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आंबेडकर के सपनों का लोकतंत्र मोदी के कार्यकाल में कहां हैं?
15-Apr-2021 5:59 PM
आंबेडकर के सपनों का लोकतंत्र मोदी के कार्यकाल में कहां हैं?

-जुबैर अहमद

आंबेडकर को संविधान का जनक कहा जाता है क्योंकि वे संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष थे। ये भी कहा जाता है कि संविधान के चलते ही भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था काफी मजबूत बनी हुई है। हालांकि बीच में आपातकाल के 18 महीनों का दौर भी देश में रहा है, अगर इसको अपवाद मानें तो देश में लोकतंत्र पर कभी पड़ोसी देशों की तरह खतरा नहीं दिखा। लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार के लगातार दूसरे कार्यकाल में स्थिति बदलती दिख रही है। विदेश ही नहीं देश के अंदर भी मोदी सरकार पर संविधान और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को किनारे करने का आरोप लग रहा है। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं पर सवाल पश्चिमी देशों की संस्थाओं ने भी उठाए हैं।

वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री के समर्थकों के बीच ये धारणा बन रही है कि पश्चिमी देशों के लोकतंत्र पर भारत भी सालाना रिपोर्ट जारी करे और उन्हें यह पैगाम दे कि भारत के लोकतंत्र पर भाषण देने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखें। अमेरिका में काली नस्ल के लोगों पर आए दिन पुलिस और प्रशासन द्वारा अत्याचार और दूसरे पश्चिमी देशों में नस्लीय भेदभाव में इजाफा, भारत को ऐसी रिपोर्ट जारी करके वापस जवाब देने का मौका भी दे रहे हैं।

पिछले दिनों अमेरिका की संस्था फ्रीडम हाउस ने अपने वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार के अंतर्गत ‘भारतीय लोकतंत्र अब पूर्ण रूप से आजाद के बजाए केवल आंशिक रूप से आजाद रह गया है और यह अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा है।

अमेरिका की मानवधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वाच ने इस साल की अपनी सालाना रिपोर्ट में लिखा कि ‘सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों ने हाशिए के समुदायों, सरकार की आलोचना करने वालों, और धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों पर, अधिकाधिक दबाव डाला है।’

स्वीडन में गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय-स्थित वी-डेम संस्था की ताजा वार्षिक रिपोर्ट में भारतीय लोकतंत्र की रैंकिंग 97 रखी गयी है जो पिछले साल की तुलना में खराब हुई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत 2010 के चुनावी लोकतंत्र से अब चुनावी निरंकुशता में बदल गया है।

मोदी समर्थक इन रिपोर्टों से सहमत नहीं

भारत में एक वर्ग है जो इन रिपोर्ट्स से सहमत हैं और वर्तमान स्थिति को लेकर चिंतित है लेकिन इसके बावजूद विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर और वित्तीय मंत्री निर्मला सीतारमण ने इन रिपोर्टों को निरस्त करते हुए कहा है कि इन संस्थाओं से भारत को लोकतंत्र की सीख लेने की ज़रुरत नहीं है।

वहीं देश में मोदी समर्थक एक बड़े वर्ग का यह भी मानना है कि ‘दुनिया के सबसे बड़े और जीवंत लोकतंत्र’ के आलोचकों को आड़े हाथों लिया जाना चाहिए। यह तबका सोशल मीडिया पर मुखर है और ये देश की आबादी के एक बड़े हिस्से का नेतृत्व करता नजर आता है। प्रसार भारती के पूर्व अध्यक्ष और दक्षिणपंथी चिंतक डॉ. ए. सूर्य प्रकाश ने पिछले साल नवंबर में वी-डेम की 2020 रिपोर्ट के बाद प्रधानमंत्री मोदी को एक चि_ी लिखी थी जिसमें उन्होंने पश्चिमी देशों से जारी की गई रिपोर्टों को चुनौती देने की सलाह दी थी।

उनकी चि_ी पर विचार करने के लिए प्रधानमंत्री दफ्तर ने इसे विदेश मंत्रालय में भेजा। संयोग ऐसा हुआ है कि दो सप्ताह पहले दिल्ली की एक थिंकटैंक ने सात देशों में मानवाधिकार के उल्लंघन पर एक रिपोर्ट जारी की लेकिन इनमें पश्चिमी देश शामिल नहीं थे। कहा जा रहा है कि इस रिपोर्ट को बाहर से भारत सरकार का समर्थन हासिल था। अभी इस पर बहुतों का ध्यान भी नहीं गया लेकिन शायद ये एक शुरुआत है।

ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले दिनों भारत में भी पश्चिमी देशों के लोकतंत्र पर सालाना रिपोर्ट जारी होने का सिलसिला जोर पकड़े। पश्चिमी देशों की संस्थाओं की रिपोर्टों में ऐसी कौन-सी बातें हैं जिन पर कई देशवासी आपत्ति जता रहे हैं?

वी-डेम संस्था की रिपोर्ट के अनुसार डेनमार्क दुनिया का सब से बढिय़ा लोकतंत्र है, तीसरे नंबर पर स्वीडन और पांचवें नंबर पर नॉर्वे है, जबकि भारत 97वें स्थान पर है। सूर्य प्रकाश को इस पर आपत्ति है, ‘इस रिपोर्ट को पूरी ताकत के साथ रद्द करना चाहिए। डेनमार्क को नंबर वन लोकतंत्र बताया गया है जबकि वहां धर्म और राज्य को अलग नहीं रखा गया है। डेनमार्क के संविधान का कहना है कि इवैंजेलिकल लूथेरन चर्च देश का स्थापित चर्च होगा जो राज्य द्वारा समर्थित होगा। जबकि भारत का संविधान धर्म और राज्य को अलग रखता है और यह सेक्युलर है लेकिन इसके बावजूद भारत को 97वां स्थान दिया गया है।’

सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘स्वीडन का संविधान बताता है कि राजा हमेशा शुद्ध इवैंजेलिकल धर्म का समर्थन करेगा और राजकुमार या राजकुमारी को शादी करने के लिए सरकार की अनुमति की आवश्यकता होगी! नॉर्वे का संविधान कहता है कि राजा हर समय इवैंजेलिकल लूथेरन धर्म का प्रचार करेगा। दूसरी ओर, यह एजेंसी भारत में शायद ही लोकतंत्र बता रही है जो ज़माने से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है और यहां तक कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की प्रस्तावना में दर्ज है।’

स्टेफन लिंडबर्ग राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर और वी-डेम संस्थान के निदेशक हैं। सूर्य प्रकाश और भारत में संस्था की रिपोर्ट के आलोचकों को जवाब में वो क्या कहते हैं?

स्वीडन से बीबीसी को ईमेल पर जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘डेनमार्क, स्वीडन और नॉर्वे के बारे में ये कहना कि ये देश राजतंत्र हैं और ये कि इन देशों के संविधान के अनुसार शासकों को एक खास धर्म का ही होना चाहिए, गुमराह करने वाला तर्क है। लोकतंत्र केवल इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि एक शासन गणतंत्रात्मक और राजतंत्रात्मक है या नहीं। दुनिया की कुछ सबसे निरंकुश सरकारें गणतंत्र हैं, जिनमें चीन, सीरिया और उत्तर कोरिया शामिल हैं।’

‘हमारे आलोचकों ने जिन देशों का उल्लेख किया है, वे संवैधानिक राजतंत्र हैं, जहां सम्राट औपचारिक शक्ति रखते हैं और असल में वास्तविक सत्ता लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पार्लियामेंट के हाथों में है और एक ऐसी सरकार के हाथों में है जो संसदीय समर्थन पर निर्भर करती है।’

‘सोशल मीडिया पर मोदी की सबसे

अधिक आलोचना होती है’

वी-डेम की रिपोर्ट का दावा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। इस पर सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा गालियां आज हमारे पीएम मोदी को दी जा रही हैं। जऱा उनके विरोधियों द्वारा उत्पन्न एंटी मोदी हैशटैग को देखें। असल में हम दुनिया में धर्म के संदर्भ में सबसे विविध समाज हैं। 122 भाषाएँ, 170 स्थानीय बोलियां, और हमारी राजनीति। हमारे पास राजनीतिक दलों का एक पूरा स्पेक्ट्रम मौजूद है।’

सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘अजीब बात है कि वी-डेम रिपोर्ट का दावा है ‘संघ की स्वतंत्रता’ भारतीय नागरिकों के हाथों से फिसल रही है। फ्ऱीडम हाउस की रिपोर्ट कहती है कि भारत में राजनीतिक अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता कम हो रही है।’

सूर्य प्रकाश का तर्क है कि अगर ऐसा होता तो 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बीजेपी के अलावा 44 सियासी पार्टियां सत्ता में कैसे हैं?

सूर्य प्रकाश के अनुसार वी-डेम की रिपोर्ट का सबसे आपत्तिजनक हिस्सा भारतीय चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाना है। उन्होंने कहा, ‘देश के संविधान और चुनावी इतिहास को महत्व देने वाले प्रत्येक भारतीय को इस रिपोर्ट की निंदा इसलिए करनी चाहिए: पहला यह संस्था मानती है कि भारत पर एक दल का शासन है और दूसरे यह कि अन्य दलों के होने से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है।’

वी-डेम का तर्क

वी-डेम संस्थान के निदेशक स्टीफन लिंडबर्ग इस आलोचना पर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते हैं कि भारत के लोकतंत्र पर उनकी निजी राय दर्ज नहीं की गई है।

वो कहते हैं, ‘वी-डेम रैंकिंग 180 देशों के 3,500 स्थानीय विशेषज्ञों से एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है। हम पारदर्शी और निष्पक्ष रूप से दुनिया भर विशेषज्ञों की मदद से डेटा का इस्तेमाल करते हैं।’

वी-डेम संस्था से जुड़े डेनमार्क में आरहस यूनिवर्सिटी के राजीनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर स्वेन्ड-एरिक स्कानिंग इस मसले पर अपनी राय देते हुए कहते हैं, ‘उदार लोकतंत्र के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं उसमें पहला तो यह है कि क्या सभी नागरिकों को चेतना और धर्म की स्वतंत्रता हासिल है? दूसरा, कोई धार्मिक समूह चुनावी प्रक्रिया पर बाहर अनुचित प्रभाव तो नहीं डालते? दोनों पैमानों पर डेनमार्क खरा उतरता है।’

डेनमार्क स्थित एक प्रवासी भारतीय की डेनमार्क और भारत के लोकतंत्र के बीच तुलना

आरहस यूनिवर्सिटी के ही भारतीय मूल के प्रोफेसर ताबिश खैर पिछली 25 सालों से डेनमार्क में रह रहे हैं। वो बिहार के गया शहर से हैं, जहां उनका जन्म हुआ और जहाँ वो पले-बढ़े। वो हर साल भारत का दौरा करते हैं। उन्होंने कहा, ‘दुनिया की कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था सही नहीं है, लेकिन डेनमार्क जैसी जगहें भारत जैसी जगहों से कहीं बेहतर हैं। इसके चार मुख्य कारण हैं- जवाबदेही, पारदर्शिता, राजनीतिक शक्तियों का विकेंद्रीकरण और एक सक्रिय सिविल सोसाइटी। ये सभी चार भारत में कमजोर रहे हैं, और हाल के वर्षों में और भी खराब हुए हैं।’ उनका तर्क है कि भारत का लोकतंत्र पीछे जा रहा है। ‘हम 1975 में इंदिरा गांधी के दौर में पीछे गए। और हम 2014 से पीछे जा रहे हैं। इसके कारण एकसमान हैं- शीर्ष पर बैठे शख्स का कल्ट में बदलना, उचित जवाबदेही की कमी, गुटबाजी को बढ़ावा देने वाली राजनीति, शासन व्यवस्था की बढ़ती फिजूलखर्ची, नौकरशाहों और व्यापारियों की सांठगांठ और संविधान की अनदेखी करना।’ अमरीका में शिकागो यूनिवर्सिटी के राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर टॉम गिन्सबर्ग की निगाह भारत के लोकतंत्र पर सालों से है और वो अक्सर भारत का दौरा करते हैं। उन्होंने कहा, ‘भारत में लोकतांत्रिक गिरावट की आलोचनाओं को भारत में वह समूह भी उठा रहा है जिन्हें महसूस होता है कि उन्हें खामोश किया जा रहा है। फ्रीडम हाउस और वी-डेम के आंकलन विद्वानों द्वारा पूरी स्वतंत्रता के साथ तैयार किए जाते हैं। इन रिपोर्टों को पश्चिमी देशों की सरकारें नहीं तैयार करती हैं। संदेशवाहक को दोष देना बहुत आसान है, लेकिन संदेश सही हो सकता है।’

लोकतंत्र और आंबेडकर का संविधान अब भी जिंदा है

डॉक्टर आंबेडकर के जन्म दिवस पर भारत में लोकतंत्र और संविधान में आती कमज़ोरियों पर बहस इस बात का प्रतीक है कि भारत में लोकतंत्र और आंबेडकर के संविधान के प्रति आस्था बनी हुई है। सूर्य प्रकाश भी इस बात पर सहमत हैं कि आतंरिक आवाजें उठनी चाहिए। सूर्यप्रकाश कहते हैं कि उन्हें अफसोस है कि देश के गिनेचुने लोग ही संविधान के बारे में ठीक से जानते हैं।  वे डॉ.आंबेडकर के उस भाषण को याद कराते हैं जो उन्होंने 25 नवंबर, 1949 को दिया था। संविधान बन जाने पर संविधान सभा में उन्होंने आखिरी और ऐतिहासिक भाषण में संविधान और लोकतंत्र की रक्षा पर सम्पूर्ण जोर दिया था।

अगर वो आज जीवित होते तो देश में वर्तमान के लोकतंत्र और संविधान के अब तक के सफऱ से खुश होते?

‘नहीं होते’, ये था खरा जवाब था सूर्य प्रकाश का। उनका कहना है कि लोकतंत्र और संविधान के बगैर भारत का कोई भविष्य नहीं। आंबेडकर क्यों खुश नहीं होते? इस पर सूर्य प्रकाश कहते हैं, संविधान सभा को दिए आखिरी संबोधन में आंबेडकर ने कहा था कि केवल राजनीतिक लोकतंत्र से काम नहीं चलेगा। राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में बदलना होगा। जब तक ऐसा नहीं होता, लोकतंत्र भारत की धरती पर सिफऱ् ऊपरी पहनावा भर होगा।’

भारत राजनीतिक लोकतंत्र से सामाजिक लोकतंत्र में कितना बदला है? सूर्य प्रकाश कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि हम संवैधानिक और कानूनी माध्यमों से इस दिशा में आगे बढ़े हैं, लेकिन अभी भी हमें एक लंबा रास्ता तय करना है।’

भारत की लोकतंत्र में कुछ खामियों को सूर्य प्रकाश स्वीकार करते हैं लेकिन कहते हैं, ‘यदि आप भारत को नीचे दिखा रहे हैं, तो आप लोकतंत्र को नीचे दिखा रहे हैं।’ (bbc.com)

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