विचार / लेख
- ध्रुव गुप्त
स्वर्गीय फणीश्वर नाथ रेणु को हिंदी कहानी में देशज समाज की स्थापना का श्रेय प्राप्त है। उनके दो उपन्यासों- ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ और उनकी दर्जनों कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग हिंदी कथा साहित्य में संभवत: पहली बार घटित हुआ था। हिंदी कहानी में पहली बार लगा कि शब्दों से सिनेमा की तरह दृश्यों को जीवंत भी किया जा सकता है और संगीत की सृष्टि भी की जा सकती है।
रेणु ने लोकगीत, ढोल-खंजड़ी, लोकनृत्य, लोकनाटक, लोक विश्वास और किंवदंतियों के सहारे बिहार के कोशी अंचल की जो संगीतमय और जीती-जागती तस्वीर खींची है, उससे गुजऩा एक बिल्कुल अलग और असाधारण अनुभव है। उनकी तुलना अक्सर कथासम्राट प्रेमचंद से की जाती है। एक अर्थ में रेणु प्रेमचंद से आगे के कथाकार हैं। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है, रेणु में गांव का संगीत। प्रेमचंद को पढऩे के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गांव और अपने खेत से बंधा कैसे रह जाता है।
रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घर-घर से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाजुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम राग पैदा करती है। उनकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित गीतकार शैलेंद्र द्वारा निर्मित, बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित और राज कपूर-वहीदा रहमान द्वारा अभिनीत फिल्म ‘तीसरी कसम’ को हिंदी सिनेमा का मीलस्तंभ माना जाता है।
आज रेणु की जयंती पर उनकी स्मृतियों को नमन!