संपादकीय
हिंदुस्तान में लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाने का काम एकदम अधर में टंगा हुआ दिख रहा है, उसके पास पैर टिकाने को जमीन पर नहीं है। भारत सरकार ने आज राज्यों को यह बात दोहरा दी है कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को टीका लगाना उनकी अपनी जिम्मेदारी है और उसके लिए वैक्सीन खरीदना भी उसे खुद ही को करना है। इसके पहले से 45 वर्ष से अधिक के लोगों को, और फ्रंटलाइन वर्कर्स कहे जाने वाले, डॉक्टर, अस्पताल-एंबुलेंस कर्मचारी, पुलिस और सफाई कर्मचारियों को वैक्सीन देना भारत सरकार पहले की तरह जारी रखेगी जिनमें से 14 करोड़ से अधिक लोगों को अब तक वैक्सीन लग भी चुका है। यह जाहिर है कि 45 वर्ष से अधिक के, और फ्रंटलाइन वर्कर्स में से बहुत अधिक लोग अब वैक्सीन लगवाने को बचे नहीं हैं। ऐसे में देश की बाकी तमाम बालिग आबादी को टीके लगाना अब राज्यों की जिम्मेदारी हो गई है, यह एक अलग बात है कि राज्यों को ये टीके खरीदने के लिए देश में कुल 2 कंपनियां आज हासिल हैं, जो कि अगले कुछ हफ्तों तक सप्लाई शुरू भी ना करने की बात कर रही हैं।
हिंदुस्तान की सरकार ने अपने ही देश की प्रदेश-सरकारों को अपने मातहत नौकरों की तरह इस्तेमाल करते हुए वैक्सीन का यह बोझ है जिस तरह उनके सिर पर डाला है वह अकल्पनीय हैं। भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य के बीच संबंधों का अधिकारों और जिम्मेदारियों का एक बंटवारा बनाया गया है। आज महामारी के कानून का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार साल भर से राज्य सरकारों पर कई तरह का काबू रखे हुए है। लेकिन अब जब केंद्र सरकार ने यह तय कर लिया था कि वह 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए वैक्सीन नहीं देगी और राज्यों को खुद उसका इंतजाम करना पड़ेगा, तो यहां पर केंद्र सरकार का नियंत्रण भी खत्म हो जाना चाहिए था, और यह राज्यों के ऊपर छोडऩा चाहिए था कि 18 वर्ष से अधिक के 45 वर्ष तक के लोगों को वह किस रफ्तार से, किन किस्तों में किस तरह वैक्सीन लगाएंगे। केंद्र सरकार ने अपनी तरफ से यह तारीख तय कर दी कि 1 मई से 18 वर्षों से ऊपर के सभी लोगों को वैक्सीन लगाई जाएगी। आज हालत यह है कि देश की आधी से अधिक आबादी इस आयु वर्ग में आ रही है, और जब 60 करोड़ लोग एक साथ वैक्सीन के हकदार मानकर टीकाकरण केंद्रों पर भीड़ लगाने के लिए छोड़ दिए जाएंगे तो क्या राज्यों के लिए इसका मैनेजमेंट आसान होगा? आज राज्यों को अपने पैसे से वैक्सीन खरीदने को भी कह दिया गया है, और वैक्सीन कंपनियों ने अब तक केंद्र सरकार को दिए जा रहे रेट के मुकाबले कई गुना अधिक रेट राज्य सरकारों के लिए रख दिए हैं। केंद्र सरकार ने, जब तक उसे खर्च करना था, वैक्सीन के दाम काबू में रखवाये, अब जब राज्यों के ऊपर इसका बोझ डाला जा रहा है तो वैक्सीन कंपनियों को अंधाधुंध मुनाफाखोरी करने की छूट दी जा रही है। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट में कल सुनवाई के दौरान एक जज ने सवाल किया कि केंद्र सरकार पेटेंट कानून के तहत वैक्सीन के दाम काबू में क्यों नहीं कर सकती? यह सवाल आम जनता के मन में भी उठ रहा है कि वैक्सीन निर्माताओं को ऐसी अंधाधुंध रेट बढ़ोतरी की छूट देकर भारत सरकार क्या कर रही है? क्या वह राज्यों को नाकामयाब दिखाना चाहती है या उनकी कमर तोड़ देना चाहती है, या यह दोनों ही काम एक साथ करना चाहती है? आज राज्यों को केंद्र सरकार से उसके फैसले का जिस तरह विरोध करना था वह राज्यों ने नहीं किया, क्योंकि आज ऐसा सैद्धांतिक विरोध शायद कोरोना मोर्चे पर केंद्र सरकार का विरोध गिन लिया जाता। लेकिन हम क्योंकि वोटरों की ऐसी किसी गलतफहमी के खतरे की फिक्र नहीं करते, इसलिए हम बार-बार इस बात को उठा रहे हैं कि केंद्र सरकार को जो टीकाकरण कार्यक्रम न करना है न जिसमें कोई मदद देनी है, उसे इतनी बुरी तरह बारीकी से डिजाइन करके राज्यों के ऊपर क्यों लाद दिया है? केंद्र सरकार ने जब तक खुद टीके दिए तब तक तो पहले 60 वर्ष की उम्र से अधिक के लोगों के लिए दिए, फिर फ्रंटलाइन वर्कर्स के लिए दिए, फिर 45 वर्ष से अधिक के दूसरी बीमारियों से परेशान लोगों के लिए दिए, और आखिर में जाकर तीसरी-चौथी किस्त में 45 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों के लिए टीके दिए। यह देना अभी जारी ही है और 16 जनवरी से शुरू हुआ टीकाकरण कार्यक्रम अभी किसी किनारे पहुंचा नहीं है, देश की आबादी को देखें तो आबादी का 10 फीसदी ही अभी टीके पा सका है। ऐसे में एक छोटी आबादी को टीके देने के बाद केंद्र सरकार ने एकदम से करीब आधी आबादी के लिए दरवाजे खोल दिए और उन दरवाजों की चाबी राज्य सरकारों के हाथ थमा दी कि वे उस पर काबू करें वे टीके खरीदें और लगाएं। एक साधारण समझबूझ भी यह सुझाती है कि राज्यों को टीकाकरण के लिए आयु वर्ग तय करने का अधिकार खुद को देना चाहिए था क्योंकि किसी भी राज्य की क्षमता नहीं है कि वह अगले कई महीनों में भी अपनी आधी आबादी को टीका लगा सके। ऐसे में कुंभ की अराजक भीड़ की तरह, और बंगाल की चुनावी रैलियों में अनगिनत लोगों की भीड़ की तरह की भीड़, राज्यों के टीकाकरण केंद्र पर लगवाने का यह काम केंद्र सरकार ने किया है जो कि राज्यों के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है। हमें तो यह बात बेहतर लगती अगर राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के इस बिना वजह लादे हुए फैसले का विरोध करते और याद दिलाते कि जिस कार्यक्रम में केंद्र कोई सहयोग नहीं कर रही है उस कार्यक्रम की बारीक बातों को तय करना राज्यों का अधिकार होना चाहिए था, और केंद्र ने इसमें बिना वजह एक नाजायज दखल दी है।
आज बहुत से जानकार लोग यह मान रहे हैं कि जिस तरह पिछले बरस कोरोना का खतरा दिखते ही अमेरिका, और यूरोप के बहुत से देशों ने, भारत के टीका निर्माताओं से सौदे किए और उनसे करोड़ों टीके खरीदने का रेट तय किया, उन्हें भुगतान किया। उस वक्त भी पूरी दुनिया यह देख रही थी कि कोरोनावायरस की लहर बारी बारी से एक-एक देश में आते जा रही है, और भारत सरकार को भी वह दिख रहा था. लेकिन उसने अपने ही देश की कंपनियों से न सौदे किये, न टीकों की बुकिंग की। और आज तो हालत यह है कि उसने इस सौदेबाजी का बोझ रातों-रात राज्य सरकारों पर डाल दिया है जिनसे कि ये कंपनियां किसी मुनाफाखोर और सूदखोर की तरह मुसीबत के वक्त मनमाना सूद वसूल करने का मोलभाव कर रही हैं। भारत सरकार ने, जिस वक्त पूरे देश के लिए टीकों के जुगाड़ करने का मौका था, उस पर जिम्मेदारी थी, उस मौके को पूरी तरह चले जाने दिया, वक्त पर अपना काम नहीं किया, और आज जब राज्यों के पास कोई विकल्प नहीं है, तब उन्हें बाजारू कारोबारियों के पास भेजा जा रहा है कि वे जाकर खुद मोलभाव करें। यह पूरा सिलसिला मोदी सरकार की भारी गैरजिम्मेदारी का भी है, और यह केंद्र-राज्य संबंधों के मुताबिक बहुत नाजायज भी है। आज राज्य खुद होकर टीके खरीदने की कोशिश कर रहे हैं जो कि उन्हें केंद्र सरकार के मुकाबले कई गुना अधिक दाम पर मिलने का आसार दिख रहा है। दूसरी बात यह कि केंद्र सरकार ने अपनी मर्जी से यह तय किया कि वह किस उम्र से नीचे के लोगों का खर्च नहीं उठाएगी और यह राज्यों का जिम्मा रहेगा। देश में पीएम केयर्स फंड के नाम से जो हजारों करोड़ों रुपए इक_ा हुए हैं उस फंड से ही पूरे देश के लोगों के लिए टीके खरीदने थे। और इस कानून को भी टटोलना था कि किस तरह देश में बनने वाली वैक्सीन के दाम नियंत्रित किए जा सकते हैं। लेकिन जिस दिन प्रधानमंत्री ने टीका बनाने वाली कंपनियों और दवा कंपनियों के साथ बैठक की, उसी दिन यह फैसला ले लिया गया कि अब इस देश के राज्य इन कंपनियों के रहमोंकरम पर जिंदा रहेंगे।
आज जब हिंदुस्तान में कोरोना की लहर उफान पर है, एक सुनामी सा आया हुआ है, उस वक्त टीकों को पूरी रफ्तार से बाजार में रहना था, लोगों की पहुंच में रहना था, राज्य सरकारों के हाथ में रहना था। लेकिन इस नाजुक मौके पर, इस खतरनाक मोड़ पर, केंद्र सरकार ने राज्यों को बेसहारा छोड़ा है और देश की जनता को एक किस्म से मुनाफाखोर वैक्सीन कंपनियों के पास गिरवी रख दिया है। यह पूरा सिलसिला अलोकतांत्रिक है, भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है, और अमानवीय भी है। यह समझ लेने की जरूरत है कि अब अगर कोरोना का यह उफान काबू में नहीं आता है तो इसके पीछे पिछले 10 दिनों से वैक्सीन को लेकर केंद्र सरकार की खड़ी की हुई अनिश्चितता भी एक बड़ी जिम्मेदार वजह रहेगी। इस बात को देश में हर समझदार तबके को उठाना चाहिए कि केंद्र सरकार ने मंझधार में सिर्फ राज्यों को नहीं छोड़ा है, देश के नागरिकों की जिंदगी को भी कोरोना की इस तूफानी लहर के बीच मंझधार में छोड़ दिया है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)