संपादकीय
हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट हाल के बरसों में लगातार ऐतिहासिक-लोकतांत्रिक महत्व की कसौटियों पर खरा न उतरने के बाद उतने पर नहीं थम रहा, उसके बड़े-बड़े जज बड़े-बड़े विवादों में घिरते आ रहे हैं। पिछले मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने जिस तरह अपनी मातहत कर्मचारी के लगाए गए सेक्स-शोषण के आरोपों में खुद जजों की बेंच का अगुवा बनना तय किया वह लोकतांत्रिक दुनिया के अदालती इतिहास में सबसे हक्का-बक्का करने वाला एक फैसला था। उसके बाद उन्होंने अपना कार्यकाल खत्म होने के पहले लगातार ऐसे फैसले लिए जो कि सरकार को सुहाने वाले थे, और/या सरकार की सहूलियत के थे। फिर मानो इन फैसलों को लेकर उनकी हो रही आलोचना काफी न हो, उन्होंने केन्द्र सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से राज्यसभा की सदस्यता पा ली। और फिर इस सदस्यता के महत्व को मानो हिकारत से देखते हुए उन्होंने अपने एक बयान में कहा कि अगर उन्हें सरकार को सुहाते फैसले देकर एवज में कुछ लेना ही रहता, तो वह राज्यसभा सदस्यता जैसी छोटी चीज क्यों रहती। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के सबसे बड़े आलोचक और विरोधी नक्सलियों ने भी कभी राज्यसभा के बारे में इतनी हिकारत से भरा हुआ बयान नहीं दिया था।
अब मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने पहले तो सुबह की सैर पर राह चलते एक विदेशी और महंगी मोटरसाइकिल पर बैठकर देश के बहुत से लोगों की आलोचना पाई कि यह व्यवहार देश के मुख्य न्यायाधीश को नहीं सुहाता। इसे लेकर, और इसके बाद कुछ और मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का एक विवादास्पद मामला चला, और हमारा मानना है कि उससे अदालत की एक बड़ी अवमानना हुई। अब ताजा विवाद जस्टिस एस.ए.बोबड़े की वह अदालती टिप्पणी है जिसमें उन्होंने बलात्कार के एक मामले की सुनवाई करते हुए आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीडि़ता के साथ शादी करने के लिए तैयार है? यह मामला महाराष्ट्र का था जहां पर एक सरकारी कर्मचारी ने शादी के झूठे वादे के बहाने एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था। जस्टिस बोबड़े ने इस आरोपी से कहा था कि अगर वह पीडि़ता से शादी करना चाहता है तो अदालत उसकी मदद कर सकती है, अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो उसकी नौकरी चली जाएगी, वह जेल चले जाएगा, क्योंकि उसने लडक़ी के साथ छेडख़ानी की और उसके साथ बलात्कार किया है।
अदालत की कार्रवाई के दौरान यह बात भी सामने आई कि बलात्कार की शिकार लडक़ी के पुलिस तक जाने पर आरोपी की मां ने उससे शादी करवाने की पेशकश की थी लेकिन पीडि़ता ने उससे इंकार कर दिया था। देश के मुख्य न्यायाधीश द्वारा बलात्कार के आरोपी को उसकी शिकार से शादी करने की पेशकश देश और लोकतंत्र को सदमा पहुंचाने वाली थी कि मानो शादी बलात्कार की भरपाई करती है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बंृदा करात ने इसके खिलाफ जस्टिस बोबड़े को चिट्ठी लिखी है कि वे अपनी उस टिप्पणी को वापिस लें। उन्होंने लिखा है अदालतों को यह धारणा नहीं बनने देने चाहिए कि वे समाज को पुराने दौर में ले जाने वाले ऐसे नजरियों का समर्थन करती है। बृंदा के अलावा देश के करीब 3 हजार लोगों ने चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि वे अपने बयान के लिए माफी मांगें, और पद से इस्तीफा दें। इन लोगों का कहना है कि एक बलात्कारी को पीडि़ता से शादी करने के बारे में पूछना बलात्कार की शिकार की पीड़ा को नजरअंदाज करने जैसा है। इस चिट्ठी में देश के नारीवादियों और महिला समूहों की तरफ से बड़ी कड़ी जुबान में पूछा गया है कि क्या आपने ऐसा कहने के पहले यह सोचा कि ऐसा करके आप पीडि़ता को उम्र भर के बलात्कार की सजा सुना रहे हैं? वह भी उसी जुल्मी के साथ जिसने उसे आत्महत्या करने के लिए बाध्य किया था। चिट्ठी में लिखा गया है कि भारत के हम लोग इस बात पर बहुत आहत महसूस कर रहे हैं कि हम औरतों को आज हमारे मुख्य न्यायाधीश को समझाना पड़ रहा है कि आकर्षण, बलात्कार, और शादी के बीच अंतर होता है, और यह भी उस मुख्य न्यायाधीश को जिन पर भारत के संविधान की व्याख्या करके लोगों को न्याय दिलाने की ताकत और जिम्मेदारी है।
इन चिट्ठियों में जस्टिस बोबड़े को एक दूसरे मामले में उनकी की गई एक टिप्पणी याद दिलाई गई है जिसमें उन्होंने पूछा था- यदि कोई पति-पत्नी की तरह रह रहे हों, तो पति क्रूर हो सकता है, लेकिन क्या किसी शादीशुदा जोड़े के बीच हुए सेक्स को बलात्कार का नाम दिया जा सकता है? जस्टिस बोबड़े की इस टिप्पणी की भी कड़ी आलोचना करते हुए इस चिट्ठी में लिखा गया है कि उनकी इस टिप्पणी से न सिर्फ पति की यौनिक, शारीरिक, और मानसिक हिंसा को वैधता मिलती है, बल्कि साथ ही औरतों पर सालों के अत्याचार और उन्हें न्याय न मिलने की प्रक्रिया को भी एक सामान्य बात होने का दर्जा मिल जाता है।
इस चिट्ठी में महाराष्ट्र के रेप केस में जिला अदालत द्वारा आरोपी को दी गई जमानत की निंदा करते हुए मुम्बई हाईकोर्ट के जज का कहा याद दिलाया गया है जिसमें जज ने लिखा था- जिला जज का यह नजरिया ऐसे गंभीर मामलों में उनकी संवेदनशीलता के अभाव को साफ-साफ दर्शाता है। देश के महिला समूहों ने चीफ जस्टिस को लिखा है कि यही बात आज आप पर भी लागू होती है, हालांकि उसका स्तर और भी अधिक तेज है। एक नाबालिग के साथ बलात्कार के अपराध पर आपने जब शादी के प्रस्ताव को एक सौहाद्र्रपूर्ण समाधान की तरह पेश किया तब यह न केवल अचेत और संवेदनहीन था, बल्कि यह पूरी तरह से भयावह, और पीडि़ता को न्याय मिलने के सारे दरवाजे बंद कर देने जैसा था।
इन समूहों ने जस्टिस बोबड़े को लिखा है- भारत में औरतों को तमाम सत्ताधारी लोगों की पितृसत्तात्मक सोच से जूझना पड़ता है, फिर चाहे वे पुलिस अधिकारी या जज ही क्यों न हों, जो बलात्कारी के साथ समझौता करने वाले समाधान का सुझाव देते हैं। आगे लिखा गया है कि हम लोग गवाह थे जब आपके पूर्ववर्ती (जस्टिस रंजन गोगोई) ने अपने पर लगे यौन उत्पीडऩ के आरोप की खुद सुनवाई की, और खुद ही फैसला सुना दिया, और शिकायतकर्ता और उसके परिवार पर मुख्य न्यायालय के पद का अपमान करने, और चरित्र हनन करने का आरोप लगाया। जस्टिस बोबड़े को याद दिलाया गया है कि उस वक्त आपने उस महिला की शिकायत की निष्पक्ष सुनवाई न करके, या एक जांच न करके उस गुनाह में भागीदारी की थी। किसी दूसरे मामले में एक बलात्कारी को दोषमुक्त करने के लिए आपने यह तर्क दिया कि औरत के धीमे स्वर में न का मतलब हां होता है। देश की महिलाओं ने जस्टिस बोबड़े को याद दिलाया है कि किसान आंदोलन पर उन्होंने यह कहा था कि आंदोलन में महिलाओं को क्यों रखा जा रहा है, और उन्हें वापिस घर भिजवाया जाए, इस बात का मतलब तो यह हुआ कि औरतों की अपनी न स्वायत्ता है और न ही उनकी कोई व्यक्तित्व है।
इस चिट्ठी में जस्टिस बोबड़े से कहा गया है कि उनके शब्द न्यायालय की गिरमा और अधिकार पर लांछन लगा रहे हैं। उनकी मुख्य न्यायाधीश के रूप में उपस्थिति देश की हर महिला के लिए एक खतरा है। इससे युवा लड़कियों को यह संदेश मिलता है कि उनकी गरिमा और आत्मनिर्भरता दान के लायक कोई चीज है। चिट्ठी में जस्टिस बोबड़े को कहा गया है कि आप उस चुप्पी को बढ़ावा दे रहे हैं जिसको तोडऩे के लिए महिलाओं और लड़कियों ने कई दशकों तक संघर्ष किया है। आपकी बातों से बलात्कारियों को यह संदेश जाता है कि शादी बलात्कार करने का लाइसेंस है और इससे बलात्कारी के सारे अपराध धोए जा सकते हैं। महिलाओं ने मांग की है कि मुख्य न्यायाधीश अपनी शर्मनाक टिप्पणियों को वापस लें, और देश की सभी महिलाओं से माफी मांगें, इसके साथ-साथ एक पल की भी देर किए बिना मुख्य न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)