संपादकीय
हिन्दुस्तान में कोरोना-वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में तरह-तरह के शक भरे हुए हैं। दरअसल जिस आपाधापी में इन वैक्सीन को विकसित करने की खबरें आई हैं, उनकी वजह से भी बहुत से लोग इन्हें वैज्ञानिक पैमानों पर भरोसेमंद नहीं मान रहे हैं। फिर केन्द्र सरकार के तौर-तरीके भी अटपटे हैं। बड़े-बड़े केन्द्रीय मंत्री बाबा रामदेव की कोरोना की दवा पेश करने के लिए मौजूद रहते हैं जहां पर डब्ल्यूएचओ का भी नाम लिया जाता है, जिसका कि बाद में डब्ल्यूएचओ खंडन करता है। केन्द्र सरकार रामदेव को बढ़ावा देने के चक्कर में अपनी बहुत सी बातों की साख खो बैठी है। देश में अब तक विकसित दो कोरोना वैक्सीन में से एक ऐसी रही है जिसे लगवाने से दिल्ली के प्रतिष्ठित बड़े सरकारी अस्पताल, राममनोहर लोहिया हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने मना कर दिया था। विपक्ष यह मांग करते आ रहा था कि प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्री टीका लगवाएं तो बाकी लोगों को भी टीके पर भरोसा हो। अब जब टीकाकरण शुरू हुए एक-डेढ़ महीना हो चुका है, तब प्रधानमंत्री ने टीका लगवाया है, और इसके पहले बहुत से लोगों ने पहले टीके के बाद उसका जरूरी दूसरा डोज भी नहीं लगवाया क्योंकि उनका भरोसा नहीं बैठा, या उठ गया। आज भी सोशल मीडिया पर बहुत से लोग लगातार इस टीके की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री ने तो इन दो टीकों में से एक को राज्य में इस्तेमाल करने से मना करते हुए केन्द्र सरकार को लिखा है कि इसका पर्याप्त मानव-परीक्षण नहीं हुआ है, ऐसे में इसे लोगों को लगवाना ठीक नहीं है।
दुनिया भर में टीकों को लेकर लोगों के मन में संदेह रहता ही है। ऐसा संदेह कई बार किसी साजिश के तहत लोगों में फैलाया जाता है, और कई बार बिना किसी बदनीयत के भी लोग अधिक सावधान रहते हुए शुरूआती महीनों में ऐसे टीकों से परहेज करते हैं। आज भी सोशल मीडिया पर अच्छी साख वाले पत्रकार भी भारत के टीकों के खिलाफ लिख रहे हैं। उनका तर्क है कि टीके लगवाने के बाद भी कुछ मौतें हो रही हैं, मौतों से परे कई लोग टीकों के बाद भी कोरोना पॉजीटिव हो रहे हैं।
इस बारे में हम नसबंदी जैसे व्यापक जनकल्याण के ऑपरेशन, या किसी भी किस्म के टीकाकरण पर हड़बड़ी में शक करने के खिलाफ हैं। अब तक हिन्दुस्तान में कुछ करोड़ लोगों को टीके लगने को होंगे, और अगर इनमें से कुछ दर्जन लोग टीके लगने के बाद मरे हैं, तो गिनती में उतने लोग तो हर करोड़ आबादी पर महीने भर में मरते ही होंगे। इन मौतों को टीकों की वजह से हुआ मानने के बजाय यह समझने की जरूरत है कि ये टीके लगने के बाद हुई मौतें हैं, अब तक ऐसे कोई सुबूत नहीं मिले हैं कि ये टीकों की वजह से हुई हैं। इसलिए भारत सरकार की हड़बड़ी की कार्रवाई के बावजूद टीकाकरण पर ऐसे शक खड़े नहीं करने चाहिए कि इनकी वजह से लोग मर रहे हैं। भारत में कम से कम एक धर्म के लोगों ने इन टीकों पर शक किया है, और ये लोग पोलियो ड्रॉप्स पर भी ऐसा ही शक करके अपने ही धर्म के बच्चों का बड़ा नुकसान पहले कर चुके हैं। कोरोना का खतरा अभी खत्म नहीं हुआ है, और जो लोग उसकी वजह से बीमार होने के बाद ठीक भी हो गए हैं, उन लोगों की सेहत का भी कितना नुकसान हुआ है, यह अभी साफ नहीं है। दुनिया के कई देशों में कोरोना की लहर फिर से आई है, और खुद हिन्दुस्तान में महाराष्ट्र जैसा राज्य दोबारा लॉकडाऊन, दोबारा नाईट-कफ्र्यू देख रहा है। कुछ राज्यों में खुलने के बाद स्कूलें फिर से बंद करने की नौबत आई है। ऐसे में टीके की जरूरत को कम आंकना गलत है। जो लोग यह मान रहे हैं और लिख रहे हैं कि टीका लगने के बाद भी लोगों को कोरोना हो रहा है, उन्होंने ऐसी कोई जांच अभी नहीं की है कि ऐसे लोगों को कोरोना के टीके के दोनों डोज सही समय पर लगे हैं या नहीं, और उन्होंने टीकों के साथ जुड़ी सावधानी बरती है या नहीं, और दोनों टीके लगवाए उन्हें निर्धारित समय हो चुका है या नहीं। इस तरह के बहुत से पैमाने हैं जिनकी जांच के बाद ही इन टीकों को नाकामयाब कहना ठीक होगा, वैसे भी खुद चिकित्सा विज्ञान यह कह रहा है कि ये टीके सौ फीसदी लोगों पर कामयाब नहीं होंगे।
लेकिन दुनिया की कोई भी दवाई, कोई भी टीके सौ फीसदी लोगों पर कामयाब नहीं होते। और खासकर महामारी का टीका सारे लोगों को बीमारी से बचा ले वह बहुत जरूरी भी नहीं है। मेडिकल साईंस अपनी क्षमता के मुताबिक जितने फीसदी लोगों में भी कामयाब होगा, और कोरोना के खतरे से बचाएगा, वह दो हिसाब से काफी होगा, एक तो वे लोग खुद बचेंगे, दूसरी ओर वे लोग संक्रमण को आगे बढ़ाने वाले नहीं बनेंगे। इतनी कामयाबी भी कोई कम नहीं है। दुनिया के किसी भी विज्ञान के सौ फीसदी कामयाब होने पर भी उसका इस्तेमाल करने की शर्त दुनिया से विज्ञान को बाहर ही कर देगी। आम बीमारियों में भी कई दवाईयों का असर सौ फीसदी लोगों पर नहीं होता, तो क्या बहुत सी दवाईयों को बंद कर दिया जाए?
केन्द्र सरकार और उसे चला रही पार्टी की रीति-नीति से असहमत लोग आलोचना करते हुए भी यह ध्यान रखें कि इन टीकों से लोगों को इतना न डराया जाए कि महामारी पर काबू करना न हो सके। आज इसी किस्म के प्रचार की वजह से टीका लगवाने वाले लोगों में अधिक उत्साह नहीं दिख रहा है। यह नौबत अच्छी नहीं है। चूंकि भारत में कोरोना का टीका लगवाना अनिवार्यता नहीं है, और यह लोगों की मर्जी पर छोड़ दिया गया है। लेकिन संक्रामक रोगों के बारे में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब तक सब सुरक्षित नहीं हैं, तब तक कोई सुरक्षित नहीं है। आज भी हिन्दुस्तान में इस टीके को लगवाने को लेकर कोई बंदिश नहीं है, लेकिन जितने डॉक्टरों से हम बात कर सकते थे, उनका मानना है कि सबको टीके लगवाने चाहिए, उन डॉक्टरों ने खुद भी टीके लगवाए हैं, और छत्तीसगढ़ के कुछ सबसे प्रमुख डॉक्टर ऐसे भी हैं जो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के इस फैसले से असहमत हैं कि दो में से एक टीका इस राज्य में न लगाया जाए। उनका मानना है कि यह जनता के हितों के खिलाफ है, और राज्य सरकार ऐसा विरोध नहीं करना चाहिए।
इतना जरूर है कि बाबा रामदेव को बढ़ावा देते-देते केन्द्र सरकार अपनी वैज्ञानिक-विश्वसनीयता खो बैठी है, और शायद यह एक बड़ी वजह है कि टीके लगवाने के प्रति लोग उदासीन हैं। लोग सिर्फ वैज्ञानिक पैमानों वाला टीका लगवाना तो चाहते, लेकिन लोग राजनीतिक नगदीकरण वाला टीका शक की नजर से ही देख रहे हैं। सरकार के राजनीतिक रूख ने एक वैज्ञानिक कामयाबी की साख खराब की है, और हिन्दुस्तान के लोग उसका दाम चुका रहे हैं।