विचार/लेख
फिलीस्तीन तुम्हारे बच्चे
आसमान में उड़ रहे हैं साये-साये बनकर
इस तनी हुई नीली चादर में
अंगुश्त भर भी जगह नहीं
जो उनकी सिहरन छुपा सके
उनकी डोलती आकृतियाँ
टर्टल बे, न्यूयॉर्क के ऊपर
बिना पंजों पर उदास भीमकाय डैनों वाले
परिंदों की तरह छा जाती हैं
कभी वे जिनेवा की साफ अन्त:करण वाली हवा में
किसी फरेब से घुल जाते हैं
दिखते हैं पेरिस की गलियों में एक-दूसरे के पीछे भागते
नई दिल्ली की धुंध भरी सडक़ों पर
हाथ से छूटे गुब्बारों की मानिंद उड़ जाते हैं
वे बेरूत का मलबा हैं
बगदाद की धूल हैं
काबुल की कूक वे,
समरकन्द की सदाएं हैं
वे टोरा के अक्षर हैं
हजरत मूसा की उचटी हुई नींद हैं
यहूदी प्रार्थनाघरों पर रोई हुई शबनम हैं वे
वे हिजरत की रेत, सलीब का सपना हैं
मस्जिदों की जालियाँ
मंदिरों की जोत हैं
फ़लस्तीन तुम्हारे बच्चे,
काहिरा के बादल
कलकत्ते की उमस, टोक्यो के फूल
बीजिंग की रौशनियाँ
इस्तांबुल की कश्तियाँ
भूमध्यसागर का नमक हैं,
गज़़ा के खोखले मकान
बहिश्त तक खुली हुई छतें
बिना पल्लों की खिड़कियाँ
जले हुए पर्दे-कोरे दस्तरख़्वान
जैतून की डालियाँ-ख़ून में डूबी खुबानियाँ हैं
फिलीस्तीन तुम्हारे बच्चे,
उनके कसकर बाँधे हुए जिस्म
उनपर झुकी उनकी माँएँ
जिनके सामने पिएटा भी
मोम के ख्वाब की तरह पिघल जाए
ठिठुर रहे हैं खुले हुए ताबूतों में
ये दुनिया बहुत बड़ी,
मुलायम और सुखमय है फिलीस्तीन
और तुम्हारे बच्चे हैं कि उन्हें
कंटीली घास के बीच अपने खेलने की जगह की ख़ब्त है
उतनी जगह तो अब ख़ुदा के पास भी नहीं बची
फिलीस्तीन,
ईश्वर भी कहीं तुम्हारा ही जना
कोई बच्चा तो नहीं?
-असद ज़ैदी
डॉ. आर.के. पालीवाल
ग्राम स्वराज और आदर्श ग्राम पंचायत के स्वरूप और कार्यशैली को समझने के लिए महात्मा गांधी का यह कथन याद रखना चाहिए कि ‘भारत में ज्यों-ज्यों ग्राम पंचायतें नष्ट होती गई, त्यों त्यों लोगों के हाथ से स्वराज्य की कुंजी निकलती गई। ग्राम पंचायतों का उद्धार पुस्तकें लिखने से न होगा। यदि गांव के लोग समझ जाएं कि वे अपने अपने गांव की व्यवस्था कैसे कर सकते हैं, तभी यह कहा जा सकेगा कि स्वराज्य की सच्ची कुंजी मिल गई।’ इस कथन में गांधी सबसे ज्यादा जोर गांव के लोगों के यह समझने पर देते हैं कि वे अपने गांव की व्यवस्था कैसे करें। महात्मा गांधी ने जिस ग्राम स्वराज की परिकल्पना की थी उसे अब युटोपिया माना जाने लगा है ताकि उसे असंभव कहकर आसानी से दरकिनार किया जा सके। महात्मा गांधी राजनीति में संत थे और संत भी शत-प्रतिशत।सत्य और अहिंसा सहित एकादश व्रतधारी आदर्श व्यक्ति। इसलिए उनकी परिकल्पना चाहे ग्राम स्वराज को लेकर हो या आजादी के आंदोलन के स्वरूप अथवा संपत्तियों के ट्रस्टीशिप को लेकर हो वह आदर्श के सर्वोच्च संस्कारों पर ही आधारित होती थी। इन परिकल्पनाओं को तभी साकार किया जा सकता है जब देश के अधिकांश नागारिक भी कमोवेश वैसी ही उच्च कोटि के संस्कारी नागरिक हों जैसे गांधी खुद थे और जैसा वे तमाम नागरिकों को बनाना चाहते थे।
गांधी चाहते थे कि भारत के गांव में इतनी एकता हो कि वे उसी तरह एक यूनिट की तरह व्यवहार करें जैसे एक संयुक्त परिवार होता है और जैसे एक आश्रम होता है। वे ग्राम स्वराज में सरकार और अपने सहयोगियों की भूमिका उत्प्रेरक और सहायक के रुप में देखते थे जो ग्रामवासियों को जागरूक करके उन्हें ग्राम स्वराज स्थापित करने में सहायता करें।जमीनी हकीकत यह है कि आजादी के बाद किसी सरकार और गांधी के बाद विनोबा और उनके चंद सहयोगियों एवं अनुयायियों को अपवाद स्वरूप छोडक़र अधिकांश गांधीवादियों ने इस दिशा में कोई ठोस जमीनी कार्य नहीं किया। उल्टे आजादी के बाद पिछ्ले पचहत्तर सालों में गांव ग्राम स्वराज की परिकल्पना से लगातार दूर होते चले गए और उस सीमा तक दूर हो गए जहां गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को हकीकत में देखना लगभग असंभव हो गया है। आदिवासी गांवों के अलावा लगभग सभी गांवों में नेताओं ने धर्म और जातियों की इतनी खाई बना दी हैं कि गांव वाले एक यूनिट के रुप में एक साथ उठते बैठते तक नहीं।
ग्राम पंचायत और ग्राम स्वराज किताबों, लेखों और भाषणों में ही सिमट कर रह गए।इस मुद्दे पर गांधीवादी संस्थाएं बुरी तरह फेल हुई हैं। इन संस्थाओं और उनके पदाधिकारियों के महानगर और शहरों में केंद्रित होने से उनका गांवों से कोई जुड़ाव ही नहीं बचा। जिस तरह की ग्राम पंचायतों की कल्पना गांधी ने की थी उसकी हल्की सी झलक भी गांवों में दिखाई नहीं देती। इसकी सबसे बड़ी बाधा तो सरकार और विधायिका एवं कार्यपालिका में बैठे उसके प्रतिनिधि और नौकरशाही हैं जो ग्राम पंचायतों को अपने इशारों पर नचाने के लिए तमाम आर्थिक और प्रशासनिक अधिकारों पर अजगर की तरह कुंडली मारकर बैठे गए और अपनी पकड़ को और मजबूत करते जा रहे हैं। दूसरी बाधा ग्राम समाज की सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विपन्नता और विषमता है। गांव के जो परिवार सामाजिक, आर्थिक,राजनैतिक और बौद्धिक रूप से समृद्ध हैं वे भी खुद को नेताओं और अफसरों की तरह छोटे मोटे देवता से कम नहीं समझते और सरकार के नुमाइंदों के साथ सांठ-गांठ कर ऐसा चक्रव्यूह रचते है जिसे भेदना अधिसंख्य ग्रामीण आबादी के लिए असंभव है। जब तक कोई बड़ा जन जागरण अभियान शुरु नहीं होगा तब तक ग्राम स्वराज का सूर्योदय मुश्किल होता जा रहा है।
रश्मि सहगल
उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का धंसना और उसमें 41 मजदूरों का फंस जाना तमाम सवालों को जन्म देता है। हिमालयीन इलाके में ढीली चट्टानों और मिट्टी से बने ये पहाड़ पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील तो हैं ही लेकिन इनके साथ सावधानी से पेश न आने के कैसे खतरे हो सकते हैं, यह बार-बार के हादसों ने बताया है। इन इलाकों में न तो विकास रुकने वाला है और न हादसे, लेकिन इनके बीच संतुलन कैसे बनाया जाए, इस सवाल के साथ सिल्कयारा सुरंग हादसा हमारे सामने है। सोचना नीति निर्धारकों को है।
बडक़ोट-सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकालने में, काफी देर से ही सही, तमाम एजेसियों और देशी-विदेशी विशेषज्ञों को लगना पड़ा, उससे ही समझा जा सकता है कि इस किस्म की दुर्घटना से निबटने की तैयारी पहले से नहीं थी। मतलब, निर्माण एजेंसियों ने बचाव की सूरत का प्लान ही नहीं बनाया था।
सिर्फ जानकारी के लिए कि आखिरकार, किस-किस स्तर के अधिकारियों-कर्मचारियों को इसमें जुटना पड़ा: पीएमओ, वायु सेना, एनएचआईडीसीएल, ओएनजीसी, डीआरडीओ, बीआरओ, रेल विकास निगम, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल, राज्य आपदा प्रतिक्रिया बल प्राधिकरण, सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड (एसजेवीएनएल), टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (टीएचडीसी), इसरो, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसी तमाम सरकारी एजेसियों से लेकर ट्रेंचलेस इंजीनियरिंग प्राइवेट लिमिटेड और एलएंडटी सेफ्टी यूनिट सहित कई निजी एजेंसियों को भी।
मजदूरों को निकालने के अभियान की देखरेख में तो राष्ट्रीय राजमार्ग एवं बुनियादी ढांचा विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) जुटना ही था क्योंकि यह चार धाम परियोजना को पूरा करने से जुड़ी प्रमुख एजेंसी है। ध्यान रहे कि एनएचआईडीसीएल ने बरकोट-सिल्कयारा सुरंग की इंजीनियरिंग, खरीद और निर्माण के लिए जून, 2018 में हैदराबाद स्थित नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड (एनईसीएल) के साथ 853.79 करोड़ रुपये के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे।
लगता है या तो दुर्घटना की स्थिति से निबटने के लिए जो प्लान बनाया भी गया था, उस पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई थी। दुर्घटना 12 नवंबर को दीपावली के दिन हुई। अमेरिकी ऑगुर मशीन लगाई गई लेकिन यह 16 नवंबर को खराब हो गई। एनएचआईडीसीएल के निदेशक अंशू मनीष खलको के अनुसार, 16 नवंबर को खराब हो गई अमेरिकी ऑगुर मशीन को मरम्मत करके फिर से काम में लगाया गया। ऑगुर मशीन से 900 मिलीमीटर स्टील पाइप में ड्रिल करके इसमें 800 मिलीमीटर पाइपों को डालकर अतिरिक्त मजबूती प्रदान करते हुए सिल्क्यारा की ओर से क्षैतिज ड्रिलिंग का काम फिर से शुरू किया गया। ढहे हुए हिस्से सिल्क्यारा से सुरंग के मुहाने की दूरी 270 मीटर बताई गई। 17 नवंबर को पहले वाले ऑपरेशन को छोड़ दिया गया था क्योंकि मशीन रास्ते में कठोर पत्थर आ जाने से क्षतिग्रस्त हो गई थी।
बचाव अभियान जिस तरह चलता रहा, उससे ही समझा जा सकता है कि बचाव के लिए एक के बाद दूसरे विकल्प पर बार-बार जाना पड़ा, मतलब यह कि किसी को अंदाजा ही नहीं था कि फंसे मजदूरों तक पहुंचने का सुगम और सुरक्षित तरीका क्या है। टीएचडीसी को बारकोट छोर से ड्रिलिंग कार्य शुरू करने के लिए कहा गया और ड्रिल और ब्लास्ट विधि का उपयोग करके वे 6.5 मीटर लंबी खुदाई करने में सफल रहे। एसजेवीएनएल द्वारा क्रियान्वित तीसरी योजना सुरंग के ऊपर पहाड़ी से सीधी ड्रिलिंग की थी। इस ऑपरेशन के लिए एक ड्रिलिंग मशीन 21 नवंबर की शाम को साइट पर पहुंची। इस प्रक्रिया में मदद के लिए ओएनजीसी के विशेषज्ञों को बुलाया गया। गुजरात और ओडिशा से अतिरिक्त मशीनें भेजी गईं। सुरंग की बाईं ओर से माइक्रो-ड्रिलिंग भी चालू कर दी गई।
इस ऑपरेशन में तमाम एजेंसियां सक्रिय रहीं, इसके बावजूद शुरू से ही किसी के पास बचाव कार्य को लेकर सही आकलन नहीं था। सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने मौके पर ही आकलन करने के बाद कहा था कि इसमें दो से तीन दिन लगेंगे। जनरल वी.के. सिंह (सेवानिवृत्त) ने भी यही समय सीमा दोहराई। जबकि प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार भास्कर खुल्बे ने एक अनौपचारिक बातचीत के दौरान प्रेस को बताया था कि इसमें लगभग ‘पांच से सात दिन लगेंगे।’ उत्तराखंड के सडक़ परिवहन सचिव ने कहा था कि इसमें 15 दिन या उससे भी अधिक समय लग सकता है। अतिरिक्त सहायता के लिए उत्तरकाशी भेजे गए ऑस्ट्रेलियाई सुरंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स ने तो स्थानीय पत्रकारों से यह कह दिया कि बचाव अभियान क्रिसमस तक जारी रह सकता है।
कुछ भारतीय सुरक्षा विशेषज्ञ डिक्स की विशेषज्ञता को लेकर खुद ही आशंकित थे। दरअसल, उसकी विशेषज्ञता का क्षेत्र सुरंगों में अग्नि सुरक्षा और वायु गुणवत्ता का रहा है। गडकरी, सिंह और डिक्स- सभी ने टिप्पणी की कि ये पहाडिय़ां ‘ढीले पत्थर और कीचड़’ से बनी हैं जो सुरंग और सुरंग बनाने वालों के लिए खतरनाक हैं। यह सब तब कहा गया जब वहां हादसा हो चुका था। लेकिन क्या यह बात तब सामने नहीं आई थी जब योजना ड्राइंग स्तर पर थी? क्या हिमालय की नाजुक संरचना को ध्यान में नहीं रखा गया?
सिल्क्यारा सुरंग के बाहर इक_ा श्रमिकों, उनके परिवार के लोगों समेत आम लोगों के मन में यह सवाल पहले दिन से ही उठता रहा कि नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी (एनईसी) किसी भी आपात स्थिति में निकलने के लिए एक वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध कराने में विफल रही है जबकि सुरंग निर्माण के मामले में यह अनिवार्य होता है।
देहरादून स्थित कांग्रेस प्रवक्ता सुजाता पॉल ने कहा, ‘इतनी लंबी सुरंग में न केवल सुरक्षा नलिका और आपात स्थिति में निकलने का रास्ता नहीं था बल्कि एनईसी और एनएचआईडीसीएल ऐसी आपात स्थिति के लिए कोई सुरक्षा योजना तैयार करने में भी विफल रहे। हादसे के वक्त घटनास्थल पर सिर्फ एक जेसीबी थी। ऑगुर की दो मशीनें खराब हो गईं और तीसरी इंदौर से मंगवानी पड़ी।’
आपराधिक लापरवाही के लिए एनईसी के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की गई है। जब दुर्घटना स्थल पर मौजूद बड़े लोगों से इसका कारण पूछा गया, तो उन्होंने सवाल को टाल दिया और जोर देकर कहा कि फिलहाल तो उनका ध्यान यह सुनिश्चित करना है कि मजदूर सुरक्षित और स्वस्थ बाहर निकाले जाएं।
देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीना पॉल ने इस बात पर जोर दिया कि ‘उत्तराखंड की सुरंगें मौत का जाल बन गई हैं। कुछ दिन पहले ही सहारनपुर को देहरादून से जोडऩे वाली डाट काली सुरंग को भूस्खलन की वजह से कुछ देर के लिए बंद कर दिया गया था और तीन घंटे तक सुरंग में फंसे रहे यात्रियों ने दम घुटने और सांस फूलने की शिकायत की थी।’
सिल्क्यारा सुरंग में आपात रास्ता क्यों नहीं था? जब सरकार ने फरवरी, 2018 में सुरंग परियोजना को मंजूरी दी, तो उसने साफ कहा था कि इसमें ‘सुरक्षा वैकल्पिक मार्ग’ होगा। देहरादून स्थित एनजीओ समाधान ने उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर सिल्कयारा सुरंग के निर्माण में बड़ी सुरक्षा चूक के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ लापरवाही का आपराधिक मामला दर्ज करने की मांग की है। कोर्ट ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को कहा है।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के पूर्व निदेशक डॉ पी.सी. नवानी ने स्पष्ट रूप से कहा कि ऐसी बड़ी परियोजनाओं के लिए सुरक्षा रास्ता बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। वे न केवल जीवन बचाने और बचाव कार्य को सुविधाजनक बनाने में मदद करते हैं, बल्कि सुरंग के अंदर साजो सामान और अन्य आपूर्ति पहुंचाने में भी मददगार होते हैं। नवानी ने इस बात पर भी जोर दिया कि सुरंग निर्माण के लिए इंजीनियरिंग भूवैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ टीम के इनपुट की जरूरत होती है लेकिन यह काम उन ठेकेदारों को सौंप दिया जाता है जिन्हें संबंधित इलाके की बेहतर जानकारी नहीं होती और वे सभी तरह के शॉर्टकट अपनाने को तैयार होते हैं।
दुनिया भर में सडक़, रेल और जलविद्युत परियोजनाओं में सुरंगें जरूरी हिस्सा होती हैं। यही बात भारत के लिए भी लागू होती है लेकिन यह देखते हुए कि हिमालय पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है, किसी भी सुरंग के निर्माण में उचित सावधानी अपेक्षित और जरूरी हो जाती है। यह देखते हुए कि हिमालय के पहाड़ नरम चट्टानों से बने हैं, ये रेल सुरंगें भला किस तरह की सुरक्षा का आश्वासन दे सकती हैं? 16,000 करोड़ रुपये की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना के तहत 17 सुरंगें बननी हैं जिनमें 15.1 किलोमीटर लंबी सुरंग भी शामिल है जो भारत में सबसे लंबी सुरंग होगी। सिल्कयारा दुर्घटना को देखते हुए इस रेल लिंक का सुरक्षा ऑडिट जरूरी हो जाता है।
2020 में एनईसी समेत अन्य निजी कंपनियों को इनमें से कुछ रेल सुरंगों के निर्माण का ठेका दिया गया था। यह भी गौर करने की बात है कि एनईसी का सुरक्षा ट्रैक रिकॉर्ड अपने आप में संदिग्ध है। इस बात का खुलासा हाल ही में तब हुआ जब समृद्धि एक्सप्रेस-वे पर पुल निर्माण में इस्तेमाल की जाने वाली मोबाइल गैन्ट्री क्रेन के गिर जाने से 15 मजदूरों की मौत हो गई जबकि एक इंजीनियर और पांच अन्य कर्मचारी मलबे में फंस गए। यह हादसा 1 अगस्त, 2023 को ठाणे जिले के शाहपुर तहसील में हुआ। समृद्धि एक्सप्रेस-वे के पहले चरण का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिसंबर, 2022 में किया था। यह दुर्घटना तीसरे चरण के दौरान हुई। तब एनईसी द्वारा काम पर रखे गए उप-ठेकेदारों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। (हैदराबाद स्थित कंपनी को चंद्रबाबू नायडू का करीबी माना जाता है। जब 2019 में आंध्र प्रदेश में सत्ता बदली, तो नए मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने राज्य में एनईसी को दिए गए कई अन्य ठेके रद्द कर दिए।)
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली उत्तराखंड सरकार ने बयान जारी कर कहा है कि चार धाम परियोजना के तहत प्रस्तावित सभी सुरंगों का पुनर्मूल्यांकन अगले छह महीनों में किया जाएगा। लेकिन जब तक इसमें विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया जाता, इस तरह के पुनर्मूल्यांकन से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होने जा रहा। सवाल यह है कि क्या वे देहरादून को टिहरी से जोडऩे वाली दुनिया की सबसे लंबी सडक़ सुरंग के निर्माण जैसी योजनाओं की वैधता की भी समीक्षा करेंगे?
इन रेल सुरंगों के पर्यावरणीय प्रभाव की भी नए सिरे से समीक्षा की जरूरत है। प्रसिद्ध भूविज्ञानी और भूकंप विशेषज्ञ डॉ. सी.पी. राजेंद्रन कहते हैं, ‘ऐसा माना जाता है कि सुरंगों के निर्माण से पर्यावरण पर पडऩे वाले असर को कम किया जा सकता है। जबकि सच्चाई यह है कि सतह के भीतर इस तरह की संरचनाओं की वजह से पर्यावरण को कहीं भारी नुकसान हो सकता है जिसमें यातायात से होने वाले प्रदूषक तत्वों का ऐसी सुरंग में इक_ा होते जाना शामिल है जहां सूरज की रोशनी भी नहीं होती।’
राजेंद्रन कहते हैं, ‘ट्रेनें अब बेशक बिजली से चलती हों और इससे प्रदूषण नहीं होता हो। लेकिन जब बात सुरंगों की आती है तो ट्रेन की आवाजाही के दौरान लगातार उत्पन्न होने वाला कंपन एक बड़ा खतरा होता है और इससे पहाड़ की ढलान अस्थिर हो जाती है और कोई मामूली सा कारक भी इसे भूस्खलन के प्रति संवेदनशील बना देता है। समस्या और भी बड़ी इसलिए हो जाती है कि सुरंगों को बनाने के दौरान किए गए विस्फोट से चट्टानें पहले से ही कमजोर हो गई होती हैं। नतीजतन बार-बार छोटे-बड़े भूस्खलन होते हैं। इसके साथ ही निर्माण के दौरान भारी मात्रा में चट्टानी अपशिष्ट निकलते हैं जिससे भूमिगत जल पर स्थायी असर पड़ता है और जल स्तर में गिरावट हो जाती है। तमाम सुरंग निर्माण क्षेत्रों का यही अनुभव है।’
अत्यधिक सडक़ और रेल सुरंग निर्माण हिमालय में चल रही बड़े पैमाने पर निर्माण गतिविधि के सबसे खतरनाक पहलुओं में से एक है। वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए गए ग्राफ से पता चला है कि पिछले पांच सालों में उत्तराखंड में भूस्खलन के मामले 2,900 फीसदी तक बढ़ गए हैं। भूस्खलन कई कारकों पर निर्भर करता है और इनमें चट्टान की प्रकृति, उनकी क्षमता और इस्तेमाल किए गए विस्फोट तरीके शामिल होते हैं। चट्टानों का भूविज्ञान और उनके भीतर विखंडन की प्रकृति पर विचार करना जरूरी होता है।
सिल्क्यारा सुरंग संकट में पहाडिय़ों की अस्थिरता बिल्कुल साफ हो गई है। जैसे ही विशेषज्ञों ने मलबे में खुदाई की, कंपन के कारण भूस्खलन हुआ जिससे बचाव कार्य में देरी हुई। इस अफसोसनाक हादसे में अकेली राहत यह रही कि अधिकारी छह इंच की पाइपलाइन के लिए खुदाई करने में कामयाब रहे जिसके जरिये फंसे हुए मजदूरों को भोजन, फल, अवसाद रोधी दवाएं वगैरह भेजी जा सकीं। एंडोस्कोपिक कैमरा भी लगाया गया ताकि मजदूरों की तस्वीरें झारखंड, बंगाल, ओडिशा, बिहार, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में उनके परिवारों तक पहुंचाई जा सकें।
एक और राहत की बात यह रही कि सुरंग में बिजली बंद नहीं की गई और श्रमिकों के पास घूमने के लिए लगभग 1.5 किलोमीटर की जगह थी। बहरहाल, बचाए जाने का इंतजार कर रहे मजदूरों के लिए ये छोटी-छोटी राहतें इस मुश्किल समय को काटने में बड़ी मददगार साबित रही होंगी। (navjivanindia.com)
स्मिता
‘न कोई इस पार हमारा,
न कोई उस पार.......’
शैलेंद्र
डहरुराम किसी सुदूर छत्तीसगढ़ के गांव में ही थोड़े न मिलते है, वह बिहार या यू पी या राजस्थान के गांव में भी मिल जाएंगे।
डहरुराम के माई ने 6-6 बच्चा जना है । अब जितने हाथ, उतने काम ,उतना पइसा ।
फिर बीमारी हारी में भी तो लइका बच्चा मर जावत है। सो नाम ल बिगाड़ कर रख दे हे, ‘डहरुराम’
मान्यता है, भगवान भी बिगड़े नाम के बाबू को नहीं ले जावत है ।
फिर राम भी तो लगा दिए न बचाने को .... राम नाम तो सबको बचा लेत है लोकलाज के डर से अपनी पत्नी को नहीं बचा पाए तो क्या ?
‘डहरु’, को का पता कि नाम ही जी का जंजाल बन जाई ।
आधार में अलग नाम और जमीन के टुकड़े में अलग नाम । पिछले बरस सूखा में सारा फसल तो जल के नुकसान हो गए । रोज रात में अंतडिय़ों में ऐसी मरोड़ उठे है कि पूछो मत ।
रोज बैंक के सामने ‘डहरु’ उखड़ू हाथ जोड़ के बैठ जावत है ।सब गांव वाले को फसल बीमा का पैसा मिल गया है । बाबू साहब मोर खाता में पइसा कब आही?
अब आधार में तुम्हर नाम ‘डाहरु राम’ काहे लिखा दिये हो?
ऑनलाइन पोर्टल में अलग अलग नाम नहीं एक्सेप्ट करय, टेक्नोलॉजी के जमाना है भाई ..
तो काहे बुला के न सुधरवा लिये साहेब । हम तो फसल बीमा के पइसा न मिलब तो मर जाई जीते जी ।
अबके सरकार तो बोली रहे न , बीमा का पइसा मिली । हम तो बीमा का उ का कहिथे, प्रीमियम भी जमा किये रहे ।
अब इ ‘अ’का मात्रा ‘आ’ का मात्रा हमको कहाँ समझ में आत है साहब ।
पेट को तो अन्न का दाना और खेत को बीज/खातू समझ म आवत हे साहब
अब कहाँ से हम नांगर चलाई , निंदायी बोआई करी । अक्षर पढ़ लेते तो, काहे ये सब करते ?
साहब कैसे भी करके हमर पइसा दिलवा दो ...अब मां की कसम खाते है जो डहरु को कोई डाहरु बोला तो, जबान खींच लेंगे हम उका ..
अब जाओ बे, वकील करो, फोरम जाओ । सरकार को गुहार लगाओ ।
सुने है अब डहरु ओ ठाकुर वकील के ज़मीन में मजूरी कर रहा है ।
(गलती से अगर किसानों के खसरा और आधार कार्ड में नामान्तर हो गया हो तो उन किसानों को फसल बीमा का लाभ नहीं मिलता है । इसमें करेक्शन करवाना, बैंक की जवाबदेही होती है । लेकिन इस छोटी सी तकनीकी खामी से हज़ारों किसान फसल बीमा के लाभ से वंचित हो रहे है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। )
विष्णु नागर
खबर है कि एनसीआरटी की किताबों में रामायण और महाभारत के प्रसंग शामिल होंगे।यह कहना तो बेकार है कि कुरान, बाइबिल के प्रसंग भी शामिल कर लेते।
गुरुग्रंथ साहिब के प्रसंग भी जोड़ लेते।कबीर भी पढ़ा देते। बेकार है ये बातें इनके आगे मगर बेकार बातें भी कर लेना चाहिए।केवल ‘कार’ बातों से कुछ होता नहीं।ये भी बताना बेकार है कि संविधान के अनुसार भारत की और प्रदेशों की सरकारें धर्मनिरपेक्ष देश की सरकारें हैं।मगर संविधान इनके लिए शपथग्रहण की सुविधा मात्र है!
और जो रामायण -महाभारत पढ़वाएंगे, क्या उन्होंने भी इन्हें पढ़ा है?वैसे ये भी बेकार का सवाल? है।इनके संस्कार, इनकी कूढ़मगजी तो कुछ और ही संकेत देती है।वह तो संकेत देती है कि इनका पढऩे से दूर- दूर का संबंध नहीं।संघ के , तथाकथित ‘बौद्धिक ’ से आगे इनकी गति -मति नहीं।जरा इनकी भाषा, इनके कारनामे देखिए! एक भी अक्ल की बात इन्हें सुहाती है?
लेकिन यह सुझाव इनके काम आ सकता है कि इन्हें तो मालूम होगा कि ये हमेशा के लिए भारत पर राज करने आए हैं मगर भारत की जनता को? यह नहीं मालूम। इसलिए छह महीने बाद आम चुनाव होने जा रहे हैं, तब जनता से पूछकर एक बार देख लेना कि वह इनकी कूढ़मगजी और पुलिस राज को कितना और सहने को तैयार है?बाकी तो सब जयश्री राम है! क्यों जी है न!
सच्चिदानंद जोशी
दिवाली आते ही साफ सफाई का भूत सबके सिर पर सवार हो जाता है। हर बार घर का ज्यादा दिखने वाला सामान बाहर निकालने का संकल्प लिया जाता है। एक दो दिन उत्साह से काम भी किया जाता है और बाद में ये संकल्प अगली दिवाली तक के लिए मुल्तवी कर दिया जाता है। दो चार दिन लगातार छुट्टियां आ जाएं और पतिदेव घर पर मिल जाए तो फिर टांड ( जी हां आधुनिक भाषा में उसे द्यशद्घह्ल कहते हैं) या पलंग में बने बक्सों की सफाई का अतिरिक्त काम भी हाथ में लिया जाता है।
इस बार भी दो दिन की छुट्टियां साथ आ जाने से श्रीमती जी को पलंग के नीचे बक्से को खोलने का समय मिल गया। ये बक्से यानी पुरातत्व संरक्षण विभाग के गोदाम की तरह होते हैं। इन्हे खोलें तो ना जाने आपको क्या क्या मिल जाए। इन्हे खोलना यानी हड़प्पा , मोहन जो दारो की खुदाई करने जैसा है।
इनमे से एक बक्से में से दो बड़ी बड़ी गठरियां निकली। पुरानी साड़ी की गठरियाँ थी।
‘अरे ये मेरी साडिय़ां हैं। अब तो ये पहनी ही नहीं जाती। मैं तो ऊब चुकी हूं इन्हे पहन पहन कर। मै तो सब किसी किसी को दे देना चाहती हूं। ’ श्रीमती जी बोली। आगे का खतरा मैं भांप चुका था। यानी अब मेरी जिम्मेदारी सिर्फ बक्सा खोलने तक ही नहीं थी। मुझे गठरियां भी खोलनी थी।
मैने चुपचाप गठरियां खोली और आगे के आदेश का इंतजार करता रहा।
‘देखो हम इनमे से सॉर्ट आऊट कर लेते हैं कौन सी रखनी है और कौन सी देनी है। ‘आगे का फरमान आया। अब ‘ हम’ शब्द का तो कोई मतलब नहीं था। चयन उन्ही को करना था , अपन को तो सिर्फ हां में हां मिलानी थी।
तभी घड़ी ने दस बजाए। घंटो का घनघनाना था कि श्रीमती जी को याद आया ‘अरे भगवान दस बज गए। अभी तो खाना बनना शुरू भी नहीं हुआ है। ‘श्रीमती जी हड़बड़ाकर बोली। ‘ऐसा करो तुम साडिय़ां छांट लो। वैसे भी मैं तुमसे पूछकर ही साड़ी पहनती हूं। मैं तब तक दाल सब्जी छौंक कर आती हूं। ’
यानी अब सारी सफाई का दारोमदार हम पर ही था। दाल सब्जी छौंकने में श्रीमती जी को दो घंटे से कम तो लगने वाले नही थे। पूरे दो घंटे लगा कर साडिय़ां छांटी गई। जो साडिय़ां मेरी नजर में एकदम बेकार या देने लायक थी वे अलग रखी गईं और जो मुझे पसंद थी वे अलग रखी गई। कुछ साडिय़ों से मुझे विशेष प्रेम था वे अलग रखी गई।जो साडिय़ां देने के लिए रखी गई उनका ढेर बड़ा हो गया और दूसरा रखने वाली साडिय़ों का ढेर छोटा।
दो ढाई घंटे बाद श्रीमती जी लौटी तो काम की प्रगति देख खुश हुई। छोटा ढेर देख कर बोली ’ बस इतनी सी ही रिजेक्ट कर पाए। मैं होती तो एक दो को छोड़ कर पूरी रिजेक्ट कर देती।’ फिर उन्हें समझना पड़ा कि जिसे वह रिजेक्टेड माल समझ रहीं है दरअसल वही रखना है ,बाकी रिजेक्टेड वाला ढेर तो बड़ा है।
‘चलो ठीक है एक काम तो हुआ। मैं तो इनकी तरफ देखूंगी भी नही वर्ना मुझे इनमे से कुछ को रखने का मोह हो जाएगा। ‘श्रीमती जी ने कहा और मैने राहत की सांस ली कि चलो एक काम तो उनके हिसाब से संतोषजनक हुआ। इस संतोष के आनंद को महसूस ही कर रहा था कि श्रीमती जी एक साड़ी उठा कर बोली ’ अरे ये क्या किया , ये तो मेरी बहुत प्यारी साड़ी है, मां ने दी थी जब मेरी नौकरी लगी थी। ‘उन्होंने वह साड़ी उस छोटे ढेर में रख दी जो वापिस बक्से में जानी थी। फिर उसके बाद दूसरी , तीसरी , चौथी वे साडिय़ां निकलती जा रही थी और हर साड़ी की कहानी सुनाती जा रही थी।पहली कमाई की साड़ी, मां की दी पहली साड़ी , दीदी की साड़ी, पहली बार मुंबई जाकर खरीदी साड़ी, पहली साड़ी नल्ली सिल्क की, पहली साड़ी कुमारन सिल्क की, मैने दी हुई पहली साड़ी, पहली बार हम मिले वो साड़ी, मसूरी घूमने गए वो साड़ी , बुआ जी ने खुश होकर दी गई साड़ी , मौसी जी ने खीज कर दी हुई साड़ी। न जाने कितनी कहानियां।बड़े ढेर से एक एक साड़ी निकाल कर छोटे ढेर में डाली जा रही थी और छोटा ढेर बड़ा होता जा रहा था।
तभी मेरी नजर एक साड़ी पर पड़ी जो एक पैकेट में पैक बंद पड़ी थी।
‘अरे ये पैक बंद है , इसे तो खोला भी नही कभी। ’ मैने कहा।
‘उसे वैसे ही रहने दो। ’ श्रीमती जी की आंखो में आंसू थे,। वो अपनी रो में बोले जा रही थीं, ’ स्कूल की फेयर वेल पार्टी थी। मां की साडिय़ां पुराने जमाने की थी इसलिए भाभी से उनकी नई साड़ी मांग ली। भाभी ने साफ मना कर दिया। कहने लगी बच्चों को नही दूंगी साड़ी खराब करने के लिए। मन बहुत खराब हो गया।
पड़ोस की पुष्पा भाभी से मेरी बहुत छनती थी
उन्होंने मुझे मायूस देखा तो झट अपनी नई कोरी साड़ी निकाल कर दे दी।स्कूल में पहनी तो सबने बहुत तारीफ की। लेकिन वापिस आते समय एक हादसा हुआ । आपसी धक्का मुक्की में साड़ी टेबल में अटक कर फट गई। घर आई तो बहुत डर रही थी। डरते डरते पुष्पा भाभी को बताया। वो हंस कर बोली ‘अरे इतना परेशान क्यों होती हो , साड़ी तो मुझसे भी फट सकती थी। ‘उन्होंने कहा और वह साड़ी मुझे ही दे दी। । मेरे मन पर बोझ था। मैने अपनी पॉकेट मनी और स्कॉलरशिप के पैसे बचा कर पुष्पा भाभी के लिए साड़ी खरीदी और उन्हें देने के लिए रखी। भाभी डिलिवरी के लिए अपने मायके आगरा गई थी। मैं उनका इंतजार करती रही लेकिन भाभी लौटी ही नहीं । पता चला डिलिवरी के दौरान ही उनकी डेथ हो गई। तब से ये साड़ी ऐसे ही पैक बंद रखी है। ’
वातावरण थोड़ा भारी हो गया था। साडिय़ों के ढेर को व्यवस्थित करने के बहाने जब मैने एक और साड़ी को करीने से रखने की कोशिश की तो श्रीमती जी बोली ‘ये साड़ी याद है ना। इसी में विदा करा कर लाए थे आप। ’ उस साड़ी को मैं भला कैसे भूल सकता था। तभी उस ढेर में से एक सूती चादर नुमा साड़ी भी निकली। जिसे देख कर हम दोनो ही हंस पड़े । ‘याद है न इस साड़ी को ओढ़ कर सोना पड़ा था आपको शादी की रात। श्रीमती जी बोली।
‘कैसे भूल सकता हूं। अजीब रिवाज था तुम लोगो का। आज विदा नही होगी।दूल्हे को भी रुकना पड़ेगा। अरे भाई रोका तो बेचारे को ढंग से ओढऩे बिछाने को तो देते। उस हाल में बाकी सब तो अपना बिछा ओढ़ कर सो गए। दूल्हा बेचारा ठंड के मारे कुडकुड़ा रहा है। आखिर तारा बाई को दया आई और उसने ये साड़ी चौघडी करके मेरे बदन पर डाली। ’ शादी की रात के मेरे जख्म हरे हो गए।
बात बात में रिजेक्ट होने वाला पूरा ढेर अपना पाला बदल चुका था ।
‘अरे ये क्या हुआ । हम तो कोई भी साड़ी रिजेक्ट नही कर पाए। लेकिन क्या करें , हर साड़ी के साथ कोई न कोई यादगार जुड़ी है। फेंकने का मन ही नही होता।।’
मेरी दो ढाई घंटे की मेहनत पर पानी फिर रहा था। तभी एक कोने में पड़ी साडिय़ों को देखकर श्रीमती जी बोली ‘अरे वो कौन से साडिय़ां हैं ये तो मैने देखी नही। किसी ने ऐसे ही दी होंगी। बहुत पुरानी भी हो गई हैं। इन्हे चाहें तो रिजेक्ट कर सकते हैं। ’
‘ये साडिय़ां मैने अलग रखी हैं। जहां इतनी साडिय़ां रखी हैं ये तीन और रख लो। ’ मैने कहा।
‘रख लेंगे , लेकिन ये हैं किसकी।’
‘ये मेरी दादी की साड़ी है। पिताजी इसे हमेशा अपने ट्रंक में सबसे नीचे तहा कर रखते थे। एक बार पूछने पर बताया था उन्होंने कि ये साड़ी रहती है तो दादी पास होने का अहसास बना रहता है।’
‘और ये दूसरी?’ श्रीमती जी ने पूछा ।
‘ये मेरी प्यारी ताई जी की साड़ी है जो उन्होंने मेरे जनेऊ में पहनी थी। मेरा और दादा का जनेऊ साथ हुआ था न, तो मेरे संस्कार ताऊ जी ताई जी ने किए थे। ताई जी मजाक में बोली’ मैं आज से तेरी मां बन गई। ‘वो बहुत प्यार करती थी मुझे। उसके कुछ दिन बाद मैं उनसे मांग कर ये साड़ी ले आया था।’
एक और साड़ी कोने में पड़ी थी उपेक्षित सी।
‘ये भी आपने ही सहेज कर रखी होगी। ये किसकी की है?’श्रीमती जी की पूछताछ जारी थी।
‘जहां ये सारी साडिय़ां रखी हैं , इसे भी पड़ी रहने दो।’ मैने उस साड़ी को भी उसी ढेर में मिला दिया और खोली गठरियों को फिर से बांधने लगा। श्रीमती जी भी उन गठरियों को बांधने में मदद कर रही थीं।
‘आपने बताया नही वो आखरी साड़ी किसकी थी।’ गठरी की गांठ बांधते हुए उन्होंने पूछा। मैने उनकी बात को अनसुना कर दिया। क्या बताता , जिसके लिए खरीदी थी वह तो हजारों मील दूर ह्यूस्टन में अपने परिवार के साथ अपनी दुनिया में रम चुकी थी।
‘ दो बज गया , चलो खाना खाते हैं। ’
मैने कहा और गठरी की गठान कस कर बांध दी।
सफाई के उत्साह में तो हम भूल ही गए थे कि साड़ी यानी सिर्फ साढ़े पांच मीटर का कपड़ा नहीं है । वह तो यादों का , परंपराओं का ,इतिहास का संस्कारों का बहुत बड़ा भंडार है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
देश के संविधान ने हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था दी है हालांकि हमारा इतिहास और संस्कृति आदि काल से मुख्यत : अलोकतांत्रिक रही हैं। जिस तरह से यूरोप और अमेरिका में लोगों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात किया है उस तरह भारत और एशिया के लोगों ने नहीं किया। यही कारण है कि लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने न अपने दलों में आंतरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम की है और न ठीक से देश के नागरिकों को लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाभ लेने दिया है। निश्चित रूप से राजनीतिक दल इसके लिए जितने जिम्मेदार हैं हम भारत के नागारिक भी इस बदहाली के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं।
सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की बात करें तो लोकतंत्र के मंदिर में जवाहर लाल नेहरू के समय हल्की फुल्की घुन शुरु हो गई थी जिसके चलते सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद और डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे ऊंचे कद के जमीनी नेताओं की जगह कृष्णा मेनन जैसे हवाई नेताओं को ज्यादा अहमियत दी जाने लगी थी। उसी के चलते राम मनोहर लोहिया जैसे नेता को अलग पथ चुनना पड़ा था।इंदिरा गांधी तक पहुंचते पहुंचते कांग्रेस लोकतंत्र का बुरा हाल कर चुकी थी। कभी गांधी नेहरू के करीबी रहे वयोवृद्ध जयप्रकाश नारायण को आपात काल की अलोकतांत्रिक कुव्यवस्था को बदलने के लिए ही समग्र क्रांति का आव्हान करना पड़ा था।आज स्थिति यह है कि राजीव गांधी परिवार के तीनों जीवित सदस्य ही कांग्रेस के सर्वे सर्वा हैं। यही कारण है कि प्रियंका गांधी जो न कांग्रेस संगठन में किसी महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन है और न किसी वार्ड की पार्षद तक हैं, वे कांग्रेस के हर पोस्टर में मौजूद रहती हैं। वर्तमान कांग्रेस की अलोकतांत्रिक परंपरा का यह अपने आप में अकाट्य प्रमाण है।
जहां तक भारतीय जनता पार्टी का प्रश्न है वह अटल बिहारी बाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी के जमाने तक काफी हद तक लोकतांत्रिक थी लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के युग में पहुंचकर इस मामले में वह भी कांग्रेस पथ पर अग्रसर है। भाजपा में आजकल विधानसभा चुनावों में भी स्थानीय नेताओं की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा सामने रखा जाता है जो निहायत अलोकतांत्रिक है। यह जग जाहिर है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष जे पी नड्डा की जगह संगठन की कमान गृहमंत्री अमित शाह ही संभालते हैं। भारतीय जनता पार्टी में अलोकतांत्रिकता का विकास कांग्रेस की तुलना में ज्यादा तेजी से हुआ है।
अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन की छत्रछाया में आम आदमी पार्टी जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए खड़ी हुई थी उसने अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में बाल्यावस्था में ही तमाम लोकतांत्रिक मूल्यों को धता देकर किनारे कर दिया है। जिन प्रमुख लोगों ने इस बहुत तेजी से उभरे दल की नीव रखी थी उनमें से अधिकांश या तो पूत के पांव पालने में देखकर खुद पार्टी से अलग हो गए या तिरस्कृत कर बाहर निकलने के लिए मजबूर किए गए हैं।
जहां तक प्रमुख क्षेत्रीय दलों का प्रश्न है उनकी शुरुआत ही एक व्यक्ति की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए होती है चाहे वह महाराष्ट्र की बाल ठाकरे की शिव सेना हो या मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी हो या ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और करुणानिधि की द्रविड़ मुनेत्र कडगम आदि। ऐसे दलों की नीव में ही तानाशाही का म_ा होता है जो लोकतंत्र की हरी घास को पनपने ही नहीं देता।
वामपंथी दलों में जरूर लोकतांत्रिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं लेकिन दुर्भाग्य से दुनिया भर की गरीबी और आर्थिक विषमताओं के बावजूद हमारे देश मे वामपंथी दलों का विभाजित होकर ह्रास होते जाना बेहद दुर्भाग्यजनक है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आज़ादी के बाद उभरी वामपंथी पीढ़ी भारतीय जन जीवन के बजाय रूस और चीन की क्रांतियों से ज्यादा प्रभावित रही है। वाम दल भी भारत के संविधान में प्रदत्त लोकतांत्रिक व्यवस्था को आत्मसात नही कर पाए। लगता है हमारे लोकतंत्र के पौधे को वट वृक्ष बनने के लिए अभी लंबा इंतजार करना पड़ेगा।
CEO of IndiGo Airlines, the so-called cheap airline in India, after arriving at a hotel in Mumbai, went to the bar and asked for a pint of Guinness.
The barman nodded and said, "That will be ?50 please, Mr. Bhatia."
Somewhat taken aback, the CEO (Rahul Bhatia) replied, "That's very cheap," and handed over his money.
"Well, we do try to stay ahead of the competition", said the barman. "And we are serving free pints every Wednesday from 6pm until 8pm. We have the cheapest beer in Mumbai."
"That is a remarkable value!" Rahul comments.
"I see you don't seem to have a glass, so you'll probably need one of ours. That will be ?150 please."
Rahul scowled but paid up.
He took his drink and walked towards a seat. "Ah, you want to sit down?" said the barman. "That'll be an extra ?150. You could have pre-booked the seat and it would have only cost you ?100."
"I think you may be too big for the seat sir, can I ask you to sit in this frame please."
Rahul attempts to sit down, but the frame is too small and when he can't squeeze in he complains, "Nobody would fit in that little frame".
"I'm afraid if you can't fit in the frame, you'll have to pay an extra surcharge of ?250 for your seat, Sir."
Rahul swore to himself, but paid up.
"I see that you have brought your laptop with you," added the barman. "And since that wasn't pre-booked either, that will be another ?300."
Rahul was so incensed that he walked back to the bar, slammed his drink on the counter and yelled, "This is ridiculous, I want to speak to the manager!"
"I see you want to use the counter.." says the Barman, "that will be ?200 please."
Rahul's face was red with rage. "Do you know who I am?"
"Of course I do, Mr. Bhatia!"
"I've had enough! What sort of hotel is this? I come in for a quiet drink and you treat me like this? I insist on speaking to a Manager!"
"Here is his E-mail address, or if you wish, you can contact him between 9.00am and 9.01am every morning, Monday to Tuesday at this toll free phone number. Calls are free, until they are answered, then there is a talking charge of only ?10 per second, or part thereof."
"I will never use this bar again!!" hollers Mr. Bhatia.
"OK Sir, but remember, we are the only star hotel in Mumbai selling pints for ?50."
And that my friends, is how IndiGo works in India!! (from Facebook)
सुशीला सिंह
पिछले कुछ दिनों से आप अखबारों, टीवी न्यूज और सोशल मीडिया पर डीपफेक या डीपफेक वीडियो के बारे में बार-बार सुन-देख रहे होंगे। डीपफेक तकनीक के शिकार होने के मामले लगातार सामने आ रहे हैं।
इस तकनीक के गलत इस्तेमाल से जहां आम लोग प्रभावित हो रहे हैं, वहीं हाल के दिनों में सेलिब्रिटीज के भी कई डीपफेक वीडियो वायरल हुए हैं।
इस कड़ी में फि़ल्म अभिनेत्री रश्मिका मंदाना, काजोल, कटरीना का नाम सामने आया वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गरबा करते हुए वायरल हुए वीडियो ने सब को चौंका भी दिया कि क्या ये सच है? लेकिन ये डीपफेक के मामले केवल भारत तक सीमित हो ऐसा नहीं है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर फे़सबुक जो अब मेटा के नाम से जाना जाता है के प्रमुख मार्क जक़रबर्ग भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। ये सभी वीडियो जो आपने देखें हैं ये सभी डीपफ़ेक हैं।
डीपफेक है क्या?
डीपफेक दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) का इस्तेमाल करता है जिसके जरिए किसी की भी फेक (फर्जी) इमेज या तस्वीर बनाई जाती है।
इसमें किसी भी तस्वीर,ऑडियो या वीडियो को फेक(फर्जी) दिखाने के लिए एआई के एक प्रकार डीप लर्निंग का इस्तेमाल होता है और इसलिए इसे डीपफेक कहा जाता है। इसमे से ज़्यादातर पोर्नाग्राफिक या अश्लील होते हैं।
एम्सटर्डम स्थित साइबर सिक्सयोरिटी कंपनी डीपट्रेस के मुताबिक 2017 के आखिर में इसकी शुरुआत के बाद डीपफेक़ का तकनीकी स्तर और इसके सामाजिक प्रभाव में तेज़ी से विकास हुआ।
डीपट्रेस की साल 2019 में छपी इस रिपोर्ट के मुताबिक कुल 14,678 डीपफेक वीडियो ऑनलाइन थे। इनमें से 96 फीसदी वीडियो पोर्नोग्राफिक सामग्री थी और चार फीसदी ऐसे थे जिनमें ये सामग्री नहीं थी।
डीपट्रेस ने जेंडर, राष्ट्रीयता और पेशे के आधार पर जब डीपफेक वीडियो का आकलन किया तो पाया कि डीपफेक पोर्नोग्राफी का इस्तेमाल महिलाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए किया जाता है। वहीं डीपफेक पोर्नोग्राफी वैश्विक स्तर पर बढ़ रही है और इन पोर्नोग्राफी वीडियो में मनोरंजन जगत से जुड़ी अभिनेत्रियों और संगीतकारों का इस्तेमाल किया गया था।
वकील पूनीत भसीन कहती हैं कि कुछ साल पहले सुली और बुली बाई के मामले सामने आए थे जिनमें महिलाओं को टारगेट किया गया था। लेकिन डीपफेक में महिलाओं के साथ साथ पुरुषों की भी टारगेट किया गया है। ये अलग बात है कि ज्यादातर मामलों में पुरुष ऐसे फर्जी सामग्री को दरकिनार कर देते हैं।
मुंबई में रहने वाली पुनीत भसीन साइबर लॉ और डेटा प्रोटेक्शन प्राइवेसी की एक्सपर्ट हैं और वे मानती है कि डीपफेक अब समाज में दीमक की तरह से फैल रहा है।
वे कहती हैं, ‘पहले भी लोगों की तस्वीरों को मॉर्फ किया जाता था लेकिन वो पता चल जाता था लेकिन एआई के जरिए जो डीपफेक किया जा रहा है वो इतना परफेक्ट (सटीक) होता है कि सही या गलत में भेद कर पाना मुश्किल होता है। ये किसी के शील का अपमान करने के लिए काफी होता है।’ जानकार बताते हैं कि ये तकनीक इतनी विकसित है कि वीडियो या ऑडियो रियल या वास्तविक नजर आता है।
लेकिन क्या ये केवल वीडियो तक सीमित हैं?
ये तकनीक केवल वीडियो में ही उपयोग में नहीं लाई जाती बल्कि फोटो को भी फेक दिखलाया जाता है और ये पता लगाना इतना मुश्किल होता है कि असल नहीं बल्कि फर्जी है।
वहीं इस तकनीक के ज़रिए ऑडियो का भी डीपफेक किया जाता है। बड़ी हस्तियों की आवाज बदलने के लिए वॉयस स्किन या वॉयस क्लोन्स का इस्तेमाल किया जाता है।
साइबर सिक्योरिटी और एआई विशेषज्ञ पवन दुग्गल कहते हैं, ‘डीपफेक-कंप्यूटर, इलेक्ट्रानिक फॉरमेट और एआई का मिश्रण है। इसे बनाने के लिए किसी तरह के प्रशिक्षण की जरुरत नहीं होती। इसे मोबाइल फोन के जरिए भी बनाया जा सकता है जो एप और टूल के जरिए बनाया जा सकते हैं।’
कौन कर रहा है डीपफेक का उपयोग?
एक सामान्य कंप्यूटर पर अच्छा डीपफेक बनाना मुश्किल है। डीपफ़ेक एक उच्च-स्तरीय डेस्कटॉप पर बेहतरीन फोटो और ग्राफिक्स कार्ड के ज़रिए बनाया जा सकता है।
पवन दुग्गल बताते हैं कि इसका ज़्यादातर इस्तेमाल साइबर अपराधी कर रहे हैं।
वे बताते हैं, ‘ये लोगों के अश्लील वीडियो बनाते हैं और फिर ब्लैक मेल करके फिरौती के लिए इसका इस्तेमाल करते हैं। किसी व्यक्ति की छवि को खऱाब करने के लिए सोशल मीडिया पर डाल देते हैं और इसका उपयोग ख़ासकर सेलीब्रिटीज, राजनीतिज्ञों और बड़ी हस्तियों को नुकसान करने के लिए किया जा रहा है।’
इसका एक और कारण बताते हुए पुनीत भसीन कहती हैं कि लोग ऐसे वीडियो इसलिए भी बनाते हैं क्योंकि ऐसे वीडियो ज़्यादा लोग देखते हैं और उनके व्यू बढ़ते हैं और इससे उनका फायदा होता है।
वहीं पवन दुग्गल ये अशंका जताते हैं कि डीपफेक का इस्तेमाल चुनावों को भी प्रभावित कर सकता है।
उनके अनुसार, ‘राजनेताओं के डीपफेक वीडियो बनाए जा सकते हैं, इससे न केवल उनकी छवि को धूमिल किया जा सकता है लेकिन पार्टी की जीत की संभवनाओं पर भी असर पड़ सकता है।’
चुनावों में डीपफ़ेक वीडियो के उपयोग की बात की जाए तो दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने एआई का इस्तेमाल करके पार्टी नेता मनोज तिवारी के डीपफेक वीडियो बनाए थे। इसमें दिखाया गया था कि वो मतदाताओ से दो भाषाओं में बात करके वोट डालने की अपील कर रहे थे।
इस डीपफेक वीडियो में वे हरियाणवी और हिंदी में लोगों से वोट डालने की अपील कर रहे थे।
कानून में क्या है प्रावधान?
भारतीय जनता पार्टी के दिवाली समारोह में प्रधानमंत्री ने एआई का इस्तेमाल कर डीपफेक बनाने पर चिंता जाहिर की थी।
उन्होंने कहा था, ‘डीपफेक भारत के सामने मौजूद सबसे बड़े खतरों में से एक है। इससे अराजकता पैदा हो सकती है।’
केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव कह चुके है कि सरकार जल्द ही डीपफेक पर सोशल मीडिया से चर्चा करेगी और अगर इन मंचों ने उपयुक्त कदम नहीं उठाए तो उन्हें आईटी अधिनियम के सेफ हार्बर के तहत इम्यूनिटी या सरंक्षण नहीं मिलेगा।’
उन्होंने ये भी कहा कि डीपफेक के मुद्दे पर कंपनियों को नोटिस भी जारी किया गया था और इस सिलसिले में उनके जवाब भी आए हैं।
डीपफेक के मामले सामने आने के बाद इस बात पर बहस तेज हो गई है कि क्या कड़े कानून बनाने की जरूरत है?
वकील पुनीत भसीन कहती हैं कि भारत में आईटी एक्ट के तहत सज़ा का प्रावधान हैं।
वहीं पिछले साल इस सिलसिले में इंटरमिडियरी गाइडलाइन्स भी आई थी जिसमें कहा गया था कि ऐसी सामग्री जिसमें नग्नता, अश्लीलता हो और अगर किसी की मान, प्रतिष्ठा को नुकसान हो रहा हो तो ऐसी सामग्री को लेकर किसी भी प्लेटफॉर्म को शिकायत जाती है तो उन्हें तुरंत हटाने के दिशानिर्देश हैं।
वे कहती हैं, ‘पहले ये प्लेटफॉर्म कहते थे कि वे अमेरिका या जिस देश में है वहां के स्थानीय कानून द्वारा नियमित है। लेकिन अब ये कंपनियां एफआईआर दर्ज कराने के लिए कहती है और फिर सामग्री को प्लेटफॉर्म से हटाने के लिए कोर्ट के ऑर्डर की मांग करती हैं।’
वे आईटी मंत्री के कंपनियों को इम्यूनिटी देने के मामले पर कहती हैं, ‘आईटी एक्ट के सेक्शन 79 के एक अपवाद के तहत कंपनियों को सरंक्षण मिलता था। अगर किसी प्लेटफॉर्म पर सामग्री किसी तीसरी पार्टी ने अपलोड की है लेकिन प्लेटफॉर्म ने सामग्री को सरकुलेट नहीं किया है तो ऐसे में प्लेटफॉर्म को इम्यूनिटी मिलती थी और माना जाता था कि प्लेटफॉर्म जिम्मेदार नहीं है।’
लेकिन इंटरमिडियरी गाइडलाइंस में ये स्पष्ट किया गया कि प्लेटफॉर्म के शिकायत अधिकारी के पास सामग्री को लेकर ऐसी शिकायत आती है तो और कोई कार्रवाई नहीं की जाती है तो सेक्शन 79 के अपवाद के तहत इम्यूनिटी नहीं मिलेगी और इस प्लेटफॉर्म के ख़िलाफ़ भी कार्रवाई होगी।
ऐसे में जिसने सामग्री प्लेटफॉर्म पर डाली है उसके खिलाफ तो मामला बनेगा ही वहीं जिस प्लेटफॉर्म पर अपलोड किया गया उसके खिलाफ भी सजा होगी।
भारत के आईटी एक्ट 2000, के सेक्शन 66 ई में डीपफ़ेक से जुड़े आपराधिक मामलों के लिए सजा का प्रावधान किया गया है।
इसमें किसी व्यक्ति की तस्वीर को खींचना, प्रकाशित और प्रसारित करना, निजता के उल्लंघन में आता है और अगर कोई व्यक्ति ऐसा करता हुआ पाया जाता है तो इस एक्ट के तहत तीन साल तक की सज़ा या दो लाख तक के ज़ुर्माना का प्रावधान किया गया है।
वहीं आईटी एक्ट के सेक्शन 66 डी में ये प्रावधान किया गया है कि अगर कोई किसी संचार उपकरण या कंप्यूटर का इस्तेमाल किसी दुर्भावना के इरादे जैसे धोखा देने या किसी का प्रतिरुपण के लिए करता है तो ऐसे में तीन साल तक की सजा या एक लाख रुपए तक के ज़ुर्माने का प्रावधान है।
भारत के आईटी एक्ट 2000 , के सेक्शन 66 ई में डीपफेक से जुड़े आपराधिक मामलों के लिए सज़ा का प्रावधान किया गया है।
कैसे जानें डीपफेक के बारे में?
किसी भी डीपफेक सामग्री को जानने के लिए कुछ बिंदुओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।
आंखों को देखकर-अगर कोई वीडियो डीपफ़ेक है तो उसमें लगा चेहरा पलक नहीं झपक पाएगा।
होठों को ध्यान से देखकर-डीपफेक वीडियो में होठों के मूवमेंट और बातचीत में सामंजस्य नहीं दिखाई देगा।
बाल और दांत के जरिए-डीपफेक में बाल के स्टाइल से जुड़े बदलाव को दिखाना मुश्किल होता है और दांत को देखकर भी पहचाना जा सकता है कि वीडियो डीपफेक है।
जानकारों का मानना है कि डीपफेक एक बड़ी समस्या है और इस पर लगाम लगाने के लिए कड़े कानून बनाए जाने की जरूरत है नहीं तो भविष्य में इसके घातक परिणाम हो सकते हैं। (bbc.com)
-महेन्द्र पांडे
हम आज जिस चरम पूंजीवाद के दौर से गुजर रहे हैं, उसमें जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को रोकने के लिए किसी गंभीर पहल की उम्मीद करना व्यर्थ है। पूंजीवाद पहले समस्याएं पैदा करता है और फिर उन्हीं समस्याओं से मुनाफा कमाता है। तापमान वृद्धि में साल-दर-साल तेजी आ रही है, पर पूंजीवादी व्यवस्था ने इलेक्ट्रिक वाहनों, सौर उर्जा और पवन ऊर्जा का एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। पूंजीवादी व्यवस्था ही अब प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर देशों में सत्ता का निर्धारण करती है, इसीलिए दुनिया की तमाम सरकारें जलवायु परिवर्तन को रोकने की चर्चा करने के नाम पर हरेक वर्ष बस पिकनिक मनाती हैं और फिर ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल में निर्बाध गति से झोकती हैं।
हाल में ही संयुक्त राष्ट्र के वल्र्ड मेटेरिओलोजिकल आर्गेनाईजेशन (डब्लूएमओ) ने बताया है कि वर्ष 2022 में वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता अभूतपूर्व स्तर तक पहुँच गयी और इनमें कमी आने के आसार कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल (वर्ष 1750) की तुलना में 150 प्रतिशत अधिक हो चुकी है, वर्ष 2022 में इसकी औसत सांद्रता 420 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) तक पहुँच गयी। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की ऐसी सांद्रता 30 से 50 लाख वर्ष पहले भी नहीं थी, जब पृथ्वी का औसत तापमान अभी की तुलना में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक था और औसत समुद्र तल अभी की तुलना में 10 से 20 मीटर अधिक था। इसी तरह, वायुमंडल में मीथेन की सांद्रता 1923 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी) तक पहुंच गई, यह सांद्रता वर्ष 1750 यानि पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 264 प्रतिशत अधिक है। तीसरी सबसे प्रभावी ग्रीनहाउस गैस, नाइट्रस ऑक्साइड की वायुमंडल में सांद्रता 335.8 पीपीबी तक पहुंच गई है, यह सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 124 प्रतिशत अधिक है।
जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि रोकने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र के तहत हरेक वर्ष कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) का जलसा आयोजित किया जाता है। इस वर्ष कॉप-28 का आयोजन दुबई में 30 नवम्बर से किया जा रहा है। हरेक वर्ष की तरह भी इसमें बड़े-बड़े वादे किये जाएंगे, हरेक देश अपने आप को दुनिया का सबसे बड़ा हितैषी घोषित करेगा, जलसे के अंत में घोषणा की जायेगी कि आयोजन सफल रहा – पर अगले साल तापमान वृद्धि में पहले से अधिक तेजी आ गयी होगी। हरेक देश ऐसे सम्मेलनों में नेट जीरो, यानि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य करने का दावा करते हैं, पर डब्लूएमओ की रिपोर्ट में कहा गया है तमाम देश जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की हरेक नीति में असफल रहे हैं। यदि दुनिया को इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकना है तो फिर प्रयासों में कई गुना तेजी लानी होगी। दुनिया कोयले के उपयोग को जिस दर से कम करती जा रही है, उससे 7 गुना अधिक दर से यह काम करना पड़ेगा।
डब्लूएमओ के सेक्रेटरी जनरल, प्रोफेसर पेत्तेरी टालस के अनुसार, जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के संदर्भ में दुनिया विपरीत और गलत दिशा में जा रही है। इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन देखकर यह स्पष्ट है कि दुनिया इसे नियंत्रित करने के बारे में सोच ही नहीं रही है, ऐसे में इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने का लक्ष्य ही बेईमानी है। वर्ष 1990 में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत साद्रता 350 पीपीएम थी, पर वर्ष 2022 तक पृथ्वी के गर्म होने का प्रभाव 50 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और इसमें 80 प्रतिशत योगदान अकेले कार्बन डाइऑक्साइड का ही है।
संयुक्त राष्ट्र क्लाइमेट चेंज ने हाल में ही दुनिया के 195 देशों द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय जलवायु कार्य योजना, जिसमें 20 संशोधित कार्य योजनायें भी सम्मिलित हैं, का अध्ययन कर बताया है कि इस कार्य योजनाओ को यदि पूरा भी कर लिया जाये तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोका नहीं जा सकेगा। फिर से संशोधित कार्ययोजनाओं को प्रस्तुत करने की अवधि वर्ष 2025 में है, जाहिर है इन दो वर्षों में इसके आगे कुछ भी नहीं होना है।
दुनिया इस शताब्दी के अंत तक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने की चर्चा करती है, घोषणा करती है और तमाम सम्मेलन आयोजित करती है, पर औद्योगिक युग के शुरुआती दौर से अब तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस शताब्दी के अंत में अभी 77 वर्ष शेष हैं। वैज्ञानिकों का आकलन है कि तापमान वृद्धि को रोकने के सन्दर्भ में दुनिया विफल रही है और यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तब सभी देशों को इसे रोकने की योजनाओं में कम से कम 45 प्रतिशत अधिक तेजी लानी पड़ेगी। दुनिया यदि ऐसी योजनाओं को 30 प्रतिशत अधिक तेजी से भी ख़त्म कर पाती है तब भी तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है। अभी तापमान वृद्धि का जो लक्ष्य तमाम राष्ट्रीय कार्य योजनाओं में दिखता है, यदि सभी योजनाओं और लक्ष्यों को समय से पूरा कर भी लिया जाए तब भी वर्ष 2100 तक तापमान वृद्धि 2.6 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जायेगी। तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम 50 प्रतिशत कटौती की जरूरत है, जबकि वर्तमान परिस्थितियों में 10 से 20 प्रतिशत की कटौती ही संभव हो सकती है।
क्लाइमेट सेंट्रल नामक पर्यावरण से जुडी संस्था ने एक रिपोर्ट में बताया है कि पिछले एक वर्ष के दौरान तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन से दुनिया की 7.6 अरब, यानि 96 प्रतिशत, आबादी प्रभावित हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रभाव की तीव्रता किसी क्षेत्र में कम और किसी में अधिक हो सकती है, पर प्रभाव हरेक जगह पड़ा है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय देश और छोटे द्वीपों वाले देश हैं, जिनका ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान लगभग नगण्य है।
साइंस एडवांसेज नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार बढ़ते तापमान के कारण वर्ष 1990 से अबतक दुनिया को खरबों डॉलर का आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। अमीर देश ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए मुख्य तौर पर जिम्मेदार हैं पर उनके सकल घरेलू उत्पाद में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण औसतन 1.5 प्रतिशत की गिरावट आई है, दूसरी तरफ अमीर देशों के कारण जलवायु परिवर्तन की मार झेलते गरीब देशों के सकल घरेलू उत्पाद में औसतन 6.7 प्रतिशत की हानि हो रही है।
पिछले 40 वर्षों से भी अधिक समय से वैज्ञानिक इससे आगाह कर रहे थे। शुरू में वैज्ञानिकों ने कहा कि तापमान वृद्धि के ऐसे संभावित प्रभाव हो सकते हैं – दुनिया उदासीन रही। इसके बाद वैज्ञानिकों ने कहा, तापमान वृद्धि के ऐसे प्रभाव हो रहे हैं, दुनिया फिर उदासीन बनी रही। पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिकों के साथ ही प्राकृतिक आपदाएं स्वयं बता रही हैं कि तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का क्या प्रभाव है, पर दुनिया अभी तक उदासीन है। अब यह आपदाएं एक-दो दिनों के समाचार से अधिक कोई महत्व नहीं रखतीं। बस इन्हीं एक-दो दिनों के लिए हम जलवायु परिवर्तन के बारे में भी बात कर लेते हैं। इन दिनों पूरी दुनिया जंगलों की आग, भयानक सूखा, बाढ़ और रिकॉर्ड तोड़ गर्मी से परेशान है। हरेक सरकार इन आपदाओं से प्रभावित लोगों की कुछ हद तक मदद कर रही है, पर ऐसी आपदाओं को भविष्य में कम किया जा सके, इसके बारे में कोई भी सरकार नहीं सोच रही है। पिछले वर्ष भी गर्मियों में ऐसे ही हालात थी, पर कुछ दिनों बाद ही सारी सरकारें इन आपदाओं को भूल गईं।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्रचंड गर्मी, असहनीय सर्दी, जंगलों की आग, जानलेवा सूखा, लगातार आती बाढ़ और ऐसी ही दूसरी आपदाओं से पूरी दुनिया बेहाल है, और इन आपदाओं की तीव्रता और आवृत्ति तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ती जा रही है। इन सबका असर हरेक देश की सामान्य आबादी पर ही पड़ता है। पूंजीवाद और सत्ता इन आपदाओं को प्राकृतिक आपदा साबित करती रहती है, पर यह सब पूंजीवाद की देन है। सत्ता और पूंजीवाद की जुगलबंदी के कारण पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन का असर भुगत रही है। (navjivanindia.com)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
क्रिकेट हमारे लिए पैंट शर्ट और अंग्रेजी भाषा की तरह अंग्रेजों द्वारा भद्र जन का खेल कहकर दी गई सौगात है लेकिन बाजार और सट्टेबाजों ने क्रिकेट को आकाश पर चढ़ाकर हमारे देश की बड़ी आबादी के लिए दाल रोटी की तरह बुनियादी जरूरत बना दिया। इस खेल के नेताओं, अफसरों और उद्योगपतियों के सरंक्षण में आने से सबसे ज्यादा समय बर्बाद करने वाला क्रिकेट हमारे हॉकी, कबड्डी, रेसलिंग,वॉलीबॉल और फुटबॉल जैसे परंपरागत खेलों के शीर्ष पर बैठ गया है। यह अकारण नहीं है कि अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी, जापान और फ्रांस जैसे विकसित देश क्रिकेट को कतई बढ़ावा नहीं देते। दूसरी तरफ हमारे देश में प्रधानमन्त्री, गृहमंत्री और कई मुख्यमंत्री क्रिकेट को हद से ज्यादा अहमियत देते हैं। यहां तक कि क्रिकेट का मैनेजमेंट भी मंत्रियों के रिश्तेदार करते हैं जिन्हें क्रिकेट का कोई इल्म नहीं लेकिन इसमें पैसा और शोहरत ठूंस-ठूंसकर भरे हैं इसलिए नेताओं के परिजन इस खेल का नियंत्रण चाहते हैं।
आजादी के पहले केवल उच्च मध्यम वर्ग के परिवार अंग्रेजों की नकल करते थे,अब हमारी अधिसंख्य आबादी में अंग्रेजी भाषा से लेकर पहनावे और खेल तक की अंग्रेजियत भरी है। इसी के चलते पिछ्ले दो महीने क्रिकेट के विश्व कप का महीने से ज्यादा लंबा चला बुखार था। सट्टा बाजार, मीडिया और इंटरनेशनल और भारतीय क्रिकेट काउंसिल के प्रचार के कारण देश में क्रिकेट को इतना हाईप मिला है कि इसी खेल की वजह से सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिला और उन्हें क्रिकेट का भगवान कहा गया। अब विराट कोहली उनसे आगे निकल गया, उसके लिए भी भारत रत्न की मांग उठेगी। आजकल जिधर भी नजऱ दौड़ाएं महानगरों से लेकर दूरदराज के गांवों में तरह तरह की गेंदों, तरह तरह की गिल्लियों और तरह तरह के बैट्स से क्रिकेट खेलते युवा और बच्चे मिल जाएंगे। यदि यह विश्व कप हम जीत जाते तो सत्ताधारी दल और मीडिया इसे सालों तक तरह तरह से भुनाता रहता। ऑस्ट्रेलिया ने हमेशा की तरह जबरदस्त प्रदर्शन कर वह मौका छीन लिया।
यह विश्व कप फाइनल कई विवादों को भी जन्म दे गया। देश के लिए दो विश्व कप जीतने वाली टीम के सदस्यों और उनके कप्तान कपिल देव और धोनी को निमंत्रित नहीं किया गया। कपिल देव 1983 की पूरी टीम को भी इस अवसर पर बुलाना चाहते थे। सरकार ने ऑस्ट्रेलिया के पी एम को आमंत्रित किया लेकिन वह अपने घरेलू जांबाजों को भूल गई। यह प्रशासनिक चूक नहीं हो सकती। कुछ दिन पहले 1983 का क्रिकेट विश्व कप जीतने वाली पूरी टीम ने महिला पहलवानों के पक्ष में अपील जारी की थी। निश्चित रूप से सरकार के लिए वह अपील शर्मिंदगी का सबब थी , शायद इसीलिए विजेता टीम के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार हुआ है। कपिल देव और धोनी क्रमश: हमारी पीढ़ी और युवा पीढ़ी के आदर्श खिलाड़ी रहे हैं, उनकी अनुपस्थिति से हम सब भी बेहद निराश हुए हैं।
खेल में हार-जीत होती रहती है। यह सच में दुखद है कि पूरे टूर्नामेंट में अजेय रहने वाली भारतीय टीम अपने देश के मैदान में अपनी जबरदस्त प्रशंसक भीड़ की उपस्थिति में बगैर संघर्ष किए ताश के पत्तों की तरह बिखर गई। बैटिंग, बॉलिंग और फील्डिंग के तीनों प्रभाग सामान्य टीम जैसे रहे। सब खिलाडिय़ों का एक साथ खराब प्रदर्शन लोगों के गले उतरना आसान नहीं है इसीलिए सोसल मीडिया पर बहुत से लोग अपनी तरह से हार का विश्लेषण कर रहे हैं और मैच को संदेह की नजर से भी देख रहे हैं। नतीजा कुछ भी रहा हो लेकिन बात बात में पर्ची निकालकर भविष्य बताने वाले धीरेंद्र शास्त्री की पर्ची फेल हों गई और धुरंधर ज्योतिषियों की भविष्यवाणी और पुरोहितों के जीत के यज्ञ फेल हो गए। उम्मीद है इन सबके द्वारा आए दिन मूर्ख बनती जनता इन अंधविश्वास फैलाने वालों की हकीकत समझेगी।
-महिपाल नेगी
मैं भूगर्भ विज्ञान का विद्यार्थी नहीं रहा हूं लेकिन यदि मुझे फिर से पढऩे का मौका मिले तो मैं भूगर्भ विज्ञान विषय अवश्य चुनूंगा। जब भी हिमालय में किसी क्षेत्र में कुछ बड़ी भूगर्भी हलचल होती है, तो मैं हिमालय के विख्यात भूगर्भ वैज्ञानिक प्रोफेसर के एस वाल्दिया की कोई किताब ढूंढने लग जाता हूं। हिमालय के भूगर्भ के समग्र जानकार रहे हैं प्रोफेसर वाल्दिया।
जब उत्तरकाशी में चार धाम की सुरंग बंद होने से 41 मजदूर फंसे, तब भी मैंने ऐसे ही किया कि इस क्षेत्र के बारे में उन्होंने कुछ कहा हो। मैं चौंक उठा। उनकी पुस्तक‘हाई डैम्स इन द हिमालय’ में उस क्षेत्र के भूगर्भ के बारे में भी कुछ है जहां यह सुरंग बन रही है।
टोंस /श्रीनगर भ्रंस जोकि सक्रिय मानी जाती है, लघु हिमालय की इस पर्वत श्रृंखला ‘राड़ी डांडा’ को यमुना से लेकर गंगा तक काटती है। यमुना को नौगांव के पास तो गंगा को धरासू के पास। इसके ऊपर है राड़ी डांडा। जहां सुरंग बन रही है, टोंस भ्रंस कुछ किलोमीटर दूर है, लेकिन पुस्तक में उनके कुछ मानचित्र प्रकाशित हुए हैं, उससे स्पष्ट होता है की राड़ी श्रृंखला को कुछ स्थानीय फॉल्ट भी काटते हैं।
और ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि भ्रंस और पहाड़ी को दो स्थानीय फॉल्ट उन्हीं जगह उत्तर से दक्षिण काट रहे हैं, जहां सुरंग बन रही है। सुरंग के निकट शेयर जोन की बात एक भूगर्भ विज्ञानी कल ही इस सुरंग स्थल पर सुरंग विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स को बता रहे थे, संयोग से टी वी पर मैंने भी यह बात सुनी।
प्रोफेसर वाल्दिया की पुस्तक से ज्ञात होता है कि शेयर जोन 2 - 3 मीटर से लेकर 11 - 22 मीटर तक भी फैले हो सकते हैं। जहां सुरंग में भूस्खलन हुआ, क्या वह एक बड़ा शेयर जोन है। और ऐसे कितने और शेयर जोन 4.5 किलोमीटर की सुरंग के निकट होंगे। भू - सक्रियता के कारण शेयर जोन के खुलने का डर रहता है। क्या ब्लास्टिंग और कटिंग से शेयर जोन पर असर नहीं पड़ा होगा? मशीनों से भी भूकंपन तो होता ही है।
क्योंकि ‘राड़ी डांडा’ भी लघु हिमालय श्रृंखला का हिस्सा है, जोकि ‘फिलाइटी क्वार्टजाइटी’ चट्टानों से भरा पड़ा है। चट्टानें भुरभरी और दरारों से कटी फटी है।
ख़ास बात यह भी कि दो दिन पहले सुरंग में मलवा साफ करने के दौरान जब मजदूरों ने चट्टानों के चटकने की आवाज़ें सुनी, उसका उल्लेख भी प्रोफेसर वाल्दिया की किताब में है। उन्होंने इसे ‘शॉक वेव’ कहा है। यह भी कहा गया है की जकड़े गए भ्रंशों को छेडऩा भी घातक हो सकता है।
लघु हिमालय की कुछ श्रृंखलाओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जो छोटी नदियां-बड़ी नदियों में मिलती हैं, उनका मिजाज भी क्षेत्र की सक्रियता को दर्शाता है। इस क्षेत्र से भागीरथी में मिलने वाली क्रमश: स्यांसू, नगुण, खुरमोला और नाकुरी गाड का मिजाज देखें तो यह सभी तीव्र प्रवणता वाली ढलानों पर वेग से बहती हैं और अब तक भी सामान्य प्रवणता स्थापित नहीं कर पाई हैं।
राड़ी पर्वत श्रृंखला यमुना और गंगा दोनों का जल ग्रहण क्षेत्र है। सुरंग के ऊपरी क्षेत्र का आधा पानी यमुना में तो आधा गंगा में आता है। सुरंग की डीपीआर बनाने वालों ने प्रोफेसर के एस वाल्दिया या हिमालय के अन्य विख्यात भूगर्भ विज्ञानियों के अध्ययन को पढ़ा और समझा होगा?
अब भी पढ़ें और समझें। यह जो उत्तर-पश्चिम के दो फॉल्ट और बड़े शेयर जोन हैं, इनकी फिर से डिटेल स्टडी कीजिए।
कुछ दिन पहले की बात है। मैंने अपने बच्चों की गवर्नेस जूलिया को अपने पढऩे के कमरे में बुलाया और कहा-‘बैठो जूलिया।’ मैं तुम्हारी तनख्वाह का हिसाब करना चाहता हूँ। मेरे खयाल से तुम्हें पैसों की जरूरत होगी और जितना मैं तुम्हें अब तक जान सका हूँ, मुझे लगता है तुम अपने आप तो कभी पैसे माँगोगी नहीं। इसलिए मैं खुद तुम्हें पैसे देना चाह रहा हूँ। तो बताओ कितनी फीस तय हुई थी। तीस रूबल ना?’
‘जी नहीं, चालीस रुबल महीना।’ जूलिया ने दबे स्वर में कहा।
‘नहीं भाई तीस। मैंने डायरी में नोट कर रखा है। मैं बच्चों की गवर्नेस को हमेशा तीस रुबल महीना ही देता आया हूँ। अच्छा... तो तुम्हें हमारे यहाँ काम करते हुए कितने दिन हुए हैं, दो महीने ही ना?
‘जी नहीं, दो महीने पाँच दिन।’
‘क्या कह रही हो! ठीक दो महीने हुए हैं। भाई, मैंने डायरी में सब नोट कर रखा है। तो दो महीने के बनते हैं- साठ रुबल। लेकिन साठ रुबल तभी बनेंगे, जब महीने में एक भी नागा न हुआ हो। तुमने इतवार को छुट्टी मनाई है। इतवार-इतवार तुमने काम नहीं किया। इतवार को तुम कोल्या को सिर्फ घुमाने ले गई हो। इसके अलावा तुमने तीन छुट्टियाँ और ली हैं...।’
जूलिया का चेहरा पीला पड़ गया। वह बार-बार अपने ड्रेस की सिकुडऩें दूर करने लगी। बोली एक शब्द भी नहीं।
हाँ तो नौ इतवार और तीन छुट्टियाँ यानी बारह दिन काम नहीं हुआ। मतलब यह कि तुम्हारे बारह रुबल कट गए। उधर कोल्या चार दिन बीमार रहा और तुमने सिर्फ तान्या को ही पढ़ाया। पिछले सप्ताह शायद तीन दिन हमारे दाँतों में दर्द रहा था और मेरी बीबी ने तुम्हें दोपहर बाद छुट्टी दे दी थी। तो इस तरह तुम्हारे कितने नागे हो गए? बारह और सात उन्नीस। तुम्हारा हिसाब कितना बन रहा है? इकतालीस। इकतालीस रुबल। ठीक है न ?
जूलिया की आँखों में आँसू छलछला आए। वह धीरे से खाँसी। उसके बाद अपनी नाक पोंछी, लेकिन उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला।
हाँ एक बात तो मैं भूल गया था’ मैंने डायरी पर नजर डालते हुए कहा- ‘पहली जनवरी को तुमने चाय की प्लेट और प्याली तोड़ डाली थी। प्याली का दाम तुम्हें पता भी है? मेरी किस्मत में तो हमेशा नुकसान उठाना ही लिखा है। चलो, मैं उसके दो रुबल ही काटूँगा। अब देखो, तुम्हें अपने काम पर ठीक से ध्यान देना चाहिए न? उस दिन तुमने ध्यान नहीं रखा और तुम्हारी नजर बचाकर कोल्या पेड़ पर चढ़ गया और वहाँ उलझकर उसकी जैकेट फट गई। उसकी भरपाई कौन करेगा? तो दस रुबल उसके कट गए। तुम्हारी इसी लापरवाही के कारण हमारी नौकरानी ने तान्या के नए जूते चुरा लिए। अब देखो भाई, तुम्हारा काम बच्चों की देखभाल करना है। इसी काम के तो तुम्हें पैसे मिलते हैं। तुम अपने काम में ढील दोगी तो पैसे तो काटना ही पड़ेंगे। मैं कोई गलत तो नहीं कर रहा हूँ न?
तो जूतों के पाँच रुबल और कट गए और हाँ, दस जनवरी को मैंने तुम्हें दस रुबल दिए थे...।’
‘जी नहीं, आपने मुझे कुछ नहीं दिया...।’
जूलिया ने दबी जुबान से कहना चाहा।
‘अरे तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ? मैं डायरी में हर चीज नोट कर लेता हूँ। तुम्हें यकीन न हो तो दिखाऊँ डायरी?
‘जी नहीं। आप कह रहे हैं, तो आपने दिए ही होंगे।’
‘दिए ही होंगे नहीं, दिए हैं।’
मैं कठोर स्वर में बोला।
‘तो ठीक है, घटाओ सत्ताइस इकतालीस में से... बचे चौदह.... क्यों हिसाब ठीक है न?
उसकी आँखें आँसुओं से भर उठीं। उसके शणीर पर पसीना छलछला आया। उसकी आवाज काँपने लगी। वह धीरे से बोली- ‘मुझे अभी तक एक ही बार कुछ पैसे मिले थे और वे भी आपकी पत्नी ने दिए थे। सिर्फ तीन रुबल। ज्यादा नहीं।’
‘अच्छा’ मैंने आश्चर्य के स्वर में पूछा और इतनी बड़ी बात तुमने मुझे बताई भी नहीं? और न ही तुम्हारी मा?लकिन ने मुझे बताई। देखो, हो जाता न अनर्थ। खैर, मैं इसे भी डायरी में नोट कर लेता हूँ। हाँ तो चौदह में से तीन और घटा दो। इस तरह तुम्हारे बचते हैं ग्यारह रुबल। बोलो भाई, ये रही तुम्हारी तनख्वाह...? ये ग्यारह रुबल। देख लो, ठीक है न?
जूलिया ने काँपते हाथों से ग्यारह रुबल ले लिए और अपने जेब टटोलकर किसी तरह उन्हें उसमें ठूँस लिया और धीरे से विनीत स्वर में बोली - ‘जी धन्यवाद।’
मैं गुस्से से आगबबूला होने लगा। कमरे में टहलते हुए मैंने क्रोधित स्वर में उससे कहा -
‘धन्यवाद किस बात का?’
‘आपने मुझे पैसे दिए-इसके लिए धन्यवाद।’
अब मुझसे नहीं रहा गया। मैंने ऊँचे स्वर में लगभग चिल्लाते हुए कहा, ‘तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो, जबकि तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने तुम्हें ठग लिया है। तुम्हें धोखा दिया है। तुम्हारे पैसे हड़पकर तुम्हारे साथ अन्याय किया है। इसके बावजूद तुम मुझे धन्यवाद दे रही हो।’
‘जी हाँ, इससे पहले मैंने जहाँ-जहाँ काम किया, उन लोगों ने तो मुझे एक पैसा तक नहीं दिया। आप कम से कम कुछ तो दे रहे हैं।’ उसने मेरे क्रोध पर ठंडे पानी का छींटा मारते हुए कहा।
‘उन लोगों ने तुम्हें एक पैसा भी नहीं दिया। जूलिया! मुझे यह बात सुनकर तनिक भी अचरज नहीं हो रहा है। मैंने कहा। फिर स्वर धीमा करके मैं बोला - जूलिया, मुझे इस बात के लिए माफ कर देना कि मैंने तुम्हारे साथ एक छोटा-सा क्रूर मजाक किया। पर मैं तुम्हें सबक सिखाना चाहता था। देखो जूलिया, मैं तुम्हारा एक पैसा भी नहीं काटूँगा।
देखो, यह तुम्हारे अस्सी रुबल रखे हैं। मैं अभी तुम्हें देता हूँ, लेकिन उससे पहले मैं तुमसे कुछ पूछना चाहूँगा।
जूलिया! क्या जरूरी है कि इंसान भला कहलाए जाने के लिए इतना दब्बू और बोदा बन जाए कि उसके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसका विरोध तक न करे? बस चुपचाप सारी ज्यादतियाँ सहता जाए? नहीं जूलिया, यह अच्छी बात नहीं है। इस तरह खामोश रहने से काम नहीं चलेगा। अपने आप को बनाए रखने के लिए तुम्हें इस संसार से लडऩा होगा। मत भूलो कि इस संसार में बिना अपनी बात कहे कुछ नहीं मिलता...।
जूलिया ने यह सबकुछ सुना व फिर चुपचाप चली गई। मैंने उसे जाते हुए देखा और सोचा - ‘इस दुनिया में ताकतवर होना कितना आसान है।
त्रिभुवन
स्वतंत्रता के बाद वक्ष खोले लोकतंत्र की अमराइयां हिलोरें लेने लगीं तो राजस्थान की सुनहरी सरज़मीं पर गर्व से आकाश थामे खड़ी सदियों पुरानी राजशाही के चेहरे ही एकबारगी पीले नहीं पड़े, उनके अस्तित्व के पाए भी चरमरा गए।
लेकिन वे हारे नहीं और प्रदेश में अंकुराती राजनीति के रथ में जुते अश्वों की वल्गा अपने हाथ में बड़ी कुशलता से रखने की भरसक कोशिशें कीं।
राजस्थान निर्माण के बाद प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री का नाम जयपुर महाराजा की प्रशंसा और अनुशंसा के बाद देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने सिटी पैलेस में तय किया। यह नाम था हीरालाल शास्त्री।
प्रदेश में तीन साल बाद विधानसभा के चुनाव होने थे और उससे पहले लोकतंत्र की कोंपलें यहाँ किसी जनस्थल पर नहीं, एक ऐसे राजमहल में फूटीं, जो पिछले 217 साल से राजतंत्र के शक्ति केंद्र के लिए जाना जाता रहा था।
स्वतंत्रता की लड़ाई लडऩे वाले योद्धा जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा और गोकुलभाई भट्ट सहित कितने ही नेताओं के लिए बैठने तक की व्यवस्था नहीं की गई थी।
समारोह की अग्रिम पंक्तियों में राजे-महाराजे, जागीरदार, ठिकानेदार और नवाबों के साथ-साथ बड़े नौकरशाहों और आभिजात्य वर्ग के लिए स्थान आरक्षित किए गए थे।
यह देखकर कांग्रेस के नेता और स्वतंत्रता लाने में अग्रणी रहे नेता समारोह का बहिष्कार करके चले गए। किसी ने आजादी के आंदोलन में भागीदार रहे इन नायकों को रोकने, मनाने और वापस लाने की भी कोशिश नहीं की।
हैरानी की बात है कि उस समय वहाँ देश के उपप्रधानमंत्री और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल मौजूद थे।
राजस्थान की राजनीति में राजघराने
पहले मुख्यमंत्री पद और बाद में मंत्रिमंडल गठन को लेकर 1949 में कांग्रेस के नेताओं में कटुता और विवाद का शुरू हुआ सिलसिला 2023 तक रुकने और थमने का नाम नहीं ले रहा है।
इस कलह ने हीरालाल शास्त्री को जाने पर विवश किया और 20 जनवरी, 1951 को जयनारायण व्यास नए मुख्यमंत्री तय हुए, जिन्होंने 26 अप्रैल, 1951 को शपथ ली।
इसी साल प्रदेश की 160 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव तय हुए, जो 1952 में पूरे हुए।
लगातार अंतर्विरोधों और कलह से ग्रस्त कांग्रेस इस चुनाव में हारते-हारते बची और 82 सीटें ला सकी।
स्पष्ट बहुमत के लिए 81 सीटों की ज़रूरत थी। इस चुनाव में रजवाड़े भी लड़े। उनकी पसंद राम राज्य परिषद थी, जिसे 24 सीटें मिलीं।
इस चुनाव में सबसे दिलचस्प रहा मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास का दो रजवाड़ों के सामने बुरी तरह हारना। वे दो जगह लड़े और दोनों जगह पूर्व राजघरानों के प्रतिनिधियों से हारे।
जोधपुर में महाराजा हनुवंत सिंह से और जालोर-ए सीट पर एक माधोसिंह से। हनुवंतसिंह स्वतंत्र लड़े थे और माधोसिंह राम राज्य परिषद से।
प्रदेश की लोकतांत्रिक राजनीति को राजघरानों की यह शुरुआती चुनौती और चेतावनी थी।
लोकतंत्र का राग राजस्थान की धमनियों में बजने लगा; रजवाड़े लगातार अपनी भृकुटियां ताने रहे। जागीरदारों ने सरकारी प्रशासन का कामकाज करना तक मुहाल कर दिया।
इन हालात को पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय समझा गया और न ही लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में।
इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने चार अहम क़ानूनों के माध्यम से बड़े बदलाव लाकर राजशाही के ऊंचे धोरों को पूरी तरह समतल कर दिया और वे आम आदमी के बराबर हो गए।
ये बदलाव थे- प्रीविपर्स क़ानून लाकर राजघरानों को मिलने वाला पैसा और विशेष सम्मान बंद करना, सीलिंग एक्ट के माध्यम से उनकी जमीनें भूमिहीनों को देना, वेपन एक्ट के माध्यम से राजघरानों के लोगों का हथियारों से सुसज्जित रहना बंद करना और आम लोगों में भय को समाप्त करना और गोल्ड एक्ट के माध्यम से उनकी परंपरागत संपन्नता पर रोक।
आजकल यह प्रश्न अहम है कि राजघरानों का मोह भाजपा के प्रति क्यों है? इसका सहज जवाब यह है कि इंदिरा गांधी नए बदलावों के माध्यम से राजस्थान के रजवाड़ों को धरातल पर ले आईं।
उनका वैभव धूमिल हो गया और ग्लोरी अतीत की एक लोरी बनकर रह गई। वे अब आम नागरिक के बराबर हो गए। रजवाड़ों को यह बात आज भी सालती है।
राजस्थान के राजघराने और भाजपा
इतिहासकार और रजवाड़ों की राजनीति के जानकार प्रो। राजेंद्र सिंह खंगारोत बताते हैं, ‘किसी के भी विशेषाधिकार छिनते हैं तो वह सत्ताविरोधी हो जाता है। यही बात राजस्थान के राजघरानों के साथ थी।’
‘कांग्रेस के कार्यकाल में उनके विशेषाधिकार छिने तो उन्होंने ऐसी पार्टी के साथ तालमेल बिठाने के लिए तलाश शुरू की, जो उनके अधिकारों की रक्षा तो नहीं तो कम से कम उन्हें छीने तो नहीं।’
वे पहले रामराज्य परिषद और फिर स्वतंत्र पार्टी से जुड़े। स्वतंत्र पार्टी का विलय हुआ तो बाद में भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी से यह जुड़ाव सहज होता चला गया। कुछ राजघराने कांग्रेस में भी गए।
किसी भी राजघराने के बूढ़े व्यक्ति से राजस्थान में मिलें तो वे साफ़ कहेंगे कि कांग्रेस ने पहले उनका राज छीना, फिर जागीरें छीनीं, फिर प्रिवीपर्स ख़त्म किए, विशालकाय कृषि भूमियों से वंचित कर दिया, शस्त्रहीन कर दिया और वे इसके बाद भी नहीं रुके, उसने हमारे सोने, चांदी और हीरों वाले बहुमूल्य आभूषणों से भी हमें विहीन कर दिया।
कुछ लोग इसे समाजवाद की आंधी कहते हैं और कुछ लोग आजादी के बाद की समता।
लेकिन इन हालात के बाद राजस्थान की राजनीतिक सरज़मीं पर राजशाही के कुछ फूल कुम्हला गए, कुछ सूखकर झर गए और कुछ अपने होने के लिए खिले रहने की कोशिश करते रहे।
लेकिन इनके लिए फिर से खड़े होने का समय आया भैरोसिंह शेखावत और वसुंधरा राजे के कार्यकाल में।
शेखावत जनसंघ के शुरुआती नेताओं में अकेले ऐसे थे, जिन्होंने जागीरदारी प्रथा उन्मूलन में जागीरदारों का विरोध और लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन किया था।
पहले चुनाव के बाद हनुवंत सिंह का एक विमान दुर्घटना में निधन हो गया और रजवाड़ों की सत्ता प्राप्ति का सपना टूट गया।
अलबत्ता, करौली से प्रिंस ब्रजेंद्रपाल, कुम्हेर से राजा मान सिंह, नवलढ़ से भीम सिंह, ठिकाना उनियारा से राव राजा सरदार सिंह, आमेर बी से महारावल संग्राम सिंह, जैसलमेर से हड़वंत सिंह, सिरोही से जवान सिंह, बाली से लक्ष्मण सिंह, जालोर ए से माधो सिंह, जोधपुर शहर बी से हनवंत सिंह, कुम्हेर से राजा मान सिंह, अटरू से राजा हिम्मत सिंह और बनेड़ा से राजा धीरज अमर सिंह जैसे लोग जीते।
राजस्थान में राजघरानों का प्रारंभिक परिदृश्य बताता है कि प्रदेश की राजनीति में आज सबसे चर्चित और बड़े नामों ने अपनी जगह लोकसभा में जाकर बनाई। भले वे जयपुर राजघराने के लोग रहे हों या अलवर-भरतपुर के।
जयपुर राजघराने का कोई सदस्य विधानसभा चुनाव में विद्याधरनगर सीट से पहली बार उतरा है।
वह हैं दीया कुमारी। यहाँ से भाजपा के संस्थापकों में प्रमुख रहे नेता और प्रदेश की राजनीति के शक्ति केंद्र रहे भैरो सिंह शेखावत के दामाद का टिकट काटा गया है।
एक और वाकया टिकट घोषित होने के समय का है।
जयपुर के परकोटे में किताबों की एक दुकान पर मैं एक जहीन-शहीन कॉलेज शिक्षक से मिलता हूँ। बात चुनाव की चल निकलती है तो वे जयपुर की सियासी आबोहवा के बारे में बताने लगते हैं, इस बार टिकट दिया है दीया कुमारी को। वह राजघराने से हैं।
वे एक शेर सुनाते हैं, ‘शहजादी तुझे कौन बताए तेरे चराग-कदे तक कितनी मेहराबें पड़ती हैं, कितने दर आते हैं।’
पुस्तक विक्रेता उन्हें टोकता है, ‘साहब शेर तो आपका बहुत खू़बसूरत है; लेकिन दीया कुमारी के तो पीछे अभी से हुजूम है।’
जयपुर के पूर्व महाराजा ब्रिगेडियर भवानी सिंह और पद्मनी देवी की इकलौती बेटी दीया राजसमंद से लोकसभा सदस्य हैं। इससे पहले वे सवाई माधोपुर से भाजपा की विधायक रहीं।
महारानी गायत्री देवी ने दी थी
इंदिरा गांधी को चुनौती
दीया कुमारी की दादी महारानी गायत्री देवी 1962, 1967 और 1971 में स्वतंत्र पार्टी से जयपुर से तीन बार सांसद रही हैं। गायत्री देवी का शुमार उन शख्सियतों में है, जिन्होंने इंदिरा गांधी से सीधी टक्कर ली थी।
गायत्री देवी के बेटे पृथ्वीराज सिंह 1962 में दौसा से स्वतंत्र पार्टी से लोकसभा के लिए चुने गए थे। यानी उस साल दोनों माँ-बेटे लोकसभा में थे।
गायत्री देवी ने 1967 में टोंक जिले की मालपुरा सीट से स्वतंत्र पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा था और वे कांग्रेस के दामोदर लाल व्यास के सामने हार गई थीं।
राजस्थान की राजनीति के पुराने जानकारों का आकलन है कि गायत्री देवी वह चुनाव नहीं हारतीं तो राजस्थान की गैर कांग्रेसी राजनीति की लगाम उसी महारानी के हाथ होती और संभवत: शेखावत के बजाय भाजपा का नेतृत्व 1977 में वे करतीं।
सौंदर्य और साहस की इस प्रतिमूर्ति ने अपने आखिरी दिनों में आम लोगों की समस्याओं को लेकर भाजपा की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ धरना तक दिया था।
वे इंदिरा गांधी से भी मुठभेड़ कर चुकी थीं। इंदिरा उन्हें इतना नापसंद करती थीं कि 1975 में उन्होंने टैक्स संबंधी कुछ मामलों को लेकर गायत्री देवी को कई महीनों तक जेल में डाल दिया था।
राजस्थान के राजपरिवार में माना जाता है कि इंदिरा के मन में गायत्री देवी के प्रति तभी से डाह थी, जब से अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की पत्नी जैक्लीन कैनेडी मार्च 1962 में कई दिन तक उनके यहाँ ठहरी थीं और उन्होंने जयपुर में हाथी की सवारी की, पोलो मैच देखे, बाजार घूमीं और उनकी निजी मेहमान बनकर रहीं।
वसुंधरा राजे के एक पुराने साक्षात्कार के अनुसार, राजमाता विजयराजे सिंधिया मानती थीं कि गायत्री देवी अपने समय में दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में थीं।
गायत्री देवी के बेटे ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने 1989 में लोकसभा का चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ा था; लेकिन उन्हें भाजपा के एक साधारण कार्यकर्ता गिरधारीलाल भार्गव ने हरा दिया।
मेवाड़ के चुनावी मैदान में कितने राजघराने
जयपुर की तरह नाथद्वारा में देखें। वहाँ कांग्रेस के प्रखर नेता और राजनीतिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ प्रो सीपी जोशी का मुक़ाबला मेवाड़ के राजघराने के युवक विश्वराज सिंह मेवाड़ से है।
विधानसभा अध्यक्ष जोशी वर्षों से लोगों के बीच हैं और विश्वराज पहली बार क़दम रख रहे हैं। लेकिन मुकाबला कड़ा है।
राजस्थान के इस विधानसभा चुनाव में अनेक ऐसे क्षेत्रों में कमोबेश यही स्थिति है, जहाँ-जहाँ राजघरानों से जुड़े चेहरों को उतारा गया है।
भाजपा ने इस बार उदयपुर के पूर्व राजपरिवार से जुड़े लक्ष्यराज सिंह पर भी डोरे डाले थे; लेकिन वे राजनीति से दूर रहे। वे नहीं आए तो भाजपा विश्वराज सिंह को ले आई।
विश्वराज सिंह एक बार चित्तौडग़ढ़ से सांसद रहे महाराणा महेंद्र सिंह के बेटे हैं, जबकि लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ महेंद्र सिंह के छोटे भाई अरविंद सिंह मेवाड़ के बेटे हैं। दोनों परिवारों में उत्तराधिकार और परिसंपत्तियों को लेकर दूरियां हैं। लेकिन सिटी पैलेस अरविंद सिंह के पास है।
राजस्थान के दो राजघराने जाट हैं। ये हैं भरतपुर और धौलपुर।
धौलपुर के जाट राजघराने की बहू वसुंधरा राजे झालावाड़ की झालरापटन से 2003 से लगातार चुनाव जीत रही हैं तो उनके बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां लोकसभा सीट से 2004 से सांसद हैं।
वसुंधरा राजे का सफर
राजे 1985 में पहली बार भाजपा के टिकट पर धौलपुर से विधायक चुनी गईं। राजे झालावाड़ से 1991, 1996, 1998, 1999 तक लोकसभा की सदस्य रहीं।
प्रदेश की राजनीति में सबसे अधिक प्रभावी और सक्रियता के मामले में भरतपुर के जाट राजघराने से सब पीछे हैं।
इस घराने के विश्वेंद्र सिंह डीग-कुम्हेर सीट से 2013 से लगातार काँग्रेस विधायक हैं और सरकार में मंत्री हैं।
वे 1989 में जनता दल के सांसद बने और 1999 और 2004 में भाजपा से।
विश्वेंद्र सिंह 1993 में नदबई से विधायक चुने गए थे। उनकी पत्नी महारानी दिव्या सिंह एक बार विधायक और एक बार सांसद रही हैं।
विश्वेंद्र सिंह के पिता महाराजा ब्रिजेंद्र सिंह 1962 में लोकसभा और 1972 में विधानसभा के सदस्य रहे थे।
इसी राजघराने से संबंधित राजा मान सिंह डीग, कुम्हेर और वैर से अलग-अलग समय पर 1952 से 1980 तक सात बार विधायक रहे। वे 1985 के बहुचर्चित चुनाव के दौरान पुलिस गोलीकांड में मारे गए थे।
राजा मानसिंह की बेटी कृष्णेंद्र कौर दीपा 1985, 1990, 2003, 2008 और 2013 में विधायक रहीं। इस बार भाजपा ने उनका टिकट काट दिया है। वे 1991 में लोकसभा की सदस्य चुनी गईं।
इसी राजपरिवार के अरुण सिंह 1991 से 2003 तक लगातार चार बार विधायक रहे।
भरतपुर राजपरिवार के गिर्राजशरण सिंह उर्फ बच्चूसिंह पहले लोकसभा चुनाव में सवाई माधोपुर से विजयी हुए थे।
बीकानेर से लंबे समय तक महाराजा करणी सिंह 1952 से 1972 तक के चुनावों में लगातार लोकसभा सदस्य चुने जाते रहे। अब उनकी पौत्री सिद्धि कुमारी बीकानेर पूर्व से विधायक हैं। वो इस बार भी चुनाव मैदान में हैं।
अलवर राजघराना भी प्रमुख रहा है। भंवर जितेंद्र सिंह अभी काँग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं और राहुल गांधी के बेहद करीबी हैं। वे दो बार विधायक और एक बार सांसद रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार में केंद्र में मंत्री भी रहे। उनकी माँ युवरानी महेंद्रा कुमारी भाजपा की सांसद रह चुकी हैं।
जोधपुर राजघराना शुरू में बहुत प्रभावी था।
हनुवंत सिंह विधानसभा का चुनाव भी जीते और लोकसभा का भी। उनकी पत्नी राजमाता कृष्णा कुमारी 1972 से 1977 तक जोधपुर से लोकसभा की सदस्य रहीं। हनुवंतसिंह और कृष्णाकुमारी के बेटे गज सिंह भाजपा के समर्थन से 1990 के उप चुनाव में राज्यसभा भी पहुंचे।
कृष्णा कुमारी और हनुवंत सिंह की बेटी और हिमाचल प्रदेश की काँग्रेस नेता चंद्रेश कुमारी जोधपुर से सांसद भी चुनी गईं।
कोटा के पूर्व महाराजा बृजराज सिंह 1962 में काँग्रेस और 1967 और 1972 में झालावाड़ से भारतीय जनसंघ की टिकट पर लोकसभा के सदस्य रहे। वे 1977 और 1980 में काँग्रेस की टिकट पर लड़े; लेकिन हार गए।
बृजराज सिंह के बेटे इज्जेराज सिंह 2009 में कोटा लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुने गए; लेकिन 2014 में वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के सामने हार गए। इसके बाद इज्जेराज और उनकी पत्नी कल्पना देवी भाजपा में शामिल हो गए। कल्पना देवी लाडपुरा से 2018 में विधायक बनीं और अब फिर भाजपा की उम्मीदवार हैं।
करौली राजघराना भी राजनीति में सक्रिय रहा है। ब्रजेंद्रपाल सिंह 1952 और 1957 तथा 1962, 1967 और 1972 में विधायक रहे।
वे शुरू और आखिर में वे निर्दलीय थे; लेकिन बीच के दो चुनावों में वे कांग्रेस से चुने गए। इसी राजपरिवार की रोहिणी कुमारी 2008 में भाजपा से विधायक चुनी गईं।
गायत्री देवी और लक्ष्मण सिंही की रस्साकशी
इस दौरान 1958 से राजाधिराज सरदार सिंह खेतड़ी, महारावल लक्ष्मण सिंह, कुंवर जसवंत सिंह दाउदसर जैसे लोग राज्यसभा भी पहुंचे।
राजसी राजनीति का सबसे दिलचस्प मोड़ 1977 में उस समय आया, जब जनता पार्टी ने विजय प्राप्त की। उस समय महारावल लक्ष्मण सिंह के नेतृत्व में लगभग सारे राजघराने एक हुए। लेकिन जीत के बाद महारानी गायत्री देवी और लक्ष्मण सिंह के बीच रस्साकशी रही।
विवाद गहराता चला गया तो पहले से अवसर के लिए चौकन्ने भैरोसिंह शेखावत सक्रिय हुए। उन्होंने राजनीतिक सूझबूझ और अपनी कुशलता से ऐसे नेतृत्व हासिल किया और मुख्यमंत्री बन गए।
राजघरानों के ताकतवर चेहरों के बीच एक साधारण राजपूत के रूप में शेखावत ने मुख्यमंत्री बनकर जता दिया कि लोकतंत्र का आकाश अब राजघरानों के बजाय लोकआकांक्षाओं की पलकों पर झुक आया है।
शेखावत ने बैठकों के लिए सिटी पैलेस में जाने से इनकार कर दिया और राजसी ठाठबाठ वाले राजघरानों के प्रतिनिधि हाशिए पर आ गए।
महारावल लक्ष्मण सिंह को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया तो गायत्री देवी के कद के अनुसार आरटीडीसी का चेयरपर्सन बनाया गया। यह कार्पोरेशन उनके लिए ख़ास तौर पर गठित किया गया।
इसके बाद प्रदेश की राजनीति तेजी से बदली और राजघरानों के वैभव के बरक्स साधारण राजपूत नेताओं के नामों का एक प्रभावशाली एक्वेरियम तैयार हो गया।
इसमें जसवंत सिंह जसोल, कल्याण सिंह कालवी, तनसिंह, देवीसिंह भाटी, नरपत सिंह राजवी, सुरेंद्र सिंह राठौड़ और राजेंद्र सिंह राठौड़ जैसे कितने ही अनूठे नाम तैरने लगे।
इससे राजघरानों की राजनीति ने बेचैनी महसूस की।
राजस्थान की सियासत एक संकरी सुरंग से गुजरते हुए 1987 तक आई तो राजघरानों ने देखा कि देश के राजनीतिक परिदृश्य पर वीपी सिंह छाए जा रहे हैं।
बदलाव लाने वाले शेखावत
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को चुनौती दी तो बड़े राजघरानों ने उनके साथ अपना भविष्य देखा।
दरअसल, वीपी सिंह राजस्थान के देवगढ़ ठिकाने के दामाद थे। इस तरह 1993 के चुनाव में राजपूत राजघरानों और ठिकानेदारों के लोगों को काफी टिकट दिए गए। पराक्रम सिंह बनेड़ा और वीपी सिंह बदनौर जैसे नेता उभरे।
शेखावत की सरकार बनी तो 1993 से 1998 के बीच गढ़ों-किलों और ठिकानों के दिन फिरे और नई पर्यटन नीति से नई बहार आई।
जिन सूने किलों की विशाल मेहराबों पर कबूतर बैठते थे, इस नीति के बाद वहाँ सरकारी सहायता और मार्गदर्शन से विदेशी पर्यटक आने लगे।
कभी धोरों की रेत में नहाए सूने किले अब चाँदनी में नहाने लगे और रेगिस्तान में संपन्नता की झीलें अठखेलियां करने लगीं।
चुनाव आए तो आरोप लगे कि शेखावत ने सारा खजाना राजमहलों और राजघरानों पर लुटा दिया है। नतीजा यह निकला कि भाजपा 200 में से 33 सीटों पर जा टिकी और कांग्रेस ने 153 सीटें हासिल कीं।
1998 में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार बनी और 2003 के चुनाव आए तो महारानी वसुंधरा राजे की आंधी चली और कांग्रेस 56 सीटों पर सिमट गई और भाजपा को 120 सीटें मिलीं।
भाजपा को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। वसुंधरा राजे परिवर्तन यात्रा पर निकलीं और प्रदेश का चप्पा-चप्पा छान मारा तो उन्हें जहाँ कहीं किसी राजघराने या राजपूत परिवार में राजनीति की संभावना दिखी, उन्होंने उसे आगे बढ़ाया।
अब उत्तर-वसुंधरा काल में भाजपा के नेतृत्व ने एक बार फिर राजघरानों के लिए कंधे चौड़े कर लिए हैं और सीना खोल दिया है।
प्रो. खंगारोत बताते हैं, ‘राजस्थान के सारे ही राजघराने उत्पीडक़ नहीं थे। लेकिन यह सच है कि सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता। राजों-नवाबों के लिए पहले जो लाल कालीन बिछता था, उस पर अब चुने हुए सत्ताधीश चलते हैं और वे मनमाने फैसले करते हैं।’ और उनके इन्हीं फैसलों की बदलौत पार्टियों के सामान्य कार्यकर्ता दरियां-बिछाते और नारे लगाते रह जाते हैं और राजमहलों में टिकट पहुँच जाते हैं। (bbc.com/hindi)
ब्रिटेन के लिश्टरशायर में रहने वाले 38 साल के साजन देवशी कहते हैं कि उन्होंने पैसिव इनकम के बारे में पहली बार 2020 के कोरोना लॉकडाउन के समय सुना था।
उस वक्त लगभग हर व्यक्ति अपने घर में बैठा था, तभी देवशी ने नोटिस किया कि बहुत सारे लोग फ़ेसबुक और टिकटॉक पेज पर पोस्ट लिखकर बता रहे थे कि कैसे बहुत कम या मामूली मेहनत में ही वो लोग पैसे कमा रहे हैं।
देवशी कहते हैं, ‘मुझे भी यह आइडिया बहुत पसंद आया कि बहुत कम मेहनत और पूंजी लगाकर कुछ बिजनेस शुरू किया जाए और फिर उसे अपने-आप चलने दिया जाए। इसका मतलब यह था कि मैं अपने वो सारे काम कर सकता था जो मेरे लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं और साथ ही साथ मैं अपने गुजारे के लिए पैसे भी कमा सकता था।’
इसी सोच के साथ देवशी ने ऑफि़स से लौटने के बाद जब उनके बच्चे सो जाते थे तो उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में काम करना शुरू किया। विशेषज्ञों ने इसका नाम दिया पैसिव इंकम यानी बहुत कम मेहनत में कमाई करना।
रांची स्थित पूर्व बैंकर और अब फाइनांशियल एडवाइजर मनीष विनोद इसको और समझाते हुए कहते हैं, ‘शुरुआत में आपको थोड़ा सक्रिय होकर कोई काम या बिजऩेस शुरू करना होता है लेकिन कुछ दिनों के बाद आपको उससे पैसे आने लगते हैं और तब आपको हर दिन उसके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती है आपका काम ऑटो मोड में आ जाता है।’
विनोद ने इसे सेकंड लाइन ऑफ डिफेंस करार देते हैं। वो कहते हैं, ‘अपने और अपने परिवार के भविष्य की सुरक्षा के लिए आप जो दूसरी पंक्ति तैयार करते हैं उसे ही पैसिव इनकम कहा जाता है।’
कोरोना लॉकडाउन
पहले यह सिर्फ अमीर लोग ही कर सकते थे क्योंकि उनके पास संपत्ति होती थी जिससे वो रियल स्टेट में लगाकर उसके किराए से आमदनी करते थे या फिर कहीं और इन्वेस्ट कर देते थे। लेकिन कोरोना लॉकडाउन के बाद पैसिव इंकम की पूरी परिभाषा ही बदल गई। क्योंकि अब नौजवान और खासकर जेड जेनेरेशन कहे जाने वाले नौजवानों ने पैसिव इनकम कमाने का नया-नया तरीक़ा खोज निकाला है।
जानकारों का कहना है कि नौकरियों की चुनौती और सोशल मीडिया के प्रभाव के कारण पैसिव इंकम में लोगों का रुझान बढ़ रहा है।
अमेरिकी सेंसस ब्यूरो के अनुसार अमेरिका में कऱीब 20 फीसद घरों में लोग पैसिव इनकम कमाते हैं और उनकी औसत आमदनी करीब 4200 डालर सालाना होती है। और 35 फीसद मिलेनियल्स भी पैसिव इनकम कमाते हैं। भारत में भी इसका चलन बढ़ रहा है।
मनीष विनोद के अनुसार भारत में पैसिव इनकम कमाने वालों की सही तादाद बता पाना मुश्किल है क्योंकि कई लोग इसे छिपाते हैं।
डेलॉइट ग्लोबल 2022 के जेनेरेशन जेड़ एंड मिलेनियल सर्वे के अनुसार भारत के 62 फीसद जेनेरेशन ज़ेड और 51 फ़ीसद मिलेनियल कोई ना कोई साइड जॉब करते हैं और पैसिव इनकम कमाते हैं।
मुंबई स्थित पर्सनल फाइनेंस एक्सपर्ट कौस्तुभ जोशी भी मानते हैं कि भारत में इसका चलन बढ़ रहा है, हालांकि उनके पास भी इसका कोई आधिकारिक डेटा मौजूद नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘पर्सनल फाइनेंस के लिए जो नई पीढ़ी के युवा आते हैं, तो पैसा कैसे इन्वेस्ट किया जाए? यह तो पूछते ही हैं, उसके अलावा कोई पैसिव इनकम कमाने का जरिया हो तो वह जानने में भी उनकी रुचि रहती है, यह मैंने देखा है।’
सोशल मीडिया का प्रभाव
टिक टॉक और इंस्टा पर ऐसे हजारों वीडियो मिल जाएंगे जो आपको बताएंगे कि आप कैसे पैसे कमा सकते हैं।
ब्रिटेन के लीड्स यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल में पढ़ाने वाले प्रोफेसर शंखा बासु कहते हैं कि इसी तरह के वीडियो की वजह से नौजवानों में पैसिव इंकम कमाने का शौक बढ़ रहा है।
वो कहते हैं कि लोग इन्फ्लूएंसर्स को अपनी सफलता की कहानी सुनाते हुए देखते हैं और उससे प्रभावित होकर वो भी वही करने लगते हैं। फिर उनमें से कुछ लोग जो कामयाब हो जाते हैं फिर वो अपनी कहानी सुनाते हैं और इस तरह से यह चक्र चलता रहता है।
जेनेरेशन मनी के संस्थापक और पर्सलनल फ़ाइनांस के एक्सपर्ट ऐलेक्स किंग भी मानते हैं कि सोशल मीडिया के कारण लोगों को यकीन होने लगता है कि पैसिव इनकम कमाना ना केवल संभव है बल्कि अपनी वित्तीय आज़ादी हासिल करने का एक सामान्य जरिया है।
किंग कहते हैं कि आर्थिक स्थिति के कारण भी लोग पैसिव इनकम कमाने के बारे में ज़्यादा सोचने लगे हैं।
वो कहते हैं, ‘पिछले एक दशक में लोगों की आमदनी में कोई इजाफा नहीं हुआ। बहुत सारे नौजवान बहुत ही खराब स्थिति में नौकरी करते हैं और कई कंपनी में ओवरटाइम को लेकर भी कड़े नियम हैं, आप केवल कुछ ही घंटे ओवरटाइम कर सकते हैं।’
बासु के अनुसार, बढ़ती मंहगाई और रोज़मर्रा के बढ़ते खर्चे के कारण कई नौजवान अब पैसिव इंकम की तरफ झुक रहे हैं क्योंकि उनके अनुसार, वो मेनस्ट्रीम नौकरी में घंटों काम करते हैं लेकिन उनकी आमदनी उस हिसाब से बहुत कम है।
कोविड लॉकडाउन के कारण कई लोगों को लगा कि उन्हें अपनी नौकरी में और आजादी चाहिए और इस दौरान लोगों को समय और मौका दोनों मिल गया पैसिव इनकम के लिए नई नई तकनीक और हुनर हासिल करने का।
किंग के अनुसार नई पीढ़ी में यह आम राय बन गई है कि मौजूदा आर्थिक स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि आपकी आमदनी का एक से ज़्यादा जरिया होना चाहिए।
भारत में पैसिव इनकम
मनीष विनोद के अनुसार भारत में कुछ लोग खानेपीने का बिजनेस कर रहे हैं तो कुछ ब्लॉगर बन गए हैं। कुछ लोग शेयर के खरीद-फरोख्त में जुट गए हैं तो कुछ ड्रॉप शिपिंग स्टोर की देखभाल कर रहे हैं।
अपनी संपत्ति को किराए पर देना पैसे कमाने का सबसे आसान जरिया है। कोरोना के दौरान ऑनलाइन क्लासेज का चलन बहुत तेज हुआ था।
उस दौरान बहुत से लोग जो नौकरी तो कुछ और करते थे लेकिन उन्हें पढ़ाने का शौक था। ऐसे लोगों ने इसका फायदा उठाते हुए ना केवल अपना शौक पूरा किया बल्कि आमदनी का एक दूसरा ज़रिया भी पैदा कर लिया।
कई लोगों ने तो इस दौरान किताबें लिख दीं और फिर उनको छापकर पैसे कमा लिए। मनीष विनोद के अनुसार यू-ट्यूब चैनल पर कूकरी क्लासेज से भी बहुत लोगों ने और खासकर महिलाओं ने अपने शौक के साथ-साथ ख़ूब पैसे कमाए। मनीष विनोद कहते हैं कि कोरोना के दौरान ड्रॉपशीपिंग के ज़रिए भी लोगों ने ख़ूब कमाई की और अब यह बहुत ही पॉपुलर हो गया है।
ड्रॉपशीपिंग आधुनिक ऑनलाइन बिजनेस मॉडल है, जिसमें बहुत ही कम निवेश की जरूरत होती है। इसमें ना तो आपको ढेर सारा सामान खरीद कर गोदाम में रखने की जरूरत है और ना ही इस बात से घबराने की कि आपका उत्पाद बिकेगा या नहीं। इसमें आप सप्लायर से सामान लेकर सीधे जरूरतमंद को दे देते हैं।
आपको बस एक ऑनलाइन स्टोर खोलना होता है। उन सप्लायर्स से आपको टाईअप करना होता है।
जैसे ही आपके पास कोई मांग आती है आप सप्लायर से वो चीज लेकर खरीदने वाले को वो चीज़ ऑनलाइन बेच देते हैं। स्टॉक और शेयरों की लेन-देन भी एक ऐसा बिजनेस है जिससे आप घर बैठे पैसे कमा सकते हैं।
कौस्तुभ जोशी कहते हैं, पिछले 5 साल में मैंने यह देखा है ऑनलाइन पोर्टल, इंस्टाग्राम, अकाउंट फेसबुक और यूट्यूब की मदद से पैसे इनकम कमाई जा रही है।
जो चीज आपको आती है उसकी वीडियो या कॉन्टेंट के माध्यम से सोशल मीडिया पर अपलोड करने से आपको पैसा मिल सकता है।
यह बात इतनी ही सही है की यूट्यूब यह बहुत लोगों का आमदनी का पहला सोर्स बनता जा रहा है , लेकिन कई लोगों को वह आज भी पैसिव इनकम का जरिया लगता है।
इंस्टाग्राम ने युवाओं को एक आसान तरीका उपलब्ध करवाया है, जिसमें के आपके इंस्टाग्राम हैंडल को अगर बहुत अच्छी ‘रिच’ मिल रही है तो आप मार्केटिंग कंपनी के साथ टाइप कर पेड़ प्रमोशन भी कर सकते हैं।
राह में मुश्किलें
लेकिन यह भी सच्चाई है कि कुछ लोगों के लिए यह काम करता है लेकिन कई लोगों के लिए इस तरह का सपना सपना ही रह जाता है। सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर्स जितनी आसानी से इस बारे में बताते हैं वास्तव मे चीज़ें उतनी आसान भी नहीं होती हैं।
देवशी ने एडुकेशनल रीसोर्स वेबसाइट लॉन्च किया ताकि छात्रों को अपनी परीक्षा में मदद मिले। उन्होंने पहले जितना आसान सोचा था वो उतना है नहीं।
देवशी कहते हैं कि किसी भी प्रोजेक्ट को जमाने में मेहनत और समय लगता है और फिर बाद में पैसिव इनकम आने लगती है।।।इसलिए सिफऱ् पैसिव इनकम कमाना उतना आसान भी नहीं है जैसे बताया जा रहा है
किंग कहते हैं कि बहुत सारे इन्फलूएंसर्स ग़लत नियत से ऐसा करते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह के कोर्स को बेचकर पैसे कमाया जा सकता है। जिससे इनको तो आमदनी होती है लेकिन देखने वालों को नहीं।
फिर भी एक मौका तो है
जानकार मानते हैं कि कुछ कामयाब मिसालों को उसी तरह लेना चाहिए लेकिन इसके बावजूद इसके कुछ मौके तो हैं।ज्यादा लोग अगर पैसिव इनकम कमाते हैं तो नौजवानों के पैसे कमाने के जरिए में शिफ्ट आएगा। बासु कहते हैं कि डिजीटल बिजनेस को बंद करना ज्यादा नुकसानदेह नहीं है।
माइडसेट बदला है...सिर्फ अमीरों का नहीं है। पैसे से पैसे कमाया जा सकता है यह सोच बदल रही हैं।
सावधानी भी जरूरी है
पैसिव इनकम का चलन बढ़ रहा है और कई लोग इसकी वकालत भी कर रहे हैं। लेकिन कौस्तुभ जोशी इसको लेकर सतर्क रहने की भी सलाह देते हैं। वो कहते हैं, ‘जब लोग पैसिव इनकम को अपना पैसे कमाने का मूल इनकम सोर्स समझने लगे तो यह उचित बात नहीं है।
कई लोग अपने ऑफिस के काम को नजरअंदाज करके अपने पैसिव इनकम पर जोर देने का प्रयास करते हुए मैंने देखा है, यह प्रयास गलत है। इससे आपके दोनों इनकम सोर्स पर इफेक्ट हो सकता है।’
वो एक और अहम बात की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘पैसिव इनकम कमाना आजकल हर एक की ख्वाहिश है, लेकिन इसमें आप अपना ज्यादा वक्त लगा रहे हैं और ख़ुद के लिए और अपने परिवार के लिए समय नहीं निकाल पा रहे हैं तो युवाओं को ध्यान देना चाहिए। पैसा कमाना आपका मुख्य उद्देश्य होना ज़रूरी है, लेकिन वह आपका अंतिम उद्देश्य नहीं होना चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
दुनियां भर के वैज्ञानिकों की चेतावनियों और प्रकृति के विनाश, पर्यावरण असंतुलन, भयंकर वायु एवम जल प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम के कारण चारों तरफ घट रही दुर्घटनाओं की असंख्य चीखों के बावजूद हमारे देश के नीति नियंत्रक राजनीतिज्ञों और राजनितिक दलों में प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति जरा भी गंभीरता दिखाई नहीं देती। हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों में जारी विभिन्न राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों और इन दलों के स्टार प्रचारकों के चुनावी भाषणों में इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर कोई चर्चा तक नहीं है। यह तथ्य सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी मुख्य धारा की राजनीति ने आम आदमी और विशेष रूप से युवा पीढ़ी के लिए जीवन मरण के मुद्दे बन चुके प्रकृति और पर्यावरण के प्रति शुतुरमुर्ग जैसा रवैया अपना रखा है। सत्ता हासिल करने के लिए विभिन्न वर्गों के मतदाताओं के लिए तरह तरह के लोक लुभावन वादों की बौछार करने वाले दलों को इस बात की कतई चिंता नहीं दिखती कि चौतरफा प्रदूषण और जलवायू परिर्वतन हमारे करोड़ों नागरिकों के स्वास्थ्य और अर्थ व्यवस्था के लिए कितना बड़ा खतरा बनकर सामने खड़ा है।
जलवायु परिवर्तन भारत जैसे आबादी बहुल कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था को किस तरह बर्बाद कर सकता है इसके लिए चंद उदाहरण ही काफी हैं। मध्य प्रदेश में अक्टूबर और नवम्बर में सर्दी की जगह वसंत ऋतु जैसा मौसम है जिससे मुश्किल से एक महीने की सरसों पर समय से दो माह पहले फूल आने लगे हैं। इसी तरह आम के कुछ पौधों पर समय से दो महीने पहले बोर आने लगे हैं। वैज्ञानिक डॉ ओ पी सिंह के अनुसार इस तरह समय से पहले आए फूल और फल की फ़सल सामान्य से पचास प्रतिशत कम होती है। यह एक तरह से प्री मेच्योर डिलीवरी की तरह है। जलवायु के जरा से परिर्वतन से कृषि फसलों के उत्पादन पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है इसकी सहज कल्पना इन दो हाल में घटित उदाहरणों से की जा सकती है।जल और वायु की गुणवत्ता लगातार नीचे गिरते गिरते खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है और शुद्ध जल और वायु की उपलब्धता आम आदमी के लिए असंभव होती जा रही है। मध्य प्रदेश में आम किसान भी यह जान रहा है कि इस बार रबी की फ़सल के लिए पानी की काफी किल्लत झेलनी पड़ेगी लेकिन राजनीतिज्ञ बेफिक्र हैं।
गोवा के गांधी विचारक और पर्यावरणविद कुमार कलानंद मणि बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन गोवा के उन निर्दोष किसानों को भी बहुत परेशान कर रहा है जिनका जलवायु परिवर्तन में कोई योगदान नहीं है। गोवा में काफी किसान आम की बागवानी करते हैं। इधर आम की फ़सल दो महीना विलंब से मार्च की जगह मई में आने लगी है और उसकी उपज भी घट रही है। आम की खेती घाटे का सौदा बन रही है। उनका कहना है कि यह केवल गोवा ही नही दक्षिण पश्चिम के कई प्रदेशों में फैले पश्चिम घाट में सब जगह हो रहा है। दिल्ली में प्रदूषण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने से सरकार को नवंबर में शिक्षण संस्थाओं को बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय को केंद्र और राज्य सरकार को समन्वय कर समस्या का त्वरित समाधान करने की नसीहत के साथ कड़ी टिप्पणी करनी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी से भी यह प्रमाणित होता है कि सरकारों का रवैया प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील नहीं है। यह बेहद चिंता का विषय है कि पूरी राजनीति वोट बैंक के चक्कर में केवल लोक लुभावन योजनाओं तक सीमित हो गई है। इससे भी भयावह यह है कि अधिकांश जनता भी प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति उदासीन है। यही रवैया रहा तो अभी कभी कभी होने वाली प्राकृतिक आपदाएं स्थाई हो जाएंगी, फिर उनके कहर से बचने का हमारे पास कोई उपाय नहीं होगा इसलिए इस मुद्दे पर हम सबको अविलंब चेतने की जरुरत है।
-शोभा अक्षर
जि़न्दगी से पूछेंगे तो कहेगी हर पहलू अधूरा रह गया, मैं कहती हूँ पूरा होना कुछ नहीं होता। प्रेम पाना, पाने की मुसलसल ख़्वाहिश ही तो जिन्दगी में रूमानियत बरकरार रखती है, जिन्दा रखती है, वैसे भी मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं! अपने पूर्व प्रेमियों को याद करती हूँ तो उनके लिए मेरा हृदय सम्मान से भर जाता है, उन्होंने मुझे अथाह प्रेम दिया, प्रेम करना सिखाया, प्रेम को जीना सिखाया।
हम जब-जब अलग हुए, हर बार एक संवाद के बाद ही अलग हुए। जहाँ कोई कुछ त्याग नहीं रहा था, किसी को समझौता नहीं करना था। अलग होने को चुनने में भी जो ‘साथ’ था। यही ‘साथ होना’ ही तो प्रेम है। अपने एक प्रेमी से ही मैंने जो सीखा उसे कुछ वर्ष पहले एक वाक्य में समेट सकी, यहाँ उसका उल्लेख करना वाजिब लग रहा है। मैंने लिखा था,
‘एक दिन पुरुषार्थ ही उन सभी स्त्रियों को जन्म देगा जो दफऩ हैं मर्दों के मस्तिष्क में।’
अब जब मुझे लिखना आ गया है, मैं अपने प्रेमियों के नाम अनगिनत चिट्ठियाँ लिखना चाहती हूँ। पते पर लिखूँगी, अपनी किताब की उस सेल्फ का पता जहाँ मैंने अपने प्रिय कवियों की किताबें सजाई हैं।
मुझे इस वक्त एक प्रेमी की याद आ रही है, कॉलेज के दिनों में उस लडक़े से मिली थी, उसने मुझे बेइंतहा मोहब्बत दी जबकि मैं उस वक्त एक रिलेशनशिप में थी। उसे मेरी ओर से एक लम्बे समय के बाद रिस्पांस तब मिला जब मेरा रिलेशनशिप पार्टनर शादी करने अपने गाँव चला गया। मुझे कुछ वक्त लगा लेकिन वह प्रेम ही तो था जिसने मुझमें फिर से ऊर्जा भर दी थी, मैंने उस साल टॉप किया था। और वो जो पढऩे में एकदम फुद्दु था, उसे पढ़ा-पढ़ा कर मैंने उसे किसी तरह पास करा दिया था।
उसका रोना, बाप रे! चुप होने में घंटों लगाता था। जैसे कोई बच्चा माख लगने पर अपनी माँ की गोद से लिपटकर खूब रोता है, उसी तरह वो भी मेरी कमर में अपने दोनों हाथ डाल कर चिपट जाता था। खूब रोता था।
जब हम अलग हुए तो उसे मूव ऑन होने में बहुत मुश्किलें आईं थी। इधर मैं भी उस वक्त अपने बेहद बुरे दौर से गुजरी।
सोचती हूँ अलग होना, प्रेमी-प्रेमियों में क्या वाकई अलग होना होता है।
इतनी खूबसूरत यादें, प्रेम की दुनिया में बनाया अपना एक प्यारा-सा अदृश्य घर जिसमें अनगिनत खिड़कियाँ होती हैं, हर खिडक़ी से झाँकते ख़ुशबूदार फूलों के गुच्छे। ओह!
मेरे प्रेमियों ने ही बताया कि दुनिया में तथाकथित मर्दों से अधिक कोमल पुरुषों की अधिकता है, और उन्होंने ही प्रेम को आबाद रखा है। शुक्रिया! मुझे ख़ुद से प्रेम करने के लिए तुमने ही तो प्रोत्साहित किया।
मैं इंतजार करती हूँ कि तुम भी लिखो मुझे एक खत। तुमने मुझसे जो साहस पाया है, उसकी स्याही से।
-विष्णु नागर
गूगल पर एक दिन एक खबर का शीर्षक दिखा। पूरी खबर देखने लगा तो वह ऐसे गायब हुई, जैसे गधे के सिर से कभी सींग गायब हुए होंगे। घंटे, दो घंटे, तीन घंटे बाद भी वह खबर खोजने पर नहीं मिली। गूगलवालों ने सोचा होगा कि ये खरीदेगा तो नहीं और इस उल्लू के पट्ठे को चौंकाना भी अब संभव नहीं तो मरने दो साले को। सौ जनम तक भी ढूंढेगा तो भी यह अब नहीं मिलेगी।
उस खबर का शीर्षक कुछ इस तरह था कि आप चौंक जाएंगे मुंबई में वन रूम किचन के फ्लैट की कीमत सुनकर।मेरी इच्छा थी कि इसे पढ़ूं अवश्य और अपने पर प्रयोग करके देखूं कि मैं उस खबर से चौंकता हूं या नहीं?वैसे मुझे अपने पर पूरा विश्वास है कि मैं चौंकता नहीं। मैं जानता हूं कि इस देश में जिसके पास पैसा है, उसके पास पैसा ही पैसा है। कैसे-कहां से आया, अब इसका मतलब नहीं रहा। और जिसके पास नहीं है तो एक समय की रोटी के लिए भी नहीं है। और इस तथ्य से अब कोई चौंकता नहीं। वह भूखा भी नहीं और वह अमीर भी नहीं और मैं-आप भी नहीं। सरकार बहादुर तो कतई नहीं।
जहां तक उस फ्लैट की कीमत का सवाल है, वह दस से पचास करोड़ तक भी होगी तो भी मैं चौंकूगा नहीं। सौ करोड़ होगी तो भी नहीं।पांच सौ करोड़ होगी, तो दस सेकंड के लिए अचंभित होऊंगा। फिर देखूंगा कि इसमें ऐसी क्या खास बात है।देखकर खरीदनेवाले को मन ही मन बेवकूफ कहूंगा और अपने काम से लग जाऊंगा।सोचूंगा कि मेरे फादर साहब को इससे क्या फर्क पड़ता है? वह तो ये सब देखने के लिए हैं नहीं तो मरने दो इन ससुरों को!
चौंकना अब मैंने पूरी तरह बंद कर दिया है।कुछ भी अब मुझे चौंकाता नहीं। देश के बड़े पद पर बैठा आदमी जब कहता है कि कमल के बटन को ऐसे दबाओ कि जैसे इन्हें फांसी दे रहे हो तो इसके बाद चौंकने के लिए कुछ रह जाता है? और वह शख्स इस भाषा पर रुकेगा?भाषा के आगे और मंजिलें हैं। अभी तो 2024 बाकी है।
भाषा से भी वह आगे बढ़े तो भी क्या चौंकना क्या? चौंकना अब बचकानापन है। रोना व्यर्थ है।ये घटियापन, ये ओछापन, ये नफरत अब चौंकाती नहीं। किसी को बुलडोजर बाबा कहकर उसकी पूजा की जाती है ,उसे आदर्श बताया जाता है ,वह भी नहीं। बुलडोजर से कुचलने की बात की जाती है, कुचल दिया जाता है तो भी नहीं। एक आदमी दूसरे आदमी पर थूकता-मूतता है,वह तो लगता है बेहद मामूली बात हो गई है इन दिनों। सामान्य सी। ऊंगली में छोटी सी चोट लग जाने जैसी!
किसी बड़े पूंजीपति की बेईमानी की रक्षार्थ, पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज करवाने की जिम्मेदारी सरकार खुद ओढ़ लेती है तो वह भी अब चौंकाता नहीं। अंतिम आदेश जारी करने से पहले देश की बड़ी अदालत कुछ और कहती है, बाद में कुछ और आदेश देती है तो भी मैं चौंकता नहीं। अब बिहार का बालू माफिया किसी सिपाही को कुचल कर मार देता है तो भी चौंकता नहीं । इस पर नीतीश कुमार का मंत्री कहता है कि इसमें नया क्या है, यह सब तो पहले भी होता रहा है। क्या यूपी- एमपी में यह सब नहीं होता तो भी मैं चौंकता नहीं! आप भी चौका बंद कीजिए। अब सब कुछ सामान्य बनाया जा चुका है, नित्यकर्म बन चुका है। चौंकना अब मूर्खता का पर्याय हो चुका है।
इसराइल का प्रधानमंत्री नेतन्याहू जिस तरह आतंकवाद को कुचलने के नाम पर एक-एक फिलीस्तीनी को कुचलवा रहा है, अस्पतालों में भर्ती मरीजों को मारा जा रहा है, लगभग पांच हजार बच्चों को हलाक करने की खबरें हैं और जिस तरह दुनिया इसे टुकुर-टुकुर देख रही है,वह अब चौंकाता नहीं?। क्या मणिपुर में साढ़े छह महीनों से जो चल रहा है, वह आपको चौंकाता है? चौका सकेगा, अब कभी?
अब चौंकने के लिए कुछ बचा नहीं। जब वोट देना विपक्ष को फांसी देने के बराबर बन चुका है तो क्या चौंकना?
लोकतंत्र और तानाशाही में अब कोई फर्क बचा है, जो हम चौंकें? धार्मिकता और क्रूरता में अब दूरी कितनी है, जो हम चौकें?क्या अब गेरूआ, गेरूआ रहा? खून के छींटें अब कहां नहीं हैं? सबसे ज्यादा सबसे उजले कपड़ों पर हैं। दिन में छह बार एक से एक कीमती कपड़े पहनने वाले पर ये सबसे अधिक नजर आते हैं। साफे में नजर आते हैं, हैट पहनने पर नजर आते हैं। अब तो ये दाग चेहरे पर, कपाल पर, दाढ़ी में, उंगलियों पर नजर आते हैं। अब तो दाग ही दाग नजर आते हैं, न शरीर का कपड़ा नजर आता है, न भाषा, न स्थान?बस दाग, दाग ही दाग!
अब किसी व्यक्ति, किसी समाज, किसी भी मूल्य का पतन चौंकाता नहीं। आदमी में कहीं मानवीयता, सादगी बची हो तो वह चौंकाती है। अकारण कोई किसी की मदद कर देता है और धन्यवाद लेने के लिए रुकता नहीं, यह चौंकाता है। उत्तरकाशी में टनल दुर्घटना में फंसे चालीस मजदूरों का युवा सुपरवाइजर जब कहता है कि मुझ पर सभी साथियों के जीवन की जिम्मेदारी है, मैं आखिर में बाहर आऊंगा तो यह बात चौंकाती है। दिल घबराता है कि ऐसी जिम्मेदारी इसमें कहां से आई?
जहां प्रधानमंत्री से लेकर हर वीवीआईपी अपने को बचाने-बढ़ाने में लगा है, ऐसी धरती पर ऐसा आदमी गलती से कैसे, कहां से टपक पड़ा, जिसे अपने नहीं, दूसरे के प्राणों की चिंता है? क्या यह आदमी इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक का आदमी है या किसी और शताब्दी से, किसी और ग्रह से भटक कर यहां आ गया है?डर लगता है कि कहीं ऐसे आदमी को दुर्घटना के लिए जिम्मेदार न बता दिया जाए?ऐसा आदमी अन्याय करने के लिए सबसे उपयुक्त है!
-डॉ. आर.के. पालीवाल
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के लिए एक तरह से 2024 के आगामी लोकसभा चुनाव में दो दो हाथ करने का पूर्वाभ्यास बन गया है। यही कारण है कि इसे जीतने के लिए दोनों दलों के प्रमुख नेताओं ने धरती आसमान एक कर दिया है। दुर्भाग्य यही है कि दोनों राष्ट्रीय दल जन सरोकार से जुड़े बुनियादी मुद्दों के बजाय रेवड़ी कल्चर बढ़ाने वाली लोक लुभावन योजनाओं, धर्म और जाति आधारित राजनिति और एक दूसरे की कमीज के दाग बढ़ा चढ़ाकर दिखाने की ओछी राजनीति कर रहे हैं। जहां भाजपा ने प्रत्याशियों की पहली सूची काफी पहले घोषित कर बढ़त लेने की कौशिश की थी वहीं वह घोषणा पत्र जारी करने में बहुत पिछड़ गई और चुनाव से ऐन कुछ दिन पहले ही मोदी की गारंटी शीर्षक से घोषणा पत्र प्रकाशित कर पाई है। भाजपा की तुलना में कांग्रेस ज्यादा तैयार दिखी है। उसने प्रत्याशियों की घोषणा भी संयम के साथ की, घोषणा पत्र भी समय पर जारी किया और प्रदेश के मुखिया के चेहरे के रुप में कमलनाथ को बहुत पहले सामने लाकर पारदर्शिता बरती है। यही कारण है कि विभिन्न सर्वे में उसका पलड़ा भारी दिखाई दे रहा है।
भाजपा और कांग्रेस दोनों राजनीतिक दल खुद को एक दूसरे से बड़े दानवीर कर्ण की भूमिका में प्रस्तुत कर रहे हैं और जनता को भिखारी बनाने पर तुले हैं। भारतीय जनता पार्टी ने तो अपना पूरा अस्तित्व प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के हवाले कर दिया है। वहां न भारतीय जनता पार्टी की तरफ से बयान आते हैं और न उसके अध्यक्ष की कोई हैसियत है। इनके बजाय घोषणापत्र को मोदी की गारंटी नाम देने से यह साफ जाहिर है कि उसे प्रदेश के किसी नेता या बड़े नेताओं के सामूहिक नेतृत्व पर विश्वास नहीं है। चुनाव पूरी तरह प्रधानमन्त्री का वन मैन शो है। इसके विपरीत कांग्रेस राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की हाई कमान की जोड़ी और मध्य प्रदेश की कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी के चतुर्भुज को आगे कर चुनावी समर में उतरी है। इससे लगता है कि वह एक यूनिट की तरह काम कर रही है। संगठन और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की भूमिका वहां भी नगण्य ही है। इस अर्थ में लोकतंत्र वहां भी सतही हैं लेकिन भाजपा की तुलना में केंद्रीयकरण कुछ कम है। यह हकीकत है कि प्रदेश के चुनाव में लोग स्थानीय नेताओं को आगे देखना चाहते हैं न कि राष्ट्रीय नेताओं को। अधिकांश लोग तमाम वंदे भारत ट्रेन चलने के बावजूद दिल्ली को अभी भी दूर ही मानते हैं। भाजपा ने कर्नाटक में मोदी के चेहरे को आगे करके मिली हार से कोई सबक नहीं लिया । उसका यह दांव मध्य प्रदेश में भी उल्टा पड़ सकता है।
कोई भी चुनाव आखिरकार जनता पर ही निर्भर करता है। मध्य प्रदेश की गरीब जनता को दोनों दलों ने खूब लालच दिया है। स्थिति यह बन गई है कि जो लोग गरीबी की रेखा के ऊपर हैं वे भी इस मायावी रेखा के नीचे जाने के लिए तमाम साम दाम दण्ड भेद अपना रहे हैं और जिनके नाम इस रेखा के नीचे दर्ज हैं वे जन्म जन्मांतर तक इसी के नीचे दबे रहना चाहते हैं। यही हाल जातियों का है। कांग्रेस ने भाजपा के हिंदुत्व , राम मंदिर और धार्मिक लोक निर्माण के मुद्दों की काट के लिए जातियों की जनगणना का राग अलापकर पिछड़ी जातियों के बड़े वर्ग को भाजपा के हिंदुत्व वोट बैंक से छिटकाने का प्रयास किया है। बहुत सी जातियां वैसे ही पिछड़ेपन की दौड़ में एक दूसरे को पछाडऩे के लिए आमादा हैं। मणिपुर के मैतेई और राजस्थान में गुर्जर जनजाति के दर्जे के लिए आंदोलन करते रहे हैं। यही हाल पिछड़ी जातियों का भी है। उसमें भी कुछ प्रदेशों में जाट आदि जातियां पिछड़ी जाति वर्ग में आना चाहती हैं तो कुछ जातियां अति पिछड़े वर्ग के रुप में अलग उपवर्ग बनना चाहती हैं। यह दुखद है कि गांधी, अंबेडकर, राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का नाम जपने वाले राजनीतिक दल इन विभूतियों की जाति विहीन और समरस समाज की कल्पना को धता बताकर सत्ता हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
-सच्चिदानंद जोशी
साठ वर्ष पूरे होने पर बहुत मित्रों और परिवारजनों के शुभकामना संदेश मिले ( जी हां आपका भी मिला, बताने ही वाला था)।सभी को यथा समय उनके संदेश मिलने की पहुंच भी दी गई। जो फिर भी छूट गए किसी कारण से उनसे क्षमा याचना।
मुद्दा वह नहीं है। शुभकामना संदेश में कुछ ऐसे थे जिनमे कहा गया ‘लगता नहीं कि तुम साठ के हो गए। ‘इससे पहले कि इस संदेश में अभिव्यक्त प्रशंसा की खुशी मना पाता कि दूसरा संदेश आ पहुंचा ‘अब हुए हो साठ के, हमें तो लगा कब के हो चुके हो।’ समझना कठिन था किस कथन को सही माना जाए और तय करना कठिन था कि कैसे व्यवहार किया जाए।
वैसे अपनी उम्र के आकलन के बारे ऐसे हादसे जिंदगी भर होते रहे हैं। बचपन में कहा जाता था कि बहुत नाजुक दिखते थे इसलिए मां ने अपनी लडक़ी की सारी हसरते हम ही पर पूरी कर डाली और तीन साल तक फ्रॉक पहना कर रखा। अब तो शायद इस बात की कल्पना करना भी किसी हादसे से कम न हो लेकिन उस समय कहा जाता है कि कई लोग धोखा खा जाते थे।
जरा बड़े हुए तब भी ऐसे बड़े नहीं हो पाए कि बड़े दिखें। इसलिए लोग हम दोनो भाइयों को देखकर कहते ‘बड़ा तो ठीक बड़ा है, लेकिन छोटा जरा ज्यादा ही छोटा है। ‘तब लगता कि मैं बड़ा कब हो पाऊंगा। भगवान से मनाता कि मुझे जल्दी बड़ा कर दे। जैसे कृष्ण अपनी मां से पूछते ’ कबहु बढ़ेगी चोटी’ तब कृष्ण को लगता कि दूध पीने से उनकी चोटी बड़ी होकर बलराम भैय्या की तरह हो जाएगी।
भगवान ने एक दिन सुन ली। उस दिन शायद भगवान के पास एक के साथ एक फ्री वाली स्कीम चल रही थी। बड़ा करने की गुहार शायद दो बार सुन ली। इसलिए बड़ा नहीं किया, कुछ ज्यादा ही बड़ा कर दिया। कुछ साल तक लडक़ी की तरह नाजुक दिखने वाले हम इतने बड़े दिखने लगे कि उम्र को लेकर भयानक हादसे होने लगे।
आठवी पास करके नवीं कक्षा में गए ही थे । पिताजी के एक परिचित घर आए । मैंने उनका स्वागत किया। पिताजी अंदर तयार हो रहे थे तो अतिथि धर्म निभाते हुए उनके पास बैठा। उन्होंने औपचारिकता वश पूछा ‘आप क्या करते हैं।’ऐसे प्रश्न का सामना पहली बार हुआ था। मैने गड़बड़ी में उत्तर दिया ‘हम नवीं में होते हैं। ‘वे पहले तो चक्कर खा गए इस उत्तर से , फिर जरा देर में सम्हल कर बोले ‘मेरा मतलब था काम क्या करते हैं। ’ उन्हें निराश करने का इरादा तो नही था फिर भी कहना पड़ा ‘काम तो कुछ नही करता नवीं में पढऩे के अलावा।’ उन परिचित के चेहरे के भाव देखने लायक थे। उन्हे अवश्य लगा होगा कि जोशी जी का ये बेटा एकदम डफर है और नवीं में ही लगातार फेल हो रहा है।
स्कूल में पढ़ते हुए ‘कौन से कॉलेज में हो बेटा’ या ‘किस ईयर में हो बेटा’ ऐसे सवालों का सामना कई बार किया। बार बार भगवान से मनाता कि किसी तरह कॉलेज में पहुंचा दो ताकि इस सवाल का सही उत्तर देकर आत्म ग्लानि से मुक्त हो सकूं। लेकिन कॉलेज में आते ही नए सवाल ने सताना शुरू कर दिया ‘आप कहां काम करते हैं’ या ‘आप कहां सर्विस करते हैं।’
एक बार तो पराकाष्ठा हो गई। इंदौर से एक परिचित प्रोफेसर साहब को मद्रास( अब चेन्नई) जाना था । उन दिनों मद्रास के लिए इंदौर वासियों को भोपाल से ट्रेन लेनी पड़ती थी। पिताजी की तबियत ठीक नहीं थी और वे अस्पताल में भर्ती थे। उन दिनों में कॉलेज के फर्स्ट ईयर में था और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था। उन प्रोफेसर साहब की इन दोनो बातों की जानकारी थी।।वे जैसे ही ट्रेन से उतरे मैंने उन्हे पहचान कर उनका सामान हाथ में ले लिया और आगे चलने लगा। प्रोफेसर साहब संकोच से बोले ‘रहने दीजिए जोशी साहब , आप अभी अभी बीमारी से उठे है। ‘मुझे उन्हे समझा कर कहना पड़ा कि जो अस्पताल में हैं वे मेरे पिता हैं और मैं उनका बेटा।’ अच्छा अच्छा तुम हो जो इंजीनियरिंग प्रवेश की तैयारी कर रहे हो। ‘मैंने उनकी बात का जो समझ में आया जवाब दिया क्योंकि मैं बेहद गुस्से में आ गया था। अब बताइए भला एक ही समय में मैं अपना पिता और मैं स्वयं कैसे दिख सकता हूं। ऐसा तो लोग सिनेमा में ही देखते और स्वीकार करते हैं। तभी तो खराब मेकअप के बावजूद दर्शकों ने शाहरुख को बाप और बेटे दोनो के रूप में झेल लिया ‘जवान’ में।
नौकरी मिली तो ऐसी जगहों पर जहां ज्यादातर सहयोगियों से बड़ा ही दिखा इसलिए भाई साहब की जगह चाचा ने ले ली। सब्जी वालों ने, दूध वालों ने अंकल कहना शुरू कर दिया। फिर एक वक्त ऐसा भी आया कि ‘कबहु बढ़ेगी चोटी’ अप साइड डाउन हो गई। बड़े भाई साहब का परिचय कराया तो सामने वाले ने पूछा ‘सचमुच आपसे बड़े हैं , लगते तो छोटे हैं।’ लगने लगा कि कब मैं सचमुच अंकल के स्टेटस को प्राप्त करूंगा। मैं उम्र के मकाम हासिल करता और उस उम्र का स्टेटस मुझसे दूर छिटक कर खड़ा हो जाता।
जब लगा कि अपन अंकल की कक्षा (ऑर्बिट) में स्थिर हो गए हैं और उस परिस्थिति से समझौता करना शुरू किया उसी समय एक और हादसा हो गया। ट्रेन से भोपाल से दिल्ली आ रहा था। ए सी कंपार्टमेंट की अपनी लोअर बर्थ पर बैठे सामने वाली बर्थ के सहयात्री का इंतजार कर रहा था।
तभी एक युवती अपने तीन चार साल के बेटे और ढेर सारे सामान के साथ दाखिल हुई। अपन ने अपनी जींस टी शर्ट ठीक किया ‘मेन विल बी मेन’ की तर्ज पर सांस रोक कर पेट अंदर किया। कुली के साथ उसका भारी भरकम सामान उतरवाने में और बर्थ के नीचे जमवाने में मदद की। ट्रेन चलने लगी तो उसने मुस्कुराकर अभिवादन किया जिसके उत्तर में अपन ने भी सांस रोक कर पूरी मुस्कुराहट बिखेरी। इसके पहले कि मैं कुछ और बोलकर संभाषण आगे बढ़ा पाता वह अपने बेटे से बोली ‘शोनू से नमस्ते टू दादू।’ शोनू ने भी अपनी माता की आज्ञा का पालन करते हुए मेरे पैर छुए और कहा ‘प्रणाम दादू।’ इसके बाद का सफर कैसा हुआ होगा इसका विवरण देने की शायद अब कोई आवश्यकता नहीं है।
इसलिए लगा कि साठ का हो जाऊंगा तो कम से कम इस जंजाल से तो मुक्ति मिलेगी। किसी एक स्टेटस में स्थिर हो पाऊंगा।लेकिन लगता है उम्र के स्टेटस में स्थिर होना किस्मत में नही है। अब किसी और मित्र ने कह दिया कि साठ के हो गए हो तो हो जाओ, लेकिन बताओ मत इतनी जोर से , इससे बात खराब होती है।
उम्र को थामना संभव नहीं है वह तो बढ़ती ही है, लेकिन वे भाग्यवान होते है जो हर समय अपनी उम्र के दिखते है और स्कूल में रहते हुए ‘आप क्या काम करते हैं’ जैसे प्रश्नों का सामना नहीं करते।
अपनी किस्मत में तो सूरदास जी का पद ही गाना बदा है ‘कबहु बढ़ेगी चोटी।’
लगभग 25 लाख वर्षों से मनुष्य अपने पोषण के लिए मांस पर निर्भर रहे हैं। यह तथ्य जीवों की जीवाश्मित हड्डियों, पत्थर के औज़ारों और प्राचीन दंत अवशेषों के साक्ष्य से अच्छी तरह साबित है। आज भी मनुष्य का मांस खाना जारी है - भारत के आंकड़े बताते हैं कि यहां के लगभग 70 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में मांसाहार करते हैं और आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2023 में विश्व की मांस की खपत 35 करोड़ टन थी। वैसे कई अन्य देशों के मुकाबले भारत का आंकड़ा (सालाना 3.6 किलोग्राम प्रति व्यक्ति) बहुत कम है लेकिन सवाल यह है कि क्या वास्तव में मांस खाना, और इतना मांस खाना ज़रूरी है?
एक प्रचलित सिद्धांत के अनुसार मांस के सेवन ने हमें मनुष्य बनाने में, खास तौर से हमारे दिमाग के विकास में, महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज के समय में भी कई लोग इतिहास और मानव विकास का हवाला देकर मांस के भरपूर आहार को उचित ठहराते हैं। उनका तर्क है कि आग, भाषा के विकास, सामाजिक पदानुक्रम और यहां तक कि संस्कृति की उत्पत्ति मांस की खपत से जुड़ी है। यहां तक कि कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि मांस मनुष्य के लिए एक कुदरती ज़रूरत है, जबकि वे शाकाहार को अप्राकृतिक और संभवत: हानिकारक मानते हैं। विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों ने इन धारणाओं को चुनौती भी दी है।
वास्तव में तो मानव विकास अब भी जारी है, लेकिन साथ ही हमारी आहार सम्बंधी ज़रूरतें भी इसके साथ विकसित हुई हैं। भोजन की उपलब्धता, उसके घटक और तैयार करने की तकनीकों में बदलाव ने महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। अब हमें भोजन की तलाश में घंटों भटकने की ज़रूरत नहीं होती और आधुनिक कृषि तकनीकों ने वनस्पति-आधारित आहार में काफी सुधार भी किया है। खाना पकाने की विधि ने पोषक तत्व और भी अधिक सुलभ बनाए हैं।
गौरतलब है कि पहले की तुलना में अब मांस आसानी से उपलब्ध है लेकिन इसके उत्पादन में काफी अधिक संसाधनों की खपत होती है। वर्तमान में दुनिया की लगभग 77 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि का उपयोग मांस और दूध उत्पादन के लिए किया जाता है जबकि ये उत्पाद वैश्विक स्तर पर कैलोरी आवश्यकता का केवल 18 प्रतिशत ही प्रदान करते हैं। इससे मांस की उच्च खपत की आवश्यकता पर महत्वपूर्ण सवाल उठता है।
हालिया अध्ययनों ने ‘मांस ने हमें मानव बनाया’ सिद्धांत पर संदेह जताया है। इसके साथ ही मस्तिष्क के आकार और पाचन तंत्र के आकार के बीच कोई स्पष्ट सम्बंध भी नहीं पाया गया जो महंगा-ऊतक परिकल्पना को चुनौती देता है। महंगा-ऊतक परिकल्पना कहती है कि मस्तिष्क बहुत खर्चीला अंग है और इसके विकास के लिए अन्य अंगों की बलि चढ़ जाती है और मांस खाए बिना काम नहीं चल सकता। 2022 में व्यापक स्तर पर किए गए एक अध्ययन में भी पाया गया है कि इस सिद्धांत के पुरातात्विक साक्ष्य उतने मज़बूत नहीं हैं जितना पहले लगता था। इस सम्बंध में हारवर्ड युनिवर्सिटी के प्रायमेटोलॉजिस्ट रिचर्ड रैंगहैम का मानना है कि मानव इतिहास में सच्ची आहार क्रांति मांस खाने से नहीं बल्कि खाना पकाना सीखने से आई है। खाना पकाने से भोजन पहले से थोड़ा पच जाता है जिससे हमारे शरीर के लिए पोषक तत्वों को अवशोषित करना आसान हो जाता है और मस्तिष्क को काफी अधिक ऊर्जा मिलती है।
दुर्भाग्यवश, हमारे आहार विकास ने एक नई समस्या को जन्म दिया है - भोजन की प्रचुरता। आज बहुत से लोग अपनी ज़रूरत से अधिक कैलोरी का उपभोग करते हैं, जिससे मधुमेह, कैंसर और हृदय रोग सहित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। इन समस्याओं के कारण मांस की खपत को कम करने का सुझाव दिया जाता है।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो मांस हमेशा से अन्य आहार घटकों का पूरक रहा है, इसने किसी अन्य भोजन की जगह नहीं ली है। दरअसल मानव विकास के दौरान मनुष्यों ने जो भी मिला उसका सेवन किया है। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि मनुष्यों द्वारा मांस के सेवन ने नहीं बल्कि चयापचय में अनुकूलन की क्षमता ने मानव विकास को गति व दिशा दी है। मनुष्य विभिन्न खाद्य स्रोतों से पोषक तत्व प्राप्त करने के लिए विकसित हुए हैं। हमारी मांसपेशियां और मस्तिष्क कार्बोहाइड्रेट और वसा दोनों का उपयोग कर सकते हैं। और तो और, हमारा मस्तिष्क अब चीनी-आधारित आहार और केटोजेनिक विकल्पों के बीच स्विच भी कर सकता है।
हम यह भी देख सकते हैं कि उच्च कोटि के एथलीट शाकाहारी या वीगन आहार पर फल-फूल सकते हैं, जिससे पता चलता है कि वनस्पति प्रोटीन मांसपेशियों और मस्तिष्क को बखूबी पर्याप्त पोषण प्रदान कर सकता है।
एक मायने में, अधिक स्थानीय फलों, सब्जिय़ों और कम मांस के मिले-जुले आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और ग्रह दोनों के लिए फायदेमंद हो सकता है। दरअसल हमारी अनुकूलनशीलता और मांस की भूख मिलकर अब एक पारिस्थितिकी आपदा बन गई है। यह बात शायद पूरे विश्व पर एक समान रूप से लागू न हो लेकिन अमेरिका जैसे देशों के लिए सही है जहां प्रति व्यक्ति मांस की खपत अत्यधिक है।
यह सच है कि मांस ने हमारे विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन आज की दुनिया में यह आवश्यक आहार नहीं रह गया है। अधिक टिकाऊ, वनस्पति-आधारित आहार को अपनाना हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नितिन श्रीवास्तव
रविवार को अहमदाबाद में होने वाले एकदिवसीय वल्र्डकप 2023 के फाइनल तक भारतीय टीम के सफर में कप्तान रोहित शर्मा की भूमिका अहम रही है।
लेकिन इस नई भूमिका के पहले बात उस दौर की जब रोहित शर्मा के क्रिकेट खेलने के भविष्य पर सवालिया निशान इसलिए लग गया था क्योंकि पैसों की तंगी की वजह से उनके करियर में रुकावट आ सकती थी।
बात 1999 की है जिस साल भारतीय क्रिकेट टीम इंग्लैंड में मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी में वल्र्ड कप खेल रही थी।
इधर मुंबई के एक उपनगर, बोरिवली, में 12 साल के रोहित शर्मा के लिए उनके पिता और परिवारजनों ने पैसे इक_े कर के एक क्रिकेट कैंप में भेजा था।
एक ट्रांसपोर्ट फर्म वेयरहाउस में काम करने वाले उनके पिता की आमदनी कम थी तो रोहित उन दिनों अपने दादा और चाचा रवि शर्मा के घर पर ही रहते थे, वो भी ख़ासी तंगी में।
लेकिन एक मैच और एक स्कूल ने उनके क्रिकेट करियर की दिशा बदल दी।
उसी साल रोहित शर्मा बोरिवली के स्वामी विवेकानंद इंटरनेशनल स्कूल के खिलाफ एक मैच खेल रहे थे जब उस स्कूल के कोच रमेश लाड ने उनके खेल को देख कर स्कूल के मालिक योगेश पटेल से उन्हें स्कॉलरशिप देने की सिफारिश की।
अब 54 साल के हो चुके योगेश पटेल के मुताबिक, ‘हमारे कोच ने कहा इस लडक़े में क्रिकेट का बड़ा हुनर है लेकिन इसका परिवार हमारे स्कूल की 275 रुपए महीना फ़ीस नहीं भर सकता इसलिए इसे स्कॉलरशिप दे दीजिए।’
वो कहते हैं, ‘मुझे खुशी है कि हमने वो फ़ैसला लिया और आज रोहित भारतीय कप्तान है। हमारे कोच की राय सही थी।’
पैसों की तंगी
इस फैसले के सालों बाद खुद रोहित शर्मा ने ईएसपीएनक्रिकइंफो.कॉम को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘कोच चाहते थे कि मैं विवेकानंद स्कूल में भर्ती होकर क्रिकेट खेलना शुरू कर दूँ लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे। फिर उन्होंने मुझे स्कॉलरशिप दिलवा दी और चार साल तक मुझे फ्री में पढ़ाई और खेलने का मौक़ा मिल गया।’
इस नए स्कूल में भर्ती होने के कुछ ही महीने के भीतर रोहित शर्मा ने 140 रनों की एक नाबाद पारी खेली थी जिसकी मुंबई के स्कूलों, मैदानों और क्रिकेट समीक्षकों में खासी चर्चा हुई थी।
मुंबई के शिवाजी पार्क पर क्रिकेट सीखते हुए सचिन तेंदुलकर, विनोद कांबली से लेकर प्रवीण आमरे तक बड़े हुए हैं।
इसी मैदान पर आज भी दर्जनों नेट्स चलते हैं जिसमें से एक अशोक शिवलकर का है जो उसी दौर में यहां बतौर खिलाड़ी खेला करते थे।
अशोक शिवलकर कहते हैं, ‘मुझे याद है रोहित शर्मा पहले अपने स्कूल की तरफ से ऑफ स्पिन गेंदबाजी करते थे। फिर उनके कोच ने उनकी बल्लेबाजी की प्रतिभा को पहचाना।’
‘इसके बाद रोहित ने मुंबई की मशहूर कांगा लीग क्रिकेट से लेकर मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन के टूर्नामेंट में अपने झंडे गाडऩे शुरू कर दिए थे।’
विवेकानंद स्कूल के मालिक योगेश पटेल आज अपने उस फैसले पर खुश होते हुए बताते हैं, ‘रोहित ने कोविड-19 के दौरान मुझे कॉल किया, हालचाल जानने के लिए। मैंने कहा बस लोगों की मदद करते रहो। उसे देख कर बेहद ख़ुशी होती है।’
नया रोल
ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ नरेंद्र मोदी स्टेडियम में खेले जाने वाले इस फाइनल के पहले रोहित टूर्नामेंट में न सिर्फ अपनी सटीक कप्तानी बल्कि अपनी धाकड़ बल्लेबाजी की छाप छोड़ चुके हैं।
2019 वल्र्ड कप में सबसे ज़्यादा रन बनाने वाले रोहित ने इस टूर्नामेंट में नई स्ट्रैटजी से खेलते हुए, बिना बड़े स्कोर की परवाह किए, पहले पॉवरप्ले में ही गेंदबाजों को अटैक किया है।
इससे न सिर्फ शुभमन गिल को विकट पर सध जाने का मौका मिला है बल्कि मध्यक्रम में कोहली, अय्यर और राहुल को भी पारी जमाने का पूरा मौका मिला है।
इस वल्र्ड कप के पहले मैच में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ वे शून्य पर आउट हुए लेकिन उसके बाद रोहित शर्मा के स्कोर एक दूसरी ही कहानी बयान कर रहे हैं।
131, 86, 48, 46, 87, 4, 40, 61 और 47 रनों की पारियाँ जिसमें उनका स्ट्राइक रेट 124।15 रहा है वाक़ई में क़ाबिले तारीफ़ है जिसने न सिफऱ् भारत को अच्छी शुरुआत दी है बल्कि बड़े टार्गेट चेस करने में आसानी भी ला दी है।
सिर्फ एक कसर बची है रोहित के लिए टूर्नामेंट में बतौर कप्तान ये खिताब जीतने के अलावा।
टूर्नामेंट का आखिरी मैच उसी ऑस्ट्रेलिया से है जिसके खिलाफ पहले मैच में वे खाता नहीं खोल सके थे।
अब फ़ाइनल में बड़ा स्कोर बनाकर पहले मैच की बात भुलाने से अच्छा क्या तरीक़ा हो सकता है! (bbc.com/hindi)
संजीव श्री
हम इंटरनेट युग में जी रहे हैं जहां पूरी दुनिया डैटा से घिरी हुई है। यह डैटा और कुछ नहीं बल्कि हमारी यादें, अनुभव, सूझ-बूझ, दुख-दर्द के क्षण और कभी-कभी सांसारिक गतिविधियों के बारे में है। जैसे, कोई विगत यात्रा या महीने और वर्ष में दिन के किसी विशेष घंटे में क्या खाया या फिर दैनिक जीवन के सामान्य घटनाक्रम का लेखा-जोखा।
क्या ऐसा पहले नहीं था? ऐसे तथ्यात्मक, भावनात्मक, आनुभविक और व्यवहारिक क्षणों को संग्रहित और संरक्षित करना हमेशा से एक मानवीय प्रवृत्ति रही है। अंतर केवल इतना है कि हमारे पूर्वज डैटा को अपनी स्मृतियों में या गुफाओं, पत्थरों या कागजों पर उकेरी गई छवियों के माध्यम से संग्रहित करते थे, जबकि आज हम प्रौद्योगिकी एवं उपकरणों की मदद से ऐसा करते हैं!
अतीत में, बातों को मानव स्मृति में संग्रहित करने के साथ-साथ पत्थर पर नक्काशी करना, पत्तों पर और बाद में कागज़ो पर ग्रंथ लिखना काफी श्रमसाध्य था। यह संग्रहण कुछ समय तक ही रह पाता था। समय के साथ, जलवायु के प्रहार पत्थरों, कागज़ों को नष्ट कर डैटा को भी विलोपित कर देते थे। मानव स्मृति की भी डैटा संग्रहण की एक निर्धारित क्षमता होती है। दूसरे शब्दों में, प्राचीन काल से चली आ रही डैटा संग्रहण की मानवीय प्रवृत्ति, वर्तमान युग की वैज्ञानिक तकनीकों एवं साधनों की आसान उपलब्धता से डैटा विज्ञान का उदय हुआ है।
डैटा विज्ञान: शुरुआती वर्ष
शब्द ‘डैटा विज्ञान’ 1960 के दशक में एक नए पेशे का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया था, जो उस समय भारी मात्रा में एकत्रित होने वाले डैटा को समझने और उसका विश्लेषण करने में सहायक सिद्ध हुआ। वैसे संरचनात्मक रूप से इसने 2000 की शुरुआत में ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
यह एक ऐसा विषय है जो सार्थक भविष्यवाणियां करने और विभिन्न उद्योगों में सूझ-बूझ प्राप्त करने के लिए कंप्यूटर विज्ञान और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग करता है। इसका उपयोग न केवल सामाजिक जीवन, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बल्कि व्यापार में भी बेहतर निर्णय लेने के लिए किया जाता है।
1962 में अमेरिकी गणितज्ञ जॉन डब्ल्यू. टुकी ने सबसे पहले डैटा विज्ञान के सपने को स्पष्ट किया। अपने प्रसिद्ध लेख ‘दी फ्यूचर ऑफ डैटा एनालिसिस’ में उन्होंने पहले पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) से लगभग दो दशक पहले इस नए क्षेत्र के उद्गम की भविष्यवाणी की थी।
एक अन्य प्रारंभिक व्यक्ति डेनिश कंप्यूटर इंजीनियर पीटर नॉर थे, जिनकी पुस्तक कॉन्साइस सर्वे ऑफ कंप्यूटर मेथड्स डैटा विज्ञान की सबसे पहली परिभाषाओं में से एक प्रस्तुत करती है।
1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि डैटा विज्ञान एक मान्यता प्राप्त और विशिष्ट क्षेत्र के रूप में उभरा। कई डैटा विज्ञान अकादमिक पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं, और जेफ वू और विलियम एस. क्लीवलैंड आदि ने डैटा विज्ञान की आवश्यकता और क्षमता को विकसित करने और समझने में मदद करना जारी रखा।
पिछले 15 वर्षों में, पूरे विषय को व्यापक उपकरणों, प्रौद्योगिकियों और प्रक्रिया के द्वारा परिभाषित और लागू करने के साथ एक भलीभांति स्थापित पहचान मिली है।
डैटा विज्ञान और जीवन
पिछले 100 वर्षों में मानव जीवन शैली में बहुत कुछ बदला है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी से 20 वर्षों में तो बदलावों का सैलाब-सा ही आ गया है। अलबत्ता, जो चीज़ समय के साथ नहीं बदली, वह है मूल मानव व्यवहार और अपने क्षणों और अनुभवों को संग्रहित करने की उसकी प्रवृत्ति।
मानवीय अनुभव और क्षण (डैटा!), जो मानव स्मृति, नक्काशी और चित्रों में रहते थे, उन्हें प्रौद्योगिकी के ज़रिए एक नया शक्तिशाली भंडारण मिला है। अब मानव डैटा छोटे/बड़े बाहरी ड्राइव्स, क्लाउड स्टोरेज जैसे विशाल डैटा भंडारण उपकरणों में संग्रहित किए जा रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि अब डैटा को, पहले के विपरीत, बिना किसी बाधा के, जितना चाहें उतना और जब तक चाहें तब तक संग्रहित रखा जा सकता है।
पिछले 20 वर्षों में, एक और दिलचस्प बदलाव इंटरनेट टेक्नॉलॉजी के आगमन से भी हुआ। इंटरनेट टेक्नॉलॉजी की शुरुआत के साथ, मानव व्यवहार और उसके सामाजिक संपर्क की प्रवृत्ति ने एक बड़ी छलांग लगाई। लोगों ने दिन-प्रतिदिन हज़ारों किलोमीटर दूर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अन्य मनुष्यों से जुडऩा शुरू कर दिया और इस तरह विभिन्न तरीकों से बातचीत करने और अभिव्यक्ति की मानवीय क्षमता कई गुना बढ़ गई।
आज छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के ग्रामीण इलाके का कोई बच्चा बॉलीवुड की किसी मशहूर हस्ती को सुन सकता है और उससे जुड़ सकता है, वहीं न्यूयॉर्क में रहते हुए एक व्यक्ति उत्तरी अफ्रीका में रह रहे किसी पीडि़त बच्चे की भावनाओं से रूबरू हो सकता है। इंटरनेट क्रांति ने इस पूरी दुनिया को मानो एक बड़े से खेल के मैदान में बदल दिया है जहां हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति, विषय या घटना से तत्काल जुड़ सकता है।
इन क्षमताओं के रहते पूरा विश्व नई तरह की संभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रयोगों से भर गया है। इस तरह की गतिविधियों ने अपनी एक छाप छोड़ी है (जिन्हें हम डैटा कह सकते हैं) और टेक्नॉलॉजी ने इसे असीमित रूप से एकत्रित और संग्रहित करना शुरू कर दिया है।
नई दुनिया के ये परिवर्तन विशाल डैटा (क्चद्बद्द ष्ठड्डह्लड्ड) के रूप में प्रस्फुटित हुए। अधिकांश लोग (जो इंटरनेट वगैरह तक पहुंच रखते हैं) डैटा (यानी शब्द, आवाज़, चित्र, वीडियो वगैरह के रूप में) के ज़रिए यादों और अनुभवों से सराबोर हैं। ये डैटा न केवल सामाजिक या अंतर-वैयक्तिक स्तर पर, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर (जैसे ऑनलाइन भुगतान, ई-बिल, ई-लेनदेन, क्रेडिट कार्ड) और यहां तक कि अस्पतालों के दौरों, नगर पालिका की शिकायतों, यात्रा के अनुभवों, मौसम के परिवर्तन तक में नजऱ आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण जीवन की गतिविधियां डैटा पैदा कर रही हैं और इसे संग्रहित किया जा रहा है।
आधुनिक जीवनशैली बड़ी मात्रा में डैटा उत्पन्न करती है। डैटा की मात्रा इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आधुनिक तकनीक ने बड़ी मात्रा में डैटा निर्मित करना और संग्रहित करना आसान बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों में, दुनिया में पैदा किया गया 90त्न से अधिक डैटा संग्रहित कर लिया गया है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हर घंटे 2 करोड़ से अधिक छवियां पोस्ट करते हैं।
डैटा विज्ञान:कार्यपद्धति
मानव मस्तिष्क विभिन्न उपकरणों में संग्रहित विशाल डैटा का समय-समय पर उपयोग करना चाहता है। इस कार्य के लिए एक अलग प्रकार की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी, जो संग्रहित डैटा को निकालने और निर्णय लेने का काम कर सके। यह मस्तिष्क के संचालन की नकल करने जैसा था। ऐसे जटिल दिमागी ऑपरेशनों को दोहराने के लिए एक कदम-दर-कदम चलने वाले एक समग्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है ताकि-
- डैटा इष्टतम तरीके से संग्रहित किया जाए;
- डैटा को कुशलतापूर्वक, शीघ्रता से प्रबंधित, पुनर्प्राप्त, संशोधित, और विलोपित किया जा सके;
- डैटा की व्याख्या आसानी से और शीघ्रता से की जा सके; इससे भविष्य के बारे में निर्णय लेने में मदद मिलती है।
वैसे तो हमारा मस्तिष्क सूक्ष्म और जटिल तरीके से डैटा को आत्मसात करने और निर्णय लेने का काम करता आया है, लेकिन मस्तिष्क की क्षमता सीमित है। डैटा से जुड़ी उक्त प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मानव मस्तिष्क जैसे
एक विशाल स्पेक्ट्रम की आवश्यकता हुई। टेक्नॉलॉजी ने इस प्रक्रिया के लिए डैटा भंडारण (विशाल डैटा सर्वर), पुनर्प्राप्ति के विभिन्न साधनों को सांख्यिकीय/गणितीय जानकारी से युक्त करना शुरू कर दिया। जावा, पायथन, पर्ल जैसी कोडिंग भाषा, विभिन्न मॉडलिंग तकनीकों (जैसे क्लस्टरिंग, रिग्रेशन, भविष्यवाणी और डैटा माइनिंग) के साथ-साथ ऐसी मशीनें विकसित हुईं जो डैटा को बार-बार समझ सकती हैं और स्वयं सीखकर खुद को संशोधित कर सकती हैं (मशीन लर्निंग मॉडल)। मूल रूप से कोशिश यह थी कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान के सहारे हम अपने मस्तिष्क जैसी निर्णय लेने की क्षमता मशीन में पैदा कर सकें!
प्रौद्योगिकी द्वारा मानव मस्तिष्क की क्षमताओं के प्रतिरूपण की इस पूरी प्रक्रिया को डैटा विज्ञान का नाम दिया गया है। डैटा विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जो डैटा से अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी, वैज्ञानिक तकनीक, कृत्रिम बुद्धि (एआई) और डैटा विश्लेषण सहित कई विषयों को जोड़ता है। डैटा वैज्ञानिक वे हैं जो वेब, स्मार्टफोन, ग्राहकों और सेंसर सहित विभिन्न स्रोतों से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को एकीकृत करते हैं।
डैटा साइंस का भविष्य
क्या यह डैटा विज्ञान, भारत जैसे देश में अंतिम व्यक्ति के जीवन को छू सकता है या यह केवल थ्रिलर फिल्म या सस्ते दाम में कॉन्टिनेंटल खाने के लिए सर्वश्रेष्ठ रेस्तरां की खोज करने जैसे कुछ मनोरंजक/आनंद/विलास की गतिविधियों तक ही सीमित है? क्या यह हमारे समाज को बेहतर बनाने और वंचितों को कुछ बुनियादी सुविधाएं देने में मदद कर सकता है?
यकीनन। किसी भी अन्य गहन ज्ञान की तरह विज्ञान भी राष्ट्र, पंथ, जाति, रंग या एक वर्ग तक सीमित नहीं है। इरादा हो तो यह सभी के लिए है। संक्षेप में इसका उपयोग भारत में समाज को कई तरीकों से बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। कुछ उदाहरण देखिए।
चिकित्सा/स्वास्थ्य
यह एक प्राथमिक क्षेत्र हो सकता है जहां डैटा विज्ञान का लाभ उठाया जा सकता है। डैटा के संदर्भ में, वर्तमान अस्पताल प्रणाली अभी भी रोगियों के प्रवेश, निदान और उपचार जैसे सामान्य संदर्भो में ही काम करती है। इस क्षेत्र में जनसांख्यिकी, स्वास्थ्य मापदंडों से लेकर रोगियों के विभिन्न चरणों में किए गए निदान/उपचार जेसे डैटा को संग्रहित करने की आवश्यकता है, जिसे नैदानिक परिणामों और उपचार विकल्पों को एकत्रित, संग्रहित, और व्याख्या के द्वारा व्यापक रूप से चिकित्सा समुदाय में साझा किया जा सके। यह डैटा विज्ञान को भारतीय स्थिति में रोगियों को समझने और सर्वोत्तम संभव उपचार विकल्पों के साथ-साथ रोकथाम के उपायों को समझने में सक्षम करेगा। यह रोगियों/डॉक्टरों का बहुत सारा धन और समय बचा सकता है, त्रुटियों को कम कर सकता है और मानव जीवन को अधिक सुरक्षित और स्वस्थ बना सकता है। आवश्यकता यह है कि सरकारी और निजी अस्पताल डैटा रिकॉर्ड करना और संग्रहित करना शुरू करें ताकि इसका उपयोग अनुसंधान और विकास के लिए किया जा सके। यूएस जैसे विकसित देशों में ऐसी प्रक्रिया से समाज को काफी लाभ मिलता है। डैटा विज्ञान वास्तव में भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को कई लाभकारी तरीकों से सम्पन्न कर सकता है।
कृषि उत्पादकता
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में डैटा विज्ञान तरह-तरह की जानकारी के ज़रिए किसानों को लाभ पहुंचा सकता है:
- मिट्टी किस प्रकार की फसल के लिए अच्छी है;
- मौसम और जलवायु की परिस्थिति में किन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है;
- फसल के प्रकार के लिए आवश्यक मिट्टी की पानी और नमी की आवश्यकता;
- अप्रत्याशित मौसम की भविष्यवाणी और फसलों की सुरक्षा;
- ऐतिहासिक आंकड़ों के साथ-साथ मौसम के मिज़ाज के आधार पर निश्चित समय में किसी निश्चित क्षेत्र में इष्टतम फसल की पैदावार की भविष्यवाणी करना।
इस तरह के डैटा का सरकार द्वारा समय-समय पर निरीक्षण करना और भौगोलिक सेंसर व अन्य उपकरणों की मदद से डैटा तैयार करने की आवश्यकता है। डैटा विज्ञान फसलों की बहुत बर्बादी को बचा सकता है और हमारी उपज में भारी वृद्धि कर सकता है।
शिक्षा एवं कौशल विकास
अशिक्षा का मुकाबला करने के लिए शैक्षणिक सुविधाओं के अधिक प्रसार की और शिक्षकों की दक्षता, अनुकूलित शिक्षण विधियों के विकास की भी आवश्यकता है। इसके अलावा विभिन्न छात्रों की विविध और व्यक्तिगत सीखने की शैलियों/क्षमताओं के संदर्भ में गहरी समझ की भी आवश्यकता है। डैटा विज्ञान इस संदर्भ में समाधान प्रदान कर सकता है:
- देश भर में छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों के विस्तृत प्रोफाइल तैयार करना;
- छात्रों के सीखने और प्रदर्शन के आंकड़े जुटाना;
- प्रतिभाओं के कुशल प्रबंधन के लिए व्यक्तिगत शिक्षण विधियों/शैलियों का विकास
- देश भर में कनेक्टेड डैटा के साथ अकादमिक अनुसंधान को बढ़ाना।
पर्यावरण संरक्षण
- भूमि, जल, वायु/अंतरिक्ष और जीवन के सम्बंध में डैटा एकत्र करना और पृथ्वी ग्रह के स्वास्थ्य को बढ़ाना;
- वनों की कटाई के विभिन्न कारणों जैसे मौसम पैटर्न, मिट्टी या नदियों की स्थलाकृति के बीच सम्बंध का पता लगाना;
- ग्रह-स्तरीय डिजिटल मॉडल निरंतर, वास्तविक समय में डैटा कैप्चर करेगा और चरम मौसम की घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं (जैसे, आग, तूफान, सूखा और बाढ़), जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के संसाधनों से सम्बंधित अत्यधिक सटीक पूर्वानुमान प्रदान कर सकता है;
- विलुप्ति की प्रक्रिया का कारण जानने और इसे उलटने के तरीके के लिए वर्षों से एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण;
- विलुप्ति के खतरे से घिरे जीवों को बचाने के लिए कारणों का विश्लेषण।
ग्रामीण एवं शहरी नियोजन
भारत में नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों, भू-राजस्व सम्बंधी डैटा अभी भी विशाल कागज़ी फाइलों में संग्रहित किया जाता है, जिससे कुशल निर्णय लेने में देरी होती है। डैटा विज्ञान डैटा को एकीकृत करने में मदद कर सकता है और डैटा साइंस राज्य के प्रबंधन के लिए प्रभावी नीति निर्माण और निर्णय प्रक्रिया में गति ला सकता है।
कुल मिलाकर डैटा विज्ञान के उपयोग के कई लाभ हैं। देश की विशाल प्रतिभा और अपेक्षाकृत कम श्रम लागत की बदौलत भारत तेज़ी से डैटा साइंस का केंद्र बनता जा रहा है। नैसकॉम विश्लेषण का अनुमान है कि भारतीय डैटा एनालिटिक्स बाज़ार 2017 के 2 अरब डॉलर से बढक़र 2025 में 16 अरब डॉलर का हो जाएगा। यह तीव्र वृद्धि कई कारकों से प्रेरित है, जिसमें डैटा की बढ़ती उपलब्धता, डैटा-संचालित निर्णय-प्रक्रिया, कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वृद्धि शामिल हैं। भारत में कई विश्वविद्यालयों में डैटा साइंस के कोर्सेस भी चलाए जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
सुजाता आनंदन
इसराइल-गाजा युद्ध के दौरान तरबूज़ फ़लस्तीन मुद्दे के समर्थन में एक शक्तिशाली रूपक बन गया है।
तरबूज़ का लाल, काला, सफ़ेद और हरा रंग न केवल इस रसीले फल में होता है बल्कि फ़लस्तीन के झंडे का भी रंग है। तरबूज एक बार फिर फ़लस्तीन समर्थक रैलियों और सोशल मीडिया पोस्ट में प्रमुख तौर पर दिखाई देने लगा है।
आइए जानते हैं कि इसके पीछे का इतिहास क्या है और तरबूज फिलीस्तीनी एकजुटता का इतना मजबूत प्रतीक कैसे बना।
‘फिलीस्तीन में, जहाँ फिलीस्तीन का झंडा लहराना अपराध है, फ़लस्तीन के लाल, काले, सफेद और हरे रंग के लिए इसराइली सैनिकों के खिलाफ तरबूज के टुकड़े उठाए जाते हैं।’
ये पंक्तियां अमेरिकी कवि अरासेलिस गिर्मे की एक कविता ‘ओड टू द वॉटरमेलन’ से हैं। वे फिलीस्तीनी समस्या के रूप फल के प्रतीकात्मक अर्थ का उल्लेख करते हैं।
लाल, काला, सफेद और हरा रंग न केवल तरबूज बल्कि फलस्तीनी झंडे के भी रंग हैं। इसलिए गाजा में इसराइल के हमले के बीच दुनिया भर में फिलीस्तीन समर्थक मार्च और अनगिनत सोशल मीडिया पोस्ट में प्रतीकवाद देखा जा सकता है। लेकिन तरबूज के रूपक बनने के पीछे एक इतिहास है।
फ़लस्तीन के झंडे पर पाबंदी
साल 1967 के अरब-इसराइल युद्ध के बाद, जब इसराइल ने गाजा और वेस्ट बैंक पर नियंत्रण कर लिया, तो उसने जीते हुए इलाक़ों में फिलीस्तीनी ध्वज और उसके रंगों जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों को रखने पर पाबंदी लगा दी।
जैसे की झंडा ले जाना एक अपराध बन गया। इसके विरोध में फिलीस्तीनियों ने तरबूज के टुकड़ों का उपयोग करना शुरू कर दिया।
साल 1993 में इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच हुए ओस्लो अंतरिम समझौते के बाद, झंडे को फिलीस्तीनी प्राधिकरण ने मान्यता दी थी। प्राधिकरण को गडजा और कब्जे वाले वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों में शासन करने के लिए बनाया गया था।
‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पत्रकार जॉन किफनर ने ओस्लो समझौते पर दस्तखत किए जाने के बाद लिखा था, ‘गाजा में एक बार कुछ युवकों को कटा हुआ तरबूज ले जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। ये युवक लाल, काले और हरे फलस्तीनी रंगों को प्रदर्शित करते हुए और प्रतिबंधित झंडे के साथ जुलूस निकाला था और वहाँ खड़े सैनिकों के साथ गाली-गलौज की थी।’
इसके कई महीने बाद, दिसंबर 1993 में, अखबार ने नोट किया कि इस रिपोर्ट में गिरफ़्तारी के दावों की पुष्टि नहीं की जा सकती है। हालांकि यह भी कहा गया है कि जब इसराइली सरकार के प्रवक्ता से पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि वह इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि ऐसी घटनाएं हुई होंगी। उसके बाद से ही कलाकारों ने फिलीस्तीनियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए तरबूज़ की विशेषता वाली कला को बनाना जारी रखा है।
तरबूज के टुकड़े
सबसे प्रसिद्ध कलाकृतियों में से एक खालिद हुरानी की है। उन्होंने 2007 में ‘सब्जेक्टिव एटलस ऑफ फिलीस्तीन’ नाम की किताब के लिए तरबूज के एक टुकड़े को चित्रित किया।
‘द स्टोरी ऑफ द वॉटरमेलन’ नाम की यह पेंटिंग दुनिया भर में घूमी। मई 2021 में इसराइल-हमास संघर्ष के दौरान इसे और अधिक प्रसिद्धि मिली।
तरबूज़ के चित्रण में एक और उछाल इस साल की शुरुआत में आया। जनवरी में, जब इसराइल के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतामार बेन ग्विर ने पुलिस को सार्वजनिक स्थानों से फलस्तीनी झंडे हटाने का निर्देश दिया।
उन्होंने कहा कि फिलीस्तीनी झंडे लहराना आतंकवाद के समर्थन जैसा काम है। इसके बाद इसराइल विरोधी मार्च के दौरान तरबूज की तस्वीरें दिखाई देने लगीं।
इसराइली कानून फिलीस्तीनी झंडों को गैर कानूनी नहीं कहता, लेकिन पुलिस और सैनिकों को उन मामलों में उन्हें हटाने का अधिकार है, जहाँ उन्हें लगता है कि इससे सार्वजनिक व्यवस्था को ख़तरा है।
इस साल जुलाई में यरूशलम में आयोजित एक विरोध-प्रदर्शन में, फिलीस्तीनी प्रदर्शनकारियों ने फिलीस्तीनी झंडे के रंग में तरबूज या स्वतंत्रता शब्द के प्रतीक ले रखे थे। वहीं अगस्त में, प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू की न्यायिक सुधार योजनाओं का विरोध करने के लिए तेल अवीव में तरबूज की फोटो वाली टी-शर्ट पहनी थी।
हाल ही में, गाजा युद्ध का विरोध करने वाले सोशल मीडिया पोस्टों में तरबूज के चित्रों का इस्तेमाल हुआ है।
फिलीस्तीन के समर्थन में आगे आए कलाकार
टिक टॉक पर ब्रितानी मुस्लिम कॉमेडियन शुमीरुन नेस्सा ने तरबूज फिल्टर बनाए और अपने फॉलोवर को उनके साथ वीडियो बनाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इससे होने वाली आय को गाजा की मदद के लिए दान करने का वादा किया।
कुछ सोशल मीडिया यूजर्स इस डर से फिलस्तीनी झंडे के बजाय तरबूज पोस्ट कर रहे होंगे कि उनके अकाउंट या वीडियो को सोशल नेटवर्क द्वारा दबाया जा सकता है।
अतीत में फिलीस्तीन समर्थक यूजर्स ने इंस्टाग्राम पर ‘शैडो बैन’ लगाने का आरोप लगाया है। शैडो बैन तब होता है, जब कोई सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म यह सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप करता है कि कुछ पोस्ट अन्य लोगों के फीड में दिखाई न दें।
लेकिन बीबीसी के साइबर मामलों के संवाददाता जो टाइडी का कहना है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि अब ऐसा हो रहा है।
वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं लगता कि फिलीस्तीन समर्थक सामग्री पोस्ट करने वाले यूजर्स पर शैडो बैन लगाने की कोई साजिश है।’
वो कहते हैं, ‘लोग सोशल मीडिया पोस्ट में तरबूज का उपयोग कर रहे हैं, लेकिन वे फिलस्तीन के झंडे का भी खुलकर उपयोग कर रहे हैं और संघर्ष के बारे में खुलकर लिख रहे हैं।’
फिलीस्तीन में दशकों तक तरबूज को एक राजनीतिक प्रतीक माना जाता था, खासकर पहले और दूसरे इंतिफादा के दौरान।
आज तरबूज इस इलाके में अविश्वसनीय रूप से न केवल एक लोकप्रिय भोजन बना हुआ है, बल्कि फिलीस्तीनियों की पीढिय़ों और उनके संघर्ष का समर्थन करने वालों के लिए एक शक्तिशाली रूपक भी है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
गुजरात और उत्तर प्रदेश के बाद मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी की तीसरी प्रयोगशाला बन गया है। इसके पहले उत्तर प्रदेश और गुजरात में भाजपा के दो नए प्रयोग सफल हुए हैं। हालांकि पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में भाजपा के तुलनात्मक रूप से हल्के फुल्के प्रयोग विफल भी रहे हैं। जहां तक मध्य प्रदेश का प्रश्न है वह भाजपा के लिए कई मायनों में अहम है। एक तो यह देश के मध्य में स्थित ऐसा बड़ा प्रदेश है जिसकी सीमा उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख और बड़े राज्यों से मिलती है और इन प्रदेशों की भी अच्छी खासी आबादी भावनात्मक रूप से मध्य प्रदेश से जुड़ी है। एक तरह से यह प्रदेश देश का दिल है जहां से पूरे देश की नब्ज बेहतर तरीके से पकड़ी जा सकती है। यहां केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और प्रमुख विपक्षी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस शुरु से आमने सामने रहे हैं इसलिए विधान सभा चुनावों में जो दल ज्यादा बढ़त लेगा उसका व्यापक मनोवैज्ञानिक असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। प्रधानमंत्री का यहां बार-बार आना और प्रदेश के अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग वर्गों के मतदाताओं को साधने की कोशिश करना इसका प्रमाण है कि यहां का विधान सभा चुनाव कितना महत्त्वपूर्ण है।
मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के अंतर्संबंध पर इतने लेख लिखे जा चुके हैं कि इस पर राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी शोध कर पी एच डी की उपाधि प्राप्त कर सकता है। केन्द्र सरकार में वरिष्ठ मंत्रियों, सांसदों और राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पदाधिकारी रह चुके कैलाश विजयवर्गीय सरीखे वरिष्ठ नेताओं को मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव में उतारने का प्रयोग अपने आप में अभिनव है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खुद अगला मुख्यमंत्री घोषित करने के दावों के बावजूद केन्द्र द्वारा उन्हें अगला मुख्यमंत्री घोषित नहीं किए जाने को बहुत से राजनीतिक विश्लेषक मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बीच बढ़ी खाई के रुप में देख रहे हैं तो कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे वर्तमान सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को दरकिनार करने की रणनीति के रुप में देख रहे हैं।जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीतने के लिए विभिन्न राज्यों में तरह तरह के नए और चौंकाने वाले प्रयोग करती है उससे राजनीतिक विश्लेषक भी तरह तरह के कयास लगाने लगते हैं।
गुजरात में नरेंद्र मोदी के बाद पहले आनंदी बेन और उनके बाद कई मुख्यमंत्री बदलने से काम नहीं बना तो लगभग पूरा मंत्रिमंडल ही बदलकर भाजपा ने विधान सभा चुनाव में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी।उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के अचानक मुख्यमंत्री के रुप में सामने लाने से भी एकबारगी तमाम राजनीतिक विश्लेषक चौंके थे। मध्यप्रदेश में भी अमूमन उसी तरह की स्थिति बन रही है। क्या यहां भी तमाम बड़े चेहरों और दावेदारों को दरकिनार कर प्रज्ञा ठाकुर या किसी वैसे ही चेहरे को कमान सौंपी जा सकती है जो महिला आरक्षण मामले पर भी एक कदम आगे चलने का संकेत होगा और हिंदुत्व का भी झंडा ऊंचा कर सकेगा।
मध्यप्रदेश में प्रधानमंत्री का चेहरा आगे बढ़ाकर भाजपा शायद कर्नाटक के उस दाग को भी धोना चाहती है जो कर्नाटक में प्रधानमंत्री के नाम पर लड़े चुनाव हारने से प्रधानमंत्री की छवि को लगा है। भारतीय जनता पार्टी की नजऱ निश्चित रूप से 2024 के लोकसभा चुनाव पर है। यदि प्रधानमंत्री के नाम पर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा जीतती है तो यह लोकसभा चुनाव में बहुत सहायक सिद्ध होगा लेकिन यदि पांसा यहां भी उल्टा पड़ा तो भाजपा की रणनीति गुड गोबर भी हो सकती है। दस साल के एंटी इंकंबेंसी फैक्टर और विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन द्वारा अडानी समूह की अनियमितताओं और जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोपों के कारण भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के लिए 2024 का चुनाव निश्चित रूप से 2014 और 2019 के चुनाव से कहीं ज्यादा कठिन है। उसी की प्रारंभिक तैयारी एक तरह से मध्य प्रदेश विधान सभा चुनाव में दिख रही है ।