विचार / लेख
ममता की जीत से कांग्रेस और कम्युनिस्ट पाटियों का सूपड़ा साफ हो जाना लोकतंत्र के लिए हार्ट अटैक से छोटी घटना मैं नहीं मानता। 1997 के उस कांग्रेस सम्मेलन में मैं हाजिर था जहां समानांतर सम्मेलन तृणमूल कांग्रेस स्थापित होने की शुरुआत की सुगबुगाहट देते ममता के नेतृत्व में ब्रिगेड परेड मैदान में चल रहा था। यह कांग्रेस को सोचना रहा है कि उसके अंदर कौन सी बुराइयां लोगों को दिख रही हैं कि मैदानी ताकत के नेता उससे छिटकते रहे हैं। ममता भी हालात की स्वार्थमय मजबूरी के कारण अटल बिहारी वाजपेयी की कूटनीति के चलते भाजपा के साथ जुड़ गई थीं। हालांकि वह सैद्धांतिक रूप से गलत था। इसी तरह जगन रेड्डी आंध्रप्रदेश में, नवीन पटनायक उड़ीसा में, शरद पवार महाराष्ट्र में तथा अन्य कई नेता कांग्रेस की मूल प्रवृत्ति के हैं। कांग्रेस तो हार गई लेकिन तृणमूल कांग्रेस की संस्कृति मूल कांग्रेसी संस्कृति से बहुत जुदा नहीं है, बल्कि उत्तराधिकार में है। अन्यथा ममता ने अपने दम पर पार्टी बनाते वक्त कांग्रेस शब्द छोड़ दिया होता। उनकी पार्टी के नाम में कांग्रेस तो लिहाफ है जिसमें तृणमूल कार्यकर्ताओं को अहमियत है, कुर्सी तोड़ने वालों की नहीं। ममता को लाखों के कार्यकर्ताओं को समर्थन के बावजूद बंगाल के धाकड़ अध्यक्ष सोमेन मित्रा की तिकड़मों से पहले सीताराम केशरी और बाद में सोनिया गांधी का संरक्षण नहीं मिल पाया।
बंगाल में साम्यवादियों का पतन प्रगतिशील राष्ट्र के भविष्य के लिए काला धब्बा लेकर आया है। नंदीग्राम और सिंगूर में ही टाटा का नैनो कारखाना और मलेशिया के सलीम संस्थान जैसे कारखाने को प्रश्रय देने के कारण युवा ममता बनर्जी एक छत्रप बनकर उभरी थीं। वहां आधा बीघा एक बीघा जोत के जमीन के किसान और खालिस गरीब मुस्लिम आबादी को प्रताड़ित और विस्थापित होना पड़ रहा था। लोकतंत्र में यदि ममता द्वारा इस तरह का विरोध महात्मा गांधी की शिक्षाओं के अनुकूल नहीं रहा है तो क्या कांग्रेस पार्टी को इस ओर से भी आंख मूंद लेना चाहिए था? ऐसे भी नेता हैं जो कांग्रेस में राष्ट्रीय महासचिव या पर्यवेक्षक बनकर उत्तरप्रदेश, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और बंगाल वगैरह में कबाड़ा करते हैं लेकिन हाईकमांड की आंख का सुरमा बनते रहे हैं। कौन बचाएगा गांधी- नेहरू-इंदिरा के रास्ते पर चलकर देश की सबसे बड़ी प्रतिनिधि पार्टी के भविष्य को?
विधानसभा में लगभग चौथाई सीटें जीत लेने के बाद भाजपा का आश्वस्त होना जरूरी है कि पांच साल बाद क्या क्या गुल वह खिला पाएगी। 3 सीट से 77 सीट तक पहुंचना एक राजनीतिक अजूबा तो है। हालांकि वह लोकसभा में 128 सीटों की बढ़त के मुकाबिले 51 सीट नीचे गिरी है। यह वह करिश्मा है जिसकी कीमत कांग्रेस और कम्युनिस्टों ने चुकाई है। उनके ढीले ढाले मैदानी प्रतिनिधित्व के कारण उनका ही वोट बैंक भाजपा की झोली में फिलहाल कुछ वर्षों के लिए चला ही गया है। उन्हें तो अंकगणित के प्राथमिक पाठ पढ़ने होंगे वर्ना बंगाल में इन दोनों पार्टियों का यश फिलहाल तो भाजपा ने पोंछ दिया है। संयुक्त मोर्चे का कथन बेमानी है कि उनका वोट बैंक ममता को गया है। तो फिर भाजपा के पास किसका वोट बैंक आया? भारतीय राजनीति में विषैला दलबदल अभियान भाजपा ने कर रखा है। वह लोकतंत्र के नाम पर संसार की सबसे बड़ी चुनौती है।
कांग्रेस के उदार नेता राजीव गांधी ने कुछ गलतियां सद्भावना या बहकावे में आकर कर दी होंगी। राममंदिर का ताला खुलवाना, मुस्लिम महिलाओं को पुरुषों के अत्याचार से बचाने के मामले में कठमुल्ला ताकतों के सामने शाहबानो प्रकरण में दब जाना और लोकसभा में 80 प्रतिशत बहुमत होने पर भी भाजपा के भी सहयोग से दलबदल के उदार कानून को पास कराकर राजीव गांधी ने राजनीतिक चिंतन और नेकनीयती का परिचय दिया। कड़ियल राजनीति की कुटिल चाल में उनकी सद्भावना बस इतनी ही काम आई कि उनका जन्मदिन सद्भावना दिवस के रूप में मनाया जाए। उनके राजनीतिक वंशज निश्चित रूप से शाइस्तगी और शराफत के प्रतीक हैं लेकिन मौजूदा दौर में ममता बनर्जी जैसी खुद्दार मैदानी नेताओं की कांग्रेस को जरूरत है। यह तो लालू यादव जैसे प्रतिबद्ध समाजवादी को न्यायिक अन्याय की अमरबेल में फंसाकर उनकी सेहत टूटने तक जेल में रखा गया। वरना बिहार में नीतीश कुमार जैसे नेताओं को पानी पिलाने में दिक्कत नहीं होती। उत्तरप्रदेश के अखिलेश यादव, दिल्ली के केजरीवाल, महाराष्ट्र के उद्धव ठाकरे बिल्कुल ही अलग फितरत के हैं। लेकिन महाबली से लड़ने के लिए उनके पास कूटनीतिक सफलता के अलग अलग हथियार हैं। पता नहीं देश का भविष्य क्या होगा?
राष्ट्रीय आंदोलन की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस की केन्द्रीय भूमिका की इतिहास को जरूरत है। सत्ता के नज़रिए से पार्टियों को देखने का काम राजनीति के सिद्धांत में नहीं होता। राष्ट्रीय आंदोलन में लोकतंत्र, व्यक्ति की गरिमा, समान अवसर, समाजवाद, सेक्युलरिज़्म सबको पाल पोसकर बड़ा किया गया है। मुझे कहने में गुरेज़ नहीं है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी लड़ते जरूर हैं लेकिन जनता को क्यों लगता है कि प्रतीकात्मक तौर पर लड़ रहे हैं। एक साथ पूरी पार्टी उठकर क्यों खड़ी नहीं होती? तब तो नतीजा मिल सकता है। नेता और कार्यकर्ताओं के बीच यदि कांग्रेस फासला बढ़ाती लगती प्रचारित होती रहेगी तो कार्यकर्ताओं को लोग पिछलग्गू और अनुयायी कहने लगेंगे। यहीं से पतन के बिन्दु की शुरुआत होती है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री अचानक इतने मजबूत भी हो गए हैं और उन्हें मीडिया प्रचारित लोकप्रियता भी मिल रही है। इससे भी एक राष्ट्रीय पार्टी के संविधान के तहत ढांचागत आचरण के लिए सवाल भी पैदा हो सकते हैं।