संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में कुछ कर्मचारियों के कोरोनावायरस निकलने के बाद जजों ने यह तय किया है कि वे अपने घरों से ही वीडियो कांफ्रेंस पर मामलों की सुनवाई करेंगे। सुप्रीम कोर्ट में करीब 34 सौ कर्मचारी हैं, जिनमें से 44 कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे, उसके बाद आनन-फानन यह फैसला लिया गया है। दूसरी तरफ कल बड़ी संख्या में हरिद्वार में लोग कोरोनाग्रस्त मिले हैं और उसके बाद भी आज वहां कुंभ मेले के शाही स्नान में लाखों लोगों को एक साथ नहाने की छूट दी गई है। वहां की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं उनसे लगता है कि कोरोना को बंगाल की चुनावी रैलियों के बाद देश का सबसे बड़ा निशाना कुंभ में ही मिला है। अब सवाल यह उठता है कि जिस सुप्रीम कोर्ट की नजरों के सामने देश में कई राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनाव में लोगों की यह अंधाधुंध भीड़ देखने मिल रही है और मीडिया का, अब तक बाकी, एक तबका इस भीड़ के खतरे भी गिना रहा है, देश का शायद ही कोई ऐसा कार्टूनिस्ट हो जिसने ऐसी अंधाधुंध चुनावी भीड़ को लेकर कई-कई कार्टून ना बनाए हों, लेकिन देश की जनता पर छाए हुए इस भयानक और अकल्पनीय खतरे से अगर कोई नावाकिफ है तो वह सुप्रीम कोर्ट है। सुप्रीम कोर्ट मानो अपने खुद के हितों से परे कुछ देखना-सुनना छोड़ ही चुका है।
इस देश का चुनाव आयोग वैसे भी लोगों की आलोचना का इस हद तक शिकार हो चुका है कि काफी लोग यह लिख रहे हैं कि एक वक्त के चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन के नाम को इस चुनाव आयोग ने डुबा कर रख दिया है। इसलिए अपने बंद कमरे में महफूज इस चुनाव आयोग को और कुछ सूझे या न सूझे, कम से कम सुप्रीम कोर्ट को तो अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। इसके पहले भी बहुत से ऐसे मौके आए हैं जब व्यापक जनहित के किसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने खुद होकर सुनवाई शुरू कर दी है और इसके लिए सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश होना भी जरूरी नहीं रहा है। जब किसी जज को दिल्ली की ट्रैफिक से शिकायत हुई तो कुछ मिनटों के भीतर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को सुप्रीम कोर्ट जज ने कटघरे में खड़ा किया है। आज जब देश में चारों तरफ कोरोना से लाशें गिर रही हैं, देश के अधिकतर मरघटों पर दो-दो, चार-चार दिनों की कतारें लगी हुई हैं, उस वक्त भी अगर सुप्रीम कोर्ट को यह समझ नहीं पड़ रहा कि चुनावी रैलियां और कुंभ जैसे आयोजन देश की जनता पर कितना बड़ा खतरा है तो सिवाय इसके क्या माना जाए कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने-आपको इतने ऊपर बिठा लिया है कि उसे हिंदुस्तानी जमीन की हकीकत दिखना भी बंद हो गया है, हिंदुस्तानियों पर मंडराते इतिहास के सबसे बड़े खतरे भी दिखना उसे बंद हो चुका है।
ऐसे में राजनीतिक दलों की इस मनमानी और केंद्र-राज्य सरकारों की चुनावी जिद्द के खिलाफ कोई जाए तो कहां जाए? यह समझने की जरूरत है कि आज कोई भी लापरवाह तबका देश के दूसरे तमाम घर बैठे सावधान तबकों के लिए भी खतरा है, तब किसी को ऐसी लापरवाही की छूट कैसे दी जा सकती है? जब सड़कों पर मास्क ना लगाए हुए गरीबों की पीठ पर पुलिस अपनी लाठियां तोड़ रही है, तब देश के बड़े-बड़े नेता जिस तरह खुली हुई गाडिय़ों पर लदकर हजारों लोगों के साथ चुनावी रैलियां कर रहे हैं, उनमें से कोई भी मास्क नहीं पहन रहे हैं, तब उन पर कौन सी कार्रवाई हो रही है यह सवाल सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। लेकिन चूंकि यह सवाल प्रशांत भूषण का उठाया हुआ किसी सुप्रीम कोर्ट जज के बारे में नहीं हैं इसलिए सुप्रीम कोर्ट के किसी जज को इस सवाल को पढऩे की फुर्सत भी नहीं है। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र को खत्म करने से आगे बढ़कर इस लोकतंत्र के लोगों को खत्म करने वाला साबित हो रहा है।
लोगों को याद होगा कि पिछले बरस जब कोरोना की शुरुआत हुई और दिल्ली की तबलीगी जमात में कुछ हजार लोग इक_ा हुए जिन्हें पुलिस ने वहां से भगाया और जिनमें से कई लोग कोरोना पॉजिटिव होकर देश भर में अपने-अपने इलाकों में लौटे तो मुस्लिमों के खिलाफ एक किस्मत से दहशत और नफरत का माहौल बना था। वे तो 10-20 हजार के भीतर लोग थे, लेकिन आज तो 10-20 लाख से अधिक लोग हरिद्वार के कुंभ में इक_ा है जिनके लिए न केंद्र सरकार के कोई नियम दिख रहे, और ना ही राज्य सरकार के कोई कोरोना प्रतिबन्ध उन पर लागू हो रहे हैं। यह नौबत सबसे अधिक भयानक तो सबसे पहले इन तीर्थ यात्रियों के परिवारों के लिए है जिनके बीच वे लौटेंगे। लेकिन इनसे परे भी वे ट्रेन और बसों में आते-जाते लोगों को कोरोना का प्रसाद देते जाएंगे, अपने-अपने शहर लौटने के बाद वहां के दूसरे धर्म के लोगों को भी तीर्थ का प्रसाद देंगे, और आगे जो चिकित्सा ढांचा अपनी कमर तुड़ाकर बैठा है, उस पर और बोझ भी डालेंगे।
एक तरफ तो इस देश में संसद को चलने नहीं दिया गया, सत्र नहीं होने दिया गया क्योंकि कोरोना वायरस का खतरा दिख रहा था, दूसरी तरफ जिस तरह विधानसभा के चुनावों में प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक को भीड़ जुटाने का मौका दिया गया है, छूटें दी गई हैं, वह महामारी को बढ़ावा देने के अलावा और कुछ नहीं है। ऐसे चुनाव प्रचार से जो लोग लौट रहे हैं उनमें से कोरोनावायरस से लोगों का मरना भी शुरू हो चुका है। अगर इस देश के सुप्रीम कोर्ट को लोगों की जरा भी परवाह है, तो उसे कुंभ और चुनाव जैसे मामलों पर केंद्र और राज्य सरकारों से जवाब तलब करना चाहिए। महज अपने-आपको अपने बंगलों में कैद करके सुप्रीम कोर्ट के जज एक गैरजिम्मेदारी का रुख दिखा रहे हैं अगर उन्हें चुनावी रैलियों और कुंभ की लाखों लोगों की बिना मास्क की लापरवाह भीड़ की अगुवाई करते नेता नहीं दिख रहे हैं। महज अपने-आपको बचा लेना, और देश की आम जनता को नेताओं और सरकारों की रहमो-करम पर छोड़ देना किसी इज्जतदार अदालत का काम नहीं हो सकता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)