विचार / लेख
-राजेश प्रियदर्शी
रमज़ान का महीना शुरू हो चुका है। पाकिस्तान में जनरल जिय़ा के दौर में भाषा और संस्कृति के अरबीकरण पर बहुत ज़ोर होता था। वही दौर था जब रेडियो पाकिस्तान ने ‘ख़ुदा हाफिज़़’ की जगह ‘अल्लाह हाफिज़़’ कहना शुरू किया था। अक्सर रमज़ान और रमादान में कौन सही है इसकी चर्चा छिड़ जाती है। अरब दुनिया में घूमने पर पता चला कि वे पाकिस्तान को ‘बाकिस्तान’ कहते हैं और पेप्सी को बेब्सी। मुझे भी तकऱीबन हर जगह रादेश ही पुकारा गया।
बहरहाल, यह एक पुराना कि़स्सा जिसे लंदन में किसी पाकिस्तानी दोस्त ने बरसों पहले सुनाया था, अब नाम याद नहीं आ रहा। अरबी क़ुरआन शरीफ़ की भाषा है तो फ़ारसी रूमी और सादी की, कोई कम नहीं है, बस समझ का फेर है।
बहरहाल, इस कि़स्से के जिय़ा साहब जनरल जिय़ा नहीं हैं, उनसे इतनी ज़बानदराज़ी कौन करता? तो कि़स्सा यूँ है—‘जिय़ा साहब हाथों में थालियाँ लिए जा रहे थे। हमारे सामने से गुजऱे हमने कह दिया, जिय़ा साहब, ‘रमज़ान मुबारक’! रुके, पास बुलाया और बोले, ‘रमादान होता है सही लफ्ज़़, रमज़ान नहीं, अरबी का लफ्ज़़ है, अरबी की तरह बोला जाना चाहिए।’
मैंने भी कहा, आप सही कह रहे हैं दिया साहब। फ़ौरन चौंके-कहने लगे ‘ये दिया कौन है’ मैने कहा आप। कैसे भई, मैं तो जिय़ा हूँ... मैंने कहा जब रमज़ान रमादान हो गया तो फिर जिय़ा भी तो दिया हो जाएगा। ये भी तो अरबी का लफ्ज़़ है!
जिय़ा साहब जाने लगे तो हमने टोक दिया ‘कल इफ़्तारी में बकौड़े बनवाइएगा तो हमें भी भेज दीजिएगा।.
..फ़ौरन फडफ़ड़ा के बोले ‘ये बकौड़े क्या चीज़ है’...हमने कहा अरबी में ‘पे’ तो होता नहीं तो पकौड़े बकौड़े ही हुए...पेप्सी भी बेब्सी हो गई’ एकदम ग़ुस्से में आ गए ...तुम पागल हो गए हो...हमने कहा पागल नहीं बागल बोलिए अरबी में तो बागल ही हुआ...बहुत ग़ुस्से में आ गए कहने लगे अभी चप्पल उतार के मारूँगा...मैने कहा चप्पल नहीं शब्बल कहिए, अरबी में च भी नहीं होता...और ग़ुस्से में आ गए कहने लगे अबे गधे बाज़ आ। मैंने कहा बाज़ तो मैं आ जाऊँगा मगर गधा नहीं जधा कहिए, अरबी में ग भी नहीं होता...अब उनका पारा सातवें आसमान पर था...गरज के पूछा तो आखिर अरब में होता क्या है?’
कम हम भी नहीं हैं...कह दिया-आप जैसे दाहिल।