विचार / लेख
-देव
रोज की तुलना में मेट्रो आज सूनी है। इतना सूनापन डराता है। हालांकि आज दिल्ली में कफ्र्यूू है लेकिन जिंदगी तो चल ही रही है और कुछ जिंदगियाँ लडख़ड़ा रही हैं तो उन्हें संभालने की कोशिश में कई जिंदगियाँ लगी हैं। इस क्रूर समय में यही एक खूबसूरत बात है।
मेट्रो में एक लडक़ा हैरान-परेशान है। बार-बार पानी पी रहा है। लगातार कहीं फोन मिलाने की कोशिश कर रहा है, खीझ रहा है। बात नहीं हो पा रही है। एकाध जगह बात हुई तो ‘सलाम वालेकुम’ के आगे नहीं हो पाई। मास्क के ऊपर आँखें गीली हैं?माथे पर पसीने की सीलन है। एक जगह बात होने लगी, लडक़े के स्वर में घबराहट, गिड़गिड़ाहट थी- ‘सलाम वालेकुम भाई। आकिब बोल रहा हूँ। हाँ भाई, एक काम था भाई। हाँ अम्मी हार्ट पेशेंट हैं ना। हाँ तो आज साँस लेने में प्रॉब्लम हो रही है। हाँ डॉक्टर ने कहा कि ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतज़ाम करो। घर पर ही रखो।
ऐसे वक्त में कहीं ले जाने में भी खतरा ही है। हाँ भाई...नहीं... हमारी तरफ तो सात-आठ हजार देने पर भी नहीं मिल रहा ना। अरे उस वक्त तो साढ़े चार में ही हो गया था। नहीं भाई, कुछ कीजिए, प्लीज, मैं इंतजार करूँगा!’
इस फोन के बाद उसके माथे की एक-दो लकीरें कम हो गईं। उसने फिर पानी पीया। और मोबाइल में ही कुछ टाइप करने लगा। सामने बैठे एक अंकलजी लगातार उसे नोटिस कर रहे थे। उन्होंने थोड़ी देर तक देखने के बाद कहीं फोन मिलाया- ‘हैलो.. हाँ रजत भाई...और बता कैसा है यार। अच्छा सुन ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतज़ाम कर देगा क्या भाई, है कोई जरूरतमंद, हाँ! सामने बैठा आकिब चौंक जाता है और उम्मीद भरी निगाहों से अंकल की तरफ देखने लगता है। अंकल ने पाँचों उँगलियों से इशारा करके बताया ‘पाँच हजार का एक पड़ेगा।’ आकिब ने हाथ जोडक़र हामी भरी। अंकल फोन पर बोले- ‘ठीक है... दो मिनट में वापिस कॉल करता हूँ। चल.. ओके...!’
आकिब हाथ जोड़े खड़ा हो गया। अंकल ने कहा- ‘बेटा... मैं एड्रेस देता हूँ। चला जा... अपना नाम और नंबर दे दे मुझे। मैं रजत को बोल देता हूं। जाकर माँ की सेवा कर। भगवान सब ठीक करेगा...!’ आकिब की आँखों में आँसू आ गये। वो हाथ जोड़े खड़ा रहा। अंकल ने उठकर उसके हाथ पकड़े और कहा - ‘बेटा... मुश्किल समय है... गुजऱ ही जायेगा...!’ आकिब ने अपना नंबर और पता बताया। अंकल ने रजत को मैसेज भेजकर फोन कर दिया और सामने बैठे आकिब की हथेली पर अपनी जेब से सैनिटाइजऱ निकालकर टपकाया और खुद भी लगाया और बोले- ‘हिम्मत रख बेटे, ये करोना जायेगा ही कभी ना कभी....!’
आकिब ने शुक्रिया अदा किया। तो चचा बोले- ‘अरे तू फोन पर बात ना करता तो पता ही ना चलती तेरी परेशानी। ये मास्क के पीछे सबने अपनी-अपनी प्रॉब्लम छुपा रखी है!’
मेट्रो में पसरे सूनेपन को जि़ंदगी ने मानो ठोकर मार दी।