संपादकीय
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने कल एक रिपोर्ट प्रकाशित की है कि खाने-पीने के सामानों के डिब्बे-बोतल या पैकेट पर पोषक तत्वों की जानकारी के अलावा यह भी लिखा रहना चाहिए कि उनमें कौन सी चीजें नुकसानदेह हैं। यह रिपोर्ट 4 मार्च के विश्व मोटापा दिवस के मौके पर हुए एक ग्लोबल वेबिनार में विशेषज्ञों के बीच हुई चर्चा के बाद सामने आई है। इस वेबिनार में खाने-पीने के फालतू के सामान, जंकफूड, को लेकर भारत सरकार को एक विशेषज्ञ कमेटी द्वारा सात साल पहले दिए गए सुझावों पर भी चर्चा हुई जिस पर केन्द्र सरकारें सोई हुई हैं। बाजार में खाने-पीने के सामान पेश करने वाली कंपनियां तमाम नुकसानदेह जानकारी को छुपाना चाहती हैं, और वे सरकार के नियमों को प्रभावित करने के लिए काफी कुछ खर्च करने की स्थिति में भी रहती हैं। इस ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि आईसीएमआर के 2017 के आंकड़ों के मुताबिक देश में गैरसंक्रामक रोगों से मौतें 38 फीसदी थीं जो कि बढक़र 62 फीसदी हो गई हैं। आबादी में 17 फीसदी पुरूष और 14 फीसदी महिलाएं डायबिटीज के शिकार हैं। ऐसे में अगर खाने-पीने के बाजारू सामान अपने भीतर नमक और शक्कर, घी-तेल के खतरनाक स्तर को छुपाना जारी रखेंगे, तो हिन्दुस्तान एक टाईम बम के ऊपर बैठा हुआ साबित होगा।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि करीब डेढ़ बरस पहले इसी मुद्दे पर हमने उस वक्त की सीएसई की एक दूसरी रिपोर्ट पर लिखा था। हिन्दुस्तान में पैकेटबंद मीठा-नमकीन किस्म के सामान किस कदर सेहत के खिलाफ हैं। ऐसे सामानों में शक्कर, नमक, या कुछ रसायन इतने अधिक हैं कि उनसे सेहत को नुकसान पहुंचना तय है। बाजार में अधिक चलने वाले कई ब्रांड के अधिक चलने वाले सामानों का रासायनिक विश्लेषण करके सीएसई ने एक चार्ट भी प्रकाशित किया है कि किस-किसमें कितना फीसदी नुकसानदेह सामान मिला हुआ है।
देश में खान-पान का हाल एक बहुत फिक्र की बात है। यह बात जरूर है कि यह अमरीका जैसे देश से बहुत बेहतर है क्योंकि वहां पर लगातार जंक कहे जाने वाले बहुत ही नुकसानदेह खानपान की वजह से आबादी का एक बड़ा हिस्सा इतने भारी मोटापे का शिकार हो चुका है कि वह एक किस्म का राष्ट्रीय खतरा माना जा रहा है। भारत में भी दिल्ली जैसे उत्तर भारतीय शहर में महंगे स्कूल-कॉलेज को देखें, महंगे बाजारों में घूमते लोगों को देखें, तो अंधाधुंध मोटे लोग सबसे नुकसानदेह चीजें खाते-पीते दिखते हैं। इस नौबत को सुधारने में लोगों की दिलचस्पी धीरे-धीरे इसलिए कम हो रही है कि उनकी खर्च की ताकत में हासिल महंगे इलाज पर उन्हें बहुत भरोसा है कि आखिर में जाकर बाईपास से सब ठीक हो जाएगा, खाओ-पिओ ऐश करो। देश में ऐसी सोच महज उसी पीढ़ी का नुकसान नहीं कर रही है, बल्कि वह इस पीढ़ी के डीएनए से आगे बढऩे वाली तमाम पीढिय़ों को दिक्कत वाले जींस देकर जा रही है। इसके साथ-साथ देश की सीमित स्वास्थ्य सुविधाओं पर ऐसे लोग इतना अधिक बोझ डाल रहे हैं कि कम आय वाले लोगों को ऊंचा इलाज पाने की कतार में जगह ही नहीं मिल रही है।
हम सेहत के बचाव और चुस्त-दुरूस्त रहने के बारे में हर बरस एक-दो बार लिखते हैं कि बीमारियों से बचाव ही एकमात्र इलाज है, और कोई तरीका नहीं है कि एक बार खो चुकी सेहत को दुबारा पाया जा सके। देश के जो सबसे महंगे अस्पताल लोगों को यह भरोसा हासिल कराते हैं कि उनके पास तमाम बड़ी बीमारियों का इलाज है, उनको भी मालूम है कि इलाज की उनकी सीमा है, मेडिकल साईंस की भी एक सीमा है, और बदन को पहुंचा हुआ हर नुकसान दूर नहीं किया जा सकता। ऐसे में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को एक तरफ तो जनता को जागरूक करना चाहिए कि वे सेहत के लिए नुकसानदेह खान-पान से कैसे बचें। दूसरी तरफ उन्हें होटलों और बाकी खानपान के धंधों पर यह नियम भी लागू करना चाहिए कि वे हर सामान छोटी प्लेट में भी उपलब्ध कराएं ताकि लोगों को मजबूरी में अधिक खाना न पड़े, या प्लेट में जूठा न छोडऩा पड़े।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक फिट-इंडिया का नारा दिया है जो कि एक अच्छी जागरूकता हो सकता है अगर इसके साथ-साथ देश भर के शहरों में सैर के लिए बाग-बगीचे, और योग-ध्यान करने की जगह, उन्हें सीखने की सहूलियत उपलब्ध कराई जा सके। ये दोनों बातें मिलीजुली हैं, एक तरफ जागरूकता बढ़ाई जाए, सेहतमंद रहने की प्राकृतिक सहूलियत मुहैया कराई जाए, और दूसरी तरफ बाजार में खाने के लिए मजबूर लोगों को कम मात्रा में भी खरीदने की सुविधा रहे। छोटी प्लेट अनिवार्य करने की बात लंबे समय से चल रही है, लेकिन इस पर अमल हो नहीं पाया है। पता नहीं राज्य सरकारें अपने अधिकारों से अपने इलाकों में ऐसा कर सकती हैं या नहीं, लेकिन अगर ऐसे अधिकार हों तो जागरूक राज्यों को ऐसा करना ही चाहिए। फिर समाज के भीतर, परिवार के भीतर लोगों को तमाम डिब्बाबंद, पैकेट वाले, और टेलीफोन से ऑर्डर करके बुलाए जाने वाले खाने का इस्तेमाल कम से कम करना चाहिए। सबसे सेहतमंद खाना वह होता है जो घर पर बनता है, जिसमें घी-तेल का कम इस्तेमाल होता है, जिसमें चर्बी कम होती है, और जिसमें फल-सब्जी का अधिक से अधिक उपयोग होता है। इस जगह पर इससे ज्यादा खुलासे से चर्चा नहीं हो सकती, लेकिन लोगों को अस्पतालों से अधिक भरोसा अपनी जीवनशैली पर करना चाहिए कि अस्पतालों की नौबत ही न आए। यह जानकारी कोई परमाणु-रहस्य नहीं है, और कदम-कदम पर उपलब्ध है। जरूरत महज इतनी है कि अपनी जीभ पर काबू रखकर, उसे नाराज करके, बाकी बदन पर एहसान किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले दो-चार दिनों से हिन्दुस्तान का सोशल मीडिया आज, 8 मार्च के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के हिसाब से लिख रहा था, और महिलाओं के त्याग-समर्पण से लेकर उनकी कामयाबी तक के वीडियो और फोटो पोस्ट कर रहा था। यह सिलसिला हर बरस चलता है, लेकिन आज का आधा दिन निकल जाने तक भी जो बात हवा में उठते नहीं दिख रही है, और जो सबसे अधिक मायने रखती है, उस बात पर चर्चा होनी चाहिए।
इस देश में बरसों से महिला आरक्षण कानून बनाने की बात ही बात हो रही है, और हाल के बरसों में तो उसके बारे में बात भी बंद हो चुकी है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण उनकी आबादी के अनुपात में नहीं, बल्कि महज 30 फीसदी देने का विधेयक दशकों पहले से चले आ रहा है, लेकिन कई सरकारें आई-गईं, किसी ने उसे लागू करने की कोशिश नहीं की, और बड़ी-बड़ी पार्टियां बुनियादी रूप से ऐसे आरक्षण के खिलाफ बनी हुई हैं। महिला वोटरों को नाराज न करने के चौकन्नेपन में सोनिया गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस, मायावती की अगुवाई वाली बसपा, ममता बैनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस, मेहबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाली पीडीपी, और जयललिता की पार्टी रही एआईएडीएमके, इनमें से कोई भी आज महिला आरक्षण की बात करते नहीं दिख रहे हैं। जिन पार्टियों ने अलग-अलग समय पर महिला आरक्षण की वकालत भी की थी, वे भी अब इस बारे में ठीक उसी तरह चुप बैठी हैं जिस तरह सामने सडक़ पर टक्कर हो जाने पर उठाने से बचने के लिए लोग मुंह मोड़ लेते हैं। तमाम पार्टियों और नेताओं ने मुंह मोड़ लिए हैं। और तो और पिछले 6 बरस में दो लोकसभा चुनाव, अनगिनत विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, लेकिन किसी एक में भी महिला आरक्षण चुनावी मुद्दा भी नहीं बना।
सोशल मीडिया पर बहुत सी महिलाएं लिख रही हैं कि पुरूषों को कुछ जगह खाली करनी पड़ेगी, तभी महिलाओं को जगह मिल पाएगी, लेकिन ऐसी प्रमुख महिलाएं, जिनमें पत्रकार भी हैं, सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, और लेखक-कलाकार भी हैं, उन्हें भी महिला आरक्षण का मुद्दा भूल ही गया है। हम जरूर इसी जगह पर हर साल कम से कम एक बार महिला आरक्षण की जरूरत याद दिलाते हैं, लेकिन हमारे कहे और लिखे हुए की कोई गूंज नहीं होती क्योंकि पुरूष प्रधान भारतीय राजनीति को तो छोड़ भी दें, महिला प्रधान राजनीतिक दलों में भी अब महिला आरक्षण की चर्चा इतिहास बन चुकी है।
संसद और विधानसभाओं में 30 फीसदी महिला आरक्षण से आज के मुकाबले महिलाओं की सीटें दुगुनी या अधिक हो जाएंगी, और जितनी सीटें उनकी बढ़ेंगी, उतनी सीटें पुरूषों की कम हो जाएंगी। यह नौबत किसी नेता को आज मंजूर नहीं दिखती है, खुद महिला अध्यक्ष वाली पार्टियों को भी। हिन्दुस्तान में एक ऐसा झूठ फैलाया गया है और उसे मजबूती के साथ खड़ा किया गया है कि एक तिहाई सीटों पर विधायक या सांसद के लायक महिला प्रत्याशी मिलना मुश्किल होगा। महिलाओं की सीटें हार जाने के डर से पार्टियां महिला आरक्षण का साथ नहीं दे रही हैं, नहीं देना चाहती हैं, ऐसा झूठ फैलाया जाता है। हकीकत तो यह है कि जब कोई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएगी तो वहां से किसी भी पार्टी की उम्मीदवार महिला ही होगी, और निर्दलीय उम्मीदवार भी महिला होगी। अगर महिलाओं में लीडरशिप की इतनी कमी है कि जीतने लायक उम्मीदवार मिलना मुश्किल होगा, तो यह मुश्किल तो हर पार्टी पर लागू होगी। इससे अधिक झूठ और फरेब की कोई बात नहीं हो सकती कि महिला का जीतना मुश्किल होगा। आज देश भर में पंचायतों और म्युनिसिपलों में महिला आरक्षण लागू है। छत्तीसगढ़ शायद ऐसा पहला राज्य था, या कम से कम शुरूआती राज्यों में था जहां पंचायतों में 50 फीसदी महिला आरक्षण लागू किया गया था। जब एक-एक गांव में महिला उम्मीदवार मिल जाती है, और सामान्य वर्ग, दलित या आदिवासी वर्ग, और ओबीसी तबके से भी महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, वे जीतकर पंचायत चला रही हैं, जिला पंचायत चला रही हैं, शहरों में वार्ड चला रही हैं, तो वे विधानसभा और संसद की सीट का काम क्यों नहीं कर सकतीं? एक विधानसभा क्षेत्र के भीतर तो सैकड़ों महिला पंच-सरपंच, और पार्षद-महापौर रहती हैं। उन्हें लीडरशिप के ऐसे दौर से गुजरने का मौका भी मिलता है, तो फिर उनमें से कोई विधायक या सांसद बनने के लायक न हो, यह सोचना और कहना परले दर्जे की बेईमानी की बात है।
हमारा यह मानना है कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर महिलाओं को झुनझुना थमाना बंद होना चाहिए। देश के महिला संगठनों को हर पार्टी को घेरना चाहिए कि वे महिला आरक्षण विधेयक पास कराएं, तो ही दुबारा चेहरा दिखाएं। आज देश में जिस तरह एक मजबूत किसान आंदोलन चला है, उसी तरह पूरे देश में एक मजबूत महिला आंदोलन चलना चाहिए, और उसे अपनी आबादी के अनुपात में संसद और विधानसभाओं की आधी सीटों की मांग करनी चाहिए। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अपने पर बड़ा फख्र करता है, लेकिन हकीकत यह है कि हिन्दुस्तानी संसद में महिलाओं की मौजूदगी दुनिया की ढेर सारी संसदों के मुकाबले बहुत ही कम है। देश के महिला आंदोलन को सबसे पहले तो संसद, और विधानसभाओं से आधी कुर्सियां अपने लिए खाली करानी चाहिए, और इस एक मांग के पूरे होने के पहले कोई समझौता नहीं करना चाहिए। आज महिला दिवस के मौके पर हमारी यही राय है कि इससे कम कुछ नहीं मांगना चाहिए, और इससे कम किसी बात पर मानना नहीं चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दुनिया में किसी जानकारी के सबसे पहले देने और पाने का जरिया जो ट्विटर बन गया है, उसका पहला ट्वीट 18 करोड़ रूपए से अधिक में बिकने जा रहा है। ट्विटर की स्थापना करने वाले जैक डोर्सी ने 2006 में पहला ट्वीट किया था जिसमें महज इतना लिखा था कि वे अपना ट्विटर सेट कर रहे हैं, पांच शब्दों के इस ट्वीट को वे अब नीलाम कर रहे हैं, तो अब तक बोली 18 करोड़ रूपए से ऊपर जा चुकी है। ट्विटर के दुनिया में 33 करोड़ से अधिक इस्तेमाल करने वाले हैं, और वे अरबों-खरबों ट्वीट करते हैं। यह पूरा सिलसिला जैक डोर्सी की एक कल्पना से शुरू हुआ था, और आज करोड़ों लोग आंख खुलते ही सबसे पहले लोगों के ट्वीट पढ़ते हैं, अपनी पहली अंगड़ाई और पहली उबासी ट्वीट करते हैं।
लेकिन आज दुनिया की सबसे अधिक कमाने वाली, और जिंदगी को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली तमाम कंपनियां एक सोच के साथ शुरू हुईं। न तो उन्हें शुरू करने वाले लोग परंपरागत या कारोबारी-कुनबे के लोग थे, और न ही उन्होंने कोई सामान बनाकर बेचा। उन्होंने एक कल्पना की, उसे इस्तेमाल के लायक शक्ल में ढाला, ईमेल शुरू की, गूगल जैसा सर्च इंजन शुरू किया, फेसबुक या इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाए, वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विस शुरू की, और दुनिया के लोगों की जिंदगी के एक हिस्से पर राज करना शुरू कर दिया। ऐसे तमाम लोग पहली पीढ़ी के कारोबारी थे, वे न रतन टाटा थे, न मुकेश अंबानी थे, और न ही फोर्ड कंपनी के मालिक के कुनबे के थे। वे तमाम लोग जींस और टी-शर्ट में जीने वाले, तकरीबन बेचेहरा और बेनाम लोग थे जिन्हें शायद खुद की इतनी संभावनाओं का भी अंदाज नहीं रहा होगा। इनके जितनी पढ़ाई वाले करोड़ों लोग रहे होंगे, इनके जितनी गरीबी वाले भी अरबों लोग रहे होंगे, लेकिन इनके जैसी मौलिक सोच वाले और नहीं थे, और यही वजह है कि उनकी कल्पना ने उन्हें आसमान से भी ऊपर अंतरिक्ष तक पहुंचा दिया। दिलचस्प बात यह है कि बिना सामान, बिना कारखाने, और शायद अपने एक मामूली कम्प्यूटर पर ही उन्होंने दुनिया का भविष्य मोड़ दिया, लोगों के जीने का तरीका बदल दिया और तय कर दिया।
इस बात को आज यहां लिखने की वजह यह है कि जो लोग अपनी जिंदगी से नाखुश हैं, बराबरी के मौके न मिलने की जिन्हें शिकायत है, उन्हें यह भी देखने और सोचने की जरूरत है कि अपनी खुद की संभावनाएं कैसे पैदा की जाती हैं, कैसे उन्हें हवा से तलाश लिया जाता है, और किस तरह कल्पनाओं को कामधेनु की तरह दुहा जा सकता है। यह भी जरूरी नहीं है कि हर कोई दुनिया की सबसे अनोखी सोच के साथ ही कामयाब हो सकें, लोग अपनी जिंदगी के दायरे में छोटी-छोटी सोच से भी कामयाब हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के इतिहास का एक वीडियो दिखता है जिसमें सर गंगाराम नाम के एक मशहूर इंजीनियर का गांव दिखता है। अंग्रेजों के वक्त के इस नामी इंजीनियर ने करीब के रेलवे स्टेशन से अपने गांव तक लोगों के आने -जाने के लिए पटरियां बिछाकर उस पर ऐसी घोड़ा-गाड़ी दौड़ाई जो कि दुनिया की एक अनोखी हॉर्स-ट्रेन बन गई। सर गंगाराम ने अपनी कमाई से जनकल्याण के ढेरों काम किए, और पाकिस्तान से लेकर हिन्दुस्तान तक उनके नाम के सर गंगाराम हॉस्पिटल है मशहूर हैं। इसी पाकिस्तान में मलाला नाम की बच्ची ने आतंक का सामना करते हुए भी, आतंकियों की गोलियां खाते हुए भी लड़कियों को पढऩे के हक लड़ाई लड़ी, और नोबल पुरस्कार तक पहुंची। इसी पाकिस्तान में इस देश या दुनिया की सबसे बड़ी एक ऐसी एम्बुलेंस सेवा है जिसे एक मामूली आदमी के बनाए हुए ट्रस्ट ने शुरू किया और चलाया। जिस पाकिस्तान में लोगों की तमाम किस्म की संभावनाओं को बड़ा सीमित माना जाता है, वहां पर अब्दुल सत्तार ईधी ने हजारों एम्बुलेंस का एक जाल बिछा दिया। यह काम कारोबार नहीं था, बल्कि समाजसेवा था, जो कि उनके गुजरने के बाद भी देश भर में कामयाबी से चल रहा है। अब्दुल सत्तार ईधी अंग्रेजों के वक्त आज के हिन्दुस्तानी हिस्से के गुजरात में पैदा हुए थे, और विभाजन के बाद परिवार पाकिस्तान चले गया, और ईधी की समाजसेवा बढ़ते-बढ़ते आसमान तक पहुंची। आज भी दुनिया में इस एम्बुलेंस सेवा का कोई मुकाबला नहीं है। भारत के दूसरी तरफ बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस ने कई दशक पहले ग्रामीण बैंक के माध्यम से ग्रामीण महिलाओं को अपने बहुत छोटे रोजगार-कारोबार के लिए माइक्रोफायनेंस करना शुरू किया था, उससे बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में जमीन-आसमान जैसा फर्क आया, और मोहम्मद यूनुस को नोबल शांति पुरस्कार भी मिला। कुछ ऐसा ही हाल हिन्दुस्तान में अमूल ब्रांड के पीछे के सहकारी-प्रयोग का है जिसे वर्गीज कुरियन नाम के एक व्यक्ति ने अपनी कल्पना और मेहनत से आसमान तक पहुंचाया, और आज देश और दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियां भी उसका मुकाबला नहीं कर पा रही हैं।
यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि दुनिया में सबसे अधिक कामयाब होने के लिए न तो कुनबे की दौलत काम आती है, न आरक्षण से मिला हुआ दाखिला काम आता, और न आरक्षण से मिली हुई नौकरी काम आती है। दुनिया में सबसे बड़ी कामयाबियां लोगों के भीतर से निकलकर आईं, उन्होंने अपने आपको साबित किया, और अपने से अधिक बाकी दुनिया के भी काम आईं। हमने कारोबार के कुछ ब्रांड के नाम यहां पर गिनाए हैं, लेकिन उनसे परे भी बहुत से ऐसे ब्रांड हैं, घर के गैरेज में शुरू की गई एप्पल कंपनी, चीन में साम्यवादी सरकारी नियंत्रण के बीच भी दुनिया की सबसे बड़ी कारोबारी कंपनी अलीबाबा, अमरीका में कामयाब हुई अपने किस्म की अनोखी कंपनी अमेजान, ऐसे बहुत सारे मामले हैं जिनसे लोग हौसला पा सकते हैं। जब बात कल्पना से आगे बढऩे की आती है, तो न जाति के पैर काम आते, न कुनबे की दौलत के। इनके बिना भी कल्पना के पंखों से उडक़र लोग न महज खुद आसमान पर पहुंचते हैं, बल्कि दुनिया को भी अंतरिक्ष की सैर करा देते हैं। इसलिए कल्पना के महत्व को समझने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट हाल के बरसों में लगातार ऐतिहासिक-लोकतांत्रिक महत्व की कसौटियों पर खरा न उतरने के बाद उतने पर नहीं थम रहा, उसके बड़े-बड़े जज बड़े-बड़े विवादों में घिरते आ रहे हैं। पिछले मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने जिस तरह अपनी मातहत कर्मचारी के लगाए गए सेक्स-शोषण के आरोपों में खुद जजों की बेंच का अगुवा बनना तय किया वह लोकतांत्रिक दुनिया के अदालती इतिहास में सबसे हक्का-बक्का करने वाला एक फैसला था। उसके बाद उन्होंने अपना कार्यकाल खत्म होने के पहले लगातार ऐसे फैसले लिए जो कि सरकार को सुहाने वाले थे, और/या सरकार की सहूलियत के थे। फिर मानो इन फैसलों को लेकर उनकी हो रही आलोचना काफी न हो, उन्होंने केन्द्र सरकार, सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से राज्यसभा की सदस्यता पा ली। और फिर इस सदस्यता के महत्व को मानो हिकारत से देखते हुए उन्होंने अपने एक बयान में कहा कि अगर उन्हें सरकार को सुहाते फैसले देकर एवज में कुछ लेना ही रहता, तो वह राज्यसभा सदस्यता जैसी छोटी चीज क्यों रहती। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के सबसे बड़े आलोचक और विरोधी नक्सलियों ने भी कभी राज्यसभा के बारे में इतनी हिकारत से भरा हुआ बयान नहीं दिया था।
अब मौजूदा मुख्य न्यायाधीश ने पहले तो सुबह की सैर पर राह चलते एक विदेशी और महंगी मोटरसाइकिल पर बैठकर देश के बहुत से लोगों की आलोचना पाई कि यह व्यवहार देश के मुख्य न्यायाधीश को नहीं सुहाता। इसे लेकर, और इसके बाद कुछ और मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का एक विवादास्पद मामला चला, और हमारा मानना है कि उससे अदालत की एक बड़ी अवमानना हुई। अब ताजा विवाद जस्टिस एस.ए.बोबड़े की वह अदालती टिप्पणी है जिसमें उन्होंने बलात्कार के एक मामले की सुनवाई करते हुए आरोपी से पूछा था कि क्या वह पीडि़ता के साथ शादी करने के लिए तैयार है? यह मामला महाराष्ट्र का था जहां पर एक सरकारी कर्मचारी ने शादी के झूठे वादे के बहाने एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था। जस्टिस बोबड़े ने इस आरोपी से कहा था कि अगर वह पीडि़ता से शादी करना चाहता है तो अदालत उसकी मदद कर सकती है, अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो उसकी नौकरी चली जाएगी, वह जेल चले जाएगा, क्योंकि उसने लडक़ी के साथ छेडख़ानी की और उसके साथ बलात्कार किया है।
अदालत की कार्रवाई के दौरान यह बात भी सामने आई कि बलात्कार की शिकार लडक़ी के पुलिस तक जाने पर आरोपी की मां ने उससे शादी करवाने की पेशकश की थी लेकिन पीडि़ता ने उससे इंकार कर दिया था। देश के मुख्य न्यायाधीश द्वारा बलात्कार के आरोपी को उसकी शिकार से शादी करने की पेशकश देश और लोकतंत्र को सदमा पहुंचाने वाली थी कि मानो शादी बलात्कार की भरपाई करती है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य बंृदा करात ने इसके खिलाफ जस्टिस बोबड़े को चिट्ठी लिखी है कि वे अपनी उस टिप्पणी को वापिस लें। उन्होंने लिखा है अदालतों को यह धारणा नहीं बनने देने चाहिए कि वे समाज को पुराने दौर में ले जाने वाले ऐसे नजरियों का समर्थन करती है। बृंदा के अलावा देश के करीब 3 हजार लोगों ने चीफ जस्टिस को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि वे अपने बयान के लिए माफी मांगें, और पद से इस्तीफा दें। इन लोगों का कहना है कि एक बलात्कारी को पीडि़ता से शादी करने के बारे में पूछना बलात्कार की शिकार की पीड़ा को नजरअंदाज करने जैसा है। इस चिट्ठी में देश के नारीवादियों और महिला समूहों की तरफ से बड़ी कड़ी जुबान में पूछा गया है कि क्या आपने ऐसा कहने के पहले यह सोचा कि ऐसा करके आप पीडि़ता को उम्र भर के बलात्कार की सजा सुना रहे हैं? वह भी उसी जुल्मी के साथ जिसने उसे आत्महत्या करने के लिए बाध्य किया था। चिट्ठी में लिखा गया है कि भारत के हम लोग इस बात पर बहुत आहत महसूस कर रहे हैं कि हम औरतों को आज हमारे मुख्य न्यायाधीश को समझाना पड़ रहा है कि आकर्षण, बलात्कार, और शादी के बीच अंतर होता है, और यह भी उस मुख्य न्यायाधीश को जिन पर भारत के संविधान की व्याख्या करके लोगों को न्याय दिलाने की ताकत और जिम्मेदारी है।
इन चिट्ठियों में जस्टिस बोबड़े को एक दूसरे मामले में उनकी की गई एक टिप्पणी याद दिलाई गई है जिसमें उन्होंने पूछा था- यदि कोई पति-पत्नी की तरह रह रहे हों, तो पति क्रूर हो सकता है, लेकिन क्या किसी शादीशुदा जोड़े के बीच हुए सेक्स को बलात्कार का नाम दिया जा सकता है? जस्टिस बोबड़े की इस टिप्पणी की भी कड़ी आलोचना करते हुए इस चिट्ठी में लिखा गया है कि उनकी इस टिप्पणी से न सिर्फ पति की यौनिक, शारीरिक, और मानसिक हिंसा को वैधता मिलती है, बल्कि साथ ही औरतों पर सालों के अत्याचार और उन्हें न्याय न मिलने की प्रक्रिया को भी एक सामान्य बात होने का दर्जा मिल जाता है।
इस चिट्ठी में महाराष्ट्र के रेप केस में जिला अदालत द्वारा आरोपी को दी गई जमानत की निंदा करते हुए मुम्बई हाईकोर्ट के जज का कहा याद दिलाया गया है जिसमें जज ने लिखा था- जिला जज का यह नजरिया ऐसे गंभीर मामलों में उनकी संवेदनशीलता के अभाव को साफ-साफ दर्शाता है। देश के महिला समूहों ने चीफ जस्टिस को लिखा है कि यही बात आज आप पर भी लागू होती है, हालांकि उसका स्तर और भी अधिक तेज है। एक नाबालिग के साथ बलात्कार के अपराध पर आपने जब शादी के प्रस्ताव को एक सौहाद्र्रपूर्ण समाधान की तरह पेश किया तब यह न केवल अचेत और संवेदनहीन था, बल्कि यह पूरी तरह से भयावह, और पीडि़ता को न्याय मिलने के सारे दरवाजे बंद कर देने जैसा था।
इन समूहों ने जस्टिस बोबड़े को लिखा है- भारत में औरतों को तमाम सत्ताधारी लोगों की पितृसत्तात्मक सोच से जूझना पड़ता है, फिर चाहे वे पुलिस अधिकारी या जज ही क्यों न हों, जो बलात्कारी के साथ समझौता करने वाले समाधान का सुझाव देते हैं। आगे लिखा गया है कि हम लोग गवाह थे जब आपके पूर्ववर्ती (जस्टिस रंजन गोगोई) ने अपने पर लगे यौन उत्पीडऩ के आरोप की खुद सुनवाई की, और खुद ही फैसला सुना दिया, और शिकायतकर्ता और उसके परिवार पर मुख्य न्यायालय के पद का अपमान करने, और चरित्र हनन करने का आरोप लगाया। जस्टिस बोबड़े को याद दिलाया गया है कि उस वक्त आपने उस महिला की शिकायत की निष्पक्ष सुनवाई न करके, या एक जांच न करके उस गुनाह में भागीदारी की थी। किसी दूसरे मामले में एक बलात्कारी को दोषमुक्त करने के लिए आपने यह तर्क दिया कि औरत के धीमे स्वर में न का मतलब हां होता है। देश की महिलाओं ने जस्टिस बोबड़े को याद दिलाया है कि किसान आंदोलन पर उन्होंने यह कहा था कि आंदोलन में महिलाओं को क्यों रखा जा रहा है, और उन्हें वापिस घर भिजवाया जाए, इस बात का मतलब तो यह हुआ कि औरतों की अपनी न स्वायत्ता है और न ही उनकी कोई व्यक्तित्व है।
इस चिट्ठी में जस्टिस बोबड़े से कहा गया है कि उनके शब्द न्यायालय की गिरमा और अधिकार पर लांछन लगा रहे हैं। उनकी मुख्य न्यायाधीश के रूप में उपस्थिति देश की हर महिला के लिए एक खतरा है। इससे युवा लड़कियों को यह संदेश मिलता है कि उनकी गरिमा और आत्मनिर्भरता दान के लायक कोई चीज है। चिट्ठी में जस्टिस बोबड़े को कहा गया है कि आप उस चुप्पी को बढ़ावा दे रहे हैं जिसको तोडऩे के लिए महिलाओं और लड़कियों ने कई दशकों तक संघर्ष किया है। आपकी बातों से बलात्कारियों को यह संदेश जाता है कि शादी बलात्कार करने का लाइसेंस है और इससे बलात्कारी के सारे अपराध धोए जा सकते हैं। महिलाओं ने मांग की है कि मुख्य न्यायाधीश अपनी शर्मनाक टिप्पणियों को वापस लें, और देश की सभी महिलाओं से माफी मांगें, इसके साथ-साथ एक पल की भी देर किए बिना मुख्य न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बीती शाम पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने देश के नाम एक संदेश में कहा कि उनके 15-16 सांसद बिक गए हैं, और वे विपक्ष में बैठने को तैयार हैं। कल शनिवार को उन्हें संसद में अपना बहुमत साबित करना है, और उसके पहले देश के नाम प्रसारित इस संदेश के मायने साफ हैं। उन्होंने विपक्षी नेताओं को चोर बताते हुए यह भी कहा कि उन्हें ब्लैकमेल करने की कोशिश की जा रही थी। उन्होंने कहा- वे सोच रहे थे कि मेरे ऊपर नो कॉंफिडेंस की तलवार लटकाएंगे, और मुझे कुर्सी से प्यार है तो मैं इनके सारे केस खत्म कर दूंगा। उन्होंने कहा कि वे ऐसे दबने वाले नहीं हैं, और वे खुद होकर विश्वास मत लेने संसद जा रहे हैं, और विपक्ष में बैठने को तैयार हैं। उन्होंने विपक्ष के लोगों को मुल्क का गद्दार और डाकू जैसे कई तमगे भी दिए हैं, और कहा कि चुनाव आयोग ने उन लोगों को बचा लिया है जिन्होंने पैसे लेकर वोट दिए थे।
पाकिस्तान का हाल देखें तो हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में सांसदों और विधायकों के संसद के भीतर और बाहर वोट या आत्मा बेचने की बात भी दिखाई देती है, और यह लगता है कि एक मजबूत कहा जाने वाला लोकतंत्र भारत, किस तरह एक कमजोर कहे जाने वाले लोकतंत्र पाकिस्तान से इस मामले में तो मिलता-जुलता दिख रहा है, कि किस तरह निर्वाचित जनप्रतिनिधि बिक रहे हैं। पाकिस्तान की हालत अधिक खराब है क्योंकि वहां लोकतंत्र की हालत अधिक खराब है, धर्म और धर्मान्धता बुरी तरह से हावी हैं, जिस तरफ हिन्दुस्तान बढ़ते चल रहा है। पाकिस्तान में कट्टरपंथ ने देश को खोखला कर दिया है, और हिन्दुस्तान कुछ उसी किस्म के कट्टरपंथ का शिकार है।
अब जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को देखते हुए हिन्दुस्तान, और पाकिस्तान की संसदीय व्यवस्था बनाई गई थी, उस ब्रिटेन में सांसदों की इस तरह की खरीद-बिक्री सुनाई नहीं पड़ती है। पैसा वहां हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के मुकाबले बहुत अधिक है, लेकिन सांसदों को खरीदकर कोई सरकार गिरा दे, या बना ले, ऐसा सुनाई नहीं पड़ता। तो फिर उसी संसदीय व्यवस्था को देखते हुए जो व्यवस्था इन दो देशों में बनाई गई, वह चौपट क्यों हो गई? आज हिन्दुस्तान में जगह-जगह विधायक और सांसद पार्टियां छोड़ रहे हैं, दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं, सदन की सदस्यता छोडक़र दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं, सरकारों को गिरा रहे हैं, और नई सरकार बना रहे हैं, ऐसे तमाम सिलसिलों पर खरीद-बिक्री की खुली तोहमत लग रही है, और हिन्दुस्तान का शायद ही कोई वोटर यह मान रहा हो कि आत्माओं का ऐसा परकाया प्रवेश बिना पैसों के हो रहा है।
अब सवाल यह उठता है कि जब अधिकतर लोगों के बिकने की संभावना पूरी रहती है, बस उन्हें पूरा दाम मिलने की देर रहती है, तो ऐसे में लोकतंत्र का हाल क्या होने जा रहा है? अभी कुछ दिन पहले भी इस मुद्दे पर इसी जगह लिखते हुए हमने हिसाब लगाया था कि पूरे देश की विधानसभाओं पर कब्जे के लिए दो नंबर की पार्टी को महज कुछ हजार करोड़ रूपए लगेंगे, और फिर कमाई की गुंजाइश जिस तरह रहती है, उससे साफ है कि हर प्रदेश में हजारों करोड़ रूपए सत्तारूढ़ पार्टी कमा भी सकती है। अब यह बात साफ लगती है कि पाकिस्तान जैसे कमजोर लोकतंत्र को छोड़ भी दें जहां कि कल इमरान सरकार के गिरने का आसार दिख रहा है, तो भी हिन्दुस्तान जैसे मजबूत कहे जाने वाले, और दुनिया के सबसे विशाल कहलाने वाले लोकतंत्र में भी संसद और विधानसभाओं को किसी कड़े मुकाबले की नौबत में रूपयों से खरीदना मुश्किल नहीं है। यह संसदीय व्यवस्था मतदान की तकनीकी कामयाबी से परे बेअसर और नाकामयाब हो चुकी है। बिना हिंसा के वोट डल जाएं, और कम्प्यूटरों पर गिन लिए जाएं, यह महज तकनीक और प्रशासन की कामयाबी है। लेकिन मतदान के पहले और मतगणना के बाद का पूरा चुनाव और संसदीय कामकाज हिन्दुस्तान में भी बुरी तरह से नाकामयाब हो चुका है। जहां पर लोगों के पार्टियां बदल-बदलकर चुनाव लडऩे पर रोक न हो, अपनी सरकार गिराने और विरोधी पार्टी की सरकार बनाने के खुले खेल पर कोई रोक न हो, जहां संसद के भीतर बिना बहस तमाम काम करवा देने पर कोई रोक न हो, वहां पर देश को दुनिया का सबसे मजबूत लोकतंत्र कहना फिजूल की बात है।
हिन्दुस्तान में जिन लोगों को धर्म के राज की चाहत है, उन्हें देखना और समझना चाहिए कि पड़ोस के पाकिस्तान में धर्म और धर्मान्धता ने लोकतंत्र का क्या हाल कर दिया है। आज पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अपने 15-16 सांसदों से बिक जाने की बात राष्ट्र के नाम संदेश में कर रहे हैं, हिन्दुस्तान की संसद की कल्पना करें कि किसी गठबंधन को 15-16 सांसदों की कमी हो, तो क्या आज उतनी खरीदी में कोई दिक्कत आएगी? यह पूरा सिलसिला बहुत खतरनाक अंत की ओर बढ़ रहा है, और कल पाकिस्तान में अगर इमरान-सरकार गिरती है, तो हिन्दुस्तान को उससे सबक लेना चाहिए। सत्ता के खेल में लगे लोगों को अपनी आत्मा को बेचना और थोक में बिकाऊ आत्माओं को खरीदना कभी बुरा नहीं लगेगा, और इस तरह बिकते-बिकते हिन्दुस्तानी लोकतंत्र और कमजोर ही होते जाएगा। पाकिस्तान में तानाशाही के जो दाम चुकाए हैं, और आज वह देश जिस तरह भुखमरी के कगार पर है, उस बात को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र कमजोर होता है तो वह महज चुनाव को कमजोर नहीं करता, देश के हर पहलू को कमजोर करता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चीन की एक खबर वहां से बाहर भी दुनिया की बाकी देशों में एक चल रही बहस को बढ़ाने का काम कर सकती है। वहां की एक तलाक-अदालत ने एक आदमी को अपनी पूर्व पत्नी को शादीशुदा जिंदगी के दौरान घरेलू कामकाज करने के एवज में रकम भुगतान करने कहा है। अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि जब दोनों शादीशुदा थे, साथ रहते थे, तब घरेलू कामकाज महिला ही करती थी, इसलिए उसे उस अवैतनिक श्रम के एवज में भुगतान किया जाए। हालांकि अदालत ने यह रकम बहुत अधिक तय नहीं की है इसलिए सोशल मीडिया पर जमकर यह सवाल उठ रहा है कि मुआवजे का हिसाब किस पैमाने से किया गया है, और यह खासा अधिक होना चाहिए।
चीन के बाहर भी भारत और दूसरे तमाम देशों में महिलाओं के घरेलू कामकाज की उत्पादकता की कीमत का हिसाब लगाने की बात पिछले कुछ बरसों से चल रही है। जो महिला बाहर खुद कमाई का कोई काम नहीं करती है, और जो घर-बार देखने, बच्चों को जन्म देने, उन्हें बड़ा करने, बुजुर्गों की देखभाल करने जैसे बहुत से काम करती है, लेकिन जिसे कमाऊ नहीं गिना जाता। अब चीन की अदालत के इस फैसले की मिसाल दूसरे देशों में भी दी जा सकती है, या इसे एक नजीर की तरह पेश किया जा सकता है। दुनिया के मजदूर संगठन घरेलू महिला की मेहनत की उत्पादकता को रूपयों की शक्ल में भी गिनने लगे हैं, और लोगों को घर बैठे भी यह समझ पड़ सकता है कि घरेलू महिला का योगदान कितना है। यह बात घरों के भीतर एक दिलचस्प बहस भी बन सकती है। तमाम लोग पूरे परिवार सहित बैठकर यह हिसाब लगाएं कि एक गृहिणी के किए हुए कौन-कौन से काम लागत कितनी आई होती। गृहिणी के वैवाहिक जीवन के कई ऐसे काम हैं जिनके दाम गिनना अटपटा और आपत्तिजनक लगेगा, घरेलू महिला की उत्पादकता के हिसाब के इस हिस्से को हम पति-पत्नी के बीच बंद कमरे के लिए छोड़ देते हैं।
हिन्दुस्तान में बोलचाल में जब किसी महिला के बारे में पूछा जाता है कि वह क्या काम करती है, तो नौकरी, मजदूरी, या किसी और तरह की कमाई वाले काम को तो लोग गिनाते हैं, लेकिन अगर वह सिर्फ घर तक सीमित है, तो उसके बारे में कह दिया जाता है कि वह कोई काम नहीं करती, घर पर ही रहती है। यह बात आम हिन्दुस्तानी बोलचाल में इस अंदाज में बोली जाती है कि वह घर पर पैर पसारे आराम करती रहती है। जबकि आम घरेलू महिला को कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती है, पति की सारी रिश्तेदारियों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। अंग्रेजी में जरूर हाल के बरसों में किसी घरेलू महिला को होममेकर कहा जाने लगा है।
जब देश के सकल राष्ट्रीय उत्पादन को गिना जाता है, कामकाजी लोगों की औसत या अलग-अलग कमाई गिनी जाती है, तो उस वक्त घरेलू महिला की पूरी जिंदगी की उत्पादकता को भी नगदी की शक्ल में गिनना अगर शुरू होगा, तो परिवार में उसका सम्मान भी बढ़ेगा। महिला अधिकारों और मजदूर अधिकारों के लिए काम करने वाले बहुत से संगठन ऐसे कई अध्ययन कर चुके हैं कि घरेलू महिलाओं का उत्पादक योगदान किस तरह और कितना गिना जा सकता है। ऐसे एक अध्ययन का कहना है कि घरों में ऐसे 33 किस्म के काम होते हैं जो कि आमतौर पर महिलाएं ही करती हैं। इन कामों के लिए अगर न्यूनतम से भी कम मजदूरी गिनी जाए, तो भारत की जीडीपी के 61 फीसदी के बराबर का आंकड़ा पहुंचता है। ये तमाम गंभीर अर्थशास्त्रीय अध्ययन है, जो महिलाओं की अदृश्य मेहनत, अदृश्य जिम्मेदारियों को ध्यान में रखकर किए गए हैं।
लोगों को परिवार के बीच यह दिलचस्प हिसाब-किताब करना चाहिए कि घर को साफ करना, घर के आसपास सफाई रखना, रोज बिस्तर ठीक करना या बिछाना, बर्तन और कपड़े धोना, कपड़ों पर आयरन करना, उन्हें तह करके जमाना, सब्जी लाना, काटना, खाना पकाना, और खिलाना, जहां बिजली न हो वहां मिट्टी तेल के लैम्प साफ करना, और उन्हें जलाना, घर के लिए जलाऊ लकड़ी लेकर आना, गोबर से छेना-कंडा बनाना, पानी भरकर लाना, पालतू जानवरों का ख्याल रखना, परिवार के कारोबार में मदद करना, खाने-पीने के कुछ सामान बनाकर बेचना, गर्भधारण, बच्चों को जन्म, और उनका पालन-पोषण करना, बीमारों की देखभाल करना, जीवन-साथी की देखभाल करना, बच्चों को पढ़ाना, और होमवर्क करवाना, बच्चों को स्कूल लाना-ले जाना, मेहमानों का ख्याल रखना, रिश्तेदारी निभाना, घरेलू हिसाब-किताब रखना, भुगतान करना, रोजमर्रा की चीजों को खरीदना, बीमारों को डॉक्टर के पास ले जाना वगैरह। परिवारों को चाहिए कि इन कामों पर कितना खर्च आता उसका हिसाब करें, और घरेलू कमाई में उसे महिला का योगदान मानें, और इसके लिए उसका पर्याप्त सम्मान भी करें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में कोरोना-वैक्सीन को लेकर लोगों के मन में तरह-तरह के शक भरे हुए हैं। दरअसल जिस आपाधापी में इन वैक्सीन को विकसित करने की खबरें आई हैं, उनकी वजह से भी बहुत से लोग इन्हें वैज्ञानिक पैमानों पर भरोसेमंद नहीं मान रहे हैं। फिर केन्द्र सरकार के तौर-तरीके भी अटपटे हैं। बड़े-बड़े केन्द्रीय मंत्री बाबा रामदेव की कोरोना की दवा पेश करने के लिए मौजूद रहते हैं जहां पर डब्ल्यूएचओ का भी नाम लिया जाता है, जिसका कि बाद में डब्ल्यूएचओ खंडन करता है। केन्द्र सरकार रामदेव को बढ़ावा देने के चक्कर में अपनी बहुत सी बातों की साख खो बैठी है। देश में अब तक विकसित दो कोरोना वैक्सीन में से एक ऐसी रही है जिसे लगवाने से दिल्ली के प्रतिष्ठित बड़े सरकारी अस्पताल, राममनोहर लोहिया हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने मना कर दिया था। विपक्ष यह मांग करते आ रहा था कि प्रधानमंत्री और केन्द्रीय मंत्री टीका लगवाएं तो बाकी लोगों को भी टीके पर भरोसा हो। अब जब टीकाकरण शुरू हुए एक-डेढ़ महीना हो चुका है, तब प्रधानमंत्री ने टीका लगवाया है, और इसके पहले बहुत से लोगों ने पहले टीके के बाद उसका जरूरी दूसरा डोज भी नहीं लगवाया क्योंकि उनका भरोसा नहीं बैठा, या उठ गया। आज भी सोशल मीडिया पर बहुत से लोग लगातार इस टीके की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री ने तो इन दो टीकों में से एक को राज्य में इस्तेमाल करने से मना करते हुए केन्द्र सरकार को लिखा है कि इसका पर्याप्त मानव-परीक्षण नहीं हुआ है, ऐसे में इसे लोगों को लगवाना ठीक नहीं है।
दुनिया भर में टीकों को लेकर लोगों के मन में संदेह रहता ही है। ऐसा संदेह कई बार किसी साजिश के तहत लोगों में फैलाया जाता है, और कई बार बिना किसी बदनीयत के भी लोग अधिक सावधान रहते हुए शुरूआती महीनों में ऐसे टीकों से परहेज करते हैं। आज भी सोशल मीडिया पर अच्छी साख वाले पत्रकार भी भारत के टीकों के खिलाफ लिख रहे हैं। उनका तर्क है कि टीके लगवाने के बाद भी कुछ मौतें हो रही हैं, मौतों से परे कई लोग टीकों के बाद भी कोरोना पॉजीटिव हो रहे हैं।
इस बारे में हम नसबंदी जैसे व्यापक जनकल्याण के ऑपरेशन, या किसी भी किस्म के टीकाकरण पर हड़बड़ी में शक करने के खिलाफ हैं। अब तक हिन्दुस्तान में कुछ करोड़ लोगों को टीके लगने को होंगे, और अगर इनमें से कुछ दर्जन लोग टीके लगने के बाद मरे हैं, तो गिनती में उतने लोग तो हर करोड़ आबादी पर महीने भर में मरते ही होंगे। इन मौतों को टीकों की वजह से हुआ मानने के बजाय यह समझने की जरूरत है कि ये टीके लगने के बाद हुई मौतें हैं, अब तक ऐसे कोई सुबूत नहीं मिले हैं कि ये टीकों की वजह से हुई हैं। इसलिए भारत सरकार की हड़बड़ी की कार्रवाई के बावजूद टीकाकरण पर ऐसे शक खड़े नहीं करने चाहिए कि इनकी वजह से लोग मर रहे हैं। भारत में कम से कम एक धर्म के लोगों ने इन टीकों पर शक किया है, और ये लोग पोलियो ड्रॉप्स पर भी ऐसा ही शक करके अपने ही धर्म के बच्चों का बड़ा नुकसान पहले कर चुके हैं। कोरोना का खतरा अभी खत्म नहीं हुआ है, और जो लोग उसकी वजह से बीमार होने के बाद ठीक भी हो गए हैं, उन लोगों की सेहत का भी कितना नुकसान हुआ है, यह अभी साफ नहीं है। दुनिया के कई देशों में कोरोना की लहर फिर से आई है, और खुद हिन्दुस्तान में महाराष्ट्र जैसा राज्य दोबारा लॉकडाऊन, दोबारा नाईट-कफ्र्यू देख रहा है। कुछ राज्यों में खुलने के बाद स्कूलें फिर से बंद करने की नौबत आई है। ऐसे में टीके की जरूरत को कम आंकना गलत है। जो लोग यह मान रहे हैं और लिख रहे हैं कि टीका लगने के बाद भी लोगों को कोरोना हो रहा है, उन्होंने ऐसी कोई जांच अभी नहीं की है कि ऐसे लोगों को कोरोना के टीके के दोनों डोज सही समय पर लगे हैं या नहीं, और उन्होंने टीकों के साथ जुड़ी सावधानी बरती है या नहीं, और दोनों टीके लगवाए उन्हें निर्धारित समय हो चुका है या नहीं। इस तरह के बहुत से पैमाने हैं जिनकी जांच के बाद ही इन टीकों को नाकामयाब कहना ठीक होगा, वैसे भी खुद चिकित्सा विज्ञान यह कह रहा है कि ये टीके सौ फीसदी लोगों पर कामयाब नहीं होंगे।
लेकिन दुनिया की कोई भी दवाई, कोई भी टीके सौ फीसदी लोगों पर कामयाब नहीं होते। और खासकर महामारी का टीका सारे लोगों को बीमारी से बचा ले वह बहुत जरूरी भी नहीं है। मेडिकल साईंस अपनी क्षमता के मुताबिक जितने फीसदी लोगों में भी कामयाब होगा, और कोरोना के खतरे से बचाएगा, वह दो हिसाब से काफी होगा, एक तो वे लोग खुद बचेंगे, दूसरी ओर वे लोग संक्रमण को आगे बढ़ाने वाले नहीं बनेंगे। इतनी कामयाबी भी कोई कम नहीं है। दुनिया के किसी भी विज्ञान के सौ फीसदी कामयाब होने पर भी उसका इस्तेमाल करने की शर्त दुनिया से विज्ञान को बाहर ही कर देगी। आम बीमारियों में भी कई दवाईयों का असर सौ फीसदी लोगों पर नहीं होता, तो क्या बहुत सी दवाईयों को बंद कर दिया जाए?
केन्द्र सरकार और उसे चला रही पार्टी की रीति-नीति से असहमत लोग आलोचना करते हुए भी यह ध्यान रखें कि इन टीकों से लोगों को इतना न डराया जाए कि महामारी पर काबू करना न हो सके। आज इसी किस्म के प्रचार की वजह से टीका लगवाने वाले लोगों में अधिक उत्साह नहीं दिख रहा है। यह नौबत अच्छी नहीं है। चूंकि भारत में कोरोना का टीका लगवाना अनिवार्यता नहीं है, और यह लोगों की मर्जी पर छोड़ दिया गया है। लेकिन संक्रामक रोगों के बारे में यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब तक सब सुरक्षित नहीं हैं, तब तक कोई सुरक्षित नहीं है। आज भी हिन्दुस्तान में इस टीके को लगवाने को लेकर कोई बंदिश नहीं है, लेकिन जितने डॉक्टरों से हम बात कर सकते थे, उनका मानना है कि सबको टीके लगवाने चाहिए, उन डॉक्टरों ने खुद भी टीके लगवाए हैं, और छत्तीसगढ़ के कुछ सबसे प्रमुख डॉक्टर ऐसे भी हैं जो राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के इस फैसले से असहमत हैं कि दो में से एक टीका इस राज्य में न लगाया जाए। उनका मानना है कि यह जनता के हितों के खिलाफ है, और राज्य सरकार ऐसा विरोध नहीं करना चाहिए।
इतना जरूर है कि बाबा रामदेव को बढ़ावा देते-देते केन्द्र सरकार अपनी वैज्ञानिक-विश्वसनीयता खो बैठी है, और शायद यह एक बड़ी वजह है कि टीके लगवाने के प्रति लोग उदासीन हैं। लोग सिर्फ वैज्ञानिक पैमानों वाला टीका लगवाना तो चाहते, लेकिन लोग राजनीतिक नगदीकरण वाला टीका शक की नजर से ही देख रहे हैं। सरकार के राजनीतिक रूख ने एक वैज्ञानिक कामयाबी की साख खराब की है, और हिन्दुस्तान के लोग उसका दाम चुका रहे हैं।
अभी कुछ दिन पहले देश की राजधानी दिल्ली, जहां पर चौबीसों घंटे पुलिस तैनात रहती है, में एक तेज रफ्तार महंगी कार ने एक स्कूटर सवार बुजुर्ग को टक्कर मारी और वह मौके पर ही मर गया। कार चलाने वाला लडक़ा हीरे के कारोबारी का लंदन में पढ़ रहा 18 बरस का बेटा था। मरने वाला घरेलू नौकर था, नौकरी भी छूट चुकी थी, बीवी किसी और के घर काम करती थी, और वह उससे मिलने जा रहा था। पुलिस ने मामला दर्ज करके लडक़े को आनन-फानन जमानत पर छोड़ दिया।
यह मामला अपने आपमें अनोखा नहीं है, और देश के सबसे चर्चित फिल्म अभिनेताओं से लेकर देश के सबसे बड़े कारोबारियों की बिगड़ैल औलाद तक को सडक़ों पर नशे की हालत में गरीबों को कुचलते पाया जाता है। कल की ही खबर है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देर रात नशा करके लौटते पैसे वाले परिवारों के लडक़े-लड़कियां पुलिस के रोकने पर उनके साथ बदसलूकी पर उतर आए। बहुत अधिक पैसे वालों की औलादें सडक़ पर कितना भी बड़ा हादसा करे, उनका बच निकलना तकरीबन तय रहता है।
ऐसे मामलों में हम कानून में एक सुधार सुझाते आए हैं, और उसे एक बार फिर दुहराने की जरूरत है। आज सडक़ों पर किसी भी हादसे के लिए जब गाड़ी चलाने वाले या गाड़ी पर कोई कार्रवाई होती है, तो वह दुपहिए और चौपहिए, निजी या कारोबारी किस्म से बंटी हुई रहती है। मोटरसाइकिल कम दाम की रहे, या अधिक दाम की, जुर्माना एक सरीखा लगता है। वैसे ही कार तीन लाख की रहे या तीन करोड़ की, जुर्माना एक सरीखा रहता है। हादसे में मरने वाला गरीब रहे या पैसे वाला, मारने वाला गरीब रहे या पैसे वाला, उससे जुर्माने पर कोई फर्क नहीं पड़ता। हम पहले भी कई बार इस बात को लिखते आए हैं कि किसी जुर्म या हादसे के लिए जिम्मेदार और उसके शिकार में जितना बड़ा आर्थिक फासला हो, जुर्माना उसी हिसाब से लगना चाहिए। एक करोड़पति की गाड़ी से दूसरे करोड़पति की मौत हो जाए, तो भी मरने वाले का परिवार शायद जिंदा रह ले। लेकिन जब एक करोड़पति की गाड़ी से एक मजदूर की मौत होती है, तो उस मजदूर का पूरा परिवार भी मर सकता है। इसलिए अगर जुर्म या हादसे के लिए जिम्मेदार व्यक्ति आर्थिक रूप से अधिक संपन्न हैं, तो उनकी संपन्नता से नुकसान पाने वाले व्यक्ति या मृतक के परिवार को बाकी जिंदगी के लिए एक पर्याप्त बड़ा मुआवजा देने का इंतजाम कानून में होना चाहिए।
दुनिया के कुछ देशों में तो एक बड़ा मुआवजा देकर कई किस्म के मामले अदालत के बाहर निपटाने का भी कानून है, लेकिन हम उसके खिलाफ इसलिए हैं कि उससे पैसे वाले लोग सजा से बच जाएंगे। हमारी आज की सलाह एक बराबरी की सजा के साथ-साथ मुजरिम के संपन्न होने पर एक मोटा मुआवजा उससे दिलवाने की बात जोडऩे के लिए है, किसी कैद को कम करने के लिए नहीं है। यह बात लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ जाएगी, अगर लोग भुगतान करके अपनी कैद की माफी करवा सकेंगे, इसलिए वैसी कोई बात करनी नहीं चाहिए।
आज हिन्दुस्तान में जितने किस्म के ऐसे हादसे होते हैं उनमें से बहुतों के पीछे संपन्नता के बाहुबल का हाथ भी होता है। पैसा लोगों में बददिमागी भर देता है, और लोग अंधाधुंध बड़ी गाडिय़ों को नशे की हालत में भी अंधाधुंध रफ्तार से दौड़ाते हैं क्योंकि हादसा होने पर उन्हें पुलिस, गवाह, वकील, और अदालत में से एक या अधिक, या सबको खरीदने का पूरा भरोसा रहता है। इसलिए जिस पैसे पर उन्हें ऐसा घमंड है, उस पैसे से जुर्म और हादसों के शिकार लोगों को बड़ा मुआवजा दिलवाना चाहिए। कानून को ऐसा अंधा भी नहीं रहना चाहिए कि वह सबको एक बराबर कैद देकर उसे इंसाफ मान ले। इंसाफ तभी हो सकता है जब ऐसा एक भारी जुर्माना लगे जो किसी गरीब परिवार के लिए पर्याप्त मदद बन जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीकी राष्ट्रपति भवन में अभी दो दिन पहले एक ऐसा नजारा देखने मिला जिसकी किसी ने पिछली सरकार में कल्पना भी नहीं की थी। नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने कश्मीरी मूल की एक मुस्लिम महिला, समीरा फ़ाज़ली को अपनी टीम में शामिल किया है, और उसने व्हाईट हाऊस में अपनी परंपरागत पोशाक, हिजाब पहने हुए मीडिया को संबोधित किया। हम भारत, और कश्मीर से इस महिला के परिवार के संबंधों को छोड़ भी दें, तो भी यह बात दिलचस्प थी कि व्हाईट हाऊस के मीडिया ब्रीफिंग रूम में हिजाब बांधी हुई एक मुस्लिम महिला बोल रही थी। लेकिन डेमोक्रेटिक पार्टी के इस राष्ट्रपति से ऐसी उम्मीद की भी जा रही थी क्योंकि वे चुनाव के पहले से ही अपनी टीम में हर धर्म, और हर नस्ल, देश से जुड़े हुए लोगों को रख रहे थे।
अब सोशल मीडिया पर इस बात ने एक अलग बहस छेड़ दी है कि इसे मुस्लिम महिला का सशक्तिकरण माना जाए, या फिर हिजाब लगाई हुई मुस्लिम महिला को उसके धर्म के रिवाज का गुलाम माना जाए? दोनों बातें अपने-अपने हिसाब से सही हैं, और सोचने का अलग-अलग नजरिया पेश करती हैं। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि कुछ मुस्लिम संगठन यह लिख रहे हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति भवन में पहली बार एक हिजाबधारी मुस्लिम महिला ने बोलने का मौका पाकर एक इतिहास रचा है। इन लोगों का मानना है कि मुस्लिमों को अपने समाज की महिलाओं पर लादे गए हिजाब को ऐसे किसी गौरव के साथ जोडक़र नहीं देखना चाहिए क्योंकि यह रिवाज बुर्के की तरह मुस्लिम महिला पर एक बोझ और बंदिश है, उसके सिवाय कुछ नहीं। कुछ दूसरे लोगों का यह मानना है कि हिजाब और बुर्के का इस्तेमाल मुस्लिम महिला का विशेषाधिकार माना जाए, या उस पर बोझ माना जाए, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। और आज अमरीकी राष्ट्रपति भवन में एक मुस्लिम महिला को, या कि एक मुस्लिम को जो महत्व मिला है, उस महत्व की खुशी मनाई जानी चाहिए, और बुर्के-हिजाब पर बहस पहले से चली आ रही है, और आगे भी चलती रहेगी।
कुछ मुद्दे जटिल होते हैं, उन्हें अलग-अलग काटकर देखना कुछ मुश्किल होता है। अगर मुस्लिम महिला को बुर्के या हिजाब से आजादी दिलानी है, तो हर किस्म की खबर में जब कहीं इनकी चर्चा हो, तो इन्हें बोझ या बंदिश साबित करना भी जरूरी है, क्योंकि इनकी चर्चा अलग से की जाएगी, तो उसमें कम लोगों की दिलचस्पी होगी। अमरीकी राष्ट्रपति भवन में यह मौका मिलने की वजह से हिजाबधारी मुस्लिम महिला के हिजाब वाले हिस्से पर चर्चा होने से अधिक संख्या में लोग उसके बारे में सोचेंगे क्योंकि राष्ट्रपति भवन का महत्व इससे जुड़ा हुआ है। अब सवाल यह उठता है कि कई पहलुओं वाले किसी मुद्दे के एक पहलू पर चर्चा जरूरी लग रही हो, तो यह जरूरी नहीं है कि बाकी तमाम लोगों को भी उसके दूसरे पहलुओं पर चर्चा कमजरूरी या गैरजरूरी लगे। मुस्लिम महिला को मिले मौके के साथ उस मौके की चर्चा में हिजाब का जिक्र हो जाना उन लोगों को नाजायज और गैरजरूरी लग रहा है जो कि ऐसे पुराने और दकियानूसी रिवाज के लिए मुस्लिम पोशाक लादने वालों की आलोचना करते हैं।
जटिल मामलों का विश्लेषण भी बहुत आसान नहीं होता है। फिजिक्स का कोई अच्छा प्रोफेसर अयोध्या में खड़े होकर मस्जिद गिरवाए तो उसके इस नफरतजीवी धर्मप्रेम की आलोचना करते हुए विज्ञान की उसकी समझ को अनदेखा किया जाए, या विज्ञान की चर्चा करते हुए उसकी इस साम्प्रदायिकता को अनदेखा किया जाए? हिटलर की चित्रकला की चर्चा करते हुए उसके किए हुए नस्लवादी जनसंहार को अनदेखा किया जाए या दुनिया के इस सबसे बड़े हत्यारे की कला को ही खारिज कर दिया जाए? जब रोम जल रहा था, और नीरो बांसुरी बजा रहा था, तो क्या उसके बांसुरीवादन की संगीत-समीक्षा की जाए, या उसके संगीत को ही खारिज कर दिया जाए? नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री निवास में अपनी हथेली पर दाना रखे हुए मोर को दाना खिला रहे हैं, और उन्हीं की दिल्ली की सरहद पर महीनों के आंदोलन के बाद किसान मर रहे हैं, तो मोदी के पक्षीप्रेम की तारीफ की जाए, या किसान आंदोलन की उनकी अनदेखी को देखते हुए उनके पक्षीप्रेम को खारिज किया जाए?
इसी तरह की बात योरप में कई देशों में मुस्लिम महिलाओं की पोशाक को लेकर बनाए गए कानून को लेकर उठ रही है कि क्या बुर्के पर रोक मुस्लिम महिला के सशक्तिकरण का मामला है, या अपनी पोशाक तय करने के उसके अधिकार को कुचलना है? हमारा मानना यह है कि धार्मिक प्रतीकों से लदी हुई पोशाक किसी भी धर्म में, औरत या मर्द किसी पर भी एक बोझ अधिक रहती है, वह आजादी का सुबूत नहीं रहती। लेकिन अगर किसी धर्म के मानने वाले लोग उसके धार्मिक प्रतीकों को पहनकर या ढोकर चलना चाहते हैं, तो यह उनका व्यक्तिगत आजादी का दावा भी हो सकता है कि सरकार जिसे बोझ मानती है, मानवाधिकारों का हनन मानती है, वे उसे अपना हक मानते हैं। मुस्लिम महिलाओं में बहुत सी ऐसी हैं जो बुर्का पहनने की हिमायती रहती हैं, फिर चाहे वे योरप के सबसे विकसित देशों में क्यों न रह रही हों।
धार्मिक पोशाक की बात करें तो सिक्ख समाज में पुरूष पगड़ी पहनकर चलते हैं, और अगर वे अधिक हद तक धार्मिक रिवाज मानते हैं तो वे केश, कृपाण, कड़ा, कच्छा और कटार जैसे पांच प्रतीक पहनकर रहते हैं। अब दुनिया के किसी भी धर्म में अपने प्रतीकों को पहनकर चलने के मामले में अगर किसी धर्म के लोगों ने सबसे अधिक कानूनी संघर्ष किया है, तो वे सिक्ख हैं। दुनिया भर में उन्होंने दुपहिये चलाने पर भी हेलमेट न पहनने के लिए लंबे संघर्ष किए हैं, और धार्मिक आधार पर इसी एक समुदाय को हेलमेट से छूट मिली है। अब ऐसी छूट लोगों का भला करती है, या उन्हें खतरे में डालती है, यह एक अलग बहस का मुद्दा है। लेकिन अपने धार्मिक प्रतीकों की वजह से सिक्ख हेलमेट नहीं पहनते, यह उनके धार्मिक अधिकार का एक अलग मुद्दा है। मुस्लिम महिला पर हिजाब या बुर्के का बोझ भी धर्म से जुड़ी हुई पोशाक का मामला है, और चूंकि मुस्लिम समाज में महिलाओं पर ढेर सारे नाजायज प्रतिबंध लगाए जाते हैं, वहां महिलाएं दूसरे दर्जे की नागरिक रहती हैं, इसलिए ऐसी पोशाकों का विरोध दुनिया भर में अधिक होता है। बुर्के और हिजाब का कानूनी और सामाजिक विरोध चले ही आ रहा है, एक-एक करके कई यूरोपीय देशों ने इन पोशाकों पर कई किस्म की रोक लगाई हैं।
फिलहाल इस चर्चा के बाद हम दो दिन पहले अमरीकी राष्ट्रपति भवन की इस अभूतपूर्व घटना पर लौटना चाहते हैं कि एक मुस्लिम महिला को जो महत्व मिला है, वह हिजाब की उसकी अपनी पसंद के बावजूद मिला है, और हिजाब न उसमें आड़े आया, न उसमें काम आया। एक महिला होने की वजह से यह महत्वपूर्ण तो है, लेकिन अमरीका में तो आज उपराष्ट्रपति एक काली महिला है, ऐसे में मुस्लिम होने की वजह से समीरा फ़ाज़ली का वहां होना अधिक महत्वपूर्ण है, और उसी पर खुशी मनाने की जरूरत है। इस महिला को हिजाब की वजह से वहां पहुंचने का मौका नहीं मिला है, हिजाब को इस महिला की वजह से वहां पहुंचने का मौका मिला है, और यह मौका उस महिला पर चर्चा का है। अमरीकी दुनिया में जो महिला इतनी ऊंचाई पर पहुंची हुई है, और लंबे समय से वहां कामयाब है, बड़े ओहदों पर काम करते आई है, उस पर हिजाब कोई थोप नहीं सकता, यह उसकी अपनी पसंद की बात है। उसकी इस पसंद को इस मुद्दे में चर्चा में ऊपर रखना गलत होगा, उस महिला के अपने व्यक्तित्व को, उसकी कामयाबी को ही इस चर्चा में ऊपर रखना होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र हो, या राज्य सरकार, या म्युनिसिपल, इन सबकी घोषणाओं को देखें तो समझ पड़ता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि सब कुछ जानते हैं। वे वायुसेना के हमले की रणनीति की तकनीकी बारीकियां भी जानते हैं, वे उपग्रह टेक्नालॉजी भी जानते हैं, उन्हें यह भी मालूम रहता है कि अपने देश-प्रदेश के बच्चों को अचानक क्या पढ़ाना शुरू कर देना है, उन्हें शहरी विकास से लेकर ग्रामीण विकास तक की प्राथमिकताएं अकेले ही सब सूझ जाती हैं। शहरों के निर्वाचित प्रशासन को देखें तो किसी चौराहे का घेरा कितना बड़ा होना चाहिए, कहां पर डिवाइडर होना चाहिए, और कहां पर फुटपाथ होना चाहिए, इन तमाम बातों को निर्वाचित या मनोनीत नेता इस अंदाज में तय करते हैं, और उसकी मुनादी करते हैं कि मानो वे चक्रव्यूह भी तोडऩे की तरकीब सीखे हुए अभिमन्यु हों।
अब सवाल यह उठता है कि देश में कल तक जो योजना आयोग था, और राज्यों में जो योजना मंडल होता है, और म्युनिसिपलों में पार्षदों की अलग-अलग कमेटियां होती हैं, या मेयर की कोई काउंसिल होती है, उनके जिम्मे क्या है? देश में अलग-अलग विषयों के जो माहिर लोग हैं, जानकार हैं, जिन्होंने तकनीक विकसित की है, उनकी जरूरत क्या है अगर नेता ही सर्वज्ञ हैं? आज देश से लेकर प्रदेश और शहर तक पहले राजनीतिक घोषणा होती है, और फिर नेता की उस घोषणा के मुताबिक अफसर अपने दम पर ही उस बताई हुई मंजिल तक राह बिछाना शुरू कर देते हैं। हालत यह है कि अलग-अलग प्रदेशों में मुख्यमंत्री मंचों से सार्वजनिक घोषणा करते हैं कि स्कूल किताबों में कौन से पाठ जोड़े जाएंगे, या कौन से पाठ हटाए जाएंगे। अब सवाल यह है कि ऐसी घोषणा के बाद पाठ्यक्रम तय करने के लिए जानकारों और विशेषज्ञों की बनी हुई कमेटी की जरूरत क्या रह जाती है?
एक सवाल यह भी उठता है कि निर्वाचित नेता पर अपने पांच बरस के कार्यकाल के आखिर में एक चुनाव में अपनी सरकार की कामयाबी साबित करने की जिम्मेदारी भी रहती है। ऐसे में बिना किसी योजना के, अपनी मनमानी और अपनी निजी सोच से जनता की जिंदगी पर जनता के ही पैसों से इतना बड़ा फर्क डालने वाली योजना बनाने का इतना बड़ा दुस्साहस वे किस भरोसे से करते हैं? आज भारत की बैंक व्यवस्था को काबू करने वाले रिजर्व बैंक के गवर्नर की पढ़ाई-लिखाई महज एमए-इतिहास है, तो क्या भारत की बैंकिंग इतिहास का सामान बन चुकी है? क्या बैंकिंग और अर्थव्यवस्था, लोकतांत्रिक विकासशील शासन व्यवस्था की कोई समझ अब आरबीआई गवर्नर होने के लिए जरूरी नहीं रह गई है?
अपने आसपास सरकार हांकते लोगों को देखें तो यही समझ पड़ता है कि सत्ता पर काबिज लोगों को जानकारों और विशेषज्ञों से खासा परहेज रहता है, और ऐसा लगता है कि उनकी मौजूदगी में नेताओं के मन में हीनभावना आ जाती है क्योंकि वे उनके विषयों की समझ उनके मुकाबले जरा भी नहीं रखते हैं, या बहुत कम रखते हैं। ऐसे में ज्ञान और विशेषज्ञता से दहशत खाना स्वाभाविक है अगर निर्वाचित और मनोनीत नेता अपने आपको विशेषज्ञों के साथ एक मुकाबले में खड़ा कर लेते हैं। जबकि हकीकत यह रहती है कि देश-प्रदेश या शहर की सत्ता विशेषज्ञों को नहीं दी जाती है, निर्वाचित नेताओं को दी जाती है, और उनसे लोकतंत्र यह उम्मीद करता है कि वे जानकारों की राय लेकर, योजनाशास्त्रियों से योजनाएं बनवाकर, उसके बाद उन पर अपनी लोकतांत्रिक समझ और जनता के प्रति जवाबदेही को लागू करके व्यापक जनकल्याण के फैसले लें। लेकिन यह सिलसिला अब चलन से बाहर हो गया है। अब निर्वाचित या मनोनीत नेता भाग्यविधाता के अंदाज में अकेले यह तय करने लगे हैं कि जनहित में क्या है। वे मंच से इसकी घोषणा करने लगे हैं, और फिर मातहत अफसरों पर महज यह जिम्मा रहता है कि उन घोषणाओं को पूरा करने के लिए तरकीबें निकाल लें, बजट निकाल लें, योजनाएं बना लें, और उन्हें लागू करके नेता को उसका तमाम श्रेय दिलवाएं। यह पूरा सिलसिला देश के लिए बड़ा खतरनाक हो गया है। विशेषज्ञता से इतनी भारी-भरकम हिकारत जनता का पीढिय़ों तक का नुकसान कर रही है। लोग चुनाव जीतकर आने की अपनी क्षमता को तकनीकी विशेषज्ञता भी मान रहे हैं, योजना बनाने की क्षमता भी मान रहे हैं, और किसी महामारी की हालत में देश के लोगों के लिए दवा और टीके तय करने की काबिलीयत भी मान रहे हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। यह देश की संभावनाओं को अधकचरे ज्ञान, विशालकाय अहंकार, मनमानी और जिद के हवाले कर देने के सिवाय और कुछ नहीं है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोगों ने राजनेताओं की जिद और सनक पर बहुत बर्बादी होते देखी है। शहर को खोदकर एक वक्त भूमिगत नाली योजना शुरू कर दी गई थी। बड़े ताकतवर नेताओं ने बिना तकनीकी सर्वे के शहर के बीच से इसे शुरू कर दिया था, और इस बात का हिसाब ही नहीं लगाया गया था कि कितने पखाने को बहने के लिए कितनी ढलान लगेगी, और कितने पानी की जरूरत होगी, उस वक्त शहर में पानी की कुल खपत और उपलब्धता कितनी थी, उस ढलान के चलते शहर के बाहर तक उस पानी को पहुंचते हुए कितनी गहराई लगेगी। ऐसे कई तकनीकी सवाल थे जिनको पूरी तरह अनदेखा और खारिज करते हुए ही नेताओं ने अपनी मर्जी से ऐसी बड़ी योजना शुरू कर दी थी, जो कि किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। जनता के करोड़ों रूपए खर्च हो गए, बरसों की दिक्कत हो गई, और सारे पाईप दफन हो गए।
यह तो एक छोटी सी मिसाल है, हम तो अंतरिक्ष से लेकर आसमान तक, और पनडुब्बी से लेकर बुलेट टे्रन तक ऐसा ही रूख देख रहे हैं, ऐसा ही रूख अलग-अलग प्रदेशों में देखने मिलता है, अलग-अलग शहरों में देखने मिलता है। कुल मिलाकर एक लाईन में कहें तो निर्वाचित लोगों को ज्ञान से दहशत रहती है, और किसी बैठक में अपनी सोच पर लोग ज्ञानियों से कोई भी तर्क सुनना नहीं चाहते हैं, इसलिए तकनीकी विशेषज्ञों को खारिज करके ही निर्वाचित नेता हीनभावना से बच पाते हैं। लोगों को लगता है कि जनता के बीच से चुना जाना (!), या वोटों को खरीदकर आना ही दुनिया की सबसे बड़ी विशेषज्ञता है, दुनिया का सबसे बड़ा काम है।
पहली नजर में तस्वीर पर भरोसा नहीं हुआ। और यह वक्त ऐसा चल रहा है जिसमें तस्वीरें गढऩा बड़ा आसान है। इसलिए जब तक खासी तलाश करके सच्चाई तय न हो जाए तब तक अधिक चौंकाने वाली बातों को शक की नजर से देखना ही बेहतर और महफूज होता है। अभी एक राज्य के मुख्यमंत्री की ऐसी तस्वीर सोशल मीडिया पर आई जिसमें वे अफसरों से घिरे हुए लाल कालीन पर चल रहे हैं, और दोनों तरफ स्कूली बच्चे जमीन पर उकड़ू बैठे झुककर सिर जमीन में धंसाए हुए हैं, उनकी आंखें मुख्यमंत्री को देखने के बजाय अपने आपको देख रही हैं। यह तस्वीर मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह की है और उनके फेसबुक पेज पर भी ढेर से लोगों ने इस आलोचना के साथ इसे पोस्ट किया है कि मणिपुर को तानाशाह उत्तर कोरिया बना डाला है जहां गुलामों की तरह बच्चों को इस तरह जमीन में सिर धंसाकर बैठाया गया है।
लेकिन 21वीं सदी की इस तस्वीर को लेकर देश के एक मुख्यमंत्री को कोसना इसलिए ठीक नहीं है कि अपने-अपने वक्त पर सिंहासन के नशे में चूर बहुत से नेता इस किस्म की बहुत सी अलग-अलग हरकतें करते हैं। हिन्दुस्तान में यह एक आम बात है कि मुख्यमंत्री तो दूर, मंत्रियों के इंतजार में भी स्कूली बच्चों को कडक़ती ठंड या चिलचिलाती धूप में घंटों खड़ा कर दिया जाता है। हिन्दुस्तान के कागजों शेरों, मानवाधिकार आयोगों और बाल कल्याण परिषदों में ऐसे रिवाज के खिलाफ कई बार हवा में हुक्म दनदनाए हैं जो कागज के रॉकेट से भी कम नुकसान कर पाए हैं। सत्ता की बददिमागी ऐसे कागजी हुक्मों को अपनी कचरे की टोकरी में भी नहीं डालती कि कहीं इस पर गिरकर उनके थूक की बेइज्जती न हो जाए।
सत्ता की बददिमागी जब हैवानियत की हद तक पहुंच जाती है तो लोगों को हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में अदालत जाकर इसके खिलाफ हुक्म पाने की कोशिश करनी चाहिए। सत्ता एक किस्म से शर्मप्रूफ हो चुकी है, बाजार की धूर्त कानूनी जुबान का इस्तेमाल करें तो सत्ता पहले तो शर्मरेजिस्टेंट थी, अब वह शर्मप्रूफ हो गई है। किसी किस्म की आलोचना लोगों को छू भी नहीं पाती, और जैसा कि बाजार कई सामानों के बारे में कहता है, सत्ता पर बैठे लोगों की शर्म पर अब मानो टैफलॉन कोटिंग हो गई है, और उसे कुछ भी छू नहीं सकता। लोकतंत्र गौरवशाली परंपराओं के आगे बढऩे और बढ़ाने के हिसाब से बनाया गया तंत्र है, हिन्दुस्तान में यह नीचता और कलंकित कामों की परंपराओं को, उनकी मिसालों को आगे बढ़ाने, उन्हें मजबूत करने के हिसाब से ढल चुका है। अब यहां शर्म और झिझक लोहे के चक्कों वाली बैलगाडिय़ों की तरह इस्तेमाल से बाहर हो चुकी हैं, और एक राज्य का मुख्यमंत्री बच्चों के गुलाम सरीखे इस्तेमाल को अपने राज्य की गौरवशाली परंपरा करार देते हुए उसे देखकर अपना सीना गर्व से तन जाने की बात लिखता है। वो वक्त अब हवा हुआ जब देश का प्रधानमंत्री बच्चों को गोद में लेकर गर्व हासिल करता था, और उन्हें देश की तकदीर करार देता था।
हिन्दुस्तान अब लगातार, और तेज रफ्तार से बेशर्म होती जा रही राजनीतिक संस्कृति का लोकतंत्र हो गया है। तंत्र इतना बेशर्म हो गया है कि वह लोक को गुलामों सरीखे जमीन पर बिछाकर गौरवान्वित होता है। क्या सत्ता हर कहीं ऐसी ही संवेदनाशून्य हो जाती है? मणिपुर के कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तस्वीर के साथ लिखा है कि अगर उन्हें ऐसे रिवाज पसंद हैं तो उन्हें थाईलैंड चले जाना चाहिए और वहां का राजा होना चाहिए जिससे मिलने के लिए लोगों को जमीन पर घिसटते हुए चलना पड़ता है। तेरह हजार से अधिक लोगों ने कड़ी आलोचना पोस्ट की है। लोगों को अभी कुछ बरस पहले के अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की वे तस्वीरें याद पड़ती हैं जिनमें वे राष्ट्रपति भवन पहुंचे हुए कुछ आम अमरीकी बच्चों में से जिद करते हुए फर्श पर लेट गए बच्चों के साथ फर्श पर लेटकर उन्हें खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को ओबामा की वे तस्वीरें भी याद पड़ती हैं जिनमें वे राष्ट्रपति भवन के गलियारों से गुजरते हुए वहां सफाई कर रहे कर्मचारियों की पीठ पर धौल जमाते हुए उनसे मजाक करते हुए, उनका हाल पूछते हुए निकल रहे हैं। दुनिया में जगह-जगह इंसानी कही जाने वाली खूबियों वाले ऐसे नेता भी होते हैं, और दूसरी तरफ ऐसे नेता भी होते हैं जो सिंहासन पर बैठते हैं तो उनका अंदाज हिंसासन पर बैठे सरीखा लगता है। उनकी बददिमागी उस ऊंचाई पर चलती है जिस ऊंचाई पर उनका पांच बरस का हेलीकॉप्टर भी नहीं पहुंच पाता।
यह सिलसिला हिन्दुस्तान की राजनीति, और हिन्दुस्तान के चुनावों के लिए जितना खराब है, उससे कहीं अधिक खराब उन बच्चों के लिए है जो राह चलते सत्ता की ऐसी हिंसा और बददिमागी देखते हैं, अलोकतांत्रिक मिजाज देखते हैं। बच्चों की यह नई पीढ़ी जिस तरह के राजनीतिक कुकर्म और राजनीतिक तानाशाही को देखते हुए बड़ी हो रही है, जिस तरह की हिंसक और अनैतिक बातों को सुनते हुए बड़ी हो रही है, यह सब कुछ इस पीढ़ी के साथ एक बड़ी मानसिक हिंसा है, लेकिन इसे कौन देखे? इसे देखने का जिम्मा जिन जजों पर हो सकता है, वे तो राज्यसभा के राजपथ पर चलने की इस शर्त पर पहले ही दस्तखत कर चुके हैं कि वे सत्ता की तरफ से आंखों पर पट्टी बांधे रखेंगे। इस देश का लोकतंत्र सत्ता और अदालत के सुधारे नहीं सुधरने वाला, इसके लिए जनता के बीच से मजबूत आंदोलन चलाकर जनमत पैदा करने की जरूरत है। जब सोशल मीडिया पर करोड़ों लोग एक साथ धिक्कारेंगे, तो हो सकता है कि बेशर्मी की चट्टान पर खरोंच तो आ ही जाए। फिलहाल तो गुलाम बनाए हुए बच्चों के बीच लाल कालीन पर चलते हुए निर्वाचित तानाशाह की ओर से कोई अफसोस भी अब तक सामने नहीं आया है।
जिन लोगों की हिन्दुस्तानी राजनीति में अधिक दिलचस्पी है, और जो लोग कांग्रेस की हलचल को रोजाना देखते हैं, वे भी मध्यप्रदेश में इस बात पर हक्का-बक्का हैं कि ग्वालियर में गोडसे का मंदिर बनाने और पूजा करने को लेकर मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ ने हिन्दू महासभा के जिस नेता, बाबूलाल चौरसिया पर एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था, उसे पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए अब कमलनाथ ने कांग्रेस में शामिल कर लिया है। गोडसे के भक्त और गांधी को गालियां देने वाले ऐसे लोगों को कांग्रेस में लाकर आज कमलनाथ को क्या हासिल होने जा रहा है? अपनी बनी हुई सरकार को जो बचा न सके, वे आज विपक्ष में रहते हुए एक गैरविधायक गोडसेप्रेमी का कांग्रेस प्रवेश करवा रहे हैं! शायद अभी मध्यप्रदेश में होने जा रहे निगम चुनाव में कमलनाथ को गांधी के हत्यारों के उपासक से फायदे की उम्मीद दिख रही है!
दूसरी और बहुत सी पार्टियों की तरह कांग्रेस का भी पर्याप्त नैतिक पतन हो चुका है, और यह पार्टी राजनीतिक अनैतिकता में भाजपा से कुछ ही कदम पीछे है। कमलनाथ के इस फैसले पर मध्यप्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरूण यादव ने सार्वजनिक रूप से नाराजगी जाहिर की है। इस कांग्रेस प्रवेश पर अरूण यादव ने सोशल मीडिया पर ही महात्मा गांधी से माफी मांगी, और अपने इस संदेश को राहुल और प्रियंका गांधी को टैग किया। उन्होंने अगले ट्वीट में यह भी लिखा- महात्मा गांधी और उनकी विचारधारा के हत्यारे के खिलाफ मैं खामोश नहीं बैठ सकता। उन्होंने प्रेस को जारी बयान में उन्होंने कहा- देश के सारे बड़े नेता कहते हैं कि देश का पहला आतंकवादी नाथूराम गोडसे था। आज गोडसे की पूजा करने वाले के कांग्रेस प्रवेश पर वो सब नेता खामोश क्यों हैं? उन्होंने अपनी पार्टी से पूछा कि क्या प्रज्ञा ठाकुर को भी कांग्रेस स्वीकार कर लेगी?
कांग्रेस को बाहर से देखने वाले गैरराजनीतिक विश्लेषक इन सवालों को उठाते उसके पहले पार्टी के ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने सार्वजनिक रूप से पूरी पार्टी के सामने इन मुद्दों को उठाया है, और अब कांग्रेस के सामने यह अग्निपरीक्षा की घड़ी है कि अपने एक क्षेत्रीय नेता, कमलनाथ, की इस बददिमागी के खिलाफ वह कुछ कर पाती है या नहीं? अभी कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं की बागी चि_ी से ही कांग्रेस नहीं उबर पाई है, और वैसे में इस गिनती को 24 करने का खतरा क्या कांग्रेस पार्टी उठा पाएगी? हैरानी की बात तो यह है कि अहमद पटेल और मोतीलाल वोरा के गुजरने के बाद दिल्ली में पार्टी संगठन को चलाने के लिए जिन लोगों के नाम लिए जाते हैं, उनमें कमलनाथ का भी नाम चर्चा में आता था कि देश के कारोबारियों से उनके गहरे ताल्लुकात हैं, और वे विपक्ष में बनी हुई पार्टी के लिए मददगार हो सकते हैं। अब ऐसा लगता है कि कमलनाथ की कारोबार की समझ तो अधिक है, लेकिन कांग्रेस के नैतिक मूल्यों, उसके इतिहास, और देश की आजादी के बाद के उसके इतिहास की समझ भी उन्हें कम है, और परवाह भी कम है। गोडसे के उपासक कांग्रेस के लिए धरती पर आखिरी इंसान होने चाहिए जिन्हें पार्टी दाखिला दे। नैतिकता की धेले भर की परवाह करने वाले लोग यह मानेंगे कि किसी दिन संसद में अगर एक वोट से भी कांग्रेस की सरकार बनते-बनते रह जा रही हो, तब भी उसके लिए गोडसे की उपासक प्रज्ञा ठाकुर को कांग्रेस में नहीं लाना चाहिए। अंग्रेजी का एक शब्द है, नॉननिगोशिएबल, यानी जिस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। जिस कांग्रेस को गांधी ने खड़ा किया, और अपने लहू से सींचा, उसके हत्यारों को, उन हत्यारों के उपासकों को अगर इस पार्टी ने गांधी की तस्वीर के नीचे बैठने की जगह दी जा रही है, तो इस पार्टी की नैतिकता पूरी तरह दीवालिया हो गई है।
हैरानी इस बात की है कि संघ परिवार और गोडसे पर सबसे अधिक हमला करने वाले मध्यप्रदेश के ही कांग्रेस के एक सबसे बड़े नेता, और कमलनाथ-सरकार बनवाने वाले सांसद दिग्विजय सिंह अब तक इस पर चुप हैं। दिग्विजय सिंह अपने पर सबसे ओछे और सबसे घटिया हमले झेलते हुए भी कभी गोडसे और संघ परिवार पर हमले में पीछे नहीं रहे। बल्कि लोगों का यह मानना है कि उन्होंने जरूरत से अधिक दूरी तक जाकर संघ परिवार पर हमले किए हैं जो कि एक चूक रही है, और कांग्रेस को इससे हिन्दू वोटरों के एक तबके में नुकसान भी हुआ है। हम मध्यप्रदेश कांग्रेस के इस ताजा कलंक के बीच में उन बातों पर जगह खर्च करना नहीं चाहते, लेकिन इतना तो तय है कि कमलनाथ के इस फैसले पर आज मध्यप्रदेश और कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए जो लोग चुप रहेंगे, वे गोडसे से परहेज न करने के गुनहगार दर्ज होंगे।
कांग्रेस पार्टी, और वैसे तो भाजपा भी, हर कुछ दिनों में आत्मघाती बयान या हरकत के बिना रह नहीं पातीं। एक तरफ बैठा-ठाले राहुल गांधी उत्तर भारत और दक्षिण भारत की राजनीति में फर्क गिनाते हुए उत्तर भारत में कांग्रेस के प्रति हिकारत का खतरा खड़ा करते हैं, तो मानो उसी दिन राहुल और कांग्रेस को टक्कर देने के लिए अहमदाबाद के स्टेडियम का नाम सरदार पटेल की जगह नरेन्द्र मोदी पर रखा जाता है। स्टेडियम-विवाद के अगले ही दिन कांग्रेस ने अपने आपको बैठे-ठाले गोडसे के मुद्दे पर उलझा लिया है। यह पूरी तरह कांग्रेस का घरेलू मामला है, उसकी घरेलू गंदगी है, और यह गंदगी का इतना बड़ा ढेर है कि पार्टी की कोई सफाई इसे ढांक नहीं सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत-इंग्लैंड की खबरों में चल रही टेस्ट क्रिकेट सिरीज के बीच अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम कर दिया गया। एक लाख दस हजार क्षमता वाला यह स्टेडियम सरदार पटेल स्पोटर््स एन्क्लेव के भीतर मौजूद है, और उस एन्क्लेव का यही सबसे बड़ा, प्रमुख, और चर्चित ढांचा है। इसे दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम होने का फख्र हासिल है, और यह दुनिया में किसी भी तरह के स्टेडियमों में दूसरे नंबर पर है। इसे 1983 में उस वक्त की कांग्रेस सरकार ने बनवाया था, और 2006 में भाजपा के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में इसे पूरी तरह तोडक़र 800 करोड़ की लागत से दुबारा बनाया गया था। इस स्टेडियम को पहले गुजरात स्टेडियम कहा जाता था, फिर इसका नाम सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर रखा गया। इसके लिए 1982 में गुजरात की कांग्रेस सरकार ने सौ एकड़ जमीन दी थी, और 9 महीने में सरदार पटेल स्टेडियम को पूरा किया गया था। अभी जब भारत और इंग्लैंड का यह टेस्ट मैच इस स्टेडियम में तय हुआ तब तक इसका नाम मोटेरा स्टेडियम था, और मैच के दिन ही इसका नाम बदलकर नरेन्द्र मोदी स्टेडियम किया गया।
कल जब यह नया नामकरण हुआ तो देश के बहुत से लोगों ने यह याद दिलाया कि स्टेडियम का नाम तो सरदार पटेल के नाम पर था, और उनका नाम हटाकर मोदी का नाम उन्हीं के सत्ता में रहते हुए ठीक नहीं है। और सोशल मीडिया पर लोगों ने इस पर जमकर लिखा। भाजपा के बहुत से नेता इस पर हक्का-बक्का थे, उनमें से एक नेता ने अनौपचारिक आपसी चर्चा में कहा कि भाजपा के लोग तो पूरे देश को मोदी का मानते थे, अब मोदी ने अपने आपको एक स्टेडियम तक सीमित कर लिया।
लेकिन हिन्दुस्तान में नामकरणों का इतिहास खासा पुराना है, और विवादों से भरा हुआ भी है। कल से ही मोदी समर्थकों ने यह याद दिलाना या लिखना शुरू किया है कि नेहरू ने अपने शासनकाल में ही अपने आपको भारतरत्न की उपाधि दे दी थी। हालांकि दूसरे जानकार लोगों का यह कहना है कि उस वक्त के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सार्वजनिक और औपचारिक रूप से यह बताया था कि यह फैसला उनका था, और इसका नेहरू से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन इतिहास की तारीखें तो यही बताती हैं कि नेहरू को भारतरत्न नेहरू के कार्यकाल में ही मिला था। और भारतरत्न देने का फैसला देश के राष्ट्रपति निजी हैसियत से नहीं करते, बल्कि केन्द्र सरकार इसे तय करती है। भारत रत्न की औपचारिक प्रक्रिया भी यही थी कि प्रधानमंत्री नाम का प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजते हैं, और वे उसे मंजूर कर लेते हैं। जब 1955 में नेहरू को भारतरत्न दिया गया तो इसकी घोषणा एक कामयाब विदेश यात्रा से लौटे नेहरू के स्वागत में राष्ट्रपति भवन में आयोजित स्वागत-समारोह में राजेन्द्र प्रसाद ने की थी, और इस फैसले को गोपनीय रखा था। राष्ट्रपति ने कहा था कि उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था से परे जाकर, बिना किसी सिफारिश के, या प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल की सिफारिश के बिना खुद होकर यह तय किया था। इसकी खबर भी अगले दिन के प्रमुख अखबारों में छपी थी। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच के वैचारिक मतभेद जगजाहिर थे, लेकिन नेहरू की अंतरराष्ट्रीय कामयाबी का सम्मान करने के लिए राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के सारे प्रोटोकॉल तोडक़र नेहरू के स्वागत के लिए एयरपोर्ट गए थे। लेकिन तमाम बातें अलग रहीं, इतिहास तो यही दर्ज करता है कि नेहरू या उनके मंत्रिमंडल ने उन्हें भारतरत्न देने की सिफारिश चाहे न की हो, नेहरू ने उसे नामंजूर तो नहीं किया था, जिसका कि उन्हें पूरा हक था। और ऐसी चुप्पी इतिहास में बड़ी बुरी नजीर के रूप में दर्ज होना तय था। आज जब मोदी के अपने गुजरात में मोदी की अपनी पार्टी की सरकार स्टेडियम का नाम मोदी के नाम पर कर चुकी है, तब भारतरत्न की मिसाल नेहरू विरोधियों के हाथ एक हथियार तो है ही।
उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने जिस तरह से अंबेडकर, कांशीराम के साथ अपनी प्रतिमाएं लगवाकर और अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की चट्टानी प्रतिमाएं बनवाकर सरकार का शायद हजार करोड़ रूपए खर्च किया था वह मामला तो अदालत तक पहुंचा। लेकिन मायावती और उनकी पार्टी को उस पर कोई अफसोस नहीं हुआ। कुछ ऐसा ही काम दक्षिण भारत में जगह-जगह वहां के मुख्यमंत्रियों को लेकर होता है, और सरकारी खर्च पर उनका महिमामंडन किया जाता है। देश में ऐसी लंबी परंपराओं के चलते हुए आज नरेन्द्र मोदी को पहला पत्थर कौन मारे? कहने के लिए तो भाजपा के नेताओं के बीच भी इस बात को लेकर हैरानी है कि एक पूरे देश के नेता ने अपने आपको अपने जीते-जी एक स्टेडियम तक सीमित कर लिया। बात सही भी है कि जो लोग मोदी को पूरी 130 करोड़ आबादी का नेता मानकर चल रहे थे, उन्हें मोदी का अपने आपको एक करोड़ दस लाख आबादी के स्टेडियम तक सीमित कर लेना निराश कर रहा है। इस देश में नेताओं के गुजरने के बाद उनके सम्मान की भी लंबी परंपरा है। खुद मोदी ने इस परंपरा को अभूतपूर्व ऊंचाई तक पहुंचाया जब उन्होंने जिंदगी भर कांग्रेसी रहने वाले, और आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा को दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाकर रिकॉर्ड कायम किया। इसलिए लोगों के जाने के बाद भी उनके सम्मान की परंपरा रही है।
अब कुछ दूसरी मिसालों को देखें तो छत्तीसगढ़ में ही 2004-05 में भाजपा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में उस वक्त सरकारी खर्च पर दस हजार ग्राम पंचायतों में अटल चौक बनवाए थे। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी ताजा-ताजा भूतपूर्व प्रधानमंत्री हुए थे, और जीवित थे। छत्तीसगढ़ का इतिहास बताता है कि 2009 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से राज्य के करीब दस हजार गांवों में अटल चौक बनाने की घोषणा की गई थी, जबकि हकीकत यह थी कि अधिकतर जगहों पर अटल चौक बनाए जा चुके थे। कुल मिलाकर अटलजी के जीते-जी उनकी याद में गांव-गांव में अटल चौक सरकारी खर्च पर बनाए गए थे जो कि अब खंडहर भी हो चुके हैं।
नेहरू और गांधी परिवार के लोगों के नाम पर, इंदिरा और राजीव के नाम पर सडक़ों या सार्वजनिक जगहों और संस्थानों के नामकरण को लेकर इनके आलोचक हमेशा से तीखे सार्वजनिक हमले करते आए हैं। लेकिन नेहरू, इंदिरा, और राजीव के नाम पर उनके जीते-जी नामकरण एकबारगी तो याद नहीं पड़ते हैं। ऐसे में नरेन्द्र मोदी के नाम पर स्टेडियम का नामकरण, और ऐसे स्टेडियम का नामकरण जो कि एक वक्त सरदार पटेल स्टेडियम भी था, यह बात मोदी का सम्मान बढ़ाने वाली नहीं है, उन्हें लेकर एक ऐसा अप्रिय और अवांछित विवाद खड़ा करने वाली है जो दूर तक उनका पीछा करेगा। इस नामकरण से मोदी को विवाद से परे कुछ हासिल हुआ हो यह तो लगता नहीं है, और विवादों से मोदी का कोई नया नाता नहीं है। फिलहाल यह एक पहेली है कि 130 करोड़ आबादी के प्रधानमंत्री ने अपने आपको एक करोड़ दस लाख के स्टेडियम तक सीमित क्यों कर लिया? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी लोगों का सब्र बड़ा बड़ा रहता है। गैरजरूरी और नाजायज नोटबंदी की वजह से देश के एटीएम पर लगी कतार में लोगों को मरते देखकर भी लोगों का सब्र था कि यहां तो दो-तीन दिन ही कतार में लगना पड़ रहा है, कारगिल में तो हमारे फौजी छह-छह महीने बर्फ में चौकसी करते हैं। कोई और तकलीफ आई तो लोगों ने मन को बहलाने का कोई और बहाना ढूंढ निकाला। अब डीजल और पेट्रोल के दाम सरकार ने नाजायज तरीके से आसमान पर बनाए रखे हैं, तो भी केन्द्र सरकार के अनुयायी भक्तजन सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि शेर पालना महंगा पड़ता है तो क्या गधा पाल लिया जाए? ऐसा सब्र कम ही लोकतंत्रों में होता होगा कि मोदी सरकार के चलते अगर महंगाई आसमान पर है, तो भी उनके भक्तों का सब्र बना हुआ है। अब हिन्दुस्तान में शेर अपने आपमें एक बड़ी अजीब मिसाल है। वह शेर जो इंसानों के किसी सीधे काम नहीं आता, जो इंसानों के पालतू जानवरों को भी मारता है, और कभी-कभी इंसानों को भी, उसे हिन्दुस्तान अपना राजकीय पशु बनाकर चल रहा है। जो सीधे-साधे बैल पूरी जिंदगी हिन्दुस्तानी खेतों को जोतते रहे, अनाज उगाकर भुखमरी खत्म करते रहे, वे सरकार की किसी लिस्ट में ही नहीं है। राजकीय पशु होने का सौभाग्य तो उस गाय को भी नहीं मिला जिसे बचाने के लिए पूरी सरकार और कई राजनीतिक दल, कई हिन्दू संगठन अपना सब कुछ दांव पर लगाते हुए दिखते हैं, और जिसका दूध पीकर करोड़ों हिन्दुस्तानी बड़े होते हंै। इसलिए हिन्दुस्तानी सब्र बड़ा अजीब है, जिस शेर को न जोता जा सकता, न दुहा जा सकता, जो न चौकीदारी करता, वह राजकीय पशु बना दिया गया, फिर भले वह लोगों को महज मारने का काम ही क्यों न करे!
लोगों का सब्र लोकतंत्र को हाशिए पर कर दिए जाने पर भी बना हुआ है। एटीएम-मौतों पर लोगों को कारगिल दिखता था, और लोकतंत्र के औजार-बक्से को देश का गद्दार साबित करने के लिए लोगों के पास इमरजेंसी की मिसाल है ही। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का जितना नुकसान इमरजेंसी ने नहीं किया था, उससे अधिक नुकसान अलोकतांत्रिक बातों को जायज ठहराने के लिए बाद में उसकी मिसाल ने किया। आपातकाल के गुजरे जमाना हो गया, उसे लगाने वाली इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी ने चुनावों में उसका दाम चुकाया, और भरपाई के बाद फिर चुनाव में कामयाबी भी पाई, बार-बार जीत हासिल की, लेकिन इमरजेंसी की मिसाल तो बनी ही हुई है।
हिन्दुस्तान में किसान आंदोलन का साथ देते हुए उसके पक्ष में दुनिया के सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच समर्थन जुटाने की एक हिन्दुस्तानी युवती की कोशिश ने उसे जेल पहुंचा दिया। इस सामाजिक कार्यकर्ता को देश का गद्दार करार देने दिल्ली की पुलिस को पल भर नहीं लगा, और उसकी जमानत का विरोध करना तो पुलिस का जिम्मा ही था। लेकिन कल जब उसे जमानत दी गई, तो जज ने जो लिखा है, कहा है, वह आज के इस गद्दार-करार-देने-के-शौकीन-लोकतंत्र में पढऩे लायक है। जज ने कहा- मुझे नहीं लगता कि एक वॉट्सऐप ग्रुप बनाना, या किसी हानि न पहुंचाने वाले टूलकिट का एडिटर होना कोई जुर्म है। जज ने कहा- तथाकथित टूलकिट से पता चलता है कि इससे किसी भी तरह की हिंसा भडक़ाने की कोशिश नहीं की गई थी।
जज ने जमानत देते हुए कहा- ‘मेरे ख्याल से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। सिर्फ इसलिए कि वो राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उससे चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए जरूरी औजार हैं। एक जागरूक और मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार मजबूती से दर्ज है। महज पुलिस के शक के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। एक नागरिक के पास कानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। ये समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक प्लेटफॉर्म देने की तोहमत कैसे लगाई गई है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, सिर्फ इसलिए कि वो सरकारी नीति से सहमत नहीं हैं, उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा इस्तेमाल नहीं हो सकता। सरकार के जख्मी गुरूर पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी अलग-अलग विचारों का सम्मान करने के हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का जिक्र है। ऋग्वेद का एक श्लोक कहता है- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके, और जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।’
कल के अदालत के इस आदेश के बाद सोशल मीडिया पर देश भर के लोग इसकी तारीफ कर रहे हैं, और यह लिख रहे हैं कि देश के आज के माहौल में लोकतंत्र को समझने के लिए इस आदेश को पढ़ा जाना चाहिए। जिन लोगों को हिन्दुस्तान में इमरजेंसी का इतिहास याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि इंदिरा गांधी के चुनावी फैसलों से असहमत एक जज ने उनकी चुनावी जीत को खारिज कर दिया था, और उसके बाद विदेशी साजिश के हाथ की तोहमत लगाते हुए इंदिरा ने इमरजेंसी लगाई थी जिसने हिन्दुस्तान में गैरकांग्रेसवाद की एक जमीन तैयार की थी, और नेहरू की बेटी का नाम काले अक्षरों में लिखा था, और देश की पहली गैरकांग्रेसी, कांग्रेस-विरोधी सरकार को मौका दिया था। लोगों को याद होगा कि इमरजेंसी के दौर में भी सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे जज थे जिन्होंने उसके खिलाफ जमकर लिखा था, और अदालत की इज्जत को बचाया था, बढ़ाया था। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि आज जब देश की सबसे बड़ी अदालत के बड़े-बड़े जज भारतीय न्यायपालिका की साख चौपट कर रहे हैं, तो दिल्ली की एक स्थानीय अदालत के एक एडिशनल सेशन जज धर्मेन्द्र राणा ने लोकतंत्र की एकदम खरी और खालिस व्याख्या करके इस सामाजिक कार्यकर्ता युवती को जमानत दी है, और सरकार के लापरवाही से दिए जा रहे देश के साथ गद्दारी के फतवों को खारिज किया है।
हिन्दुस्तान के लोगों का जो असाधारण सब्र तकलीफ झेलने के लिए बना हुआ है, उसे भी यह जमानत आदेश झंकझोरता है। लोकतंत्र को जिंदा रखने के नाम पर अगर लोकतंत्र को कुचला जा रहा है, और जनता को उसमें कुछ भी खराब या बुरा नहीं दिख रहा है, तो इस नौबत को बदला जाना चाहिए, और उसके लिए एक छोटी सी टूलकिट अदालत के इस जमानत-आदेश की शक्ल में सामने आई है। हिन्दुस्तान के अलग-अलग बहुत से धर्मों ने लोगों को सब्र रखना इस हद तक सिखा दिया है कि वे जुल्म, तानाशाही, और बेइंसाफी की नौबत में भी सब्र धरे बैठे रहते हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र सब्र की भावना में फलने-फूलने वाला पेड़ नहीं है, उसके लिए जिम्मेदारी भी इंसाफपसंद भावना जरूरी होती है। देश के भक्तजनों को कल के इस अदालती आदेश को पढऩा चाहिए जो कि देश की किसी बहुत बड़ी अदालत का तो नहीं है, लेकिन आज के माहौल में देश की एक छोटी अदालत का बहुत बड़ा आदेश जरूर है। और चूंकि इस जज ने जमानत देते हुए भारत की पांच हजार साल पुरानी सभ्यता और ऋग्वेद का भी जिक्र किया है, इसलिए भारतीय संस्कृति के वकीलों को इसे खारिज करना कुछ मुश्किल भी पड़ेगा।
हिन्दुस्तान में चुनाव और राजनीति का सर्वे करने वाले एक गैरसरकारी संगठन की खबर हर प्रदेश या राष्ट्रीय चुनाव के समय आती है कि उम्मीदवारों की अपनी घोषणा के मुताबिक वे कितने करोड़ की दौलत के मालिक हैं। फिर जब चुनाव हो जाता है तब एक बार फिर विश्लेषण आता है कि संसद या किस विधानसभा में कितने अरबपति या कितने करोड़पति पहुंचे हैं। हिन्दुस्तान की तस्वीर अब ऐसी बन गई है कि हर चुनाव सदनों में और अधिक करोड़पति, और अधिक अरबपति पहुंचा देता है। नतीजा यह होता है कि देश के सबसे गरीब लोगों की तकलीफों को रूबरू देखने और समझने वाले लोग देश के सदनों में एकदम कम हो गए हैं। इस मुद्दे पर लिखना आज इसलिए सूझा कि पड़ोस के मध्यप्रदेश में बैतूल के कांग्रेस विधायक निलय डागा के घर से इंकम टैक्स छापे में साढ़े 7 करोड़ रूपए नगद मिले हैं। इनके पास से अब तक कुल 8.10 करोड़ रूपए नगद मिले हैं, और 5 बैंक लॉकर खुलना बाकी है।
लेकिन यह बात महज कांग्रेस के एक विधायक के साथ हो ऐसा भी नहीं है। अधिकतर पार्टियों के बहुत से नेताओं के पास काली कमाई बढ़ते चलती है, और जाहिर है कि राजनीतिक ताकत को दुहकर इस तरह कमाने वाले लोगों को जनता के प्रति जवाबदेह रहने की जरूरत भी नहीं रहती क्योंकि ऐसे लोग बहुत सारे मामलों में टिकट खरीद लेते हैं, या जीत खरीदने की संभावना साबित करके किसी बड़ी पार्टी की टिकट पा लेते हैं, बहुत लंबा कालाधन खर्च कर चुनाव जीत लेते हैं, और फिर अपने आपको बेचने की मंडी में पेश कर देते हैं।
क्या अब ऐसे चुनाव सुधार का वक्त आ गया है जब गैरकरोड़पति लोगों के लिए चुनाव टिकटों में एक आरक्षण लागू किया जाए? क्या गरीब आबादी की बहुतायत वाली सीटों को गरीब उम्मीदवारों के लिए ही आरक्षित रखा जाए? जिस तरह देश या कुछ राज्यों में गरीब अनारक्षित तबके के लिए भी पढ़ाई या नौकरी में आरक्षण लागू हो रहा है, उसी तरह गरीब अनारक्षित के लिए लोकसभा और विधानसभा की अनारक्षित सीटों में से कुछ को तय किया जाए?
अगर देश के गरीबों की तकलीफों की समझ संसद और विधानसभाओं से घटती चली जाएगी, तो वह बात बजट से लेकर दूसरे हर किस्म के विधेयक और कानून पर बहस पर भी असर डालेगी। लोग गरीबों के हित की न सोच पाएंगे, न बोल पाएंगे। इसकी एक छोटी सी मिसाल छत्तीसगढ़ की विधानसभा में पिछली भाजपा सरकार के पहले या दूसरे कार्यकाल में देखने मिली। सरकार ने विधानसभा में एक संशोधन पेश किया कि शहरी कॉलोनियों में गरीब तबके के लिए भूखंड छोडऩे की अनिवार्यता खत्म की जाती है, और उसके एवज में कॉलोनी बनाने वाले लोग सरकार को एक भुगतान कर सकेंगे जिससे सरकार शहर के आसपास अपनी किसी खाली जमीन पर छोटे आवास बनाकर बेघर लोगों को देगी। हर कॉलोनी में कमजोर तबके के लिए भूखंड रखने की शर्त के पीछे बड़ी व्यवहारिक सोच थी कि संपन्न लोगों के घरों में काम करने वाले लोगों को वहीं कॉलोनी में रहने मिल जाएगा जिससे दोनों तबकों को सहूलियत होगी। अब जब किसी कॉलोनी से कई किलोमीटर दूर गरीबों के घर बन रहे हैं, तो जाहिर है कि वहां से महिलाओं को काम पर आने में दिक्कत होती है, वे अपने घर के काम, अपने बच्चों को छोडक़र आसानी से नहीं आ पातीं, और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता इस एक अनिवार्यता के खत्म होने से बहुत बुरी तरह प्रभावित हो रही है। लेकिन विधानसभा में उस वक्त विपक्ष के कांग्रेस विधायकों को भी ऐसी कोई सामाजिक दिक्कत समझ नहीं आई, और यह संशोधन पास हो गया।
जिस तरह विधायकों और सांसदों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आधार पर सीटें आरक्षित रहती हैं, जिस तरह पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव में अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवार, महिला या ओबीसी उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं, उसी तरह गरीब आबादी वाली सीटों को गरीब उम्मीदवारों के लिए आरक्षित क्यों नहीं किया जा सकता? हो सकता है कि आज भाजपा और कांग्रेस जैसी जमी-जमाई और बड़ी पार्टियों के बीच यह सोचने में भी दिक्कत होगी कि वे किसी गरीब को कहां से ढूंढेंगे? लेकिन ऐसा ही सवाल तो उस वक्त भी हुआ था जब म्युनिसिपल और पंचायतों में महिला आरक्षण लागू किया गया था। उसके बावजूद हर गांव-कस्बे और शहर में महिला उम्मीदवार मिलती ही हैं।
यह भी हो सकता है कि ऐसी कोई व्यवस्था लागू हो, और अपने-आपको गरीब साबित करने के लिए लोग अपनी दौलत परिवार के दूसरे लोगों के नाम करके एक फर्जी सर्टिफिकेट जुटा लें, लेकिन ऐसे फर्जीवाड़े से बचने के लिए यह शर्त भी लागू की जा सकती है कि आश्रित परिवार या खुद के पास पिछले कितने बरसों में किस सीमा से अधिक संपत्ति न रही हो। जिन लोगों को आज का यह तर्क केवल खयाली पुलाव या जुबानी जमाखर्च लग रहा है, उन्हें देखना चाहिए कि देश की संसद और विधानसभाओं में रात-दिन गरीबों के हित किस तरह कुचले जा रहे हैं। जिस तरह आज सौ दिन पूरे करने जा रहे किसान आंदोलन की वजह से कुछ किसानी मुद्दे राजनीतिक दलों के बीच चर्चा का सामान बन पाए हैं, उसी तरह गरीबों के मुद्दे एक बार फिर चर्चा में लाने की जरूरत है। बड़ी और स्थापित पार्टियां ऐसा करना नहीं चाहेंगी, लेकिन गरीबों के हिमायती मुखर लोगों और संगठनों को ऐसी बहस छेडऩी चाहिए जो कि चाहे गरीब-आरक्षण तक न पहुंच पाए, लेकिन गरीब-मुद्दों तक तो पहुंच ही सके। जब अरबपतियों को लगेगा कि उनकी सीटें गरीब-मुद्दों की वजह से गरीब-आरक्षित हो सकती हैं, तो हो सकता है कि अरबपति भी भाड़े पे कुछ लोगों को रखकर गरीब मुद्दों को तलाशने, समझने, और उठाने का काम करें।
देश की तीन चौथाई आबादी गरीब है, और शायद दो-चार फीसदी सांसद-विधायक भी गरीब नहीं हैं। इस नौबत को बदलने की जरूरत है। आर्थिक आधार पर आरक्षण महज पढ़ाई और नौकरी तक सीमित न रहे, संसद और विधानसभा की सीटों का भी आर्थिक-आधार पर आरक्षण किया जाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है हिन्दुस्तान जैसे दर्जे के देश भी सहूलियतों से भरते जा रहे हैं। पहले लोग ट्रेन या बसों से दूर के शहर जाते थे, आज अगर जेब में पैसे हों तो लोग प्लेन से निकल जाते हैं, या फिर अपनी कार से भी। कार अगर भरी हुई हो, तो वह बस या ट्रेन के मुकाबले सस्ती भी पड़ सकती है, लेकिन लोगों को अकेले भी जाना हो तो भी अपनी कार से जाना साफ-सुथरा लगता है, और सहूलियत का भी लगता है। बस अड्डे या स्टेशन पर गंदगी में औरों के साथ इंतजार नहीं करना पड़ता, और घर से घर तक का सफर अपनी कार में अधिक सुविधाजनक रहता है। शहरों में अब कई-कई मंजिल की पार्किंग बनती चली जा रही है, और लोग घूमने के लिए जिस बगीचे में साइकिल से जा सकते थे, उसके पास भी अब कई मंजिल की कार पार्किंग बन गई है जो कि एक बड़ी आधुनिक सहूलियत है। शहरों के भीतर लोग पहले पैडल-रिक्शा पर सवार होकर चले जाते थे, फिर ऑटोरिक्शा और सिटी बसों की बारी आई, लेकिन इस पूरे दौर में लोग निजी गाडिय़ों को बढ़ाते चले गए, खरीदी के लिए फाइनेंस कंपनियां लाल कालीन बिछाकर खड़ी थीं, और एक रूपया भी नगद भुगतान किए बिना गाड़ी मिल जा रही है। नतीजा यह है कि लोग पहली गाड़ी तो खरीदते ही हैं, उसके पुराने होने पर उसे बेचकर नई गाड़ी खरीदते भी अब उतना भी बोझ महसूस नहीं होता जितना कि कुछ बरस पहले नई पतलून खरीदते हुए होता था।
नतीजा यह है कि जैसे-जैसे सहूलियत बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे लोगों की आदतें भी बदल और बिगड़ रही हैं, और लोगों के खर्च बढ़ रहे हैं, पर्यावरण पर बोझ बढ़ रहा है, सडक़ें और अधिक जाम हो रही हैं, धरती पर प्रदूषण इन गाडिय़ों को बनाते हुए भी बढ़ रहा है, और इनके चलने से भी। अब जैसे-जैसे किनारे के पेड़ काट-काटकर, मैदानों को छोटा करके सडक़ें अधिक चौड़ी की जा रही हैं, वैसे-वैसे गाडिय़ां बढ़ती जा रही हैं, पार्किंग बढ़ती जा रही है, और लोग बेझिझक गाडिय़ों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने लगे हैं।
यह भी देखने की जरूरत है कि दुनिया के सबसे संपन्न, सबसे विकसित, लेकिन साथ-साथ सबसे सभ्य यूरोपीय देशों में लोग साइकिल का चलन बढ़ाते जा रहे हैं, वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त किया जा रहा है ताकि लोग निजी गाडिय़ों न चलाएं। लंदन जैसे शहर में अधिकतर लोग पैदल या पैडल से चलते हैं, अधिक दूरी हो तो बस या सबवे (ट्रेन) से चलते हैं, और बहुत ही अधिक जरूरी हो तो ही कार लेकर निकलते हैं। पैडल और पैदल से लोगों और धरती, दोनों की ही सेहत बेहतर रहती है।
लेकिन गाडि़य़ों से परे की बात करें तो भी सहूलियतें लोगों को बर्बाद भी कर रही हैं। लोग कुछ सामान सस्ते मिलने की वजह से बड़े-बड़े सुपर बाजार तक जाते हैं, और वहां से उन सामानों को सस्ते में पाकर साथ में दर्जनों दूसरे लुभावने गैरजरूरी सामान लेकर लौटते हैं। खर्च भी अधिक हो जाता है जबकि नीयत बचत की रहती है। और लाया गया गैरजरूरी सामान आमतौर पर सेहत पर भी भारी पड़ता है। इन दिनों हिन्दुस्तान के छोटे-छोटे शहरों में भी मोटरसाइकिलें दौड़ाते हुए बड़े-बड़े बैग टांगे लोग दिखते हैं जो खाना पहुंचाते हैं। अब लोग घर बैठे अपने फोन पर मनचाहे रेस्त्रां का मनचाहा खाना बुला सकते हैं, जिसके 30 मिनट में पहुंच जाने की गारंटी सी रहती है। नतीजा यह है कि लोग घर का सादा और सेहतमंद खाना खाने के बजाय अधिक बार बाहर का खाना बुलाने लगे हैं। कुछ ऐसी ही आदत ऑनलाईन खरीदी की सहूलियत से बिगड़ी है। पहले लोग किसी सामान की जरूरत होने पर बाजार जाकर उसे देखते थे, परखते थे, और फिर ठीक लगने पर खरीदते थे। अब इंटरनेट पर किसी सामान को तलाशते ही उसके सौ-सौ विकल्प साथ में दिखने लगते हैं, और ऐसा होता ही नहीं कि लोगों को उसमें से कोई सामान पसंद न आए। खरीदी पहले बाजार खुले रहने पर वहां जाकर होती थी, अब वह खरीदी चौबीसों घंटे कभी भी, कहीं से भी, आनन-फानन हो जाती है। सहूलियत तो बढ़ी है, लेकिन गैरजरूरी खरीदी और फिजूलखर्ची इनमें भी खासी बढ़ोत्तरी हो गई है।
इन दिनों हर किसी के हाथ में दिखने वाले मोबाइल फोन को देखें तो लोग अपने फोन के तमाम फीचर जान भी नहीं पाते हैं कि उसके पहले उसका नया मॉडल आ जाता है जो कि कई नए फीचर के साथ लुभाना शुरू कर देता है। लोग बिना जरूरत नए फोन पर चले जाते हैं, और पुराना हैंडसेट आसपास के लोगों को दे देते हैं, या दुकान में एक्सचेंज में बेच देते हैं। जिन नए फीचरों की कोई जरूरत नहीं होती है, कैमरों के बढ़े हुए मेगापिक्सल का फर्क भी जिन्हें समझ नहीं पड़ता है वे भी नए मॉडल पर चले जाते हैं। पुराने हैंडसेट की जिंदगी खासी बाकी रहती है, लेकिन उससे मन भर जाता है क्योंकि सामने नया मॉडल रिझाते हुए खड़ा हो जाता है।
यह पूरा सिलसिला पूंजीवादी व्यवस्था और बाजार को बड़ा माकूल बैठता है। लेकिन लोगों की निजी जिंदगी गैरजरूरी खर्च के बोझ से लद जाती है। अब अपनी, परिवार की, और आसपास के दायरे की फिजूलखर्ची की हवा कुछ ऐसे झोंके लेकर आती है कि लोग खर्च न करने की हालत में एक मानसिक अवसाद, डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। कुल मिलाकर आज की बात का मकसद यह है कि बढ़ी हुई सहूलियतें अगर समझदारी से इस्तेमाल न हों तो वे जेब और धरती, इंसान की सेहत और शहरी ढांचे सभी पर बोझ होती है। दुनिया के सबसे विकसित योरप में खासी तनख्वाह पाने वाले डॉक्टर और प्रोफेसर भी, बड़े अफसर और मंत्री भी साइकिल से आते-जाते दिखते हैं जिस कसरत से उनकी सेहत भी ठीक रहती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोग बगीचे में पैदल घूमने के लिए भी कार से जाकर कई मंजिला पार्किंग में कार चढ़ा सकते हैं। लोग अब तय करें कि विकास कहां है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पर्यावरण के लिए लड़ते हुए बरसों से खबरों में बनी हुई योरप की किशोरी ग्रेटा थनबर्ग की ताजा आलोचना अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मंगल मिशन पर केन्द्रित है, और ग्रेटा ने इसे अमीर देशों की पैसों की बर्बादी करार दिया है। उसने लिखा है कि आज जब धरती जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है तब इसे अनदेखा करके दुनिया के अमीर देश दूसरे ग्रहों की यात्रा पर पैसा बर्बाद कर रहे हैं। ग्रेटा का यह बयान दुनिया में आज लोगों की आम सोच के ठीक खिलाफ है। आज दुनिया के देश न सिर्फ इस बात पर स्वाभिमान और अभिमान से लबालब हैं कि उनके अंतरिक्षयान किस-किस ग्रह तक पहुंच रहे हैं, बल्कि भारत जैसे देश तो इस बात को लेकर भी अभिमान करते हैं कि अमरीका की एक अंतरिक्ष यात्री एक भारतवंशी महिला भी थी। अंतरिक्ष तक पहुंचना धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को चुनौती देने वाला एक ऐसा काम है जो राष्ट्रीय गौरव का समझा जाता है, फिर चाहे उसका सीधा-सीधा कोई इस्तेमाल धरती के लिए न हो।
वैसे तो विज्ञान को लेकर दिए गए बहुत किस्म के खर्च को लेकर यह बात कही जा सकती है कि उसका कोई तुरंत उपयोग नहीं है, लेकिन कब दुनिया के किस शोधकार्य का इस्तेमाल कहां पर होने लगे, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है। वैज्ञानिक कुछ खोजते रहते हैं, और उनके हाथ कुछ और चीजें लग जाती हैं। इसलिए अंतरिक्ष अभियानों को हम फिजूलखर्ची तो नहीं मानेंगे, लेकिन फिर भी ग्रेटा थनबर्ग की बात से एक दूसरी चीज जो निकलती है, उस पर गौर करने की जरूरत है। अंतरिक्ष के किस ग्रह पर पानी है, किस पर हवा है, किस पर किसी किस्म के जीवन की संभावना है, यह खोज करते-करते वैज्ञानिक लगातार एक ऐसी संभावना भी खोज रहे हैं कि वक्त-जरूरत इंसानों को किस ग्रह पर बसाया जा सकता है। ऐसी जरूरत इसलिए भी लग रही है कि अमरीकी फिल्म, द डे ऑफ्टर, की तरह अगर दुनिया परमाणु युद्ध का शिकार हो जाती है, तो उसके बाद जीवन कैसा बचेगा, बचेगा या नहीं बचेगा, और बचा हुआ जीवन किस तरह की जटिलताओं से भर जाएगा, इसका आज कोई अंदाज नहीं है। इसलिए अगर मानव प्रजाति को बचाना है, तो इसके लिए दुनिया में कोई दूसरा ग्रह भी तलाशना फिजूल का काम नहीं है जहां कि इंसान जिंदा रह सकें। यह एक अलग बात है कि एक तरफ जो अमीर देश अंतरिक्ष में ऐसे लंबे-लंबे सफर कर रहे हैं, उन पर खासा खर्च कर रहे हैं, वे देश आज धरती को बचाने के लिए उतनी मेहनत नहीं कर रहे। अभी नए अमरीकी राष्ट्रपति के आने के पहले पिछले चार बरस तक तो डोनल्ड ट्रंप ने अमरीका को जलवायु के पेरिस समझौते से ही बाहर कर लिया था। अपनी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों को निभाने से इंकार कर दिया था। और आज भी मंगल मिशन वाला यह अमरीका दुनिया में सामानों की सबसे अधिक फिजूलखर्ची करने वाला देश है। इसलिए ग्रेटा थनबर्ग की बात के इस पहलू में तो दम है कि इंसान, और खासकर अमीर देश, इस धरती को बचाने की आसान और मुमकिन कोशिशों पर तो गौर नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे इस धरती के विकल्प को खोजने की कोशिश में बरसों की दूरी पर बसे हुए ग्रहों पर हवा-पानी तलाश रहे हैं। ऐसा करना किसी कोरोना के हाथों धरती के तमाम जीवन के खत्म होने के मौके पर तो काम का साबित हो सकता है कि जब थोड़े से लोग ही धरती पर बचने हों, तो कुछ जोड़ों को दूसरे ग्रह पर भेजकर इस नस्ल को जिंदा रखा जाए। लेकिन आज अगर पर्यावरण और जलवायु की फिक्र करके इस धरती को पूरे का पूरा बचाना मुमकिन है, तो उसकी तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा।
लेकिन दूसरे ग्रहों तक का सफर और वहां पर बसाहट के पीछे अमीर देशों की नीयत महज इतने तंगनजरिए की नहीं हो सकती कि वह इंसानी नस्ल को जिंदा रखने के लिए हो। जाहिर तौर पर दूसरे ग्रहों की यह दौड़ उन ग्रहों पर भी अपने पहले हक या अपने एकाधिकार को कायम करने की एक बेताबी भी है कि दूसरे देश जब वहां पहुंचें तो पहले पहुंचे हुए देश उनसे लंैडिंग की फीस ले सकें। ग्रेटा थनबर्ग की कही हुई बात पर सोचने की जरूरत है कि आज जब इस धरती पर बदहाली और तंगहाली का यह आलम है, तब क्या दुनिया के संपन्न देशों को अपने सामाजिक सरोकार साबित करते हुए इस धरती को ही बचाने की बेहतर कोशिश नहीं करनी चाहिए? इंसानों ने खूबसूरत कुदरत वाली इस संपन्न धरती को पिछले कुछ हजार सालों में ही इस हद तक बर्बाद कर दिया है कि दूसरे किसी ग्रह के प्राणी यहां आकर बसने की सोचेंगे भी नहीं। जब लोगों की बातों में विरोधाभास रहता है तभी उनकी बातों की खामियों की तरफ ध्यान जाता है। आज इस धरती के जीवन को खत्म करने वाले अमीर देश जब दूसरे किसी ग्रह पर जीवन तलाशने की महंगी मुहिम चलाते हैं, तो उनकी नीयत का विरोधाभास खुलकर दिखता है। ग्रेटा थनबर्ग के ताजा बयान से लोगों को ऐसे विरोधाभास के बारे में सोचने का मौका मिल रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के पिछले आम चुनाव में न सिर्फ एनडीए गठबंधन को, बल्कि उसकी मुखिया भाजपा को अपने दम पर इतनी सीटें मिल गई थीं कि सरकार बनाने के लिए किसी बाहरी सांसद की जरूरत नहीं थी, वरना उस वक्त भी देश भर की पार्टियों से सांसद कूद-कूदकर भाजपा में चले गए होते। आज जब बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं तो शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो जब सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लोग भाजपा में न जा रहे हों। यह सिलसिला ऐसे दूसरे राज्यों में भी चलेगा जहां पर विधानसभा के चुनाव होने हैं। एक-एक करके देश के कई राज्यों में गैरभाजपाई सरकारें पलट दी गई हैं, और अब तो धीरे-धीरे बदनाम ईवीएम की चर्चा भी ठंडी पड़ गई है कि उसकी वजह से भाजपा की सरकार बन रही है। अब तो लोग वोट किसी भी पार्टी के निशान पर डालें, उसके विधायक, और सांसद भी, जाते भाजपा में ही हैं। भारतीय लोकतंत्र में भाजपा एकध्रुवीय ताकत बन गई है, और यह ताकत बढ़ती ही चल रही है।
लेकिन हम अपनी पहले की बात को यहां दुहराना चाहते हैं जिसका भाजपा की ताकत से कोई लेना-देना नहीं है। हमारी बात मोटेतौर पर लोकतंत्र में दलबदल की है, और खासकर चुनावी दलबदल की है। संसद और विधानसभाओं में दलबदल को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था जिसके हिसाब से दलबदल करने वाले की सदन की सदस्यता खत्म हो जाती थी। उससे पार पाने के लिए अब किसी पार्टी में एक तिहाई सदस्यों को अलग करके नई पार्टी बना दी जाती है, और दलबदल कानून से बच लिया जाता है। दूसरा तरीका यह होता है कि चुनाव के ठीक पहले किसी पार्टी के सांसदों और विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें दूसरी पार्टी अपने निशान पर चुनाव लड़वा लेती है, और पूरी जिंदगी किसी पार्टी को चूसकर चलने वाले लोग रातों-रात अगले पांच बरस चूसने के लिए एक नई देह ढूंढ लेते हैं।
हम बरसों से इस बारे में लिखते आ रहे हैं कि किसी एक पार्टी के निशान पर जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने वाले लोग अगर उस पार्टी से इस्तीफा देते हैं, या सदन से इस्तीफा देते हैं, तो उनके पांच बरस तक किसी भी पार्टी या निशान से चुनाव लडऩे पर रोक लगनी चाहिए। लोग अगर अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में इस्तीफा देते हैं तो अगले चुनाव में भी उनके चुनाव लडऩे पर रोक लगनी चाहिए। कानून के बेहतर जानकार ऐसी रोक को लोगों के बुनियादी हक के खिलाफ मान सकते हैं, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि लोगों के बुनियादी हकों से परे लोकतंत्र की एक बुनियादी जरूरत भी होती है। और अगर संसद या विधानसभाओं को नीलामी की किसी मंडी का चबूतरा बना दिया जाए, तो यह बात लोकतंत्र के बुनियादी हक के खिलाफ है। हिन्दुस्तान में राजनीति का इससे घटिया और कोई दौर कभी नहीं आया जब खरीदने और बेचने के धंधे में शर्म पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। अब लोग वोट डालते हुए चाहे जो चेहरा, या चाहे जो निशान देखकर वोट डालते हों, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है। कोई लोकतंत्र भला ऐसे कैसे चल सकता है कि जनता किसी को भी वोट दे, और सरकार किसी और की भी बनती चले, मंझधार में डूबती चले, और साथ-साथ जनमत को भी गहरे डुबाती चले? यह सिलसिला जनता के मन में संसदीय राजनीति, नेताओं, और पार्टियों के बीच एक ऐसी हिकारत भर चुका है कि जिसकी अनदेखी आज मुश्किल नहीं है क्योंकि राजनीति संवेदनाशून्य हो गई है, राजनीति के कोई मूल्य नहीं रह गए हैं, कोई नैतिकता नहीं रह गई है।
अब सवाल यह उठता है कि कानून बनाने का हक संसद के भीतर जिस बहुमत का रहता है, आज का वह बहुमत बहुत सक्रियता से जनमत को खारिज करने के शगल में लगा हुआ है। आज देश में सबसे अधिक दलबदल भाजपा के करवाए हो रहे हैं, सबसे अधिक सरकारें भाजपा गिरवा रही है, दूसरी पार्टियों से लोगों को लाकर अपनी टिकट पर संसद और विधानसभा में भाजपा पहुंचा रही है, तो ऐसे में दलबदल के खिलाफ नया कानून भाजपा की लीडरशिप वाला बाहुबल भला क्यों बनाएगा? अगर दलबदलुओं के चुनाव लडऩे पर अपात्रता का कोई कानून बनेगा तो उससे सबसे बड़ा नुकसान तो भाजपा की रणनीति को ही होगा। इसलिए हमारी लिखी हुई यह बात बिना संभावनाओं वाली एक नैतिक-सैद्धांतिक बात है जिसका कोई भविष्य नहीं है। लेकिन आगे अगर वक्त बदलेगा, संसद और विधानसभाओं में शक्ति संतुलन बदलेगा, तो देश के राजनीतिक दलों पर ऐसा दबाव जरूर डालना चाहिए कि वे खरीद-फरोख्त का, आत्मा को अचानक जगाने का यह धंधा बंद करें। एक वक्त था जब हरियाणा से दलबदल के लिए शुरू हुए आयाराम-गयाराम जैसे शब्द को खत्म करने के लिए दलबदल विरोधी कानून बनाया गया था। आज उस कानून को दशकों पहले की पेनिसिलिन की तरह बेअसर कर दिया गया है, और आज का भारतीय राजनीतिक परकाया प्रवेश इस कानून की सलाखों के आरपार रात-दिन हो रहा है। जो लोग हिन्दुस्तान में लोकतंत्र चाहते हैं उन्हें चाहिए कि इस बात को कम से कम बहस में जिंदा रखें, कम से कम उन पार्टियों के बीच इसे बढ़ाएं जो कि इस धंधे में नहीं लगी हैं, और आने वाले वक्त में संभावनाएं देखकर पार्टियों को मजबूर करें कि इस धंधे के खिलाफ एक नया कानून बने। कुछ दशकों के भीतर दलबदल कानून पूरी तरह से बेअसर हो चुका है, और भारतीय चुनावी लोकतंत्र मंडी में चबूतरे पर खड़े तन और मन नीलाम कर रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले कम ही लोग इज्जत पाते हैं। यहां सरकारी से मतलब गैरकारोबारी है, ऐसे क्षेत्र जो कि सरकार से जुड़े सार्वजनिक उपक्रम हों, या कि सहकारी संस्थाएं हों। इनमें सबसे अधिक इज्जत के साथ वर्गीज कुरियन का लिया जाता है जिन्होंने गुजरात के आनंद में दूध का एक सहकारी आंदोलन खड़ा किया, और अमूल नाम का एक ब्रांड जो कि हिन्दुस्तान के सबसे भरोसेमंद ब्रांड में से एक है। इसी तरह ई श्रीधरन का नाम लिया जाता है जिन्होंने रिकॉर्ड समय में न सिर्फ दिल्ली मेट्रो शुरू की, बल्कि देश के कई और मेट्रो प्रोजेक्ट में उनका योगदान रहा। अब करीब 90 बरस की उम्र में अपने गृहराज्य केरल में बसे हुए श्रीधरन ने भागवत-प्रवचन के काम के साथ-साथ भाजपा की सदस्यता ली है और कल से वे खबरों में हैं। वे एक बड़े काबिल तकनीकी-अफसर माने जाते रहे हैं, और उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित भी किया गया था।
जिन लोगों को श्रीधरन के भाजपा में जाने से कुछ हैरानी हो रही है, उन्हें याद रखना चाहिए कि 2014 के आम चुनाव के पहले उन्होंने सार्वजनिक रूप से नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में सिफारिश की थी, और गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनके तुरंत फैसले लेने की तारीफ की थी। इसके अलावा भी उन्होंने दिल्ली सरकार से लेकर केरल सरकार तक के कई फैसलों का सार्वजनिक-विरोध किया था। अब उन्होंने न सिर्फ भाजपा की सदस्यता ली है बल्कि टिकट मिलने पर आने वाला विधानसभा चुनाव लडऩे की घोषणा भी की है।
जिन लोगों को इस उम्र में श्रीधरन के भाजपा में जाने से हैरानी हो रही है उन्हें यह भी समझना चाहिए कि किसी के वैज्ञानिक होने, इंजीनियर होने, या अर्थशास्त्री होने से उसकी सोच किसी खास राजनीतिक विचारधारा में ढले, ऐसा जरूरी नहीं होता। लोग विज्ञान पढ़ते हुए भी, पढ़ाते हुए भी धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के साथ खड़े हो जाते हैं। विज्ञान किसी की राजनीतिक सोच को प्रभावित नहीं करता। बाबरी मस्जिद को गिरवाते हुए सामने मंच पर खड़े खुशियां मनाते हुए मुरली मनोहर जोशी तो विश्वविद्यालय में साईंस के प्रोफेसर थे, लेकिन राम मंदिर के मुद्दे पर विज्ञान उन्हें छू भी नहीं गया था। देश के बाहर बसे हुए अनगिनत कामयाब हिन्दुस्तानी वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को देखें, तो उनमें से बहुत से लोग धर्मान्धता के शिकार रहते हैं, और विज्ञान की उनकी पढ़ाई उनमें कोई समझ पैदा कर सकती हो, ऐसा जरूरी नहीं रहता। इसलिए जब धर्म की राजनीति पर केन्द्रित भाजपा जाने का फैसला श्रीधरन ने लिया, तो इसमें उनकी विज्ञान और तकनीक की समझ कहीं आड़े आई हो ऐसा नहीं है। दरअसल उनसे ठीक पहले की एक दूसरी मिसाल देखें, तो मिसाइल-मैन कहे जाने वाले डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम अपनी तकनीकी कामयाबी के बावजूद विचारधारा के स्तर पर भाजपा के करीब थे, भाजपा के पसंदीदा थे, और भाजपा के बनाए हुए राष्ट्रपति थे।
आज दुनिया के सबसे आधुनिक माने जाने वाले एक देश अमरीका में बसे हुए लाखों हिन्दुस्तानी विज्ञान और तकनीक की कमाई खा रहे हैं। लेकिन उनमें से बहुतायत भाजपा के समर्थकों की है, और ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी वहां हिन्दुस्तानियों का सबसे बड़ा और मजबूत भारतवंशी संगठन है।
भाजपा में जाने की वजह से ई.श्रीधरन का मखौल उड़ाना ठीक नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के भीतर भाजपा एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल है, और धर्म-आधारित उसका राजनीतिक रूझान संविधान की सरहदों के बाहर तकनीकी रूप से तो नहीं निकला है। फिर श्रीधरन तो रिटायर होने के बाद केरल में बसे हुए भागवत-प्रवचन का काम कर ही रहे थे, और उनकी धार्मिक सोच भी उन्हें भाजपा के करीब ले जाने वाली थी। सवाल यह उठता है कि आधुनिक तकनीक के एक महान कामयाब व्यक्ति के इतने बरस तक घर पर खाली रहते हुए भी केरल में अतिसक्रिय कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को वे क्यों नहीं दिखे? ये पार्टियां भी कोशिश तो कर ही सकती थी कि वे श्रीधरन को अपने पाले में लाकर उनकी साख और शोहरत को भुना सकती थीं। लेकिन इन्होंने ऐसा नहीं किया, और भाजपा ने इस मौके का इस्तेमाल किया। कई दूसरे राज्यों में दूसरी पार्टियों के विधायकों को अपने पाले में लाने की जिस तरह की कोशिश जिन कीमतों पर भाजपा या कोई दूसरी पार्टी करती हैं, इतना तो जाहिर है कि श्रीधरन के लिए वैसी कोई कैश-कोशिश नहीं करनी पड़ी होगी।
दरअसल भाजपा को कोसने की हरकतें उस वक्त तो जायज हो सकती हैं जब दूसरी पार्टियां कोशिश करें, और उसके बाद भी भाजपा कामयाब हो जाए। आज देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी का हाल यह है कि अपनी ही पार्टी के सबसे महान और लोकप्रिय प्रतीकों, सरदार पटेल से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस तक किसी का भी वह सम्मान नहीं कर सकी, और ऐसे बड़े प्रतीकों को उसने भाजपा के इस्तेमाल के लिए फुटपाथ पर खुला छोड़ रखा था। देश के सबसे बड़े और महान वामपंथी शहीद भगत सिंह की स्मृतियों को भी धर्मनिरपेक्ष प्रतीक के रूप में कांग्रेस इस्तेमाल नहीं कर सकी, और भगत सिंह को भी संघ-भाजपा ने अपने मंचों पर टांग लिया। भाजपा की विरोधी पार्टियां भाजपा की तरह न मेहनत कर पा रही हैं, न कल्पनाशीलता दिखा पा रही हैं, और इनसे परे की अघोषित कोशिशों की हम बात नहीं करते। श्रीधरन के भाजपा में जाने का फैसला भाजपा विरोधियों के लिए चाहे जो मायने रखे, यह तो है कि राजनीतिक एक अच्छे व्यक्ति के आने से उसके कुछ बेहतर होने की संभावना बढ़ती है। जो लोग यह सोच रहे हैं कि श्रीधरन जैसे तकनीकी विशेषज्ञ और कामयाब अफसर कैसे भाजपा में चले गए, उन्हें यह समझना चाहिए कि किसी तकनीक का भाजपा की सोच से कोई टकराव नहीं होता। तकनीक की अपनी कोई सोच नहीं होती, और हाइड्रोजन बम बनाने वालों को इस बात का अहसास नहीं था कि अमरीका उसे जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराकर लाख से अधिक लोगों को मार डालेगा। तकनीक हो, या तकनीकी विशेषज्ञ हो, वे सबको बराबरी से हासिल रहते हैं, देखने की बात यह रहती है कि किसे उनका कैसा इस्तेमाल सूझता है। आज इस काम में हिन्दुस्तान में भाजपा नंबर वन है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट और उसके एक रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई खबरों से हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। अब कल की ताजा खबर यह है कि रंजन गोगोई पर एक मातहत महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोपों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की खुद होकर शुरू की गई एक जांच अब बंद कर दी गई है। यह जांच रंजन गोगोई की इस आशंका को लेकर शुरू की गई थी कि इन आरोपों के पीछे ऐसी बड़ी साजिश थी जो कि मुख्य न्यायाधीश के ओहदे के कामकाज को ठप्प करना चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने गोगोई की इस आशंका पर सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज, ए.के.पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा था जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह कहा था कि यौन शोषण के आरोपों के पीछे किसी साजिश को नकारा नहीं जा सकता। इस रिपोर्ट के आधार पर अदालत ने यह जांच अब बंद कर दी है। दूसरी तरफ रंजन गोगोई की मातहत जिस अदालती कर्मचारी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया था उसे जनवरी 2020 में ही उसके पद पर बहाल कर दिया गया था।
अब सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले से एक नया सवाल उठ खड़ा होता है। पहले भी रंजन गोगोई के खिलाफ आरोप लगने से लेकर अब तक इस मामले में लाजवाब सवाल लगते आ रहे हैं। जिस पर यौन शोषण के आरोप लगे, वह खुद मामले में जज बन बैठा। इसके बाद की अदालती कार्रवाई पर देश के तमाम लोगों को संदेह रहा और उसकी साख को शून्य माना गया। फिर जस्टिस पटनायक ने एक सदस्यीय जांच की और बिना किसी नतीजे के ‘आशंका को नकारा नहीं जा सकता’ पर बात खत्म कर दी, उसके साथ ही साजिश की आशंका और आरोप की जांच खत्म हो गई।
सवाल यह उठता है कि एक महिला के लगाए गए ऐसे आरोपों के बाद या तो किसी को सजा मिलनी थी, और अगर उसके आरोप सही नहीं थे, तो उसे नौकरी पर बहाली के बजाय खुद सजा मिलनी थी। लेकिन ये दोनों ही बातें नहीं हुईं। आरोपों से घिरे रंजन गोगोई ने जो आशंका जाहिर की, उसकी यौन शोषण कानून के मुताबिक तो कोई कीमत होनी नहीं चाहिए थी, लेकिन फिर भी उस पर इतनी ऊंची एक जांच कमेटी बैठा दी गई, और बेनतीजा जांच के बाद उस मामले को बंद कर दिया गया। तो सवाल यह उठता है कि इतने गंभीर आरोपों के बाद इतने बरस की कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने किसे इंसाफ दिया? उसने क्या कार्रवाई की? किसे सजा मिली?
यह पूरा मामला पहले दिन से ही बहुत ही खराब तरीके से चलते आ रहा है। सुप्रीम कोर्ट में देश के कानून और अदालत की परंपरा दोनों के खिलाफ जाकर रंजन गोगोई की अगुवाई में जजों की बेंच ने गोगोई पर यौन शोषण के आरोप सुने, इसे गलत करार देने वाले बड़े-बड़े वकीलों की एक न सुनी, और इस दलदल से रंजन गोगोई के कई फैसलों से गुजरते हुए राज्यसभा तक पहुंचने का रास्ता भी बनाया। यह एक मामला इस देश में ताकतवर लोगों और कमजोर-गरीबों के कानूनी हकों के बीच एक खाई खोद गया, और सुप्रीम कोर्ट की साख को भी चौपट कर गया। इससे एक यह नजीर भी कायम हुई कि यौन शोषण के आरोप लगने पर कोई भी व्यक्ति अपने काम को अस्थिर करने, ठप्प करने, की साजिश का आरोप लगा सकते हैं। जब किसी मंत्री या सांसद पर, किसी बड़े अफसर या अखबार के संपादक पर यौन शोषण के आरोप लगते हैं, तो वे भी अब यह आड़ ले सकते हैं कि उनके काम को ठप्प करने की साजिश के तहत ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं। अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ के संपादक रहते हुए एम.जे.अकबर पर दर्जन या दर्जनों महिलाओं ने यौन शोषण के जो आरोप लगाए हैं, उनसे बचाव के लिए अकबर का भी यह तर्क हो सकता है कि टेलीग्राफ अखबार को ठप्प करने के लिए उन पर ऐसे आरोप लगाए गए। ऐसे तर्क पर सुप्रीम कोर्ट का अब क्या रूख रहेगा? क्या देश के कानून में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का काम किसी एक दुकानदार के लिए उसकी दुकान के काम से अधिक महत्वपूर्ण है? किसी संपादक के लिए उसके अखबार के काम से अधिक महत्वपूर्ण है? कानून तो किसी एक ओहदे पर बैठे इंसान को दूसरे नागरिक के मुकाबले अधिक महत्व का ऐसा कोई दर्जा देता नहीं है, फिर ऐसे में रंजन गोगोई के बचाव की तमाम तरकीबों का इस्तेमाल यौन शोषण के दूसरे मामलों में दूसरे लोग अपने बचाव में क्यों नहीं करेंगे? सुप्रीम कोर्ट ने अपने मुखिया को यौन शोषण के आरोपों से बचाने के लिए जो-जो किया दिखता है, वह न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि अदालती साख को खत्म करने वाला भी है।
साख एक ऐसा शब्द है जिसका कोई ठोस पैमाना नहीं हो सकता। हमें सुप्रीम कोर्ट की साख जिस तरह सूझती है, हो सकता है आज खुद सुप्रीम कोर्ट को अपनी साख की उस तरह की फिक्र न रह गई हो। इस मामले में शुरू से लेकर अब तक सुप्रीम कोर्ट की हर कार्रवाई से हमें हिन्दुस्तानी न्यायपालिका की साख चौपट होते दिखी है, लेकिन हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने काम से अपना कोई नुकसान होते न दिख रहा हो। इसलिए हो सकता है कि आज हम सुप्रीम कोर्ट की साख की फिक्र उसके जजों के मुकाबले अधिक कर रहे हैं, और उसके जजों को हमारी इस फिक्र पर आपत्ति भी हो सकती है। ऐसा नहीं है कि किसी देश में सुप्रीम कोर्ट ही वहां के आखिरी फैसले लिखता है। किसी लोकतंत्र में अदालती सोच और कार्रवाई पर भी इतिहास दर्ज होता है। हिन्दुस्तान में रंजन गोगोई से जुड़े इस पूरे लंबे सिलसिले, यौन शोषण के आरोपों से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक का सफर इतिहास में बहुत ही रद्दी साख की शक्ल में दर्ज होना तय है। जब देश की सरकार और देश की अदालत, और संसद में विशाल बाहुबल का रूख ऐसे विवादों में बिल्कुल एक हो जाए, तो बाकी देश कर भी क्या सकता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन की खबर है कि वहां हिन्दुस्तानी उद्योगपति टाटा की एक कंपनी लैंड रोवर जगुआर ने घोषणा की है कि वह अब सिर्फ इलेक्ट्रिक कारें बनाएगी। अगले बारह महीनों में ऐसी कार सडक़ों पर आ जाएगी, और पेट्रोल-डीजल की कारें बनाना कंपनी बंद कर देगी। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान की राजधानी नई दिल्ली में राज्य की केजरीवाल सरकार ने घोषणा की है कि वह दिल्ली का प्रदूषण घटाने के लिए वहां बिजली, यानी बैटरी, से चलने वाली गाडिय़ों को बढ़ावा देगी। राज्य सरकार इन गाडिय़ों के रजिस्ट्रेशन में लाखों की रियायत भी दे रही है, और बैटरी-ऑटोरिक्शा पर अनुदान भी। राज्य सरकार ने 2024 तक राजधानी के एक चौथाई वाहनों के बैटरी से चलने वाले होने का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य भी सामने रखा है। केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक बहुत से लोग अपने लिए बैटरी-कारें इस्तेमाल करने लगे हैं।
यह वक्त बाकी विकसित दुनिया के साथ-साथ हिन्दुस्तान जैसे देश के लिए भी जागने और सम्हलने का है कि कैसे यहां शहरों में बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों या दुपहियों की चार्जिंग का एक ढांचा तैयार हो सकता है ताकि लोग इनके इस्तेमाल की तरफ बढ़ें। गाडिय़ों में अधिकतर ऐसी रहती हैं जो कि एक बार चार्ज की गई बैटरी से पूरा दिन निकाल सकती हैं। लेकिन लोग लंबे सफर पर जाने पर भी गाडिय़ां तो बदल नहीं सकते, इसलिए लोगों की गाडिय़ों के हिसाब से शहरों के साथ-साथ प्रमुख हाईवे पर भी चार्जिंग का इंतजाम होने पर ही इनका इस्तेमाल बढ़ेगा।
इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सार्वजनिक जगहों पर पेट्रोल-डीजल पंपों की तरह बिजली के चार्जिंग पॉईंट काफी संख्या में लगाने पड़ेंगे ताकि लोग बेधडक़ इन्हें लेकर निकल सकें। केन्द्र और राज्य सरकारों के बड़ी कंपनियों और स्कूल-कॉलेज जैसे भीड़ भरे संस्थानों को चार्जिंग के इंतजाम के लिए टैक्स में छूट या अनुदान देने की योजना भी बनानी चाहिए ताकि लोग अपने कर्मचारियों या छात्र-छात्राओं को चार्जिंग पॉईंट दे सकें। इसे सरकारी रियायत या अनुदान के बजाय पर्यावरण को बचाने और सुधारने के खर्च के रूप में देखना चाहिए।
लेकिन पर्यावरण को बचाना एक बड़ा जटिल मुद्दा है जिसका अतिसरलीकरण करके उसे नहीं समझा जा सकता। बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों में दो किस्म के प्रदूषण बढ़ेंगे, इनमें से एक तो बिजलीघरों का है, और दूसरा हर कुछ बरस बाद बेकार हो जाने वाली बैटरियों का। जिस तरह दुनिया के कई देशों में गाडिय़ों के टायर इस्तेमाल के बाद पहाड़ की तरह ढेर हो रहे हैं, उसी तरह एक नौबत बैटरियों को लेकर भी आ सकती है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों को बैटरी गाडिय़ों की बैटरियों की जिंदगी बढ़ाने, और उन्हें ठिकाने लगाने के बारे में भी साथ-साथ सोचना होगा।
हम हिन्दुस्तान के मामूली शहरों में भी अब बड़ी संख्या में बैटरी-ऑटोरिक्शा देख रहे हैं। ये गाडिय़ां दिन में अधिक से अधिक घंटे चलती हैं, और अधिक से अधिक किलोमीटर तय करती हैं। जब डीजल के बजाय ये बिजली-बैटरी से चलकर बिना धुएं काम करती हैं, तो शहर की हवा में जहर बढऩा थम जाता है। इसलिए ऐसी गाडिय़ों को बढ़ावा देने वाले बिजली के ढांचे को शहरी विकास के लिए जरूरी मानना चाहिए, और स्थानीय संस्थाओं को भी यह काम आगे बढ़ाना चाहिए। केन्द्र और राज्य के स्तर पर लंबे सर्वे के बाद ऐसी योजना बनानी चाहिए कि सभी तरह की बैटरी गाडिय़ां दिन और रात में जिन इलाकों में कई घंटे खड़ी रहती हैं, और उन जगहों पर चार्जिंग का कैसा इंतजाम हो सकता है। इस काम में हजारों लोगों को एक नया रोजगार मिल सकता है। और ऐसे चार्जिंग स्टेशन कारोबारियों के लिए एक नया व्यापार भी हो सकते हैं जहां वे मामूली लागत के बाद कुछ कर्मचारियों की मदद से पेट्रोल पंप की तरह बिजली पंप चला सकें। कुल मिलाकर बैटरी-गाडिय़ों के लिए सहूलियतों से परे टैक्स में छूट, बिजली के रेट में छूट, बैटरियों में रियायत का इंतजाम करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग आने वाले बरसों में पेट्रोल-डीजल से बिजली की तरफ मुड़ सकें। आज जितनी जरूरत लोगों में जागरूकता की है, उससे कहीं अधिक जरूरत सरकारों में कल्पनाशीलता की है कि शहरों को छांटकर उनमें ढांचा कैसे विकसित किया जाए, और जब पॉवरग्रिड में बिजली का इस्तेमाल कम रहता है, उन घंटों में गाडिय़ों की बैटरी री-चार्ज करने का इंतजाम कैसे हो सकता है। टेक्नालॉजी तो मौजूद हैं, उसके कल्पनाशील उपयोग की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी कुछ घंटे पहले मध्यप्रदेश के सीधी में एक मुसाफिर बस नहर में गिरी, और 42 लोग मारे गए। मरने वालों में अधिकतर छात्र थे जो कि क्रिकेट मैच और रेलवे की परीक्षा की वजह से सफर कर रहे थे। हिन्दुस्तान में हर कुछ दिनों में किसी न किसी प्रदेश में मुसाफिर बसों का हादसा सुनाई पड़ता है, या ट्रकों पर लादकर ले जाए जा रहे मजदूरों की मौत का। सवाल यह है कि जब गाडिय़ां बेहतर बन रही हैं, नई टेक्नालॉजी के चलते गाडिय़ों पर काबू बेहतर होना चाहिए, जब सडक़ें पहले के मुकाबले बेहतर बन चुकी हैं, तब फिर ऐसे हादसों से क्या साबित होता है?
हिन्दुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में देखें तो मुसाफिर बसों से लेकर ट्रकों तक, और निजी गाडिय़ों से लेकर सडक़ों पर चलने वाली कारोबारी मशीनों तक से भारी भ्रष्टाचार जुड़ा हुआ है। तकरीबन हर प्रदेश में इन गाडिय़ों पर काबू करने वाले आरटीओ विभाग और पुलिस के ट्रैफिक विभाग को सत्ता अपनी उगाही का गिरोह बनाकर चलती है, नतीजा यह होता है कि जिन गाडिय़ों से दर्जनों मुसाफिरों की जिंदगी जुड़ी रहती है उन गाडिय़ों की मनमानी रफ्तार, और ड्राइवरों के नशे जैसे तमाम जुर्म को इन दो विभागों का अमला अनदेखा करते चलता है। हिन्दुस्तान के सडक़ हादसों में अधिकतर मौतों का जिम्मा ऐसी ही कारोबारी गाडिय़ों का होता है जिन्हें सरकारी भ्रष्टाचार की वजह से नाजायज हिफाजत हासिल होती है।
अब नौबत पहले के मुकाबले अधिक खतरनाक इसलिए होती जा रही है कि गाडिय़ां अधिक तेज रफ्तार बन रही हैं, और अधिक तेज रफ्तार से चल भी रही हैं। सडक़ें चौड़ी होती जा रही हैं, बीच के गांव-कस्बों की भीड़ के ऊपर से पुल निकल जाते हैं, और रफ्तार कम करने की जरूरत नहीं पड़ती। यह देखा हुआ है कि कारोबारी गाडिय़ों के मालिक ड्राइवरों को जायज घंटों से बहुत अधिक वक्त तक जोते रखते हैं, और ड्राइवरों की तेज रफ्तार, लापरवाही, यहां तक कि उनका नशा करना भी अनदेखा करते हैं। पुलिस और आरटीओ भी महीना पाकर इस सबसे संगठित सडक़-अपराध को अनदेखा करते हैं।
इन दो विभागों का भ्रष्टाचार ऐसा भी नहीं है कि वह सरकार की काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा हो, सरकार की मोटी काली कमाई को बड़े कंस्ट्रक्शन, बड़ी सप्लाई, बड़ी खरीदी, बड़ी बिक्री और खदानों जैसे धंधों से होती है। ट्रैफिक और आरटीओ इनके मुकाबले छोटा भ्रष्टाचार हैं, लेकिन ये इतना संगठित हैं कि किसी भी प्रदेश में किसी भी पार्टी की सरकार में इसके कम होने की गुंजाइश दिखती नहीं है। नतीजा यह होता है कि सडक़ों पर बेकसूर लोग बड़ी संख्या में मारे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में हम देखते हैं कि कारों के सीट बेल्ट, दुपहियों के हेलमेट, गाड़ी चलाते मोबाइल पर बातचीत, नशे में ड्राइविंग, ओवरलोड से लेकर बसों की खूनी रफ्तार तक किसी पर भी कार्रवाई अवैध उगाही तक सीमित रहती है, उसकी उगाही का बहुत छोटा हिस्सा ही सरकारी खजाने में जाता है, और बाकी तमाम वसूली नेताओं और अफसरों में बंट जाती है। इसी वजह से कोई नियम सडक़ों पर लागू नहीं किए जाते क्योंकि इन विभागों का अमला तो सीमित है, और वह या तो नियम लागू करा ले, या अवैध वसूली कर ले।
किसी प्रदेश में अगर जनता में जागरूकता हो, तो वे अंधाधुंध रफ्तार वाली गाडिय़ों की रिकॉर्डिंग करके उसके खिलाफ अदालत तक जा सकते हैं, और अगर वहां के जज इन विभागों से उपकृत न हो रहे हों, तो इनके खिलाफ कोई कार्रवाई भी हो सकती है। सडक़ों पर खूनी रफ्तार या नशे की लापरवाही, या ओवरलोड गाडिय़ों के खिलाफ कार्रवाई की मांग जनता का हक है क्योंकि यह लापरवाही बेकसूर लोगों के लिए भी जानलेवा होती है। अब जब तक जनता के बीच से आवाज नहीं उठेगी, और अदालत तक नहीं पहुंचेगी, तब तक न सिर्फ यह भ्रष्टाचार जारी रहेगा, बल्कि इसी तरह मौतें भी जारी रहेंगी। राजनीतिक दलों से लेकर अफसरों तक किसी को ट्रांसपोर्ट और ट्रैफिक से काली कमाई नहीं खटकती है। यहां तक कि विपक्षी दल को भी जरूरत के वक्त इन्हीं विभागों से आमसभा में भीड़ लाने मुफ्त में गाडिय़ां मिल जाती हैं। लेकिन जनता को अपने मामूली लाइसेंस बनवाने के लिए भी रिश्वत देनी ही पड़ती है। हमारे कम लिखे को अधिक बांचें, और लोगों की जिंदगी की इस किस्म की बिक्री रोकने के लिए अदालत जाने लायक सुबूत जुटाएं, वरना हमारे-आपके बेकसूर बच्चे भी किसी दिन इसी तरह सडक़ों पर मारे जाएंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा देश की न्यायपालिका की चौपट साख को लेकर किए हमले और मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के रिटायर होते ही राज्यसभा में मनोनयन को लेकर उठाए सवालों की गर्द अभी बैठी भी नहीं है कि रंजन गोगोई ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उसका जवाब दिया। उन्होंने मोदी सरकार द्वारा उन्हें राज्यसभा भेजने के बारे में कहा- अगर मुझे सौदा ही करना होता तो क्या मैं एक राज्यसभा सीट से मानता? राज्यसभा अच्छा सौदा नहीं है। यदि सौदेबाजी भी करनी होती तो किसी बड़ी चीज की मांग की जाती, न कि राज्यसभा की। उन्होंने कहा कि वे पहले ही यह लिखकर दे चुके हैं कि अपने राज्यसभा-कार्यकाल के दौरान वेतन नहीं लेंगे।
रंजन गोगोई से पूछा गया था कि क्या वे महुआ मोइत्रा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे क्योंकि उन्होंने कहा था कि गोगोई ने खुद पर लगे यौन उत्पीडऩ के आरोपों का फैसला करके न्यायपालिका को बदनाम कर दिया, इस पर गोगोई का कहना था- अगर आप अदालत जाते हैं तो आपको इंसाफ नहीं मिलेगा।
हिन्दुस्तान के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई की ये दोनों बातें सदमा पहुंचाने वाली हैं, और लोकतंत्र के लिए भयानक अपमानजनक भी हैं। देश की संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, को वे यह कहते हुए नीची नजर से ही देखते हैं कि अगर सौदा होता तो सिर्फ राज्यसभा सीट पर बात नहीं बनती, वे सिर्फ एक राज्यसभा सीट से क्यों मानते, सौदेबाजी होती तो किसी बड़ी चीज की मांग की जाती, न कि राज्यसभा सीट की। भारत के लोकतंत्र में सबसे ऊंचे सदन की सदस्यता को इस कदर नाकाफी करार देना लोकतंत्र के प्रति एक अपमान की बात है। इसी राज्यसभा सदस्यता से लोगों को ढेर सारी सहूलियतों के अलावा ऐसा विशेषाधिकार भी मिलता है जो उन्हें देश के बाकी नागरिकों के मुकाबले अधिक अधिकार देता है। यह भी अगर रंजन गोगोई को काफी नहीं लग रहा है, तो लोकतंत्र के लिए उनके मन में सम्मान नहीं है, हिकारत है। लेकिन बात यही पर नहीं रूकी, उन्होंने जिस तरह अदालत जाने के बारे में कहा कि अदालत जाने पर इंसाफ नहीं मिलता, यह बात भी उस संस्थान के लिए भारी बेइज्जती की है जहां से रंजन गोगोई ने बरसों तक रोटी और घी-मक्खन कमाया है। इसी संस्थान के विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वे मातहत कर्मचारी के यौन शोषण के आरोपों पर रियायत पाते रहे, और पूरी दुनिया ऐसी कोशिशों को धिक्कार रही थी।
इसी जगह पर दो-तीन दिन पहले ही हमने यह लिखा है कि अफसरों और जजों के रिटायर होने के बाद उन्हें किसी किस्म का पुनर्वास नहीं मिलना चाहिए, और रंजन गोगोई की मिसाल उसमें भी दी थी कि सरकार को पसंद आने वाले लगातार कई फैसलों के बाद राज्यसभा की सदस्यता पाना उनकी खुद की नजर में कितनी ही सच्ची बात हो, जनता की नजर में यह एक बहुत बड़ा तोहफा है। लोकतंत्र की इज्जत के लिए और न्यायपालिका की साख के लिए सस्ते या महंगे तोहफों का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। हिन्दुस्तान के ही बहुत से ऐसे जज रहे हैं जिन्होंने सरकार से अपनी दूरी बनाए रखी है, और जो किसी पुनर्वास के फेर में सरकार को खुश करने में नहीं लगे रहे।
वैसे तो आज देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अधिक फिक्र करना देश से गद्दारी में गिना जा रहा है, फिर भी जब कभी भारतीय संसद का इतिहास दर्ज होगा, उसमें यह अच्छी तरह दर्ज होगा कि देश का एक मुख्य न्यायाधीश देश के सर्वोच्च सदन को कितना सस्ता सामान समझते रहा है। अपने पुराने गलत फैसलों, और गलत चाल-चलन का बचाव करते हुए लोग किस तरह आगे और गलत काम करते चलते हैं, यह मिसाल देश के लोगों को भूलना नहीं चाहिए।
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आज प्रेम का त्यौहार वेलेंटाइन डे है, और इसके लिए प्रेमी दिलों ने फूलों और तोहफों की तैयारी कर रखी है, दूसरी तरफ प्रेम से नफरत करने वालों ने प्रेमियों को मारने के लिए लाठियों को तेल पिला रखा है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में प्रशासन और पुलिस गुंडों को रोकने और जेल भेजने के बजाय बाग-बगीचों से लडक़े-लड़कियों को, दोस्तों और प्रेमी जोड़ों को बाहर रखने के लिए हथियार लेकर जवान तैनात कर रखेंगे। नतीजा यह है कि गुंडागर्दी रोकने के बजाय, नफरत और हिंसा रोकने के बजाय, सरकार की पूरी ताकत प्रेम को रोकने में झोंक दी जाएगी।
इस राज्य में कुछ बरस पहले, उस वक्त बापू कहलाने वाले, और अब आसाराम रह गए एक आदमी ने सरकार को सलाह दी थी कि वेलेंटाइन डे को मनाना बंद करके 14 फरवरी के इस अंग्रेजी तारीख वाले त्यौहार के दिन मातृ-पितृ दिवस मनाया जाए। चूंकि उस वक्त आसाराम, बापू भी कहलाता था इसलिए उस वक्त की भाजपा सरकार ने उसके पांव छूते हुए वह राय मान ली थी, और सरकारी स्तर पर, सरकारी खर्च पर, स्कूलों में यह नए मुखौटे वाला त्यौहार शुरू हो गया था। यह फेरबदल करते हुए सरकार ने किसी भी समाजशास्त्री या मनोवैज्ञानिक से यह सलाह नहीं ली थी कि नौजवान पीढ़ी को, लडक़े-लड़कियों को अगर स्वाभाविक प्रेम से रोका जाएगा, तो उनके मानसिक विकास पर क्या फर्क पड़ेगा।
यह देश इसी तरह के धर्मान्ध पाखंडियों की राय पर अपनी रीति-नीति बदलते रहता है, और यही वजह है कि नौजवान पीढ़ी से लेकर बच्चों तक को अंतहीन बलात्कारों का शिकार होना पड़ता है, कुंठाओं में जीना पड़ता है, और अपनी स्वाभाविक संभावनाओं से कोसों पीछे रहकर मन मारकर दूसरे सभ्य देशों को हसरत से देखना पड़ता है।
इस देश के इतिहास में इस किस्म की इतनी बड़ी मूर्खता कभी नहीं हुई थी कि नौजवान लडक़े-लड़कियों को प्रेम से रोका जाए। सैकड़ों बरस पहले का संस्कृत साहित्य प्रेम की कहानियों से, प्रेम की बातों से ऐसा लबालब है कि उसमें से मादक रस टपकते ही रहता है। एक तरफ तो अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति, और अपनी संस्कृत भाषा की रक्षा के लिए भारतीय संस्कृति के ठेकेदार लाठियां लेकर चौबीसों घंटे तैनात रहते हैं, और दूसरी तरफ अपने ही देश के सांस्कृतिक इतिहास में प्रेम की जो लंबी परंपरा रही है, कृष्ण के गोपियों के साथ रास की जो कविताएं, जो तस्वीरें सैकड़ों बरस से चली आ रही हैं, उन सबको अनदेखा करके प्रेम को कुचलना भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म साबित किया जा रहा है। बंगाल से लेकर आज के बांग्लादेश तक जिस तरह प्रेम में भीगा हुआ वसंतोत्स्व मनाया जाता है, और जिस तरह भारत के इतिहास में प्रेम और सेक्स के पर्व, मदनोत्सव को मनाने की परंपरा पश्चिम के वेलेंटाइन डे से भी बहुत पुरानी है, उसे याद रखना चाहिए।
नौजवान दिलों की भावनाओं को कुचलकर उससे उनके मां-बाप के लिए सम्मान का प्रतीक चिन्ह नहीं गढ़ा जा सकता। इंसान की जिंदगी में मां-बाप की जरूरत भी होती है, बच्चों की जरूरत भी होती है, और प्रेम या/और सेक्स की जरूरत भी होती है। इनमें से कोई भी जरूरत एक-दूसरे का विकल्प नहीं होती, जिस तरह जिंदगी मौत का विकल्प नहीं होती, मौत जिंदगी का विकल्प नहीं होती, भजन भोजन का विकल्प नहीं होता, और भोजन भजन का विकल्प नहीं होता। जिंदगी में हर बात की अलग-अलग जगह और जरूरत होती हैं। इनको एक-दूसरे से गड्डमड्ड करके कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। जिस आसाराम ने वेलेंटाइन डे के खिलाफ, नौजवानों के प्रेम के खिलाफ बकवास की थी, वही आसाराम मन में कैसी हिंसक भावनाएं रखता था, यह उसके बलात्कार की शिकार नाबालिग बच्ची के बयान में खुलकर सामने आया है। प्रेम के ऐसे दिनों पर होने वाली गुंडागर्दी को भी खत्म करना चाहिए जो कि हिन्दू धर्म, हिन्दुत्व, और भारतीय संस्कृति, इन सबको बदनाम करती है। नौजवान अगर प्रेम नहीं कर पाएंगे, तो कुंठा और भड़ास में वे हिंसा की तरफ बढ़ेंगे। मां-बाप की इज्जत करने के लिए प्रेमी दिलों की इज्जत का कत्ल जरूरी नहीं है। और जहां तक एक लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी की बात है, तो किसी भी दिन बाग-बगीचे में, तालाब के किनारे जाकर बैठने वाले प्रेमियों को रोकने के बजाय सरकार को अपनी बंदूकें उन गुंडे-मवालियों पर ताननी चाहिए जो कि धर्म और सांस्कृतिक इतिहास का नाम लेकर अपनी दुकानदारी चलाते हैं, और हिंसा करते हैं। सरकार को तो यह खुली मुनादी करनी चाहिए कि सार्वजनिक जगहों पर शिष्टता की सीमा में मिलने वाले सारे लोगों को सुरक्षा दी जाएगी। बलात्कारी आसाराम के भक्त और अनुयायी उसके जुर्म, उसके करतूत के बावजूद अपने परिवार और बच्चों को लेकर आसाराम के प्रति आस्था का सार्वजनिक जलसा करते हैं, और आज के दिन के लिए हफ्ते भर से उसके पोस्टर-होर्डिंग लगाए गए हैं कि 14 फरवरी को मातृ-पितृ दिवस मनाया जाए। एक बलात्कारी के गौरवगान के ऐसे होर्डिंग और पोस्टर को हटाना भी सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार भी सजायाफ्ता कैदी आसाराम के फतवे को सार्वजनिक जगहों से नहीं हटा रही है, देश भर में आसाराम का साथ देने वाली भाजपा की सरकारें भला ये पोस्टर क्यों हटाएंगी? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज एक वेबसाईट पर जब एक खबर की हैडिंग दिखाई पड़ी कि पांच साल में पहली बार बिना किसी नियुक्ति के रिटायर हो सकते हैं जस्टिस बोबडे, तो इस हैडिंग से यह धोखा हुआ कि जस्टिस बोबडे की रिटायरमेंट के बाद की कोई पोस्ट अभी तय नहीं हुई है। समाचार आगे पढऩे पर समझ आया कि सुप्रीम कोर्ट का अगला मुख्य न्यायाधीश तय होने के पहले वर्तमान सीजेआई के रिटायर हो जाने की आशंका है, और ऐसा पांच बरस में पहली बार होगा। आमतौर पर अगला सीजेआई पहले तय हो जाता है।
अभी चार दिन पहले संसद में अपने एक धमाकेदार और शानदार भाषण में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने हाल ही में न्यायपालिका की साख चौपट होने को लेकर जिस तरह का हमला बोला, उसके बाद आज की यह हैडिंग ऐसी गलतफहमी पैदा कर रही थी। उन्होंने सेक्स शोषण के आरोपों से घिरे पिछले एक सीजेआई पर हमला बोला था, और कहा था कि वे खुद अपने खिलाफ हुई शिकायत की सुनवाई के जज बनकर बैठे थे, और रिटायर होते ही राज्यसभा में चले गए। महुआ मोइत्रा की बात एकदम खालिस खरी थी, इस एक मुख्य न्यायाधीश के ऐसे फैसलों से, और ऐसी संसद सदस्यता लेने से अदालत की साख पूरी चौपट ही हो गई है। लेकिन सच तो यह है कि राज्यसभा न जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जज देश के बहुत से आयोग या ट्रिब्यूनल के मुखिया बन जाते हैं, और देश में 50 से अधिक ऐसी कुर्सियां हैं जिनमें रिटायर्ड बड़े जज ही आ सकते हैं। नतीजा यह होता है कि दिल्ली में सबसे शाही बंगलों पर पांच बरस और कब्जा बनाए रखने के लिए, सहूलियतों और दबदबे के लिए लोग, जज और नौकरशाह, फौजी और नेता, रिटायर होने के पहले समझौते करते हैं ताकि रिटायरमेंट के बाद वे शाही दिल्ली से लेकर प्रदेशों के राजभवनों तक कहीं काबिज रह सकें।
लेकिन यह बात महज न्यायपालिका तक सीमित नहीं है। राज्यों में देखें तो बहुत से ऐसे मामले लगातार सामने आते हैं जिनमें रिटायर होने वाले अफसर अपने आखिरी बरसों में वर्तमान सरकार को खुश करने के काम में लगे रहते हैं, उनके विवेक के फैसले सत्ता की पसंद के होते हैं ताकि वे रिटायर होने के बाद राज्य में पांच बरस के लिए कोई और कुर्सी-बंगला पा सकें। यह सिलसिला लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का एक बड़ा जरिया हो गया है, एक बड़ी वजह हो गई है। इस सिलसिले के खिलाफ किसी सामाजिक कार्यकर्ता को अदालत जाना चाहिए कि जज और अफसर जिस राज्य में काम करते हुए रिटायर हुए हैं, उस राज्य में उन्हें बाद में कोई नियुक्ति न मिले। ऐसी नियुक्तियां हितों के टकराव को बढ़ाती हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ाती हैं।
हालांकि यह सुझाते हुए भी हमें अदालतों से बहुत उम्मीद नहीं है क्योंकि राज्यों के हाईकोर्ट के जज भी राज्य के मानवाधिकार आयोग जैसी कुर्सियों पर आते ही हैं, और जनता के बीच ऐसी धारणा बनी रहती है कि अदालती फैसले सरकार की मनमर्जी के होने से जजों को बाद में ऐसी कुर्सियां मिलती हैं। शासन हो या न्यायपालिका, इनको न सिर्फ अपनी निष्पक्षता बनाए रखनी चाहिए, बल्कि वह निष्पक्षता दिखनी भी चाहिए। अब देश भर में जनधारणा की कीमत बुझाकर फेंकी गई सिगरेट जितनी भी नहीं रह गई है। अब सुप्रीम कोर्ट की किसी संवैधानिक बेंच तक पहुंचने के बाद ही हो सकता है कि ऐसी किसी जनहित याचिका को इंसाफ मिल सके।
राज्यों के स्तर पर तो यह आसानी से मुमकिन है कि जिन कुर्सियों पर रिटायर्ड अफसर या रिटायर्ड जज को रखने की मजबूरी हो, वहां यह नियम लागू कर दिया जाए कि इसके लिए हर प्रदेश अपने प्रदेश से बाहर के लोगों में से लोगों को छांटे। इससे भ्रष्टाचार कुछ हद तक कम होगा, और पक्षपात का खतरा भी घटेगा। आज तो हालत यह है कि जज और अफसर रिटायर होने के पहले से ऐसी कुर्सियों पर निशाना लगाकर चलते हैं कि उन्हें अपना पुनर्वास कहां पर चाहिए। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जिनमें एक-एक बरस पहले से अखबारों में यह छपने लगता है कि किस कुर्सी पर कौन काबिज होने वाले हैं, और होता भी वैसा ही है। यह पूरा सिलसिला पूरी तरह से अनैतिक, और हितों के टकराव के आधार पर असंवैधानिक भी है। आज जजों की निजी दिलचस्पी अगर ऐसे मनोनयन और नियुक्तियों में नहीं होती, तो शायद हितों के टकराव के खिलाफ जज बड़ी कड़ी बातें किसी फैसले में लिखते। आज भी इस सिलसिले को खत्म करने के लिए लोगों को ही अदालत जाना होगा, क्योंकि इस भ्रष्टाचार पर पहला पत्थर मारने का हक न सरकार में किसी को है, न अदालत में। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)