संपादकीय
आज 22 मार्च को दुनिया भर में विश्व जल दिवस मनाया जाता है। पानी इंसान की जिंदगी में सबसे जरूरी तीन चीजों में से एक है। हवा, खाना, और पानी, इनके बिना ब्रम्हांड के किसी और ग्रह पर भी जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती, और आज अंतरिक्ष में जहां-जहां इंसानों को बसाने की कल्पना की जा रही है, वहां इन तीन बुनियादी जरूरतों के बारे में संभावनाओं को सबसे पहले टटोला जा रहा है। इसलिए पानी का महत्व बहुत है, लेकिन लोगों को वह उसी वक्त समझ पड़ता है जब वह नहीं रहता। जब उसे पाने के लिए टैंकरों पर टूट पडऩा पड़ता है, जब मीलों दूर से पानी लाना पड़ता है, या गहरे कुओं में जान-जोखिम में डालकर उतरना पड़ता है। इसके बावजूद सारे वक्त पानी मिल ही जाता हो यह भी जरूरी नहीं है। महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में गर्मी के बाद गांवों के बाहर जानवरों की लाशों के कंकाल दिखते हैं जो कि पानी न मिलने की वजह से, और पानी न होने से चारा न मिलने की वजह से भूखे-प्यासे मर जाते हैं। अब तक इंसानों का प्यास से मरना शुरू नहीं हुआ है, और देशों के बीच या इंसानों के तबकों के बीच पानी को लेकर फौजी लड़ाईयां अभी तक शुरू नहीं हुई हैं इसलिए पानी लोगों का ध्यान नहीं खींच रहा है। लेकिन जिस दिन इसकी कमी लोगों का ध्यान खींचने लायक गंभीर हो जाएगी, उस दिन फिर पानी की वापिसी भी नहीं हो पाएगी। आज हवा के बाद सबसे मुफ्त मिलने वाला सामान पानी है, और मुफ्त में मिलने की वजह से उसकी कोई कद्र नहीं है।
दुनिया के जिन इलाकों में पानी है, और आसान पानी है, उसे धरती के भीतर से उलीचने के लिए आसान बिजली हासिल है, उन इलाकों में पानी के खर्च, फिजूलखर्च से समझदारी का कोई रिश्ता नहीं है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को लें जहां खेती के लिए बिजली तकरीबन मुफ्त है, बिजली चौबीसों घंटे है, और जमीन के भीतर अब तक पानी बाकी है, तो फिर सरकारी खरीद वाली धान की आसान फसल से परे सोचने की जरूरत किसान को पड़ नहीं रही है। धान की फसल पेट भरने के काम आती है, लेकिन वह आसमान का जितना पानी लेती है, और धरती के भीतर का जितना पानी उसे दिया जाता है, क्या कोई ऐसा ऑडिट कृषि वैज्ञानिक और कृषि अर्थशास्त्री करते हैं कि दूसरे अनाजों की फसल में लगने वाले पानी के मुकाबले धान की फसल में पानी कितना अधिक लगता है? और इंसान के खाने के काम आने वाले अनाजों में किस फसल से कितने पानी के बाद कितनी कैलोरीज मिलती हैं?
एक तरफ तो सरकार और कृषि अर्थशास्त्री, कृषि वैज्ञानिक फसल पर खर्च होने वाले पानी को घटाने के बारे में पर्याप्त करते हुए नहीं दिख रहे हैं, दूसरी तरफ शहरों में लोगों के हर मकान में नलकूप खोदकर पंप लगाकर मनचाहा पानी निकालने की आजादी हासिल है। नतीजा यह होता है कि जो भूजल पूरी धरती की सामूहिक सम्पत्ति है, उसे गहरा नलकूप खुदवाने और अधिक ताकत का पंप लगवाने की लोगों की निजी ताकत पी जा रही है। पानी निजी सम्पत्ति है, या इसे सामूहिक सम्पत्ति रहना चाहिए, इसके इस्तेमाल की लागत कहां से निकलनी चाहिए इसे लेकर अब तक कोई कानून नहीं है इसलिए बोतलबंद पानी बनाने और बेचने वाली कंपनियां जमीन के भीतर से मनचाहा पानी निकालती हैं, और किसी के लिए जवाबदेह नहीं रहतीं। बाकी कारखानों और कारोबारी कामकाज के लिए भी भूजल नाम की सार्वजनिक सम्पत्ति ऐसे ही बेजा इस्तेमाल के लिए मौजूद है।
शहरी जीवन में लोग अपनी आर्थिक ताकत के अनुपात में पानी का बेजा इस्तेमाल करने को आसान हैं। संपन्न लोग अपने घर के लॉन को धान की फसल की तरह सींचते हैं, और सूरज को चुनौती देते हुए अपनी छत पर बागवानी करने के लिए बेतहाशा पानी का इस्तेमाल करते हैं। लोगों ने अपने घरों के बाहर अपनी कारों को धोने के लिए पंप और तेज रफ्तार पानी की धार का इंतजाम कर रखा है, और अधिक संपन्न लोग अपने बंगलों के सामने की सडक़ें तक धो लेते हैं। दूसरी तरफ इन्हीं शहरों की गरीब बस्तियों में लोगों की जिंदगी में हर दिन घंटे-दो घंटे का संघर्ष कुछ बाल्टी पानी जुटाने के लिए टैंकरों के इंतजार और धक्का-मुक्की में निकल जाता है। ऐसा लगता है कि लोगों के मकान की जितनी जमीन है उसके नीचे का हजार-पांच सौ फीट तक गहराई पर उनका हक है, और अपने तले से गुजरने वाली भूजल-धारा को वे जितना चाहे उतना उलीच सकते हैं। यह शहरी इस्तेमाल कम भयानक नहीं है, और देश-प्रदेश को यह चाहिए कि वे निजी नलकूपों पर भी पानी के मीटर लगाने का काम करें ताकि पानी के फिजूलखर्च पर काबू लग सके।
ये चर्चाएं पिछले कुछ दशकों में लगातार बढ़ती रही हैं कि एक दिन पानी के लिए देशों के बीच जंग होगी। आज भी भारत जैसा देश अपने दो-चार पड़ोसी देशों के साथ आर-पार आने-जाने वाले नदी-जल को लेकर तनाव झेलता ही है। यह तनाव किस दिन जंग में बदल जाए, किस दिन चीन में कोई बांध भारत में बाढ़ लाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं।
अब एक संभावना जो दिखती है वह ग्राउंडवॉटर री-चार्जिंग की। आसमान से पानी गिरता ही है, और वह नदियों के रास्ते समंदर में जाकर एक किस्म से इस्तेमाल के बाहर हो जाता है। यह पानी सबसे अधिक बारिश के दिनों में धरती के भीतर नहीं पहुंच पाता, नालों और नदियों में बाढ़ बनकर चारों तरफ बर्बादी भी करता है, और समंदर में पहुंचकर इस्तेमाल से बाहर हो जाता है। इसलिए राज्यों को बड़े पैमाने पर ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे बारिश के पानी का अधिक से अधिक इस्तेमाल हो सके। केन्द्र सरकार की मनरेगा योजना के तहत काफी बड़ा हिस्सा पानी पर खर्च करने का प्रावधान लोग इस योजना को महज ग्रामीण रोजगार की योजना समझते हैं, लेकिन यूपीए सरकार के वक्त 15 बरस पहले शुरू की गई यह योजना जलस्रोतों के विकास की, संरक्षण की देश की सबसे बड़ी योजना भी है। सेंटर फॉर साईंस एंड एनवॉयरनमेंट की ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह मनरेगा में यह कानूनी बंदिश है कि उसकी 60 फीसदी हिस्से को पानी से जुड़े हुए ढांचों पर ही खर्च किया जाएगा। केन्द्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इसे 15 बरसों में भारत के गांवों में 3 करोड़ से अधिक जल संरक्षण काम इस योजना में हुए हैं यानी करीब 50 काम हर गांव में हुए हैं। जो लोग पानी के आंकड़ों को समझ सकें, वे यह अंदाज लगा सकते हैं कि इन जल संरक्षण कार्यों से 28 करोड़ 74 लाख क्यूबिक मीटर पानी का संरक्षण हो पाया है।
इन आंकड़ों से परे हम एक और गुंजाइश देखते हैं जिसके बारे में हम पहले भी लिख चुके हैं। मनरेगा के तहत काम उन्हीं इलाकों में हो सकता है जहां पर लोगों को रोजगार दिया जा सकता है। लेकिन प्रदेशों के भूगोल में बहुत से ऐसे बिना आबादी वाले इलाके रहते हैं जहां पर बारिश का पानी भरपूर बहता है, और नदियों में बाढ़ लाता है। आबादी से परे के ऐसे सुनसान इलाकों में बिना मजदूरों के भी मशीनों से ऐसे बड़े-बड़े तालाब बनाने चाहिए जो बारिश के अतिरिक्त पानी को नदियों में जाने से रोके, और भूजल को बढ़ाए। एक तरफ मनरेगा जैसी योजना रोजगार और आबादी के आसपास के जल संरक्षण का काम जारी रखे, और दूसरी तरफ निर्जन इलाकों में मशीनों से काम करवाके ऐसे बड़े-बड़े तालाब बनाए जाएं जिनका पानी धीरे-धीरे रिसकर धरती के भीतर उसके खाली हो रहे पेट को भर सके। इसी से जुड़ा हुआ एक और मामला है। आज बांधों से लेकर शहरों तक पानी को खुली नहरों से लाया जाता है जिनमें रिसाव से पानी जमीन में भी खत्म होता है, और धूप में सूखकर वह पानी उड़ता भी है। इसके आंकड़े हैरान कर देते हैं कि किसी शहर में कितना पानी लाने के लिए किसी बांध से उससे कितना अधिक पानी छोडऩा पड़ता है। हर प्रदेश को ऐसी योजना बनानी चाहिए कि बांधों से शहरी जरूरत का पानी लाने के लिए पाईप लाईन डले, जिससे जल प्रदूषण थमे, रिसाव और भाप बनकर पानी का खत्म होना भी थमे। आज हमें कम ही जगहों पर सरकारों में ऐसी कल्पनाशीलता दिख रही है। खासकर वे प्रदेश बेफिक्र हैं जहां आज पानी रेलगाडिय़ों से नहीं ले जाना पड़ रहा है।
आज विश्व जल दिवस पर हमारे कम कहे को अधिक माना जाए, और निजी जीवन से लेकर सरकारी योजनाओं तक अगले दस-बीस बरस बाद की फिक्र की जाए वरना यह लाईन तो बिना समझे लिखी और दुहराई ही जाती है- जल है, तो कल है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)