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छत्तीसगढ़ एक खोज : तेरहवीं कड़ी: जब गुरुदेव ने किया पत्नी से छल
17-Apr-2021 1:56 PM
छत्तीसगढ़ एक खोज : तेरहवीं कड़ी: जब गुरुदेव ने किया पत्नी से छल

Rabindranath Tagore and Mrinalini Devi with their first child bela, 1886. Image crdit: Ministry of Culture. Government of India

-रमेश अनुपम

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मन: स्थिति का केवल गुरुदेव ही आंकलन कर सकते थे। उनके हृदय सिंधु में उमड़ रहे ज्वार-भाटे को उनके अतिरिक्त भला और कौन समझ सकता था।

कभी-कभी जीवन में ऐसी भी विपदा की घड़ी आ जाती है कि हमारा विवेक, हमारा ज्ञान और हमारा अनुभव धरा का धरा रह जाता है, हमारी आत्मा की नाव  अंधेरी रात में किसी गहरी नदी में भटकने लगती है, दूर-दूर तक कोई किनारा हमें दिखाई नहीं देता है। गुरुदेव की स्थिति कुछ-कुछ ऐसी ही है।

गुरुदेव अतीत के गलियारों में भटक रहे हैं। जीवन और समय में बहुत पीछे लौटकर मृणालिनी देवी की स्मृति के गहरे सागर में धीरे-धीरे उतर रहें हैं। जैसे यह सब कुछ दिनों पहले की ही बात हो।

जब खुलना जिले के फूलतला ग्राम के बेनी माधब रायचौधुरी के घर जन्म लेने वाली भवतारिणी देवी उसके जीवन के निविड भुवन में चिरसंगिनी के रूप में उनकी पुश्तैनी हवेली जोड़ासांको आई थी।

गुरुदेव स्मरण कर रहे हैं तब भवतारिणी देवी की उम्र ही कितनी थी नौ वर्ष, नौ माह। स्वयं गुरुदेव उस समय 22 वर्ष 7 माह के थे, जब 9 दिसंबर सन 1883 को उनका विवाह हुआ था।

भवतारिणी देवी को उन्होंने स्वयं अपने लिए पसंद किया था। भवतारिणी देवी का श्यामल वर्ण उन्हें भा गया था। उनकी आंखें उसे सामने देख कर जैसे सब कुछ भूल गई थी। ‘जे देखाय से आमार चोख भूलियेछे।’

Rabindranath Tagore’s son Rathindranath and daughters Madhurilata Devi (Bela), Mira Devi and Renuka Devi.
Image crdit: Ministry of Culture. Government of India

दोनों बड़ी भाभियां ज्ञानानंदिनी देवी, कादंबरी देवी और ज्येष्ठ भ्राता ज्योतिन्द्रनाथ के साथ वधु की खोज में निकले रवींद्रनाथ ठाकुर को भवतारिणी देवी भा गई थी। उन्हें लगा  जिसकी वर्षों से खोज थी वह मिल गई है।

कच्चे धान की श्यामल आभा से दीप्त नौ वर्षीय भवतारिणी देवी। ‘ओरे कची धानेर चिकन आभा।’

गुरुदेव के मन में यह छवि सदैव के लिए अंकित हो गई थी। भवतारिणी देवी को कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने विवाह के पश्चात एक नया नाम दिया मृणालिनी। गुरुदेव की वह सबसे सुंदर  (बांग्ला में कहें तो दारुण सुंदर) एक कविता ही थी मृणालिनी। अब वह भवतारिणी नहीं गुरुदेव की सबसे सुंदर कविता मृणालिनी हो गई थी।

भवतारिणी तो वह तब थी, जब वह फुलतला गांव में थी, जब कविगुरु उसके जीवन में सौरभ की भांति महकने और अपनी सुगंध लुटाने के लिए नहीं आए थे। गुरुदेव ने बहुत सोच-समझकर मृणालिनी नाम रखा था। बुद्धिमती और कमल दोनों ही अर्थ मृणालिनी के होते हैं।

कमल के फूल के सदृश्य सुंदर और विदुषी थी भवतारिणी, इसलिए मृणालिनी नाम ही उनके अनुरूप हो सकता था।

उसी मृणालिनी के साथ उन्होंने छल किया था वह भी मात्र पच्चीस रुपए के लिए। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर इसलिए क्लांत और विचलित थे। गहन दुख के भार में डूबे हुए। गहन शोक में लीन।

बार-बार अतीत और वर्तमान की पगडंडियों में भटक रहे थे। मात्र उनतीस वर्ष की अल्पायु में  23 नवंबर सन 1902 में उसकी सबसे सुंदर कविता मृणालिनी उससे कोसों दूर चली गई थी । गुरुदेव के इस मर्मांतक वेदना को भला कौन समझ सकता था। जो समझ सकती थी वही उसे छोडक़र सदा के लिए कहीं खो गई थी।

जोड़ासांको के जिस घर ने उसे एक कुलवधू के रूप में देखा और अंगीकार किया था उसी घर के आंगन से वह विदा लेकर चली गई थी ।

जीवन का यह विचित्र खेल है। जीवन-मृत्यु , नूतन-पुरातन, शेष-अशेष ,पृथ्वी पर शुभागमन और विदाई न जाने इस सृष्टि में कब से चला आ रहा है।

सबकी यही नियति भी है, पर असमय घटित इस वेदना को क्या कहा जाए, गुरुदेव समझ नहीं पा रहे हैं।

उस पर पच्चीस रुपए के लिए किए गए छल को याद कर वे अपने ही प्रति घृणा से बार बार भर उठते हैं।

‘फांकि ’ कविता में गुरुदेव लिखते हैं-

‘बीनू जे सेई दू मासटीर निये गेछे आपन साथे।

जानलो ना तो फांकि सुधु दिलेम तराई हाते।’

( बीनू जो अपने साथ जिन दो महीनों को ले गई है, उसमें वह जान ही नहीं पाई कि उसके साथ  मैंने किस तरह का छल किया है। )

मृणालिनी देवी की मृत्यु के पश्चात गुरुदेव अपने लिए एक कठोर निर्णय लेते हैं और वह निर्णय है बिलासपुर जाकर रूखमणी को ढूंढने का। शेष अगले हफ्ते...

 

 

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