विचार/लेख
जगदीश्वर चतुर्वेदी
मथुरा की खूबसूरती है कि यह शहर भारतीय संस्कारों में डूबा रहता है। उपभोक्तावाद और संस्कारों का विलक्षण संगम इस शहर की विशेषता है। कल गणगौर है।मथुरा व्यस्त है।खास तौर पर चतुर्वेदी समाज व्यस्त है। यह टिपिकल ऐसा उत्सव, पूजा और व्रत है जो हर उम्र की स्त्री मनाती है। अविवाहित युवा लड़कियां मनवांछित जीवन साथी पाने और विवाहित स्त्रियां पति की दीर्घायु और एकनिष्ठता के लिए यह व्रत करती हैं। एकल परिवार और एकनिष्ठता इस व्रत की धुरी है। इस व्रत में 16का अंक महत्वपूर्ण है। दीवारों पर गणगौर आंकने से लेकर, गीतों तक, पूजा और पकवान से लेकर स्त्रियों के सुंदर सजने तक इसका कैनवास फैला है। स्त्रियों में यह उत्सव के रुप में यह अभी भी जिंदा। चतुर्वेदी समाज में नए विवाहित के लिए सोलह बडे बडे लड्डू और यथाशक्ति मुद्रा लडके वाले के यहां लडक़ी वाले भिजवाते हैं।चौबों में यह रस्म लेनदेन के रूप में प्रचलन में है। पुरानी औरतें इस मौके पर अपने हाथ से लड्डू बनाती हैं और वे 16लड्डू एक धनराशि के साथ लडके वाले के घर भेजती हैं। जो युवा लड़कियां लड्डू बनाना नहीं जानतीं वे मिठाई की दुकान से खरीदकर भिजवा देती हैं। गणगौर के साथ जो जीवनमूल्य जुडा है वह हाशिए पर है इवेंट,सजना, लेन-देन आदि केन्द्र में आ गए हैं।
गणगौर का बुनियादी मूल्य है इच्छित जीवन साथी की कामना करना। इच्छित जीवन साथी कोई भी हो सकता है। इसमें जाति, गर्म, उम्र आदि की सीमाएं नहीं हैं। यह उन चंद पर्व में से एक है जिसमें स्त्री के स्वत्व, स्त्री अनुभूति और इच्छा को केन्द्र में रखा गया।कब यह पर्व शुरु हुआ नहीं कह सकते लेकिन इसके संरचनात्मक ढांचे को देखें तो पाएंगे कि यह मातृसमाज के अंतिम समय में आया होगा। हजारों साल से हिंदी भाषी क्षेत्र में इसका औरतें अपने मन की अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल कर रही हैं।कालआंतर में इसमें पितृसत्ता, उपभोक्तावाद और पुंसवाद आ गया।फलत: स्त्री के वस्तुकरण के साथ इस पर्व का भी वस्तुकरण हो गया और अधिकांश औरतों ने यह पर्व अपनी गतिविधियों से निकाल दिया है।
आरंभ में गणगौर धार्मिक उत्सव नहीं था लेकिन उन्नीसवीं सदी के हिंदू पुनरुत्थानवादी दौर में इसे धर्म से जोड़ दिया गया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इसे उपभोक्तावाद से जोड़ दिया गया। विगत तीस-चालीस साल में इसे साम्प्रदायिक-कंजरवेटिव राजनीतिक इवेंट बना दिया गया। इससे औरत हाशिए पर चली गई। अब यह पर्व बाजार,रिचुअल्स और लेनदेन का अंग है।
विनीत खरे
भ्रम, कोलाहल, गड़बड़ी... महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में टूट के बाद कई लोगों से यही शब्द सुनाई पड़े.
भ्रम, कोलाहल, गड़बड़ी... महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में टूट के बाद कई लोगों से यही शब्द सुनाई पड़े.
महाराष्ट्र में 2024 लोकसभा चुनाव राज्य की दो प्रमुख पार्टियों की टूट के साए में हो रहे हैं.
भाजपा, कांग्रेस के अलावा अब यहां दो सेना और दो पवार वाली पार्टियां हैं.
पुणे के संपन्न नांदेड़ सिटी इलाक़े की शोभा कारले कहती हैं, "जहां पैसा होता है, नेता वहीं जाते हैं. लोग इतने परेशान हैं कि उनका वोटिंग के लिए भी जाने का मन नहीं है."
इसी शहर में एक अन्य वोटर ने कहा, "घोटाले वालों को तुम क्यों ले रहे हो? घोटाले वाले उधर गए और सब मंत्री बन गए. ये कैसे चलता है, लोग सब समझ रहे हैं."
मुंबई के मशहूर शिवाजी पार्क के बाहर अपने दोस्तों के साथ बैठे रिटायर्ड एसपी वेलनकर के मुताबिक़ "लोग पार्टियों को तोड़ने के ख़िलाफ़ हैं."
उनके नज़दीक ही खड़े दर्शन पाटिल ने पलटकर कहा, "भाजपा तोड़ रही है, इसका मतलब तुम्हारे में कुछ तो कमियां हैं, इस वजह से वो लोग तोड़ रहे हैं."
"लोकतंत्र ख़तरे में है" के विपक्षी दावों पर दर्शन पाटिल पूछते हैं, "किसका लोकतंत्र ख़तरे में है? हिंदू का लोकतंत्र ख़तरे में है? आम आदमी का लोकतंत्र ख़तरे में है?"
साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कुल 48 सीटों में से 23, तो वहीं शिवसेना ने 18 सीटें जीतीं थीं.
साल 2024 के चुनाव में एनडीए के लिए 400 पार का लक्ष्य रखने वाली भाजपा क्या महाराष्ट्र में इस बार भी 2019 जैसी सफलता दोहरा पाएगी?
महाराष्ट्र में सहानुभूति की लहर
साल 2019 में शिवसेना की पूरी ताक़त भाजपा के साथ थी. आज शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के एक हिस्से उसके साथ हैं, और राज्य में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के प्रति "सहानुभूति की लहर" की बात कही जा रही है.
जालना ज़िले के अंतरवाली सराटी गांव में मनोज-जरांगे पाटिल मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे हैं. गांव में हमें भाजपा के प्रति नाराज़गी दिखी. देश के दूसरे हिस्सों की तरह भाजपा-शासित महाराष्ट्र में भी बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की समस्या आदि चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मोदी का ज़ोर उनकी नाव किनारे लगा देगा.
महाराष्ट्र में 48 लोकसभा सीटें दांव पर हैं. बीबीसी से बातचीत में जहां विश्लेषकों ने कहा कि विभिन्न कारणों से भाजपा गठबंधन की सीटें इस बार घट सकती हैं, एक ओपिनियन पोल ने इस गठबंधन को 41 सीटें, जबकि एक दूसरे पोल ने 37 सीटें दीं हैं.
एनसीपी (शरद पवार) के जीतेंद्र आव्हाड ने बातचीत में महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन के लिए 28 सीटों की उम्मीद जताई, जबकि अमरावती के अपने घर में पत्रकारों से घिरी भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा ने कहा, भाजपा महायुति गठबंधन "अधिकांश" सीटें जीतेगा.
इस चुनाव में जहां शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शरद पवार) के लिए जनता के सामने अपना केस मज़बूती से पेश करने की चुनौती है, एकनाथ शिंदे और अजीत पवार और उनके साथ गए नेता भी अपने फ़ैसलों पर महाराष्ट्र की जनता की प्रतिक्रिया जानना चाहेंगे.
महाराष्ट्र कांग्रेस का गढ़ रहा था लेकिन आपसी कलह कांग्रेस के लिए चुनौती रही है. लेकिन इसके बावजूद मराठवाड़ा, विदर्भ में अभी भी ऐसे इलाक़े हैं जहां कांग्रेस का ज़ोर है.
मुंबई के कांग्रेस दफ़्तर में कार्यकर्ताओं से घिरे पृथ्वीराज चव्हाण के मुताबिक़ इस चुनाव में पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना महत्वपूर्ण राज्य हैं. उनका दावा है कि सभी जगह भाजपा का बल घटेगा.
उत्तर भारत में अपने राजनीतिक चरम पर पहुंच चुकी भाजपा को पता है कि उसके लिए महाराष्ट्र कितना महत्वपूर्ण है, लेकिन भाजपा के लिए चुनौतियां भी कम नहीं हैं.
क्या भाजपा अपना प्रदर्शन दोहरा सकती है?
महाराष्ट्र में एक वक़्त मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और शिवसेना/भाजपा के बीच होता था. शिवसेना और भाजपा ने साल 1984 में पहली बार ग़ैर-कांग्रेसवाद के नाम पर हाथ थामा था.
साल 1987 में जब शरद पवार वापस कांग्रेस में शामिल हुए, मराठी मानुस की बात करने वाली शिवसेना कांग्रेस-विरोध का स्तंभ बनी और उसके बढ़ने की शुरुआत हुई. वक़्त के साथ मराठी मानुस की बात हिंदुत्व में तब्दील हो गई. कुछ और परिस्थितियों के कारण गठबंधन में भाजपा का पलड़ा भारी होता गया.
साल 2012 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की मौत और उसके बाद की अंतर्कलह ने शिवसेना को और कमज़ोर किया. प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में लहर ने भाजपा को साल 2014 में महाराष्ट्र में 23 सीटों तक पहुंचा दिया.
साल 2019 में भाजपा, शिवसेना गठबंधन ने 41 सीटों पर बाज़ी मारी. विश्लेषक इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में वोटिंग, पुलवामा आदि को वजह मानते हैं.
मुंबई के नरीमन प्वाइंट स्थित मराठी अख़बार 'लोकसत्ता' के दफ़्तर में संपादक गिरीश कुबेर ने बताया कि पार्टियों में टूट-फूट के कारण इस बार भाजपा या एनडीए के लिए 2019 की सफलता दोहराना मुश्किल है. राज्य में स्थानीय चुनावों में लंबी देरी को भी वो राज्य सरकार में विश्वास की कमी की निशानी मानते हैं.
उनके मुताबिक़ राज्य में उद्धव ठाकरे के मुक़ाबले एकनाथ शिंदे की पहुंच सीमित है. वो कहते हैं, "भाजपा को लगा सभी ठाकरे समर्थक शिंदे की तरफ़ हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. भाजपा को एहसास हुआ कि अजीत पवार का असर पूना ज़िले तक सीमित है. ऐसी सोच है कि ये कुछ ज़्यादा (तोड़-फोड़) ही हो गई, कि मराठी मानुस को हमेशा दिल्ली से चुनौती मिलती है."
पार्टी कार्यकर्ता ये भी देख रहे हैं कि कल तक जिन्हें भाजपा भ्रष्ट कहती थी, आज वो पार्टी के साथ खड़े हैं. एक भाजपा कार्यकर्ता के मुताबिक़ "ये सोचने वाली बात है लेकिन राजनीति में जोड़-तोड़ करना पड़ता है नहीं तो एक सीट के कारण भी सरकार गिर सकती है."
वरिष्ठ पत्रकार और किताब 'चेकमेट - हाऊ बीजेपी वॉन ऐंड लॉस्ट महाराष्ट्र' के लेखक सुधीर सूर्यवंशी के मुताबिक़ लोग भाजपा से ज़्यादा एकनाश शिंदे और अजीत पवार से नाराज़ हैं कि उन्होंने टूट में हिस्सा लिया. उनके मुताबिक़ घटनाक्रम ने भाजपा को लंबे समय के लिए नुक़सान पहुंचाया है.
विश्लेषक सुहास पलशीकर के मुताबिक़ एनसीपी और शिवसेना के कई वोटर असमंजस में हैं कि किसको वोट करें. वो मानते हैं कि एक तरफ़ जहां भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर निर्भर होगी, वहीं "शरद पवार और उद्धव ठाकरे को लेकर सहानुभूति है."
ये सहानुभूति कितनी गहरी है, ये साफ़ नहीं है लेकिन एकनाथ शिंदे का हाथ थामने वाले शिवसैनिक नरेश म्हस्के चुनाव में उद्धव या शरद पवार के लिए किसी भी सहानुभूति से इनकार करते हैं. ठाणे के अपने दफ़्तर में कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में उन्होंने पूछा, "उद्धव ठाकरे ने पिछले विधानसभा में किसके साथ गठबंधन किया? भाजपा के साथ. चुनकर किसके साथ आए? भाजपा के साथ. थोड़ा आंकड़े कम ज़्यादा होने के बाद तुरंत कांग्रेस के साथ चले गए. अगर ये नियम इन पर लागू है तो उन पर भी लागू है."
नरेश म्हस्के कहते हैं कि शुरुआत में उद्धव ठाकरे के प्रति सहानुभूति थी जो बाद में कम होने लगी. वो कहते हैं, “लोगों को मुख्यमंत्री (एकनाथ शिंदे) चौबीसों घंटे काम करते दिखने लगे. लोगों को लगा कि वो काम कर रहे हैं. अच्छे-अच्छे फ़ैसले हुए जिसकी वजह से लोग उनसे जुड़े."
भाजपा के लिए चुनौतियां
दिन में सूरज जब सिर के ठीक ऊपर था, तब पुणे के संपन्न नांदेड़ सिटी में समर्थकों से घिरीं शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले घर-घर जाकर लोगों से मिल रही थीं. उनके समर्थकों में लाल पोशाक और एक पगड़ी पहना एक शख़्स भी था जो थोड़ी-थोड़ी देर पर साज़ तुरहा बजा रहा था. मराठी में तुरहा बजाने वाले व्यक्ति को तुतारी कहते हैं. चुनाव आयोग ने शरद पवार वाले एनसीपी गुट को लोकसभा चुनाव के लिए 'तुतारी' चुनाव चिह्न दिया है.
यहीं एक घर में हमें शोभा कारले मिलीं जो कहती हैं, "पार्टी को तोड़ना ग़लत हुआ. जिनकी पार्टी थी उनसे पार्टी छीन लेना, बहुत ग़लत बात हुई है." उनके साथ खड़ी महिलाएं भी उनसे सहमत थीं.
बारामती से सांसद सुप्रिया सुले का मुक़ाबला एनसीपी पार्टी तोड़ एनडीए में शामिल हुए अजीत पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार से है. पवार बनाम पवार की इस लड़ाई पर सुप्रिया सुले कहती हैं, "क्या ये दुख की बात नहीं है? उस राज्य के लिए जहां सब कुछ ठीक चल रहा था, उसे तोड़ दिया गया क्योंकि आप अपने बल पर नहीं जीत सकते."
शिवसेना और एनसीपी में टूट के लिए सुप्रिया सुले ने इनकम टैक्स, सीबीआई और ईडी को ज़िम्मेदार ठहराया.
जानकारों के मुताबिक़- भाजपा को अपने बल पर महाराष्ट्र पर शासन करने के लिए ज़रूरी था कि वो शिवसेना और एनसीपी के क़द को छोटा करे और यही टूट की वजह थी, लेकिन अब बहस ये है कि क्या उन कोशिशों के परिणामस्वरूप नई परेशानियां तो खड़ी नहीं हो गईं हैं.
आज यहां शिवेसना के दो फाड़, एनसीपी के दो फाड़, भाजपा, कांग्रेस, प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघड़ी, एआईएमआईएम हैं. टिकट न मिलने से या राजनीतिक महत्वाकांक्षा से ऐसे कई नाराज़ नेता हैं जो या तो पार्टी बदल रहे हैं, या सही वक़्त का इंतज़ार कर रहे हैं.
शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के अनिल देसाई के मुताबिक़ "कई लोगों को लगता है कि लोग बातें भूल जाते हैं, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं होगा."
विश्लेषकों के अनुसार पार्टियों में टूट के कारण कई लोगों में ये छवि बनी है कि भाजपा पार्टी और परिवार तोड़ने वाली पार्टी है, और ये छवि भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है.
एनसीपी (शरद पवार) के जीतेंद्र अव्हाड कहते हैं, "हम मैदान छोड़कर भागेंगे नहीं. हम शरद पवार के साथ खड़े हैं. ये चुनाव लोकत्रंत और संविधान को बचाने की लड़ाई के लिए है."
लोकसत्ता संपादक गिरीश कुबैर के मुताबिक़ पार्टियों की टूट के कारण भाजपा के सामने पार्टी के और आयातित नेताओं की राजनीतिक उम्मीदों को मैनेज करने की चुनौती है.
वो कहते हैं, "जो लोग भाजपा में आए हैं, वो भाजपा से अच्छा व्यवहार चाहते हैं. वो अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेह हैं. एक एहसास है कि जब तक आप भाजपा में न आएं तब तक तो पार्टी आपका बहुत ध्यान रखती है, उसके बाद नहीं."
शिवसेना के नरेश म्हस्के इन हालात के लिए उद्धव ठाकरे की "फ़्लॉप" नीतियों को ज़िम्मेदार मानते हैं.
वो कहते हैं, "क्या ज़रूरत थी कांग्रेस के साथ गठबंधन की? हमारी शिवसेना कांग्रेस से झगड़ा करके बड़ी हुई. शिवसेना में शामिल होने वाले आम लोग थे. तब उनका झगड़ा कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ हुआ. कितने लोगों के संसार बरबाद हुए. झूठे मामले दर्ज हुए तो भी शिवसेना कहकर काम किया. और तुम चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ गए. इसकी ज़रूरत क्या थी? आपको एकनाथ शिंद के ख़िलाफ़ बोलने का अधिकार नहीं है? आपने भी वही किया."
भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा के मुताबिक़, "जिनकी भी पार्टियां टूटीं, उनकी करतूतों से टूटीं."
विश्लेषक सुहास पलशीकर कहते हैं कि भाजपा के लिए चुनौती होगी कि वो सहयोगियों को दी हुई सीटें जीत पाएं. पार्टी के मुंबई में अच्छा प्रदर्शन भी महत्वपूर्ण होगा.
राज ठाकरे के भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने से एनडीए के उत्तर भारतीय वोटों के नुक़सान की बात की जा रही है.
वरिष्ठ पत्रकार और किताब 'चेकमेट - हाऊ बीजेपी वॉन ऐंड लॉस्ट महाराष्ट्र' के लेखक सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं, "राज ठाकरे के कारण उत्तर भारतीय भी बंटे हुए हैं. बिहार के लोग तेजस्वी यादव का समर्थन कर रहे हैं और एमवीए के साथ हैं. इससे भाजपा को नुक़सान होगा."
गिरीश कुबेर मानते हैं कि भाजपा के लिए एक और चुनौती ये है कि राज्य में उनका सबसे मज़बूत नेता ब्राह्मण है जिनकी आबादी बहुत कम है.
महाराष्ट्र में एक वर्ग में ये भी सोच है कि कथित राजनीतिक या दूसरे कारणों से राज्य में आने वाला बड़ा निवेश कहीं और जा रहा है.
मराठा आरक्षण की चुनौती
महाराष्ट्र में क़रीब 28 प्रतिशत मराठा वोट बताया जाता है और पिछले कुछ वक़्त से मराठा आरक्षण की मांग ने ज़ोर पकड़ी है.
मराठवाड़ा के जालना ज़िले के गांव अंतरवाली सराटी में मनोज-जरांगे पाटिल के प्रदर्शन स्थल से थोड़ी दूर ही रह रहीं मनीशा सचिन तारक के दो बच्चे हैं. मनीशा मराठा हैं और कहती हैं कि बेरोज़गारी और कम ज़मीन के टुकड़े की वजह से गुज़ारा मुश्किल से हो पाता है. उनके मुताबिक़ आरक्षण से उनके बच्चों को फ़ायदा होगा.
उनके ससुर मधुकर तारक कहते हैं, "मराठाओं की स्थिति पहले जैसी नहीं रही जब उनके पास ढेर सारी ज़मीनें हुआ करती थीं. अब महंगाई बहुत बढ़ गई है. खेती भी अच्छी नहीं होती है. बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता होती है."
उनका वोट किस तरफ़ पड़ेगा, इस पर वो कहते हैं कि जो मनोज-जरांगे कहेंगे, वो वही करेंगे. मराठा समुदाय में ये आर्थिक समस्याएं आरक्षण की मांग को बल दे रही हैं.
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण पर आंदोलन खड़ा करने वाले दुबले क़द काठी के मनोज-जरांगे पाटिल ने पहले भूख हड़ताल की और अभी भी उनका आंदोलन जारी है. देवेंद्र फडणवीस को लेकर उनके तीखे बयान चर्चा का विषय रहे हैं.
अकोला में विश्लेषक संजीव उन्हाले के मुताबिक़, "जरांगे पाटिल का सबसे बड़ा डर भाजपा को है. उनके (जरांगे पाटिल) ऊपर बहुत दबाव है. उनको उम्मीद नहीं थी कि पुलिस उनके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करेगी."
आंदोलन के दौरान प्रदर्शन और अन्य बातों की जांच के लिए जांच टीम का गठन किया और पुणे में जरांगे पाटिल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की ख़बर आई.
मराठा समुदाय के लिए आरक्षण पहले 2014 फिर 2018 में दिया गया लेकिन वो अदालत में नहीं टिक पाया. एकनाथ शिंदे सरकार की मराठा समुदाय को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की कोशिश से जरांगे पाटिल ख़ुश नहीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि 50 प्रतिशत की सीमा का हवाला देते हुए अदालत फिर इसे ख़ारिज कर देगी. उनकी मांग है कि मराठा समुदाय को ओबीसी आरक्षण में शामिल किया जाए. इससे ओबीसी ख़ुश नहीं हैं.
मराठा आरक्षण का चुनाव पर असर पर जरांगे पाटिल ने कहा कि "महाविकास अघाड़ी और महायुति (भाजपा गठबंधन) दोनो गुटों ने हमें धोखा दिया है."
पाटिल के मुताबिक़, "हमने किसी को (चुनाव में बतौर उम्मीदवार) खड़ा नहीं किया है. मराठा समाज किसको मतदान करेगा, इसका टेंशन अब महाविकास अघाड़ी और महायुति दोनों गुटों में है. जो उम्मीदवार मराठा आरक्षण के पक्ष में नहीं है, वो उम्मीदवार 100 प्रतिशत गिरेगा. अब मराठा वोट नहीं बटेंगे."
गांव में हमें एक पाटिल समर्थक ने भाजपा के ख़िलाफ़ नाराज़गी जताई और कहा कि चुनाव के ठीक पहले इशारा दिया जाएगा कि मराठा समाज किस उम्मीदवार के पक्ष में वोट करे, हालांकि हमें भाजपा समर्थक मराठा समुदाय के एक व्यक्ति ने कहा कि ये कोई ज़रूरी नहीं है कि जरांगे पाटिल जिस उम्मीदवार के पक्ष में इशारा दें तो समुदाय उनके पक्ष में ही वोट करेगा.
पत्रकार और लेखक सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं, "मराठा समुदाय को लगता है कि भाजपा ने उन्हें एक अस्थायी हल दिया है - ऐसा हल जो सुप्रीम कोर्ट का क़ानूनी टेस्ट पास नहीं कर पाएगा. समुदाय इससे ख़ुश नहीं है. मराठा समुदाय के कई लोगों को ओबीसी कुनबी जाति का सर्टिफ़िकेट देने से ओबीसी ख़ुश नहीं हैं. उन्हें लगता है कि इससे संघर्ष बढ़ेगा. भाजपा के लिए डबल वैमी या दोहरा झटका है."
शिंदे सेना के एक नेता के मुताबिक़- "हमारे नेताओं को शुरू से ही पूछना चाहिए था, ठीक है हम ओबीसी से आरक्षण नहीं दे रहे हैं. क्या उद्धव ठाकरे और शरद पवार दे रहे हैं?"
कांग्रेस और एनसीपी नेता मराठा आरक्षण के सवाल पर सीधा जवाब देने से बचते नज़र आए.
भाजपा का पलटवार
चाहे गांव हो या शहर, और बैलट पर कोई भी हो, भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में विकास के नाम पर वोट मांग रही है.
बातचीत में भाजपा कार्यकर्ताओं ने विश्वास जताया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम सभी राजनीतिक चुनौतियों पर भारी पड़ेगा. विदर्भ इलाक़े के अमरावती से भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा ने प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में रोज़गार, मूलभूत सुविधाओं, स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकारी कामों की लंबी फ़हरिस्त गिनाई. वो कहती हैं, "75 साल के गड्ढे को भरने के लिए समय तो ज़रूर देना पड़ेगा."
विश्लेषक सुहास पलशीकर भी मानते हैं कि भाजपा सभी राजनीतिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी पर निर्भर होगी और ये देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी महाराष्ट्र में कितनी रैलियां करते हैं.
सुहास पलशीकर के मुताबिक़ भाजपा के पास इतने वोटर हैं कि उनके मुख्य वोटर भी कम महत्व रखते हैं.
वो कहते हैं, "वोटरों में अभी भी प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा है. विपक्ष का प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करना ग़लती है. इससे भाजपा को फ़ायदा होगा. मुझे लगता है कि विपक्ष स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देगा."
किसान आत्महत्या को लेकर विदर्भ देशभर में चर्चा का विषय रहा है.
जैसे अमरावती के एक गांव में रहने वाले किसान विजय सिंह ठाकुर. वो बढ़ती महंगाई, बेमौसम बरसात में सरकारी राहत के ना मिल पाने आदि से परेशान हैं. महाराष्ट्र के इस हिस्से में संतरा, मौसमी, कपास, तूर, चना आदि उगाया जाता है.
उनके मुताबिक़ "जो लोग राजनीति में हैं, उन्हें खेती की समझ नहीं है. उन्हें नहीं पता कि खेती पर निर्भर रहने वाला समाज कितना है, पानी के स्रोत क्या हैं, ज़मीन की क्वालिटी कैसी है, यहां पर कौन सी फसल आ सकती है, यहां पर हम कौन से उद्योग खोल सकते हैं?"
उधर लोकसत्ता संपादक गिरीश कुबेर के मुताबिक़- भाजपा के पास संसाधनों की भरमार है, और उनकी मशीनरी चुस्त-दुरुस्त है. और अगर पार्टी को लगता है कि हालात नहीं सुधर रहे हैं तो वो ध्रुवीकरण की नीति इस्तेमाल कर सकते हैं.
उनके मुताबिक़ चुनाव के पांच चरणों में होने का अर्थ ये है कि भाजपा के पास अपनी रणनीति में बदलाव के लिए काफ़ी वक़्त है.
इंडिया अलायंस/ महाविकास अघाड़ी की चुनौतियां
विश्लेषक सुहास पलशीकर के मुताबिक़ एमवीए दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि उनके समर्थकों के बीच वोटों का ट्रांसफ़र हो और अपने वोट इकट्ठा करके भाजपा के ख़िलाफ़ केंद्रित कर पाएं.
माना जा रहा है कि प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) के उम्मीदवार एमवीए के वोट काट सकते हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वीबीए ने 47 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और उन्हें सात प्रतिशत वोट मिले थे. माना गया कि उन्होंने कांग्रेस को कई सीटों पर नुक़सान पहुंचाया था.
कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण कहते हैं, "अगर वो (वीबीए) 10-15 उम्मीदवार खड़े करेंगे, 2-2, 3-3, 4-4, प्रतिशत वोट ले जाएंगे. फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम में एक, दो वोट से भी आप आगे निकल गए तो आप जीत जाएंगे. वंचित का नुक़सान हमें होगा."
सुहास पलशीकर के मुताबिक़- महाविकास अघाड़ी को वीबीए को अपनी ओर खींचना चाहिए था, हालांकि स्थानीय जानकारों के मुताबिक़ सीटों के बंटवारे पर समझौता नहीं हो पाना अलग-अलग रास्ते जाने का कारण था. वीबीए का वोटर उन्हें ही वोट करता है.
पुणे के दांडेकर पुल इलाक़े में वंचित समाज के बहुत लोग रहते हैं. यहां ऑटो चालक मनोज नागु पयार ने कहा कि वो वीबीए को ही वोट देंगे क्योंकि "प्रकाश आंबेडकर बहुत अच्छे आदमी हैं और वो डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर के नाती हैं. वो किसी के सामने झुकते नहीं हैं."
अकोला के गांव मजलापुर में देर शाम प्रचार करने पहुंचे प्रकाश आंबेडकर ने कहा कि उनकी पार्टी वोट नहीं काटेगी, हालांकि वीबीए के एक पदाधिकारी ने बिना नाम देने की शर्त पर माना कि वोट के बंटवारे का नुक़सान महाविकास अघाड़ी को होगा.
प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, "कांग्रेसवालों को अपने ही कार्यकर्ता की जानकारी नहीं है... आम जनता भाजपा के साथ लड़ना चाह रही है, ऐसा दिख रहा है मुझे. हम लोग बीच में खड़े होते हुए भाजपा को महाराष्ट्र में पूरी तरह हराने के लिए बैठे हुए हैं."
डॉक्टर विश्वंभर चौधरी राज्य में सरकार की नीतियों को उजागर करने, धार्मिक विद्वेश, इतिहास आदि पर निर्भय बनो आंदोलन चला रहे हैं. वो कहते हैं कि शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शरद पवार) के सामने चुनौती है कि वो अपने नए चुनाव चिह्न को आम लोगों तक पहुंचाएं.
साथ ही वो कहते हैं, "कांग्रेस के फ़ैसले दिल्ली में होते हैं. उन्हें कुछ फ़ैसले राज्य नेतृत्व पर छोड़ने होंगे जो नहीं हो रहा है. हर बात अप्रूवल के लिए दिल्ली जाती है. और फिर वहां से अप्रूवल आने में देरी होती है."
महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव का नतीजा जो भी हो उसका असर कुछ ही महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी ज़रूर होगा. (bbc.com/hindi)
भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2024 लोकसभा चुनाव के लिए रविवार को दिल्ली के अपने पार्टी मुख्यालय में घोषणापत्र जारी कर दिया. पार्टी ने घोषणापत्र को 'भाजपा का संकल्प, मोदी की गारंटी' नाम दिया है.
भाजपा अपने घोषणापत्र को 'संकल्प पत्र' कहती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की मौजूदगी में बीजेपी ने घोषणापत्र जारी किया.
देश में सात चरणों में लोकसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाएंगे. पहले चरण के लिए 19 अप्रैल को मतदान होना है.
बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि देश में वन नेशन-वन इलेक्शन और कॉमन इलेक्टोरल रोल की भी व्यवस्था की जाएगी.
पीएम मोदी ने पार्टी का 'संकल्प पत्र' जारी करते हुए कहा कि देश के कई राज्यों में नववर्ष का उत्साह देखने को मिल रहा है.
उन्होंने कहा, "हमने संकल्प पत्र को देश के सामने रखा है. लोगों ने बीजेपी के संकल्प पत्र को बनाने के लिए देशभर से सुझाव भेजे हैं.’’
पीएम मोदी ने कहा, "पूरे देश को बीजेपी के घोषणापत्र का इंतज़ार रहता है. इसकी बड़ी वजह ये है कि बीजेपी ने हर गारंटी को पूरा किया है.’’
"ये संकल्प पत्र चार वर्गों युवा शक्ति, महिला शक्ति, किसान और गरीबों को सशक्त करता है. हमने बड़ी संख्या में रोज़गार बढ़ाने की बात की है. युवा भारत की युवा उम्मीदों की छवि बीजेपी के घोषणापत्र में है.’’
पीएम मोदी ने आगे कहा, "25 करोड़ लोगों को गरीबी से बाहर लाकर हमने साबित किया है कि हम जो कहते हैं वो करते हैं. हम परिणाम लाने के लिए काम करते हैं.’’
यूनिफॉर्म सिविल कोड का जिक्र करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि बीजेपी इसे बेहद ही महत्वपूर्ण मानती है.
पीएम मोदी ने बताईं घोषणापत्र की ख़ास बातें
अगले पांच सालों तक मुफ्त राशन, पानी, गैस कनेक्शन, पीएम सूर्य घर योजना से ज़ीरो बिजली बिल की व्यवस्था.
आयुष्मान भारत से पांच लाख तक का मुफ्त इलाज मिल रहा है, यह आगे भी मिलता रहेगा. 70 साल से ऊपर की आयु के हर बुजुर्ग को इस योजना में लाया जाएगा.
मोदी की गारंटी है जन औषधि केंद्र पर 80 फीसदी छूट के साथ दवाई मिलती रहेगी.
गरीबों को चार करोड़ पक्के मकान बनाकर दिए हैं. तीन करोड़ और पक्के मकान बनाए जाएंगे.
पेपर लीक पर बड़ा कानून बना है, उसे लागू करेंगे.
मुद्रा योजना के तहत 20 लाख रुपये का लोन मिलेगा.
नेशनल एजुकेशन पॉलिसी लागू होगी.
2036 में ओलंपिक की मेज़बानी करेंगे.
दिव्यांगों को पीएम आवास योजना में प्राथमिकता मिलेगा.
युवाओं के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर, मैन्युफैक्चरिंग, स्टार्टअप, स्पोर्ट्स, इन्वेस्टमेंट, हाई वैल्यू सर्विस और टूरिज्म के ज़रिए लाखों रोज़गार के अवसर पैदा करेंगे.
एक करोड़ बहनें लखपति दीदी बन गई हैं, आगे तीन करोड़ को बनाएंगे.
नारी वंदन अधिनियम को लागू करेंगे.
बीज से बाज़ार तक किसानों की आय बढ़ाने का प्रयास करेंगे. श्रीअन्न को सुपरफूड की तरह स्थापित करेंगे, नेनो यूरिया और प्राकृतिक खेती से ज़मीन की सुरक्षा करेंगे.
मछुआरों के जीवन से जुड़े हर पहलू, जैसे कि नाव का बीमा, फिश प्रोसेसिंग यूनिट, सैटेलाइट द्वारा समय पर जानकारी, इन सभी को मज़बूत करेंगे.
मछली पालकों को सी-वीड और मोती की खेती के लिए भी प्रोत्साहित करेंगे.
गिग वर्कर्स, टैक्सी ड्राइवर, ऑटो ड्राइवर, घरों में काम करने वाले श्रमिक, माइग्रेंट वर्कर्स, ट्रक ड्राइवर, कुली, सभी को ई-श्रम से जोड़ेंगे और कल्याणकारी योजनाएं पहुंचाएंगे.
तिरुवल्लुवर कल्चरल सेंटर के ज़रिए भारत की संस्कृति को विश्व में ले जाएंगे.
भारत की क्लासिकल भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था उच्च शिक्षण संस्थाओं में करेंगे.
2025 को जनजातीय गौरव वर्ग के रूप में घोषित करेंगे.
एकलव्य स्कूल, पीएम जनमन वन उत्पादों में वैल्यू एडिशन और ईको टूरिज़्म को बढ़ावा देंगे.
ओबीसी, एससी और एसटी समुदाय को जीवन के हर क्षेत्र में सम्मान देंगे.
ट्रांसजेंडर्स को आयुष्मान योजना का लाभ मिलेगा.
कांग्रेस के घोषणापत्र में क्या?
इससे पहले कांग्रेस ने 5 अप्रैल को अपना घोषणापत्र जारी किया था. पार्टी ने इसे 'न्यायपत्र' नाम दिया है.
इस घोषणापत्र में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए 50 फ़ीसदी आरक्षण की निर्धारित सीमा को बढ़ाने की बात कही गई है. इसके लिए संविधान संशोधन लाने का भी वादा किया गया है.
कांग्रेस की सरकार बनने पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए क़ानूनी गारंटी देने का वादा भी किया गया है.
केंद्र सरकार में जो 30 लाख नौकरियों के पद हैं, उन्हें भरा जाएगा.
राजस्थान की चिरंजीवी योजना की ही तरह पूरे देश में 25 लाख रुपये का हेल्थ इंश्योरेंस दिया जाएगा.
सामाजिक, आर्थिक और जातिगत सर्वे देशभर में करवाया जाएगा.
डिप्लोमा धारकों या 25 से कम उम्र के ग्रैजुएट कर चुके युवाओं के लिए एक साल की अप्रेंटिसशिप मुहैया करवाई जाएगी.
पेपर लीक होने के मामले से निपटने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन और पीड़ितों को आर्थिक मुआवज़ा दिया जाएगा.
स्टार्टअप के लिए फंड मुहैया करवाए जाएंगे, ताकि 40 साल से कम उम्र के लोग अपना कारोबार शुरू कर सकें.
डिजिटल लर्निंग के महत्व को समझते हुए क्लास 9 से क्लास 12 तक के स्टूडेंट्स को फोन मुहैया कराया जाएगा.
21 साल से कम उम्र के उभरते हुए खिलाड़ियों के लिए 10 हज़ार रुपये प्रतिमाह की योजना शुरू होगी.
महालक्ष्मी योजना शुरू कर हर गरीब परिवार को बिना शर्त एक लाख रुपये हर साल दिए जाएंगे. ये राशि घर की महिला को दी जाएगी.
2025 से महिलाओं के लिए केंद्र सरकार की आधी नौकरियां आरक्षित की जाएंगी.
फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं जैसे आशा, आंगनवाड़ी, मिड-डे मील रसोइया के वेतन में केंद्र सरकार का योगदान दोगुना किया जाएगा.
मनरेगा के तहत मज़दूरी बढ़ाकर 400 रुपये प्रतिदिन की जाएगी.
प्रतिदिन 400 रुपये न्यूनतम राष्ट्रीय वेतन की गारंटी देने का वादा किया गया है.
घोषणापत्र में वादा किया गया है कि कांग्रेस भोजन, पहनावे, प्यार, शादी और भारत के किसी हिस्से में यात्रा या निवास की व्यक्तिगत पसंद में हस्तक्षेप नहीं करेगी. हस्तक्षेप करने वाले क़ानूनों को रद्द किया जाएगा.
सदन के सत्र के दौरान सप्ताह में एक दिन विपक्षी बेंच के सुझाए एजेंडे पर चर्चा की जाएगी.
मतदान ईवीएम के ज़रिए होगा लेकिन मतदाता मशीन से निकली मतदान पर्ची को वीवीपैट में रख और जमा कर सकेंगे.
चुनावी बॉन्ड घोटाले, सार्वजनिक संपत्तियों की अंधाधुंध बिक्री, पीएम केयर्स घोटाले, उच्चतम स्तर पर बार-बार खुफिया विफलताओं की जांच की जाएगी.
मीडिया की संविधान के तहत हासिल आज़ादी दिलाने में मदद की जाएगी.
सेंसरशिप लगाने वाले क़ानूनों को वापस लिया जाएगा.
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की वैकेंसी तीन साल के भीतर भर दी जाएंगी.
अग्निपथ योजना को ख़त्म किया जाएगा और पुरानी भर्ती प्रक्रिया फिर से लौटेगी.
वन रैंक, वन पेंशन को लेकर यूपीए सरकार के आदेश को लागू किया जाएगा.
सत्ता में आने पर जम्मू और कश्मीर के राज्य का दर्जा फौरन बहाल किया जाएगा.
पुडुचेरी को पूर्ण राज्य का दर्जा देंगे.
दिल्ली सरकार अधिनियम 1991 में संशोधन करते हुए उपराज्यपाल सेवाओं समेत सभी मामलों पर एनसीटी, दिल्ली के मंत्रि परिषद की सलाह पर काम होगा.
पुरानी उपलब्धियों को गिनाया
बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने घोषणापत्र जारी करने से पहले बीजेपी सरकार की 10 साल की उपलब्धियों को गिनवाया है. जेपी नड्डा ने दावा किया कि पीएम मोदी की अगुवाई में देश के हर गांव तक सड़क पहुंच गई है.
चार करोड़ लोगों को बीजेपी सरकार की वजह से पक्के मकान मिले हैं.
दो लाख पंचायतों तक इंटरनेट पहुंचा.
25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर आए.
राम लला विराजमान हुए.
11 करोड़ महिलाओं को सिलेंडर हासिल हुआ.
80 करोड़ लोगों को अन्न योजना का फायदा मिला.
लॉकडाउन लगाकर दो महीने में देश को कोरोना से लड़ने के लिए तैयार किया.
10 साल से देश मान रहा है कि मोदी की गारंटी, गारंटी पूरी होने की गारंटी है.
आयुष्मान भारत दुनिया का सबसे बड़ा हेल्थ प्रोग्राम बना, दुनियाभर में इसकी चर्चा हुई. (bbc.com/hindi)
अमिता नीरव
टूटते भ्रम हमें परिपक्व बनाते हैं, कुछ हद तक प्रैक्टिकल भी। ये हमें सपनों की दुनिया से खींच कर हकीकत की कंकरीली सतह पर चलने को मजबूर कर देते हैं।
मगर क्या कीजे कि भ्रम जिंदगी को खूबसूरत बनाते हैं। किसी किसी के हिस्से इन भ्रमों का लंबा साथ होता है। मगर कुछ लोगों को जिंदगी ये नियामत भी नहीं देती।
हर खतम होते रिश्ते को बचाने की आखिरी कोशिश हमेशा मेरी रहती है। इस पर हम दोनों में खूब मतभेद है, लंबी-लंबी बहसें भी होती है।
मुझ पर तोहमत ये होती है कि, ‘तुममें आत्मविश्वास की कमी है, तुम एकतरफा रिश्ता बचाना चाहती हो।’ जबकि इसके उलट मैं खुद से ही डरती हूं।
पता नहीं भविष्य के किस वक्त में मैं खुद को इस बात का दोष देने लगूं कि अपने अहम पर नियंत्रण रखती तो शायद ये रिश्ता बच जाता। जानती हूं ये भी भ्रम है।
अमूमन मैं ये करने के लिए एक सीमा तक अपने आत्मसम्मान को भी एक तरफ रख देती हूं। क्योंकि इस बात से डरती हूं कि आज जिसे मैं आत्मसम्मान समझ रही हूं, भविष्य में मैं ही उसे अहम कह डालूं।
इसलिए अपने स्वभाव के विपरीत एक सीढ़ी उतरकर भी मैं ठीक करने की कोशिश करती हूं। मगर ज्यादातर मामलों में रिश्ते बच नहीं पाते, क्योंकि कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चल पाता है।
शिकायत करना मेरा स्वभाव नहीं है। मैं लोगों को जैसे वो हैं वैसे ही स्वीकारने की हामी हूं, लेकिन कभी अपनों ही को अहंकार, अहम, कुंठा, कृतघ्नता, ईर्ष्या से ग्रस्त देखती हूं तो पीछे लौटने लगती हूं।
धीरे-धीरे इस समझ तक पहुंची हूं कि जीवन के सफर में कई रिश्ते एक्सपायर होते हैं। दोस्त, परिचित, रिश्तेदार यहां तक कि खून के रिश्ते भी...।
उम्र बढऩे के साथ साथ भ्रम टूटने का सिलसिला भी बढ़ता जाता है। अब समझ आने लगा है कि जिनको साथ रहना है वो हर कीमत पर साथ आते हैं, जिन्हें छूटना है वो लोग जीवन में छूट जाने के लिए ही आए थे।
हर भ्रम टूटकर हमें रिश्तों से विमुख करता जाता है।
अशोक पांडे
उसकी स्मृति में यह बात अब तक गड़ी हुई है कि अपनी माँ की पहली संतान होने के कारण उसे तब तक घरवालों से अपने हक़ का वह स्नेह नहीं मिला जब तक कि उसके पीछे दो भाई और पैदा नहीं हो गए।
पिता टैक्सी चलाते थे। आर्थिक-सामाजिक रूप से बेहद निचली पायदान पर खड़े उसके परिवार के पास उसे देने को तमाम तरह के ढेर सारे कष्ट थे। दुनिया भर की तकलीफों के बीच उसके पास एक माँ थी जो उसे बहुत प्यार करती थी। वही उसका सबसे बड़ा संबल थी। यह और बात कि निर्धनता की हिंसा के बीच बचपन से ही माँ को खटते देखने की तमाम स्मृतियाँ भी उसके जेहन से कभी नहीं गईं।
स्कूल जाती थी लेकिन उसे बार-बार यह अहसास दिलाया जाता कि वह एक लडक़ी है जिसके पढऩे-लिखने का कोई मतलब नहीं। कई बार किताबों के लिए पैसे नहीं होते थे। वह किसी सहपाठी से याचना कर किताब उधार मांग कर लाती थी। कई बार यह भी होता कि उसे स्कूल भेजने के बजाय माँ के साथ घास-लकड़ी के लिए जंगल भेज दिया जाता।
माँ घास ढोने वाली टोकरी में उसकी किताब छिपा कर ले जाया करती। माँ काम करती, वह पढऩे की कोशिश करती लेकिन उसके आंसू निकल आते थे कि संसार की निगाह में बेटी होना इतना बड़ा अपराध कैसे हो गया। वह बहुत कुछ करना चाहती थी लेकिन सारे रास्ते या तो बंद थे या बंद करा दिए जाते थे। एक बार उसके दोस्त से उधार माँगी गई किताब आग के हवाले कर दी गई। उसे दोस्त से झूठ बोलना पड़ा कि किताब गुम हो गई। उस शर्मिंदगी की याद भी उसके मन से नहीं गई।
जब वह दस साल की हुई, उसकी माँ को आंगनबाड़ी सहायिका की नौकरी हासिल हो गई। घर की अनिश्चित आमदनी में आठ सौ रुपये माहवार की बढ़ोत्तरी हुई।
विषमतम संभव परिस्थितियों में उसने पिथौरागढ़ जिले के सल्मोड़ा गाँव से फर्स्ट क्लास में हाईस्कूल पास करने में सफलता हासिल कर ली। उसे विज्ञान के विषय पढऩे का मन था लेकिन गाँव के स्कूल में वह सुविधा न थी। उसके लिए पिथौरागढ़ जाना पड़ता – बीस रुपये रोज़ आने-आने के खर्च करने पड़ते जो नहीं थे। सो वहीं इंटर आर्ट्स में दाखि़ला ले लिया। घर पर दादी का रुतबा चलता था। उन्होंने कहा लड़कियों को पढऩे-पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं होती और टनकपुर में तैनात एक पुलिसवाले से उसकी शादी तय कर दी। दादी के हठ से किसी तरह उसे पिता ने बचा लिया।
सातवीं क्लास से ही उसने एनसीसी में भी दाखि़ला ले लिया था। एनसीसी का सबसे बड़ा आकर्षण उसमें लगने वाले दो-तीन हफ़्तों के कैम्प होते थे। इन कैम्पों के लिए घर से बाहर रहना पड़ता था, खाने-पीने की फि़क्र न होती। घर से बाहर रहना एक बड़ी नेमत हुआ करती थी। जीवन ने उसे यही एक सुअवसर उपलब्ध कराया था जिसे उसने दोनों हाथों से दबोच लिया।
जैसे-तैसे इंटर करने के बाद कॉलेज में बीए में दाखि़ला ले तो लिया पर फिर से शादी का दबाव बढऩे लगा। यह 2014 का साल था जब अठारह साल की आयु में उसने अपने पिता से तीन साल की मोहलत माँगी कि उसके बाद जो चाहो कर लेना अभी मुझे कुछ कर लेने दिया जाय। उसकी बात मान ली गई।
कॉलेज में भी एनसीसी थी। रुडक़ी में कैम्प लगा जिसमें गणतंत्र दिवस की परेड के लिए बच्चे छांटे जाने थे। कद में छोटी होने के कारण इस परेड के लिए उसका सेलेक्शन न हो सका। उदास होकर घर वापस आना पड़ा। दो माह बाद एनसीसी की तरफ से उसके पास चिठ्ठी आई कि उसका नाम रुद्र गैरा पर्वत पर चढ़ाई करने वाले एक अभियान दल के लिए छांटा गया है। पर्वतारोहण का यह उसका पहला अनुभव था जिसमें उसके साथ पच्चीस हमउम्र लड़कियां थीं। पांच हज़ार आठ सौ मीटर ऊंची इस चोटी की मुश्किल चढ़ाई चढऩे में दस दिन लगे। शिखर पर पहुँचने के बाद उसके मन में सबसे पहले जंगल में घास काटती अपनी मां की छवि आई जिसने कैसे-कैसे कष्ट सहते हुए उसे यहां तक पहुँचाने में हरसंभव मदद की थी। उसे यह अहसास भी हुआ कि वह इस जीवन में खुद कुछ कर सकती है।
रुद्र गैरा अभियान में उसका प्रदर्शन देखते हुए एनसीसी की तरफ से उसे अन्य अभियानों में शामिल किया गया। 2016 में जब उसका चयन त्रिशूल चोटी के आरोहण के लिए हुआ तो स्थानीय अखबारों ने ख़बर छापी। पहली बार उसके माता-पिता को अहसास हुआ कि शीतल कुछ ऐसा करती है जो महत्वपूर्ण है।
त्रिशूल अभियान के लिए उत्साहपूर्वक तैयारियों में जुटी शीतल को अचानक झटका लगा जब उसका नाम अचानक मुख्य सूची से हटाकर रिजर्व सूची में रख दिया गया और अंतत: वह अभियान से बाहर हो गई।
उसने हार नहीं मानी और जम्मू कश्मीर में एक एडवांस कोर्स के लिए अप्लाई किया। सात हजार रुपये फीस थी। घर पर इतने पैसे न थे। किस्मत से उन दिनों पिथौरागढ़ में एक डांस प्रतियोगिता हुई, जिसे उसके छोटे भाई ने जीत लिया। उसे इनाम में दस हज़ार रुपये मिले जो उसने अपनी दीदी के हाथ में रख दिए।
मेरी मंशा यहां उसकी जीवनी लिखने की नहीं अलबत्ता 1996 में जन्मी शीतल की इसके बाद की कहानी एक छोटी सी लडक़ी के अदम्य साहस और उसकी इच्छाशक्ति की दृढ़ता की कहानी है।
शीतल ने मुझे बताया बचपन से ही उसे पहाड़ों में चेहरे दिखाई देते थे। जब उसका मन व्यथा से भर जाता वह अकेली उनसे बात करने लगती थी और अपनी पूरी आत्मा उनके सम्मुख उड़ेल देती थी। कभी वे जवाब देते थे कभी नहीं। हां उसे एक बा निश्चित पता थी - पहाड़ और वह एक दूसरे की मोहब्बत में गिरफ्तार थे।
तस्वीर में दिख रही शीतल कोई ऐरी-गैरी पहाड़ी लडक़ी नहीं। 22 साल की आयु में कंचनजंघा को फ़तह कर चुकी है और 23 की उम्र में एवरेस्ट।
विनीत खरे
भ्रम, कोलाहल, गड़बड़ी... महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में टूट के बाद कई लोगों से यही शब्द सुनाई पड़े.
भ्रम, कोलाहल, गड़बड़ी... महाराष्ट्र में शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में टूट के बाद कई लोगों से यही शब्द सुनाई पड़े.
महाराष्ट्र में 2024 लोकसभा चुनाव राज्य की दो प्रमुख पार्टियों की टूट के साए में हो रहे हैं.
भाजपा, कांग्रेस के अलावा अब यहां दो सेना और दो पवार वाली पार्टियां हैं.
पुणे के संपन्न नांदेड़ सिटी इलाक़े की शोभा कारले कहती हैं, "जहां पैसा होता है, नेता वहीं जाते हैं. लोग इतने परेशान हैं कि उनका वोटिंग के लिए भी जाने का मन नहीं है."
इसी शहर में एक अन्य वोटर ने कहा, "घोटाले वालों को तुम क्यों ले रहे हो? घोटाले वाले उधर गए और सब मंत्री बन गए. ये कैसे चलता है, लोग सब समझ रहे हैं."
मुंबई के मशहूर शिवाजी पार्क के बाहर अपने दोस्तों के साथ बैठे रिटायर्ड एसपी वेलनकर के मुताबिक़ "लोग पार्टियों को तोड़ने के ख़िलाफ़ हैं."
उनके नज़दीक ही खड़े दर्शन पाटिल ने पलटकर कहा, "भाजपा तोड़ रही है, इसका मतलब तुम्हारे में कुछ तो कमियां हैं, इस वजह से वो लोग तोड़ रहे हैं."
"लोकतंत्र ख़तरे में है" के विपक्षी दावों पर दर्शन पाटिल पूछते हैं, "किसका लोकतंत्र ख़तरे में है? हिंदू का लोकतंत्र ख़तरे में है? आम आदमी का लोकतंत्र ख़तरे में है?"
साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने कुल 48 सीटों में से 23, तो वहीं शिवसेना ने 18 सीटें जीतीं थीं.
साल 2024 के चुनाव में एनडीए के लिए 400 पार का लक्ष्य रखने वाली भाजपा क्या महाराष्ट्र में इस बार भी 2019 जैसी सफलता दोहरा पाएगी?
महाराष्ट्र में सहानुभूति की लहर
साल 2019 में शिवसेना की पूरी ताक़त भाजपा के साथ थी. आज शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के एक हिस्से उसके साथ हैं, और राज्य में शरद पवार और उद्धव ठाकरे के प्रति "सहानुभूति की लहर" की बात कही जा रही है.
जालना ज़िले के अंतरवाली सराटी गांव में मनोज-जरांगे पाटिल मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे हैं. गांव में हमें भाजपा के प्रति नाराज़गी दिखी. देश के दूसरे हिस्सों की तरह भाजपा-शासित महाराष्ट्र में भी बेरोज़गारी, महंगाई, किसानों की समस्या आदि चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मोदी का ज़ोर उनकी नाव किनारे लगा देगा.
महाराष्ट्र में 48 लोकसभा सीटें दांव पर हैं. बीबीसी से बातचीत में जहां विश्लेषकों ने कहा कि विभिन्न कारणों से भाजपा गठबंधन की सीटें इस बार घट सकती हैं, एक ओपिनियन पोल ने इस गठबंधन को 41 सीटें, जबकि एक दूसरे पोल ने 37 सीटें दीं हैं.
एनसीपी (शरद पवार) के जीतेंद्र आव्हाड ने बातचीत में महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन के लिए 28 सीटों की उम्मीद जताई, जबकि अमरावती के अपने घर में पत्रकारों से घिरी भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा ने कहा, भाजपा महायुति गठबंधन "अधिकांश" सीटें जीतेगा.
इस चुनाव में जहां शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शरद पवार) के लिए जनता के सामने अपना केस मज़बूती से पेश करने की चुनौती है, एकनाथ शिंदे और अजीत पवार और उनके साथ गए नेता भी अपने फ़ैसलों पर महाराष्ट्र की जनता की प्रतिक्रिया जानना चाहेंगे.
महाराष्ट्र कांग्रेस का गढ़ रहा था लेकिन आपसी कलह कांग्रेस के लिए चुनौती रही है. लेकिन इसके बावजूद मराठवाड़ा, विदर्भ में अभी भी ऐसे इलाक़े हैं जहां कांग्रेस का ज़ोर है.
मुंबई के कांग्रेस दफ़्तर में कार्यकर्ताओं से घिरे पृथ्वीराज चव्हाण के मुताबिक़ इस चुनाव में पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना महत्वपूर्ण राज्य हैं. उनका दावा है कि सभी जगह भाजपा का बल घटेगा.
उत्तर भारत में अपने राजनीतिक चरम पर पहुंच चुकी भाजपा को पता है कि उसके लिए महाराष्ट्र कितना महत्वपूर्ण है, लेकिन भाजपा के लिए चुनौतियां भी कम नहीं हैं.
क्या भाजपा अपना प्रदर्शन दोहरा सकती है?
महाराष्ट्र में एक वक़्त मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और शिवसेना/भाजपा के बीच होता था. शिवसेना और भाजपा ने साल 1984 में पहली बार ग़ैर-कांग्रेसवाद के नाम पर हाथ थामा था.
साल 1987 में जब शरद पवार वापस कांग्रेस में शामिल हुए, मराठी मानुस की बात करने वाली शिवसेना कांग्रेस-विरोध का स्तंभ बनी और उसके बढ़ने की शुरुआत हुई. वक़्त के साथ मराठी मानुस की बात हिंदुत्व में तब्दील हो गई. कुछ और परिस्थितियों के कारण गठबंधन में भाजपा का पलड़ा भारी होता गया.
साल 2012 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की मौत और उसके बाद की अंतर्कलह ने शिवसेना को और कमज़ोर किया. प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में लहर ने भाजपा को साल 2014 में महाराष्ट्र में 23 सीटों तक पहुंचा दिया.
साल 2019 में भाजपा, शिवसेना गठबंधन ने 41 सीटों पर बाज़ी मारी. विश्लेषक इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में वोटिंग, पुलवामा आदि को वजह मानते हैं.
मुंबई के नरीमन प्वाइंट स्थित मराठी अख़बार 'लोकसत्ता' के दफ़्तर में संपादक गिरीश कुबेर ने बताया कि पार्टियों में टूट-फूट के कारण इस बार भाजपा या एनडीए के लिए 2019 की सफलता दोहराना मुश्किल है. राज्य में स्थानीय चुनावों में लंबी देरी को भी वो राज्य सरकार में विश्वास की कमी की निशानी मानते हैं.
उनके मुताबिक़ राज्य में उद्धव ठाकरे के मुक़ाबले एकनाथ शिंदे की पहुंच सीमित है. वो कहते हैं, "भाजपा को लगा सभी ठाकरे समर्थक शिंदे की तरफ़ हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. भाजपा को एहसास हुआ कि अजीत पवार का असर पूना ज़िले तक सीमित है. ऐसी सोच है कि ये कुछ ज़्यादा (तोड़-फोड़) ही हो गई, कि मराठी मानुस को हमेशा दिल्ली से चुनौती मिलती है."
पार्टी कार्यकर्ता ये भी देख रहे हैं कि कल तक जिन्हें भाजपा भ्रष्ट कहती थी, आज वो पार्टी के साथ खड़े हैं. एक भाजपा कार्यकर्ता के मुताबिक़ "ये सोचने वाली बात है लेकिन राजनीति में जोड़-तोड़ करना पड़ता है नहीं तो एक सीट के कारण भी सरकार गिर सकती है."
वरिष्ठ पत्रकार और किताब 'चेकमेट - हाऊ बीजेपी वॉन ऐंड लॉस्ट महाराष्ट्र' के लेखक सुधीर सूर्यवंशी के मुताबिक़ लोग भाजपा से ज़्यादा एकनाश शिंदे और अजीत पवार से नाराज़ हैं कि उन्होंने टूट में हिस्सा लिया. उनके मुताबिक़ घटनाक्रम ने भाजपा को लंबे समय के लिए नुक़सान पहुंचाया है.
विश्लेषक सुहास पलशीकर के मुताबिक़ एनसीपी और शिवसेना के कई वोटर असमंजस में हैं कि किसको वोट करें. वो मानते हैं कि एक तरफ़ जहां भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर निर्भर होगी, वहीं "शरद पवार और उद्धव ठाकरे को लेकर सहानुभूति है."
ये सहानुभूति कितनी गहरी है, ये साफ़ नहीं है लेकिन एकनाथ शिंदे का हाथ थामने वाले शिवसैनिक नरेश म्हस्के चुनाव में उद्धव या शरद पवार के लिए किसी भी सहानुभूति से इनकार करते हैं. ठाणे के अपने दफ़्तर में कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में उन्होंने पूछा, "उद्धव ठाकरे ने पिछले विधानसभा में किसके साथ गठबंधन किया? भाजपा के साथ. चुनकर किसके साथ आए? भाजपा के साथ. थोड़ा आंकड़े कम ज़्यादा होने के बाद तुरंत कांग्रेस के साथ चले गए. अगर ये नियम इन पर लागू है तो उन पर भी लागू है."
नरेश म्हस्के कहते हैं कि शुरुआत में उद्धव ठाकरे के प्रति सहानुभूति थी जो बाद में कम होने लगी. वो कहते हैं, “लोगों को मुख्यमंत्री (एकनाथ शिंदे) चौबीसों घंटे काम करते दिखने लगे. लोगों को लगा कि वो काम कर रहे हैं. अच्छे-अच्छे फ़ैसले हुए जिसकी वजह से लोग उनसे जुड़े."
भाजपा के लिए चुनौतियां
दिन में सूरज जब सिर के ठीक ऊपर था, तब पुणे के संपन्न नांदेड़ सिटी में समर्थकों से घिरीं शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले घर-घर जाकर लोगों से मिल रही थीं. उनके समर्थकों में लाल पोशाक और एक पगड़ी पहना एक शख़्स भी था जो थोड़ी-थोड़ी देर पर साज़ तुरहा बजा रहा था. मराठी में तुरहा बजाने वाले व्यक्ति को तुतारी कहते हैं. चुनाव आयोग ने शरद पवार वाले एनसीपी गुट को लोकसभा चुनाव के लिए 'तुतारी' चुनाव चिह्न दिया है.
यहीं एक घर में हमें शोभा कारले मिलीं जो कहती हैं, "पार्टी को तोड़ना ग़लत हुआ. जिनकी पार्टी थी उनसे पार्टी छीन लेना, बहुत ग़लत बात हुई है." उनके साथ खड़ी महिलाएं भी उनसे सहमत थीं.
बारामती से सांसद सुप्रिया सुले का मुक़ाबला एनसीपी पार्टी तोड़ एनडीए में शामिल हुए अजीत पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार से है. पवार बनाम पवार की इस लड़ाई पर सुप्रिया सुले कहती हैं, "क्या ये दुख की बात नहीं है? उस राज्य के लिए जहां सब कुछ ठीक चल रहा था, उसे तोड़ दिया गया क्योंकि आप अपने बल पर नहीं जीत सकते."
शिवसेना और एनसीपी में टूट के लिए सुप्रिया सुले ने इनकम टैक्स, सीबीआई और ईडी को ज़िम्मेदार ठहराया.
जानकारों के मुताबिक़- भाजपा को अपने बल पर महाराष्ट्र पर शासन करने के लिए ज़रूरी था कि वो शिवसेना और एनसीपी के क़द को छोटा करे और यही टूट की वजह थी, लेकिन अब बहस ये है कि क्या उन कोशिशों के परिणामस्वरूप नई परेशानियां तो खड़ी नहीं हो गईं हैं.
आज यहां शिवेसना के दो फाड़, एनसीपी के दो फाड़, भाजपा, कांग्रेस, प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघड़ी, एआईएमआईएम हैं. टिकट न मिलने से या राजनीतिक महत्वाकांक्षा से ऐसे कई नाराज़ नेता हैं जो या तो पार्टी बदल रहे हैं, या सही वक़्त का इंतज़ार कर रहे हैं.
शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के अनिल देसाई के मुताबिक़ "कई लोगों को लगता है कि लोग बातें भूल जाते हैं, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं होगा."
विश्लेषकों के अनुसार पार्टियों में टूट के कारण कई लोगों में ये छवि बनी है कि भाजपा पार्टी और परिवार तोड़ने वाली पार्टी है, और ये छवि भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है.
एनसीपी (शरद पवार) के जीतेंद्र अव्हाड कहते हैं, "हम मैदान छोड़कर भागेंगे नहीं. हम शरद पवार के साथ खड़े हैं. ये चुनाव लोकत्रंत और संविधान को बचाने की लड़ाई के लिए है."
लोकसत्ता संपादक गिरीश कुबैर के मुताबिक़ पार्टियों की टूट के कारण भाजपा के सामने पार्टी के और आयातित नेताओं की राजनीतिक उम्मीदों को मैनेज करने की चुनौती है.
वो कहते हैं, "जो लोग भाजपा में आए हैं, वो भाजपा से अच्छा व्यवहार चाहते हैं. वो अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेह हैं. एक एहसास है कि जब तक आप भाजपा में न आएं तब तक तो पार्टी आपका बहुत ध्यान रखती है, उसके बाद नहीं."
शिवसेना के नरेश म्हस्के इन हालात के लिए उद्धव ठाकरे की "फ़्लॉप" नीतियों को ज़िम्मेदार मानते हैं.
वो कहते हैं, "क्या ज़रूरत थी कांग्रेस के साथ गठबंधन की? हमारी शिवसेना कांग्रेस से झगड़ा करके बड़ी हुई. शिवसेना में शामिल होने वाले आम लोग थे. तब उनका झगड़ा कांग्रेस के बड़े नेताओं के साथ हुआ. कितने लोगों के संसार बरबाद हुए. झूठे मामले दर्ज हुए तो भी शिवसेना कहकर काम किया. और तुम चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ गए. इसकी ज़रूरत क्या थी? आपको एकनाथ शिंद के ख़िलाफ़ बोलने का अधिकार नहीं है? आपने भी वही किया."
भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा के मुताबिक़, "जिनकी भी पार्टियां टूटीं, उनकी करतूतों से टूटीं."
विश्लेषक सुहास पलशीकर कहते हैं कि भाजपा के लिए चुनौती होगी कि वो सहयोगियों को दी हुई सीटें जीत पाएं. पार्टी के मुंबई में अच्छा प्रदर्शन भी महत्वपूर्ण होगा.
राज ठाकरे के भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने से एनडीए के उत्तर भारतीय वोटों के नुक़सान की बात की जा रही है.
वरिष्ठ पत्रकार और किताब 'चेकमेट - हाऊ बीजेपी वॉन ऐंड लॉस्ट महाराष्ट्र' के लेखक सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं, "राज ठाकरे के कारण उत्तर भारतीय भी बंटे हुए हैं. बिहार के लोग तेजस्वी यादव का समर्थन कर रहे हैं और एमवीए के साथ हैं. इससे भाजपा को नुक़सान होगा."
गिरीश कुबेर मानते हैं कि भाजपा के लिए एक और चुनौती ये है कि राज्य में उनका सबसे मज़बूत नेता ब्राह्मण है जिनकी आबादी बहुत कम है.
महाराष्ट्र में एक वर्ग में ये भी सोच है कि कथित राजनीतिक या दूसरे कारणों से राज्य में आने वाला बड़ा निवेश कहीं और जा रहा है.
मराठा आरक्षण की चुनौती
महाराष्ट्र में क़रीब 28 प्रतिशत मराठा वोट बताया जाता है और पिछले कुछ वक़्त से मराठा आरक्षण की मांग ने ज़ोर पकड़ी है.
मराठवाड़ा के जालना ज़िले के गांव अंतरवाली सराटी में मनोज-जरांगे पाटिल के प्रदर्शन स्थल से थोड़ी दूर ही रह रहीं मनीशा सचिन तारक के दो बच्चे हैं. मनीशा मराठा हैं और कहती हैं कि बेरोज़गारी और कम ज़मीन के टुकड़े की वजह से गुज़ारा मुश्किल से हो पाता है. उनके मुताबिक़ आरक्षण से उनके बच्चों को फ़ायदा होगा.
उनके ससुर मधुकर तारक कहते हैं, "मराठाओं की स्थिति पहले जैसी नहीं रही जब उनके पास ढेर सारी ज़मीनें हुआ करती थीं. अब महंगाई बहुत बढ़ गई है. खेती भी अच्छी नहीं होती है. बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता होती है."
उनका वोट किस तरफ़ पड़ेगा, इस पर वो कहते हैं कि जो मनोज-जरांगे कहेंगे, वो वही करेंगे. मराठा समुदाय में ये आर्थिक समस्याएं आरक्षण की मांग को बल दे रही हैं.
महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण पर आंदोलन खड़ा करने वाले दुबले क़द काठी के मनोज-जरांगे पाटिल ने पहले भूख हड़ताल की और अभी भी उनका आंदोलन जारी है. देवेंद्र फडणवीस को लेकर उनके तीखे बयान चर्चा का विषय रहे हैं.
अकोला में विश्लेषक संजीव उन्हाले के मुताबिक़, "जरांगे पाटिल का सबसे बड़ा डर भाजपा को है. उनके (जरांगे पाटिल) ऊपर बहुत दबाव है. उनको उम्मीद नहीं थी कि पुलिस उनके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करेगी."
आंदोलन के दौरान प्रदर्शन और अन्य बातों की जांच के लिए जांच टीम का गठन किया और पुणे में जरांगे पाटिल के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की ख़बर आई.
मराठा समुदाय के लिए आरक्षण पहले 2014 फिर 2018 में दिया गया लेकिन वो अदालत में नहीं टिक पाया. एकनाथ शिंदे सरकार की मराठा समुदाय को 10 प्रतिशत आरक्षण देने की कोशिश से जरांगे पाटिल ख़ुश नहीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि 50 प्रतिशत की सीमा का हवाला देते हुए अदालत फिर इसे ख़ारिज कर देगी. उनकी मांग है कि मराठा समुदाय को ओबीसी आरक्षण में शामिल किया जाए. इससे ओबीसी ख़ुश नहीं हैं.
मराठा आरक्षण का चुनाव पर असर पर जरांगे पाटिल ने कहा कि "महाविकास अघाड़ी और महायुति (भाजपा गठबंधन) दोनो गुटों ने हमें धोखा दिया है."
पाटिल के मुताबिक़, "हमने किसी को (चुनाव में बतौर उम्मीदवार) खड़ा नहीं किया है. मराठा समाज किसको मतदान करेगा, इसका टेंशन अब महाविकास अघाड़ी और महायुति दोनों गुटों में है. जो उम्मीदवार मराठा आरक्षण के पक्ष में नहीं है, वो उम्मीदवार 100 प्रतिशत गिरेगा. अब मराठा वोट नहीं बटेंगे."
गांव में हमें एक पाटिल समर्थक ने भाजपा के ख़िलाफ़ नाराज़गी जताई और कहा कि चुनाव के ठीक पहले इशारा दिया जाएगा कि मराठा समाज किस उम्मीदवार के पक्ष में वोट करे, हालांकि हमें भाजपा समर्थक मराठा समुदाय के एक व्यक्ति ने कहा कि ये कोई ज़रूरी नहीं है कि जरांगे पाटिल जिस उम्मीदवार के पक्ष में इशारा दें तो समुदाय उनके पक्ष में ही वोट करेगा.
पत्रकार और लेखक सुधीर सूर्यवंशी कहते हैं, "मराठा समुदाय को लगता है कि भाजपा ने उन्हें एक अस्थायी हल दिया है - ऐसा हल जो सुप्रीम कोर्ट का क़ानूनी टेस्ट पास नहीं कर पाएगा. समुदाय इससे ख़ुश नहीं है. मराठा समुदाय के कई लोगों को ओबीसी कुनबी जाति का सर्टिफ़िकेट देने से ओबीसी ख़ुश नहीं हैं. उन्हें लगता है कि इससे संघर्ष बढ़ेगा. भाजपा के लिए डबल वैमी या दोहरा झटका है."
शिंदे सेना के एक नेता के मुताबिक़- "हमारे नेताओं को शुरू से ही पूछना चाहिए था, ठीक है हम ओबीसी से आरक्षण नहीं दे रहे हैं. क्या उद्धव ठाकरे और शरद पवार दे रहे हैं?"
कांग्रेस और एनसीपी नेता मराठा आरक्षण के सवाल पर सीधा जवाब देने से बचते नज़र आए.
भाजपा का पलटवार
चाहे गांव हो या शहर, और बैलट पर कोई भी हो, भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में विकास के नाम पर वोट मांग रही है.
बातचीत में भाजपा कार्यकर्ताओं ने विश्वास जताया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम सभी राजनीतिक चुनौतियों पर भारी पड़ेगा. विदर्भ इलाक़े के अमरावती से भाजपा उम्मीदवार नवनीत राणा ने प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में रोज़गार, मूलभूत सुविधाओं, स्वास्थ्य सुविधाओं पर सरकारी कामों की लंबी फ़हरिस्त गिनाई. वो कहती हैं, "75 साल के गड्ढे को भरने के लिए समय तो ज़रूर देना पड़ेगा."
विश्लेषक सुहास पलशीकर भी मानते हैं कि भाजपा सभी राजनीतिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी पर निर्भर होगी और ये देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी महाराष्ट्र में कितनी रैलियां करते हैं.
सुहास पलशीकर के मुताबिक़ भाजपा के पास इतने वोटर हैं कि उनके मुख्य वोटर भी कम महत्व रखते हैं.
वो कहते हैं, "वोटरों में अभी भी प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा है. विपक्ष का प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करना ग़लती है. इससे भाजपा को फ़ायदा होगा. मुझे लगता है कि विपक्ष स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देगा."
किसान आत्महत्या को लेकर विदर्भ देशभर में चर्चा का विषय रहा है.
जैसे अमरावती के एक गांव में रहने वाले किसान विजय सिंह ठाकुर. वो बढ़ती महंगाई, बेमौसम बरसात में सरकारी राहत के ना मिल पाने आदि से परेशान हैं. महाराष्ट्र के इस हिस्से में संतरा, मौसमी, कपास, तूर, चना आदि उगाया जाता है.
उनके मुताबिक़ "जो लोग राजनीति में हैं, उन्हें खेती की समझ नहीं है. उन्हें नहीं पता कि खेती पर निर्भर रहने वाला समाज कितना है, पानी के स्रोत क्या हैं, ज़मीन की क्वालिटी कैसी है, यहां पर कौन सी फसल आ सकती है, यहां पर हम कौन से उद्योग खोल सकते हैं?"
उधर लोकसत्ता संपादक गिरीश कुबेर के मुताबिक़- भाजपा के पास संसाधनों की भरमार है, और उनकी मशीनरी चुस्त-दुरुस्त है. और अगर पार्टी को लगता है कि हालात नहीं सुधर रहे हैं तो वो ध्रुवीकरण की नीति इस्तेमाल कर सकते हैं.
उनके मुताबिक़ चुनाव के पांच चरणों में होने का अर्थ ये है कि भाजपा के पास अपनी रणनीति में बदलाव के लिए काफ़ी वक़्त है.
इंडिया अलायंस/ महाविकास अघाड़ी की चुनौतियां
विश्लेषक सुहास पलशीकर के मुताबिक़ एमवीए दलों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि उनके समर्थकों के बीच वोटों का ट्रांसफ़र हो और अपने वोट इकट्ठा करके भाजपा के ख़िलाफ़ केंद्रित कर पाएं.
माना जा रहा है कि प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) के उम्मीदवार एमवीए के वोट काट सकते हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनाव में वीबीए ने 47 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और उन्हें सात प्रतिशत वोट मिले थे. माना गया कि उन्होंने कांग्रेस को कई सीटों पर नुक़सान पहुंचाया था.
कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण कहते हैं, "अगर वो (वीबीए) 10-15 उम्मीदवार खड़े करेंगे, 2-2, 3-3, 4-4, प्रतिशत वोट ले जाएंगे. फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम में एक, दो वोट से भी आप आगे निकल गए तो आप जीत जाएंगे. वंचित का नुक़सान हमें होगा."
सुहास पलशीकर के मुताबिक़- महाविकास अघाड़ी को वीबीए को अपनी ओर खींचना चाहिए था, हालांकि स्थानीय जानकारों के मुताबिक़ सीटों के बंटवारे पर समझौता नहीं हो पाना अलग-अलग रास्ते जाने का कारण था. वीबीए का वोटर उन्हें ही वोट करता है.
पुणे के दांडेकर पुल इलाक़े में वंचित समाज के बहुत लोग रहते हैं. यहां ऑटो चालक मनोज नागु पयार ने कहा कि वो वीबीए को ही वोट देंगे क्योंकि "प्रकाश आंबेडकर बहुत अच्छे आदमी हैं और वो डॉक्टर बाबा साहब आंबेडकर के नाती हैं. वो किसी के सामने झुकते नहीं हैं."
अकोला के गांव मजलापुर में देर शाम प्रचार करने पहुंचे प्रकाश आंबेडकर ने कहा कि उनकी पार्टी वोट नहीं काटेगी, हालांकि वीबीए के एक पदाधिकारी ने बिना नाम देने की शर्त पर माना कि वोट के बंटवारे का नुक़सान महाविकास अघाड़ी को होगा.
प्रकाश आंबेडकर कहते हैं, "कांग्रेसवालों को अपने ही कार्यकर्ता की जानकारी नहीं है... आम जनता भाजपा के साथ लड़ना चाह रही है, ऐसा दिख रहा है मुझे. हम लोग बीच में खड़े होते हुए भाजपा को महाराष्ट्र में पूरी तरह हराने के लिए बैठे हुए हैं."
डॉक्टर विश्वंभर चौधरी राज्य में सरकार की नीतियों को उजागर करने, धार्मिक विद्वेश, इतिहास आदि पर निर्भय बनो आंदोलन चला रहे हैं. वो कहते हैं कि शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और एनसीपी (शरद पवार) के सामने चुनौती है कि वो अपने नए चुनाव चिह्न को आम लोगों तक पहुंचाएं.
साथ ही वो कहते हैं, "कांग्रेस के फ़ैसले दिल्ली में होते हैं. उन्हें कुछ फ़ैसले राज्य नेतृत्व पर छोड़ने होंगे जो नहीं हो रहा है. हर बात अप्रूवल के लिए दिल्ली जाती है. और फिर वहां से अप्रूवल आने में देरी होती है."
महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव का नतीजा जो भी हो उसका असर कुछ ही महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी ज़रूर होगा. (bbc.com/hindi)
डॉयचे वैले पर एलिस्टेयर वॉल्श की रिपोर्ट-
एक समय पृथ्वी की आधी से अधिक जमीन पर घना जंगल हुआ करता था। इंसान लगभग 10,000 वर्षों से इन जंगलों को काट रहे हैं, लेकिन बीती एक शताब्दी से जंगलों की कटाई में नाटकीय रूप से तेजी आई है।
1900 से अब तक संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की सारी जमीन के आकार के बराबर के जंगल गायब हो गए हैं। यह मात्रा उतनी ही है जितनी कि पिछले 9000 साल में काटे गए जंगल। ऑनलाइन साइंस प्लेटफार्म और वर्ल्ड इन डाटा के मुताबिक जंगलों का यह नुकसान निरंतर बढ़ता जा रहा है।
वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) की तरफ से जारी न्यू ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच स्टडी के अनुसार, 2023 में पृथ्वी पर हर सप्ताह सिंगापुर के क्षेत्र के बराबर के जंगल गायब होते गए। इसका मतलब है कि साल भर में कुल 37 लाख हेक्टेयर जमीन से जंगल गायब हो गए। हालांकि जंगलों के कटने की यह दर 2022 की तुलना में थोड़ी सी कम रही है।
अक्सर खेती की जमीन हासिल करने के लिए जंगलों को काटा जाता है। बीते कुछ दशकों में यह ज्यादातर बीफ, सोया और पाम आयल या टिंबर के लिए किया जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण भडक़ती आग में भी जंगल तबाह हो रहे हैं। बीते वर्ष कनाडा में लगी आग ने सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए जंगलों को भारी नुकसान पहुंचाया था।
ब्राजील के रोराइमा स्टेट की एक अवैध खदान जिसके लिए जंगल काटे गएब्राजील के रोराइमा स्टेट की एक अवैध खदान जिसके लिए जंगल काटे गए
अगर जंगल इसी तरह से सिकुड़ते रहे तो यह ग्रह इंसानों के रहने लायक नहीं बचेगा। ज्यादातर देशों ने 2030 तक जंगलों को कटाई पर रोक लगाने की शपथ ली है, लेकिन कोई भी देश उस स्तर के प्रयासों के आसपास नहीं दिख रहा है जो इसे हासिल करने के लिए चाहिए।
डब्ल्यूआरआई में ग्लोबल फॉरेस्ट वाच निदेशक मिकाइला वाइस ने एक बयान में कहा, ‘दुनिया ने दो कदम आगे बढ़ाये, लेकिन बीते वर्ष के जंगलों के नुकसान की ओर देखा जाए तो वह दो कदम पीछे भी गई है।’
मैरीलैंड विश्वविद्यालय की ओर से किए गए एक सर्वे के अनुसार, कोलंबिया और ब्राजील जैसे देशों को उष्णकटिबंधीय जंगलों की कटाई की दर घटाने में सफलता मिली है, लेकिन बोलीविया, लाओस, निकारागुआ जैसे देशों में बढ़ी दर ने फायदे की स्थिति को बराबर कर दिया।
क्यों जरूरी हैं जंगल?
स्वस्थ जंगल ऑक्सीजन बना कर कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करते हैं। इससे धरती पर पलने वाले जीवों को सांस लेने के लिए पर्याप्त हवा मिलती है। जंगल पीने के पानी को भी प्राकृतिक रूप से फिल्टर करके भूजल के रूप में इक_ा करते हैं। पेड़ों की जड़ें बारिश के पानी के जमीन के अंदर जाने से पहले ही जरूरी पोषक तत्वों और प्रदूषकों को अवशोषित कर लेती हैं ताकि पीने लायक साफ पानी भूजल के रूप में बचा रहे।
यही जड़ें भूस्खलन के समय मिट्टी को भी मजबूती से बांधे रखती हैं और भारी बारिश के बावजूद पानी सोख लेती हैं। मैंग्रोव जंगलों की बात की जाए तो वे ढाल बनकर चक्रवाती तूफान से तटीय इलाकों को बचाने का काम करते हैं।
जंगल इस बात में भी अपनी अहम भूमिका निभाते हैं कि हमें खाने के लिए पर्याप्त खाना मिल जाए। वे फल देते हैं जिसे इंसान खाते हैं या फिर खेती के लिए परागण और जल आपूर्ति को सुनिश्चित करते हैं।
लगभग 30 करोड़ लोग जंगलों में रहते हैं और करीब 1.6 अरब लोगों की आजीविका का सहारा भी जंगल हैं। जंगल उन्हें लकड़ी, ईंधन, भोजन और रहने की जगह या आसरा देते हैं।
इंसानों के साथ-साथ धरती पर जैव विविधता में वनों का 80त्न से भी अधिक योगदान होता है। करीब 80त्न उभयचर और 75त्न पक्षी इन पर आश्रित हैं। उष्णकटिबंधीय वर्षावन ज्यादा जीवों का बोझ उठाने में ज्यादा सक्षम होते हैं। पृथ्वी पर मौजूद आधे से ज्यादा कशेरुकी जीव जंगलों से ही पलते हैं।
अंतरराष्ट्रीय वन संरक्षण के लिए विख्यात गैर सरकारी संगठन डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के मुताबिक, उष्णकटिबंधीय वर्षा वन जब काटे जाते हैं तो वह हर दिन लगभग 100 प्रजातियों के विलुप्त होने का जोखिम मंडराने लगता है। इंसानों के अस्तित्व के लिए जैव विविधता बुनियादी जरूरत है।
जलवायु परिवर्तन और जंगल कैसे जुड़े हैं?
वनों की कटाई को रोका जाना मुमकिन है। 2023 में ब्राजील में 36त्न तक प्राथमिक वनों की कटाई कम हुई, वहीं पिछले वर्ष की तुलना में कोलंबिया में वनों को नुकसान 49त्न तक कम हुआ। हालांकि यह सब राजनीतिक कारणों की वजह से हो सका।
वनों के मोर्चे पर कोलंबिया में बनी लाभ की इस स्थिति के पीछे देश में शांति प्रक्रिया की अहम भूमिका रही। इसमें अलग अलग हथियारबंद गुटों के बीच बातचीत हुई और उनमें वन संरक्षण को प्राथमिकता दी गई।
ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला डा सिल्वा ने तो वनों के संरक्षण को अपना एक नीतिगत लक्ष्य बनाया है। इसके लिए उन्होंने आवश्यक कानूनी सख्ती करने के साथ ही उन नीतियों को रद्द कर दिया जो वनों को क्षति पहुंचाने वाली थीं। साथ ही मूलनिवासियों के इलाकों को मान्यता भी दी है। उनकी ये नीतियां उनके पूर्ववर्ती जैर बोलसोनारो के एकदम उलट हैं, जिनकी नीतियों में आर्थिक विकास के लिए वनों को खत्म किया जा रहा था।
डब्ल्यूआरआई में वैश्विक वन निदेशक रॉड टेलर का कहना है, ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति के दम पर देश वनों की कटाई की दर को घटा सकते हैं, लेकिन हम जानते हैं कि सियासी हवा बदलने के साथ इस मोर्चे पर प्रगति की धारा पलट भी सकती है।’
इस प्रकार के संभावित रुझान की काट के लिए टेलर का सुझाव है, ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था को खेत, खदान या फिर नई सडक़ें बनाने के लिए वनों की कटाई से हासिल होने वाले तात्कालिक फायदों की तुलना में जंगलों की कीमत बढ़ाने की जरूरत है।’
वनों को कैसे संरक्षित किया जा सकता है?
वनों के संरक्षण के कुछ तौर-तरीकों में वैसी वैश्विक पहल भी शामिल हैं, जो वनों का इस आधार पर आकलन करती हैं कि वे कितनी कार्बन संरक्षित कर सकते हैं। वन क्षेत्रों के संरक्षण में लगे स्थानीय निवासियों और जमीन मालिकों को उनके इन प्रयासों के लिए प्रत्यक्ष भुगतान जैसे नए प्रकार के प्रयास भी किए जा रहे हैं।
सप्लाई चेन पर ध्यान दे कर भी जंगलों की कटाई से निपटा जा सकता है। मिसाल के तौर पर, यूरोपीय संघ के डिफोरेस्टेशन रेग्यूलेशन का उदाहरण सामने है। इसमें कंपनियों पर यह दबाव है कि वे मवेशी, कोकोआ, कॉफी, पाम आयल, रबर, सोया और लकड़ी के आयात के मामले में ध्यान रखें कि कहीं वे ऐसे किसी स्थान से तो नहीं आ रहे, जहां उनके लिए जंगल को हाल में ही काटा गया हो।
वनों में निवास करने वाले मूल निवासियों के समुदायों को प्रोत्साहन के माध्यम से भी वनों की कटाई को रोकने में मदद मिल सकती है। विश्व बैंक के अनुसार, बचे हुए करीब 36 प्रतिशत वन मूल-निवासियों की भूमि पर हैं और वे जैव-विविधता के संरक्षण में उपयोगी हैं।
जिस जगह वन की कटाई की गई, वहां दोबारा जंगल लगाना पेरिस समझौते के लक्ष्य को हासिल करने के लिए उठाए कदमों का हिस्सा है। कई देश तो वहां भी जंगल लगाने की राह पर चल रहे हैं जहां पहले वन नहीं था।
वन विशेषज्ञ टेलर का कहना है, ‘सभी उष्णकटिबंधीय देशों में वनों की कटाई में स्थाई कमी लाने के लिए साहसिक वैश्विक तंत्र और अनूठी स्थानीय पहल दोनों आवश्यक हैं।’ (dw.com)
‘ये स्पष्ट नहीं है कि प्रधानमंत्री नेतन्याहू इस डील के लिए तैयार हैं या नहीं। ये भी साफ़ नहीं है कि हमास के राजनीतिक नेता याह्या सिनवार भी समझौते के लिए राज़ी हैं या नहीं। लेकिन जब ये दोनों तैयार होंगे तो संभव है कि कोई बीच का रास्ता निकालना जाए।’
ह्यूगो बाचेगा
इसराइल और फ़लस्तीनी सशस्त्र गुट हमास के बीच संघर्षविराम आसान नहीं रहने वाला था।
हफ्तों की बातचीत किसी भी तरह के समझौते तक पहुंचने में नाकाम रही। लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है।
इस कड़ी में सबसे बड़ा संकेत बाइडन प्रशासन की ओर से सीआईए के चीफ विलियम बर्नस को ताजा बातचीत के लिए काहिरा भेजना है।
वहीं, हमास कम से कम सार्वजनिक तौर पर स्थाई सीजफायर, इसराइली सेना की पूरी तरह से वापसी और विस्थापित फलस्तीनियों को बेरोकटोक लौटने देने की अपनी शुरुआती मांगों पर अड़ा हुआ है।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू हालांकि हमास के पूरी तरह से सफाए और बंदी बनाए गए इसराइली नागरिकों की रिहाई तक लड़ाई जारी रखने का दावा कर रहे हैं।
अमेरिकी प्रेशर
साल 2011 में इसराइली सैनिक गिलाड शालित की रिहाई के लिए हमास से बातचीत की पहल करने वाले गेरशोन बास्किन कहते हैं, ‘इसराइल के ऊपर अमेरिका का दबाव है। मिस्र और क़तर हमास पर दबाव डालेंगे। ये साफ़ तौर पर जाहिर है।’
गेरशोन बास्किन ने आगे कहा, ‘सच तो ये है कि सीआईए प्रमुख वहां मौजूद थे। इससे वार्ता में भाग ले रहे सभी आला अधिकारियों को इसमें भाग लेना पड़ा। यह अमेरिका की तरफ से बढ़ रहे प्रेशर का संकेत देता है।’ लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बातचीत किसी समझौते तक पहुंच गई है।
अमेरिका समेत इसराइल के प्रमुख सहयोगी देशों के बीच बढ़ती निराशा के बीच इसराइली अधिकारियों ने कुछ मामलों में रियायत बरतने का संकेत दिया है।
इस हफ्ते की शुरुआत में इसराइल के रक्षा मंत्री योएव गैलेंट ने कहा था कि यह संघर्षविराम का सही वक्त है।
संघर्ष विराम
किसी भी डील में हमास द्वारा बंदी बनाए गए कुछ इसराइली नागरिकों की रिहाई के बदले में इसराइली जेलों में बंद फ़लस्तीनी कैदियों को छोडऩे की उम्मीद की जा रही है।
नवंबर में किया गया अस्थाई युद्ध विराम का समझौता इसी बुनियाद पर टिका था।
इसराइली अधिकारियों के अनुसार, गाजा में अभी भी उसके 133 लोग बंदी हैं। हालांकि हमास ने जितने लोगों को अगवा किया था, उनमें कम से कम 30 लोगों की मौत की पुष्टि हो चुकी है।
अमेरिकी प्रस्ताव के तहत, छह हफ़्तों के संघर्ष विराम के शुरुआती चरण में हमास 40 बंधकों को रिहा करेगा जिनमें महिला, सैनिकों और किसी बीमारी से जूझ रहे 50 साल से अधिक उम्र के पुरुष बंधकों को प्राथमिकता दी जाएगी।
इसके बाद इसराइल कम से कम 700 फलस्तीनी कैदियों को रिहा करेगा जिनमें इसराइली नागरिकों की हत्या के लिए उम्रकैद की सजा काट रहे सौ कैदी भी होंगे। अतीत में इसराइल में इस तरह का फैसला विवादास्पद साबित हुआ है।
बंधकों की वापसी
लेकिन हमास ने कथित रूप से वार्ताकारों से कहा है कि उसे रिहाई के लिए जिन बंधकों को प्राथमिकता देने के लिए कहा जा रहा है, उसके पास उस कैटगिरी के 40 बंधक नहीं हैं।
इससे इस बात की आशंकाएं बढ़ गई हैं कि मारे गए बंधकों के बारे में पहले जो अनुमान लगाए गए थे, उससे अधिक संख्या में लोग मारे गए हैं या पिर उन्हें फ़लस्तीनी इस्लामिक जिहाद जैसे अन्य सशस्त्र गुटों को सौंप दिया गया है।
इसराइल में समाज और राजनीति के अलग-अलग धड़ों के दबाव की वजह से प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के पास किसी तरह की रणनीति अपनाने के लिए ज़्यादा गुंजाइश नहीं दिखाई देती है।
ज़्यादातर इसराइली लोग युद्ध के समर्थन में हैं लेकिन उन पर बंधक बनाए गए नागरिकों की रिहाई के लिए समझौता करने का दबाव भी है।
हमास के हाथों के अगवा किए गए बंधकों के परिजन बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। वे प्रधानमंत्री पर ये आरोप लगा रहे हैं कि बंधकों की वापसी को प्राथमिकता देने के बजाय वे अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अधिक फिक्रमंद हैं।
नेतन्याहू के इस्तीफे की मांग भी लगातार बढ़ रही है।
नेतन्याहू की गठबंधन सरकार
नेतन्याहू की गठबंधन सरकार में भी विभाजन दिखना शुरू हो गया है। उनके गठबंधन में धुर दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी पार्टियां हैं जो हमास को हरगिज बख्शने के लिए तैयार नहीं है। ये पार्टियां किसी भी कीमत पर युद्ध जारी रखना चाहती हैं।
इसराइल के वित्त मंत्री बेज़ालेल स्मोत्रिच ने प्रधानमंत्री नेतन्याहू से कहा है कि बंधकों को छुड़ाने का एकमात्र रास्ता हमास पर लगातार हमले करके उसकी तबाही है।
उधर, इसराइल के सिक्योरिटी मंत्री बेन ग्वीर ने कहा है कि अगर सेना अपने वादे के मुताबिक रफाह पर हमला नहीं बोलती है तो नेतन्याहू को पद से हट जाना चाहिए।
इसराइली अधिकारियों का कहना है कि रफाह पर हमला जरूरी है क्योंकि वहां हमास के चार ब्रिगेड और कई वरिष्ठ नेता छिपे हो सकते हैं।
लेकिन इसराइल के बाहर हर देश रफाह पर हमले के खिलाफ है।
रफाह ऑपरेशन
रफाह में 15 लाख फलस्तीनी शरण लिए हुए हैं। ये सब लोग टेंटो में खस्ताहाल जिंदगी बिता रहे हैं। रफाह पर किसी भी हमले के परिणाम इन लोगों के लिए गंभीर हो सकते हैं। घरेलू मोर्चे पर आलोचना से बचने के लिए नेतन्याहू ने सोमवार को ही कह दिया था कि रफाह ऑपरेशन के लिए तारीख निर्धारित कर दी गई है।
बास्किन कहते हैं, ‘इस वक्त इसराइल की सरकार के भीतर विद्रोह चल रहा है। ये विद्रोह ख़ुद प्रधानमंत्री की लिकुड पार्टी के भीतर भी छिड़ चुका है ताकि वो ऐसी कोई डील न करें जो उन्हें मंज़ूर न हो।’
वे कहते हैं, ‘नेतन्याहू निर्णय करने के लिए स्वतंत्र नहीं बचे हैं। वे अपनी सरकार के बंधक बन चुके हैं।’
ताजा प्रस्ताव पर हमास ने अभी तक कोई औपचारिक जवाब नहीं दिया है लेकिन कहा है कि वो ऐसे किसी समझौते के लिए तैयार है जिसकी वजह से ‘हमारे लोगों पर ज़्यादतियां रुक जाएं’ और जो प्रस्ताव दिया गया है उससे इस उद्देश्य की पूर्ति होते हुए नहीं दिख रही है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर
हमास ने एक बयान जारी कर कहा, ‘इसराइल की पोजिशन अब भी हठ वाली है।’ अमेरिका ने हमास के बयान को ‘अधिक उत्साहित न करने वाला’ बताया है।
हमास की ओर से अंतिम निर्णय याह्या सिनवार लेगें। माना जाता है कि हमास के ये शीर्ष नेता गाजा की सुरंगों में छिपा हुआ है और बंधक भी उसी के साथ हैं। लेकिन उनतक पहुँचना बहुत ही कठिन है।
बास्किन कहते हैं कि हमास इसराइली जेलों में बंद फलस्तीनियों की रिहाई पर भी बात करना चाहता है। हमास चाहता है कि जेल से रिहा होने वाले फलस्तीनियों को किसी दूसरे मुल्क में न भेजा जाए।
हमास का मानना है कि बिना गारंटी के स्थाई युद्धविराम मुमकिन नहीं है क्योंकि जैसे ही बंधक रिहा किए जाएंगे, इसराइल अपने हमले दोबारा शुरू कर देगा।
हाल के दिनों में हमास के नेतृत्व ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसराइल की कड़ी आलोचना होते हुए देखी है। गजा में भारी पैमाने पर तबाही के बावजूद उन्हें लगता है कि हालात उनके पक्ष में आ रहे हैं।
याह्या सिनवार
सात अक्तूबर को इसराइल पर हमले में 1200 लोग मारे गए थे। फलस्तीनी के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक उस हमले के बाद इसराइली सेना की कार्रवाई में 33,000 फलस्तीनी मारे गए हैं।
इसके अलावा गज़़ा का अधिकतर हिस्सा ज़मींदोज़ हो चुका है और कई लोग अकाल की कगार पर पहुँच चुके हैं।
बास्किन कहते हैं, ‘ऐसे स्थितियों से निपटने के तज़ुर्बे के आधार पर कह सकता हूं कि मुख्य चुनौती ये है कि क्या दोनों तरफ़ निर्णय लेने वाले व्यक्ति इस डील के लिए तैयार हैं भी या नहीं?’
‘ये स्पष्ट नहीं है कि प्रधानमंत्री नेतन्याहू इस डील के लिए तैयार हैं या नहीं। ये भी सा़ नहीं है कि हमास के राजनीतिक नेता याह्या सिनवार भी समझौते के लिए राजी हैं या नहीं। लेकिन जब ये दोनों तैयार होंगे तो संभव है कि कोई बीच का रास्ता निकालना जाए।’
नेतन्याहू की वार्ताओं के प्रति गंभीरता की ओर ध्यान खींचते हुए हमास के एक प्रवक्ता ने कहा कि वो तो रफ़ाह पर हमले के तैयारी में दिख रहे हैं।
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूजरूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
प्रतिका गुप्ता
सर्पदंश या सांप के काटने के कारण दुनिया भर में सालाना 81,000 से 1,38,000 लोगों की जान चली जाती है और करीब तीन-साढ़े तीन लाख लोग अक्षम हो जाते हें। फिर भी अफ्रीका, भारत जैसे देशों के स्वास्थ्य तंत्रों में सर्पदंश एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। ऊपर से, सर्पदंश के लिए उपलब्ध उपचार और स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ भी कई समस्याएं और जटिलताएं हैं।
वैज्ञानिक सर्पदंश के उपचार को बेहतर से बेहतर और समय पर उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। दो ताज़ातरीन अध्ययनों की प्रगति से बेहतर उपचार की उम्मीद जागी है।
साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन ने एक युनिवर्सल एंटीवेनम विकसित करने की दिशा में पहली सफलता हासिल की है। इससे एक ही एंटीवेनम से सांप की चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर किया जा सकेगा।
साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में एक ऐसे टेस्ट के बारे में बताया गया है जो वक्त रहते बता सकता है कि आपको किस सांप ने काटा है, और फिर तय किया जा सकता है कि आपको किस जहर के लिए उपचार (एंटीवेनम) देना है।
दरअसल सांप का जहर कोई एक यौगिक नहीं बल्कि दर्जनों-यहां तक कि सैकड़ों – यौगिकों का मिश्रण होता है। और खास बात यह है कि यह जहरीला मिश्रण हर प्रजाति के सांप में बहुत अलग होता है। यदि सांप काटे तो उपचार के लिए एंटीवेनम दिया जाता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस सांप ने काटा है।
सर्पदंश के इलाज में मुश्किलात यहीं से शुरू होती हैं। चूंकि हर प्रजाति के सांप का ज़हर अलग होता है- यहां तक कि विभिन्न इलाकों में पाए जाने वाले एक ही प्रजाति के सांप का ज़हर भी अलग होता है- इसलिए उपचार के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि व्यक्ति को किस सांप ने काटा है। लेकिन उसे हमेशा पता नहीं होता कि उसे किस सांप ने डसा है, क्योंकि जब पता चलता है कि सांप ने डसा है तो पहले तो डर के मारे होश उड़ जाते हैं और बदहवासी में सांप पर गौर कर उसे पहचनाने का ध्यान नहीं रहता। फिर, कोई और देखकर पहचान ले इसकी संभावना भी अक्सर कम रहती है क्योंकि सर्पदंश के अधिकतर मामले खेतों या जंगल में काम करते हुए होते हैं, जहां लोग दूरियों पर या अकेले ही काम करते हैं। और किस्मत से कोई आपके साथ हो तो भी, जब तक समझ आता है तब तक सांप डस कर सरपट भाग चुका होता है। ऐसे में किस ज़हर के लिए एंटिवेनम दें?
यह तय करने के लिए चिकित्सकों को पीडि़त में लक्षणों के उभरने का इंतज़ार करना पड़ता है- ताकि सही एंटीवेनम दिया जा सके- हालांकि वे जानते हैं कि उपचार जितना जल्दी मिलेगा, उतना कारगर होगा। उपचार में देरी विकलांगता और जान गंवाने के जोखिम को बढ़ाती जाती है। हालांकि थोड़ा-बहुत अनुमान चिकित्सक इस जानकारी के आधार पर लगाने की कोशिश करते हैं कि किस क्षेत्र में सांप ने डंसा था, और उस इलाके में कौन-से सांप पाए जाते हैं। फिर भी एक इलाके में एक से अधिक तरह के सांप होने की संभावना होती है, और यदि अन्य ज़हर के लिए एंटीवेनम दे दिया गया तो या तो वह बेअसर रह सकता है, या मामला और बिगाड़ सकता है और रोगी की जान का जोखिम बढ़ जाता है।
फिर मानव शरीर द्वारा इन एंटीवेनम को अस्वीकार कर देने की भी संभावना रहती है। दरअसल घोड़ों या भेड़ों को वर्षों तक मामूली मात्रा में सांप का ज़हर देकर उनमें निर्मित एंटीबॉडी से एंटीवेनम तैयार किया जाता है। चूंकि ये एंटीवेनम पशु प्रोटीन से बने होते हैं, इसलिए प्रतिरक्षा प्रणाली इनके विरुद्ध प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी कर सकती है जो जानलेवा भी हो सकती है।
फिर, एंटीवेनम का रख-रखाव भी बहुत मुश्किल होता है। अक्सर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों पर इन्हें संभालकर रखने के लिए मूलभूत सुविधा नहीं रहती, दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह और भी मुश्किल है, जबकि सर्पदंश के मामले वहीं अधिक होते हैं।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स के इवॉल्यूशनरी वेनोमिक्स विशेषज्ञ कार्तिक सुनगर सर्पदंश के उपचार में आने वाली इन्हीं अड़चनों को दूर करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई तरह के सांपों के जहर के एक प्रमुख घटक थ्री-फिंगर अल्फा-न्यूरोटॉक्सिन (xFT&-L) का सिंथेटिक संस्करण तैयार किया। (गौरतलब है कि xFT&-रु एक विषाक्त पदार्थ है जो तंत्रिका कोशिकाओं के एक प्रमुख न्यूरोट्रांसमीटर की प्रतिक्रिया करने की क्षमता को कुंद कर देता है, और लकवे का कारण बनता है।) फिर उन्होंने एक बहुत बड़ी एंटीबॉडी लाइब्रेरी में सहेजी गईं लगभग 100 अरब कृत्रिम मानव एंटीबॉडी को इस ज़हर के प्रति जांचा और देखा कि कौन-सी एंटीबॉडी इस ज़हर को सबसे अच्छे से बेअसर करती है। उनकी यह खोज 95Matz5 नामक एंटीबॉडी पर आकर खत्म हुई, जो इस ज़हर पर बहुत ही कारगर पाई गई। इसकी बेहतरीन कारगरता का कारण है कि यह अल्फा-बंगारोटॉक्सिन पर ठीक उसी स्थान पर जाकर चिपकता है जहां से यह विष मानव तंत्रिकाओं और मांसपेशियों की कोशिकाओं के साथ बंधता है। अल्फा-बंगारोटॉक्सिन मल्टी-बैंडेड करैत (Bungarusmulticinctus) के ज़हर का मुख्य xFT&-रु है।
फिलहाल तो यह 95zMatz5 एंटीबॉडी चूहों में कारगर पाई गई है। यहां तक कि 95zMatz5 ने चूहों को करैत सांप के ज़हर से भी बचा लिया। इस सांप के बारे में माना जाता है कि इसमें कम से कम चार दर्जन विभिन्न जहर होते हैं। इसकी कारगरता सर्पदंश के 20 मिनट विलंब से उपचार दिए जाने पर भी दिखी। और तो और, यह मोनोसेलेट कोबरा (Naja kaouthia) और ब्लैक मंबा (Dendroaspispolylepis) के ज़हर पर भी काम कर गया। लेकिन कुछ ज़हर, जैसे किंग कोबरा (Ophiophagus hannah) के ज़हर को बेअसर नहीं कर पाया, हालांकि इसने चूहों की मृत्यु को थोड़ा टाल ज़रूर दिया था। इस तरह इस एंटीबॉडी से निर्मित एक एंटीवेनम चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर करने के लिए किया जा सकता है।
साथ ही जो एंटीवेनम xFT& -रु के खिलाफ बहुत प्रभावी नहीं रहते हैं उनके स्थान पर 95zMatz5 आधारित एंटीवेनम दिया जा सकता है। इसके अलावा यह पशु एंटीबॉडी पर आधारित न होकर मनुष्यों की कृत्रिम एंटीबॉडी है, तो इसमें उपचार के अवांछित दुष्प्रभाव और जोखिम की संभावना भी कम है।
दूसरी ओर, विभिन्न शोध टीमें एक ऐसा परीक्षण तैयार करने की दिशा में काम कर रही हैं जिसके ज़रिए पता किया जा सके कि पीडि़त को किस सांप ने काटा है। और इस तरह लक्षण उभरने तक इंतजार करने के समय को कम करके एंटीवेनम को अधिक कारगर बनाया जा सके और विकलांगता और जान गंवाने के प्रतिक्षण बढ़ते जोखिम को कम किया जा सके।
लेकिन ऐसे परीक्षणों में मुख्य बात यह होनी चाहिए कि परीक्षण बहुत आसान हो, दूर-दराज़ के सुविधा रहित इलाकों में पहुंच सके और उपयोग किया जा सके, और परीक्षण के नतीजे फौरन प्राप्त हो जाएं। जैसे कि प्रेग्नेंसी टेस्ट देने वाली स्ट्रिप से मिलते हैं - पेशाब पडऩे के मिनट भर बाद वह रंग बदलकर (या न बदलकर) बता देती है कि गर्भ ठहरा है या नहीं।
दरअसल गर्भ ठहरने का निर्धारण करने वाली स्ट्रिप में ऐसे एंटीबॉडी होते हैं जो गर्भ ठहरने के कारण स्रावित होने वाले हारमोन ह्यूमन कोरियॉनिक गोनेडोट्रॉपिन से जुड़ते हैं। यदि गर्भ ठहरता है तो पेशाब में यह हारमोन बढ़ जाता है और स्ट्रिप में उपस्थित एंटीबॉडीज़ जब इस हारमोन से जुड़ती हैं तो रंग परिवर्तन की हुई दो धारियां मिलती हैं।
लेकिन सर्पदंश के मामले में इस तरह से सार्वभौमिक परीक्षण विकसित करने में समस्या यह है कि प्रेग्नेंसी में स्रावित हारमोन के विपरीत हर सांप का ज़हर एक समान नहीं होता और कई यौगिकों का मिश्रण होता है। फिर भी क्षेत्र विशेष के लिए क्षेत्रीय परीक्षण विकसित किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में सर्पदंश के अधिकांश मामले सिर्फ चार प्रजातियों के कारण होते हैं। तो शोधकर्ता क्षेत्रीय परीक्षण स्ट्रिप के लिए एक ऐसी एंटीबॉडी तैयार कर रहे हैं जो इन चारों विष को पहचान सके और बता सके कि कौन-सा ज़हर है। इस दिशा में उन्हें कुछ सफलता मिली है। कुछ परीक्षणों और अनुमोदन के बाद यह परीक्षण इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत तक उपलब्ध हो सकेगा।
लेकिन उपरोक्त एंटीवेनम और परीक्षणों का उत्पादन करने के लिए काफी धन लगेगा। जाहिर है दवा कंपनियां यदि इन्हें बनाएंगी तो ये महंगे होंगे, और उन लोगों की पहुंच से बाहर होंगे जो सर्पदंश के शिकार होते हैं-सर्पदंश की समस्या से मुख्यत: निम्न और मध्यम आय वाले देशों के गरीब और खेतों-जंगलों में काम करने वाले लोग प्रभावित होते हैं। इन देशों में यह पहले ही एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ इससे संबंधी अर्थव्यवस्था, रणनीतिक निर्णयों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के स्तर पर भी काम करने की जरूरत है, तभी वास्तव में वक्त पर बेहतर उपचार मुहैया हो सकेगा। (स्रोतफीचर्स)
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
जब मैं कालेज में पढ़ रहा था तो मेरी बहुत सी गर्लफ्रेंड्स थी।
बिलासपुर के हृदयस्थल गोलबाज़ार में ‘पेण्ड्रावाला’ के नाम से बेहद मशहूर मिठाई की दूकान है जिसे उन दिनों शहर भर के लोग जानते थे। मैं 10 वर्ष की उम्र से वहां काम सीखना शुरू किया और बाद में गद्दीनशीन हो गया।
उस समय भी हमारे परिवार की बहुत प्रतिष्ठा थी, यकीनन उसका लाभ मुझे भी मिलता था। मैं शक्ल से भोला-भाला दिखता था इसलिए कन्याएं मुझ पर सहज रीझ जाती थी क्योंकि भोंदू टाइप के लडक़ों से उनको अधिक खतरा नहीं रहता। उनके माता-पिता भी मेरी सज्जनता से प्रभावित हो जाते थे इसलिए घर में आने-जाने की सहज अनुमति मिल जाती थी। जब उनका मुझ पर भरोसा और बढ़ जाता तो उनकी बेटी को स्कूटर में बिठाकर घुमाने या सिनेमा ले जाने की भी इज़ाज़त मिल जाया करती थी।
उस समय लडक़ों के विवाह की औसत उम्र 20 वर्ष थी, मेरी उम्र बढ़ती जा रही थी लेकिन मेरा विवाह नहीं हो रहा था। विपरीतलिंगी आकर्षण मन में अपना जबरदस्त असर बनाए हुआ था। उनसे बातचीत और नजदीकी बनाए रखने का सुख कम न था। इस प्रकार उस बीच अनेक कन्याओं से मेरे मधुर संबंध बने और परिचितों के बीच मेरी इन उपलब्धियों पर ईष्र्यायुक्त चर्चाएं भी होती थी।
खैर, वह सब हुआ, खूब हुआ लेकिन समस्या तब आयी जब सन 1975 में 28 वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हुआ। मेरे जलकुकड़े और दुष्ट मित्रों को मेरे वैवाहिक जीवन में ज़हर घोलने का सुअवसर नजर आने लगा। मैं आसन्न संकट को भलीभांति समझ रहा था और बचने के उपाय खोज रहा था।
मुझे अपनी पत्नी के स्वभाव के बारे में कुछ भी मालूम न था पर मैं यह अच्छी तरह जानता था कि वे खबरें जब बाहर से उन्हें मिलेगी तो मुझे अप्रिय स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। मैंने निर्णय लिया कि पत्नी जी को सब कुछ खुद बता देना बेहतर होगा।
तो, सुहागरात के अगले दिन से मैंने बातों-बातों में उन कन्याओं के बारे में सिलसिलेवार उन्हें बताना शुरू किया। माधुरी जी ने उन किस्सों को सहज भाव से सुना, कभी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। 10 दिनों में अनेक कन्याओं के किस्से सुना दिए तब माधुरी जी पूछा, ‘सब बता दिए या और कोई बची है?’
‘जितना मुझे याद आया, सब तुमको बता दिया। हो सकता है, किसी का जिक्र छूट गया हो लेकिन बाद में यदि कुछ और मालूम पड़े तो यह न समझना कि मैंने तुमसे कुछ छुपाया, समझना कि मैं बताना भूल गया हूँ।’ मैंने समझाया।
उसके बाद माधुरी जी मेरी अगली दोस्त बन गई।
अलीने श्पान्टिश
दुनिया में कोकेन का इस्तेमाल काफी ज्यादा बढ़ गया है। संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2021 में लगभग 2.2 करोड़ लोगों ने इस ड्रग का सेवन किया। यह संख्या अमेरिकी राज्य न्यूयॉर्क की जनसंख्या से अधिक है।
यूरोप में, कैनाबीज यानी भांग के बाद कोकेन दूसरा सबसे सामान्य स्ट्रीट ड्रग है। इसे कोका की पत्तियों से निकाला जाता है और आमतौर पर पाउडर के रूप में सूंघा जाता है।
इसकी लत काफी ज्यादा तेजी से लगती है और इसकी वजह से शरीर का कोई हिस्सा हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त हो सकता है। कोकेन शरीर को उसकी अधिकतम सीमा तक धकेल देती है, जिससे मैराथन दौडऩे जैसा शारीरिक असर पड़ता है। अगर कोई व्यक्ति इससे छुटकारा पाना चाहता है, तो उसे काफी ज्यादा शारीरिक और मानसिक तनाव झेलना पड़ता है।
ब्राजील के शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि कोकेन की लत से जूझ रहे लोगों को वैक्सीन से मदद मिलेगी। यह वैक्सीन लोगों को नशीली दवाओं का सेवन करने से रोकेगा और नशे की लत के जोखिम को कम करेगा।
कोकेन से शरीर और मस्तिष्क पर क्या असर पड़ता है?
जब कोकेन को पाइप के माध्यम से सूंघा या धूम्रपान किया जाता है, तो यह पदार्थ खून के जरिए तेजी से मस्तिष्क तक पहुंच जाता है। वहां यह ड्रग शरीर को कई तरह के संदेशवाहक पदार्थों को छोडऩे के लिए उत्तेजित करता है, जिनमें डोपामाइन भी शामिल है। इससे व्यक्ति को काफी ज्यादा खुशी का एहसास होता है।
कोकेन का सेवन करने पर शरीर काफी ज्यादा सक्रिय हो जाता है। व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है। हृदय पूरी क्षमता से पंप करता है और धमनियां संकरी हो जाती हैं। ब्लड प्रेशर और शरीर का तापमान बढ़ता है। भूख-प्यास कम लगती है। स्थिति ज्यादा खराब होने पर, हृदय गति रुक सकती है।
कोकेन का सेवन करने के पांच मिनट बाद और तीस मिनट के बीच इसका असर सबसे ज्यादा होता है। बर्लिन ड्रग थेरेपी एसोसिएशन के चिकित्सक हंसपीटर एकर्ट ने कहा, ‘ऐसा महसूस होता है जैसे सारी समस्याएं खत्म हो गई हों।’
कोकेन का सेवन करने के बाद, मस्तिष्क को इसकी लत लगने लगती है। एकर्ट कहते हैं, ‘शरीर को लगता है कि जिंदा रहने के लिए यह जरूरी चीज है।’
जब आप नशे के आदी होते हैं, तो अधिक कोकेन की चाहत आपके दिमाग पर हावी हो जाती है। आपको ऐसा आभास होता है कि इससे शरीर को नुकसान हो रहा है, लेकिन आप इसे अनदेखा करने लगते हैं। आप अपने जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं, जैसे कि स्वास्थ्य, अपने दोस्त, काम वगैरह को नजरअंदाज करना शुरू कर देते हैं।
वैक्सीन कैसे मदद करेगी?
ब्राजील के शोधकर्ता चाहते हैं कि उनकी बनाई वैक्सीन शरीर को ऐसे एंटीबॉडी बनाने के लिए प्रेरित करे जो कोकेन का इस्तेमाल होने पर उससे चिपक जाए। इससे इस नशे के लिए जिम्मेदार तत्व, खून के जरिए मस्तिष्क तक न पहुंच पाएं।
अगर कोकेन मस्तिष्क तक नहीं पहुंचेगा, तो व्यक्ति को उत्तेजित नहीं करेगा और उसे नशा नहीं होगा। साथ ही, मस्तिष्क उस तरह की प्रतिक्रिया भी नहीं करेगा जिसकी वजह से कोई व्यक्ति बार-बार कोकीन का सेवन करना चाहता है।
ब्राजील की फेडरल यूनिवर्सिटी ऑफ मिनस गेराइस के शोधकर्ता और वैक्सीन बनाने में मदद कर रहे फ्रेडरिको गार्सिया ने डीडब्ल्यू ब्राजील को दिए इंटरव्यू में बताया कि मरीज इस ड्रग का सेवन करने पर कुछ अलग महसूस करते हैं। गार्सिया की रिसर्च टीम ने चूहों पर वैक्सीन का ट्रायल किया है। उनका मानना है कि इन प्रयोगों के नतीजे इंसानों के लिए भी काम के हो सकते हैं। अगर ऐसा है, तो उनकी वैक्सीन दुनिया की पहली एंटी-कोकीन वैक्सीन होगी।
अमेरिका के शोधकर्ता भी कोकेन वैक्सीन विकसित कर रहे हैं। इंसानों पर क्लिनिकल ट्रायल बाकी है। अभी तक यह तय नहीं हुआ है कि यह वैक्सीन कब उपलब्ध होगी।
क्या नशे की लत से छुटकारा दिला सकती है वैक्सीन?
वैक्सीन को लेकर किए जा रहे शोध को एकर्ट सैद्धांतिक तौर पर सही मानते हैं। उन्होंने कहा, ‘अगर नशा नहीं होगा, तो दिमाग शांत रहेगा। साथ ही, शरीर को भी इस लत से होने वाली परेशानियों से छुटकारा मिल सकता है।’
हालांकि, एकर्ट ने कहा कि उन्हें वैक्सीन के नतीजों को लेकर संदेह भी है। उनका कहना है कि इलाज बहुत मुश्किल काम है। लोगों को ठीक होने, खुद को परखने, अपने शरीर और दिमाग को समझने, अपनी भावनाओं एवं समस्याओं पर बात करने और मुश्किल फैसले लेने की हिम्मत जुटाने के लिए कम से कम एक साल के इलाज की जरूरत होती है।
एकर्ट कहते हैं कि सिर्फ कठिन सवालों का सामना करके ही मरीज अपने जीवन पर नियंत्रण हासिल कर सकते हैं। जैसे, क्या ऐसे दोस्त हैं जिनसे मुझे बचना चाहिए, मैं ड्रग छोडऩे के दौरान शारीरिक दर्द को कैसे सहन करूंगा? वगैरह। यह वैक्सीन कभी-कभी ड्रग का सेवन करने वाले लोगों के लिए नहीं है।
क्या कोकेन वैक्सीन से ओवरडोज का खतरा बढ़ जाएगा?
एकर्ट ने चेतावनी दी कि वैक्सीन लेने वाले लोगों को कोकेन की अधिक मात्रा लेने का खतरा बढ़ सकता है। अगर आप ड्रग का सेवन करते हैं और आपको पहले की तरह ‘मजा नहीं आता', तो आप ओवरडोज ले सकते हैं। इससे आपके शरीर को काफी ज्यादा नुकसान पहुंच सकता है और यहां तक कि मौत हो सकती है।
कोका ना उगाएं तो क्या करें ये लोग
यूरोपियन मॉनिटरिंग सेंटर फॉर ड्रग्स एंड ड्रग एडिक्शन से जुड़ी मारिका फेरी की चिंताएं अलग हैं। वह कहती हैं, ‘यह पदार्थ अपने-आप में कोई अलग समस्या नहीं है।’
अगर कोई व्यक्ति कोकेन का सेवन बंद कर देता है, तो उसकी सभी समस्याएं अपने-आप हल नहीं हो जाएंगी। नशे से होने वाले शारीरिक नुकसान के साथ-साथ किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर नशे के असर को भी ठीक करने की आवश्यकता है।
फेरी ने कहा, ‘इसमें समय लगता है। वैक्सीन उन लोगों के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है जिनका इलाज जारी है। इससे ऐसे लोगों को कोई फायदा नहीं होगा जो इस लत को छोडऩे के लिए किसी तरह का परामर्श नहीं ले रहे हैं या इलाज नहीं करा रहे हैं।’
चुनाव से चंद हफ्ते पहले भ्रष्टाचार के आरोपों पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ने विपक्ष में नई जान फूंक दी है. विपक्ष ने बीजेपी पर "सरकारी एजेंसियों का हथियार की तरह इस्तेमाल" करने का आरोप लगाया है.
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन की रिपोर्ट-
विपक्षी दलों का इंडिया गठबंधन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के समर्थन में खड़ा हो गया है. भ्रष्टाचार के मामले में अदालत ने उन्हें 15 अप्रैल तक न्यायिक हिरासत में भेजा है. दिल्ली की आबकारी नीति से जुड़े आरोपों को लेकर आम आदमी पार्टी (आप) के अन्य नेताओं के अलावा पार्टी प्रमुख केजरीवाल को मार्च में गिरफ्तार किया गया था.
भारत में आम चुनाव 19 अप्रैल से 1 जून तक चलेंगे. इसके लिए पार्टियों का चुनावी अभियान जोरों पर चल रहा था कि केजरीवाल गिरफ्तार कर लिए गए. आप का कहना है कि केजरीवाल पर लगे आरोप, बीजेपी के विरोधियों को कुचलने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीति प्रेरित हथकंडा है.
मोदी के खिलाफ एकजुट विपक्ष
फरवरी में आप ने इंडिया गठबंधन में शामिल होने का फैसला किया था. इंडिया ब्लॉक की अगुवाई भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस कर रही है, जो चुनावों में बीजेपी को एक विश्वसनीय चुनौती देने को तत्पर है.
गठबंधन में दर्जनों राजनीतिक दल शामिल हैं, लेकिन आप और कांग्रेस का दबदबा सबसे ज्यादा है. पिछले दिनों नई दिल्ली में हुई 'लोकतंत्र बचाओ' रैली में विपक्षी नेताओं ने नरेंद्र मोदी पर भारत की संघीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाया. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इल्जाम लगाया कि बीजेपी चुनावों को अपने पक्ष में फिक्स करने की कोशिश कर रही है.
राहुल गांधी ने कहा, "प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन चुनावों में मैच फिक्सिंग की कोशिश कर रहे हैं. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों, मैच फिक्सिंग, सोशल मीडिया और प्रेस पर दबाव डाले बिना वो 180 से ज्यादा सीटें जीत ही नहीं सकते."
राजनीतिविज्ञानी जोया हसन के मुताबिक, रैली से पता चलता है कि केजरीवाल की गिरफ्तारी ने किस तरह विपक्षी पार्टियों में नई ऊर्जा भर दी है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "सवाल उस आबकारी नीति की खासियतों या गुणों का नहीं है, जिसकी वजह से केजरीवाल गिरफ्तार किए गए. ऐन चुनावों के वक्त उनकी गिरफ्तारी की टाइमिंग राजनीतिक प्रक्रिया को नष्ट और समान भागीदारी के अवसर को ध्वस्त कर देती है."
विपक्ष कर पाएगा मतदाताओं को लामबंद ?
विपक्षी दलों के लिए बड़ा सवाल यह है कि केजरीवाल का मामला मतदाताओं में सहानुभूति जगाएगा या नहीं. केजरीवाल की भूमिका की तुलना अमेरिका में गर्वनर से की जा सकती है या जर्मनी में किसी प्रांत के प्रीमियर (प्रधानमंत्री) से. दिल्ली महानगर भारत के उन चुनिंदा हिस्सों में से है, जहां मोदी की हिंदू राष्ट्रवादी बीजेपी को बढ़त हासिल नहीं है.
पिछले दशक से मतदाताओं ने विधानसभा चुनावों में आप का समर्थन किया है. वे केजरीवाल की कल्याणकारी राजनीति पसंद करते हैं, जिसके तहत आप की सरकार ने अच्छी गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूलों, परिष्कृत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और मुफ्त बिजली का वादा किया है. हालांकि, संसदीय चुनावों में आप का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा.
एक वरिष्ठ आप नेता ने डीडब्ल्यू से कहा, "ये हाई-प्रोफाइल गिरफ्तारी संसदीय चुनावों में हमें फायदा ही पहुंचाएगी. किसी कारणवश केजरीवाल चुनाव प्रचार न कर पाए, तो हम लोगों के बीच जाकर ये बताएंगे कि बीजेपी किस तरह राजनीतिक मैदान से विपक्ष को बाहर रखना चाहती है."
2019 के चुनावों में बीजेपी ने लोकसभा की 543 में से 303 सीटें जीती थीं. उसे यकीन है कि 2024 में भी उसी की सरकार बनेगी. 1 अप्रैल को राजस्थान की एक चुनावी रैली में मोदी ने कहा, "ये चुनाव भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने के लिए है. ये पहला चुनाव है, जिसमें तमाम भ्रष्ट व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई को रोकने के लिए एक साथ आ गए हैं."
बीजेपी प्रवक्ता शाजिया इल्मी ने डीडब्ल्यू को बताया, "इंडिया ब्लॉक की इस दिखावटी एकजुटता में कोई जोर नहीं, खासतौर पर जबकि पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब जैसे राज्यों में उनके बीच एकता नहीं है. बीजेपी लोगों की पहली और विश्वसनीय पसंद है."
बीजेपी का गलत कार्रवाई से इंकार
दिल्ली स्थित पब्लिक पॉलिसी की जानकार यामिनी अय्यर ने डीडब्ल्यू को बताया कि "विपक्षी नेताओं को असंगत ढंग से निशाना बनाने और विरोध को आपराधिक बना देने के लिए" बीजेपी जांच एजेंसियो, टैक्स कानूनों, देशद्रोह कानूनों, आतंक निरोधी कानूनों और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की विदेशी फंडिंग को रेगुलेट करने वाले कानूनों को "व्यवस्थागत ढंग से हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है." वह आगे कहती हैं, "इसकी सबसे खुल्लमखुल्ला मिसाल लोकप्रिय विपक्षी नेता केजरीवाल की गिरफ्तारी है."
इनमें से एक जांच संस्था प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) है, जो बड़े स्तर के आर्थिक अपराधों की जांच करने वाली संघीय एजेंसी है. सार्वजनिक रूप से बीजेपी इस मामले पर हमलावर है. केजरीवाल के खिलाफ किसी राजनीतिक एजेंडा से भी उसने इंकार किया है. पार्टी का मानना है कि ईडी पूरी तरह से स्वतंत्र है और ये एजेंसियां सरकार से अलग हैं और महज भ्रष्टाचार मिटाने का अपना काम कर रही है.
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता टॉम वडक्कन ने डीडब्ल्यू को बताया, "ये मुद्दा प्रवर्तन निदेशालय और न्यायपालिका के बीच का है और कानून अपना काम करेगा. अदालत मामले की निगरानी कर रही है. और विपक्षी दलों के आरोप के बारे में टिप्पणी करना अनुचित होगा."
2014 में जबसे मोदी ने सत्ता संभाली, ईडी भारत की सबसे ज्यादा डराने वाली एजेंसियों में से एक बन गई है. मनी लॉन्ड्रिंग के 3,000 से ज्यादा मामलों में उसने छापा मारा, लेकिन सिर्फ 54 मामलों में सजा दिला पाई है. एजेंसी ने दर्जनों विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया है. हालांकि, कुछ बीजेपी नेता खुद कानूनी जांच के घेरे में हैं.
विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्डों के जरिए पिछले महीने जो तथ्य सामने आए हैं, उसने परेशान-हाल इंडिया ब्लॉक को राजनीति का एक अप्रत्याशित और बहुत जरूरी चर्चा बिंदु सौंप दिया है. ज्यादातर बॉन्ड बीजेपी को हासिल हुए थे.
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के पूर्व प्रमुख आकार पटेल कहते हैं, "बीजेपी ने भारतीय लोकतंत्र और नागरिक समाज को नीचा दिखाने के लिए अपने नियंत्रण वाली एजेंसियों का दुरुपयोग किया है. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था." मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी को 2020 में भारत में जबरन अपना काम बंद करना पड़ा था. सरकार ने उसके बैंक खाते फ्रीज कर दिए थे, जिसे एमनेस्टी ने "भारत में सिविल सोसायटी का दमन" करार दिया था. (dw.com)
आपने प्लेसिबो प्रभाव के बारे में सुना होगा. इसमें सकारात्मक सोच यह विश्वास दिलाती है कि आपकी दवाएं काम कर रही हैं. वहीं, नोसीबो इफेक्ट में नकारात्मक सोच अपनी ताकत दिखाती है. लेकिन आखिर कैसे?
डॉयचे वैले पर कार्ला ब्लाइकर की रिपोर्ट-
‘कोई आपसे कहता है कि तुम ठीक नहीं दिख रहे, क्या तुम बीमार होने वाले हो। इसके बाद आप अचानक से बीमार जैसा महसूस करने लगते हैं। आपकी आशंका लक्षणों को बढ़ा देती है।’यह कहना है चार्लोट ब्लीज का। ब्लीज, स्वीडन की उप्साला यूनिवर्सिटी में एक स्वास्थ्य शोधकर्ता हैं। वह 'दी नोसीबो इफेक्ट: वेन वर्ड्स मेक यू सिक' की सह-लेखिका हैं।
ब्लीज आयरलैंड की एक बस यात्रा का अनुभव बताती हैं। उन्हें यात्रा के दौरान होने वाली मोशन सिकनेस का एहसास हो रहा था। वह कुछ और सोचकर अपना ध्यान भटकाने की कोशिश कर रही थीं क्योंकि उन्हें पता था कि अगर किसी ने उन्हें टोक दिया, तो नोसीबो प्रभाव शुरू हो जाएगा।
ब्लीज ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘नोसीबो प्रभाव में नकारात्मक अपेक्षाओं की वजह से नकारात्मक स्वास्थ्य समस्याएं पैदा होती हैं। यह दर्द, चिंता, उल्टी और थकान की भावनाओं का बढ़ा सकता है।’
नोसीबो: प्लेसिबो का एकदम उल्टा
प्लेसिबो प्रभाव की तुलना में नोसीबो प्रभाव एकदम उल्टा और नकारात्मक होता है। एक मेडिकल ट्रायल की कल्पना कीजिए। एक समूह के लोगों को सिरदर्द ठीक करने के लिए असली दवाएंदी गई हैं। वहीं, दूसरे समूह के लोगों को मीठी गोलियां दी गई हैं, जिनमें कोई दवा नहीं है।
जब दूसरे समूह के लोग बताते हैं कि उनका सिरदर्द ठीक हुआ है, तो डॉक्टर कहते हैं कि वे प्लेसिबो प्रभाव का अनुभव कर रहे हैं। उन्हें लगा कि वे असली दवाएं ले रहे थे और इसी सकारात्मक सोच की वजह से उन्हें सिरदर्द से राहत मिली।
प्लेसिबो प्रभाव चिकित्सकीय रूप से मान्यता प्राप्त है। अब नोसीबो प्रभाव को भी धीरे-धीरे डॉक्टरों के बीच पहचान मिल रही है। यह प्रभाव तब होता है, जब नकारात्मक सोच आपके परिणामों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।
नोसीबो प्रभाव, कोविड और टीके से झिझक
कोरोना महामारी के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि कोविड-19 टीकाकरण से पहले लोगों को होने वाली आशंकाएं, उनके बाद के अनुभवों पर प्रभाव डाल सकती हैं। इस्राएल और ब्रिटेन के वैज्ञानिकों की टीम ने एक अध्ययन किया। इसमें 60 साल से अधिक उम्र के 756 इस्राएली नागरिक शामिल थे। इनमें से हरेक को कोविड-19 का तीसरा टीका, यानी बूस्टर शॉट दिया गया था।
याकोव हॉफमान इस अध्ययन के प्रमुख लेखक हैं। वह इस्राएल की बार-इलान यूनिवर्सिटी के सामाजिक और स्वास्थ्य विज्ञान विभाग में प्रोफेसर भी हैं। हॉफमान बताते हैं, ‘हमने टीके के प्रति लोगों के नकारात्मक रवैये और आशंकाओं को मापा। साथ ही, रिपोर्ट किए गए दुष्प्रभावों की संख्या भी देखी।’
इस अध्ययन के नतीजे दिसंबर 2022 में 'साइंटिफिक रिपोर्ट्स' जर्नल में प्रकाशित हुए। इसके परिणामों ने संकेत दिया कि जिन लोगों के मन में दूसरा टीका लगवाने को लेकर आशंकाएं थीं, उनमें तीसरा टीका लगवाने के बाद दुष्प्रभाव होने की संभावना अधिक थी। इस बारे में हॉफमान ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘किसी व्यक्ति को वैक्सीन, इसकी सुरक्षा और दुष्प्रभावों को लेकर जितनी ज्यादा चिंता होगी, वह उतने ही ज्यादा दुष्प्रभावों का सामना करेगा।’
हॉफमान आगे कहते हैं, ‘जब नोसीबो प्रभाव और टीके से जुड़ी झिझक एक साथ मिल जाते हैं, तो ये एक दुष्चक्र बना सकते हैं। एक व्यक्ति जो टीका लगवाने से झिझक रहा था, क्योंकि शायद उसने इंटरनेट पर इसके दुष्प्रभावों के बारे में पढ़ा था, उसमें टीका लगवाने के बाद दुष्प्रभाव की आशंका अधिक होगी। फिर इन दुष्प्रभावों को डॉक्टर द्वारा रिकॉर्ड और रिपोर्ट किया जाएगा। इससे इन दुष्प्रभावों के बारे में मीडिया में अधिक बात होगी, जिसकी वजह से और ज्यादा लोग टीका लगवाने से झिझकेंगे। इस तरह यह दुष्चक्र चलता रहेगा।’
नोसीबो प्रभाव से कैसे निपटें डॉक्टर
डॉक्टरों के सामने यह चुनौती हो सकती है कि कहीं उनकी बातों के कारण मरीजों में नोसीबो प्रभाव की शुरुआत ना हो जाए। ब्लीज कहती हैं, ‘डॉक्टरों का दायित्व है कि वे मरीज को नुकसान ना पहुंचाएं, या जहां संभव हो वहां नुकसान कम करें, लेकिन सच बताना भी उनका दायित्व है।’
वहीं, हॉफमान कहते हैं, ‘बेहद कम दुष्प्रभाव वाले टीके के मामले में नोसीबो प्रभाव पर ध्यान देना समझ में आता है। शायद यहां हकीकत बताना ही सही होगा। लोगों को बताया जाए कि वे जिन दुष्प्रभावों का अनुभव कर रहे हैं, वे नोसीबो प्रभाव की वजह से हैं। यानी वे वास्तव में दुष्प्रभावों का अनुभव तो कर रहे हैं, लेकिन यह अनिवार्य रूप से खतरे का संकेत नहीं है।’ हालांकि, हॉफमान ने इस बात पर जोर दिया कि ये केवल अटकलें थीं और पुख्ता सबूत के लिए और शोध की जरूरत है।
दुष्प्रभावों के बारे में कैसे बताएं
अन्य विशेषज्ञ भी इस बात से सहमत हैं कि जिस तरह से डॉक्टर अपने मरीजों के साथ बातचीत करते हैं, उससे नोसीबो प्रभाव को रोकने में मदद मिल सकती है। उलरिका बिंगल एक क्लिनिकल न्यूरोसाइंस प्रोफेसर हैं। वह जर्मनी के यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल एसेन में दर्द अनुसंधान इकाई का नेतृत्व करती हैं।
बिंगल कहती हैं कि डॉक्टरों के मरीजों से बात करने के तरीके से उपचार के परिणाम प्रभावित हो सकते हैं। वह बताती हैं, ‘अभी तक संवाद को अच्छा अनुभव देने वाले मुद्दे के तौर पर देखा गया है। हमें इसके महत्व पर और जागरूकता की आवश्यकता है।’
उदाहरण के लिए, वैक्सीन के मामले में डॉक्टरों को इसके संभावित दुष्प्रभावों के बारे में बताना होता है। बिंगल कहती हैं, ‘मरीजों को डराने वाले दुष्प्रभावों की सूची बनाने की जगह डॉक्टरों को दुष्प्रभावों के बारे में यह कहकर बताना चाहिए कि ये उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली के अच्छी तरह काम करने का संकेत हैं।’ इस तरह, मरीजों की आशंकाएं कम हो सकती हैं और दुष्प्रभावों में भी कमी आ सकती है।
विकासवादी हो सकता है नोसीबो प्रभाव
दिमाग में चल रहे नकारात्मक विचार हमारे शरीर को कैसे प्रभावित कर सकते हैं? सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि नोसीबो प्रभाव वास्तविक है। ये किसी मरीज की निराशावादी कल्पना का परिणाम नहीं है।
बिंगल ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘नोसीबो और प्लेसिबो प्रभाव में जटिल न्यूरोसाइंटिफिक प्रक्रियाएं शामिल होती हैं। नोसीबो प्रभाव के दौरान आपका शरीर दर्द निवारकों को पंप करना बंद कर देता है। इससे आपके दिमाग को ज्यादा आवेग मिलते हैं और अधिक दर्द महसूस होता है।’
समस्या यह है कि शोधकर्ता ऐसा होने की वजह नहीं बता सकते। अभी तक तो नहीं। लेकिन उनका मानना है कि इसका हमारे विकास से कुछ संबंध हो सकता है। बिंगल कहती हैं, ‘यह महत्वपूर्ण है कि हमारे पूर्वज किसी जंगली जानवर या जहरीले पौधे के संपर्क में आने से सीखते थे। उनका शरीर ऐसी अगली घटना के लिए तैयार हो जाता था।’
दूसरे शब्दों में कहें, तो प्रारंभिक मानव की नकारात्मक अपेक्षाओं ने ही उन्हें तैयार किया होगा, जिससे जरूरत पडऩे पर वे अपनी जान बचाने के लिए भाग सकें।ब्लीज कहती हैं, ‘नोसेबो प्रभाव अतीत का अवशेष हो सकता है, लेकिन यह आज के आधुनिक चिकित्सा परिवेश से मेल नहीं खाता।’ (dw.com)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अक्सर यह देखने में आता है कि एक देश की आंतरिक घटनाओं पर सामान्यत: दूसरे देश तब तक टिप्पणी या दखलंदाजी नहीं करते जब तक वहां की घटनाओं से उनके नागरिकों के हितों को कोई नुक्सान नहीं पहुंचता या कोई घटना या दुर्घटना बहुत महत्वपूर्ण नहीं होती। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर पहले जर्मनी और उसके बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रतिक्रिया व्यक्त की है इसलिए उन कारणों को जानने की कोशिश की जानी चाहिए जिसके कारण इन दो महत्वपूर्ण देशों और संयुक्त राष्ट्र संघ से केजरीवाल की गिरफ्तारी पर प्रतिक्रिया हुई हैं। जिन देशों से हमारे मधुर सम्बन्ध नहीं होते उनके नेताओं द्वारा अक्सर हमारे अंदरूनी मामलों पर जब तब बयान दिया जाना स्वाभाविक है क्योंकि ऐसे देश ख़ुद को अपने विरोधी से बेहतर दिखाने की कोशिश करने के लिए ऐसा करते हैं। मसलन पाकिस्तान से भारत की आंतरिक घटनाओं के बारे में आवाज उठती रहती है लेकिन इन आवाजों को कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसके बरक्स अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर पहले जर्मनी और उसके बाद अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रतिक्रिया काफी चौंकाने वाली है। जर्मनी और अमेरिका के राजदूत को बुलाकर सरकार ने इस मामले पर अपनी नाराजगी भी जाहिर की है। । जर्मनी और अमेरिका न केवल अंतरार्रष्ट्रीय मंचों पर अपनी धाक रखते हैं अपितु उनसे हमारे व्यापारिक और कूटनीतिक संबंध भी अच्छे हैं।
कुछ दिन पहले झारखण्ड के मुख्यमंत्री की भी गिरफ्तारी हुई थी। तब किसी देश से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। दिल्ली तो झारखण्ड की तरह प्रदेश भी नहीं है फिर भी अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर जर्मनी और अमेरिका की प्रतिक्रिया आना केन्द्र सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं है। अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर जर्मनी और अमेरिका जैसे समृद्ध और विकसित देशों की प्रतिक्रिया का एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि दिल्ली में सभी देशों के दूतावास हैं जो दिल्ली की सरकार और केन्द्र सरकार के टकराव की खबरों को पढ़ते देखते रहते हैं। उन्हें यह आभास हो सकता है कि राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण अरविंद केजरीवाल को केन्द्र सरकार के अधीन काम करने वाली जांच एजेंसियों द्वारा प्रताडि़त किया जा सकता है। इस तरह के आरोप आम आदमी पार्टी सहित अन्य विपक्षी दल बार बार लगा भी रहे हैं। दूसरा कारण यह भी है कि अरविंद केजरीवाल के समर्थक काफी एन आर आई भी हैं जो पहले लोकपाल आंदोलन के दौरान और बाद में आम आदमी पार्टी के चुनाव अभियान में मदद करने भारत आए थे। जिस तरह प्रधानमन्त्री विदेशों में बसे अपने एन आर आई प्रशंसकों से आत्मीयता प्रदर्शित करते हैं वैसे ही अरविंद केजरीवाल की भी विदेशों में बसे भारतीयों से आत्मीयता है। तीसरे अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी उन्हें देश विदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टक्कर देने वाले नेता की तरह प्रोजेक्ट करते हैं। चौथे दिल्ली में स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी नीतियों के कारण दिल्ली के शिक्षा और स्वास्थ्य विभाग में आए सकारात्मक परिर्वतन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली है । संभवत: इन सब कारणों की वजह से अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी ने इन समृद्ध देशों का ध्यान खींचा है। भले ही आम भारतीय देश के आंतरिक मामलों में किसी भी देश का हस्तक्षेप पसंद नहीं करता और केन्द्र सरकार ने भी इस मामले पर अपना रोष जताया है लेकिन इन सब घटनाओं से अरविंद केजरीवाल का कद जरूर बढ़ा है। वैसे भी इंडिया गठबंधन से नीतीश कुमार के अलग होने और ममता बनर्जी के अकेले दम चुनाव लडने के निर्णय के बाद इंडिया गठबंधन में सबसे ज्यादा प्रभाव कांग्रेस के राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल का ही बचा है क्योंकि इन दोनों दलों की ही एक से ज्यादा राज्यों में सरकार है। केजरीवाल की गिरफ्तारी निश्चित रुप से लोकसभा चुनाव का एक बड़ा मुद्दा बन गई है।
अंधविश्वास से मुठभेड़
-डॉ. दिनेश मिश्र
किसी भी जीव को चाहे वह इंसान हो या जानवर जीवित रहने का मौलिक अधिकार है,तथा किसी भी धार्मिक परम्परा या अनुष्ठान की आड़ में उसके प्राण लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है। लेकिन पशु बलि ऐसी ही एक अंधविश्वास भरी परम्परा है जिसमें किसी भी पशु चाहे वह गाय, भैंस या बकरा /बकरी हो। इस उम्मीद से बलि दे दी जाती है कि उस पशु को अल्लाह /भगवान पर अर्पित करने से वे प्रसन्न हो जावेंगे तथा बलि चढ़ाने वाले की सारी इच्छाएं पूरी हो जावेगी। अपनी मृगतृष्णा की पूर्ति के लिए दूसरे जीव का जीवन हरण करने की यह प्रथा भी कितनी विचित्र है। अपने लाभ के लिए किसी दूसरे की जान लेकर उसके खून की धार बहाकर,उसके मांस के टुकड़ों को उदरस्थ कर क्या कोई धार्मिक क्रिया पूरी हो सकती है या ईश्वर के किसी भी स्वरूप को प्रसन्न किया जा सकता है अथवा इच्छाएं पूर्ण की जा सकती है?या यह सिर्फ एक मृग मरीचिका है। क्या ऐसी क्रूरता जिसे कोई सहृदय इंसान भी नहीं पसंद कर सकता है तो भला दया के सागर माने जाने वाले ईश्वर कैसे स्वीकार करेंगे। छत्तीसगढ़ के कुछ धार्मिक स्थलों के प्रयास से बंद हुई है, लेकिन कुछ स्थानों में यह आदि परम्परा के रूप में अब भी जारी है। जिसके संबंध में जागरूक नागरिकों को विचार करना चाहिए।
हर धर्म यह बात दोहराता है कि हर जीव में ईश्वर का अंश है चाहे वह पशु हो या पक्षी या इंसान, ईश्वर की नजर में सब बराबर है, फिर भला अपने ही अंश को मारने से ईश्वर क्यों प्रसन्न होगा। अपने शरीर के किसी अंग को खत्म करने से बाकी शरीर कैसे खुश रह सकता है।
हिंसा मनुष्य का मूल स्वभाव नहीं है। आदि मानव असभ्य भले ही रहा हो लेकिन वह जंगल में रहते हुए भी पशुओं की वध सिर्फ दो ही कारणों से करता था।एक तो अपने बचाव के लिए तथा दूसरा अपनी भूख मिटाने के लिए वह भी तब जब उसके पास खाने-पीने, भोजन के विकल्प नहीं थे। (यहां तक जंगली जानवर भी भूखे न रहने पर अन्य जानवरों का शिकार नहीं करते) लेकिन जब उसने पशुओं के साथ रहना सींख लिया, उन्हें पालने लगा, कृषि, व्यवसाय, परिवहन, दूध वगैरह के लिए उपयोग करने लगा,तब उसने उन्हें अपना साथी मान लिया तथा उनका पालन व सुरक्षा भी करने लगा। लेकिन जैसे-जैसे वह सभ्य हुआ उसमें संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी, लोभ बढ़ा, विभिन्न प्रकार के कर्मकांड, उपासना पद्वतियां बनी। प्राकृतिक आपदाओं,महामारियों, रोगों से प्राण रक्षा के लिए झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र,भूत-प्रेत की मान्यताएं, टोने-टोटके पर विश्वास करने लगा विभिनन अनुष्ठानों व पशुबलि, नरबलि जैसी क्रूर परंपरायें बनी। आज भी ग्रामीण अंचल में अनेक धार्मिक स्थलों में जन जातियों में विभिन्न कारणों से बलि की परम्परा विद्यमान है।
पशुबलि के कारणों में धार्मिक आस्था या अंधविश्वास, लोभ या स्वार्थ सिद्धि की कामना चाहे वह सिद्धि प्राप्त करने के लिए हो या गड़ा खजाना प्राप्त करने के लिए या औलाद प्राप्ति की आकांक्षा है। अनेक मामलों में तो मनौती पूरी करने के लिए पशुबलि दी जाती है, तो कभी बीमारियों को ठीक करने के लिए। कुछ लोग धार्मिक कारणों से पशुबलि को जायज ठहराते है तो कुछ परम्परा का हवाला देते है। जबकि इस संबंध में सभी धर्मो व धर्माचार्यो का मत स्पष्ट है। भगवान महावीर ने कहा है कि अहिंसा परमो धर्म। अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है तो भला बलि जैसी हिंसक परम्परा कैसे धार्मिक हो सकती है।गौतम बुद्व ने तो अनेक स्थानों पर अहिंसा पर ही जोर दिया है। उन्होंने कहा मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ भागवत गीता के सत्रहवें अध्याय के चौथे श्लोक में ऐसी श्रध्दा व कार्य जिससे किसी दूसरे प्राणी को पीड़ा या नुकसान पहुंचे या उसकी जान चली जाये, तामसी श्रद्धा, अंधकार या अंधश्रद्धा कहा गया है। तथा यह भी कि ऐसी श्रद्धा से किसी का कलयाण नहीं होता तथा यह ईश्वर को स्वीकार नहीं है।
ग्रामीण अंचल में शिक्षा का उचित प्रसार-प्रसार नहीं होने से स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता नहीं पनप पाई है। ऐसे लोग बीमार पडऩे पर बैगा, गुनिया के पास जाते हैं जो किसी सभी बीमारियों को जादू-टोने, नजर लगने के कारण बताकर उनसे बीमारी ठीक करने के लिए मुर्गे,बकरे,दारू की मांग करता है,बलि दे देता है। मनोरोग से पीडि़त मनुष्य को भूत-प्रेत, जिन्न पीडि़त बताकर बैगा,
सिरहा लोग बीमार मनुष्य के शरीर से भूत, उतारने के नाम पर पशुबलि करवाते है। गड़ा खजाना ढूंढने व बिना मेहनत के अमीर बन जाने की कामना भी पशुबलि का करण है। कुछ समय पूर्व जशपुर के पास खजाने पाने के लोभ में बीस नख वाला कछुआ पाने व बलि देने के चक्कर में दो व्यक्तियों की मौत हो गई। तांत्रिक सिद्वि पाने के लिए मोर, भैंसा की बलि की घटनाएं भी प्रकाश में आती रहती है।
दक्षिण भारत में कुछ प्रसिद्व धार्मिक स्थल,कलकत्ता, कामाक्षा, बनारस सहित छत्तीसगढ़ में भी पशुबलि के अनेक स्थानों पर पशु बलि सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रयास से बंद हुई है लेकिन बस्तर, चाम्पा,चन्द्रपुर, तुरतुरिया, रायगढ़ सहित कुछ स्थानों पर भी अब भी परम्पराओं के निर्वाह के नाम पर जारी है। पशु बलि को रोकने के लिए दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में जैसे राजस्थान, गुजरात मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ में, एक केन्द्रशासित प्रदेश पाण्डिचेरी में पशु बलि निषेधक कानून है लेकिन जन जागरण के अभाव के कारण प्रभावी नहीं हो पा रहे है। पं.मदनमोहन मालवीय ने तो कलकत्ता के काली मंदिर के सामने सभा लेकर पशु बलि को अधार्मिक व गैरजरूरी कृत्य कहा था।महात्मा गांधी ने भी कहा है कि हिंसा मिथ्या है, अहिंसा सत्य है।अहिंसा के बिना मनुष्य पशु से बदतर है।कहीं कहीं पर लोग पशु बलि अनुष्ठान व तप का आवश्यक अंग मानते है पर गीता के सत्रहवें अध्याय के चौदहवें श्लोक में यह पुन: कहा गया है अहिंसा पवित्रता, सरतला ही श्रेष्ठ तप है जबकि व्यर्थ की हिंसा त्याज्य है। किसी भी प्रकार की हिंसा चाहे वह धर्म के नाम पर, परम्पराओं के नाम पर अपनी स्वार्थसिद्वि के नाम पर हो त्याग देना चाहिए। मनुष्य को बेकसूर पशु की बलि देने के बदले अपने अंदर की पशुता की बलि देना चाहिए। अपने लोभ का बलिदान करना चाहिए।
डॉ. आर.के. पालीवाल
ऐसा शायद ही कोई लोकसभा चुनाव होगा जिसमें प्रमुख राजनीतिक दलों ने कुछ फिल्मी सितारों को कुछ सीट जीतने और चुनावों में भीड़ इक_ी करने के लिए इस्तेमाल न किया हो। इस मामले में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दलों की तरह समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस आदि क्षेत्रीय दल सब शामिल रहे हैं। दक्षिण भारत में तो मतदाताओं के बीच फिल्मी सितारों का इतना जबरदस्त आकर्षण रहा है कि डी एम के, अन्ना डी एम के और तेलगु देशम जैसी दशकों सत्ता पर सवार रही पार्टियों की स्थापना ही अपने जमाने के प्रमुख फिल्मी सितारों द्वारा हुई है। उत्तर भारत में किसी हिन्दी फिल्मी सितारे ने यह हिम्मत तो नहीं दिखाई कि किसी पार्टी की नीव रख सके लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने दल में अपने समय के सिरमौर रहे कई कलाकारों को लोकसभा चुनाव लड़वाकर या राज्य सभा में भेजकर चुनावों में काफी इस्तेमाल किया है। इस फेहरिस्त में स्वर्गीय सुनील दत्त से लेकर अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, सन्नी देओल, शबाना आजमी और रेखा तक के नाम शामिल हैं।2024 के चुनाव में हिमाचल प्रदेश की मंडी सीट से भारतीय जनता पार्टी ने कंगना रनौत को उतारकर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। इन फिल्मी सितारों को जिताकर जनता बार बार ठगी जाती है। इसीलिए राजनीतिक दल उन्हें चुनाव में उतारते हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उन्हें ही उम्मीदवार के रुप में आगे आना चाहिए जिनके पास उस इलाके की जनता के बीच काफी समय गुजारकर जनता की विविध समस्याओं को देखने, समझने और उनको हल करने कराने का पर्याप्त समय है।
कंगना रनौत की बात करें तो वे अभी मुंबई के हिंदी फि़ल्म जगत में सक्रिय हैं। उन्होने यह घोषणा नहीं की है कि लोकसभा चुनाव जीतने पर वे अपना अधिकांश समय मंडी लोकसभा क्षेत्र में बिताएंगी। मंडी की मीडिया और नागरिक संगठनों का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वे चुनाव प्रचार के समय कंगना रनौत से स्टांप पेपर पर यह आश्वासन लें कि जब लोकसभा का सत्र नहीं चलेगा तब वे महीने में कम से कम पच्चीस दिन मंडी में उपलब्ध रहेंगी। नागरिक संगठनों, यथा रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन आदि को अपने इलाके के उन तमाम उम्मीदवारों से इस तरह के लिखित आश्वासन लेने चाहिएं जो बाहर से आकर किसी क्षेत्र विशेष में चुनाव लड़ते हैं। जिन उम्मीदवारों को किसी राजनीतिक दल ने टिकट दिया है उनकी स्थानीय इकाई के पदाधिकारियों से भी उम्मीदवार द्वारा दिए गए आश्वासन पर हस्ताक्षर कराने चाहिएं ताकि अपने जन प्रतिनिधि की अनुपस्थिति में संबंधित राजनीतिक दलों की स्थानीय इकाई के पदाधिकारियों से शिकायत की जा सके।
लोकतंत्र में पहली और अंतिम जिम्मेदारी नागरिकों की ही है। हम भारत के नागरिकों ने एक तरह से अपने अधिकारों को अपने जन प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के पास गिरवी रख दिया है और इसका लाभ उठाकर हमारे जन प्रतिनिधि खुद को मालिक और हम जनता को अपने गुलाम समझने लगे हैं। तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं ने आपसी सहमति से ऐसी व्यवस्था का निर्माण कर लिया है जिसमें आम नागारिक को भिखारी सा बना दिया। इस व्यवस्था के निर्माण में भाजपा और कांग्रेस सहित तमाम दलों का बराबर हाथ है। जन प्रतिनिधि को प्रतिवर्ष करोड़ों की सासंद और विधायक निधि देकर और जन सेवकों की लगाम मंत्रियों के हाथ में सौंपने में सब दल एकमत रहे हैं और इस व्यवस्था का लाभ उठाते हैं। नागरिकों के जागरूक और संगठित होने से ही यह नागरिक विरोधी व्यवस्था बदल सकती है।
अपूर्व गर्ग
मेरे छत्तीसगढ़ की तरफ से 9 अप्रैल को राहुल सांकृत्यायन जी को जन्मदिन मुबारक, नमन ।
मेरे छत्तीसगढ़ को खासतौर पर रायपुर को पता होना चाहिए छत्तीसगढ़ एक अलग प्रदेश क्यों बने इस पर 75 बरस पहले राहुल जी छत्तीसगढ़ एक अलग प्रदेश बने, इसे छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए जरूरी ही नहीं उनकी भावनाएं भी समझते थे।
रायपुर और छत्तीसगढ़ को पता होना चाहिए कितने दूरदर्शी थे राहुल जी और छत्तीसगढ़ पर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी वो रूस या कालिंपोंग या मसूरी में बैठकर नहीं लिखते बल्कि आजादी के तुरंत बाद रायपुर आते हैं और यहाँ लोगों की भावनाओं को समझने के बाद जनभावनाओं को समझते हैं फिर लिखते हैं।
आजादी से पहले पंडित सुंदर लाल शर्मा और ठाकुर प्यारे लाल सिंह एक अलग छत्तीसगढ़ राज्य की चर्चा करते रहे बाद में इन सभी और डॉ खूबचंद बघेल ने छत्तीसगढ़ अलग प्रदेश को लेकर मुहीम छेड़ी।
गौरतलब है आजादी के बाद मध्यप्रदेश जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल था, इसके पहले मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल रायपुर से और गवर्नर ई। राघवेंद्र राव भी छत्तीसगढ़ बिलासपुर से थे फिर भी अलग छत्तीसगढ़ प्रदेश की मांग उठ चुकी थी।
ठीक इसी दौरान महापंडित राहुल सांकृत्यायन 2 जनवरी 1948 को बाबा नागार्जुन के साथ बम्बई से बम्बई मेल से चलकर 3 जनवरी 1948 को रायपुर आते हैं।
राहुल जी छत्तीसगढ़ पर महत्वपूर्ण टिप्पणी दर्ज करते हैं। छत्तीसगढ़ के घने जंगलों , 50 इंच बारिश, खनिजों के अथाह भण्डार के साथ छत्तीसगढ़ की पोटेंशियलइटी का जिक्र कर खासतौर पर वो रेखांकित करते हैं-
‘ छत्तीसगढ़ की जनसँख्या 45 लाख से ऊपर है । मध्यप्रदेश का यह पिछड़ा हुआ भाग है। यद्दपि वहां के मुख्यमंत्री यहीं के हैं। पिछड़े और उपेक्षित होने से लोगों में छत्तीसगढ़ के अलग प्रदेश होने की भावना स्वाभाविक है...’
राहुल जी को उस दौर के छत्तीसगढ़ विद्यार्थी फेडरेशन ने आमंत्रित किया था।
4 जनवरी 1948, शनिवार को ये गोष्ठी आयोजित की गई थी। इस गोष्ठी में बड़ी मात्रा में सोशलिस्ट और किसानों ने भी भाग लिया था।
चूँकि राहुल जी उसी दौरान सोवियत रूस के अपने लम्बे प्रवास के बाद आये थे इसलिए गोष्ठी में मौजूद लोगों ने उनसे खासकर सोवियत व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ जानना चाहा। इसके बाद राहुल जी ने रायपुर की इस गोष्ठी में आये लोगों से मिलने के बाद ये दर्ज किया था-‘रायपुर में हिंदी के महान कवि पद्माकर की संतानों से मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई। और इसने बतला दिया कि हिंदी के निर्माण में छत्तीसगढ़-प्राचीन दक्षिण कोसल-किसी से पीछे नहीं रहा।’
5 जनवरी, रविवार 1948 को वे रायपुर से बिलासपुर गाड़ी बदलते हुए प्रयाग की ओर रवाना हो जाते हैं ।
चंदन कुमार जजवाड़े
बिहार की सारण लोकसभा सीट पर आरजेडी ने लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य को चुनाव मैदान में उतारा है।
करीब डेढ़ साल पहले पिता लालू प्रसाद यादव को अपनी एक किडनी दान देने के बाद रोहिणी आचार्य सुर्खियों में आई थीं।
अब रोहिणी के सामने सारण की उस लोकसभा सीट को जीतने की चुनौती है, जहाँ से लालू पहली बार सांसद बने थे, लेकिन पिछले दो चुनावों से इस सीट पर बीजेपी का कब्ज़ा है।
रोहिणी का इस सीट पर सीधा मुकाबला बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूड़ी से माना जा रहा है। रूड़ी साल 2014 से ही लगातार इस सीट से सांसद हैं।
खास बात यह है कि सारण सीट को लालू प्रसाद यादव का गढ़ माना जाता है। वो 4 बार इस सीट से सांसद रहे हैं।
इस लिहाज से सारण सीट पर रूड़ी का मुकाबला लगातार लालू या उनके परिवार के किसी सदस्य से रहा है। इसी सिलसिले में अब लालू की बेटी रोहिणी आचार्य पहली बार चुनाव मैदान में हैं।
रोहिणी आचार्य ने बीबीसी से बातचीत में कहा है, ‘राजनीति मेरे लिए नई चीज नहीं है। मैं बचपन से यह सब देखती आई हूँ। मैं राजनीतिक परिवार से हूँ। माँ-पिताजी और भाई राजनीति में पहले से हैं। मुझे सारण की जनता से जो प्यार मिला है, उससे मैं हैरान हूँ। इस तेज धूप में इतने लोग स्वागत में आए हैं।’
बीजेपी के कब्जे में लालू का पुराना गढ़
इस सीट पर ग्रामीण इलाक़ों में लालू प्रसाद यादव का समर्थन स्पष्ट तौर पर दिखता है। यहाँ रोहिणी आचार्य को देखने के लिए सडक़ों पर लोगों की भीड़ भी नजर आती है। रोहिणी को लेकर महिला वोटरों के बीच भी खासा उत्साह दिखता है।
साल 1977 में पहली बार लालू प्रसाद यादव इसी इलाक़े से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुँचे थे। लालू ने उस वक़्त भारतीय लोकदल के टिकट पर चुनाव जीता था। उस समय यह सीट छपरा लोकसभा सीट कहलाती थी।
साल 2004 में छपरा लोकसभा सीट से लालू प्रसाद यादव ने बीजेपी के राजीव प्रताप रूड़ी को हराकर जीत दर्ज की थी।
लालू प्रसाद यादव ने आखिरी बार इस सीट से साल 2009 में लोकसभा चुनाव जीता था। उस समय भी लालू का मुक़ाबला राजीव प्रताप रूड़ी से ही हुआ था। साल 2008 में परिसीमन के बाद इस सीट का नाम ‘सारण’ लोकसभा सीट हो गया था।
उसके बाद रूडी ने पिछले यानी साल 2019 के लोकसभा चुनावों में लालू प्रसाद यादव के समधी चंद्रिका राय को इस सीट से हराया था। जबकि साल 2014 में राबड़ी देवी इस सीट से राजीव प्रताप रूडी से हार गई थीं।
हालाँकि बिहार में साल 2020 में हुए विधानसभा चुनावों में आरजेडी इस इलाके में अपनी पकड़ फिर से मजबूत करती दिखती है।
कौन हैं रोहिणी आचार्य
सारण लोकसभा क्षेत्र में छह विधानसभा सीट हैं। बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों में 4 सीटों पर आरजेडी ने जीत दर्ज की थी, और दो बीजेपी के खाते में आई थीं। इनमें छपरा और अमनौर सीट बीजेपी के खाते में गई थी। जबकि मढ़ौरा, गरखा, परसा और सोनपुर सीट पर राष्ट्रीय जनता दल की जीत हुई थी।
रोहिणी आचार्य लालू प्रसाद यादव के नौ बच्चों में दूसरी संतान हैं। लालू की सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती हैं। रोहिणी के बाद लालू की चार बेटियां हैं।
उसके बाद तेजप्रताप यादव और तेजस्वी यादव का जन्म हुआ। लालू की सबसे छोटी संतान उनकी बेटी राजलक्ष्मी हैं।
रोहिणी की शादी 24 मई 2002 को समरेश सिंह से हुई थी। समरेश सिंह सिंगापुर में ही आईटी सेक्टर में नौकरी करते हैं। शादी के कुछ समय बाद से ही रोहिणी अपने पति के साथ सिंगापुर में रह रही थीं। रोहिणी और समरेश सिंह के एक बेटी और दो बेटे हैं।
सिंगापुर में अपने परिवार के साथ घरेलू जिंदगी गुजारने वाली रोहिणी सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय रही हैं। वो भारत के सियासी मुद्दों पर अक्सर सोशल मीडिया पर केंद्र सरकार पर हमलावर दिखती हैं।
सारण लोकसभा क्षेत्र के सोनपुर इलाके में रोहिणी के स्वागत में बड़ी भीड़ बता रही थी कि इस इलाके में लालू प्रसाद यादव को अच्छा समर्थन मिल सकता है। यह गंगा के किनारे यादवों के बड़े गाँवों का इलाका है।
यहाँ चुनाव प्रचार के लिए घूम रही गाडिय़ों में रोहिणी आचार्य के लिए समर्थन मांगा जा रहा है। रोहिणी को देखने के लिए यहाँ महिलाएँ भी बड़ी संख्या में सडक़ों, छतों और गलियों में नजर आ रही थीं। हालाँकि इलाके में आज भी रोहिणी को कम और लालू-राबड़ी को ज़्यादा लोग जानते हैं।
सबलपुर गाँव की पार्वती देवी कहती हैं, ‘ये राबड़ी देवी की बेटी हैं। वोट मांगने आई हैं। हम चाहते हैं कि ये जीत जाएं। ये जीतेंगी तो हमारे लिए अच्छा होगा।’
इसी गाँव की एक अन्य महिला दुलारी देवी कहती हैं, ‘ये लालू यादव की बेटी हैं। गाँव में इनके लिए माहौल अच्छा है, वोट मिलेगा इनको।’
बिहार का यह इलाका राजनीतिक तौर पर काफी सजग नजर आता है। इस इलाके में कई लोगों का मानना है कि राजनीति में परिवारवाद को बेवजह मुद्दा बनाया जाता है, जबकि हर पार्टी में परिवारवाद मौजूद है।
हालाँकि यहाँ कई ऐसे लोग भी मिले जिनका मानना है कि बिहार में सीटों का बंटवारा और उम्मीदवारों का चयन और बेहतर हो सकता था। कुछ लोग मानते हैं कि पूर्णिया से पप्पू यादव को महागठबंधन का उम्मीदवार बनाना चाहिए था।
भूषण कुमार यादव कहते हैं, ‘बीजेपी ने भी टिकट के बंटवारे में एक भी महिला या मुसलमान को टिकट नहीं दिया है। रोहिणी आचार्य को हम लालू जी के नाम से जानते हैं। उन्होंने जो किडनी दान दिया है उसकी वजह से हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया में उनका नाम हो चुका है।’
रूडी के लिए कितनी बड़ी चुनौती
सारण लोकसभा क्षेत्र के शहरी इलाकों या कस्बों में बीजेपी और राजीव प्रताप रूड़ी के लिए भी बड़ा जनसमर्थन दिखता है। यानी इस सीट पर मुकाबला सीधे तौर पर आरजेडी और बीजेपी के बीच दिख रहा है।
इससे पहले भी इलाके में हाल के हर चुनाव में बीजेपी और आरजेडी के बीज ही मुक़ाबला देखा गया है।
साल 1996 के लोकसभा चुनावों में राजीव प्रताप रूडी छपरा (अब सारण) सीट से सबसे पहले लोकसभा चुनाव जीते थे। उन्होंने आरजेडी के लाल बाबू राय को हराया था।
साल 1998 में आरजेडी के हीरा लाल राय ने छपरा सीट से बीजेपी के राजीव प्रताप रूड़ी को लोकसभा चुनावों में मात दी थी।
साल 1999 के लोकसभा चुनावों में रूड़ी ने वापसी करते हुए हीरा लाल राय को चुनावी मैदान में मात दी थी।
माना जाता है कि लालू को किडनी दान देने के बाद रोहिणी आचार्य के प्रति लोगों की सांत्वना हो सकती है। राजीव प्रताप रूड़ी भी रोहिणी आचार्य के लिए काफी सधे हुए शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
रूड़ी के मुताबिक, ‘जो तीन दिन पहले चुनाव मैदान में आया हो उसके बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है। हर पिता को ऐसी बेटी (रोहिणी) मिलनी चाहिए। बेटियाँ सबसे खूबसूरत और प्यारी होती हैं। लेकिन लड़ाई लालू प्रसाद यादव जी से है।’
रूड़ी आरोप लगाते हैं कि किसी को प्रत्याशी बनाकर लालू प्रसाद यादव काले चेहरे को छिपाना चाहते हैं और रोहिणी की तस्वीर के पीछे कौन है यह सारण की जनता जानती है।
सारण का समीकरण
दरअसल बीजेपी लगातार लालू प्रसाद यादव पर आरोप लगाती है कि लालू राज में बिहार का विकास ठप रहा और राज्य में अपराध का बोलबाला रहा है।
हालाँकि इन तमाम आरोपों के बाद भी भारतीय जनता पार्टी बीते तीन दशक से सियासी जमीन पर लालू प्रसाद यादव और आरजेडी को पूरी तरह मात देने में सफल नहीं हो पाई है।
चुनावी माहौल में सियासी मैदान पर आरोप हर तरफ से लगाए जाते हैं। बीजेपी के मुकाबले आरजेडी भी केंद्र सरकार और बीजेपी पर कई तरह के आरोप लगाती है। खासकर महंगाई और बेरोजग़ारी के मुद्दे को आरजेडी इन चुनावों में भी बढ़ चढक़र उठा रही है।
रोहिणी आचार्य आरोप लगाती हैं कि ‘रोजगार सबसे बड़ा मुद्दा है। मोदी अंकल ने कहा था कि सबको 15-15 लाख देंगे, दो करोड़ को हर साल नौकरी देंगे। लोग बेरोजग़ारी, भूखमरी सब देख रहे हैं, बीजेपी वॉशिंग मशीन वाली पार्टी है।’
साल 2019 के लोकसभा चुनावों के आँकड़ों के मुताबिक़ सारण लोकसभा क्षेत्र में 16 लाख से ज्यादा मतदाता थे। सारण के शहरी इलाक़ों और कस्बों में राजीव प्रताप रूड़ी का भी बड़ा समर्थन नजर आता है।
अमनौर के प्रेम कुमार कहते हैं, ‘रूड़ी जी ने यहाँ बहुत काम करवाया है। कोई बीमार पड़ता है तो पैसे दिलवाते हैं। इस इलाके में हम सब लोग उनके समर्थन में हैं।’
अमनौर के हर्ष कुमार का हाल ही में वोटर कार्ड बना है। वो इस लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट डालने वाले हैं।
हर्ष का कहना है, ‘हम लोग केंद्र के चुनाव में मोदी जी को वोट देंगे। मोदी जी केंद्र में अच्छा काम कर रहे हैं। समय के हिसाब से हमारे इलाके में सडक़, बिजली सब ठीक हो गई है। धीरे-धीरे विकास हो रहा है।’
सारण सीट पर यादवों की आबादी करीब 25 फ़ीसदी मानी जाती है। इसके अलावा राजपूत वोटरों की तादाद भी करीब 23त्न है। इस सीट पर बनिया वोटर करीब 20त्न है और मुस्लिम वोटर भी 10त्न से ज्यादा हैं।
इस सीट पर हर उम्मीदवार का चुनावी समीकरण बिहार की तपती गर्मी पर भी निर्भर नजर आता है। पाँच साल पहले हुए लोकसभा चुनावों में भी इस सीट पर महज 56 फीसदी वोटिंग हुई थी।
अप्रैल के महीने में ही राज्य में गर्मी का सितम शुरू हो चुका है। इस बार के लोकसभा चुनावों में सारण सीट पर पाँचवें चरण में 20 मई को वोट डाले जाएंगे।
उस वक्त के मौसम पर भी यह निर्भर करेगा कि किस उम्मीदवार के पक्ष में कितने लोग घरों से निकलकर वोट डालने आते हैं। (bbc.com/hindi)
सर्वप्रिया सांगवान
आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को इसी सप्ताह सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत मिली, जिसके बाद वह जेल से बाहर आए हैं।
दिल्ली की आबकारी नीति में कथित घोटाले के आरोप में वह करीब छह महीने से जेल में बंद थे।
इसी मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी जेल में बंद हैं।
बाहर निकलने के बाद संजय सिंह ने बीबीसी की सर्वप्रिया सांगवान के साथ खास बातचीत में शराब नीति में कथित भ्रष्टाचार के केस, इंडिया गठबंधन, लोकतंत्र, नेताओं के एक पार्टी से दूसरे में जाने और आगामी लोकसभा चुनाव पर अपनी राय रखी।
पढि़ए इस बातचीत के कुछ खास अंश।
सवाल- जब जेल में पता चला कि अरविंद केजरीवाल भी गिरफ़्तार हो गए हैं, तब कैसा लगा? क्या ऐसा लगा कि सब ख़त्म हो गया?
संजय सिंह- एक पल को बहुत तकलीफ हुई। उस समय मुझे ये लगा कि इस समय मुझे बाहर होना चाहिए था, तो मैं और मजबूती से लड़ पाता। लेकिन फिर जब मैंने देखा कि हमारे कार्यकर्ता लाठियां खा रहे हैं, घसीटे जा रहे हैं, विधायकों को, मंत्रियों को बसों में भरा जा रहा है, फिर भी वो एकदम संघर्ष कर रहे हैं, तो बड़ा अच्छा लगा।
अगर पार्टी के लिहाज से देखेंगे तो हमारे सबसे बड़े नेता और हमारे मुखिया को जेल में डाल दिया। ये पार्टी खत्म करने की साजिश है बीजेपी की। उसी को लेकर इन्होंने सारे खेल किए हैं, लेकिन ये कामयाब नहीं होंगे। हम लोग इनसे पहले भी लड़ते रहे हैं और आगे भी लड़ते रहेंगे।
सवाल- बहुत लोग जेल से डरते हैं। क्या है ये जेल जाने का डर?
संजय सिंह- बाहर बैठे व्यक्ति की जेल के बारे में धारणा है कि चार खाने वाला कुर्ता होता है, उसी का पायजामा होता है, टोपी लगानी है और पत्थर तोडऩा होता है। ऐसा कुछ नहीं होता है आज की जेलों में। आज की जेलें बहुत परिवर्तित हो चुकी हैं। दूसरी बात है कि कष्ट होता है, इसमें कोई दोराय नहीं।
11 दिनों तक मुझे एक कोठरी में रखा गया। लोगों से मिलने की इजाजत नहीं थी। छह महीने तक जब तक जेल में रहा, खुद से अपना सारा काम किया। बर्तन मांजना, कपड़े धोना, झाड़ू लगाना हो। सब किया। छह महीने इस जेल के दौरान दूसरा अच्छा पक्ष ये है कि उतनी किताबें पढ़ीं, जितनी छह साल में नहीं पढ़ पाता। फोन नहीं थे हमारे पास, दिन में थोड़ी देर सो लेते थे। म्यूजिक़ रूम में गाना गाने पहुंच जाता था।
मैं आज की तारीख में देखता हूं कि ये नेता डर के चला गया, वो चला गया। डरिए मत। क्योंकि इससे लोगों का विश्वास टूटता है। आज आप बीजेपी के खिलाफ बोल रहे हैं, कल को आप बीजेपी का झंडा उठा ले रहे हैं, सिर्फ ईडी-सीबीआई के डर से। क्या हो जाएगा, राजनीति कर रहे हैं, चार-छह महीने जेल में रहना पड़ेगा तो कोई बात नहीं। कितने क्रांतिकारियों, राजनेताओं ने जेल काटी है।
मैं ये लोगों से कहूंगा कि इस वक्त देश के अंदर जो तानाशाह सरकार है, जो निर्वाचित सरकारों को तोड़ती है, गिराती है, विधायकों को खरीदती है, डराती-धमकाती है, डरो मत। डरोगे तो कायर के रूप में याद किए जाओगे, लड़ोगे तो बहादुर के रूप में याद किए जाओगे।
संजय सिंह को जमानत मिलने से क्या आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनावों में फायदा होगा?
सवाल- शराब नीति में कुछ तो हुआ होगा कि ईडी ने इतनी बड़ी कार्रवाई कर दी?
संजय सिंह- मुझे लगता है कि दिल्ली में तो किसी दिन हंसी घोटाला भी आ जाएगा। कहा जाएगा कि 15 मिनट हंसने का टाइम है, आम आदमी पार्टी वाले तो 18 मिनट तक हंसे। हमारे खिलाफ आज से नहीं, 2015 से लगे हैं ये लोग। आपको याद होगा तब भी केजरीवाल जी के दफ्तर में सीबीआई का छापा पड़ा था। तब भी इस्तीफा मांग रहे थे।
(संजय सिंह एक शख्स की प्रधानमंत्री मोदी के साथ तस्वीर दिखाते हुए) मोदी जी के साथ फोटो में मंगुटा रेड्डी हैं, जिनको ईडी शराब का घोटालेबाज कह रही थी और उनके बेटे को गिरफ्तार किया था शराब घोटाले में। अब 2024 में ये प्रधानमंत्री मोदी की फ़ोटो लगाकर वोट मांग रहे हैं।
मंगुट्टा रेड्डी साहब के घर ईडी का छापा पड़ा। इनसे पूछा गया केजरीवाल जी को जानते हो। इन्होंने कहा हां मिले थे चैरिटेबल ट्रस्ट की जमीन के मामले में। 10 फऱवरी 2022 को इनके बेटे राघव रेड्डी को गिरफ़्तार कर लिया गया।
10 फऱवरी से 16 जुलाई तक राघव रेड्डी के सात बयान लिए जाते हैं, मंगुट्टा रेड्डी के तीन बयान लिए जाते हैं। जब बाप-बेटे का तीन और सात मिलाकर 10 बयान होता है, और आठ बयानों में वे केजरीवाल के खिलाफ नहीं बोलते हैं। एक-दो बयानों में बोलते हैं, उन लोगों को जमानत मिल जाती है। राघव रेड्डी को 18 जुलाई को जमानत मिल जाती है।
एक सबसे बड़ी बात जो आठ बयान केजरीवाल जी के खिलाफ नहीं दिए गए थे, उन्हें ईडी ने छिपा दिया। उसको कोर्ट के सामने नहीं रखा। शरद रेड्डी को 2022 में गिरफ्तार किया गया। 12 बयानों में नाम नहीं लेते हैं और अंतिम के एक-दो बयानों में लेने के बाद ही उनकी जमानत हो जाती है ।
शरद रेड्डी 10 नवंबर ईडी की हिरासत में जाते हैं और 15 नवंबर को 5 करोड़ की रिश्वत भाजपा को पेश करवाते हैं। अपनी गिरफ़्तारी से लेकर उसके बाद तक कुल वह 55 करोड़ रुपये भारतीय जनता पार्टी को देते हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए।
सवाल- लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए पैसे तो आम आदमी पार्टी को भी मिले हैं?
संजय सिंह- हम तो कह रहे हैं कागज़ातों की जाँच करवाइए। भाजपा का जो सच है, जिसमें उनका घोटाला सामने आ रहा है उसपर जाँच क्यों नहीं करवा रहे।
सवाल- दिल्ली में संवैधानिक संकट हुआ तो आप लोग क्या करेंगे?
संजय सिंह- इसका कोई सवाल ही नहीं है। दिल्ली का काम चल रहा है। हमारे मंत्री अच्छे से काम कर रहे हैं। मणिपुर एक साल से जल रहा है। वहां पर करगिल के फौजी की पत्नी को निर्वस्त्र कर के घुमाया जाता है। हिंसा हो रही है, दंगे हो रहे हैं और वहां के मुख्यमंत्री को तो भाजपाई माला पहनाकर, कंधे पर लेकर घूम रहे हैं। वहां कोई संकट नहीं?
सवाल- आप कहते हैं कि केंद्रीय जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है बीजेपी, लेकिन राहुल गांधी, ममता बनर्जी पर भी आरोप है। लेकिन वो जेल में नहीं हैं?
संजय सिंह- उनके ख़िलाफ़ भी तो हो ही रहा है दुरुपयोग। मुकदमे हो रहे हैं। उनको भी जेल में डाल देंगे।
सवाल- अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनी तो क्या पीएमएलए के सख्त प्रावधानों को हटाएंगे, क्या ईडी की पावर को कम करेंगे?
संजय सिंह- वो मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उसपर फैसला आने दीजिए। न्यायालय पर भरोसा करते हैं।
सवाल- मौजूदा विपक्ष में लोकतंत्र को बचाने की ताकत है?
संजय सिंह-अगर ताकत नहीं है तो पैदा करनी पड़ेगी। कोई विकल्प नहीं है। इंडिया गठबंधन इस बार चुनाव जीतेगा और बीजेपी हारेगी। एनडीए हारेगा और इसी घबराहट का नतीजा है कि ये गिरफ्तारियां हो रही हैं। कोई भी राजनेता इस समय में ऐसे काम नहीं करता है, जो काम मोदी जी कर रहे हैं।
अगर ये 400 पार कर रहे होते तो क्या जरूरत थी केजरीवाल और हेमंत सोरेन को गिरफ्तार करने की। इसका मतलब घबराहट है। इसका मतलब मोदी जी जान रहे हैं कि नीचे सब कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि पिछले चुनाव में तो सैचुरेशन पॉइंट पर था सब। हर जगह जीते ही थे, तो अब नीचे ही आना है न।
सवाल- पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार पर आलोचकों को दबाने के आरोप पर क्या कहेंगे?
संजय सिंह- आम आदमी पार्टी की सरकार में पंजाब के अंदर भी कहीं दुर्भावना से काम नहीं किया। वहां भी हम शिक्षा, स्वास्थ्य के मॉडल पर काम कर रही है। हमने तो गलत पाने के बाद अपने मंत्री पर भी केस किया। सिर्फ विपक्ष पर ही थोड़े कार्रवाई कर रहे हैं। (bbc.com/hindi)
सर्वप्रिया सांगवान
आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को इसी सप्ताह सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत मिली, जिसके बाद वह जेल से बाहर आए हैं।
दिल्ली की आबकारी नीति में कथित घोटाले के आरोप में वह करीब छह महीने से जेल में बंद थे।
इसी मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी जेल में बंद हैं।
बाहर निकलने के बाद संजय सिंह ने बीबीसी की सर्वप्रिया सांगवान के साथ खास बातचीत में शराब नीति में कथित भ्रष्टाचार के केस, इंडिया गठबंधन, लोकतंत्र, नेताओं के एक पार्टी से दूसरे में जाने और आगामी लोकसभा चुनाव पर अपनी राय रखी।
पढि़ए इस बातचीत के कुछ खास अंश।
सवाल- जब जेल में पता चला कि अरविंद केजरीवाल भी गिरफ़्तार हो गए हैं, तब कैसा लगा? क्या ऐसा लगा कि सब ख़त्म हो गया?
संजय सिंह- एक पल को बहुत तकलीफ हुई। उस समय मुझे ये लगा कि इस समय मुझे बाहर होना चाहिए था, तो मैं और मजबूती से लड़ पाता। लेकिन फिर जब मैंने देखा कि हमारे कार्यकर्ता लाठियां खा रहे हैं, घसीटे जा रहे हैं, विधायकों को, मंत्रियों को बसों में भरा जा रहा है, फिर भी वो एकदम संघर्ष कर रहे हैं, तो बड़ा अच्छा लगा।
अगर पार्टी के लिहाज से देखेंगे तो हमारे सबसे बड़े नेता और हमारे मुखिया को जेल में डाल दिया। ये पार्टी खत्म करने की साजिश है बीजेपी की। उसी को लेकर इन्होंने सारे खेल किए हैं, लेकिन ये कामयाब नहीं होंगे। हम लोग इनसे पहले भी लड़ते रहे हैं और आगे भी लड़ते रहेंगे।
सवाल- बहुत लोग जेल से डरते हैं। क्या है ये जेल जाने का डर?
संजय सिंह- बाहर बैठे व्यक्ति की जेल के बारे में धारणा है कि चार खाने वाला कुर्ता होता है, उसी का पायजामा होता है, टोपी लगानी है और पत्थर तोडऩा होता है। ऐसा कुछ नहीं होता है आज की जेलों में। आज की जेलें बहुत परिवर्तित हो चुकी हैं। दूसरी बात है कि कष्ट होता है, इसमें कोई दोराय नहीं।
11 दिनों तक मुझे एक कोठरी में रखा गया। लोगों से मिलने की इजाजत नहीं थी। छह महीने तक जब तक जेल में रहा, खुद से अपना सारा काम किया। बर्तन मांजना, कपड़े धोना, झाड़ू लगाना हो। सब किया। छह महीने इस जेल के दौरान दूसरा अच्छा पक्ष ये है कि उतनी किताबें पढ़ीं, जितनी छह साल में नहीं पढ़ पाता। फोन नहीं थे हमारे पास, दिन में थोड़ी देर सो लेते थे। म्यूजिक़ रूम में गाना गाने पहुंच जाता था।
मैं आज की तारीख में देखता हूं कि ये नेता डर के चला गया, वो चला गया। डरिए मत। क्योंकि इससे लोगों का विश्वास टूटता है। आज आप बीजेपी के खिलाफ बोल रहे हैं, कल को आप बीजेपी का झंडा उठा ले रहे हैं, सिर्फ ईडी-सीबीआई के डर से। क्या हो जाएगा, राजनीति कर रहे हैं, चार-छह महीने जेल में रहना पड़ेगा तो कोई बात नहीं। कितने क्रांतिकारियों, राजनेताओं ने जेल काटी है।
मैं ये लोगों से कहूंगा कि इस वक्त देश के अंदर जो तानाशाह सरकार है, जो निर्वाचित सरकारों को तोड़ती है, गिराती है, विधायकों को खरीदती है, डराती-धमकाती है, डरो मत। डरोगे तो कायर के रूप में याद किए जाओगे, लड़ोगे तो बहादुर के रूप में याद किए जाओगे।
संजय सिंह को जमानत मिलने से क्या आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनावों में फायदा होगा?
सवाल- शराब नीति में कुछ तो हुआ होगा कि ईडी ने इतनी बड़ी कार्रवाई कर दी?
संजय सिंह- मुझे लगता है कि दिल्ली में तो किसी दिन हंसी घोटाला भी आ जाएगा। कहा जाएगा कि 15 मिनट हंसने का टाइम है, आम आदमी पार्टी वाले तो 18 मिनट तक हंसे। हमारे खिलाफ आज से नहीं, 2015 से लगे हैं ये लोग। आपको याद होगा तब भी केजरीवाल जी के दफ्तर में सीबीआई का छापा पड़ा था। तब भी इस्तीफा मांग रहे थे।
(संजय सिंह एक शख्स की प्रधानमंत्री मोदी के साथ तस्वीर दिखाते हुए) मोदी जी के साथ फोटो में मंगुटा रेड्डी हैं, जिनको ईडी शराब का घोटालेबाज कह रही थी और उनके बेटे को गिरफ्तार किया था शराब घोटाले में। अब 2024 में ये प्रधानमंत्री मोदी की फ़ोटो लगाकर वोट मांग रहे हैं।
मंगुट्टा रेड्डी साहब के घर ईडी का छापा पड़ा। इनसे पूछा गया केजरीवाल जी को जानते हो। इन्होंने कहा हां मिले थे चैरिटेबल ट्रस्ट की जमीन के मामले में। 10 फऱवरी 2022 को इनके बेटे राघव रेड्डी को गिरफ़्तार कर लिया गया।
10 फऱवरी से 16 जुलाई तक राघव रेड्डी के सात बयान लिए जाते हैं, मंगुट्टा रेड्डी के तीन बयान लिए जाते हैं। जब बाप-बेटे का तीन और सात मिलाकर 10 बयान होता है, और आठ बयानों में वे केजरीवाल के खिलाफ नहीं बोलते हैं। एक-दो बयानों में बोलते हैं, उन लोगों को जमानत मिल जाती है। राघव रेड्डी को 18 जुलाई को जमानत मिल जाती है।
एक सबसे बड़ी बात जो आठ बयान केजरीवाल जी के खिलाफ नहीं दिए गए थे, उन्हें ईडी ने छिपा दिया। उसको कोर्ट के सामने नहीं रखा। शरद रेड्डी को 2022 में गिरफ्तार किया गया। 12 बयानों में नाम नहीं लेते हैं और अंतिम के एक-दो बयानों में लेने के बाद ही उनकी जमानत हो जाती है ।
शरद रेड्डी 10 नवंबर ईडी की हिरासत में जाते हैं और 15 नवंबर को 5 करोड़ की रिश्वत भाजपा को पेश करवाते हैं। अपनी गिरफ़्तारी से लेकर उसके बाद तक कुल वह 55 करोड़ रुपये भारतीय जनता पार्टी को देते हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए।
सवाल- लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए पैसे तो आम आदमी पार्टी को भी मिले हैं?
संजय सिंह- हम तो कह रहे हैं कागज़ातों की जाँच करवाइए। भाजपा का जो सच है, जिसमें उनका घोटाला सामने आ रहा है उसपर जाँच क्यों नहीं करवा रहे।
सवाल- दिल्ली में संवैधानिक संकट हुआ तो आप लोग क्या करेंगे?
संजय सिंह- इसका कोई सवाल ही नहीं है। दिल्ली का काम चल रहा है। हमारे मंत्री अच्छे से काम कर रहे हैं। मणिपुर एक साल से जल रहा है। वहां पर करगिल के फौजी की पत्नी को निर्वस्त्र कर के घुमाया जाता है। हिंसा हो रही है, दंगे हो रहे हैं और वहां के मुख्यमंत्री को तो भाजपाई माला पहनाकर, कंधे पर लेकर घूम रहे हैं। वहां कोई संकट नहीं?
सवाल- आप कहते हैं कि केंद्रीय जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है बीजेपी, लेकिन राहुल गांधी, ममता बनर्जी पर भी आरोप है। लेकिन वो जेल में नहीं हैं?
संजय सिंह- उनके ख़िलाफ़ भी तो हो ही रहा है दुरुपयोग। मुकदमे हो रहे हैं। उनको भी जेल में डाल देंगे।
सवाल- अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनी तो क्या पीएमएलए के सख्त प्रावधानों को हटाएंगे, क्या ईडी की पावर को कम करेंगे?
संजय सिंह- वो मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उसपर फैसला आने दीजिए। न्यायालय पर भरोसा करते हैं।
सवाल- मौजूदा विपक्ष में लोकतंत्र को बचाने की ताकत है?
संजय सिंह-अगर ताकत नहीं है तो पैदा करनी पड़ेगी। कोई विकल्प नहीं है। इंडिया गठबंधन इस बार चुनाव जीतेगा और बीजेपी हारेगी। एनडीए हारेगा और इसी घबराहट का नतीजा है कि ये गिरफ्तारियां हो रही हैं। कोई भी राजनेता इस समय में ऐसे काम नहीं करता है, जो काम मोदी जी कर रहे हैं।
अगर ये 400 पार कर रहे होते तो क्या जरूरत थी केजरीवाल और हेमंत सोरेन को गिरफ्तार करने की। इसका मतलब घबराहट है। इसका मतलब मोदी जी जान रहे हैं कि नीचे सब कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि पिछले चुनाव में तो सैचुरेशन पॉइंट पर था सब। हर जगह जीते ही थे, तो अब नीचे ही आना है न।
सवाल- पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार पर आलोचकों को दबाने के आरोप पर क्या कहेंगे?
संजय सिंह- आम आदमी पार्टी की सरकार में पंजाब के अंदर भी कहीं दुर्भावना से काम नहीं किया। वहां भी हम शिक्षा, स्वास्थ्य के मॉडल पर काम कर रही है। हमने तो गलत पाने के बाद अपने मंत्री पर भी केस किया। सिर्फ विपक्ष पर ही थोड़े कार्रवाई कर रहे हैं। (bbc.com/hindi)
सर्वप्रिया सांगवान
आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को इसी सप्ताह सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत मिली, जिसके बाद वह जेल से बाहर आए हैं।
दिल्ली की आबकारी नीति में कथित घोटाले के आरोप में वह करीब छह महीने से जेल में बंद थे।
इसी मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी जेल में बंद हैं।
बाहर निकलने के बाद संजय सिंह ने बीबीसी की सर्वप्रिया सांगवान के साथ खास बातचीत में शराब नीति में कथित भ्रष्टाचार के केस, इंडिया गठबंधन, लोकतंत्र, नेताओं के एक पार्टी से दूसरे में जाने और आगामी लोकसभा चुनाव पर अपनी राय रखी।
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सवाल- जब जेल में पता चला कि अरविंद केजरीवाल भी गिरफ़्तार हो गए हैं, तब कैसा लगा? क्या ऐसा लगा कि सब ख़त्म हो गया?
संजय सिंह- एक पल को बहुत तकलीफ हुई। उस समय मुझे ये लगा कि इस समय मुझे बाहर होना चाहिए था, तो मैं और मजबूती से लड़ पाता। लेकिन फिर जब मैंने देखा कि हमारे कार्यकर्ता लाठियां खा रहे हैं, घसीटे जा रहे हैं, विधायकों को, मंत्रियों को बसों में भरा जा रहा है, फिर भी वो एकदम संघर्ष कर रहे हैं, तो बड़ा अच्छा लगा।
अगर पार्टी के लिहाज से देखेंगे तो हमारे सबसे बड़े नेता और हमारे मुखिया को जेल में डाल दिया। ये पार्टी खत्म करने की साजिश है बीजेपी की। उसी को लेकर इन्होंने सारे खेल किए हैं, लेकिन ये कामयाब नहीं होंगे। हम लोग इनसे पहले भी लड़ते रहे हैं और आगे भी लड़ते रहेंगे।
सवाल- बहुत लोग जेल से डरते हैं। क्या है ये जेल जाने का डर?
संजय सिंह- बाहर बैठे व्यक्ति की जेल के बारे में धारणा है कि चार खाने वाला कुर्ता होता है, उसी का पायजामा होता है, टोपी लगानी है और पत्थर तोडऩा होता है। ऐसा कुछ नहीं होता है आज की जेलों में। आज की जेलें बहुत परिवर्तित हो चुकी हैं। दूसरी बात है कि कष्ट होता है, इसमें कोई दोराय नहीं।
11 दिनों तक मुझे एक कोठरी में रखा गया। लोगों से मिलने की इजाजत नहीं थी। छह महीने तक जब तक जेल में रहा, खुद से अपना सारा काम किया। बर्तन मांजना, कपड़े धोना, झाड़ू लगाना हो। सब किया। छह महीने इस जेल के दौरान दूसरा अच्छा पक्ष ये है कि उतनी किताबें पढ़ीं, जितनी छह साल में नहीं पढ़ पाता। फोन नहीं थे हमारे पास, दिन में थोड़ी देर सो लेते थे। म्यूजिक़ रूम में गाना गाने पहुंच जाता था।
मैं आज की तारीख में देखता हूं कि ये नेता डर के चला गया, वो चला गया। डरिए मत। क्योंकि इससे लोगों का विश्वास टूटता है। आज आप बीजेपी के खिलाफ बोल रहे हैं, कल को आप बीजेपी का झंडा उठा ले रहे हैं, सिर्फ ईडी-सीबीआई के डर से। क्या हो जाएगा, राजनीति कर रहे हैं, चार-छह महीने जेल में रहना पड़ेगा तो कोई बात नहीं। कितने क्रांतिकारियों, राजनेताओं ने जेल काटी है।
मैं ये लोगों से कहूंगा कि इस वक्त देश के अंदर जो तानाशाह सरकार है, जो निर्वाचित सरकारों को तोड़ती है, गिराती है, विधायकों को खरीदती है, डराती-धमकाती है, डरो मत। डरोगे तो कायर के रूप में याद किए जाओगे, लड़ोगे तो बहादुर के रूप में याद किए जाओगे।
संजय सिंह को जमानत मिलने से क्या आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनावों में फायदा होगा?
सवाल- शराब नीति में कुछ तो हुआ होगा कि ईडी ने इतनी बड़ी कार्रवाई कर दी?
संजय सिंह- मुझे लगता है कि दिल्ली में तो किसी दिन हंसी घोटाला भी आ जाएगा। कहा जाएगा कि 15 मिनट हंसने का टाइम है, आम आदमी पार्टी वाले तो 18 मिनट तक हंसे। हमारे खिलाफ आज से नहीं, 2015 से लगे हैं ये लोग। आपको याद होगा तब भी केजरीवाल जी के दफ्तर में सीबीआई का छापा पड़ा था। तब भी इस्तीफा मांग रहे थे।
(संजय सिंह एक शख्स की प्रधानमंत्री मोदी के साथ तस्वीर दिखाते हुए) मोदी जी के साथ फोटो में मंगुटा रेड्डी हैं, जिनको ईडी शराब का घोटालेबाज कह रही थी और उनके बेटे को गिरफ्तार किया था शराब घोटाले में। अब 2024 में ये प्रधानमंत्री मोदी की फ़ोटो लगाकर वोट मांग रहे हैं।
मंगुट्टा रेड्डी साहब के घर ईडी का छापा पड़ा। इनसे पूछा गया केजरीवाल जी को जानते हो। इन्होंने कहा हां मिले थे चैरिटेबल ट्रस्ट की जमीन के मामले में। 10 फऱवरी 2022 को इनके बेटे राघव रेड्डी को गिरफ़्तार कर लिया गया।
10 फऱवरी से 16 जुलाई तक राघव रेड्डी के सात बयान लिए जाते हैं, मंगुट्टा रेड्डी के तीन बयान लिए जाते हैं। जब बाप-बेटे का तीन और सात मिलाकर 10 बयान होता है, और आठ बयानों में वे केजरीवाल के खिलाफ नहीं बोलते हैं। एक-दो बयानों में बोलते हैं, उन लोगों को जमानत मिल जाती है। राघव रेड्डी को 18 जुलाई को जमानत मिल जाती है।
एक सबसे बड़ी बात जो आठ बयान केजरीवाल जी के खिलाफ नहीं दिए गए थे, उन्हें ईडी ने छिपा दिया। उसको कोर्ट के सामने नहीं रखा। शरद रेड्डी को 2022 में गिरफ्तार किया गया। 12 बयानों में नाम नहीं लेते हैं और अंतिम के एक-दो बयानों में लेने के बाद ही उनकी जमानत हो जाती है ।
शरद रेड्डी 10 नवंबर ईडी की हिरासत में जाते हैं और 15 नवंबर को 5 करोड़ की रिश्वत भाजपा को पेश करवाते हैं। अपनी गिरफ़्तारी से लेकर उसके बाद तक कुल वह 55 करोड़ रुपये भारतीय जनता पार्टी को देते हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए।
सवाल- लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए पैसे तो आम आदमी पार्टी को भी मिले हैं?
संजय सिंह- हम तो कह रहे हैं कागज़ातों की जाँच करवाइए। भाजपा का जो सच है, जिसमें उनका घोटाला सामने आ रहा है उसपर जाँच क्यों नहीं करवा रहे।
सवाल- दिल्ली में संवैधानिक संकट हुआ तो आप लोग क्या करेंगे?
संजय सिंह- इसका कोई सवाल ही नहीं है। दिल्ली का काम चल रहा है। हमारे मंत्री अच्छे से काम कर रहे हैं। मणिपुर एक साल से जल रहा है। वहां पर करगिल के फौजी की पत्नी को निर्वस्त्र कर के घुमाया जाता है। हिंसा हो रही है, दंगे हो रहे हैं और वहां के मुख्यमंत्री को तो भाजपाई माला पहनाकर, कंधे पर लेकर घूम रहे हैं। वहां कोई संकट नहीं?
सवाल- आप कहते हैं कि केंद्रीय जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है बीजेपी, लेकिन राहुल गांधी, ममता बनर्जी पर भी आरोप है। लेकिन वो जेल में नहीं हैं?
संजय सिंह- उनके ख़िलाफ़ भी तो हो ही रहा है दुरुपयोग। मुकदमे हो रहे हैं। उनको भी जेल में डाल देंगे।
सवाल- अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनी तो क्या पीएमएलए के सख्त प्रावधानों को हटाएंगे, क्या ईडी की पावर को कम करेंगे?
संजय सिंह- वो मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उसपर फैसला आने दीजिए। न्यायालय पर भरोसा करते हैं।
सवाल- मौजूदा विपक्ष में लोकतंत्र को बचाने की ताकत है?
संजय सिंह-अगर ताकत नहीं है तो पैदा करनी पड़ेगी। कोई विकल्प नहीं है। इंडिया गठबंधन इस बार चुनाव जीतेगा और बीजेपी हारेगी। एनडीए हारेगा और इसी घबराहट का नतीजा है कि ये गिरफ्तारियां हो रही हैं। कोई भी राजनेता इस समय में ऐसे काम नहीं करता है, जो काम मोदी जी कर रहे हैं।
अगर ये 400 पार कर रहे होते तो क्या जरूरत थी केजरीवाल और हेमंत सोरेन को गिरफ्तार करने की। इसका मतलब घबराहट है। इसका मतलब मोदी जी जान रहे हैं कि नीचे सब कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि पिछले चुनाव में तो सैचुरेशन पॉइंट पर था सब। हर जगह जीते ही थे, तो अब नीचे ही आना है न।
सवाल- पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार पर आलोचकों को दबाने के आरोप पर क्या कहेंगे?
संजय सिंह- आम आदमी पार्टी की सरकार में पंजाब के अंदर भी कहीं दुर्भावना से काम नहीं किया। वहां भी हम शिक्षा, स्वास्थ्य के मॉडल पर काम कर रही है। हमने तो गलत पाने के बाद अपने मंत्री पर भी केस किया। सिर्फ विपक्ष पर ही थोड़े कार्रवाई कर रहे हैं। (bbc.com/hindi)
विक्रांत दुबे
अजय राय की पहचान उत्तरप्रदेश के वैसे राजनेता की है, जिसने हर दल का दामन थामा, चुनाव भी जीते और एक दल से दूसरे दल में जिनकी आवाजाही होती रही है।
अजय राय इन दिनों उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से कांग्रेस के उम्मीदवार भी। इन दोनों भूमिकाओं में वे कितने कामयाब होते हैं, ये चुनावी नतीजों से तय होगा।
लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस ने उन्हें उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाकर उनकी राजनीतिक हैसियत काफी बढ़ा दी। ये पद उन्हें कुछ ही महीने पहले तब मिला, जब राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद विपक्षी दलों ने कांग्रेस की अगुवाई में बीजेपी के खिलाफ एक प्लेटफॉर्म तैयार किया और उसका नाम ‘इंडिया’ रखा था।
हालांकि उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई लोग यह पूछते हैं कि आखिर अजय राय को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का अध्यक्ष क्यों बनाया?
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ला इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं। उनके अनुसार, ‘यूपी में अपनी खोई हुई सियासी ज़मीन पाने के लिए कांग्रेस लगातार प्रयोग करती रही है। इसी कड़ी में कांग्रेस को यूपी में प्रदेश अध्यक्ष के लिए एक ऐसे चेहरे की दरकार थी जो जुझारू हो और जनता से कांग्रेस को जोड़ सके।’
पीएम मोदी के खिलाफ
शुक्ला कहते हैं, ‘अजय राय की अपनी ख़ुद की एक अलग हैसियत है, एक अलग व्यक्तित्व है। उनकी छवि एक ताकतवर और आक्रामक नेता की है। जो राहुल गांधी की मौजूदा उग्र कार्य शैली में ज़्यादा सटीक बैठते हैं। ऐसे में कांग्रेसी रणनीतिकारों को लगा कि ऐसा चेहरा उनके लिए मुफ़ीद होगा।’
ज्ञानेंद्र शुक्ला के अनुसार, ‘कांग्रेस ने इस बात की भी परवाह नहीं की कि अजय राय के खिलाफ 16 मुकदमे दर्ज हैं और वो हिंदुत्व की प्रयोगशाला से निकले हुए हैं। उनका बैकग्राउंड संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, बीजेपी का रहा है।’
वे कहते हैं, ‘अजय राय ने पीएम मोदी के खिलाफ दो बार चुनाव लडऩे का साहस दिखाया इसलिए कांग्रेस को वो सारे गुण अजय राय में नजऱ आए जो मौजूदा वक़्त में उन्हें प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने वाले शख़्स में चाहिए थे।’
कांग्रेस और सपा इस बार उत्तर प्रदेश में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस को 17 सीटें मिली हैं जो कुछ विश्लेषकों की राय में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदा राजनीतिक शक्ति की तुलना में कहीं ज़्यादा है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजि़मी है कि आखिर कांग्रेस 17 सीटें पाने में कैसे कामयाब हो गई?
कांग्रेस-सपा गठबंधन
कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसका श्रेय यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को देते हैं। हालांकि यह कहना मुश्किल है कि सीटों की बातचीत को लेकर किसकी क्या भूमिका रही होगी।
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र शुक्ला कहते हैं कि ‘कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कई मौक़ों पर अजय राय ने अखिलेश यादव पर निशाना साधा। उनके खिलाफ जब वो बयान दे रहे थे तो ऐसे बिगड़े बोल उस वक्त कांग्रेसी ख़ेमे को भी भा रहे थे, क्योंकि मध्य प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के दरम्यान तल्खी आ गई थी।’
ज्ञानेंद्र शुक्ला के अनुसार, यह कांग्रेस की पुरानी प्रेशर बिल्डअप तकनीक है। राज्य स्तर पर नेता को लड़ाते और ज़रूरत पडऩे पर शांत करा देते हैं। यहाँ भी यही हुआ।
वो कहते हैं, ‘कांग्रेस के आलाकमान ने इन बयानों का संज्ञान लिया। अखिलेश यादव से बातचीत करने के बाद अजय राय को दिल्ली बुलाकर उन्हें समझाया गया।’
कांग्रेस ने पूर्वांचल में दबंग छवि वाले इन्हीं अजय राय को पिछली बार की तरह नरेन्द्र मोदी के खिलाफ अपना प्रत्याशी घोषित किया है।
अजय राय का कद पिछले कुछ महीनों में बढ़ा है लेकिन पीएम मोदी के खिलाफ बनारस में वोट बटोरना आसान नहीं है।
पिछले दो लोकसभा चुनावों में तीसरे नंबर पर
बीते दो लोकसभा चुनावों में अजय राय मोदी के खिलाफ दूसरे नंबर पर भी नहीं पहुंच पाए थे। साल 2014 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो अजय राय तीसरे नंबर पर रहे थे।
तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार यहां चुनाव लडऩे आए थे, उन्हें पांच लाख 81 हज़ार से ज़्यादा वोट मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने दो लाख से ज़्यादा वोट हासिल किया था। अजय राय को 75 हजार के करीब वोट मिले थे।
साल 2019 में अजय राय ने अपने वोट तो बढ़ाए लेकिन तीसरे नंबर से आगे नहीं बढ़ सके। इस बार उन्हें एक लाख 52 हजार 548 वोट मिले थे। जबकि नरेंद्र मोदी छह लाख 75 हजार के करीब वोट हासिल करने में कामयाब हुए थे।
साल 2019 के वोटों के आधार पर आंकलन किया जाए तो अजय राय बनारस में ऐसे प्रत्याशी हैं जिन्हें उनकी बिरादरी यानि की भूमिहार वोटों का भी भरपूर लाभ मिलता है। यह उसी का परिणाम था कि 2009 में कोलअसला विधानसभा उपचुनाव में उन्हें निर्दलीय जीत हासिल हुई थी।
कांग्रेसियों में नाराजगी
साल 2024 में पिछले वोटों के समीकरण को देखा जाए तो इस बार हालात थोड़े बदल सकते हैं। इस बार यूपी में सपा और कांग्रेस एक साथ हैं। इन दोनों के पिछले बार के वोट प्रतिशत को अगर मिला लिया जाए तो यह 32.8 प्रतिशत होता है।
जबकि वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वोट प्रतिशत अकेले 63.6 है, पर इसमें भी एक पेच है। पिछली बार सपा और बसपा एक साथ लड़े थे, लेकिन इस बार बसपा इस गठबंधन से दूर है।
कांग्रेस के साथ एक दूसरी मुश्किल ये भी है कि अजय राय को जब उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष बनाया गया तो पुराने दिग्गज कांग्रेसियों में नाराजगी बढ़ी।
चुनाव से ठीक पहले बनारस से सांसद रहे राजेश मिश्रा कांग्रेस का दामन छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए।
राजेश मिश्रा का कहना है कि, ‘अजय राय अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाएंगे। जीत-हार की बात तो दूर की है। वो यहां से लडऩा ही नहीं चाहते थे। आप सब लोग जानते हैं अजय राय गाजीपुर या बलिया से टिकट मांग रहे थे, लेकिन कांग्रेस के पास बनारस के लिए कोई नेता ही नहीं है।’
‘काशी का लाल हूँ, काशी मेरे लिए लड़ेगी’
दैनिक जागरण, वाराणसी के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार भारतीय बंसत का कहना है, ‘अजय राय मजबूती से चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस की उपस्थिति दर्ज कराएंगे। लेकिन मोदी की जीत पर कहीं कोई संदेह नहीं है। हां जीत-हार के अंतर पर बात की जा सकती है।’
हो सकता है कि अजय राय का वोट प्रतिशत थोड़ा बढ़ जाए क्योंकि वो जुझारू व्यक्ति हैं और इस बार सपा के साथ कांग्रेस का गठबंधन भी है।
बनारस के राजनैतिक परिदृश्य पर गंभीरता से नजऱ रखने वाले डीएवी डिग्री कालेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ सत्यदेव सिंह कहते हैं कि बीजेपी, ख़ासकर मोदी की बीजेपी अब कोई सामान्य पार्टी नहीं रही।
‘हर चुनाव में वो राष्ट्रीय से लेकर लोकल मुद्दों को वोट के आधार पर केन्द्रित करती है। नरेंद्र मोदी को सिफऱ् चुनाव नहीं जीतना है बल्कि उन्हें जीत का रिकॉर्ड भी बढ़ाना है। विश्वनाथ कॉरिडोर, अयोध्या के साथ ज्ञानवापी भी एक बड़ा मुद्दा है।’
इसीलिए बनारस में मोदी समर्थकों ने ‘मोदी निर्विरोध’ के होर्डिंग भी लगा दिए हैं।
अजय राय के आने से मोदी समर्थकों का यह सपना पूरा नहीं होता दिख रहा है। अजय राय पिछले 30 सालों में 10 से अधिक चुनाव लड़ चुके हैं।
अजय राय को कांग्रेस की मजबूरी माना जा रहा है क्योंकि पार्टी के पास मोदी के खिलाफ कोई ऐसा प्रत्याशी नहीं है जो ख़ुद को अजय राय से बेहतर साबित कर सके।
वाराणसी संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवारी घोषित होने के बाद अजय राय ने बीबीसी को बताया, ‘मैं इसी बनारस की पैदाइश हूँ, माँ गंगा की गोद में जन्मा हूँ, माँ गंगा की गोद में ही समा जाऊंगा। कांग्रेस के संगठन में सारी जिम्मेदारियां बँटी हुई हैं, ऐसे में ये सिर्फ मेरे ऊपर ही नहीं, बल्कि सबके ऊपर है और सभी लोग अपनी जि़म्मेदारियों को निभाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’
भाई की हत्या के बाद शुरू हुआ राजनैतिक सफर
नब्बे के दशक में उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल, गैंगवार के लिए जाना जाता था। जिसका केन्द्र-बिंदु बनारस था।
गोरखपुर में हरिशंकर तिवारी और वीरेन्द्र प्रताप शाही हो या फिर गाजीपुर बनारस में नया-नया पनप रहा मुख़्तार अंसारी और बृजेश सिंह गैंग।
अजय राय के बड़े भाई अवधेश राय बृजेश सिंह और कृष्णानंद राय के साथ थे। ये लोग मुख्तार अंसारी के खिलाफ थे।
साल 1991 में वाराणसी के चेतगंज में दिनदहाड़े अवधेश राय की हत्?या कर दी गयी। इसका आरोप मुख़्तार अंसारी गैंग पर लगा था।
32 साल लंबी क़ानूनी लड़ाई के बाद जून, 2023 में मुख़्तार अंसारी को इस मामले में उम्रकै़द की सजा मिली थी। इस लंबी लड़ाई के चलते भी अजय राय सुर्खियों में रहे।
लेकिन बड़े भाई की हत्या के बाद छोटे भाई अजय राय पर परिवार की जिम्मेदारियों के साथ बड़े भाई के प्रभाव और दुश्मनियों का बोझ भी आ गया। गैंगवार चरम पर था। ऐसे में अजय राय ने राजनैतिक संरक्षण के लिए एबीवीपी से होते हुए बीजेपी में एंट्री ले ली।
इस बीच अलग-अलग मामलों में बनारस से लेकर लखनऊ तक अलग-अलग थानों में उनके खिलाफ 16 मुकदमे दर्ज हुए।
साल 2015 में अखिलेश यादव की सरकार के समय गंगा में मूर्ति विसर्जन पर रोक के आदेश के विरोध में प्रदर्शन करने पर इन पर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून) लगाकर इन्हें जेल भेज दिया गया, महीनों तक ये जेल में रहे।
नौ बार के विधायक को हराया
अजय राय के राजनैतिक सफर की औपचारिक और मजबूत शुरुआत 1996 में हुई।
तब उन्होंने पहली बार कोलअसला से चुनाव लड़ा और नौ बार के विधायक कॉमरेड उदल को हराने में कामयाब रहे।
कोलअसला को उदल का अभेद्य किला कहा जाता था। पर अजय राय ने कोलअसला में उदल के किले को जमींदोज कर दिया।
जीत का अंतर 488 वोटों का था, लेकिन इस जीत ने अजय को कोलअसला का हीरो बना दिया।
यहां से अजय राय तीन बार 1996 से 2007 तक बीजेपी के विधायक रहे। 2003 में बीजेपी और बसपा की गठबंधन सरकार में ये सहकारिता राज्य मंत्री भी बने।
टिकट नहीं मिला तो छोड़ दी बीजेपी
साल 2007 में विधानसभा की जीत के बाद अजय राय की महत्वाकांक्षा परवान चढ़ी और ये दिल्ली की ओर देखने लगे। ये कहीं से गैरवाजिब भी नहीं था, क्योंकि बनारस से लगातार तीन बार बीजेपी के सांसद रहे शंकर प्रसाद जायसवाल 2004 में चुनाव हार गये थे।
वाराणसी सीट पर कांग्रेस के राजेश मिश्रा ने जीत दर्ज की। लिहाज़ा 2009 में अजय राय ने वाराणसी संसदीय सीट पर अपनी दावेदारी मज़बूती से ठोकी।
लेकिन पार्टी ने अपने कद्दावर नेता मुरली मनोहर जोशी को यहां से टिकट दे दिया। बीजेपी के निर्णय का विरोध करते हुए अजय ने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाया और चुनावी रिंग में आ गए। इस चुनाव में बीएसपी के मुख्तार अंसारी ने एंट्री मारकर चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया। जोशी की जीत हुई और उन्हें मुख़्तार अंसारी ने कड़ी टक्कर दी। अजय राय तीसरे नंबर पर रहे।
पार्टी छोड़ देने के कारण अजय राय की सदस्?यता चली गयी लिहाज़ा 2009 में ही निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते भी। इसके बाद 2012 में उन्?होंने कांग्रेस का हाथ थामा और विधानसभा चुनाव जीता। तब कोलअसला विधानसभा का नाम परिसीमन के बाद पिंडरा हो चुका था। लगातार पांच बार विधानसभा जीत का ये क्रम 2014 के बाद थम गया।
फिर शुरू हुआ हार का सिलसिला
अजय राय ने 2014 में मोदी के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और मुंह की खायी।
यही नहीं, नौ बार के विधायक उदल से छीनी हुई पिंडरा विधानसभा सीट पर अजय राय 2017 में हार गए।
फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी सीट पर नरेन्द्र मोदी से हार गए।
साल 2022 विधानसभा चुनाव में उनकी परंपरागत पिंडरा सीट से भी मतदाताओं ने उन्हें बेदख़ल कर दिया और बीजेपी के अवधेश सिंह लगातार दूसरी बार विधायक बने।
अब देखना ये है कि 2024 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ किस रणनीति के तहत अजय राय अपना और कांग्रेस का वोट बढ़ाएंगे। (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती के बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने जिस तेज गति से इलेक्टोरल बॉन्ड की सूचना केंद्रीय चुनाव आयोग को उपलब्ध कराई है चुनाव आयोग ने उसी तेज गति से तमाम सूचना अपनी वेबसाइट के माध्यम से सार्वजनिक पटल पर रख दी है। इस पूरे प्रकरण में यह तो साफ हो गया कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे सार्वजनिक उपक्रम सरकार के कितने दबाव या डर डर कर काम कर रहे हैं। इलेक्टोरल बॉन्ड के चंदे की सामग्री बाहर आने से यदि विपक्षी गठबंधन इंडिया को नुकसान होने की संभावना होती तो इस तरह हीलाहवाली करने की जगह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय समय सीमा से पहले ही सब जानकारी उपलब्ध करा देता।
जो सूचना डिजिटल युग में कुछ सेकंड्स या मिनट में उपलब्ध कराई जा सकती थी उसके लिए स्टेट बैंक आफ इंडिया का तीन महीने से ज्यादा समय मांगना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की जान बूझकर अवमानना करने की श्रेणी में आता है। वह तो सबसे बडी अदालत ने सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक को दया कर बख्श दिया अन्यथा उसके चेयरमैन को अपने पद से हाथ धोना पड़ सकता था। केन्द्र सरकार से अपने लाडले बैंक को कोई सजा देने की उम्मीद करना व्यर्थ है क्योंकि स्टेट बैंक तो लोकसभा चुनाव से पहले केन्द्र सरकार की किरकिरी होने से बचाने के लिए ही हीलाहवाली कर रहा था।
यह देखना निश्चित रुप से आशान्वित करता है कि अपने कर्तव्य निभाता निष्पक्ष मीडिया का एक वर्ग जिस तरह से सार्वजनिक हुए इलेक्टोरल बॉन्ड की चीर फाड़ कर रहा है वह निकट भविष्य में केन्द्र और राज्य सरकारों के अधीन कार्य करने वाली आर्थिक अपराध जांच एजेंसियों यथा ई डी, सी बी आई, आई टी, सी आई डी और ई ओ डबल्यू आदि के लिए प्रशिक्षण का काम कर सकता है बशर्ते केन्द्र और राज्यों की सरकारें उन्हें अपना काम ठीक से करने की आज़ादी दें।जिस तरह से मीडिया में नए नए खुलासे हो रहे हैं उनसे पता चलता है कि बहुत सी ऐसी कंपनियों ने सत्ताधारी दल को चंदा दिया है जिन पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की छापेमारी हुई है या उन पर आपराधिक मामले दर्ज किए हैं। कई कंपनियां ऐसी भी हैं जिन्हें चंदा देने के बाद सरकारी विभागों से काफी बडा काम मिला है। इसी तरह कई कंपनियों ने सरकारी विभागों से बड़े काम मिलने के बाद चंदा दिया है।कहीं धंधे से पहले चंदा, कहीं चंदे के बाद धंधा, कहीं जांच एजेंसियों की रेड के बाद चंदा, और कहीं एफ आई आर दर्ज होने के बाद चंदा दिया जाना प्रथम दृष्टया यह संदेह पैदा करता है कि दागी और सत्ता से लाभ पाने वाली कंपनियों ने सत्ताधारी दल को खुश करने के लिए विविध रूप से चंदा दिया है जो भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है।
यही कारण है कि विपक्षी दल इसे भ्रष्टाचार के विविध रूपों में देख रहे हैं और इसे जबरन धन वसूली, चौथ और हफ्ता वसूली आदि नाम दे रहे हैं।जिस तरह बहुत से थाने अपराधियों से हफ्ता वसूली के लिए बदनाम होते हैं इस मामले में कुछ उसी तरह की बदनामी केंद्र सरकार को झेलनी पड़ रही है।
केंद्र सरकार को यह उम्मीद नहीं रही होगी कि सर्वोच्च न्यायालय इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक करार दे कर इसकी पारदर्शिता पर लगाई सरकारी लगाम को तार तार कर देगा। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों की खोजी पत्रकारिता ने चंदा देने वाली कम्पनियों की जन्मकुंडली खंगालना शुरू कर दिया है जिसमे यह जानकारी भी सामने आई है कि कई कंपनियों ने अपने कुल लाभ से भी ज्यादा चंदा दिया है जो अकल्पनीय है। अब देखना यह भी है कि क्या कोई बहादुर फिल्म निर्माता इस विषय पर भी चंदा फाइल्स नाम से फि़ल्म बनाएगा।
दिनेश श्रीनेत
अस्सी के दशक तक आते-आते मुख्यधारा और समांतर सिनेमा दोनों की हिंदी साहित्य से दूरी बनने लगी। यह जोखिम भरा निष्कर्ष है मगर ऐसा लगता है कि सिनेमा अपने आसपास के जिस बदलते हुए यथार्थ को दर्ज करना चाहता था, हिंदी में वैसी कहानियां या उपन्यास अस्सी और नब्बे के दशक में नहीं लिखे जा रहे थे।
भारत जिस तरह के सामाजिक राजनीतिक बदलाव से गुजर रहा था, वैसे तीखेपन वाली रचनाएं हिंदी साहित्य में नहीं मिल रही थीं। नई कहानी के बाद का दौर छोटे-छोटे आंदोलनों की भेंट चढ़ गया। सचेतन कहानी, साठोत्तरी पीढ़ी, अकहानी जैसे आंदोलन उठे और बुलबुलों की तरह शांत हो गए।
इस बीच सिनेमा में बहुत से निर्देशकों ने मराठी कहानियों और उपन्यासों को अपनी फिल्मों का आधार बनाया। श्याम बेनेगल ने हंसा वाडकर की रचना पर ‘भूमिका’, गोविंद निहलानी ने एसडी पानवलकर की कहानी पर ‘अर्ध सत्य’ और रवींद्र धर्मराज ने जयवंत दलवी की कहानी पर 'चक्र' जैसी फिल्में बनाई जो बेहद चर्चित और सफल रहीं।
हालांकि श्याम बेनेगल ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ से एक बार फिर हिंदी साहित्य की तरफ मुड़े। गोविंद निहलानी ने भी भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ पर एक टीवी सिरीज़ बनाई जिसे बाद में संपादित करके फिल्म का रूप दिया गया। ‘तमस’ एमएस सथ्यू की ‘गर्म हवा’ के बाद भारत विभाजन बनी सबसे सशक्त फिल्म कही जा सकती है।
इसी तरह से केतन मेहता ने गुजराती साहित्य को आधार बनाया, चुनीलाल मडिया की कहानी पर आधारित उनकी फिल्म ‘मिर्च मसाला’ बेहद सफल रही और इसी के साथ समांतर सिनेमा आंदोलन का पटाक्षेप होता भी दिखा। वहीं दूसरी तरफ टेलीविजन साहित्य की तरफ मुड़ता दिख रहा था। दूरदर्शन की इसमें बड़ी भूमिका रही है। हिंदी की साहित्यिक रचनाओं पर आधारित ‘चंद्रकांता’, ‘राग दरबारी’, ‘कब तक पुकारूं’, ‘मुझे चांद चाहिए’, ‘कक्काजी कहिन’, ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ जैसे धारावाहिक इस दौरान सामने आए और सफल रहे।
लेकिन कुल मिलाकर हिंदी साहित्य सिनेमा के लिए अप्रासंगिक होता चला गया। इस बीच छुटपुट फिल्में आती रहीं, जिसमें संजय सहाय की कहानी पर बनी गौतम घोष की ‘पतंग’, शिवमूर्ति की कहानी पर ‘तिरिया चरित्तर’ और चंद्रप्रकाश द्विवेदी की काशीनाथ सिंह की रचना पर आधारित ‘मोहल्ला अस्सी’ जैसी फिल्मों का नाम लिया जा सकता है।
साहित्यिक रचनाओं पर फिल्में बनाने वाले एक उल्लेखनीय निर्देशक विशाल भारद्वाज सामने आए मगर उन्होंने अपनी अधिकतर फिल्मों का आधार शेक्सपीयर के नाटक या रस्किन बांड की कहानियों और रचनाओं को बनाया। दूसरी तरफ देखते-देखते लोकप्रिय अंगरेजी लेखक चेतन भगत भी फिल्मकारों की पसंद बन गए।
इसी बीच अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज के साथ-साथ फिल्मकारों की एक बिल्कुल नई पीढ़ी सामने आई, जिसने छोटे शहरों, कस्बों के जीवन को सिनेमा के पर्दे पर उतारना शुरू किया। सिनेमा पहले के मुकाबले अब ज्यादा यथार्थवादी हुआ है और व्यावसायिक और कलात्मक सिनेमा का विभाजन भी खत्म हुआ है।
हिंदी सिनेमा की इस नई धारा ने बहुत सारे अछूते विषयों को छुआ है। डार्क ह्यूमर ने सिनेमा के पर्दे पर जगह पाई है। ‘लंच बॉक्स’, ‘मसान’, ‘गली गुइयां’, ‘पगलैट’, ‘न्यूटन’, ‘अलीगढ़’, ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्मों को देखकर यह लगता है कि जिस यथार्थ तक इस दौर का सिनेमा प्रस्तुत कर पा रहा है, हिंदी का कथा साहित्य बहुत पीछे छूट गया है।
बीते एक दशक से हिंदी कथा साहित्य अपनी शर्तों पर कोई पहचान नहीं बना सका, न ही मौजूदा दौर में लिखने वाले अपने परवर्ती लेखकों से कथ्य या प्रस्तुति के मामले में आगे बढ़ते दिख रहे हैं। बेस्ट सेलर की होड़ में कई ठीक-ठाक लेखक भी औसत दर्जे की लोकप्रिय रचनाएं लिखने की कोशिश में लग गए हैं।
इन दिनों खूब किताबें छप रही हैं। बहुत सी कहानियों और उपन्यासों पर वेब सिरीज और फिल्में बनने की चर्चा भी है, लेकिन वहां साहित्य अपनी शर्तों पर मौजूद नहीं है। साहित्य ने तय कर लिया है कि हमें सिनेमा बनना है, सिनेमा साहित्य बनने की तरफ बढ़ सके ऐसी कोशिशें ख़त्म हो गई हैं। नई धारा का सिनेमा कहीं आगे निकल चुका है।
(हिंदी अकादमी, दिल्ली की पत्रिका में प्रकाशित आलेख का अंश)
-संजना
08 अप्रैल को लगने वाले सूर्य ग्रहण को लेकर खगोलशास्त्रियों में जहां उत्साह है तो वहीं परंपरा और मान्यताओं को प्राथमिकता देने वालों में बेचैनी भी है। हालांकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट कर दिया है कि करीब 50 साल बाद लंबी अवधि के लिए लगने वाला यह सूर्य ग्रहण भारत में नजर नहीं आएगा, इसके बावजूद विज्ञान से अधिक रीति रिवाजों को मानने वाले इसे लेकर आशंकित हैं। जो पूरी तरह से तर्कहीन और अंधविश्वास पर आधारित होता है। शिक्षा और जागरूकता के अभाव में ऐसी तर्कों पर विश्वास करने वालों की एक बड़ी संख्या है। अधिकतर ऐसी मान्यताओं का पालन करने वाले देश के दूरदराज के गांवों में मिल जायेंगे। जहां न केवल चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण के मुद्दे पर बल्कि महिलाओं और किशोरियों के माहवारी के मुद्दे पर भी कई प्रकार के अंधविश्वास देखने को मिलते हैं। इतना ही नहीं, इन क्षेत्रों में लोग बीमार पडऩे पर अपने परिजनों को डॉक्टर से इलाज कराने की जगह झाड़ फूंक करने वालों के पास ले जाते हैं लेकिन जब उस मरीज की हालत गंभीर हो जाती है तो फिर उसे अस्पताल ले जाते हैं।
देश का दूर दराज ऐसा ही एक गाँव है पिंगलों। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक से करीब 20 किमी की दूरी पर बसा यह गांव आज भी अंधविश्वास की चपेट में है। पंचायत के आंकड़ों के अनुसार इस गांव की आबादी लगभग 1950 है। गांव में 85 प्रतिशत उच्च जातियों की संख्या है और 15 प्रतिशत निम्न जाति के लोग रहते हैं। वहीं साक्षरता की बात करें तो इस गाँव में महिला और पुरुष साक्षरता दर 50 प्रतिशत है। वह इसलिए है क्योंकि अब इस गाँव की किशोरियां पढ़ रही हैं। लेकिन इसके बावजूद गाँव में अंधविश्वास गहराई से अपनी जड़े जमाये हुए है। कक्षा 11 की छात्रा गुंजन बिष्ट कहती है कि ‘हम अपने घर में जब भी बीमार होते हैं तो हमारे घर में दादी सबसे पहले हमें देवी देवताओं के नाम की भभूति लगाती है। यह किस हद तक सही है मुझे भी नहीं पता, लेकिन हमें स्कूल में पढ़ाया जाता है कि जब भी हम बीमार हों तो हमें सबसे पहले डॉक्टर के पास जाकर इलाज करानी चाहिए।’
गांव की एक 36 वर्षीय महिला उषा देवी कहती हैं कि ‘पिंगलों गांव में लोग झाड़-फूंक करने वाले बाबाओं और तांत्रिकों को ज्यादा मानते हैं। अगर कोई बीमार होता है तो लोग झाड़-फूंक कराने उन्हीं के पास जाते हैं। अगर इसके बाद भी तबीयत ज्यादा बिगड़ जाए तब वह डॉक्टर के पास जाते हैं। ऐसे में कई बार बहुत देर भी हो चुकी होती है और मरीज की हालात और भी अधिक बिगड़ जाती है। जब डॉक्टरी इलाज की ज्यादा जरूरत होती है वह उन्हें समय पर नहीं मिल पाता है।’ गांव की एक अन्य महिला मंजू देवी कहती हैं कि ‘मैं जब भी बीमार होती हूं तो मेरे घर वाले मुझे बाबा के पास लेकर जाते हैं, जो मुझे पहले भभूति लगाता है और काला डोरा पहनाता है। लेकिन जब उससे कोई आराम नहीं मिलता है तो फिर मुझे डॉक्टर के पास लेकर जाते हैं। इस देरी के कारण मेरे अंदर इतना कमजोरी आ जाती है कि मैं उठकर चल भी नहीं पाती हूं।’
मंजू की बातों का समर्थन करते हुए 30 वर्षीय पूजा देवी कहती हैं कि ‘यह बात सत्य है कि हमारे गांव में यदि किसी भी परिवार में कोई बीमार होता है तो उसको सबसे पहले डॉक्टर के पास न ले जाकर घर पर ही पूजा करवाई जाती है या फिर बाबा के पास लेकर जाते हैं। जिसमें काफी पैसा खर्च हो जाता है। पहले ही घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती है। जो पैसा होता है वह पूजा में लग जाता है। ऐसे में डॉक्टर के पास जाने के लिए फिर कुछ भी नहीं बच पाता है। आखिरकार परिवार कर्ज लेकर अस्पताल का चक्कर काटता है। यदि तांत्रिकों की जगह पहले ही अस्पताल ले जाया जाए तो जान और पैसा दोनों ही बच सकता है।’
अंधविश्वास पर गाँव की सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं कि ‘जब मैं पहली बार मां बनने जा रही थी और मेरा सातवां महीना चल रहा था। उस समय चंद्र ग्रहण लगा था। मेरे आस-पास के लोगों ने मेरी सास को बोला कि तुम्हारी बहू गर्भवती है, इसे चंद्र ग्रहण मत देखने देना, अन्यथा होने वाला बच्चा विकलांग पैदा होगा। परंतु मैं भी जिज्ञासा वश देखना चाहती थी कि आखिर इसके पीछे कारण क्या है? जब रात में सभी सो गए तो मैने खिडक़ी खोलकर पूरा चंद्र ग्रहण देखा। फिर अगली सुबह मैंने यह बात अपनी सास और अन्य को बताई, तो सभी मुझ पर बहुत गुस्सा हुए और आशंकित हुए कि पता नहीं अब होने वाले बच्चे पर क्या असर होगा? दो महीने बाद जब डिलीवरी हुई तो मैंने स्वस्थ बेटी को जन्म दिया। इस तरह अंधविश्वास करने वालों के मुंह पर ताले लग गये।’
नीलम कहती हैं कि ‘आज सब कुछ देखते हुए, समझते हुए और तर्क के आधार पर फैसला करने के बावजूद भी लोग अंधविश्वास के भयानक पिंजरे में कैद हैं। यह सदियों से चली आ रही एक भयानक बीमारी है। जिसका इलाज केवल जागरूकता और वैज्ञानिक कसौटी है। यह एक ऐसा रोग है, जिसने समाज की नींव खोखली कर दी है।’ वह कहती हैं कि ‘अंधविश्वास किसी जाति, समुदाय या वर्ग से संबंधित नहीं है बल्कि यह स्वयं के अंदर विद्यमान होता है। यह मनुष्य को आंतरिक स्तर पर कमजोर बनाता है। जिसके बाद इंसान ऐसी बातों पर विश्वास करने लगता है, जिनका कोई औचित्य नहीं होता है।
अंधविश्वास का सबसे नकारात्मक प्रभाव महिलाओं और किशोरियों के जीवन पर पड़ता है। जिन्हें सबसे पहले इसका निशाना बनाया जाता है। हमारा ग्रामीण समाज इस विकार से सबसे अधिक ग्रसित है। जिससे परिवर्तन और विकास संभव नहीं है। भारतीय समाज को इन्हीं अंधविश्वास ने कोसों पीछे छोड़ रखा है। आज भी कितने ही शिक्षित लोग हैं, जो किसी न किसी रूप में अंधविश्वास में जकड़े हुए हैं। यही कारण है कि हमारी विकास की गति इतनी धीमी है। चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के पीछे वैज्ञानिक कारणों को अनदेखा करके हम अंदर से भयभीत रहते हैं। जबकि हमें इसके प्रति संकुचित दृष्टिकोण रखने की अपेक्षा इसमें छिपे रहस्यों को जानना चाहिए जिससे कि आने वाली पीढ़ी इसका लाभ उठा कर विकास के नए प्रतिमान गढ़ सके। दरअसल विज्ञान के युग में अंधविश्वास की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। (चरखा फीचर)