संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतंत्र तो हकीकत को जानने के हक का नाम है, सच दफन करने का नहीं
25-Apr-2021 7:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोकतंत्र तो हकीकत को जानने के हक का नाम है, सच दफन करने का नहीं

उत्तरप्रदेश के कानपुर की खबर है कि वहां सरकारी आंकड़े एक दिन में कोरोना से मरने वालों की संख्या किसी दिन तीन बता रहे हैं, तो किसी दिन छह। और वहां के स्थानीय अखबारों का कहना है कि वहां के अलग-अलग श्मशान घाटों पर अभी एक दिन में करीब पौने पांच सौ अंतिम संस्कार हुए और इनमें से अधिकतर कोरोना-मौतों के हैं। लोगों का मानना है कि अधिकतर मौतें कोरोना से हुई हैं, लेकिन सरकार उन्हें उस तरह दर्ज नहीं कर रही है। दूसरी तरफ गुजरात की खबरें लंबे समय से आ रही हैं कि वहां की सरकार ने कोरोना मरीजों की कोई भी और दिक्कत होने पर उनकी मौत को कोरोना-मौत की तरह दर्ज करना बंद कर दिया है, और सिर्फ उन्हीं मौतों को कोरोना गिना जा रहा है जहां मरीजों को और कोई भी दिक्कत नहीं थी। जाहिर है कि मौतों के आंकड़े पूरी तरह फर्जी हैं, इनसे ना असली तस्वीर सामने आ रही है, और ना ही हालात का कोई इलाज निकल सकेगा। पूरी दुनिया का लंबा तजुर्बा है कि किसी समस्या के समाधान का रास्ता, उस समस्या के अस्तित्व को मानने के बाद ही निकल सकता है। आज इस देश की सरकार और बहुत से प्रदेशों की सरकारें मुर्दों को ठीक से दफन करने के बजाए सच को दफन करने में लगी हुई है, सच को जलाकर पंचतत्व में में विलीन कर देना चाहती हैं ताकि उसका अस्तित्व ही ना दिखें।

आज देश में ऑक्सीजन की कमी को लेकर सच को बुरी तरह छुपाया जा रहा है, कोरोना की वैक्सीन को लेकर हकीकत छुपाई जा रही है,  कोरोना के इलाज के लिए जरूरी समझी जाने वाली दवाओं की हकीकत छुपाई जा रही है, और अस्पताल में मरीजों की गिनती, मरघटों में लाशों की गिनती, इन सबको भी छुपाया जा रहा है। आज दुनिया के कई अखबारों में हिंदुस्तान के बारे में यह खबर छपी है कि भारत की सरकार ने एक सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर को यह आदेश दिया है कि कोरोना तैयारियों में सरकारी कमी के बारे में लिखने वाले लोगों की ट्वीट ब्लॉक की जाएं। बहुत से भरोसेमंद अख़बारों ने एक अंतरराष्ट्रीय प्लेटफार्म के हवाले से लिखा है कि ट्विटर ने वहां जानकारी दाखिल की है कि भारत सरकार ने उसे किन-किन लोगों की ट्वीट रोकने के लिए कहा है। दुनिया की एक बड़ी प्रतिष्ठित पत्रिका, इकोनॉमिस्ट ने यह लिखा है भारत में कोरोना के आंकड़े, उस मोर्चे की सरकारी तैयारियों की जानकारी, और उससे मौतों के आंकड़े किस तरह छुपाए जा रहे हैं। इस पत्रिका का अंदाज है कि ये आंकड़े सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़ों से 10-20 गुना अधिक भी हो सकते हैं।

यह पूरा सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। लोगों को याद होगा कि जब आपातकाल लगा था और खबरें सेंसर होती थीं, तो छत्तीसगढ़ के रायपुर में उस वक्त के सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की वजह से दूरदर्शन केंद्र बन रहा था। उसे बनाते हुए एक निर्माण हादसा हुआ था जिसमें 5 या 7 मजदूर मारे गए थे। ऐसे हादसे कहीं भी हो सकते थे और उनसे मंत्री की कोई सीधी बदनामी भी नहीं होती थी, लेकिन सरकार इतनी डरी-सहमी थी कि उसने हादसे की उस खबर को भी सेंसर कर दिया था। ऐसी सेंसरशिप का खतरा यह था कि उस वक्त उस किस्म की सरकारी कंस्ट्रक्शन-लापरवाही और भी मामलों में हो सकती थी, और उस पर कोई रोक नहीं लग रही थी। आज जब किसी देश या प्रदेश में कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को छुपाया जा रहा है, कोरोना मौतों को छुपाया जा रहा है, अंतिम संस्कार को छुपाया जा रहा है, ऑक्सीजन की कमी को छुपाया जा रहा है तो जाहिर है कि कोरोना वायरस से निपटा नहीं जा सकता। आज दिल्ली के कई सबसे बड़े और सबसे महंगे अस्पतालों के मुखिया टीवी कैमरों के सामने रोते हुए दिख रहे हैं कि ऑक्सीजन न होने से वे अपने मरीजों को बचा नहीं पा रहे हैं। देश के कई प्रदेशों में अस्पताल मरीजों के घरवालों से पहले यह लिखवा रहे हैं कि अस्पताल में ना बिस्तर है, न ऑक्सीजन, है फिर भी वे उन्हें वहां भर्ती कर रहे हैं और जिम्मेदारी उनकी खुद की होगी।

इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने पिछले एक-दो बरस से अधिक वक्त से यह आदत बना ली है कि जब सांप निकल जाता है तब जज लाठी लेकर लकीर पर टूट पड़ते हैं। ऐसा ही पिछले बरस प्रवासी मजदूरों की वापसी के समय हुआ, लॉकडाउन के समय हुआ, और अभी ऑक्सीजन की कमी, इलाज की बदइंतजामी को लेकर भी हो रहा है। जाते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शरद बोबड़े जिस शहीद के अंदाज में कोरोना पर सरकार को नोटिस जारी कर रहे हैं, खुद होकर केस की सुनवाई शुरू कर रहे हैं, और सरकार को जवाब देने के लिए जिस तरह से मौका दे रहे हैं, उसे देखकर यह शक होता है कि क्या यह अदालती दखल किसी के काम की है? हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने 10-15 दिन पहले इसी जगह पर लिखा था कि अदालतों ने कोरोना से संक्रमित जनता की फिक्र करने के बजाए सुप्रीम कोर्ट के कुछ कर्मचारियों के पॉजिटिव निकल जाने पर अपने आप को बंगलों में सुरक्षित बंद कर लिया है और बंगलों से ऑनलाइन सुनवाई शुरू कर दी है। आज वही हालत है कि जिस वक्त देश की जनता के बीच लाश जलाने का इंतजाम नहीं था, ऑक्सीजन का इंतजाम नहीं था, उस वक्त तो जज अपनी ऊंची-ऊंची मीनारों पर अछूते बैठे हुए थे, और जब देश में कोरोना-विस्फोट हो चुका था, तो जाते हुए चीफ जस्टिस अपने आखिरी 3 दिनों में सरकार को नोटिस जारी कर रहे हैं। यह सिलसिला अच्छा नहीं है। किसी लोकतंत्र में अगर देश की सबसे बड़ी अदालत का रुख भी सरकार के साथ शास्त्रीय संगीत में जुगलबंदी सरीखा हो जाए, एक के बाद एक अनगिनत मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले या उसके आदेश, ऐसे लगने लगें कि वह सरकार की हिमायती है, तो ऐसी जनधारणा अदालत की इज्जत नहीं बढ़ाती। अदालत की सरकार के बारे में क्या सोच है, वह सोच क्यों है, यह अदालत ही जाने, हम उस बारे में कोई अटकल लगाना नहीं चाहते, लेकिन हम इतना जरूर चाहते हैं कि जब देश में आग लगी हुई रहे तब सुप्रीम कोर्ट के जज अपने आपको अपने सुरक्षित बंगलों में बंद करके रखना काफी ना मानें। लोकतंत्र में देश की सबसे बड़ी अदालत की जिम्मेदारी इससे कहीं अधिक होती है।

फिलहाल केंद्र सरकार, और कई प्रदेशों की सरकारें कोरोना मोर्चे की अपनी लापरवाहियों को उस तरह छुपा रही हैं, जिस तरह ट्रम्प के अहमदाबाद आने पर दीवार उठाकर झुग्गियों को छुपाया गया था. शायद ऐसी ही हरकत का साथ देने के लिए एक नामी, पद्मश्री पत्रकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्र निलंबित करने का फतवा कोर्ट और केंद्र सरकार को दिया है !(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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