संपादकीय
दुनिया के रोमन कैथोलिक समुदाय के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप फ्रांसिस ने अभी वेटिकन के मुख्यालय वाले रोम की एक जेल में एक धार्मिक समारोह में 12 महिला कैदियों के पैर धोए, और चूमे। खबरों में कहा गया है कि ये महिलाएं पोप के इस काम से रो पड़ीं। हर बरस आज के दिन इस धार्मिक समारोह से ईसा मसीह द्वारा अपने 12 शिष्यों के पैर धोने की बाइबिल की कहानी को याद किया जाता है, और इसके बाद ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया था। उसी की याद में पोप हर बरस बीते कल के दिन इस तरह लोगों के पैर धोते हैं। पोप ने इस मौके पर कहा कि इस समारोह का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें ईसा मसीह ने अपने आपको औरों से नीचे दिखाया और साबित किया था, और सेवा की राह दिखाई थी। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू धर्म के कई लोग इस तरह पैर धोने का काम करते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई सफाई कर्मचारियों के पैर धोते दिखाए जाते हैं, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हिन्दुत्ववादी नेता जब ईसाई बने हुए आदिवासियों को हिन्दू बनाते हैं तो पैर धोकर उनकी ऑपरेशन ‘घर वापिसी’ करवाई जाती है। हिन्दू धर्म की कई परंपराओं में लोगों के पैर धोने का रिवाज है, और कहीं दामाद के, तो कहीं लडक़ी के ससुर के पैर धुलते दिखते हैं।
पैर धोने का एक महत्व यह दिखता है कि आमतौर पर लोगों के पैर उनके बदन के बाकी हिस्सों के मुकाबले कुछ गंदे रहते हैं, और अपने हाथों से जब कोई दूसरों के पैर धोते हैं, तो इसे एक किस्म का सम्मान देना माना जाता है। अब सवाल यह उठता है कि पैर धोने के इस दिखावे से किसको क्या हासिल होता है? क्या प्रधानमंत्री के हाथों पैर धुल जाने से सफाईकर्मियों की गटर और नाली में मौतें कम हो गई हैं? क्या ऐसे समारोह के बाद लोगों ने सफाई कर्मचारियों से भेदभाव बंद कर दिया? दुनिया में शायद ही कोई ऐसे धर्म होंगे जो कि जाति, आर्थिक संपन्नता, शिक्षित-अशिक्षित, औरत-मर्द का फर्क न करते हों। पोप जिस ईसाई धर्म के मुखिया हैं वह पश्चिम के विकसित लोकतंत्रों का सबसे प्रमुख धर्म है, लेकिन लोकतंत्र इस धर्म को छू भी नहीं गया है। कोई महिला पोप नहीं बन सकती, ऊपर से लेकर नीचे तक महिलाएं इस धर्म के ढांचे में कभी पुरूष की बराबरी नहीं कर सकतीं। यह धर्म दुनिया में सबसे बड़ी बेइंसाफी पर आंखें मूंदे रहता है, और जंगखोर देशों को कोई नसीहत नहीं देता। यह यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस को हमले से नहीं रोकता, बल्कि अभी पोप ने एक सार्वजनिक बयान देकर फौजी हमले से जख्मी यूक्रेन को यह नसीहत दी है कि वह रूसी हमले पर जवाबी कार्रवाई बंद करे, और रूस के साथ समझौता करे। यह कुछ उसी किस्म की बात है कि मुम्बई के किसी कारोबारी को पोप सलाह दें कि वे दाऊद इब्राहिम के खिलाफ करवाई गई रिपोर्ट वापिस ले, और दाऊद को हफ्ता देना शुरू करे। इस पोप ने ईसाई देश अमरीका को नहीं रोका कि वह इजराइल को जो हथियार दे रहा है उससे बेकसूर और तकरीबन निहत्थे फिलीस्तीनी मारे जा रहे हैं। दुनिया में जहां-जहां बड़ी बेइंसाफी में ईसाई देश हमलावर होते हैं, वहां पोप का मुंह नहीं खुलता। और तो और दुनिया भर के अपने चर्चों में पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण को देखते हुए भी एक के बाद दूसरे पोप इसकी अनदेखी करते रहे। धर्म का मूल चरित्र शोषण का रहता है, और शायद ही कोई धर्म इससे परे रहता हो।
हमारा यह मानना है कि धर्म जिन लोगों के पांव धोने का दिखावा करता है, वह सिर्फ उन्हें धोखा देता है। अगर धर्म इस पाखंड के बजाय सामाजिक न्याय की बात करे, तो शोषित और दबे-कुचले लोग, अपने गंदे पैरों सहित अधिक खुश और सुखी रह सकते हैं। लेकिन सामाजिक न्याय बहुत मुश्किल काम होगा, और ईसाई धर्म मानने वाले लोग भी पोप की बात सुनकर फौजी हमले बंद नहीं करेंगे, इसलिए पोप भी वैसी कोई नसीहत देकर अपनी जुबान खराब नहीं करते। दूसरे धर्मों का भी यही हाल है। अलग-अलग कई किस्म के धर्मस्थानों में जिस तरह आतंकी पलते हैं, जिस तरह पुजारी बलात्कार करते हैं, महिलाओं को देवदासी बनाकर उनसे देह का धंधा करवाया जाता है, इन सबको देखें तो साफ दिखता है कि न तो किसी ईश्वर, और न ही उसके किसी एजेंट को हिंसा या शोषण से परहेज है। जिस ईश्वर को सर्वत्र, सर्वज्ञ, और सर्वशक्तिमान माना जाता है, उसकी आंखों के सामने बच्चों से बलात्कार होते हैं, और कण-कण में मौजूद ईश्वर उसे देखते रहते हैं। जिसे सर्वशक्तिमान मानकर लोग पूजा-उपासना करते हैं, उसकी शक्ति अपने बलात्कारी भक्तों को रोक नहीं पाती, और न ही बेकसूर बच्चों को बचा पाती है। धर्म का पूरा ढकोसला इसी तरह का है, और किस्से-कहानियों में ईश्वरों की जो अपार शक्ति बताई जाती है, वह असल जिंदगी में सबसे भयानक किस्म की हिंसा को रोकने के काम नहीं आती, और न ही वह दुनिया के खरबपतियों को इतनी समझ दे पाती कि वे दुनिया में भूख से मरते हुए लोगों की मदद करें।
इसलिए चाहे जिस किस्म के रीति-रिवाज के लिए किसी धर्म के लोग जब गरीबों के पांव धोते हैं, पांव चूमते हैं, तो वे उन गरीबों को बेहतर इंसान साबित करने के बजाय अपने आपको अधिक महान इंसान साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को इस धार्मिक पाखंड को समझना चाहिए क्योंकि यह लोगों के शोषण का एक और जरिया रहता है। अधिक विनम्रता, और ओढ़ी हुई महानता शोषकों को और अधिक ताकत दिलाने के लिए इस्तेमाल होती हैं। जब दुनिया के सबसे जलते-सुलगते मुद्दों पर धर्मगुरूओं का मुंह न हिटलर के वक्त खुला, न अमरीका के खिलाफ कभी खुला, और न इजराइल के खिलाफ, वे धर्मगुरू अपने-अपने साम्राज्य में अन्याय और असमानता के शिकार लोगों के पांव धोने का प्रतीकात्मक काम करके शोषण के जाल को मजबूत ही करते हैं। इनकी इस अतिरिक्त विनम्रता में एक हिंसा छुपी होती है, और इस साजिश को समझने की जरूरत है। अगर धर्म ने इंसानों को बराबरा बनाने का काम किया होता, तो आज ताकतवर को कमजोर के पांव धोने का दिखावा नहीं करना पड़ा होता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ सरकार के आदिम जाति विकास विभाग में छात्रावास अधीक्षकों की भर्ती होनी है, और इसके तीन सौ पदों के लिए छह लाख से अधिक आवेदन मिलने की खबर है, और अभी आवेदन करने के तीन दिन बाकी हैं। एक-एक पद के लिए दो हजार से अधिक लोग कतार में लगे हैं। इससे बेरोजगारी का अंदाज भी लगता है। देश के अलग-अलग आर्थिक सर्वेक्षणों में कहीं गरीबी, तो कहीं बेरोजगारी के आंकड़े चौंकाने वाले निकलते हैं, पिछले बरसों में छत्तीसगढ़ में भी बेरोजगारी बहुत कम होने के आंकड़े सामने आए थे। लेकिन ऐसी एक-एक पोस्ट के लिए अगर दो-दो हजार लोग कतार में लगे हैं, तो यह जाहिर है कि बेरोजगार तो बहुत हैं, उनकी गिनती के आंकड़े, और उसके तरीके गड़बड़ हो सकते हैं।
2021 का उत्तरप्रदेश का एनडीटीवी का एक समाचार वीडियो अब तक सोशल मीडिया पर चक्कर लगाता है जिसमें यूपी सरकार के चपरासियों के 62 पदों पर 50 हजार ग्रेजुएट, 28 हजार पोस्ट ग्रेजुएट, और 37 सौ पीएचडी लोगों ने आवेदन किया था। अब सरकारी नौकरी में जो सबसे निचला पद है उसके लिए भी अगर पीएचडी किए हुए लोग अर्जियां दे रहे हैं, तो पानी पिलाने और टेबिल साफ करने में लगे हुए डॉक्टरेट हासिल लोग कैसा नजारा पेश कर रहे होंगे? इस ओहदे के लिए कुल पांचवी पास होने की जरूरत थी। भारत में जब हुनरमंद और काबिल कामगारों की बात होती है, तो आबादी में नौजवानों के अनुपात को गिनाया जाता है कि यह दुनिया में सबसे अधिक नौजवानों वाला देश है। इसके साथ-साथ इसकी आबादी भी तकरीबन बनी हुई है जो कि चीन जैसे देश में गिरना शुरू हो चुकी है, और आने वाले दशकों में चीन कामगारों की बड़ी कमी झेलने वाला है। ऐसे में भारत के नौजवान आंकड़ों के हिसाब से तो उसकी ताकत साबित हो सकते हैं, यह एक अलग बात है कि हकीकत इससे काफी अलग है। देश में स्किल डेवलपमेंट के नाम पर चारों तरफ जो फर्जीवाड़ा चलता है, वह सरकारी योजनाओं का पैसा खाने तक सीमित है। न तो लोगों को ईमानदारी से हुनर सिखाए जाते हैं, और न ही उन्हें काम मिल पाते हैं। दूसरी तरफ जो कामगार सचमुच ही हुनर का काम कर रहे हैं, उनके प्रशिक्षण का कोई इंतजाम नहीं है। और तो और आईटीआई जैसे जो औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान हैं उनकी हालत भी इतनी खराब है कि वहां पढ़ाने और ट्रेनिंग के इंतजाम नाकाफी रहते हैं, और वहां से निकलने वाले लोग सरकारी नौकरियों के मोहताज रहते हैं, वे खुद होकर कोई काम शुरू नहीं कर पाते।
इसलिए कोई देश अगर अपनी आबादी के नौजवान हिस्से पर गर्व कर रहा है, तो वह जायज उसी हालत में होगा जब ये नौजवान हुनर के काम के लायक होंगे, अगर एक-एक सरकारी ओहदे के लिए हजारों लोग कतार में लग जाएंगे, तो इससे दो बातें साबित होती हैं, एक तो यह कि सरकार से परे काम की गुंजाइश नहीं है, और दूसरी बात यह कि निजी क्षेत्रों में अगर काम है भी, तो सरकारी नौकरियों में हराम की कमाई की गुंजाइश बहुत ज्यादा है। ऐसी हकीकत वाला देश आबादी के आंकड़ों पर गर्व करते बैठा रहे, उसके बजाय देश में बचपन से जवानी के बीच पढ़ाई और प्रशिक्षण का एक ऐसा इंतजाम करना चाहिए जो बेरोजगारों की फौज खड़ी न करे, बल्कि लोगों को काम के लायक बनाएं। भारत में ही दक्षिण के कुछ राज्य ऐसे हैं जो पढ़ाई और ट्रेनिंग में अधिक ईमानदार हैं, और वहां के नौजवान अपने प्रदेशों से बाहर, और देश के भी बाहर जाकर काम के लायक हैं। दूसरी तरफ हिन्दी राज्यों और उत्तर भारत को देखें, तो यहां पर न पढ़ाई-लिखाई का कोई महत्व है, और न ही किसी ट्रेनिंग-हुनर का।
भारत में किसी हुनर वाले कामकाज की क्वालिटी का कोई पैमाना नहीं है, कामगार कुछ जानते हैं, या नहीं, इसके मूल्यांकन का कोई जरिया नहीं है, ऐसे में ग्राहकों को किस दर्जे के कामगार मिल रहे हैं, इसका भी कोई ठिकाना नहीं रहता। दूसरी तरफ देश में छोटे-छोटे कामों में जो सामान या पुर्जे लगता हैं, उनकी क्वालिटी का भी कोई ठिकाना नहीं रहता। इन दोनों का मेल जब होता है, तो सब कुछ स्तरहीन और घटिया नजर आता है। देश में उत्कृष्टता की संस्कृति ही नहीं रह गई है, और लोग असंगठित क्षेत्र के हुनरहीन लोगों पर आश्रित रह गए हैं। शहरी इलाकों की कुछ संगठित सेवाओं को छोड़ दें, तो देश के अधिकतर कामगार बिना खूबियों वाले हैं, और देश में सेवाओं के नाम पर स्तरहीन काम अधिक हो रहा है। काम भी स्तरहीन, और सामान भी घटिया, कुल मिलाकर देश में सामानों और सेवाओं की जो उत्पादकता होनी चाहिए, वह बहुत ही नीचे दर्जे की है। लोगों का खर्च पूरा हो जाता है, लेकिन उन्हें सही क्वालिटी का काम नहीं मिलता। दक्षिण भारत के कुछ राज्यों से सीख लेकर बाकी के हिन्दुस्तान को शिक्षण-प्रशिक्षण की ईमानदारी बरतनी चाहिए, और सरकारों को घटिया सामानों का बनना बंद करना चाहिए, तभी जाकर देश को उसके दिए दाम की सही उत्पादकता मिल सकेगी।
यहां पर एक दूसरी बात जरूरी यह है कि मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई के बाद सरकारों को बड़ी रफ्तार से आगे की किताबी पढ़ाई, और किसी हुनर का प्रशिक्षण, इन दोनों के रास्ते अलग करने चाहिए। जो लोग किताबी पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं हैं, उन्हें प्राइमरी और मिडिल के बाद उनके नंबर देखकर किसी तकनीकी प्रशिक्षण, या रोजगार के लिए तैयार करने वाले दूसरे हुनर की तरफ मोडऩा चाहिए, और उनके बालिग हो जाने तक कुछ किस्म के हुनर के लायक उन्हें ढालना चाहिए। पांच-सात बरस की ऐसी ट्रेनिंग से बालिग होते ही ये लोग अपने खुद के रोजगार के लायक रहेंगे, या इतनी ट्रेनिंग पा लेने के बाद इन्हें कहीं नौकरी मिल भी जाएगी। लेकिन सरकारें अगर ऐसे अलोकप्रिय फैसलों से बची रहेंगी, तो फिर वे अगली पीढिय़ों को नहीं बचा पाएंगी। आज पढ़े-लिखे बेरोजगार बिना किसी हुनर के मां-बाप की छाती पर मूंग दलते बैठे रहते हैं, या फिर बेरोजगारी के लिए सरकारों को कोसते रहते हैं। नौजवान पीढ़ी के एक बड़े हिस्से को 8वीं की पढ़ाई के बाद अलग-अलग हुनर की ट्रेनिंग में डालना चाहिए, और उसी से भारत एक मैन्यूफेक्चरिंग केन्द्र बन सकेगा। महज किताबें पढ़े हुए ठलहा नौजवान इस देश में कामगार ताकत नहीं बनेंगे, बल्कि वे बेरोजगार की शक्ल में बोझ रहेंगे। केन्द्र और राज्य सरकारों को देश के अगले दस-बीस बरस की कामगारों की जरूरतों का अंदाज लगाकर नौजवान पीढ़ी को उसी हिसाब से ढालना चाहिए, इसके अलावा न तो बेरोजगारी घटाने का कोई जरिया है, और न ही अर्थव्यवस्था में नौजवान पीढ़ी की भूमिका बढ़ाने का।
देश भर से अलग-अलग आई बहुत सी खबरें यह बताती हैं कि लोगों के मन में तेजी से कमाई की हसरत इस रफ्तार से बढ़ी है, और इतनी मजबूत हो गई है कि वे इसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। छत्तीसगढ़ में पिछली भूपेश सरकार के कार्यकाल में पांच बरस जिस तरह कोयला-रंगदारी, नकली होलोग्राम से शराब बनवाकर बिक्री, और दूसरे कई किस्म के भ्रष्टाचार में जिस तरह से नेता, अफसर, और कारोबारी शामिल हुए, वह हैरान करता है कि क्या किसी अरबपति को साल भर से परिवार से दूर फरार जीने की कीमत पर भी ऐसी जुर्म की कमाई अच्छी लग रही थी? प्रदेश कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रामगोपाल अग्रवाल उम्र के इस पड़ाव पर आकर, ऐसी सेहत के बाद, परिवार का सैकड़ों करोड़ का कारोबार रहने के बाद फरार हैं। बड़े-बड़े नेता और आईएएस अफसर या तो जेल में हैं, या कटघरे में हैं। पैसों की ऐसी कितनी जरूरत रहती है?
कुछ दूसरी खबरों को देखें, तो बेंगलुरू की एक खबर है कि वहां सिंचाई विभाग के एक इंजीनियर को क्रिकेट पर सट्टे का शौक था, और कर्ज ले-लेकर सट्टे पर लगाते रहा, हारते रहा, और कर्ज इतना बढ़ गया कि देनदार घर पहुंचकर परेशान करने लगे, और 23 बरस की बीवी ने यह सब सिलसिला लिखकर, दो साल के बेटे को छोडक़र खुदकुशी कर ली कि वह कर्जदाताओं की प्रताडऩा और नहीं झेल पा रही है। कतरा-कतरा और भी बहुत सी खबरें हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अभी होली के दिन एक लाश मिली, और पता लगा कि वहीं के एक नौजवान ने एक नाबालिग से यह कत्ल करवाया। नाबालिग ने चाकू के दस वार से यह कत्ल किया, और इसका ठेका देने वाले ने भरोसा दिलाया था कि वह 17 बरस का नाबालिग है, और उसकी जल्दी जमानत करवा देगा। इसी राज्य की एक दूसरी खबर है कि अभी साल भर पहले तक गांव में बढ़ई का काम करने वाले एक नौजवान, शिवा साहू ने लोगों को क्रिप्टोकरेंसी से रकम दुगुनी करवा देने का झांसा देकर करोड़ों रूपए लिए, और जब वह रकम नहीं लौटा पाया तो लोगों ने पुलिस रिपोर्ट की। उसके पास से सवा तीन करोड़ से अधिक की 16 कारें जब्त हुई हैं, और उसके बैंक खातों से साढ़े 5 करोड़ रूपए जब्त होने की खबर है। अब सवाल यह उठता है कि गांव का एक बढ़ई रातों-रात लोगों को क्रिप्टोकरेंसी की कमाई के सपने दिखाकर इस तरह करोड़ों रूपए कमा सकता है, तो गांव के लोग भी ऐसी धोखाधड़ी पर करोड़ों रूपए गंवाने के लिए तैयार खड़े दिखते हैं। यह नौबत भयानक इसलिए है कि जिन लोगों ने क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कुछ जाना भी नहीं होगा, वे गंवाना मुनासिब समझ रहे हैं, तो कल के दिन किसी और किस्म का जालसाज आएगा, और लोगों की बची हुई रकम ले जाएगा। छत्तीसगढ़ के गांव-गांव से लोगों ने चिटफंड में अपना पैसा गंवाया है, और सहारा जैसी बड़ी कंपनी में हजारों करोड़ गंवाए हुए लोग पहले से भटक ही रहे हैं। लोग रातों-रात अंधाधुंध कमाई के लिए जुर्म कर भी रहे हैं, और मुजरिमों के जुर्म के शिकार भी हो रहे हैं। इन दोनों में एक ही बात एक सरीखी है कि लोगों में रातों-रात पैसेवाले बनने के सपने बड़ी आसानी से पनपते हैं।
लोग बच्चों को मेडिकल कॉलेज में भेजने के नाम पर जिंदगी भर की कमाई गंवा रहे हैं, सरकारी नौकरी पाने के लिए बहुत ही संगठित गिरोहों के हाथ सारी बचत लुटा दे रहे हैं। कहीं कोई मुआवजा दिलाने के नाम पर, तो कहीं किसी जमीन पर कब्जे के नाम पर लोगों को आसानी से ठगा जा सकता है, और ठगा जा रहा है। जिन लोगों ने चिटफंड कंपनियों में अपनी बचत गंवाई थी, उनके बारे में मुख्यमंत्री बनते ही भूपेश बघेल ने यह घोषणा की थी, और यह बात कांग्रेस के 2018 के घोषणापत्र में भी शामिल थी कि चिटफंड में लुटे हुए लोगों को सरकार अपनी तरफ से भुगतान करके भरपाई करेगी। उस बयान की बात आई-गई हो गई, और भाजपा ने न तो विधानसभा चुनाव में अच्छी तरह दर्ज इस बयान को उठाया, और न अभी लोकसभा चुनाव में। लेकिन हमने उसी वक्त इस बात को लिखा था कि सरकार किसी जुर्म के शिकार लोगों की रकम की भरपाई सरकारी खजाने से कैसे कर सकती है? और इन लोगों ने तो अधिक कमाई की उम्मीद में यह रकम लगाई थी, इनसे परे लोगों के घरों में चोरी और डकैती से जिस रकम का नुकसान होता है, उसकी भी सरकारी खजाने से भरपाई का कोई प्रावधान नहीं है, और महादेव सट्टा जैसे कई और दूसरे किस्म के लूटने वाले धंधे इस प्रदेश में चल रहे हैं जिनको कोई सरकार रोक नहीं पा रही है।
हम काफी अरसे से यह बात सुझाते आ रहे हैं कि केन्द्र और राज्य सरकार को आर्थिक अपराधों की रोकथाम के लिए ऐसी खुफिया निगरानी एजेंसी बनानी चाहिए जो कि बाजार की चर्चा से ही संभावित जुर्म को भांपकर उसे समय रहते पकड़ सके। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है, और केन्द्र और राज्य दोनों जगह ठगी और जालसाजी से होने वाले जुर्म जब हो जाते हैं, रकम गायब हो जाती है, तब जाकर इनकी जांच एजेंसियां जागती हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। ऐसा कहीं भी नहीं हो सकता कि किसी गांव-कस्बे में रकम दुगुनी करने का कोई धंधा चला रहा हो, और वह वहां की पुलिस की नजरों में न आए। जब तक पुलिस का हफ्ता-महीना नहीं बांधा जाए, तब तक किसी इलाके में कोई संगठित जुर्म चलना मुमकिन नहीं रहता। इसलिए सरकार को अपनी मशीनरी सुधारनी चाहिए, और पुलिस से परे एक खुफिया एजेंसी ऐसी बनानी चाहिए जो कि बाजार की चर्चा, अफवाह, और मीडिया की खबरों को देखकर ही जुर्म के पनपने के पहले उसकी जड़ों पर वार कर सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पाकिस्तान में अभी-अभी नई सरकार बनी, और विदेश मंत्री बने इसहाक डार ने ब्रिटेन में प्रेस कांफ्रेंस में यह कहा कि पाकिस्तान अपने पड़ोसी देश भारत के साथ व्यापारिक संबंधों की बहाली पर गंभीरता से सोच रहा है। दोनों देशों में साढ़े चार साल से आपसी कारोबार बंद पड़ा है। भारत में जम्मू-कश्मीर से 370 खत्म करने के विरोध में पाकिस्तान ने 2019 में कारोबार बंद कर दिया था, और इसके पहले भी दोनों देशों में तनातनी चल रही थी। भारत और पाकिस्तान का आपसी इतिहास बताता है कि सरहद और राजधानियों के विवाद सबसे पहले कारोबार पर वार करते हैं, और दोनों ही देश नुकसान झेलते हुए इस कारोबार के महंगे विकल्पों का इस्तेमाल कर रहे हैं। पाक विदेश मंत्री का यह बयान वहां सरकार बनने के कुछ हफ्तों के भीतर आया है, और कुछ हफ्तों के बाद हिन्दुस्तान में नई सरकार बननी है, और तब तक हिन्दुस्तान के चुनावी माहौल में पाकिस्तान के इस नए बदले हुए रूख पर शायद कोई सरकारी फैसला न हो पाए। वैसे भी किसी सरकार को अपने आखिरी के हफ्तों में विदेश नीति पर महत्वपूर्ण फैसले लेने नहीं चाहिए। इसलिए भारत और पाकिस्तान के कूटनीतिक संबंधों को जानने वाले लोगों का कहना है कि पाक विदेश मंत्री ने यह बेमौके पर बेतुका बयान दिया है जिस पर भारत में अभी कोई फैसला होना नहीं है। दूसरी तरफ कारोबारी संगठनों ने इस पर खुशी जाहिर की है क्योंकि अगल-बगल के देशों के बीच कारोबार सस्ता पड़ता है, और मुनाफा आपस में बंट जाता है, बजाय किसी तीसरे देश में उस मुनाफे के जाने के।
लेकिन हम भारत और पाकिस्तान के बीच तनातनी के दाम याद दिलाना चाहते हैं। दोनों ही देश सरहद पर अंधाधुंध फौजी खर्च करते हैं, और दोनों ही देशों में गरीबों का हाल बहुत बुरा है। पाकिस्तान में यह हालत और अधिक बुरी है, और वहां पर फौजी खर्च अनुपात से बहुत अधिक है। जाहिर फौजी खर्च के अलावा पाकिस्तान में फौज लोकतंत्र, चुनाव, सरकार, और कारोबार पर बहुत बुरी तरह अपनी फौलादी पकड़ रखती है। ऐसे में आपसी कारोबार दोनों ही देशों के भले की बात है, और सिर्फ सियासी टकराव के चलते, नेताओं के अहंकार को पूरा करने के लिए जनता का इतना अधिक नुकसान करना ठीक नहीं है। चाहे यह बात बेमौके की हो, चाहे यह बेतुकी हो, लेकिन बात है तो पते की, और कुछ अरसा बाद जब भारत में नई सरकार काम संभालेगी, तब दोनों तरफ के कारोबारी संगठनों को अपनी-अपनी सरकार को कारोबार-बहाली के लिए नई कोशिशें करनी चाहिए।
हर कुछ दिनों में कांग्रेस पार्टी के कोई न कोई नेता अपनी लापरवाह जुबान से एक ऐसा बखेड़ा खड़ा कर देते हैं जिससे पूरी पार्टी को अगले कई दिनों तक शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। जब देश में कोई मुद्दे बहुत जलते-सुलगते रहते हैं, और जिन पर चर्चा से कांग्रेस की विरोधी पार्टियों को बड़ी असुविधा होती रहती है, उसी वक्त कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी की फजीहत करते हैं। कांग्रेस की एक प्रमुख प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने अभी अपने सोशल मीडिया पेज पर हिमाचल की मंडी लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाई गई अभिनेत्री कंगना रनौत को लेकर एक बहुत ओछी और भद्दी बात लिखी, जिसे कि मंडी में भाव के शब्दों में पोस्ट किया गया। इसके तुरंत बाद इस कांग्रेस प्रवक्ता ने यह पोस्ट हटा दी, कंगना से माफी मांगी, और यह सफाई दी कि उनके सोशल मीडिया पेज कई अलग-अलग लोग देखते हैं, और उनमें से किसी ने इसे पोस्ट किया होगा, और उन्हें इस बात की बड़ी शर्मिंदगी है।
ऐसे किसी बखेड़े का खात्मा गंदगी फैलाने वाले के हाथ नहीं रहता है, बल्कि जिस पर हमला किया गया है वे इसे तय करते हैं कि किस माफी के बाद विवाद खत्म किया जाए, या न किया जाए। चुनाव के इतने करीब भाजपा के हाथ भी यह एक असल मुद्दा लगा है जो कि उसकी एक चर्चित अभिनेत्री-नेत्री के खिलाफ गंदा हमला था, और भाजपा इसे जल्द खत्म करे ऐसी कोई उसकी मजबूरी तो है नहीं। आज जब देश में चुनावी बॉंड को लेकर भाजपा और केन्द्र सरकार के खिलाफ लगातार ठोस खबरें आ रही थीं, जब न सिर्फ विपक्षी पार्टियां, बल्कि देश के मीडिया, और सोशल मीडिया का भी एक तबका केन्द्र सरकार और भाजपा को बुरी तरह घेर रहा था, उस वक्त कांग्रेस की प्रवक्ता ने एक घटिया टिप्पणी करके देश में चल रही बहस को पटरी से उतारने का जुर्म किया है। और यह प्रवक्ता पैदाइशी राजनेता होने के बजाय लंबे समय तक अखबारनवीसी में सीनियर और अहमियत के ओहदों पर रही हैं, इसलिए किसी नाजुक मौके पर बकवास का नुकसान वे अच्छी तरह जानती हैं। फिर यह भी है कि देश के टीवी चैनलों पर, और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सुप्रिया श्रीनेत लगातार रोज मौजूद रहती हैं, और उनकी एक घटिया टिप्पणी से उनके चेहरे की साख कुछ वक्त के लिए तो चौपट हो ही गई है। लेकिन कांग्रेस को इस किस्म की आत्मघाती हरकतों में महारथ हासिल है।
कंगना रनौत कोई बहुत अच्छी जुबान नहीं बोलतीं, वे फिल्म उद्योग के दूसरे लोगों का घटिया दर्जे का अपमान करने में लगी ही रहती हैं, लेकिन आज वह मुद्दा नहीं है। उनके फिल्मों से जुड़े बयानों का जवाब लोग उसी वक्त दे सकते हैं, और देते हैं। आज उनके उम्मीदवार बनने पर हिमाचल की मंडी नाम की जगह का घटिया और अश्लील किस्म से इस्तेमाल पूरी तरह नाजायज है, और खारिज करने के लायक है। राजनीति में कंगना की पार्टी के भी बहुत से नेता इस दर्जे के बयान देते रहते हैं, लेकिन उनकी भी इसी तरह निंदा तो होती ही रहती है। बिना यह देखे कि बयान किसने दिया है, घटिया बयान को घटिया साबित करने का कोई मौका छोडऩा नहीं चाहिए। लगातार ऐसा होने पर ही लोगों की बदजुबानी पर कुछ लगाम लग सकती है। राजनीति दरियादिली का कारोबार नहीं है, और सुप्रिया श्रीनेत सस्ते में नहीं छूट सकतीं, उनके सोशल मीडिया पेज पर जो पोस्ट होता है उसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं, कानूनी रूप से भी, और नैतिक रूप से भी। लोगों को सार्वजनिक जीवन में अधिक जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए, वरना जनता की अदालत से लेकर कानून की अदालत तक, कई किस्म के कटघरों में उन्हें जवाब देना पड़ सकता है।
देश भर में लोगों के बीच इतने तरह की हिंसा दिखाई पड़ रही है कि हैरानी होती है। दूसरी तरफ सडक़ों पर अंधाधुंध रफ्तार से गाडिय़ां चलती हैं, और चारों तरफ एक्सीडेंट हो रहे हैं, मौतें हो रही हैं। सडक़ों पर सबसे अधिक समय तक चलने वाली कारोबारी गाडिय़ों का हाल सबसे खराब रहता है, वे नियम-कानून सबसे अधिक तोड़ती हैं, और हर दिन सैकड़ों किलोमीटर चलती हैं, और एक्सीडेंट में सबसे अधिक जिम्मेदार रहती हैं, लेकिन इन पर किसी प्रदेश में सरकार का काबू नहीं दिखता, क्योंकि कारोबारी गाडिय़ां देश में अवैध वसूली का सबसे बड़ा जरिया है। लेकिन इन गाडिय़ों से सिर्फ सडक़ हादसों का नुकसान देखें, या टैक्स चोरी का नुकसान देखें तो वह जायज नहीं होता। इनसे एक दूसरा बहुत बड़ा नुकसान यह है कि सरकार के नियम-कायदे को अनदेखा करना यहां से शुरू होता है। जिस तरह लोग सडक़ों पर थूकना, सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीना करते हैं, उसी तरह सडक़ों पर ट्रैफिक के नियम तोड़ते हैं, और वहीं से देश के नियम-कायदे के खिलाफ एक हिकारत शुरू होती है जो कि कभी खत्म नहीं होती। इसलिए ट्रैफिक को बेकाबू होने देना, लोगों को अराजक बनने देना, इससे अलग-अलग कई किस्म के जुर्म के मिजाज शुरू होते हैं, और वे आगे बढक़र हर तरह के नियम तोडऩे में लोगों को हौसला देते हैं। कुछ लोगों को यह मिसाल कुछ अटपटी लग सकती है कि लोगों के बाकी जुर्मों का ट्रैफिक का भला क्या लेना-देना हो सकता है, लेकिन जुर्म के मिजाज की शुरूआत वहां से होती है, और बाद में धीरे-धीरे लोग अधिक बड़े जुर्म करने लगते हैं। सडक़ पर अगर नियम तोड़ते हुए पुलिस से एक बार वास्ता पड़ता है, जुर्माना देना पड़ता है, या सजा भुगतनी होती है, गाड़ी जब्त होती है, वकील और अदालत से साबका पड़ता है, तो लोग आगे के लिए हिचकते हैं। इसलिए सरकारों को अगर कानून लागू करना है, तो उसकी शुरूआत सडक़ों से, और ट्रैफिक से करनी चाहिए।
दरअसल हिन्दुस्तानी सडक़ों को देखें, तो किसी भी किस्म की ताकत से लैस लोगों की बदमिजाजी उनकी गाडिय़ों के हॉर्सपावर से और अधिक बढ़ जाती है, लोगों को अपने ओहदे, अपने पैसे, अपनी राजनीतिक पहुंच का खूब अहंकार रहता है, और जब पुलिस उन्हें इस अहंकार के प्रदर्शन की छूट देती है, तो वह और बदतमीज होते चलता है। लोगों को उनकी औकात दिखाने का एक सबसे आसान जरिया सडक़ों पर उनकी बददिमागी को काबू में रखने का हो सकता है, वरना यह बददिमागी उनसे और भी कई किस्म के जुर्म करवाती रहती है। सरकारें इस चक्कर में ट्रैफिक नियमों पर कड़ाई से अमल नहीं करवाती हैं कि उससे लोग नाराज हो जाएंगे। यह सत्ता की बहुत बड़ी गलतफहमी रहती है क्योंकि आम लोग तो किसी भी चालान और जुर्माने से बचकर रहना चाहते हैं, उनकी ताकत ही नहीं रहती कि यह नुकसान झेल सकें। ट्रैफिक पुलिस की कार्रवाई से असर तो उन बददिमाग लोगों पर होता है जो कि ट्रैफिक सिपाही को धमकाते हैं कि जानते नहीं वे कौन हैं। ऐसे में हमारा ख्याल है कि जो सरकार सडक़ों पर नियम जितनी कड़ाई से लागू करवाएगी, वहां पर बाकी नियम-कानून भी अपने आप बेहतर अमल में आने लगेंगे। लोग ट्रैफिक जुर्माने को सिर्फ ट्रैफिक की तरह नहीं देखते, उनका मिजाज ही कानून के सम्मान का होने लगता है।
हम अपने अखबार और यूट्यूब चैनल पर लगातार ट्रैफिक सुधारने के बारे में लिखते और बोलते हैं। आज यहां पर फिर उन्हीं बातों को दुहरा रहे हैं क्योंकि हमारे इर्द-गिर्द हर दिन कई दुपहिया सवार सडक़ों पर मारे जा रहे हैं, और राज्य सरकार का हाल ऐसा नर्ममिजाजी का है कि वह लोगों के सिर पर हेलमेट रखना नहीं चाहती, दुपहिया चलाते मोबाइल पर बातचीत का चालान करना नहीं चाहती, बड़ी कारोबारी गाडिय़ों पर तो संगठित भ्रष्टाचार की वजह से वैसे भी कोई कार्रवाई नहीं हो सकती है। हर दिन हर राज्य की सडक़ों पर बहुत सी ऐसी मौतें होती हैं जिन्हें कि पूरी तरह रोका जा सकता था, लेकिन रोकते हुए कुछ दिनों के लिए जनता की नाराजगी का खतरा भी सरकार उठाना नहीं चाहती। सच तो यह है कि जिन शहरों या प्रदेशों में सरकार सडक़ों को सुरक्षित बनाती है वहां उसे लोगों की वाहवाही भी मिलती है। इसलिए सरकार को वोटरों से डरे बिना, और बददिमाग-ताकतवर लोगों की परवाह किए बिना सख्ती से नियम लागू करना चाहिए। इसी से सडक़ों पर बेकसूर लोगों की जिंदगी बचेगी, जो कि या तो अराजक गाडिय़ों का शिकार होकर मरते हैं, या सरकारी लापरवाही की वजह से खुद भी लापरवाह होकर जान खो बैठते हैं। सच तो यह है कि संविधान की शपथ लेकर काम करने वाली किसी सरकार को सडक़ सुरक्षा में ढील देने का कोई हक ही नहीं है, उसे जनजीवन और जनसुरक्षा के हित में नियमों को कड़ाई से लागू करना ही है, और इसमें ढील उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत की राजनीति में अनगिनत किस्म की ओछी और गंदी बातें कही जाती हैं। लेकिन बिहार में अभी-अभी भाजपा के कोटे से डिप्टी सीएम बने सम्राट चौधरी ने जो कहा है, वह तो एकदम ही अनोखा घटिया मामला है। इतनी नीच बात बोलने वाले नेता कम ही होंगे। सम्राट चौधरी ने कहा कि टिकट बेचने में लालू यादव ने बेटी को भी नहीं छोड़ा, पहले बेटी से किडनी ली, और उसके बाद चुनाव का टिकट दिया। इस चौधरी के इस बयान की निंदा खुद भाजपा के नेता कर रहे हैं, और इसे शर्मनाक बता रहे हैं। भारत में अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग पार्टियों के नेता घटिया बातें कहने के रिकॉर्ड बनाते चलते हैं, और आज के बाद जब कभी घटिया बातों की मिसाल दी जाएगी, उनमें यह बयान ऊपर के कुछ बयानों में गिनाएगा।
लेकिन हम राजनीति से परे हिन्दुस्तान की एक हकीकत पर बात करना चाहते हैं, भारत कीएक प्रतिष्ठित प्रत्यारोपण-पत्रिका ने 1995 से लेकर 2021 के बीच के भारत के अंग प्रत्यारोपण के आंकड़े प्रकाशित किए थे। इनके मुताबिक इस दौर में 18.9 फीसदी अंग ही महिलाओं को मिले, यानी 80 फीसदी से अधिक अंग प्रत्यारोपण पाने वाले मरीज पुरूष थे। एक दूसरा आंकड़ा बताता है कि किडनी जैसा सबसे बड़ा जीवनरक्षक अंग देने के मामले में महिलाएं सबसे आगे हैं। पत्नी, मां, बहन, बेटी, और भाभी तक से लोगों को अंग मिलते हैं, और जब महिलाओं को अंग प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है, तो हिन्दुस्तानी परिवार महिलाओं की जान बचाने में पीछे हटने लगते हैं, और ऑपरेशन का महंगा खर्च नहीं उठाते। एक अध्ययन बताता है कि जब एक महिला को किडनी लगती है तो देने वालों में बहन, मां या बेटी ही होते हैं। जबकि दूसरी तरफ अधिकतर महिलाएं परिवार के पुरूषों के लिए किडनी देने को तैयार रहती हैं। सामाजिक हकीकत यह है कि भारत में मर्द ही अधिक दारू पीते हैं, और लीवर ट्रांसप्लांट की जरूरत पडऩे पर महिलाओं को ही अंगदान करना होता है। महिलाओं पर अंगदान करने के लिए, चाहे वह परिवार के लोगों के लिए हो, चाहे वह ब्लैक मार्केट में बेचने के लिए हो, उन पर भारी पारिवारिक दबाव रहता है। एक विशेषज्ञ डॉक्टर का कहना है कि अगर सौ आदमियों और सौ औरतों को किडनी ट्रांसप्लांट की जरूरत हो, तो ऐसी पूरी संभावना रहती है कि सौ में से सौ मर्द इसके लिए नाम रजिस्टर करा लें, और कुल 50 से 60 महिलाएं नाम दर्ज कराएं।
महिलाओं के जिम्मे परिवार के पुरूषों को अंग देना भी लिखा है, और पिता को किडनी देने वाली बेटी को राजनीति के चलते गाली भी खानी है। बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी ने जिस अंदाज में लालू यादव को बेटी को टिकट किडनी के एवज में देने की बात कही है, वह पता नहीं कौन सी भारतीय संस्कृति, और कौन से हिन्दुत्व की गौरवशाली सोच, और गरिमामय भाषा है। लालू यादव की बेटी ने पिता को किडनी देने का काम जिस हौसले से किया, और इस बारे में सोशल मीडिया पर पूरे समय तस्वीरें भी पोस्ट करती रहीं, उस साहस के बाद यह घटिया राजनीतिक हमला और अधिक घटिया लगता है। वैसे भी भाजपा लालू यादव पर परिवारवाद का आरोप लगाती है, और अगर लालू ने परिवारवाद के फेर में बेटी को टिकट दिया है, तो उसे किडनी के एवज में बेचने की बात कहना तर्कहीन भी है, घटिया तो है ही।
हमारा ख्याल है कि भारतीय समाज में महिलाओं की जो स्थिति है, उसे लेकर कई किस्म के अध्ययन सामने आने चाहिए, और जनता के बीच उन पर चर्चा होनी चाहिए। लोगों को इस बात का अहसास भी नहीं होगा कि भारत के बच्चों में जब कैंसर की पहचान होती है, तो तकरीबन तमाम लडक़ों को तो इलाज के लिए अस्पताल लाया जाता है, लेकिन लड़कियों को जांच में कैंसर मिलने के बाद भी अमूमन इलाज से परे रखा जाता है। शायद यह मान लिया जाता है कि लड़कियां शादी के बाद दूसरे के घर जाएंगी, तो वे अपने परिवार की आय बढ़ाने वाली नहीं रह जाएंगी। भारत के अधिकतर परिवारों की आर्थिक स्थिति ऐसी रहती है कि कमाऊ और गैरकमाऊ सदस्यों के बीच कई किस्म के फर्क होने लगते हैं। इसीलिए लडक़ी की पढ़ाई से लेकर लडक़ी के इलाज तक कई किस्म का भेदभाव होता है, और यह बढ़ते-बढ़ते अंग प्रत्यारोपण तक पहुंच जाता है, जिसमें शायद यह भी मान लिया जाता है कि अगर पुरूष कमाऊ है, तो उसे अंग पाने का अधिक हक होना चाहिए, और उसके अंग नहीं लिए जाने चाहिए। दूसरी तरफ घर और बाहर कहीं भी, या दोनों जगह काम करने वाली महिला के लिए भी यह मान लिया जाता है कि वह कम कमाने वाली है, परिवार की मुखिया नहीं है, इसलिए वह किसी अंग के बिना भी काम चला सकती है। यह सोच बचपन से ही लडक़ी का इलाज न कराने वाली सोच का एक किस्म का विस्तार ही है।
भारतीय गरीब परिवारों के भीतर महिला और लडक़ी के पोषण आहार के आंकड़े ही अलग रहते हैं। वे परिवार के पुरूष और लडक़ों के खानपान से काफी नीचे भी रह सकते हैं। देश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए लड़कियों और महिलाओं का बराबरी का योगदान हो सकता है, अगर उन्हें बराबरी से खानपान, पढ़ाई और इलाज मिले, और काम के समान अवसर मिलें, समान मजदूरी, और तनख्वाह मिले। आज हालत यह है कि दुनिया के कई देशों में सुअर जैसे जानवरों में जेनेटिक फेरबदल करके उसके कुछ अंग इंसानों में प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। जाहिर है कि ऐसे सुअर को अधिक महत्व के साथ रखा जाएगा, जिसे ट्रांसप्लांट के मकसद से ही किसी खास इंसान के जींस डालकर रखा गया है। बात सुनने में बहुत बुरी लग सकती है, लेकिन हिन्दुस्तान में महिलाओं को बच्चे पैदा करने, उन्हें पालकर बड़ा करने, परिवार का रोज का कामकाज करने, बुजुर्गों की सेवा करने के साथ-साथ जरूरत पडऩे पर अंग देने के लिए भी रखा जाता है। फिर भी उनमें से बहुतों की कोई इज्जत नहीं की जाती। ऐसे भारतीय परिवार पश्चिमी देशों में इंसानों के अंग प्रत्यारोपण के लिए रखे जाने वाले जानवरों की बेहतर देखरेख से कुछ सीख सकते हैं।
भारत में पिछले दो-तीन हफ्तों से खासकर सुप्रीम कोर्ट, और चुनाव आयोग, राजभवनों को लेकर जिस तरह की खबरें आ रही हैं, जिस तरह से केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां काम कर रही हैं, जिस तरह से बंगाल जैसे राज्य में वहां की पुलिस काम कर रही है, या जिस तरह छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पिछली सरकार के कामकाज का ब्यौरा सामने आ रहा है, उन सबसे कुल मिलाकर यह लग रहा है कि भारतीय लोकतंत्र का एक बड़ा हिस्सा फ्लॉप शो साबित हो चुका है। सरकारें अदालतों से लड़ रही हैं, सत्तारूढ़ पार्टियां जगह-जगह मुजरिमों की तरह काम कर रही हैं, और राज्यपाल मानो देश में अंग्रेज सरकार के राजनीतिक एजेंट बनकर रियासतों में काम कर रहे हैं। पिछले दो-चार हफ्तों का सुप्रीम कोर्ट का एकदम से असरदार रूख अगर देखें, तो भारतीय लोकतंत्र में बस वही काम करते दिख रहा है। संसद और विधानसभाओं में सत्तारूढ़ पार्टियों की मनमानी चल रही है, वहां संविधान की कोई जगह नहीं रह गई है, महाराष्ट्र विधानसभा और राजभवन जैसी जगहें सुप्रीम कोर्ट से खुला टकराव ले रही हैं, अभी कल ही सुप्रीम कोर्ट इस बात पर हक्का-बक्का था कि तमिलनाडु के राज्यपाल किस तरह सुप्रीम कोर्ट के हुक्म को मानने से इंकार कर रहे हैं, किस तरह केन्द्र सरकार मीडिया के तथ्यों की जांच के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने के लिए फैक्टचेक यूनिट बना रही थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने रोका है, और सुप्रीम कोर्ट ने कल ही इस बात पर भी हैरानी और अफसोस जताया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में केन्द्र सरकार ने किस तरह दो सौ नामों में से दो घंटे में दो नाम छांट लिए, अदालत ने इसे चुनाव आयुक्त नियुक्ति कमेटी में सदस्य नेता-प्रतिपक्ष के अधिकारों के खिलाफ माना है।
इन दिनों चर्चित सबसे बड़े मामले को देखें, तो चुनावी बॉंड के नाम पर जितना बड़ा वसूली-उगाही का फर्जीवाड़ा सामने आया है, उसने अगर देश को अब तक हक्का-बक्का नहीं किया है, तो आने वाले दिनों में जब मीडिया और सोशल मीडिया पर इसका साफ-साफ खुलासा होगा, बार-बार होगा, तो जनता को शायद कुछ हद तक यह समझ आएगा कि किस राजनीतिक दल को किस कारोबारी ने किस वजह से, किस तारीख को कितने करोड़ दिए थे। इस मामले में स्टेट बैंक ने जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ फैसले की बार-बार खिल्ली उड़ाई है, उससे लगता है कि देश का सबसे बड़ा सरकारी क्षेत्र का बैंक केन्द्र सरकार के चपरासी की तरह काम कर रहा था, और उसे सुप्रीम कोर्ट को भी उसकी औकात दिखाने में कोई हिचक नहीं हो रही थी। चुनावी बॉंड से जुड़ी हुई जानकारियां बैंक से निकलवाने में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और पूरी की पूरी बेंच मानो बैंक चेयरमैन की बांह मरोड़ते खड़ी थी, फिर भी बैंक टस से मस नहीं हो रहा था। जब यह समझ आया कि आखिरी चेतावनी पर जानकारी उजागर न करने का मतलब जेल जाना होगा, उस दिन बैंक चेयरमैन ने जानकारी दी, और हलफनामा दिया।
इससे परे अभी कुछ हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट में ही सात जजों की संविधानपीठ ने सर्वसम्मति से यह तय किया कि संसद या विधानसभा के भीतर सवाल पूछने या भाषण देने के लिए बाहर रिश्वत लेने वाले सांसदों और विधायकों पर मुकदमे चलेंगे। इससे सुप्रीम कोर्ट की ही पांच जजों की एक संविधानपीठ का तीन-दो के बहुमत से दिया गया 1998 का वह फैसला खारिज हुआ जिसमें सदन के भीतर के कामकाज के लिए बाहर रिश्वत लेने को भी जुर्म नहीं माना गया था। इसी के आधार पर देश में दर्जनों सांसद और विधायक जेल में रहने के बजाय अब तक मजा कर रहे थे। आगे भी देखना होगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें अपने पसंदीदा मुजरिम नेताओं को बचाने के लिए और कितने रास्ते निकालती हैं, और क्या हम अपने जीते-जी ऐसे रिश्वतखोर सांसद-विधायक जेल जाते देख पाएंगे। इस तरह पिछले कुछ हफ्तों में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा साफ-साफ जनहिमायती रूख दिखाया है, और सरकार की नाखुशी की परवाह किए बिना लगातार फैसले दिए हैं, जो कि सारे के सारे न्यायसंगत और तर्कसंगत लगते हैं।
अब सबसे ताजा मामला कल रात दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ईडी द्वारा एक शराब घोटाले के आरोप में गिरफ्तार करने का है। दिल्ली के कुछ दूसरे मंत्री इसी मामले में लंबे समय से जेल में चल रहे हैं, और ऐसा लग रहा है कि ईडी जिस कानून के तहत कार्रवाई करती है, उस कानून में जमानत से रोकना ही सजा है। ईडी के मामलों में सजा तो बहुत ही कम लोगों को होती है, लेकिन अधिकतर लोग महीनों और बरसों तक बिना जमानत पड़े रह जाते हैं, और यही इस कानून के तहत एक ऐसी सजा है जो कि अदालती फैसले के बिना ही हो जाती है। देश भर में यह आम चर्चा है और अधिकतर राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों का निशाना सिर्फ विपक्षी पार्टियों और उनके नेताओं पर रहता है। देश भर में केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन के लोगों पर शायद ही कभी कोई कार्रवाई होती है, और लोगों का यह भी कहना है कि विपक्षी पार्टियों में रहते अजीत पवार जैसे जिन लोगों पर कई-कई जुर्म दर्ज हो चुके रहते हैं, वे सत्तारूढ़ गठबंधन में जाते ही खत्म हो जाते हैं। केन्द्र की जांच एजेंसियों को लेकर देश भर में अगर ऐसी साख बन रही है, तो वह भी लोकतंत्र के भीतर एक बहुत बड़ा खतरा है।
लेकिन हमने पश्चिम बंगाल से लेकर छत्तीसगढ़ तक, बहुत से राज्यों में गैरभाजपा-गैरएनडीए पार्टियों की सरकारों में देखा है कि किस तरह राज्यों की जांच एजेंसियां भी राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों को नापसंद, उनके विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई करती हैं, और जिस तरह इन राज्यों में सत्तारूढ़ नेताओं, और उनको पसंद आला अफसरों के खिलाफ पहले से चल रही गंभीर कार्रवाईयों को भी खत्म कर दिया जाता है। कई राज्य इस तरह राज्यों की जांच एजेंसियों की मनमानी देख रहे हैं। हमने आज की बात की शुरूआत भारतीय लोकतंत्र के एक बड़े हिस्से की नाकामयाबी को लेकर भी की है कि जिन बातों को लेकर मोदी सरकार पर तोहमतें लगातार लगती हैं, अपनी जांच एजेंसियों का ठीक वैसा ही इस्तेमाल कई दूसरी राज्य सरकारें अपने-अपने इलाकों में करती हैं। जिस तरह चुनावी बॉंड को लेकर मोटेतौर पर भाजपा पर वसूली का आरोप लग रहा है, उस तरह की वसूली छोटे पैमाने पर, कम हद तक, टीएमसी, कांग्रेस, और टीआरएस जैसी पार्टियों ने भी की है, और छत्तीसगढ़ तो इस बात की एक बड़ी जलती-सुलगती मिसाल है कि कोई राज्य सरकार किस तरह माफिया अंदाज में उगाही कर सकती है।
इस तरह अब यह लगता है कि सुप्रीम कोर्ट आज देश में अकेला रह गया है जो कभी चुनाव आयोग पर काबू करता है, तो कभी चुनाव आयुक्त बनाने वाली केन्द्र सरकार पर, कभी वह राजभवनों को पटरी पर लाता है, तो कभी ईडी जैसी जांच एजेंसी को फटकारता है कि वह किस तरह बिना मुकदमे गिरफ्तार लोगों को बिना जमानत जेल में अधिक से अधिक समय तक रखने का काम कर रही है। बहुत सी राज्य सरकारों को भी दूसरे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ रही है कि वे गलत तरीके से जुर्म दर्ज कर रही हैं, गलत कार्रवाई कर रही हैं। सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय लोकतंत्र ऐसी किसी नौबत के हिसाब से बना है कि यहां पर संसद और विधानसभाओं में अपने रिश्वतखोर सदस्यों को बचाने का काम हो, उनके खिलाफ मुकदमे न चलने दिए जाएं, सरकारें पूरी तरह से नाजायज काम करें, राज्यपाल जो कि संविधान की शपथ दिलाते थकते नहीं हैं, वे संविधान के ठीक खिलाफ काम करें, और खुद न्यायपालिका में सुप्रीम कोर्ट के नीचे के कई हाईकोर्ट बहुत ही खराब फैसले देते रहें। क्या भारतीय लोकतंत्र इस तरह चल सकता है? यह बहुत बड़ा सवाल है, और हर पांच बरस में हो रहे मतदान को ही एक कामयाब लोकतंत्र मान लेना बहुत बड़ी गलती होगी क्योंकि यह मतदान भी दर्जनों किस्म के नाजायज और गैरकानूनी प्रभावों के घेरे में रहता है। भारतीय लोकतंत्र पर एक बार फिर सोच-विचार की जरूरत है कि यह चुइंगगम जैसा हो गया है जिसे हर ताकतवर दांत तरह-तरह से चबाकर थूक सकते हैं।
कल अंतरराष्ट्रीय डे ऑफ हैप्पीनेस के मौके पर कुछ शोध संस्थानों की एक मिली हुई सालाना रिपोर्ट जारी की गई जिसमें अलग-अलग देशों में लोगों के खुश रहने, या न रहने के आंकड़े बताए गए हैं। यह इन देशों में किए गए सर्वे के आधार पर है जिनमें अलग-अलग तबकों के लोगों से बात की जाती है, और उन्हें 143 देशों के इस वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक में जगह मिलती है। 2012 से आने वाली इस रिपोर्ट में फिनलैंड लगातार सातवीं बार दुनिया का सबसे खुशहाल देश पाया गया है। और भारत 125 देशों के नीचे, 126वीं स्थान पर है, और भारत से कम खुशहाल दुनिया में 20 देश भी नहीं है। तालिबानों के कब्जे वाले अफगानिस्तान में लोग सबसे अधिक नाखुश हैं। लेकिन हैरानी की बात यह है कि पाकिस्तान 108वीं जगह पर, जो कि भारत से काफी अधिक खुशहाल आबादी बताता है। भारत के बारे में अलग से जो आंकड़े आए हैं उनके मुताबिक यहां नौजवान सबसे अधिक खुश हैं, और निम्न-मध्यमवर्ग के लोग सबसे कम खुश हैं। भारत में बुजुर्ग मर्द बुजुर्ग औरतों के मुकाबले अधिक संतुष्ट हैं, लेकिन कुछ दूसरे पैमानों पर यह मामला उल्टा भी है। भारत में पढ़े-लिखे, उच्च जातियों के लोग अनपढ़ एसटी-एससी के मुकाबले अधिक संतुष्ट हैं।
हम आंकड़ों में बहुत अधिक उलझे बिना एक व्यापक मुद्दे पर बात करना चाहते हैं कि जिस वक्त दुनिया के लोगों के खुश रहने या न रहने के बारे में ऐसी रिपोर्ट आ रही है, उस वक्त दुनिया के अलग-अलग देशों का क्या हाल है? फिलीस्तीन पर लगातार हमले करके दसियों हजार लोगों को मार डालने वाला इजराइल इस हैप्पीनेस इंडेक्स में पांचवें नंबर का सबसे खुश बताया जा रहा है। एक हत्यारे देश के लोग अगर सबसे खुश हैं, और उनके ठीक पड़ोस में मलबा बन चुके गाजा में लाशों के बीच लोग भूख से मर रहे हैं, और कुछ किलोमीटर दूर इजराइली अगर दुनिया में ऐसे पांच महीनों के बाद भी दुनिया में पांचवे सबसे खुश व्यक्ति हैं, तो हत्यारे देश के नागरिकों की इस खुशी को क्या माना जाए? अमरीका के लोग अगर दुनिया में 23वें नंबर के सबसे खुश लोग हैं, और अमरीकी मदद से, और उसके वीटो की मेहरबानी से अगर इजराइल यह सामूहिक जनसंहार कर रहा है, तो अमरीकियों की ऐसी खुशी बताती है कि उनके सामाजिक सरोकार क्या हैं? जिस हिन्दुस्तान में आर्थिक कामयाबी का जलसा मनाया जा रहा है, वहां गरीबों और अमीरों के बीच फासला कैसा भयानक है, यह भी देखने की जरूरत है। कल ही वल्र्ड इन इक्विटी लैब की दुनिया में आर्थिक असमानता की रिपोर्ट आई है जिसके मुताबिक हिन्दुस्तान की सबसे अमीर एक फीसदी आबादी की राष्ट्रीय कमाई में हिस्सेदारी बढ़ गई है, और देश की संपत्ति में भी। यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले सौ साल में पहली बार ऐसा हुआ है। रिपोर्ट का नाम ही 1922-2023 : अरबपति राज का उदय रखा गया है। इसमें बताया गया है कि पिछले एक दशक में देश में यह फासला बहुत तेजी से बढ़ा है।
लेकिन हम आंकड़ों में अधिक उलझना नहीं चाहते हैं, और यह देखना चाहते हैं कि देश की एक व्यापक तस्वीर क्या बन रही है? दुनिया में आज यूक्रेन के लोग एक तरफ रूसी हमले से मारे जा रहे हैं, दूसरी तरफ अमरीका और योरप के फौजी संगठन नाटो की तरफ से यूक्रेन को लगातार दी जा रही फौजी मदद की वजह से रूस के मोर्चे पर बड़ी संख्या में यूक्रेनी मारे जा रहे हैं, और कुछ लोगों का यह भी मानना है कि नाटो और पश्चिमी देश यूक्रेन में एक प्रॉक्सी वॉर लड़ रहे हैं, और वे यूक्रेन के कंधों पर बंदूक रखकर रूस को खोखला कर रहे हैं, अपने किन्हीं सैनिकों का लहू बहाए बिना। अब रूस के साथ यह लड़ाई नाटो देशों की परदे के पीछे की लड़ाई ही क्यों न हों, हर दिन यूक्रेन और अधिक खोखला हो रहा है, और पश्चिम की फौजी रणनीति के मुताबिक रूसी सेनाएं भी हर दिन नुकसान उठा रही हैं। क्या यह नाटो की रूस को खोखला करने की एक योजना है जिसमें कई किस्म की मदद देकर यूक्रेन की कुर्बानी दी जा रही है?
इससे परे अगर देखें तो 20 बरस राज के बाद अमरीका जिस तरह से अफगानिस्तान को बेसहारा छोडक़र निकला है, तो वहां पर तालिबानी राज में महिलाओं की हालत 20 बरस पहले के मुकाबले अधिक खराब है, और अमरीका अपनी फौजी नाकामयाबी के बाद वहां से मुंह चुराकर भाग निकला है। दूसरी तरफ सीरिया, इराक, जैसे बहुत से देश हैं जो लगातार अमरीकी हमलों के शिकार रहे, और ऐसे देशों के लोग योरप में शरण पाने के लिए लाखों की संख्या में इन बरसों में निकले हैं, और उनमें से दसियों हजार लोग समंदर में डूबकर मारे गए हैं। किसी देश पर जंग या हमले को थोप देना, और फिर वहां के लोगों को भूखों मरने के लिए छोड़ देना, या कि आतंकियों के रहमोकरम पर छोड़ देना, अगर ऐसे मुजरिम देशों के लोग भी अपने देशों में खुश हैं, और हैप्पीनेस इंडेक्स में ऊपर हैं, तो जाहिर है कि उनकी खुशियों में तथाकथित इंसानियत का कोई योगदान नहीं है।
हम दुनिया की आर्थिक असमानता की रिपोर्ट, और हैप्पीनेस इंडेक्स को मिलाकर देखते हैं तो लगता है कि तथाकथित इंसानियत का जमाना खत्म हो चुका है, और अब लोग अपने देश के भीतर एक अलग किस्म के मूल्यों को लेकर खुशहाल हैं, और बाकी दुनिया से उनके सरोकार नहीं दिखते हैं। आज की ही रिपोर्ट है कि सूडान बहुत बुरी तरह भुखमरी से घिर गया है, और जिस तरह फिलीस्तान के गाजा में खाने को कुछ नहीं रह गया है, और दसियों लाख लोग भुखमरी की कगार पर है, उसी तरह सूडान में भी चल रहे घरेलू संघर्ष की वजह से वहां दुनिया की सबसे बड़ी भुखमरी की नौबत है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि हाल के बरसों में सूडान दुनिया में भुखमरी का सबसे बड़ा उदाहरण बन रहा है, और वहां पर पौने दो करोड़ से अधिक लोग खाने की कमी से गुजर रहे हैं क्योंकि साल भर से वहां गृहयुद्ध चल रहा है। इसके अलावा अफगानिस्तान, कांगो, इथियोपिया, पाकिस्तान, सोमालिया, सीरिया, और यमन में भुखमरी की नौबत है।
जहां लोगों के पास अगला खाना नहीं, बल्कि पिछले कई खाने नहीं रह गए हैं, भूख की थप्पी बनती चली जा रही है, वहां का हाल देखते हुए यह अंदाज लगाना मुश्किल पड़ता है कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में लोग खुशहाली के इंडेक्स पर लगातार बने रहने की खुशियां मना रहे हैं। यहां पर हम सबसे खुशहाल देशों के लोगों की खुशी के पीछे की एक वजह पर चर्चा करना चाहते हैं, कि वहां के कम से कम एक देश के लोग अपनी खुशियों को बांटने में अधिक खुशी पा रहे हैं। दुनिया को यह समझना चाहिए कि धरती के इस गोले की सतह पर अलग-अलग हिस्सों में बसे हुए एक ही किस्म के इंसान अगर भूख से मर रहे हैं, फौजी हमलों में बदनों के टुकड़े हो रहे हैं, पूरे के पूरे देश को खत्म कर दिया जा रहा है, तो ऐसे गोले पर दूसरे हिस्सों में कुछ देश अगर खुशियों और संपन्नता का जलसा मनाते हैं, तो फिर धरती नाम का यह गोला दूसरे ग्रह के लोगों के हमलों के लायक है, दूसरे ग्रह के उन प्राणियों में हो सकता है कि धरती के इंसानों के मुकाबले इंसानियत कुछ अधिक हो। दसियों हजार फिलीस्तीनी लाशों के बगल में अगर इजराइली जनता दुनिया में पांचवें नंबर की सबसे खुश है, तो फिर एक वक्त इन्हीं यहूदियों की नस्ल को खत्म करने के लिए दसियों लाख कत्ल करने वाले हिटलर की खुशी को भी इतिहास में देखना चाहिए, हालांकि उसके वक्त हैप्पीनेस इंडेक्स बना नहीं था।
मुम्बई पुलिस के एक चर्चित और विवादास्पद मुठभेड़ विशेषज्ञ प्रदीप शर्मा को बाम्बे हाईकोर्ट ने एक बेकसूर के कत्ल के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई है। इस मामले में प्रदीप शर्मा के साथ-साथ अदालत ने 12 अन्य पुलिसवालों को भी उम्रकैद दी है। यह फैसला 2006 में हुए एक कत्ल का है जिसमें छोटा राजन गिरोह के एक गुंडे को प्रदीप शर्मा और उनकी टीम ने मुठभेड़ के नाम पर साजिशन मार गिराया था। उस वक्त मुम्बई में अंडरवल्र्ड के बीच ऐसी लड़ाईयां चलती रहती थीं, और यह चर्चा भी रहती थी कि किस तरह मुम्बई पुलिस के कुछ मुठभेड़ विशेषज्ञ अफसर एक गिरोह के लिए भाड़े पर काम करते हुए दूसरे गिरोह के लोगों को मार गिराते थे। बाद में जब ऐसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहे जाने वाले अफसर बहुत अधिक चर्चित हो गए, तो उनमें से कई लोग जमीन-जायदाद खाली करवाने का ठेका लेने लगे, और मुम्बई के करोड़पतियों-अरबपतियों से कई और तरह की वसूली-उगाही करने लगे। निचली अदालत ने प्रदीप शर्मा को पूरी तरह छोड़ दिया था, लेकिन हाईकोर्ट की दो महिला जजों की बेंच ने इस जुर्म को पूरी तरह सही पाया, और यह सजा सुनाई है। इस एक फैसले से यह साफ होता है कि किस तरह जब पुलिस को मनमानी करने की आजादी मिलती है तो उसके खतरनाक नतीजे होते हैं।
हमने बात शुरू तो मुम्बई पुलिस से की है लेकिन यह हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में बहुत सी जगहों पर दूसरे हालात में भी देखने मिलता है कि जब सरकारी वर्दी को मानवाधिकार खत्म करने की छूट मिलती है, तो वह किस खतरनाक नौबत तक पहुंच जाती है। हमने कश्मीर, उत्तर-पूर्व, पंजाब जैसे बहुत से आतंक और उग्रवाद प्रभावित इलाकों को देखा है कि वहां पर राज्य की पुलिस या वहां तैनात अर्धसुरक्षा बल किस तरह मनमानी करने लगते हैं, और आतंकग्रस्त इलाकों में हिंसा पर काबू पाने के लिए सरकारी ताकतें अपनी बंदूकों को इस तरह की छूट भी दे देती हैं जिससे किसी तरह हालात पर काबू पाया जा सके। इन सरहदी राज्यों से परे छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में भी हमने देखा है कि जहां नक्सल प्रभावित बस्तर में पुलिस और दूसरे सुरक्षाबलों की लगातार, लंबी, और बहुत बड़ी मौजूदगी कई किस्म के मानवाधिकार खत्म करती है। दुनिया में जहां कहीं हिंसक और हथियारबंद टकराव लंबा चलता है, उन तमाम जगहों पर सरकारी बंदूकें भी लोगों के बुनियादी हकों को कुचलने की आदी होने लगती हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर में तो हुए एक बड़े सारकेगुड़ा हत्याकांड की 2012 में की न्यायिक जांच से यह भी साबित हुआ है कि वहां मौजूद पुलिस ने 17 बेकसूर और निहत्थे आदिवासियों को बैठकर एक त्यौहार की तैयारी करते हुए घेरा, और मार डाला। पिछली भूपेश सरकार के वक्त यह जांच रिपोर्ट आ गई थी, लेकिन अफसोस यह है कि उसके बाद भी इस रिपोर्ट पर सरकार ने आगे कोई कार्रवाई नहीं की है। न्यायिक जांच रिपोर्ट में यह लिखा गया कि इन 17 लोगों को नक्सली बताने का पुलिस का दवा बिल्कुल फर्जी था। बस्तर में आदिवासियों की मदद करने के लिए काम कर रही कुछ महिला वकीलों ने इस मामले में आदिवासियों की मदद की थी, और अदालत में उनका केस लड़ा था, बाद में न्यायिक जांच की रिपोर्ट आने पर भी सरकार ने आगे कोई कार्रवाई नहीं की।
इसलिए मुम्बई जैसे महानगर से लेकर बस्तर के जंगलों में बसे हुए गांवों तक, जहां कहीं सरकारी वर्दियों को मनमानी की छूट मिलती है, वे कातिल हो जाती हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र में पुलिस और सुरक्षाबलों के ऊपर आने वाली जिम्मेदारी छोटी नहीं रहती है, इसी तरह अदालतों में किसी हथियारबंद आंदोलन के खिलाफ कुछ साबित करना भी आसान नहीं रहता है। लेकिन इतना जरूर रहता है कि अदालत के लंबे और थका देने वाले सिलसिले के बाद इंसाफ की कुछ उम्मीद बनती है। खासकर जिन मामलों में लोगों को सजा होती है, वे सचमुच ही गुनहगार रहने की संभावना रखते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था में कई गुनहगार छूट सकते हैं, लेकिन बेगुनाह के फंसने की गुंजाइश कम रहती है। ऐसे ही अदालती हाल को देखकर देश के बहुत से लोगों को लगता है कि पहली नजर में जो मुजरिम दिख रहे हैं उन लोगों को मुठभेड़ में मार दिया जाना चाहिए। उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में हम इस बात को देख रहे हैं जहां भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पुलिस बात-बात में मुठभेड़ कर रही है, और उसे मुठभेड़ में मारा जाना बता रही है। लोगों का अंदाज है कि पुलिस बेरहमी से और सोच-समझकर लोगों को मारती है जिसे मुठभेड़ में मौत की तरह दर्ज किया जाता है।
जब लोगों के सामने मुठभेड़-हत्या जैसे आसान और तुरत-फुरत दिए जाने वाले फैसले और सजा का एक विकल्प पेश किया जाता है, तो धीरे-धीरे लोगों को यही तरीका ठीक लगने लगता है। अदालतों में दस-बीस बरस फैसले का इंतजार करने के बजाय लोगों को लगने लगता है कि बुलडोजर लेकर किसी आरोपी के घर-दुकान को तुरंत गिरा देना चाहिए, और आरोपी को भी भागने की कोशिश में बताते हुए मार डालना चाहिए। लोगों के बीच ऐसी आदिम हिंसा दसियों हजार बरस पुरानी है, और लोकतंत्र का बोझ उनकी समझ पर पिछली पौन सदी का ही है। इसलिए पहला मौका मिलते ही लोग फिर पत्थरयुग की सोच पर पहुंचने को आसान समझते हैं। उन्हें लोकतंत्र की लचीली न्याय व्यवस्था पसंद आना तेजी से बंद हो जाता है, और जब तक वे उसके निशाने पर नहीं आ जाते, तब तक वे मुठभेड़-हत्याओं की तारीफ में डूबे रहते हैं।
मुठभेड़-हत्याओं और सुरक्षाबलों की हिंसा, मानवाधिकारों को कुचले जाने के खिलाफ लोगों की जागरूकता और समझ के लिए लोकतंत्र की एक बुनियादी समझ जरूरी है जो कि कुछ मुश्किल बात है। अदालत से दस-बीस बरस बाद सजा होने के बजाय लोगों को यह बेहतर लगता है कि जिस पर शक हो उसे चौराहे पर घेरकर पत्थरों से मार डाला जाए। इस किस्म का तालिबानी इंसाफ लोगों को तब तक सुहाता है जब तक कि वे पत्थरों के निशाने पर न रहें। जिस तरह तालिबानी राज में औरतों और मर्दों को चौराहों पर कोड़े लगाए जाते हैं, हिन्दुस्तान में भी अगर जनमत संग्रह कराया जाए, तो बहुत से लोग इसी किस्म का इंसाफ पसंद करेंगे, क्योंकि इन मामलों में सजा पाने वाली पीठ उनकी अपनी नहीं रहती है। जब पुलिस को हिंसक और गैरकानूनी काम करने की छूट दी जाती है, तो वे महाराष्ट्र के कई चर्चित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की तरह हो जाते हैं। यह सिलसिला लोकतंत्र में बहुत खतरनाक है, और फिल्मों की तरह जब असल जिंदगी में भी जनता मौके पर किए गए ऐसे इंस्टेंट नूडल्स सरीखे इंसाफ की प्रशंसक हो जाती है, तो लोकतंत्र बहुत कमजोर हो जाता है। ऐसी नौबत से बचने की जरूरत है।
दयानिधिे
निम्न और मध्य आय वाले देशों में कई बच्चों को विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय कारणों से पर्याप्त पौष्टिक भोजन तक पहुंचने में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जिसके कारण अल्पपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भारी चिंता के रूप में उभर रही है।
जेएएमए नेटवर्क ओपन, पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि नवजात शिशुओं को छह महीने की उम्र तक केवल स्तनपान पर निर्भर रहना चाहिए। छह महीने की उम्र के बाद, शिशुओं और छोटे बच्चों की बढ़ती पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अकेले स्तन का दूध पर्याप्त नहीं है।
अध्ययन के दौरान भारत में लगभग 67 लाख बच्चे ऐसे पाए गए, जिन्होंने 24 घंटों के दौरान कुछ नहीं खाया। इन बच्चों को जीरो फूड की श्रेणी में रखा गया। जीरो फूड चिल्ड्रन का आशय है कि 6 से 23 माह की उम्र के वे बच्चे जिन्होंने पिछले 24 घंटों में कोई दूध, या भोजन नहीं खाया हो।
अध्ययन के मुताबकि भारत में जीरो फूड चिल्ड्रन की संख्या अब तक की सबसे अधिक है। यह अध्ययन 92 देशों पर किया गया था और भारत में पाए गए जीरो फूड चिल्ड्रन की संख्या इन 92 देशों के बच्चों की संख्या के मुकाबले लगभग आधी है। भारत की यह दर गिनी, बेनिन, लाइबेरिया और माली जैसे पश्चिम अफ्रीकी देशों में प्रचलित दर के बराबर है।
जीरो-फूड चिल्ड्रन यानी बिना भोजन के बच्चों की संख्या के मामले में नाइजीरिया दूसरे स्थान पर है (962000), इसके बाद पाकिस्तान (849000), इथियोपिया (772000) और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (362000) हैं।
जनसंख्या स्वास्थ्य और भूगोल के प्रोफेसर सुब्रमण्यम और हार्वर्ड सेंटर फॉर पॉपुलेशन एंड डेवलपमेंट स्टडीज के वैज्ञानिक रॉकली किम ने 92 निम्न और मध्यम आय वाले देशों के छह से 23 महीने की उम्र के 276,379 बच्चों का विश्लेषण किया, जिनकी देखभाल करने वालों ने उनके भोजन के बारे में जानकारी दी थी।
शोधकर्ताओं ने 92 निम्न और मध्यम आय वाले देशों में 2010 और 2022 के बीच एकत्र किए गए राष्ट्रीय आंकड़ों का उपयोग किया।
अध्ययन में पाया गया कि बिना भोजन वाले बच्चे अध्ययन आबादी का 10.4 फीसदी थे।
शून्य-भोजन वाले बच्चों का प्रचलन देशों के बीच व्यापक रूप से फैला हुआ है। कोस्टा रिका में, प्रसार 0.1 फीसदी था, गिनी में, 21.8 फीसदी।
भारत में, जहां अध्ययन के लगभग आधे बिना भोजन वाले बच्चे थे, जिनका प्रसार 19.3 फीसदी था।
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, बिना भोजन वाले बच्चों की व्यापकता विकास की इस महत्वपूर्ण अवधि के दौरान शिशु और छोटे बच्चों के आहार प्रथाओं में सुधार और अधिकतम पोषण सुनिश्चित करने के लिए लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता को उजागर करती है। यह मुद्दा पश्चिम और मध्य अफ्रीका और भारत में विशेष रूप से जरूरी है।
6 से 23 माह के उम्र के बच्चों के लिए निरंतर स्तनपान के अलावा पर्याप्त खाद्य पदार्थों की शुरुआत अधिकतम पोषण सबसे महत्वपूर्ण है।
शोध में पर्याप्त भोजन के कम अवधि और लंबे समय के फायदों को भी उजागर किया है, जैसे मृत्यु दर, कुपोषण, बौनापन, कम वजन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी के खतरों का कम होना शामिल है। साथ ही बच्चों का मानसिक विकास तेजी से होता है, जो बच्चों के भविष्य की नींव रखता है।
हार्वर्ड द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि कुछ देशों में बिना भोजन के बच्चों की प्रचलन दर 21 फीसदी तक है। (डाऊन टू अर्थ)
सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बॉंड का मामला भारतीय लोकतंत्र के कई तबकों की नीयत उजागर कर रहा है। केन्द्र सरकार के सार्वजनिक प्रतिष्ठान, स्टेट बैंक ने तो इस मामले में महीने भर से अधिक से अदालत के साथ लुकाछिपी खेलना शुरू कर दिया है, और अदालती रहमदिली से अब तक बैंक चेयरमैन अवमानना में जेल जाने से बचे हुए हैं। मजबूर होकर पहले के दो-दो एकदम साफ आदेशों के बाद भी अब जाकर सुप्रीम कोर्ट को यह आदेश देना पड़ा है कि बैंक चुनावी बॉंड से जुड़ी हुई हर जानकारी 21 मार्च तक चुनाव आयोग को दे, और चुनाव आयोग इसे तुरंत ही अपनी वेबसाइट पर डाले। अदालत ने यह भी कहा है कि स्टेट बैंक के चेयरमैन हलफनामा दें कि उन्होंने कुछ भी नहीं छुपाया है। कायदे की बात तो यह है कि देश के सबसे बड़े बैंक के चेयरमैन को अदालत के सामने इस बेइज्जती को झेलने से पहले पद से इस्तीफा दे देना था, या चुल्लू भर पानी में डूब जाना था। लेकिन ऊंचे ओहदों पर शर्म इन दिनों काफी शॉर्ट सप्लाई में है। सुप्रीम कोर्ट के सामने एक बड़े वकील ने देश के उद्योग संगठनों की ओर से खड़े होकर कहा कि बॉंड के नंबर जारी करने का आदेश रद्द करने के लिए उन्होंने अर्जी लगाई है। इस पर देश के मुख्य न्यायाधीश को कहना पड़ा कि उनके पास कोई अर्जी नहीं आई है, और उन्होंने यह भी कहा कि वे फैसला आ जाने के बाद आए हैं, और उनको अभी नहीं सुना जाएगा। एक और वकील की ऊंची आवाज पर मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें फटकार लगाई। इसके साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष ने राष्ट्रपति को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रोकने का अनुरोध किया था। इस पर भी अदालत ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि यह पब्लिसिटी पाने के लिए लिखी गई चिट्ठी थी, जो कि उन्हें भी भेजी गई है। इन सब छोटी-छोटी बातों से परे कुल मिलाकर बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट देश की सबसे बड़ी अदालत से जिस तरह लुकाछिपी खेल रही है, वह हक्का-बक्का करता है कि क्या लोगों में अपने ओहदे की जिम्मेदारी का कोई भी अहसास नहीं है?
चुनावी बॉंड के मामले का हाल यह है कि पहली नजर में अब तक जो जानकारियां सामने आई हैं, उनके मुताबिक केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों में, या सरकार ने जिन उद्योगों के खिलाफ छापे मारे, जहां जांच शुरू की, जिन्हें नोटिस दिए, उन्होंने कुछ हफ्तों या महीनों के भीतर आपाधापी में करोड़ों के चुनावी बॉंड खरीदे, और किसी राजनीतिक दल को दिए। अब किसे दिए यह जानकारी सुप्रीम कोर्ट के बॉंड नंबरों से पता लगेगी, अगर 21 तारीख के पहले स्टेट बैंक फिर कोई साजिश न गढ़ ले। और ऐसे बॉंड न सिर्फ केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा को मिले हैं, बल्कि दूसरी पार्टियों को भी मिले हैं, और केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि दूसरी पार्टियों को सांसदों की संख्या के अनुपात में भाजपा के मुकाबले अधिक दान मिला है। यह एक अलग बात है कि जांच एजेंसियों का दबाव न सिर्फ केन्द्रीय एजेंसियों का हो सकता है, बल्कि राज्यों का भी हो सकता है, जिन्हें चुनावी बॉंड से काफी पैसा मिला है। तृणमूल कांग्रेस और भारत राष्ट्र समिति जैसी एक-एक राज्य वाली पार्टियों को कांग्रेस से अधिक, और जरा कम चंदा मिला है, जो कि क्षेत्रीय ताकत का सुबूत है। इसलिए जब तक बॉंड नंबरों से ठीक-ठीक जानकारी सामने नहीं आ जाती, यह बात भी रहस्यमय है कि किन दानदाताओं ने किस पार्टी को कब और कितना चंदा दिया है, और उनके खिलाफ उस पार्टी की केन्द्र या राज्य सरकार के पास कौन से मामले थे, या कि इन सरकारों से उन्हें कौन सी कारोबारी रियायतें मिल रही थीं। देश में सबसे अधिक चुनावी बॉंड खरीदने वाले एक लॉटरी-कारोबारी ने सबसे अधिक चंदा दक्षिण भारत के तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके को दिया है, जहां उसका लॉटरी का बहुत बड़ा कारोबार है। ऐसे तमाम राष्ट्रीय और प्रादेशिक सत्ताओं के असर को देखना होगा, और हमें उम्मीद है कि बॉंड के नंबर सामने आते ही, किन पार्टियों ने किस नंबर के बॉंड को भुनाया है, यह जानकारी सामने आते ही मीडिया का एक जागरूक तबका और कुछ वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, जनसंगठन तुरंत ही इसका विश्लेषण देश के सामने रखेंगे, और आने वाले लोकसभा चुनाव में जनता इस आधार पर फैसला कर सकेगी कि किस पार्टी की सरकार ने किन लोगों से कब, कितना, और किस तरह का नजराना, शुकराना, या जबराना हासिल किया था। सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एकदम सही है कि जनता को यह जानने का पूरा हक है। और आज जिस तरह से अलग-अलग कई ताकतें लोकतंत्र के लिए जरूरी यह जानकारी उजागर होने से रोकने में जुट गई हैं, उन्हें देखते हुए सुप्रीम कोर्ट का रूख हौसले का भी लग रहा है कि वह अपने बुनियादी निष्कर्ष पर टिका हुआ है कि जनता के सामने पूरी की पूरी जानकारी रखी जाए, और किसी को भी कुछ भी छुपाने का मौका न दिया जाए।
केन्द्रीय जांच एजेंसियों और राज्य सरकारों की कई तरह की कार्रवाईयों से परे यह बात भी सामने आई है कि देश में जिन बड़ी दवा कंपनियों के खिलाफ घटिया दवा निर्माण की जांच चल रही थी, उन्होंने आनन-फानन बहुत बड़ी-बड़ी रकमों के चुनावी बॉंड खरीदे। यह कार्रवाई करने का अधिकार केन्द्र और राज्य सरकार दोनों को रहता है, अब यह देखना है कि इन कंपनियों ने यह नजराना या शुकराना किस जगह सत्तारूढ़ पार्टी को दिया था। इसके अलावा कई ऐसी कंपनियों की जानकारी सामने आई है जो कि साल भर में खुद तो दो करोड़ भी नहीं कमा पाई, लेकिन जिसने 183 करोड़ जैसी बड़ी रकम का चुनावी चंदा दिया है। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों और सबसे संपन्न कारोबारियों के बीच अगर इतना अनैतिक गठबंधन चल रहा है, तो इसका भांडाफोड़ होना जरूरी है। और लोकसभा चुनाव का यह मौका इसके लिए एकदम सही है, और शायद इसी चुनाव को प्रभावित होने से बचाने के लिए स्टेट बैंक इस अंदाज में जानकारी को दबाने पर आमादा है कि मानो बैंक खुद अपने नीले गोले के छेद वाले निशान के साथ चुनाव लडऩे जा रहा है।
21 तारीख को अगर स्टेट बैंक पूरी जानकारी दे भी देता है, तो भी सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच को चाहिए कि वह स्टेट बैंक चेयरमैन को अदालत की अवमानना के लिए कम से कम एक दिन की कैद दे। स्टेट बैंक ने मन, वचन, और कर्म तीनों से न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को, बल्कि देश के लोकतंत्र को धोखा देने की कोशिश की है। जब इतने बड़े ओहदे पर बैठा आदमी सुप्रीम कोर्ट को इस बेशर्मी और दुस्साहस के साथ उसकी औकात दिखा रहा है, तो उसे इसके दाम भी चुकाने चाहिए। हमारा ख्याल है कि स्टेट बैंक की बदमाशी की वजह से अदालत का जितना वक्त खराब हुआ है, उसकी भरपाई स्टेट बैंक चेयरमैन की निजी तनख्वाह से करवानी चाहिए, तभी जाकर देश के बाकी लोगों के सामने यह मिसाल रहेगी कि राजनीतिक ताकतों को बचाने के लिए वे अगर इतने घटिया स्तर पर उतरेंगे, और अदालत की अवमानना करेंगे, तो उसके दाम भी उन्हें चुकाने होंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में कल तीन बरस की एक बच्ची से उसके मकान मालिक के 14-15 बरस के नाबालिग बेटे ने घर के बाथरूम में ही बलात्कार किया, और इसकी खबर लगने पर जब बच्ची के परिवार ने जाकर बाथरूम का दरवाजा पीटा तो उसने भीतर से दरवाजा खोला नहीं। दरवाजा तोडऩे पर यह बच्ची खून से लथपथ मिली, बलात्कार के अलावा उसके बदन पर काटने के निशान भी मिले, बच्ची को तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया जहां उसे मृत पाया गया। मकान मालिक का नाबालिग बेटा फरार है, और बिलासपुर शहर इस घटना को लेकर जाहिर है कि बहुत विचलित है। अपने ही घर के आसपास खेल रही तीन साल की बच्ची इस कदर असुरक्षित हो सकती है, यह किसने सोचा था? और जिस अंदाज में यह पूरी घटना हुई है, उसमें कौन अड़ोस-पड़ोस पर भरोसा कर सकते हैं?
हिन्दुस्तानी समाज में बलात्कार के अधिकतर मामलों में लडक़ी या महिला को ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। जिस देश में बड़े-बड़े संवैधानिक पदों पर बैठे हुए नेता ऐसे बयान देते हैं कि लड़कियों के जींस पहनने से, या शाम-रात अकेले बाहर घूमने से वे बलात्कार के खतरे में पड़ती हैं। कुछ सत्तारूढ़ नेता तो ऐसे भी रहे हैं जो कि नूडल्स खाने से लोग बलात्कारी हो रहे हैं जैसी बातें भी कह चुके हैं। मुलायम सिंह यादव जैसे देश के एक सबसे बड़े नेता रहे व्यक्ति बलात्कार की घटनाओं पर सार्वजनिक रूप से यह बोलते दर्ज हुए हैं कि लडक़े रहते हैं, उनसे गलतियां हो जाती हैं। सपा के ही आजम खां से लेकर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी तक बलात्कार की शिकायतों को राजनीतिक साजिश बताने में पल भर का वक्त नहीं लगाते। यह देश बलात्कार को लडक़ी या महिला की इज्जत लुटना बताता है, मानो उसने कोई जुर्म किया हो। बलात्कार के समाचारों में बड़े-बड़े अखबारों से लेकर समाचार चैनलों तक यही जुबान इस्तेमाल होती है, और समाज की पूरी भाषा और सोच बलात्कारी की मर्दानगी की हिफाजत करने में जुट जाती है। जब पूरे देश की सोच यही हो, तो मकान मालिक के नाबालिग बेटे ने अगर किराएदार की तीन साल की बेटी को बलात्कार के लायक मान लिया, तो इसके पीछे धीरे-धीरे पनपी उसकी सोच भी जिम्मेदार है कि लड़कियां और महिलाएं हिंसा झेलने की ही हकदार होती हैं।
अब इससे परे एक बिल्कुल अलग पहलू यह भी है कि मोबाइल फोन और इंटरनेट की मेहरबानी से अब देश के छोटे-छोटे बच्चों की पहुंच भी परले दर्जे के हिंसक पोर्नो वीडियो तक हो गई है, और ऐसे बहुत से वीडियो मौजूद हैं जो कि छोटे बच्चों के साथ सेक्स दिखाते हैं। ऐसे में इस नाबालिग लडक़े ने इनमें से किसी चीज से यह हौसला पाया हो, और यह हिंसा की हो, तो भी हमें हैरानी नहीं होगी। आज ही छत्तीसगढ़ के ही जशपुर इलाके की एक दूसरी खबर है कि वहां एक नाबालिग स्कूली छात्र ने एक दूसरे स्कूल की नाबालिग छात्रा से बलात्कार किया, और इस मामले का खुलासा तब हुआ जब छात्रा गर्भवती हो गई। अब पुलिस में रिपोर्ट हुई है, और बलात्कारी लडक़े को हिरासत में लिया गया है। ऐसी घटनाएं महज बच्चे कर रहे हों ऐसा भी नहीं है, पिछले कुछ दिनों में ही छत्तीसगढ़ के अलग-अलग इलाकों के स्कूली शिक्षक और हेडमास्टर तक छात्राओं का यौन शोषण करते पकड़ाए हैं, उनमें से कुछ तो नाबालिग लड़कियों को मोबाइल पर पोर्नो वीडियो दिखाते थे, और उनके बदन का शोषण करते थे। दर्जन-दर्जन भर लड़कियों ने जब इसकी शिकायत की, तब जाकर कार्रवाई हुई है।
समाज की जब ऐसी नौबत है, और जब नाबालिग ही दूसरे नाबालिग से बलात्कार करने लगें, तो उसे रोक पाना पुलिस के लिए मुमकिन नहीं होता है। सरकार और समाज के लिए यही सबसे सहूलियत की बात होती है कि इन घटनाओं को पुलिस, अदालत, और जेल या सुधारगृह का मामला बताकर अपने हाथ झाड़ लिए जाएं। लेकिन ऐसी घटनाएं साबित करती हैं कि सरकार और समाज को लोगों को शिक्षित करने की अपनी जो जिम्मेदारी पूरी करनी थी, वह पूरी नहीं हो पाई है, पूरी होना तो दूर, उस तरफ कोई शुरूआत भी नहीं हो पाई है। स्कूली बच्चों को अच्छे और बुरे स्पर्श की समझ देना अभी भी इस समाज में पश्चिमी संस्कृति मान लिया जाएगा, मानो हिन्दुस्तान में बलात्कार अंग्रेज लेकर आए थे। हिन्दुस्तान की पौराणिक और धार्मिक कहानियां बलात्कार की घटनाओं से भरी हुई हैं, और अब तो 21वीं सदी का भारत सेक्स की चर्चा को भी, बदन की जानकारी को भी बच्चों को देने से जिस कदर मुंह चुराता है, उसका मतलब यही है कि वह ऐसे खतरे में पडऩे के लिए रोज और अधिक तैयार होता है। जब तक जिम्मेदारी से बचा जाएगा, तब तक यह सिलसिला जारी रहेगा, और बढ़ते भी चलेगा। छोटे और बड़े बच्चों को, समाज के बाकी लोगों को बचपन से ही महिलाओं और लड़कियों का सम्मान सिखाने की जरूरत है, और हर तबके को सेक्स के जुर्म से बचना सिखाने की भी। सरकार और समाज इन बातों को अनदेखा करके, मुंह मोडक़र इनसे नहीं बच सकते, इसके लिए योजनाबद्ध तरीके से जागरूकता लाने की जरूरत है। पन्द्रह बरस के लडक़े को अगर तीन बरस की बच्ची से बलात्कार सूझ रहा है, और उसे एक लंबी सजा का भी डर नहीं है, पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाने का डर नहीं है, एक मासूम को मार डालने से भी जिसे हिचक नहीं है, तो उसे और उसकी पीढ़ी के दूसरे लोगों को मनोवैज्ञानिक परामर्श की जरूरत है।
हम पहले भी इस बात को लिख चुके हैं कि प्रदेश के विश्वविद्यालयों में मनोवैज्ञानिक परामर्श के कोर्स शुरू किए जाने चाहिए, और अगर चल रहे हैं तो उनकी सीटें लगातार बढ़ानी चाहिए, ताकि प्रदेश के हर कस्बे तक किसी न किसी ऐसे शिक्षित-प्रशिक्षित शिक्षक की तैनाती हो सके, और ऐसे लोग बच्चों को जुर्म करने से, या जुर्म का शिकार होने से सावधान रखते चलें। अगर सरकार गिरफ्तारी और सजा को ही पर्याप्त मान रही है, तो उससे ऐसे जुर्म कम नहीं होने हैं। इन्हें मनोवैज्ञानिक सलाह-मशविरे से ही घटाया जा सकता है। कहने के लिए राज्य सरकार में महिला और बाल विकास विभाग है, लेकिन उसके कामकाज में कहीं भी इनकी रक्षा करने की ऐसी योजना नहीं है जो कि इन्हें बलात्कार से बचा सके।
ऐसी घटनाएं अगर हमें सजग नहीं कर पाती हैं, अगर सरकारें इन्हें सजा दिलाकर उसे काफी मान लेती हैं, तो कोई भी बच्चे महफूज नहीं हैं।
पाकिस्तान की एक खबर है कि वहां एक भारतीय नागरिक 2013 में गिरफ्तार किया गया, और आज से सात बरस पहले सिंध के हाईकोर्ट ने सरकार को हुक्म दिया कि इस आदमी को हिन्दुस्तान को लौटा दिया जाए, लेकिन सरकार अब तक यह कर नहीं पाई है। हाईकोर्ट ने सरकारी अफसरों पर बड़ी नाराजगी जाहिर की है, और अगली पेशी पर सरकार के किसी बड़े अफसर को जवाब देने को कहा है। हम इस मामले के अधिक खुलासे पर जाना नहीं चाहते, लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच इस तरह के बहुत से तनावों को लेकर चर्चा जरूर करना चाहते हैं। दोनों देशों के बीच एक-दूसरे के मछुवारे कई बार पकड़ाते हैं, और कभी उस वक्त के अफसरों के मन में हमदर्दी रहती है तो वे छोड़ दिए जाते हैं, या फिर उन्हें दूसरे देश की जेल में रखा जाता है जहां उन पर टोबा टेक सिंह सरीखी कहानी लिखने के लिए आज कोई मंटो भी नहीं बचे हैं।
भारत और पाकिस्तान की सरकारें कई किस्म की ठोस वजहों से, और कई किस्म की काल्पनिक या गढ़ी हुई वजहों से भी एक-दूसरे के खिलाफ दुश्मनी के तेवर अख्तियार किए रहती हैं। इनको अपनी खुद की जमीन पर अपने लोगों को तसल्ली देने के लिए भी पड़ोसी देश को दुश्मन करार देना माकूल बैठता है। न सिर्फ चुनाव के वक्त, बल्कि किसी भी तरह की घरेलू परेशानी की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए इन दोनों देशों में एक-दूसरे के खिलाफ फतवे जारी किए जाते हैं, और सच्ची या झूठी घटनाओं का इस्तेमाल करके लोगों का ध्यान जिंदगी की असल दिक्कतों की तरफ से हटाया जाता है। ऐसे तनावों के चलते दोनों देशों के आम लोगों की दर्दभरी कहानियों का कोई समाधान नहीं निकल पाता। दशकों से, या पीढिय़ों से बिछुड़े हुए परिवारों को मिलाना भी नहीं हो पाता, जेलों में बंद लोगों की खबर भी ठीक से नहीं मिल पाती।
1947 में एक से दो हुए इन देशों के बीच जब दीवार उठी, तो जरूरत से काफी अधिक ऊंची उठी। लेकिन दोनों तरफ लोगों के बीच रिश्तेदारियां बहुत थीं, कारोबार और जमीन-जायदाद सरहद के दूसरे तरफ भी थे, और एक सरहद ने देशों को तो बांट दिया, समाज और परिवार को यह सरहद उस तरह से नहीं बांट पाई। आज भी हर हफ्ते या पखवाड़े में भारत-पाकिस्तान के बीच करतारपुर गलियारा नाम की जगह से ऐसी खबरें आती हैं कि दोनों तरफ से वहां पहुंचे भाई-भाई या भाई-बहन किस तरह आधी या पौन सदी बाद वहां पर मिल रहे हैं। ऐसे जर्जर हो चुके बुजुर्गों के रोते हुए वीडियो दिल हिला देते हैं। लेकिन सरकारों के बीच तल्खी इतनी है कि यह गलियारा भी किस तरह दशकों की मांग के बाद बन पाया है, इसे भी दोनों तरफ के सिक्ख ही जानते हैं। पाकिस्तान की जमीन पर इस प्रमुख गुरुद्वारे तक जाने के लिए हिन्दुस्तानी सिक्खों को भी वीजा की जरूरत नहीं पड़ती, और वहां पर दोनों देशों के लोग मिल भी सकते हैं। ऐसे में ही बिखरे हुए, या बिछुड़े हुए परिवार यहां पर एकजुट होते हैं।
भारत और पाकिस्तान दोनों जगह कुछ संगठन और कुछ सामाजिक कार्यकर्ता यह काम भी कर रहे हैं कि सरहद के पार गलती से दाखिल हो चुके लोगों को वापिस भेजने का कानूनी इंतजाम किया जाए, या एक-दूसरे की जेलों में बंद लोगों को कानूनी मदद मुहैया कराई जाए। यह काम अलोकप्रिय है क्योंकि अपनी-अपनी जमीन पर लोगों के मन में पड़ोसियों के खिलाफ नफरत बड़ी कोशिश करके ठूंसी गई है, और वैसे पड़ोसी देश के लोगों की कोई भी मदद अपने देश के खिलाफ एक भावना की तरह कही जाती है। भारत और पाकिस्तान को इस बात से उबरना चाहिए। सरकार और फौज चाहे जिन मोर्चों पर दूसरे देश की सरकार और फौज से लड़ती रहें, दोनों देशों के नागरिकों को अधिक आजादी से मिलने-जुलने देना चाहिए, दोनों तरफ खेल, कला, और फिल्म का लेन-देन अधिक होना चाहिए। राजधानियों में बैठे हुए बड़े-बड़े नेता और फौजी आला अफसर जिन बातों को नहीं सुलझा पा रहे हैं, या नहीं सुलझाना चाहते हैं, उन बातों को समाज के दूसरे तबके बेहतर तरीके से सुलझा सकते हैं, क्योंकि उन्हें हथियारों की खरीदी में दलाली नहीं लेनी है। राजधानियां दुश्मनी को फायदे का पाती हैं, क्योंकि दुश्मनी निभाने के लिए हथियारों की बड़ी खरीदी होती है, जो कि सत्ता के फायदे की रहती है।
भारत और पाकिस्तान को कैदियों और नागरिकों की अदला-बदली का एक ऐसा आयोग बनाना चाहिए जिसमें दोनों देशों के अधिकारसंपन्न लोग रहें, और वे बैठकर बरसों से कैद या फंसे हुए लोगों के मामले सुलझाएं। हिन्दुस्तान ने अभी-अभी नागरिकता संशोधन कानून लागू किया है जिसमें पड़ोस के तीन देशों के गैरमुस्लिमों को उनके चाहने पर भारत की नागरिकता देने की बात कही है। तब तक जब तक कि भारत का सुप्रीम कोर्ट इस कानून को गैरकानूनी करार नहीं देता, तब तक यह लागू तो है ही, और चाहे यह कानून मुस्लिमों के मामलों में भेदभाव करता है, इसके तहत बाकी धर्मों के जो लोग आते हैं, उनका भला तो शुरू होना चाहिए। चाहे धार्मिक भेदभाव और प्रताडऩा की वजह से, या किसी और वजह से, जिस वजह से भी लोग दूसरे देशों में फंसे हुए हैं, उन्हें अपने देश, या मनचाहे देश जाने की आजादी मिलनी चाहिए। और जब तक कोई बिना चूक का कानून नहीं बन जाता, तब तक भी जो भी संभावनाएं जिस देश के कानून में हैं, उनके तहत आम लोगों को राहत मिलनी चाहिए। भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते सरकारों के बीच ही खराब हैं, आम जनता के बीच नहीं। इसलिए आम जनता को राहत देने का जो-जो काम हो सकता है, वह करना चाहिए, और इसकी शुरूआत जेलों में बंद कैदियों से करनी चाहिए।
केन्द्र सरकार की शहरीकरण योजना के तहत देश के अलग-अलग शहरों में बसें चलाने के लिए हमेशा से मदद दी जाती रही है, और अब बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का चलन बढऩे से इलेक्ट्रिक बसों के लिए केन्द्र की योजना मौजूद है। सार्वजनिक परिवहन या पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बिना शहरों का विकास मुमकिन नहीं है। इसलिए देश के महानगरों और उपमहानगरों में केन्द्र और राज्य की मिलीजुली मेट्रो परियोजनाएं बन चुकी हैं, और कई जगहों पर उन पर काम जारी भी है। लेकिन मेट्रो स्टेशन पहुंचने के लिए छोटी-बड़ी बसों की जरूरत पड़ती है, और मेट्रो से उतरने के बाद भी लोगों को अपने ठिकानों पर पहुंचने के लिए फिर कोई दूसरे साधन लगते हैं क्योंकि मेट्रो हर गली-मोहल्ले में तो जा नहीं सकती। इसलिए मेट्रो के साथ-साथ छोटी-बड़ी बसों का जाल बिछाना अभी तक दिल्ली में भी चल रहा है जहां मेट्रो शुरू हुए बहुत बरस हो चुके हैं। आज बीस बरस बाद भी दिल्ली मेट्रो दस अलग-अलग लाइनों पर चल रही है, ढाई सौ से अधिक स्टेशन हैं, साढ़े तीन सौ किलोमीटर पटरियां हैं, लेकिन जिसे लास्ट माइल कनेक्टिविटी कहते हैं, वह अब भी पूरी नहीं हो पाई है। नतीजा यह है कि बहुत सी जगहों पर लोग अपने निजी वाहनों पर अब भी आश्रित रहते हैं। लेकिन जो शहर अब तक मेट्रो नहीं पा सके हैं, वहां पर तो सब कुछ बसों पर ही निर्भर रहता है, अब इलेक्ट्रिक बसें आ जाने से बिना प्रदूषण, और बिना अधिक शोरगुल के आरामदेह बसें चल सकती हैं, और वे शहरी सडक़ों से गाडिय़ों की भीड़ घटा सकती हैं।
भारत के अधिकतर पुराने शहरों में सडक़ें बसों के लायक चौड़ी नहीं है। जिन शहरों में अंग्रेजों के फौजी ठिकाने रहे, वहां तो उन्होंने सौ बरस बाद की जरूरत का भी ध्यान रखते हुए चौड़ी सडक़ें बनवाई थीं, लेकिन बाद के बरसों में जो हिन्दुस्तानी शहर बने, वे कल्पनाहीन, बिना योजना के, और शून्य संभावनाओं वाले थे। नतीजा यह हुआ कि वे बड़े आकार के कस्बे से अधिक कभी कुछ नहीं बन पाए। अब वहां बसे लोगों की महत्वाकांक्षाएं अगर जोर मारती भी हैं, तो भी न तो वहां शहरी विकास की अधिक संभावनाएं मौजूद हैं, और न ही भारत में शहरीकरण की ऐसी समझ रही कि सार्वजनिक परिवहन को समय रहते बढ़ावा दिया गया हो। हमारी बात में, समय रहते, इन दो शब्दों का बड़ा महत्व है। एक बार जब किसी शहर का जनजीवन निजी वाहनों का मोहताज हो जाता है, तो फिर उसके बाद लोगों की इस आदत को पब्लिक ट्रांसपोर्ट की तरफ मोडऩा मुश्किल हो जाता है। लोगों को अपने दुपहिए-चौपरियों की आदत पड़ जाती है, और फिर उन्हें पब्लिक ट्रांसपोर्ट की परेशानियां दिखने लगती हैं। इसलिए सार्वजनिक परिवहन को जितनी जल्दी और जितने बड़े पैमाने पर लागू किया जाए, उसकी कामयाबी की संभावना उतनी ही अधिक रहती है। जो सचमुच ही विकसित दुनिया है, उसमें शहरों के पब्लिक ट्रांसपोर्ट को पूरी तरह मुफ्त कर दिया जाता है, क्योंकि इस पर होने वाले खर्च को निजी वाहनों की भीड़ और प्रदूषण से बचने का मुआवजा मान लिया जाता है। अगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में हिन्दुस्तान की तरफ नफा-नुकसान देखा जाता रहेगा, तो शहरों के प्रदूषण को कितना भी खर्च करके रोका नहीं जा सकेगा। शहरी ट्रांसपोर्ट लोगों को रेवड़ी नहीं रहता, वह शहरों को सांस लेने लायक जगह बनाए रखने का दाम रहता है। या तो सरकार पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बहुत रियायती या तकरीबन मुफ्त कर ले, या फिर वह शहरी प्रदूषण से बीमार होने वाले लोगों के इलाज पर खर्च कर ले, बोझ तो सरकारी जेब पर ही पडऩा है।
भारत के शहरीकरण को लेकर एक कल्पनाशील योजना की जरूरत है जो कि घिसे-पिटे ढर्रे पर चलते हुए हासिल नहीं हो सकती। व्यस्त होते शहरों में निजी कारों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए, और पार्किंग के नियम कड़ाई से लागू करके लोगों को मजबूर किया जाना चाहिए कि वे सार्वजनिक गाडिय़ों से ही आना-जाना करें। पिछले बीस बरस में दिल्ली में मेट्रो से जितना आना-जाना हो रहा है, वह अगर आज पूरी तरह बसों का मोहताज रहता, तो दिल्ली की सडक़ों का इंच-इंच उन बसों से पट गया रहता। इसी तरह एक बस में चलने वाले मुसाफिरों को देखें, और फिर उन्हें उतनी कारों में चढ़ाने की कल्पना करें, तो सडक़ पर 25 गुना अधिक जगह लग गई होती। इसलिए शहरों को जिंदा रहने लायक बचाए रखने के लिए दूसरे तरह के टैक्स लगाकर बसों को इतना सस्ता या मुफ्त कर देना चाहिए कि लोग निजी दुपहियों से भी बसों को सस्ता पाएं। और फिर बड़ी बसों के रूट से परे छोटी बसों का जाल भी बिछाना चाहिए ताकि लोग अपनी गाडिय़ों से पूरी तरह आजादी पा सकें।
दिक्कत यह है कि भारत में सरकारी कामकाज अलग-अलग विभागों में टापुओं की तरह बंटे रहते हैं। कोई दो विभाग मिलकर काम करने के पहले इस सोच में पड़ जाते हैं कि खरीदी और निर्माण का किसका मौका चूक जाएगा। ऐसे तंग नजरिए के चलते शहरों की नई जरूरतें किसी एक विभाग के तहत नहीं आ पातीं, और हर योजना की लागत और उसकी वापिसी सिर्फ रूपयों की शक्ल में नहीं गिनी जा सकती। आज किसी म्युनिसिपल में बसों को पर्यावरण बचाने वाला माना जाए, तो म्युनिसिपल के पर्यावरण विभाग को यह संतान अच्छी नहीं लगेगी, उसे पेड़, बगीचे, और तालाब तक शायद अपना काम सीमित लगे। इसलिए आज की बदली हुई जरूरतों के मुताबिक केन्द्र और राज्य सरकारों, और म्युनिसिपलों को अपना नजरिया बदलना होगा, और 21वीं सदी की बदली हुई जरूरतों के मुताबिक अपने पुराने ढांचे में फेरबदल करना होगा। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और सरकारी अफसरों को दशकों तक यह समझ नहीं आता था कि गरीबों को रियायती या मुफ्त राशन देना, मुफ्त इलाज देना, मुफ्त पढ़ाना, मुफ्त दोपहर का भोजन देना घाटे का नहीं फायदे का सौदा रहता है। देश का सामाजिक ढांचा विकसित करने की लागत शुरू-शुरू में लोगों को समझ नहीं आई थी, लेकिन बाद में समझ पड़ा था। इसी तरह भारत जैसे देश को अभी जागना होगा, और सौ बरस बाद मलाल करने के बजाय अभी से शहरों के फेंफड़े बचाए रखने के लिए सार्वजनिक परिवहन पर पूंजीनिवेश करना होगा। अभी केन्द्र सरकार राज्यों में जिस तरह से कुछ सीमा तक मदद कर रही है, उसे अधिक कल्पनाशील तरीके से आगे बढ़ाना होगा, किसी शहर से मिलने वाले जीएसटी का एक हिस्सा उस शहर के सार्वजनिक यातायात के लिए रखा जा सकता है, और इस तरह के और भी कई फार्मूले निकाले जा सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के आदेश का स्टेट बैंक ने चुनावी बॉंड खरीदने वाली कंपनियों और लोगों के नाम रकम सहित उजागर कर दिए हैं। चुनाव आयोग की वेबसाइट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ये जानकारी पोस्ट हो गई है, और इसके साथ एक अलग जानकारी भी पोस्ट हुई है कि किस-किस राजनीतिक दल को चुनावी बॉंड से कितना पैसा मिला। लेकिन किसी शातिर धूर्त की तरह हिन्दुस्तान के सबसे बड़े बैंक ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कतराकर निकलते हुए यह पोस्ट नहीं किया है कि किस कंपनी ने किस नंबर के बॉंड खरीदे थे, और किस राजनीतिक दल ने किस-किस नंबर के बॉंड भुनाए थे। इससे यह साफ हो जाता कि किस दानदाता ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया, किस तारीख को दिया, और जैसा कि अदालत में जनहित याचिका लेकर जाने वाले लोगों का कहना है, इससे यह भी पता लगेगा कि किस तारीख को किस कंपनी पर किस केन्द्रीय एजेंसी की क्या कार्रवाई हुई, और क्या उसके बाद यह चंदा दिया गया? अब सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर स्टेट बैंक को लताड़ लगाई है कि उसने चुनाव आयोग को दी जानकारी में बॉंड के नंबर क्यों नहीं दिए हैं। देश को कोई भी जानकारी देने से स्टेट बैंक एक पेशेवर मुजरिम की तरह बच रहा है, और इससे देश के इस सबसे बड़े, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक की साख को बट्टा लगा है। ऐसा लग रहा है कि यह राजनीतिक खेल में एक हिस्सेदार बन गया है, और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना करने से भी यह कतरा नहीं रहा है। देश का एक सबसे महंगा वकील भी इसे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का मतलब नहीं समझा पा रहा है।
आंकड़े बतलाते हैं कि चुनावी बॉंड से राजनीतिक दलों को जो पैसा मिला है, उसमें देश की बाकी तमाम पार्टियों को मिला कुल पैसा भी अकेली भाजपा को मिले पैसे से कम है। छह हजार करोड़ से अधिक पाने वाली भाजपा के तुरंत बाद इस लिस्ट में 16 सौ करोड़ पाने वाली तृणमूल कांग्रेस है, और अपने को राष्ट्रीय पार्टी बताने वाली कांग्रेस को भी इससे कम पैसा मिला है। कांग्रेस को मिले 14 सौ करोड़ के मुकाबले एक प्रदेश वाली भारत राष्ट्र समिति को 12 सौ करोड़ रूपए मिले हैं। लेकिन इससे अधिक दिलचस्प यह जानकारी है कि चुनावी बॉंड से सबसे अधिक चंदा किस कंपनी ने दिया है। देश के कई प्रदेशों में लॉटरी चलाने वाली एक कंपनी, फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेस ने 1368 करोड़ के चुनावी बॉंड खरीदे, और इस कंपनी पर पश्चिम बंगाल में लॉटरी की गड़बडिय़ों के जुर्म दर्ज हैं, और बंगाल के ही दर्ज जुर्म के आधार पर ईडी ने इस कंपनी के खिलाफ कार्रवाई की, और खुद ईडी का कहना है कि इसने लॉटरी की बिक्री से मिली कमाई को जमा न करके लॉटरी करवाने वाले राज्य को धोखा दिया है, ईडी का यह भी कहना था कि इस कंपनी ने कई और तरह से भी लॉटरी कानून तोड़ा है। यह कंपनी भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के राज्यों में काम कर रही है, और अब ऐसी कंपनी के खिलाफ गंभीर जुर्म भी दर्ज हैं, और कंपनी ने 13 सौ करोड़ से अधिक का चंदा भी दिया है, तो देश को यह जानने का हक तो है ही कि उसने किस पार्टी को कितना पैसा दिया? वोटरों को यह जानने का हक है कि किस पार्टी के राज में किसने क्या कारोबार किया, क्या गड़बड़ी की, और कब कितना चंदा दिया, उसके पहले और उसके बाद कार्रवाई में क्या फर्क हुआ?
अगर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना में जेल जाने के पहले स्टेट बैंक के चेयरमैन चुल्लू भर पानी में डूब मरने के बजाय अदालती आदेश के मुताबिक कही गई जानकारी दे देते हैं, तो देश के कई जनसंगठन यह विश्लेषण कर सकेंगे कि एक राज्य तक सीमित पार्टी तृणमूल कांग्रेस को इतना अंधाधुंध चंदा कैसे मिला है, और जिन्होंने चंदा दिया उनके पश्चिम बंगाल में कौन से कारोबारी हित हैं? ऐसा ही विश्लेषण बाकी पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में, या पूरे देश में किया जा सकता है कि चंदे से धंधा किस तरह प्रभावित हुआ है। जिस जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फैसला दिया, उस याचिका का मकसद भी यही है कि सरकारी कार्रवाई का डर, चंदा, और फिर कारोबारी रियायत, इनका आपस में क्या संबंध है यह मतदाताओं के सामने रखा जाए। एक सीरियल के नाम पर इस नौबत को देखें तो सब जानकारी सामने आने से यह समझ पड़ेगा कि ये रिश्ता क्या कहलाता है? सुप्रीम कोर्ट को यह भी सोचना चाहिए कि अगर देश का एक बैंक अगर अदालत को उसकी औकात दिखाने पर उतारू है, तो उसके साथ क्या सुलूक करना बेहतर होगा? यह वही स्टेट बैंक है जहां देश का सबसे अधिक सरकारी कामकाज होता है, और जहां पहुंचने वाले आम लोग कर्मचारियों को घंटों लंच मनाते देखते हैं। बैंक सुप्रीम कोर्ट से भी लंच की तीन महीने की छुट्टी मांग रहा था, ताकि उसके बाद जानकारी दे, यह तो अदालत को समझ आ गया कि बैंक उसे बेवकूफ समझ रहा है, और उसने बैंक को जेल की तस्वीर दिखाई, तो कुछ घंटों में ही सारी जानकारी निकल आई। लेकिन इसके बाद भी स्टेट बैंक ने दानदाता और दानपाता के बीच रिश्ता बताने वाली जानकारी अब तक छुपाकर रखी है, और हमारा ख्याल है कि स्टेट बैंक चेयरमैन को तिहाड़ जेल दिखाना चाहिए, ताकि वे वहां एक दिन रहकर देख सकें कि कोई ब्रांच कैसे खोली जा सकती है।
जो भी आधी-अधूरी जानकारी सामने आई है, वह बताती है कि देश का सबसे बड़ा राजनीतिक चंदा देने वाला एक लॉटरी कंपनी का मालिक है, जो एक-एक महीने में सैकड़ों करोड़ के बॉंड खरीद चुका है। फिर जो भी लोग यह समझते हैं कि राजनीतिक दलों को चंदा बैंकों के मार्फत ही मिलता है, वे परले दर्जे के मासूम लोग हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में अधिकतर चुनावी कमाई, खर्च, और राजनीतिक जमाखर्च यह सब कुछ अब भी कालेधन से ही होता है। चुनावी कालेधन की बात करें तो देश के बड़े-बड़े अफसर भी चुनावी खर्च पर्यवेक्षक बनकर भी देश में एक भी चुनाव को अवैध करार नहीं करवा पाते हैं, क्योंकि शायद चुनाव आयोग और सरकार की ऐसी नीयत भी नहीं रहती है। ऐसे में चुनावी दलों को बॉंड के मार्फत चंदा देने को ही पूरा नहीं समझ लेना चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी यह जिम्मेदारी समझ लेनी चाहिए कि जब सरकार, संसद, और चुनाव आयोग जैसी अलग-अलग संस्थाओं को लोकतंत्र कायम रखने में सीमित दिलचस्पी रह गई है, तो ऐसे में अदालत के कंधों पर एक अभूतपूर्व जिम्मेदारी आ जाती है। चुनावी बॉंड के इस मामले में अगर अदालत जरा भी समझौतापरस्त हो गई रहती, और कुछ जजों को रिटायरमेंट के बाद वृद्धावस्था-पुनर्वास की फिक्र रहती, तो हो सकता है कि चुनावी बॉंड की यह जानकारी भी जनता के सामने नहीं आ पाती। अब अदालत को स्टेट बैंक के मुखिया को कटघरे में बुलाना चाहिए, ताकि उन्हें आते-जाते कैमरे दिखा सकें, और लोगों को पता चल सके कि देश में सबसे लंबा लंच खाने वाला इंसान कौन हैं।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में आदिवासी इलाके के एक आवासीय विद्यालय में पढ़ रही छात्रा ने कल एक बच्चे को जन्म दिया है, जिसके बाद हडक़म्प मच गया। बीजापुर नक्सल प्रभावित इलाका है, और वहां छात्रा को पेट दर्द की शिकायत के बाद सरकारी स्वास्थ्य केन्द्र ले जाया गया था, वहां बच्चे को जन्म देने के बाद दोनों सुरक्षित हैं। इस पर कांग्रेस ने अपनी एक महिला विधायक की अगुवाई में 8 सदस्यीय जांच दल बनाया है। जिस स्कूल छात्रावास में यह लडक़ी रह रही थी, उसकी अधीक्षिका को निलंबित कर दिया गया है। आदिवासी इलाकों में छात्राओं के साथ लगातार इसी तरह, या कई तरह के मामले होते रहते हैं, और उनके शोषण की बातें कई बार स्थापित भी हो चुकी हैं, कई लोगों की गिरफ्तारी भी होते रहती है। इस मामले में छात्रावास अधीक्षिका का कहना है कि यह छात्रा बालिग थी, और उसका एक लडक़े से प्रेमप्रसंग था जो कि दोनों परिवारों की जानकारी में भी था, और उसी के नतीजे में यह गर्भ और जन्म हुआ है। अधीक्षिका ने अपनी सफाई में कहा है कि यह संबंध दोनों परिवारों की जानकारी में था, और छात्रा को छात्रावास से बाहर जाने की इजाजत पारिवारिक सहमति के आधार पर ही मिलती थी।
हो सकता है कि अधीक्षिका ने अपनी सफाई में जो कुछ कहा है, सब सही हो, लेकिन एक सवाल यह उठता है कि छात्रावास में रहते हुए कोई छात्रा अगर गर्भवती हो रही है, और पूरे गर्भकाल के बाद एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे रही है, तो छात्रावास के प्रभारी लोगों को इसकी जानकारी कैसे नहीं हुई? हमारा ख्याल है कि हॉस्टल के बच्चों के नियमित स्वास्थ्य परीक्षण का नियम रहता है, और छात्राओं के मामले में तो इस पर और अधिक गौर किया जाता होगा। ऐसे में हॉस्टल की जानकारी के बिना बात इतनी आगे बढ़ जाना परले दर्जे की लापरवाही के सुबूत के अलावा और कुछ नहीं है। बस्तर के इलाके में छात्रावासी छात्राओं के ऐसे मामले पहले भी सामने आए हैं, और यह बात साफ है कि स्कूल शिक्षा विभाग, या आदिम जाति कल्याण विभाग, जिनके भी स्कूल-छात्रावास होते हैं, उनकी लापरवाही और गैरजिम्मेदारी ऐसे मामलों में रहती है। इन विभागों में आदिवासी इलाकों में लोग अपनी तैनाती खरीददारी के लिए करवाते हैं जहां वे मनचाहे दाम पर खरीदी करते हैं, और उनके भ्रष्टाचार को पकडऩे वाले कोई नहीं रहते। लेकिन जब ऐसी घटनाएं बढक़र देह शोषण तक पहुंच जाती हैं, तो फिर मामला सिर्फ भ्रष्टाचार का नहीं रहता।
हमने बस्तर के इलाके में, और छत्तीसगढ़ के दूसरे सिरे के आदिवासी सरगुजा में भी आदिवासी बच्चियों के साथ ऐसा सरकारी बर्ताव देखा हुआ है। इसमें नई बात कुछ नहीं है, लेकिन यह बात कम गंभीर भी नहीं है। आज कांग्रेस अपनी महिला विधायक की अगुवाई में बड़ी सी टीम इस बच्ची के मां बनने की जांच के लिए बना चुकी है, लेकिन सवाल यह उठता है कि 9 महीने चले गर्भ की शुरूआत कांग्रेस सरकार के वक्त ही हुई होगी, और अभी तीन महीने पहले आई हुई विष्णु देव साय की सरकार के तहत तो उस गर्भ से संतान भर हुई है। इसमें किसे जिम्मेदार माना जाए? मौजूदा भाजपा सरकार को तो अगर सरकार बनते ही यह पता लग भी जाता कि एक लडक़ी गर्भवती है, तो भी वह गर्भ का तो कोई समाधान कर नहीं सकती थी, छात्रावास अधीक्षिका पर कार्रवाई जरूर हो सकती थी। यह बात भी कुछ हैरान करती है कि अधीक्षिका का कहना है कि अभी कुछ अरसा पहले एक मेडिकल जांच के लिए टीम छात्रावास आई थी, और सभी छात्राओं की जांच करके गई थी। जाहिर है कि गर्भवती छात्रा का पता नहीं लगना, मेडिकल टीम की भी लापरवाही रही होगी।
हम पहले भी इस बात को लिख चुके हैं कि आदिवासी इलाकों के लिए सरकार को अधिक संवेदनशील अधिकारी-कर्मचारी रखने चाहिए, और खासकर जहां आदिवासी बच्चों, लड़कियां, और महिलाओं का मामला हो, वहां पर सरकारी अमले को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। वैसे भी नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता सुरक्षा व्यवस्था हो जाती है, और वहां पर बाकी कोई भी बात अधिक नहीं सोची जाती। ऐसी बहुत सी शिकायतें लंबे समय से रही हैं कि सुरक्षा कर्मचारियों में से कुछ लोग किस तरह स्थानीय महिलाओं से बुरा बर्ताव करते हैं, और उस पर कोई कार्रवाई इसलिए नहीं होती कि सुरक्षा बलों का मनोबल टूटेगा। लोगों को याद होगा कि हथियारबंद मोर्चे वाले जितने भी प्रदेश इस देश में रहे हैं, वहां सरकारी संगीनों वाली बंदूकों की लगातार लंबी मौजूदगी से ऐसा नुकसान होता है कि मानवाधिकार बेमायने लगने लगते हैं, और महिलाओं पर तरह-तरह का जुल्म होता है। मणिपुर की नग्न महिलाओं का प्रदर्शन लोगों को याद होगा जो कि फौज को मिली हुई एक खास हिफाजत के कानून को खत्म करने के लिए कई बार किया गया है। बस्तर में नौबत उतनी बुरी नहीं रही, लेकिन सुरक्षा बलों के हाथ महिलाओं के शोषण की शिकायतें भी बहुत रही हैं। ऐसे ही जुल्मों की वजह से बस्तर जैसे शांत इलाके में नक्सलियों को आने और पांव जमाने का मौका मिला। इसलिए जहां कहीं स्थानीय आदिवासियों के साथ सरकारी अमले की लापरवाही या गैरजिम्मेदारी रहती है, उस पर कड़ाई से कार्रवाई होनी चाहिए।
बस्तर की बालिग या नाबालिग, इस स्कूली छात्रा का इस तरह मां बनना या सरकार के लिए कई किस्म के सवाल खड़े करता है। इस पर कांग्रेस को जांच दल बनाने के बजाय अपने कार्यकाल में हुई लापरवाही को मंजूर करना चाहिए, लेकिन चुनाव के माहौल में सच से अधिक लंबा रिश्ता किसी का रहता नहीं है। ऐसी घटनाएं सरकार को यह मौका भी देती हैं कि वह अपना घर सुधार ले। पूरे प्रदेश में हर किस्म के सरकारी छात्रावास की छात्राओं के स्वास्थ्य की जांच भी होनी चाहिए, और उन्हें गर्भधारण या बीमारी से बचने के रास्ते भी बताने चाहिए। उनसे सिर्फ नैतिकता की उम्मीद जायज नहीं होगी, उन्हें उनकी उम्र के मुताबिक जरूरी सलाह भी देनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान की कम्प्यूटर राजधानी कहे जाने वाले देश के तीसरे सबसे अधिक आबादी के शहर बेंगलुरू का बिना पानी हाल-बेहाल है। लोग शहर छोड़ रहे हैं, और कंपनियों में कह रहे हैं कि उन्हें दूसरे शहर से काम करने दिया जाए। राज्य के मुख्यमंत्री सोशल मीडिया पर आईटी कंपनियों से अपील कर रहे हैं कि वे वर्क फ्रॉम होम अनिवार्य कर दें, ताकि लोग दूसरे शहरों से काम कर सकें। पानी की कमी से समाज में टैंकर खरीदने की ताकत रखने वाले और उतनी राजनीतिक पहुंच वाले लोगों के आसपास के कमजोर लोगों से रिश्ते खराब हो रहे हैं। इमारतों ने वहां रहने वाले बाशिंदों के लिए पानी में भारी कटौती कर दी है, और चारों तरफ पानी को किसी भी तरह बचाने की बात हो रही है। शहर में 16 हजार ट्यूबवेल हैं, जिनमें से 7 हजार सूखे हैं। यह शहर जो कि देश में एक सबसे महंगे, कम्प्यूटर-कारोबार का केन्द्र है, आज रात-रात जागकर पानी भरने वाले लोगों की जगह हो गया है। कोई शहर कितनी जल्दी दीवालिया हो सकता है, आज का बेंगलुरू इसकी एक बड़ी मिसाल है, और बाकी हिन्दुस्तान, या कि बाकी दुनिया के लिए एक सबक भी है।
हम कुछ अरसा पहले ही यह बात उठा चुके हैं कि हिन्दुस्तान में किस तरह जमीन में गहरे ट्यूबवेल खोदकर बहुत ताकतवर पम्प लगाकर लोग अंधाधुंध पानी उलीचते रहते हैं, और यह पूरा सिलसिला पूरी तरह बेकाबू है। हम अपने आसपास यह भी देखते हैं कि किस तरह लोग आज भी कारें धोने में पानी बर्बाद कर रहे हैं, और ताकतवर पम्प लगाकर उससे मकान-दुकान के सामने की फर्श-सडक़ भी धोई जाती है। लोग बड़े-बड़े लॉन लगाते हैं, और उस घास को धान की फसल की तरह सींचते हैं। लोग छतों पर गार्डन लगाते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे गर्म देश में छतों पर पौधों को जिंदा रखने के लिए पैसे वाले लोग टैंकरों से भी पानी बुलवाते हैं। हरियाली के नाम पर आबादी का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह के पेड़-पौधे लगाता है, लॉन लगाता है, उसमें से अधिकतर पानी की खपत वाले रहते हैं। कुल मिलाकर मतलब यह है कि आज जिनके हाथ पानी लग गया है, वे उसे बाकी तमाम जिंदगी की सहूलियत गिनकर चल रहे हैं, उनकी सेहत पर इससे भी फर्क नहीं पड़ रहा कि हर बरस जलस्तर नीचे जा रहा है। शहरी-संपन्न तबका पानी की अपनी रोज की बेकाबू खपत की तरफ ध्यान भी नहीं देता है क्योंकि उसके पम्प जमीन को खाली करने की ताकत रखते हैं।
हिन्दुस्तान में पानी की बर्बादी को रोकने का एक तरीका हमें यह दिखता है कि हर ट्यूबवेल पर मीटर लगाया जाए ताकि कितना पानी निकाला जा रहा है, उस पर टैक्स लिया जा सके। जब लोग टैक्स देते हैं तो अधिकतर लोग फिजूलखर्ची बंद कर देते हैं। एक बहुत छोटा सा अतिसंपन्न तबका ऐसा जरूर हो सकता है जो कि इसके बाद भी पानी की फिजूलखर्ची को अपनी शान-शौकत माने, लेकिन वह खपत बहुत बड़ी नहीं होगी। देश में गाडिय़ों को धोने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए, और म्युनिसिपलों को भी बिजली के बिल की तरह अधिक पानी-खपत वाले लोगों पर भुगतान का रेट बढ़ाते चलना चाहिए। नागपुर जैसे कुछ शहरों में जहां पर निजी कंपनी के साथ मिलकर सरकार या म्युनिसिपल ने पानी पर टैक्स लगाया है, वहां पानी की खपत एकदम से कम हो गई है। और सवाल सिर्फ सरकार या म्युनिसिपल की कमाई का नहीं है, सवाल पानी की किफायत की आदत का भी है जो कि पानी पर टैक्स लगे बिना सुधरने वाली नहीं है।
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दूसरी बात यह कि शहरों में नए मकानों और इमारतों पर अंडरग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग की जो शर्त लगाई जाती है, वह अधिकतर जगहों पर कागजी भर रहती है, और उस पर अमल नहीं होता। इस पर एक ईमानदार कड़ाई बरतने के साथ-साथ हर शहर को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक अंडरग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग का इंतजाम करना चाहिए। शहरों से परे भी बारिश में जिन नदियों में बाढ़ आती है, उनके कैचमेंट एरिया में बहुत बड़े-बड़े तालाब खोदने चाहिए ताकि ओवरफ्लो बह रही नदियों का पानी उनमें भर सके, और फिर धीरे-धीरे जमीन के भीतर जलस्तर को बढ़ाने के काम आ सके। आज एक दिक्कत यह भी है कि तालाब बनाने की सारी योजनाएं मजदूरों को रोजगार देने के हिसाब से चलती हैं, और जमीन की जरूरत के हिसाब से ग्राउंड वॉटर री-चार्जिंग के तालाब नहीं बनाए जाते जिन्हें कि मशीनें लगाकर भी बनाना चाहिए। इन तालाबों को ग्रामीणों की निस्तारी के या खेतों की सिंचाई के हिसाब से ही नहीं बनाना चाहिए बल्कि नदियों की बाढ़ घटाने के हिसाब से भी बनाना चाहिए।
पानी की यह कमी पूरी तरह इंसानों की पैदा की हुई है। लोगों ने शहरी जिंदगी ऐसी बना ली है कि चौथाई लीटर पेशाब बहाने के लिए भी मूत्रालय में पांच लीटर पानी फ्लश किया जाता है। यह तो कुदरत ने ही बेंगलुरू जैसे एक बड़े शहर को मॉडल बनाकर अपने तेवर दिखा दिए हैं, और बाकी शहरों के सम्हल जाने की एक संभावना खड़ी की है। केन्द्र सरकार से लेकर म्युनिसिपल और पंचायतों तक हर किसी को पानी को लेकर जाग जाना चाहिए, वरना जिस तरह कर्नाटक सरकार को आज अपनी राजधानी से लोगों की आबादी घटाने की फिक्र करनी पड़ रही है, वह नौबत किसी भी शहर की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह चौपट कर देगी। और अभी तो गर्मी के मौसम का पहले महीने, मार्च का पहला पखवाड़ा ही चल रहा है, अभी तो बारिश आने में करीब तीन महीने बाकी हैं, और तब तक जिंदगी कैसी रह जाएगी, इसका अंदाज भी लगाना मुश्किल है।
अभी तो हम सिर्फ पानी की खपत करने वाले इंसानों से जुड़ी बातें कर रहे हैं। अभी मौसम के बदलाव की वजह से बर्फ से लदी पहाडिय़ों पर पडऩे वाले फर्क, और नदियों के बहाव को मोडऩे की योजनाओं की व्यापक चर्चा नहीं कर रहे हैं। ऐसी चर्चा स्थानीय संस्थाओं के काबू के बाहर की होगी। इसलिए पहले तो स्थानीय निर्वाचित संस्थाएं और उनके नागरिक-निवासी क्या कर सकते हैं, इसी की फिक्र तुरंत होना चाहिए। हमारे हिसाब से पानी की मीटरिंग सबसे पहला कदम हो सकता है, और यह प्राकृतिक साधन का एक समानतावादी इस्तेमाल भी होगा। देखें कि सरकारें जनता पर जरा सा भी अनुशासन लादने का हौसला दिखा सकती हैं या नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन के एक प्रतिष्ठित अखबार, गॉर्डियन, की एक खोजी रिपोर्ट में एक ऐसे एआई एप्लीकेशन को बनाने वाले को तलाशा गया है जिससे कि लोग स्कूली लड़कियों की आम तस्वीरों को लेकर ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से उनको नग्न तस्वीरों में बदल दे रहे हैं। इसकी वजह से स्पेन की कई स्कूलों में तबाही सरीखी आ गई है, और अब वहां की पुलिस भी इस उलझन में है कि ऐसी तस्वीरें गढऩे वाले सहपाठी लडक़ों पर कितनी कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाए। ये तस्वीरें एकदम असली दिखती हैं, और पल भर को भी यह नहीं लग सकता कि उन्हें किसी तकनीक से गढ़ा गया है। जब इस एप्लीकेशन को बनाने वाले को तलाश कर उससे बात की गई, तो उसने बदली हुई आवाज में दिए गए जवाबों में यह कहा कि उसने इसे इसलिए बनाया है कि लोग अपने बदन के साथ चैन से रह सकें। अब हालत यह है कि ये तस्वीरें पोर्न वेबसाइटों पर पहुंच गई हैं, और इनके असली दिखने की वजह से वे लोग बहुत मानसिक यातना से गुजर रहे हैं जिनके चेहरे इन पर लगे हैं। अब डीपफेक कही जाने वाली एक तकनीक के इस्तेमाल से हर दिन ऐसी तस्वीरें और ऐसे वीडियो गढऩा आसान होते चले जा रहा है, और इनसे पैदा होने वाली मानसिक यातना और सामाजिक प्रताडऩा से हो सकता है कि बहुत से लोग अपनी जिंदगी देने लगें। क्लोथ्सऑफ नाम के इस एआई एप्लीकेशन को बनाने वाली कंपनी की जड़ें बेलारूस, रूस से होते हुए योरप के कई देशों से गुजरकर लंदन में गॉर्डियन में ऑफिस के पास में ही निकली। इस वेबसाइट पर लोगों को न्यौता दिया जाता है कि वे एआई का इस्तेमाल करके किसी के भी कपड़े उतार सकते हैं, और हजार रूपए से कम की फीस में वे ऐसी 25 तस्वीरें बना सकती हैं। एक भाई-बहन ने मिलकर यह एप्लीकेशन बनाया है, और वे अपनी पहचान छुपाने के साथ-साथ मीडिया की नजरों से दूर-दूर भी चल रहे हैं।
जब योरप जैसी उदार जीवन संस्कृति के देशों में ऐसे ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस औजार से इस तरह की तबाही आ सकती है तो बाकी देशों के बारे में अंदाज लगाया जा सकता है जहां पर लोग अधिक दकियानूसी या तंगदिल हैं। अभी तक हम रिवेंज पोर्न नाम के ऐसे नग्न या अश्लील वीडियो और फोटो देखते हैं जो कि भूतपूर्व प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे के खिलाफ सोशल मीडिया या पोर्न वेबसाइट पर बदला निकालने के लिए पोस्ट करते हैं। हम अपने इस कॉलम में लोगों को यह सावधानी भी सुझाते आए हैं कि किसी अच्छे वक्त में भी लोगों को ऐसे फोटो-वीडियो से बचना चाहिए। लेकिन अब अगर एकदम असली जैसी दिखने वाले फोटो और वीडियो गढऩा आसान हो गया है तो किसी को भी बदनाम करने के लिए इंटरनेट पर मौजूद ऐसी सस्ती तकनीक का कैसा-कैसा बेजा इस्तेमाल नहीं हो सकता? फिर यह भी है कि पोर्नो से परे भी ऐसी तकनीक के हजार किस्म के दूसरे इस्तेमाल हैं जो कि लोकतंत्र और चुनाव को प्रभावित करने के लिए शुरू हो चुके हैं। अभी अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव का प्रचार शुरू भी नहीं हुआ है, और अमरीका के काले लोग ट्रंप के पक्ष में बातें कर रहे हैं, उनका समर्थन कर रहे हैं, ऐसे फोटो और वीडियो सामने आ गए हैं। लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि इससे कैसे निपटा जा सकेगा?
एआई के सबसे बड़े खतरों में से एक यह भी है कि इससे जनमत की पहचान करके, अलग-अलग लोगों के राजनीतिक या सामाजिक, साम्प्रदायिक या आर्थिक रूझान का हिसाब लगाकर उन्हें प्रभावित करने के लिए अलग-अलग किस्म से कोशिश की जा सकती है। इसे एआई का सबसे बड़ा खतरा बताया जा रहा है कि यह जनमत को प्रभावित कर सकता है, और उस तरह से यह चुनाव और लोकतंत्र पर कुछ चुनिंदा ताकतों को ला सकता है, वहां बनाए रख सकता है। दुनिया के बहुत से कम्प्यूटर-संबंधित कारोबारी भी ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के आगे के विकास पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं, क्योंकि यह विकसित होते-होते कब और कितना विनाशकारी हो जाएगा, कब इंसानों से बेकाबू हो जाएगा, इसका अंदाज लगाना मुमकिन नहीं है। कई महीने हो चुके हैं जब एक टेक्नॉलॉजी-पत्रकार ने एक ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित चैटबॉट के बारे में लिखा था कि उसने इस पत्रकार को बातें करते-करते आत्महत्या के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया था। और यह तो महज शुरूआत थी, बहुत से लोग आज असल जिंदगी के संबंधों से डरने लगे हैं, और ऐसे लोग ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित कृत्रिम किरदारों से भावनात्मक संबंध बनाना अधिक आसान और महफूज मान सकते हैं। ऐसे किरदार आगे चलकर लोगों की जिंदगी में इंसानी संबंधों का विकल्प बन सकते हैं, और जिंदा इंसानों की सोच बदल सकते हैं। यह पूरा सिलसिला इंसानों के सामाजिक ताने-बाने को एक बिल्कुल ही नई शक्ल दे सकता है, और आज भी बहुत से भविष्य-विज्ञानी इस बात का अंदाज लगा रहे हैं कि अगले 25-30 बरस में इंसान रोबो से शादी कर सकते हैं।
आज किसी चेहरे के साथ बाकी बदन की एक तस्वीर गढ़ देने वाला ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कुछ बरस के भीतर ऐसे बदनों के थ्रीडी मॉडल बनाने लगेगा, और आज भी काम कर रहे थ्रीडी प्रिंटर उस दिन असली से लगने वाले बदन तैयार करने लगेंगे, और ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उन बदनों के भीतर दिल-दिमाग और भावनाएं भर देंगे, और इंसानों को वे दूसरे इंसानों के बजाय अधिक आसान और सहूलियत वाले जीवनसाथी लगने लगेंगे। एक तरफ तो ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से दुनिया भर में आतंकी हमले, साइबर क्राइम, और जनमत प्रभावित करने के खतरे दिख ही रहे हैं, और दुनिया के कई देशों में बुरी तरह घटती हुई आबादी में हो सकता है कि कृत्रिम जीवनसाथी और गिरावट ला दें। इसलिए ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की संभावनाओं और इसके खतरों पर नजर रखना जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बैंक से लेकर गैस सिलेंडर तक, और दूसरे सौ किस्म के कामों के लिए लोगों के मोबाइल फोन पर ओटीपी आते हैं, उन्हें बैंक या गैस एजेंसी, या किसी और सरकारी दफ्तर का प्रतिनिधि बनकर लोग फोन करते हैं, ओटीपी पूछते हैं, और इसके तुरंत बाद इन लोगों के बैंक खातों से पूरी रकम खाली हो जाती है। यह सिलसिला हर दिन देश में हजारों लोगों के साथ हो रहा है। झारखंड के जामताड़ा जैसे कुछ कस्बों में फोन और इंटरनेट से ऐसी ठगी करने के कुटीर उद्योग चल रहे हैं, वहां के तकरीबन हर नौजवान इसी काम में लगे हैं। यह सब कुछ तब हो रहा है जब देश के हर मोबाइल नंबर और हर बैंक खाते को आधार कार्ड से जोड़ा गया है, और सरकार की हर किस्म की योजना भी आधार कार्ड से जोड़ी गई है। एक कार्ड की जानकारी लोगों को लगने से वे किसी व्यक्ति की हर जानकारी तक पहुंच जा रहे हैं, और बैंक खाते खाली कर देने का काम उनके लिए बड़ा ही आसान हो गया है।
अब देश भर से रोज आती ऐसी शिकायतों को देखें तो समझ पड़ता है कि भारत सरकार जिस रफ्तार से, और जितने दबाव से देश में डिजिटल लेन-देन बढ़ा रही है, जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के साफ-साफ निर्देशों के बावजूद आधार को अनिवार्य किए चली जा रही है, उससे आम तो आम, खासे पढ़े-लिखे लोग भी ठगी का शिकार हो रहे हैं। केन्द्र सरकार अगर देश भर में ऑनलाईन ठगी, और ओटीपी के बेजा इस्तेमाल का अध्ययन कर ले, तो ही उसे समझ आ जाना चाहिए कि डिजिटल लेन-देन की अनिवार्यता, और आधार से बैंक खातों को लिंक किया जाना एक नया खतरा खड़ा कर रहे हैं क्योंकि लोगों का चौकन्नापन अभी ऐसे लेन-देन के लायक तैयार नहीं है। और अभी तो बहुत से बुजुर्ग, कम पढ़े-लिखे, या कम चौकन्ने बैंक उपभोक्ता ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें उनके खाते खाली हो जाने की खबर भी न लगी हो।
चूंकि देश के लोगों को आर्थिक अपराधों से बचाना भी एक किस्म से केन्द्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है इसलिए जहां कहीं ठगी में आधार कार्ड, बैंक खातों, और मोबाइल नंबरों की जानकारी इस्तेमाल होती है, वहां ठगी के खिलाफ सरकारों को एक बीमे का इंतजाम करना चाहिए। चूंकि सरकार और बैंक जानकारियों को इकट्ठा करती हैं, और इन्हीं में जमा पैसों की ठगी होती है, इसलिए ठगी गई रकम का मुआवजा या तो सरकारें खुद लोगों को दें, या फिर ऐसे बीमे का इंतजाम करें जिससे नुकसान की भरपाई हो सके। बैंकों को भी अपने ग्राहकों से होने वाली ठगी के खिलाफ बीमे और मुआवजे का इंतजाम करना चाहिए। आज जब मौसम की मार से फसल को होने वाले नुकसान का बीमा होता है, तो लोगों की बैंक खातों की जमा रकम ठग लिए जाने के खिलाफ बीमा क्यों नहीं हो सकता?
यहां पर इस बात पर विचार की जरूरत भी है कि लोगों के आधार कार्ड, पेनकार्ड, वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस जैसी बहुत सारी शिनाख्त की जानकारी सरकार ने एक-दूसरे से जुड़वा दी है। इसके बाद तरह-तरह की सरकारी योजनाओं के लिए ऑनलाईन रजिस्ट्रेशन की जरूरत पड़ती है। केन्द्र सरकार की एक-एक योजना में सौ-पचास करोड़ लोगों की जानकारी जमा है। अब आम लोगों से ऐसी जानकारी के साथ जुड़ी रहने वाली हिफाजत की कड़ी जरूरत को पूरा करने की उम्मीद नहीं की जा सकती। आम हिन्दुस्तानी की जिंदगी इतनी डिजिटल जागरूकता वाली नहीं है कि वे पूरी सावधानी बरत सकें। दूसरी तरफ ठगों ने बहुत मामूली से कम्प्यूटरों और मोबाइल फोन से इन जानकारियों को चुरा लेने का तरीका निकाल लिया है, और लोगों को धोखा देना उनके लिए एक आसान काम हो गया। यह नौबत बड़ी खतरनाक है क्योंकि सरकार की इकट्ठा की गई जानकारी इतनी अधिक है कि उसमें जरा सी घुसपैठ भी करोड़ों लोगों की हर जानकारी मुजरिमों के हाथ दे सकती है। बीच-बीच में ऐसी खबरें आती हैं कि मुजरिमों के बीच इस्तेमाल होने वाले डार्क-वेब पर जानकारी बिकने के लिए आती रहती है, हालांकि अभी तक ऐसी सनसनी सही साबित नहीं हुई है। लेकिन बड़े पैमाने पर न सही, इक्का-दुक्का लोगों को ठगने लायक जानकारी कहीं न कहीं से निकलती ही है, चाहे उन लोगों से खुद से ही क्यों न निकले। ऐसे में सरकार के जागरूकता अभियान की जरूरत तो ठीक है, लेकिन इतने व्यापक स्तर पर इतनी जागरूकता नहीं फैल सकती कि लोग ठगी के शिकार न हों।
फिर एक बात यह भी है कि मोबाइल फोन पर तमाम संदेश सरकार की निगरानी और पहुंच के भीतर रहते हैं। ठगी के कुछ प्रचलित तरीके हैं जो कि पुलिस रिपोर्ट से सामने आ जाते हैं। केन्द्र सरकार को ऐसा एक निगरानीतंत्र बनाना चाहिए जो कि मोबाइल फोन और इंटरनेट से होने वाली ठगी के पहले ही उस पर निगरानी रखे, और समय रहते मुजरिमों को पकड़ा जाए। कुल मिलाकर यह सरकार के हिस्से की कमी और कमजोरी दिख रही है कि लोग ठगे जा रहे हैं। आज सरकार के ही नियम लोगों को नगद लेन-देन से रोकते हैं, घर में नगदी रखने से रोकते हैं, और जब सारा लेन-देन डिजिटल करने के लिए सरकार ने कमर कस ली है, तो फिर उसे ठगी के खिलाफ जनता को हिफाजत देने का इंतजाम भी करना चाहिए।
बिहार में कल भूतपूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के एक सहयोगी पर ईडी का छापा पड़ा, और उसके घर से दो करोड़ नगदी के अलावा बड़ी जायदाद के कागज मिलने का दावा किया गया है, उसे रेत कारोबार से जुड़ा बताया गया है, और गिरफ्तार किया गया। सुभाष यादव नाम का यह आदमी 2019 में आरजेडी की टिकट पर लोकसभा चुनाव भी लड़ चुका है, उसके खिलाफ पहले भी रेत के अवैध कारोबार के छापे पड़ चुके हैं, और मामले दर्ज हैं। इस बार फिर इसके लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारी बताई जा रही थी। शायद इसी मामले को लेकर पटना में कल केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है कि जमीन और रेत माफिया को उल्टा लटकाकर हम सीधा कर देंगे। रेत को लेकर देश के बहुत से प्रदेशों में माफिया-कारोबार चलता है। कई जगह सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को रेत माफिया अपनी गाडिय़ों से कुचलकर मार डालता है। और छत्तीसगढ़ में भी रेत माफिया की ताकत इतनी है कि गैरकानूनी तरीके से बड़ी-बड़ी मशीनें लगाकर नदियों से अवैध रेत खुदाई की जाती है, और जहां पर रेत खदान नहीं मिली है, वहां पर खुदाई और अधिक की जाती है। आज ही रेत ढोने वाले ट्रांसपोर्टरों के संघ ने कहा है कि प्रदेश में 222 रेत खदानों की नीलामी हुई है लेकिन अब तक 20 खदानें भी शुरू नहीं हुई हैं। उनका कहना है कि खदानों से ही चार-पांच गुना दाम पर रेत दी जा रही है, इसलिए बाजार में रेत महंगी है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि पिछले दिनों विधानसभा में सत्तारूढ़ भाजपा के विधायक धर्मजीत सिंह ने दावे के साथ यह कहा था कि प्रदेश की नदियों में दो सौ से अधिक पोकलैंड मशीनें रेत की अवैध खुदाई कर रही हैं। उन्होंने कहा कि जांच में अगर मशीनें इससे कम मिले, तो वे विधानसभा से इस्तीफा दे देंगे। सत्तारूढ़ विधायक की यह छोटी चुनौती नहीं थी।
दरअसल पिछले पांच बरस से छत्तीसगढ़ में रेत का जो अवैध कारोबार चल रहा है, उसमें नेता, अफसर, और ठेकेदार का एक माफिया बना डाला है। किसी भी जिले में अफसरों को लाखों रूपए की रिश्वत दिए बिना रेत खदान की लीज पर दस्तखत नहीं होते। इसके अलावा हर जगह लॉटरी से खदान पाने वाले लोगों पर प्रशासन की तरफ से यह दबाव डाला गया कि वे किसी सत्तारूढ़ नेता को अघोषित भागीदार बनाएं तभी वे खदान चला पाएंगे। यह दादागिरी पूरे प्रदेश में पूरे पांच बरस चली, और इन्हीं सब वजहों से रेत के दाम न सिर्फ आसमान पर रहे, बल्कि छत्तीसगढ़ से पड़ोस के प्रदेशों में हर दिन हजारों ट्रक रेत की तस्करी भी होती रही। पूरे प्रदेश में खनिज विभाग एक तरफ तो कोयला-रंगदारी वसूलने में लगे रहा, जिसकी वजह से आज ढेर सारे जिला खनिज अधिकारी जेल में पड़े हैं, और जब किसी अफसर को एक जुर्म में शामिल किया जाता है, तो फिर उन्हें बाकी किसी जुर्म से भी परहेज नहीं रह जाता। इस तरह कोयला, रेत, आयरन ओर, सभी तरह की अवैध उगाही, और अवैध कारोबार में जिला प्रशासन का औजार बना हुआ खनिज विभाग लगे रहा। फिर सत्ता के बड़े-बड़े ताकतवर लोगों को अघोषित भागीदार बनाने के लिए कलेक्टरों ने गुंडों की तरह काम किया। नतीजा यह हुआ कि आज भाजपा की सरकार आने के बाद भी पिछले बरसों में अवैध कमाई से भारी बाहुबल पाने वाले रेत माफिया का अवैध कारोबार जारी है, और लोगों को रेत महंगी मिल रही है।
जब किसी कारोबार में लोगों को बरसों तक अंधाधुंध कमाई होती है, तो वे इतना बाहुबल बना लेते हैं कि वे नई सरकार की नई नीति, या नए नियम-कायदों को नाकामयाब साबित करने के लिए कारोबार को ठप्प करने की हरकत भी करते हैं, ताकि लोगों के बीच बेचैनी फैले, और सरकार उन्हें पुराने ढर्रे पर जुर्म करने की छूट दे। ऐसे माफिया की कमर एक बार तोडऩा जरूरी है। दिक्कत यह होती है कि अवैध कमाई का ढांचा बनाने वाले अधिकारी माफिया-कारोबारियों के साथ मिलकर नए सत्तारूढ़ नेताओं को रिझाने की कोशिश में लग जाते हैं, और कार्रवाई दिखावे के लिए शुरू होती है, और फिर थम जाती है।
हम रेत माफिया के तौर-तरीकों से जनता की खदानों की लूट से परे भी इस मुद्दे पर बात करना चाहते हैं। नदियों से रेत की अंधाधुंध और अवैध खुदाई जब गैरकानूनी मशीनों को लगाकर की जाती है, तो नदियों का और पर्यावरण का कोई ध्यान नहीं रखा जाता। जहां से सहूलियत अधिक रहती है, वहां पर खाई बना दी जाती है, और रेतघाट के ठेकेदारों का पर्यावरण से कुछ लेना-देना नहीं रहता। जब कलेक्टर की कुर्सियों पर बैठे लोग हर ट्रक पीछे अपना हिस्सा बांध लें, और जब मंत्री या विधायक धंधे में हिस्सेदार हो जाएं, तो फिर कार्रवाई कौन कर सकते हैं? पिछले पूरे पांच बरस इसी अंदाज में काम चला, और अब नई सरकार को शायद कार्रवाई करने में दिक्कत भी हो रही है, क्योंकि सारा सरकारी अमला बुरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। अगर नदियों से अंधाधुंध रेत उगाही चलती रही, तो नदियों के बहाव में फर्क पड़ेगा, हो सकता है कि उनमें गाद भरती जाए, और जैसा कि कुछ अरसा पहले बिलासपुर की अरपा नदी में सामने आया है, अवैध खुदाई की वजह से बने गड्ढों में डूबकर बच्चे मारे भी गए।
हमारी सलाह है कि सरकार इस पूरे अवैध कारोबार को पूरी कड़ाई से बंद करवाए, और जितनी गाडिय़ां जब्त हो रही हैं, उनको राजसात किया जाना चाहिए, या फिर उनसे अधिकतम संभव जुर्माना वसूलना चाहिए। रेत खदानों को मुरम या पत्थर खदानों के मुकाबले अधिक नाजुक मामला मानना चाहिए क्योंकि वह नदियों से जुड़ा हुआ मुद्दा है। सरकार की अगर इच्छाशक्ति होगी, तो इस माफिया-कारोबार को बंद करवाना अधिक मुश्किल बात नहीं है। पिछली कांग्रेस सरकार अगर चुनाव हारी थी, तो उसके पीछे जनता को रेत के अंधाधुंध दाम देना भी एक छोटी वजह रही होगी, और ऐसी वजह हमेशा ही चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को नुकसान पहुंचाएगी। अभी तुरंत ही लोकसभा के चुनाव सामने हैं, और उसके कुछ महीनों बाद पंचायत और म्युनिसिपल के चुनाव रहेंगे जिनमें स्थानीय मुद्दे सबसे अधिक हावी रहेंगे। शराब और रेत, पटवारी और तहसील, ये आम जनता को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले होते हैं।
दिल्ली में कल एक सडक़ पर नमाज पढ़ रहे नमाजियों को जूतों से धक्के मारकर हटाने वाले एक पुलिस अफसर को निलंबित तो कर दिया गया है, लेकिन इसका वीडियो एक अफसर और एक निलंबन से अधिक दहशत पैदा कर रहा है। यह दहशत सिर्फ गरीब नमाजियों के मन में नहीं है, जिनके लिए आसपास कोई मस्जिद नहीं है, और जो कुछ मिनटों की नमाज पढऩे के लिए बहुत से शहरों में मैदान, बगीचे, सडक़ की कुछ चौड़ाई, और रेलवे प्लेटफॉर्म जैसी जगहों का इस्तेमाल करते हैं। जाहिर तौर पर यह सार्वजनिक जगह पर कुछ मिनटों की असुविधा हो सकती है, लेकिन एक लोकतंत्र में क्या किसी एक चुनिंदा धर्म के लिए इस तरह से ऐसी सजा तय की जा सकती है? दिल्ली में इस घटना के दौरान के जो वीडियो सामने आए हैं वे बताते हैं कि सडक़ के किनारे में पढ़ी जा रही नमाज से बाकी सडक़ पर आवाजाही में रूकावट नहीं आ रही थी। खबरें बताती हैं कि वहां की मस्जिद पूरी भर गई थी इसलिए कुछ लोग बाहर बैठे थे।
खैर, हम बहुत बारीकी वजहों पर जाना नहीं चाहते, और देश में आज मोटेतौर पर जो माहौल बना है, उस पर बात करना चाहते हैं। इस वीडियो के पहले भी कई लोगों ने हैदराबाद के एक भाजपा विधायक के वीडियो देखे होंगे जिनमें वह भारी भीड़ के बीच एक मंच के ऊपर से माईक पर धर्मों के भेदभाव की बात करते हुए मां-बहन की गालियां बकता है, और बकते ही चले जाता है। इसे आज देश में आक्रामक हिन्दुत्व का ध्वजवाहक माना जा रहा है। इसी तरह का माहौल बहुत से प्रदेशों में बना हुआ है, और किसी भी किस्म के छोटे-बड़े जुर्म में शामिल होने के आरोप में जिन लोगों के मकान, दुकान बुलडोजर से गिराए जा रहे हैं, वे तकरीबन तमाम ही मुस्लिम हैं। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें आतंक के जुर्म में बंद मुस्लिम 20-25 बरस बाद अदालत से बरी हो रहे हैं, तब तक उनकी खुद की, और परिवार की जिंदगी तकरीबन खत्म हो चुकी रहती है।
अब अगर सडक़ किनारे नमाज पढ़ते लोगों को पुलिस बूट से मारा जाना है, तो फिर इस धर्मनिरपेक्ष देश में बाकी धर्मों के साथ जो सुलूक होता है, उसे भी समझने की जरूरत है। मुस्लिमों की ऐसी नमाज तो शायद हफ्ते में एक दिन कुछ मिनटों की रहती है, और उससे हो सकता है कहीं-कहीं मामूली सी दिक्कत भी होती हो। लेकिन दूसरे धर्मों के धार्मिक जुलूस जिस तरह कई-कई दिनों तक निकलते हैं, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के शोरगुल-विरोधी फैसलों के खिलाफ पूरी दबंगई से निकलते हैं, क्या उनसे लोगों को असुविधा नहीं होती? प्रतिमाओं को स्थापित करने ले जाने, और फिर उन्हें विसर्जन के लिए ले जाने का सिलसिला हर शहर में कई दिन चलता है, और वहां पर लाउडस्पीकर का हाल यह रहता है कि आसपास लोगों की मौत भी दर्ज हो चुकी है। मस्जिदों पर हर दिन कुछ बार कुछ-कुछ मिनट के लिए बजने वाले लाउडस्पीकर को उतरवाने की बहुत बात होती है, लेकिन मंदिरों पर लगे लाउडस्पीकर तो कुछ-कुछ मिनटों के लिए नहीं बजते, वे तो घंटों तक बजते हैं, और त्यौहारों के वक्त तो वे लगातार कई दिन बज सकते हैं, बजते हैं। दूसरे धर्मों के जुलूस और लाउडस्पीकर भी इसी तरह रहते हैं, कई धर्मों के लोग हथियार लिए हुए सडक़ों पर चलते हैं, और ऐसे तमाम धार्मिक जुलूसों से बंद सडक़ों पर पुलिस ही जुलूस की हिफाजत करते चलती है। बीते बरसों में लगातार यह बात सामने आई है कि किस तरह कांवर यात्राओं के दौरान सडक़ों पर अराजकता और हिंसा होती है, किस तरह खानपान के ठेलों को बंद करवाया जाता है, ट्रैफिक तो मनचाहे तरीके से रोक ही दिया जाता है। लेकिन उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में राज्य के पुलिस प्रमुख हेलीकॉप्टर से जाकर कांवरियों पर फूल बरसाते हैं। और इधर मुस्लिमों की नमाज के दौरान नमाजियों के पिछवाड़े पर बूट पहनी पुलिस लात मार रही है।
देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को खत्म करने के अलावा जगह-जगह पुलिस एक दूसरा काम भी कर रही है, वह नागरिकों के बुनियादी अधिकार भी अपने बूट से कुचल रही है, और लोकतंत्र को भी जूते तले कुचल रही है। कल का यह जूता एक पुलिसवाले का जूता नहीं था, वह सत्ता की सोच का एक सुबूत था, और वह किसी नमाजी के पिछवाड़े पर नहीं मारा गया था, वह लोकतंत्र के मुंह पर मारा गया था, और उसी दिल्ली में बैठे हुए सुप्रीम कोर्ट का मुंह चिढ़ाते हुए उसकी मौन-औकात बताते हुए मारा गया था। यह सिलसिला भयानक है। वीडियो तो आधे मिनट का है, लेकिन यह पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान को विश्वगुरू के किसी भी संभावित, काल्पनिक, और स्वघोषित तमगे से दूर धकेल देता है, और यह बताता है कि ऐसी हरकतों के चलते हुए विश्वगुरू रहने और बनने का दंभ अपने मुंह एक पाखंडी दावा करने से अधिक कुछ नहीं है। दिल्ली की पुलिस केन्द्र सरकार के मातहत काम करती है, और हम उम्मीद करते थे कि महज पुलिस अफसर से ऊपर के कोई अधिक महत्वपूर्ण लोग इस पर कुछ बोलेंगे। आज पूरे देश में जिस तरह का माहौल मुस्लिमों और बाकी गैरहिन्दुओं के खिलाफ बना हुआ है, वह इस देश की हर किस्म की संभावनाओं को भी प्रभावित करता है। देश की गैरबहुसंख्यक आबादी को कुचलकर, उसके पिछवाड़े बूट मारकर देश का भला नहीं किया जा सकता। जब आबादी के एक हिस्से को नीचा दिखाकर ही बड़े हिस्से को गर्व का अहसास कराया जाए, तो फिर उसे जिंदगी में असली गर्व के लायक कुछ करने की जरूरत ही नहीं रहेगी। जब गैरहिन्दुओं का अपमान ही हिन्दू अपना सम्मान मान लेंगे, तो फिर वे जिंदगी में असल सम्मान पाने लायक काम क्यों करेंगे?
देश में धार्मिक नफरत, साम्प्रदायिक हिंसा, जातिवाद, धर्मान्धता जैसी बातें देश के लोगों में वैज्ञानिक नजरिए को पूरी तरह खत्म कर रही है, और इसके साथ-साथ ही खत्म हो रही हैं देश की संभावनाएं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के एक चर्चित अंकित सक्सेना हत्याकांड में अदालत ने तीन कातिलों को उम्रकैद सुनाई है। अंकित की एक मुस्लिम लडक़ी से मोहब्बत थी, और उसी वजह से पास ही रहने वाले इस मुस्लिम परिवार के दो मर्दों और एक औरत ने खुली सडक़ पर अंकित को चाकुओं से गोदकर मार डाला था। दोनों परिवारों में पहचान थी, और अलग-अलग धर्म का होना ही सबसे बड़ा मुद्दा था। हिन्दुस्तान में धर्म तो बड़ा मुद्दा है ही, जात के बाहर शादी करना भी मरने-मारने की वजह बन जाता है, और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि ऑनर-किलिंग के नाम पर विजातीय प्रेमविवाह करने वाले अपने बच्चों को मार डालते हैं। उन्हें अपनी जाति के भीतर एक तथाकथित स्वाभिमान की फिक्र अधिक रहती है, और जात-धरम के बाहर की शादी उन्हें अपने खानदान पर कलंक की तरह लगती है। हिन्दुस्तान में आज हिन्दू लड़कियों के मुस्लिम लडक़ों से शादी करने पर उसे लव-जिहाद कहते हुए उसके खिलाफ एक साम्प्रदायिक माहौल बना हुआ है, और जिस देश में जिस काल में बहुसंख्यक वर्ग में साम्प्रदायिक सोच आ जाती है, उस देश में उस दौर में अल्पसंख्यक तबके भी वैसी ही सोच के शिकार हो जाते हैं। यह क्रिया की प्रतिक्रिया का मामला रहता है।
हम किसी एक जात या धरम की वकालत किए बिना देश के माहौल की बात करना चाहते हैं कि आधुनिकीकरण, शहरीकरण, आर्थिक विकास, नौजवान पीढ़ी की आत्मनिर्भरता, और बढ़ती हुई शिक्षा के साथ-साथ समाज की जिंदगी में जिन बातों की अहमियत बढऩी चाहिए थी, वह दिखाई नहीं देती है। आज भी जातियों के संगठन लोगों की जिंदगी का रूख तय करते दिखते हैं, और उन संगठनों के दबाव में परिवार भी अपने बच्चों को अकेला छोड़ देने को मजबूर हो जाते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में ओबीसी की कुछ जातियों में जाति संगठन इतने मजबूत और ताकतवर हैं कि किसी भी विजातीय शादी के खिलाफ वे संबंधित परिवार का इतना मजबूत सामाजिक बहिष्कार करते हैं कि बहुत से लोगों का हौसला टूट जाता है, वे लाखों रूपए का जुर्माना पटाकर, माफी मांगकर, जात में शामिल होने की कोशिश करते हैं। आज शहरीकरण के साथ-साथ जाति संगठन की प्रासंगिकता खत्म हो जानी चाहिए थी, लेकिन बहुत संपन्न, शिक्षित, और शहरी लोग भी अपनी जाति संगठन के गुलामों की तरह रह जाते हैं। धर्म का मामला भी ऐसा ही है। कई जगहों पर मां-बाप अगर अपने बच्चों की दूसरे धर्म में शादी के लिए तैयार भी हो जाते हैं, तो उन पर अपने धर्म के लोगों का दबाव इतना अधिक रहता है कि वे जाहिर तौर पर बरसों तक अपने ही बच्चों से रिश्ते नहीं रख पाते।
आज 21वीं सदी में आकर जब लोगों की जिंदगी में पढ़ाई, रोजगार, रोज की जिंदगी की सहूलियतें, कामयाबी की अहमियत रहनी चाहिए, अधिकतर लोगों की जिंदगी में जाति और धरम की अहमियत सबसे ऊपर चलती है। हिन्दुस्तान अभी तक कई अलग-अलग सदियों में एक साथ जी रहा है। जो लोग इसके सामाजिक रिवाजों को तोडऩे का हौसला दिखाते हैं, वे बिना किसी अधिक तकलीफ के जिंदा भी रह सकते हैं। यह एक अलग बात है कि यह हौसला दिखाने का हौसला बहुत कम लोगों में रहता है। लोग छोटी-छोटी टेक्नॉलॉजी के लिए तो विकसित देशों की तरफ देखते हैं, लेकिन उन देशों की सामाजिक उदारता की परंपराओं की तरफ नहीं देखते। नतीजा यह है कि हमने मोबाइल फोन और इंटरनेट तो दूसरे देशों से ले लिया है, वहां के सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी करते हैं, लेकिन अपने देश की नई पीढ़ी की हसरतों की जरूरतों को कुचलते रहते हैं। हर दिन देश में दर्जनों आत्महत्याएं होती हैं क्योंकि जालिम जमाना प्रेमीजोड़ों को मिलने नहीं देता। दूसरी तरफ खुदकुशी से कुछ कम निराशा वाले हजारों गुना अधिक लोग ऐसे रहते हैं जो कि मरते तो नहीं हैं लेकिन जीते-जीते मरे सरीखे जरूर हो जाते हैं। दुनिया के उदार देशों से तुलना करें, तो उन देशों में धर्म, जाति, नस्ल, रंग, राष्ट्रीयता कोई मुद्दा ही नहीं रह गए हैं। वहां पर बच्चे शादी के बाद हों या पहले, यह भी कोई मुद्दा नहीं रह गया है। ऐसे सारे समाज अपने खुशहाल और मानसिक सेहतमंद लोगों की वजह से आगे भी बढ़ते हैं, क्योंकि समाज के थोपे हुए कोई प्रतिबंध उनकी हसरतों को कुचलने के लिए ओवरटाइम नहीं करते। हमारा मानना है कि किसी भी देश की नौजवान पीढ़ी की आगे बढऩे की संभावनाएं इस बात से जुड़ी रहती हैं कि वह पीढ़ी किसी भी तरह की निराशा और कुंठा से कितनी आजाद है। जब नौजवान कंधे परिवार और समाज के लादे गए प्रतिबंधों को ढोते हुए अपने ही सपनों को कुचलने के लिए मजबूर रहते हैं, तो फिर ऐसी युवा पीढ़ी कामयाबी की राह पर अपनी पूरी क्षमता का सफर नहीं कर पाती।
सिर्फ आत्महत्याओं और ऑनर-किलिंग के आंकड़े पूरी हकीकत नहीं बताते, समाज के भीतर कुंठा में डूबी हुई युवा पीढ़ी अपनी निराशा का शिकार रहती है, और यह निराशा समाज को उसकी उत्पादकता नहीं दे पाती। हिन्दुस्तान में शहरीकरण चाहे जितना बढ़ गया हो, सामाजिक पाखंड भी उसी अनुपात में बढ़ते जा रहा है, जबकि समाज विज्ञान की सामान्य समझ कहती है कि शहरीकरण से जात-धरम का फौलादी ढांचा कमजोर होना चाहिए था। हिन्दुस्तान में आज जात और धरम की जिंदगी में अहमियत सामान्य और तर्कसंगत सीमा से बहुत अधिक है। यह कुछ उस किस्म की है कि लोग दिन में 8 घंटे पूजा करें, और आधे घंटे काम करें। जिंदगी में तीन चीजों का क्या अनुपात रहना चाहिए, यह मामला हिन्दुस्तान में पूरी तरह, और बुरी तरह गड़बड़ा गया है। लोग जात और धरम के नाम पर ऐसे भरम में डूब गए हैं कि उनकी समझ खत्म हो गई है। लोगों के लिए अपनी पैदा की हुई औलादों की अहमियत हिंसक सामाजिक नियमों से भी कम रह गई है। समाज में यह सब घटते नहीं दिख रहा है, बल्कि बढ़ते दिख रहा है। इससे और कुछ नहीं होगा, महज भड़ास में डूबी यह पीढ़ी देश को उसकी पूरी संभावना तक नहीं ले जा पाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के पहले अब यह तस्वीर साफ हो गई है कि पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार होंगे, और मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के। यह दो उम्मीदवारों की एक खासी बुजुर्ग टीम होगी, जो आमने-सामने तो है, लेकिन दोनों ही उम्रदराज हैं, बाइडन 81 बरस के, और ट्रंप 77 साल के। इनमें से बाइडन की उम्र उनकी सेहत पर झलकने भी लगी है, और कभी याददाश्त, तो कभी उनका बदन लडख़ड़ाने भी लगा है। फिर भी दोनों अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर की चुनौतियों से गुजरते हुए, अब तकरीबन एक-दूसरे के सामने खड़े हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव पर आज लिखने की वजह यह भी है कि यह भारत के चुनावी माहौल से एकदम ही अलग नजारा है। और पिछले कुछ बरसों में अमरीकी राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री के बीच जिस तरह का तालमेल चलते आया है, उसके चलते इन दोनों चुनावों के फर्क समझना भी जरूरी है। पहले तो अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में अपनी पार्टी के प्रत्याशी बनने के लिए किसी नेता को जिस दौर से गुजरना होता है, उसकी कल्पना भी हिन्दुस्तानी राजनीति में नहीं की जा सकती। जो लोग चुनाव लडऩा चाहते हैं, उन्हें पहले अपनी पार्टी की राज्य इकाईयों के बीच जाकर अपना प्रचार करना पड़ता है, लोगों को अपनी निजी उम्मीदवारी के फायदे गिनाने पड़ते हैं, और यह बात इस हद तक चली जाती है कि ऐसे दूसरे महत्वाकांक्षी नेताओं की खुली आलोचना भी मंच पर होती है। पार्टी के खुले मंच पर ये नेता एक-दूसरे से बहस करते हैं, आगे की अपनी सोच बताते हैं, और यह बात पार्टी के ही दूसरे नेताओं की खुली आलोचना तक चली जाती है, जिसका कोई बुरा नहीं मानते। यह पार्टियों के भीतर का ऐसा आंतरिक लोकतंत्र है, कि जिसकी कोई कल्पना हिन्दुस्तान में नहीं की जा सकती। अमरीकी पार्टियों के नेता शांत रहकर सभी महत्वाकांक्षी लोगों को खुलकर प्रचार करने देते हैं, मंच पर खुलकर एक-दूसरे से बहस करने देते हैं, और यह भी नहीं माना जाता कि ऐसी आलोचना बाद में दूसरी पार्टी के उम्मीदवार के काम आएगी। बल्कि होता यह है कि लोगों की सारी कमजोरियां अपनी पार्टी के भीतर ही उजागर हो जाती हैं, उन पर बहस हो जाती है, और उनका जवाब भी दे दिया जाता है। इस तरह आग में तपकर जो उम्मीदवार बचते हैं, जिन्हें अपनी पार्टी के प्रदेश संगठनों का समर्थन मिलता है, वे उम्मीदवारी तक पहुंचते हैं। भारत में अगर किसी एक पार्टी के लोग एक-दूसरे के मुकाबले किसी मंच पर खड़े होकर बहस भी कर लें, तो पार्टी उन्हें शायद निकाल बाहर करे। इसका एक बड़ा नुकसान यह होता है कि किसी भारतीय राजनीतिक दल में संगठन पर काबिज लोग अपनी मनमर्जी और मनमानी से उम्मीदवार तय कर लेते हैं, और लोगों को, पार्टी संगठन के कार्यकर्ताओं को अपनी राय रखने का कोई खुला मंच नहीं मिलता।
अब एक दूसरी बड़ी बात जो कि भारत और अमरीका के बीच अलग है, वह राष्ट्रपति प्रणाली है। अमरीका के हर वोटर राष्ट्रपति को चुनने के लिए वोट डालते हैं, जबकि हिन्दुस्तान प्रधानमंत्री को चुनने में वोटरों का कोई सीधा हाथ नहीं रहता, वोटर सांसद भर चुनते हैं, और फिर वे सांसद अपनी पार्टी के कहे मुताबिक प्रधानमंत्री चुनते हैं। किसी सांसद की भी कोई मर्जी प्रधानमंत्री चुनने में नहीं रहती। इस तरह हिन्दुस्तान में पार्टी संगठन संसद और विधानसभा चुनाव के उम्मीदवार तय करने से लेकर, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक सबको तय करते हैं, और न तो पार्टी के आम कार्यकर्ताओं की कोई भूमिका रह जाती, न ही जनता की। इस मामले में अमरीकी चुनाव अधिक लोकतांत्रिक हैं जहां किसी पार्टी के उम्मीदवार बनने के लिए लोगों को देश भर के अपने संगठन के भीतर बहुमत-समर्थन पाना रहता है, और तभी जाकर वे राष्ट्रपति चुनाव लड़ पाते हैं।
वैसे तो हर देश की चुनाव व्यवस्था अलग-अलग रहती है, और किसी एक देश के किसी एक पहलू को किसी दूसरे देश पर लागू करना गलत भी हो सकता है, लेकिन हमें पार्टी के भीतर का लोकतंत्र और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बीच समर्थन साबित करने की अमरीकी स्थिति बड़ी अच्छी लगती है। पल भर के लिए अगर हिन्दुस्तान जैसे देश में देखें कि यहां किसी संसदीय सीट पर पार्टी के हर तरह के पदाधिकारी, और पार्टी के सक्रिय सदस्य किसी मंच पर उम्मीदवार बनने की चाहत रखने वाले लोगों को सुनें, उनसे सवाल करें, उनकी तुलना करें, और फिर पार्टी के भीतर उनके लिए मतदान करें, तो जाहिर तौर पर हिन्दुस्तानी उम्मीदवारों का स्तर ऊपर जा सकता है। आज तो दिल्ली में बंद कमरे में बैठकर संगठन के नेता जो तय करते हैं, वही उम्मीदवारी हो जाती है, और पार्टी के सदस्यों और कार्यकर्ताओं के लिए उसी पसंद का साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। अगर पार्टी सदस्यों के बीच से मतदान से जीतकर आने की व्यवस्था हिन्दुस्तान में रहती, तो जनता के बीच बेहतर उम्मीदवार आ सकते थे। लेकिन यहां जाति और धर्म, क्षेत्र के साथ-साथ पार्टी के बड़े नेताओं के अलग-अलग गुटों के बीच संतुलन जिस तरह बनाया जाता है, उससे बड़े समझौतों से उम्मीदवारी तय होती है, और उसका पार्टी सदस्यों में समर्थन होना कहीं जरूरी नहीं रहता। अमरीकी चुनाव व्यवस्था से कुछ सीखकर अगर हिन्दुस्तान में कोई बड़ी पार्टी उसी तरह से संगठन का लोकतंत्र कायम कर सके, तो शायद ऐसी पार्टी अधिक मजबूत भी होगी। अब पता नहीं संगठनों पर काबिज खूसट लोग अपना शिकंजा ढीला करना चाहेंगे या नहीं, लेकिन अगर हिन्दुस्तान में पार्टियां बर्बाद हुई हैं, तो ऐसे ही फौलादी शिकंजों की वजह से। इसलिए कम से कम किसी पार्टी को ऐसा आंतरिक लोकतंत्र लागू करके एक मिसाल कायम करनी चाहिए। यही तरीका मतदाताओं को अपने इलाके के विधायक या सांसद तय करते हुए एक बेहतर हक भी देगा।
कलकत्ता हाईकोर्ट के एक विवादास्पद जज, जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने कल इस्तीफा दे दिया है, और आने वाले कल वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं। उन्होंने खुद ने यह घोषणा की है। यह भी माना जा रहा है कि वे भाजपा टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। वे लगातार राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से जुड़े हुए बहुत से मामलों में सरकार और इसके नेताओं के खिलाफ फैसले देते आ रहे थे, और सरकार के दर्जन भर से अधिक मामलों को उन्होंने जांच के लिए ईडी और सीबीआई को दिया था। उन्होंने ममता सरकार द्वारा नियुक्त किए गए 32 हजार से अधिक शिक्षकों को बर्खास्त कर दिया था, बाद में एक से अधिक जजों की बेंच ने उनके इस फैसले पर रोक लगाई। उनसे जुड़े हुए और भी कई विवाद रहे, वे एक मामले की सुनवाई कर रहे थे, और इस पर उन्होंने एक टीवी चैनल को इंटरव्यू दिया जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने आपत्ति की। इस इंटरव्यू में उन्होंने तृणमूल नेता अभिषेक बैनर्जी के खिलाफ भी बातें कहीं, और इस पर देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने कहा था कि कोई जज जिन मामलों की सुनवाई कर रहे हैं, उसके बारे में वे इंटरव्यू देने जैसा काम नहीं कर सकते, और अगर उन्होंने याचिकाकर्ता के बारे में इस तरह की बातें कही हैं, तो उन्होंने इस मामले की आगे सुनवाई का कोई हक नहीं है। उन्होंने कहा कि जो जज किसी राजनेता की तरह के बयान दे रहे हैं, वे ऐसे मामलों की सुनवाई में नहीं रह सकते। इसके बाद भी कुछ दूसरे मामलों को लेकर जब सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस गंगोपाध्याय को सुनवाई से हटाया, तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी को ही नोटिस जारी कर दिया। उन्होंने अपने एक साथी जज पर भी आरोप लगाया कि वे एक राजनीतिक पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। कुछ महीने पहले कलकत्ता हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने जस्टिस गंगोपाध्याय का बहिष्कार करने की घोषणा की थी। अलग-अलग खबरें बताती हैं कि किस तरह यह जज लगातार ममता बैनर्जी सरकार के खिलाफ आदेश करते आ रहे थे, और हर मामले को जांच के लिए ईडी और सीबीआई को दे रहे थे। अब इस्तीफे के दो दिन के भीतर ही भाजपा में जाने की उनकी घोषणा कई सवाल खड़े करती है।
हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था में हाईकोर्ट के जज बहुत हद तक स्वायत्तता से काम करते हैं, और उनके फैसलों को पुनर्विचार के लिए, या उनके खिलाफ कोई अपील किए बिना आगे चुनौती नहीं दी जा सकती। सुप्रीम कोर्ट भी देश की सबसे बड़ी अदालत होने के बावजूद हाईकोर्ट पर अधिक काबू नहीं रखता। और अगर कोई हाईकोर्ट जज सुप्रीम कोर्ट से उलझने पर आमादा हो जाए, तो फिर न्यायपालिका के भीतर एक बड़ी मुश्किल नौबत आ खड़ी होती है। और जब ऐसे कोई लड़ाकू जज राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी रखने लगते हैं, किसी एक पार्टी के समर्थन या विरोध के लिए प्रतिबद्ध हो जाते हैं, तो उनके फैसले शक के घेरे में ही रहते हैं। ऐसी खुली राजनीतिक और चुनावी महत्वाकांक्षा इसके पहले हमें हाईकोर्ट या उसके ऊपर के किसी जज में देखना याद नहीं पड़ता है। हमारा ख्याल है कि देश में जो भी महत्वपूर्ण और नाजुक ओहदे हैं, उन पर रहने वाले लोगों के साथ नौकरी पूरी होने के बाद का एक खासा अरसा बिना काम रहने का रहना चाहिए। राजनीति से जुड़े मामलों पर लगातार एक ही रूझान वाले फैसले देकर जस्टिस गंगोपाध्याय पहले से विवादों में घिरे हुए थे, और अब चुनाव लडऩे की संभावनाएं, भाजपा में जाने की संभावनाएं यह खतरनाक नौबत बताती हैं कि न्यायपालिका किस तरह राजनीतिक पूर्वाग्रह ग्रस्त हो सकती है।
लोगों को याद होगा कि देश के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई किस तरह रामजन्म भूमि सरीखे कई मामलों में सरकार को सुहाने वाले कई फैसले देने के बाद रिटायर होते ही भाजपा की तरफ से राज्यसभा चले गए। इसी तरह एक दूसरे जज रिटायरमेंट के तुरंत बाद एक राज्य के राज्यपाल होकर चले गए। इन राजनीतिक मनोनयनों के अलावा भी देश में दर्जनों ऐसे बड़े संवैधानिक ओहदे तय किए हुए हैं जहां पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों को ही लाया जा सकता है। और जज रिटायर होने के पहले अपने वृद्धावस्था पुनर्वास का ध्यान रखते हुए ऐसे फैसले देने के लिए जाने जाते हैं जिनसे खुश होकर सरकार उन्हें फिर कई साल की सहूलियतों वाला ओहदा दे दे। इसलिए चाहे नौकरशाही हो, जज हों, या फौज के ऊंचे ओहदे से रिटायर होने वाले लोग हों, इन सबका राजनीतिक पुनर्वास तुरंत नहीं होना चाहिए, इसमें कम से कम दो बरस का फासला रहना चाहिए। फिर राज्यों के भीतर बहुत से ऐसे ओहदे बनाए गए हैं जिन पर रिटायर्ड जज या रिटायर्ड अफसर ही आमतौर पर मनोनीत किए जाते हैं। यह सिलसिला भी खत्म करना चाहिए। इस बारे में हम पहले भी एक नेशनल पूल बनाने की बात सुझा चुके हैं, और इनमें से अलग-अलग राज्य अपनी जरूरत के लोगों को छांट सकते हैं, और ये लोग ऐसे ही रहने चाहिए जिन्होंने उन राज्यों में पहले काम न किया हो।
पारदर्शिता और ईमानदारी, निष्पक्षता और जनधारणा, इन सबका ख्याल रखते हुए यह बात बिल्कुल साफ रहनी चाहिए कि सरकार को उपकृत करने की जगह पर बैठे हुए लोग, या कि ऊंची फौजी कुर्सियों से हटने वाले लोग तुरंत किसी राजनीतिक काम में नहीं लगाए जाने चाहिए, ऐसा होने पर लोकतंत्र में इन संस्थाओं की साख तो खत्म होती है, जनता के बीच खुद लोकतंत्र की साख खत्म होती है। अब जस्टिस रंजन गोगोई की दो कौड़ी की इज्जत उस दिन नहीं रह गई थी, जिस दिन उनकी मातहत कर्मचारी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया था, और आरोपों की सुनवाई के लिए खुद रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट बेंच के मुखिया होकर बैठ गए थे। कायदे की बात तो यह होती कि उनकी उस हरकत से असहमति जाहिर करते हुए बाकी तमाम जज उस बेंच से हट जाते, और देश के राजनीतिक दल उनके खिलाफ महाभियोग लेकर आते। लेकिन लोकतंत्र बेशर्म हो चुका है, और लोगों की ऐसी अश्लील हरकतें आम हो चुकी हैं। हमारा ख्याल है कि कलकत्ता के इस हाईकोर्ट जज के इस्तीफे से एक ऐसी जनहित याचिका की गुंजाइश खड़ी होती है जो सुप्रीम कोर्ट जाकर यह मांग करे कि राजनीतिक दलों से जुड़े जितने फैसले जस्टिस गंगोपाध्याय ने दिए थे, उन्हें दुबारा सुना जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)