विचार / लेख
-रमेश अनुपम
गुरुदेव तो गुरुदेव थे। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यूं ही उन्हें गुरुदेव की उपाधि से विभूषित नहीं किया था। कवि हृदय गुरुदेव करुणा के विशाल सिंधु थे, मानवीय संवेदना के क्षीरसागर, जिसका कोई ओर-छोर ही नहीं था।
वे न किसी को दुख दे सकते थे और न ही किसी के साथ कोई छल कर सकते थे। उन्हें वैसे ही विश्वकवि के आसन पर नहीं बिठाया जाता है, कवि तो बहुत हुए पर विश्वकवि का दर्जा केवल रवींद्रनाथ ठाकुर को ही मिल सका।
सो गुरुदेव ने तय किया कि वे बिलासपुर जायेंगे और रूखमणी से मिलकर उनसे क्षमा मांगेंगे। यही नहीं बल्कि केवल कोलकाता वापसी के लायक पैसे अपने पास रखकर, जितनी भी राशि उनके पास होगी, वह सारी राशि रूखमणी के हाथों में रख देंगे।
यह गुरुदेव का अंतिम निर्णय था। सब कुछ बदल सकता था, पर गुरुदेव का यह निर्णय कदापि नहीं। कोलकाता से बिलासपुर तक का रास्ता गुरुदेव के लिए आसान नहीं था। रास्ते भर उनका मन व्याकुल पाखी की भांति यहां-वहां भटकता रहा। उनका हृदय मृग शावक की तरह न जाने कहां-कहां विचरता रहा।
गुरुदेव ही गुरुदेव की व्यथा-कथा को बूझ सकते थे। जैसे-जैसे बिलासपुर स्टेशन निकट आता जा रहा था, गुरुदेव की उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी। अंतत: बिलासपुर स्टेशन पर ट्रेन रुकी। गुरुदेव ट्रेन से नीचे उतरे। गुरुदेव को लगा यही उनका तीर्थ है, यही उनका गंतव्य। उनके भटकते हुए हृदय पाखी को जैसे नीड़ मिल गया हो । बिलासपुर स्टेशन पर पांव रखते ही गुरुदेव की आंखें रूखमणी के संधान में लग गईं।
गुरुदेव रूखमणी को हर जगह ढूंढ रहें हैं। स्टेशन के प्रथम श्रेणी यात्री प्रतीक्षालय से लेकर प्लेटफार्म के चप्पे-चप्पे में रूखमणी की तलाश कर रहे हैं। स्टेशन में वे हर किसी से रूखमणी के बारे में ही पूछ रहें हैं।
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता ‘ फांकि’ में लिखते हैं-
‘बिलासपुरे नेमे आमी
शुधाई सबार काछे। ंरूखमणी से कोथाय आछे? प्रश्न सुने अबाक माने
रूखमणी के ताई बा कजन जाने।’
(बिलासपुर स्टेशन में उतरकर मैं सबसे पूछता हूं
रूखमणी कहां है ?
प्रश्न सुनकर सब अवाक रह जाते हैं
रूखमणी कौन है ?
इसे कितने लोग जानते हैं। )
रूखमणी को स्टेशन में नहीं पाकर गुरुदेव बिलासपुर स्टेशन के बड़े बाबू के पास पहुंचे। बड़े बाबू से रूखमणी के बारे में पूछा। बड़े बाबू ने अपने दिमाग पर जोर डालकर कहा अच्छा-अच्छा झमरू कुली की पत्नी। फिर उसने कहा अब वे लोग यहां नहीं रहते हैं। गुरुदेव ने आशंकित मन से पूछा कि वे लोग मुझे अब कहां मिलेंगे। स्टेशन के बड़े बाबू गुरुदेव के इस सवाल से क्रोधित होकर बोले ‘वे कहां गए इसकी खबर कौन जानता है ’।
गुरुदेव ने इस दारुण प्रसंग का सजीव चित्रण ‘फांकि’ कविता में कुछ इस प्रकार किया है-
‘अनेक भेबे झामरू कुलिर बाऊ बललेम सेई
बलले सबे ‘एखन तारा एखाने के ऊ नेई’
शुधाई आमी कोथाय पाबो ताके ?
स्टेशनरे बड़ा बाबू रेगे बोलेन
‘से खबर के राखे’
(अनेक बार सोचने के उपरांत बड़े बाबू को याद आया कि गुरुदेव उनसे झमरू कुली की पत्नी के बारे में पूछ रहें हैं। बड़े बाबू ने कहा वे लोग इस समय यहां काम नहीं करते हैं। गुरुदेव ने पूछा कि वे लोग अब कहां मिल सकते हैं ? बड़े बाबू ने गुस्से में कहा वे कहां मिलेंगे इसकी जानकारी भला कौन रख सकता है )
गुरुदेव को सन 1902 में भला कौन जानता था। बंगाल में भी उन्हें जानने वाले लोग नहीं के बराबर थे। हालांकि उनकी ‘मानसी’ , ‘चित्रांगदा’ , ‘सोनार तरी’ जैसी अमूल्य कृतियां प्रकाशित हो चुकी थी, पर वे अभी लोकप्रिय नहीं हुई थी।
स्वयं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी उस समय तक लोकप्रिय कहां हुए थे। लोकप्रियता और अपार ख्याति अभी उनसे थोड़ी दूर थी।
रवींद्रनाथ ठाकुर को लोकप्रियता और अपार ख्याति सन 1910 में बांग्ला में लिखी गई कविताओं के संग्रह ‘गीतांजलि’ से मिली और सच कहा जाए तो उन्हें अपार ख्याति सन 1912 में ‘गीतांजलि’ के अंग्रेजी में अनुवाद के पश्चात् तथा सन 1913 में उस पर मिले विश्व के सर्वोच्च सम्मान नोबेल पुरस्कार से मिली।
इसलिए बिलासपुर स्टेशन में बड़े बाबू को रवींद्रनाथ ठाकुर एक सामान्य बंगाली भद्र लोक से ज्यादा और कुछ नहीं लगे।
वे कहां जानते थे कि जो भद्र लोक उनसे एक कुली की पत्नी के बारे में पूछ-ताछ कर रहा है वह कोई साधारण मनुष्य नहीं, बल्कि भविष्य में विश्वगुरु के नाम से संपूर्ण विश्व में पूजे जाने वाले और नोबेल पुरस्कार जैसे विश्व प्रसिद्ध पुरस्कार से पुरुस्कृत किये जाने वाले असाधारण मानव कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर हैं। शेष अगले हफ्ते