ा क्या सोचता होगा? सज-धज का आनंद। औरों से अलग दिखने का गर्व। पीछे-पीछे भागती श्रद्धालुओं की उत्तेजित भीड़। आरती, पूजा, अभिषेक। उसकी चाल तो बदल जाती है। सोच बदलने में क्षण नहीं लगता। अश्व सोचता होगा-मैं ही शूरवीर। युद्ध विजेता। कागज पर कलम चलाकर राजपाट की रजिस्ट्री करना संभव है। ऐसे प्रसंग से हम आपका मनोरंजन होता है। केन्द्र तथा राज्य की कुलीन सभाओं में प्रवेश मिलता है। धरती को रौंदने वाले अश्व की हिनहिनाहट में विजय का दर्प शामिल है। 

रूसी क्रांति की कूंची से दुनिया के दर्जनों देश लाल हो गए। विचार और कर्म के घालमेल की बदौलत लेनिन रूस और बाद में सोवियत संघ के शिखर पद पर विराजमान हुए। लेनिन के देहांत के बाद सेंट पीटरबर्ग का नाम बदल कर सम्मान स्वरूप लेनिनग्राद किया गया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की आंधी में सत्ता, समय और पुराने विचार उखड़ कर ताश के पत्तों की तरह धराशायी हुए। लेनिनग्राद शहर का नाम फिर सेंट पीटरबर्ग हो चुका है। क्रांति का जनक व्लादिमीर इलीयिच उल्यानोव लेनिन अंतिम दिनों में खुश होकर यह कहने में असमर्थ था कि दुनिया के मजदूरों तुम बड़े जल्दी एकजुट होने लगे। लाल सलाम कहना दूर, एक अक्षर उसके मुंह से नहीं निकलता था। साम्यवाद की तुलना दिग्विजय के लिए किए जाने वाले अश्वमेध यज्ञ से करें। अपने सम्राट के नाम की पट्टी के साथ ऐंठकर चलते हुए घोड़े के पीछे पीछे सेनापति और सेना चलती है। घोड़े का तिलक कर अधीनता स्वीकार करो वरना युद्ध करो। घोड़ा सम्राट का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में ऐसे कई अवसर आए जब घोड़े के आगे अनेक शूर सर नवाजे गए।

गांधी के विचार और कर्म से प्रभावित भारत ने महात्मा और बापू जैसा संबोधन दिया। अहिंसक सत्याग्रह का घोड़ा भारत की स्वतंत्रता का अश्व बना। अश्वमेध यज्ञ पूरा होने के बाद घुड़सवारों ने प्राचीन परंपरा निभाई। उन्होंने घोड़े को अज यानी बकरे के साथ खंभे से बांधा। विधिवत पूजा के बाद अश्व की देह के टुकड़े प्रसाद के रूप में विजयी प्रजा में वितरित किए गए। हर अश्वमेध के बाद लगभग उसी तरीके से यह परिपार्टी अपनाई जाती है। अपने घोड़े से असहमत सम्राट याद नहीं रखा जाता। उसका भी अपने अश्व जैसा ही अंत हाने की आशंका बनी रहती है। अनेक बड़े उदाहरण पाठकों के मन को झकझोरते होंगे। एक अल्पज्ञात मिसाल देना उचित होगा।

डॉ. राम मनोहर लोहिया के बाद गैर कांग्रेसवाद के विचार को नंदमूरि तारक रामाराव ने हथियार बनाया। लोकसभा चुनाव में वर्तमान भाजपा से लेकर हर कांग्रेस विरोधी दल के उम्मीदवार को रामाराव ने उम्मीदवार बनाया। सिर्फ माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने उनका तोहफा लेने से इंकार किया। विचार का अश्व रेड़ लगाकर लक्ष्य के करीब जा पहुंचा। एनटीआर गोता खा गए। अपने को सम्राट समझने की भूलकर पसंद की महिला से विवाह किया। इस बहाने दामादों, बेटियों और समर्थकों ने एनटीआर को सत्ता से बाहर कर दिया। लेनिन का हश्र सर्वश्रूत है।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अपना विचार है। इस विचार की ताकत तब भी थी, जब सत्ता नहीं थी। उस समय कुपु सी सुदर्शन सरसंघचालक थे। उनके निर्देश पर लालकृष्ण आडवाणी को भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। रथयात्री आडवाणी अश्वमेध के घोड़े साबित हुए। आदेशक सुदर्शन जी अंतिम दिनों में याददाश्त खो बैठे थे। भोपाल में टहलने निकले। अचानक सांस थमी। देर तक लोग पहचान नहीं पाए। उनकी ही तरह प्रतिभाशाली कलमकार चलपति राव का काल से मुकाबला हुआ। नेशनल हेराल्ड का संपादक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के लेख में कतरब्यौंत करता था। प्रधानमंत्री बनी बेटी ने निकाल बाहर किया। एक दिन लावारिस लाश मिली। चलपतिराव का नश्वर शरीर। विचार के अश्वमेध के अश्व और घोड़े को रवाना करने वालों का हश्र सर्वविदित है। इसके बावजूद मेट्रोमेन ई श्रीधरन राजनीतिक यज्ञ में हवि देने आतुर हैं। मुख्यमंत्री बनने की उनकी चाह से चकित न हों। तीन महीने से  व्यापक स्तर पर किसान आंदोलन चल रहा है। प्रचार वंचित किसान डटे हुए हैं। उनका संकल्प देखकर अण्णा हजारे जैसे मुनि विश्वामित्र को फिर एक बार प्रचार की अप्सरा मेनका याद आई।

प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवियों की फजीहत की। समय रहते अण्णा हजारे ने अपने आप को संभाला होगा। अचरज इस बात पर हो सकता है कि किसान और कृषि की जानकारी रखने वालों के बीच जाने-पहचाने स्वामीनाथन ने तमिलनाडु के लघु अश्वमेध का घोड़ा बनने की ललक नहीं दिखाई। उन्हें भी तो व्हील चेयर पर बिठाकर मुख्यमंत्री बनाया जा सकता था। याद करिए दिल्ली के चुनाव। किरण बेदी पुलिसिया रोब के साथ सलामी लेने पहुंच गई थीं।

अश्व सोचे या न सोचे। जीत के जयकारे में मस्त, दिग्विजय के लिए अश्व चुनने वाले अश्वमेध के विजयी घोड़ों की वेदना पर विचार करें? उनका काम यज्ञ है। घोड़े सोचते नहीं। घोड़ा बेचकर सोना मुहावरा है। यह तो सब जानते हैं। इसका अर्थ समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। 

 (लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)

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