संपादकीय
अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हुए जो हिन्दुस्तानी फूला नहीं समाता है उसकी असलियत बड़ी कमजोर और शर्मिंदगी भरी हुई है। लोकतंत्र का मतलब बहुमत के बाहुबल से चलती संसद, सूचना के अधिकार से बचती हुई सरकार, काम के बोझ से लदकर तकरीबन बेअसर हो चुकी अदालत, और आत्मा को मंडी में बेच चुका मीडिया नहीं होता। लोकतंत्र विशाल मन की दरियादिली से गौरवशाली परंपराओं को खुद होकर मानने का नाम होता है, और लोकतंत्र एक ऐसी लचीली व्यवस्था होता है जिसमें अपने से अधिक दूसरों के अधिकारों का सम्मान, और दूसरों से अधिक अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का ख्याल रखा जाता है। भारत इन मामलों में एकदम ही पिछड़ा हुआ देश है, और यहां के अधिकांश राजनीतिक दल पूरी तरह बेशर्म हो चुके हैं।
अब आज हिन्दुस्तान के इस पहलू पर चर्चा करने की जरूरत बंगाल की एक ताजा घटना से आ खड़ी हुई है। वहां पर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक नेता ने एक औरत और आदमी पर विवाहेत्तर संबंध रखने का आरोप लगाते हुए जनता के बीच जनसुनवाई की और इन दोनों को बहुत बुरी तरह पीटा। इसके वीडियो जब चारों तरफ फैले तो हंगामा हुआ, चारों तरफ थू-थू हुई, और अब ममता बैनर्जी की पुलिस ने अपने पार्टी के इस नेता को गिरफ्तार किया है। लेकिन यह अकेला मामला नहीं है, जिस राज्य में जिस पार्टी की सरकार रहती है वहां पार्टी या नेताओं की मनमर्जी से लोकतंत्र नाम के प्राणी को हांका जाता है। भाजपा के सांसद रहे भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक मैडल लेकर आने वाली आधा दर्जन महिला पहलवानों ने देहशोषण के आरोप लगाए, तो न उनकी पार्टी भाजपा के किसी नेता ने इस पर मुंह खोला, और न ही केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस ने चैंपियन पहलवान लड़कियों की शिकायत पर कोई जुर्म दर्ज किया। वह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने दखल देकर दिल्ली पुलिस से इस पर एफआईआर करवाई, लेकिन कदम-कदम पर बृजभूषण शरण सिंह अपनी पार्टी और पार्टी की सरकार की ऐसी शरण में बने रहे कि उनका कुछ नहीं बिगड़ा, बदनामी चूंकि सिर से ऊपर निकल चुकी थी, इसलिए लोकसभा के चुनाव में उनको टिकट न देकर भाजपा ने उनके बेटे को टिकट दे दिया, और चुनावी काफिले की गाड़ी की छत पर बैठे बृजभूषण शरण सिंह प्रचार करते रहे।
भारतीय लोकतंत्र में पिछले कुछ अरसे से लगातार संसद सिर्फ बहुमत के बाहुबल से काम करते आ रही है, और विपक्ष को अपनी बात कहने का मौका मिलना ही कम हो गया है। आज एक जुलाई से देश में जो तीन नए आपराधिक कानून लागू हुए हैं, उनके बारे में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आज ही ट्वीट किया है कि इन तीनों कानूनों को जबरन पारित करने के लिए 146 सांसदों को सस्पेंड किया गया था, और बुलडोजर की तरह उन्हें पास किया गया था। लोगों को याद होगा कि कुछ ऐसा ही किसान कानूनों के साथ भी हुआ था जिनके खिलाफ आंदोलन इतना लंबा और इतना व्यापक हुआ कि सरकार को सहमकर अपने तीनों कानून वापिस लेने पड़े थे। इससे परे भी लोकसभा में जिस अंदाज में विपक्ष के साथ लोकसभा अध्यक्ष का हिकारत का बर्ताव चल रहा है, वह बताता है कि किसी संसदीय परंपरा की गरिमा की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि बहुमत का बाहुबल कैसा भी बर्ताव करने का विशेषाधिकार दे देता है।
सरकारों के कामकाज को देखें तो जिस अंदाज में केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां काम कर रही हैं, और जिस तरह चुनिंदा नेताओं पर तब तक निशाने लगाए जाते हैं जब तक कि वे सत्ता के साथ न आ जाएं। और जो लोग सत्ता के खिलाफ हैं, या विपक्षी पार्टियों के हैं, उनके साथ जांच एजेंसियों का बर्ताव पुलिस, जज, और जल्लाद तीनों का मिलाजुला रहता है। हालत यह है कि बहुत कम लोगों को जांच एजेंसियों की साख पर भरोसा रह गया है। जो लोग पूरी तरह सत्ता के साथ हैं, उन्हें भी जांच एजेंसियों की हकीकत का पूरा अंदाज है। यही हाल राज्यों का है जहां पर प्रदेश सरकार के मातहत काम करने वाली पुलिस, और दूसरी जांच एजेंसियां सत्तारूढ़ पार्टी के सक्रिय पदाधिकारी बनकर सत्ता को नापसंद लोगों के पीछे लग जाती हैं। लोकतंत्र बहुमत की मनमानी, तानाशाही, और गुंडागर्दी का नाम कभी नहीं हो सकता। लोकतंत्र तो दरियादिली से चलने वाली एक लचीली व्यवस्था है जिसमें धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव, संविधान की शपथ का सम्मान, और इंसाफ की इज्जत होती है। आज जब तक देश की कोई बड़ी अदालत सरकार की बांह मरोडक़र उसे सही राह पर चलने को मजबूर न करे तब तक सरकारें चुनाव प्रचार के सबसे घटिया दौर की तरह घटिया बातें करते हुए, उसी दर्जे की कार्रवाई करती दिखती हैं, जो कि दुनिया के किसी भी विकसित लोकतंत्र के पैमानों पर लोकतंत्र नहीं कही जा सकतीं।
एक दूसरा खतरा इस देश के सामने आ खड़ा हुआ है कि एक पार्टी को देखकर मानो दूसरी पार्टी उसी के टक्कर के अलोकतांत्रिक काम करने में जुट जाती है। नतीजा यह होता है कि कहीं कीचड़ उछालने का मुकाबला चारों तरफ कमर तक गंदगी फैला देता है, तो कहीं खूनी टकराव होता है, और लाशें गिरने लगती हैं। फिर अपने-अपने मवालियों को बचाने की खुली और बेशर्म नीति देश के सामने बहुत ही खराब मिसालें खड़ी करती है जिससे फिर आगे भी लोगों में शर्म और झिझक खत्म हो जाती हैं। इसलिए बंगाल की इस ताजा घटना से और भी बहुत सी बातें याद आती हैं, सत्ता की मदमस्त ताकत, संसद का बाहुबल, बेअसर बनाकर रखी गई अदालतें, और अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने की नाजायज घोषणा करने वाला मीडिया अब अपनी आत्मा को बेचकर अपने कारोबार को बड़ा करने में लगा हुआ है। लोकतंत्र का पतन चारों तरफ इतने दूर-दूर तक, इतने बड़े पैमाने पर हो गया है कि अब हर किसी के सामने एक-दूसरे की गंदी मिसालें गिनाकर अपने आपको अपेक्षाकृत साफ-सुथरा साबित करना आसान हो गया है।
यह नौबत देखकर पाकिस्तान के बड़े मशहूर शायर जौन एलिया की यह लाईन याद आती है- अब नहीं कोई बात खतरे की, अब सभी को सभी से खतरा है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का हर पहलू अब दूसरे पहलू को अपने आपसे अधिक शर्मनाक बता रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई शहर में फुटपाथों पर कारोबार करने वाले लोग शायद दिल्ली के मुकाबले भी कुछ अधिक होंगे, और देश के किसी भी दूसरे शहर के मुकाबले भी। इसकी एक वजह यह है कि मुम्बई में लोगों को सडक़ पर खासा चलना पड़ता है, और अधिकतर लोग स्कूल-कॉलेज या दफ्तर-कारोबार आते-जाते फुटपाथों से गुजरते हैं, और वे एक स्वाभाविक ग्राहक लगते हैं। इसलिए फुटपाथों पर कारोबार खूब चलता है। दूसरी बात यह भी कि मुम्बई में जगह की बड़ी मारामारी है, और इसलिए लोग जहां बैठने की जगह मिले, वहीं कोई न कोई काम करने लगते हैं। ऐसे में बाम्बे हाईकोर्ट ने खुद ही जनहित में एक मुकदमा शुरू किया, और राज्य सरकार और मुम्बई महानगर पालिका से जवाब लिया कि फुटपाथों को लोगों के लिए कैसे खाली कराया जा सकता है जिसके लिए कि वे बने हैं। हाईकोर्ट ने एक कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि जब प्रधानमंत्री या वैसे ही दूसरे खास लोग निकलते हैं, तो सडक़ों और फुटपाथों को एक दिन के लिए खाली करा दिया जाता है। ऐसा बाकी दिनों मेंं आम जनता के लिए क्यों नहीं कराया जा सकता? अदालत ने यह भी कहा कि राज्य सरकार को कुछ सख्त कार्रवाई करने की जरूरत है जिससे कि एक बार हटाए गए फेरीवाले दुबारा लौटकर न आएं।
लोगों के चलने की जगह पर जब फेरीवाले स्थाई रूप से कारोबार करने लगते हैं, तो शहरी जिंदगी में एक दिक्कत तो खड़ी होती ही है। दूसरी बात यह भी है कि बेरोजगारी से भरे हुए इस देश में लोग अगर जिंदा रहने के लिए किसी भी तरह का कानूनी रोजगार कर रहे हैं, तो उन्हें बेदखल करने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि क्या सरकार या म्युनिसिपल के पास इनके लिए कोई वैकल्पिक योजना है, या फिर उन्हें बेदखल और बेरोजगार एक साथ ही कर दिया जाएगा? आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि जहां बड़ी-बड़ी इमारतों में महंगे शोरूम के लिए जगह बनती है, वहां पर आसपास कोई भी जगह चायठेला और पानठेला जैसे छोटे कारोबारों के लिए नहीं रहती। दूसरी बात यह भी कि व्यस्त इलाकों में जहां पर कि छोटे कारोबारियों और फेरीवालों को ग्राहक कुछ आसानी से मिलते हैं, वहां पर सरकार या स्थानीय संस्थाएं कोई योजना नहीं बनातीं। जब जनता की जरूरत और छोटे कारोबारियों की मजबूरी के बीच कोई तालमेल सरकारी योजनाएं नहीं बना पातीं, तो फिर ऐसी ही नौबत आती है। हम मुम्बई की बात छोड़ अपने ही शहर को देखें, तो यहां भी सरकार से लेकर म्युनिसिपल तक सबकी दिलचस्पी बहुत बड़ी-बड़ी योजनाओं में रहती है, और बहुत छोटे-छोटे फुटपाथी कारोबारी, या फेरीवाले हर कुछ बरसों में अपनी जगह से खदेड़ दिए जाते हैं, उनका कोई कानूनी हक नहीं रहता, और वे बिना गैरकानूनी काम के रोजी-रोटी चलाने से बेदखल कर दिए जाते हैं।
दरअसल शहरों की योजना बनाने वाले जानकार लोग तो छोटे-बड़े सभी किस्म के कारोबारियों के महत्व को समझते होंगे, लेकिन जब शहर बहुत घने बस जाते हैं, तो फिर सरकारें चाहकर भी वहां सबसे गरीब कारोबारियों के लिए कोई जगह नहीं निकाल पातीं। दूसरी बात यह भी होती है कि राज्य सरकार हो या म्युनिसिपल, जिसके कब्जे की जो जमीन रहती है, उससे अधिक से अधिक कमाई करके उससे दूसरी योजनाएं चलाने की प्राथमिकता रहती है। ऐसे में छोटे कारोबारियों से अधिक कमाई नहीं हो सकती, और बड़े लोगों के बाजार बनाने से एकमुश्त मोटी कमाई हो जाती है, इसलिए भी शहरों में गरीबों के लिए निर्माण कम से कम होते हैं, सबसे महंगी दुकान खरीदने वाले लोगों के लिए सरकार के सभी स्तरों पर योजनाएं बनती हैं।
भारत के अधिकतर शहरों के साथ एक दिक्कत यह भी है कि वे बड़ी पुरानी बसाहट के इर्द-गिर्द ही बुने गए हैं, और बड़े घने रहते आए हैं। ऐसे में शहरी योजनाकारों के सामने न सिर्फ सडक़ और बाजार की, बल्कि नाली-पानी से लेकर बिजली, और बगीचों से लेकर मैदानों तक की हर किस्म की दिक्कत रहती है। भारत में पूरी तरह से योजनाबद्ध नए शहर उंगलियों पर गिनने जितने हैं। चंडीगढ़, गांधीनगर, ओडिशा के भुवनेश्वर में नई राजधानी, छत्तीसगढ़ में नया रायपुर, जैसे गिने-चुने शहर पूरी योजना के साथ बसाए गए हैं। इनके अलावा अंग्रेजों के समय जहां-जहां पर फौजी छावनियां रहती थीं, या बड़े रेलवे स्टेशन रहते थे, उन शहरों में भी खुले इलाके अभी खूब दिख जाते हैं जिनमें जबलपुर, नागपुर, जैसे दर्जनों शहर हैं। लेकिन इनसे परे बाकी का हिन्दुस्तान पुरानी बसाहट वाला है, और वहां पर फुटपाथों का उस तरह से इंतजाम है नहीं जो कि अभी बाम्बे हाईकोर्ट में बहस का सामान बना हुआ है। यह भी समझने की जरूरत है कि मुम्बई अपनी कारोबारी संभावनाओं के चलते हुए बाहर से आकर काम करने वाले लोगों के मामले में ऐसा विकराल महानगर हो चुका है कि वहां बड़े सुधार और विकास के बजाय उसका बाहर विस्तार ही कोई जरिया हो सकता है। अब यह अपने आपमें एक शहर से ऊपर एक प्रदेश या देश की शहरी योजना का मामला है कि किस तरह अगले सौ-पचास बरस के लिए ऐसा विकास हो सकता है जो कि एक-दो पीढिय़ों में ही फिर थककर न बैठ जाए।
अब किसी देश-प्रदेश की शहरी-विकास योजनाओं के साथ टेक्नॉलॉजी के विकास की बात भी जुड़ी रहती है, और आने वाले भविष्य में जिंदगी, आवाजाही, और कारोबार किस तरह के रह जाएंगे, यह बात भी जुड़ी रहती है। आज से बीस बरस पहले किसने सोचा था कि हिन्दुस्तान के अधिकतर शहरों में लोगों का बाजार जाकर सामान खरीदना इस हद तक कम हो जाएगा, और ऑनलाईन खरीदी इतनी बढ़ जाएगी। इसी तरह खाने के लिए बाहर जाना घट जाएगा, और मोबाइल फोन से ऑर्डर देकर दुपहिए वाले से घर पर डिलिवरी ले लेना इतना आसान रहेगा। इसी तरह चिट्ठियों की आवाजाही, और बैंक चेक की आवाजाही बहुत ही कम बच गई है, अधिकतर काम ऑनलाईन होने लगा है। तो ऐसे में क्या अगले पचास बरस सडक़ों, फुटपाथों, पब्लिक पार्किंग, और मेट्रो-बस की जरूरतें लगातार बढ़ती रहेंगी, या घटती चली जाएंगी? बाकी दुनिया के साथ-साथ हिन्दुस्तान में भी अगले चालीस बरस में आबादी घटना शुरू हो जाएगी। ऐसे में शहरों की हर किस्म की जरूरत बढऩा भी रूक जाएगी। लेकिन ये चालीस बरस बहुत लंबा वक्त है, और ऐसे में तीन चीजों को बढ़ाते चलना जरूरी रहेगा, यह भी एक कठिन सवाल है।
हमने मुम्बई के फुटपाथों पर फेरीवालों के कब्जे पर बाम्बे हाईकोर्ट की फिक्र से यह बात चालू की थी, लेकिन वह शहरी योजना के बाकी पहलुओं तक भी बिखर गई। हिन्दुस्तान के मौजूदा शहरों को लेकर एक बड़ी सोच जरूरी है कि क्या इन्हीं पर अधिक मेहनत करनी चाहिए, या फिर नए शहरों के विकल्प खड़े करने चाहिए, ताकि मौजूदा शहरों पर बोझ बढऩा थम जाए, और उनके मौजूदा ढांचे से ही काम चलाया जा सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की इस्पात नगरी भिलाई में अभी कुछ गुंडों ने गोलियां चलाईं, तो पुलिस का ध्यान एकाएक उनकी तरफ गया। मामले पहले से भी बहुत से दर्ज थे, लेकिन कानून की नरमी से, या पुलिस की अनदेखी से ऐसे गुंडे गिरोह तक बना लेते हैं, और तरह-तरह के संगठित अपराध करते हैं। औद्योगिक नगर होने से भिलाई में ऐसे बड़े-बड़े मुजरिम पनपे हैं जो कि जेल में रहकर भी अपना गिरोह चलाते थे। ऐसे भिलाई में अभी जिसने गोलियां चलाईं, उसने भिलाई इस्पात संयंत्र की कॉलोनी में मकानों पर अवैध कब्जा कर रखा था, और उन्हें किराए पर भी चला रहा था। बीएसपी के ऐसे मकानों में उसके करवाए हुए अवैध निर्माण पर अभी बीएसपी अफसरों ने बुलडोजर चलवाया, और मकान खाली कराकर अपने ताले डाल दिए। पुलिस की नजरों से स्थानीय गुंडे के फरार होने के बाद ही भारत सरकार का यह सबसे बड़ा कारखाना अपने खुद के मकानों को खाली करा पाया। दूसरी तरफ यूपी से शुरू हुई बुलडोजरी कार्रवाई मध्यप्रदेश होते हुए छत्तीसगढ़ भी पहुंची हुई है, और कहीं बलात्कार तो कहीं हत्या के आरोपियों के अवैध कब्जों, और अवैध निर्माणों को आनन-फानन गिराया जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि अगर पहले से ऐसे अवैध कब्जे और निर्माण को नोटिस दिए गए थे, तो उन पर अब तक अमल क्यों नहीं हुआ था? और किसी जुर्म में नाम आने के बाद अचानक रातोंरात म्युनिसिपल या प्रशासन किस तरह बुलडोजर से उस नोटिस पर अमल करने लगते हैं?
इस पूरे सिलसिले में एक बात तो यह नाजायज लगती है कि अगर लंबे समय से नोटिस दिए जा चुके थे, तो अब तक रियायत क्यों दी जा रही थी? ऐसा शायद इसलिए भी है कि हर छोटे-बड़े शहर में दसियों हजार लोगों को नोटिस दिए गए रहते हैं, और वक्त-जरूरत पर मकान-दुकान गिराने के पहले उस पुराने नोटिस पर से धूल झड़ा ली जाती है। यह बात तो सही रहती है कि गिराए जा रहे ढांचों को नोटिस पहले दी गई रहती है, लेकिन वैसी नोटिस के बाद हर शहर में दसियों हजार अवैध निर्माण कायम भी रहते हैं। इस तरह कुछ चुनिंदा लोगों को सत्ता की नापसंदगी से निशाना बनाना इंसाफ की सोच के खिलाफ है, यह एक अलग बात है कि सरकार दिखावे के लिए तो महज अपने पुराने नोटिस पर अमल ही करती दिखती है, और जगह-जगह ऐसी बुलडोजरी कार्रवाई के बाद सरकार ने अदालतों में यह भी साबित कर दिया है कि इसके लिए नोटिस बहुत पहले दिया जा चुका था।
अभी भिलाई की इस कार्रवाई को लेकर हम नहीं कह रहे हैं, लेकिन यूपी-एमपी में हजारों ऐसे मकान-दुकान गिराए गए हैं जिनमें तकरीबन तमाम मुसलमानों के थे। यह तबका वैसे भी गरीब है, आज हिन्दी प्रदेशों में पुलिस की आम सोच बुरी तरह मुस्लिम-विरोधी भी है, और सत्ता किसी मुसलमान के किसी जुर्म के आरोप में घिरते ही उसके मकान-दुकान की फाईल खोल लेती है कि उसे प्रशासन या म्युनिसिपल की तरफ से पहले कौन-कौन से नोटिस दिए गए थे। पता नहीं क्यों हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सरकारों की ऐसी नीयत को देख नहीं पाए हैं, और बुलडोजरों की कार्रवाई पर रोक नहीं लगी है। यह बात अफसोस के लायक है कि कोई जनसंगठन देश की सबसे बड़ी अदालत में सरकारों की ऐसी बदनीयत की कार्रवाई को उजागर नहीं कर पाया है, या जज खुद होकर इसे अपनी दखल के लायक मजबूत बदनीयत नहीं पा सके हैं। कुल मिलाकर अब तक तो एक-एक कर कई प्रदेशों में सरकारों की ऐसी मनमानी कार्रवाई को अदालती अनापत्ति प्रमाणपत्र मिला हुआ ही दिखता है।
लेकिन लोकतंत्र में बहुत सारी चीजें पारदर्शी रहनी चाहिए। अगर किसी नोटिस पर कोई कार्रवाई की जा रही है, तो प्रशासन या म्युनिसिपल-पंचायत को इस बात के लिए भी जवाबदेह रहना चाहिए कि उसके कितने नोटिस कितने बरस से पड़े हुए हैं, और चुनिंदा निशानों से परे बाकी पर क्या कार्रवाई हो रही है? ऐसा नहीं होने पर सरकार पर पहली तोहमत तो यह लगती है, और लगनी चाहिए कि वह साम्प्रदायिक आधार पर बुलडोजर चलाती है। दूसरी तोहमत यह बनती है कि एक घर या दुकान पर अगर किसी आरोपी के अलावा दूसरे लोग भी आश्रित हैं, तो क्या ऐसे तमाम लोगों का आसरा और रोजगार पल भर में बुलडोजर से खत्म कर देना जायज है? अभी-अभी मध्यप्रदेश में कई ऐसे मुस्लिमों के मकान गिराए गए हैं, जिनमें कुछ भी अवैध नहीं था। एमपी के मंडला में सरकारी जमीन पर लंबे समय से बसी हुई मुस्लिम बस्ती के 11 घरों को गौतस्करी या गौवध के आरोप में गिरा दिया गया। अब अगर खुद प्रशासन कह रहा है कि पूरी बस्ती ही सरकारी जमीन पर है, तो उनमें से 11 लोगों को छांटकर उनके मकान गिराना इसलिए नाजायज है कि यह अदालत के हिस्से के काम को प्रशासन द्वारा करने के बराबर है। कुछ लोगों को तो बिना कोई नोटिस दिए उनके घर गिरा दिए गए, इनमें से दो मकान तो इंदिरा आवास योजना के बताए जा रहे हैं जिन्हें सरकार ने ही आबंटित किया था। इस तरह सरकार या सत्ता को नापसंद कुछ खास किस्म के जुर्म के आरोप लगने पर अगर इस तरह बुलडोजरी कार्रवाई होती है, तो वह जाहिर तौर पर नाजायज और बेइंसाफ है।
फिल्मी अंदाज में की गई ऐसी कार्रवाई आसपास जुटी भीड़ की तालियां तो बटोर सकती है, लेकिन इससे न्याय की संभावना खत्म हो जाती है। यह बात समझ लेना जरूरी है कि न्याय की प्रक्रिया का कोई बहुत शार्टकट नहीं हो सकता, लोकतंत्र एक बड़ा लचीला, खर्चीला, और वक्त लेने वाला सिलसिला है। इसे बुलडोजर की रफ्तार और ताकत से नहीं हांका जा सकता। पता नहीं देश की अदालतों को कब यह बेइंसाफी दिखेगी, फिलहाल तो इस पर कोई रोक लगती दिखती नहीं है।
हिन्दुस्तान में पारिवारिक हिंसा जिस बड़े पैमाने पर, और जितने खूंखार तरीके से सामने आ रही है, उसे लेकर एक बड़े सामाजिक अध्ययन की जरूरत है। इसमें समाजशास्त्र से लेकर मनोविज्ञान और कानून तक के जानकार शामिल किए जाने चाहिए क्योंकि ये बड़ी तेजी से बहुत गंभीर होते चल रहे हैं। जिस तरह जलवायु परिवर्तन से मौसम की मार अधिक गंभीर होती चल रही है, और अधिक जल्दी-जल्दी भी हो रही है, उसी तरह पारिवारिक हिंसा अब सीधे मरने-मारने तक पहुंच रही है, और उसे सिर्फ पुलिस, अदालत, और जेल का मामला मानकर चलना समाज की बहुत नाजुक हो चुके हालात की गंभीरता को अनदेखा करना होगा।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा की एक खबर है कि एक बेटे ने अपने शराबी बाप की मारपीट का विरोध किया, और पिता को मार डाला, इसके बाद इस कत्ल का इल्जाम अपनी मां पर थोप दिया। बाद में पुलिस पूछताछ में लडक़े का कुकर्म साबित हुआ। दूसरी तरफ आज ही छत्तीसगढ़ के कोरबा में एक नौजवान से बेटे से पानी मांगा, और विवाद इतना बढ़ गया कि बेटे ने बाप का गला घोंटकर उसे मार डाला। हम हर दिन पारिवारिक हिंसा की बहुत सारी खबरें देखते हैं, लेकिन आज दो अलग-अलग जगहों पर एक ही किस्म के रिश्तों के बीच जिस तरह दो अलग-अलग घटनाएं हुई हैं, वे भयानक नौबत का एक संकेत है। पिछले कुछ महीनों में लगातार हमें अपने आसपास हर कुछ दिनों में परिवार के भीतर कत्ल देखने मिला है। कहीं-कहीं पर तो पत्नी ने प्रेमी के साथ मिलकर पति को निपटा दिया, या पति के साथ मिलकर प्रेमी को निपटा दिया। परिवार के भीतर बलात्कार के बहुत से मामले आए दिन सामने आते हैं, आज ही किसी दूसरी जगह अपने तमाम बच्चों को मारकर कोई महिला मर चुकी है। परिवार के भीतर हत्या या आत्महत्या का कोई अंत ही नहीं दिख रहा है।
अब किसी जनकल्याणकारी सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि समाज में हिंसा किस तरह कम की जाए। भारत की जिस समाज व्यवस्था पर यह समाज गर्व करते नहीं थकता, उसकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई है? जो लोग परिवार का सम्मान करते थे, वे एकाएक मरने-मारने पर क्यों उतारू हो गए हैं? हमारा ख्याल है कि भारत के जिन विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, और कानून की पढ़ाई होती है, वहां पर पुरानी किताबों के पीले पड़ गए पन्नों की किताबी और कागजी बातों को पढ़ाने से आगे भी बढऩा चाहिए, और आज के समाज की जो नई दिक्कतें हैं, उनकी भी पढ़ाई होनी चाहिए। यह काम बहुत आसान नहीं रहेगा, क्योंकि गिने-चुने लेखकों की घिसी-पिटी किताबों से पढ़ाने वाले उदासीन हो चुके प्राध्यापकों से कोर्स में इतने बड़े फेरबदल का स्वागत करने की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन समाज के भले के लिए यह जरूरी है कि आज की दिक्कतों का अध्ययन हो, उस पर सर्वे से लेकर शोध तक हो, समाज में तनाव के इस नए दर्जे को बेहतर तरीके से समझा जाए, और इसे पढ़ा-पढ़ाया जाए।
जुर्म तो समाज में गहरे बैठे हुए तनाव और दिक्कतों का एक लक्षण होता है जो कि सतह पर तैरता हुआ दिख जाता है। समझने की जरूरत उन वजहों को रहती है जो कि जमीन के नीचे रहते हैं, तालाब की तलहटी में रहते हैं। किसी भी जागरूक समाज और प्रदेश को अपने विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को जीवाश्म की तरह नहीं बनने देना चाहिए, तालाब के घिरे हुए पानी की तरह सडऩे नहीं देना चाहिए, बल्कि उसे पहाड़ी नदी के पानी की तरह ताजा और गतिशील बनाना चाहिए। विकसित दुनिया के जो सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय रहते हैं, उनकी खूबी यही रहती है कि वे नौजवान और होनहार शोधकर्ताओं को नए-नए पाठ्यक्रम बनाने और पढ़ाने का मौका देते हैं। यही वजह है कि हिन्दुस्तान में इक्का-दुक्का विश्वविद्यालय ही विश्व स्तर के सौ-दो सौ विश्वविद्यालयों में जगह पाते हैं, उनके अलावा किसी और की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई साख नहीं है। लगे हाथों इस सिलसिले में यह भी कहना प्रासंगिक होगा कि भारतीय प्राध्यापकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत कोई भी ऐसी बात कहना नौकरी खोने बराबर पड़ता है जो कि सत्ता को नापसंद हो, या आक्रामक बहुसंख्यक तबके के दावों से असहमत हों। ऐसी नौबत में भी जिंदगी के असल मुद्दों का अध्ययन, उस पर शोध, और उसका अध्यापन मुमकिन नहीं हो पाता। देश के सबसे चर्चित विश्वविद्यालयों के जाने-माने प्राध्यापकों को सच लिखने के एवज में नौकरी खोनी पड़ी है। इसलिए आज समाज में, परिवार में इतनी हिंसा क्यों हो रही है, उसका धर्म और जाति से कोई रिश्ता है, उसका लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव से कोई संबंध है, उसके पीछे क्या कोई राजनीतिक वजहें हैं, ऐसे बहुत से सवाल दिक्कत खड़ी करते हैं। और हिन्दुस्तान में आज देश या प्रदेश पर सत्तारूढ़ सोच को अगर विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम नहीं सुहाते हैं, तो फिर समाज के असल मुद्दों को पढ़ाना भी मुमकिन नहीं है। आज बारहवीं के छात्र-छात्राओं को गुजरात के दंगों से लेकर बाबरी-विध्वंस तक, गांधी की हत्या तक कुछ नहीं पढ़ाया जा रहा है, और यह सफाई दी जा रही है कि नई पीढ़ी को नफरत की वजहें नहीं देना चाहिए। और यही छात्र-छात्रा एक-दो बरस के भीतर ही वोटर भी बनने जा रहे हैं। देश के बिल्कुल ताजा इतिहास को पढऩे बिना, उसे आधा-अधूरा जानकर उनसे पूरी समझदारी की उम्मीद की जा रही है।
इन दो किस्म की बातों को जोडक़र जब हम देख रहे हैं, तो लग रहा है कि भारत सामाजिक और पारिवारिक तनाव के सच को भी न तो ठीक से जानना-समझना चाहेगा, और न ही ज्ञान और समझ का कोई फायदा भारतीय पारिवारिक हिंसा को कम करने में मिलने जा रहा। शायद इतना खरा-खरा सच सुनने और सुनाने का माहौल देश में नहीं रह गया। यह एक पाखंडी सोच है जो कि सच से मुंह चुराती है, और जिस तरह डॉक्टर बीमारी का सच जानकर ही इलाज कर सकते हैं, भारत का समाज भी अपने सच को जानकर, मानकर ही अपना इलाज कर सकता है, लेकिन हमारी सोच अब इतना हौसला नहीं जुटा पा रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ऑस्ट्रेलिया के एक पत्रकार जूलियन असांज ने विकीलीक्स नाम का एक प्लेटफॉर्म शुरू किया जिस पर वह दुनिया भर के लोगों द्वारा जुटाए गए या भेजे गए ऐसे गोपनीय दस्तावेज पोस्ट करता था जो कि वे लोग जनहित में मानते थे। दस बरस से कुछ ज्यादा पहले असांज ने अमरीकी फौजों से जुड़े हुए, और अमरीकी सरकार के गोपनीय दस्तावेजों का एक ऐसा जखीरा पोस्ट किया जिससे अमरीका की मानवता विरोधी और गैरकानूनी फौजी कार्रवाईयों का पता लगता था। इससे अमरीका की खुफिया कार्रवाई, अपनी जेलों में उसके जुल्म, और दुनिया की सरकारों के बारे में अमरीकी राजदूतों और नेताओं की सोच भी उजागर हुई थी। कुल मिलाकर कम शब्दों में कहें, तो अमरीकी सरकार की धूर्तता इससे बहुत बुरी तरह दुनिया के सामने आई थी। इसके बाद से ब्रिटेन में जूलियन असांज पर बड़ा खतरा मंडराने लगा, अमरीकी सरकार उसे उठाकर अमरीका लाना चाहती थी, लेकिन वह लंदन में इक्वाडोर नाम के छोटे से देश के दूतावास में शरण पाकर सात बरस वहां रहा, इसके बाद जब इक्वाडोर ने उसे राजनीतिक शरण देने से मना कर दिया, तो ब्रिटेन ने उसे गिरफ्तार किया। इस बड़ी लंबी कानूनी और कूटनीतिक लड़ाई के ब्यौरे में गए बिना, अब जूलियन असांज की एक अमरीकी अदालत से रिहाई के बाद हम उस मुद्दे पर लिखना चाहते हैं जो कि विकीलीक्स के इस मामले से दुनिया के सामने आया है।
विकीलीक्स को एक पत्रकार ने शुरू जरूर किया, लेकिन वह दस्तावेजों के भांडाफोड़ का एक मंच था। जो लोग जूलियन असांज को पत्रकारिता का एक महान किरदार मानते हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि हर महान का पत्रकार होना जरूरी नहीं रहता। जूलियन असांज को एक एक्टिविस्ट मानना बेहतर होगा जो कि खुफिया जानकारी को लोगों के सामने रखने का काम कर रहा था। हो सकता है यह काम बहुत महान हो, और इसके लिए कोई बड़ा पुरस्कार या सम्मान भी कम पड़ता हो, लेकिन इसे पत्रकारिता मानने में हमारे जैसे परंपरागत लोगों को कुछ दिक्कत होगी। भला ऐसी कैसी पत्रकारिता हो सकती है जो लाखों दस्तावेजों को लोगों के सामने बिना कोई मतलब निकाले, बिना उन पर संबंधित लोगों का पक्ष लिए, बिना उनका विश्लेषण किए हुए उसे पत्रकारिता मान ले? सच तो यह है कि कभी साहित्य के लोग अपने को पत्रकार साबित करने पर उतारू हो जाते हैं, तो अक्सर ही एक्टिविस्ट अपने को जर्नलिस्ट भी साबित करने लगते हैं क्योंकि वे कहीं-कहीं कुछ लिखते भी हैं। लेकिन किसी मुद्दे की वकालत करते हुए उसके लिए लड़ाई लडऩा, किसी सरकार की गैरकानूनी हरकतों का भांडाफोड़ करने के लिए उसके लाखों कागजों को जनता के सामने ज्यों का त्यों धर देना अखबारनवीसी नहीं है। यह काम जनता के सूचना के अधिकार को मजबूत करना तो हो सकता है, लेकिन यह एक्टिविज्म ही है, जर्नलिज्म नहीं है।
चूंकि जूलियन असांज एक जर्नलिस्ट रहा हुआ है, इसलिए उसके एक्टिविज्म को भी लोग जर्नलिज्म साबित करने को स्वाभाविक मान सकते हैं। लेकिन इनके बीच एक फर्क करना जरूरी है क्योंकि जर्नलिज्म हाथ आई हर जानकारी को सामने रख देने जैसा आसान काम भी नहीं है। जूलियन असांज ने जनता के जानने के हक की वकालत करते हुए किसी कागजात में कुछ भी छुपाने के बजाय सब कुछ सामने रख दिया, और इनमें से बहुत कुछ तो ऐसा था जिससे दूसरे देशों में तैनात सरकारी और फौजी कर्मचारियों की जिंदगी पर खतरे सरीखा भी था। अभी यह तो हमें मालूम नहीं है कि उससे कुछ लोगों की जिंदगी खतरे में पड़ी या नहीं, लेकिन वह काम तो उसी तरह का था। अमरीकी सरकार या दूसरी फौजों और सरकारों के जुल्म और गैरकानूनी कामों का भांडाफोड़ गैरपत्रकार भी कर सकते हैं, और दुनिया में जगह-जगह सूचना के अधिकार के लिए लडऩे वाले लोग ऐसा करते भी हैं, इसलिए ऐसे काम को पत्रकारिता मानने की कोई मजबूरी नहीं है। पत्रकारिता एक अलग किस्म की जिम्मेदारी के साथ किया जाने वाला काम है, और उसे किसी दूसरे किस्म के काम के साथ जोडक़र नहीं देखा जाना चाहिए।
जूलियन असांज के भांडाफोड़ को लोग बहुत लोकतांत्रिक मान रहे हैं, और उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक ज्वलंत उदाहरण भी मान रहे हैं। ये दोनों ही बातें ठीक हैं, लेकिन ये दोनों ही चीजें पत्रकारिता से परे दुनिया के बहुत से दूसरे दायरों में भी रहती हैं। सामाजिक कार्यकर्ता भी लोकतांत्रिक काम करते हैं, और गैरपत्रकार लेखक-कलाकार भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का शानदार इस्तेमाल करते हैं। इसलिए इन दोनों बातों पर पत्रकारिता की बपौती (इसके लिए लैंगिक समानता वाला कोई शब्द सूझ नहीं रहा है) मान लेना ठीक नहीं है। जूलियन असांज ने जो किया वह हौसले का काम था, खतरे का काम था, जिंदगी के पिछले 14 बरस तबाह करके उसने विसलब्लोअर का काम किया, लेकिन इसे पत्रकारिता से दूर रखना खुद पत्रकारिता का भला होगा। भगत सिंह ने जेल के भीतर से जो लिखा उसे एक राजनीतिक कार्यकर्ता और क्रांतिकारी का लेखन मानना बेहतर होगा, उसे पत्रकारिता मानना ठीक नहीं होगा। पत्रकारिता से परे भी लोग शहादत देते हैं, और जूलियन असांज ने जिंदगी के 14 बरस वही शहादत दी है।
हम अभी इस बहस में नहीं उलझ रहे कि जूलियन असांज का ऐसा करना दुनिया की लोकतांत्रिक सरकारों के लिए कितना नुकसानदेह था, और वैसा काम करना चाहिए था या नहीं? हम उस बहस से परे अभी भांडाफोड़ और पत्रकारिता के बीच एक फर्क करना चाहते हैं। यह समझ लेना जरूरी है कि पत्रकारिता दस्तावेजों के पुलिंदे को सामने धर देना नहीं है। वे तमाम दस्तावेज सच हो सकते हैं, लेकिन वह पुलिंदा जनहित में महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन उनका एक मतलब निकाले बिना, और उन दस्तावेजों में जिनका जिक्र है, जिन पर तोहमत लग रही है, उनका पक्ष जाने बिना यह पत्रकारिता नहीं हो सकती। इसलिए जूलियन असांज के काम को एक विवादास्पद पत्रकारिता के बजाय जनहित का एक भांडाफोड़ मानना बेहतर होगा।
दुनिया में ऐसे बहुत से लोग रहते हैं जो अपनी सरकार, अपनी फौज, अपने संस्थान में हो रहे लोकतंत्रविरोधी कामों का भांडाफोड़ करते हैं। बहुत सी महत्वपूर्ण पत्रकारिता ऐसे ही मिली जानकारी पर आधारित होती है। लेकिन यह भांडाफोड़ अपने आपमें पत्रकारिता नहीं है, इसलिए दुनिया भर में जूलियन असांज को लेकर जो बहस चल रही है, उसमें हम भी थोड़ा सा इजाफा कर रहे हैं, और उसे एक लोकतांत्रिक एक्टिविस्ट करार दे रहे हैं।
अब तकरीबन डेढ़ दशक के तूफान झेलने के बाद जूलियन असांज अपने देश ऑस्ट्रेलिया लौट आया है, इसके लिए उसे अमरीकी अदालत में अपना एक जुर्म कुबूलना पड़ा था कि उसने इन दस्तावेजों का जासूसी सरीखा इस्तेमाल किया था। अमरीकी वकीलों के साथ इस समझौते के बाद असांज को रिहा किया गया क्योंकि अदालत ने उन्हें इस बात के लिए जितनी सजा सुनाई, उससे अधिक बरस वे ब्रिटिश जेल में काट चुके थे। जूलियन असांज अभी भी अपने आपको पत्रकार और अपने इस पूरे भांडाफोड़ को पत्रकारिता करार दे रहे हैं, यह दुनिया भर के पत्रकारों के लिए भी एक चुनौती का मौका है कि वे पत्रकारिता के दायरे में किन-किन बातों को मानने को तैयार हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि कुछ बरस पहले जब एक वेबसाइट बनाकर उस पर समाचार-विचार डालने का सिलसिला शुरू हुआ तो ऐसे करोड़ों लोगों को एक परिभाषा में पत्रकार मान लिया गया था। इस परिभाषा के मुताबिक तो हर नागरिक पत्रकार हैं। लेकिन जो लोग पत्रकारिता के गंभीर पेशे में हैं, या गंभीरता से इस पेशे में हैं, वे जानते हैं कि हर नागरिक को पत्रकार मान लेने के क्या खतरे होते हैं। इसी तरह हम हर काम को पत्रकारिता मान लेने के भी खिलाफ हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ईरान में राष्ट्रपति के एक दुर्घटना में मारे जाने के बाद बेवक्त नए राष्ट्रपति का चुनाव करवाना पड़ रहा है। मतदान को हफ्ता भर भी नहीं बचा है कि वहां तमाम उम्मीदवारों के बीच सबसे बड़ा मुद्दा ईरान का बहुत कड़ा हिजाब कानून है जिसमें कोई महिला अगर ठीक से हिजाब नहीं बांधती है, या बाल खुले रखती है, तो उसे गिरफ्तार किया जा सकता है, और करीब दो बरस पहले वहां ऐसे ही आरोपों में गिरफ्तार की गई एक युवती, महसा अनीमी की हिरासत में बुरी मौत के बाद से ईरान में महिलाओं की आजादी का जो आंदोलन चल रहा है, उसे वहां के सत्तारूढ़ मुल्लाओं ने भी कभी सोचा नहीं रहा होगा। इसलिए किसी देश में महिलाओं, या दबे-कुचले किसी और तबके की मांग को लेकर, उनके आंदोलनों को लेकर हमेशा किसी तरह की साजिश नहीं देखनी चाहिए। यह भी हो सकता है कि किसी तबके के जायज हकों की दबी-कुचली हसरतें आंदोलन की शक्ल में सामने आ रही हों। ईरान की दबाकर रखी गई महिलाओं का यह आंदोलन औरत, जिंदगी, आजादी नाम से एक नया इतिहास गढ़ रहा है। और आज हालत यह है कि जिन सत्तारूढ़ मुल्लाओं ने हिजाब का यह फौलादी कानून लड़कियों और महिलाओं पर थोपा है उनके सामने राष्ट्रपति चुनाव के हर उम्मीदवार ने कड़े हिजाब कानून का विरोध किया है। अभी आधा दर्जन आदमी राष्ट्रपति चुनाव के मैदान में हैं, इनमें से पांच धार्मिक-संकीर्णतावादी हैं, लेकिन उन्होंने भी हिजाब कानूनों को लेकर हिंसा, गिरफ्तारी, और जुर्माने से अपने आपको अलग कर लिया है। देश की आधी मतदाता महिलाएं हैं, और वे आंदोलन के जैसे मिजाज से गुजर रही हैं, यह जाहिर है कि उन्हें और खफा करने वाले, उन्हें जायज हक मना करने वाले किसी उम्मीदवार का जीतना नामुमकिन रहेगा।
जिस हिजाब को लेकर हिन्दुस्तान सहित दुनिया के बहुत से देशों में मुस्लिम महिलाएं हक का आंदोलन कर रही हैं, और हिजाब के खिलाफ हिन्दुस्तान के स्कूल-यूनीफॉर्म नियम से लेकर फ्रांस और योरप के कुछ और देशों में सार्वजनिक जगहों पर बुर्के पर रोक के नियम का विरोध किया जा रहा है। लेकिन धार्मिक रूप से दुनिया में सबसे कट्टर देशों में से एक, ईरान में महिलाओं ने जिस तरह से हिजाब न पहनने को अपनी आजादी का हक माना है, उसने ईरानी सत्ता की आंखें खोल दी हैं। कुछ लोगों को लग सकता है कि भारत और फ्रांस सरीखे देशों में मुस्लिम महिलाओं पर परंपरागत पोशाक के थोपे गए रिवाज को उनके हक का दर्जा देना चाहिए, लेकिन दूसरी तरफ यह एक ऐसा मौका भी है कि मुस्लिम समाज में सिर्फ महिलाओं पर थोपे गए पोशाक के ऐसे रिवाज के खिलाफ को तोड़ा जा सके। और ईरान की महिलाएं आज वही कर भी रही हैं। यह बड़ी अजीब बात है कि सौ फीसदी मुस्लिम देश ईरान की महिलाओं का एक बड़ा बहुमत पोशाक की कट्टरता का विरोध कर रहा है, और आजादी की मांग कर रहा है, दूसरी तरफ दुनिया के कुछ दूसरे देशों में मुस्लिम महिलाएं इस थोपे गए रिवाज का हक मांग रही हैं। यह विरोधाभास अपने-अपने देशों में उन महिलाओं के भोगे गए सच की वजह से उनके अलग-अलग नजरियों का नतीजा है, और इनमें कोई बुनियादी टकराव नहीं मानना चाहिए।
हमारा ख्याल है कि महिलाओं या समाज में दबाकर, कुचलकर रखे गए किसी भी तबके को हक देने का कोई भी मौका जब मिले, तब उसका इस्तेमाल करना चाहिए। हिन्दुस्तान में छुआछूत खत्म करने से लेकर, बाल विवाह खत्म करने, सतीप्रथा खत्म करने, तीन-तलाक खत्म करने जैसे बहुत से मुद्दे अलग-अलग समय पर कानून बनाकर सुलझाए जा सके। कर्नाटक में भाजपा की सरकार ने चाहे जिस नीयत से स्कूल-कॉलेज की लड़कियों की यूनीफॉर्म से हिजाब को हटाया था, उसे हटा देना ही ठीक था, और फिर नीयत चाहे जो रही हो, हमने इस फेरबदल का समर्थन किया था। भारत जैसे देश में अंतरजातीय, और अंतरधर्मीय शादियों को बढ़ावा देने के लिए कई बार कानून का सहारा भी लेना पड़ता है। तमाम सामाजिक तनाव के बावजूद आज भी दलित-गैरदलित के बीच शादी होने पर सरकार की तरफ से ढाई लाख रूपए की प्रोत्साहन राशि दी जाती है। किसी भी पार्टी की सरकार ने यह योजना खत्म नहीं की है। इसी तरह हिन्दुस्तानी अदालतों ने जवान लडक़े-लड़कियों के बालिग हो जाने पर मर्जी से शादी करने की हिमायत करते हुए कितने ही फैसले दिए हैं। लोगों को याद होगा कि भारत की जाति व्यवस्था में अभी तक मध्यप्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में दलितों के साथ भेदभाव वाली हिंसा चलती ही रहती है, लेकिन कानून के कड़े अमल से इसमें कमी आ रही है, या आ सकती है। इसलिए परंपराओं में अगर कोई सुधार जरूरी है, तो उसके लिए कानून में फेरबदल करना चाहिए, या नए कानून बनाने चाहिए। ईरान आज ऐसे ही एक दौर से गुजर रहा है जब वहां की इस्लामी सत्ता को यह समझ पड़ रहा है कि देश की महिलाओं का आंदोलन सिर्फ पश्चिम का भडक़ाया हुआ नहीं है, यह देश के भीतर एक युवती की पुलिस हिरासत में मौत के बाद फूटा हुआ ज्वालामुखी है, जिसके खौलते-पिघले लावे से आज राष्ट्रपति चुनाव के हर उम्मीदवार अपने को बचा रहे हैं।
दुनिया के तमाम देशों को धर्मान्धता का नतीजा देखना चाहिए। अफगानिस्तान में 20 बरस के अमरीकी राज के बाद भी अब तालिबानी लौटे हैं, तो उन्होंने अफगान लड़कियों और महिलाओं को पत्थर युग की गुफाओं में वापिस भेजने का काम किया है। उनकी पढ़ाई-लिखाई पर रोक लगा दी है, उनके कामकाज, या उनकी आवाजाही पर रोक लगा दी है, और अमरीका जैसा गैरजिम्मेदार देश अफगान नागरिकों को 20 बरस की अपनी फौजी हुकूमत के बाद उन्हीं खूंखार, हत्यारे, और धर्मान्ध तालिबानियों के हवाले करके भाग गया है। तमाम धर्मों को भी 21वीं सदी के मानवाधिकारों और महिला अधिकारों के मुताबिक अपनी कट्टरता में फेरबदल करना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि पिछले कुछ हजार बरस की अपनी जिंदगी में इन धर्मों ने अपने में कोई फेरबदल ही नहीं किया है। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की सहूलियतों का कोई जिक्र तो धर्मों में था नहीं, लेकिन उनमें से हर एक का फायदा उठाया गया है। इसी तरह धर्मों को अपने ही सदस्यों को बराबरी का हक देने का काम करना चाहिए, वरना सबसे कट्टर, और सबसे फौलादी ईरान सरीखी व्यवस्था के भीतर भी महिला के बालों की लटें आजादी का झंडा बनकर कैसे फहरा सकती हैं, यह दिख ही रहा है। ईरान में राष्ट्रपति चुनाव में जुल्फों के खुली हवा में उडऩे का मुद्दा सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा दिख रहा है। दुनिया में महिला अधिकारों के लिए जागरूकता का इससे बड़ा कामयाब पल और कौन सा हो सकता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्रीय जल शक्ति नियोजन मंत्री सी.आर.पाटिल ने कहा है कि लोगों को पानी पूरी तरह मुफ्त में देना ठीक नहीं है। उन्होंने गुजरात की सूरत शहर की मिसाल सामने रखी जिसने 50 साल की एक योजना बनाई है, और पानी का न्यूनतम मूल्य भी तय किया है, जो कि हर किसी को देना होता है। भारत के अधिकतर राज्यों में पानी की मीटरिंग नहीं है। कुछ चुनिंदा शहरों में स्थानीय संस्थाओं या राज्य शासन ने निजी कंपनियों के साथ मिलकर पानी का निजीकरण भी किया है, और उसकी लागत निकालने के लिए मीटर भी लगाए हैं। इससे लोग जरूरत जितना पानी लेते हैं, और कम से कम नागपुर जैसे एक शहर की जानकारी हमारे पास है जहां पर लोगों के घरों के नलों में मीटर लग जाने के बाद शहर की कुल खपत खासी कम हो गई है, क्योंकि अब लोग बर्बाद करेंगे, तो उसका भुगतान भी करेंगे, और मुफ्त में मिले सामान को तो लोग नाली में बहा देते हैं, लेकिन जब उसका दाम चुकाना होता है, तो बर्बादी नहीं करते।
लेकिन यह इंतजाम भी म्युनिसिपल या स्थानीय संस्था के सप्लाई किए गए पानी के बारे में है। एक बहुत बड़ी खपत ऐसे घरों की है जिनके अपने ट्यूबवेल हैं, और जो मनमाना पानी धरती के नीचे से निकालते हैं, और उसका कोई भुगतान नहीं करना पड़ता। ऐसे ही लोग रोज अपने घर-आंगन धोते हैं, कारों को धोते हैं, और सामने की सडक़ पर पानी की धार मारकर वहां से धूल-मिट्टी भी हटाते हैं। एक तरफ तो लोग एक घड़े पानी के लिए टैंकरों के आगे-पीछे दौड़ते हैं, दूसरी तरफ अपने घरेलू ट्यूबवेल से पानी निकालने पर चूंकि कोई भुगतान या टैक्स नहीं है, इसलिए मनमानी खपत होती है। हमारा मानना है कि धरती के नीचे का पानी किसी की निजी संपत्ति नहीं है, और वह एक सामूहिक संपत्ति है। इस पर तमाम लोगों का हक होना चाहिए, और जिसकी ताकत गहरा बोर करवाने, और उसमें महंगा पंप लगाने की हो, उसे पानी की मनमानी खपत का हक देना सामाजिक न्याय के खिलाफ है, समानता के खिलाफ है।
अगर लोगों में पानी के लिए जागरूकता लानी है, तो सरकारी नलों पर जिंदा लोगों से इसकी शुरूआत नहीं हो सकती, क्योंकि यहां तो सीमित वक्त के लिए सीमित पानी मिलता है। इसकी शुरूआत निजी इंतजाम पर से होनी चाहिए, और हर ट्यूबवेल जितनी इमारत, या जितने लोगों की जरूरत पूरी करता है, उससे उसी अनुपात में टैक्स लिया जाना चाहिए। जो लोग इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, उनके पूरे के पूरे इलाके एक दिन बेंगलुरू की तरह का सूखा देखेंगे, जहां लोगों से शहर छोडक़र चले जाने की अपील करनी पड़ी थी। जिस रफ्तार से गहरे, और अधिक गहरे ट्यूबवेल खोदे जा रहे हैं, और अधिक ताकतवर पम्प लगाए जा रहे हैं, उससे धरती के भीतर का पानी खत्म होने जाना तय है। और लोगों को जागरूक करने के लिए उनकी खपत के अनुपात में टैक्स लगाना एक जरूरी बात है। जिस तरह प्रॉपर्टी टैक्स तय होता है, उसी तरह ट्यूबवेल टैक्स भी तय होना चाहिए, और कड़ाई से वसूल करना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक कोई शहर सूखे का शिकार नहीं हो जाता, तब तक वहां की सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल लोगों को नाराज करने लायक कोई टैक्स लगाना नहीं चाहते। यह अदूरदर्शिता लोगों को गर्म इलाकों में छतों पर भी बगीचा बनाने का हौसला देती है, और शहर के बहुत से हिस्सों में लोग टैंकरों के इंतजार में पूरी रात गुजारते हैं, और उसी शहर के संपन्न इलाकों में लोग कार और सडक़ को पाईप के प्रेशर से धोते हैं। सरकारें अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के बजाय जब मुंह चुराती हैं, तो ऐसी ही नौबत आती है।
अभी देश में जगह-जगह पंचायतों के स्तर पर कैच द रेन अभियान चल रहा है। बारिश का जो पानी नालों से होते हुए नदियों में बह जाता है, उसे जगह-जगह रोकने के लिए, और धरती के लिए री-चार्जिंग के तालाब या गड्ढे बनाने का काम चल रहा है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम पिछले करीब 20 बरस से लगातार इस बात की वकालत कर रहे हैं, और छत्तीसगढ़ की पिछली राज्य सरकारों को भी यह सलाह देते आए हैं कि बारिश का अतिरिक्त पानी जिन जगहों से नदियों तक पहुंचता है, वहां रास्ते में ऐसे बड़े जलाशय बनाकर उसे रोकना चाहिए जो कि इंसानों और जानवरों की निस्तारी के काम आएं या न आएं, कम से कम वे पानी को धरती में वापिस भेजने का काम तो कर ही सकें। इससे नदियों तक मिट्टी बहकर पहुंचना कम होगा, और नदियों में बाढ़ आना भी घटेगा। जब पानी के रास्ते में ही छोटे-बड़े कई किस्म के जलाशय खोद दिए जाएंगे, तो उससे नदियों की बाढ़ भी घटेगी जो कि आखिर में जाकर समंदर के पानी की सतह भी बढ़ाती है, और दुनिया के हिस्सों पर डूबने का खतरा भी खड़ा करती है। हम तो यह भी सुझाते आए हैं कि भूजल की री-चार्जिंग के लिए बनाए जाने वाले ऐसे तालाबों को मजदूरी देने की योजनाओं से भी अनिवार्य रूप से नहीं जोडऩा चाहिए, क्योंकि बहुत से ऐसे इलाके रहेंगे जहां न मजदूर रहेंगे, न निस्तारी के लिए तालाबों की जरूरत रहेगी। वहां पर सरकार को मशीनें लगाकर भी तालाब खोदने चाहिए, और जितना पानी बहकर जाता है, उसके अनुपात में ऐसे छोटे या बड़े तालाब बनाने चाहिए।
एक बार फिर हम पानी को मुफ्त में देने या न देने के एक विवादास्पद मुद्दे पर लौटें, तो हमारा यह साफ मानना है कि अमीर या गरीब सबको पानी का एक दाम देना चाहिए। हो सकता है कि यह गरीबों के लिए बहुत ही कम हो, और साल भर में कुछ सौ रूपए ही उनसे लिए जाएं, लेकिन जब किसी को किसी चीज के दाम देने पड़ते हैं, तो उसकी इज्जत भी होती है। इसके बाद ही लोग पानी को सोच-समझकर इस्तेमाल करेंगे। हर नल की मीटरिंग होनी चाहिए, और हर ट्यूबवेल की भी। देखते हैं कि केन्द्र और राज्य सरकारें, या स्थानीय संस्थाएं जनता को जिम्मेदार बनाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करेंगी, या फिर वोटरों के तलुए सहलाने का काम करेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक टेलीविजन समाचार चैनल के लाईव टेलीकास्ट में आम चुनाव के नतीजों पर एक एक्जिट पोल एजेंसी के नतीजे जब पूरी तरह गलत साबित हुए, तो उसके संचालक वहीं स्टूडियो में बुरी तरह रोते हुए दिखे। उन्होंने यह काम ही बंद कर देने की बात कही। अभी कुछ हफ्ते गुजर जाने के बाद एक समाचार एजेंसी के पत्रकारों के साथ बातचीत में इस एक्जिट पोल संचालक ने कहा कि देश के तमाम एक्जिट पोल के नतीजे आने के अगले ही दिन शेयर बाजार में जो भूचाल आया था, और शेयरों के दाम आसमान तक पहुंच गए थे, उसके पीछे उनकी कोई साजिश नहीं थी। साथ-साथ उन्होंने कहा कि वह किसी भी तरह की जांच के लिए तैयार हैं। अब किसी एक एजेंसी का हिसाब-किताब गलत निकला हो ऐसा तो है नहीं, तकरीबन तमाम एजेंसियों के एक्जिट पोल भाजपा को अपने दम पर बहुमत पाते बता रहे थे, और पिछले चुनाव से सीटें अधिक बता रहे थे, लेकिन नतीजे भाजपा-एनडीए के लिए एक सदमा बनकर आए थे, और एक छोडक़र तमाम अंदाज गलत निकले थे। लेकिन इतनी सारी एजेंसियों ने जब एनडीए की सरकार को पहले से अधिक बहुमत के साथ सत्ता पर वापिस आते बताया था, तो अगली सुबह शेयर बाजार छत को तोडक़र आसमान पर पहुंच गया था। राहुल गांधी सहित विपक्ष के कई नेताओं का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी एक्जिट पोल के बाद लोगों को शेयर मार्केट में पूंजीनिवेश का सुझाव दिया था, और उससे लोगों की बहुत बड़ी रकम डूबी क्योंकि एक्जिट पोल बाद में गलत साबित हुए, और शेयर मार्केट धड़ाम से नीचे आ गिरा।
भारत में ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल करने वाली एजेंसियों के साथ आमतौर पर कोई न कोई मीडिया घराने जुड़े रहते हैं, और किसी अखबार या टीवी चैनल का निजी राजनीतिक रूझान ऐसे सर्वे के नतीजों को प्रभावित करते हुए दिखाई देता है। यह बात बार-बार उठती है कि हिन्दुस्तान में ऐसे पोल या सर्वे करने वाली एजेंसियों की विश्वसनीयता को बनाने के लिए सरकार को एक ढांचा बनाना चाहिए जो नियम बनाकर इन एजेंसियों के कामकाज को पारदर्शी बनाए। देश में पहले भी विज्ञापनों पर निगरानी रखने के लिए एक संस्था है, रेडियो और टीवी पर निगरानी रखने के लिए एक दूसरी संस्था है, अखबारों पर निगरानी के लिए प्रेस कौंसिल है, इस तरह की कोई और संवैधानिक या गैरसरकारी और ट्रेड-इंडस्ट्री से जुड़ी हुई ऐसी संस्था बन सकती है। सरकारी संस्थाओं का तजुर्बा बहुत अच्छा नहीं रहता है, इसलिए यह भी हो सकता है कि पोल और सर्वे करवाने वाली एजेंसियां खुद होकर अपना एक संगठन बनाएं, और उसे चलाने के लिए इस कारोबार से बाहर के कुछ निष्पक्ष और साख वाले लोगों को उसमें रखे। जिसे आत्म-अनुशासन कहा जाता है, वह सरकारी निगरानी-संस्था के मुकाबले बेहतर इंतजाम हो सकता है, और उससे शुरूआत हो सकती है। फिर अगर यह निगरानी असरदार न हुई, तो फिर सरकार किसी तरह का और रास्ता निकाल सकती है।
हम किसी एक कंपनी, और उसके एक बार के ओपिनियन या एक्जिट पोल के गलत नतीजों पर कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन जब बार-बार एजेंसियों के अनुमान थोक में गलत होते हैं, तो फिर सोचना पड़ता है। छह महीने पहले छत्तीसगढ़ सहित कुछ राज्यों के चुनाव हुए, सारे ओपिनियन पोल, और सारे एक्जिट पोल जो बता रहे थे, नतीजे उसके उल्टे आए। अधिकतर कंपनियों के अनुमान गलत साबित हुए। इस बार भी लोकसभा चुनाव के मतदान के तुरंत बाद जो एक्जिट पोल सामने आए, उनमें से तकरीबन तमाम गलत साबित हुए। ऐसे में यह शक पैदा होता है कि क्या कुछ ताकतें ऐसी रहती हैं जो बहुत सारी एजेंसियों के निष्कर्षों को थोक में खरीद सकती हैं? और क्या बहुत सी एजेंसियां बिकने के लिए तैयार रहती हैं? इससे परे हम पल भर के लिए संदेह का लाभ देते हुए यह भी समझना चाहते हैं कि पश्चिम के जिन देशों से ऐसे सर्वे के तरीके हिन्दुस्तान आए हैं, क्या उन तरीकों में ही कोई ऐसी बुनियादी खामी है कि वे हिन्दुस्तान पर उस तरीके से लागू नहीं किए जा सकते जिस तरह वे अमरीका में हर दिन लागू किए जाते हैं। वहां तो एक-एक घटना को लेकर राष्ट्रपति, या अगले संभावित राष्ट्रपति-प्रत्याशी की लोकप्रियता में कमी-बेसी का अंदाज लगाया जाता है कि किसकी लोकप्रियता कितने प्वॉइंट बढ़ी या घटी है। वहां जिस जनता के बीच सर्वे किया जाता है, उसमें और हिन्दुस्तानी जनता में क्या इतना बुनियादी फर्क है कि सर्वे के वे तरीके हिन्दुस्तान में सही नतीजे नहीं दे पाते? इस बारे में भी सोचने की जरूरत है।
दूसरा हमारा ख्याल यह भी है कि एक्जिट या ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसियों को अपने पिछले चुनावों के नतीजों को अपनी वेबसाइटों पर बनाकर रखना चाहिए, ताकि लोग यह देख सकें कि इतने बरसों में किस कंपनी का पूर्वाग्रह बार-बार किसी पार्टी के पक्ष में रहा है? इसके अलावा आज मीडिया के भीतर भी जिस तरह फैक्ट-चेक करने वाली वेबसाइटें काम करती हैं, उसी तरह देश के परंपरागत ज्योतिषियों और भविष्यवक्ताओं की कही बातों का भी एक रिकॉर्ड रखना चाहिए, और पोल या सर्वे करने वाली एजेंसियों के पिछले अनुमानों का भी। यह कुछ उसी तरह का सुझाव है जिस तरह भारत में एडीआर जैसी संस्था चुनावी उम्मीदवारों का विश्लेषण करके जनता के सामने यह रखती है कि किस पार्टी के कितने उम्मीदवार किस दर्जे के अपराधी हैं, किसने कितने करोड़पतियों को टिकट दी है, किसने महिलाओं को कितना महत्व दिया है। लोकतंत्र में जनता के सामने इस तरह के विश्वसनीय विश्लेषण भी आते रहना चाहिए, जो कि जनता को फैसले लेने में मदद कर सकें।
बहुत से लोग ओपिनियन और एक्जिट पोल को मनोरंजन के सामान से अधिक नहीं मानते। हो सकता है कि हिन्दुस्तान में टीवी चैनलों ने अपने गलाकाट मुकाबले में दर्शक बांधे रखने के लिए इसे धंधा बना रखा हो, लेकिन दुनिया के विकसित देशों में इसे एक भरोसेमंद तकनीक माना जाता है, और कोई वजह नहीं है कि हिन्दुस्तान में इसे एक भरोसेमंद औजार की तरह विकसित करने के बजाय इसे दिल बहलाने का सामान मानकर इसकी साख खारिज कर दी जाए। अब जब आम चुनाव पांच बरस बाद हैं, देश के किसी भरोसेमंद जनसंगठन को यह पहल करनी चाहिए कि सर्वे एजेंसियां सर्वे की अपनी तकनीक, सैम्पल साईज, लोगों से बात करने की तारीखें जैसी बहुत सी बातों को सामने रखें। इसके बाद ऐसे संगठन को चुनावी नतीजे आने के बाद सही या गलत साबित होने वाले सर्वे पर उनकी एजेंसियों से सवाल भी पूछने चाहिए, और इन सबको इंटरनेट पर जनता के बीच रख देना चाहिए। जिस तरह के सर्वे-नतीजों से देश का जनमत प्रभावित होता हो, उन्हें मनोरंजन कहकर कोई रियायत नहीं देनी चाहिए। देश में सर्वे की तकनीक को बेहतर बनाना जरूरी है क्योंकि चुनावों से परे भी कई किस्म के मुद्दों पर जनता की राय जानी जा सकती है।
संसद में कोई कानून बनाने की पहल जब होती है, तब यह भी देखना चाहिए कि जनता उस बारे में क्या सोचती है? चूंकि जनता के चुने हुए सांसद या विधायक अपने सदनों में पार्टी के नियमों से बंधे रहते हैं, और वे वहां पर अपने चुनाव क्षेत्र की जनता की सोच सामने नहीं रखते, बल्कि पार्टी के तय किए हुए एजेंडा को ही आगे बढ़ाते हैं। इसलिए सर्वे एजेंसियां जनता के बीच सीधे भी जा सकती हैं कि किसान कानून पर उनका क्या कहना है, फसलों के समर्थन मूल्य पर उनका क्या कहना है, या किसी फिल्म पर प्रतिबंध लगाने या न लगाने के बारे में उनकी क्या सोच है? हमारा ख्याल है कि सर्वे सिर्फ चुनावों तक सीमित नहीं रहते, और कुछ पत्रिकाएं तो हर बरस एक सनसनीखेज सेक्स-सर्वे भी करती हैं, और देश के अलग-अलग तबकों की सेक्स-संबंधित मुद्दों पर राय सामने रखती हैं। इसलिए सर्वे के धंधे में एक पारदर्शिता लाकर उसकी जवाबदेही तय करना जरूरी है।
इन दिनों सार्वजनिक जगहों पर बहुत से लोग इत्र की दुकान की तरह महकते हुए दिखते हैं। नौजवानों में मामूली आर्थिक हैसियत के बहुत से लडक़े-लड़कियां भी कुछ न कुछ सुगंध लगाए दिखते हैं। पसीने और बदन की बदबू को दबाने के नाम पर बहुत सी कंपनियां अपने डियो (डियोडोरेंट) की ऐसी आक्रामक मार्केटिंग करती हैं, और अनगिनत फिल्मी सितारे, या खिलाड़ी ऐसे स्प्रे के बाद ही अपने आत्मविश्वास के जागने का दावा करते हैं। ऐसी मॉडलिंग और ब्रांड प्रमोशन के बाद यह जाहिर है कि लोग अपने बदन की स्वाभाविक गंध को बदबू मान लेते होंगे, और किसी स्प्रे के सहारे के बिना वे अपने आपको आत्मविश्वास की बैसाखी के बिना चलने वाले महसूस करते होंगे। दरअसल बाजार लोगों में हीनभावना और बेचैनी भरकर अपना कारोबार करता है। फैशन और मेकअप का बहुत बड़ा कारोबार अमरीकी सितारों से लेकर अमरीकी छरहरी गुडिय़ा, बार्बी डॉल के बदन के आकार के असर से चलता है। अभी अधिक वक्त नहीं हुआ जब दुनिया के सिगरेट और शराब के सबसे बड़े ब्रांड चर्चित चेहरों के कंधों पर सवार होकर ग्राहकों को लुभाने निकलते थे। हिन्दुस्तान में भी सिगरेट का एक बड़ा ब्रांड देश भर के जोड़ों को एक मुकाबले में बुलाता था, जिनमें सबसे अच्छा जोड़ा दिखने वाले पति-पत्नी को सिगरेट की मॉडलिंग के लिए छांटा जाता था। इस तरह नए कानून बनने के पहले तक बाजार लगातार बुरी आदतों को बढ़ाने के लिए भी हर किस्म के हथियारों वाले हमले इस्तेमाल करता था। आज भी हिन्दुस्तान में सिगरेट और शराब के इश्तहारों पर रोक रहने पर भी, उन्हीं नामों के दूसरे सामान बनाकर, उसी ब्रांड से बाजार में बेचने की धोखाधड़ी धड़ल्ले से चलती है, और कारोबार के दबाव में रहने वाली सरकारें इसे अनदेखा भी करते रहती हैं।
बाजार की तकनीक कुछ-कुछ राजनीतिक दलों सरीखी रहती है जो कि लोगों के मन में किसी तरह की दहशत, किसी तरह की नफरत, किसी तरह की धर्मान्धता, कट्टरता भरते हैं, फिर किसी काल्पनिक दुश्मन की गढ़ी गई तस्वीर दिखाकर खतरे बताते हैं, और वोटरों को यह सोचने को मजबूर करते हैं कि फलां नेता या राजनीतिक दल को वोट दिए बिना हिफाजत नहीं है। बाजार ऐसा ही करता है। लोगों को उनके बदन के आकार से हीनभावना का शिकार बना देता है, उन्हें अपने रंग को लेकर इतना बेचैन कर देता है कि माइकल जैक्सन जैसे लोग दर्जनों बार की प्लास्टिक सर्जरी से अपना रंग बदलवाते रहे, नाक को धार लगवाते रहे, और बेचैनी में ही मर भी गए। हिन्दुस्तान में भी फेयरनेस क्रीम का कारोबार आसमान चीरकर आगे बढ़ते रॉकेट की तरह बढ़ते रहा, और वह पूरी तरह से हीनभावना पर जिंदा बाजार था, जिसे देश के सबसे चर्चित, शाहरूख खान सरीखे फिल्म अभिनेता बढ़ावा देते रहे।
देश के सबसे बड़े फिल्मी सितारे, सबसे बड़े क्रिकेट खिलाड़ी जब गैरजरूरी चीजों को बेचकर खुद अरबपति होते हैं, और वैसे ब्रांड के मालिकों को खरबपति बनाते चलते हैं, तो उस हमले के सामने साधारण सोच के जिंदा रह पाने की गुंजाइश नहीं रहती। देश के तीन-तीन, चार-चार सबसे बड़े सितारे जब कोई गुटखा बेचते हैं, तो नौजवानों को कैसे उसके इस्तेमाल से बचाया जा सकता है? जब देश की कुछ सबसे सुंदर चर्चित लड़कियां और महिलाएं हर कुछ महीनों में बदले जा रहे फैशन का बाजार खड़ा करने के लिए न सिर्फ इश्तहारों में, बल्कि मीडिया की दूसरी मासूम दिखती, लेकिन खरीदी गई जगहों पर भी छाई रहती हैं, तो देश की लड़कियां और महिलाएं उनके बिना अपने आपको समाज और अपने दायरे की दौड़ से बाहर पाती हैं।
बाजार के हमले का सामना कर पाना आसान नहीं है, क्योंकि इन हमलों और इसके हथियारों को, इनकी फौजी रणनीति को दुनिया के कुछ सबसे शातिर दिमाग तय करते हैं। ये दिमाग माताओं के दिमाग में यह भरने में कामयाब हो जाते हैं कि बच्चों को अगर जिराफ की तरह ऊंचा बनाना है, उनके बदन और दिमाग को तेजी से बढ़ाना है, तो उन्हें दूध में कौन सा पाउडर घोलकर पिलाना होगा। हालत यह है कि बच्चों के खानपान को लेकर उनकी माताओं के दिमाग में इतना कुछ भर दिया गया है कि वे बच्चों के डॉक्टरों का जीना हराम किए रहती हैं। लोगों के मन में बेचैनी भरकर, उन्हें हीनभावना में डुबाकर, उन्हें बेहतरी के सपने दिखाकर इतना कुछ किया जाता है कि लोग बाजार की रणनीति के हिसाब से ही सोचने लगते हैं, और इंसान के बजाय ग्राहक बनकर वे अपने को अधिक महफूज महसूस करते हैं। जो सामान न हेलमेट हैं, न बुलेटप्रूफ जैकेट हैं, वे भी लोगों को हिफाजत का अहसास कराने लगते हैं। कुछ खास ब्रांड के टूथपेस्ट लोगों को यह बतलाने लगते हैं कि उनकी सांस से निकली हुई सनसनीखेज ताजगी किस तरह आसपास से गुजरती लड़कियों और महिलाओं को भी उनकी तरफ खींच देगी। लोगों के सेहतमंद खाने-पीने की एक मामूली सी समझ किनारे धरी रह जाती है, और वे ढेर-ढेर शक्कर वाले कोल्ड ड्रिंक, या एनर्जी ड्रिंक के बिना, किसी प्रोटीन ड्रिंक के बिना अपने को अधूरा पाते हैं।
जिस तरह अखबार और टीवी चैनल, या यूट्यूब और फेसबुक के रास्ते लोगों तक पहुंचने वाली सोच उन्हें बदल दे रही है, उसी तरह हमलावर मार्केटिंग से लोगों का खानपान, रहन-सहन, सब कुछ बदल जा रहा है। लोग हजारों बरस से सामाजिक प्राणी थे, लेकिन अब बाजार की रणनीति लोगों के अलग-अलग समाज बांट दे रही हैं, और लोग ग्राहकों की अलग-अलग किस्मों के समुदाय बनते जा रहे हैं। अधिकतर लोगों को यह समझ भी नहीं पड़ रहा है कि वे किस तरह बाजार के हाथों एक कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं, और वे अपनी जरूरत से बिल्कुल ही परे जाकर ग्राहक बनते जा रहे हैं। लोगों के पास आज किसी मोबाइल या कार का एक मॉडल अपनी पूरी क्षमता से इस्तेमाल नहीं हो पाता है कि कुछ और क्षमताओं वाले नए मॉडल लोगों के भीतर बेचैनी भरने लगते हैं। आज लोगों को अपने दोस्तों और परिवार के दायरे में यह सोचना चाहिए कि क्या उन्हें सचमुच और अधिक की जरूरत है, और नए की जरूरत है, या मौजूदा काफी है? बाजार शायद लोगों को इतना तर्कसंगत रहने नहीं देगा, और लोग एक वफादार ग्राहक की तरह अपने ब्रांड से बंधे रह जाते हैं, काल्पनिक जरूरतों को जरूरी सच मानकर उन्हें हासिल करने में जुट जाते हैं। पता नहीं बाजार की यह साजिश इंसानों को गुलाम ग्राहकों से परे भी कुछ रहने देगी या नहीं।
बंगाल की एक खबर है कि एक पति ने अपना वंश आगे बढ़ाने की चाह में अपनी पत्नी के साथ दूसरे लोगों से जबर्दस्ती सेक्स करवाया। पत्नी रिपोर्ट लिखाने पुलिस में गई तो वहां एफआईआर से मना कर दिया गया। इसके बाद यह महिला कलकत्ता हाईकोर्ट गई तो वहां न्यायाधीश अमृता सिन्हा ने पुलिस को जमकर फटकार लगाई है, और मामले पर रिपोर्ट मांगी है। यह मामला चूंकि पुलिस और अदालत तक पहुंच गया, इसलिए सामने आया है, वरना संतान की चाह में, और खासकर पुत्रमोह में आम हिन्दुस्तानी महिला पर जो जुल्म होता है, उसकी कोई सीमा नहीं है। कभी उसकी सौत लाने की बात होती है, तो कभी ससुराल के तमाम लोग उसकी मानसिक प्रताडऩा में जुट जाते हैं, उसे तरह-तरह के तांत्रिकों और बाबाओं की शरण में ले जाया जाता है कि वह किसी तरह से मां तो बने, और कई मामलों में ऐसी महिला अघोषित रूप से उन बाबाओं और तांत्रिकों की औलाद की ही मां बनने को मजबूर कर दी जाती है। फिर जिनके पास अधिक आर्थिक क्षमता है उनके लिए अब तरह-तरह की कृत्रिम गर्भाधान तकनीकें भी मौजूद हैं, लेकिन बंगाल का यह ताजा मामला कुछ अधिक ही शर्मनाक है कि पति ने पत्नी पर दूसरे मर्द ढील दिए ताकि वह किसी तरह गर्भवती तो हो जाए।
भारत में, और खासकर हिन्दुओं में पुत्र का महत्व धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों में इतना अधिक स्थापित किया गया है कि पुत्र का हाथ लगे बिना मुर्दा मां-बाप को मोक्ष नहीं मिलता, या शायद स्वर्ग में बड़ा बंगला आबंटित नहीं होता। हिन्दुओं की बहुत सारी व्रत कथाएं पुत्र की कामना के लिए ही बनी हैं, और तरह-तरह के उपवास भी। कुछ आयुर्वेदिक दवाएं भी पुत्र दिलवाने के लिए बनी हैं। हिन्दुओं में संपत्ति के बंटवारे के ताजा कानून और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को छोड़ दें, तो अभी कुछ बरस पहले तक सारी संपत्ति बेटों में ही बांटने का कानून था, और लडक़ी के लिए यह मान लिया जाता था कि उसकी शादी में जो खर्च किया गया है, वही उसका हक था। इस तरह हिन्दू समाज की सारी सोच पुत्रकेन्द्रित है, और वंश आगे बढ़ाने की सोच भी पुत्र पर ही टिकी रहती है, क्योंकि पुत्री की शादी तो किसी दूसरे परिवार में होती है, और उसकी वजह से माता-पिता का वंश आगे बढ़े, ऐसा नहीं माना जाता है। कुल मिलाकर हिन्दुओं की सारी सोच बेटों पर केन्द्रित, बेटों तक सीमित रहती हैं, और संतान न होने पर जो लोग गोद लेते भी हैं, वे लोग आमतौर पर परिवार के ही किसी बच्चे को गोद लेते हैं ताकि घर की संपत्ति परिवार में ही रहे।
इससे दिक्कत यह होती है कि समाज में जो बेसहारा बच्चे रह जाते हैं, जिनके मां-बाप किसी वजह से गुजर गए हों, या जिन्हें कहीं फेंक दिया गया रहा हो, उनके लिए एक संभावित घर कम हो जाता है क्योंकि ऐसे बच्चों के मुकाबले लोग परिवार के भीतर के बच्चे ही गोद ले लेते हैं। आज हालत यह है कि लोगों में अपने खुद के खून को लेकर, डीएनए को लेकर मोह इतना अधिक है कि वे बहुत महंगी कृत्रिम गर्भाधान, या सरोगेसी जैसी तकनीक का इस्तेमाल भी कर लेते हैं, लेकिन बच्चा वे अपना खुद का चाहते हैं। इसके पीछे की एक बड़ी वजह यह है कि लोगों के मन में सामाजिक सरोकार नहीं सरीखा रह गया है। बेसहारा बच्चों को अपनाने के बजाय लोग इस ताजा मामले में तो पत्नी के साथ दूसरे मर्दों से जबरिया सेक्स करवाने तक पहुंच गए हैं, ताकि बच्चा परिवार में ही पैदा हो सके। लोगों को याद होगा कि महाभारत की कहानी में पति से बच्चा न हो पाने पर पति-पत्नी की सहमति से किसी दूसरे व्यक्ति से गर्भधारण करने की एक सामाजिक प्रथा का जिक्र है, और महाभारत के कुछ चर्चित किरदार उसी तरह से पैदा हुए थे। इस प्रथा का जिक्र महाभारत की कथा, और सामाजिक प्रथाओं के इतिहास में बड़े खुलासे से किया गया है। इस प्रथा के साथ यह जोड़ा गया था कि पति के गुजर जाने पर वह महिला अगर संतान चाहती है, तो वह अपने पिता की आज्ञा से संतान प्राप्ति के लिए किसी दूसरे पुरूष से देहसंबंध कर सकती है, और महिला का पति यदि जिंदा भी हो, और बच्चा पैदा करने में असमर्थ हो, तो भी नियोग प्रथा से महिला बच्चा पा सकती है जो कि पति-पत्नी दोनों की संतान कहलाएगा, और नियोग करने वाला पुरूष कभी ऐसी संतान पर दावा नहीं करेगा। कुछ दूसरे धर्मों में भी ऐसी प्रथा का जिक्र है, और पति के भाईयों से गर्भधारण में मदद ली जा सकती है। चीन के एक पहाड़ी समुदाय के बारे में यह जानकारी किताबों में दर्ज है कि वे अपने समुदाय में रक्त-विविधता के लिए वहां से गुजरने वाले सैलानियों की मेहमाननवाजी करते हैं, और वे अपनी महिलाओं से सेक्स का मौका ऐसे मेहमान मर्दों को देते हैं, ताकि समुदाय में नया रक्त आ सके।
लेकिन अपनी पत्नी को दूसरे मर्दों के साथ सेक्स पर मजबूर करना एक खतरनाक कानूनी और सामाजिक जुर्म है। इसमें महिला को बच्चे पैदा करने का पारिवारिक सामान ही मान लिया गया है, और यह तो भला हो कि हाईकोर्ट की महिला जज का जिसने पुलिस को इस मामले की जांच करके रिपोर्ट देने को कहा है। समाज को भी अपने बारे में सोचना चाहिए कि महिलाओं के इतने अधिक शोषण से कैसे बचा जा सकता है। कैसे महिला को बच्चे पैदा करने की मशीन से परे भी कुछ समझा जा सकता है। संतान मोह में महिला से उसका पति ही दूसरे मर्दों से जबरिया सेक्स करने को मजबूर करे, इस पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए ताकि वह औरों के लिए मिसाल भी रह सके।
सोशल मीडिया पर झूठ का कारोबार इतने धड़ल्ले से चलता है कि जब तक वहां की जानकारी को गढ़ी हुई, नकली, या झूठे संदर्भ में साबित किया जा सके, तब तक तो वह चारों तरफ फैल चुकी रहती हैं, और ऐसे झूठ को फैलाने में जिस तबके की दिलचस्पी रहती है, वे खासा ओवरटाइम कर चुके रहते हैं। किसी ने सच ही लिखा था कि जब तक झूठ अपने जूतों के फीते बांधता है, तब तक झूठ पूरे शहर का चक्कर लगाकर आ चुका रहता है। अभी ताजा मामला इंटरनेट पर तेजी से फैलाया जा रहा एक स्क्रीनशॉट है जिसे राहुल गांधी का वायनाड से किया गया ट्वीट बताया जा रहा है। इसमें राहुल गांधी का ट्वीट गढक़र लिखा गया है- नागरिकता बिल पास कर बीजेपी हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे पर चल रही है, हमारे पूर्वजों का एजेंडा हमेशा से इस्लामिक कंट्री पर रहा है, इसीलिए हमने दो इस्लामिक कंट्री बनाईं, पाकिस्तान और बांग्लादेश, अब हम भारत को हिन्दू राष्ट्र बनते नहीं देख सकते।
आमतौर पर भाजपा की समर्थक मानी जाने वाली एक समाचार वेबसाइट ने जांच-पड़ताल करके यह तथ्य सामने रखा है कि सोशल मीडिया पर तेजी से फैलाई जा रही यह पोस्ट गढ़ी गई है, झूठी और नकली है, राहुल गांधी ने ऐसी न कोई बात कही है, और न ही ऐसा कोई ट्वीट किया है। इस वेबसाइट फैक्ट-चेक के बिना भी जिन लोगों में रत्ती भर भी कॉमनसेंस होगा, वे आसानी से समझ सकते हैं कि न तो राहुल गांधी, और न ही देश के किसी भी पार्टी के कोई और नेता इस तरह की बात कह सकते हैं, और यह सिर्फ किसी को बदनाम करने के लिए गढ़ा गया बड़े ही भौंडे किस्म का झूठ है। किसी को बदनाम भी करना हो, तो मामूली मिलावट वाला झूठ एक बार चल सकता है, लेकिन सर्फ की सफेदी की चमकार वाला इतना सफेद झूठ परले दर्जे के मूर्खों के बीच भी नहीं खपाया जा सकता है। लेकिन देश में एक तबका पिछली पौन सदी से लगातार इसी ‘अपनी राष्ट्रीय नीयत’ को लेकर जुटा हुआ है कि किस तरह जवाहरलाल नेहरू के पिता को मुस्लिम साबित किया जाए, जवाहर के दामाद फिरोज गांधी को मुस्लिम साबित किया जाए, किस तरह सोनिया गांधी को बार डॉंसर साबित किया जाए। यह सिलसिला खत्म ही नहीं होता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी नेहरू-गांधी परिवार को नफरत का निशाना बनाकर मुस्लिम साबित करने की कोशिश तो चल ही रही है, दुनिया के किसी एक देश में फैंसी ड्रेस में गांधी बनकर किसी विदेशी महिला के साथ डॉंस करने वाले आदमी की तस्वीर को भी गांधी बताकर गांधी को बदचलन साबित करना बहुत से लोगों का एक पसंदीदा शगल रहा है।
लेकिन ऐसी कोशिशें उस समाज में अधिक चलती हैं, और अधिक कामयाब होती हैं, जहां पर लोग हकीकत से अधिक अपनी हसरत को सच मानकर चलते हैं। हिन्दुस्तान में लोगों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो दो मिनट की जांच-पड़ताल से किसी सनसनीखेज बात की सच्चाई परखने के बजाय दो घंटे लगाकर उसे हजारों लोगों तक पहुंचाने के काम को समाजसेवा की भावना से करता है। यह सिलसिला देश को ऐसे-ऐसे झूठों से पाट चुका है जिन्हें दुनिया का कोई भी जिम्मेदार समाज छूता भी नहीं। और इसके ऊपर फिर भारत के विश्वगुरू होने का भी दावा है। यह दावा वे ही लोग अधिक करते हैं जो परले दर्जे के घटिया झूठ को परखने पर एक मिनट भी नहीं गंवाते। गैरजिम्मेदारी से झूठ फैलाने के मामले में हिन्दुस्तानी सचमुच ही विश्वगुरू हो सकते हैं। जिस तरह हिन्दुस्तान के किसी गांव-कस्बे का नाम वहां धड़ल्ले से होने वाले जुर्म की वजह से चारों तरफ फैला रहता है, उसी तरह हिन्दुस्तान के सोशल मीडिया का नाम यहां पर झूठ के संक्रामक रोग की रफ्तार से फैलने के लिए दुनिया भर में जाना जाता है।
हमारे सरीखे लोग जो कि झूठ को परखने के ही पेशे में लगे हुए हैं, इसी से अपनी रोजी-रोटी निकालते हैं, उन्हें किसी के भेजे हुए वॉट्सऐप संदेश से ही यह समझ आ जाता है कि वे कितने गहरे पानी में हैं, और पानी कितना गंदा है, और इस पानी की गंदगी उन लोगों के दिल-दिमाग में किस कदर भर चुकी है। लोगों की साख उनके फैलाए गए एक झूठ से चौपट हो सकती है, इस बात का अहसास जिनको नहीं है, वे आए दिन अपनी साख खोते चल रहे हैं। आज का वक्त सोशल मीडिया पर लोगों की की गई पोस्ट से उनकी विश्वसनीयता बनने या बिगडऩे का है। किसी भी बड़ी कंपनी में, या बड़े संस्थान में किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखने के पहले उनकी सोशल मीडिया पोस्ट, और उनके बारे में दूसरों की लिखी गई बातें बारीकी से देख ली जाती हैं। ऐसे में आज उनकी उगली हुई गंदगी बरसों तक दूसरों को दिखती रहती है। और गंदगी को फैलाना, झूठ को गढऩा, न सिर्फ बाकी सोशल मीडिया के लिए एक संक्रामक रोग रहता है, बल्कि ऐसे लोगों की अगली पीढ़ी इससे संक्रमित होती है। झूठे और जालसाज प्रोपेगेंडा में लगे हुए लोग अपने बच्चों को भी इसी राह पर धकेलते हैं, और अब ऐसे नफरतजीवी लोगों को दुनिया के बहुत से परिपक्व लोकतंत्रों से वीजा भी नहीं मिल सकता। आज अगर लोग कुछ देशों में नफरती लोगों के खिलाफ जानकारियां भेजते हैं, तो उन देशों के दूतावास वीजा जारी करने के पहले ऐसी बातों की पड़ताल जरूर कर लेते हैं।
भारत जैसे चुनावी लोकतंत्र में हर बरस औसतन 4-5 राज्यों के चुनाव होते ही हैं, और इसलिए झूठ का सैलाब गढक़र उसे बड़े-बड़े पम्प लगाकर लहरों की शक्ल में बढ़ाया जाता है। जिन लोगों को नफरत फैलाने से मानसिक शांति मिलती है, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि ऐसी बिना खून-खराबे की हिंसा उनके अपने दिल-दिमाग को चौपट कर देती है। लोगों को नफरत की मानसिक बीमारी और हिंसा से बाहर निकलना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक अंतरराष्ट्रीय अनुमान यह है कि अगर साइबर क्राइम एक देश रहता, तो वह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहता। दुनिया के दो ही देशों में इससे अधिक जीडीपी होता। और उस साइबर क्राइम के शिकार हम हर दिन अपने आसपास के लोगों को देख रहे हैं। किसी को यूट्यूब वीडियो लाइक करने पर मेहनताने का वायदा करके उनसे लाखों रूपए ठग लिए जा रहे हैं, तो किसी को विदेशों से सामान मंगाकर देने के नाम पर ठगा जा रहा है, और फिर उनके पास फोन आता है कि उनके सामान में ड्रग्स निकली है, और पुलिस को पैसा न दिया तो गिरफ्तारी हो जाएगी। झारखंड के जामताड़ा नाम के एक गांव या कस्बे में बैठे हुए अनपढ़ लोग किस तरह पूरे देश के लोगों को टेलीफोन पर ठग रहे हैं, और किस तरह यह वहां का कुटीर उद्योग बन गया है इस पर किसी ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एक फिल्म या सिरीज भी बन चुकी है। हम छत्तीसगढ़ को अधिक करीब से देखते हैं तो पाते हैं कि पिछले दस बरस में इस राज्य में अनगिनत चिटफंड कंपनियां खुलीं, और लाखों लोगों के हजारों करोड़ रूपए लूटकर गायब हो गईं। उनमें से कुछ के लोगों को पकड़ा गया, और दस-बीस करोड़ रूपए वसूली करके लोगों में थोड़ी सी रकम बांटी गई, लेकिन कुल मिलाकर लोगों का पैसा हमेशा के लिए डूब ही गया। अब छत्तीसगढ़ की एक ग्राम पंचायत रायकोना के एक नौजवान ठग को गिरफ्तार किया गया है जो लोगों से शेयर मार्केट और क्रिप्टोकरंसी में पैसा लगाने पर 8 महीने में दोगुना करने का झांसा देकर उनसे दसियों करोड़ रूपए ठग लिए। इस नौजवान छत्तीसगढ़ी ठग के बैंक खातों से 6 करोड़ 40 लाख रूपए मिले, करोड़ों की जमीन, करोड़ों की महंगी कारें बरामद की गईं। छत्तीसगढ़ के ही एक कम्पाउंडर ने शेयर मार्केट में पूंजीनिवेश के फर्जी मोबाइल ऐप बनवाए और उसने लोगों से सैकड़ों करोड़ ठग लिए, ऐसी खबर आई है।
यहां लोग रोज जालसाजी का शिकार हो रहे हैं, रोजाना खबरें छप रही हैं, इसके बाद भी पढ़े-लिखे नए लोग फंसते चले जा रहे हैं। अखबारों और टीवी पर, समाचार वेबसाइटों पर साइबर-ठगी की हर दिन आती दर्जनों खबरों से किसी भी तरह का सबक न लेने की मानो लोगों ने कसम खा रखी है। खासे पढ़े-लिखे लोग, और बैंक कर्मचारी तक साइबर-ठगी का शिकार हो रहे हैं। इनमें से कई लोग किसी वीडियो कॉल पर किसी महिला का बदन देखकर अपने कपड़े उतारने लगते हैं, और इसके बाद वे अंतहीन ब्लैकमेलिंग का शिकार हो जाते हैं। शर्मिंदगी में ऐसे बहुत से लोग खुदकुशी भी कर रहे हैं, लेकिन इनसे किसी को सबक नहीं मिल रहा है। दरअसल लोग आनन-फानन कमाई के, किसी महिला के बदन की झलक के इतने प्यासे बैठे हैं कि वे हर कीमत पर इन्हें हासिल करना चाहते हंै।
दरअसल देश में जब ईमानदारी के पूंजीनिवेश से कमाई सीमित हो, और लोग गलत तरीकों से अंधाधुंध कमाई की मिसाल पेश करते हों, तो बहुत से साधारण लोग भी अपने सीमित पैसों को दुगुना करने के चक्कर में फंस जाते हैं। अभी किसी मोबाइल गेम पर 25 हजार रूपए हारने पर 12-13 बरस के किशोर ने खुदकुशी कर ली। ऐसा और भी बहुत से लोगों के साथ हो रहा है। बहुत से चीनी मोबाइल ऐप इस देश में चल रहे थे जिनसे आसानी से कर्ज मिल जाता था, और मोबाइल एप्लीकेशन कर्जदार के मोबाइल की पूरी जानकारी निकाल लेता था, और फिर कर्ज वसूली के लिए उन्हें बुरी तरह ब्लैकमेल करके आत्महत्या के लिए मजबूर भी कर देता था। ऐसे बहुत से एप्लीकेशन भारत सरकार ने बंद किए हैं, लेकिन जितने बंद होते हैं, उससे ज्यादा ऐसे मोबाइल ऐप हर दिन बाजार में आ जाते हैं। हर किसी के मोबाइल पर बहुत किस्म की निजी बातें रहती हैं जिन पर कब्जा कर लेने के बाद साहूकार कंपनियां उन्हें फोनबुक के तमाम लोगों तक पहुंचा देने की धमकी देकर कर्ज से कई गुना रकम वसूली करती हैं।
हिन्दुस्तान जैसे देश में केन्द्र सरकार के दबाव में देश में डिजिटल लेन-देन अंधाधुंध बढ़ाया गया है। एक खोजी रिपोर्ट में कल ही यह सामने आया है कि सरकार ने किस तरह डिजिटल लेन-देन के आंकड़े बढ़ाने के लिए बैंकों पर दबाव डालकर फर्जी आंकड़े तैयार किए। लेकिन बैंकों के काम के दिन घटाकर, मोबाइल बैंकिंग, ऑनलाईन बैंकिंग, डिजिटल भुगतान बढ़ाकर, इन सब चीजों को आधार कार्ड, और पैनकार्ड से जोडक़र सरकार ने लोगों को बहुत नाजुक हालत में डाल दिया है, और इन दिनों जो ठग टेलीफोन कर रहे हैं, उनके पास लोगों की ये निजी जानकारियां भी हैं। जानकारी और कामकाज ऑनलाईन करने के साथ-साथ अगर साइबर-सुरक्षा भी नहीं बढ़ रही है, तो लोग खतरे में पड़ते जा रहे हैं। लोगों के पास कोई एक ओटीपी आता है, और फिर कोई एक फोन आता है जो अपने को बैंक का या सरकार के किसी विभाग का व्यक्ति बताकर ओटीपी पूछता है, और फिर ओटीपी बताते ही लोगों का बैंक खाता खाली हो जाता है। मतलब यह कि जालसाजों की पहुंच कई किस्म के सरकारी रिकॉर्ड तक है, अब वे किस तरह ये जानकारियां हासिल करते हैं, इसे पकडऩे की सबसे अधिक क्षमता खुद सरकार में हैं।
हमने कुछ दिन पहले इसी कॉलम में सुझाया था कि देश में साइबर-जुर्म और जालसाजी में लोगों के डूबने वाले पैसों का बीमा होना चाहिए। इन्हें सरकार और बैंक मिलकर या अलग-अलग कर सकते हैं। जब लोगों के खुद कुछ किए बिना जालसाज उनसे सिर्फ ओटीपी पूछकर उनका बैंक अकाउंट खाली कर सकते हैं, तो इसमें सरकार और बैंक के इंतजाम की कमजोरी साफ नजर आती है। सरकार को मोबाइल फोन और इंटरनेट पर होने वाली साइबर-ठगी रोकने के लिए कम्प्यूटर और अपराध विशेषज्ञों को लगातार लगाकर रखना चाहिए, और जरूरत रहे तो इसके लिए अंतरराष्ट्रीय हैकरों से भी सलाह लेकर निगरानी बढ़ाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी गांव में सुबह एक खेत में एक प्रेमीजोड़े की लाशें मिलीं। उन्होंने जहर खाकर खुदकुशी कर ली थी। दोनों में प्रेम-संबंध था लेकिन लडक़ी के घरवालों ने उसकी कहीं और सगाई कर दी, दिन में सगाई हुई, रात में उसने अपने प्रेमी के साथ खेत में खुदकुशी कर ली। दोनों 20 बरस के थे। अलग-अलग किस्म से प्रेमीजोड़े आए दिन खुदकुशी कर रहे हैं, और ऐसे अधिकतर मामलों के पीछे एक आम वजह यह है कि घरवाले उनके प्रेम-संबंध को शादी में बदलने के लिए तैयार नहीं होते। अभी दो-चार महीने पहले ही प्रेमीजोड़े की एक ऐसी आत्महत्या सामने आई थी जिसमें दोनों ही नाबालिग थे। फिर इससे परे कुछ शादीशुदा लोग विवाहेत्तर संबंधों के चलते जीवनसाथी को छोड़ किसी और के साथ प्रेम रहने पर उसके साथ खुदकुशी कर लेते हैं। लेकिन शादी के लायक उम्र वाले बालिग हुए लोग जब खुदकुशी करते हैं, तो सवाल यह उठता है कि उन्हें जान देने की इतनी हड़बड़ी क्या है? अभी तो उनके सामने लंबी उम्र बाकी है। पहले तो हर किसी को पढ़ाई-लिखाई पूरी करके कामकाज से लगना चाहिए, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनना चाहिए, उसके बाद शादी के बारे में सोचना चाहिए। प्रेमसंबंधों को लेकर तो आनन-फानन हत्या-आत्महत्या की नौबत नहीं आनी चाहिए। यह भी हो सकता है कि कुछ बरस के प्रेमसंबंधों के बाद प्रेमीजोड़े में खुद ही खटास आ जाए, और एक-दूसरे से छुटकारा पाना बेहतर लगे, और ऐसे में न साथ मरने की, और न एक-दूसरे को मारने की नौबत आएगी। लेकिन जितने बड़े पैमाने पर ताजा-ताजा बालिग हुए लोग, और नाबालिग लोग भी प्रेमसंबंधों में निराश हो रहे हैं, आपस में रिश्ता टूटने पर मर या मार रहे हैं, या शादी के लिए घरवालों के तैयार न होने पर साथ में जान दे दे रहे हैं, वह सिलसिला बिल्कुल ही बेवकूफी का है। लोग अगर जिंदगी में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाते हैं, तो वे परिवार से अलग भी रह सकते हैं, और बालिग लोगों के प्रेम या शादी में उनके परिवार की दखल का कोई महत्व भी नहीं होता। लेकिन अगर लडक़े-लडक़ी यह समझते हैं कि वे बिना काम से लगे, बिना कमाई किए, मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हुए बैठे रहेंगे, और अपनी मर्जी से शादी करना चाहेंगे, तो फिर यह मुमकिन नहीं है। जो खाना देंगे, उनकी बात सुननी भी पड़ेगी।
अब मां-बाप के नजरिए से देखें तो हिन्दुस्तानी समाज बड़ा दकियानूसी है, यहां धर्म को लेकर, जाति को लेकर, गोत्र या आर्थिक स्तर को लेकर अगर लडक़े-लडक़ी के परिवारों में फर्क है, तो फिर हर मां-बाप शहंशाह अकबर बनकर तलवार खींच लेते हैं। हर किसी को परिवार की प्रतिष्ठा दिखने लगती है, और हिन्दुस्तानी फिल्मों ने लोगों की सोच को और अधिक हद तक दकियानूसी बनाकर रखा है। फिल्में लोगों के दिल-दिमाग पर गहरा असर छोड़ती हैं, और साथ जिएंगे, साथ मरेंगे की सोच के साथ खुदकुशी का रास्ता फिल्मों से भी जिंदगी में आया है। अभी दो दिन पहले ही कहीं की खबर थी कि एक प्रेमीजोड़े ने खुदकुशी करने के लिए नदी में छलांग लगा दी, उन्हें मछुवारों ने बचा तो लिया, लेकिन उनकी अक्ल ठिकाने लगाने के लिए उन्हें थप्पड़ें भी जड़ीं। लोगों को याद होगा कि बॉबी नाम की एक नौजवान-रोमांटिक फिल्म ने कुछ इसी तरह की खुदकुशी की कोशिश दिखाई गई थी, और उसमें तो ये दोनों बचा लिए गए थे, असल जिंदगी में खुदकुशी पर अड़े लोगों का बचना मुश्किल होता है।
हिन्दुस्तानी समाज को दुनिया के कुछ विकसित और सभ्य देशों से यह सीखना चाहिए कि बालिग आल-औलाद को अपनी जिंदगी किस तरह जीने दिया जाए। दुनिया में जो देश आगे बढ़ते हैं, उनकी बुनियाद में खुशहाल नौजवान रहते हैं। वे किसके साथ रहना चाहते हैं, कब बच्चे पैदा करना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं, ये बातें न तो मां-बाप पर बोझ रहतीं, न ही उनमें दखल देना उनके अधिकार क्षेत्र में रहता। सभ्य देशों में बालिग हुए लोगों को सचमुच ही तमाम बालिग अधिकार दे दिए जाते हैं, और उसके बाद परिवार की दो पीढिय़ां जरूरत रहने पर एक-दूसरे से मदद लेती-देती हैं, वरना वे अपनी-अपनी अलग-अलग राह चलती हैं, और एक-दूसरे को चैन की जिंदगी जीने देती हैं। भारत में मराठियों सरीखे कुछ और ऐसे समाज हैं जिनमें शादी के बाद नए जोड़े को उनके हिसाब से अलग घर में रहने देने को बुरा नहीं माना जाता है, और शादी के पहले भी अपनी पसंद से दोस्त, प्रेमी, या जीवनसाथी छांटना उनमें आम बात है। आज 21वीं सदी में पहुंचने के बाद भी लोग शहंशाह अकबर और शहजादे सलीम के बीच अनारकली को लेकर जिस तरह की तनातनी हुई थी, उसे परिवार के भीतर दो पीढिय़ों का आम रिश्ता मान लेते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
दूसरी तरफ प्रेमीजोड़ों को भी यह समझने की जरूरत है कि पहले तो बालिग हो जाने के बाद ही किसी भी तरह की एक संभावना बनती है कि प्रेम जीवनसाथी बन सके। दूसरी तरफ आत्मनिर्भरता के साथ-साथ इतनी हिम्मत भी रहनी चाहिए कि दोनों के परिवार अगर ऐसे रिश्ते को खारिज कर दें तो भी आर्थिक और सामाजिक रूप से, भावनात्मक रूप से प्रेमीजोड़े खुद अपनी जिंदगी जी सकें। इसके लिए ठीक-ठाक नौकरी या रोजगार, या कारोबार तक पहुंच जाना होगा, दोनों को काबिल बनकर मेहनत करनी होगी, तभी जाकर वे अपनी मर्जी से जीने-खाने का दावा कर सकते हैं। जीना अपनी मर्जी से चाहें, और खाना मां-बाप के साथ चाहें, ऐसा होना मुश्किल है।
समाज के बड़े लोगों में, उम्रदराज लोगों में अगली पीढ़ी की भावनाओं के लिए एक सम्मान होना चाहिए। पिछली पीढ़ी अगली पीढ़ी पर अपने सामाजिक मूल्यों को थोपती रहेगी, तो फिर समाज मुगलिया सल्तनत से आगे ही नहीं बढ़ पाएगा, जबकि हिन्दुस्तान की संस्कृति हजारों बरस की पौराणिक कहानियों में प्रेम से भरी पड़ी है, और लोग मर्जी से शादी करने के बाद दुल्हन को लेकर अपने घर पहुंचते रहे हैं। नई पीढ़ी को अपनी मर्जी से जीने का हक देकर ही समाज और देश आगे बढ़ सकते हैं, बच्चों के बालिग हो जाने के बाद भी उन पर अपनी मर्जी थोपकर लोग उन्हें महज गोबर थापने के लायक बना सकते हैं, अगर उन्हें आगे बढऩा है, तो उनको व्यक्तित्व विकास का मौका भी देना होगा। ऐसा न करने वाले समाज अपनी खुद की संभावनाओं से बहुत पिछड़ जाते हैं। योरप का नार्वे जैसा देश अगर खुशी जीवन के पैमाने पर दुनिया में सबसे ऊपर है, तो उससे भी कुछ सीखने की जरूरत है। दुखी नौजवान पीढ़ी वाला देश कभी अपनी पूरी संभावनाओं तक नहीं पहुंच सकता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पश्चिम बंगाल राज्य सरकार और राजभवन के बीच एक अभूतपूर्व और असाधारण तनातनी देख रहा है। राज्यपाल सीवी आनंद बोस ने राज्य पुलिस से राजभवन परिसर छोडक़र चले जाने के लिए कहा है, लेकिन पुलिस अपनी ड्यूटी पर जमी हुई है। इसकी शुरूआत अभी बंगाल में चुनावी-हिंसा के शिकार लोगों के राजभवन आने के मुद्दे पर हुई, जिन्हें राज्यपाल ने आने की लिखित इजाजत दी थी, लेकिन राजभवन पर तैनात पुलिस ने वहां लागू धारा 144 का हवाला देकर लोगों को आने देने से मना कर दिया। इस पर राजभवन की ओर से पुलिस से गेट पर उनकी चौकी खाली करके जाने के लिए कहा गया, लेकिन वहां तैनात पुलिसवालों ने अपने अफसरों के हुक्म बिना ड्यूटी छोडऩे से मना कर दिया। राज्यपाल पुलिस चौकी की जगह पर ही लोगों से मिलने-जुलने के लिए एक जनमंच बनाना चाहते हैं, लेकिन पुलिस के बने रहने से वह काम नहीं हो पाया। राज्यपाल की निजी सुरक्षा सीआरपीएफ की ओर से जेड कैटेगरी की है, और कोलकाता पुलिस सिर्फ बाहरी हिफाजत का इंतजाम करती है। राज्यपाल बोस के साथ सरकार की तनातनी का खासा अरसा हो चुका है जब राजभवन की एक महिला कर्मचारी ने उनकी पर यौनशोषण का आरोप लगाया, और उसकी एफआईआर पर कोलकाता पुलिस ने राजभवन के कुछ कर्मचारियों को गवाही के लिए बुलाया। राज्यपाल ने वहां के सभी कर्मचारियों को मना कर दिया कि उनमें से कोई भी गवाही देने न जाएं। इसके साथ-साथ राज्यपाल ने उन पर आरोप लगाने वाली महिला कर्मचारी के खिलाफ चुनिंदा मीडिया को इकट्ठा करके उन्हें राजभवन के ऐसी सीसीटीवी रिकॉर्डिंग दिखाई जिनमें शिकायतकर्ता महिला की पहचान भी उजागर हो रही है। अब राज्यपाल और राष्ट्रपति को किसी भी शिकायत के खिलाफ एक संवैधानिक हिफाजत मिली हुई है, इसलिए वे उस कवज के पीछे से उस महिला पर हमला करते रहे, और बचे भी रहे। लेकिन बीते दस से अधिक बरसों से हम देख रहे हैं, मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी का हर राज्यपाल से एक टकराव चलते रहता है, और यह सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं लेता।
भारत जैसे संघीय गणराज्य में केंद्र और राज्यों के बीच एक अनिवार्य संबंध रहते हैं, जिनके बिना काम चल नहीं सकता। और ऐसे संबंधों में राज्यपाल नाम का एक संवैधानिक पद केंद्र सरकार के राजनीतिक एजेंट की तरह राज्य की पीठ पर सवार रहता है। इसे केंद्र की मर्जी से नियुक्त किया जाता है और कभी भी हटाया जा सकता है। सुविधाओं से भरी इस कुर्सी पर बने रहने के लिए पहले से छांटे गए पूरी तरह वफादार लोग आमतौर पर विपक्षी राज्य सरकार का जीना हराम किए रहते हैं, और महाराष्ट्र इसकी एक ताजा मिसाल है जहां पर राज्यपाल पार्टी तोडऩे के लिए हथौड़े की तरह इस्तेमाल होते रहे। देश में तकरीबन तमाम राज्यपाल केंद्र सरकार के भाड़े के हत्यारे की तरह राज्य में संवैधानिक व्यवस्था और लोकतंत्र खत्म करने के लिए मानो सुपारी लेकर आते हैं। राज्य में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना, केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के राज्य-प्रमुख की तरह काम करना, और सरकार को घेरे रखना, यही राज्यपाल का बुनियादी काम रह गया है। हम बहुत पहले से यह बात लिखते आ रहे हैं कि राजभवन नाम की यह संस्था भारत की गरीब जनता की छाती पर राजनीतिक साजिश करने वाले भूतपूर्व नेताओं के पुनर्वास के लिए नहीं चलानी चाहिए। राजभवन खत्म कर देने चाहिए, और इसका कोई आसान, किफायती, लोकतांत्रिक विकल्प ढूंढ लेना चाहिए ताकि देश में संविधान के नाम पर लोकतंत्र खत्म करने का सिलसिला न चले।
भारत में हाल के दशकों में किसी निर्वाचित राज्य सरकार को भंग करके राष्ट्रपति शासन लगाना बंद हो चुका है। देश की सबसे अलोकतांत्रिक पार्टियां भी ऐसी कार्रवाई की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं, जबकि कुछ राज्य सरकारें ऐसी नौबत के कगार तक पहुंच चुकी हैं। जब ऐसी व्यवस्था की आमतौर पर कोई जरूरत नहीं है, तो राज्यपाल खत्म करने की जरूरत है, ताकि उसके कंधों पर बंदूक रखकर केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी जंग न चलाती रहें। पश्चिम बंगाल में दोनों तरफ का यह टकराव इस नई सदी की सबसे गंभीर मिसाल है। इसका अध्ययन करके देश में एक बेहतर लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था बनाने की जरूरत है ताकि केंद्र और राज्य के संबंध इस दर्जे की दुश्मनी तक न पहुंचे। राज्यपाल को बनाया इसीलिए गया था कि वे इन दोनों के बीच तालमेल बनाए रखेंगे, लेकिन वे हवन करवा रहे किसी पंडित की तरह आग में घी डालने का काम कर रहे हैं, और लोकतंत्र में इसकी कोई न तो जरूरत है, न ही गुंजाइश।
पिछले कुछ महीनों में हिंदुस्तान के उत्तराखंड राज्य पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की वजह से कई-कई दिनों का ट्रैफिक जाम रहा। और यह तो जाहिर है कि जब इतनी गाडिय़ां सडक़ों पर एक-दूसरे से सटी हुई भर गई थीं, तो इनसे वहां प्रदूषण भी हुआ होगा, और स्थानीय लोगों को अगर पहाड़ों से नीचे आना है, तो उसमें भी भारी दिक्कत हुई होगी। खबरें तो बताती हैं कि ट्रैफिक जाम में फंसे-फंसे कई लोगों की मौत भी हो गई, अगर देव-दर्शन नहीं हुए, तो भी ऊपर जाकर सीधे ईश्वर के दर्शन हो गए होंगे। हिंदुस्तान में पहाड़ों और समंदर के किनारे की जगहों पर अलग-अलग कुछ खास महीनों में पर्यटकों और तीर्थयात्रियों की बड़ी भीड़ लगती है, और सार्वजनिक और कारोबारी, हर तरह की सुविधाएं दम तोड़ देती हैं। फिर धार्मिक तीर्थ कुछ खास महीनों में और खास तिथियों-तारीखों पर अधिक होते हैं, इसलिए उन गिने-चुने दिनों पर अंधाधुंध लोग जुटते हैं। ऐसे में भीड़ की भगदड़ में हिंदुस्तान में हिंदू तीर्थों से लेकर सऊदी अरब में हज यात्रियों की भगदड़ तक बड़ी संख्या में मौतें दर्ज होती हैं।
अब दुनिया भर से खबरें आ रही हैं कि किस तरह कुछ खास जगहों पर पहुंचने वाले लोगों की बेकाबू भीड़ से स्थानीय लोग इस हद तक थक गए हैं कि वे अब पर्यटकों का विरोध करने लगे हैं। कई जगहों पर पर्यटकों पर टैक्स लगाया जा रहा है ताकि उनकी भीड़ कुछ कम की जा सके। इटली के बीच रोम में बसे वैटिकन में, और इटली के नहरों वाले शहर वेनिस में ऐसी ही अंधाधुंध भीड़ रहती है। लेकिन शहरों से परे भी कई ऐसी जगहें हैं जहां पर गांव-जंगल में रहने वाले लोग भी पर्यटकों की भीड़ से, उनके बर्ताव से परेशान हो जाते हैं। पिछले एक दशक से एक शब्द का चलन लगातार बढ़ रहा है, ओवरटूरिज्म, और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कई चुनिंदा जगहें इसे भुगत रही हैं। यह एक अलग बात है कि पर्यटक अपने साथ अर्थव्यवस्था में बढ़ोत्तरी भी लेकर आते हैं, होटल, टैक्सी, बस, रेस्त्रां, और सामानों की बिक्री से स्थानीय अर्थव्यवस्था खूब बढ़ती है। हिंदुस्तान के उत्तराखंड और हिमाचल, कश्मीर और दार्जिलिंग जैसी पहाड़ी इलाके मोटे तौर पर पर्यटन-अर्थव्यवस्था पर ही चलते हैं, और यही वजह है कि सरकारों से लेकर कारोबारियों तक कोई भी पर्यटन और तीर्थ की भीड़ में कटौती नहीं चाहते। हालत यह है कि ऐसी बढ़ती हुई भीड़ के लिए जिस तरह के कानूनी और गैरकानूनी निर्माण बढ़ते चल रहे हैं, उनसे पहाड़ों का ढांचा कमजोर होते जा रहा है।
एक दूसरी बात जो भारत में गंभीरता से नहीं ली जाती, बाहर से आने वाले जो पर्यटक अधिक लापरवाह और अराजक होते हैं, उनकी बड़ी भीड़ स्थानीय जीवनशैली और संस्कृति को भी खराब करती है। कहीं पर नशे का कारोबार बढऩे लगता है, कहीं देह का कारोबार। पर्यटकों की अंधाधुंध खपत से स्थानीय पर्यावरण की बर्बादी होती है, और इन दिनों एवरेस्ट से कचरा और इंसानी पखाना उतारने का एक अभियान चल रहा है जिसे पर्वतारोही ऊपर छोड़ आते हैं। फिर दुनिया में आदिवासी इलाकों में बहुत सी ऐसी अनछुई जगहें हैं जहां संवेदनाशून्य पर्यटकों की भीड़ स्थानीय लोगों की भावनाओं को भी चोट पहुंचाती है। कई बार रोजगार और कारोबार की मजबूरी में लोग ऐसी दखल को बर्दाश्त भी कर लेते हैं, लेकिन इनसे लंबा नुकसान होता है। दुनिया का कारोबार पर्यटन और तीर्थयात्रा को बहुत हमलावर तरीके से आगे बढ़ाता है, और सरकारें भी इसे अनदेखा करती हैं। अब नौबत यह आ गई है कि पहाड़ या समंदर, तीर्थ या प्राकृतिक जगहों पर पहुंचने वाली भीड़ से टैक्स लिया जाना चाहिए। जब लोग दूर-दूर से ऐसी जगहों तक पहुंच सकते हैं, उसका खर्च उठा सकते हैं, तो फिर उन्हें स्थानीय विकास और संरक्षण के लिए एक टैक्स और देना चाहिए। लोग यह भी कह सकते हैं कि तीर्थयात्री और पर्यटक हर स्थानीय खरीदी या सहूलियत पर तरह-तरह का टैक्स देते ही हैं, लेकिन साल जो महीने अधिक भीड़ के रहते हैं, उन महीनों में बोझ घटाने के लिए तब तक टैक्स लगाना और बढ़ाना चाहिए जब तक आने वाले लोगों का एक संतुलन कायम न हो जाए। आज पर्यटन कारोबार के नाम पर हर ऐसे प्रदेश में तरह-तरह के गैरकानूनी निर्माण होते चल रहे हैं, और उनसे स्थानीय पर्यावरण हमेशा के लिए बर्बाद हो रहा है। हर पर्यटन-प्रदेश को सहूलियतों को बढ़ाने से पहले उनके असर का भी अंदाज लगा लेना चाहिए।
एक और काम जो हो सकता है, वह नए पर्यटन केंद्रों को विकसित करने का है। हर देश-प्रदेश में कई जगहें अभी तक चलन में नहीं आई होंगी, उन जगहों तक साफ-सुथरा पर्यटन विकसित किया जाना चाहिए, ताकि मौजूदा जगहों पर से बोझ कुछ कम हो सके। सरकारों के सामने रोजगार, और बाजार के सामने कारोबार की प्राथमिकता भी रहती है, और इनके बीच पर्यावरण और आदिवासी-ग्रामीण जीवन के जानकार लोगों की विशेषज्ञता का भी इस्तेमाल करना चाहिए। हमने दस-ग्यारह बस पहले केदारनाथ में विकराल बाढ़ का एक नजारा देखा था, उसे भूलना नहीं चाहिए, और धरती और कुदरत से छेडख़ानी से बचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक में एक नाबालिग ने भूतपूर्व मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा पर छेड़छाड़ या देह शोषण का आरोप लगाया था जिस पर वर्तमान कांग्रेस सरकार ने जांच शुरू की है। हाईकोर्ट ने पुलिस को येदियुरप्पा की गिरफ्तारी न करने को कहा है। इसके पहले बेंगलुरू की एक स्थानीय अदालत ने येदियुरप्पा के खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी किया था जिस पर अभी हाईकोर्ट ने रोक लगाते हुए कहा है कि येदियुरप्पा कोई एैरा-गैरा नत्थू खैरा (टॉम, डिक, या हैरी) नहीं हैं, न ही वे डाकू हैं, वे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हैं, क्या वे फरार होंगे? हाईकोर्ट जज ने कहा कि अगर भूतपूर्व मुख्यमंत्री के साथ ऐसा बर्ताव हो रहा है, तो आम आदमी के साथ क्या हो रहा होगा? अदालत ने कहा कि चार-पांच दिनों में कौन सा आसमान टूट पड़ेगा?
हम येदियुरप्पा के खिलाफ एक नाबालिग लडक़ी की यौन शोषण की शिकायत पर अभी नहीं जा रहे, लेकिन हम अदालत के रूख पर लिखना चाहते हैं जिसने एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते येदियुरप्पा को यह रियायत दी है कि वे अपनी मर्जी से कुछ दिन बाद पुलिस के सामने पेश हों, और पुलिस तब तक गिरफ्तारी न करे। क्या किसी मामले में किसी के भूतपूर्व मुख्यमंत्री होने से उसे ऐसी राहत मिलनी चाहिए जो कि आम लोगों को नसीब नहीं होती है। आम लोगों की तो जमानत की अर्जी भी इस तेजी से अदालत के सामने नहीं पहुंच पाती। जाहिर तौर पर हिन्दुस्तानी अदालतों में बड़े लोगों की अर्जियों पर तेज रफ्तार सुनवाई होती है, इसकी एक वजह शायद यह भी है कि ऐसे लोग महंगे वकील कर पाते हैं जिनके नाम का दबदबा भी अदालत पर रहता है। अब विजय माल्या, जो कि देश का एक सबसे बड़ा बैंक डिफाल्टर है, वह भी एक समय राज्यसभा सदस्य था, और इसके बाद वह देश छोडक़र फरार हुआ जबकि उसकी अरबों की दौलत भी हिन्दुस्तान में पड़ी हुई है, और वह बड़ी ऊंची सामाजिक जिंदगी भी जीता था। शायद वह इसी बेंगलुरू शहर में रहता था जिसमें आज येदियुरप्पा रहते हैं। इसलिए हम इस बात को तो बिल्कुल नहीं मानते कि किसी ओहदे पर एक बार बैठ चुका व्यक्ति फरार होने जैसा काम नहीं कर सकता। इसके बाद अगर जांच एजेंसियों के काम में अदालती दखल किसी के भूतपूर्व मुख्यमंत्री होने की वजह से हो रही है, तो क्या पाक्सो जैसे मामले में किसी ओहदे को कोई रियायत मिल सकती है?
कुछ हफ्ते पहले जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट जजों ने मतदान तक के लिए जमानत दे दी थी कि देश में आम चुनाव हैं, और एक राष्ट्रीय पार्टी के नेता, और एक राज्य के मुख्यमंत्री को ऐसे में जेल में रखना ठीक नहीं है, उस वक्त भी हमने आम और खास के बीच अदालती नजरिए के फर्क की बात उठाई थी, और उसकी आलोचना की थी। कल ही लखनऊ से खबर है कि बसपा के एक भूतपूर्व विधायक की 44 सौ 40 करोड़ की जायदाद ईडी ने जब्त कर ली है। यह पूरी दौलत काली कमाई से जुटाने का आरोप लगा है, और ऐसी आशंका जताई जा रही है कि यह भूतपूर्व विधायक मोहम्मद हाजी इकबाल फरार होकर शायद दुबई चले गया है। इसलिए नेताओं का, बड़े अफसरों का कानून से दूर भागना कोई दुर्लभ घटना नहीं है। अगर हिन्दुस्तानी अदालतें यह सोचती हैं कि कुछ ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हुए लोग कभी फरार नहीं होंगे, लेकिन गरीब-मजदूर, या फुटपाथी कारोबारी फरार हो जाएंगे, तो यह संपन्न तबके की सोच का एक सुबूत है, और यह सोच खत्म होनी चाहिए। इंसाफ की अदालतों को तो कम से कम सोच का इंसाफ बरतना चाहिए। वैसे भी लोगों का भरोसा पुलिस जैसी जांच एजेंसी, ईडी और सीबीआई सरीखी केन्द्रीय एजेंसी, और अदालतों पर नहीं सरीखा है। आम जनता मानती है कि इंसाफ की प्रक्रिया में जगह-जगह रिश्वत और भ्रष्टाचार, और ताकत के इस्तेमाल को देखा जा सकता है, और बड़े मुजरिमों को सजा होने की गुंजाइश न बराबर होती है। लोकतंत्र की अलग-अलग शाखाओं, और अदालत की ऐसी साख ठीक नहीं है, और जजों को अगर यह लगता भी है कि किसी व्यक्ति को जमानत दी जानी है, या उसकी गिरफ्तारी पर रोक लगानी है, तो ऐसा आदेश देना अदालत का विशेषाधिकार रहता है, और इसे कटघरे में खड़े, या आरोपों से घिरे किसी व्यक्ति के ओहदे से जोडक़र बखान नहीं करना चाहिए। महज फरार हो जाना ही नहीं, दूसरे भी जितने किस्म के जुर्म हो सकते हैं, कोई भी नेता उन्हें करने में पर्याप्त सक्षम रहते हैं, इसलिए अदालत को रियायत देनी हो, तो किसी और पैमाने पर करना चाहिए। अदालत को नामी-गिरामी लोगों के मामले आधी रात अपने बंगलों पर सुनना भी बंद करना चाहिए। किसी एम्बुलेंस ड्राइवर या दमकल ड्राइवर का मामला हो तो भी समझ में आता है कि उसे आधी रात को जमानत देना जरूरी है, लेकिन जब किसी टीवी चैनल के मालिक के लिए सुप्रीम कोर्ट आधी रात अपने बंगले पर सुनवाई करती है तो लोगों में अदालत के प्रति भरोसा खत्म हो जाता है, सिर्फ ताकतवर और अतिसंपन्न लोग अपने बहुत महंगे वकीलों, और जजों पर भरोसा कर सकते हैं। लोकतंत्र में यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारतीय लोकतंत्र में निर्वाचित नेताओं से बनी सरकार, और पूरी कामकाजी जिंदगी के लिए नौकरी पाने वाले बड़े अफसरों के बीच जिम्मेदार और अधिकारों का एक संतुलन रखा गया है। अफसर 25-30 बरस काम करते हैं, और नेता तो हर पांच बरस में आ-जा सकते हैं। जो लोग सरकार के बाहर हैं, और सरकारी कामकाज की बारीकियों को नहीं जानते हैं, उनके लिए यह बता देना ठीक होगा कि सत्तारूढ़ नेताओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे नीतियां बनाएंगे, और फिर उन नीतियों को सरकारी नियम-कायदों के मुताबिक, बजट के भीतर, कार्यक्रमों में ढालने और अमल करने का काम अफसर करते हैं। सरकार की अधिकतर अधिक महत्व की जरूरी फाइलों पर इन दोनों के दस्तखत भी होते हैं, और एक किस्म से इनकी सामूहिक जवाबदेही तय होती है। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ सहित देश के बहुत से प्रदेशों में जब केन्द्रीय या राज्य जांच एजेंसियां भ्रष्टाचार के मामलों के सुबूत जुटाती हैं, तो मंत्री और अफसर दोनों ही गिरफ्तार होते हैं। ऐसे में कुछ मामले इन दोनों के बीच की सीमा रेखा को तोडऩे वाले भी रहते हैं, और नौकरशाह कहे जाने वाले बड़े अफसरों में से कुछ नौकरी छोडक़र राजनीति में भी आते हैं, और प्रशासनिक अधिकारियों से परे विदेश सेवा के, या आईपीएस, आईएफएस अफसर भी राजनीति में हाथ आजमाते दिखते हैं। इनमें से कई भूतपूर्व अफसर राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री जैसे ओहदों पर पहुंचे हुए हैं, और वे इन दोनों ही किरदारों में कामयाब हुए हैं।
आज इस बारे में चर्चा का एक खास मकसद है। ओडिशा में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी ने तकरीबन चौथाई सदी तक सत्ता पर काबिज रहने के बाद अब जनता के हाथों बिदाई हासिल की है। और लोकसभा चुनाव में इस सत्तारूढ़ पार्टी को 21 में से एक भी सीट नहीं मिली, जबकि उसने पिछले लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीती थीं। और राज्य विधानसभा के साथ-साथ हुए चुनावों में भी सत्तारूढ़ पार्टी बुरी तरह से निपट गई, और उसकी सीटें 117 से घटकर 51 रह गईं, और 78 सीटों के साथ भाजपा ने वहां सरकार बना ली। इस पूरे पतन की सबसे बड़ी तोहमत मुख्यमंत्री के पसंदीदा रहे आईएएस अफसर वी.के.पांडियन पर लग रही है जो दस बरस से मुख्यमंत्री के करीब तैनात थे, और चर्चा यह है कि वे ही सारा शासन चलाते थे। अब पिछले ही बरस उन्होंने नौकरी छोड़ी थी, और औपचारिक रूप से वे बीजू जनता दल में शामिल हो गए थे। वे तमिलनाडु के हैं, और आईएएस के रास्ते उन्हें ओडिशा काडर मिला था। यहां लगातार सत्ता को हांकते हुए वे इतने ताकतवर थे, कि उन्होंने सरकार में रहते हुए भी सत्तारूढ़ पार्टी की राजनीति को अपने इर्द-गिर्द रखा, और पिछली नवंबर में आईएएस छोडक़र बीजू जनता दल में आने के बाद कहा जा रहा है कि वे अकेले ही पूरी पार्टी भी चला रहे थे। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एक किस्म से रिटायर हो चुके थे, बस ओहदे पर बैठे थे, और वी.के.पांडियन ही शासन और सत्तारूढ़ पार्टी दोनों चला रहे थे, और अब चर्चा यह हो गई थी कि काफी बुजुर्ग हो चुके नवीन पटनायक इस बार चुनाव जीतने के बाद पांडियन को ही मुख्यमंत्री बना देंगे। नतीजा यह हुआ था कि भाजपा ने ओडिशा में लोकसभा-विधानसभा के एक साथ हो रहे चुनावों में राज्य की अस्मिता का सवाल उठाया था कि ओडिय़ा जुबान न बोलने वाले नवीन पटनायक के बाद अब परदेसिया पांडियन मुख्यमंत्री होंगे, तो क्या इस राज्य में कोई ओडिय़ाभाषी और स्थानीय काबिल माटी संतान है ही नहीं? यह बात जोर पकड़ती चली गई, और सरकार के खिलाफ कोई नाराजगी न रहने पर भी लोगों ने राज्य और केन्द्र दोनों के चुनावों में बीजू जनता दल को निपटा दिया।
ऐसा कुछ और जगहों पर भी हुआ है जहां पर बड़े अफसरों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागी, और उन्होंने नौकरी छोडक़र चुनाव लडऩा, या अजीत जोगी की तरह राज्यसभा के रास्ते राजनीति में आना तय किया। बड़ी नौकरियों से राजनीति में आने वाले बहुत कम भी नहीं हैं, और तकरीबन हर प्रदेश में ऐसी कुछ मिसालें मिल जाएंगी। ऐसे में एक सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या किसी मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री को राजनीतिक फैसलों के लिए अफसरों का इस हद तक मोहताज होना चाहिए, या अफसरों को इस हद तक सिर पर चढ़ाना चाहिए? सरकार के आम सरकारी कामकाज में तो अफसरों की जगह और उनकी अहमियत हमेशा ही रहती है, और सत्ता के शिखर के बिल्कुल इर्द-गिर्द लगातार काम करते हुए कई अफसर सरकारी और राजनीतिक दायरों के बीच की सीमा रेखा को भूल जाते हैं। अपने राजनीतिक मुखिया के प्रति वफादारी से काम करते हुए वे पहले तो पर्दे के पीछे से, और फिर धीरे-धीरे पर्दे के सामने भी सरकारी नौकरी की सीमाओं को लांघने लगते हैं। ऐसा होने पर सत्तारूढ़ पार्टी का बड़ा नुकसान होता है, और उसमें नौकरशाहों से घिरे हुए राजनेता जमीनी हकीकत देख नहीं पाते, और चुनाव में निपट जाते हैं। ऐसे नेताओं को अपने बेहतर दिनों में यह लगने लगता है कि उनके भरोसेमंद और सबसे करीबी अफसर पार्टी के नेताओं के मुकाबले उनके प्रति अधिक वफादार हैं, और अधिक काबिल भी हैं, और इसलिए वे अपने नेताओं के मुकाबले अपने अफसरों को अधिक अहमियत देने लगते हैं। यहीं से राज्य की लीडरशिप का अपनी जड़ों से कटना शुरू हो जाता है, क्योंकि अफसर चाहे कितने ही काबिल क्यों न हों, वे लोकतांत्रिक राजनीति की जड़ नहीं हो सकते, उसकी डाल हो सकते हैं, पत्ते और फूल हो सकते हैं, और अधिक ताकतवर हो जाने पर वे कांटे भी बन सकते हैं, जैसा कि ओडिशा में पांडियन के साथ हुआ।
भारत विविधताओं से भरा हुआ ऐसा गजब का देश है जहां अगर कोई नेता या अफसर दूसरों की गलतियों से कुछ सीखना चाहे, तो उसके सामने खूब सारी मिसालें रहती हैं। जेलों में बंद अफसर और नेता रहते हैं, बहुत काबिल और कामयाब, या पूरी तरह से डूब चुके नेता रहते हैं, और हर पांच बरस के चुनाव में सत्ता को अपने चहेते लोगों की वजह से मिलती जीत-हार से भी अंदाज लगते चलता है। हमारा मानना है कि केन्द्र और राज्यों में, या स्थानीय निकायों में भी नेता और अफसर एक-दूसरे को लगातार परख सकते हैं, अच्छा और बुरा तौल सकते हैं, और अपना भविष्य तय कर सकते हैं। दिक्कत वहां हो रही है जहां पर अफसर और नेता मिलकर एक संगठित अपराधी गिरोह की तरह भ्रष्टाचार में जुट जाते हैं, और जुर्म की भागीदारी फर्म चलाने लगते हैं। देश के बहुत से प्रदेशों में नेता और अफसर कहीं अकेले तो कहीं एक साथ जेलों में बंद हैं।
इससे परे भी इस मुद्दे पर हमारी यह सोच साफ है कि आमतौर पर अफसर नेताओं के मुकाबले तेज रहते हैं। उन्हें अंदाज रहता है कि नेता की उंगलियां जनता की नब्ज पर हो सकती हैं, लेकिन सरकार चलाने के मामले में नेता को अफसर पर निर्भर करना पड़ता है। इसलिए जब सत्तारूढ़ नेता को टेंडर-ठेका, और ट्रांसफर-पोस्टिंग का लहू मुंह लग जाता है, तो वे नीतियां और कार्यक्रम बनाने का काम भी अफसरों पर छोड़ देते हैं। दूसरी तरफ अफसरों को यह पता होता है कि नेता किन-किन कामों में कमाई कर रहे हैं, और उनमें अफसरों की भागीदारी हो ही जाती है। इसका एक ही इलाज हमको दिखता है कि राजनीतिक दल अगर अपने नेताओं को कार्यकर्ता के स्तर से ही लोकतंत्र, संविधान, और सरकारी कामकाज का शिक्षण-प्रशिक्षण देते चलेंगे, तो अफसर सत्तारूढ़ निर्वाचित नेताओं को बरगला नहीं सकेंगे। आज अधिकतर नेता शासकीय कामकाज की सीमाओं और संभावनाओं से अनजान हाल में ही सत्ता पर पहुंचते हैं, और कमाई की अपनी हड़बड़-हसरत के चलते वे तुरंत ही अफसरों के साथ भागीदारी कायम कर लेते हैं।
ओडिशा का मामला इससे थोड़ा सा अलग था, लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि कोई अफसर काबिल कितना भी हो, उसे अगर नेता अपनी पार्टी के दूसरे नेताओं का बेहतर विकल्प मानने लगे, तो उससे तबाही तय रहती है, फिर चाहे वह कुछ धीमी रफ्तार से आए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने एक विवादास्पद फिल्म, हमारे बारह, पर तब तक के लिए रोक लगा दी है जब तक बाम्बे हाईकोर्ट इस फिल्म के खिलाफ वहां चल रही एक याचिका का निपटारा न कर ले। यह फिल्म आज 14 जून को रिलीज होने वाली थी, और इसके खिलाफ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हुए मुस्लिम याचिकाकर्ताओं ने यह कहा है कि इससे इस्लामिक आस्था, और भारत में विवाहित मुस्लिम महिलाओं के प्रति अपमानजनक टिप्पणियां की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस विक्रमनाथ, और जस्टिस संदीप मेहता की अवकाश-पीठ ने हाईकोर्ट के एक आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर यह फैसला दिया है जिसमें हाईकोर्ट ने फिल्म की रिलीज को इजाजत दे दी थी। सुप्रीम कोर्ट जजों का कहना है कि उन्होंने इस फिल्म का टीजर (ट्रेलर) देखा, और पाया कि इसमें सभी आपत्तिजनक सामग्री है। जजों ने कहा कि वे फिल्म सेंसर बोर्ड को इसके लिए कोई कमेटी बनाने का निर्देश नहीं दे सकते क्योंकि सेंसर बोर्ड तो खुद ही इस मामले में एक पक्ष है।
हम इस फिल्म को देखे बिना, और इसकी खूबियों या खामियों पर कोई टिप्पणी किए बिना इस नए सिलसिले के बारे में कहना चाहते हैं कि किस तरह पिछले कुछ बरसों में लगातार देश के इतिहास के कुछ उन पहलुओं पर केन्द्रित फिल्में और टीवी सीरियल लगातार बन रहे हैं, जिनसे किसी एक धर्म के लोगों को नीचा दिखाया जा सकता हो। चूंकि आम जनता इतिहास को न बारीकी से पढ़ती है, न सतही तौर पर पढ़ती है, इसलिए अपने आपको पढ़ा-लिखा मानने वाले लोग भी आजादी के बाद के हिन्दुस्तान के इतिहास पर बनी हुई दर्जन-दो दर्जन फिल्मों को खरा इतिहास मान लेते हैं, और सिनेमाघर से या घर के सोफे पर से एक बड़ा कड़ा पूर्वाग्रह लेकर उठते हैं। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, और गांधी से लेकर गोडसे तक, इतिहास के अनगिनत पन्नों पर लगातार ऐसी फिल्में बन रही हैं जिन्हें देश का एक तबका इतिहास की हकीकत या हकीकत का इतिहास करार देने पर आमादा रहता है। इनका इस्तेमाल आमतौर पर चुनावों के साथ-साथ किया जाता है ताकि देश में धर्म और जाति के नाम पर जो चुनावी एजेंडा खड़ा किया जा रहा है, उसमें ऐसी फिल्मों से साज-सज्जा हो सके।
वैसे तो इस बात में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए क्योंकि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी एक विकसित और परिपक्व लोकतंत्र रहता है वह ऐतिहासिक या धार्मिक तथ्यों के साथ भी एक कलात्मक खिलवाड़ का लचीलापन देता है। तमाम विकसित देशों में समय-समय पर इतिहास या वर्तमान की हकीकत पर आधारित काल्पनिक और कलात्मक रचनात्मकता को लेकर विवाद खड़े होते रहते हैं, फिल्मों को लेकर भी, किताबों, और तस्वीरों को लेकर भी, और कार्टून को लेकर भी। अभी ताजा इतिहास ही बताता है कि किस तरह कुछ कार्टून को लेकर इस्लामी आतंकी संगठनों ने योरप के देशों में बड़े हमले किए, और बड़ी संख्या में लोगों को मार डाला। विख्यात लेखक सलमान रुश्दी पर हुए जानलेवा हमले का मामला तो अभी पिछले ही बरस का है जब मंच पर उन पर हमला हुआ, मुश्किल से जान बची, और एक आंख चली गई। इन सब चीजों के बावजूद विकसित लोकतंत्र ऐसी कलात्मक अभिव्यक्ति पर कोई रोक नहीं लगाते, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा हक देते हैं, पूरी हिफाजत देते हैं, और धमकियों से निपटते हैं। लेकिन अमरीका और योरप के देशों में अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता तमाम पहलुओं को हासिल रहती है, और फिर यह नहीं होता कि एक धर्म के लोग तो दूसरे धर्म की किस्सा-कहानियां गढ़ते हुए उनका मखौल उड़ाते रहें, और अपने धर्म के चरित्रों पर बनी पेंटिंग्स को लेकर किसी कलाकार को देश के बाहर मरने पर मजबूर करें। हिन्दुस्तान के साथ दिक्कत यह है कि अल्पसंख्यक तबके की भावनाओं को कुचलने लायक मान लिया गया है, और बहुसंख्यक तबका अपनी भावनाओं के आहत होने की शिकायत करने को स्थायी रूप से तैयार खड़ा रहता है। अगर अभिव्यक्ति की आजादी स्थापित करनी है, तो फिर इतिहास तो हर किस्म की कहानी मुहैया कराने के लिए तैयार खड़ा है।
आज हिन्दुस्तान का धार्मिक ध्रुवीकरण इस कगार पर पहुंच गया है कि बहुसंख्यक तबके में एक आक्रामक पूर्वाग्रह पैदा करने और मजबूत करने के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। फिल्म निर्माता कंपनियों से लेकर टीवी सीरियल बनाने वाली कंपनियों तक का समर्पण देखने लायक है, और जनता के बीच जागरूकता का स्तर बड़ा कम होने, और पूर्वाग्रह की बाढ़ का स्तर खतरे के निशान के ऊपर तक रहने की वजह से एक राजनीतिक एजेंडा को इतिहास, संस्कृति, कुछ भी बताकर पेश किया जा सकता है, और जब जनता का इतिहास का ज्ञान वॉट्सऐप पर तैरती दुर्भावना से मिलता है, तो फिर ऐसी फिल्में और ऐसे सीरियल उस जनता को पूर्वाग्रह और नफरत के, एक झूठे आत्मगौरव के और ऊंचे दर्जे का शिकार बना देते हैं।
लोकतंत्र के साथ दिक्कत यह है कि यह एक ऐसी लचीली व्यवस्था है कि यह जुर्म साबित होने के पहले तक लोगों को मनमाना कहने, और मनमाना करने की छूट देता है। इसका फायदा उठाते हुए हिन्दुस्तान में नफरत और पूर्वाग्रह दोनों की फसल इतनी बोई जा रही है कि वह ज्ञान और समझ से मूढ़ तबके के बंजर दिमाग में भी लहलहा रही है। इसका कोई आसान इलाज हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था में दिखता नहीं है। देखें यह सिलसिला कहां तक पहुंचता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के किसी एक दिन के अखबार उठाकर देखें तो समझ पड़ता है कि सरकार का ढांचा कितना जर्जर है। जगह-जगह अस्पतालों में मशीनें खराब हैं, जांच के लिए जरूरी केमिकल-किट नहीं हैं, कहीं ऑक्सीजन प्लांट बंद है, कहीं स्कूल-कॉलेज की छत गिर रही है, सडक़ें अंधेरी पड़ी हैं, रजिस्ट्री ऑफिस में पैर रखने की जगह नहीं है, और सरकार को टैक्स में लाखों रूपए देने के लिए खड़े हुए लोग मानो किसी ट्रेन के आम डिब्बे में कैटल-क्लास की तरह खड़े हुए हैं। सरकारी दफ्तरों के सर्वर डाउन हैं, वहां पहुंचने वालों को लोग नहीं मिलते, सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर वक्त पर नहीं हैं, स्कूल शिक्षक गांव के किसी बेरोजगार लडक़े को क्लास चलाने का ठेका दे चुके हैं, अस्पताल सरकार से बेईमानी कर रहे हैं, निजी स्कूलें नामौजूद छात्रों की फीस सरकार से ले रही है। कुल मिलाकर सरकार से जुड़े हुए किसी भी काम को देखें, तो उसमें गड्ढा दिखता है। और यह कोई इस सरकार के छह महीने का हाल नहीं है, यह हाल राज्य बना है तब से, और अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से चले आ रहा है।
सरकारें नई योजनाओं की घोषणाओं में आगे रहती हैं, लेकिन जो रोज का काम ठीक से चलना चाहिए, उसके सही तरीके से चलने पर कोई वाहवाही नहीं मिलती, इसलिए नई-नई योजनाओं की शोहरत सत्ता को अधिक जरूरी लगती है, और रोजाना के कामकाज की बदहाली पर किसी का ध्यान नहीं जाता। अब तो पूरे देश में आम चुनाव निपट गया है, और अब आम जनता को निपटाने की नौबत वाली सरकारी व्यवस्था को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। आम कामकाज को पटरी पर चलाने से नेताओं को सुर्खियां नहीं मिलतीं, अफसर नेताओं को इन्हें अपनी खूबी की तरह नहीं दिखा पाते। इसलिए सत्ता से जुड़े हर किसी की पहली कोशिश यह होती है कि कोई अनोखी और मौलिक योजना लागू की जाए, जिसके साथ उनका नाम ताजमहल बनवाने वाले शाहजहां की तरह दर्ज हो जाए। ताजमहल से रोज की खून की जांच नहीं होती, रोज का राशन नहीं मिलता, गैस सिलेंडर की वक्त पर डिलिवरी नहीं होती, लेकिन दुनिया में वाहवाही ताजमहल की होती है। कोई देशी-विदेशी सैलानी यह नहीं पूछते कि शाहजहां के राज में इलाज समय पर मिलता था या नहीं, राशन कार्ड बनता था या नहीं।
वैसे तो सांसद से लेकर विधायक तक, पार्षद से लेकर पंच तक, हर इलाके में एक से अधिक निर्वाचित जनप्रतिनिधि रहते हैं, जिनकी दिलचस्पी रहे, जो सक्रिय रहें, तो हर छोटी-छोटी चूक दुरुस्त करने की कोशिश हो सकती है। लेकिन वक्त इतना खराब आ गया है कि स्थायी सरकारी कर्मचारी-अधिकारी से लेकर पांच बरस वाले निर्वाचित जनप्रतिनिधि तक आमतौर पर कमाई करने में जुट जाते हैं, और यह कमाई सरकारी काम में लापरवाही, गड़बड़ी से ही हो पाती है। कहीं जनप्रतिनिधि सीधे कमीशन लेने लगते हैं, कहीं वे सरकारी अफसरों की तैनाती में रकम ले लेते हैं, और फिर बाद में वे अफसर कमाई करके पूंजीनिवेश वापिस वसूलते हैं। अभी कुछ हद तक अखबार ही ऐसे हैं जो कि इन मामलों को उजागर करते हैं, और उससे पता चलता है कि सरकार कोई भी आती-जाती रहे, बदइंतजामी आमतौर पर जारी रहती है।
जब विपक्ष भी एक किस्म से सत्ता के सुख में भागीदार हो जाता है, तो फिर चीजों के सुधरने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। सरकारी अफसर हर बरस एक ही फुटपाथ पर कभी सीमेंट के पत्थर लगा देते हैं, तो कभी उस पर कांक्रीट कर देते हैं, कभी उस पर डामर की सडक़ बना देते हैं, सडक़ें बनती हैं और कुछ दिनों के भीतर उनकी खुदाई शुरू हो जाती हैं। स्थानीय संस्थाओं में जो निर्वाचित लोग रहते हैं, वे भी अगर ईमानदारी से सवाल उठाएं कि सडक़ बनने के कुछ हफ्तों के भीतर पूरी सडक़ को क्यों गहरा खोद दिया गया है, पहले से संबंधित विभागों से क्यों नहीं पूछा गया कि उन्हें पाईप या केबल डालना तो नहीं है, नाली तो नहीं बनानी है? आज धूप में बेहाल लोग चौराहों पर लालबत्तियों में रूक नहीं पा रहे हैं, और पुलिस शामियाना वालों से अपील करके ट्रैफिक रूकने की जगह पर कपड़े की छत लगवा रही है, लेकिन हर लालबत्ती पर ऐसी जगहों के आसपास तेज रफ्तार बढऩे वाले बड़े पेड़ लाकर लगाए जाएं, इतनी मामूली सी सोच भी न अफसर दिखाते, न निर्वाचित स्थानीय नेता दिखाते।
सरकार के खर्च का एक बहुत बड़ा हिस्सा घटिया सामानों की खरीदी में चले जाता है, जिन सहूलियतों के ठेके दिए जाते हैं, उनका ठिकाना नहीं रहता, और जाहिर है कि ऐसे हर काम में सरकार में बैठे लोग मोटी रिश्वत ले लेते हैं। किसी सरकार में किसी विभाग में यह थोड़ा-बहुत कम हो जाता है, और किसी दूसरे विभाग में खासा बढ़ जाता है। भूले-भटके कोई नेता, या कोई अफसर ईमानदार निकल आते हैं, और उनसे काम करवाने में लोगों को परेशानी महसूस होने लगती हैं। बाजार व्यवस्था सरकारी कुर्सियों पर भ्रष्ट लोगों को पसंद करती है जिनसे गलत काम करवाना, स्तरहीन काम करवाना आसान रहता है। सरकारों के साथ एक दिक्कत यह भी रहती है कि एक सरकार में भ्रष्टाचार के जितने तरीके ईजाद कर लिए जाते हैं, अगली सरकार सबसे पहले उन्हीं तरीकों को गोद ले लेती हैं, उसके बाद फिर अपने और बच्चे पैदा करने में भी लग जाती है।
भारत में अब गैरसरकारी सामाजिक संगठन धीरे-धीरे खत्म कर दिए गए हैं, वरना उनमें से कुछ संगठन सरकार की गड़बडिय़ों को उजागर करते थे। अब तो कितनी भी सरकारें आएं, और चली जाएं, भ्रष्ट व्यवस्था के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है। देश के तकरीबन तमाम प्रदेशों का यही हाल दिखता है, लंबी, गहरी, अंधेरी सुरंग के आखिर में कोई रौशनी टिमटिमाते भी नहीं दिखती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार-भाटापारा जिले में सतनामी समाज के एक आंदोलन का विस्तार कलेक्ट्रेट में पहुंचे जुलूस की शक्ल में हुआ, और इस जुलूस के लोगों ने एसपी और कलेक्टर के दफ्तरों सहित दर्जनों गाडिय़ां भी जला डाली, और यह एक अभूतपूर्व दर्जे का तनाव था, जैसा छत्तीसगढ़ के इतिहास में तो कभी हुआ ही नहीं था, देश के इतिहास में भी ऐसी कोई घटना याद नहीं पड़ रही है। इस बीच अब सरकार ने कैमरों की रिकॉर्डिंग देखकर आगजनी, और हिंसा करने वाले लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया है, और अब तक शायद दो सौ लोगों को पकड़ा जा चुका है। कलेक्टर-एसपी को जिले से हटा दिया गया है, और अब सत्ता और विपक्ष दोनों के लोग बलौदाबाजार पहुंच रहे हैं। लेकिन आज की खबरों में बड़ी बात यह है कि सतनामी समाज से ही आए प्रदेश के एक मंत्री दयालदास बघेल ने आरोप लगाया है कि यह घटना कांग्रेस की साजिश का नतीजा है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के विधायक देवेन्द्र यादव, कविता प्राण लहरे, और पूर्व मंत्री गुरू रूद्र कुमार ने भडक़ाऊ भाषण देकर लोगों से उग्र प्रदर्शन करवाया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस चुनावों में हार बर्दाश्त नहीं कर पा रही है, इसलिए सरकार के खिलाफ ऐसी साजिश कर रही है। बलौदाबाजार की इस हिंसा के पीछे सतनामी समाज के उपासना स्थल, जैतखंभ को नुकसान पहुंचाने की न्यायिक जांच की घोषणा की जा चुकी है। और पुलिस भी यह जांच कर रही है कि हजारों लोगों की यह भीड़ क्या आग लगाने की तैयारी से पेट्रोल और दूसरे सामान लेकर आई थी?
अब जब जैतखंभ-मामले की न्यायिक जांच होनी है, उस वक्त सरकार के एक मंत्री अगर विपक्ष कांग्रेस पर साजिश की तोहमत लगाते हैं, तो यह बात पुलिस की जांच को तो प्रभावित करती ही है, न्यायिक जांच के महत्व को अनदेखा भी करती है। यह बात सत्तारूढ़ भाजपा के किसी नेता की तरफ से राजनीतिक बयान की तरह सामने आती, तो भी ठीक रहता, सरकार के मंत्री की तरफ से ऐसा कहने का मतलब सरकार का कहना होता है। एक मंत्री जब इतनी बड़ी घटना को कांग्रेस की साजिश बता रहे हैं, तो सरकार की यह जिम्मेदारी हो जाती है कि इस बात को साबित भी करे। आज जब इतना बड़ा तनाव आया है, और इसके पीछे की वजहें अभी बाकी ही हैं, ऐसे ऐतिहासिक तनाव और नुकसान की भरपाई होनी बाकी ही है, इसके बीच में अगर सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री जांच को कांग्रेस की तरफ मोड़ रहे हैं, तो सरकार को कांग्रेस के ‘गुनाह’ साबित भी करने चाहिए। जहां अभी-अभी प्रदेश का अनुसूचित जाति का सबसे बड़ा तबका अपने धर्मस्थल को लेकर इतने बड़े तनाव से गुजरा है वहां पर बिना सुबूतों के इतनी बड़ी तोहमत नहीं लगानी चाहिए, जिसमें दो नाम तो विधायकों के ही हैं। ऐसा नहीं है कि हम विधायकों को साजिश या जुर्म करने से परे का मानते हैं। अब देश में यह साबित हो चुका है कि सांसद और विधायक कत्ल से लेकर बलात्कार तक तमाम किस्म के जुर्म कर सकते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ के एक संवेदनशील तबके में जब धर्मस्थल के अपमान का आरोप लगाते हुए बेचैनी इतनी बड़ी है कि वह प्रदेश की अपने किस्म की हिंसा में भी तब्दील हो रही है, तब आगजनी की राख से उठते हुए धुएं के बीच शासन के मंत्री का विपक्ष के नेताओं का नाम लेकर साजिश का आरोप आज तनाव को कम करने की कोशिश में नहीं गिनाएगा। किसी भी सरकार को ऐसे व्यापक और गंभीर तनाव के बीच राजनीति नहीं करनी चाहिए, और अगर राजनीतिक बयानबाजी करनी ही है, तो फिर उसे एक तर्कसंगत और न्यायसंगत अंत तक पहुंचाना भी चाहिए, सरकार की ताकत तो अपार रहती है, उसे सामुदायिक हिंसा भडक़ाने के सुबूतों के साथ विपक्ष के ऐसे नेताओं को गिरफ्तार भी करना चाहिए।
हिंसा चाहे किसी भी तबके की तरफ से हो, अगर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, लोगों की जिंदगी खतरे में डाली जा रही है, तो ऐसे लोगों से उनकी संपत्ति बेचकर भी भरपाई करवानी चाहिए। अब तक पुलिस के पास सैकड़ों ऐसे वीडियो जुट गए होंगे जो कि बहुत से चेहरे दिखाते होंगे। इसके अलावा किसी जगह पर किसी एक खास वक्त पर कौन-कौन से मोबाइल इकट्ठा थे, यह निकालना भी पुलिस के लिए बड़ा आसान है। इस रास्ते से भी जांच करके ऐसे हिंसक प्रदर्शन करने वाले, आग लगाने वाले लोगों को पकडऩा चाहिए। एक धर्मस्थल के अपमान का आरोप लगाते हुए यह हिंसा की गई है, और हम इस बारे में कल ही खुलासे से लिख चुके हैं कि हर धर्मस्थल की हिफाजत का काम वहां के भक्तों को खुद करना चाहिए, क्योंकि देश भर में कदम-कदम पर, हर बड़े पेड़ के नीचे कोई न कोई मंदिर है, कोई न कोई प्रतिमा स्थापित है, और इसकी रखवाली सरकार नहीं कर सकती।
कल जिस वक्त यह सब बवाल चल ही रहा था उसी वक्त सरगुजा के मैनपाट की कमलेश्वर में एक शिव मंदिर में प्रतिमा को तोड़ दिया गया है। अब अगर बलौदाबाजार जिले को एक मिसाल माना जाए, तो सरगुजा में भी ऐसा ही तनाव शुरू हो सकता है। सरकार कब तक यही सब करते रहेगी? और अगर पुलिस के मत्थे इस तरह के हिंसक प्रदर्शनों से जूझना, उनकी जांच और कार्रवाई करना डाला जाएगा, तो समाज में दूसरे तरह के जुर्म की जांच होना भी मुमकिन नहीं रह जाएगा। हम अपनी इस बात को दुहरा रहे हैं कि धार्मिक तनाव को कम करने के लिए तमाम असुरक्षित धर्मस्थलों की हिफाजत का काम उन भक्तों को ही करना चाहिए। कुछ संप्रदायों में ऐसा होता भी है कि भाड़े के चौकीदारों के बजाय समाज के ही लोग चौकीदारी भी करते हैं, और बाकी काम भी। राधास्वामी सत्संग व्यास के सैकड़ों एकड़ के अहाते में कोई भी तनख्वाह वाले कर्मचारी नहीं रखे जाते, और हर काम भक्त ही बारी-बारी से करते हैं। अपने ईश्वर या गुरू की सेवा करना किसी भी भक्त के लिए एक महत्वपूर्ण काम हो सकता है, और धर्मस्थलों की चौकीदारी करना भी भक्ति का ही एक हिस्सा रहेगा। इसलिए सरकार को सभी धर्मस्थलों की हिफाजत का काम वहां के स्थानीय भक्तजनों को देना चाहिए।
फिलहाल छत्तीसगढ़ के बारे में हमारा यही कहना है कि अगर इतने संवेदनशील मामले की ऐसी विस्फोटक स्थिति में भी अगर मंत्री कांग्रेस पर साजिश का आरोप लगाते हैं, तो सरकार को उसे साबित जरूर करना चाहिए, और सुबूत जुटाकर ऐसे नेताओं को गिरफ्तार करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी होगी। ऐसे सुबूत न मिलने पर सत्तारूढ़ नेताओं को ऐसे आरोप वापिस लेना चाहिए। साथ-साथ राजनीतिक दलों को यह भी तौलना चाहिए कि कौन सा नेता प्रदेश मंत्रिमंडल में जगह पाना चाहता है, और कौन सा नेता आगे राज्यसभा में जाना चाहता है।
छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार में कल अभूतपूर्व तनाव हुआ। इस राज्य में ही नहीं, देश में भी शायद ही कहीं ऐसा होता होगा कि जिला प्रशासन की सत्ता के प्रतीक, कलेक्टर और एसपी के दफ्तर जला दिए जाएं। अपने धर्मस्थल में हुई तोडफ़ोड़ को लेकर सतनामी समाज तीन हफ्ते से आंदोलन कर रहा था। पुलिस ने कुछ शराबियों को पकडक़र जेल भेजा भी था जो कि पुलिस के मुताबिक इस वारदात के जिम्मेदार थे। लेकिन सतनामी समाज का कहना था कि पुलिस असली गुनहगारों को बचा रही है, और इसी बात को लेकर लगातार आंदोलन चल रहा था जो कि उग्र या हिंसक नहीं था। कल इसी बात पर प्रशासन की अनुमति से एक सभा हो रही थी, और वहां से लोग उत्तेजना में कलेक्ट्रेट पहुंचे, करीब सौ गाडिय़ां जला दीं, और कुछ दफ्तरों को आग लगा दी। तनाव इतना अधिक था कि पुलिस किसी काम की नहीं रह गई, और सब कुछ बेकाबू रहा। अब घटना हो जाने के बाद न्यायिक जांच की घोषणा हो रही है, राज्य शासन बड़े अफसरों को जवाब-तलब कर रहा है, और छत्तीसगढ़ का इतिहास एक बहुत ही खराब हिंसा का नुकसान झेल चुका है। आगजनी और तोडफ़ोड़ के वीडियो देखकर यह समझ नहीं पड़ता है कि ये छत्तीसगढ़ के हैं। अब चारों तरफ से यह कहा जा रहा है कि यह शासन-प्रशासन के खुफिया तंत्र की नाकामयाबी से हुआ है जिसे हजारों की इस भीड़ के उत्तेजित, उग्र, और बेकाबू होने का अंदाज नहीं था, और न ही आसपास के इलाकों से पहुंचने वाले लोगों की उसे खबर थी। ऐसी भयानक नौबत किसी जिला मुख्यालय में किसी धार्मिक संप्रदाय के तनाव में खड़ी हो जाए, यह राज्य की शांति-व्यवस्था का बड़ा नुकसान हुआ है।
इस घटना से कुछ सवाल खड़े होते हैं। भारत में सडक़ किनारे, और खुली सार्वजनिक जगहों पर इतने तरह के धर्मस्थान हैं कि उनकी किसी तरह से चौकसी और हिफाजत मुमकिन नहीं है। हम इस घटना में नुकसान पहुंचाए गए जैतखंभ की बात नहीं कर रहे हैं, इस व्यापक मुद्दे पर लिख रहे हैं कि धर्मस्थानों को लेकर, उनकी और उनसे जुड़े हुए लोगों की आस्था की हिफाजत के लिए क्या किया जाना चाहिए? समाज में जब लोग एक-दूसरे धर्म का अपमान करने के लिए कई किस्म की साजिशें करते हैं, तब पुलिस कितनी हिफाजत कर सकती है? देश में जगह-जगह ऐसी घटनाएं सामने आई हैं कि किसी एक धर्म से जुड़े हुए आक्रामक संगठन के लोगों ने इलाके के पुलिस अफसर को हटाने के लिए वहां पर साम्प्रदायिक दंगा करवाने की नीयत से न सिर्फ गाय काटकर फेंक दीं, बल्कि उनमें किसी मुस्लिम को फंसा भी दिया। ऐसी एक बड़ी घटना का भांडाफोड़ उत्तरप्रदेश में सीएम योगी आदित्यनाथ की पुलिस ने किया है, और उससे कम से कम यह उम्मीद तो की नहीं जाती कि उसने हिन्दुओं को फंसाने के लिए ऐसा किया होगा।
बहुत से मामलों में धर्मस्थलों पर नुकसान पहुंचाने वाले लोग इलाके के मामूली शराबी भी निकले हैं जिन्होंने नशे में तोडफ़ोड़ कर दी थी। अब उन्होंने ने तो नशे में यह कर दिया, लेकिन इसकी तोहमत लोगों ने अपनी-अपनी बदनीयत के हिसाब से किसी दूसरे धर्म के लोगों पर लगाकर साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश की। अब अगर देश में तनाव और शरारत की नीयत से लोग किसी धर्मस्थल को नुकसान पहुंचाकर उसकी तोहमत दूसरे धर्म के लोगों पर लगाने की साजिश करने लगेंगे, तो पूरे हिन्दुस्तान को एक साथ सुलगाया-जलाया जा सकता है। धार्मिक भीड़ पर किसी तरह का कोई तर्क काम नहीं करता। अब बलौदाबाजार के इस मामले को ही लें तो पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार किया है जिन्होंने जैतखंभ को नुकसान पहुंचाया है। लेकिन समाज के लोगों को ये लोग असली गुनहगार नहीं लग रहे हैं, और पुलिस से ‘असली’ गुनहगारों को पकडऩे की मांग करते हुए कल की यह असाधारण हिंसा हुई है। सतनामी समाज के हजारों लोगों की भीड़ एक मैदान में इकट्ठा हुई थी, और वहां से पुलिस के बहुत रोकने के बाद भी हजारों लोग कलेक्ट्रेट और एसपी ऑफिस तक गए, पुलिस के बैरियर तोड़ते हुए हजारों लोगों के वीडियो आए हैं, और फिर इस भीड़ ने गाडिय़ों में आग लगाना शुरू किया, और आग इमारतों तक फैल गई। इतनी बड़ी हिंसा करने वाली भीड़ में शायद कोई लीडरशिप नहीं रह गई थी। ऐसा मामला जो कि तीन हफ्ते से सुलग रहा था, उसे निपटाने में समाज के नेताओं के अलावा स्थानीय विधायक, या मंत्री, और जिले के बड़े अफसरों की कोशिश भी होनी थी, लेकिन इस मामले में सबकी नाकामयाबी दिख रही है। किसी धर्म या संप्रदाय की भीड़ जब किसी धार्मिक मुद्दे को लेकर जिद पर आमादा रहती है, तो उसकी आक्रामकता के सामने सरकार की ताकत फीकी पडऩे लगती है। यह तो गनीमत है कि कल के पथराव, आगजनी, और हिंसक प्रदर्शन में कोई जिंदगी नहीं गई। लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है कि यह स्थानीय और प्रदेश स्तर के खुफिया तंत्र की एक नाकामयाबी दिखती है जिसने अनुसूचित जाति के एक धर्मस्थल से जुड़े हुए इस विवाद को सुलझाने को महत्व नहीं दिया, और इस विस्फोटक नौबत का अंदाज नहीं लगाया। पुलिस की जितनी तैयारी वीडियो में दिख रही है, वह बिल्कुल ही नाकाफी थी, और शासन-प्रशासन की अदूरदर्शिता की एक बड़ी मिसाल है।
लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले जब बस्तर के नारायणपुर जिले में ईसाई बनने वाले आदिवासियों के मुद्दे को लेकर एक बड़ी भीड़ ने कलेक्ट्रेट पर ही हमला किया था, तो उस वक्त आदिवासियों के पथराव में जो एसपी, सदानंद जख्मी हुए थे, वही आज बलौदाबाजार के एसपी भी हैं। हम इन दो अलग-अलग घटनाओं के पीछे किसी एक तरह की लापरवाही नहीं देख रहे हैं, बल्कि यह बात भी देख रहे हैं कि भीड़ के हिंसक हो जाने के बाद भी पुलिस ने न तो उस वक्त नारायणपुर में गोली चलाई थी, न अभी बलौदाबाजार में चलाई है। जाहिर है कि पुलिस की कड़ी कार्रवाई के बिना भीड़ की हिंसा को रोकना मुश्किल होता है, लेकिन कड़ी कार्रवाई का मतलब कई मौतें हो सकती थी, जिन्हें टाला गया है। हम आखिर में अपनी उस बुनियादी बात पर आना चाहते हैं कि अगर बेचेहरा लोगों की शरारत से अगर सार्वजनिक जगह के किसी धर्मस्थल पर नुकसान पहुंचता है, तो उसकी प्रतिक्रिया में ऐसी हिंसा पूरी तरह नाजायज है। या तो किसी धर्म और संप्रदाय के लोग सडक़ किनारे, खुली जगह पर बिना हिफाजत वाले धर्मस्थल बनाने के पहले शरारत या गंभीर सांप्रदायिकता के ऐसे खतरों को समझ लें, या फिर धर्मस्थलों की पर्याप्त सुरक्षा की व्यवस्था भक्तजन ही करें। आज देश भर में सडक़ों के किनारे पेड़ों तले अनगिनत प्रतिमाएं स्थापित हैं, मंदिर बने हुए हैं। दूसरे धर्मों के उपासना स्थल भी सार्वजनिक जगहों पर, अक्सर ही अवैध कब्जा करके बना लिए जाते हैं, और उन जगहों पर तनाव का खतरा बना ही रहता है। दुनिया की कोई भी सरकार ऐसे धर्मस्थल की हिफाजत नहीं कर सकती, और समाज को ही अपनी आस्था की चौकीदारी करनी होगी। जिन लोगों ने अभी खुली हिंसा की है, उन्होंने एक बहुत खराब मिसाल भी पेश की है। सुबूतों के आधार पर हिंसक दंगाईयों पर कार्रवाई करनी चाहिए, वरना देश-प्रदेश की हर भीड़ हिंसा को अपना हक मान लेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत में तीसरी बार मोदी सरकार बनने के साथ ही देश की राजनीति में एक तात्कालिक स्थिरता आई है। चुनाव पूर्व गठबंधन के आधार पर ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बिना किसी विवाद के, खरीद-बिक्री या तोडफ़ोड़ के, सरकार बनी, और गठबंधन के साथी दलों के मंत्रियों का शपथ ग्रहण भी हो गया। अब सरकार के पास दस बरस का लंबा तजुर्बा है, और सरकारी कामकाज में एक निरंतरता बनी रहेगी, इसलिए सरकार अपने आपमें व्यस्त हो जाएगी। फिर यह इस सरकार के कार्यकाल की शुरूआत ही होगी, इसलिए विपक्ष के पास सरकार के खिलाफ बोलने का ऐसा कुछ भी नहीं रहेगा जो कि वे लोकसभा चुनाव में बोल न चुका हो। इसलिए यह समय सरकार पर एक नजर रखने के अलावा अपना घर संभालने का भी है। विपक्ष को चाहिए कि इंडिया-गठबंधन के बैनरतले उसकी जो ताजा एकजुटता देश के चुनावी नतीजों में एक छोटा सा, हल्का सा भूचाल ला चुकी है, उसे और मजबूत कैसे किया जाए।
विपक्ष की एकजुटता पांच बरस के लंबे दौर में कई बार मुमकिन नहीं हो पाती है। लेकिन इस बार जिस तरह इंडिया-गठबंधन की पार्टियों ने बेहतर प्रदर्शन किया है, उससे यह बात भी साफ है कि उनकी एकता न सिर्फ अगले लोकसभा चुनाव में काम आएगी, बल्कि इस बीच अलग-अलग राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी इंडिया-गठबंधन की पार्टियां तालमेल बिठाकर अब देश में विशालकाय हो चुकी भाजपा के मुकाबले खड़ी हो सकती हैं। आने वाले महीनों में महाराष्ट्र और झारखंड के साथ-साथ हरियाणा विधानसभा के चुनाव होने हैं, और इसी बीच जम्मू-कश्मीर की विधानसभा के चुनाव भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक करवाने की चुनाव आयोग की तैयारी शुरू हो चुकी है। 2025 में बिहार, और दिल्ली के चुनाव होंगे, 2026 में असम, केरल, पुदुचेरी, तमिलनाडु, और पश्चिम बंगाल के चुनाव होंगे। 2027 में गोवा, गुजरात, हिमाचल, मणिपुर, पंजाब, यूपी, और उत्तराखंड के चुनाव होंगे, इसी तरह इसके बाद के बरसों में भी हर बरस कुछ या कई राज्यों के चुनाव होते रहेंगे। अब भाजपा देश के अधिकतर हिस्सों में फैली हुई पार्टी है, और उसके एनडीए-गठबंधन में अधिकतर राज्यों की स्थानीय पार्टियां भी जुड़ी हुई हैं। कुछ ऐसा ही कांग्रेस के साथ भी है, और उसने इस चुनाव में अपनी लोकसभा सीटें करीब दोगुनी कर ली हैं, इसलिए अब देश भर में इन दोनों पार्टियों के सामने अपने-अपने गठबंधनों को मजबूत करने, राज्य के चुनावों के हिसाब से उनमें नए समीकरण बनाने की संभावना भी है, और चुनौतियां भी हैं। आज देश के नक्शे को देखें तो दक्षिण का कुछ हिस्सा, और उत्तर का सबसे ऊपर का हिस्सा, और थोड़ा सा पूरब का हिस्सा ही भाजपा से बाहर है। इसलिए इंडिया-गठबंधन के पास अगले पांच बरस अपनी बुनियाद को मजबूत करने, हमखयाल पार्टियों के बीच बेहतर तालमेल बनाने, और राज्यों के चुनावों में अपनी ताकत बढ़ाने का एक अभूतपूर्व मौका है। उसके सामने इस लोकसभा चुनाव में इंडिया-गठबंधन के बड़े अच्छे प्रदर्शन से मिला ताजा-ताजा हौसला भी है। वक्त भी है, और जरूरत भी है।
अगले पांच साल पूरे होते न होते, देश की जनता को एनडीए सरकार से थोड़ी सी थकान भी हो चलेगी। यह भी हो सकता है कि मोदी सरकार का यह कार्यकाल सरकार और सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर किसी तरह के खींचतान भी लेकर आए। इन सबसे भी इंडिया-गठबंधन को एक मौका मिलेगा कि वह मजबूत विपक्ष बनकर दिखाए, और जनता के बीच भारत जोड़ो यात्रा की तरह पहुंचे। विपक्ष के सबसे बड़े चेहरे, राहुल गांधी के सामने भी यह आग में तपकर निकलने की तरह का मौका है जब वे पूरे पांच बरस देश में हर बरस एक भारत जोड़ो यात्रा निकालें, और उसे सिर्फ कांग्रेस के बैनरतले निकालने के बजाय इंडिया-गठबंधन का झंडा लेकर चलें। भारत में बारिश के कुछ महीने छोड़ दें, तो तकरीबन तमाम साल पदयात्रा निकाली जा सकती है, बहुत गर्मी रहे तो भी सुबह-शाम या रात को चला जा सकता है, और देश को एक साथ बांधने के लिए इससे बेहतर और कोई जरिया नहीं हो सकता है। एक तरफ तो सडक़ पर विपक्ष जनता से जुड़ सकता है, और दूसरी तरफ संसद के भीतर एक अधिक तालमेल के साथ काम करने पर विपक्ष मोदी सरकार के इस कार्यकाल में थोड़ी सी संसदीय ताकत भी जुटा सकता है।
हमारी कई बातें लोगों को ऐसी लगेंगी कि हम मछली के बच्चों को तैरना सिखा रहे हैं। लेकिन यहां पर कुछ लिखने का मकसद सिर्फ संबंधित लोगों को सलाह या नसीहत देना नहीं होता है, यह हमारे आम पाठकों के साथ हमारी राजनीतिक समझ बांटना भी होता है। जनता को भी यह समझ आना चाहिए कि वे सरकार से, या विपक्ष से क्या-क्या उम्मीद कर सकते हैं। आज जिस तरह मोदी सरकार में शामिल नीतीश कुमार की जेडीयू और चन्द्राबाबू नायडू की टीडीपी पार्टियों की अल्पसंख्यक नीतियां हैं, उनका अपना एक समर्थक तबका है, वह बात मोदी सरकार को काफी हद तक अपने अब तक के ध्रुवीकरण के एजेंडे से कुछ दूर तो कर ही देगी। सत्तारूढ़ गठबंधन के भीतर राजनीतिक विचारधारा में जो दरारें हैं, उनका इस्तेमाल विपक्ष कर सकता है। आज एनडीए के भीतर के विरोधाभास देश की भलाई के लिए भी, साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं। गठबंधन सरकारों में अगर साथी दलों की संख्या के आधार पर सबसे बड़ी पार्टी को उनकी बात सुनने की मजबूरी हो, तो इससे लोकतंत्र का भला भी हो सकता है। भारत के राजनीतिक दल बहुत परिपक्व, अनुभवी, और होशियार हैं। लेकिन हम चुनावी जोड़तोड़ से परे लोकतंत्र के व्यापक हित में सरकार पर चौकन्नी निगाह रखना, संसद से सडक़ तक जनमत तैयार करना, और राज्यों में गैरएनडीए गठबंधन की संभावनाओं को मजबूत करना सुझा रहे हैं। लोकतंत्र में जब किसी एक गठबंधन के हाथ सत्ता पांच बरस के लिए आ जाती है तब विपक्ष को एक मजबूत गठबंधन की तरह ढल जाना चाहिए। इस बार लोकसभा चुनाव गुजर जाने तक भी इंडिया-गठबंधन की कोई मजबूती दिखाई नहीं पड़ी थी, और एक ढीली-ढाली व्यवस्था ने भी एनडीए का मुकाबला कर लिया था। पांच बरस लंबा कार्यकाल राज्यों के विधानसभा चुनावों का इस्तेमाल करते हुए विपक्ष के अधिक मजबूत विपक्ष बनने का मौका भी है।
इन दिनों आंखों के डॉक्टरों के पास बहुत से बच्चे पहुंच रहे हैं जिनकी आंखें मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, या टीवी से बोझिल और थकी हुई हैं। कुछ को चश्मे लग रहे हैं, कुछ के लगे हुए चश्मों के नंबर बढ़ रहे हैं, कुछ को सूखी पुतलियों पर चिकनाहट के लिए आंखों में डालने की दवाई दी जा रही है। मां-बाप से कहा जा रहा है कि कड़ाई से उनके स्क्रीन टाईम की सीमा तय की जाए। अभी तो बच्चे घंटों स्क्रीन के सामने गुजारते हैं क्योंकि बहुत से मां-बाप काम में लगे रहते हैं, या अपने शौक में डूबे रहते हैं, वे अपनी स्क्रीन में उलझे रहते हैं, और देखादेखी भी बच्चे वही करते हैं, और उनके पास उससे अधिक आकर्षक और कोई भटकाव रहता नहीं है। दुनिया इन दिनों बड़े लोगों के शौक या मजबूरी के स्क्रीन टाईम के नुकसान भी देख रही है, और बच्चों के स्क्रीन टाईम के भी। किताबों का चलन घट सा गया है, और लोग अब किताबें भी स्क्रीन पर पढऩे लगे हैं, पूरी किताबें भी, और सोशल मीडिया पर लिखी गई छोटी-बड़ी बातें भी।
इस बात को हम कई बार लिखते और बोलते हैं कि बचपन के लिए जो चीजें सबसे नुकसानदेह हैं, उनमें स्क्रीन टाईम, बिजली या बैटरी से चलने वाले किसी भी तरह के खिलौने, बाजार का बना हुआ खाने-पीने का डिब्बा या पैकेटबंद सामान, घूमने के नाम पर सिर्फ गेमिंग जोन या मॉल, और दिमाग विकसित हुए बिना धर्म का ओवरडोज। लेकिन हिन्दुस्तान के अधिकतर मां-बाप इन चीजों को आसान पाते हैं। नुकसानदेह किस्म का मनोरंजन, खाना-पीना, और धर्मान्धता की हद तक पहुंचने वाले धार्मिक रीति-रिवाज।
अब इनको बारी-बारी से देखें तो किसी भी तरह का स्क्रीन टाईम बच्चों की कल्पनाओं को रोक देने वाला रहता है। उन्हें हर चीज इतनी रंग-बिरंगी, हिलती-डुलती, उड़ती-तैरती दिखती है कि दिमाग के कल्पना वाले हिस्से का इस्तेमाल घटने लगता है। उन्हें असल जिंदगी में बाग-बगीचे, जंगल-पहाड़, तालाब या नदी के किनारे जाकर कुदरत को रूबरू देखकर अपनी खुद की कल्पनाओं को एक मौका देने की जो जरूरत रहती है, वह स्क्रीन से कभी पूरी नहीं हो पाती। फिर स्क्रीन पर बच्चों को बांध लेने के लिए जिस तरह के चकाचौंध वाले रंग-बिरंगे वीडियो रहते हैं, वे एक किस्म की लत डाल देते हैं, और फिर बच्चे उसके बिना खाने से भी इंकार कर देते हैं।
दूसरी बात रही डिब्बाबंद और पैकेटबंद खाने के बाजारू सामानों की। तो कुछ महीनों के बच्चों के लिए भी शिशु आहार बनाने वाली नामी-गिरामी अंतरराष्ट्रीय कंपनियां अभी कुछ महीने पहले ही भारत में बच्चों के खाने में इतनी अधिक शक्कर मिलाते पकड़े गए हैं जितने पर योरप-अमरीका में उन पर सैकड़ों-हजारों करोड़ का जुर्माना लग जाता। लेकिन हिन्दुस्तान में न बच्चों न बड़ों के खानपान के पैमानों पर कोई अमल है, और इसलिए अंधाधुंध शक्कर, नमक, घी-तेल वाले सामान तरह-तरह के स्वाद बढ़ाने वाले रसायनों पर सवार होकर बच्चों-बड़ों सब तक पहुंचते हैं, और एक बार लत लग जाती है, तो फिर हर महीने की खरीदी में इन चीजों का नाम फेहरिस्त में आ जाता है। भारत में खाने के पैकेटों पर चेतावनी, सावधानी, और उसमें शामिल चीजों का जिक्र दबा-छुपा रहता है, या लोगों को समझ न आने वाली जुबान में रहता है। इसकी वजह से बचपन से ही जंकफूड की जो आदत लगती है, वो लोगों में मरने तक जारी रहती है।
फिर स्क्रीन टाईम में उलझे बच्चे घर से निकलते भी हैं, तो अपनी संपन्नता के मुताबिक फिर खाने-पीने के बाजारों में चले जाते हैं, मॉल या किसी गेम जोन में चले जाते हैं, और उनकी सामाजिकता एक ग्राहक की सोच से आगे नहीं बढ़ पाती। उन्हें सिर्फ अपनी आय वर्ग के लोग दिखते हैं, और समाज के अलग-अलग किस्म के तबकों के साथ उनका उठना-बैठना घटते चले जाता है। अभी कुछ दिन पहले हमने छत्तीसगढ़ की निजी स्कूलों के संचालक संघ के मुखिया को इंटरव्यू किया था जिन्होंने बताया कि उनके शहर में तैनात एक जज को जब यह पता लगा कि उनके घर की काम वाली का बच्चा भी सरकारी फीस पर उसी निजी स्कूल की उसी क्लास में हैं जहां जज का अपना बच्चा पढ़ रहा है, तो उन्होंने अपने बच्चे को वहां न रखना तय किया। आज हालत यह है कि एक आय वर्ग की स्कूल, एक आय वर्ग की कॉलोनी, उसी आय वर्ग के क्लब या दूसरे संगठनों के बच्चे अपने ही तबके के बच्चों से मिलते हैं, और उनकी सामाजिक विविधता की सीख पिछड़ रही है। यह व्यक्तित्व विकास के लिए भी एक जरूरी बात रहती है, जो कि अब घटती चली जा रही है। घर से निकले बच्चे अपनी संपन्नता के मुताबिक उन्हीं बाजारू जगहों पर जाते हैं जहां मां-बाप को पैसे खर्च करने से अधिक कुछ नहीं करना पड़ता। अगर बच्चों को जंगल या नदी-पहाड़ ले जाएं, या बाग-बगीचे ले जाएं, तो मां-बाप को कई सवालों के जवाब देने पड़ेंगे। मां-बाप ऐसी जहमत में पडऩा नहीं चाहते।
अब हमने ऊपर जो फेहरिस्त गिनाई थी, उसमें धर्म का भी जिक्र था। बच्चे अपने मानसिक विकास की वजह से धर्म के जटिल पहलुओं को समझ नहीं पाते, और रीति-रिवाज ही उनके लिए धर्म रहते हैं। दूसरी बात यह भी रहती है कि धर्म को विज्ञान, और सवालों से, तर्क और बहस से जितनी दुश्मनी रहती है, जितना परहेज रहता है, उतना ही परहेज इन चीजों से बच्चों को भी होने लगता है। और वे धर्म को किसी भी तरह के सवाल से परे का सामान मानने लगते हैं। जिस उम्र में तर्क और जिज्ञासा विकसित होने चाहिए, उस उम्र में एक अंधश्रद्धा उनमें विकसित कर दी जाती है, जो कि सवालों से परे रहती है। धर्म को सवालों से उतना परहेज रहता है, इतनी एलर्जी रहती है कि सवालों की मौजूदगी में धर्म को छींकें आने लगती हैं, और उसके बदन पर चकत्ते उठ जाते हैं। यह बचपन के लिए बड़ी नुकसानदेह बात रहती है, और उनमें समझ विकसित हो सके उसके पहले ही उनकी स्वाभाविक सोच को तर्कहीन, अवैज्ञानिक, और धर्मान्ध चीजों से लाद दिया जाता है। बच्चों को विरासत में धर्म नहीं मिलता, क्योंकि उसे समझने की तो उनकी उम्र नहीं रहती है, उन्हें धर्म के नाम पर अंधश्रद्धा और रीति-रिवाजों का एक तर्कहीन बोझ ही मिलता है। मां-बाप को यह लगता है कि वे अपने बच्चों को अपने धर्म का संस्कार दे रहे हैं, जबकि वे खुद अपने धर्म के सतही पहलुओं से परे उसे जाने-समझे नहीं रहते हैं।
कुल मिलाकर हिन्दुस्तान जैसे समाज में बच्चों को तरह-तरह का नुकसान झेलना पड़ रहा है, गरीब बच्चों के सामने अलग चुनौतियां हैं, और मध्यम वर्ग या संपन्न वर्ग के सामने उनकी अपनी किस्मों की दूसरी चुनौतियां हैं। लोगों को अपने बच्चों की भलाई के लिए इन बातों पर गौर करना चाहिए, और अपनी कट्टरता से परे बच्चों को विकसित होने देना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर और लगे हुए जिले महासमुंद के बीच सरहदी नदी-पुल पर भैंसों को खरीदकर एक गाड़ी में ले जा रहे यूपी के तीन मुसलमान नौजवानों का पीछा करके उन्हें घेरकर एक समूह ने बुरी तरह पीटा, और उनमें से दो की लाशें नीचे नदी के रेत-पत्थर पर गिरी हुई मिलीं। साथ का तीसरा नौजवान बुरी तरह जख्मी है, और उसने कुछ कैमरों के सामने उन लोगों के साथ हुई हिंसा का पूरा बखान किया है। अभी यह साफ नहीं है कि भैंसों को ले जाने के लिए जो नियम हैं उन्हें पूरा करके ले जाया जा रहा था, या यह मामला गैरकानूनी तस्करी का था। लेकिन इतना तो जाहिर है कि यह कानून को अपने हाथ में लेकर खुलेआम कत्ल करने का मामला है, जिसके पीछे धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता दोनों वजह दिख रही है। जब तक कोई पुख्ता सुबूत सामने न आएं, तब तक किसी धर्मान्ध संगठन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना ठीक नहीं है, लेकिन भारत के कई प्रदेशों में इसी अंदाज में जानवरों के कारोबारियों को मारा जा रहा है, खासकर मुसलमानों को। दो दिन पहले की इस घटना के बारे में महासमुंद और रायपुर जिलों की पुलिस गोलमोल जुबान में आधी-अधूरी जानकारी देकर जाने किसको बचाने की कोशिश कर रही हैं, हत्यारे बचें या न बचें, पुलिस की साख ऐसी हरकत के बाद नहीं बच पाई है। यह साफ दिख रहा है कि जो पुलिस मामूली सी चाकूबाजी का लंबा-चौड़ा खुलासा अपने प्रेसनोट में करती है, वह पुलिस इतनी बड़ी हत्याओं की वारदात की जानकारी तक देने से कतरा रही है। दूसरी तरफ इसी प्रदेश बलरामपुर जिले में बजरंग दल के एक स्थानीय पदाधिकारी के अपनी महिला मित्र सहित जंगल में मिली लाश की तोहमत अज्ञात पशु तस्करों पर लगाई जा रही थी, लेकिन पुलिस जांच में पता लगा कि उस जंगल के पास के गांव वाले वहां जानवरों को मारने के लिए करंट बिछाते आए हैं, और उसी में ये युवक-युवती मारे गए। पुलिस ने इसमें तीन लोगों को गिरफ्तार भी किया है। लेकिन स्थानीय हिन्दू कार्यकर्ताओं की मांग पर राज्य सरकार ने इस मामले की आईजी की अगुवाई में एक विशेष जांच दल से जांच करवाना शुरू किया है। एक तरफ जिला पुलिस के सुलझाए मामले को चार दिन के भीतर ही फिर से खोला जा रहा है, और दूसरी तरफ दो पशु कारोबारियों की जाहिर तौर पर दिख रही हत्या पर चुप्पी साधी जा रही है। राज्य में भाजपा की सरकार है, और किसी भी किस्म की, किसी की भी हत्या की जिम्मेदारी सरकार पर ही रहेगी, और अगर साम्प्रदायिक और धर्मान्ध आधार पर हत्याओं का सिलसिला शुरू होता है, कानून अपने हाथ में लेने वाले संगठनों को सरकार की तरफ से खुली छूट मिलती है, तो उसका नुकसान राज्य सरकार को ही होगा। हम लोकसभा चुनावी नतीजों का अतिसरलीकरण करना नहीं चाहते, लेकिन उत्तरप्रदेश में इसी किस्म की धर्मान्ध-साम्प्रदायिकता की बहुत सी घटनाओं के बाद अब वहां कैसे चुनावी नतीजे आए हैं, यह भी देखना चाहिए। जिस हरियाणा में इस किस्म की जमकर हिंसा हुई है वहां पर इस बार भाजपा की सीटें दस से घटकर पांच हो गई हैं, और कांग्रेस की सीट शून्य से बढक़र पांच पर पहुंच गई है। इसी तरह राजस्थान में जहां पर कि बहुत सी साम्प्रदायिक घटनाएं हुई थीं वहां पर भाजपा-एनडीए की सीटें चौबीस से घटकर चौदह रह गई हैं, और कांग्रेस की सीटें शून्य से बढक़र आठ हो गई हैं।
किसी भी विचारधारा के संगठन रहें, वे अगर सत्ता की मेहरबानी से संविधानेत्तर ताकत बन जाते हैं, तो वे एक दिन सत्ता को ही डुबाने का काम करते हैं। इसलिए गैरकानूनी तरीके से काम करने वाले सभी तरह के संगठनों को रोका जाना चाहिए। सरकार के पास इतनी ताकत है कि वह नक्सल मोर्चे पर लगातार नक्सलियों को मार रही है, इसलिए कानून का राज कायम करने के लिए किसी भी संगठन को गैरकानूनी हरकतों की ढील नहीं देना चाहिए। राज्य सरकारों की यह जिम्मेदारी बनती है कि अपने राज्य में लागू नियमों पर कड़ाई से खुद पालन कराए, और इस अमल का जिम्मा आऊटसोर्स न करे। आज पूरे देश में पशुओं के कारोबार और आवाजाही की बड़ी जटिल स्थिति बनी हुई है। 2024 में हिन्दुस्तान दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बीफ एक्सपोर्ट बन गया है। बीफ की श्रेणी में गौवंश के अलावा भैंसों का मांस भी आता है, और इसके बहुत से कसाईखाने उत्तरप्रदेश में हैं, और जिन-जिन प्रदेशों में ऐसे बड़े-बड़े कारखाने हैं, वहां तक गाय और भैंस कुनबे के जानवरों को पहुंचाने का काम चलते ही रहता है, तभी जाकर ये कारखाने अंधाधुंध तरक्की कर रहे हैं, और हिन्दुस्तान बीफ एक्सपोर्ट में रिकॉर्ड कायम कर रहा है। अब अलग-अलग प्रदेशों से होकर ये जानवर तरह-तरह से इन बीफ-कारखानों में पहुंचते हैं, जिनके मालिक अमूमन हिन्दू हैं, जो कंपनियां अपना अधिकतम राजनीतिक चंदा भाजपा को चुनावी बांड के मार्फत देते आए हैं। बीफ का यह पूरा कारोबार कानूनी है, इसलिए हम उसकी आलोचना नहीं कर रहे हैं, लेकिन इन कारखानों तक जानवरों को पहुंचाने के काम में आए दिन हिंसा खड़ी की जा रही है। गौ-तस्करी का आरोप लगाते हुए आज हिन्दुस्तान के बहुत से प्रदेशों में किसी भी जानवर को ले जाने वाले कारोबारी को मारने को एक राजनीतिक मान्यता दे दी गई है। यह सिलसिला बहुत खतरनाक है। आम जनता इस तरह की हत्यारी-हिंसा को पसंद नहीं करती है, फिर चाहे वह खुद बीफ न खाती हो। इसलिए कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार राज्य सरकारों को अपने-अपने इलाके के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक संगठनों को हत्यारा बनने से रोकना चाहिए। ऐसा करना सरकारों के अस्तित्व के लिए जरूरी हो न हो, इन संगठनों को बचाने के लिए जरूरी हो न हो, देश के संविधान को बचाने के लिए जरूरी है जिसे कल फिर माथे पर रखकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रणाम किया है, और सोशल मीडिया पर लिखा है- मेरे जीवन का हर पल डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा दिए भारतीय संविधान के महान मूल्यों के प्रति समर्पित है। कम से कम मोदी की पार्टी की राज्य सरकारों को उनकी इस सार्वजनिक तस्वीर को देखना चाहिए, और इसके शब्दों पर अमल करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के एक नए और नौजवान दलित नेता चंद्रशेखर आजाद ने एक दलित-आरक्षित सीट, नगीना, पर भाजपा को डेढ़ लाख वोटों से हराया और इस सीट पर बसपा उम्मीदवार चौथे नंबर पर रहा जिसे सिर्फ तेरह हजार वोट मिले। पिछले चुनाव में यहां बसपा उम्मीदवार जीता था क्योंकि 2019 में सपा और बसपा के बीच गठबंधन था। चंद्रशेखर आजाद पिछले कई बरस से आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) बनाकर दलितों के बीच राजनीतिक कर रहे हैं, और इस बार कुछ जगहों पर चुनाव लडऩे के बावजूद चंद्रशेखर अकेले संसद पहुंच पाए हैं। एक नए नौजवान दलित नेता का उत्तर भारत की राजनीति में चुनावी कामयाबी पाना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि उत्तरप्रदेश में राज कर चुकी बसपा-मुखिया मायावती पिछले कुछ बरसों से सार्वजनिक रूप से गुमसुम है, और लोगों का ऐसा अंदाज है कि वे अपने भ्रष्टाचार की तरह-तरह की एजेंसियों से चल रही जांच की वजह से मोदी सरकार से इस हद तक दबी हुई हंै कि वे बस नाम के लिए राजनीति में रह गई हैं, और भाजपा विरोधियों के वोट काटने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। और फिर जैसा कि किसी भी कुनबापरस्त पार्टी में होता है, मायावती ने पहले तो अपने भतीजे को आसमान पर चढ़ाया, और अपने वारिस की तरह पेश किया, और एक दिन अचानक उसे अपरिपक्व करार देते हुए उसे विरासत से बेदखल कर दिया। ऐसी सनक के साथ चल रही राजनीति और पार्टी से दलित समुदाय का कोई भला नहीं हो सकता, और इस बार यूपी के चुनाव में भाजपा की जो तबाही हुई है, उसके बारे में कहा जा रहा है कि इस बार दलितों ने बसपा को छोड़ सपा और कांग्रेस के उम्मीदवारों को वोट दिया क्योंकि वे ही भाजपा हरा सकते थे। मतलब यह है कि बसपा अब दलित राजनीति में भाजपा के हाथ का एक वोटकटवा औजार बनकर रह गई है। ऐसे में दलितों के राजनीतिक और सामाजिक हक के लिए चंद्रशेखर आजाद का उभरना एक अच्छी बात है, और आगे-पीछे वे मायावती से निराश दलितों को एकजुट कर सकते हैं, उम्र उनके साथ है, और भ्रष्टाचार की किसी गठरी का बोझ उनके सिर पर नहीं है।
मायावती ने कांशीराम से विरासत में मिली बसपा का ऐसा गजब का बेजा इस्तेमाल किया कि उससे देश के दलितों की इज्जत खराब हुई। जब कोई किसी तबके के नाम पर राजनीति करे, और उस तबके के हितों से परे अपने निजी मुनाफे के लिए आसमान छूता भ्रष्टाचार करे, तो उससे उस तबके की राजनीतिक ताकत ही तबाह होती है। मायावती का खुद का भ्रष्टाचार के मामलों में चाहे जो हो, उन्होंने अपने प्रभाव के दलित तबके को मानो भाजपा के हाथ बेच सा दिया था। इसलिए देश के दलितों का बसपा से छुटकारा एक अच्छी नौबत है, और ऐसे शून्य में एक नई लीडरशिप के उभरने का मौका रहता है, और चंद्रशेखर आजाद का सांसद बनना संसद में एक दलित पार्टी की आवाज पहुंचने के समान है। उत्तरप्रदेश के पिछले चुनाव में कांग्रेस और सपा ने मायावती की बसपा से गठबंधन किया था, और इस चुनाव में वह गठबंधन नहीं रहा, इसलिए अगले किसी चुनाव तक कांग्रेस, सपा, और दूसरे भाजपाविरोधी दलों को चंद्रशेखर आजाद की संभावनाओं पर सोचना चाहिए। देश के अलग-अलग हिस्सों में अगर इस नई पार्टी को, जिसने अपना नाम सोच-समझकर आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) रखा है, जिसे कि संक्षिप्त में आसपा कहा जाएगा, जगह देने के बारे में दूसरी पार्टियों को भी सोचना चाहिए। आज उत्तरप्रदेश में भी कांग्रेस और सपा के साथ अगर कोई मजबूत दलित पार्टी रहती, तो इस गठबंधन को चुनावी कामयाबी अधिक मिलती। अब देश की चुनावी राजनीति कांग्रेस और भाजपा जैसी दो पार्टियों के काबू में नहीं दिख रही हैं। भाजपा अगर इस चुनाव में सरकार बना पा रही है, तो वह गठबंधन के साथियों की वजह से, और कांग्रेस अगर आज एक बार फिर प्रासंगिक हुई है, तो वह भी गठबंधन के दूसरे दलों की वजह से। क्षेत्रीय पार्टियों के नवजागरण के इस दौर में देश की इस नई ताजी दलित पार्टी की संभावनाओं को कौनसी पार्टी या गठबंधन पहचानते हैं यह सोचने और देखने की बात है।
देश में धर्म और जाति के आधार पर बहुत से आर्थिक मुद्दे भी सामने आते हैं। और आर्थिक असामनता के लिए कुछ जातियों को अतिरिक्त प्रोत्साहन देने की जरूरत है। इसलिए एक दलित पार्टी के मजबूत होने से देश में सामाजिक न्याय की एक संभावना बन सकेगी। यह भी है कि किसी धर्म, जाति, या क्षेत्र के नाम पर बनी पार्टियां शुरू में तो एक मकसद पूरा करती हैं, लेकिन धीरे-धीरे वे अपने मौजूदा मुखिया की भ्रष्ट हसरतों की शिकार हो जाती हैं, और राजनीतिक ताकत उसी तरह खो बैठती हैं, जिस तरह आज बसपा खो चुकी है। इसलिए यह भी हो सकता है कि हर एक-दो दशक में भ्रष्ट हो चुकी पार्टियों का विर्सजन कर दिया जाए, और उन तबकों के लिए नई पार्टियों को मौका दिया जाए। अभी हम चंद्रशेखर आजाद को लेकर अधिक व्याख्या नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे बहुत नए हैं, और उन्हें भ्रष्ट होने का मौका शायद अभी तक मिला भी नहीं होगा। लेकिन उत्तरप्रदेश में अब एकदम से कामयाबी पा चुकी कांग्रेस और सपा को चाहिए कि वे इस नई दलित पार्टी के साथ तालमेल की संभावनाएं देखें। इसके अलावा देश में जहां कहीं भी दलित-आरक्षित लोकसभा या विधानसभा सीटें हैं, वहां पर चंद्रशेखर आजाद को भी मेहनत करनी चाहिए, और दलित हिमायती दूसरी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को भी उन्हें साथ रखना चाहिए। देश में आज दलित मुद्दे बहुत हैं, लेकिन उनकी साफ-साफ हिमायती, और उस समुदाय के बीच विश्वसनीय पार्टी कोई नहीं रह गई है। ऐसे में दलित-आदिवासी, पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदायों पर केंद्रित पार्टियों को एक-दूसरे से बेहतर तालमेल रखना ही चाहिए।