संपादकीय
लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब दिल्ली में केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिलिया इस्लामिया के पास नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ चल रहे विरोध-प्रदर्शन के दौरान हिंसा हुई थी, तो केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने कई छात्रों और दूसरे लोगों को गिरफ्तार किया था। इन पर हिंसा के आरोप लगाए गए थे। इनमें अधिकतर नाम मुस्लिम थे। इनमें से सबसे चर्चित नाम जेएनयू के छात्र शरजील इमाम का था जिस पर राजद्रोह और दंगा भडक़ाने वाले भाषण का जुर्म लगाया गया था। यह होनहार छात्र आईआईटी से कम्प्यूटर इंजीनियर है, और जेएनयू से पीएचडी कर रहा है। अभी दिल्ली के साकेत कोर्ट के जज अरुल वर्मा ने दिसंबर 2019 के एक मामले से ऐसे 10 छात्रों को बरी कर दिया है जो लगातार जेल में चले आ रहे थे। अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि पुलिस जुर्म करने वाले असली मुजरिमों को पकडऩे में नाकाम रही, लेकिन इन लोगों को बलि के बकरे के तौर पर गिरफ्तार किया। जज ने कहा कि इस तरह की पुलिस कार्रवाई ऐसे नागरिकों की आजादी को चोट पहुंचाती है जो अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए जुटते हैं। फैसले में लिखा गया है कि इन छात्रों (तमाम मुस्लिम) को इस तरह के लंबे और कठोर मुकदमे में घसीटना देश और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के लिए अच्छा नहीं है। जज ने कहा यह बताना जरूरी है कि असहमति और कुछ नहीं बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में निहित प्रतिबंधों के अधीन भाषण देने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अमूल्य मौलिक अधिकार का विस्तार है। जज ने कहा ये एक ऐसा अधिकार है जिसे बरकरार रखने की हमने शपथ ले रखी है। जब भी कोई चीज हमारी अंतरात्मा के खिलाफ जाती है तो हम उससे मानने से इंकार कर देते हैं। अपना कर्तव्य समझते हुए हम ऐसा करने से इंकार करते हैं। ये हमारा फर्ज बन जाता है कि हम किसी ऐसी बात को मानने से इंकार करें जो हमारी अंतरात्मा के खिलाफ है। जज वर्मा ने देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ की हाल की एक टिप्पणी का भी हवाला दिया है जिसमें कहा गया था कि सवाल करने और असहमतियों के लिए जगह खत्म करना राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक तरक्की के आधार को खत्म करना है। इसलिए लिहाज से असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। जज वर्मा ने आगे लिखा, इसका मतलब ये है कि असहमतियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, न कि उन्हें कुचलना चाहिए, हालांकि असहमति शांतिपूर्ण होनी चाहिए, और हिंसा में तब्दील नहीं होनी चाहिए।
हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली की पुलिस, और उत्तरप्रदेश में भाजपा की योगी सरकार की पुलिस ने बहुत से मामलों में मुस्लिमों को इसी तरह फर्जी मामलों में घेरा है, और एक के बाद एक कई मुकदमे दायर करके लोगों की रिहाई को अंतहीन तरीके से रोक रखा है। अदालतों ने इन सरकारों की पुलिस की ऐसी साजिशों का भांडाफोड़ होने के बाद भी सरकारों के रूख में कोई फर्क नहीं है क्योंकि संदेह का लाभ देते हुए अदालतें जांच एजेंसियों के खिलाफ आमतौर पर कोई कार्रवाई नहीं करती हैं। इसलिए सत्ता के दबाव में पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां लोगों को विचाराधीन कैदी बनाकर ही सजा दिलवाने का काम करती हैं। और अब तो हाल ऐसा हो गया है कि इसे सत्ता का दबाव कहना भी ठीक नहीं है, बहुत से राज्यों में, बहुत सी पार्टियों की सरकारों के मातहत आज पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां खुद होकर सत्ता की सेवा करने में ऐसी जुट जाती हैं कि सत्ता को मुंह भी नहीं खोलना पड़ता। जांच एजेंसियां और पुलिस जब एक चापलूस निजी सेवक की तरह काम करके मोटी कमाई करने का एक जरिया ढूंढ निकालती हैं, तो फिर कोई बड़े पेशेवर मुजरिम भी जुर्म करने में उनकी बराबरी नहीं कर सकते। ऐसे ही रूख का नतीजा है कि हिन्दुस्तान में बेकसूर लोग बरसों तक जेल काट रहे हैं, और आमतौर पर जिला अदालतों के जज उन्हें रिहा करने का हौसला भी नहीं दिखा पाते हैं। पिछले बरसों में इस देश ने छात्र आंदोलनकारियों, सामाजिक आंदोलनकारियों, कॉमेडियन और कार्टूनिस्ट, सोशल मीडिया पर सक्रिय जागरूक लोगों को कुचलने का ऐसा सिलसिला देखा है जो बताता है कि लोकतंत्र इस देश में एक कागजी सामान होकर रह गया है, और अमल में उसकी कोई जगह रखने की नीयत सरकारों की नहीं रहती है।
हमारा ख्याल है कि जब अदालतें यह पाती हैं कि पुलिस या दूसरी जांच एजेंसियां बदनीयत से कोई काम कर रही थीं, तो उनकी जवाबदेही कटघरे में तय होनी चाहिए। जब अदालत यह पा रही है कि बेकसूर छात्रों को बलि का बकरा बनाया गया, उन पर राजद्रोह जैसे मुकदमे चलाए गए, तो फिर ऐसी पुलिस को महज एक आलोचना के साथ छोड़ देना ठीक नहीं है। ऐसी पुलिस को ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि सत्ता की फरमाईश पर वह ऐसा अगला जुर्म करने के पहले चार बार सोचे, और अपने भविष्य की फिक्र करे। अदालती आलोचना से किसी वर्दी पर कोई आंच नहीं आती, बल्कि ऐसी आलोचना को ऐसी पुलिस अपने राजनीतिक आकाओं को दिखाकर उनसे वाहवाही और पा सकती है।
हिन्दुस्तान में पुलिस सुधार की बातें होते पीढिय़ां गुजर गई हैं, और एक वक्त अंग्रेज सरकार की पुलिस में जिस तरह हिन्दुस्तानी सिपाही उसके वफादार थे, उसी तरह आज की तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों में आज पुलिस सत्ता पर काबिज लोगों की बदनीयत के प्रति वफादार रहती है। यह सिलसिला खत्म किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके बिना बेकसूर लोग बरसों तक जेल में कैद रहेंगे, राजद्रोह जैसी तोहमतें झेलेंगे, और इंसाफ नाम के अजगर को करवट बदलने में ही कई बरस लग जाएंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के जिस महंगे और सरकारी रिहायशी इलाके शंकर नगर में अफसरों और मंत्रियों के बंगले हैं वहां अभी दो दिन पहले, एक आम दिन पर वायु प्रदूषण का पीएम 2.5 का स्तर 138 था, पीएम 2 का मतलब हवा में प्रदूषण के बारीक कण। एक पर्यावरण एक्टिविस्ट के मुताबिक विश्व स्वास्थ्य संगठन के पैमाने पर यह 5 होना चाहिए था, अधिकतम 40 होना चाहिए था। यह हाल कारखानों से दूर चौड़ी सडक़ों वाले इलाके का है। अब इसी शहर का एक बड़ा हिस्सा कारखानों का है, और फौलाद के बहुत अधिक प्रदूषण पैदा करने वाले कारखानों का है। उस इलाके में लाखों मजदूर रहते हैं, और रोजाना लाखों मजदूर कई किस्म के कारखानों में भी काम करते हैं। इसलिए वहां प्रदूषण का क्या हाल होगा इसके सरकारी आंकड़ों पर कोई भरोसा करना ठीक नहीं है। लेकिन पूरे हिन्दुस्तान में 21 ऐसे शहर हैं जो कि दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित देशों की फेहरिस्त का हिस्सा हैं। दुनिया में सबसे अधिक वायु प्रदूषण वाले 20 शहरों में से 13 हिन्दुस्तान में हैं। हिन्दुस्तान में कम से कम 14 करोड़ लोग ऐसी हवा में सांस लेते हैं जो कि डब्ल्यूएचओ की बताई सीमा से दस गुना अधिक प्रदूषित है। एक वैज्ञानिक अनुमान के मुताबिक वायु प्रदूषण से हिन्दुस्तान में हर बरस 20 लाख समय पूर्व जन्मे बच्चों की मौत होती है। विकिपीडिया के आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण का आधा हिस्सा उद्योगों से है, एक चौथाई से कुछ अधिक हिस्सा वाहनों के प्रदूषण से है, 17 फीसदी हिस्सा फसलों के ठूंठ जलाने से है, और 5 फीसदी हिस्सा बाकी वजहों से है।
दो दिन पहले की एक अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक रिपोर्ट यह कहती है कि प्रदूषित हवा में खेल रहे शतरंज खिलाडिय़ों के फैसले उससे बुरी तरह प्रभावित होते हैं, वे जल्द फैसले नहीं ले पाते, गलतियां बार-बार करते हैं, और बड़ी-बड़ी करते हैं। मैनेजमेंट साईंस नाम की एक पत्रिका में प्रकाशित इस शोध रिपोर्ट में शतरंज टूर्नामेंट के बंद कमरों के भीतर के प्रदूषण को नापकर वहां खेल रहे खिलाडिय़ों की चली जा रही चालों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया, तो उसका यह नतीजा निकला। आज दुनिया के बड़े-बड़े शतरंज खिलाड़ी, जिनमें भारत के कुछ दिग्गज खिलाड़ी भी हैं, वे मैच के वक्त अपने आसपास के वायु प्रदूषण को नापने लगे हैं, क्योंकि इससे उनका खेल प्रभावित हो रहा है। अब देखें तो ऐसे टूर्नामेंट तो बेहतर शहरों में, बेहतर हॉल के भीतर तकरीबन साफ हवा में होते हैं, लेकिन वहां भी अगर हवा में पीएम 2.5 जैसा प्रदूषण अधिक है, तो इससे खिलाडिय़ों के फैसलों पर सीधे-सीधे असर पड़ता है। यह रिसर्च रिपोर्ट दुनिया के एक सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय, एमआईटी के एक प्राध्यापक की लिखी हुई है। इसमें पिछले 20 बरस के शतरंज मुकाबलों का अध्ययन किया गया है, और यह नतीजा निकालते हुए दूसरी वजहों, जैसे कि शोरगुल, तापमान में फेरबदल के प्रभावों को अलग कर दिया गया था।
अब इन दो बातों को मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि जितने तरह का प्रदूषण लोगों की जिंदगी पर हावी है, वह लोगों के काम और फैसलों की क्षमता को पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रभावित कर रहा है। हिन्दुस्तान में अगर वायु प्रदूषण से हर बरस 20 लाख से अधिक जन्म पूर्व पैदा बच्चे मर रहे हैं, तो बाकी लोगों पर मौत से कम जो असर हो रहा होगा, उसकी कल्पना अधिक मुश्किल नहीं है। आज सचमुच में रईस और ताकतवर लोग, कामयाब पेशेवर लोग किसी प्रदूषित देश या शहर में रहना नहीं चाहते, अगर वहां रहना उनकी मजबूरी न हो। लोग साफ-सुथरे शहरों में रहना चाहते हैं, जहां प्रदूषण उनकी जिंदगी खत्म न करे, और उनकी जिंदगी की क्वालिटी, और काम की क्वालिटी बेहतर हो सके। हवा के साथ दिक्कत यह है कि वह शहर के एक हिस्से में अगर बहुत खराब है, तो शहर के दूसरे हिस्से में वह लाख तरकीबें आजमाने पर भी बहुत अच्छी नहीं हो सकती। इसलिए अगर किसी शहर में बहुत प्रदूषण है, तो उस शहर को हांकने वाले लोग बेहतर इलाकों में रहते हुए भी उससे पूरी तरह नहीं बच सकते। शतरंज का खेल तो बहुत तेज रफ्तार से फैसले लेने का रहता है, और एक सीमित समय के भीतर लोगों के बहुत सी चालें चलनी पड़ती हैं, इसलिए लोगों के फैसलों की तेजी को आंकना हो पाता है। लेकिन असल जिंदगी में गाड़ी चलाते हुए अचानक किसी हादसे से बचने का फैसला लेने में अगर प्रदूषण की वजह से देरी हो रही है, तो ऐसी होने वाली मौतों की वजहों को देखते हुए कोई वायु प्रदूषण के बारे में सोचेंगे भी नहीं।
ऐसा लगता है कि यह दुनिया अब बेहतर पर्यावरण के बीच जीने वाले लोगों और खराब पर्यावरण से प्रभावित लोगों के बीच एक दिखाई न देने वाला मुकाबला भी बन गई है। अगर प्रदूषित हवा से जिंदगी में तमाम वक्त एक फर्क पड़ रहा है, तो प्रदूषित शहरों की पीढिय़ां एक किस्म से साफ शहरों से पीछे रह जाने का खतरा तो रखती ही हैं। यह पूरा प्रदूषण पिछली कुछ सदियों का ही है, जब से मशीनें बनीं, कारखाने चले, और सडक़ों पर गाडिय़ां आईं। इसलिए यह सब कुछ इंसान की पिछली सौ पीढिय़ों के भीतर की ही बात है। इतने कम वक्त में दुनिया की आबादी का एक बहुत बड़ा गरीब हिस्सा बहुत गंभीर प्रदूषण का शिकार हो गया है, और अपने आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ वह सेहत के ऐसे पिछड़ेपन का भी शिकार हुआ दिखता है जो कि कुपोषण से शुरू हुआ है, और प्रदूषण के साथ पल-बढ़ रहा है। ऐसे में कारखानों और गाडिय़ों के प्रदूषण को कम करके प्रदूषण के तीन चौथाई हिस्से में से काफी कुछ घटाया जा सकता है। सरकारें हांकने वाले लोगों को यह सोचने पर मजबूर करने के लिए जानकार लोगों का इस पर लिखना जरूरी है, इसकी चर्चा करना जरूरी है, और इसके लिए अदालतों का ध्यान खींचना भी जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकसभा का यह सत्र शुरू होते ही थम गया है क्योंकि विपक्ष ने आज देश में खड़े सबसे बड़े आर्थिक खतरे को लेकर उच्च स्तरीय जांच की मांग की है। यह मांग संयुक्त संसदीय समिति से भी हो सकती है, और सुप्रीम कोर्ट के किसी जज की निगरानी में भी हो सकती है। आज संसद के दो सत्र शुरू तो हुए हैं, लेकिन अडानी का मुद्दा सरकार का पीछा नहीं छोडऩे वाला है। एक कंपनी के शेयरों के दाम गिरने को लेकर संसद की फिक्र का कोई सामान नहीं बनना चाहिए था लेकिन अडानी के साथ दिक्कत यह है कि एलआईसी और देश के सरकारी बैंकों के दसियों हजार करोड़ रूपये इसमें लगे हुए हैं। फिर यह भी है कि सरकारी बैंकों और एलआईसी को अगर नुकसान हो रहा है, तो वह बोझ जनता पर ही जाता है, इनकी अपनी कोई जेब नहीं होती है। इसलिए जनता के पैसों को अगर इन बड़ी सरकारी कंपनियों में बैठे हुए लोग अडानी जैसी संदिग्ध कंपनी में झोंकते हैं, तो इस पर सरकार की संसद में जवाबदेही बनती है। इसके अलावा जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अडानी के खिलाफ ऐसे आरोप लगते हैं कि इस कंपनी ने अपने खाता-बही में आंकड़ों का चमत्कार दिखाकर, कई बातों को छुपाकर, कई बदनाम देशों के मार्फत रहस्यमय रकम लाकर अपने कारोबार को इस तरह बढ़ाया है, तो ऐसे आरोपों के साथ-साथ जब भारत में प्रचलित यह आम धारणा जोड़ दी जाए कि ये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सबसे पसंदीदा और कृपापात्र कंपनी है, तो फिर इस पर लगे आरोपों की जांच नीचे के स्तर पर तो नहीं हो सकती। फिलहाल बाजार में इस कंपनी का जो भ_ा बैठा है, उसे देखते हुए इसमें सरकारी कंपनियों के पूंजीनिवेश देखते हुए इसकी एक पारदर्शी जांच की जरूरत है। फिर कांग्रेस प्रवक्ता जयराम नरेश ने मांग की है कि एक स्वतंत्र जांच से ही एलआईसी, एसबीआई जैसी अन्य संस्थाएं बचाई जा सकती हैं जिन्हें पीएम ने अडानी समूह में निवेश करने के लिए बाध्य किया। जयराम रमेश का यह आरोप इन तथ्यों पर आधारित है कि पिछले तीन बरस में एलआईसी और सरकारी बैंकों ने अडानी में अपना पूंजीनिवेश कई गुना बढ़ाया है।
अब जो उद्योग समूह अपनी आधा दर्जन से अधिक कंपनियों के साथ भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी है, वह वैसे भी बहुत से नियमों से बंधी रहती है। इसके बाद जब वह सरकारी संस्थाओं से पूंजीनिवेश पा रही है, तो भी उससे पारदर्शिता की उम्मीद की जाती है। फिर जैसा कि अमरीकी फर्म हिन्डनबर्ग की रिपोर्ट में अडानी पर आरोप लगाया गया है कि इसने दसियों हजार करोड़ संदिग्ध देशों की रहस्यमय कंपनियों से बहुत रहस्यमय तरीके से लाने का काम किया है, तो यह बात भी अपने आपमें एक बड़ी ऊंची जांच के लायक है। इस कंपनी में देश की आम जनता का भी काफी पैसा लगा हुआ है, और उन निजी पूंजनिवेशकों के हितों को बचाने के लिए भी यह सरकार की जवाबदेही है कि वह अडानी की जांच करे। यह जाहिर है कि मौजूदा जांच एजेंसियां सरकार के साथ इतनी घुली-मिली हैं कि वे सरकार की एक पसंदीदा कंपनी की जांच ठीक से नहीं कर सकतीं। इसलिए देश के सामने अगर इतना बड़ा आर्थिक खतरा खड़ा हुआ है, तो ऐसी जांच करवाना सरकार की एक जिम्मेदारी है। इसके पहले भी हम देख चुके हैं कि किस तरह से देश के कई बड़े-बड़े कारोबारी सरकारी बैंकों से दसियों हजार करोड़ निकालकर या तो देश छोडक़र भाग गए हैं, या उन्होंने पैसा किसी तरह बाहर भेज दिया है, और अब कानून के साथ लुकाछिपी खेल रहे हैं।
अडानी का बहुत सारा पूंजीनिवेश सरकार से ही सार्वजनिक संपत्तियों को खरीदकर किया गया है। एयरपोर्ट, बंदरगाह जैसे एकाधिकार वाले कारोबार को जिस अंदाज में अडानी ने हासिल किया है, उस पर भी देश के लोग हैरान हैं। इससे परे अडानी ने हिमाचल में सेब खरीदने जैसा काम शुरू किया है, और छोटे लोगों को इस कारोबार से बाहर कर दिया है। छत्तीसगढ़ में अडानी का नाम लगातार खबरों में बने रहता है कि वह पहले से कोयले के कारोबार में है, जिसमें उसने कई तरकीबों से हक से बहुत अधिक कोयला निकालकर बेचा है, और छत्तीसगढ़ के स्थानीय कारखाने इस कारोबार को बहुत अच्छी तरह देखते आए हैं क्योंकि वे ऐसा कोयला खरीदते आए हैं। अब छत्तीसगढ़ के हसदेव के सबसे घने जंगलों को काटकर वहां कोयला खदान से राजस्थान सरकार के लिए कोयला निकालने का काम भी अडानी को मिला है, और यह आज छत्तीसगढ़ का एक सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है जिसमें राज्य की भूपेश सरकार भी घिर गई है।
अभी कुछ हफ्तों पहले जब अडानी ने एनडीटीवी खरीदा, तो भी देश के लोग इस फिक्र में पड़ गए कि इतने बड़े-बड़े कारखानेदार अगर मीडिया खरीद लेंगे, तो फिर उसकी आजादी का क्या होगा? इससे पहले मुकेश अंबानी ने एक बड़े मौजूदा मीडिया कारोबार को एक दिन में हजारों करोड़ रूपये देकर ले लिया था, और अब अडानी। मीडिया कारोबार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गुंजाइश विवादास्पद कारोबारियों के बड़े पूंजीनिवेश के साथ जिंदा नहीं रह सकती। फिर जब ऐसे कारोबारियों पर सरकारी कृपा भी बरसने की जनधारणा हो, तो फिर ऐसे मीडिया की विश्वसनीयता क्या रह जाती है। भारत में अगर इतने बड़े-बड़े कारोबारी इतने बड़े-बड़े सरकारी पूंजीनिवेश पाकर, और दसियों हजार करोड़ रूपये का सरकारी कर्ज पाकर, और रहस्यमय तरीकों से बदनाम देशों से लाखों करोड़ का पूंजीनिवेश लाकर अगर बही-खातों में हेराफेरी करके बाजार में अपनी साख बना रहे हैं, तो फिर ऐसे कारोबार जांच का मुद्दा तो हैं ही। सरकार को खुद भी अपनी साख बचाए रखने के लिए अडानी की एक पारदर्शी जांच होने देना चाहिए। और इसके साथ-साथ एलआईसी और सरकारी बैंकों को अपनी पूंजीनिवेश और दिए हुए कर्ज को लेकर अधिक सावधान भी रहना चाहिए कि उनका खतरा कम से कम हो। आज इन सरकारी बैंकों और एलआईसी के करोड़ों ग्राहकों का नफा-नुकसान ऐसे पूंजीनिवेश से जुड़ा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की दो छोटी-छोटी घटनाएं अलग-अलग इलाकों की स्कूलों की हैं, लेकिन इन्हें मिलाकर लिखने की जरूरत है। गरियाबंद के ग्रामीण इलाके में पांचवीं के एक छात्र की शिक्षिका ने माचिस की तीली जलाकर उसके गले पर रख दिया जिससे जख्म हो गया है। परिवार ने शिकायत अफसर से की है, शिक्षिका का कहना है कि बच्चा कम बोलता है, उसे चंचल बनाने के लिए उसने यह टोटका किया था। स्कूल में दो ही शिक्षक हैं, एक पहले से किसी दुर्घटना में जख्मी है, और अब यह शिक्षिका भी छुट्टी पर चली गई है, स्कूल बंद हो गया। एक दूसरे मामले में कोरबा जिले के एक सरकारी आवासीय विद्यालय में एक छात्र को घर से लौटने में देर हुई, तो हॉस्टल अधीक्षक ने दूसरे सीनियर छात्रों से इस छात्र की चप्पलों से पिटाई करवाई, इस लडक़े को भी जिला अस्पताल में भर्ती किया गया है, और मामले की जांच की जा रही है। छत्तीसगढ़ में बहुत सी स्कूलों से ऐसे वीडियो सामने आते हैं जिनमें शिक्षक शराब के नशे में धुत्त स्कूल में बैठे हुए हैं, या फर्श पर पड़े हुए हैं, और उनके आसपास बच्चे बैठे हुए हैं। अधिकतर मामलों में यह हाल सरकारी स्कूलों में ही हैं जहां पर जवाबदेही नहीं के बराबर है। सरकारी स्कूलों के ऐसे हाल पर सोचने की जरूरत है, और इसीलिए हम आज यहां यह चर्चा छेड़ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से अब तक स्कूल शिक्षा से जुड़े हुए तमाम पहलू परले दर्जे के भ्रष्टाचार के शिकार रहे हैं। मंत्री से लेकर अफसरों तक, और स्कूलों में काम करने वाले लोगों तक भ्रष्टाचार बहुत बुरी तरह फैला हुआ है। पिछली भाजपा सरकार के समय की बात हो, या आज की कांग्रेस सरकार की बात हो, स्कूलों की फर्नीचर-खरीदी से लेकर वहां दोपहर के सरकारी खाने तक, तमाम मामलों में भ्रष्टाचार इतना आम है, और इतना बड़ा है कि जिम्मेदार लोगों का तमाम ध्यान बस इसी में लगे रहता है कि इस विभाग को कैसे दुहा जा सकता है। इसमें सहूलियत की बात यह भी रहती है कि विभाग से जुड़े हुए बच्चे जुबान खोल नहीं सकते, भ्रष्टाचार को समझते नहीं हैं, और सरकारी स्कूलों के बच्चों के गरीब मां-बाप की अधिक जुबान होती नहीं है। इसलिए जिस तरह निजी स्कूलों में पालक-शिक्षक बैठक होती है जिसमें बच्चों के मां-बाप स्कूलों की कमियों और खामियों को गिनाते हैं, उस तरह का कुछ सरकारी स्कूलों में नहीं होता जहां पर कि गरीब परिवारों के बच्चों को अहसान करने के अंदाज में पढ़ाया जाता है।
कोई भी ऐसा विभाग जिसमें मंत्री से लेकर नीचे तक तमाम लोगों की दिलचस्पी अधिक से अधिक वसूली और उगाही में रहती है, विभाग को इस हद तक दुह लिया जाता है कि उसके थन से खून निकलने लगे, तो फिर विभाग के काम, पढ़ाने में भला किसकी दिलचस्पी रह सकती है? और छत्तीसगढ़ में जिस तरह शिक्षाकर्मियों के भरोसे पढ़ाई चलती है, जिनका कि जिले के बाहर कोई तबादला भी नहीं हो सकता, वहां पर वे शिक्षाकर्मी पढ़ाने जाते भी हैं या नहीं, यह जानकारी भी कम से कम ग्रामीण इलाकों में तो नहीं रहती है। यह सिलसिला शिक्षा की बुनियाद को इतना खोखला कर गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर बच्चों के ज्ञान के एक मूल्यांकन में छत्तीसगढ़ बहुत ही पिछड़ा हुआ मिला है कि यहां के बच्चे अपनी कक्षा से कई क्लास नीचे की भी जानकारी नहीं रखते हैं। यह दिक्कत इसलिए भी है कि सरकार और समाज में जरा सी भी ताकत रखने वाले लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, और सरकारी स्कूलों से किसी ताकतवर के परिवार पर फर्क नहीं पड़ता।
छत्तीसगढ़ में इन दिनों एक दूसरी चीज भी हो रही है। सरकार ने स्वामी आत्मानंद के नाम पर चुनिंदा सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी स्कूल बनाना शुरू किया है। अब तक ऐसे कई सौ अंग्रेजी स्कूल बन चुके हैं जिनके लिए मौजूदा सरकारी स्कूलों में से सबसे अच्छे ढांचे वाले स्कूल छांटकर उन्हें आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बना दिया गया है। इनके लिए अलग से शिक्षक नियुक्त किए गए हैं, या मौजूदा शिक्षकों में से जो बेहतर हैं, उन्हें आत्मानंद स्कूल भेजा गया है। जिलों में कलेक्टरों के हांके चलने वाले डीएमएफ (जिला खनिज निधि) से अंधाधुंध पैसा आत्मानंद स्कूलों को आलीशान बनाने में खर्च किया जा रहा है, और ऐसे स्कूलों की तस्वीरें स्कूल विभाग की कामयाबी की तरह फैल रही हैं। हकीकत यह है कि पढ़ाई को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से करवाने के लिए चुनिंदा स्कूलों पर ऐसे किसी खर्च की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि अंग्रेजी पढ़ाने के लिए बेहतर इमारत नहीं लगती, बहुत बेहतर फर्नीचर नहीं लगता। सरकार इन बरसों में शायद पांच फीसदी स्कूलों को भी अंग्रेजी माध्यम स्कूल नहीं बना पाई है, और बाकी तकरीबन तमाम गरीब बच्चे टूटी-फूटी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिनकी मरम्मत तक नहीं हो रही है, क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान आत्मानंद अंग्रेजी स्कूलों पर है।
हिन्दी भाषी इलाके की सरकार की अंग्रेजी भाषा को लेकर इतनी हीनभावना समझ से परे है। एक वक्त हिन्दुस्तान पर राज करने वाले अंग्रेजों की भाषा सिखाने के लिए आज बाकी स्कूलों का हक छीनकर अंग्रेजी के लिए इतने महंगे ढांचे तैयार करना अपनी खुद की भाषा को लेकर एक हीनभावना के अलावा और कुछ नहीं है। प्रदेश में विपक्षी भाजपा को भी इस बात की समझ नहीं है कि 95 फीसदी से अधिक गरीब बच्चों के हक छीनकर अगर 5 फीसदी अंग्रेजी बच्चों को दिया जा रहा है, तो यह सामाजिक विसंगति उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी है। लेकिन छत्तीसगढ़ में सामाजिक समानता के मोर्चे पर विपक्ष के मुर्दा रहने का यह पहला मौका नहीं है, जब भाजपा की सरकार पन्द्रह बरस थी, तब विपक्षी कांग्रेस पार्टी भी गरीबों के हक के मुद्दों पर कुछ ऐसी ही थी, और वही वजह थी कि भाजपा लगातार तीन विधानसभा चुनाव, तीन लोकसभा चुनाव, और तीन म्युनिसिपल चुनाव जीत सकी थी।
सरकारी स्कूल शिक्षा इतने गरीब तबके का मुद्दा है कि शायद ही कोई विधायक अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाते होंगे। स्कूलों की हालत खराब है, और सरकार मानो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी का वक्त गुजार देने के लिए इन स्कूलों को किसी तरह चला रही है, इनका उत्कृष्टता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऐसे माहौल में अब सरकार का लाड़ला बच्चा आत्मानंद स्कूल के नाम पर उसके तमाम साधन-सुविधाओं का अकेला हकदार बन गया है, और प्रदेश में बाकी स्कूलों की बदहाली की चर्चा करने वाले लोग भी नहीं रह गए हैं, विपक्ष में भी नहीं।
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हिन्दुस्तान के सबसे बड़े उद्योगपति गौतम अडानी ने अभी अपनी कंपनियों के लिए पैसा जुटाने को शेयर बाजार में खरीददारों के लिए एक एफपीओ उतारा था जिसके बिकने के आसार बहुत कम दिख रहे थे, लेकिन आखिर में अचानक अबूधाबी के एक शाही परिवार से जुड़ी कंपनी ने अडानी में 32 सौ करोड़ रूपये पूंजीनिवेश किया, और आखिरी दिन हिन्दुस्तान के कुछ उद्योगपतियों ने इसमें खासी रकम लगाई, जिनमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी सज्जन जिंदल, सुनील भारती मित्तल, और पंकज पटेल के नाम आए, और सत्ता के एक और दूसरे सबसे करीबी देश के दूसरे सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी भी। एक अमरीकी कंपनी के विश्लेषण के बाद हिन्दुस्तान में अडानी के शेयर जमीन तोडक़र पाताल पहुंच रहे थे, और उसी वक्त कंपनी का यह एफपीओ आया था। कुछ बड़े लोगों ने मिलकर इस एफपीओ को खरीद तो लिया, लेकिन इसमें छोटे पूंजीनिवेशकों के लिए जितने शेयर रखे गए थे, उनमें से सिर्फ 10 फीसदी ही बिके हैं। मतलब यह कि जनता का भरोसा कम से कम इस वक्त तो इस कंपनी पर से उठा हुआ है। पिछले तीन बरस में हिन्दुस्तान की सरकारी बीमा कंपनी, एलआईसी ने अडानी की कंपनियों में अपना पूंजीनिवेश दस गुना बढ़ा दिया था, और अभी की खबर कहती है कि हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद अडानी को साढ़े पांच लाख करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है, और इसमें एलआईसी को भी 16 हजार करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है जो कि जीवन बीमा पॉलिसी लेने वाले लोगों का नुकसान है।
अमरीका की हिंडनबर्ग नाम की फर्म ने अडानी-समूह का कई तरह का विश्लेषण करके इसे हिसाब-किताब में जोड़तोड़ करने, और कई दूसरे तरह के गलत काम करके आगे बढऩे का आरोप लगाया था। इस आरोप के जवाब में अडानी ने इसे भारत पर हमला बताया। हिन्दुस्तान के लोग यह बात जानकर चौंक गए कि अडानी ही भारत है। सोशल मीडिया पर लोगों ने यह नया रहस्य उजागर होने पर काफी कुछ लिखना चालू किया। लोगों ने याद दिलाया कि अंग्रेजी के एक विद्वान ने किस तरह जमाने पहले यह लिखा था कि किसी बदमाश के लिए छुपने की आखिरी जगह उसके देश के झंडे के पीछे होती है। जब कोई कारोबारी गैरकानूनी हरकतों के आरोपों के बीच अपने आपको देश बताए, तो यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है जो कि अडानी की सफाई के जवाब में आई, और अडानी की बात किसी बात को साफ नहीं कर पाई, बल्कि अपने पर और गंदगी ही फैला गई, लोग अंग्रेजी का हिन्दी तर्जुमा करने में लग गए, और सोशल मीडिया अब तक हिन्दुस्तान के किसी कारोबारी के शिकंजे से परे है। लेकिन बात अगर भारत पर आकर खत्म हो गई रहती, तब भी ठीक था। अडानी कारोबार-समूह के चीफ फाइनेंशियल ऑफिसर, जगशिंदर सिंह ने एक और बड़ी अनोखी बात कही। उन्होंने कहा कि एक अमरीकी कंपनी, हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर जिस तरह से कुछ हिन्दुस्तानी बर्ताव कर रहे हैं, उससे उन्हें हैरानी नहीं हो रही है। उन्होंने कहा कि जालियांवाला बाग में सिर्फ एक अंग्रेज ने हुक्म दिया था, और हिन्दुस्तानी (सिपाहियों) ने ही दूसरे हिन्दुस्तानियों पर गोलियां चलाई थीं।
यह बहुत ही अनोखी बात है जब आजाद हिन्दुस्तान के जागरूक लोगों की बराबरी अंग्रेजों के सिपाहियों से की जा रही है, और अडानी पर वित्तीय गड़बडिय़ों की रिपोर्ट को जालियांवाला बाग में हिन्दुस्तानियों के जनसंहार के बराबर बताया जा रहा है। जालियांवाला बाग में सैकड़ों लोग मारे गए थे, और हजारों लोग घायल हुए थे, और यह हिन्दुस्तान के ब्रिटिश इतिहास का सबसे भयानक फौजी हमला था। अब हिन्दुस्तान के सबसे विवादास्पद कारखानेदार और कारोबारी के खिलाफ आई एक वित्तीय रिपोर्ट को अगर अडानी यानी हिन्दुस्तान पर हिंडनबर्ग यानी अंग्रेज के हुक्म से की गई गोलीबारी यानी हिन्दुस्तानी आलोचकों का किया गया जनसंहार कहा जा रहा है, तो फिर वह दिन अधिक दूर नहीं दिखता जब देश में सबसे अधिक दौलतमंद को राष्ट्रपिता घोषित किया जाएगा। दिलचस्प बात यह है कि अडानी का यह सबसे बड़ा वित्त अफसर खुद ऑस्ट्रेलिया का नागरिक है, और नाम से पंजाबी मूल का भी लगता है, और अपनी कंपनी को हिन्दुस्तानी आलोचकों के सवालों से बचाने के लिए जालियांवाला बाग की आड़ ले रहा है। अब देखना पड़ेगा कि आगे जाकर हिन्दुस्तानी शहादत के इस सबसे बड़े स्मारक की आड़ में छुपने वाले के लिए, अंग्रेजी दुनिया में कौन सी कहावत गढ़ी जाएगी। लेकिन यह तय है कि जो भी कहावत गढ़ी जाएगी, उसके मुकाबले राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय झंडे की आड़ में छुपना एक बहुत कमजोर कहावत रह जाएगी। दुनिया के राजनीतिक इतिहास में अडानी के इस अफसर को दुनिया की एक सबसे ताकतवर नई कहावत देने की शोहरत जरूर मिलेगी।
आज हिन्दुस्तान कई किस्म के पाखंडों से गुजर रहा है। भगवा या केसरिया रंग को हिन्दू धर्म मान लिया गया है, और हरे रंग को इस्लाम करार दिया गया है। स्वदेशी का नाम लेकर योगी से कारोबारी बने हुए रामदेव अपने गलत कामों की आलोचना को बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारत पर हमला करार देते थकते नहीं है, कुछ लोग रामचरित मानस की आलोचना को हिन्दू धार्मिक भावनाओं पर हमला करार दे रहे हैं, कई लोग मोदी को ही भारत और लोकतंत्र ठहरा रहे हैं, और अब अडानी अपने को भारत मानने लगा है, और अपने हिन्दुस्तानी आलोचकों को हत्यारा ब्रिटिश-हिन्दुस्तानी सैनिक करार दे रहा है, आरएसएस हर हिन्दुस्तानी को हिन्दू करार दे रही है, और सावरकर को पूजने वाले लोग सावरकर की गाय खाने की खुली वकालत को अनदेखा करके उन्हें गांधी के मुकाबले अधिक महान राष्ट्रभक्त साबित करने में लग गए हैं। यह पाखंड और कई मोर्चों पर भी किया जा रहा है, और इसी का नतीजा है कि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में अभी आरएसएस के किए जा रहे एक कार्यक्रम से नेताजी की बेटी ने असहमति जारी की है, और आरएसएस को एक साम्प्रदायिक सोच करार दिया है। पूरा देश तरह-तरह के पाखंडों में मस्त है। टीवी समाचार चैनल अपने काम को पत्रकारिता बताते हुए हर किस्म के पत्रकारिता-विरोधी चाल-चलन से अपना धंधा बढ़ा रहे हैं।
किसी देश के नाम, उसके प्रतीकों के नाम, उसके शहादत के नाम, उसके झंडे का ऐसा इस्तेमाल शर्मनाक है। इसे धिक्कारने के लिए लोगों को सामने आना चाहिए। अगर यह समाज नहीं जागेगा तो हो सकता है कि टमाटर की चटनी बनाने वाला कोई ब्रांड अपने इश्तहार में जालियांवाला बाग में बहे लहू सरीखी लाल चटनी का नारा लगाए, और यह मुर्दा समाज उसको भी झेल जाए। आज हिन्दुस्तान एक झूठे गौरव के गुणगान में लगा हुआ है, और उसके सच्चे इतिहास की सच्ची शहादत की सबसे बड़ी मिसाल पर हो रहे ऐसे बाजारू हमले पर इन तथाकथित गौरवान्वित लोगों को अगर कुछ नहीं कहना है तो उन्हें चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।
पाकिस्तान के पेशावर में एक मस्जिद पर कल आत्मघाती हमला हुआ, और हमलावर ने अपनी विस्फोटक जैकेट के धमाके से मस्जिद की इमारत का एक हिस्सा भी गिरा दिया, और 83 लोगों की मौत की खबर है। पुलिस लाईन की इस मस्जिद में दोपहर को नमाज पढऩे इक_ा हुए अधिकतर लोग पुलिस के थे, और मारे जाने वाले लोग भी वही हैं। यह इलाका पेशावर का सबसे अधिक हिफाजत वाला इलाका माना जाता है। वहां के धार्मिक-आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है। पाकिस्तान का यह संगठन पड़ोस के अफगानिस्तान के तालिबानियों के साथ तालमेल से काम करता है, और अफगान सरकार से पाकिस्तान की कुछ सरहदी मुद्दों को लेकर तनातनी भी चल रही है। टीटीपी नाम का यह संगठन पाकिस्तान में अधिक कट्टर इस्लामी कानूनों को लागू करने के लिए हथियारबंद आंदोलन चलाता है।
पाकिस्तान लगातार धार्मिक कट्टरता वाले आतंकी हमलों का शिकार होते रहता है। हर बरस ऐसे कई बड़े हमले होते हैं जिनमें सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। दो-चार मौतों की तो खबर भी मुल्क से बाहर नहीं जाती। यह पाकिस्तान अभी पौन सदी पहले तक आज के हिन्दुस्तान का एक हिस्सा था, और अंग्रेजों ने जाते-जाते इसे दो मुल्कों में बांट दिया था। तब से लेकर अब तक पाकिस्तान धर्म के आधार पर चलने वाला एक देश रहा, और आतंकी हमलों से परे भी पाकिस्तान की आम जिंदगी में धार्मिक कट्टरता हर दिन अपना दखल रखती है। वहां पर न सिर्फ गैरमुस्लिम लोग, बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर के कुछ ऐसे सम्प्रदायों के लोग जो कि कट्टर इस्लामियों को पसंद नहीं आते हैं, वे भी आए दिन मारे जाते हैं। यह तो बात हुई मौतों के आंकड़ों की, लेकिन इससे परे भी रोजाना की सामाजिक जिंदगी में धार्मिक कट्टरता हिंसा पैदा करती ही रहती है। आए दिन वहां से खबरें आती हैं कि किसी ईसाई को मारा गया, तो किसी हिन्दू लडक़ी का अपहरण करके उसे मुस्लिम बनाकर उससे शादी कर ली गई।
यह धर्म का एक आम मिजाज है कि वह कट्टरता की तरफ बढ़ते ही चलता है। जिस तरह किसी धार्मिक कार्यक्रम या धर्मस्थल के लाउडस्पीकर लगातार तेज होते जाते हैं, क्योंकि उनके आम हल्ले से लोगों पर असर होना बंद सा होने लगता है, इसलिए वे अधिक तेज होकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहना चाहते हैं। पाकिस्तान में इस धार्मिक कट्टरता ने पहले तो देश में सभी धर्मों की बराबरी खत्म की, बहुसंख्यक धर्म ने देश पर अपना एकाधिकार जमाया, आसपास के देशों में भी बढ़ती चली गई धार्मिक कट्टरता का असर हुआ, और पड़ोस के हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी के खिलाफ पाकिस्तान में जैसे मजहबी फतवे तैरते रहे, उनसे भी वहां की जनता का दिमाग हिन्दू विरोधी होते गया, और नतीजतन वह मुस्लिम कट्टरपंथी भी होते गया।
यह कहानी सिर्फ पाकिस्तान की नहीं है, दूसरी जगहों पर भी धार्मिक कट्टरता और हिंसा साथ-साथ आगे बढ़ते हैं। हिन्दुस्तान में आज हिन्दू बहुसंख्यक हैं, और वे एक साम्प्रदायिक सोच की आग में झोंक भी दिए जा रहे हैं। उन्हें एक रंग को हिन्दू रंग मान लेने और देश में साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के फिजूल के काम में झोंक दिया गया। फिर बाद में लोगों ने सैकड़ों वीडियो निकालकर याद दिलाया कि एक हिन्दू अभिनेत्री ने अपने हिन्दू बदन पर जो भगवा-केसरिया बिकिनी पहनी थी, वैसी भगवा-केसरिया बिकिनी और दूसरे उत्तेजक कपड़े पहनी हुई अभिनेत्रियों के साथ निहायत ही फूहड़ और अश्लील डांस करते हुए भाजपा के बड़े-बड़े सांसद फिल्में करते आए हैं। बेशरम रंग का यह मुद्दा छेडऩा खुद भाजपा को भारी पड़ा क्योंकि उसके अपने लोगों के इसी बेशरम रंग के भुलाए जा चुके सैकड़ों वीडियो फिर ताजा हो गए, लोगों को समझ आ गया कि धार्मिक रंग के नाम पर एक फिजूल की नफरत फैलाई जा रही थी, और एक मुस्लिम अभिनेता शाहरूख खान की पठान नाम की फिल्म हिन्दुस्तान के हिन्दू बहुसंख्यक दर्शकों के बीच इतिहास की सबसे बड़ी हिट भी हो गई। पाकिस्तान को देखकर भी हिन्दुस्तान में धर्मान्धता फैलाने पर आमादा लोगों को अगर कोई सबक नहीं मिल रहा है, तो किसी दिन उन्हें कोई धमाका मिल सकता है। हिंसा को लगातार बढ़ाते जाने से वह किसी समस्या का समाधान नहीं होती, वह और बड़ा खतरा बन जाती है, हिन्दुस्तान में आज यही होते हुए दिख रहा है। देश के लोग इतने खाली और बेकार बैठे हैं, उनमें मनोबल और महत्वाकांक्षा की इतनी कमी है कि वे धर्म के नाम पर अपने पीढिय़ों के पड़ोसी का सिर तोड़ देने के लिए तैयार हो रहे हैं। आज अगर हिन्दुस्तान में चुनाव जीतने के लिए कोई हिन्दू वोटों का इस तरह से ध्रुवीकरण करना चाहते हैं कि मुस्लिमों से नफरत करवाकर हिन्दू वोट पा लिए जाएं, तो वोट तो मिल सकते हैं, लेकिन शांति की गारंटी नहीं मिल सकती। और यह मानना सिवाय बेवकूफी और क्या होगा कि 140 करोड़ आबादी में 20 करोड़ मुस्लिम, दसियों करोड़ दलित, दसियों करोड़ आदिवासी, इन सबको प्रताडि़त करके, सबको कुचलकर, सब पर एक आक्रामक हिन्दुत्ववादी जीवनशैली लादकर इस देश को चैन से रखा जा सकता है। लोगों को पाकिस्तान के आज के मजहबी आतंक के साथ हिन्दुस्तान की तुलना कुछ नाजायज लग सकती है, लेकिन लोगों को अगर भविष्य के लिए, आने वाली पीढिय़ों के लिए कोई सबक लेना है, तो वह अपने से अधिक खतरा झेल रहे देशों को देखकर ही लिया जा सकता है। आज हिन्दुस्तान का रूख जिस तरफ है, वह रूख बहुत खतरनाक है, और वह रूख पाकिस्तान जैसे ही किसी भविष्य की ओर इशारा करता है। यह भी समझने की जरूरत है कि आतंकी हमलों के लिए बराबरी की आबादी जरूरी नहीं होती है, दर्जन भर लोग भी दसियों लाख की आबादी पर आतंकी हमले कर सकते हैं, लोगों को थोक में मार सकते हैं। इससे बचने और बचाने का अकेला तरीका यही है कि देश के लोगों में धार्मिक कट्टरता खत्म की जाए, धर्मान्धता खत्म की जाए, धर्म के नाम पर हिंसा को मंजूरी देना खत्म किया जाए, और कानून के राज को सबसे ऊपर माना जाए। हिन्दुस्तान आज ऐसी कुछ बुनियादी जरूरतों से खिलवाड़ करते दिख रहा है, इसके नतीजे में आज तो धार्मिक ध्रुवीकरण से धार्मिक जनगणना की तरह के चुनावी नतीजे मिल रहे हैं, लेकिन चुनावों से परे रोज की जिंदगी एक खतरनाक मंजिल की तरफ बढ़ भी रही है। यह भी नहीं समझना चाहिए कि हिन्दुस्तान जैसे देश में धार्मिक आतंक हिन्दू-मुस्लिम होकर खत्म हो जाएगा, जैसा कि पाकिस्तान में देखने मिल रहा है, एक धर्म के भीतर भी दो समुदाय एक-दूसरे को थोक में मार सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस सांसद और पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण नेता राहुल गांधी की कन्याकुमारी से शुरू हुई पदयात्रा 136 दिनों में 12 राज्यों, 2 केन्द्र प्रशासित प्रदेशों के 75 जिलों से होती हुई कश्मीर के श्रीनगर में तिरंगा फरहाने के साथ खत्म हुई। 3500 किलोमीटर से अधिक की यह पदयात्रा 116 दिन रोजाना 23-24 किलोमीटर चली। जब यह शुरू हुई तो इसके नारे, नफरत छोड़ो, भारत जोड़ो, को लेकर राहुल गांधी का मखौल उड़ाया गया, और बहुत से लोगों को इसकी कामयाबी पर शक था। लेकिन सफर जैसे-जैसे आगे बढ़ा, राहुल को मिलने वाला जनसमर्थन एक सैलाब की तरह बढ़ते चले गया। कांग्रेस पार्टी तो इसके साथ थी ही, लेकिन दूसरी पार्टियों के भी दर्जनों नेता अलग-अलग दिनों पर इसमें शामिल हुए, रास्ते के गांव-कस्बे और शहर के लोग सडक़ों पर उमड़ पड़े, और राहुल गांधी इतने महीनों तक सिर्फ मोहब्बत और दिल जोडऩे, नफरत छोडऩे की बात दुहराने वाले हाल के हिन्दुस्तान के अकेले नेता बने। इस पदयात्रा का किसी चुनाव से कोई रिश्ता नहीं था, और वही मानो सबसे अच्छी बात थी। इसके बीच दो राज्यों में चुनाव हुए, लेकिन राहुल तकरीबन वहां से दूर ही रहे, और अपनी पदयात्रा में लगे रहे।
हिन्दुस्तान के आज के मुख्यधारा के कहे जाने वाले तथाकथित मीडिया ने इससे एक दूरी बना रखी थी, लेकिन सोशल मीडिया की मेहरबानी से बिना किसी आडंबर के एक आम इंसान की तरह राहुल हर दिन दर्जनों तस्वीरों में लोगों के सामने आते रहे, लोगों से जुड़ते रहे, और लोग उनसे जुड़ते रहे। राहुल को इस पदयात्रा में मिले अपार जनसमर्थन की वजह से जो लोग उन्हें आज विपक्ष का सबसे बड़ा या सर्वमान्य नेता मानने और बताने की चूक कर रहे हैं, वे इस पदयात्रा की अहमियत को घटा भी रहे हैं। जहां तक हमें समझ पड़ता है, यह पदयात्रा ठीक अपने नारे को पूरा करते हुए आज टुकड़े-टुकड़े किए जा रहे हिन्दुस्तान को बचाने के लिए, सहेजने और जोडऩे के लिए निकाली गई थी, और उसने अपना वह मकसद हैरानी की हद तक पूरा किया है। जिस तरह आम तबकों के लोग, हर धर्म के लोग, हर उम्र के आदमी-औरत, और बच्चे राहुल के साथ कुछ दूर चलने के लिए होड़ करते रहे, उनसे लिपटकर पिघलते रहे, वह देखना अद्भुत रहा। आज के वक्त जब इस देश में पोशाक से जाति और धर्म पहचानने का फतवा दिया जा रहा है, तब राहुल एक सम्पूर्ण हिन्दुस्तानी की तरह, हर हिन्दुस्तानी के गले मिलते रहे, अनगिनत लोगों के हाथ थामकर उन्हें साथ चलाते रहे, और इसके बदले देश के लोगों के लिए मोहब्बत के अलावा उन्होंने कुछ नहीं मांगा।
आज जब देश के बड़े-बड़े नेता मुंह खोलते हैं, और तेजाबी, साम्प्रदायिक नफरत की लपट निकलती है, वैसे में तकरीबन पांच महीने हर दिन 10-12 घंटे लोगों के बीच रहना, हर दिन अनगिनत लोगों से बात करना, पदयात्रा में जाने कितनी बार प्रेस से बात करना सब होते रहा, लेकिन न तो राहुल ने अपनी लोकप्रियता को लेकर कोई दावे किए, न ही अपनी अहमियत बखान करने की कोशिश की, और न ही उन्होंने भविष्य को लेकर इस यात्रा के योगदान का कोई दावा किया। हर मायने में वे एक आम इंसान की तरह रहते और चलते दिखे, और दाढ़ी और टी-शर्ट का उनका यह नया अवतार आज देश का सबसे चर्चित चेहरा बना हुआ है। जब उनके अगल-बगल के तमाम नेता, और दर्जनों सुरक्षा कर्मचारी ऊनी कपड़ों से लदे हुए थे, तब भी राहुल गांधी जिस तरह महज एक टी-शर्ट में चल रहे थे, उसने भी उन्हें लोगों की हैरानी का सबब बना दिया। उन्होंने इसकी जो वजह बताई, वह भी दिल छू लेने वाली थी कि उन्होंने ठंड में तीन गरीब बच्चियों को फटे कपड़़ों में देखा जिनके पास पहनने को गर्म कपड़े नहीं थे, तब उन्होंने तय किया कि जब तक वे कंपकंपाने नहीं लगेंगे, तब तक एक टी-शर्ट ही पहनेंगे, और वे पूरी ही पदयात्रा में वैसे ही रहे।
राहुल की पदयात्रा को गांधी की किसी पदयात्रा से जोडक़र देखना राहुल के साथ ज्यादती होगी। कल उन्होंने श्रीनगर में पदयात्रा पूरी की है, और आज गांधी पुण्यतिथि है। लेकिन गांधी से तुलना के लिए एक लंबे इतिहास और बहुत ऊंची महानता की जरूरत पड़ती है, और राहुल की किसी बात से ऐसा नहीं लगता है कि वे खुद अपनी इस पदयात्रा का महिमामंडन चाहते हैं। उनकी पार्टी के लोगों को भी चाहिए कि राहुल को महान दिखाने के फेर में कोई ऐसे दावे न करें जिनसे कि उनकी कामयाबी को शिकस्त मिले। देश के लोगों ने महीनों तक राहुल गांधी को आम लोगों के बीच बिना किसी आडंबर के, और बिना फैशन परेड के, बिना नफरत की कोई बात किए, और बिना कोई दावे किए देखा है, और इस अभूतपूर्व स्थिति को बिना कुछ कहे एक अहसास की तरह बने रहने देना चाहिए, बजाय फिजूल की बातें करके उसके असर को खत्म करने के। कांग्रेस के कुछ लोगों ने राहुल को विपक्ष का प्रधानमंत्री का चेहरा बताने का अतिउत्साह भी इसी दौरान दिखाया है, और ऐसी बातों ने राहुल का नुकसान करने के अलावा कुछ नहीं किया है। ऐसा कहने वाले लोगों ने हिन्दुस्तान में प्रचलित एक पुरानी कहावत नहीं सुनी है कि सूत न कपास, जुलाहों में ल_मल_ा। इस यात्रा को किसी भी चुनावी मकसद और संभावना से जोडक़र देखना अपने मन के भीतर तो लोग कर सकते हैं, लेकिन बयानों में इसे लेकर कुछ भी कहना न सिर्फ राहुल और कांग्रेस के खिलाफ जाएगा, बल्कि लोकतंत्र के भी खिलाफ जाएगा। एक लोकतांत्रिक देश में उसके सबसे नाजुक दौर में सिर्फ चुनावों को ध्यान में रखकर बयानबाजी किसी के लिए अच्छी नहीं है।
राहुल गांधी को लोगों से मिलने का यह सिलसिला जारी रखना चाहिए। इस हौसलेमंद नौजवान से अब यह उम्मीद करना कुछ ज्यादती होगी कि वह गुजरात से उत्तर-पूर्व तक एक और पदयात्रा निकाल ले, हालांकि देश को आज इसकी जरूरत है, भारत को जोडऩे की जरूरत गुजरात से असम तक भी है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है तो भी राहुल गांधी को उन प्रदेशों का दौरा करना चाहिए जो कि भारत जोड़ो पदयात्रा के रास्ते में नहीं आए थे। जितने राज्यों में वे गए हैं, उससे डेढ़ गुना राज्य अभी बाकी हैं, और कांग्रेस का संगठन तो हर राज्य में है। इसलिए राहुल गांधी इनमें से हर राज्य में जाकर वहां पार्टी के बैनर से परे भी आम लोगों से बात कर सकते हैं, अपना संस्मरण सुना सकते हैं, और लोगों की बात सुन सकते हैं। हो सकता है कि ऐसे हर प्रदेश में वे एक-एक दिन पैदल चल लें, और उसके पहले और बाद लोगों से बात कर लें। उन्हें अगले कुछ वक्त कांग्रेस के घरेलू पचड़ों से परे रहना चाहिए, और देश के माहौल को बेहतर बनाने के लिए शुरू की गई अपनी कोशिश को जारी रखना चाहिए। इस सर्द पदयात्रा में हजारों किलोमीटर का यह टी-शर्ट में पैदल सफर राहुल को तपाकर अधिक मजबूत कर गया है, और अगला काफी वक्त राहुल को चुनावी राजनीति से परे रहकर देश के लोगों में नफरत खत्म करने, और मोहब्बत जगाने में लगाना चाहिए। आज भारतीय राजनीति में ऐसे किरदार की जगह खाली थी, उसे बीते इन महीनों में राहुल ने बखूबी भरा है, और उन्हें यही सिलसिला कुछ और वक्त जारी रखना चाहिए। लोगों को इससे चुनावी हासिल का हिसाब नहीं लगाना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में इंसानियत और मोहब्बत चुनावी फतह से ऊपर की बातें हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के टेनेसी राज्य में पुलिस ने अपनी एक स्पेशल यूनिट को भंग कर दिया है। इस यूनिट की एक टीम के पांच अफसरों को पिछले हफ्ते एक काले नौजवान को बुरी तरह पीटने के आरोप में, उसकी मौत हो जाने के बाद, नौकरी से निकाल दिया गया है। यह पूरी हिंसक पिटाई एक सार्वजनिक जगह पर वीडियो में दर्ज हुई है, और यह वीडियो सामने आने के बाद इस पुलिस के नाम पर थूका जा रहा था। इस मामले को लेकर अमरीका में कई शहरों में विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे, और लोग पुलिस के आतंक की कुछ पुरानी कुख्यात वारदातों को भी इस सिलसिले में याद कर रहे थे। अश्वेत की मार-मारकर हत्या के इस मामले में तकनीकी रूप से कोई नस्लभेद नहीं है, क्योंकि मारने वाले तमाम पुलिस-अफसर अश्वेत ही थे। अमरीका में नस्लभेद के माहौल में काले लोग अपने को काला कहलाना पसंद करते हैं, क्योंकि उनका यह मानना है कि उनकी पहचान श्वेत लोगों से तुलना करते हुए अश्वेत के रूप में नहीं होनी चाहिए, काले के रूप में होनी चाहिए। अमरीका बुरी तरह से नस्लभेद का शिकार देश है, फर्क सिर्फ यही है कि वहां का कानून इसके खिलाफ तेजी से काम करता है।
अब एक काले नौजवान को सडक़ पर ट्रैफिक जांच करते हुए पांच काले पुलिस वालों ने मार-मारकर मार डाला, तो क्या यह पूरी तरह नस्लभेद से परे का मामला है? इस मामले को हिन्दुस्तान से लेकर अमरीका तक सत्ता की ताकत के साथ जुड़े हुए लोगों के मिजाज को देखकर समझने की जरूरत है। खुद अमरीका का एक सर्वे यह कहता है कि जब किसी काले पर जुल्म की वारदात होती है, तो पुलिसवर्दी के काले लोग भी पीछे नहीं रहते। हिन्दुस्तान की राजनीति और सत्ता में ऊपर आए हुए लोगों को देखें, तो उनके बीच भी यही बात दिखती है कि वे चाहे दलित-आदिवासी तबकों की रिजर्व सीटों से लडक़र आ जाएं, चाहे उन तबकों के वोटों को पाकर आ जाएं, जब वे सत्ता पर आ जाते हैं, तो उनका मिजाज सत्ता का हो जाता है। कोई दलित या आदिवासी अफसर किसी दलित या आदिवासी का जायज काम भी नाजायज रिश्वत लिए बिना करते हों, ऐसा सुनने में नहीं आता। सत्ता तक पहुंचने के लिए जाति की जिस सीढ़ी का इस्तेमाल किया जाता है, लोग सबसे पहले उसी सीढ़ी को लात मारकर गिराते हैं, ताकि उनकी बिरादरी के दूसरे लोग उन सीढिय़ों से उनकी बराबरी तक न पहुंच जाएं।
सत्ता का मिजाज ऐसा होता है कि जो महिलाएं सत्ता पर पहुंचती हैं, वे भी सत्ता पर बैठे हुए मर्दों की तरह ही सोचने लग जाती हैं, और हिन्दुस्तान के संदर्भ में देखें तो बलात्कार की शिकार महिलाओं के खिलाफ जितने बयान मर्दों के आते हैं, उनसे कुछ ही कम बयान औरतों के भी आते हैं। अगर महिलाओं को दूसरी महिलाओं की, उनके हकों की फिक्र होती, तो फिर सोनिया गांधी, ममता बैनर्जी, जयललिता, मायावती, और महबूबा की पार्टियां मिलकर महिला आरक्षण विधेयक को कब का कानून बनवा चुकी रहतीं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं क्योंकि भारतीय संसदीय राजनीति पर हावी मर्दों का दिल औरतों की बराबरी मानने के खिलाफ हमेशा अड़े रहा, और महिलाएं पार्टी की अध्यक्ष रहते हुए भी, उन पर मालिकाना हक रखते हुए भी कोई कोशिश करते नहीं दिखीं।
अमरीका में काले पुलिस अफसरों के हाथों एक गरीब काले नौजवान की इस तरह हत्या से उस देश और बाकी दुनिया में यही सवाल उठ खड़े होते हैं कि सत्ता की ताकत, ओहदे की ताकत, क्या लोगों को अपनी जाति, अपने धर्म, और अपने रंग के प्रति भी संवेदनशील नहीं छोड़ती है? सत्ता लोगों की बुनियादी सोच को ही बदल देती है, और वह औरत-मर्द का फर्क भी खत्म कर देती है। अभी साल भर के भीतर की बात है, बंगाल में एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार के मामले में मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने ऐसी गैरजिम्मेदारी का बयान दिया था कि जिसे लोगों ने जमकर धिक्कारा। ममता ने इस बलात्कार पर सवाल उठाया और कहा- ‘यह खबर बताती है कि एक नाबालिग की बलात्कार की वजह से मौत हो गई है, क्या आप इसे बलात्कार कहेंगे? क्या वह गर्भवती थी, या उसका किसी से कोई प्रेम-प्रसंग था? क्या इसकी जांच हुई है? मैंने पुलिस से जांचने कहा है। मुझे बताया गया है कि इस लडक़ी का किसी लडक़े के साथ कोई चक्कर था, और परिवार को इसके बारे में मालूम था। अगर एक जोड़े में कोई संबंध है, तो क्या मैं उसे रोक सकती हूं?’ एक मुख्यमंत्री की हैसियत से, और एक महिला होते हुए लोगों ने इस बयान को जमकर धिक्कारा था। लेकिन अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग महिला लीडर, या उनकी पार्टी के पुरूष लीडर ऐसे बयान देते हैं, और इनसे यही साबित होता है कि महिलाएं भी अपनी पार्टी की लीडर बनने के बाद महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता कुछ या बहुत हद तक खो बैठती हैं। ताकत एक नशा होता है, और इसके असर से बचना मुश्किल होता है। अगर सरकारों में बैठे दलित या आदिवासी अफसर और कर्मचारी ही दलित और आदिवासी जनता के काम बिना रिश्वत लिए करने लगते, उनके काम करवाने के लिए कुछ मेहनत करते होते, तो आज इन दबे-कुचले तबकों की हालत इतनी खराब नहीं होती। किसी समाज से आकर ताकत के ओहदे तक पहुंचने वाले लोगों को उनके समाज का प्रतिनिधि मानना ठीक नहीं है, वे सिर्फ सत्ता के प्रतिनिधि होकर रह जाते हैं।
आज चाहे हॅंसी-मजाक में सही, कई डॉक्टरों के ऐसे असली या मजाकिया नोटिस देखने में आते हैं कि गूगल पर पढक़र आए लोगों के सवालों के लिए अलग से फीस ली जाएगी। दरअसल इंटरनेट पर सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाले सर्च इंजन गूगल पर किसी जानकारी को ढूंढने को ही अब ढूंढना मान लिया गया है। गूगल अब ब्रांड नहीं रह गया, वह अब एक क्रिया बन गया है, तलाशने का समानार्थी शब्द बन गया है। लोगों को स्कूल-कॉलेज के प्रोजेक्ट पूरे करने हो, या किसी इंटरव्यू की तैयारी करनी हो, उन्हें सबसे आसान और आम सलाह यही मिलती है कि गूगल कर लो। ऐसा माना जाता है कि लोगों की अधिकतर जरूरतों की जानकारी इस सर्च इंजन पर निकल आती है। इसके बाद इंटरनेट पर एक दूसरी वेबसाइट विकिपीडिया है जो कि विश्व ज्ञानकोश है, और उस पर मिली अधिकतर जानकारी आमतौर पर सही मानी जाती है। लोगों की आम जरूरतें इस पर पूरी हो जाती हैं, और खास जरूरतों के लिए दूसरी वेबसाइटें भी इंटरनेट पर हैं।
सहूलियत के ऐसे माहौल के बीच अचानक एक नई वेबसाइट आई है जो कि इंटरनेट पर काम करने वाला एक एआई एप्लीकेशन है, एआई का मतलब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस। चैटजीपीटी नाम की यह वेबसाइट 2021 तक की जानकारी से लैस है, और इस पर जाकर लोग मनचाही फरमाइश कर सकते हैं। कोई उस पर नासा या इसरो के लिए एक निबंध लिखने कह सकते हैं, कोई भूपेश बघेल पर कविता लिखने की फरमाइश कर सकते हैं, और कोई रमन सिंह पर कविता लिखवाकर यह पा सकते हैं कि इस एप्लीकेशन में सिर्फ नाम बदलकर दोनों की तारीफ में एक ही कविता खपा दी है। लेकिन अभी कुछ महीनों के भीतर इस वेबसाइट या एप्लीकेशन की शोहरत ऐसी हो गई है कि अमरीकी विश्वविद्यालयों में इम्तिहान में पूछे जाने वाले सवालों के जवाब इस पर बनाए जा रहे हैं, और इसका आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जानकारी ढूंढकर, अपनी खुद की भाषा में तकरीबन सही जवाब बनाकर कुछ सेकेंड में ही पेश कर दे रहा है। लोग जिस रफ्तार से पढ़ सकते हैं उससे कई गुना रफ्तार से यह जवाब गढक़र पेश करता है। अभी कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों ने चैटजीपीटी के जवाबों को आंकने की कोशिश की, तो उन्होंने पाया कि बिजनेस मैनेजमेंट जैसे कई कोर्स के इम्तिहानों के जवाब अगर इस वेबसाइट से बनवाए जाएं, तो भी लोग बी या बी माइनस (शायद सेकेंड डिवीजन) से पास हो जाएंगे। और चैटजीपीटी अपने इस्तेमाल करने वाले के सवालों से, इंटरनेट पर रोज जुडऩे वाली जानकारियों से अपने आपको लैस करते चलता है, सीखते चलता है, और हर दिन उसके जवाब पहले से बेहतर हो सकते हैं।
आज मीडिया में भी ऐसा माना जा रहा है कि आम रिपोर्टिंग आने वाले दिनों में हो सकता है कि ऐसे ही किसी सॉफ्टवेयर से होने लगे, और उसमें बुनियादी जानकारी डाल देने से कम्प्यूटर तुरंत ही समाचार बनाकर पेश कर देगा। आज भी चैटजीपीटी पर जानकारियां डालने से वह तुरंत रिपोर्ट बनाकर दे देता है। आने वाला वक्त बिजली की रफ्तार से किसी भी विषय पर लिख देने वाले ऐसे आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस रहेगा, और दुनिया में मौलिक लेखन के लिए यह एक बड़ा खतरा रहेगा। आज ही पश्चिम के विकसित विश्वविद्यालयों में यह चर्चा छिड़ी हुई है कि चैटजीपीटी जैसे औजारों को देखते हुए अब इम्तिहान लेने के तरीकों में तुरंत बदलाव करना पड़ेगा, क्योंकि अब सवालों के लंबे जवाब लिखने, या निबंध लिखने के ढंग से इम्तिहान बेकार हो जाएंगे क्योंकि कुछ पल में ही लोग दुनिया के किसी भी विषय पर ऐसा निबंध पा सकते हैं। ऐसा ही हाल पत्र-पत्रिकाओं या मीडिया की दूसरी जगहों पर लिखने वालों का भी होगा, क्योंकि उनसे बेहतर लिखा हुआ पल भर में पेश हो जाएगा, तो उनकी जरूरत क्या रह जाएगी?
आज डिजिटल टेक्नालॉजी पर टिकी हुई पढ़ाई वैसे भी सीखने और जवाब देने की मौलिकता खोती चल रही है। लोग गूगल पर एक किस्म के जवाब ढूंढते हैं, और मशीनी अंदाज में जवाब लिखते हैं। और अब तो हर किसी के लिए अलग-अलग किस्म से लिखे हुए जवाब चैटजीपीटी जैसी वेबसाइटों पर बढ़ते ही चलेंगे, और इससे सीखने का सिलसिला भी बहुत बुरी तरह प्रभावित होगा। मूल्यांकन करने वाले लोगों को यह समझ ही नहीं आएगा कि जवाब या इम्तिहान देने वाले लोगों ने क्या खुद लिखा है, और क्या उनके लिए चैटजीपीटी जैसे सॉफ्टवेयर ने लिखा है।
हजारों बरस में दुनिया ने भाषा सीखी, दुनिया भर के विषयों पर जानकारी हासिल की, उनका विश्लेषण किया, और ज्ञान को समझ में तब्दील किया। अब रातों-रात एक ऐसी मुफ्त की सहूलियत लोगों के फोन और कम्प्यूटर पर पहुंच गई है कि उसने हजारों बरस के विकास की बराबरी कुछ सेकेंड में करने की कोशिश की है। अभी बस उसने भाषा और ज्ञान को सीखा है, लिखना सीखा है, लेकिन फिर भी वह है तो कृत्रिम ही। उसे दो बिल्कुल अलग-अलग सोच के नेताओं पर कविता लिखते हुए नाम बदलने के अलावा कुछ और बदलना नहीं सूझता। यहां पर आकर वह बेवकूफ है। लेकिन दुनिया में मूल्यांकन के अधिकतर तरीके भी इसी तरह के या इसी दर्जे के बेवकूफ हैं। इसलिए कृत्रिम बुद्धि का बनाया हुआ माल भी बाजार में तकरीबन तमाम जगहों पर काम कर जाएगा, खप जाएगा। बहुत ही कम ऐसी जगहें रहेंगी जहां पर मौलिकता का सम्मान होगा, उसकी जरूरत होगी, और उसे परखा जा सकेगा। फिलहाल एक जानकार ने नसीहत यह दी है कि लोग अपने जिन मोबाइल फोन से लेन-देन का काम करते हैं उन पर आर्टिफिशियल इंटेलीजेेंस के कोई भी एप्लीकेशन डाउनलोड न करें क्योंकि वे फोन पर आपके तमाम काम से लगातार सीखते चलते हैं, और हो सकता है कि वे आपके बैंकों के पासवर्ड भी सीख जाएं, जो कि आगे जाकर हैकरों के हाथ लग जाएं। इसलिए यह कृत्रिम बुद्धि लोगों को इस एप्लीकेशन की शक्ल में मुफ्त में हासिल तो है, लेकिन दुनिया में जैसा कहा जाता है कि कुछ भी मुफ्त नहीं होता, इसे भी सावधानी से इस्तेमाल करना चाहिए। और स्कूल-कॉलेज, विश्वविद्यालय को भी ऐसी तकनीक को अपनी परंपरागत परीक्षा प्रणाली के लिए एक बड़ी चुनौती मानना चाहिए कि इसके बाद अब उनके दिए जा रहे ज्ञान और लिए जा रहे इम्तिहान की शक्ल क्या होनी चाहिए।
मध्यप्रदेश में डीआईजी स्तर की एक आईपीएस और उसके आईएएस पति के सरकारी बंगले पर तैनात सिपाहियों को लेकर एक प्रमुख अखबार भास्कर ने एक रिपोर्ट की तो यह पता लगा वहां 44 सिपाही सेवा में लगे हुए हैं। ये सिपाही वहां खाना पकाते, झाड़ू-पोंछा करते हैं, कपड़े धोते हैं, माली का काम करते हैं, और चौकीदारी करते हैं। अखबार का हिसाब है कि इन सिपाहियों को हर महीने 27 लाख रूपए से ज्यादा का भुगतान किया जा रहा है। सिर्फ खाना बनाने के लिए यहां 12 सिपाही तैनात हैं। यह हाल मध्यप्रदेश में तब है जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने बंगलों पर सिपाहियों की ड्यूटी के खिलाफ नाराजगी दिखाई थी। इस अफसर जोड़े के बंगले पर आईएएस पति के विभाग के 12 कर्मचारी भी तैनात हैं।
इन दो अफसरों को कुल मिलाकर पांच लाख रूपए महीने के आसपास तनख्वाह मिलती होगी, लेकिन इनके बंगलों पर तैनात सरकारी कर्मचारियों पर 30 लाख रूपए महीने खर्च हो रहे हैं। यह नौबत अकेले मध्यप्रदेश में नहीं है, उसका हिस्सा रह चुके छत्तीसगढ़ में यही हाल है। एक-एक अफसर के बंगले पर दर्जनों कर्मचारी तैनात हैं, और वे अमानवीय स्थितियों में काम कर रहे हैं। अभी कुछ समय पहले ही ऐसे एक बंगले पर तैनात एक बटालियन के सिपाही ने अफसर के लगातार चल रहे जुल्मों से थककर उसे एक थप्पड़ मारी, और बताया कि वह किस आरक्षित जाति का है, और वह अफसर उसका जो बिगाड़ सकता है बिगाड़ ले, वह खुद ही थाने जाकर एसटी-एससी एक्ट में उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखा रहा है। इसके बाद किसी तरह कई अफसरों ने मिलकर दौड़-भाग करके उस जवान को मनाया, और उसे बस्तर में तैनात उसकी बटालियन वापिस भेजा गया। एक दूसरे बहुत बड़े सवर्ण रिटायर्ड अफसर के बंगले पर दर्जनों कर्मचारी तैनात हैं, और उनमें से जो बंगले के भीतर काम करते हैं, उन्हें आकर नहाकर भीतर जाना पड़ता है। खाना पकाने वाले कर्मचारियों को नहाकर बंगले के धोती-कुर्ते में किचन में जाना पड़ता है, और खाना बनाना पड़ता है। अब एक सवर्ण अफसर को एक एसटी-एससी सिपाही के थप्पड़ के बाद भी अगर बाकी लोगों को खतरा समझ नहीं आ रहा है, तो छोटे कर्मचारियों के साथ ऐसा अमानवीय बर्ताव पुलिस कर्मचारियों के परिवारों के आंदोलन के लिए एक पर्याप्त वजह होनी चाहिए।
जब लोग पुलिस में भर्ती होते हैं, तो वे ऐसे अमानवीय बर्ताव के लिए नहीं आते हैं। सिपाहियों के साथ जब ऐसा बर्ताव होता है, तो मुजरिमों पर कार्रवाई करने का उनका मनोबल भी टूट जाता है, और वे अपने परिवार के बीच भी सिर उठाकर नहीं जी पाते हैं। विभाग के दूसरे कर्मचारियों के बीच भी वे मखौल का सामान बन जाते हैं, और काम के इस तरह के हालात उनके बुनियादी मानवाधिकार के भी खिलाफ हैं। न सिर्फ सरकार को अपने अमले की ऐसी बर्बादी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, बल्कि मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था को भी खुद होकर हर अफसर से हलफनामा लेना चाहिए कि उनके बंगले पर कौन-कौन लोग काम कर रहे हैं, वे किस-किस विभाग से आए हुए हैं। अब ऐसा तभी हो सकेगा जब मानवाधिकार आयोग जैसी संस्था के अध्यक्ष या सदस्यों के घरों पर इसी तरह से सिपाही या दूसरे कर्मचारी तैनात नहीं होंगे। अगर जजों के बंगलों पर भी यही हाल रहेगा, तो फिर कर्मचारियों के ऐसे बेजा इस्तेमाल के खिलाफ कोई पिटीशन लगाने का भी कोई फायदा नहीं होगा।
यह पूरा सिलसिला बहुत ही अलोकतांत्रिक और अमानवीय है। यह इंसानों को गुलामों की तरह इस्तेमाल करने का है, और अपनी तनख्वाह से दस-बीस गुना बर्बादी कर्मचारियों की तैनाती की शक्ल में करने का भी है। अब सवाल यह उठता है कि जब तमाम अफसर, रिटायर्ड अफसर, मंत्री, और दूसरे नेता, सभी लोग ऐसी गुलामी-प्रथा का मजा ले रहे हैं, तो कार्रवाई कौन करे? यहां पर पुलिस कर्मचारियों के परिवारों को चाहिए कि इसी एक मुद्दे को लेकर वे जमकर आंदोलन छेड़ें, मीडिया में जाएं, अदालतों में जाएं, तरह-तरह की वीडियो रिकॉर्डिंग जुटाएं, और नेता-अफसर सबका भांडाफोड़ करें। ऐसा लगता है कि अंग्रेज अफसरों के घर पर भी कर्मचारियों की इतनी बड़ी भीड़ नहीं रहती होगी। भोपाल में जिस अखबार के भांडाफोड़ से यह गिनती सामने आई है, वैसे तमाम कर्मचारियों से हलफनामे लेने चाहिए कि वे कहां काम कर रहे थे। उन्हें तैनात करने वाले अफसरों से भी हलफनामे लेने चाहिए कि उन्होंने किस आधार पर कर्मचारियों को किसी बंगले पर भेजा था। हिन्दुस्तान एक गरीब देश है, लेकिन आजादी की पौन सदी बाद भी आज के अफसर अंग्रेज बहादुर की तरह राज कर रहे हैं, और यह सिलसिला सामाजिक दखल से भी खत्म करना चाहिए। जनसंगठनों और राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे छोटे-छोटे बेजुबान कर्मचारियों को गुलामी से आजाद कराने के लिए एक सामाजिक आंदोलन छेड़ें, और ऐसे बंगलों के सामने खड़े रहकर आने-जाने वाले कर्मचारियों की रिकॉर्डिंग करें, और बंगलों पर काबिज लोगों का जीना हराम करें।
बहुत से अफसरों के परिवार कर्मचारियों के साथ तरह-तरह की बदसलूकी करते हैं। कई जगहों पर वर्दीधारी कर्मचारियों को साहबों के बच्चों का पखाना धोना पड़ता है, और उनके जानवरों को नहलाना भी पड़ता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और एक लोकतांत्रिक समाज में ऐसे सामंती सिलसिले की कोई जगह नहीं हो सकती। छत्तीसगढ़ में भी लोगों को आरटीआई के माध्यम से, या बंगलों की निगरानी करके कर्मचारियों के नाम जुटाने चाहिए। विधानसभा के सदस्य अगर खुद इस तरह का बेजा इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें वहां ये सवाल उठाने चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के कोरबा में कल एक आदतन मुजरिम को जिलाबदर किया गया। उसे एक साल के लिए कोरबा जिले से बाहर रहने को कहा गया है। गोपू पांडेय नाम के इस नौजवान के खिलाफ बहुत से हिंसक मामले दर्ज थे, और पुलिस की कार्रवाई का कोई असर न देखते हुए उसे चौबीस घंटे के भीतर जिला छोड़ देने को कहा गया। इसके साथ ही उसे कोरबा से लगे हुए जिलों, बिलासपुर, जांजगीर-चाम्पा, सक्ती, रायगढ़, सरगुजा, सूरजपुर, कोरिया, मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर, और गौरेला-पेण्ड्रा-मरवाही जिलों से भी एक साल के लिए बाहर चले जाने के लिए कहा गया। ऐसे जिलाबदर के मामले जिला पुलिस की बनाई गई फाईल के आधार पर जिला मजिस्ट्रेट के हुक्म से पूरे होते हैं। जिलाबदर के मामले कम होते हैं, और ऐसे ही आदतन गुंडे-बदमाश, मुजरिम के खिलाफ होते हैं जो कि पुलिस की आम कार्रवाई से काबू में नहीं आ रहे हैं।
अंग्रेजों के वक्त का बना हुआ जिलाबदर कानून आजाद हिन्दुस्तान के मानवाधिकार के किसी पैमाने को देखते हुए नहीं बना था। किसी को पूरे एक बरस के लिए उसके जिले, और आसपास के तमाम जिलों के बाहर भेज देने का मतलब उसके लिए जिंदा रहने की एक चुनौती भी खड़ी कर देना है, क्योंकि अगर वह ऐसा ही आदतन मुजरिम या गुंडा-बदमाश है, तो उसके लिए बाहर जाकर कोई काम करना आसान नहीं होगा। दूसरी बात यह कि जो एक जिले के लिए खतरनाक साबित हो रहा है, उस खतरे को उठाकर बाकी जिलों पर डाल दिया जाए, यह उनके साथ बेइंसाफी है कि ऐसे गुंडे का जिला अपनी बला दूसरों पर डाल रहा है, और उन दूसरे जिलों में इस अपराधी की कोई शिनाख्त भी नहीं है, वहां पर वह अपने आदतन जुर्म और आसानी से कर सकता है, वहां वह लोगों के लिए एक अधिक बड़ा खतरा बन सकता है क्योंकि उसे आते-जाते देखकर उस पराये जिले की पुलिस मुजरिम की तरह पहचान भी नहीं पाएगी।
इस बारे में बात करने पर कुछ पुलिस अफसरों का यह कहना है कि यह बहुत ही दुर्लभ मामलों में होने वाली कार्रवाई है, और ऐसे मामले गिने-चुने रहते हैं, इसलिए इन्हें किसी मानवाधिकार से जोडक़र देखना जायज नहीं है। पुलिस का यह भी तर्क रहता है कि ऐसे लोग स्थानीय स्तर पर अपने बाहुबल, और अपने गिरोह के चलते बाकी तमाम लोगों के मानवाधिकार कुचलने की हालत में रहते हैं, कुचलते ही रहते हैं, और ऐसे लोगों को अगर एक साल बाहर रहकर जिंदा रहने को कहा जाए, तो यह उन्हें उनके गिरोह की ताकत से दूर रखना भी होता है, और आज के वक्त हर किसी के पास किसी न किसी तरह की मजदूरी करने का विकल्प रहता है, इसलिए ऐसे कोई गुंडे दूसरे जिलों में भी जाकर भूखे नहीं मर सकते। अपने खुद के जिलों में ये इतने बड़े दबंग गुंडे रहते हैं कि वहां जुर्म करना उनके लिए आम बात रहती है, और इलाके के लोगों के लिए उनके खिलाफ शिकायत करना खतरे की बात हो जाती है। पुलिस का यह भी कहना रहता है कि यह किसी को भूखे मारने का काम नहीं है, और खुले समाज में मेहनत-मजदूरी करके या अपने हुनर का और कोई काम करके लोग आसानी से जिंदा रह सकते हैं।
अब मानवाधिाकर के नजरिए से देखें तो ऐसे गुंडे-बदमाश या मुजरिम जुर्म के अलावा भी हो सकता है कि कोई और काम करके अपने परिवार को भी चला रहे हों। जिन्हें कोई अदालती सजा मिले, उनका तो जेल जाना, और परिवार को बेसहारा छोड़ देना एक कानूनी नौबत है, लेकिन बिना सजा मिले जिलाबदर कर देना एक बड़ी सजा है, जो कि पुलिस की कार्रवाई नहीं कही जा सकती, यह कार्रवाई से अधिक है, और सजा है। यह अपने आपमें एक अलोकतांत्रिक बात है कि अदालती कार्रवाई का विकल्प मौजूद रहते हुए पुलिस और प्रशासन मिलकर किसी को जिलाबदर की ऐसी सजा दें, जिसे वे सजा में नहीं गिनते। लेकिन पुलिस का एक तर्क देखने-समझने लायक है कि ऐसे आदतन या पेशेवर गुंडे-बदमाश या मुजरिम आए दिन करने वाले जुर्म के लिए अदालतों से हाथों-हाथ जमानत पा जाते हैं। कायदे से तो होना यह चाहिए कि हर जुर्म के साथ पिछले जुर्मों के रिकॉर्ड भी अदालत में पेश होने चाहिए जिससे न तो ताजा जुर्म पर जमानत मिल सके, और न ही पिछले जुर्म में मिली जमानत जारी रह सके, लेकिन ऐसा होता नहीं है। पुलिस और अदालत का सिलसिला इतना बेअसर और शायद भ्रष्ट भी रहता है कि लोग दस-दस अलग-अलग जुर्मों पर जमानत लिए हुए घूमते रहते हैं, और उनके मामलों की सुनवाई की बारी नहीं आती, सजा की बात तो दूर रही।
जिलाबदर के ऐसे मामलों को देखें तो यह साफ दिखाई पड़ता है कि दर्जन-दर्जनभर जुर्म जिन पर दर्ज है, वे हर मामले में जमानत लिए घूम रहे हैं, और हर नए मामले में पुराने तमाम जुर्म का जिक्र भी हो रहा है, और पहले की कोई भी जमानत रद्द भी नहीं हो रही है। मतलब यह कि आज जिलाबदर की नौबत इस बात का सुबूत है कि जुर्म के खिलाफ अदालती कार्रवाई इतनी बेअसर हो गई है कि पुलिस फैसलों और सजा का इंतजार करते-करते जिलाबदर को मजबूर हो रही है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार की बात करने वालों को यह आसानी से समझ में आएगा कि अदालत की नियमित प्रक्रिया के बेअसर हो जाने से अंग्रेजों के वक्त के ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों का इस्तेमाल जरूरी हो रहा है, या जायज लग रहा है। कायदे की बात यह है कि जिलाबदर की कार्रवाई से होने वाले मानवाधिकार उल्लंघन पर फिक्र होनी चाहिए, लेकिन अदालती रफ्तार ने उस फिक्र की गुंजाइश को खत्म कर दिया है। जब मौजूदा कानून के तहत, जुर्म के सीधे-सीधे मुकदमों में सजा नहीं हो पाती है, उसमें बरसों लग जाते हैं, तब पुलिस को असाधारण ताकत का इस्तेमाल करना पड़ता है, और लोगों को उसके अलोकतांत्रिक होने का अहसास भी नहीं होता। यह भारत की न्याय व्यवस्था के बेअसर होने के हजार किस्म के नुकसानों में से एक है, और यह इस बात का पुख्ता सुबूत है कि इस व्यवस्था में सुधार की कितनी जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कुछ दिनों से पहले नागपुर और अब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर बागेश्वर धाम के एक स्वघोषित चमत्कारी धीरेन्द्र शास्त्री नाम के नौजवान को लेकर खबरों में उबल रहे हैं। यह नौजवान कहने के लिए प्रवचनकर्ता या कुछ और है, लेकिन उसकी शोहरत धर्मालुओं के बीच मंच पर चमत्कार दिखाने की है। बहुत से लोगों का कहना है कि ये गढ़े गए चमत्कार रहते हैं, और यह एक पाखंड है, धोखा है। यह नौजवान अपने आपको अलौकिक शक्तियों वाला बताता है, मंच और माइक से धर्म के कपड़े ओढ़े हुए घोर साम्प्रदायिकता की बात करता है, तरह-तरह की धमकी देता है, और नागपुर में जब अंधविश्वास विरोधियों ने इसे चमत्कार साबित करने की चुनौती दी, तो यह वहां से भाग निकला। अब छत्तीसगढ़ में राजधानी के एक कांग्रेस विधायक विकास उपाध्याय ने अपनी धार्मिक गतिविधियों की कड़ी में इस धीरेन्द्र शास्त्री का एक और कार्यक्रम कराया जिसे कि टीवी समाचार चैनलों की मेहरबानी से एक बार फिर चमत्कार साबित करने की कोशिश की गई। अब यह तो वक्त बताएगा कि इस ‘चमत्कारी’ की साख बची या टीवी चैनलों की साख गई।
लोगों के मन की बात बताने, उनका भूतकाल बताने, या भविष्य बताने, उनकी समस्याओं के समाधान बताने वाले ढेर सारे फर्जी और पाखंडी बाबाओं का हिन्दुस्तान में बोलबाला है। ये सिर्फ हिन्दू धर्म में नहीं हैं, ईसाईयों की चंगाई सभाएं होती थीं, जिनमें पोस्टर यही लगते थे कि अंधे देखने लगेंगे, लंगड़े चलने लगेंगे, बहरे सुनने लगेंगे। इसके बाद ईसाई धर्म प्रचारक मंच पर तैयार किरदारों को लाकर पहले उनके विकलांग होने का नाटक पेश करते थे, और फिर उन्हें ठीक करने का। अभी भी इंटरनेट पर ऐसे अनगिनत वीडियो तैर रहे हैं जिनमें मानसिक रूप से परेशान दिखती हुई महिलाएं ऐसे ईसाई धर्म प्रचारकों के छूते ही स्टेज पर झटके से गिरकर लोटपोट होने लगती हैं। हिन्दुस्तान में समाजसेवा का बहुत बड़ा काम करने वाली मदर टेरेसा को भी वैटिकन ने संत की उपाधि तभी दी थी जब वैटिकन की टीम ने किसी एक मरीज का यह बयान दर्ज किया कि मदर टेरेसा के चमत्कार से उसकी बीमारी ठीक हुई। बिना चमत्कार किसी को संत का दर्जा वैटिकन नहीं देता। यह एक अलग बात है कि आज हिन्दुस्तान में कई राज्यों में ऐसे कानून हैं जो चमत्कार से किसी बीमारी को ठीक करने के दावे को जुर्म करार देते हैं, और उन पर सजा है। अब मदर टेरेसा के मामले में तो ऐसे चमत्कार पर ही उनकी संत की उपाधि टिकी हुई है, यह एक अलग बात है कि ऐसा कोई दावा उन्होंने खुद ने नहीं किया था।
एक ऐसे मुस्लिम बाबा का वीडियो भी कुछ समय से सोशल मीडिया पर चल रहा है जो कि विचलित और बीमार महिलाओं के दरबार में बच्चों की खेल की बंदूकों को उनकी तरफ तानकर, चलाकर उनका इलाज कर रहा है। हिन्दुस्तान में प्रचलित अन्य धर्मों में इस तरह के पाखंड की बात याद नहीं पड़ रही है। जैन, सिक्ख, बौद्ध धर्मों की नसीहत हो सकता है कि पाखंडों से परे ले जाती हो। लेकिन हिन्दुस्तान की हिन्दू आबादी ऐसे पाखंड की सबसे बुरी जकड़ में है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जब समाज में डॉक्टरी इलाज ठीक से हासिल नहीं रहता, मनोचिकित्सा हिन्दुस्तान में नहीं के बराबर मौजूद है, और हजार मनोरोगियों में से शायद वह सौ-पचास को भी हासिल नहीं है, तब ऐसे चमत्कारी पाखंडियों की दुकान चल निकलती है। कहीं कोई दरबार लगता है, कहीं प्रवचन के बीच इलाज होता है, तो कहीं पर निर्मल बाबा नाम का एक प्राणी इंटरनेट पर एडवांस बुकिंग से लोगों को टिकटें बेचता है, और हॉल में इक_ा लोगों को दुनिया के सबसे अनोखे समाधान सुझाता है। शुक्रवार को काले कुत्ते को पीले कपड़ों में जाकर लाल समोसा खिलाने से कृपा बरसेगी, जैसा समाधान बतलाने वाला निर्मल बाबा अभी पता नहीं कुछ समय से टीवी से गायब क्यों है, वरना कुछ टीवी चैनल उसी को समर्पित रहते थे। कई और बाबाओं की कई तरह की शोहरत रही, उन्होंने समाजसेवा के कुछ बड़े काम भी किए, लेकिन उनकी महिमा भी चमत्कार के रास्ते स्थापित हुई। पुट्टपर्थी के सत्य सांई बाबा हवा में हाथ उठाकर कई तरह की चीजें पैदा कर देते थे। किसी भक्त को घड़ी, किसी को गहने, और किसी को कुछ और मिल जाता था। उनके भक्त पिछले एक प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव से लेकर बड़े-बड़े जज भी रहे, और ऐसी भक्त मंडली के चलते सत्य सांई बाबा का धार्मिक-आध्यात्मिक कारोबार बहुत फैला। उन्होंने हार्ट के ऑपरेशन के लिए अस्पताल बनाए जिनका गरीबों की जिंदगी में बहुत बड़ा योगदान है, और छत्तीसगढ़ में उनके अस्पताल के कम्प्यूटरों पर बिल बनाने और भुगतान लेने का कॉलम ही नहीं है। यहां सौ फीसदी इलाज मुफ्त होता है। अलौकिक चमत्कारों से जुटाए गए दान का आधुनिक मेडिकल चिकित्सा पर खर्च समझ आता है। लेकिन आज के कई बाबा जिस तरह नफरत फैलाते हुए घूम रहे हैं, साम्प्रदायिकता की बातें कर रहे हैं, वह हिन्दुस्तान को तोडऩे वाली बातें हैं।
अब ऐसे अंधविश्वास और साम्प्रदायिकता को और ताकत तब मिल जाती है जब स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी के मंत्री-मुख्यमंत्री, या विधायक-सांसद ऐसे बाबाओं के आयोजन करवाते हैं, उनके पांवों में पड़े रहते हैं। लोगों को याद होगा कि बलात्कारी आसाराम के अनगिनत वीडियो आज मौजूद हैं जिनमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी आसाराम की स्तुति करते दिखते हैं। लेकिन उन्हीं वीडियो के साथ-साथ कुछ ऐसे वीडियो भी मौजूद हैं जिनमें कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह भी अपने मुख्यमंत्री होने के वक्त आसाराम के पैरों पर पड़े हैं। जिस देश में नेहरू ने एक वैज्ञानिक सोच विकसित की थी, जहां उन्होंने धर्म को निजी आस्था तक सीमित रखा था, हर किस्म के अंधविश्वास और पाखंड का विरोध किया था, हिन्दुस्तान की संस्कृति को धर्मान्धता से अलग करने का बहुत बड़ा काम किया था, आज उन्हीं की पार्टी के नेता पाखंडियों के आयोजन कर रहे हैं जो कि धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता दोनों को फैला रहे हैं। यह बात बहुत हैरान नहीं करती क्योंकि नेहरू की कांग्रेस में उनकी धर्मनिरपेक्ष सोच, और पाखंड का उनका विरोध उन्हीं की बेटी इंदिरा ने खत्म कर दिया था जब वे मचान पर बैठे देवरहा बाबा के लटके हुए पांव के नीचे अपना सिर टिकाने जाकर खड़ी हुई थीं। उसके बाद तो कांग्रेस में धर्मान्धता को औपचारिक मंजूरी ही मिल गई थी, जो आज भी जारी है। कांग्रेस में धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता से पूरी तरह बचे हुए सोनिया परिवार के बावजूद पार्टी मोटेतौर पर धर्म के नाम पर धर्मान्धता को बढ़ा रही है। और भाजपा की तो पूरी बुनियाद ही धर्म पर टिकी हुई है। पूरे देश में फैली हुई महज दो ही पार्टियां हैं, और जब ये दोनों हिन्दुत्व की ए और बी टीम की तरह काम कर रही हैं, तो फिर वैज्ञानिक सोच की गुंजाइश कहां है?
हम देश में फैल रही धर्मान्धता को लेकर महज भाजपा को कोसना इसलिए नहीं चाहते क्योंकि कांग्रेस उसी के पदचिन्हों पर चलते हुए उससे आगे निकलने की हड़बड़ी में दिख रही है। यह एक अलग बात है कि धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों को कांग्रेस के मुकाबले भाजपा अधिक माकूल बैठती है, और वे किसी बी टीम पर दांव क्यों लगाएंगे, जब खालिस और असली ए टीम अभी बाजार में मौजूद भी है, और अधिक कामयाब भी है। धर्मान्ध आयोजन करवाने वाले कांग्रेस नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि वे इस पाखंड में सडक़ों पर कितना ही नाचें, वोट के दिन धर्मान्ध लोगों को कांग्रेस सबसे बेहतर पार्टी नहीं लगने वाली है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस एक मामले में समझदारी दिखाई कि उन्होंने अपने ही विधायक और संसदीय सचिव के इस पाखंडी आयोजन में जाने से इंकार कर दिया, और नर्म शब्दों में सही, इसकी आलोचना भी की। धर्म पर आधारित नफरत की लड़ाई में कांग्रेस कभी भी भाजपा से नहीं जीत पाएगी, और उसे ऐसी कोशिश बंद कर देना चाहिए, क्योंकि ऐसी कोशिश के चलते हुए वह अपना चरित्र खो बैठ रही है, और उसके परंपरागत मतदाताओं को यह अब उनकी पसंदीदा पार्टी नहीं दिख रही है।
दुनिया की सबसे बड़ी, कामयाब और मुनाफा कमा रही टेक्नालॉजी कंपनियों ने पिछले एक बरस में 70 हजार से अधिक कर्मचारियों को नौकरी से निकाला है। इन कंपनियों में तनख्वाह की जो हालत रहती है, उसके मुताबिक बाकी कंपनियों के कर्मचारियों से वे काफी अधिक पाते हैं, और ऐसे लोगों की नौकरी जाने का एक मतलब यह भी है कि बाजार में उनका खर्च कम या बंद हो जाएगा, और अर्थव्यवस्था का चक्का घूमना कुछ धीमा हो जाएगा। इसे इस तरह देखना भी ठीक होगा कि इन कंपनियों में जो हिन्दुस्तानी काम करते थे, वे अब भारत में बसे अपने परिवारों तक पैसे नहीं भेज पाएंगे, इससे यहां के परिवार अपना खर्च घटाएंगे, कोई नई खरीदी करने की तैयारी रही होगी, तो वह भी घट जाएगी। इसलिए दुनिया में कहीं भी बड़े पैमाने पर रोजगार जाते हैं, तो दूसरे कई देशों तक भी उसका असर होता है। और रोजगार जाने का यह सिलसिला सिर्फ टेक्नालॉजी कंपनियों या अमरीकी कंपनियों तक सीमित नहीं है, यह दुनिया में तरह-तरह के देशों में तरह-तरह से हो रहा है। रूस के यूक्रेन पर हमले, और उसके बाद की जंग के चलते दुनिया की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी तरह चौपट हुई है, और उससे भी कामकाजी देशों के सामने रोजगार की दिक्कत आ गई है, खाते-कमाते लोगों पर महंगाई की मार दिख रही है, और भुखमरी के शिकार देशों में इंसानों के कुपोषण और भूख से मरने का सिलसिला बढ़ गया है।
कल ही पाकिस्तान की एक रिपोर्ट है कि वहां से कपड़े के निर्यात में आई गिरावट की वजह से करीब 70 लाख लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया है, और वहां का कपड़ा उद्योग गर्त में चले गया है। एक वक्त यह पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में बड़ा कारोबार था, लेकिन अब न तो घरेलू ग्राहक रह गए, न ही निर्यात रह गया, और न ही उस कपास की फसल बची जिससे बना सूती कपड़ा दूसरे देशों में जाता था। पिछले बरस आई बाढ़ में पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा ऐसा डूबा कि वहां सडक़, पुल, इमारतें, गांव-कस्बे सभी कुछ बह गए या डूब गए। इस बाढ़ से साढ़े 3 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे, कपास की फसल का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो गया था, किसान तो बर्बाद हुए ही, ग्रामीण अर्थव्यवस्था बर्बाद हुई, और अब नतीजा यह दिख रहा है कि कारखानेदार भी डूब रहे हैं, और मजदूर तो नौकरी खो ही बैठे हैं। पाकिस्तान के निर्यात का आधा हिस्सा कपड़े का निर्यात था, जो ठप्प पड़ा है। नतीजा यह होगा कि देश में आने वाली विदेशी मुद्रा नहीं आएगी, स्थानीय कारखानेदारों, कारोबारियों, और मजदूरों के पास खर्च का पैसा नहीं रहेगा, और स्थानीय अर्थव्यवस्था का चक्का घूमना धीमा हो जाएगा।
हिन्दुस्तान में कुछ दिन पहले ही आई ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट को गौर से देखने की जरूरत है। इस रिपोर्ट में बताया है कि देश की 40 फीसदी दौलत सिर्फ एक फीसदी अमीर लोगों के पास है, और नीचे की आधी आबादी के पास सिर्फ तीन फीसदी दौलत है। यह रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तान के 10 सबसे अमीर लोगों की दौलत में 2021 के मुकाबले एक बरस में 32.8 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में अरबपतियों की संख्या 2020 में 102 थी, जो बढक़र 2021 में 142, और 2022 में 166 हो गई। इसके साथ यह जोडक़र देखने की जरूरत है कि देश में करीब 23 करोड़ लोग गरीबी में जी रहे हैं, जो कि दुनिया के किसी भी एक देश में गरीबों की सबसे बड़ी संख्या है। अब अडानियों और अंबानियों के साथ इन 23 करोड़ लोगों की दौलत को जब मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था के आंकड़े तैयार किए जाते हैं, तो वे सुहाने लगने लगते हैं, यह लगने लगता है कि हिन्दुस्तान दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन देश के भीतर संपत्ति और साधनों के बंटवारे की हालत क्या है, इस बदहाली को न देखकर, न समझकर, महज जश्न मनाने वाले लोग ही इसे तीसरी-चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनते देख रहे हैं। आठ बरस पहले मोदी सरकार ने देश में हर बरस दो करोड़ रोजगार या नौकरियों की बात कही थी, और उसके बाद के आंकड़े बताते हैं ऐसे अच्छे दिन का वायदा अभी तक सिर्फ एक मृगतृष्णा बना हुआ है।
हिन्दुस्तान में असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की हालत खराब है। सरकारी या गैरसरकारी आंकड़े आमतौर पर संगठित क्षेत्र तक सीमित रह जाते हैं, असंगठित क्षेत्र को लेकर लोग भी कम फिक्रमंद रहते हैं, और वहां के आंकड़े भी मौजूद नहीं रहते हैं। कोरोना और लॉकडाउन के चलते हुए पिछले दो बरस से अधिक का वक्त ऐसा रहा है जिसमें असंगठित क्षेत्र के भूखों रहने की नौबत आ गई है। अब कामकाज शुरू हुआ है, लेकिन कारोबार और रोजगार में अनिश्चितता बनी हुई है। सरकार अपना कामकाज किस हद तक टैक्स की कमाई से चला रही है, और किस हद तक सार्वजनिक कंपनियों को बेचकर चला रही है, इसका आर्थिक विश्लेषण देखने और समझने की जरूरत है। हिन्दुस्तान में आज कई किस्म के आर्थिक आंकड़े लोगों के सामने रखना बंद कर दिया गया है, और बहुत किस्म के विश्लेषण अब हो नहीं पा रहे हैं।
लेकिन हम इस बात को दुहराना चाहते हैं कि दुनिया का सबसे बुरा वक्त आना अभी बाकी है। अभी बहुत से विशेषज्ञों की यह भविष्यवाणी है कि दुनिया में मंदी का दौर आने वाला है। जिस रूस-यूक्रेन जंग से दुनिया की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई है, उस नौबत के और बुरे होने की एक आशंका बनी हुई है। यह जंग कहीं से कम होते नहीं दिख रही है, और इसके चलते बाकी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय राहत संस्थानों के काम में कमी आई है क्योंकि लोगों की सामाजिक-आर्थिक मदद यूक्रेन की तरफ मुड़ गई है। इन तमाम बातों के साथ कुदरत की मार को जोडक़र भी देखना चाहिए कि किस तरह एक बाढ़ ने पाकिस्तान का वर्तमान और भविष्य तबाह कर दिया है, योरप और अमरीका मौसम की मार से इतिहास का सबसे बड़ा नुकसान झेल रहे हैं। भारत जैसे देशों को भी यह सोचना चाहिए कि बदलते मौसम की मार और तबाह पर्यावरण के असर से आने वाला वक्त और तबाही देख सकता है। ऐसे में उन लोगों को अधिक सावधान रहना चाहिए जो अपनी आज की कमाई के आधार पर कर्ज लेकर किस्तें पटाने का बोझ पाल रहे हैं। कल को रोजगार और कारोबार ही नहीं रहा तो वे किस्तें आएँगी कहां से? यह वक्त बहुत सावधान रहने का है, अपना काम-धंधा बचाकर रखने का है, रोज की जिंदगी में किफायत पर अधिक से अधिक अमल करने का है।
भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ बंगाल के राज्यपाल के रूप में ममता बैनर्जी सरकार के खिलाफ अभियान चलाने वाले एक आंदोलनकारी की तरह बरसों जुटे रहे। अब वे उपराष्ट्रपति हो गए हैं, तो इस हैसियत से वे राज्यसभा के उपसभापति रहते हैं, और वहां उन्हें बोलने का मौका कोलकाता के राजभवन के मुकाबले काफी अधिक मिल रहा है। लेकिन राज्यसभा से परे भी वे सार्वजनिक रूप से बहुत से मुद्दों पर अपनी राय रखते रहते हैं। अभी उन्होंने संसद और विधानसभाओं के पीठासीन अधिकारियों के एक सम्मेलन में कहा कि संसद के बनाए कानून को किसी आधार पर अगर अदालत खारिज करती है तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं होगा। उन्होंने बहुत खुलासे से सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि संसद सबसे ऊपर है, और किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जनमत की प्रधानता ही उसके मूल ढांचे का आधार है। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका या कार्यपालिका संसद में कानून बनाने, या संविधान संशोधन करने की ताकत को नामंजूर नहीं कर सकतीं। उन्होंने 1973 के सुप्रीम कोर्ट के एक बहुत ही चर्चित केशवानंद भारती मामले की चर्चा करते हुए कहा कि इस फैसले ने गलत मिसाल पेश की है, और अगर कोई भी संस्था संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर सवाल उठाती है, तो यह कहना मुश्किल होगा कि हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं। सुप्रीम कोर्ट का इतिहास बताता है कि केरल सरकार के खिलाफ केशवानंद भारती के मामले में 13 जजों की बेंच के सामने देश के एक सबसे बड़े वकील नानी पालखीवाला ने जिरह की थी, और सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि संविधान में संशोधन तो किया जा सकता है, लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता। केशवानंद भारती केस पर इस फैसले की वजह से इस मामले को संविधान का रक्षक कहा जाता है।
अब इस पर लिखने की अधिक जरूरत इसलिए है कि उपराष्ट्रपति के न्यायपालिका पर हमले के एक पखवाड़े के भीतर ही, मानो उन्हें जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने इसी फैसले को अभूतपूर्व बताया, और कहा कि संविधान को समझने और उसे लागू करने के मामले में यह फैसला एक ध्रुव-तारे की तरह जजों को रास्ता दिखाता है। उन्होंने बॉम्बे बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित पालखीवाला स्मृति व्याख्यान माला में कहा कि बदलते वक्त में जज संविधान में लिखी बातों की व्याख्या करते हैं, और केशवानंद भारती मामले में दिया गया फैसला भारतीय संविधान की आत्मा को बनाए रखने में मदद करता है। उन्होंने कहा कि 1973 की फैसला सफलता की ऐसी दुलर्भ कहानी है जिसका भारत के पड़ोसी देशों, नेपाल, बांग्लादेश, और पाकिस्तान ने भी अनुकरण किया। उन्होंने कहा कि जब जजों के सामने एक जटिल रास्ता होता है उस वक्त हमारे संविधान की मूल संरचना एक तारे की तरह इसकी व्याख्या करने वालों, और इस पर अमल करने वालों को एक दिशा देती है, और उनका मार्गदर्शन करती है।
यह मामला हिन्दुस्तान के संविधान के तहत सरकारों की कानून बनाने और संविधान संशोधन करने की ताकत को सबसे बड़ी चुनौती था। मामला केरल से जुड़ा था लेकिन जब इस मामले पर फैसला आया तो इसने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी विचलित किया था। और 13 जजों की बेंच में से असहमति रखने वाले एक जज अजीतनाथ रे को फैसले से सहमति रखने वाले तीन सीनियर जजों के ऊपर ले जाकर भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया था। यह अपने आपमें एक अनोखा मामला था जब न्यायपालिका में इस तरह मनमानी से किसी को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। केशवानंद भारती का यह मामला इस मामले में भी अनोखा था कि 13 जजों में से 9 जजों ने तो फैसले पर दस्तखत किए थे, लेकिन 4 जजों ने इस पर दस्तखत भी नहीं किया था।
लेकिन आज इस मुद्दे पर यहां लिखने का मकसद 1973 के उस ऐतिहासिक मामले और फैसले की चर्चा करना नहीं है। हमने उसकी चर्चा सिर्फ एक प्रसंग के रूप में की है जिसे लेकर आज सरकार के मनोनीत उपराष्ट्रपति, और देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़़ के बीच एक अघोषित बहस छिड़ी है। सुप्रीम कोर्ट में 13 जजों से बड़ी कोई बेंच आज तक बनी नहीं है। ऐसे में यह कल्पना नहीं की जा सकती कि केन्द्र सरकार की तमाम हसरत के बावजूद संविधान की मूल संरचना को बदलना आसानी से मुमकिन होगा। बार-बार ऐसा लगता है कि मोदी सरकार संविधान की कुछ बुनियादी बातों को बदलना चाहती है, लेकिन संसद में अपार बहुमत होते हुए भी, अधिकतर राज्यों में बहुमत होते हुए भी ऐसा कोई संशोधन उसके लिए आज मुमकिन नहीं दिख रहा है क्योंकि 14 जजों की संविधानपीठ के 1973 के फैसले को पार पाना आसान नहीं है। सिर्फ संसद और विधानसभाओं से यह बुनियादी फेरबदल शायद नहीं किया जा सकेगा।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की यह एक खूबी है कि लोकसभा और राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों या गठबंधनों के बहुमत होने का एक इतिहास रहा है। केन्द्र और राज्यों में ऐसी ही अलग-अलग सरकारों का इतिहास रहा है। न्यायपालिका में कार्यपालिका या विधायिका से असहमति का एक इतिहास रहा है। यही वजह थी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा के चुनाव को अवैध ठहराया था, बाद में आपातकाल से जुड़े हुए कुछ संविधान संशोधनों को खारिज किया गया था, और सुप्रीम कोर्ट और संसद के बीच असहमत होने पर सहमति का एक रिश्ता बना हुआ था। लोगों को याद होगा कि एक अभूतपूर्व संसदीय बाहुबल के चलते प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले को संविधान संशोधन करके खारिज कर दिया था। लेकिन पिछले कुछ महीनों से केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो तनातनी सार्वजनिक रूप से बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए यह सोचने की जरूरत लग रही है कि अगर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा छांटे गए जजों के नामों को मंजूरी देने के अधिकार को केन्द्र सरकार एक रणनीति की तरह इस्तेमाल करेगी, तो हो सकता है कि धीरे-धीरे करके सुप्रीम कोर्ट में वह अपनी सोच से सहमति रखने वाले जजों का बहुमत बनाने में कामयाब हो जाए। ऐसा दिन देश के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि आपातकाल में इंदिरा गांधी की ओर से प्रतिबद्ध न्यायपालिका का एक नारा दिया गया था, और वह अगर कामयाब हो जाता, तो देश में संसदीय लोकतंत्र के बजाय महज सरकारी लोकतंत्र रह जाता।
देश के कानूनी समझ रखने वाले तबके को इन बातों को गौर से देखना चाहिए, और देश की आज की नाजुक जरूरतों पर, आगे खड़े हुए खतरों पर भी गौर करना चाहिए। ऐसी संवैधानिक जटिलताएं कोई लुभावना चुनावी नारा तो नहीं बन सकतीं, लेकिन विचार गढऩे वाले तबकों में से कुछ लोग तो इस मुद्दे को समझ सकते हैं, और देश के व्यापक लोकतंत्र के हित में बाकी जनता के लिए इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान की हीरा राजधानी सूरत के एक कारोबारी जौहरी की आठ बरस की बेटी ने अभी सांसारिकता छोडक़र संन्यास लिया तो पहले हीरो से लदी हुई उसकी तस्वीर आई, और फिर सिर मुंडाए हुए जैन साध्वी के सफेद सूती कपड़ों में। उसके आसपास के लोगों का कहना है कि उसकी शुरू से धर्म में दिलचस्पी थी, और उसने कभी टीवी, मोबाइल या फिल्में नहीं देखीं, कभी वह मॉल या रेस्त्रां नहीं गई थी। उसके मां-बाप का कहना है कि वह साध्वी बनना चाहती थी, और अगर वह परिवार में रहती तो अपने करोड़पति-अरबपति पिता की वारिस रहती। जैन समाज में पहले भी बहुत से बच्चे दीक्षा लेकर घर छोडक़र जा चुके हैं, लेकिन आठ बरस की यह लडक़ी शायद उनमें भी कुछ कम उम्र की ही है। गुजरात में एक बड़े समारोह में देवांशी संघवी नाम की इस बच्ची की दीक्षा हुई, और वह बाकी साध्वी के साथ चली गई।
जैन समाज में नाबालिग और नाबालिगों में भी बहुत कम उम्र के बच्चों के संन्यास ले लेने की खबरें हर कुछ महीनों में आती रहती हैं। इस समाज के भीतर के कुछ लोग, और बाहर के कुछ लोग यह मानते हंै कि यह कम उम्र बच्चों के साथ एक धार्मिक ज्यादती है जिन्होंने अभी दुनिया को ठीक समझा नहीं है। जैन समाज के धर्मालु लोग लगातार ऐसी दीक्षा के हिमायती बने रहते हैं, और उनका यह मानना है कि इसे बच्चों पर जुल्म करार देते हुए अदालत तक जाने वाले लोग गलत थे। यह मामला एक वक्त मुंबई हाईकोर्ट तक पहुंचा था, और उसका नतीजा अभी हमें ठीक से याद नहीं है। लेकिन अदालत ने सुनवाई के दौरान एक वक्त इतना जरूर कहा था कि बच्चों की दीक्षा को लेकर कुछ तय किए जाने की जरूरत है। और जजों ने यह माना था कि आठ बरस की बच्ची की दीक्षा को लेकर मां-बाप के इन तर्कों को नहीं माना जा सकता कि बच्ची ने खुदी ने यह फैसला लिया है। 2008 की उस सुनवाई में बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह भी कहा था कि अदालत इतनी छोटी बच्ची के संन्यास को चुप बैठकर देखते नहीं रह सकती। उसी वक्त मानो इसके जवाब में गुजराती की एक पत्रिका ने जैन धर्म गुरुओं के लेखों का एक विशेषांक निकाला था जिसमें बाल दीक्षा की वकालत की गई थी। बाल दीक्षा विशेषांक में कई अदालतों के ऐसे आदेश अपने तर्क के रूप में छापे गए थे जिनमें अदालतों ने इस रीति-रिवाज का समर्थन किया था। राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में यह कहा था कि दीक्षा को लेकर नियम बनाना धार्मिक मामलों में दखल देना होगा। इस अदालत ने बाल दीक्षा को हिंदुओं के जनेऊ संस्कार की तरह माना था।
बच्चों को धार्मिक दीक्षा दिलाकर उन्हें अगर पारिवारिक जीवन से अलग कर दिया जाता है, और बाकी जिंदगी के लिए संन्यासी जीवन में डाल दिया जाता है, तो यह हमारे हिसाब से उन बच्चों के मानवीय अधिकारों का हनन है। किसी को भी बालिग होने के पहले ऐसे संन्यासी जीवन में डालना उन बच्चों के अपने हितों के खिलाफ है जिन्होंने अभी पूरी दुनिया नहीं देखी है, आगे की पूरी जिंदगी को लेकर जिनका कोई अंदाज नहीं है। अपने परिवार में धार्मिक वातावरण देखकर कई बच्चों का इस तरह का रूझान हो सकता है, लेकिन उससे उनका वह फैसला स्वाभाविक फैसला नहीं माना जा सकता। जिस तरह वोट देने की एक उम्र होती है, गाड़ी चलाने की एक उम्र होती है, सेक्स की सहमति देने की भी एक न्यूनतम उम्र सीमा तय की गई है, एक उम्र के पहले शादी पर कानूनी रोक है। इसी तरह किसी के संन्यास पर उसके बालिग होने तक रोक होनी चाहिए। हमारी सामान्य समझ यह कहती है कि किसी धर्म के लिए भी यह ठीक नहीं है कि वह इतने छोटे बच्चों को परिवारों से अलग करके संन्यासी बनाए। इंसान इसी तरह के सामाजिक प्राणी हैं कि उनका विकास परिवार और समाज के बीच कई तरह के अंतरसंबंधों के चलते होता है, और उन सबसे उन्हें काटकर सिर्फ संन्यास जीवन में रखना उनके अपने शारीरिक और मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास के लिए ठीक नहीं है। जिन बच्चों की धर्म में अधिक दिलचस्पी है, वे परिवार के भीतर रहते हुए भी धर्म को बेहतर हद तक समझ सकते हैं। इसके बाद जब वे बालिग हों, तो वे अपने परिपक्व विवेक का इस्तेमाल करके संन्यास ले सकते हैं।
जो लोग इसे एक धार्मिक रिवाज मानते हैं, और इसके लिए नियम बनाने को धर्म में दखल मानते हैं, उन लोगों को यह भी समझना चाहिए कि एक वक्त हिंदू समाज में, और शायद कुछ दूसरे समाजों में भी बालविवाह प्रचलित थे, और उसके खिलाफ कड़े कानून बनाने, सामाजिक जागरूकता फैलाने, और सरकारी रोकथाम करने के बावजूद आजतक दस-बीस फीसदी शादियां बालविवाह हो रही हैं। इसी तरह एक वक्त हिंदू धर्म में पति खो चुकी महिला को सामाजिक दबाव में सती बनाने की अमानवीय परंपरा थी, जिसे कड़ा कानून बनाकर किसी तरह रोका गया। आज भी मुस्लिमों के बीच नाबालिग लडक़ी की शादी को सामाजिक, और मुस्लिम विवाह कानून के तहत मंजूरी हासिल है, और इसके खिलाफ भी एक जनमत तैयार किया जा रहा है। जैन समाज को भी यह सोचना चाहिए कि अपरिपक्व उम्र में बच्चों का लिया गया फैसला इस समाज को बेहतर साधू-साध्वी नहीं दे सकता। अगर समाज को अपने धर्म को परिपक्व बनाकर रखना है, तो उसे कम उम्र बच्चों को संन्यास में भेजने का काम बंद करना होगा। यह तर्क किसी काम का नहीं है कि ये छोटे बच्चे अपनी मर्जी से संन्यास लेते हैं। इतने छोटे बच्चे अपनी मर्जी से पिकनिक पर भी नहीं जा सकते, कोई फिल्म देखने भी नहीं जा सकते, किसी दोस्त या सहेली के घर की दावत में भी नहीं जा सकते, इसलिए यह मान लेना निहायत गलत बात होगी कि वे संन्यास में जाने का फैसला लेने के काबिल हैं। जब परिवारों का माहौल बहुत अधिक धार्मिक होता है, जब परिवार ऐसी ही सामाजिकता के बीच जीता है, जब ऐसे बच्चों के सामने बार-बार ऐसी कहानियां आती हैं कि किस शहर में जैन समाज के किस उम्र के बच्चे या बच्ची ने संन्यास ले लिया है, तो उनकी बचपन की सोच उसी के असर से प्रभावित होने लगती है। ऐसे असर के बीच लिया गया कोई फैसला उन बच्चों का परिपक्व फैसला नहीं माना जा सकता। हमारा यह भी मानना है कि कोई भी धर्म बाल संन्यासियों से समृद्ध नहीं हो सकता, उसके लिए कम से कम बालिग हो चुके, सांसारिकता को देख चुके, और उसके बाद उसे छोडऩे का फैसला ले चुके संन्यासियों की जरूरत होती है। हिंदुस्तान का अदालती कानून धार्मिक मामलों से बचते हुए चलता है, लेकिन जैन समाज को किसी अदालत का इंतजार नहीं करना चाहिए, उसे खुद होकर ऐसा सुधारवादी कदम उठाना चाहिए कि सिर्फ वयस्क लोग ही संन्यास का फैसला ले सकें।
सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार के बीच का टकराव कल एक नई ऊंचाई पर पहुंच गया जब मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अपने छांटे गए जजों के नाम पर केन्द्र की आपत्ति को सार्वजनिक किया, और उसका सार्वजनिक रूप से जवाब भी दिया। केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू पिछले कुछ महीनों से लगातार एक या दूसरी वजह निकालकर सुप्रीम कोर्ट पर हमले कर रहे थे, और सुप्रीम कोर्ट ने उनसे जख्मी होने के बजाय सार्वजनिक रूप से उनका सामना करना तय किया। अदालत से मिली जानकारी के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने जजों के नाम तय करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के बाकी सदस्यों से चार दिनों तक चर्चा करने के बाद यह फैसला लिया कि उसके भेजे नामों पर केन्द्र की आपत्ति को सार्वजनिक कर दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार की आपत्ति में शामिल खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट को भी उजागर कर दिया। यह एक अभूतपूर्व कदम है, और मौजूदा सीजेआई के बाद जो सीजेआई बनेंगे, वे भी इस कॉलेजियम में शामिल थे, इसलिए इसे सुप्रीम कोर्ट जजों के बीच एक व्यापक सहमति से की गई आपत्ति माना जाना चाहिए।
केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के भेजे गए नामों पर लंबे समय तक बैठने की आदी रही है, और जिन नामों से वह सहमत नहीं रहती है, उन्हें अंतहीन समय तक रोकते रही है। पिछले कुछ दिनों में कानून मंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट जजों को लिखा है कि जज छांटने वाले कॉलेजियम में केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि भी रहना चाहिए। एक दूसरी बात यहां पर यह भी प्रासंगिक है कि देश के अलग-अलग बहुत से तबकों के जानकार लोग भी यह मानते हैं कि संविधान निर्माताओं की ऐसी कोई सोच नहीं थी कि जजों को छांटने का काम जज ही करें। इस पर केन्द्र सरकार से परे भी कई लोग लिखते और बोलते आए हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने जज छांटने के लिए कॉलेजियम की जो व्यवस्था खुद तय कर ली है, वह संविधान की भावना के अनुकूल नहीं है, और इसके लिए कोई दूसरी व्यवस्था होनी चाहिए। इसलिए केन्द्रीय कानून मंत्री की यह ताजा मांग बहुत अटपटी, अनोखी, और अभूतपूर्व नहीं है। लेकिन पिछले काफी समय से केन्द्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच जो तनातनी चल रही है, उसे देखते हुए कल का सुप्रीम कोर्ट का जनता की अदालत में जाने का फैसला पूरी तरह से अनोखा और अभूतपूर्व है। खासकर दिल्ली हाईकोर्ट के लिए एक वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल के नाम को कॉलेजियम ने डेढ़ बरस से भी पहले केन्द्र सरकार को भेजा था, और केन्द्र ने इस नाम पर इसलिए आपत्ति की थी कि सौरभ कृपाल एक स्वघोषित समलैंगिक हैं, और उनका साथी स्विस नागरिक है। केन्द्र की इस आपत्ति पर कॉलेजियम ने कल सार्वजनिक रूप से कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि जज-उम्मीदवार का साथी जो स्विस नागरिक है, हमारे देश के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करेगा क्योंकि उसका मूल देश भारत का एक मित्रराष्ट्र है। कॉलेजियम ने केन्द्र सरकार को यह भी याद दिलाया कि संवैधानिक पदों पर मौजूदा और पिछले कई ऐसे लोग रहे हैं जिनके पति-पत्नी विदेशी नागरिक थे, और हैं।
हम इस बहस के सार्वजनिक होने के पहलू को लेकर खुश हैं। हम बार-बार इसी जगह जजों की नियुक्ति के लिए अमरीकी व्यवस्था का हवाला देते आए हैं जिसमें वहां के सुप्रीम कोर्ट के लिए अमरीकी राष्ट्रपति अपनी पसंद से जज छांटते हैं, लेकिन फिर ऐसे उम्मीदवारों को संसद की एक समिति के सामने लंबी खुली सुनवाई का सामना करना पड़ता है जिसमें उनकी पिछली जिंदगी, पिछले काम, पिछली और मौजूदा सोच, ऐसे हर पहलू पर सवालों का सामना करना पड़ता है, और जवाब देना पड़ता है। इसके बाद संसदीय कमेटी ही ऐसे उम्मीदवार को जज बनाना पसंद या नापसंद करती है। यह खुली सुनवाई अमरीकी टीवी पर भी आती है, और वहां की जनता को यह अच्छी तरह मालूम रहता है कि अगर इस व्यक्ति को जज बनाया गया तो उनकी सोच क्या रहेगी, उनके पहले के फैसले कैसे रहे हैं, वे गर्भपात से लेकर महिला अधिकारों और रंगभेद के मुद्दों पर क्या सोचते रहे हैं। जनता को जजों के इतिहास और उनकी सोच के बारे में सब पता रहे, यह एक अधिक पारदर्शी व्यवस्था है। इस हिसाब से हम सुप्रीम कोर्ट के इस अभूतपूर्व फैसले से सहमत हैं कि जजों के बारे में कॉलेजियम और केन्द्र के बीच जो कुछ चर्चा होती है, वह देश की जनता के सामने रखी जानी चाहिए। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने कुछ हफ्ते पहले ही ठीक यही सिफारिश की थी कि इन बातों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए।
देश में सूचना का अधिकार लागू है। इसके तहत जनता सरकार और सार्वजनिक संस्थाओं से कई किस्म की जानकारी मांग सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने आपको इसकी पहुंच से भी बहुत हद तक बाहर रखा था, इसलिए जनता अदालतों के रहस्य से दूर ही रह जाती है। अब यह वक्त आ गया है कि देश में सूचना पाने के अधिकार को बदलकर सूचना देने की जिम्मेदारी बनाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को भी जनता को यह बताना चाहिए कि किन लोगों के नाम जज बनाने के लिए किस वजह से छांटे गए हैं, और सरकार को भी यह बताना चाहिए कि उसे इनमें से कौन से नाम किस वजह से नामंजूर हैं। इसे कॉलेजियम के एकाधिकार और केन्द्र सरकार के एकाधिकार के खोल से ढांककर नहीं रखना चाहिए। केन्द्र सरकार आज यह मांग कर रही है कि कॉलेजियम में उसका प्रतिनिधि भी होना चाहिए। हमारा मानना है कि जजों के नाम तय करने में सरकार के बजाय संसद का प्रतिनिधि होना बेहतर होगा, और जिस तरह सीबीआई के डायरेक्टर, और कुछ दूसरे लोगों को चुनने के लिए प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता एक कमेटी में होते हैं, उसी तरह संसद की एक कमेटी होनी चाहिए जिसकी कि जजों के चयन में हिस्सेदारी हो। अब हमारी यह भावना किस तरह अमल में आ सकती है, इसके लिए एक संवैधानिक व्यवस्था जरूरी होगी, और देखना होगा कि यह नौबत कैसे लाई जा सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान का वैसे तो न्यूजीलैंड से कुछ अधिक लेना-देना नहीं है, लेकिन आज की वहां की एक खबर कुछ सोचने, और उस पर लिखने का मौका दे रही है जो कि हिन्दी और हिन्दुस्तानी पाठकों की दिलचस्पी का भी हो सकता है। वहां की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने कहा है कि वे 7 फरवरी के पहले इस्तीफा दे देंगी। उनका कहना है कि वे 6 साल तक इस चुनौतीपूर्ण ओहदे को सम्हालने के बाद अब महसूस करती हैं कि उनके पास योगदान देने के लिए कुछ खास नहीं बचा है, इसलिए वे अगला चुनाव भी नहीं लड़ेंगीं। वे 2017 में ही 37 साल की उम्र में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनी थीं। और अब 42 बरस की उम्र में वे एक कार्यकाल खत्म करके सरकार से हट भी जा रही हैं।
हिन्दुस्तान के लोगों को यह बात बड़ी अजीब लग सकती है। यहां पर 75 बरस की उम्र पार करने के बाद अगर किसी को संसद या विधानसभा का चुनाव लडऩे से रोका जाता है, तो वे हाथ में थमी छड़ी को उठाकर बगावत पर उतारू हो जाते हैं, खुद तो चुनाव लड़ ही लेते हैं, अपने कुनबे को भी बगावत में उतार देते हैं। पार्टियां भी सयान के ऐसे तेवरों से बचने के लिए उनके जीते जी ही उनके कुनबे को उनकी सीट पर टिकट देने का समझौता कर लेती हैं। कुल मिलाकर एक नेता एक सीट पर अपने कुनबे का पीढ़ी-दर-पीढ़ी कब्जा मानकर चलते हैं। फिर अगर राजनीति में कुनबापरस्ती है, तो फिर लालू, मुलायम, सोनिया, फारूख, मेहबूबा, बादल, चौटाला, पवार, ठाकरे, शुक्ल परिवारों के एक से अधिक लोग भी एक समय सांसद-विधायक हो सकते हैं, एक से अधिक सरकारों में हिस्सेदार हो सकते हैं, संसद, विधानसभा, और पार्टी संगठन सब पर काबिज हो सकते हैं। फिर यह भी है कि वे मरने तक सत्ता पर काबिज रहते हैं, और उनके बाद अगली पीढ़ी चिता की आग से तपी हुई ही शपथ ले लेती है। इसलिए न्यूजीलैंड की इस नौजवान प्रधानमंत्री की बात भारत के बहुत से लोगों को बेइज्जत करने वाले आईने की तरह लग सकती है जिसमें वे सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग से होते हुए कलियुग तक अपने कुनबे के लिए सीट की गारंटी कर लेते हैं।
न्यूजीलैंड के इस ताजा फैसले से हिन्दुस्तान के बारे में यह भी सीखने और समझने मिलता है कि एक नौजवान प्रधानमंत्री कुल 6 बरस काम करने के बाद अगर यह पाती है कि उसके पास और अधिक योगदान देने को कुछ नहीं है, तो वह अपनी पार्टी के दूसरे नेता के लिए कुर्सी खाली करके हट जाती है। और यह महिला किसी कुनबापरस्ती के चलते इस जगह नहीं पहुंची थी, उसने योरप के समाजवादी आंदोलन में 17 बरस की उम्र से काम करना शुरू कर दिया था, और राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा लेने लगी थी। एक बहुत लंबे और बहुत सक्रिय राजनीतिक जीवन के बाद वह पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री के ओहदे के लिए चुनी गई थी। और उसने इराक पर हमले के फैसले को लेकर 2003 के ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर से रूबरू कड़े सवाल किए थे। ऐसे सक्रिय जीवन और सब कुछ अपने बूते हासिल करने के बाद एक महिला अपने देश के इस सबसे बड़े ओहदे को छोडक़र जिस आसानी से, जिस स्वाभाविक तरीके से चली जा रही है, वह सीखने लायक बात है। हिन्दुस्तान में लोग अपनी पार्टी को बेच खाते हैं, पार्टी के सांसदों और विधायकों की थोक पैकिंग बनाकर उसे दुश्मन पार्टी के हाथ बेच देते हैं, और कुर्सी पर बने रहते हैं, या पहुंच जाते हैं। कुर्सी ही हिन्दुस्तान में सब कुछ है, वह महज कामयाबी नहीं है, वही महानता भी है। जिसे कुर्सी हासिल नहीं हुई, उसे कभी महान का दर्जा नहीं मिल सकता, और जिसे कुर्सी हासिल हो गई, वह हजार जुर्म, और हजार नाकामयाबी के बाद भी महान गिनाते हैं।
यह बात तो निर्वाचित नेताओं को लेकर है, लेकिन लोग अपने राजनीतिक संगठन के भीतर भी कोई कुर्सी छोडऩा नहीं चाहते। अपने चुनाव क्षेत्र को अपनी जागीर मानकर चलते हैं, अपने साथ-साथ धीरे-धीरे जीवनसाथी और आल-औलाद, और बहू-दामाद, सबको संसद-विधानसभा, और पार्टी में घुसाने में लगे रहते हैं। मरने के बाद भी वे अपने कुनबे से किसी को अनुकम्पा टिकट दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। यह बात तो राजनीति के लोगों की हुई, लेकिन हिन्दुस्तान में गौशाला, अनाथाश्रम, शिक्षा समिति और दूसरे किस्म के ट्रस्ट या सभा समितियों में लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी काबिज रहते हैं, सरकारी अनुदान पर पलते हैं, और वह अनुदान मानो उनके डीएनए को मिला हो। वे संस्थाओं की ‘समाजसेवा’ में इतने समर्पित रहते हैं कि धरती पर कोई और काबिल इंसान उन्हें दिखते ही नहीं। ऐसे देश में मोटी कमाई वाली राजनीतिक और सरकारी कुर्सियों के लिए लोग पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद भी, कब्र में दफन हो जाने के बाद भी ‘सेवा’ करने पर आमादा रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों को न्यूजीलैंड की 42 बरस की भूतपूर्व प्रधानमंत्री बेइज्जती का सामान ही लग सकती है।
भारत में न सिर्फ राजनीति में, बल्कि अदालतों में जजों के बीच भी, वकालत और डॉक्टरी जैसे पेशों में भी, और कारखानों से लेकर कारोबार तक कुनबापरस्ती का जो बोलबाला है, और लोग जिस तरह पहले कब्जे के बाद अंतिम संस्कार तक काबिज रहते हैं, उसे देखते हुए यह सोचने की जरूरत है कि क्या वे सचमुच मरने तक योगदान देने की हालत में रहते हैं, और क्या उनका डीएनए ही सामाजिक संगठनों को चलाने के लिए सबसे हुनरमंद डीएनए है? हिन्दुस्तान के लोगों को अपने इर्द-गिर्द देखना और सोचना चाहिए, आज की यह चर्चा बस इसी मकसद से है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
21वीं सदी के भारत में उत्तरप्रदेश के बाद हिन्दुत्व की दूसरे नंबर की प्रयोगशाला, मध्यप्रदेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपनी हैरानी भरी नाराजगी जाहिर की है। इस प्रदेश के एक लॉ कॉलेज की लाइब्रेरी में एक ऐसी किताब मिली जिसे हिन्दू धर्म की आलोचना ठहराते हुए मध्यप्रदेश की पुलिस ने प्रिंसिपल को गिरफ्तार करने की तैयारी कर ली। इस पर प्रिंसिपल ने अदालत से अग्रिम जमानत ले ली, तो प्रदेश की पुलिस इसके खिलाफ हाईकोर्ट गई, हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगाने से इंकार कर दिया तो प्रिंसिपल इनामुर रहमान सुप्रीम कोर्ट गए। वहां मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने प्रिंसिपल को गिरफ्तार करने की पुलिस की जिद पर हैरानी जाहिर की, और पूछा कि क्या पुलिस गंभीरता से बात कर रही है? चीफ जस्टिस ने कहा कि लाइब्रेरी में एक किताब मिली है जिसमें साम्प्रदायिक प्रतिध्वनि की बात कही जा रही है, यह किताब 2014 में खरीदी गई और उस पर आज प्रिंसिपल को गिरफ्तार करने की कोशिश हो रही है! मुख्य न्यायाधीश ने मध्यप्रदेश की पुलिस को इस पर जमकर फटकार लगाई और कहा कि राज्य को कुछ गंभीर काम करने चाहिए। जाहिर है कि इस फटकार वाला यह मामला मध्यप्रदेश में मुस्लिमों के खिलाफ चल रही सत्ता की एक मुहिम का एक हिस्सा है, और यह भी एक संयोग है कि इसे दो दिनों में दो बार कुछ सुनना पड़ा।
अब कल ही भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा नेताओं को दो नसीहतें दी हैं। पहली तो यह कि उन्हें फिल्मों पर गैरजरूरी बयानबाजी से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि कुछ लोग किसी फिल्म पर बयान देते हैं, फिर वह पूरे दिन टीवी और मीडिया में चलता है, ऐसे अनावश्यक बयानों से बचना चाहिए। प्रधानमंत्री की इस बात का सीधा रिश्ता मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा से है जिन्होंने शाहरूख खान के किरदार वाली पठान नाम की फिल्म में दीपिका पादुकोण की भगवा बिकिनी को लेकर चेतावनी दी थी कि इस फिल्म को मध्यप्रदेश में दिखाने की इजाजत दी जाए या नहीं यह सोचा जाएगा। फिल्म का विरोध करने वाले नरोत्तम मिश्रा सबसे बड़े भाजपा नेता थे। और उनका यह विरोध 14 दिसंबर को सामने आया था। आज महीने भर से अधिक निकल जाने पर प्रधानमंत्री या किसी भी भाजपा नेता की ओर से ऐसे नरोत्तम मिश्राओं की बयानबाजी पर कुछ कहा गया। प्रधानमंत्री का भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में यह बयान भी खबरों में आया है कि उन्होंने पार्टी नेताओं से कहा है कि मुस्लिम समाज के बारे में गलत बयानबाजी न करें। समाज के सभी वर्गों से मुलाकात करें, चाहे वे वोट दें, या न दें। उन्होंने कहा कि पार्टी के कई लोगों को मर्यादित भाषा बोलनी चाहिए।
अब मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री इन दोनों की कही हुई बातें मध्यप्रदेश पर तो पूरी तरह से लागू होती हैं जहां पर गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा हिन्दुत्व का एक सबसे ही आक्रामक प्रयोग लगातार कर रहे हैं। एक-एक फिल्म को लेकर उनकी बयानबाजी होती ही रहती है, और मुस्लिमों के मकानों को बुलडोजरों से गिरा देने वाले मामले में भी उनका बयान हक्का-बक्का करने वाला था। लेकिन आज सवाल यह है कि जब दिन-दिन भर किसी भाजपा मंत्री या नेता के बयान टीवी पर छाए रहते हैं, और जाहिर है कि वे प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के अध्यक्ष तक को दिखते ही होंगे, तो ऐसे कई विरोध हो जाने के बाद, और शाहरूख खान के अभिनय वाली फिल्म पठान को इन्हीं दो मुस्लिम नामों की वजह से निशाने पर लेने के महीने भर के बाद नरोत्तम मिश्रा से बिना उनका नाम लिए कुछ कहा गया। मध्यप्रदेश में उनसे ऊपर मुख्यमंत्री हैं, संगठन की तरफ से पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं, राष्ट्रीय संगठन की तरफ से कोई न कोई प्रभारी महासचिव होंगे, और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो हैं ही। लेकिन इनमें से किसी ने भी अपने से नीचे आने वाले गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा को कोई नसीहत देने की कोशिश नहीं की? भगवा कपड़ों में उत्तेजक और वीभत्स किस्म के अश्लील डांस वाले दर्जनों वीडियो तो भाजपा के सांसद फिल्मकलाकारों के साथ अभिनेत्रियों के ही हैं जो कि पठान पर हमले के बाद सोशल मीडिया पर लोगों ने डाले हैं, लेकिन उन सबको भुलाकर सिर्फ मुस्लिम नामों वाली एक फिल्म पर ऐसा साम्प्रदायिक हमला करना, देश की हवा को और जहरीला कर गया, लेकिन इस पर नरोत्तम मिश्रा को समझाईश देने का काम 34 दिनों बाद प्रधानमंत्री ने बिना नाम लिए किया है। क्या पार्टी के किसी भी और तरीके से भी ऐसे लोगों को चुप कराने का काम नहीं किया जाना चाहिए था? दूसरी बात नरेन्द्र मोदी की कही हुई ही है, उन्होंने मुस्लिमों के खिलाफ बयानबाजी न करने की सलाह भी दी है। यह तो बारहमासी खिले रहने वाले कंटीले पौधे की तरह के बयान हैं जिनके बिना हिन्दुस्तान में सूरज नहीं डूब पाता। इस पर भी अब जाकर अगर मोदी को सलाह देनी पड़ रही है, तो अब तक पार्टी का ढांचा इस पर क्या कर रहा था?
हम प्रधानमंत्री के शब्दों के भी महत्व को कम नहीं आंक रहे, लेकिन इस पर हैरानी है कि ये शब्द वक्त पर क्यों नहीं आए, बरसों देर से क्यों आए, और देश की हवा को जहरीला हो जाने देने के बाद क्यों आए? अगर उनके शब्दों के पीछे उनकी यही भावना भी है, तो फिर इसके जाहिर होने का मौका तो पिछले 8 बरस में हर दिन सामने आ रहा था, हर दिन फिल्मों को लेकर, मुस्लिमों को लेकर हवा में जहर घोला जा रहा है, और प्रधानमंत्री के आज के शब्द मानो भोपाल गैस त्रासदी के बाद वहां खोले गए एक क्लिनिक से दी जा रही दवाई सरीखे हैं। यह गैस त्रासदी रोज ही सोशल मीडिया और देश के मीडिया पर होते दिख रही है, टीवी की स्क्रीन से निकलकर जहरीली गैस लोगों के दिमागों में घर कर रही है, और अब इन शब्दों के असर का कोई वक्त पता नहीं रह गया है या नहीं। प्रधानमंत्री की नसीहत को सुप्रीम कोर्ट में अभी चल रही टीवी चैनलों की साम्प्रदायिकता की सुनवाई से भी जोडक़र देखना चाहिए कि आज देश की सबसे बड़ी अदालत ने साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वालों के खिलाफ कुछ महीनों में लगातार एक कड़ा रूख दिखाया है। हो सकता है कि इसे देखते हुए भी प्रधानमंत्री को अपनी पार्टी के लोगों को समझाईश देना जरूरी और बेहतर लगा हो। भाजपा के बहुत से नेताओं को इन दोनों मुद्दों पर मोदी के कहे हुए शब्दों को भावना के स्तर पर जाकर भी मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सभ्य दुनिया वह होती है जो एक-दूसरे से कुछ सीखने को तैयार रहती है। अलग-अलग बहुत से देशों में किसी एक चर्चित जुर्म के बाद कानून बनाने वाली संसद या विधानसभा के सामने यह बड़ा तनाव खड़ा हो जाता है कि वोटरों से भरे समाज को संतुष्ट कैसे किया जाए। ऐसे में जुर्म को सुलझाने, मुजरिमों को पकडऩे, और अदालत में सजा दिलवाने में कामयाबी का काम आसान नहीं रहता है, और बहुत से मामलों में मुमकिन भी नहीं रहता है। ऐसे में निर्वाचन से संसद और विधानसभा तक पहुंचने वाले नेताओं के लिए सबसे सहूलियत का काम रहता है कि बेअसर कानून, बेअसर इंतजाम को छुपाने के लिए उसके सामने और कड़े कानून की एक दीवार खड़ी कर दी जाए। जिस तरह परदेसी मेहमानों की नजरों से छुपाने के लिए अहमदाबाद और इंदौर में गरीब बस्तियों के सामने दीवारें खड़ी कर दी गई थीं, ताकि संपन्न मेहमानों को यहां के गरीब न दिखें, ठीक उसी तरह एक नाकामयाब प्रशासन के सामने अधिक कड़े कानून की दीवार खड़ी कर दी जाती है। हिन्दुस्तान में निर्भया नाम से चर्चित बलात्कार और भयानक हिंसा के एक मामले के बाद देश भर में उठ खड़े हुए जनआक्रोश को देखते हुए अलग से कानून बनाया गया, और कई राज्यों में सामूहिक बलात्कार या बच्चों से बलात्कार पर मौत की सजा जोड़ दी। इससे नेताओं और राजनीतिक दलों को अपनी सरकारों की नाकामयाबी की तरफ से ध्यान मोडऩे की एक तरकीब मिली, और आम लोगों को ऐसा लगा कि इससे बलात्कार थम जाएंगे। सच तो यह है कि उसके बाद से बलात्कार के साथ हत्याएं अधिक होते दिख रही हैं क्योंकि जब बलात्कार पर भी सजा उतने ही मिलनी है जितनी कि कत्ल से मिलनी है, तो फिर एक गवाह और सुबूत को छुपा क्यों न दिया जाए?
अभी धरती के दूसरे सिरे, अमरीका में एक मामला हुआ जिससे वहां के कानून की बेइंसाफी का इतिहास सामने आया। खुद अमरीका में तो यह कभी इतिहास बना ही नहीं था क्योंकि एक नाजायज कड़ा कानून बनाकर जुर्म रोकने की यह कोशिश वहां तो हमेशा चर्चा में थी, लेकिन हमारे सरीखे दूर बैठे हुए लोगों को इसके बारे में मालूम नहीं था। अभी वहां की जेल से 20 बरस कैद के बाद 55 बरस के एक आदमी को जब रिहा किया गया, तो वहां के एक कानून की बेइंसाफी फिर खबरों और चर्चा में आई। वैसे तो कैलिफोर्निया अमरीका का सबसे प्रगतिशील और उदार राज्य माना जाता है, लेकिन वहां 1990 के दशक में 12 बरस की एक बच्ची का अपहरण हुआ था, और उसका कत्ल कर दिया गया था। उस वारदात को लेकर न सिर्फ इस अमरीकी राज्य में, बल्कि पूरे देश में जुर्म की दहशत फैल गई थी, और कैलिफोर्निया में तीसरे जुर्म (थ्री स्ट्राइक्स) नाम का एक कुख्यात कानून बनाया था जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को किसी अहिंसक तीन अपराधों पर भी उम्रकैद सुनाई जा सकती थी। अगर वे किसी दुकान में सामान चुराते पकड़ा गए, या उनके पास कोई नशा मिल गया, या उन्होंने कोई उठाईगीरी कर दी, तो ऐसा तीसरा जुर्म साबित होते ही उन्हें उम्रकैद की सजा देने का कानून बनाया गया। एक अपहरण और कत्ल से फैली दहशत से जूझती हुई राज्य और संघीय सरकारों के सामने जनता को संतुष्ट करने की एक चुनौती थी, और उस वक्त के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने भी इस कानून को मंजूरी दे दी थी। करीब आधे अमरीकी राज्यों ने इस कानून को अपना लिया था। ऐसे ही कानून के तहत कैलिफोर्निया में एक बेघर, बेरोजगार नौजवान डेविड को जब एक घर के गैरेज से कुछ सिक्के चुराने पर गिरफ्तार किया गया, तो उसके पास से 14 डॉलर (हिन्दुस्तान के स्तर से 14 रूपये के बराबर) मिले थे, और पहले के दो अहिंसक जुर्म के साथ इस ताजा जुर्म को जोडक़र जज ने उसे 35 बरस या उम्रकैद की सजा सुनाई थी। दरअसल 1994 में जब यह थ्री स्ट्राइक्स कानून बना था, तब इस राज्य में दस बरस के भीतर छोटे-छोटे तीसरे जुर्म पर करीब 35 सौ लोगों को उम्रकैद सुना दी गई थी, और वे मरने के लिए जेल भेज दिए गए थे। डेविड को 14 डॉलर चुराने के जुर्म में उम्रकैद भी दी गई थी, और 10 हजार डॉलर का जुर्माना भी सुनाया गया था। वह अफ्रीकी मूल का एक बेघर बेरोजगार था, जिसने इतनी रकम अपनी पूरी जिंदगी में कभी नहीं देखी थी। वह बचपन से परिवार और जगह बदलते जाने का शिकार था, और गरीबी के चलते वह किसी काम के लायक भी नहीं बन पाया था, और राह से भटक गया था। बहुत बाद में जाकर 2012 में अमरीका ने यह पाया कि इस तरह की सजा नाजायज है, और फिर ऐसे कैदियों के मामलों को देखकर उनमें से कुछ को छोडऩा शुरू किया गया, और उसी के तहत 20 बरस की कैद के बाद डेविड रिहा किया गया, और उसका परिवार उसके स्वागत को बांहें फैलाए तैयार था।
अमरीका के इस कानून को लेकर सामाजिक इंसाफ और समानता पर भरोसा रखने वाले लोगों को कभी भरोसा नहीं रहा। उन्होंने यह माना कि इसकी सबसे बुरी मार उन लोगों पर पड़ी जो कि सामाजिक गैरबराबरी के शिकार थे। कैलिफोर्निया में इस कानून के तहत उम्रकैद पाने वाले लोगों में अधिकतर लोग गरीब थे, काले थे, दूसरे अश्वेत थे, और हालात के मारे हुए लोग थे। कानून ही ऐसा था कि बहुत मामूली से अहिंसक जुर्म के लिए भी गरीबों को पूरी जिंदगी के लिए जेल में डाल दिया जा रहा था। अमरीका के इन मामलों को देखकर हिन्दुस्तान के बारे में सोचें, तो यहां पर दलित-आदिवासी, गरीब, मुस्लिम अल्पसंख्यक तबकों के लोग ही जेलों को भरे हुए हैं। उनकी गरीबी और सामाजिक हालत उन्हें जुर्म की ओर मोड़ भी देती है, और हिन्दुस्तान की महंगी और मुश्किल अदालतें उन्हें इंसाफ पाने का अधिक मौका भी नहीं देती हैं। नतीजा यह होता है कि वे फैसले के इंतजार में ही संभावित सजा से अधिक वक्त जेल में गुजार देते हैं। और जैसा कि अमरीका के इस कानून का तजुर्बा रहा है कि इसकी वजह से कहीं जुर्म कम नहीं हुआ, जबकि इस कड़े कानून को बनाने का सबसे बड़ा मकसद ही जुर्म में कमी लाना था। इसी तरह हिन्दुस्तान में बलात्कार पर मौत की सजा से बलात्कार में कोई कमी हुई हो ऐसा नहीं दिख रहा है, बल्कि बलात्कार के बाद हत्या अधिक सुनाई दे रही है। अब अमरीका में लोग खुलकर यह मान रहे हैं कि एक अपहरण और कत्ल से फैली दहशत कम करने के लिए निर्वाचित सरकारों ने इस तरह का कड़ा कानून बनाया था, और यह कि निर्वाचित लोगों के बनाए सारे कानून जायज नहीं होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस को लेकर छिड़ी ताजा बहस में दलितों का मुद्दा भी सामने आ रहा है कि किस तरह उन्होंने शूद्रों को प्रताडऩा (ताडऩ या पिटाई) का हकदार लिखा था। अब वह बहस तो बहुत से और लोग आगे बढ़ा रहे हैं, हम भी कल इसी पेज पर उस बारे में लिखा है, लेकिन आज हिन्दुस्तान के शूद्रों के बारे में। विख्यात अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने अभी दुनिया के कुछ देशों के बारे में रिपोर्ट छापी है कि किस तरह वहां पर विशेष दर्जे के लोग प्रमुख विश्वविद्यालयों में अधिकतर सीटों पर काबिज हो जाते हैं। दुनिया के कुछ और देशों के बारे में भी इसमें है, और साथ-साथ हिन्दुस्तान के बारे में भी इसमें एक रिपोर्ट है। भारत में दलित और आदिवासी सबसे ही पिछड़े हुए तबके हैं, और रिजर्वेशन के बावजूद उनकी हालत आज कैसी है, यह इन आंकड़ों से दिखाई पड़ता है। इस पत्रिका की रिपोर्ट बताती है कि देश भर के विश्वविद्यालयों में अगर ग्रेजुएशन तक की गिनती देखें, तो आदिवासी छात्र-छात्राओं की सीटें आधी भी नहीं भरी हैं। इसके बाद देश के आईआईटी में देखें, तो वहां आदिवासी कोटा पीएचडी छात्रों में शायद चौथाई के करीब भरा है, वहां असिस्टेंट प्रोफेसर इस तबके की आरक्षित कुर्सियों पर दो-चार फीसदी ही हैं, और प्रोफेसर हंै ही नहीं। इस पत्रिका में प्रकाशित चार्ट देखकर हम अंदाज से इन आंकड़ों को देख रहे हैं। देश भर में दलित छात्रों की आरक्षित सीटों से अधिक छात्र-छात्राएं ग्रेजुएशन तक हंै। आईआईटी में पीएचडी छात्रों में भी दलितों की संख्या आरक्षित कोटे से कुछ अधिक है। लेकिन असिस्टेंट प्रोफेसर आरक्षित कोटे से करीब एक तिहाई ही हैं, एसोसिएट प्रोफेसर और भी कम हैं, और प्रोफेसर गिनती के हैं। जब देश में हर तरह के छात्र-छात्राओं और प्राध्यापकों को मिला लिया जाए, तो दलित और आदिवासी अपने निर्धारित कोटे से बहुत ही कम हैं, ओबीसी में भी ग्रेजुएशन के छात्रों को छोडक़र बाकी की हालत यही है। लेकिन अनारक्षित वर्ग के प्राध्यापक लगभग सौ फीसदी सीटों पर काबिज हैं, एसोसिएट प्रोफेसर की 90-95 फीसदी सीटों पर अनारक्षित वर्ग के लोग हैं, और सहायक प्राध्यापक की कुर्सियों पर भी 90 फीसदी से अधिक सामान्य वर्ग के लोग हैं। ये सारे आंकड़े 2019-20 तक के हैं, और ये सरकार और आईआईटी जैसे संस्थानों से लिए गए हैं। इस रिपोर्ट के आंकड़े सब कुछ कह रहे हैं, इसलिए हम अपनी अधिक टिप्पणियों के बिना भी इन आंकड़ों को लिखते चले जा रहे हैं। भारत के सबसे प्रमुख शैक्षणिक संस्थान, आईआईटी में प्रोफेसरों की कुर्सियों पर दलित-आदिवासी तबकों के एक फीसदी से कम प्रोफेसर हैं। इस बारे में इस पत्रिका से एक रिटायर्ड दलित वरिष्ठ प्राध्यापक ने कहा कि यह सोची-समझी नौबत है, वे लोग हम लोगों को कामयाब नहीं होने देना चाहते। ये उच्च शिक्षा संस्थान आरक्षण के नियम नहीं मान रहे, और सरकारें इन पर कुछ नहीं कर रहीं। कुछ प्राध्यापकों का मानना है कि अगर आरक्षित तबकों को उनका जायज हक दिलाना है, तो ऐसे बड़े इंस्टीट्यूट के डायरेक्टरों को जब तक सजा नहीं दी जाएगी, तब तक वंचित तबकों को उनका हक नहीं मिलेगा।
इस रिपोर्ट के आगे के आंकड़े भी दिलचस्प हैं कि देश भर के विश्वविद्यालयों में ग्रेजुएशन में दलित और आदिवासी छात्र-छात्राओं की गिनती उनके वर्गों के आरक्षण से कुछ अधिक दिखती है, लेकिन जब बारीकी से देखें तो यह दिखता है कि यह सिर्फ आर्टस् के विषयों में है, दूसरी तरफ इंजीनियरिंग, चिकित्सा, विज्ञान, और टेक्नालॉजी में आदिवासी सीटें खाली पड़ी हैं, और यही हाल दलितों में भी है। मतलब यह है कि गांवों से निकलकर आने वाले दलित-आदिवासी छात्र-छात्राओं को विज्ञान की अच्छी पढ़ाई नहीं मिलती है, इसलिए वे कॉलेज पहुंचकर भी आर्टस् के विषय लेकर पढ़ते हैं। इनके मुकाबले ओबीसी की हालत कुछ बेहतर है जो कि अपने आरक्षित कोटे से अधिक सीटों पर हैं, लेकिन उनकी आबादी शायद सीटों के इस अनुपात से और अधिक मानी जाती है।
तुलसीदास का शूद्रों को लेकर जो लिखा हुआ है, वह आज भी हिन्दू धर्म और समाज के अधिकतर हिस्सों में चले आ रहा नजरिया बना हुआ है। वो जिन तबकों को पिटाई के लायक पाते हैं, उन तबकों की आज भी देश भर में जमकर पिटाई हो रही है। वीडियो-कैमरों के सामने महिलाएं भी पीटी जा रही हैं, दलित तो पीटे ही जा रहे हैं, इनके मुकाबले जानवरों की हालत बेहतर है क्योंकि पशु प्रताडऩा के खिलाफ कड़ा कानून बन गया है। तुलसीदास ने ऐसी बातें लिखते समय यह कल्पना भी नहीं की होगी कि अनपढ़ लोगों के बीच भी मशहूर उनकी रामचरितमानस की उनकी सोच 21वीं सदी में देश की दिग्गज आईआईटी में अमल में आती रहेगी। हिन्दुत्ववादी लोगों के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि दूसरे धर्म के लोगों के मुकाबले अपनी अधिक आबादी गिनाने के लिए तो वे दलित और आदिवासी तबकों को हिन्दू समुदाय में गिन लेते हैं, लेकिन जैसे ही दूसरे धर्मों के साथ कोई तुलना बंद होती है, तो घर के भीतर वे दलित-आदिवासी तबकों को मारने के लिए अपने चमड़े के बेल्ट उतार लेते हैं, इन तबकों के खानपान से लेकर इनके कामकाज तक को कुचलने की कोशिश करते हैं, और उन्हें एक सवर्ण जीवनशैली का गुलाम बनाने में जुट जाते हैं। यह पाखंड ही लोगों को, दलितों और आदिवासियों को कभी बौद्ध धर्म की तरफ ले जाता है, तो कभी ईसाई धर्म की तरफ। और फिर ऐसे एक-एक मामले को लेकर वे धर्मांतरण का हल्ला बोलने लगते हैं, और जब ऐसा हल्ला बोलने का मौका नहीं मिलता, तो फिर वे अपने घर के भीतर वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे वाले दलित-आदिवासियों को कूटने में लग जाते हैं। लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि तुलसी की रामकथा के वानर कौन थे? क्या वे जंगलों में बसे हुए आदिवासी ही नहीं थे जो कि वहां से गुजरते हुए राम के साथ हो गए थे, और जिन्हें सवर्ण, शहरी कथाकारों की कल्पना में वनवासी आदिवासी की जगह बंदर का रूप दे दिया गया था? आज कम से कम यह तो अच्छा हुआ कि बिहार के एक मंत्री ने रामचरितमानस को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ करार दिया, तो रामचरितमानस के बचाव में, और उसके खिलाफ लोग टूट पड़े हैं, और ‘वानरों’ से लेकर दलितों तक का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के नागपुर दफ्तर को फोन करके धमकी दी गई और माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम का नाम लेते हुए फिरौती मांगी गई वरना गडकरी को जान से मार देने की बात कही गई। नागपुर पुलिस ने जब जांच की, तो पता लगा कि ये टेलीफोन कॉल कर्नाटक की एक जेल में बंद एक बड़े गैंगस्टर जयेश कांथा ने किए थे। अब यह तो एक बड़े केन्द्रीय मंत्री का मामला था इसलिए पुलिस ने आनन-फानन धमकाने वाले फोन का पता लगा लिया वरना कोई कारोबारी होता तो पुलिस रिपोर्ट की हिम्मत भी नहीं होती, और हो सकता है कि इस धमकी के एवज में भुगतान भी कर दिया जाता। दूसरी बात यह है कि नितिन गडकरी भाजपा नेता हैं, और कर्नाटक में भाजपा का ही राज है। वहां की जेल से अगर मुजरिम इस तरह की फिरौती मांग रहे हैं, तो यह बात देश की तमाम जेलों में एक सुधार की नौबत दिखा रही है।
कुछ महीने पहले जब पंजाब में एक बड़े मशहूर गायक का कत्ल हुआ, तो उसके पीछे कनाडा-ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में बसे हुए पंजाबी गैंगस्टरों का भी नाम आया, और दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद पंजाब के एक बड़े गैंगस्टर का भी नाम आया। जाहिर है कि जो लोग जेल के भीतर रहते हुए, या देश के बाहर रहते हुए भी यहां पर माफिया अंदाज में खुलेआम कत्ल करवाने की ताकत रखते हैं, तो वे इसी ताकत के बदौलत उगाही भी करते ही होंगे। लोगों को याद होगा कि मुम्बई में जिस वक्त दाऊद इब्राहिम का राज चलता था, उस वक्त बड़े-बड़े बिल्डरों और कारोबारियों को धमकी के फोन जाते थे, और वे जिंदा रहने की कीमत अदा करते थे। उस वक्त और उसके बाद भी मुम्बई की जेलों से ऐसे गिरोह चलते रहे, और दाऊद जैसे बड़े मुजरिम पाकिस्तान में रहते हुए आज भी भारत में कई किस्म के जुर्म में शामिल बताए जाते हैं।
देश के तकरीबन हर राज्य में जेलों का यही हाल सुनाई पड़ता है कि वहां पैसा बोलता है। चाहे वह मुजरिम का हो, या किसी कारोबारी का, जिसके पास जेल अफसरों को देने के लिए पैसा है, उसके पास हर गैरकानूनी ताकत आ जाती है। बहुत से लोग जेलों से निकलकर रात गुजारने अपने घर चले जाते हैं, जेलों के भीतर हर किस्म की सहूलियत, हर किस्म के नशे, मोबाइल फोन की सुविधा, इन सबके लिए या तो पैसा लगता है, या राजनीतिक ताकत लगती है। पिछले कुछ बरसों से तिहाड़ जेल में बंद एक ऐसे मुजरिम की कहानी चारों तरफ से स्थापित हो रही है जिसने वहां रहते हुए देश के कुछ सबसे बड़े कारोबारियों को जमानत दिलवाने के नाम पर उनके परिवार से सैकड़ों करोड़ रूपये उगाही कर लिए, और फिल्म अभिनेत्रियों से अंतरंग संबंध बनाने के लिए उन पर सैकड़ों करोड़ खर्च भी कर दिए। यह पूरा काम जेल में रहते किया गया। देश की राजधानी की यह सबसे प्रमुख जेल अगर मुजरिमों के लिए इस किस्म का आरामगाह है कि वहां रहकर वे उसे जुर्म के अड्डे की तरह चला सकते हैं, तो फिर बाकी जेलों के बारे में कोई उम्मीद करना फिजूल की बात है।
दरअसल जेलों के भीतर हिफाजत के नाम पर जेलों के पूरे कैम्पस की जिस तरह तालाबंदी होती है, उसकी वजह से बाहर के दूसरे अफसर भी जेलों में झांक नहीं पाते। जिलों के कलेक्टरों पर जेलों के कामकाज की निगरानी का जिम्मा रहता है, लेकिन वे भी उस तरफ से रहस्यमय वजहों से आंखें मोड़े रहते हैं। बड़े-बड़े नेताओं के कोई न कोई पसंदीदा मुजरिम हमेशा ही जेलों में बंद रहते हैं, इसलिए वे भी जेलों के अपराधीकरण के खिलाफ आवाज नहीं उठाते। कुल मिलाकर सत्ता और पैसों की ताकत जेलों को बिकने का सामान बना देती है, और वहां एक अलग ही कानून चलता है जो कि देश के कानून से परे का होता है। हमने अपने आसपास की जेलों की कई ऐसी कहानियां सुनी हैं कि वहां कोई पैसे वाला बंद होता है, तो जेलों में बंद दूसरे सरगना उसे पीट-पीटकर बाहर अपने गिरोह को भुगतान करवाते हैं। अगर ऐसा भुगतान नहीं होता तो रोज उस पैसे वाले कैदी की थाली में लोग थूक देंगे, उसके मुंह पर थूक देंगे। छत्तीसगढ़ की जेलों के भीतर से भी बाहर फोन करके वसूली और उगाही करने के मामले सुनाई देते रहते हैं। बड़़े-बड़े मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का दुर्ग जिले की जेल ऐसी माफियागिरी की सबसे बड़ी गवाह है। और यह बात महज हिन्दुस्तान पर लागू होती हो ऐसा भी नहीं है, दुनिया के सबसे सुरक्षित समझे जाने वाले अमरीका में भी जेलों के भीतर मुजरिमों का इसी किस्म का राज चलता है, जेलों के भीतर हत्याएं होती हैं, और वहां से गिरोह चलते हैं।
जेलों के भीतर बंद लोगों के हाथ मोबाइल फोन पहुंच जाने से बाहर की दुनिया में उनकी खूनी ताकत की दहशत और फैल जाती है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सोचना चाहिए कि इस सिलसिले को कैसे खत्म किया जा सकता है। जेलों में मोबाइल सिग्नल रोकने के लिए जैमर लगाना एक पुरानी तकनीक है, लेकिन जब तक जैमर नए सिग्नलों के लायक बने, तब तक मोबाइल सर्विस और अगले सिग्नलों पर चली जाती हैं। फिर मोबाइल से परे भी जेलों में जुर्म बहुत किस्म के होते हैं, और इन्हें रोकने के लिए वहां जांच की एक अधिक पारदर्शी व्यवस्था होना जरूरी है। यह कैसे हो सकता है इसे जानकार अफसर तय कर सकते हैं, लेकिन जिन जगहों को सजा पाने के लिए बनाया गया है, वे जगहें जुर्म करने के अड्डे बन जाएं, यह तो बर्दाश्त के लायक बात नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड में जोशीमठ जो दरारें शुरू हुईं, वे इस राज्य के दूसरे कई कस्बों तक पहुंच रही हैं, और दूसरे कस्बों में भी टूटते हुए घरों को देखकर सरकार बस्तियां खाली करा रही है। ठंड का यह मौसम और पीढिय़ों से बसे हुए लोग इस बीच बेघर हो रहे हैं, न सिर्फ उनके मकान जा रहे हैं, बल्कि उनकी जमीन भी धंस जा रही है, और वह शायद ही उन्हें कभी वापिस मिले क्योंकि हिमालय के किनारे बसे इस प्रदेश में इंसान की बाजारू नीयत ने विकास के नाम पर जो विनाश किया है, उसका असर शायद सदियों तक जारी रहेगा। इसलिए देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड में लाखों लोगों की जिंदगी तबाह होने जा रही है, और यह आंकड़ा बढ़ते ही चले जाना है, ठीक उसी तरह, जिस तरह कि कोई दरार बढ़ती चली जाती है।
लोगों को याद होगा कि पर्यावरण की फिक्र करने वाले लोग लगातार दशकों से यह मुद्दा उठा रहे थे कि हिमालय के पड़ोस के इस राज्य की भूगर्भ की हालत नाजुक है, और उसके साथ बांध और सुरंग बनाने, पहाड़ काटकर सडक़ों को चौड़ा करने का खतरनाक काम नहीं किया जाना चाहिए। लोगों ने इस पहाड़ी राज्य में जंगल और पेड़ बचाने के लिए अपनी जिंदगी दे दी, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार दोनों ने दीवारों पर लिखे धरती और कुदरत के संदेशों को पढऩे से इंकार कर दिया, और नेता, अफसर, ठेकेदार, तीनों की पहली पसंद, कांक्रीट और कंस्ट्रक्शन को अंधाधुंध बढ़ाया गया। जिस प्रदेश में आज कस्बे के कस्बे धसक रहे हैं, उस प्रदेश में सरकारों ने सौ के करीब सुरंगें बनाने का बीड़ा उठाया है, बिना यह समझे कि इसके कितने दाम चुकाने होंगे। आज यह दाम चुकाने के लिए सरकार के नोट कम पडऩे वाले हैं क्योंकि खोखले कर दिए गए एक पहाड़ी राज्य को फिर से भरने के लिए न तो दुनिया में सीमेंट काफी है, न ही इसकी टेक्नालॉजी मौजूद है, और न ही यह सरकार के बस में है। अंधाधुंध निर्माण का दाम उत्तराखंड की जनता अपने घर, अपनी जमीन, अपनी जिंदगी देकर चुका रही है। दुनिया में कहीं भी पड़ी हुई दरार बढ़ती ही चली जाती है, और इस वक्त जब हम इस पर लिख रहे हैं, उत्तराखंड में जगह-जगह लोग घर छोडक़र अपने ही वतन में शरणार्थियों की तरह दूसरी जमीन पर तम्बुओं में जा रहे हैं, तब भी रात-रात जागकर कंस्ट्रक्शन कंपनियों की क्रेन और बुलडोजर धरती को हिलाने में, छेदने और पार करने में लगे हुए हैं। एक टीवी समाचार पर यह देखना भयानक था कि बस्तियों में लोग सर्द रातें कहीं तम्बुओं में बैठे हुए हैं, और दूसरी तरफ सरकारी प्रोजेक्टों में ठेकेदारों की दानवाकार मशीनें जमीन हिलाने में लगी हुई हैं।
दरअसल इंसान जिस रफ्तार से धरती और कुदरत को दुह लेना चाहते हैं, धरती और कुदरत उस मुताबिक बनी नहीं हैं। हिन्दुस्तान के इन पहाड़ी प्रदेशों में जिस रफ्तार से पेड़ काटे गए, जिस रफ्तार से जल-बिजली के लिए बांध और उसके तालाब बनाए गए, सडक़ों को चौड़ा करने के लिए जिस रफ्तार से पहाडिय़ां काटी गईं, अधिक से अधिक सैलानियों को लाने, ठहराने, और घुमाने के लिए होटलों और गाडिय़ों का समंदर खड़ा कर दिया गया, जगहों को एक-दूसरे से करीब लाने के लिए सुरंगों का जाल बनाना शुरू किया गया, इन सबके खिलाफ पर्यावरण के जानकार लोग, और गैरपर्यावरणवादी तकनीकी विशेषज्ञ भी चेतावनी देते आए थे, लेकिन हर कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट में बंटने वाले कमीशन और रिश्वत के चलते सरकारों को हांकने वाले लोगों ने सारी चेतावनियों को अनसुना कर दिया। इस रफ्तार से हिमालय के किनारे बसे इस इलाके को तबाह किया गया कि मानो ये इलाके अगली सदी न देख लें।
दुनिया के दूसरे हिस्सों से भी ऐसी खबरें सामने आ रही हैं कि इंसान जैव विविधता को इस रफ्तार से खत्म करने में लगे हुए हैं कि उसकी भरपाई लाखों बरस भी नहीं हो पाएगी। दो दिन पहले बीबीसी पर एक रिपोर्ट थी कि मेडागास्कर के टापू पर पेड़-पौधों और पशु-पक्षी जैसी तमाम किस्म की जैव विविधता पिछले बहुत थोड़े से समय में इस रफ्तार से खत्म हुई है कि उतनी विविधता दुबारा बनने में तीस लाख बरस लगेंगे, और अगर इसी रफ्तार से यह विविधता कुछ और समय तक बर्बाद हुई तो उसकी भरपाई में दो सौ लाख बरस लगने का वैज्ञानिक अंदाज है। खतरनाक बात यह है कि बहुत थोड़ी आबादी वाले इस टापू पर इंसानों का इतिहास बहुत छोटा है, लेकिन गिनी-चुनी आबादी ने इस रफ्तार से जैव विविधता को खत्म कर दिया है कि यह इंसान के खूनी मिजाज की एक जलती-सुलगती मिसाल दिख रही है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुदरत के हिस्सों को तबाह करना, अंधाधुंध शिकार, और जलवायु परिवर्तन के रास्ते इंसानों ने जैव विविधता को कुछ दशकों में ही इतना खत्म कर दिया है कि दसियों लाख साल उसकी भरपाई नहीं होने वाली है।
कुछ ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान में पांच-पांच बरस के लिए आने वाली सरकारों ने पहाड़ी इलाकों का किया है। हर निर्वाचित सरकार को यह हड़बड़ी रहती है कि वह अधिक से अधिक कितने कंस्ट्रक्शन-ठेके दे सके, कितनी कमाई कर सके। कुदरत की गोद में हर इंसान के लिए जरूरत का तो काफी है, लेकिन इंसान बेहिसाब हवस के लिए उसके पास उतना कुछ नहीं है। यह नौबत हिन्दुस्तान जैसे देश के सम्हलकर बैठने की है, और दरारों वाले मकान गिराकर किसी दूसरे इलाके में कुछ दूसरे कच्चे-पक्के मकान बनाना तो हो सकता है, लेकिन हिमालय की तराई, उसके बदन पर आई दरारों को पाटना इंसानों के बस के बाहर का है। ये इलाके न इतने निर्माण के लायक हैं, और न ही इतने सैलानियों के लायक हैं। अगले किसी अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ अध्ययन तक उत्तराखंड जैसे प्रदेश में सारे बड़े प्रोजेक्ट पर काम पूरी तरह रोक देना चाहिए, ऐसा न करना एक ऐतिहासिक खुदकुशी होगी, जिसमें मौत आज के नेताओं की नहीं होगी, ऐसे प्रदेशों की अगली कई पीढिय़ों की होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र में अभी सुबह-सुबह एक निजी मुसाफिर बस और ट्रक में टक्कर हुई जिसमें 10 लोगों की मौत हो गई है, और बहुत से जख्मी हो गए हैं। बस की हालत देखें तो लगता है कि मानो अफगानिस्तान या इराक में बम के धमाके से उड़ा दी गई बस हो। ऐसी कोई सुबह नहीं होती जब इस किस्म की पांच-दस थोक मौतों की कोई खबर न आई हो। हर रात के अंधेरे में देश भर में जगह-जगह हादसों में ऐसी मौतें हो रही हैं, और अगर उनका आंकड़ा आधा दर्जन पार कर जाता है, तो ही उनकी खबर प्रदेश की सरहद पार कर पाती है। इक्का-दुक्का मौतों की तो मानो कोई गिनती नहीं है। सरकारी आंकड़ों को देखें तो 2021 में चार लाख बारह हजार सडक़ हादसे हुए हैं जिनमें डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए हैं, और पौन चार लाख से अधिक लोग जख्मी हुए हैं। जाहिर है कि बाद में इन घायलों में से और बहुत सी मौतें हुई होंगी, या मौत से बदतर जिंदगी चल रही होगी। सडक़ हादसों का यह हाल भयानक है, लेकिन इस पर चर्चा इसलिए जरूरी है कि इसे रोका जा सकता है।
आए दिन शहरों की खबर आती है कि उनके किनारे हाइवे और रिंगरोड पर किस तरह ट्रांसपोर्ट कारोबारियों की स्थाई पार्किंग चलती है, और जिन दुपहिया-तिपहिया गाडिय़ों को सर्विस रोड से चलना चाहिए, वे हाइवे पर चलने को मजबूर रहती हैं, दुपहिया सवार लोगों की अधिकतर मौतें इसी तरह की सडक़ों पर होती हैं, और हर बार यह बात सामने आती है कि उन्होंने हेलमेट नहीं लगाया हुआ था। केन्द्र सरकार ने हेलमेट लगाने को जरूरी बना दिया है, और न लगाने पर एक जुर्माना भी लगाया है। लेकिन देश के अधिकतर प्रदेशों में राज्य सरकारें अपने लोगों के सिर पर बोझ रखकर उन्हें नाराज करना नहीं चाहतीं, इसलिए वोटर की चापलूसी के मकसद से उसकी आदत खराब होने दी जाती है, और हेलमेट, सीटबेल्ट जैसे नियमों को कुछ महानगरों को छोडक़र अधिकतर जगहों पर लागू नहीं किया जाता। हम अपने अखबार में शुरू से ही इसके लिए अभियान चलाते आए हैं, लेकिन सरकार ने मानो कसम खा रखी है कि वह किसी भी कीमत पर वोटर को नाराज नहीं होने देगी। इसलिए कंधे और कान के बीच मोबाइल दबाए हुए दुपहिया चलाते लोगों को भी कहीं नहीं रोका जाता, और न ही अंधाधुंध रफ्तार से सांप की तरह आड़ी-तिरछी मोटरसाइकिल चलाने वालों को रोका जाता। यह तय है कि अगर राज्य सरकार हेलमेट को लागू कर दे, दुपहिया और मोबाइल के मेल को खत्म कर दे, तो रोजाना आधा दर्जन मौतें तो छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में टल सकती हैं।
लेकिन बस और ट्रक जैसी टक्कर हेलमेट से परे का मामला है। हिन्दुस्तान के किसी भी राज्य में जितनी कारोबारी गाडिय़ां रहती हैं, वे आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस दोनों की मंजूरी और निगरानी वाली रहती हैं। ये गाडिय़ां ओवरलोड भी चलती हैं, बिना फिटनेस की भी चलती हैं, और अंधाधुंध रफ्तार से तो चलती ही हैं। ड्राइवर कई बार नशे में रहते हैं, और कई बार उनकी नींद अधूरी हुई रहती है। इन सबके साथ-साथ उन्हें माल और मुसाफिर को जल्द से जल्द मंजिल तक पहुंचाने का एक किस्म से ठेका दे दिया जाता है, और यहीं से रफ्तार और हड़बड़ी का जानलेवा मुकाबला शुरू होता है। फिर हिन्दुस्तान में जगह-जगह सडक़ों का हाल खराब है, सावधानी के निशान लगे नहीं रहते, कई गाडिय़ां बिना लाईट के चलती हैं, कई गाडिय़ां सडक़ किनारे बिना लाईट जलाए खड़ी रहती हैं, और यह सब पुलिस और आरटीओ की लापरवाही का नतीजा रहता है। ये दोनों ही विभाग परले दर्जे के भ्रष्टाचार में डूबे हुए रहते हैं, और ये जितनी मोटी कमाई करते हैं, वह लोगों की जिंदगी बेचकर ही हो पाती है। अगर इन दोनों विभागों के लोग ईमानदारी से जांच और जुर्माना करने लगें, तो सडक़ मौतें घटकर एक चौथाई रह जाएंगी। लोगों को जानलेवा लापरवाही, जानलेवा रफ्तार, और गाडिय़ों की जानलेवा कंडम हालत की छूट देकर जो कमाई की जाती है, उसी से सडक़ों पर लाशें बिखरती हैं।
केन्द्र सरकार सडक़ सुरक्षा के लिए कई तरह के नियम तो बना सकती है, लेकिन उन पर अमल राज्य सरकार के दायरे की बात रहती है। ऐसे में केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए कि किस तरह सडक़ों की हिफाजत के काम में, हादसों को रोकने में आम जनता की मदद ली जा सकती है। जनता की भागीदारी से अगर उनके साथ मौजूद पुलिस और आरटीओ के अफसर जांच करेंगे, तो हो सकता है कि उतने संगठित भ्रष्टाचार की गुंजाइश न रह जाए। वैसे तो हिन्दुस्तान का राष्ट्रीय चरित्र देखें, तो एक खतरा यह भी लगता है कि जनता की ऐसी भागीदारी के नाम पर जनता को भ्रष्ट बनाने का भी एक सिलसिला शुरू हो सकता है। लेकिन कुछ समय पहले सडक़ परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने यह कहा था कि केन्द्र सरकार ऐसा कानून बनाने जा रही है कि सडक़ों पर नियम तोडऩे वाली गाडिय़ों के फोटो-वीडियो लोग अगर पुलिस को भेजेंगे, तो उनके आधार पर होने वाले जुर्माने में उन्हें भी एक हिस्सा ईनाम की शक्ल में मिलेगा। हमने पहले भी इस सोच की तारीफ की थी, हालांकि कुछ अच्छे पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ लिखा था, और लिखा था कि सरकार अपना काम खुद करने के बजाय लोगों पर इसकी जिम्मेदारी डाल रही है। हम ऐसी सोच से सहमत नहीं हैं, और हमारा मानना है कि देश को चलाने का जिम्मा अकेले सरकार पर नहीं हो सकता, और हर नागरिक का यह जिम्मा और अधिकार है कि वे जहां कानून टूटते देखें, वे सरकार को खबर करें। हर जगह तो पुलिस को तैनात करना दुनिया की किसी भी सरकार के लिए मुमकिन नहीं है, और आम लोगों को भी अपनी नागरिक जवाबदेही निभानी चाहिए। और ऐसा करने में अगर जुर्माने के एक हिस्से पर उनका हक भी तय किया जा रहा है, तो यह सचमुच ही अच्छी बात है। वैसे तो केन्द्र सरकार के किए बिना भी कोई समझदार और जिम्मेदार राज्य सरकार भी यह काम कर सकती है, और हम तो नितिन गडकरी की बात के दस-बीस बरस पहले से यह सुझाव लिखते आए हैं। किसी भी जिम्मेदार राज्य सरकार को सडक़ों के नियम तोडऩे वालों के सुबूत भेजने के लिए जनता का हौसला बढ़ाना चाहिए, और जुर्माना वसूली के बाद उन्हें एक हिस्सा देना चाहिए, इससे हादसे रूकेंगे, और मौतें थमेंगी।
बाबाओं से भरे हुए हरियाणा में बलात्कार की ताजा सजा पाने वाला बाबा बड़े दिलचस्प नाम वाला है। जलेबी बाबा को फास्ट ट्रैक कोर्ट के स्पेशल जज ने 14 साल की कैद सुनाई है, उस पर अनगिनत महिलाओं से बलात्कार के अलावा उनके वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करने का भी आरोप है। पांच बरस से मुकदमा चल रहा था, और फास्ट ट्रैक कोर्ट में भी इतना समय लग गया। यह बाबा किसी धार्मिक संगठन से निकलकर नहीं आया था, वह हरियाणा में एक जगह जलेबी बनाकर बेचता था, और बाद में उसने घर में मंदिर बनवाया, और इस मंदिर में वह महिलाओं को उनकी परेशानियों का समाधान बताता था, और यह करते-करते वह बिल्लू राम से जलेबी बाबा बन गया था। पुलिस ने अदालत को बताया कि वह शारीरिक और मानसिक तकलीफों वाली महिलाओं के इलाज का दावा करता था, उन्हें खाने-पीने की चीजों में नशा देता था, और उसके बाद उनसे छेडख़ानी को मंदिर के खुफिया कैमरों में रिकॉर्ड कर लेता था। इसके बाद वह ब्लैकमेल करके बलात्कार भी करता था, और रकम भी वसूलता था।
हरियाणा ढेर किस्म के पाखंडी बाबाओं का प्रदेश है, और इनमें से बहुत से बलात्कारी दर्ज हुए हैं, और ऐसा माना जा सकता है कि बाकी के बलात्कार अब तक सामने नहीं आए होंगे, वे बलात्कारी रहे जरूर होंगे। धर्म और आध्यात्म लोगों के शोषण का सबसे आसान जरिया रहता है, भक्तजन और मानने वाले लोग अपने तर्कों को, अपनी वैज्ञानिक समझ को ताक पर धरकर आते हैं, और अपने आपको शारीरिक और मानसिक रूप से गुलाम की तरह पेश कर देते हैं। बाबाओं के चक्कर में पडऩे वाले लोग बलात्कार को भी अपनी खुशकिस्मत मान लेते हैं, और भक्तजनों के पूरे-पूरे परिवार बलात्कारी बाबाओं को समर्पित रहते हैं। हम पहले कई बार इसी जगह पर आसाराम के बारे में लिख चुके हैं जो कि स्वघोषित बापू था, और अपने भक्त परिवार की एक नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में अब तक जेल में है, और देश के सबसे बड़े और महंगे वकील भी उसको जमानत नहीं दिला पाए हैं। लेकिन इससे उसके भक्तों पर बहुत असर नहीं पड़ा है, और आज भी वे आसाराम का प्रचार करते हुए अपने पूरे परिवार और बच्चों सहित सडक़ों पर दिखते हैं, और कभी जुलूस निकालते हैं, कभी कार्यक्रम करते हैं, और उसे छोडऩे की मांग भी करते हैं। इतिहास में हर जगह धर्म का नाम लेकर पाखंड चलाने वाले ऐसे बलात्कारी दर्ज हुए हैं, और हर किस्म के धर्म में ऐसे बलात्कार सामने आए हैं। अभी पिछले पोप के मरने पर चार दिन पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा था कि उस पोप ने किस तरह दुनिया भर में पादरियों द्वारा बच्चों के साथ बलात्कार के मामलों में नरमी दिखाई थी, और उन्हें सजा से बचाया था। ऐसा हाल हिन्दुस्तान में जगह-जगह देखने मिलता है, और जलेबी बाबा नाम के इस बलात्कारी के बारे में कुछ खबरें बताती हैं कि उसने सवा सौ महिलाओं से बलात्कार किया था।
हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह भी है कि यहां अधिकतर लोगों को किसी भी मानसिक समस्या के लिए न तो मनोचिकित्सक हासिल हैं, और न ही परामर्शदाता। इसलिए मानसिक परेशानी रहने पर गरीब परिवार अपने लोगों को सीधे किसी बाबा, किसी मजार, या किसी गुरू के पास ले जाते हैं, और वहां पर उनका तरह-तरह से शोषण होता है। एक तो परिवार परेशान रहता है, दूसरा ऐसे पाखंडी उन्हें अपने किस्म के इलाज का झांसा देते हैं, और मरीज बच्चे और महिलाएं बलात्कार के शिकार हो जाते हैं। इससे परे हरियाणा में ही बाबा राम-रहीम नाम के एक और बलात्कारी की भयानक कहानी सबके सामने है, जिसे 20 साल की कैद हुई है, और एक पत्रकार की हत्या करवाने के जुर्म में उम्रकैद भी हुई है। राम-रहीम ने अपने आपको एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक गुरू बताया, और उसके डेरे में साधुओं को बधिया बनाने के बहुत से मामले किए गए थे। उस पर साध्वियों से बलात्कार के मामले चले, और इसका भांडाफोड़ करने वाले पत्रकार की भी इस बाबा ने हत्या करवा दी। जिस हरियाणा में महिलाओं को सामाजिक रूप से अधिकारों से दूर रखा जाता है, उस हरियाणा में इस किस्म के पाखंडियों को एक उपजाऊ जमीन मिल जाती है।
हिन्दुस्तान में धर्म के नाम पर धर्मान्धता और कट्टरता को बढ़ावा देकर लोगों की वैज्ञानिक सोच को खत्म करने का जो सिलसिला पिछले बरसों में चलाया गया है, उससे इस देश की जनता इसी किस्म के पाखंडी और बलात्कारी बाबाओं की गुलाम बनने के खतरे में पड़ गई है। धर्म सिर्फ अनपढ़ों को ही धोखे के लायक नहीं बनाता, पढ़े-लिखे लोगों को भी शोषण के लायक तैयार करता है। लोगों को याद होगा कि देश में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे केरल में किस तरह एक बिशप पर एक नन से बलात्कार का केस चला था, हालांकि वह बाद में बरी हो गया था। दुनिया के विकसित और पढ़े-लिखे देशों में ही पढ़े-लिखे परिवारों के बच्चे चर्च में पादरियों के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं जहां उनसे बलात्कार होते हैं। धर्म पढ़ाई-लिखाई से मिली समझ को भी खत्म करने की ताकत रखता है, और हरियाणा का सामाजिक पिछड़ापन ऐसे शोषण को और दूरी तक ले जाता है।
हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह भी है कि कई किस्म के बाबा और पाखंडी बरसों तक बलात्कार करते रहते हैं, लेकिन कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। राम-रहीम और आसाराम जैसे अधिक चर्चित बलात्कारियों के मामले में हमने देखा है कि बड़ी-बड़ी पार्टियों के बड़े-बड़े नेता इनके चरणों में बिछे रहते हैं, और छोटे-मोटे अफसर किसी शिकायत के आने पर भी इन पर कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करते। समाज के जागरूक लोगों और उनके संगठनों को इस नौबत को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। धर्म से जुड़े हुए लोगों को भी अगर अपने धर्म की इज्जत बरकरार रखनी है, तो उन्हें भी पाखंड के ऐसे बलात्कारी सिलसिले को खत्म करना पड़ेगा। हम जानते हैं कि हमारा यह कहना आसान है, और लोगों के मन से अंधविश्वास को मिटाना मुश्किल बात है, लेकिन ऐसी कोशिशों के अलावा और कोई चारा भी नहीं है।
ब्राजील में नए निर्वाचित राष्ट्रपति लूला के चुनाव को गैरकानूनी करार देते हुए पिछले राष्ट्रपति बोलसोनारो के समर्थकों ने जिस तरह ब्राजील की संसद, सुप्रीम कोर्ट, और राष्ट्रपति भवन पर हमला बोला, उसने सबको हक्का-बक्का कर दिया। दो बरस पहले जनवरी के महीने का ही पहला हफ्ता था जब अमरीका में राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे पर उनके समर्थकों ने जो बाइडन के चुनाव को नाजायज करार दिया था, और इसी तरह संसद पर हमला बोला था। अब मानो ब्राजील में उसी अमरीकी हमले से रास्ता समझकर ब्राजील में ठीक वैसा ही हुआ, कुछ बड़े पैमाने पर हुआ, और कुछ दूसरी संवैधानिक संस्थाओं पर भी हुआ। जिस तरह अमरीका में ट्रंप ने बाइडन के चुनाव को मतगणना पूरी हो जाने के बाद भी लगातार खारिज किया, कुछ वैसा ही ब्राजील में भी हारे हुए राष्ट्रपति ने किया। चूंकि ये दोनों मामले महज दो बरस के फासले पर बिल्कुल एक सरीखे दिखते हुए सामने आए हैं, इसलिए यह मानने की हर वजह है कि ट्रंप की बगावत से ही ब्राजील में हारे हुए राष्ट्रपति बोलसोनारो को रास्ता सूझा। इससे यह भी साबित होता है कि दुनिया में एक देश में की गई वारदातें दूसरे देशों को भी उस तरह का रास्ता दिखा सकती हैं। ब्राजील में बोलसोनारो की हार के आसार बने हुए थे, और इस बार की यह हिंसक बगावत सोशल मीडिया पर हमले के तार जोडक़र की गई साबित हो रही है।
दुनिया में लोग और देश मोहब्बत की बातें चाहे एक-दूसरे से न सीख पाएं, नफरत और हिंसा की बातें तेजी से एक-दूसरे से सीख लेते हैं। हिन्दुस्तान में आज धर्म को लेकर जिस तरह की कट्टरता पनप रही है, धर्मान्धता बढ़ रही है, किसी भी तरह की हिंसा के लिए धर्म को एक न्यायसंगत वजह मान लिया गया है, उसकी जड़ें पड़ोस के पाकिस्तान से लेकर उसके बगल के अफगानिस्तान तक की धार्मिक कट्टरता से जुड़ी हुई हैं। एक देश का आतंक दूसरे देश के आतंक को बढ़ावा देता है। हिन्दुस्तान में बहुत से लोगों को इस बात से तकलीफ पहुंचती है जब इस देश के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक संगठनों की तुलना कुछ लोग अफगान-तालिबानों से करते हैं। हो सकता है कि यह तुलना कुछ नाजायज हो, लेकिन कट्टरता और धर्मान्धता के मामलों में फर्क महज हिंसा के पैमानों का है, बाकी राह तो एक ही है। जिस तरह ट्रंप की दिखाई राह पर बोलसोनारो चले, ठीक उसी तरह दूसरे देशों में इस्लामी कट्टरपंथ और आतंक की दिखाई गई राह पर हिन्दुस्तान में आज की धार्मिक हिंसा चल रही है। हो सकता है कि वह कई मील पीछे हो, लेकिन यह समझ लेना जरूरी है कि यह उसी राह पर मील के अलग-अलग पत्थरों तक पहुंचा हुआ सफर है।
पहले अमरीका, और उसके बाद ब्राजील, दुनिया के दो बड़े और महत्वपूर्ण देशों में हुए पारदर्शी चुनावों के बाद जिस तरह जाती हुई सत्ता ने गुजरने से इंकार कर दिया, और अपनी हार के आंकड़ों को नकार दिया, उससे दुनिया के बहुत से दूसरे देशों के सामने एक मिसाल बन सकती है, और उससे जगह-जगह लोकतंत्र कमजोर हो सकता है। जो लोग अमरीका की खबरों को ध्यान से देखते हैं, उन्हें यह मालूम है कि अमरीकी संसद पर ट्रंप समर्थकों द्वारा 6 जनवरी को किए गए हमले की संसदीय सुनवाई पूरी हो चुकी है, और इस कमेटी ने ट्रंप और उनके समर्थकों के खिलाफ चार गंभीर पहलुओं पर आपराधिक मामले चलाने की सिफारिश अमरीका के न्याय विभाग से की है। वहां संसदीय समिति की सिफारिश कोई बंदिश नहीं है, इसलिए अमरीका के सबसे बड़े सरकारी वकील अपने स्तर पर यह तय करेंगे कि किन-किन सिफारिशों के आधार पर आपराधिक मुकदमे चलाने हैं, और क्या पिछले राष्ट्रपति ट्रंप पर भी इन दंगों और हमलों को भडक़ाने और उकसाने का मुकदमा चलाना चाहिए। अगर ऐसा होता है तो अमरीकी इतिहास में यह पहला मौका रहेगा जब किसी राष्ट्रपति पर ऐसा मुकदमा चलेगा। अमरीका के इस मामले को बाकी लोकतंत्रों को भी बारीकी से देखना चाहिए कि कोई संसदीय समिति किस तरह काम कर सकती है, और किस तरह पिछले राष्ट्रपति को भी कटघरे मेें खड़ा कर सकती है।
हिन्दुस्तान इस मामले में एक बेहतर मिसाल बनकर दुनिया के तमाम लोकतंत्रों के सामने है कि एक बार चुनावी नतीजे आ जाने के बाद कोई सरकार हटने से इंकार नहीं कर पाती। यह एक अलग बात है कि हटने के पहले वह चुनावों में हर गलत काम कर जाती है, थोक में दलबदल करवाती है, चुने हुए सांसदों और विधायकों की खरीद-फरोख्त करती है, लेकिन वोटरों के फैसले के खिलाफ हथियारबंद बगावत, संसद पर हमला किस्म की बातें हिन्दुस्तान में कभी देखने में नहीं आतीं। या तो इसके पीछे एक वजह यह है कि यहां वोटरों को प्रभावित करने, और सांसदों-विधायकों को खरीदने की इतनी संभावनाएं हमेशा ही बनी रहती हैं कि नतीजों के बाद बगावत की जरूरत नहीं रहती। लेकिन एक पार्टी की सरकार दूसरी पार्टी की सरकार को सत्ता के हस्तांतरण में किसी हिंसा को बढ़ावा देते कभी नहीं दिखी है। अमरीका और ब्राजील को हिन्दुस्तानी संसदीय व्यवस्था से यह एक पहलू जरूर सीख लेना चाहिए, यह एक अलग बात है कि चुनावी नतीजों को भ्रष्टाचार से खरीद लेने में हिन्दुस्तान को जो महारथ हासिल है, उसे सीखने में दूसरे लोकतंत्रों को खासा वक्त लग सकता है।
अमरीका में ट्रंप एक गंभीर मुकदमे का एक गंभीर खतरा झेल रहे हैं, जिसमें उन्हें सजा तक होने का खतरा है। लेकिन अपने देश में वे सजा भुगतें या न भुगतें, उन्होंने पास के एक दूसरे देश में बगावत की प्रेरणा तो दे ही दी है। हमारा यह मानना है कि ट्रंप ने अमरीका में एक आतंकवादी का काम किया, और दूसरे देशों के लिए वे एक आतंकवादी मिसाल बन भी चुके हैं। दुनिया के गंभीर, सभ्य, और परिपक्व लोकतंत्रों को ऐसी घटिया मिसाल बनने से बचना चाहिए जिससे कि वे खुद तो चाहे उबर जाएं, लेकिन वे दूसरों को डुबाने का इंतजाम कर देते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)