संपादकीय
मध्यप्रदेश के इंदौर में आज से प्रवासी भारतीय सम्मेलन शुरू होने जा रहा है। इसके लिए पूरे शहर को सजाया जा रहा है। और खासकर जिन सडक़ों से प्रवासी भारतीय गुजरेंगे, उनमें सडक़ किनारे जो बस्तियां और गरीब कॉलोनियां हैं, उन्हें मेहमानों की नजरों से छिपाने के लिए कांक्रीट की दीवार उठाई जा रही है, और उसके ऊपर लोहे की चादरें लगाई जा रही हैं ताकि कोई प्रवासी भारतीय किसी बस की छत पर खड़े होकर भी देखे तो उसे शहर की कोई गरीब बस्ती और कॉलोनी न दिखे। पिछले चार महीनों में दीवारों के पीछे की इन बस्तियों का हाल ऐसा बताया जा रहा है कि यहां तक एम्बुलेंस पहुंचना भी मुश्किल है। और गरीब बस्तियों को बुलडोजर का डर दिखाकर दहशत में लाना आसान रहता है। इन बस्तियों में आने-जाने का रास्ता अब पीछे किसी दूसरी तरफ से है, लोगों का अपने घर पहुंचना मुश्किल हो गया है।
लोगों को याद होगा कि जब अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप नरेन्द्र मोदी के न्यौते पर गुजरात के अहमदाबाद आए थे, तो उनकी राह की बस्तियों को छुपाने के लिए भी इसी तरह की दीवारें बनाई गई थीं। सरकार की सोच में मेहमान की नजरों में गरीबी अगर आंखों की किरकिरी की तरह खटकेगी, तो हो सकता है कि वे गुजरात या मध्यप्रदेश में पूंजीनिवेश नहीं करेंगे। लेकिन पूंजीनिवेश करने वाले उस देश-प्रदेश की गरीबी से अच्छी तरह वाकिफ रहते हैं, और उन्हें पता होता है कि जिस देश में गरीबों के हक नहीं है, वहीं पर पूंजीनिवेश बेहतर होता है। जहां मजदूर जागरूक और ताकतवर होते हैं, वहां पंूजीवाद का जुल्म नहीं चल सकता। इंदौर में दीवारें इतनी ऊंची बना दी गई हैं कि अब छोटे घरोंं पर धूप आना भी बंद हो रही है, वहां बनाया हुआ मजदूरी का सामान भी बाहर निकालना मुश्किल है, और बीमार रहें तो अस्पताल ले जाना उससे भी अधिक मुश्किल है।
यह पाखंड हिन्दुस्तान के मिजाज में सदियों से बैठा हुआ है। किसी प्रदेश में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का आना हो, तो भी वहां की साज-सज्जा में सरकारी खजाने को झोंक दिया जाता है। अभी गुजरात के मोरवी में एक झूलता पुल गिरा था, बड़ी संख्या में लोग मरे थे, और चुनाव के ठीक पहले का वक्त था, प्रधानमंत्री भी वहां घायलों को देखने पहुंचे थे। उनके लिए शहर की सडक़ों का फिर से डामरीकरण हुआ, अस्पताल की पूरी इमारत का रंग-रोगन हुआ, और अपने ही देश के प्रधानमंत्री को झांसा देने के लिए करोड़ों रूपये खर्च किए गए। हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही देखते हैं कि विधानसभा के हर सत्र के पहले विधानसभा तक जाने वाली सडक़ों का डामरीकरण किया जाता है ताकि विधायकों को जरा भी धक्का न लगे। जब अपने ही देश के लोगों को हकीकत से दूर रखने के लिए इतना धोखा देने की पुख्ता सरकारी परंपरा है, तो फिर वह विदेशी मेहमानों के आने पर जारी रहने में क्या हैरानी है?
लेकिन सडक़ों और शहरों की सजावट से परे बस्तियों को छुपाने की इस हरकत को मानवाधिकार आयोग से लेकर अदालत तक चुनौती देनी चाहिए क्योंकि यह गरीबों को नजरों से दूर कर देने, और उन्हें अछूत बना देने का एक बड़ा जुर्म है जिसकी कोई जगह लोकतंत्र में नहीं होनी चाहिए। यह सिलसिला हाल के बरसों में गुजरात के बाद मध्यप्रदेश में दिखा है, और हो सकता है कि बाकी राज्य भी अपने आपको गरीबमुक्त दिखाने के लिए गरीबों के हक के पैसे को इस तरह से रातोंरात खर्च करने पर उतारू रहें। यह समझ लेने की जरूरत है कि सरकार के पास कोई भी पैसा बजट में पास हुए बिना नहीं आता, और इस तरह के काम में जब खर्च होता है तो वह विधानसभा या म्युनिसिपल के बजट को धोखा देते हुए किसी और मद का खर्चा इस जगह पर किया जाता है, और जागरूक जनसंस्थाओं को सूचना के अधिकार के तहत यह जानकारी भी मांगनी चाहिए कि ऐसी दीवार बनाने का खर्च आखिर आया कहां से है? और फिर जरूरत हो तो अदालत जाकर ऐसी हरकत के खिलाफ जनहित याचिका लगानी चाहिए।
ऐसा भी नहीं है कि भाजपा सरकारें ही ऐसा करती हैं। हम इसी मुद्दे पर लिखते हुए इसी जगह पर पहले कई बार लिख चुके हैं कि किस तरह ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर के कोलकाता आने पर वहां की वामपंथी सरकार ने पूरे शहर को सजाकर रख दिया था, और फुटपाथ पर जीने वाले लोगों को, भिखारियों और विक्षिप्त लोगों को, सबको पकडक़र शहर के बाहर ले जाकर छोड़ दिया था। मजदूरों की वामपंथी सरकार को एक गोरे प्रधानमंत्री के आने पर स्वागत-सत्कार की ऐसी सामंती दहशत में क्यों आना चाहिए था? लेकिन इस बारे में उस वक्त भी बहुत सी खबरें छपी थीं, बहुत सी तस्वीरें आई थीं। यह सिलसिला पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है। कुछ मिनटों के लिए किसी सडक़ से प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के, या किसी विदेशी नेता के गुजरने के लिए उस पूरी सडक़ को एक बार फिर नया बनाया जाए, तो यह इन नेताओं की निजी जेब से नहीं होता है, यह काम आम जनता के हक के सरकारी खजाने से होता है, और दूसरी जरूरी चीजों को रोककर होता है। ऐसा जहां कहीं भी होता है उसका गैरराजनीतिक आधार पर जमकर विरोध होना चाहिए, ऐसे खर्च का हिसाब मांगना चाहिए, और अदालत से यह मांग करनी चाहिए कि ऐसा फैसला लेने वाले लोगों पर निजी जुर्माना लगाकर ऐसे बेइंसाफ खर्च की उगाही की जाए।
हिन्दुस्तान, और शायद बाकी जगहों पर भी, किसी महिला के साथ हुई ज्यादती की चर्चा का रूख मोडऩा हो, तो बड़ा आसान तरीका रहता है कि उस महिला के चाल-चलन को गड़बड़ साबित कर दिया जाए। और चाल-चलन की गड़बड़ी अलग-अलग समाजों में अलग-अलग पैमानों पर तय होती है। हिन्दुस्तान में अगर कोई लडक़ी या महिला देर रात अकेले है, दोस्तों के बीच या किसी दावत में शराब पी चुकी है, तो उसके साथ बलात्कार होने पर भी लोगों की हमदर्दी तकरीबन खत्म हो जाती है। महानगरों को छोड़ दें तो बाकी हिन्दुस्तानी शहरों में सिगरेट पीने वाली लडक़ी का भी चाल-चलन गड़बड़ मान लिया जाता है। अधिक समय नहीं हुआ अभी एक-दो दशक पहले तक कस्बाई हिन्दुस्तान में स्लीवलेस ब्लाऊज पहनने वाली महिला के चाल-चलन को भी गड़बड़ मान लिया जाता था कि ऐसे कपड़े पहनी है, तो उसे साथ चलने के लिए कहा जा सकता है। लेकिन आज भी हिन्दुस्तान के महानगरों में किसी लडक़ी के नशे में रहने पर उसके साथ होने वाले बलात्कार के लिए बड़ी आसानी से उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है।
अब दिल्ली में अभी मोपेड सवार जिस लडक़ी को नशे में घूमते नौजवानों की कार ने कुचल दिया, और उसकी लाश को दस-बीस किलोमीटर घसीटते हुए ले गए, उसके बारे में दिल्ली पुलिस की मेहरबानी से अब बहुत से टीवी चैनलों को यह चारा मिल गया है कि वह नशे में थी। और इसके बाद खबरों का रूख उस लडक़ी के नशे की तरफ मुड़ गया, नशे में गाड़ी चलाते कुचलने वाले नौजवान मानो अब कम कुसूरवार हो गए। एक महिला वकील ने ट्विटर पर लिखा- ‘जो लड़कियां ओयो जैसे होटलों में शराब पीकर अनजान लडक़ों के साथ रात-रात अपने घर से गायब रहती हैं, और उनके साथ अगर कोई घटना हो जाए तो मुझे ऐसी लड़कियों से कोई हमदर्दी नहीं है।’ वकील साहिबा की यह सोच कोई अनोखी नहीं है, और हिन्दुस्तान के अधिकतर लोग इसी तरह सोच रहे होंगे।
यह देश और इसके लोग औरत के खिलाफ हजारों बरस से चले आ रहे अपने पूर्वाग्रह से शायद और हजारों बरस तक घिरे रहेंगे। और मानो अपनी सोच के इस जुर्म को छुपाने के लिए इस देश के लोग कुछ देवियों की पूजा करने की एक परंपरा निभाते हैं, और जब कभी इन लोगों पर महिलाविरोधी पूर्वाग्रहों की तोहमत लगती है, तो वे तुरंत लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, काली की पूजा गिनाने लगते हैं कि यह संस्कृति तो महिलाओं की पूजा करने की है। यह बात सिर्फ इस हद तक सही है कि यह उन महिलाओं की पूजा करने वाली संस्कृति है जिनका आत्मविश्वास इस पूजा से बढ़ न जाए। जिंदा महिलाओं की पूजा अगर होने लगे तो अधिक आत्मविश्वास के साथ उनमें मर्दों से बराबरी करने की बददिमागी आने का खतरा रहता है, इसलिए मिट्टी-पत्थर की मूर्तियां बनाकर उनकी पूजा करना आसान है क्योंकि वे पूजा के दिनों के बाद मर्दों की राह में आकर खड़ी नहीं होतीं, उनके लिए चुनौती नहीं बनतीं।
कोई लडक़ी नशे में है, देर रात तक बाहर है, उसने अपनी मर्जी के तंग या छोटे कपड़े पहन रखे हैं, तो उसके साथ बलात्कार समाज का मानो हक ही बन जाता है। इस देश के मुख्यमंत्रियों से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों तक, और कई दूसरे नेताओं तक यह बात बहुत आम है कि बलात्कार के मामले में लड़कियों और महिलाओं की ऊपर लिखी इन बातों को सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार ठहरा दिया जाए। यह सिलसिला इतना आम है कि हर बलात्कार के बाद बलात्कारी के आसपास के, या उस इलाके के जिम्मेदार नेताओं के बीच से तुरंत ही यह बात आने लगती है कि किस तरह उस लडक़ी या महिला ने ही बलात्कार को न्यौता दिया है। ऐसे मर्दों को शायद तब अफसोस होता है जब बलात्कार की शिकार बच्ची तीन-चार साल की होती है, और ऊपर की कोई भी बातें तोहमत की तरह उस पर नहीं लगाई जा सकती, और बलात्कार की जिम्मेदारी मर्द पर ही आकर टिकती है।
यह सिलसिला तब तक चलते रहेगा जब तक कानून की किताबों से परे महिलाओं को बराबरी का हक नहीं मिलता। पूरी की पूरी बराबरी तो पश्चिम के सबसे विकसित देशों में भी कई जगह नहीं मिलती, और आज की दुनिया तो ईरान और अफगानिस्तान की शक्ल में ऐसी सरकारों को देख रहा है जो महिलाओं को इंसान भी नहीं मानते, और उन्हें तरह-तरह से कुचलने में लगे हुए हैं। इनमें आधुनिक विज्ञान समझने वाली ईरानी सरकार भी है, और निपट-गंवार आतंकियों की तालिबानी सरकार भी है। हिन्दुस्तान में भी वैसे तो अलग-अलग कई धर्मों के लोगों की सोच में काफी फर्क दिखाई पड़ता है, लेकिन औरत को कुचलने के लिए तमाम धर्मों के मर्दों की सोच एक सरीखी ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो जाती है। इस नौबत से छुटकारा पाना आसान नहीं है, खासकर तब जबकि लोकतंत्र में चौथा स्तंभ होने का दावा करने वाले मीडिया के लोग हर लडक़ी या औरत की इज्जत को हवा में उछालकर उसे अपने टीआरपी में बदलने की ताक में रहते हैं। दिल्ली में इस लडक़ी के साथ यही हो रहा है, अगर वह देर रात बाहर थी, या उसने शराब पी थी, तो उसे कुचलकर दस-बीस किलोमीटर घसीटने वाले लोग तकरीबन बेगुनाह हो गए हैं।
अमरीका के सबसे चर्चित शहर न्यूयॉर्क में वहां के गवर्नर ने मानव शरीर को खाद में बदलने को कानूनी इजाजत दे दी है। इसके पहले अमरीका के कई और प्रदेश ऐसी इजाजत दे चुके हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसी शव को खाद के ढेर पर या गड्ढे में डाल दिया जा सकेगा, इसके लिए अलग से बनाए गए अंतिम संस्कार सेंटरों में उसे छोडऩा होगा जहां उन्हें वैज्ञानिक तरीके से ऐसे माइक्रोब के बीच छोड़ दिया जाएगा जहां वे उस शरीर को खाद में बदल देंगे। इससे अंतिम संस्कार में लगने वाले ताबूत, और बाकी दुनिया भर की चीजों, कब्र की जगह, उस पर लगने वाले पत्थर, इन सबसे बचा जा सकेगा, और धरती पर बोझ घटेगा। कुछ धर्मों में वैसे भी मरने के बाद शरीर को पंचतत्वों में विलीन कर देने, खाक में मिला देने, या चील-कौवों को खिला देने जैसी सोच बनी हुई है, अभी अमरीका के इन आधा दर्जन राज्यों में जो किया जाने वाला है, वह बिना कब्र बनाए मिट्टी में दफना देने किस्म का ही काम है जिसमें शरीर तेज रफ्तार से खाद में चाहे न बदले, वह पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुंचाए बिना दफन हो जाता है, और जमीन के भीतर जाहिर है कि तरह-तरह के कीड़े उसे खाकर खत्म कर देते हैं। अब ऐसे दफन से, या हिन्दुओं के जलाने वाले अंतिम संस्कार से धरती को कुछ वापिस हासिल नहीं होता, लेकिन अमरीका में यह नया चलन धरती को खाद देता है, और एक शरीर से करीब 36 बोरे खाद मिल सकेगी। लोग जीते-जी अपनी अंतिम इच्छा लिखकर जा सकेंगे कि वे अपना अंतिम संस्कार किस तरह से चाहेंगे, और क्या वे खाद में बदल जाना चाहेंगे।
लोगों को मृतकों के शरीर से निपटने के बेहतर तरीके सोचने चाहिए। हिन्दुस्तान के कुछ शहरों में बिजली से चलने वाले शवदाह गृह काम कर रहे हैं, और कई शहरों में गैस से चलने वाले। इन दोनों का खर्च लकड़ी से शव जलाने के मुकाबले कम आता है, वक्त भी कम लगता है, प्रदूषण भी शायद कम ही होता है, लेकिन कई किस्म के धार्मिक रीति-रिवाजों की गुंजाइश इनमें कम रहती होगी, इसलिए पेशेवर पंडित इसका समर्थन नहीं करते हैं। वैसे भी अगर अंतिम संस्कार के रीति-रिवाजों में कटौती हो जाए, तो फिर पंडितों के जजमान तो खत्म ही हो जाएंगे। लेकिन शव को जलाने का मतलब कुछ क्विंटल लकडिय़ों को साथ जलाना होता है, जिससे धरती पर घटते हुए पेड़ों पर एक हमला होता ही है। फिर इसके साथ-साथ कई किस्म का प्रदूषण भी होता है, और सच तो यह है कि अंतिम संस्कार में पहुंचने वाले लोगों का बहुत सा वक्त भी लगता है। इसलिए अगर कोई बेहतर तरीका सोचा जा सकता है तो उससे कई किस्म की बचत हो सकती है।
सबसे अच्छा तो यही हो सकता है कि लोग मरने के पहले अपने अंगदान करने की घोषणा कर जाएं, और अगर वे ऐसी मेडिकल हालत में पहुंच जाएं कि उनकी दिमागी मौत हो चुकी रहे, तो घरवालों को उनके अंगदान के बारे में सोचना चाहिए। अब तो बहुत से मामलों में छोटे-छोटे बच्चों के गमगीन मां-बाप भी उनका अंगदान करके कई लोगों को जिंदगियां देते हैं, और उनके बच्चे कई अलग-अलग लोगों की शक्ल में जिंदा रहते हैं। अगर ऐसी नौबत न रहे तो भी लोग अपना शरीर मेडिकल कॉलेज को देकर जा सकते हैं जहां पर चिकित्सा-छात्र-छात्राओं को मानव शरीर समझने के लिए मृत शरीरों की हमेशा ही कमी रहती है। ऐसा भी बहुत से लोग करते आए हैं, और इस तरीके से भी अंतिम संस्कार में होने वाली लकड़ी या दूसरे किस्म की बर्बादी बचती है, लोगों का वक्त बचता है।
अलग-अलग धर्मों में मृत शरीर के अलग-अलग किस्म के निपटारे के तरीके हैं। पारसी समुदाय में मृतकों की लाश को उनके पूजा स्थल पर एक ऊंचे टॉवर पर रख दिया जाता है, जहां पंछी उन्हें खाकर खत्म कर देते हैं। हिन्दुस्तान में ही कई जगहों पर लकड़ी की कमी से गरीब अपने लोगों के अंतिम संस्कार करने के बजाय लाशों को नदी में बहा देते हैं जिससे प्रदूषण का खतरा रहता है क्योंकि इन्हीं नदियों से किनारे के गांव-कस्बों, और शहरों में पीने का पानी जाता है। अमरीका में बिना किसी धार्मिक आधार के पूरी तरह वैज्ञानिक तरीके से शव को खाद में बदलने का जो काम शुरू हुआ है, वह बाकी दुनिया के लिए भी बड़ा दिलचस्प हो सकता है जहां कब्रगाह के लिए जगहें कम पड़ रही हैं, और अब तो जमीन न रह जाने से बहुमंजिला कब्रगाह बन रही है जहां लोगों को महज ताबूत जितनी जगह मिलती है, और सामने नाम की तख्ती लग जाती है। अभी ब्राजील में दुनिया के सबसे महान फुटबॉल खिलाड़ी पेले का अंतिम संस्कार ऐसी ही एक बहुमंजिला कब्रगाह में किया गया है जिसमें 32 मंजिला ढांचे में 16 हजार कब्रे हैं। आज बड़े शहरों से लेकर गांवों तक कब्रिस्तान और श्मशान की जगहें कम पडऩे लगी हैं, लोगों में झगड़े हो रहे हैं, एक ही धर्म के भीतर अलग-अलग सम्प्रदायों के लोगों के बीच अंतिम संस्कार की जगह के झगड़े होने लगे हैं। ऐसे में बिना धार्मिक आधार के, सिर्फ वैज्ञानिक सोच के साथ होने वाले ऐसे अंतिम संस्कार शायद सबसे अच्छे हो सकते हैं जो कि जाने के बाद भी खाद बनकर पौधों की शक्ल में जिंदा रह सकें। इस बारे में लोगों को सोचना चाहिए। और यह तकनीक ऐसी हो सकती है कि लोगों के शरीर की खाद उनके ही गांव-कस्बे या शहर के खेतों में काम आ सके। हिन्दुस्तान में वैसे भी बहुत से लोग शवदाह के बाद बचने वाली राख को नदियों में विसर्जित करते हैं, या खेतों में डालते हैं। नेहरू भी अपनी अस्थियों को इन्हीं दो जगहों पर बिखेर देने की इच्छा जाहिर कर गए थे। हालांकि नेहरू यह लिख गए थे कि उनका अंतिम संस्कार किसी धार्मिक रीति-रिवाज से न किया जाए, लेकिन इर्द-गिर्द के नेताओं के दबाव में इंदिरा ने हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किया था, और फिर उनकी अस्थियां गंगा में विसर्जित की गईं, और विमान से भारत के खेतों पर बिखरा दी गई थीं।
अमरीका में जिस तकनीक से यह अंतिम संस्कार किया जा रहा है, वह कोई मुश्किल बात नहीं है, और हिन्दुस्तान तो किसान आबादी और खेतों से भरा हुआ देश है। अगर यह सोच यहां पर बढ़ निकली, तो यहां के पेड़ों पर से दबाव घटेगा, धरती का बेहिसाब बेजाइस्तेमाल थमेगा, और प्रदूषण भी रूकेगा। और लोग खाद बनकर पौधों और पेड़ों से होकर हमेशा के लिए जिंदा रह सकेंगे।
अमरीकी संसद के निचले सदन, हाऊस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत के बाद भी उस पार्टी का स्पीकर बनना नहीं हो पा रहा है क्योंकि प्रत्याशी केविन मैक्कार्थी का उन्हीं की पार्टी के कई सांसद विरोध कर रहे हैं, और खुलकर उनके खिलाफ वोट दे रहे हैं। अमरीका की संवैधानिक व्यवस्था के तहत यह वोटिंग बार-बार होते रहेगी, जब तक कि किसी उम्मीदवार को बहुमत न मिल जाए। अब तक छह बार वोट डल चुके हैं, लेकिन रिपब्लिकन सांसदों में से कुछ लोग अपनी पार्टी के इस उम्मीदवार के खिलाफ हैं, और वोट डालने के अलावा वे बार-बार बयान भी दे रहे हैं। जब तक स्पीकर का चुनाव नहीं हो जाता, तब तक ये वोट इसी तरह डलते रहेंगे, और अमरीकी संसद में यह नौबत करीब सौ साल के बाद आई है। इस संसद के इतिहास में कुल सात बार ऐसा हुआ है जब तीन बार से अधिक वोट डाले गए। जब तक स्पीकर चुन नहीं लिया जाता तब तक न तो नए सांसद शपथ ले सकते, और न ही कोई संसदीय कामकाज हो सकता। एक बार तो इस संसद के इतिहास में स्पीकर चुनने का सिलसिला करीब दो महीने तक चला था, और 133 बार वोट डाले गए थे। यह वाकया 1855 का है, संसद गुलामों के मुद्दे पर बुरी तरह से बंटी हुई थी, और शुरू में स्पीकर के लिए 21 उम्मीदवार थे, जो घटते-घटते कम हुए, लेकिन आखिर में 133वीं बार के मतदान से स्पीकर का चुनाव हुआ था।
अमरीकी संसद की प्रतिनिधि सभा में कौन स्पीकर बने इसमें हमारी इतनी अधिक दिलचस्पी नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन इस पर लिखने की एक वजह है। इससे यह पता लगता है कि एक पार्टी का उम्मीदवार संसद के भीतर अपनी ही पार्टी के 18-20 सांसदों का विरोध किस तरह झेलता है, और स्पीकर नहीं बन पाता। इसके लिए किसी दूसरी पार्टी को सांसद खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती, बगावत करवाने की जरूरत नहीं पड़ती, और वहां की प्रचलित संसदीय व्यवस्था, और राजनीतिक परंपराओं के तहत ही ऐसा हो रहा है। अब अगर हिन्दुस्तान में मुख्यमंत्री या विधानसभा अध्यक्ष चुनने की बात आए, तो पहले थोड़े-बहुत विधायक बिकते थे, अब दल-बदल विधेयक की वजह से वे थोक में बिकते हैं, और एक अनुपात से अधिक फूट होने पर ही विधायक दल बंटा हुआ माना जाता है, और उसे दल-बदल नहीं माना जाता। मतलब यह कि थप्पड़ मारना जुर्म है, और कत्ल करने पर कोई सजा नहीं है। अमरीका के इस ताजा मामले को देखते हुए हिन्दुस्तान के दल-बदल कानून के बारे में एक बार फिर सोचने की जरूरत है कि क्या यह सचमुच ही असरदार साबित हो रहा है, या फिर यह सांसदों और विधायकों की मंडी में थोक में खरीद-बिक्री को बढ़ाने वाला साबित हो रहा है?
आज भारतीय संसदीय व्यवस्था में संसद और विधानसभाओं में किसी छोटे से छोटे मुद्दे पर भी अगर वोट डालने की नौबत आती है, तो तमाम राजनीतिक दल अपने सांसदों या विधायकों को एक पार्टी व्हिप जारी करते हैं जिसके बाद वे अगर उसके खिलाफ वोट डालते हैं, तो उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। मतलब यह कि विधायकों या सांसदों के निजी विवेक को पार्टी के फैसले से एक फौलादी जंजीर से बांध दिया गया है, और वे उससे परे नहीं जा सकते। यह बात तो वोटिंग के समय की है, वोटिंग से परे की भी सोचें, तो संसदीय बहस के दौरान भी हिन्दुस्तान के सांसदों और विधायकों को यह आजादी नहीं रहती कि वे पार्टी की तय की गई सोच से परे की कोई बात कर सकें। पार्टी अनुशासन के नाम पर निजी विवेक को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है, और अब वह किसी पार्टी के संसदीय दल के सामूहिक फैसले से परे कुछ भी नहीं है। यह बात पहले भी हमें खटकती रही है कि भारतीय मतदाता किसी को अपना सांसद या विधायक सिर्फ पार्टी निशान पर नहीं बनाते हैं, बल्कि वे उम्मीदवार के निजी व्यक्तित्व, उनकी निजी सोच को भी ध्यान में रखकर उसे वोट देते हैं। लेकिन एक बार चुन लिए जाने के बाद संसद या विधानसभा में उनके सारे फैसले पार्टी के हुक्म के मुताबिक होते हैं जिससे कि उनके मतदाताओं की उम्मीद भी पूरी नहीं हो सकती, और ऐसे निर्वाचित सदस्यों की निजी सोच और समझबूझ का कोई फायदा भी सदन को नहीं मिल पाता। जब कभी एक निर्वाचित प्रतिनिधि के हिस्से का फैसला उसका संगठन करने लगता है, तो उस सांसद या विधायक की प्रतिभा का फायदा संसदीय व्यवस्था को नहीं मिल पाता। भारत में आज अगर कोई पार्टी कोई बुरे से बुरा उम्मीदवार खड़ा कर दे, तो उसके खिलाफ पार्टी के लोग तभी वोट दे सकते हैं जब वे बिक चुके हों, उसके पहले तक उन्हें पार्टी के सामूहिक फैसले को ही मानना पड़ता है।
हर लोकतांत्रिक और संसदीय व्यवस्था को इस किस्म की दूसरी व्यवस्थाओं के तजुर्बों और उनकी मिसालों से सीखना चाहिए। इसीलिए हम अलग-अलग देशों से सामने आने वाली अलग-अलग व्यवस्थाओं पर चर्चा करते हैं। अमरीका में किसी को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाते हुए जिस तरह वहां की संसदीय कमेटी उस संभावित जज के इतिहास से लेकर उसकी आत्मा तक सबको टटोल लेती है, वह भी हमें भारत में अमल में लाने लायक एक बात लगती है जहां पर आज सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नाम तय करने का एकाधिकार रखता है, और उसे मंजूर या नामंजूर करने का काम केन्द्र सरकार के हाथ रहता है। इस व्यवस्था को लेकर भी आज कई लोगों का यह मानना है कि भारतीय संविधान बनाने वाले लोगों ने ऐसी कॉलेजियम प्रणाली की कल्पना नहीं की थी। ठीक उसी तरह आज यह मामला भी लग रहा है कि संसद के भीतर क्या सांसदों को पार्टी अनुशासन से परे अपने निजी विवेक से वोट देने का हक रहना चाहिए? और खासकर दल-बदल कानून आने के बाद से चिल्हर में दल-बदल गैरकानूनी, और थोक में दल-बदल कानूनी हो जाने का तजुर्बा देखते हुए क्या ऐसे कानून का कोई फायदा दिखता है?
फिलहाल अमरीकी संसद का निचला सदन, प्रतिनिधि सभा, को छह बार वोट डालने के बाद भी थकान नहीं है, क्योंकि उसके पास 133 बार के मतदान की एक ऐतिहासिक मिसाल है। वहां की संसद सदन में सांसदों की निजी राय को पार्टी के किसी भी हुक्म के ऊपर महत्व देते दिख रही है, और शायद यह लोकतंत्र की जिंदादिली का एक सुबूत भी है। अमरीकी राष्ट्रपति के लिए उम्मीदवार बनने के पहले अपनी पार्टी के भीतर देश भर में घूमकर पार्टी के वोटरों के बीच अपनी काबिलीयत साबित करने की व्यवस्था सबकी देखी हुई है, और विपक्षी उम्मीदवार से मुकाबले के पहले अपनी ही पार्टी के प्रतिद्वंद्वी से कड़े मुकाबले की परंपरा पार्टी के भीतर के सबसे लोकप्रिय और कामयाब व्यक्ति को सामने रखती है। इसके मुकाबले भारत के राजनीतिक दलों में उम्मीदवार तय करना पूरी तरह से अलोकतांत्रिक व्यवस्था है, जिसमें कुछ भी पारदर्शी नहीं है। जरूरी नहीं है कि इसमें से हर बात हिन्दुस्तान में अमल के लायक हो, लेकिन दूसरी संसदीय व्यवस्थाओं की ऐसी मिसालों को ध्यान से देखते हुए ही बाकी लोकतंत्र परिपक्व हो सकते हैं।
अभी कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर किसी एक पत्रकार का यह पोस्ट तैर रहा है कि किस तरह मुंबई एयरपोर्ट पर उसे दो समोसे और पानी की एक बोतल के लिए चार सौ से अधिक रूपये देने पड़े। यह हाल देश के हर एयरपोर्ट का है जहां अगर लोग चाहें कि उन्हें खाने को कोई सेहतमंद चीज मिल जाए, तो वह मिल नहीं सकती, और जंकफूड दर्जे के सामान अंधाधुंध दाम पर मिलते हैं। जिन लोगों को एयरपोर्ट या बड़े रेलवे स्टेशनों के निजीकरण में पहली नजर में सिर्फ साफ-सफाई और अधिक सहूलियतें दिखती हैं, उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि बाद में पूरी जिंदगी वे हर छोटी-छोटी चीज के लिए कितना अधिक भुगतान करेंगे। अब जिन बड़े रेलवे स्टेशनों का निजीकरण हो रहा है, वहां पर पार्किंग से लेकर खाने-पीने तक हर चीज का कई गुना भुगतान करना पड़ रहा है। जब यह कहा जाता है कि सरकार सार्वजनिक संपत्तियों को बेच रही है, तो उसका यही मतलब होता है कि दाम के ऐसे लूटपाट की तीस बरस की लीज बेच देने से भी ज्यादा बुरी होती है। लेकिन सार्वजनिक संपत्ति से परे भी हिन्दुस्तान में सार्वजनिक जगहों पर खानपान के सामान सेहत के ठीक खिलाफ होते हैं, और सुप्रीम कोर्ट का एक ताजा फैसला ऐसे खानपान को बढ़ाने वाला साबित होने वाला है।
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने कुछ अरसा पहले सिनेमाघरों की लगाई हुई इस रोक को खारिज कर दिया था कि वहां आने वाले दर्शक अपना कुछ खानपान लेकर नहीं आ सकते। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को खारिज करते हुए कहा है कि सिनेमा हॉल एक निजी संपत्ति होती है, और वहां पर खाने-पीने की कौन सी चीजें बेची जाएं, बाहर से लाने पर रोक लगाई जाए, वह सिनेमा मालिक का अपना फैसला रहेगा। अदालत ने कहा कि सिनेमाघर जिम नहीं है जहां आपको पौष्टिक भोजन चाहिए, वह मनोरंजन की जगह है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क भी दिया कि यह दर्शकों का अधिकार या इच्छा है कि वे थियेटर में कौन सी फिल्म देखने जाएं, और यह सिनेमा मालिक का हक है कि वहां खानपान के क्या नियम बनाने हैं।
ये दो मामले अलग-अलग किस्म के हैं, एक तो एयरपोर्ट और स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों पर खानपान से जुड़ा हुआ है, उनकी किस्म और उनके दाम दोनों ही, और दूसरा मामला निजी मालिकाना हक की सार्वजनिक जगहों पर मैनेजमेंट के लगाए प्रतिबंधों को लेकर है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना तो सही है कि यह दर्शक की आजादी है कि वह किस सिनेमाघर में जाए और किसमें नहीं, लेकिन यह अदालत यह बात भूल रही है कि सेहतमंद खाने की जरूरत सिर्फ जिम में नहीं होती, हर जगह होती है। आज हिन्दुस्तान को दुनिया का डायबिटीज कैपिटल कहा जा रहा है क्योंकि यहां न सिर्फ गिनती में बल्कि आबादी के अनुपात में इसके मरीज लगातार बढ़ते चल रहे हैं। यह बात बहुत जाहिर है कि ऊपर जिन सार्वजनिक जगहों की चर्चा की गई है, उनमें सेहत के लिए सही खाने को रखा ही नहीं जाता, और बहुत बुरी तरह से शक्कर, नमक, फैट, और मैदे से भरा हुआ खानपान वहां रहता है। अब किसी से यह उम्मीद की जाए कि वे इन जगहों पर कई घंटे गुजारें, लेकिन घर से लाया हुआ कुछ न खाएं, यह बात अटपटी है, और नाजायज है। स्टेशनों और एयरपोर्ट पर तो लोग घर से लाया खाना खा सकते हैं, लेकिन सिनेमाघरों में सफाई के नाम पर भी इस पर रोक लगाई गई है, और सुप्रीम कोर्ट ने इसे जायज माना है। हमारा मानना है कि अदालत ने मध्यमवर्गीय लोगों, और सेहत की खास जरूरत के लोगों के हक और जरूरत को अनदेखा किया है। तमाम सिनेमाघरों में भी हॉल के बाहर ऐसी जगह रहनी चाहिए जहां बैठकर लोग अपना लाया हुआ खाना खा सकें, और सिनेमाघर के भीतर खानपान पर मैनेजमेंट की बंदिश जारी रहे क्योंकि यह वहां की सफाई से भी जुड़ी हुई है। इन तीन-चार घंटों में जिन लोगों को कुछ खाने की जरूरत रहती है, उनसे उनकी पसंद को छीनना ठीक नहीं है, क्योंकि अब तो ऐसे कोई सिनेमाघर भी नहीं है जो कि सेहतमंद चीजें बेचते हों। जनता को सिनेमाघरों के रहम-ओ-करम पर इस तरह छोड़ देना ठीक नहीं है कि वहां पर बिना किसी सेहतमंद सामान के सिर्फ जंकफूड को बेचा जाए। इसके बजाय तो सुप्रीम कोर्ट को ऐसी हर महंगी जगहों के लिए खानपान के कुछ बेहतर सामान भी रखने की शर्तें तैयार करने के लिए एक कमेटी बना देनी थी जिसकी सिफारिशें स्टेशन, एयरोपोर्ट, सिनेमाघर, और ऐसी दूसरी सार्वजनिक जगहों पर लागू हों। आज जब हिन्दुस्तान कई किस्म की बीमारियों से जूझ रहा है, ऐसे में मनोरंजन की जगहों को सिर्फ जानलेवा बाजारूकरण के हवाले कर देना समझदारी का फैसला नहीं है।
हमारा यह मानना है कि पर्यटन स्थलों और दूसरी जगहों पर सेहतमंद और बेहतर खानपान रखने के लिए, रियायती खानपान के लिए सरकार को नियम बनाने चाहिए। और जिस तरह अब विमानों में भी लोग घरों से ले जाया हुआ खाना खाते हैं, उसी तरह सिनेमाघरों में भी हॉल के बाहर इसके लिए इंतजाम करना राज्य सरकार को अपने नियमों के तहत करवाना चाहिए। राज्य सरकार जिस तरह निजी कॉलोनियों में भी गरीबों के लिए छोटे प्लॉट या मकान छोडऩे की शर्त लगा चुकी है, उसी तरह महंगे सिनेमाघरों पर भी मध्यमवर्गीय लोगों के हित में ऐसा लागू करना चाहिए। और फिर इस महंगाई से परे एक बात तो अनिवार्य रूप से लागू करनी चाहिए कि हर जगह सेहतमंद सामान अनिवार्य रूप से रखा जाए, और तभी बाकी दूसरी किस्म का सामान बेचने की छूट मिले। आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बनाए हुए शक्कर और नमक भरे हुए खानपान से सेहत पर बुरा असर पूरी दुनिया में दर्ज किया जा रहा है, और भारत में सार्वजनिक जगहों को लीज पर देने, या महंगे किराये के नाम पर इसी तरह के खानपान के एकाधिकार की जगह बना देना बहुत गैरजिम्मेदारी की बात है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला मौजूदा कानून के हिसाब से है, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों को अपने अधिकार क्षेत्र में चलने वाले कारोबार पर खानपान के बेहतर सामानों की शर्त लागू करने से कोई नहीं रोक सकता, और इलाज का खर्च कुल मिलाकर सरकार पर ही आता है, इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए।
आज जब ब्राजील अपने इतिहास के सबसे महान, और दुनिया के भी सबसे महान फुटबॉल खिलाड़ी पेले के अंतिम दर्शन कर रहा है, तभी फुटबॉल की दुनिया में पुर्तगाल के फुटबॉलर क्रिस्टियानो रोनाल्डो ने सऊदी अरब के एक क्लब के साथ तीन बरस का एक समझौता किया है जिसके तहत उन्हें हर साल करीब 1773 करोड़ रूपये मिलेंगे। यह करार उस वक्त हुआ है जब दुनिया के एक सबसे फुटबॉल क्लब मेनचेस्टर यूनाईटेड के साथ रोनाल्डो का करार खत्म हुआ ही था, और कुछ लोग उनका कॅरियर ढलान पर होने की बात करने लगे थे। ऐसे में इतना महंगा अनुबंध उनके बारे में अटकलों को लगाम लगाता है। ब्राजील के पेले का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था, और जब पिता बिना रोजगार थे तो घर चलाने के लिए पेले जूते पॉलिश करने का काम भी किया था, और उसी कमाई से अपना पहला अच्छा फुटबॉल भी खरीदा था। फुटबॉल के साथ जुड़े हुए कई सबसे कामयाब खिलाड़ी ब्राजील, अर्जेंटीना, पुर्तगाल जैसे कई देशों के गरीब परिवारों से निकलकर आए, और कामयाबी और शोहरत के आसमान पर पहुंचे। खुद रोनाल्डो की प्रतिभा को पहचानकर जब उनके शहर के एक क्लब ने उन्हें आने का न्यौता दिया, तो शहर के दूसरे सिरे पर बसे उस क्लब तक पहुंचने का भाड़ा भी उनके पास नहीं था, और ऐसे में उन्हें करीब के एक दूसरे औसत दर्जे के फुटबॉल स्कूल तक पैदल जाना पड़ता था क्योंकि परिवार के पास बस खाने को पैसा था।
चूंकि अभी-अभी विश्वकप फुटबॉल हुआ है, और उसकी कई टीमों के कई खिलाड़ी ऐसी ही गरीबी से निकलकर आए हैं, इसलिए गरीब बच्चों के बारे में सोचने का यह सही मौका है। ब्राजील के फुटबॉल खिलाडिय़ों को लेकर पिछले बरस छपे एक लेख में यह नजरिया सामने रखा गया था कि किस तरह वहां खिलाडिय़ों की गरीबी ने उनके हुनर और खूबी को गढ़ा है। ब्राजील दुनिया के फुटबॉल देशों में चर्चित रहा है, और वहां की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बहुत गरीब है। अपनी गरीबी से लडऩे के लिए ही मानो वहां के बच्चे बड़े खिलाड़ी बनते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि कामयाबी उनकी गरीबी दूर सकती है। और यह नौबत दुनिया में किसी भी जगह आ सकती है कि अभाव और गरीबी में बड़े होने वाले बच्चों में संघर्ष करने की क्षमता और हसरत औरों के मुकाबले अधिक हो। ऐसा इसलिए भी होता है कि उन्हें यह मालूम रहता है कि उनकी मेहनत और उनका हुनर ही उन्हें गरीबी के दलदल से निकलने में मदद कर सकते हैं।
दुनिया में बहुत से ऐसे खेल हैं जिनमें बहुत महंगा प्रशिक्षण लोगों को आगे बढऩे के लिए जरूरी सा रहता है, लेकिन हर देश में कुछ न कुछ बच्चे ऐसे रहते हैं जो बिना महंगे प्रशिक्षण के, बिना महंगे साज-सामान और जूतों के, अभाव में भी आगे बढ़ते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे देश के लोगों को ऐसी ही मिसालों से सीखना चाहिए। जब दुनिया में तीन-चार करोड़ आबादी के गरीब देश भी विश्वकप फुटबॉल के सेमीफाइनल तक पहुंच सकते हैं, तो फिर हिन्दुस्तान जैसा देश अपनी 140 करोड़ आबादी को लेकर अपने बच्चों में हौसला क्यों नहीं भर सकता? और हम यह जिम्मा इस देश की सरकार का नहीं मान रहे, बल्कि समाज और आम लोगों का मान रहे हैं कि किस तरह बच्चों को बढ़ावा देकर उन्हें दुनिया के मुकाबले खड़ा किया जा सकता है। अब फुटबॉल जैसे गरीबों के खेल में आसमान पर पहुंचे हुए गरीब देशों के मुकाबले भी हिन्दुस्तान जैसा अपने को विकसित कहने वाला देश जमीन पर औंधे मुंह इसलिए गिरा हुआ है कि यहां खेल पर दूसरी तमाम चीजों का कब्जा है।
इस देश में खेल के मैदानों को देखें तो सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ चेतावनी वाले फैसले के बाद भी बहुत से प्रदेशों में स्थानीय संस्थाएं मैदानों को काट-काटकर खाने-पीने के बाजार बना रही हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर शायद सबसे ही आगे है। एक भी मैदान बिना काटे, बिना छोटा किए छोड़ा नहीं गया है, और अब तो इन हमलावर तेवरों के साथ मैदानों को खाने-पीने की चौपाटी बनाया जा रहा है कि कहीं खिलाडिय़ों के खेलने को कोई जगह न बच जाए। इसके अलावा साल भर खेल मैदानों पर सरकारी प्रदर्शनियां, बाजारू मेले, धार्मिक कार्यक्रम, सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रम चलते ही रहते हैं, और किसी मैदान को खेलने के लायक छोड़ा नहीं जाता। खेल संघ भी सरकार से टकराव लेने की हिम्मत नहीं कर पाते, और दम तोड़ते मैदानों को देखते हुए अपने संगठन की राजनीति में लगे रहते हैं। ऐसे देश ब्राजील या अर्जेंटीना जितने गरीब न भी हों, वहां पर कोई खिलाड़ी पैदा नहीं हो सकते। जिन अंग्रेजों की गुलामी में हिन्दुस्तान ने डेढ़ सौ बरस गुजारे हैं, उनके छोड़े हुए क्रिकेट पर यह देश फिदा है, और इस खेल के लिए इस देश में पैसा ही पैसा है। लेकिन बाकी किसी खेल के लिए किसी मैदान को भी छोडऩे की जरूरत किसी को नहीं लगती है। जिस तरह देश की सरकार पिछली पौन सदी में बनी हुई सरकारी कंपनियों को बेचने में लगी हुई है, उसी तरह प्रदेश, और शहरों की स्थानीय सरकारें मैदानों को काट-काटकर बाजार बनाने में लगी हुई हैं। कोई बच्चे खुद होकर फुटबॉल खेल सकें, इसकी भी गुंजाइश सरकारें नहीं छोड़ रही हैं। बार-बार अदालतों तक ये मामले जाते हैं कि खेल मैदानों का कोई गैरखेल इस्तेमाल न हो, लेकिन फिर पूरे वक्त गैरखेल इस्तेमाल ही होता है।
हिन्दुस्तान जैसे दुनिया के आज के दूसरे सबसे बड़े देश, और बहुत जल्द आबादी के मामले में दुनिया के सबसे बड़े देश को सोचना चाहिए कि जब छोटे-छोटे देश खेलों में आसमान पर पहुंचते हैं, तब हिन्दुस्तान चने के झाड़ पर चढक़र तिरंगा फहराकर गौरव हासिल करते क्यों बैठे रह जाता है? बिना सरकारी मदद के भी गरीब खिलाड़ी शायद आगे बढ़ जाएं, अगर उनके हिस्से के मैदानों बेच खाने पर सत्तारूढ़ नेता आमादा न हों। ऐसे बाजारूकरण के खिलाफ लोगों को उठकर खड़ा होना चाहिए।
नए साल के मौके पर दिल्ली में सुबह के अंधेरे में एक कार में सवार पांच लोगों ने एक स्कूटी सवार युवती को टक्कर मार दी, और उसकी लाश कार में फंसे हुए चार किलोमीटर तक घिसटती चली गई। सुबह तीन बजे की इस वारदात को देखने वाले एक दूध वाले ने पुलिस वैन को खबर करने की कोशिश की, लेकिन उसे पुलिस वाले नशे में मिले। फिर किसी और ने इस महिला या उसकी लाश को घसीटती जा रही कार के बारे में पुलिस को खबर की, और तब जाकर पांच लोगों सहित इस गाड़ी को पकड़ा गया। यह मामला देश की राजधानी दिल्ली में 31 दिसंबर की आधी रात के बाद हुआ जिसमें कि ऐसे हादसों की बड़ी आशंका थी, और पुलिस को खास चौकन्ना रहने की हिदायत तो इस रात देश भर में दी ही जाती है।
हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बसे हुए इस शहर में रोजाना ही सडक़ों पर तरह-तरह से नियमों के खिलाफ चलने वाली गाडिय़ों को देखते हैं, और उन गाडिय़ों को देखती चुपचाप खड़ी पुलिस को भी देखते हैं। हो सकता है कि देश के कुछ प्रदेश ट्रैफिक को लेकर अधिक चौकन्ने हों, लेकिन छत्तीसगढ़ जैसे बर्बाद प्रदेश भी कम नहीं होंगे। हमारा यह भी देखा हुआ है कि जो लोग सडक़ों पर नियम तोड़ते हैं, वे वहीं पर नहीं थमते हैं, वे और सौ किस्म की गुंडागर्दी करते हैं, और सडक़ों पर अराजकता का माहौल बनाते हैं। साइलेंसर फाड़ी हुई जो मोटरसाइकिलें लाखों रूपये की आती हैं, जिनकी आवाज एक किलोमीटर दूर से सुनाई देती है, वे सडक़ों पर रात-दिन चौराहे पार करते हुए दौड़ती हैं, और ऐसी हर फटफटी दिन भर में दर्जनों पुलिसवालों के सामने से निकलती होगी, लेकिन पुलिस ने इन्हें छूना भी बंद कर दिया है। हेलमेट लगाना छत्तीसगढ़ के एक छोटे से इलाके, दुर्ग-भिलाई में पुलिस बार-बार लागू करती है, लेकिन मानो सडक़ की यह जीवनरक्षक सावधानी राजधानी की शान के खिलाफ है, यहां पुलिस का हौसला लोगों को हेलमेट पहनाने का भी नहीं होता, बल्कि कुछ बरस पहले राजधानी में पुलिस ने जनसहयोग से हेलमेट खरीदकर लोगों को मुफ्त पहनाए थे, और उस वक्त भी हमने इसे नियम तोडऩे वालों को पुरस्कार देना करार दिया था। हालत यह है कि 25-50 लाख की गाडिय़ों पर आड़े-तिरछे नंबर लिखे रहते हैं, गैरकानूनी सायरन और लाईटें उन पर तनी रहती हैं, लेकिन पुलिस इनका कुछ नहीं करतीं। आम जनता की जिंदगी में सडक़ पर हिफाजत रखने में पुलिस का कोई योगदान नहीं दिखता। हम इसी शहर को एक नमूना मानकर यह बात लिख रहे हैं कि दर्जनभर पुलिस अफसर आए और चले गए, और किसी ने भी ऑटोरिक्शा की संगठित अराजकता पर काबू की कोशिश नहीं की। न आरटीओ, और न ट्रैफिक पुलिस, किसी की कोई नीयत भी संगठित कारोबारी गाडिय़ों पर कार्रवाई की नहीं दिखती है, और इसकी वजह समझना कोई पहेली सुलझाना भी नहीं है।
हर कुछ हफ्तों में देश के तमाम शहरों से ऐसे वीडियो सामने आते हैं कि बददिमाग पैसे वाले किस तरह दारू और पैसों के मिलेजुले नशे के साथ सडक़ों पर गुंडागर्दी करते हैं, और जब ऐसे सुबूत सामने रख ही दिए जाते हैं, तब पुलिस के पास कार्रवाई करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रहता। वरना आम जिंदगी में जितने किस्म की गुंडागर्दी वीडियो पर आए बिना सडक़ों पर होती है, पुलिस उसकी अनदेखी करते हुए कारोबारी गाडिय़ों में अपनी दिलचस्पी पूरी करने में लगी रहती है। यह सिलसिला किसी अफसर के आने और जाने से जब नहीं बदलता है, तो यह बात समझ में आती है कि सत्ता की मंजूरी ऐसे अफसरों को रहती है, और छांटकर कुछ चुनिंदा अफसर सबसे बड़ी उगाही की जगह पर बार-बार तैनात होते हैं।
अब सरकार की हर नाकामी पर अदालत जाने का तो कोई मतलब भी नहीं रह गया है क्योंकि जब अदालतें लाउडस्पीकरों के शोर पर सीधे कलेक्टर और एसपी को जवाबदेह ठहराते हुए चेतावनी जारी करती है, और उसके बाद भी उस पर जब कोई कार्रवाई नहीं होती, तो यह साफ रहता है कि अदालतें बेअसर हो गई हैं। छत्तीसगढ़ में तो हमने हाईकोर्ट के साफ फैसलों और कड़ी चेतावनियों को सिर्फ कूड़े के ढेर में जाते देखा है, और जजों को भी इसकी कोई परवाह होती हो, ऐसा कोई सुबूत सामने नहीं आया है। इसलिए सरकारी अफसरों की गैरजिम्मेदारी और नाकामी की किन-किन बातों को लेकर लोग अदालत जा सकते हैं? और क्यों जाएं, जबकि अदालत का कोई असर ही सरकार पर नहीं बच गया है। शहरी जिंदगी की अराजकता अंधाधुंध है, और अपने-अपने शहर में जाने-माने, या थोड़ा-बहुत असर रखने वाले लोग भी जब अफसरों से की गई शिकायत को सिर्फ अनसुनी पाते हैं, तो वे किस मुंह से अदालत तक जाएं, और अदालत से क्या उम्मीद करें?
ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में शहरी जिंदगी को नियम-कायदे से चलाने का जिम्मा जिन अफसरों पर है, उनके ऐसे रूख से या तो सरकार सहमत है, या सरकार खुद ही उन्हें ऐसा ही रूख रखने के लिए कहती है ताकि सत्ता के पसंदीदा अराजक गुंडों को कोई असुविधा न हो। किसी देश-प्रदेश में लोकतंत्र का विकास इन बातों से भी आंका जाता है कि वहां जनजीवन में आम लोगों के अधिकारों का कितना सम्मान होता है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में ऐसे अधिकार मिट्टी में मिले हुए हैं, और किसी को इसकी कोई फिक्र भी नहीं है कि आम जनता की कोई विपरीत प्रतिक्रिया किसी चुनाव में सामने आ सकती है। एक के बाद दूसरी सरकार के राज में माहौल ऐसा ही रहने से यह साफ है कि किसी पार्टी की सरकार को सार्वजनिक जीवन में आम लोगों के अधिकार कायम करने की फिक्र नहीं है। इसके साथ-साथ स्थानीय स्तर पर निर्वाचित नेताओं को भी नियम-कायदे पसंद नहीं रहते, क्योंकि वे भी अपने-अपने अराजक लोगों की गुंडागर्दी को बढ़ावा देना चाहते हैं, और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बाजार का एक फेरा लगाकर इस बात को अच्छी तरह समझा जा सकता है कि किस तरह नियमों को मार-मारकर उनमें भूसा भर देने का काम चल रहा है। ऐसी ही नौबत आगे जाकर सडक़ों पर मौत लाती है, और देश के बहुत से प्रदेशों के अधिकतर इलाके जुर्म का यह दर्जा देखते आ रहे हैं। यह हर शहर के बाशिंदों को खुद ही तय करना है कि वे अपनी अगली पीढ़ी को कितना खतरनाक शहर देकर जाना चाहते हैं, या वे आज कोई नागरिक-पहल करके चीजों को सुधार भी सकते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के अकेले जिंदा भूतपूर्व पोप, पोप बेनेडिक्ट 95 बरस की उम्र में गुजर गए। 2013 में उन्होंने पोप रहते हुए अपनी बढ़ती उम्र और खराब सेहत का हवाला देते हुए यह पद छोड़ दिया था। ऐसा करने वाले वे 6 सौ बरस में पहले व्यक्ति थे। लेकिन इसके बाद वे रोमन कैथोलिक धर्म के मुख्यालय, वेटिकन में ही बने रहे। उनके बाद बनने वाले पोप, पोप फ्रांसिस ने दो-तीन दिन पहले ही दुनिया भर के कैथोलिक लोगों से भूतपूर्व पोप के लिए प्रार्थना करने को कहा था, जाहिर है कि उनकी हालत खराब दिख रही होगी, और आखिरी दौर में वे ऐसी अपील कर रहे थे। पोप बेनेडिक्ट न सिर्फ वेटिकन में रहते थे, बल्कि वे पोप की पोशाक भी पहनते थे, और मीडिया को इंटरव्यू भी देते थे। ईसाई धार्मिक मामलों के जानकार लोगों का यह मानना है कि एक बार पोप का पद छोड़ देने के बाद उन्हें इस धार्मिक सत्ता से दूर भी रहना चाहिए था, और चुप भी रहना चाहिए था। खैर, इस मुद्दे पर आज लिखने का मकसद पिछले पोप के इस फैसले पर चर्चा नहीं है, बल्कि उन्होंने दुनिया के दूसरे जरूरी मुद्दों पर 21वीं सदी में आकर भी जो रूख दिखाया था, उस पर चर्चा करना है।
जैसा कि ईसाई धर्म में होता है, पोप बनने वाले लोग उसके पहले कई दशक पोप से नीचे के ओहदों पर रहते हैं, और अपने ऐसे ही लंबे कार्यकाल के दौरान भूतपूर्व पोप बेनेडिक्ट ने अपने पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण के मामलों से निपटने में जो ढीला-ढाला रूख दिखाया था, और मुजरिमों को जिस तरह बचाया था, वह भयानक बात थी। ईश्वर का नाम लेकर मासूम बच्चों का यौन शोषण करने वाले लोगों को बचाना यौन शोषण करने से कम बड़ा जुर्म नहीं था। इसी बरस जनवरी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि ये भूतपूर्व पोप 1977 से 1982 तक जर्मनी के म्युनिख में आर्कबिशप रहते हुए अपने पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण से वाकिफ थे, लेकिन उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। उन्होंने 2004 से लेकर 2014 के बीच बच्चों के यौन शोषण और उनसे बलात्कार के मामलों में चर्च के भीतर कार्रवाई करते हुए 848 पादरियों को हटाया था, और ढाई हजार से अधिक को कुछ कम सजा दी थी, लेकिन ऐसी 34 सौ शिकायतों पर उन्होंने देश के कानून के मुताबिक कोई कार्रवाई नहीं होने दी। उन्हीं के दौर में कई ऐसे पादरी चर्च की अंदरुनी कार्रवाई से भी बच निकले जिन पर दो-दो सौ बच्चों के यौन शोषण के आरोप थे। ऐसे सभी जुर्म पर उन्होंने एक आम माफीनामा जारी करते हुए यौन शोषण के शिकार लोगों से शर्मिंदगी जाहिर करते हुए माफ कर देने की अपील की थी। जबकि इन मामलों में अदालती कार्रवाई की जरूरत थी। धर्म हर कुकर्म को छुपाने की ताकत रखता है, और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के सबसे बड़े धर्मगुरू, पोप बनने वाले बेनेडिक्ट ने इसे सही साबित किया था। इसके अलावा उन्होंने समलैंगिक लोगों का खुलकर विरोध किया था।
सिर्फ इसी धर्म की बात नहीं है, बहुत से और धर्मों का भी यही हाल है कि वहां हर किस्म के जुर्म खप जाते हैं। आज भी हिन्दुस्तान में अलग-अलग बहुत से धर्मों से जुड़े हुए धर्मगुरू या पादरी, या प्रचारक, या तथाकथित संत बलात्कार की सजा काट रहे हैं, और बाहर निकलकर और बलात्कार करने की हड़बड़ी में भी हैं। यह देखकर तकलीफ होती है कि आसाराम जैसा बलात्कारी जिसे देश के सबसे बड़े वकीलों के रहते हुए भी सुप्रीम कोर्ट तक ने जमानत या पैरोल के लायक भी नहीं पाया, आज भी उसका प्रचार करने के लिए उसके भक्त अपने परिवारों के नाबालिग बच्चों के साथ सडक़ों पर पर्चे बांटते दिखते हैं, जबकि आसाराम को अपने एक भक्त परिवार की नाबालिग लडक़ी से बलात्कार के जुर्म में ही सजा हुई है। ऐसी ही सजा बाबा राम-रहीम कहे जाने वाले एक और नौटंकीबाज को मिली है, जो पंजाब-हरियाणा में अपने भक्तों की बड़ी संख्या के चलते चुनाव के आसपास पैरोल पर बाहर दिखाई पड़ता है। हाल के बरसों में लगातार मुस्लिम धर्म से जुड़े हुए बच्चों और नाबालिग लड़कियों से बलात्कार करने वाले लोग पकड़ाए हैं, लेकिन धर्मों को मानने वाले लोगों का हाल यह रहता है कि वे अपने बलात्कारियों पर भी आस्था रखते हैं। धर्म के झंडों की आड़ में हजार किस्म के जुर्म चलते हैं, और लोकतांत्रिक देशों में भी सरकारें इन पर कार्रवाई करने से हिचकती हैं।
इसकी एक मिसाल छत्तीसगढ़ के इतिहास में है जब आधी सदी पहले एक मठ के महंत एक महिला से अपने अनैतिक संबंधों के चलते अपने गुंडों से एक कत्ल करवा बैठे थे, और उस वक्त के ब्राम्हण मुख्यमंत्री की छाती पर यह बात बोझ थी कि उनके सीएम रहते एक हिन्दू महंत को फांसी हो सकती है, तब उन्होंने वह केस रफा-दफा करवाया, और उस मठ-महंत से सैकड़ों एकड़ जमीन दान करवाई, जिस पर आज कॉलेज चल रहे हैं। धर्म और जुर्म की साठगांठ वेटिकन से लेकर तालिबान तक, और हिन्दुस्तान के मठों तक, सब जगह शान से चलती है, और कानून को कुचलते चलती है। दुनिया के वे देश कम जुर्म झेलते हैं जहां धर्म का बोलबाला घट रहा है, धर्म को मानने वाले लोग घट रहे हैं, नास्तिक बढ़ रहे हैं। ऐसा शायद इसलिए भी हो रहा होगा कि नास्तिकों के पास प्रायश्चित करके अपने पापों से मुक्ति पाने का विकल्प नहीं रहता है, इसलिए वे पाप कहे जाने वाले जुर्मों से दूर रहते होंगे। जिनके पास चर्च के कन्फेशन चेंबर की सहूलियत रहती है, कोई दान देकर पापों से छुटकारा पाने की आजादी रहती है, वे लोग फिर नए सिरे से पाप करने का उत्साह पा लेते हैं। इसलिए धर्म के जुर्म को गिनाने का कोई मौका नहीं चूकना चाहिए। धर्म लोगों के सोचने-समझने की ताकत को जितना कमजोर कर देता है, और जुर्म करने के हौसले को जितना मजबूत कर देता है, उसकी इन दोनों खामियों को बार-बार गिनाया जाना चाहिए, ताकि किसी में समझ आने की थोड़ी सी गुंजाइश अगर बाकी हो, तो वह आ जाए।
नए साल का मौका बहुत से नए संकल्पों का भी रहता है। लोग अपनी कुछ बुरी आदतों को छोडऩा तय करते हैं, और नए साल के पहले दिन से कुछ अच्छी आदतें पकडऩे का पक्का इरादा रखते हैं। पहला हफ्ता गुजरते न गुजरते साल भर के लिए किए गए अधिकतर संकल्प गुजर जाते हैं। जो लोग क्रिसमस और नए साल के मौके पर बच्चों की जिद में उनके लिए कुत्ते-बिल्ली लेकर आते हैं, उनकी बेरहम बिदाई भी अगले कुछ महीनों में होने लगती है, और जनवरी के बाद जल्द ही दुनिया ऐसे लावारिस पालतू जानवरों को देखती है, और इनके पुनर्वास में लगी संस्थाएं एक मुश्किल दौर से गुजरती हैं कि इतने जानवरों के लिए नए घर कहां से ढूंढे जाएं। लेकिन जिस तरह कुदरत में सालाना पतझड़ का एक दौर आता है, वैसा ही एक दौर दीवारों पर से कैलेंडर के टपकने का होता है, और नए पत्तों की तरह नए साल का कैलेंडर दीवारों पर उग आता है।
ऐसे माहौल के बीच जब लोगों को अपनी-अपनी जिंदगी में कई नई चीजें तय करने का मौका मिलता है, तो नए साल के ऐसे मौके का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए। संकल्प आमतौर पर इसीलिए लिए जाते हैं कि जितने वक्त तक उन्हें ढोया जा सके, ढो लिया जाए, और बाद में उन्हें सहूलियत के साथ भुला दिया जाए। लेकिन जिन लोगों के संकल्प कायम रह जाते हैं, वे लोग तो कामयाब होते ही हैं, और ऐसी कामयाबी की कोशिश में ही हर किसी को नए साल के मौके पर कुछ न कुछ तो तय करना चाहिए, और तय करने से परे भी कुछ चीजों के बारे में सोचना चाहिए। अब हिन्दुस्तान में रहते हुए आम लोग अगर रूस और यूक्रेन में से किसी एक से कोई रिश्ता याद रख पाते हैं, तो वह सोवियत संघ के समय से रूस के साथ भारत की दोस्ती है, जिसके चलते भिलाई इस्पात संयंत्र जैसे कारखाने बने हैं, और अंतरराष्ट्रीय मुसीबत के समय रूस ने जिस तरह भारत का साथ दिया था, वह भी भारत के लोगों को याद है। लेकिन वह दौर निकल गया है, और आज खुद रूस अपने इतिहास से कुछ परे-परे चल रहा है, और जिस अंदाज में वह रात-दिन यूक्रेन की नागरिक आबादी पर हमले कर रहा है, उसे अनदेखा करना ठीक नहीं है। इसलिए लोगों को यह याद रखना चाहिए कि आज दुनिया का एक सबसे ताकतवर देश किस तरह एक छोटे पड़ोसी देश को खत्म करने पर आमादा है, और हिन्दुस्तानी नागरिक इसमें सीधे कोई दखल चाहे न दे सकें, उन्हें इसकी जानकारी तो रखनी चाहिए, यूक्रेन के हित में न सही, अपने खुद के हित में इस अंतरराष्ट्रीय जुल्म को समझना चाहिए। इसी तरह लोगों को यह भी समझना चाहिए कि इजराइल में आज एक कैसी कट्टरपंथी और जुल्मी सरकार बन रही है जो कि फिलीस्तीन को धरती से मिटा देने पर आमादा है। इस पर न महज फिलीस्तीनी, बल्कि दुनिया के बहुत से दूसरे देश भी फिक्रमंद हैं, संयुक्त राष्ट्र संघ सहित। कुल मिलाकर हमारा यह सोचना है कि नया साल निजी अच्छी और बुरी आदतों को पकडऩे और छोडऩे से परे एक सरोकार की सोच का भी रहना चाहिए जिसमें हम उन लोगों के बारे में सोचें जिनसे हमारी जिंदगी सीधी-सीधी जुड़ी हुई नहीं है। अफगानिस्तान में तालिबान नाम के दहशतगर्द आतंकी सरकार चलाते हुए अपनी महिलाओं और लड़कियों के साथ किस तरह का अमानवीय बर्ताव कर रहे हैं, इससे हिन्दुस्तान की जिंदगी पर आज तो सीधे-सीधे असर नहीं पड़ रहा है, लेकिन लोगों को इसे समझना चाहिए क्योंकि आज नहीं तो कल इन्हीं तालिबानों से हौसला पाकर दूसरे देशों में दूसरे धर्मों के लोग भी ऐसी ही तालिबानी हरकतें करेंगे, और हिन्दुस्तान इनसे अछूता नहीं रह जाएगा, आज भी अछूता नहीं है।
दुनिया पर एक नजर दौड़ाने के बाद हम हिन्दुस्तान लौटें तो यहां भी इस किस्म की ज्यादतियां कम नहीं हैं, और इस नए साल का एक संकल्प यह भी हो सकता है कि देश के कुछ लोगों पर, और कुछ तबकों के साथ होने वाले ऐसे जुल्म के बारे में हम कम से कम पढ़ेंगे तो सही, बातों को समझेंगे तो सही, और कुछ कहेंगे। कहने के लिए लोगों के पास मुफ्त का सोशल मीडिया हासिल है जिस पर कोई खर्च नहीं लगता है, महज जरा सा हौसला लगता है सच कहने के लिए, और सच का होने वाला विरोध झेलने के लिए। हिन्दुस्तान के भीतर आज अलग-अलग तबकों के साथ जितने किस्म के जुल्म चल रहे हैं, उन्हें अनदेखा करना बंद करने का एक संकल्प भी लोगों को लेना चाहिए क्योंकि इसके बिना यह लोकतंत्र अधिक लंबा नहीं चल पाएगा। इसको खत्म करने की कोशिशें तेज होती चल रही हैं, और अगर माहौल ऐसा ही रहा तो इसकी जिंदगी बहुत लंबी भी नहीं रहेगी। इसलिए जिंदा कौमों की तरह हिन्दुस्तानियों को देखने, सोचने, समझने, और मुंह खोलने की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए, और नए साल का मौका यह सोचने का भी हो सकता है कि किस तरह लोग दिन का थोड़ा सा वक्त ऐसी कड़वी हकीकत को जानने और उस पर कुछ करने में भी लगाएंगे।
नए साल का मौका यह तय करने का भी हो सकता है कि लोग अपने-अपने दायरे में किस तरह कुछ लोगों को एकजुट करके कुछ नेक काम कर सकते हैं। इसी जगह दस बरस से भी पहले हमने अपने खुद का एक इरादा लिखा था कि समाज में थोड़ी-बहुत भी पकड़ रखने वाले लोग दस-दस लोगों का ऐसा समूह तैयार कर सकते हैं जो कि अपने आसपास के और दस-दस लोगों के घरों से बेकार सामान को इकट्ठा करें, और उसे जरूरतमंद लोगों के बीच बांटें। अगर कुल दस लोग कमर कस लें, और इनमें से हर कोई अपने इर्द-गिर्द के दस-दस घरों का जिम्मा ले, तो महीने में दो-चार घंटे देकर ही सौ घरों का फालतू सामान लाया भी जा सकता है, और जरूरत की जगह पर पहुंचाया भी जा सकता है। दुनिया के अलग-अलग देशों और शहरों में बहुत से लोग इसी तरह की पहल करते हैं, और उनमें से कुछ कोशिशें दुनिया की सबसे बड़ी कोशिशें हो जाती हैं। पाकिस्तान में ईधी फाउंडेशन बनाकर पूरे देश में एम्बुलेंस सेवा का जाल बिछा देने वाले एक बुजुर्ग की लोगों को याद होगी जिन्होंने भारत से किसी गलती से पाकिस्तान चली गई एक मूकबधिर लडक़ी गीता को आसरा दिया था, और उस मुस्लिम परिवार में वह अपने हिन्दू धर्म के साथ बड़ी हो रही थी, और पांच-दस बरस पहले वह हिन्दुस्तान लाई गई थी। अब कट्टरपंथ और धर्मान्ध आतंक के शिकार पाकिस्तान के भीतर अब्दुल सत्तार ईधी नाम के एक सज्जन ने 1951 में जो समाजसेवी संगठन शुरू किया था, वह न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी समाजसेवी एम्बुलेंस सेवा चला रहा है। एक अकेले इंसान की शुरू की हुई एक पहल, उसका रोपा गया एक पौधा किस तरह इतिहास का सबसे बड़ा बरगद बन सकता है और जरूरतमंदों को अपनी छांह दे सकता है यह देखने की जरूरत है।
इसलिए नए साल के इस मौके पर हम लोगों को बस उन बातों को याद दिला रहे हैं जो कि उन्हीं के बीच के, उन्हीं के सरीखे आम लोगों ने कभी शुरू की थी, और जो कोशिशें बढक़र कभी बाबा आम्टे बनीं, कभी मदर टेरेसा बनीं, और कभी रेडक्रॉस जैसी संस्था बनी। लोगों को नेक काम की ताकत को कम नहीं आंकना चाहिए। नेक काम शुरूआत में कुछ महत्वहीन से दिखते हैं, चर्चा से परे रहते हैं, लेकिन जब वे पनपते हैं, तो दूर-दूर तक उनकी हरियाली का खूबसूरत नजारा दिखता है, और खूब सारे लोगों को उनकी छांह मिलती है, उसके फल मिलते हैं। इसलिए चाहे खून देने जैसी छोटी पहल हो, चाहे अंगदान करने जैसे दानपत्र भरने हों, ऐसे बहुत से कामों के बारे में सोचना चाहिए, आसपास के लोगों से उसकी चर्चा करनी चाहिए, और अपने बीच उनकी संभावनाएं देखनी चाहिए।
सोशल मीडिया के आने के पहले जिंदगी इतनी दिलचस्प कभी नहीं थी। मीडिया के नाम पर एक वक्त सिर्फ अखबार थे, फिर रेडियो-टीवी जुड़ गए, और कई दशक बाद इंटरनेट पर डिजिटल मीडिया विकसित हुआ। लेकिन इंटरनेट पर सोशल मीडिया के आते ही जिस तरह से आम लोगों को एक लोकतांत्रिक अधिकार मिला, आवाज मिली, उससे दुनिया की पूरी तस्वीर बदल गई। एक वक्त किसी शहर के चार अखबारों को काबू में करके, इश्तहार या रिश्वत देकर वहां की किसी भी खबर को दबाया जा सकता था। आज हिन्दुस्तान जैसे देश में भी हर शहर-कस्बे में सोशल मीडिया पर दसियों हजार या लाखों लोग हैं, और किसी भी बात को छुपाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं रह गया। आज तो अगर दर्जन भर किस्म के अलग-अलग धर्मों के ईश्वर भी मिलकर चाहें कि किसी बात को दबवा लें, तो सोशल मीडिया पर लाखों नास्तिक भी मौजूद हैं जो कि ईश्वरों के दबाव का जिक्र करते हुए भी उनकी अनचाही खबरों को पल भर में चारों तरफ फैला देंगे। लेकिन इस सोशल मीडिया से उन लोगों के लिए खासी दिक्कत खड़ी हो गई है जो कि कुछ अरसा पहले किसी और संदर्भ में अलग किस्म की बात करते आए हैं, और आज अपने मतलब से या बदले हुए माहौल को देखते हुए उससे ठीक उल्टी बात कर रहे हैं। लोग उनकी पुरानी उल्टी को सोशल मीडिया पर ढूंढकर आज उनके मुंह पर मल दे रहे हैं।
ऐसा ताजा हादसा कश्मीर फाईल्स नाम की फिल्म के निर्माता-निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री के साथ हुआ जिन्होंने फिल्म पठान के विरोध में एक वीडियो पोस्ट किया था। उनकी यह पोस्ट भारत के हिन्दुत्ववादियों के अभियान का हिस्सा थी जो कि अभिनेता शाहरूख खान की वजह से उनकी बांहों में दिख रही अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की भगवा-केसरिया बिकिनी को हिन्दू धर्म का अपमान करार दे रहे हैं। विवेक अग्निहोत्री सोशल मीडिया पर रात-दिन हिन्दुत्ववादी-राष्ट्रवादी आंदोलनकारी की तरह लगे रहते हैं, और उनकी इस पोस्ट के बाद लोगों ने आनन-फानन सोशल मीडिया से ही विवेक अग्निहोत्री की बेटी मल्लिका की अपनी पोस्ट की हुई तस्वीरें निकालकर लगा दीं जिनमें वे भगवा कलर के बिकिनी टॉप में समंदर के किनारे अपनी तस्वीरें खिंचवाकर पोस्ट कर रही हैं। विवेक अग्निहोत्री के पोस्ट किए हुए वीडियो में दीपिका का बिकिनी-डांस देखकर एक बच्ची रोते हुए कह रही है कि इतनी अश्लीलता आप लोग लाते कहां से हो। यह सवाल दिलचस्प हो सकता था लेकिन लोगों ने विवेक अग्निहोत्री का एक पुराना वीडियो निकालकर पोस्ट किया जिसमें उन्होंने हेट-स्टोरी नामक फिल्म बनाते समय फिल्मों में महिला के बदन को दिखाने के महत्व का लंबा-चौड़ा बखान किया था, और ऐसे मादक नजारों का जश्न मनाने के लिए कहा था। उनका यह लंबा वीडियो माइक पर उनकी कही हुई बातें हैं जिसमें उन्होंने महिला के बदन को खूबसूरत बताते हुए उसे पर्दे पर दिखाने की लंबी-चौड़ी हिमायत की थी। अब आज जब वे एक, दर्जनों दूसरे रंगों सहित भगवा-केसरिया बिकिनी में दिखने वाली दीपिका के बहाने शाहरूख का नाम लिए उन पर हमला कर रहे हैं, तो यह सोशल मीडिया की ही ताकत है कि वह पल भर में विवेक अग्निहोत्री की दोगली बातों का भांडाफोड़ कर रहा है। और मजे की बात यह है कि टीवी से लेकर अखबारों तक और डिजिटल से लेकर दूसरे किस्म के मीडिया तक, ये सब सोशल मीडिया की ऐसी पोस्ट को अपनी खास खबरें बना रहे हैं। मीडिया मालिकों और मीडिया के लिए काम करने वाले तथाकथित पत्रकारों को काबू में करने वाली ताकतों के लिए सोशल मीडिया एक बुरे ख्वाब की तरह है जिस पर कोई काबू नहीं पाया जा सकता। फेसबुक जैसे कुछ बिकाऊ माध्यमों से ऐसे काबू के सौदे जरूर हो सकते हैं, लेकिन उसके बावजूद कई दूसरे सोशल मीडिया हमेशा ही लोगों के लिए मौजूद रहेंगे, और लोग उनका लोकतांत्रिक इस्तेमाल करते ही रहेंगे। सोशल मीडिया की इस ताकत को कम नहीं आंकना चाहिए कि वह पहाड़ से निकलने वाली एक नदी की तरह है जिसके पानी का बहाव बेकाबू रहता है। और यही बेकाबूपन उसे कुछ हद तक अराजक और बहुत हद तक लोकतांत्रिक बनाकर चलता है।
पिछले कुछ महीनों में कई ऐसे मौके सामने आए हैं जब भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकतों ने दूसरों पर हमले किए, और कुछ घंटों के भीतर उन ताकतों की पुरानी बातों की कतरनें, उनके वीडियो निकालकर लोगों ने पोस्ट करना शुरू कर दिया। आज तो सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोग सचमुच ही शीशे के घरों में रह रहे हैं, और उन्हें दूसरों पर पत्थर चलाने के पहले यह याद रखना चाहिए कि जो लोग सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं वे मानो पारदर्शी सेलोफिन का तौलिया लपेटे रहते हैं, और लोगों की पहुंच के भीतर रहते हैं। एक मामूली डांस को अश्लील बताने वाले विवेक अग्निहोत्री का महिला-देह की नग्नता की बड़ी लंबी वकालत देखने लायक है, और सोशल मीडिया पर लोगों को ढूंढकर इसे देखना चाहिए कि तिलक लगाया हुआ यह पाखंड किस दर्जे का है। हम सोशल मीडिया की इस अराजक ताकत के लोकतांत्रिक महत्व को गिनाना चाहते हैं कि जब संगठित कारोबार की तरह चलने वाले मीडिया घराने बिक जाते हैं, बड़े-बड़े नामी-गिरामी तथाकथित पत्रकार हर महीने कुछ राजनीतिक ट्वीट करने का लाखों रूपया भुगतान पाते हैं, तब अराजक सही, लोकतांत्रिक सोशल मीडिया यह साबित करता है कि ये तो पब्लिक है, ये सब जानती है...।
पिछले हफ्ते केन्द्र सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया कि वह देश के 81 करोड़ से अधिक गरीब लोगों को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत एक बरस तक मुफ्त राशन दिया जाएगा। सरकार की तरफ से गरीबों के कुछ और दूसरे तबकों को बहुत रियायती रेट पर अनाज दिया जाता है। कोरोना लॉकडाउन के समय से केन्द्र सरकार किसी न किसी तरह से सबसे गरीब लोगों को मुफ्त या रियायती राशन देते आ रही थी, और यह अगले एक बरस तक उसी का विस्तार है। इस पर केन्द्र के करीब 2 लाख करोड़ रूपये एक बरस में खर्च होंगे। भारत में गरीबी और अनाज के इस हाल को दुनिया के कुछ दूसरे हिस्सों से जोड़कर देखने की भी जरूरत है क्योंकि धरती नाम के इस गोले पर दुनिया के तमाम देश नक्शे की सरहदों से परे भी कई तरह से एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। आज दुनिया में मौसम की मार के साथ अनाज को जोड़कर देखने की जरूरत है, और इससे भारत हमेशा अछूता रह जाएगा यह सोचना भी खुशफहमी होगी।
फिलीपींस बहुत अधिक दूर भी नहीं है, और वहां पर एक के बाद एक लगातार आए समुद्री तूफानों ने अरबों-खरबों की फसल तबाह कर दी है। तूफानी बाढ़ की वजह से 10 लाख के करीब घरों को नुकसान पहुंचा है या वे तबाह हो गए हैं, साथ ही सवा 4 लाख हेक्टेयर से अधिक फसल भी तबाह हुई है। नतीजा यह हुआ है कि महंगाई वहां सिर चढ़कर बोल रही है, और वहां के बहुत से शहरों में लोग पेट भरने के लिए भीख मांग रहे हैं। आज ही सुबह बीबीसी पर एक रिपोर्ट थी कि वहां एक कामकाजी परिवार की महिला अपने बच्चों को तीन वक्त की जगह अब दो वक्त खाना दे पा रही है, और कुछ दिन बाद एक वक्त भी खाना मिल पाएगा या नहीं इसका ठिकाना नहीं है। अनाज की कमी से चीजों के भाव आसमान पर पहुंच रहे हैं, और फिलीपींस अपना बहुत सारा अनाज आयात करता है जो कि अब आसान नहीं रह गया है। दुनिया की ब्रेड बॉस्केट कहा जाने वाला यूक्रेन रूसी हमले का शिकार हो गया है, और वहां से मौजूदा अनाज भी बहुत कम निकल पाया है, और आगे तो आबादी, खेत, फसल, ढांचा, सभी कुछ रूसी हमले से तबाह हो चुका है। ऐसे में आगे जाकर वहां भी फसल दुनिया का पेट कितना भर पाएगी इसका कोई ठिकाना नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्यान्न संगठन का कहना है कि दुनिया में 19 देशों पर भूख की मार सबसे अधिक है जिनमें अफगानिस्तान, इथियोपिया, नाइजीरिया, सोमालिया, दक्षिण सूडान, और यमन की हालत बहुत ही खराब है।
अब जंग से लेकर मौसम की मार तक, इन तमाम चीजों को जोड़कर अगर देखा जाए तो मौसम की मार ही सबसे अधिक बेकाबू है जिस पर आने वाले कई बरसों तक दुनिया की कोई ताकत काबू नहीं कर सकती। किसी जंग को तो कुछ मध्यस्थ देश रोक सकते हैं, लेकिन आज दुनिया भर में जो मौसम की सबसे बुरी मार (वेदर एक्स्ट्रीम) पड़ रही है, उससे जूझने का कोई शॉर्ट-कट नहीं है। आज अमरीका जिस तरह बर्फबारी को देख रहा है, उसकी कल्पना भी किसी ने नहीं की थी। दसियों लाख लोग बिना बिजली के अपने घरों में कैद हैं, सड़कों पर लोग कारों में जमकर मर गए हैं, या मरकर जम गए हैं। बड़े-बड़े प्रदेशों में बिजली ठप्प है, और इतनी बुरी बर्फबारी को अमरीका में बॉम्बसाइक्लोन कहा जा रहा है। अब दुनिया के सबसे विकसित देश का ढांचा भी कुदरत की ऐसी मार से जरा भी नहीं जूझ सकता है। दूसरी तरफ अफ्रीका के कुछ देशों में पिछले कई बरस से लगातार जितना भयानक सूखा पड़ रहा है, उसने जानवर और इंसान दोनों का जीना मुहाल हो चुका है। पूरे-पूरे देश बगल के देशों की तरफ खिसक रहे हैं कि किसी तरह खाना और पानी मिल जाए। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ महीने पहले ही हिन्दुस्तान के बगल के पाकिस्तान में ऐसी भयानक बाढ़ आई जैसी किसी ने कभी देखी-सुनी नहीं थी। पूरे के पूरे प्रदेश बाढ़ में डूब गए, सड़क और पुल बह गए, और इमरजेंसी राहत पहुंचाने वाले हेलीकाप्टरों के उतरने के लिए भी सूखी जगह नहीं बची थी। दसियों लाख लोग बेघर हो गए थे, भूखे रह रहे थे। कुल मिलाकर बात यह है कि सूखे और बाढ़ से परे, बर्फबारी, और टिड्डी दल के हमले से परे बहुत सी ऐसी और नौबतें हैं जिनसे फसल तबाह होती है। हिन्दुस्तान में ही अभी गेहूं की पिछली फसल के दौरान जब पौधों पर अन्न के दाने विकसित होते हैं, ठीक उसी समय इतनी भयानक लू चली कि उत्तर भारत में गेहूं की फसल खूबी और वजन दोनों पैमानों पर बर्बाद हुई। और इस मौसम में ऐसी लू की किसी ने कल्पना नहीं की थी।
आज दुनिया को यह समझने की जरूरत है कि लोगों के पास आज अगर किसी तरह खाना जुट रहा है, तो जरूरी नहीं है कि यह अनाज हमेशा मिलते ही रहेगा। मौसम की मार फसलों को बहुत दूर तक बर्बाद कर रही है, और उस पर इंसानों का कोई रातोंरात का काबू भी नहीं हो सकता। आज हर बरस दुनिया में एक-दो जगहों पर मौसम के बदलाव के खतरों से जूझने के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो रहे हैं, उनमें अधिकतर देशों के बड़े नेता पहुंच रहे हैं, मौसम विज्ञानी और पर्यावरण शास्त्री इक_ा हो रहे हैं, पर्यावरण आंदोलनकारी इन मौकों पर खतरों को गिनाते हुए सभा भवनों के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन दुनिया के देश अपने प्रदूषण मेें कटौती को अपनी घरेलू आबादी के बीच अलोकप्रिय मानते हुए उस पर तेजी से कटौती की बात नहीं कर रहे हैं। न तो कोयले से बनने वाली बिजली में कटौती हो पा रही है, और न ही निजी इस्तेमाल वाली बड़ी-बड़ी कारों की बढ़ती हुई गिनती की रफ्तार किसी तरह घट पा रही है। लोगों की संपन्नता उन्हें धरती की साधन-सुविधाओं के अनुपातहीन इस्तेमाल का हक दे रही है, और उस पर कोई देश कोई काबू करना नहीं चाह रहा है। नतीजा यह हो रहा है कि धरती पर गिनी हुई आबादी के बीच खपत इतनी अधिक हो चुकी है कि वह उनसे सैकड़ों या हजारों गुना अधिक गरीब आबादी की खपत को भी पीछे छोड़ चुकी है। ऐसी इंसानी बेलगाम खपत के चलते ही धरती के पर्यावरण में इतना बदलाव आ रहा है कि जगह-जगह एक्स्ट्रीम वैदर की मार इतिहास के सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है।
हम इसे अनाज से जोड़कर इसलिए देख रहे हैं कि इंसान की पहली जरूरत खाने और पानी की रहती है। हवा तो वे प्रदूषित लेना सीख चुके हैं, पानी भी गंदा रहे तो भी काम चला लेते हैं, लेकिन अगर अनाज ही नहीं रहेगा, तो क्या होगा? अभी तो दुनिया केवल एक जंग झेल रही है, हो सकता है कि रूस का यूक्रेन पर हमला बढ़कर रूस और नाटों देशों के बीच जंग में तब्दील हो जाए, और वैसे में दुनिया के और भी बहुत से खेत खत्म हो जाएंगे, अनाज और घट जाएगा। अमरीकी वैज्ञानिक संस्था नासा का एक अध्ययन कहता है कि दुनिया के मौसम में बदलाव से दस बरसों के भीतर ही फसलों पर बहुत बुरा असर देखने मिल सकता है। यह अध्ययन बताता है कि मक्के की फसल 24 फीसदी तक घट सकती है, और उत्पादन में ऐसी गिरावट पूरी दुनिया को भूख से बदहाल कर सकती है। मौसम में बदलाव से अगर भुखमरी और बढ़ी, तो दुनिया के सबसे गरीब और अकालग्रस्त देश बाकी दुनिया की रहम पर अगर जिंदा रह गए तो भी बहुत होगा, लेकिन वहां की आबादी दान पर मिले अनाज पर महज जिंदा रहने से अधिक कुछ भी नहीं कर पाएगी।
आज के अनाज की कमी को देखते हुए, गरीबी और मौसम की मार को देखते हुए सभी लोगों को यह सोचने की जरूरत है कि मौसम के बदलाव में इजाफा करने के बजाय किस तरह किफायत बरती जा सकती है ताकि धरती और अधिक तबाह न हो।
कांग्रेसियों में एक बड़ी खूबी है, जब कभी पार्टी में कुछ अच्छे दिन आते हैं, तो उसकी खुशी में बनाई जा रही खीर में फिनाइल डालने के लिए कोई न कोई कांग्रेसी इस तरह से दौड़कर आगे आते हैं, मानो उन्हें किसी विरोधी पार्टी ने सुपारी दे रखी है। अब चारों तरफ राहुल गांधी की भारत जोड़ो पदयात्रा का असर दिखाई दे रहा था, और उत्तरप्रदेश से आने वाले कांग्रेस के एक बड़े नेता सलमान खुर्शीद ने कल राहुल गांधी की भगवान राम से किसी तरह की एक तुलना की। ऐसी नाजायज बात पर भाजपा का यह हक बनता था कि वह इसे चाटुकारिता की पराकाष्ठा कहे। यह एक अलग बात है कि पिछले कई बरस से देश भर में जगह-जगह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तुलना अलग-अलग भगवानों से करने का सिलसिला चले आ रहा है, और उसे रोकने के लिए न तो मोदी की तरफ से कभी कुछ कहा गया, और न ही भाजपा ने ऐसी नाजायज चापलूसी का कोई विरोध किया। लेकिन राहुल और मोदी के बीच एक बड़ा फर्क है। मोदी लगातार चुनावी कामयाबी पाने वाले नेता हैं, और वे अपनी पार्टी को आसमान पर ले गए हैं, और राहुल की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी ने चुनावों में सब कुछ खोया ही है। अब आज की चर्चा में हम चुनावी कामयाबी या नाकामयाबी से जुड़े हुए दूसरे पहलुओं पर बात करना नहीं चाहते कि कामयाबी किस कीमत पर मिली, या नाकामयाबी के पीछे क्या साम्प्रदायिकता से परे रहना एक वजह रही। अभी हम उस चर्चा को अलग छोडऩा चाहते हैं, और इस पर आना चाहते हैं कि कांग्रेस आज जिस दौर से गुजर रही है, उस दौर में जब पार्टी में कुछ अच्छा होते दिख रहा है, जब राहुल गांधी अपने पैरों पर चलकर एक अलग किस्म की कामयाबी और शोहरत तक पहुंच रहे हैं, दो दिन पहले ही हमारी इसी जगह पर लिखी हुई तारीफ के हकदार बन रहे हैं, तब कांग्रेस पार्टी के एक बड़े मुस्लिम नेता राम से उनकी तुलना करके भाजपा को हमले का एक नायाब मौका दे रहे हैं।
हमने कुछ अरसा पहले यह भी लिखा था कि धर्म और पुराण की मिसालों को लेकर कोई भी राजनीतिक दल भाजपा से नहीं जीत सकते। भाजपा की तो बुनियाद ही इन्हीं कहानियों पर टिकी हुई है, और उसके अखाड़े में जाकर उसे कोई क्या परास्त कर लेगा। ऐसे में अगर सलमान खुर्शीद को खालिस चापलूसी भी करनी थी, तो भी उन्हें राम-रहीम से दूर रहना चाहिए था। उनका नाम आते ही यह याद पड़ता है कि साल भर पहले अपनी एक किताब को बढ़ावा देने के कार्यक्रम में सलमान खुर्शीद ने हिन्दुत्व की चर्चा करते हुए उसकी तुलना दुनिया के सबसे खूंखार इस्लामी-आतंकी संगठन आईएसआईएस से की थी। यह बात इतनी भयानक थी कि उस वक्त कांग्रेस पार्टी में रहे एक दूसरे बड़े मुस्लिम नेता गुलाम नबी आजाद ने इसे तथ्यात्मक रूप से गलत, और गलत बयान करार दिया था। सलमान खुर्शीद के उस बयान को लेकर भाजपा ने राहुल गांधी पर हल्ला बोला था, और कांग्रेस पर यह तोहमत लगाई थी कि यूपी चुनाव के पहले वह मुस्लिमों के ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही है। इस बयान के 13 महीने बाद सलमान खुर्शीद ने मानो बकवास की सालाना लीज रिन्यू करवाने के लिए एक बार फिर हिन्दू-मुस्लिम तनाव के बीच राम का नाम लेकर पदयात्रा की कामयाबी का राम-नाम-सत्य करने का काम किया है। सलमान खुर्शीद एक कामयाब वकील रहे हैं, और उन्हें अपनी महारत का इस्तेमाल कानूनी मामलों में करना चाहिए, और हिन्दू-धार्मिक मामलों को छूना बंद करना चाहिए।
अब जब चापलूसी की पराकाष्ठा पर बात हो ही रही है, तो हम एक दूसरे पहलू पर भी बात करना चाहते हैं जो कि राहुल गांधी से ही जुड़ा हुआ है। राहुल जब दिल्ली की सात डिग्री की सर्द हवा में एक टी-शर्ट में घूम रहे हैं, भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों की खुली समाधियों पर तेज हवा के बीच वैसे ही खड़े हैं, तो यह बहस भी छिड़ गई है कि वे ऐसा कैसे कर पा रहे हैं? बात हैरानी की तो है, लेकिन चापलूसों ने इसका बखान करने के लिए उन्हें संत करार देना शुरू कर दिया है, कोई प्रशंसक सोशल मीडिया पर उन्हें योगी लिख रहे हैं, तो कोई उन्हें ऊंचे दर्जे का सन्यासी लिख रहे हैं। फिर जिन चापलूसों को कुछ और मेहनत करनी है, वे किसी समाधि स्थल पर बैठे शॉल लपेटे हुए अमित शाह की फोटो के साथ राहुल गांधी की टी-शर्ट वाली फोटो जोड़कर तुलना कर रहे हैं। कुल मिलाकर बिना चापलूसों के यह टी-शर्ट राहुल को एक अलग रौशनी में पेश कर रही थी कि पदयात्रा की आग से गुजरकर वे तपकर मजबूत हुए हैं, लेकिन इस टी-शर्ट को लेकर मोदी और शाह के गर्म कपड़ों की खिल्ली उड़ाना परले दर्जे की बेवकूफी है, और इसकी भरपाई राहुल गांधी को करनी पड़ रही है या करनी पड़ेगी। जिन चापलूसों ने दस-बीस किलोमीटर का सफर भी राहुल के साथ पैदल तय नहीं किया होगा, उन्होंने राहुल की पदयात्रा की शोहरत और उन्हें मिल रही वाहवाही को तबाह करने का काम जरूर किया है।
किसी भी नेता, संगठन, या पार्टी को अपने चापलूसों को काबू में रखना चाहिए। ऐसे लोगों के बजाय वे आलोचक काम के रहते हैं जो कि नेता या संगठन की खामियों को उजागर करने का काम करते हैं। मोदी की स्तुति में हर-हर महादेव की तर्ज पर हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का नारा देने वालों के बजाय भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी जैसे लोग बेहतर हैं जो कि अपनी पार्टी, और पार्टी की सरकार की खामियों पर खुलकर बोलते हैं। चापलूसों ने इंदिरा गांधी को भी इमरजेंसी के पहले से गड्ढे में गिरना शुरू कर दिया था, और इमरजेंसी के दौरान वे इंदिरा को पाताल तक ले गए थे। चापलूसों ने इंदिरा इज इंडिया जैसा नारा दिया था, और संजय गांधी की चप्पलें उठाई थीं। आज राहुल गांधी अपने परिवार के एक सबसे साहसी व्यक्ति की तरह लगातार लोगों के बीच एक गैरचुनावी मकसद से देश के इतिहास की सबसे लंबी पदयात्रा कर रहे हैं। उनकी आज की कामयाबी में कांग्रेस पार्टी के किसी और नेता का कोई भी योगदान नहीं है। पार्टी के चापलूसों को राहुल की इस मुहिम को चौपट करने से परे रहना चाहिए। कांग्रेस पार्टी के लिए बेहतर यही होगा कि उसकी तरफ से अपने नेताओं के लिए यह सलाह जारी हो जाए कि वे धर्म की मिसालों से परे रहें। बिना चापलूसी के राहुल आज अधिक कामयाब हैं, और उन्हें राम बताना, या उन्हें टी-शर्ट में एक योगी बताना बंद होना चाहिए।
जब किसी शहर या प्रदेश में कत्ल या लूट की वारदातें बढऩे लगती हैं, या बलात्कार अधिक होने लगते हैं तो लोगों के बीच यह चर्चा होने लगती है कि पुलिस का खौफ खत्म हो चुका है। और इस एक शब्द, खौफ, के इस्तेमाल को छोड़ दें, तो यह बात सही रहती है कि कई मामलों में लोगों को कानून का डर नहीं रह जाता, उन्हें पुलिस के भ्रष्टाचार पर भरोसा रहता है कि वे कोई केस दर्ज होने से रोक लेंगे, गवाहों और सुबूतों को खरीदने पर भरोसा रहता है, अदालत में वकीलों से लेकर जजों तक को खरीदने का भरोसा रहता है, और वे जुर्म करने के पहले से बाद में बचने का भरोसा रखते हैं। लेकिन जनधारणा को लेकर हमारा कुछ अलग तजुर्बा है। अभी छत्तीसगढ़ में एक परिवार ने बाप-बेटे ने मिलकर भाड़े के कातिलों के साथ साजिश करके परिवार के ही एक बेटे का कत्ल कर दिया। खुली सडक़ पर दिनदहाड़े हुए इस कत्ल को लेकर शहर की पुलिस की बड़ी थू-थू हुई, राजनीतिक बयानबाजी भी हुई, लेकिन पुलिस ने दो दिनों के भीतर सबको गिरफ्तार करके पूरी साजिश उजागर कर दी। अब पुलिस के नजरिए से देखें तो घर के भीतर के लोग परिवार के किसी को कत्ल करना तय कर लें, और इस साजिश में परिवार की औरतें भी शामिल हों, तो पुलिस उसे कैसे बचा सकती है? इसी तरह इन दिनों छत्तीसगढ़ का ही एक दूसरा मामला खबरों में बना हुआ है जिसमें एक उद्योगपति ने अपनी ही 9 बरस की बेटी से बलात्कार किया, और मां-बेटी ने पुलिस में रिपोर्ट की, महीनों बाद जाकर मजिस्ट्रेट के सामने बयान हुआ, और सरकारी कमेटी बच्ची को मां के हवाले करने को तैयार नहीं है, और ऐसा लगता है कि सरकारी अफसर इस उद्योगपति के प्रभाव में हैं, इसीलिए वह गिरफ्तारी से बाहर है, और शिकायतकर्ता मां अपनी बेटी पाने के लिए सडक़ पर धरना दे रही है। यहां पर समझ में आता है कि परिवार के भीतर का बलात्कार तो पुलिस नहीं रोक सकती थी, लेकिन उसके बाद तो उस बच्ची का बयान तुरंत करवाया जा सकता था, उसके बलात्कारी पिता को गिरफ्तार किया जा सकता था, बच्ची को मां के हवाले किया जा सकता था, लेकिन इन सब मामलों में पुलिस की भूमिका संदिग्ध दिखाई पड़ती है।
जब-जब पुलिस बेअसर होने लगती है, तब-तब लोग कानून अपने हाथ में लेने को मजबूर होने लगते हैं। कई जगहों पर लोग आपस में हिंसा करके हिसाब चुकता करने में लग जाते हैं। आज ही गुजरात की एक खबर छपी है जिसमें बीएसएफ के एक हवलदार ने अपनी नाबालिग बेटी का वीडियो इंटरनेट पर अपलोड करने से जब एक नौजवान को मना किया, तो दोनों परिवारों में झगड़ा हुआ, और इस युवक के परिवार ने इस बीएसएफ हवलदार को पीट-पीटकर मार डाला। जिस गुजरात में कानून-व्यवस्था बेहतर होने का दावा 7वीं बार की भाजपा सरकार करती है, उसके तहत बीएसएफ हवलदार को भी ऐसी मौत झेलनी पड़ी। गनीमत यही है कि देश के आज के नफरती माहौल में ये दोनों ही परिवार गुजराती-हिन्दू परिवार हैं, इसलिए किसी को सबक सिखाने की नौबत नहीं आई है। लेकिन इस हत्या से परे के हिस्से को देखें, तो किसी के ऐसे वीडियो पोस्ट करने और बदनाम करने का काम देश भर में जगह-जगह हो रहा है। इस छोटे राज्य छत्तीसगढ़ में तकरीबन हर दिन ऐसी एक रिपोर्ट लिखाई जाती है कि सोशल मीडिया पर तस्वीरें या वीडियो पोस्ट करके ब्लैकमेल किया, या करने की धमकी देकर ब्लैकमेल किया।
अब हम ऐसे सौ फीसदी मामलों को इस तरह का नहीं पाते कि पुलिस उन्हें रोक सकती है। इसकी तोहमत हम पुलिस पर नहीं देते, लेकिन जब ऐसे मामले दर्ज हो जाते हैं, तो उनकी तेजी से सुनवाई, और अदालत से सजा दिलवाने तक का काम पुलिस को मेहनत से करना चाहिए, ऐसा न होने पर उस किस्म के और जुर्म करने की हसरत रखने वाले लोगों का हौसला बढ़ता है। पुलिस की अधिक जिम्मेदारी और जवाबदेही रिपोर्ट होने के बाद शुरू होती है। और यह बिल्कुल अलग बात है कि समाज में, खासकर लड़कियों और महिलाओं में ऐसे साइबर खतरे में न फंसने की जागरूकता बढ़ाई जाए, और यह पुलिस के बुनियादी काम में नहीं आता है। इसे सरकार का दूसरा अमला, या समाज के लोग करें, और ऐसे खतरों को घटाएं। इस मुद्दे पर आज यहां लिखने का मकसद यह है कि पुलिस पर इतनी गैरजरूरी तोहमतें न लग जाएं कि पुलिस का हौसला ही पस्त हो जाए, और जहां उसकी जवाबदेही बनती है, वहां भी उसे लापरवाह होने का मौका मिल जाए। जिम्मेदारी तय करते हुए समाज को यह जिम्मेदारी तो दिखानी ही चाहिए कि अपने हिस्से की तोहमत पुलिस पर न थोप दी जाए। पुलिस सरकार का सबसे सामने दिखने वाला चेहरा रहता है, वर्दी और काम के मिजाज की वजह से पुलिस सबसे सामने दिखती है, और खासकर अप्रिय स्थितियों में और अधिक दिखती है। यह भी एक बड़ी वजह है कि पुलिस पर अधिक तोहमतें लगती हैं, लेकिन यह एक वजह होनी चाहिए कि पुलिस की जिम्मेदारियों की संभावनाओं और सीमाओं को ठीक से समझ लिया जाए, न तो उसके साथ रियायत बरती जाए, और न ही उस पर बिना वजह तोहमतें लगाई जाएं।
समाज को पुलिस तक पहुंचने की नौबत आने देने से बचना चाहिए। लोगों के बीच जुर्म के खिलाफ, खतरों के बारे में जागरूकता अधिक रहनी चाहिए। लोगों को अपने आसपास के जुर्म पर आमादा लोगों को समझाने की जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। परिवार के भीतर अगर कोई जुर्म हो रहा है, तो लोगों को उस नौबत को भी खत्म करना चाहिए। आज अगर पूरे देश में अदालतों पर अंधाधुंध बोझ होने की बात हर कोई कह रहे हैं, तो इस बोझ को भी समाज की सावधानी से घटाया जा सकता है ताकि बाकी मामलों पर इंसाफ होने की संभावना बन सके। वैसे भी इस बात को समझना चाहिए कि हर जुर्म न सिर्फ सरकार पर बोझ है, अदालत पर बोझ है, बल्कि इस बोझ को ढोने का खर्च तो जनता से ही निकलता है। इसलिए लोगों को अपने परिवार से शुरू करके अड़ोस-पड़ोस और जान-पहचान तक जुर्म से बचने की सावधानी पर भी चर्चा करनी चाहिए, और जुर्म करने पर जिंदगी कैसे बर्बाद होती है इसकी मिसालें भी अपने लोगों को देनी चाहिए। जब आपस के लोग ऐसे खतरों को गिनाते हैं, तो वे लोगों के दिमाग में अधिक पुख्ता तरीके से बैठते हैं, और लोग चौकन्ने रहते हैं। लोगों को अपने आसपास के लोगों को यह भी बताना चाहिए कि आज मोबाइल फोन, इंटरनेट, सोशल मीडिया, और सीसीटीवी फुटेज जैसे सुबूतों से अधिकतर मुजरिम आनन-फानन पकड़ में आ जाते हैं, इसलिए कभी किसी जुर्म के बारे में सोचें भी नहीं। बढ़ती हुई आबादी के साथ अगर जुर्म इसी तरह बढ़ते चलेंगे, तो जो अधिक पुलिस लगेगी, अधिक अदालतें लगेंगी, वे सब जनता के ही पैसों पर चलेंगी, इसलिए किफायत और बचाव का अकेला तरीका जुर्म के खिलाफ सावधानी है।
हिन्दुस्तान में आज छाए हुए हिन्दू-मुस्लिम विवाद के बीच एक और मामला सामने आया जब टीवी अभिनेत्री तुनिषा शर्मा की शूटिंग के दौरान खुदकुशी के बाद उनकी मां की रिपोर्ट पर तुनिषा के दोस्त या प्रेमी शीजान खान को गिरफ्तार किया गया है। इस नौजवान पर आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज किया गया है। पुलिस ने बताया कि इस अभिनेत्री ने अपनी मां को कहा था कि उसका ब्रेकप हो गया है, और लडक़ा उससे बात नहीं करता, अब उसके साथ रिश्ता नहीं रखना चाहता। मां का कहना था कि इस वजह से वो टेंशन में थी और इसलिए उसने आत्महत्या कर ली।
हम इस मामले की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते क्योंकि इसकी जांच अभी चल ही रही है। लेकिन हम इस तरह के मामलों को लेकर यह सोचने पर जरूर मजबूर हैं कि संबंधों के टूट जाने को आत्महत्या के लिए उकसाना मान लेना कितना ठीक है? दुनिया में दोस्ती और प्रेम स्थाई नहीं हो सकते। स्थाई तो शादियां भी नहीं होतीं, और उनमें भी अलग हो जाने, अलग रहने, या तलाक की गुंजाइश रहती ही है। जब परिवार और समाज के रिवाजों के मुताबिक हुई शादियां भी टूट जाती हैं, तो दोस्ती या प्रेमसंबंध, या लिव इन रिलेशनशिप का खत्म हो जाना कोई अनहोनी बात नहीं मानी जा सकती। ऐसे में अगर हर रिश्ते के टूट जाने को आत्महत्या के लिए उकसाना मान लिया जाएगा, तो फिर किसी रिश्ते के टूटने के साथ हुई आत्महत्या पर जिंदा जोड़ीदार को अनिवार्य रूप से कैद होने लगेगी। इसलिए इस बात को समझना जरूरी है कि रिश्तों को लेकर तोहमत की एक सीमा होना जरूरी है।
हिन्दुस्तानी अदालतों में ढेर सारे ऐसे मामले पहुंचते हैं जिनमें लोगों के बीच बरसों तक प्रेमसंबंध रहे, और देहसंबंध भी जारी रहा। इसके बाद अगर प्रेमी ने शादी से इंकार कर दिया तो प्रेमिका ने बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करा दी, और प्रेमी को गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसी नौबत पर हमने पहले भी इसी जगह कई बार लिखा है कि किसी से प्रेम और देहसंबंध बनते हुए क्या भविष्य में इस हद तक झांककर देखा जा सकता है कि उससे शादी हो ही जाएगी या नहीं? अगर इतनी दूर तक का देख पाना इंसान के लिए मुमकिन होता तो बहुत से प्रेम तो कभी शुरू ही नहीं हुए होते। प्रेमसंबंधों के चलते देहसंबंध एक आम बात है, और बरसों तक अगर दो बालिग लोगों के बीच आम सहमति से देहसंबंध हो रहे हैं, तो शादी भर न हो पाने से उसे धोखा देकर बलात्कार मान लेना बहुत ही नाजायज है। हिन्दुस्तान का कानून ऐसी शिकायत का हक देता है, और पुरूष की गिरफ्तारी की गारंटी भी रहती है। लेकिन इस कानूनी इंतजाम के खिलाफ देश की कई अदालतें समय-समय पर राय दे चुकी हैं।
इंसान की सोच की इस संभावना को अनदेखा नहीं करना चाहिए कि आज जो उसे शादी के लायक लग रही है, या लग रहा है, वह हो सकता है कि कल उस लायक न लगे। जिंदगी पत्थर की तरह स्थिर नहीं रहती, वह बहती हुई नदी की तरह आगे बढ़ती है। जिंदगी में कई रिश्ते बनते और बिगड़ते हैं, साथ रहते हुए लोगों को एक-दूसरे की खूबियां और खामियां दोनों दिखती हैं, और एक-दूसरे के बारे में खयाल बनते और बिगड़ते हैं। प्रेम और देहसंबंधों के बाद भी अगर लोगों को लगता है कि उनकी शादी नहीं निभ पाएगी, तो ऐसी अनचाही शादी और उसके बाद की घरेलू हिंसा या तलाक से बेहतर तो यही है कि लोग प्रेम या लिव इन के दौरान ही अलग हो जाएं। ऐसा संबंध टूट जाना लोगों के लिए, परिवार और समाज के लिए शादी के टूट जाने के मुकाबले कम नुकसान का होता है। शादी के बाद टूटने वाले रिश्तों से बच्चों की जिंदगी भी खराब होती है, अनचाही शादी टल जाने से इसकी नौबत भी नहीं आती। इसलिए दबाव में अनचाही शादी में पडऩे से बेहतर प्रेम और देहसंबंधों का टूट जाना रहता है।
अब सवाल यह है कि हिन्दुस्तान के मौजूदा कानून के मुताबिक दो बालिग लोगों में भी बरसों तक आपसी सहमति से चले देहसंबंधों के बाद भी महिला जब चाहे तब बलात्कार की रिपोर्ट लिखा सकती है, और कानून पुरूष के खिलाफ है। आज जरूरत तो ऐसे कानून को बदलने की है जो एक बालिग महिला को इस तरह का हक देता है जो कि इंसानी मिजाज और आपसी संबंधों के ठीक खिलाफ है। सच तो यह है कि 21वीं सदी में आकर भारतीय बालिग महिला को यह समझने की जरूरत है कि उसका प्रेम, या कि उसका देहसंबंध किसी तरह के स्थायित्व या शादी की गारंटी नहीं है, हो भी नहीं सकती। जब तक यह परिपक्वता नहीं आ जाती, तब तक हिन्दुस्तानी युवतियां एक नाजायज कानून को सहारा मानकर चलती रहेंगीं, और अपनी जिंदगी के लिए अधिक सुरक्षित और बेहतर फैसला नहीं ले पाएंगी। आज किसी बालिग लडक़ी को देहसंबंध में पडऩे के पहले यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि ऐसे रिश्ते शादी तक पहुंचने से पहले खत्म हो सकते हैं।
लोगों को याद होगा कि गुजरात में अभी कुछ बरस पहले तक मैत्री करार नाम की एक ऐसी कानूनी व्यवस्था जारी थी जिसे बाद में गैरकानूनी करार दिया गया और बंद करवाया गया। ऐसे मैत्री करार में दो बालिग स्त्री-पुरूष स्टाम्प पेपर पर किसी तय समय के लिए एक-दूसरे के साथ प्रेम और देहसंबंध बनाने का अनुबंध करते थे, और उसके बाद वे एक-दूसरे के लिए जवाबदेह नहीं रह जाते थे। ऐसा शादीशुदा लोगों में भी दूसरों के साथ होता था। समाज में यह आम प्रचलित रिवाज माना जाता था। फिर इसे गैरकानूनी करार दिया गया। अब आज अगर बालिग लोगों में प्रेम और देहसंबंधों के बाद अगर किसी युवक या आदमी को सुरक्षित रहना है, तो क्या उसे स्टाम्प पेपर पर ऐसा एक अनुबंध करना पड़ेगा कि वह शादी के किसी वायदे के बिना ऐसा करने जा रहा है, और इन रिश्तों के चलते अगर कोई तनाव होगा तो उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं होगा? हिन्दुस्तान में महिला की सुरक्षा के लिए उसे अधिक अधिकार देने की कई तरकीबें निकाली गई हैं, लेकिन ऐसा कानून बिल्कुल नाजायज है जो कि पुरूष को देहसंबंध के बाद शादी न करने पर बलात्कारी करार दे-दे, या जोड़ीदार की खुदकुशी की नौबत में प्रेमसंबंध टूटने को जिम्मेदार मानकर जोड़ीदार को सजा दे-दे। इक्कीसवीं सदी की भारतीय युवतियों को परिपक्व होने की जरूरत है, और किसी भी तरह के संबंधों में पडऩे के पहले उनके अनिश्चित भविष्य के खतरे को भी उन्हें समझ लेना चाहिए। इसके बाद भी अगर इस बात के कोई सुबूत मिलते हैं कि पुरूष साथी ने उनके साथ बलात्कार किया, या आत्महत्या के लिए उकसाया, तो वह सजा के लायक अलग मामला रहेगा।
केन्द्र सरकार की बेबुनियाद नसीहत के बीच राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा कल दिल्ली पहुंची, और लालकिले के पास एक आमसभा में उन्होंने केन्द्र सरकार और देश से जुड़े बहुत से मुद्दों पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार लोगों का ध्यान बुनियादी मुद्दों से भटका रही है। उन्होंने यह भी कहा कि यह मोदी सरकार नहीं बल्कि अडानी-अंबानी की सरकार है। अब तक 2800 किलोमीटर का सफर पूरा करके दिल्ली पहुंचे राहुल गांधी तीन जनवरी से आगे रवाना होकर श्रीनगर तक जाएंगे। हिन्दुस्तान के राजनीतिक इतिहास में किसी ने ऐसी पदयात्रा नहीं की थी, और सर्द उत्तर भारत में साथ चलते हुए मोटे गर्म कपड़ों से लदे लोगों के बीच पैदल चलते राहुल जिस तरह एक टी-शर्ट में दिख रहे हैं, वह भी एक उत्साह की गर्मी का सुबूत है जो कि अभूतपूर्व और अप्रत्याशित जनसमर्थन से उपजा हुआ है।
अब तक यह पदयात्रा सौ-सवा सौ दिन चल चुकी है, और दस राज्यों के लोगों से मिल चुकी है। बिना किसी चुनावी एजेंडा के राहुल गांधी जिस तरह देश को जोडऩे की जरूरत बताते हुए, उसकी कोशिश करते हुए चल रहे हैं, और जिस तरह आम लोग उनके गले लगकर खुशी और गम बांट रहे हैं, वैसा हिन्दुस्तानी राजनीति में किसी ने देखा नहीं था। इस देश की बड़ी-बड़ी ताकतों ने सैकड़ों या हजारों करोड़ रूपये खर्च करके, दस बरस की मेहनत से राहुल गांधी को बेवकूफ साबित करने की एक कोशिश की थी, और खरीदे हुए मीडिया या सोशल मीडिया की मेहरबानी से राहुल पर पप्पू नाम चिपका दिया था, वह सब कुछ इस पदयात्रा से धुल गया है। आज देश में नफरत की जो जहरीली हवा भर गई है, जिस तरह अलग-अलग तबकों को एक-दूसरे के खिलाफ साम्प्रदायिक हिंसा के लिए खड़ा कर दिया गया है, जिस तरह तथाकथित हिन्दू समाज के भीतर ही दलितों को कुचला जा रहा है, आदिवासियों से उनकी जिंदगी की बसाहट छीनी जा रही है, जिस तरह देश की संवैधानिक संस्थाओं का भगवाकरण किया जा चुका है, और जिस तरह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की आधी-पौन सदी की शोहरत को खत्म कर दिया गया है, उस बीच राहुल से परे भी अनगिनत अमन-पसंद लोगों को देश को जोडऩे की जरूरत लग रही थी। और हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की त्रासदी यह है कि देश के समाज के टुकड़े-टुकड़े करने में कामयाब हो चुके लोग दूसरों को टुकड़े-टुकड़े गैंग कहते नहीं थकते हैं। देश को इस हद तक साम्प्रदायिकता में झोंक दिया गया है कि अब सरकार, अदालत, और दीगर संवैधानिक संस्थाओं में बैठे लोग खुलकर साम्प्रदायिक बातें करते हैं, और किसी किस्म की शर्म का भी कोई सवाल नहीं उठता। ऐसे कतरा-कतरा बांटे गए भारतीय समाज में आज राहुल गांधी अगर नफरत छोड़ो, भारत जोड़ो का नारा लगाकर बिना कुछ मांगते हुए इस तरह की एक पदयात्रा कर रहे हैं, तो यह ताजा लोकतांत्रिक इतिहास की एक बड़ी घटना है। खासकर इसलिए भी कि अपनी दादी और पिता को उन्होंने जैसे आतंकी हमलों में खोया है, वैसे किसी हमले का खतरा राहुल पर कम नहीं हैं, लेकिन वे बिना किसी परवाह के जिस तरह देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पैदल चल रहे हैं, वह एक बहुत बड़े हौसले की बात भी है। हर दिन सैकड़ों-हजारों लोगों से गले मिलते हुए, हाथ में हाथ डाले हुए वे जिस तरह चलते चले जा रहे हैं, भीड़ के सैलाब के बीच बिना किसी मुमकिन हिफाजत के भी उनका हौसला देखने लायक है। सच तो यह है कि इन सवा सौ से कम दिनों में राहुल गांधी ने जो एक नई इज्जत कमाई है, एक नई साख पाई है, वे अपने पूरे राजनीतिक जीवन में भी इतना कुछ हासिल नहीं कर पाए थे। और यह बिल्कुल ही अटपटी, अनोखी, और अजीब बात यह साबित करती है कि लोकतंत्र में जनता से संपर्क से बड़ा कुछ भी नहीं होता है। गांधी पूरी जिंदगी जनता के बीच ही जीते और मरते रहे, लोगों के बीच खाते रहे, पखाने धोते रहे, अनशन करते रहे, और जान देने में भी वे पीछे नहीं रहे। उनके बाद की आधी सदी में किसी ने जनता से जुडऩे की ऐसी ताकत का इस्तेमाल शायद इस हद तक नहीं किया था जिस हद तक राहुल गांधी कर रहे हैं। शायद उन्हें खुद भी इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि उन्हें इतना जनसमर्थन मिलेगा, और हिन्दुस्तानी मीडिया में अघोषित ब्लैकआउट सरीखी नौबत के रहते भी वे सोशल मीडिया के सैलाब से लोगों के दिलों तक पहुंचेंगे, और लोग उन तक पहुंचेंगे। इस पदयात्रा की खूबी यही रही कि इस दौरान हुए चुनावों में राहुल गांधी ने न पार्टी को हार से बचाने की कोशिश की, और न ही पार्टी की जीत का सेहरा खुद बंधवाने की कोशिश की। वे मोटेतौर पर इस पदयात्रा को गैरचुनावी बनाकर चले, और यही वजह है कि अब तक दर्जन भर पार्टियों के नेता, और अनगिनत लेखक, पत्रकार, कलाकार उनके साथ अपनी एकजुटता दिखाते हुए चले हैं।
पदयात्रा की इस हकीकत के साथ अब दो मिनटों में वह भी देख लेने की जरूरत है जो कि राहुल ने दिल्ली पहुंचकर सभा में कहा है। उन्होंने मीडिया पर चौबीसों घंटे नफरत की खबर दिखाने के लिए कहा है कि लोगों का ध्यान भटकाकर पैसा मीडिया-मालिकों की जेब में जाता है। उन्होंने आज के हिन्दुत्व के हमलावर तेवरों को लेकर भी हिन्दू धर्म की बुनियादी सोच याद दिलाई है, और पूछा है कि हिन्दू धर्म में कहां लिखा है कि गरीबों को कुचलना चाहिए, कमजोरों को मारना चाहिए? उन्होंने चीन के मोर्चे पर सरकार की नाकामयाबी की बात की है, और देश के अडानीकरण और अंबानीकरण पर भी हमला किया है। राहुल की कही बातों को देश के मीडिया में चाहे कुछ भी जगह न मिले, सोशल मीडिया और मीडिया के एक छोटे तबके की मेहरबानी से उनकी बातें लोगों तक पहुंच रही हैं, और नफरत के खिलाफ एक उम्मीद जगा रही हैं।
कांग्रेस पार्टी का समर्थन करने, या मोदी सरकार का विरोध करने की किसी नीयत के बिना आज हम देश को जोडऩे की जरूरत को बहुत तल्खी से महसूस कर रहे हैं, और इसीलिए अब तक की 108 दिनों की इस पदयात्रा पर दो-चार बार इसी जगह पर लिख चुके हैं। नफरत से उबरने की अहमियत को कम नहीं आंकना चाहिए। लोकतंत्र में आने वाली पीढ़ी के लिए नफरती हिंसा की विरासत छोड़ जाने का मतलब लोकतंत्र को कभी सभ्य और विकसित न होने देना भी होगा, इसलिए राहुल की पदयात्रा को आज राजनीतिक सहमति और असहमति से परे भी समझने की जरूरत है कि आज देश को जोडऩे की कितनी जरूरत है।
रूस के एक सैनिक की बीवी को दुनिया के ऐसे मुजरिमों की लिस्ट में जोड़ा गया है जिनकी किसी जुर्म के लिए तलाश है। इस महिला ने यूक्रेन के मोर्चे पर लड़ रहे अपने पति को फोन पर कहा था कि वहां जो यूक्रेनी महिलाएं हैं उनसे बलात्कार करना, लेकिन लौटकर कुछ मत बताना। इस पर उसका पति और खुलासे से पूछता है, तो वह इसी बात को दुहराती है और कहती है कि बस इतना ध्यान रखना कि कंडोम का इस्तेमाल करना। जब इस टेलीफोन कॉल को यूक्रेन की सुरक्षा एजेंसी ने इंटरसेप्ट किया तब यह सैनिक यूक्रेनी जमीन पर था, और बाद में इनके टेलीफोन नंबरों से इनकी शिनाख्त की गई, आवाज का मिलान किया गया, इनके सोशल मीडिया अकाऊंट देखे गए, और इसकी पुख्ता खबर भी बनी। इस जोड़े का चार बरस का एक बेटा भी है। जब इनकी शिनाख्त के साथ खबरें चारों तरफ फैलीं तो इस महिला ने अपना सोशल मीडिया अकाऊंट डिलीट कर दिया। दुनिया भर की जंग में यह बात बहुत अटपटी नहीं है कि फौजी दुश्मन देश में महिलाओं और बच्चों के हाथ लग जाने पर उनसे बलात्कार करें, लेकिन अगर किसी फौजी की महिला उसे ऐसा जुर्म करने के लिए कहती है, तो यह उसके खिलाफ भी कार्रवाई की वजह तो बनती है। लोगों को याद होगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ की एक बड़ी अधिकारी ने कुछ अरसा पहले यह कहा था कि यूक्रेन के मोर्चे पर जाने वाले रूसी सैनिकों को उत्तेजना बढ़ाने वाली वियाग्रा नाम की दवाई दी जा रही है जिससे कि वे यूक्रेनी महिलाओं से बलात्कार कर सकें।
दुनिया की सरकारें तो कई किस्म के अमानवीय काम कर सकती हैं क्योंकि वे एक इंसान की तरह नहीं सोचतीं, लेकिन जब इंसान इस तरह की हरकतें करने लगते हैं कि उन्हें देखते हुए इंसानियत शब्द की परिभाषा को ही बदलने की जरूरत लगने लगे, तो फिर यह सोचना पड़ता है कि इंसानों के भीतर ही वह तथाकथित हैवान छुपा रहता है जिसे इंसान अपने जुर्म छुपाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। तमाम किस्म के जुर्म और जुल्म करते तो इंसान ही हैं, लेकिन ये इसकी तोहमत ऐसी हैवानियत पर मढ़ देते हैं जो कि मानो इंसानों से परे की कुछ हो। नतीजा यह होता है कि इंसानियत शब्द जरूरत से अधिक सकारात्मक बने रहता है, और ऐसा लगता है कि इंसान के भीतर कुछ बुरा नहीं रहता, और जो बुरा रहता है वह इंसान से परे का एक हैवान रहता है। यह बात कुछ वैसी ही है कि इंसान का बायां हाथ बलात्कारी हो जाए, और दायां हाथ सज्जन बना रहे।
आज जब हम यह लिख रहे हैं उसी समय बिलासपुर का एक मामला सामने आया है जिसमें 9 साल की एक बच्ची से दो महीने पहले पिता द्वारा बलात्कार करने की रिपोर्ट लिखाई गई। एफआईआर उसी वक्त हो गई, लेकिन बाल कल्याण समिति ने लंबे समय तक इस बच्ची का अदालती बयान नहीं करवाया, इस बच्ची को उसकी मां की हवाले नहीं कर रहे, और बाल कल्याण समिति के बारे में एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा है कि वह पूरी तरह से बलात्कारी पिता को बचाने में लगी हुई है, और इस चक्कर में वह बच्ची को मां के पास नहीं जाने दे रही। इसी बिलासपुर में अभी हफ्ते-दस दिन पहले दिनदहाड़े सडक़ पर एक कत्ल हुआ जिसे पुलिस ने आनन-फानन सुलझा भी लिया। इसमें बाप और भाई ने बाकी परिवार के साथ मिलकर एक बेटे का कत्ल करवा दिया, और पूरे परिवार ने इसकी साजिश बनाई, कत्ल के बाद लोगों को छुपाने का काम किया। इसी कत्ल के सिलसिले में यह बात भी सामने आई कि बाप ने एक बच्ची को गोद लिया हुआ था, और अब वह बड़ी महिला है, जिसके साथ बाप-बेटे दोनों बलात्कार करते आए थे, और उससे अवैध संबंध बनाकर रखा था। एक परिवार के भीतर ही इतने किस्म के जुर्म, इतने किस्म की अनैतिक और वर्जित बातें सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या ऐसे परिवारों के भीतर इंसानियत कही जाने वाली कुछ बातें भी लागू होती हैं, या नहीं?
हर दिन कोई न कोई ऐसी वारदात सामने आ रही है जिसमें पति-पत्नी, या प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे का कत्ल कर रहे हैं, या करवा रहे हैं। और यह भी किसी क्षणिक उत्तेजना में कर दिया गया जुर्म न होकर ऐसी लंबी-चौड़ी साजिश के तहत किए गए जुर्म हैं जिनसे कि अपराध कथाओं के आदी पाठकों के भी दिल हिल जाएं। जबकि समाज की हकीकत यह है कि वह अपने बनाए गए रीति-रिवाजों को हकीकत में अमल होते मान लेता है, और उसने सामाजिक-पारिवारिक बचाव के बहुत ही कम तरीके लागू किए हैं। अनगिनत परिवारों में बाप ही बेटी से बलात्कार करते हैं, जिनमें से गिने-चुने मामले ही पुलिस तक पहुंचते हैं क्योंकि अधिकतर मामलों में बाप घर का कमाऊ सदस्य होता है, और उसे जेल भिजवाकर बाकी परिवार के भूखे मर जाने की नौबत आ जाएगी। इसके अलावा बाकी परिवार बेहिसाब दबाव डालते रहता है, समाज के लोग यही समझाते हैं कि जो हो गया है उसे भूलकर परिवार को बचाया जाए, और इससे बचता सिर्फ बलात्कारी है जिसे यह समझ आ जाता है कि उसका जुर्म जारी रहने पर भी शायद ही उसके खिलाफ कोई कार्रवाई हो। इसलिए लोगों को यह समझने की जरूरत है कि वर्जित संबंधों को लेकर जो किताबी बातें हैं, हकीकत उनसे काफी परे चलती है। असल की जिंदगी में परिवार के भीतर, या स्कूल में गुरू कहे जाने वाले लोग, या खेल सिखाने वाले लोग कब बलात्कारी हो जाते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। और आज की यह बात जिस रूसी महिला के उकसावे से शुरू की गई है, उसे अगर देखें तो एक महिला दुश्मन देश की महिला को शिकस्त देने के लिए, उसका मनोबल तोडऩे के लिए अपने पति को उकसाती है कि वह जाकर उनसे बलात्कार करे, जबकि सामाजिक वर्जनाएं तो यह कहती हैं कि अगर पति-पत्नी में से कोई बेवफा हो जाए तो उसे तलाक दे देना भी जायज है।
कुल मिलाकर इस मुद्दे पर लिखने का मकसद यही है कि सामाजिक वर्जनाओं को पूरी तरह असरदार मान लेना ठीक नहीं है, लोगों को इन वर्जनाओं के नाकामयाब होने पर बचाव की नौबत की तरकीबें सोच रखना चाहिए, और उनका उसी तरह इस्तेमाल करना चाहिए जिस तरह आग बुझाने के उपकरणों का इस्तेमाल होता है। यह मानकर चलना चाहिए कि आसपास के लोगों के तन-मन में लगी आग में सारी नैतिकता, सारे सामाजिक प्रतिबंध जाने कब जल जाएंगे, और जिंदगियों और रिश्तों को जलने से बचाने के लिए इंतजाम रखना हर किसी की खुद की जिम्मेदारी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले दिनों इसी जगह पर दो अलग-अलग दिन हमने दो अलग-अलग मुद्दों पर लिखा था, और आज उन दोनों को जोडक़र लिखने का एक मौका है। शाहरूख खान और दीपिका पादुकोण के एक फिल्मी डांस में दीपिका की भगवा-केसरिया बिकिनी को लेकर हिन्दुस्तान का एक बड़बोला तबका उबला हुआ है, और मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा से लेकर तथाकथित साधू-संत तक सार्वजनिक रूप से कानूनी और गैरकानूनी धमकियां दे रहे हैं। दूसरा मुद्दा अमरावती का था जहां पर एक भाजपा प्रवक्ता नुपूर शर्मा के मोहम्मद पैगंबर के बारे में दिए गए आपत्तिजनक बयान को लेकर देश में कत्ल के जो फतवे चल रहे थे, उसमें नुपूर शर्मा के बयान के पक्ष में अमरावती के एक हिन्दू दुकानदार ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था, और इसे लेकर मुस्लिमों के एक तबके ने इस दुकानदार के 16 बरस पुराने एक दोस्त की अगुवाई में उसका गला काटकर उसे मार डाला था। धर्म ने इंसानियत का गला काट दिया था, दोस्ती की मिसालों को भी टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। इन दोनों बातों पर हमने खुलासे से लिखा था, लेकिन हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिकता और धार्मिक हिंसा का नंगा नाच खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, इसलिए आज उस पर एक बार फिर लिखने की जरूरत है।
शाहरूख खान और दीपिका पादुकोण के फिल्मी डांस को लेकर अयोध्या के एक तथाकथित महंत परमहंस आचार्य ने यह धमकी दी है कि शाहरूख खान अगर मिल गया तो उसे वे जिंदा जला डालेंगे, और अगर किसी और ने शाहरूख को जलाने का साहस किया तो उसका मुकदमा वे (महंत) खुद लड़ेंगे। खबरें बताती हैं कि यह तथाकथित महंत पहले भी एक बार घोषणा कर चुका है कि अगर भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित न किया गया तो वह जल समाधि ले लेगा, लेकिन फिर शायद धरती का जल उसके लिए कम पड़ गया। एक दूसरे तथाकथित महंत राजूदास ने लोगों से कहा है कि जहां भी पठान फिल्म दिखाई जाए, उस थियेटर को आग लगा दें, नहीं तो बात उनकी समझ में नहीं आएगी। हिन्दुत्व के हमलावर फौजियों ने सोशल मीडिया पर इस किस्म की बहुत सारी धमकियां लिखी हैं, जिनका अलग-अलग जिक्र मुमकिन नहीं है।
अब यह सब कुछ केन्द्र सरकार, अलग-अलग राज्य सरकारों, और देश की तमाम अदालतों, संवैधानिक आयोगों की नजरों के सामने हो रहा है। ऐसी हालत में एक बुनियादी सवाल यह उठता है कि अपने नाम और चेहरे सहित जो लोग अपने को एक धर्म का महंत बताते हुए हिंसा का फतवा दे रहे हैं, खुद कत्ल करने की घोषणा कर रहे हैं, उनके खिलाफ सरकारों की पुलिस कोई जुर्म दर्ज क्यों नहीं कर रही है? सुप्रीम कोर्ट ने अभी कुछ महीने पहले ही नफरती बयान देने वाले लोगों पर मुकदमे दर्ज करने का जिम्मा उनके इलाके की पुलिस पर डाला था, और यह भी कहा था कि अगर अफसर यह काम नहीं करेंगे, तो उसे अदालत की अवमानना माना जाएगा। अब एक गाने में एक हिन्दू अभिनेत्री के पहने हुए कपड़े के रंग को लेकर अगर मुस्लिम अभिनेता को जिंदा जलाने की बात हो रही है, तो इससे बड़ी हेट-स्पीच और क्या हो सकती है? यह फिल्म एक हिन्दू सिद्धार्थ आनंद के निर्देशन में बनी है, इसकी कहानी एक और हिन्दू श्रीधर राघवन ने लिखी है, फिल्म का निर्माण आदित्य चोपड़ा नाम के प्रोड्यूसर ने यशराज फिल्म्स नाम की एक हिन्दू की कंपनी के लिए किया है। इसके बाद अगर फिल्म के अभिनेता को मुस्लिम होने की वजह से जिंदा जलाने की बात हो रही है, उसकी ऐसा करने की कसम खाई जा रही है, दूसरों को उकसाया जा रहा है कि अगर वे शाहरूख को जिंदा जला दें तो वे (महंत) उसका मुकदमा लड़ेंगे, तो फिर इस हेट-स्पीच पर अगर यूपी की पुलिस मुकदमा दर्ज नहीं कर रही है, तो क्या वह सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के दायरे में नहीं आ रही है?
सुप्रीम कोर्ट को तो मध्यप्रदेश के गृहमंत्री से भी सवाल करना चाहिए कि संविधान की शपथ लेने के बाद वे संविधान को कुचलने वाला यह बयान कैसे दे रहे हैं, और इसे संविधान के खिलाफ किया गया काम मानकर उन पर कार्रवाई क्यों न की जाए? सरकारी और अदालती कामकाज में कुछ बातें नजीर बन जाती हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट को इस किस्म के कुछ मामलों में लोगों को कटघरे में घसीटना चाहिए, और वहां से जेल भेजना चाहिए। धर्म के नाम पर दुकानदारी करने वाले 10-20 लोग और संविधान की शपथ लेकर संविधान पर थूकने वाले 10-20 लोग अगर जेल भेजे जाएंगे तो इस देश से हिंसक, साम्प्रदायिक, और नफरती बकवास कम हो सकेगी। आज तो सुप्रीम कोर्ट अपनी खुद की दी गई चेतावनी को लेकर नाखून और दांत खो बैठे एक ऐसे प्राणी की तरह दिख रहा है जो कि लाचार है, और जिसके बस का कुछ नहीं रह गया है। जब देश में इस तरह की साम्प्रदायिक हिंसा की एक परंपरा विकसित की जा रही है, तब अदालत को दखल देनी होगी क्योंकि देश की सरकार, अधिकतर प्रदेशों की सरकारें इस हिंसा के साथ खड़ी दिख रही हैं, सरकारों में बैठे हुए बड़े-बड़े मंत्री ऐसे खुले फतवे दे रहे हैं, संसद में बाहुबल का संतुलन साम्प्रदायिकता के पक्ष में इतना अधिक झुका हुआ है कि साम्प्रदायिकता विरोधी लोग पासंग में भी नहीं बैठ रहे हैं। ऐसे माहौल में देश की न्यायपालिका की एक बड़ी जिम्मेदारी बनती है, और उसे इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को उठाना चाहिए, वरना इतिहास में यह अच्छी तरह दर्ज होगा कि सुप्रीम कोर्ट के जज महज अपनी सहूलियतों को लेकर, अपनी लंबी छुट्टियों के हक को लेकर लड़ते रहे हैं, और देश की आम जनता को उन्होंने एक छोटे और हिंसक तबके के सामने ठीक उसी तरह छोड़ दिया जिस तरह रोम में शेर के सामने निहत्थे इंसान को छोडक़र स्टेडियम में बैठे बाकी लोग उसका मजा लेते थे। सुप्रीम कोर्ट अगर अपनी ही चेतावनी, अपने ही हुक्म की अवमानना की फिक्र नहीं कर रहा है, तो इससे देश की जनता के हक कुचले जा रहे हैं, और देश की हवा जहरीली होती जा रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री का राहुल गांधी के नाम लिखा खत हैरान करता है। डॉ. मनसुख मांडविया ने राजस्थान के दो सांसदों (जाहिर तौर पर भाजपा के) की लिखी गई चिट्ठी के हवाले से राहुल गांधी से उनकी पदयात्रा में सांसदों के उठाए मुद्दों पर शीघ्र कार्रवाई करने की सिफारिश की है। उन्होंने राहुल को लिखा है कि सांसदों ने राजस्थान में चल रही भारत जोड़ो यात्रा से फैल रही कोविड महामारी पर चिंता जाहिर की है। स्वास्थ्य मंत्री ने सांसदों की दो सलाहें राहुल को भेजी हैं। इनमें से एक राजस्थान में चल रही भारत जोड़ो यात्रा में कोविड गाईडलाईन का सख्ती से पालन करने की है, और यह मांग की गई है कि सिर्फ कोरोना-टीका लगे हुए लोग ही इसमें शामिल हों, और यात्रा में जुडऩे के पहले, और उसके बाद यात्रियों को आइसोलेट किया जाए। दूसरी सलाह यह है कि अगर कोविड प्रोटोकॉल का पालन करना संभव नहीं है तो पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के हालात को देखते हुए देश को कोविड महामारी से बचाने के लिए भारत जोड़ो यात्रा स्थगित की जाए। सांसदों के जिक्र के अलावा स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी तरफ से भी सिफारिश की है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि यह भारत सरकार की स्वास्थ्य नीति के अनुकूल लिखी गई बात है। मांडविया ने कहा है कि उन्होंने मंत्रालयों में विशेषज्ञों से बात की है, और उसके आधार पर उन्होंने गहलोत और गांधी को पत्र लिखे हैं। अब इस चिट्ठी की रौशनी में यह देखने की जरूरत है कि भारत सरकार की आज की कोरोना नीति क्या है, कोरोना प्रोटोकॉल क्या है।
कांग्रेस पार्टी ने अपने जवाब में कुछ बातें गिनाई हैं जिन्हें यहां स्वास्थ्य मंत्री की चिट्ठी के साथ पढऩे की जरूरत है। कांग्रेस ने कहा है कि क्या इस तरह का पत्र राजस्थान के भाजपा अध्यक्ष को भेजा गया है क्योंकि वो जनआक्रोश यात्रा निकाल रहे हैं? कांग्रेस ने पूछा कि क्या इस तरह का पत्र कर्नाटक बीजेपी को भेजा गया है, जो इसी तरह की यात्रा निकाल रही है? यह पूछा है कि क्या भारत सरकार ने कोरोना नियमों और प्रोटोकॉल की कोई घोषणा की है, क्या संसद का सत्र स्थगित किया गया है? कांग्रेस प्रवक्ता ने याद दिलाया कि अब तक हवाई सफर में भी न मास्क लगाया जाता है, न सेनेटाइजर दिया जाता है। उन्होंने पूछा कि क्या भारत सरकार को सिर्फ राहुल गांधी, कांग्रेस, और भारत जोड़ो यात्रा ही दिख रही है? कांग्रेस ने यह भी गिनाया है कि जब कोरोना महामारी अपनी चरम पर थी, तब कुंभ का आयोजन किया गया, और यूपी, बिहार, प.बंगाल में विधानसभा चुनाव करवाए गए। एक अखबार ने दो तारीखों के भारत के सरकारी कोरोना आंकड़े गिनाए हैं, द टेलीग्राफ ने लिखा है कि 20 दिसंबर को भारत जोड़ो यात्रा के दौरान देश में 3408 कोरोना पॉजिटिव थे, और 19 अप्रैल 2021 को प.बंगाल में अमित शाह चुनावी रैली कर रहे थे, उस दिन देश में 20 लाख, 31 हजार, 977 कोरोना पॉजिटिव थे।
वैसे तो कांग्रेस पार्टी ने स्वास्थ्य मंत्री की चिट्ठी पर पर्याप्त जवाब दे दिया है, लेकिन हम उसके मुद्दों से परे की कुछ बातें उठाना चाहते हैं। पिछले बहुत सारे महीनों पहले कोरोना की कोई रोक-टोक रही हो, तो रही हो, अभी तो बहुत समय से कोई कोरोना प्रतिबंध याद भी नहीं पड़ रहे हैं। अभी हाल ही में गुजरात का चुनाव हुआ, और उसमें लाखों लोगों की भीड़ एक साथ दिखी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी तीन-चार दिन पहले ही बच्चों के किसी समंदर जैसी भीड़ में झुक-झुककर हर किसी से हाथ मिलाते आगे बढ़ते दिख रहे थे, और यह नजारा सभी समाचार चैनलों पर था। पूरे देश में जगह-जगह धार्मिक और सामाजिक समारोह चल रहे हैं, राजनीतिक कार्यक्रम हो रहे हैं, जहां जिसकी जितनी शोहरत है, वहां पर उतने लोग जुट रहे हैं। पूरे देश को लेकर कोई भी कोरोना गाईडलाईन या प्रोटोकॉल सामने नहीं है। भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय का ट्विटर पेज कोरोना से सावधान रहने का एक पोस्टर दिखा रहा है, लेकिन इससे परे कोरोना की कोई बात नहीं है। ऐसे में एकदम से एक अकेले राहुल गांधी को नसीहत देना अटपटा है। खासकर तब जबकि स्वास्थ्य मंत्री ने अपनी चिट्ठी में किसी विशेषज्ञ की राय के आधार पर बात नहीं लिखी है, बल्कि दो भाजपा सांसदों की चिट्ठी की मांग को अपनी सिफारिश बनाकर भेज दिया है। केन्द्र सरकार को कुछ अधिक जिम्मेदारी से कुछ अधिक निष्पक्ष होकर, कुछ अधिक पारदर्शी होकर नसीहत देनी चाहिए। भारत एक संघीय गणराज्य है, और इसमें केन्द्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर तालमेल से काम करना होता है। अभी तो चीन में कोरोना की एक नई लहर की खबर के बाद भारत सरकार ने राज्यों को भी कोई चेतावनी नहीं भेजी है, सार्वजनिक रूप से कोई सावधानी नहीं गिनाई है, सार्वजनिक आवाजाही में, भीड़ में किसी सावधानी के निर्देश नहीं हैं, और जैसा कि कांग्रेस ने गिनाया है, दो राज्यों में भाजपा के प्रादेशिक नेताओं की पदयात्राओं को लेकर भी केन्द्र सरकार ने कोई नसीहत जारी नहीं की है। ऐसे में इस एक अकेली यात्रा को लेकर दो चुनिंदा सांसदों की चिट्ठी को बुनियाद बनाकर स्वास्थ्य मंत्री की ऐसी चिट्ठी पूरी तरह से नाजायज है, और यह केन्द्र सरकार की इज्जत को घटाती है। कांग्रेस का यह सवाल बिल्कुल जायज है कि देश में अगर कोई कोरोना प्रोटोकॉल लागू है तो उसकी जानकारी दी जाए, और कांग्रेस पार्टी उसका पालन करेगी। आज जब देश में कांग्रेस और भाजपा के बीच संबंध इतने अधिक कड़वे चल रहे हैं कि नीम चढ़ा करेला भी उसके सामने शक्कर लगेगा, तो फिर इन दोनों पार्टियों की सरकारों को दूसरे पक्ष से बात करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि हर चिट्ठी और हर बयान इसी कड़वाहट के साथ तौले जाएंगे। फिर जब देश में पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के हालात जैसी बात स्वास्थ्य मंत्री की चिट्ठी में जा रही है, तो यह खुलासा करना जरूरी है कि यह पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी जैसी परिस्थितियां देश में कहां-कहां पर है, कब से है, और इससे जूझने के लिए सरकार ने क्या-क्या किया है, और क्या-क्या करने को कहा है।
कोरोना का खतरा छोटा नहीं है, लेकिन अकेले राहुल गांधी की पदयात्रा को देश की सेहत के लिए खतरा अगर केन्द्र सरकार मानती है, तो उसे इस चुनिंदा निशानेबाजी की ठोस वजहें गिनाकर इस पर रोक लगा देनी चाहिए। फिलहाल तो केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की तरफ से इन बातों पर जवाब आना चाहिए कि अकेले राहुल गांधी को ऐसी चिट्ठी क्यों लिखी गई है, और अकेली यह पदयात्रा केन्द्र सरकार को इतनी खतरनाक क्यों लग रही है?
भाजपा की एक प्रवक्ता नुपूर शर्मा ने मोहम्मद पैगंबर के बारे में एक आपत्तिजनक बयान दिया था, और सोशल मीडिया पर उसका समर्थन करते हुए अमरावती के एक दुकानदार उमेश कोल्हे ने एक पोस्ट किया था। इस पोस्ट के बाद कई लोगों ने मिलकर उमेश कोल्हे का कत्ल कर दिया था। ऐसा शक था कि सीसीटीवी कैमरों पर कैद मारने वाले लोग मुस्लिम थे जिन्होंने सोशल मीडिया पर पोस्ट किए हुए समर्थन के बदले यह कत्ल किया था। अब एनआईए ने अपनी जांच रिपोर्ट पेश की है, और इस बीच उसने अमरावती के ही एक मुस्लिम समुदाय, तब्लीगी जमात के ग्यारह लोगों को गिरफ्तार किया था, और अभी चार दिन पहले उसने कोर्ट में चार्जशीट पेश की है जिसके मुताबिक उमेश कोल्हे के एक सोलह बरस पुराने दोस्त यूसुफ ने ही अपनी जमात के बाकी लोगों के साथ मिलकर यह कत्ल किया। चार्जशीट कहती है कि डॉ. यूसुफ उमेश कोल्हे का पुराना दोस्त था, और यूसुफ की बहन की शादी में मदद की जरूरत थी तो उमेश कोल्हे ने ही मदद की थी।
अभी हम एनआईए की रिपोर्ट को सच मानते हुए आगे की बात लिख रहे हैं। और यह जिक्र जरूरी इसलिए है कि हिन्दुस्तान में कभी-कभी जांच एजेंसियां जांच के नाम पर साजिश करते हुए भी मिली हैं, और किसी बेकसूर को फंसाते हुए भी। फिलहाल इस घटना, और अदालत में पेश इस चार्जशीट से कुछ लिखने की जरूरत लगती है। नुपूर शर्मा नाम की भाजपा की प्रवक्ता ने एक टीवी चैनल के लाईफ टेलीकास्ट के दौरान मोहम्मद पैगंबर के बारे में कुछ आपत्तिजनक बातें कहीं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट तक ने देश में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने के लिए जिम्मेदार कहा। नुपूर शर्मा का सिर काटने के लिए कुछ लोगों और संगठनों ने फतवे भी जारी किए, और तब से अब तक वे सामने नहीं आई हैं, या आ पाई हैं। जिस तरह के साम्प्रदायिक रूझान के साथ भाजपा की इस प्रवक्ता ने निहायत अवांछित, नाजायज, और भडक़ाऊ बातें कही थीं, वे बातें उनकी बाकी बकवास के साथ मेल खाती हुई थीं। उनका मकसद मुस्लिमों को जख्मी करना था, और वे अपने मकसद में कामयाब भी हुईं, अनहोनी बस यही हुई कि वे इस चक्कर में देश का कानून तोड़ बैठीं, और कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों को उन्होंने इतना अधिक विचलित कर दिया कि उन्होंने नुपूर शर्मा का सिर काटने का फतवा जारी कर दिया। अब जैसा कि सोशल मीडिया पर होता है, हर भडक़ाऊ बात के समर्थन में अनगिनत लोग जुट जाते हैं, और यह साबित करने लगते हैं कि उनके पास दिल-दिमाग चाहे न हों, उनके पास किसी भडक़ाऊ बात को आगे बढ़ाने के लिए उंगलियां जरूर हैं। कुछ ऐसा ही अमरावती के उमेश कोल्हे से हुआ, या उन्होंने किया। और इसके जवाब में स्थानीय मुस्लिम कट्टरपंथियों ने उनकी जान ले ली। चूंकि ये सभी ग्यारह कातिल मुस्लिमों के एक ही सम्प्रदाय के थे, इसलिए जाहिर है कि उनका धार्मिक आधार पर एक-दूसरे से मिलना-जुलना भी रहा होगा, और वे धर्म के आधार पर जुड़े हुए लोग थे।
अब इससे यह तो साबित होता है कि धर्म के नाम पर जहां-जहां नफरत और आक्रामकता है, वहां-वहां लोगों में एकजुटता बड़ी तेजी से हो जाती है। नुपूर शर्मा को न जानते हुए भी उमेश कोल्हे ने उसका समर्थन किया, और उमेश कोल्हे के कत्ल के लिए दस तब्लीगी एकजुट हो गए। यह धर्म का आम मिजाज है कि वह घायल होने के लिए एक पैर पर खड़े रहता है, और अपने धर्म की तथाकथित रक्षा करने के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा करने को तैयार रहता है। जब-जब हिन्दू बहुत अधिक एकजुट होते हैं, एक बात बड़ी तेजी से उभरती है कि हिन्दुत्व खतरे में है। जब हिन्दू अलग-अलग रहते हैं, धार्मिक आयोजन कम होते हैं, तब हिन्दुत्व कभी खतरे में नहीं रहता। जब मुस्लिम एक कामगार की शक्ल में काम करते हैं, तब तक इस्लाम खतरे में नहीं रहता क्योंकि उनके पास काम करने की अपनी जरूरत रहती है। लेकिन जब कभी धार्मिक आधार पर वे जुटते हैं, इस्लाम खतरे में पडऩे लगता है। धर्म का मिजाज किसी दूसरे धर्म की दहशत दिखाकर अपने लोगों को एक करने, और फिर उन्हें दुहने का रहता है। धर्म के जो एजेंट ईश्वर और धर्मालु के बीच काम करते हैं, उनका अस्तित्व इसी पर टिका रहता है कि धर्मालुओं की भीड़ अपने को असुरक्षित महसूस करती रहे। अगर आस्थावान सुखी और सुरक्षित हो गए, उनके सिर पर कोई खतरा उन्हें नहीं दिखा, उन्हें अगर किसी दूसरे धर्म के लोगों का खतरा नहीं गिनाया जा सका, तो फिर वे अपने ईश्वर और उसके एजेंट के झांसे में कैसे आएंगे? इसलिए जिस तरह एक पुरानी कहानी में लोगों को भेडिय़ा आया-भेडिय़ा आया कहकर डराया जाता था, उसी तरह आज विधर्मी आया-विधर्मी आया कहकर डराया जाता है। यह डर लोगों को एकजुट करता है, संगठित करता है, और फिर जैसा कि धर्म का आम मिजाज रहता है, वह लोगों को नफरतजीवी और हिंसक भी बनाता है। उनसे दूसरों पर हमले करवाता है क्योंकि धर्म सहअस्तित्व को नहीं मानता। हर धर्म एकाधिकार की सोच पर काम करता है, और दूसरे धर्म को खतरा और खतरनाक मानता है। पूरी दुनिया में धर्मों का विस्तार इसीलिए किया गया कि बहुत अधिक लोगों से हिंसा करना मुमकिन नहीं था, और जब लोग अपने धर्म में आ जाएं, तो फिर उनसे हिंसा की जरूरत क्या है। दुनिया के इतिहास में धर्मों का विस्तार बहुत ही खूनी जंगों से भरा हुआ है, और वह जंग अलग-अलग शक्लों में आज भी जारी है।
हम सोशल मीडिया पर हर कुछ हफ्तों में दिल को छू लेने वाली असल जिंदगी की ऐसी कहानी पढ़ते हैं कि हिन्दू और मुस्लिम दोस्तों ने, समाज के लोगों ने दूसरे के लिए क्या किया। अब इस बीच जब इंसानियत पर धर्म हावी हुआ, तो उसने सोलह बरस पुरानी दोस्ती की भी परवाह नहीं की, और दोस्ती और इंसानियत का गला काटकर धर दिया। यह बिल्कुल धर्म के मिजाज के मुताबिक है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब जम्मू में एक छोटी सी मुस्लिम खानाबदोश लडक़ी के साथ एक मंदिर में पुजारी समेत आधा दर्जन हिन्दू लोगों ने बलात्कार किया था, और फिर उस बच्ची को मार डाला था, तो वहां के हिन्दू समाज ने राष्ट्रीय झंडा लेकर बलात्कारियों को बचाने के लिए जुलूस निकाले थे, और बड़े-बड़े भाजपा नेता उसमें शामिल हुए थे। वह भी धर्म का एक मिजाज था जिसने एक छोटी सी बच्ची के साथ मंदिर में पुजारी और दूसरे लोगों द्वारा बलात्कार और हत्या को अनदेखा कर दिया था, और अपने धर्म के हत्यारे-बलात्कारियों को बचाने के लिए सडक़ों पर औरत-बच्चों को लिए हुए जुलूस निकालने लगा था, यह सिलसिला लंबे समय तक चला था, और उस मुस्लिम बच्ची के परिवार को कोई वकील मिलने से भी बाकी हिन्दू वकील रोक रहे थे। आखिर में जिस महिला वकील ने उसका मुकदमा लिया, उसे कई किस्म का सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा।
दुनिया में दोस्ती को बहुत ऊंचा माना जाता है, लेकिन अमरावती की इस घटना ने साबित किया है कि धर्म की हिंसा दोस्ती का भी गला काट सकती है। इसलिए लोगों को अपनी जिंदगी में धर्म की अहमियत के बारे में चौकन्ना रहने की जरूरत है क्योंकि ईश्वर के प्रति निजी आस्था जब सार्वजनिक जीवन में संगठित होकर एक हमलावर तेवरों की शक्ल ले लेती है, तो फिर वह किसी भी हद तक हिंसक हो सकती है। धर्म की यह डरावनी हिंसा इंसानों को समझनी चाहिए जिन्होंने शेर को बनाकर प्राण फूंकने की एक कहानी की तरह धर्म को गढ़ तो लिया है, लेकिन वह धर्म आज उन्हें ही खा जा रहा है।
अमरीकी संसद की एक जांच कमेटी ने पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप को चुनाव हारने के बाद 6 जनवरी को संसद पर हुए हमले को उकसाने और हमलावरों की मदद करने का कुसूरवार मानते हुए अमरीका के न्याय विभाग से सिफारिश की है कि ट्रंप पर कुछ अपराधों को लेकर आपराधिक मुकदमा चलाना चाहिए। अठारह महीने से यह संसदीय समिति संसद पर हमले की जांच कर रही थी, और उसने ट्रंप पर चार आरोपों को सही पाया है। कमेटी के सामने ट्रंप के बहुत से सहयोगियों के भी शपथपूर्वक बयान हुए थे, और जांच कमेटी ने ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के सांसद भी थे। कमेटी ने डेढ़ सौ पेज की रिपोर्ट में कहा है कि संसद और सरकार के खिलाफ विद्रोह को उकसाने, विद्रोहियों की मदद करने, उन्हें मदद का वायदा करने, सरकारी और संसदीय कामकाज में बाधा डालने, अमरीका के साथ धोखा करने, और गलत बयान देने की साजिश के लिए आपराधिक मुकदमा चलाया गया। लोगों को याद होगा कि 6 जनवरी 2021 को जब ट्रंप चुनाव हार चुके थे, और जो बाइडन अगले राष्ट्रपति की शपथ लेने को थे, तब ट्रंप के हजारों समर्थक आदिम हमलावरों की शक्ल में संसद में घुस गए थे, तोडफ़ोड़ और आगजनी की थी, सांसदों को टेबिलों के नीचे छुपकर जान बचानी पड़ी थी, और टीवी पर यह सब हिंसा देखते हुए ट्रंप अपने सहयोगियों की भी यह सलाह तीन घंटे से अधिक तक अनसुनी करते रहे कि उन्हें अपने समर्थकों को हिंसा रोकने के लिए कहना चाहिए। बल्कि ट्रंप सार्वजनिक रूप से जो बयान दे रहे थे, वे चुनावों को फर्जी करार देने वाले, और इस हमलावर भीड़ को देशभक्त बताने वाले थे। इस कमेटी ने संसद पर हमले और टीवी पर हमला देखते ट्रंप को उनके कमरे से देखने वाले हजार से ज्यादा लोगों के बयान लिए थे, और ऐसे तमाम हलफिया बयानों में डेढ़ बरस का समय लगा था। छह जनवरी को करीब 24 घंटे यह हमला चलते रहा, और इसमें पांच लोगों की मौत हुई थी, और सौ से अधिक घायल हुए थे। यह दो बरस के भीतर का इतिहास है इसलिए आज के अधिकतर लोगों को इसकी याद भी होगी।
अमरीका की व्यवस्था के तहत न्याय विभाग संसद और सरकार से परे भी फैसले लेता है, और सरकार का विभाग होने के बावजूद वह कानूनी मामलों में खुद फैसले लेता है। इसके मुखिया वहां के अकादमी जनरल होते हैं, जो सीधे राष्ट्रपति को रिपोर्ट करते हैं। अमरीकी परंपराएं बताती हैं कि इसके हर फैसले पर जरूरी नहीं है कि अमरीकी राष्ट्रपति की सहमति लगी हो। लोगों को यह भी याद होगा कि ट्रंप के घर पर छापा मारकर अमरीका की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एफबीआई ने सैकड़ों अतिगोपनीय कागजात जब्त किए थे जो कि रद्दी के गट्ठों में पड़े हुए थे, उनके घर पर बिखरे हुए थे। उसे लेकर भी उन पर मुकदमा चलाने की बात चल ही रही थी कि अब यह संसदीय कमेटी की रिपोर्ट आ गई है।
एक तरफ तो अमरीका में आजादी का हाल यह है कि चुनाव हारा हुआ राष्ट्रपति संसद पर हमला करवा सकता है, चुनावों को धोखाधड़ी करार दे सकता है, और लोगों को अराजकता और बगावत के लिए भडक़ा सकता है कि वे इन नतीजों को न मानें। दूसरी तरफ मौजूदा राष्ट्रपति पर भी संसद महाभियोग चला सकती है, इतिहास में चला चुकी है, और ट्रंप पर अगर ये आपराधिक मुकदमे चलते हैं तो हो सकता है कि उनका बाकी जिंदगी किसी भी चुनाव लडऩे का हक खतम ही हो जाए। इस तरह आज अमरीका एक अभूतपूर्व हालात का सामना कर रहा है जिसमें ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के भीतर भी उनके खिलाफ आवाज उठ रही है, लोग उनका विरोध कर रहे हैं। और सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जो बाइडन अपनी गिरती हुई लोकप्रियता के बाद भी वहां हाल में हुए मध्यावधि चुनावों में उम्मीद से अधिक जीत पा चुके हैं, और ट्रंप के करीबी समझे जाने वाले, उनके छांटे हुए रिपब्लिकन उम्मीदवार चुनाव हार चुके हैं।
ट्रंप ने अपने चार बरस के कार्यकाल में लगातार परले दर्जे के एक दकियानूसी और संकीर्णतावादी नेता की तरह घोर नस्लवादी रूख दिखाया, देश के अल्पसंख्यकों के हक कुचलने की कोशिश की, दूसरे देशों से आने वाले प्रवासी कामगारों के खिलाफ जंग सी छेड़ दी, और गरीबों के खिलाफ अपना वैसा ही रूख दिखाया जैसा कि कोई पक्का कारोबारी दिखा सकता है। यहां तक भी बात उनकी पार्टी और उनकी विचारधारा की हो सकती थी, लेकिन ट्रंप पर लगे हुए कई दूसरे आरोप बताते हैं कि उन्होंने चुनावी चंदे का इस्तेमाल अपने वकीलों पर किया, कारोबार में टैक्स चुराने तरह-तरह की धोखाधड़ी की, एक सनकी बादशाह की तरह अमरीकी सरकार को हांकने की कोशिश की, जिन कारोबारियों से वे असहमत थे, उनके खिलाफ तरह-तरह की जांच शुरू करने के लिए अपने अफसरों को उकसाया, और तमाम ऐसी बातें कीं जो कि अमरीकी लोकतंत्र में मंजूर नहीं की जाती हैं। लेकिन यह बददिमागी बढ़ते-बढ़ते चुनावी नतीजों को खारिज करने तक पहुंच गई, और जनता के फैसले के खिलाफ खुली हिंसक बगावत करवाने तक। नतीजा यह हुआ कि उनके हिंसक समर्थकों ने संसद पर ऐसा भयानक हमला किया जैसा कि हॉलीवुड की किसी फिल्म में ही सोचा जा सकता था, असल अमरीका में नहीं।
अमरीकी न्याय विभाग को ट्रंप के खिलाफ ऐसे गंभीर अपराधों के पुख्ता सुबूतों का इस्तेमाल करना चाहिए, और उन्हें अदालत के कटघरे तक ले जाना चाहिए। शायद ऐसा होगा भी। ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी भी ट्रंप की हरकतों से थकी हुई है, और उसके भी कई लोग यह चाहते हैं कि अगले चुनाव में ट्रंप को राष्ट्रपति बनाने के लिए फिर काम करने की नौबत न आए, और ट्रंप से इस तरह छुटकारा मिल जाए। जब पार्टी राजनीतिक रूप से ट्रंप से छुटकारा नहीं पा सक रही है, तब वह अदालत की किसी कार्रवाई की वजह से मिल सकने वाले ऐसे छुटकारे को काम का समझ सकती है। वैसे भी अमरीकी लोकतंत्र में बाकी ट्रंप सरीखे लोगों को यह सबक मिलना चाहिए कि लोकतंत्र पर ऐसा जानलेवा हमला करके किसी की जगह दुबारा कोई निर्वाचित दफ्तर नहीं हो सकता, जेल ही हो सकती है।
दुनिया के बहुत से सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में तो लोगों के स्वस्थ मनोरंजन और रोमांच के लिए बहुत कुछ रहता है, लेकिन जो देश धर्म, जाति, खानपान, पोशाक की नफरत में डूबे रहते हैं, वहां स्वस्थ मनोरंजन की गुंजाइश बड़ी कम हो जाती है। ऐसे देशों के लिए भी बीती रात बहुत अहमियत वाली थी क्योंकि फुटबॉल के विश्वकप फाइनल में जो दो टीमें मैदान पर थीं, उनमें न कोई बेशरम रंग दिख रहे थे, और न ही शर्मीले, दोनों में से किसी टीम में ऐसा मजहब ही दिख रहा था कि जिसकी वजह से उसकी हार की हसरत पाल ली जाए। नतीजा यह हुआ कि हिन्दुस्तान में भी बीती रात तकरीबन तमाम लोगों ने फुटबॉल का मजा लिया, और खासकर उन लोगों ने भी जिनका सुबह से रात तक का वक्त नफरत में भीगा हुआ रहता है। कल के इस मैच में नफरत के लायक कुछ नहीं था, और यह हिन्दुस्तान के एक तबके के लिए बड़ा दुर्लभ मौका था।
विश्वकप फुटबॉल का कल का फाइनल गजब का था। किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह मैच शुरू होने के पहले से इन दोनों देशों से परे के अधिकतर देशों या लोगों के खयालों में यह बात बसी हुई थी कि अर्जेंटीना के खिलाड़ी लियोनेल मेसी का यह आखिरी अंतरराष्ट्रीय मैच है, और इसके बाद रिटायर हो जाने की घोषणा वे खुद कर चुके हैं। वे बहुत किस्म के रिकॉर्ड बनाने में अपने देश के अपने पहले के एक महानतम खिलाड़ी माराडोना की बराबरी कर चुके थे, और सिर्फ विश्वकप जीतना उनके नाम पर दर्ज नहीं था। इस टूर्नामेंट के शुरू होने के पहले से यह एक बहुत बड़ा खतरा था कि 35 बरस की उम्र में आकर मेसी यह आखिरी विश्वकप खेल रहे थे, और अगर इस बार उनकी टीम नहीं जीतती, तो वे विश्वकप जीतने के सपने को लिए लिए अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल से बिदा हो जाएंगे। यह नौबत बड़ी फिल्मी थी, और खासकर तब जब इस बार के टूर्नामेंट में अर्जेंटीना की टीम शुरुआत में ही सऊदी अरब से हार गई थी। इस मैच के बाद लोगों को इस टीम से उम्मीदें खत्म हो चली थीं, लेकिन इसने बीती रात गजब का खेल दिखाया, और विश्वकप भी जीता, और सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का गोल्डन बॉल पुरस्कार भी मेसी को मिला। यह सब कुछ उनकी जिंदगी के इस आखिरी अंतरराष्ट्रीय मैच में हुआ, जिसमें यह सब हुए बिना भी वे घर लौट सकते थे। किसी हिन्दी फिल्म की कहानी की तरह आखिर में जाकर जिस तरह हीरो और हीरोईन मिलते हैं, उसी तरह मेसी और उनकी यह आखिरी और सबसे बड़ी कामयाबी एक-दूसरे से मिले!
किसी खेल या टूर्नामेंट के बारे में विचारों के इस कॉलम में लिखने की हमें शायद ही कभी सूझती है, लेकिन खेल की तकनीकी बारीकियों से परे की बातों पर तो लिखा ही जा सकता है। कल के ही मैच को देखें तो मेसी की तरह ही दस नंबर की जर्सी पहने हुए फ्रांस के स्टार खिलाड़ी किलियन एमबापे का दर्द हार के बाद देखने लायक था। दर्शकों में मौजूद फ्रांस के राष्ट्रपति ने जिस तरह अपनी हारी हुई टीम के बीच मैदान पर पहुंचकर देर तक एमबापे को लिपटाकर दिलासा दिलाया, वह भी देखने लायक था। लेकिन इस फ्रांसीसी सितारे के लिए फुटबॉल की जिंदगी अभी खत्म नहीं हो रही है। वह अभी महज 23 बरस का है, उसके नाम ढेर अंतरराष्ट्रीय गोल करना दर्ज है, और ऐसा माना जाता है कि वह अगले कई और विश्वकप खेलने की संभावना रखता है। इसलिए अगर कल उसकी टीम विश्वकप नहीं जीत पाई, तो यह मेसी की तरह संभावनाओं का अंत नहीं था, अभी उसके सामने फुटबॉल की दुनिया की इस सबसे बड़ी ट्रॉफी को उठाने का बहुत सा मौका बाकी है। इसलिए कल की इस जीत-हार की एक खूबी यह रही कि आखिरी मौके वाले मेसी को मौका मिला, और बिल्कुल जवान खिलाड़ी एमबापे को इस मुकाबले में भी गोल दागने का।
कल के इस मुकाबले से परे, इस बार के विश्वकप में पहली बार एक अफ्रीकी टीम सेमीफाइनल तक पहुंची। मोरक्को ने एक नया रिकॉर्ड कायम किया, अफ्रीका के पौने चार करोड़ आबादी वाले इस देश ने जिस तरह लोगों का दिल जीता, और सेमीफाइनल तक पहुंचने का एक रिकॉर्ड बनाया, उससे भी बाकी दुनिया के बहुत से देशों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। दुनिया के 32 देशों की टीमें इसमें शामिल हुईं, और इनमें मोरक्को जैसा कम आबादी का देश भी था, लेकिन हिन्दुस्तान जैसा 140 करोड़ आबादी का विश्वगुरू इन 32 टीमों में नहीं था। आबादी के हिसाब से वह दुनिया में दूसरे नंबर पर है, यहां पर फुटबॉल अच्छा-खासा खेला भी जाता है, लेकिन शायद क्रिकेट की दीवानगी की वजह से, या कुछ और वजहों से यह 32 टीमों में भी शामिल नहीं था। एक तरफ क्रिकेट जैसा खेल जिसके लिए सब कुछ खासा महंगा लगता है, दूसरी तरफ फुटबॉल जो कि सबसे ही सस्ता खेल है, जिसे बचपन से हिन्दुस्तानी बच्चे गली-गली खेलते हैं, लेकिन जब फुटबॉल के अंतरराष्ट्रीय मुकाबले की बात आती है, तो हिन्दुस्तान दुनिया के नक्शे से गायब ही है। और फुटबॉल का इतिहास बताता है कि 1950 में आखिरी बार हिन्दुस्तान फुटबॉल वल्र्डकप मुकाबले में दाखिल हो रहा था कि आयोजक फीफा को पता लगा कि भारतीय टीम फुटबॉल के जूते नहीं पहनेगी, और नंगे पैर खेलेगी, तो उसमें भारत के खेलने पर रोक लगा दी थी। वह दिन है, और आज का दिन है कि भारत फिर कभी फुटबॉल विश्वकप में खेलने लायक दर्जा नहीं पा सका। और इस बार तो अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल एसोसिएशन फेडरेशन (फीफा) ने भारतीय फुटबॉल फेडरेशन को उसके घरेलू मामलों की वजह से कुछ वक्त के लिए सस्पेंड भी कर दिया था। इस देश में अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल खेलने की भी लंबी परंपरा है, लंबा इतिहास है, लेकिन जब फीफा ने विश्वकप के लिए टीमों को छांटा, और 32 टीमों की सीमा थी, तो उसमें हिन्दुस्तान का नंबर 106 था। मोरक्को से 37 गुना अधिक आबादी वाला यह देश 106 नंबर पर रहा, और मोरक्को इस टूर्नामेंट में खेलते हुए सेमीफाइनल तक पहुंचा।
हिन्दुस्तान जैसे देश को अपने देश में इस खेल की एक मजबूत बुनियाद होते हुए, इतनी बड़ी आबादी होते हुए भी दुनिया में 106 नंबर पर होने के बारे में सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि आज जब क्रिकेट के अलावा हॉकी जैसे दूसरे खेलों में भी भारत को कामयाबी और शोहरत मिल रही है, यहां की महिला खिलाड़ी भी बढ़-चढक़र कामयाब हो रही हैं, ओलंपिक और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में हिन्दुस्तान थोड़ा-थोड़ा आगे बढ़ रहा है, तो फुटबॉल जैसे कम खर्च वाले खेल की इस देश में बुनियाद कैसे मजबूत हो सकती है। फिलहाल जिन लोगों ने कल रात का यह फाइनल मैच नहीं देखा होगा, उन लोगों को इसका कोई रिपीट टेलीकास्ट जरूर देखना चाहिए, और यह भी देखना चाहिए कि अर्जेंटीना जैसे देश को इस जीत से कितना गौरव हासिल हुआ है। क्रिकेट से परे एक सस्ते और आसान खेल में भी संभावनाएं ढूंढनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट को लेकर केन्द्र सरकार का रूख एक पहेली की तरह बना हुआ है। पिछले कई महीनों से केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू तरह-तरह के कार्यक्रमों में या मीडिया से बात करते हुए जिस तरह सुप्रीम कोर्ट की आलोचना कर रहे हैं, वह एक सिलसिले के रूप में देखने पर कोई मासूम हरकत नहीं लगती है। इसके पीछे कोई सोची-समझी बात है, और अदालत से केन्द्र सरकार का सतह के नीचे चलता कोई टकराव दिख रहा है। उन्होंने जजों की नियुक्ति के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई कॉलेजियम प्रणाली की कड़ी आलोचना की, फिर कुछ और मामलों में अदालत के बारे में तरह-तरह की असहमति जताई। अभी उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को यह नसीहत दी कि उसे जमानत के मामलों को, और जनहित याचिकाओं को नहीं सुनना चाहिए क्योंकि उनमें बहुत वक्त लगता है। फिर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के जजों की लंबी छुट्टियों के बारे में कहा इससे वहां चल रहे मुकदमों के लोगों को बड़ी असुविधा होती है। दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ तुर्की-ब-तुर्की जवाब भी दे रहे हैं।
इससे कम से कम एक यह बात तो समझ में आती है कि केन्द्र सरकार चन्द्रचूड़ के साथ उतनी सहूलियत महसूस नहीं कर रही है जितनी वह पिछले मुख्य न्यायाधीश यू यू ललित के साथ महसूस करती थी। जजों की अपनी निजी राय रहती है, और सरकारें यह अंदाज लगा लेती हैं कि उसकी दिलचस्पी के मामलों में किस जज का क्या रूख रहेगा। इसी को देखते हुए केन्द्र सरकार कॉलेजियम के भेजे हुए नामों को मंजूरी देने के पहले उन्हें महीनों या बरसों तक टांगकर रखती है ताकि जिन जजों या वकीलों के नाम भेजे गए हैं, उनकी सोच अगर सरकार को माकूल नहीं लगती है, तो उन्हें मंजूरी न दी जाए। नतीजा यह होता है कि ऐसी लिस्ट में से कई वकील थककर अपने नाम वापिस ले लेते हैं क्योंकि उन्हें यह समझ आ जाता है कि वे एक तारीख के बाद जज बनने पर कभी चीफ जस्टिस नहीं बन पाएंगे। अभी हाल में ही ऐसे कई लोगों ने अपने नाम वापिस ले लिए हैं। जजों की खाली पड़ी हुई कुर्सियों और सरकार के पास कॉलेजियम की भेजी गई फेहरिस्त का जब साथ-साथ साल-दो-साल इंतजार चलता है तो जाहिर है कि अदालत में मामलों का ढेर बढ़ते चलेगा। लेकिन मौजूदा सरकार को नामों की ऐसी लिस्ट को एक-दो बरस तक भी रोकने से कोई परहेज नहीं है। मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिक कार्यक्रम में भी इस बात को उठा चुके हैं, और अब तो ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी जनता के बीच अपनी स्थिति को रख देना चाहता है कि सरकार की किन बातों से उसके काम पर असर पड़ रहा है। फिर यह भी लगता है कि भारतीय लोकतंत्र के तीन स्तंभों में से दो, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों को लेकर भी एक खींचतान चल रही है। यह नौबत तब और गंभीर हो जाती है जब लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ, विधायिका, अपने भीतर सत्तारूढ़ पार्टी के असीमित बाहुबल के चलते भारतीय लोकतंत्र को अब दो स्तंभों का ही बना चुका है। अब देश में सरकार और अदालत इन्हीं दो का मतलब रह गया है क्योंकि संसद में न तो कोई विपक्ष कोई ताकत रखता, और न ही सरकार को उसकी कोई परवाह ही है। ऐसी हालत में सरकार अपने संसदीय बाहुबल के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट से दो-दो हाथ करने को उतावली दिख रही है। लेकिन आज के मुख्य न्यायाधीश सरकार के इस रूख के सामने झुकते हुए भी नहीं दिख रहे हैं।
दरअसल भारतीय संविधान जब बना, उस वक्त शायद देश में ऐसी संसदीय स्थिति की कल्पना नहीं रही होगी कि संसद में लगातार एक ही पार्टी का इतना बड़ा बहुमत जारी रहेगा, जो कि देश की तकरीबन तमाम विधानसभाओं तक भी फैला हुआ रहेगा। ऐसा बाहुबल सत्तारूढ़ पार्टी की सोच को संविधान संशोधन में बदलने की ताकत रखता है, और इसीलिए आज हिन्दुस्तान कई किस्म के नए कानूनों को देख रहा है, केन्द्र-राज्य संबंधों में नई तनातनी झेल रहा है, और अब केन्द्र में सत्तारूढ़ ताकतों को शायद यह लग रहा है कि ऐसे अभूतपूर्व जन-बहुमत के रहते हुए भी सुप्रीम कोर्ट अगर एक प्रतिबद्ध-न्यायपालिका के रूप में काम नहीं कर रहा है, तो क्यों नहीं कर रहा है? लोगों को याद होगा कि प्रतिबद्ध-न्यायपालिका शब्द का पिछला या पहला इस्तेमाल इमरजेंसी के दौरान हुआ था जब तानाशाह हो चुकी इंदिरा सरकार और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी न्यायपालिका से यह उम्मीद कर रही थी कि उसे सरकार के नजरिए से प्रतिबद्ध होकर चलना चाहिए। आज केन्द्रीय कानून मंत्री के लगातार बयानों से अगर सीधे-सीधे यह मतलब नहीं भी निकल रहा है, तो भी इससे सीधे-सीधे उसी दौर की याद आ रही है।
हम केन्द्र और सुप्रीम कोर्ट में किसी टकराव की चाहत के बिना यह उम्मीद जरूर करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ देश के संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखे, और अगर उसके शब्दों के बीच व्याख्या की गुंजाइश है, तो जजों को अपने सरोकार सरकार के साथ नहीं, जनता के साथ जोडऩे चाहिए। लोकतंत्र में जैसे-जैसे सरकार मजबूत होती है, संसद एकतरफा होती है, वैसे-वैसे सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत भी होती है। आज का यह दौर देश की सरकार के साथ-साथ देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर एक विचारधारा की ताकतों के एकाधिकार की कोशिश का दौर दिख रहा है। केन्द्र सरकार इसमें बहुत हद तक कामयाब भी हुई है, और मोदी सरकार के इन आठ बरसों में तकरीबन तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर लगभग-प्रतिबद्धता की नौबत आ चुकी है। यह वक्त एक बहुत जिम्मेदार और मजबूत रीढ़ वाले सुप्रीम कोर्ट की जरूरत का है, और चूंकि मौजूदा मुख्य न्यायाधीश का कार्यकाल पर्याप्त बाकी है, इसलिए इतिहास इस दौर को गौर से दर्ज करेगा।
ब्राजील में अभी हुए एक वैज्ञानिक शोध में यह पता लगा है कि फास्टफूड या जंकफूड कहे जाने वाले डिब्बा और पैकेट बंद सामान या बाजार में मिलने वाले बर्गर के दर्जे के खानपान से लोगों की याददाश्त कमजोर होने का खतरा बढ़ जाता है। आठ बरस तक दस हजार से अधिक औरत-मर्दों पर किए गए इस अध्ययन में यह पाया गया कि ऐसे अल्ट्रा प्रोसेस्ड खानपान वाले लोगों में याददाश्त कमजोर होने के मामले ऐसा कम से कम खाने वाले लोगों से 28 फीसदी अधिक थे। इस अध्ययन से यह भी साफ होता है कि मानसिक स्वास्थ्य को बनाने मेंं खानपान की एक भूमिका है। दूसरी तरफ एक अलग रिसर्च का नतीजा यह है कि किसी भी किस्म की कसरत लोगों में रोकी जा सकने वाली बीमारियों को रोकने की अकेली सबसे बड़ी तरकीब है। कसरत या किसी और किस्म से बदन की मेहनत से आंतों से लेकर दिमाग तक असर पड़ता है, और जिसे इंसान मन कहते हैं, वह मन भी जोश से भरता है।
ऐसे अलग-अलग बहुत से रिसर्च-नतीजे हैं और दो बातों को लेकर कोई मतभेद नहीं हो सकता कि जंकफूड किस्म के जितने खानपान हैं, उनसे सेहत को अपार नुकसान पहुंचता है, दूसरी तरफ खेलकूद, कसरत, या पैदल-सैर से लोगों की सेहत को बहुत फायदा पहुंचता है। एक दूसरी बात यह है कि ऐसा नुकसान या ऐसा फायदा, ये दोनों ही बातें लोगों की अगली पीढिय़ों तक पहुंचती हैं, और अच्छी या बुरी आदतें विरासत की शक्ल में आगे बढ़ती हैं। ये दोनों ही बातें आज फिक्र करने की इसलिए हैं कि पैकेट और डिब्बों में बंद, और टेलीफोन पर ऑर्डर करने से घर पहुंचने वाला बाजारू खाना बढ़ते चल रहा है। लोग पकाने का वक्त या सहूलियत न रहने से भी ऐसा करते हैं, और जुबान के शौक की वजह से भी ऐसी चीजों को मंगाना पसंद करते हैं जिन्हें घर पर पकाना आसान नहीं है। फिर बाजार को अपने ग्राहक बांधकर रखने होते हैं, इसलिए स्वाद को बढ़ाने के लिए इतने किस्म की चीजों को इस हद तक डाला जाता है, कि जिससे सेहत के चौपट होने की गारंटी सरीखी रहती है। इन दिनों संपन्न परिवारों के बच्चे बचपन से ही ऐसे खानों के शिकार हुए जा रहे हैं, और इसके खतरे की तरफ सरकार और समाज की जागरूकता बिल्कुल भी नहीं है। और परिवार भी समाज से प्रभावित होते हैं, और इस तरह का खानपान बड़ों से लेकर छोटों तक जमकर बढ़ते चल रहा है, और इसके साथ-साथ ही इन सबकी आने वाली जिंदगी में कई किस्म की ऐसी बीमारियों का खतरा भी बढ़ते चल रहा है जिन्हें कि आसानी से रोका जा सकता था।
एक तरफ तो नुकसानदेह खानपान को घटाने की जरूरत है, दूसरी तरफ सेहतमंद जीवनशैली को अपनाने की जरूरत है। बिना किसी खर्च के लोग खाली हाथों कुछ देर कसरत कर सकते हैं, कुछ देर पैदल चल सकते हैं, कुछ देर योग या प्राणायाम कर सकते हैं। इनमें एक धेला भी खर्च नहीं होता, लेकिन लोगों की काम करने की क्षमता बढ़ती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, और अधिक काम करने का उत्साह भी बढ़ता है। अब यह बात निर्विवाद रूप से, वैज्ञानिक तथ्यों से साबित हो चुकी है कि खेलकूद या कसरत से दिमाग में हार्मोन रिलीज होते हैं जो लोगों को खुशमिजाज भी बनाते हैं, और उनकी जिंदगी सुखी करते हैं। बचपन और जवानी के समय से अगर लोग खेलना-कूदना, कसरत और पैदल चलना शुरू कर देते हैं, तो उनकी जिंदगी गंभीर बीमारियों से बचने की गुंजाइश बढ़ जाती है, और बुढ़ापा शर्तिया अधिक आरामदेह हो जाता है।
हिन्दुस्तान मेंं केन्द्र सरकार की तरफ से फिटइंडिया नाम का एक अभियान कुछ बरस पहले छेड़ा गया था, और वह झाड़ू लगाने के सफाई अभियान की तरह आया-गया हो गया। अब कोई उसकी चर्चा भी नहीं करते। अब न लोगों को फिट रहने के तरीके सुझाने पर कोई मेहनत दिखती, और न ही खराब खाने से सावधान करने का कोई अभियान दिखता। नतीजा यह है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे शहरों में पैदल चलने के लिए तालाबों के जो किनारे थे, जो मैदान और बगीचे थे, उन पर धड़ल्ले से अवैध निर्माण हो रहे हैं, और खानपान के बाजार वहां खड़े किए जा रहे हैं। लोगों के लिए खुली जगहें म्युनिसिपल और सरकार के लिए आखिरी प्राथमिकता, या नाजायज औलाद की तरह हो गई हैं, और इंच-इंच का भ्रष्ट बाजारू इस्तेमाल भ्रष्ट कमाई का बड़ा जरिया हो गया है। जिस जगह लोग सपरिवार घूम सकते थे, अब वहां लोग सपरिवार बाजारू खानपान ही कर सकते हैं।
सरकारों को बड़े खर्च वाले संगठित काम अच्छे लगते हैं। लोगों में खानपान और सेहत की जागरूकता से सरकारों में बैठे लोगों को कुछ नहीं मिलना है। लेकिन सार्वजनिक जगहों पर बर्बाद खानपान वाले बाजार बसाने में सत्तारूढ़ लोगों को खासी कमाई होती है। दूसरी तरफ लोगों के इलाज के लिए जब सरकारें निजी अस्पतालों को या स्वास्थ्य बीमा कंपनियों को सैकड़ों करोड़ का भुगतान करती हैं, तो उसमें भी सत्ता को कमाई होती है। लोगों से सेहतमंद खाने को कहना, और सेहतमंद जिंदगी गुजारने को कहने से किसी की कोई कमाई नहीं होती। इसलिए सरकार से कोई उम्मीद करना बेकार है। वह तो खुली जगहों को कांक्रीट का जंगल बनाती चलेंगी, और बेचती चलेंगी। लोगों को खुद ही अपने बीच, अपने-अपने दायरे में सेहतमंद खानपान और सेहतमंद जिंदगी को बढ़ावा देना होगा। पहले खुद फिट, फिर परिवार, और फिर आसपास का संसार। इनमें से कोई भी बात अंतरिक्ष विज्ञान जैसे रहस्य की नहीं है। अपनी ही पिछली पीढिय़ों को देखें तो बड़े बुजुर्ग यह सब करते आए हैं, इनसे जिंदगी किफायती भी रहती है, सेहतमंद भी रहती है। और जैसा कि अभी इस नये अध्ययन से पता लगा है कि जंकफूड खाने वालों की याददाश्त भी कमजोर हो रही है। और किसी चीज की न सही कम से कम इस नई बात की तो परवाह करें, क्योंकि याददाश्त नहीं रहेगी तो जिंदगी कैसी मुश्किल होगी इसे देखने के लिए आसपास कुछ बुजुर्ग मरीजों को देखा जा सकता है।
हर कुछ हफ्तों में बलात्कार में शामिल नाबालिगों पर लिखना पड़ता है। अब कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस ने तेजी से बलात्कार और हत्या का एक ऐसा मामला सुलझाया जिसमें पड़ोस के तेरह बरस के लडक़े ने आठ बरस की बच्ची से बलात्कार किया, और फिर उसका गला घोंटकर मार डाला। पुलिस जांच में किसी सीसीटीवी कैमरे में इन दोनों को साथ जाते देखा गया, और फिर छानबीन में यह लडक़ा पकड़ में आया। यह अपने परिवार के लोगों के मोबाइल फोन पर पोर्नो फिल्में देखा करता था, और मानो उसी के असर से उसने असल जिंदगी में उसी किस्म का जबरिया सेक्स किया, और फिर छोटी बच्ची को मार डाला। पुलिस की दी गई जानकारी में यह भी पता लगा है कि इस बलात्कारी लडक़े का पिता भी अपनी सगी नाबालिग बेटी के साथ रेप के मामले में तीन बरस तक जेल में बंद था, और एक महीना पहले ही जेल से छूटकर आया है। जाहिर है कि इन बरसों में इस लडक़े ने अपने पिता के जुर्म को परिवार के भीतर ही देखा था, सजा को भी देखा था, लेकिन उसे जुर्म तो शायद प्रेरणा मिल गई, पिता को मिली सजा से उसे सबक नहीं मिला। एक मासूम बच्ची की जिंदगी चली गई, और यह नाबालिग लडक़ा अगले कई बरस के लिए सजा काटने चले गया।
हिन्दुस्तान में ऐसे मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं जिनमें मोबाइल फोन पोर्नोग्राफी देखकर बच्चे इस तरह से बलात्कार करें। वैसे तो पूरे देश से इस किस्म की हिंसा और ऐसे जुर्म की खबरें आती ही रहती हैं, लेकिन कल का यह मामला छत्तीसगढ़ में उजागर हुआ है इसलिए यह याद आया कि पिछले पखवाड़े ही छत्तीसगढ़ के बेमेतरा में दस साल की एक बच्ची फांसी पर टंगी मिली। जब उसकी जांच की गई तो पता लगा कि उसके साथ बलात्कार भी हुआ था, अड़ोस-पड़ोस में जांच हुई तो पास के एक नाबालिग लडक़े को पकड़ा गया जिसने बताया कि वह मोबाइल पर अश्लील वीडियो देखते रहता था, और उसने पड़ोस में इस छोटी लडक़ी को पकडक़र रेप किया, और फिर बात खुल जाने के डर से उसकी हत्या करके उसे चुनरी से फांसी पर टांग दिया था। एक पखवाड़े में सौ किलोमीटर के भीतर ठीक ऐसा ही यह दूसरा मामला तकरीबन उसी उम्र के बच्चे का किया हुआ मिला है। और यह तो ऐसा मामला है जिसमें कत्ल की वजह से बात सामने आ गई, वरना घर-परिवार, पड़ोस-रिश्तेदार के भीतर ऐसे मामले बड़ी संख्या में होते हैं, और उन्हें सामाजिक बदनामी के डर से दबा दिया जाता है। लोगों को याद होगा कि अभी चार दिन पहले ही देश के मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने कहा है कि बच्चों से बलात्कार के मामलों में परिवारों को सामने आकर पुलिस में रिपोर्ट लिखानी चाहिए। यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है कि अगर ऐसे अपराधी बच जाते हैं, तो वे दूसरे बच्चों के साथ भी इसी तरह का जुर्म तब तक करते रहते हैं जब तक कि वे पकड़ा नहीं जाते हैं। इसलिए किसी मामले को आसपास के संबंधी होने की वजह से दबा देने का मतलब और बच्चों को वैसे ही खतरे में डालना होता है।
अब मोबाइल फोन तो एक हकीकत हो गई है, और किसी बच्चे की फोन तक पहुंच रोकना मुमकिन नहीं है। यह भी समझ पड़ रहा है कि परिवार के बड़े लोगों के फोन तक बच्चों की पहुंच रहती है, और अगर बड़े लोगों ने पोर्नोग्राफी देखी हुई है, तो उनके फोन में इसकी हिस्ट्री बची रहती है, और उससे खेलते बच्चों के लिए यह एक आसान रास्ता पोर्नोग्राफी तक पहुंचने का बना रहता है। फिर यह भी है कि आज दुनिया का माहौल बदलने की वजह से, बच्चों के मानसिक और शारीरिक बदलाव कमउम्र में आने की वजह से उनका सेक्स से वास्ता पहले के मुकाबले कमउम्र में पडऩे लगता है। मां-बाप को यह समझ ही नहीं आता कि उनके बच्चे अब सेक्स की तरफ देखने लगे हैं, क्योंकि जब वे उस उम्र के थे, तो उन्हें इसकी कोई समझ नहीं थी। पीढिय़ों में यह फर्क आते चल रहा है, और इसके साथ-साथ हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि मां-बाप और समाज यह मानकर चलते हैं कि किसी सेक्स शिक्षा की जरूरत नहीं है। इस देश की दकियानूसी और पाखंडी ताकतों ने इसे देश की संस्कृति से जोड़ दिया है, और बात-बात पर वे झंडा-डंडा उठा लेते हैं कि भारतीय संस्कृति को बर्बाद नहीं करने दिया जाएगा। सेक्स शब्द को ही पश्चिमी मान लिया जाता है, जबकि हिन्दुस्तान के इतिहास और पौराणिक कथाओं में कई जगह ऐसा जिक्र भी है कि किसी लडक़ी की माहवारी शुरू होने के बाद उसके मां बनने के मौके को बर्बाद नहीं करना चाहिए। कन्नड़ के ज्ञानपीठ विजेता लेखक भैरप्पा के महाभारत की पृष्ठभूमि पर लिखे एक उपन्यास को देखें तो एक पिता इस बात को लेकर फिक्रमंद रहता है कि बेटी रजस्वला हो गई है, शादी नहीं हुई है, गर्भधारण का मौका बर्बाद होते जा रहा है। उस वक्त के इस चलन का भी इसमें जिक्र है कि शादी के पहले भी लड़कियां गर्भवती हो जाती थीं, और शादी के बाद वे अपने उन बच्चों के साथ पति के घर जाती थीं। इसलिए शादी के पहले, या कमउम्र में सेक्स कोई पश्चिमी बात नहीं है, यह हिन्दुस्तान में भी प्रचलित बात रही है, यह एक अलग बात है कि आज एक बेबुनियाद नवशुद्धतावादी काल्पनिक इतिहास को गढक़र सेक्स को एक अवांछित बात मान लिया गया है। जबकि इन्हीं कन्नड़ लेखक के कर्नाटक में अभी कुछ ही दिन पहले बेंगलुरू के एक निजी स्कूल में अचानक ही लडक़े-लड़कियों के स्कूल बैग जांचे गए तो उनमें कंडोम और खाने वाले गर्भनिरोधक भी निकले हैं। मुम्बई के एक प्रमुख सेक्स परामर्शदाता ने अभी एक इंटरव्यू में यह कहा कि उनके पास दस-बारह उम्र के बच्चों के ऐसे मामले आने लगे हैं जो कि उनके बीच सेक्स से जुड़े हुए हैं।
हिन्दुस्तान को इस बात की पूरी आजादी है कि वह सिर को रेत में छुपाकर हकीकत की तरफ से आंखें मूंदे रहे, और आने वाली पीढ़ी को तरह-तरह के खतरों में डालना जारी रखे। आज जहां सेक्स को जुर्म की तरह दर्ज नहीं भी करवाया जा रहा है, वहां भी कमउम्र के असुरक्षित सेक्स से गर्भ का खतरा भी बना रहता है, और दर्जनों किस्म की यौन-बीमारियों के फैलने का भी। दूसरी तरफ जिन स्कूली बच्चों के पास गर्भनिरोधक मिले हैं, वे दूसरे बच्चों के मुकाबले कुछ अधिक जागरूक हैं क्योंकि वे अपनी शारीरिक-मानसिक जरूरतों को पूरा करते हुए बीमारी और गर्भधारण से बचाव की फिक्र भी कर रहे हैं। यह बात सुनने में चाहे कितनी ही बुरी लगती हो, आज सच तो यह है कि स्कूल पार करते-करते शायद अधिकतर बच्चे किसी न किसी तरह सेक्स का तजुर्बा ले चुके रहते हैं। अब उन्हें परिवार, स्कूल, या समाज बचाव के तरीके सिखाए या नहीं, वे अपनी जरूरतें तो पूरी करते रहते हैं, और भयानक सच तो यह है कि आज अधिकतर बच्चों के पास सेक्स की किसी भी तरह की शिक्षा के नाम पर सिर्फ पोर्नोग्राफी मौजूद है, जो कि सबसे ही खतरनाक किस्म की शिक्षा है। पोर्नोग्राफी प्राकृतिक या स्वाभाविक सेक्स के बजाय बलात्कार और जबरिया सेक्स सिखाती है, और अब तो छोटे-छोटे बच्चे भी उसे सीख रहे हैं।
आज हिन्दुस्तान में जो राजनीतिक दल एक तथाकथित भारतीय संस्कृति के नाम पर वोट दुहने में लगे रहते हैं, वे सेक्स शब्द को ही जेल में डाल देने के हिमायती हैं। और ऐसे कट्टर लोगों के खिलाफ दूसरी बेहतर राजनीतिक पार्टियां भी कुछ बोलने से कतराती हैं, क्योंकि उन्हें बदचलनी बढ़ाने वाला करार दे दिया जाएगा। नतीजा यह है कि देश की शिक्षा नीति को तय करने वाले लोग किशोरावस्था में पहुंचे हुए बच्चों को भी अपने शरीर और स्वास्थ्य की सुरक्षा सीखने देना नहीं चाहते, वे इसे चरित्रहीनता और पश्चिमी संस्कृति करार दे रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए क्योंकि अपनी देह से अनजान पीढ़ी सेक्स तक तो उसी तरह पहुंच जा रही है जिस तरह जानवर भी आपस में पहुंच जाते हैं, लेकिन जानवरों में कुछ भी अवांछित गर्भ नहीं होता, यौन-बीमारियों का खतरा या उससे बचाव नहीं होता, इसलिए उनमें तो काम चल जाता है, इंसानों के बच्चों में इससे खतरनाक जुर्म खड़े हो रहे हैं, और सेहत के लिए खतरे भी।
कल छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में दिनदहाड़े खुली सडक़ पर एक दबंग की कार रोककर किसी ने उसे गोलियों से भून डाला। आधा दर्जन फायर किए गए, और कार की सीट पर बैठे हुए ही संजू त्रिपाठी नाम के इस निगरानीशुदा बदमाश की मौत हो गई। कार के सामने जिला कांग्रेस महामंत्री की तख्ती लगी हुई थी, और इस मृतक ने अपने तीन-तीन फेसबुक अकाऊंट पर अपना यही पदनाम लिखकर रखा था। जब चारों तरफ खबरों में फैला कि सत्तारूढ़ पार्टी के जिला महामंत्री की इस तरह सडक़ पर हत्या हो गई, तो जिस रफ्तार से पुलिस ने हत्यारे की तलाश शुरू की होगी, उसी रफ्तार से उसने इस बात का खंडन जारी किया कि मृतक किसी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ था। यह बात अपने आपमें हैरान करती है कि पुलिस कैसे किसी राजनीतिक दल, या सभी राजनीतिक दलों की तरफ से कोई सफाई दे सकती है कि मरने वाला उनका सदस्य या पदाधिकारी नहीं था? लेकिन पुलिस को एक हत्या, और सत्तारूढ़ पार्टी के एक नेता की हत्या में ऐसा बड़ा फर्क दिख रहा था कि वह आनन-फानन प्रेसनोट जारी कर रही थी कि मरने वाला किसी राजनीतिक दल से जुड़ा नहीं था, मानो राजनीतिक दल से परे के किसी की हत्या हो जाना कम अहमियत की बात है।
पुलिस ने आनन-फानन इस मृतक पर दर्ज दर्जनों मामलों की जानकारी जारी की कि यह पुराना आदतन अपराधी था, और इस पर तरह-तरह के हथियारबंद जुर्म करने के मामले दर्ज थे। मामलों की यह लिस्ट 40 पेज लंबी थी, और यह जाहिर है कि यह पुलिस के पास पहले से तैयार थी। अब हैरानी की बात यह है कि अगर इतने अपराधों से जुड़ा हुआ एक आदतन अपराधी अपनी महंगी और बड़ी सी कार पर जिला कांग्रेस महामंत्री की तख्ती लगाकर चल रहा है, तो भी न यह कांग्रेस को दिक्कत की बात लग रही, और न ही पुलिस को। अब कम से कम इस मामले के सामने आने के बाद राजनीतिक दलों को चौकन्ना हो जाना चाहिए कि उनकी पार्टी या पदों के नाम की तख्ती लगाकर घूमने वाले लोग कैसे हैं। इस मृतक के फेसबुक पेज पर उसके जितने तरह के पोस्टर दिख रहे हैं, उन पर भी कांग्रेस के पदाधिकारी होने का बड़ा साफ-साफ जिक्र है। तो क्या कांग्रेस पार्टी जनता से इतनी कट गई है कि गुंडे-मवाली उसके नाम का इस्तेमाल करें, उसके पदाधिकारी होने का दावा करें, और उसे पता भी न चले?
यह एक मामला इस बात का भी नमूना है कि यह आदमी पदाधिकारी सचमुच था या नहीं था, यह तो अलग बात है, लेकिन अपनी गाड़ी पर ऐसी तख्ती लगाकर घूमते हुए यह अपने अपराधों के लिए एक राजनीतिक आड़ तो इस्तेमाल कर ही रहा था। इसके ऊपर जिस तरह दर्जनों गंभीर मामले दर्ज हैं, वे अपने आपमें हैरान करते हैं कि इन सबके बावजूद यह आदमी बिलासपुर में खुलेआम घूम रहा था, और हर कुछ दिनों में कोई नया जुर्म कर भी रहा था। किसी शहर में ऐसी गुंडागर्दी करने वाले मुजरिम के खिलाफ तो सत्तारूढ़ पार्टी को खुद होकर भी कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन पार्टी से अपने युवक कांग्रेस के दिनों से जुड़ा हुआ यह मुजरिम डंके की चोट पर पार्टी का पदाधिकारी बना घूमते रहा, और किसी ने यह सिलसिला नहीं रोका।
छत्तीसगढ़ के शहर-कस्बों का यह आम हाल है कि यहां न सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी, बल्कि कोई दूसरे राजनीतिक दल, सामाजिक और धार्मिक संगठन, साम्प्रदायिक संगठन, सभी तरह की तख्तियां लगाकर लोग चलते हैं, और पुलिस किसी पर भी कार्रवाई करने से बचती है। ऐसा शक्तिप्रदर्शन पुलिस को धमकाने के लिए ही रहता है, और उसका असर यहां होते दिखता है। गाडिय़ों के लिए बने कानून में ऐसी तख्तियों पर तगड़े जुर्माने का इंतजाम है, लेकिन जुर्माना करने वाला पुलिस अमला इनसे सहमकर ही रहता है। ऐसे शक्तिप्रदर्शन का नतीजा यह होता है कि राजनीतिक दलों के पदाधिकारी गुंडागर्दी करने लगते हैं, और गुंडे राजनीतिक दलों के पदाधिकारी बनने की कोशिश करते रहते हैं ताकि उन्हें किसी भी कानूनी कार्रवाई का सामना न करना पड़े। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए। लेकिन दिक्कत यह है कि सांसद और विधायक, जज और बड़े-छोटे अफसर, सभी लोगों को तख्तियां लगाकर गाडिय़ों का हॉर्सपावर बढ़ाने का शौक रहता है, और यह आदत संक्रामक रोग की तरह बाकी लोगों में फैलती रहती है। जिन राजनीतिक दलों के लोग ऐसी तख्तियां लगाकर सड़क़ों पर शक्तिप्रदर्शन करते हैं, उन्हें जनता की नाराजगी भी मिलती है, लेकिन चूंकि सभी छोटी-बड़ी पार्टियों के लोग इस मनमानी में एक जैसे जुटे हुए हैं, इसलिए चुनाव में नुकसान का किसी को पता नहीं लगता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। और कल बिलासपुर में इस हत्या के बाद जिस तरह सत्तारूढ़ पार्टी से उसका रिश्ता न होने की बात कही जा रही है, तो सभी पार्टियों को ऐसी वारदात के पहले भी मुजरिमों से अपने रिश्तों, और अपनों से मुजरिमों के रिश्तों पर गौर कर लेना चाहिए।