संपादकीय
जापान की सरकार और वहां के वैज्ञानिकों ने विज्ञान और नैतिकता को लेकर एक नई बहस का मौका खड़ा कर दिया है। वहां की सरकार ने शोधकर्ताओं को मानव शरीर की कोशिकाओं का उपयोग करके उसे जानवरों के शरीर में स्थापित करके मानव भ्रूण किस्म का एक विकास करने की इजाजत दी है। वैज्ञानिकों का तर्क यह है कि वे इस शोध से मानव भ्रूण विकसित नहीं कर रहे हैं, बल्कि ऐसी कोशिकाओं का प्रयोग कर रहे हैं जो कि भ्रूण के विकास में आगे काम आ सकती हैं। यह पूरा मामला बड़ा तकनीकी है, और नैतिक आपत्तियों से निपटने के लिए वैज्ञानिकों का तर्क यह है कि वे मानव जन्म का प्रयोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि भ्रूण बनने के पहले की प्रक्रिया में कोशिकाओं का प्रयोग ही कर रहे हैं। लेकिन दुनिया के अधिकतर देश अब तक ऐसे प्रयोगों के खिलाफ कानूनी रोक लगाकर चल रहे हैं, ताकि इंसानी शरीर को प्रयोगशालाओं में तैयार करने के किसी भी शोध को भी रोका जा सके। यह एक अलग बात है कि प्रयोगशालाओं में जानवरों के नर और मादा के शरीरों से निकाले गए हिस्सों के बीच संबंध करवाकर उससे एम्ब्रियो बनाकर मादाओं के शरीर में स्थापित करना और फिर उससे बच्चों को जन्म दिलवाने का काम लंबे समय से चल रहा है। और तो और छत्तीसगढ़ में ही एक निजी पशु-प्रयोगशाला में चौथाई सदी के भी पहले यह नियमित रूप से हो रहा था। अब इस दुनिया में जहां कई देशों में तानाशाही है, और दुनिया के कई आत्ममुग्ध नेता और कारोबारी, या फौजी मुखिया अपने ही क्लोन तैयार करवाना चाहेंगे, तो उन्हें ऐसे वैज्ञानिक प्रयोगों से हसरत पूरी करने में बड़ी मदद ही मिलेगी।
विज्ञान कथाओं में शायद आधी-एक सदी पहले से क्लोनिंग पर आधारित कहानियां गढ़ी जाती रही हैं, और दुनिया का तजुर्बा यह भी है कि विज्ञान कथाएं वक्त लेकर हकीकत में तब्दील होती हैं। जो तकनीक जानवरों पर कारगर हो चुकी है, उस पर चाहे दुनिया के अधिकतर देश इंसानों पर इस्तेमाल पर कानूनी रोक क्यों न लगा दें, कोई ऐसी तानाशाही हो सकती है, या कोई ऐसा कारोबारी छोटा सा देश हो सकता है जो अतिमहत्वाकांक्षी वैज्ञानिकों को लेकर ऐसी सहूलियत बेच रहा हो। हो सकता है कि दुनिया के कई आत्ममुग्ध लोग अपने क्लोन बनवा चुके हों जो कि न सिर्फ हमशक्ल होंगे, बल्कि जिनका सारा डीएनए उन्हीं का होगा, और जो हर मामले में अपनी ही सरीखी संतान पैदा कर सकेंगे। यह बात तो जाहिर है कि दुनिया में लोग खुद अमर रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, दूसरी तरफ संतान पाने के लिए भी बहुत से लोग हर किस्म के गैरकानूनी काम करने को तैयार हो जाते हैं, मानवबलि तक दे देते हैं। ऐसे लोगों को अगर उनकी अपार दौलत के सहारे अपना ही क्लोन बनवाने का मौका मिलेगा, तो वे पीछे हटेंगे, ऐसा सोचना मुश्किल है।
वैज्ञानिकों के सामाजिक सरोकार कम रहते हैं। वे किसी आविष्कार या किसी खोज की कामयाबी के नशे में अधिक रहते हैं। उनकी महत्वाकांक्षा प्रयोगशाला के भीतर की कामयाबी तक सीमित रहती है, और फिर अगर उनकी खोज बाहर की दुनिया के लिए खतरनाक या नुकसानदेह रहे, तो भी वे उसकी परवाह नहीं करते। हिरोशिमा और नागासाकी पर जो हाइड्रोजन बम गिराया गया था, उसे बनाने वाले वैज्ञानिकों को इस व्यापक मानवसंहार के खतरे ने किसी भी स्तर पर रोका नहीं था। दुनिया में जितने किस्म के हथियार बने हैं, उनमें से कोई भी फौजियों ने नहीं बनाए हैं, वे सारे के सारे वैज्ञानिकों के बनाए हुए हैं, जिनके काम में सामाजिक सरोकार कोई पहलू ही नहीं रहता है।
आज अगर दुनिया के तकरीबन तमाम विकसित और सभ्य देशों ने मानव भ्रूण को लेकर, मानव-क्लोनिंग को लेकर किसी शोध पर भी रोक लगा रखी है, तो इसके पीछे सिर्फ नैतिकता के मुद्दे नहीं हैं बल्कि मानव-क्लोनिंग से होने वाले और खतरों का अंदाज लगाकर सरकारों ने इसे रोक रखा है। आज दुनिया के अपराधों में फिंगर प्रिंट से लेकर चेहरे तक, और डीएनए तक की जितनी मदद जांच में मिलती है, वह पूरी की पूरी मानव-क्लोनिंग से खत्म हो सकती है, और क्लोनिंग के बाद भी दुनिया से निपटने की ताकत आज दुनिया की बाकी तकनीक, बाकी कानून के पास भी नहीं है।
जब तक खतरों से निपटने की ताकत न हो, तब तक उन्हें लेकर बहुत किस्म के शोध का दुस्साहस ठीक नहीं है। दुनिया ने देखा हुआ है कि बहुत से मामलों में सरकारों, फौजों, और कारोबारियों के करवाए हुए शोध के असली मकसद छुपाकर रखे जाते हैं, और जब उनसे खतरनाक ईजाद हो चुकी रहती है तब जाकर वे मकसद उजागर होते हैं। इसलिए मानव कोशिकाओं को लेकर जापान में जैसे प्रयोगों की इजाजत दी गई है, वह हमारी सीमित वैज्ञानिक समझ के मुताबिक एक गलत और बहुत खतरनाक इजाजत है। दुनिया के देशों को घोषित या अघोषित रूप से ऐसा करने का हक या सहूलियत हासिल तो हैं, लेकिन पूरी इंसानी नस्ल के लिए बेहतर यह है कि इससे बचा जाए। अगर किसी दिन दुनिया में बहुत सारे क्लोन बन जाएंगे, तो ऐसे क्लोन के आपसी देह-संबंधों का क्या नतीजा होगा यह भी अभी साफ नहीं है। यह दुनिया में ऐसे दानव, ऐसे खतरे खड़े करने का काम है जिससे तबाही का कोई अंदाज आज खुद विज्ञान के पास नहीं है। यही वजह है कि विज्ञान की असीमित संभावनाओं पर लोकतांत्रिक-जनकल्याणकारी सरकारों के पास रोक लगाने के अधिकार रहते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)