संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...सब्जियों पर ट्रैक्टर और किसान-खुदकुशी के बीच
19-Mar-2021 2:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...सब्जियों पर ट्रैक्टर और  किसान-खुदकुशी के बीच

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में आए दिन खबरें रहती हैं कि कौन सी सब्जी का कितना भाव हो गया है। पाकिस्तान में टमाटर दो सौ रूपए किलो एक बार हो गए, तो वहां से अधिक खबरें हिन्दुस्तान में बनीं, और हिन्दुस्तान के जो लोग टमाटर नहीं भी खाने वाले थे, वे यह सोचकर खाते रहे कि वे वह टमाटर खा रहे हैं जो कि पाकिस्तानी नहीं खा पा रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ बाजार में सब्जी की महंगाई की खबरों को अटपटा सा साबित करती हुई खबरें रहती हैं कि किस तरह किसानों ने दाम सही न मिलने पर सब्जी तुड़वाना महंगा पडऩे पर खेत में ट्रैक्टर चलाकर सब्जियां कुचल डालीं। आज भी आसपास चारों तरफ यही सुनाई पड़ता है कि खेतों से एक-दो रूपए किलो निकलने वाली सब्जियां चिल्हर बाजार में ग्राहकों को 25-50 रूपए किलो तक मिलती हैं। अब जब देश में संगठित किसानों की संगठित उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का एक बड़ा किसान आंदोलन सौ से अधिक दिनों से चल रहा है तो यह भी सोचने की जरूरत है कि सब्जी उगाने वाले किसानों के असंगठित सेक्टर को किस तरह जिंदा रखा जा सकता है? आज भी हिन्दुस्तान जैसे देश में अनाज और तिलहन-दलहन जैसी फसलों के तुरंत बाद सबसे अधिक रोजगार का जरिया सब्जियां और फल ही हैं। इनमें खेतों से लेकर घरों तक करोड़ों रोजगार हैं, लेकिन बीच के एक-दो व्यापारी तबकों के अलावा बाकी सबकी हालत मजदूर सरीखी ही है। 

जिन प्रदेशों में दूध की संगठित और योजनाबद्ध खरीदी के लिए, उनके स्टोरेज के लिए, पैकेट बनाकर मार्केटिंग की सहूलियत नहीं है, वहां के दुग्ध उत्पादक कोई कमाई नहीं कर पाते। दूसरी तरफ जिन प्रदेशों में अमूल जैसे सहकारी आंदोलन कामयाब हैं, या राज्य के सरकारी संगठन कामयाब हैं, वहां पर डेयरी चलाकर लोग खासी कमाई कर लेते हैं। और तो और अगर किसी राज्य में निजी डेयरी बड़ा ब्रांड बनकर दूर तक मार्केटिंग कर पाती है, तो उस डेयरी के आसपास के सौ-दो सौ किलोमीटर के इलाके में भी छोटे-छोटे पशुपालक उसके भरोसे चल निकलते हैं। ऐसे में फलों और सब्जियों को लेकर अगर ट्रांसपोर्ट, स्टोरेज, प्रोसेसिंग, पैकिंग-बॉटलिंग और मार्केटिंग का इंतजाम हो जाए, तो इससे सब्जियों के खेतों को ट्रैक्टरों से कुचलने की नौबत नहीं आएगी। आज जब घर-घर में फ्रिज आ चुके हैं, तब उनकी सीमित जगह पर अधिक मात्रा में साफ की हुई सब्जियां रखने लायक पैकेट तैयार मिलें, तो सब्जियों का एक नया बाजार बन सकता है, और इसमें बहुत से रोजगार भी खड़े हो सकते हैं। किसी भी उत्साही राज्य सरकार को इस काम को बढ़ावा देना चाहिए जो कि किसानों की अनाज, दाल, तेल की मुख्य उपज के अलावा भी दूसरी उपज से किसान की कमाई बढ़ाने का काम कर सके। 

हम इसी जगह कई बार इस बारे में लिखते हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जिंदा रखने और बढ़ाने के लिए खेती के साथ-साथ फल-सब्जी, डेयरी, मधुमक्खी पालन से लेकर लाख की खेती, रेशम के कीड़ों को पालना, जड़ी-बूटी की खेती जैसे दर्जनों दूसरे काम बढ़ाने चाहिए ताकि ग्रामीण और कुटीर अर्थव्यवस्था मजबूत हो सके। ये सारे के सारे काम बिना किसी बाहरी तकनीक के, बिना किसी बाहरी रसायनों के हो सकते हैं, और इनमें गांवों में मौजूद अतिरिक्त मानव शक्ति का भरपूर इस्तेमाल हो सकता है। हम यह कोई बड़ी कल्पनाशील बात नहीं कर रहे हैं, गांधी ने अपने वक्त से इसी किस्म के आत्मनिर्भर गांव सुझाए थे, और आज भी गांवों में उत्पादकता की अछूती संभावनाएं अपार हैं। जो बातें हमने ऊपर गिनाई हैं उनके अलावा पशुपालन, मछलीपालन, और पक्षीपालन जैसे काम हो सकते हैं जो कि गांवों में लोगों के खानपान में बेहतरी भी ला सकते हैं, और उनकी अच्छी खासी कमाई भी करवा सकते हैं। 

आज जब खबरें बनती हैं कि बाजारों में सब्जियां 75-100 रूपए किलो बिक रही हैं, या बेंगलुरू के बाजार में अमरूद के दाम 250 रूपए किलो हैं, तो यह लगता है कि एक तरफ बाजार में दाम आसमान छू रहे हैं, दूसरी तरफ किसान अपने खेतों में पेड़ों से टंग रहे हैं। इन दोनों सिरों के बीच की कमाई जहां जा रही है, उसमें से किसान को अधिक हक मिलना जरूरी है, और बीच में एक-दो दलाल-व्यापारी जो मोटी कमाई कर रहे हैं, उसकी जगह सरकारों को मार्केटिंग का एक ढांचा लाना चाहिए। सरकारें अलग-अलग इलाकों में फल-सब्जियों को बढ़ावा देने के लिए कोल्ड स्टोरेज भी बना सकती हैं, और इनके प्रोसेसिंग प्लांट भी। इस सुझाव में भी कोई नई बात नहीं है, फर्क बस यह है कि यह बात अनदेखी या उपेक्षित रह जाती है। 

एक तरफ देश की आम जनता सब्जी की महंगाई को रोए, और दूसरी तरफ किसान खुदकुशी करते रहें, यह नौबत बहुत खराब है, और इसे ठीक करने की ताकत और जिम्मेदारी दोनों ही सरकारों पर है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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