संपादकीय
दो दिन बाद ईसाईयों का सबसे बड़ा त्यौहार क्रिसमस मनाया जाने वाला है, और ईसाईयों की खासी आबादी वाले केरल में एक नन की हत्या के एक मामले में कल 28 बरस बाद अदालती फैसला आया है जिसमें चर्च के एक पादरी और एक नन को उम्रकैद सुनाई गई है। यह हिन्दुस्तान में सबसे लंबे समय तक चलने वाला हत्या का मामला है, और यह कई मायनों में एक ऐतिहासिक मामला रहा जिस पर केरल का ईसाई समुदाय बंट गया था, और राज्य की पुलिस से लेकर सीबीआई तक इस मामले की जांच में बार-बार बेनतीजा हो रही थीं।
कत्ल का यह मामला चर्च के भीतर के लोगों को अवैध संबंधों को उजागर करने वाला भी है क्योंकि अदालत में आखिरकार यह साबित हुआ कि जिस नन, सिस्टर अभया, की जख्मी लाश कुएं में मिली थी, वह सुबह 4 बजे पढ़ाई के लिए उठी थी, और रसोईघर में जाने पर उसकी हत्या हो गई थी। सीबीआई ने अदालत में कहा कि उसने रसोई में दो पादरियों और एक नन को अनैतिक स्थिति में देखा, और वह कहीं भांडाफोड़ न कर दे, इसलिए इन तीनों ने मिलकर उसका गला घोंटा, उस पर कुल्हाड़ी से वार किया, और चर्च के हॉस्टल के अहाते में ही उसे कुएं में फेंक दिया। लेकिन जैसा कि ईसाई चर्च अनैतिक संबंधों और देह शोषण के, बच्चों के यौन शोषण के अधिकतर मामलों में करते आया है, उसने इस मामले में संदिग्ध पाए गए पादरियों और नन को काम पर से नहीं हटाया, उन्हें निलंबित नहीं किया, और उनसे रिश्ता नहीं तोड़ा। जो लोग यौन शोषण पीडि़त ननों के हक के लिए केरल में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं वे चर्च के इस रूख पर बहुत ही निराश हैं, और उनका कहना है कि अभी भी एक चर्च प्रमुख के खिलाफ एक नन से बलात्कार का मुकदमा चल रहा है, और बरसों तक चर्च ने उसे हटाया भी नहीं।
केरल में इस मामले की जांच खासी मुश्किल इसलिए भी थी कि कई जांच अफसर ईसाई समुदाय के थे, और यह खतरा बना हुआ था कि धर्म के प्रति आस्था उनके निष्पक्ष नजरिए को प्रभावित कर सकती थी। राज्य में मतदाताओं पर चर्च के प्रभाव को देखते हुए भी राज्य सरकार का रूख गड़बड़ा सकता था, और आखिर में जाकर सीबीआई को यह मामला दिया गया। अलग-अलग वक्त पर इस मामले से जुड़े सुबूतों को बर्बाद करने की कोशिश की गई, इस कत्ल को खुदकुशी साबित करने की कोशिश की गई, और केरल के जागरूक लोगों का यह कहना है कि यह मामला इस मायने में भी ऐतिहासिक था कि इसे बेनतीजा बंद करने की सबसे अधिक कोशिशें हुईं।
अब भारत में जुर्म की जांच और अदालती कार्रवाई की बदहाली का यह एक पुख्ता नमूना है कि ऐसे एक जलते-सुलगते मामले पर सीबीआई अदालत का फैसला आने में 28 बरस लग जाएं। इस बीच हाईकोर्ट को कई बार इस मामले में दखल देनी पड़ी तब जाकर इसकी जांच से छेड़छाड़ बंद हुई। जांच और अदालत में 28 बरस लग जाना अपने आपमें बेइंसाफ इंतजाम है। भारतीय लोकतंत्र में जांच एजेंसियां ताकतवर के खिलाफ तकरीबन बेअसर साबित हो जाती हैं। बची-खुची नौबत अदालती कार्रवाई में खराब हो जाती है क्योंकि वहां सुबूतों और गवाहों से छेड़छाड़, दबाव, और खरीद-बिक्री आम बात है। फिर बहुत से मामलों में अगर जज रिश्वत लेने को तैयार है, तो ताकतवर लोग रिश्वत देने के लिए उतावले रहते हैं, और एक पैर पर खड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अदालती फैसला आने तक अलग-अलग स्तरों पर इंसाफ की संभावना की भ्रूण हत्या होते चलती है।
जिस नन का कत्ल हुआ था, उसके मां-बाप भी इंसाफ का इंतजार चौथाई सदी तक करते रहे, और अभी कुछ बरस पहले मरे। इस मुद्दे पर लिखने का हमारा मकसद यह है कि धर्म-संस्थान अपने मुजरिमों को किस हद तक जाकर बचाने की कोशिश करते हैं, ऐसा बहुत से धर्मों में सामने आता है। दूसरी तरफ धर्म-संस्थान से जुड़े रहने की वजह से किसी पर नैतिकता लागू नहीं हो जाती, और वे हर किस्म का जुर्म करने के लायक बने रहते हैं, हर किस्म की हिंसा कर सकते हैं, करते हैं। एक आखिर बात यह कि आसाराम (बापू) से लेकर (बाबा) राम रहीम तक इतने बलात्कारी धार्मिक व्यक्ति समाज में देखने में आते हैं कि उनके पैरों पर गिरने वाले नेता, अफसर, जज अनगिनत रहते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ किसी शिकायत को जगह नहीं मिलती, इनके खिलाफ शिकायत दर्ज हो जाए तो गवाह सडक़ों पर एक के बाद एक मारे जाते हैं, और ऐसे हजारों लोगों में से दो-चार को ही सजा हो पाती है। धर्म का हिंसक और अनैतिक रूप केरल के चर्च के इस मामले में जितना सामने आया है, उतना ही बहुत से दूसरे धर्मों के मामलों में भी सामने आते रहता है। इसलिए लोगों का भला इसमें है कि धर्मान्ध की तरह आंखें और मुंह बंद रखने के बजाय एक तर्कवादी की तरह आंखें खुली रखनी चाहिए, और सवाल तैयार रखने चाहिए। धर्म उसी वक्त तक पटरी पर चल सकता है, जब तक समाज के भीतर उससे पीछे सवाल करने का हौसला रखने वाले लोग हों, और ऐसे सवालों के लिए माहौल भी हो। लेकिन ताकत के तमाम ओहदों पर बैठे हुए लोगों में बहुतायत ऐसे लोगों की होती है जो कि धर्मान्ध होते हैं, और बेहौसला होते हैं। क्रिसमस के ठीक पहले केरल में ईसाई समुदाय के भीतर, चर्च के भीतर के इस जुर्म से वे सारे मामले भी याद आते हैं जिनमें बड़े-बड़े पादरियों के हाथों बच्चों के यौन शोषण के अनगिनत मामलों को कैथोलिक चर्च मुख्यालय, वेटिकन ने दबाने की हर कोशिश की थी। लोगों को अपने-अपने धर्मों के भीतर सुधार इसलिए करना चाहिए क्योंकि अगला हमला उनके परिवार पर भी हो सकता है। यह बात भूलना नहीं चाहिए कि धर्म-संस्थानों के लोगों के शिकार अनिवार्य रूप से उसी धर्म के, उनके भक्तों के परिवार ही होते हैं। आसाराम के बलात्कार की शिकार लडक़ी आसाराम के भक्त परिवार की बच्ची ही थी। लोग अपने परिवार को बचाना चाहते हैं तो अपने धर्म पर निगरानी रखें, और अपने परिवार को ऐसे खतरों से दूर रखें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के खतरों को लेकर यह अखबार इस जगह पर जितनी बार लोगों को आगाह कर चुका है, उससे बहुत से लोग थक भी चुके होंगे। लेकिन हर कुछ हफ्तों में ऐसी बात सामने आती है कि हमारा लिखा हुआ जायज साबित होता है। पिछले एक पखवाड़े में कम से कम दो-तीन बार हमने लोगों को सावधान रहने के लिए आगाह किया, और अब ब्रिटेन की ताजा खबर है कि वहां कोरोना ने अपने आपमें एक ऐसा बदलाव कर लिया है कि वह मौजूदा दवाओं और वैक्सीन के काबू से परे का हो गया है। साल के सबसे बड़े त्यौहार, क्रिसमस के ठीक पहले ब्रिटेन ने न सिर्फ लॉकडाऊन किया है बल्कि वहां सरकार की इमरजेंसी बैठकें चल रही हैं। बाकी योरप और दुनिया के बहुत से और देशों ने ब्रिटेन से अपने यहां विमानों की आवाजाही बंद करवा दी है। एक बार फिर ब्रिटेन को एक नए सुरक्षाचक्र में टापू की तरह जीना पड़ेगा। यह हाल दुनिया के एक विकसित देश के संपन्न समाज का है, इसलिए यह खतरा कब किसी और देश पर किसी और तरह से नहीं पहुंच पाएगा इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। यह लड़ाई अब तक प्रचलित कोरोना वायरस के खिलाफ वैक्सीन के भरोसे चल रही थी, लेकिन जिस तरह ब्रिटेन में कोरोना ने एक नया अवतार धर लिया है, उससे यह वैक्सीन भी वहां बेअसर हो सकती है। अगर ऐसा होता है तो कोरोना की इस नई नस्ल के खिलाफ वैक्सीन विकसित करने की एक नई लड़ाई सिरे से शुरू करनी पड़ेगी, और वह जाने कितना वक्त लेगी।
हिन्दुस्तान में सार्वजनिक जगहों पर लोगों को देखें तो लगता है कि वे कोरोना से जंग जीत चुके हैं, और दशहरे के रावण की तरह उसे जलाकर अब सोनपत्ती बांटने के लिए निकले हैं। लोगों के चेहरों से मास्क गायब हैं, सार्वजनिक जगहों पर लोग गैरजरूरी चीजें खाने-पीने के लिए टूट पड़े हैं, कमसमझ सरकारों ने बाजार के खुलने के घंटों को सीमित करके यह मान लिया है कि दुकानों पर होने वाली धक्का-मुक्की के बजाय दुकानों के बंद शटर अधिक महत्वपूर्ण हैं। तम्बाकू के शौकीन हिन्दुस्तान में आधी आबादी सार्वजनिक जगहों पर तम्बाकू की पीक उगलते दिखती है, और इसे देख-देखकर तम्बाकू न खाने वाले भी सडक़ों पर हर कुछ मिनट में थूककर यह गारंटी कर लेते हैं कि सार्वजनिक सम्पत्ति उनकी अपनी है, और उन्हें कोई रोक नहीं सकते। लोगों ने शादी-ब्याह, राजनीतिक जलसे, और धार्मिक भीड़ में महीनों की कसर पूरी करना शुरू कर दिया है। लोगों को वैक्सीन की घोषणा सुनकर ही बदन में वैक्सीन लग जाने का एहसास हो रहा है। यह लग ही नहीं रहा है कि आखिरी व्यक्ति को वैक्सीन लगते हुए 2024 पूरा गुजर जाने का एक अंदाज अभी सामने आया है। और अंग्रेजों पर आई इस नई मुसीबत से हिन्दुस्तानियों का भल क्या लेना-देना कि कोरोना का यह नया अवतार इस वैक्सीन की ताकत से बाहर का हो सकता है।
जब किसी देश की सोच अवैज्ञानिक होने लगती है, तो वहां पर लोगों का बर्ताव ऐसा ही गैरजिम्मेदारी का रहता है। जिस वक्त चेचक का टीका इस देश में हर बच्चे को लग रहा था, उस वक्त भी चेचक से बचाव के लिए लोग माता पूजा करने में लगे हुए थे। तब से अब तक धर्म पर आस्था बढ़ते-बढ़ते धर्मान्धता पर आस्था की शक्ल ले चुकी है, और लोग कोरोना के खतरे से बेफिक्र हो गए हैं। पूरे हिन्दुस्तान में अगर कोई अकेली जगह कोरोना की दहशत से सहमी हुई है, तो वह संसद है जो कि टल गई है। बाकी तो हैदराबाद से लेकर बंगाल तक आमसभाओं की जंगी भीड़ और धक्का-मुक्की तक देश के लिए फिक्र की बात नहीं है। आज इस वक्त छत्तीसगढ़ में विधानसभा चल रही है, दूसरे कई प्रदेशों में संसदीय काम चल रहा है, महज इस देश की संसद कोरोना की फिक्र में डूबी हुई है, और काम करने से कतरा रही है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह संसद काम करने से नहीं, देश के जलते-सुलगते मुद्दों का सामना करने से कतरा रही है, और किसानों से बचने के लिए कोरोना एक सहूलियत बनकर आ गया है। खैर, जब संसद चल भी रही थी, तब भी किसानों के हक कुचलने वाले कानून बनने से कौन रोक पाए?
मुद्दे से भटकना ठीक नहीं है, इसलिए हम भयभीत संसद छोडक़र वापिस कोरोना पर आते हैं, और हिन्दुस्तानी मिजाज की बात करते हैं। हिन्दुस्तानी अंधविश्वास में जिस तरह डूबे हुए हैं, वैज्ञानिक सोच से जितने दूर हो गए हैं, दूसरों के हक को कुचलने के लिए जिस तरह बेताब रहते हैं, जिस तरह सार्वजनिक जगहों को गंदा करना उन्हें राष्ट्रवाद लगता है, उससे यह जाहिर है कि कोरोना का मौजूदा दौर चाहे नीचे चला गया हो, कोरोना का अगला कोई दौर अगर आएगा, तो हो सकता है कि वह समंदर की अगली लहर की तरह मौतों को बहुत ऊपर भी ले जाएगा। कोरोना की वैक्सीन हिन्दुस्तान में अगले महीने से लगना शुरू हो सकती है, लेकिन आबादी का बहुत थोड़ा हिस्सा शुरू में इसे पा सकेगा। फिर वैज्ञानिक सोच यह भी कहती है कि मौजूदा वैक्सीन जितनी आपाधापी में बनाई गई हैं, उससे हो सकता है कि वे उम्मीद पर खरी न भी उतरें। यह सब साबित होते-होते साल-दो साल का वक्त लग सकता है, और इस बीच हो सकता है कि कोरोना के कई नए अवतार आ जाएं। इसलिए सावधानी का जो दर्जा हिन्दुस्तानियों को बचाने के लिए चाहिए, इस देश के राजनेता उस सावधानी को कचरे की टोकरी में डालने की मिसालें रात-दिन पेश कर रहे हैं। ऐसे में आसपास के लोग, परिचित और रिश्तेदार चाहे कितनी ही खिल्ली उड़ाएं, लोगों को बहुत अधिक सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि हिन्दुस्तान जैसे देश में सरकारें खतरे को आसानी से मानने को भी तैयार नहीं होंगी। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
वैसे तो कम्प्यूटर तकनीक और मशीनों को इंसान ने बनाया है, लेकिन यह जरूरी नहीं होता कि खुद ने जो बनाया है उससे हमेशा सबक भी लिया जा सके। कम्प्यूटर की जितनी खूबियां हैं, उनसे इंसानी दिल-दिमाग बहुत सी चीजें सीख सकते हैं, और इंसान का दिमाग जिस हद तक लचीला है, उसके लिए अपने आपको ऐसा ढालना नामुमकिन तो बिल्कुल नहीं है।
अब कम्प्यूटर की एक खूबी तो यह है कि उसकी याददाश्त से चीजों को हटाया जा सकता है। जैसे-जैसे कम्प्यूटर की हार्डडिस्क या किसी और किस्म की मेमोरी भरती जाती है, उसका काम धीमा होते जाता है। जब वह पूरी तरह भरने लगती है, तो कम्प्यूटर जटिल हिसाब-किताब नहीं कर पाता, और उसकी मेमोरी खाली करनी होती है। ऐसा ही मोबाइल फोन के साथ भी होता है जो कि एक छोटा कम्प्यूटर ही है, और जब उसमें फोटो और वीडियो भरते-भरते गले तक भर जाते हैं, वह काम करना लगभग बंद कर देता है।
लोगों की याददाश्त पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर किसी नए विचार पर काम करना है, तो दिमाग में पहले से चल रहे बहुत से विचारों को रोकना या कम करना जरूरी होता है। ऐसा करने से बहुत सी तकलीफों से भी बचा जा सकता है, और कुछ बातों को भूले बिना आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। यह बात कुछ उसी तरह की है कि कार को चलाते हुए अगर आगे ले जाना है, तो पीछे का दिखाने वाले आईने में झांकना बंद करना पड़ता है। यह मुमकिन नहीं होता कि पूरे वक्त पीछे देखते चलें, और आगे बढ़ते चलें। यह कुछ इस किस्म का भी है कि क्लासरूम का ब्लैकबोर्ड, या स्कूल के बच्चे की स्लेट-पट्टी, इनपे लिखे हुए को जब तक मिटाया नहीं जाता, तब तक इन पर आगे कुछ लिखा भी नहीं जा सकता। कम्प्यूटरों की चर्चा के बिना भी यह बात कही जाती है कि कोई नया काम करना हो तो क्लीन स्लेट से शुरूआत करनी चाहिए। पुराने जमाने की एक कहावत भी है, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले।
बीते वक्त की यादों की भारी-भरकम टोकरी को सिर पर लादे हुए आगे का बड़ा और लंबा सफर मुमकिन नहीं होता। लोगों को पुराने रिश्तों या रंजिशों के बोझ से छुटकारा पाकर ही अपने को आगे के सफर के लिए तैयार होने का मौका मिलता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि दिमाग की याददाश्त की क्षमता और सोचने की क्षमता दोनों का कोई मुकाबला कम्प्यूटर नहीं कर सकते, लेकिन जिस तरह कम्प्यूटर में अलग-अलग बिखरी हुई बातों को एक साथ करने से भी उसकी क्षमता बढ़ती है, ठीक उसी तरह इंसानी दिमाग को डीफ्रेगमेंट करना सबके लिए तो मुमकिन नहीं है, लेकिन योग-ध्यान करने वाले, प्राणायाम करने वाले अपने सोचने पर कुछ या अधिक हद तक काबू कर पाते हैं।
प्राणायाम में जिस तरह बाहरी दुनिया से धीरे-धीरे अपने को अलग करते हुए अपनी ही सांसों के साथ, उसी पर ध्यान देते हुए कुछ वक्त रहने का काम होता है, वह दिमाग पर एक किस्म से काबू पाने की एक तकनीक भी है। और बाकी सबको भूलकर कुछ वक्त के लिए अपने में जीना, महज अपने साथ जीना, यह भी उतने वक्त के लिए बाकी यादों से परे जीने का काम होता है। जिस तरह कम्प्यूटर की मेमोरी खाली करने पर उसका प्रदर्शन बेहतर होने लगता है, वैसा ही इंसानों के साथ भी होता है, फिर चाहे वे उसे मानें, या न मानें। होता यही है कि यादों में बहुत उलझे हुए लोग, बीती जिंदगी की गलियों में ही भटकते हुए लोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाते।
अपने ही बनाए हुए कम्प्यूटर से सीखने की बहुत सी बातें इंसानों को और भी मिलती हैं। गैरजरूरी पन्नों को बंद करना, गैरजरूरी एप्लीकेशन बंद करना बेहतर कामकाज के लिए कितना जरूरी है, यह भी कम्प्यूटर से सीखने की जरूरत रहती है। लोग मल्टीटास्टिंग करते हुए बहुत सारे काम शुरू कर देते हैं जिन्हें वे साथ-साथ करते चलते हैं, लेकिन कम्प्यूटर की भी ऐसा करने की एक सीमा रहती है। लोग कई बार अपनी सीमाओं को नहीं पहचान पाते, और एक साथ बहुत से काम छेड़ देते हैं, और फिर उनमें से कोई भी काम किसी किनारे नहीं पहुंच पाता। अपनी खुद की क्षमता की सीमाओं को पहचानना, और फिर उसके भीतर-भीतर काम करना, यह कामयाब होने की कई शर्तों में से एक शर्त रहती है।
जिस तरह इंसान बाकी कुदरत से, जंगलों और पेड़ों से, नदियों के बहाव से, समंदर के फैलाव से, आसमान और पंछियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, उसी तरह अपनी बनाई मशीनों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर प्रेरणा का एक पोस्टर पोस्ट किया था जिसमें सीढिय़ों के सामने खड़े एक इंसान के सामने पहली सीढ़ी बाकी के मुकाबले चार-छह गुना अधिक ऊंचाई की थी, और लिखा था कि पहला कदम ही सबसे भारी होता है। इस बात को लोगों ने कई अलग-अलग तरह से लिखा है, और कुछ ने हौसला बढ़ाने वाली यह बात भी लिखी है कि हजार मील का सफर भी पहला कदम बढ़ाने के बाद ही शुरू होता है। किसी भी बड़े और कड़े काम की शुरूआत कुछ मुश्किल होती है। जो लोग किसी भी तरह की कार या मोटरसाइकिल चलाते हैं, वे जानते हैं कि खड़ी गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए जो पहला गियर लगता है, वही इंजन की सबसे अधिक ताकत होती है, और फिर जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, अगले गियर कम ताकत के रहते हैं। जब गाड़ी पूरी रफ्तार पर आ जाती है, तो टॉप गियर सबसे ही कम ताकत का रहता है। असल जिंदगी में भी इंसान अगर देखे तो किसी भी चुनौती का शुरूआती वक्त सबसे कठिन होता है, और इसके बाद धीरे-धीरे कठिनाई कम होते चलती है, जब लोग मंजिल की तरफ अपने सफर पर कुछ आगे बढ़ निकलते हैं, तो जिंदगी का गियर भी कम ताकत वाला टॉप गियर लगता है।
ये तमाम चीजें बनाई हुई तो इंसानों की हैं, लेकिन इन सबकी जो सीमाएं या खूबियां हैं, उनको देखकर सभी लोग पहले की देखी-भाली बातों को भी एक नए नजरिए से देख सकते हैं, और सीख सकते हैं। यहां पर हम कुल दो-तीन चीजों की मिसाल दे रहे हैं, लेकिन लोग अपने-अपने दायरे में अपने काम आने वाली बाकी मशीनों, बाकी चीजों को याद करके उनसे बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। फिलहाल जिस बात से शुरू किया था, उसी पर लौटें तो वह यह है कि लोगों को गैरजरूरी यादों से छुटकारा पाना सीखना चाहिए। लोगों को सुबह उठने के बाद रात के सपनों के बारे में सोचने के बजाय दिन में क्या-क्या करना है इस बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के बहुत से दार्शनिकों ने दुश्मनी को भुला देने, दर्द को भुला देने की नसीहत भी हजारों बरस से दी है। जहां से निकलकर आगे बढ़ चुके हैं उसे भी भुला देने को कहा है। और मशीनें भी कुछ-कुछ वैसा ही सुझाती हैं और हमारे सामने अधिक ठोस तरीके से यह सामने रखती हैं कि ऐसा करने से काम कैसे आसान हो जाता है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के इर्द-गिर्द घेरा-डेरा डाले बैठे किसानों के बीच बुजुर्ग सिक्ख किसानों के चेहरे जैसे जीवट दिखते हैं उनसे किसान तबके के संघर्ष का माद्दा भी दिखता है, और सिक्खों का जुझारूपन भी। अभी पिछले दो-चार दिनों से वहां की तस्वीरों में एक टेबुलाईड अखबार पढ़ते लोग दिख रहे हैं जिसका नाम ट्रॉली-टाईम्स है। देश के स्थापित और बड़े मीडिया में अपने खिलाफ एक मजबूत सत्तासमर्थक पूर्वाग्रह देखते हुए इन आंदोलनकारियों ने अपना अखबार निकालना शुरू किया है ताकि अपने लोगों की खबर हो सके। यह दो भाषाओं में छप रहा है, और इसके दाम रखे गए हैं-पढ़ो और बढ़ाओ। कुछ सिक्ख नौजवानों ने इसे निकालना शुरू किया है, और इसकी छपी हुई कॉपी पर लिए गए क्यूआर कोड से इसे फोन या कम्प्यूटर पर भी पढ़ा जा सकता है।
मूलधारा या मेनस्ट्रीम का कहा जाने वाला मीडिया अपनी स्टीम (भाप की ताकत) खो चुका है। वह सरकार और बड़े कारोबार के दबाव और प्रभाव में कहीं झुका हुआ दिखता है, और कहीं लेटा हुआ। जहां दबाव न भी रहे, वहां भी मीडिया के संगठित और कामयाब कारोबार को हवा में ऐसे दबाव की आशंकाएं दिखने लगती हैं, और उसे झुकने भी नहीं कहा जाता वहां भी वह मौका मिलते ही लेट जाने के फेर में रहता है। ऐसे में जमीनी हकीकत के मुद्दों को लेकर जब कोई आंदोलन लड़ाई लड़ता है, तो उसे इस किस्म की मौलिक कोशिश के लिए तैयार भी रहना चाहिए।
वैसे भी पूरी दुनिया में इंसाफ के लिए लड़ी जा रही लड़ाई को कारोबारी-मीडिया में जगह मुश्किल से मिलती है, या फिर उसे कुचलने के लिए की जा रही कोशिशें ही उस मीडिया में जगह पाती हैं। दुनिया भर में आंदोलनों को अपनी आवाज खुद ही गुंजानी पड़ती है, और आज का सोशल मीडिया इसमें उनके बहुत काम आ रहा है। क्या इस बात की कल्पना की जा सकती है कि सोशल मीडिया न होता तो किसानों के आंदोलन के इस अखबार की खबर उस छपे हुए अखबार की पहुंच के बाहर पहुंच पाती? आज भी पूरी दुनिया में आंदोलन और सामाजिक संघर्ष की तस्वीरें कारोबारी फोटो एजेंसियों के रास्ते ही दुनियाभर में फैलती हैं, और इन्हें खरीद पाना उन मीडिया-कारोबार के लिए ही मुमकिन होता है जो इन्हें अमूमन छापना नहीं चाहते। मीडिया जैसे-जैसे एक बड़ा कारोबार बनता है, वह बड़े कारोबार के वर्गहित साझा करने लगता है। और बड़ा कारोबार हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में सरकार के रहमोकरम का मोहताज होता है, और वही चरित्र मीडिया-कारोबार में भी आने लगता है। इसलिए एक समानांतर मीडिया, एक वैकल्पिक मीडिया, एक जनकेन्द्रित मीडिया जरूरी है जो कि मीडिया के बड़े कारोबार से कभी नहीं निकल सकता। इसके लिए छोटे कारोबारी हितों या गैरकारोबारी कोशिशों की जरूरत होती है।
मीडिया में काम करने वाले लोगों से बाहर अधिक लोगों को यह जानकारी नहीं रहती कि किस तरह आज बहुत से लेखक, फोटोग्राफर, वीडियोग्राफर अपने काम को किसी भी तरह के इस्तेमाल के लिए इंटरनेट पर डालने लगे हैं। क्रियेटिव-कॉमन्स का लेबल लगी हुई सामग्री का मुफ्त में इस्तेमाल किया जा सकता है, और ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि छोटे मीडिया कारोबार कभी भी बड़े फोटो-वीडियो कारोबार का भुगतान करने की हालत में नहीं रह सकते। लेकिन अभी भी यह कोशिश बहुत शुरूआती दौर में है। संघर्ष का दस्तावेजीकरण जहां कहीं भी, जिस तरह से भी हो रहा है, उसे ऑनलाईन जगहों पर अधिक उदारता से डालने की जरूरत है ताकि छोटे मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते बात आगे बढ़ सके।
इसकी एक बड़ी कोशिश 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुई थी जब उन दंगों को रिकॉर्ड करने वाले फिल्मकारों, वीडियोग्राफरों, और फोटोग्राफरों ने अपने काम को एक समूह बनाकर उसमें दे दिया था ताकि उसका अधिक से अधिक मुफ्त इस्तेमाल हो सके, और यह ताजा इतिहास दूर-दूर तक पहुंच सके। लेकिन दूसरी तरफ आज अगर हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई, भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी, बांग्लादेश के निर्माण, भोपाल गैस त्रासदी, सिक्ख-विरोधी दंगे, बाबरी-विध्वंस, कश्मीर और उत्तर-पूर्व के आंदोलन, अमरीका के काले लोगों के आंदोलन, दुनिया भर से शरणार्थियों की आवाजाही, अफगानिस्तान, इराक, और सीरिया के युद्ध की तस्वीरें देखें, तो अधिकतर तस्वीरें कारोबारी फोटो एजेंसियों की दिखती हैं। अब इतना भुगतान करके इनका कौन इस्तेमाल कर सकते हैं? इसलिए क्रियेटिव कॉमन्स के तहत मुफ्त इस्तेमाल के लिए लोगों को अपना अधिक काम पोस्ट करना चाहिए ताकि दुनिया भर के छोटे कारोबारी और अधिक सरोकारी लोग उनका इस्तेमाल कर सकें।
यह दौर इतिहास लेखन का एक अजीब सा दौर है। पहले भी इतिहास वही लिखा जाता था जो विजेता के नजरिए का होता था। आज भी इतिहास का बड़ा हिस्सा कामयाब के नजरिए से लिखा जाता है जो कि जिंदगी, दुनिया, और कारोबार की लड़ाई जीते हुए लोग हैं। लेकिन यह अजीब दौर इसलिए है कि आज मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक, और ऑनलाईन प्लेटफॉर्म तक इतिहास दर्ज करने की औपचारिक, संगठित, और अनौपचारिक, असंगठित कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में गैरकारोबारी वैकल्पिक मीडिया को बढ़ावा देने के लिए तमाम सरोकारी लोगों को हाथ बंटाना चाहिए। आज संचार तकनीक बहुत मामूली दाम पर सबको हासिल है इसलिए सरोकार की बात तो आगे बढ़ाना भी पहले के मुकाबले कम मुश्किल है। ऐसे में सामग्री की कमी पड़ती है जिसे दूर करने के लिए फोटोग्राफरों, फिल्मकारों, वीडियोग्राफरों, और लेखक-संवाददाताओं को आगे आना चाहिए। मौजूदा व्यवस्था पर तगड़ी मार करते हुए बहुत से कार्टूनिस्ट बहुत ताकतवर काम कर रहे हैं, उनको भी अपने काम का कम से कम एक हिस्सा मुफ्त इस्तेमाल के लिए घोषित करना चाहिए। जिस तरह वकालत के पेशे में जरूरतमंद तबके के कुछ मामलों को मुफ्त लडऩा प्रो-बोनो नाम का एक सम्मानजनक योगदान गिना जाता है, इस तरह बहुत से डॉक्टर अपना कुछ काम जरूरतमंद लोगों के लिए करते हैं, उसी तरह समकालीन दस्तावेजीकरण करने वाले तमाम पेशेवर और शौकीन लोगों को अपने काम का कुछ या अधिक हिस्सा सरोकारी-मीडिया या छोटे मीडिया के लिए समर्पित करना चाहिए ताकि बात आगे बढ़ सके। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र सरकार किसान आंदोलन को लेकर बातचीत का एक सिलसिला तो चलाए हुए हैं लेकिन उससे परे उसका रूख पूरी तरह बेपरवाह भी दिख रहा है। केन्द्र ने ऐसे कई किसान संगठन होने का दावा किया है जो कि केन्द्र सरकार के नए किसान कानूनों के समर्थक हैं। दूसरी तरफ पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, और कुछ दूसरे प्र्रदेशों के जो किसान आंदोलन कर रहे हैं उनसे जूझने के लिए दिल्ली के इर्द-गिर्द भाजपा की सरकारों की पुलिस है ही। नतीजा यह है कि देश के दर्जन भर से अधिक प्रमुख विपक्षी दलों या किसान संगठनों की बात मीडिया के एक हिस्से से परे कोई मायने नहीं रख रही है क्योंकि केन्द्र सरकार को दुबारा सत्ता में आने के लिए जमीनी और किसानी मुद्दों की अधिक जरूरत नहीं है।
बात दरअसल यह है कि जब देश की देह पर कुछ ऐसी कमजोर नब्जें पता चल जाएं जिनसे बाकी शरीर की हलचल पर काबू होता है, तो फिर बाकी शरीर की अधिक फिक्र जरूरी भी नहीं होती। पिछले छह बरसों में केन्द्र की मोदी सरकार ने कभी नोटबंदी जैसा अप्रिय काम किया, कभी जीएसटी को बहुत खराब तरीके से लागू किया, कभी जेएनयू, जामिया मिलिया जैसे संस्थानों के रास्ते देश भर के छात्रों को नाराज किया, कभी मुस्लिम समुदाय को नाराज किया, तो कभी दलितों को। और कोरोना-लॉकडाऊन में तो देश के करोड़ों प्रवासी मजदूरों को बदहाल ही कर दिया। इसके बाद ऐसा लगता था कि जिस बिहार के प्रवासी मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर लौटे थे, उस बिहार में वे मजदूर भाजपा और नीतीश कुमार से हिसाब चुकता करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ कुछ नहीं, और मतदाताओं के बहुमत से ही बिहार में एनडीए की सरकार वापिस सत्ता पर लौटी। देश के बाकी जगहों पर भी चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी को कोई अधिक नुकसान नहीं हुआ, बल्कि फायदा ही फायदा हुआ, और अब तो वह मुस्लिमों के गढ़ हैदराबाद तक में वार्ड चुनाव तक घुसपैठ कर चुकी है।
दरअसल देश के असल मुद्दों का वोटों के साथ तीन तलाक इतना मजबूत हो गया है कि चुनाव आते-जाते रहते हैं, और सरकार अब मतदाताओं की किसी नाराजगी की फिक्र में नहीं है। ऐसा इसलिए है कि भाजपा के हाथ मतदाताओं की तमाम कमजोर नब्ज उसी तरह लग गई हैं जिस तरह कोई नाड़ी वैद्य शरीर का हाल तलाशते हैं, या एक्यूपंक्चर वाले जानते हैं कि किस-किस नब्ज पर सुई चुभानी है, या एक्यूप्रेशर वाले जानते हैं कि किस नस पर दबाना है। आज जब चुनावी विश्लेषणों के पंडित अटकल लगाते हैं कि वोटर किन-किन बातों से नाराज होकर, या नाराज होने की वजह से मोदी की पार्टी के खिलाफ वोट देंगे, तो मतदाता की नब्ज पर इन पंडितों का हाथ नहीं रहता। मतदाता की देह, उसका तन-मन, यह सब कुछ अब कई भावनात्मक मुद्दों के हाथों इस हद तक गिरवी रखे जा चुके हैं कि वे अपने नुकसान, और अपनी नाराजगी, इनसे परे जाकर हर चीज को राष्ट्रप्रेम और मोदी से जोड़ लेते हैं। एटीएम की कतार पर दिन गुजारते उन्हें अपने तकलीफ नहीं दिखती क्योंकि उनके सामने देश की सरहद पर खड़े फौजी को पेश किया गया है कि वह तो बिना शिकायत किए हफ्तों खड़े रहता है। जब राष्ट्रवाद सिर पर सवार होता है तो यह सवाल भी काफूर हो जाता है कि एटीएम का सरहद से क्या लेना-देना, और क्या नोटबंदी के लिए उस सैनिक ने कहा था? जब देश की सरकार और इस देश की सबसे कामयाब पार्टी जिंदगी की तमाम तकलीफों को राष्ट्रवाद से, संस्कृति के कथित इतिहास से ढांक देने में महारथ हासिल कर लेती है, तो फिर उसे चुनाव जीतने के लिए जमीनी मोर्चों पर कामयाबी की जरूरत नहीं रह जाती। आज यह देश मोदी है तो मुमकिन है, नाम की एक लहर पर सवार है, और लोगों का स्वाभिमान एक पेशेवर सर्फर की तरह लहरों पर सर्फिंग कर रहा है। ऐसे में राष्ट्रवादी भावनात्मकता का कोई मुकाबला नहीं हो सकता क्योंकि इसकी मौजूदा आक्रामकता से बढक़र अगर कोई दूसरी राष्ट्रवादिता सामने नहीं आती, तो फिर उसे कैसे शिकस्त दी जा सकती है। लोग अपने तन-मन से बेसुध अब एक ऐसी मानसिक हालत में चले गए हैं कि उन्हें अपने सुख-दुख की न खबर रही, और न ही फिक्र। लोकतंत्र के भीतर, लोकतांत्रिक नियमों को तोड़े बिना लोगों को एक सामूहिक सम्मोहन में इस तरह जकड़ा जा सकता है, यह कुछ बरस पहले तक अकल्पनीय था।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने इस लोकतंत्र के खेल के तमाम नियम बदल डाले हैं। पुराने नियमों के मुताबिक खेलने वाली टीमें अब अप्रासंगिक हो चुकी हैं। जब आबादी का एक बड़ा हिस्सा उसकी तकलीफ के एहसास से आजाद कराया जा सकता है, तो फिर उस हिस्से से कुछ भी करवाया जा सकता है, कुछ भी करवाया जा रहा है। आज कोई आसार नहीं दिख रहे कि इस देश के लोग इस सामूहिक सम्मोहन से उबर सकेंगे। दरअसल उन्हें उबरने की जरूरत भी नहीं लग रही है, वे उसी में खुश हैं, डूबे हुए हैं। मीडिया का एक हिस्सा मोदी समर्थकों को भक्त लिखता है। ये लोग एक भक्तिभाव में डूबे हुए हैं, और ऐसे किसी को उससे उबरने के लिए कहना उसे जायज नहीं लगेगा, उसे लगेगा कि उसकी कोई पसंदीदा चीज उससे छीनी जा रही है। जो लोग दुनिया के कुछ दूसरे देशों के इतिहास की मिसालें देकर यह कहने की कोशिश करते हैं कि लोग ऐसे भक्तिभाव से उबरते भी हैं, उनकी दिक्कत यह है कि उनका दिमाग इतिहास के बक्से में बंद और उसी आकार का है। वह खुले आसमान के तहत यह नहीं सोच पाता है कि इतिहास की हर मिसाल भविष्य पर लागू नहीं होती। हिन्दुस्तान आज इतिहास की मिसालों से परे जी रहा है। और जिन लोगों का हाथ आज देश के बहुमत के दिल-दिमाग की नब्ज पर है, उन्हें हटाना डॉन को पकडऩे की तरह नामुमकिन न सही मुश्किल तो है। यह देश आज अपनी ही तकलीफ के एहसास से आजाद है, यह एक बहुत अनोखी नौबत है, और विपक्षियों के साथ दिक्कत यह है कि यह इतिहास की उनकी किन्हीं मिसालों के साथ फिट बैठने वाला केस नहीं है। आगे-आगे देखें, होता है क्या... क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब हिंदुस्तान के कई राज्यों में सरकारों को एक बरस भी पूरा नहीं होने दिया जा रहा है तब छत्तीसगढ़ में एक ही पार्टी की सरकार के एक ही मुख्यमंत्री के दो बरस पूरे होने का मौका सिर्फ इसी वजह से भी खास हो सकता था, लेकिन छत्तीसगढ़ दूसरे कई मायनों मेंं भी दूसरी सालगिरह का जलसा मनाने का हकदार है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सरकार ने देश के तमाम राज्यों के बीच एक अनोखा एजेंडा सामने रखा है। बीस बरस उम्र के इस नए राज्य में कोई सरकार ग्रामीण और किसानी प्राथमिकताओं को इतना बढ़ा सकती है, यह किसी ने सोचा नहीं था। इस दो बरस की आर्थिक उपलब्धि यह है कि सरकार ने कर्ज लेकर भी प्रदेश की करीब आधी आबादी को प्रत्यक्ष और परोक्ष मदद की है। अठारह लाख किसानों के खेती के कर्ज की माफी से उनके परिवारों के लोग और उनकी खेती से जुड़े हुए दूसरे लोग मिलाकर भी प्रदेश की आधी आबादी हो जाते हैं। विधानसभा चुनाव में प्रदेश कांगे्रस अध्यक्ष भूपेश बघेल का यह चुनावी वायदा था, और इसे पूरा करने के साथ ही देश में सबसे ऊंचे दाम पर धान खरीदकर मुख्यमंत्री ने सरकार की प्राथमिकता में किसान की जगह साफ कर दी। नतीजा यह हुआ कि गांव-गांव तक पहुंची संपन्नता ने खींचतानकर कोरोना-लॉकडाऊन की मार को भी झेल लिया। लगे हाथों एक दूसरी बात की चर्चा जरूरी है कि ग्रामीण रोजगार के मामले में छत्तीसगढ़ ने लॉकडाऊन के वक्त से ही इतना जोर दिया कि राज्य देश में इस मामले में सबसे आगे रहा। सरकार के पहले ही महीने से गांव-गांव तक नालों को बांधना, पशुओं के लिए रहने-खाने की जगह विकसित करना शुरू हुआ जो कि हजारों करोड़ की लागत से आज भी जारी है। यह पूरा का पूरा खर्च सीधे गांवों में ही हुआ और लॉकडाऊन के बाद जब बाजार में जमकर ग्रामीण-खरीदी हुई तो समझ आया कि यह कर्जमाफी, धान के दाम के साथ-साथ दूसरी ग्रामीण मजदूरी का पैसा भी है।
लेकिन इन आर्थिक मोर्चों के अलावा कुछ सामाजिक मोर्चों पर भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस राज्य को एक अलग पहचान दी है। यह पहला मौका है जब क्षेत्रीय और खालिस छत्तीसगढ़ी रीति-रिवाज, त्यौहार, बोली, और सामाजिक कार्यक्रमों को सीधे मुख्यमंत्री निवास से सीएम ने सपरिवार भागीदारी से एक अलग महत्व दिया, और प्रदेश में छत्तीसगढ़ी संस्कृति का एक अभूतपूर्व माहौल बना। भूपेश बघेल की यह एक आक्रामक सांस्कृतिक नीति रही, लेकिन यह न तो किसी दूसरी संस्कृति के लोगों के खिलाफ रही, और न यह छत्तीसगढ़ के बाहर से आकर बसे लोगों के खिलाफ किसी रणनीति की तरह रही। स्थानीय बोली से लेकर त्यौहारों तक को दिया गया महत्व किसी और के खिलाफ नहीं रहा। क्षेत्रवाद और संस्कृतिवाद के साथ आमतौर पर ऐसा एक खतरा जुड़ा रहता है, लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल स्थानीयता को बढ़ाते हुए भी उसे किसी के खिलाफ जाने से बचाते भी रहे। आज की सरकार अब तक की इस राज्य की सबसे अधिक छत्तीसगढ़ी सरकार है, और इसने क्षेत्रीय स्वाभिमान को बढ़ाने का काम भी किया है।
विधानसभा का चुनाव जिस अकल्पनीय बहुमत से भूपेश बघेल की अगुवाई में जीता गया था, उसने एक राष्ट्रीय पार्टी, कांग्रेस के भीतर भी भूपेश बघेल को काम और तौर-तरीकों की असाधारण आजादी दी। उनके ऊपर संगठन का कोई बड़ा दबाव नहीं रहा, और नतीजा रहा कि वे तेजी से बड़े फैसले ले पाए। उनके शुरूआती हफ्तों को देखें तो साफ दिखता है कि मतदान खत्म होने के बाद सरकार बनने तक के हफ्तों में उनकी टीम ने एक बड़ा होमवर्क किया था, और सत्ता संभालते ही तेजी से फैसले इसी वजह से हो पाए।
आज देश में जगह-जगह कांग्रेस की सरकारों को या तो पलट दिया गया है, या पलटना जारी है। ऐसे में छत्तीसगढ़ पूरे देश में ऐसी अकेली कांगे्रस सरकार वाला राज्य है जिसके आंकड़ों को पलटने का सपना भी कोई नहीं देख रहे हैं। बल्कि जनचर्चा यह रहती है कि कांगे्रस अपने गिने-चुने दो-चार राज्यों में से चुनावी खर्च के लिए छत्तीसगढ़ पर ही सबसे अधिक आश्रित रहती है। अगर यह बात सही है तो भूपेश बघेल का कांगे्रस संगठन के भीतर भी एक अलग महत्व समझ में आता है।
सरकार के दो बरस पूरे होने के मौके पर कल मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने संपादकों को चाय पर बुलाया था। उन्होंने इन दो बरसों में से पहले बरस को संसद और निगम-पंचायत चुनावों को समर्पित बताया, और दूसरी बरस को कोरोना के हाथों खत्म हुआ साल कहा। यह बात सही है कि छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार के कार्यकाल का पहला साल छह-छह महीने में होने वाले दो चुनावों में निकल जाता है, लेकिन यह बरस कोरोना के हाथों पूरी दुनिया में बर्बाद हुआ, जिसकी छत्तीसगढ़ में कम बर्बादी की वजह भी मुख्यमंत्री ने गिनाई हैं।
जहां तक कांग्रेस संगठन का सवाल है, तो उसकी राजनीति में मदद करने के लिए भूपेश बघेल ने अपने चुनाव अभियान से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपाध्यक्ष रहे अमित शाह के खिलाफ जितना आक्रामक मोर्चा खोल रखा है, और अब तक जारी रखा है, वैसा कांगे्रस के किसी दूसरे मुख्यमंत्री ने नहीं किया है।
लेकिन आने वाले तीन बरस भूपेश बघेल के लिए अधिक चुनौती के होंगे। अपनी जिन मौलिक योजनाओं पर उन्होंने हर बरस हजारों करोड़ रुपये झोंके हैं, उनकी आर्थिक और सामाजिक उत्पादकता को आंकना अभी बाकी है। बाहर की कोई तटस्थ संस्था यह मूल्यांकन कर सकती है कि खेती, गांव, जानवर, भूजल, और गोबर जैसी कई योजनाओं से क्या हासिल हुआ? इससे समाज का कितना भला हुआ, और इसकी आर्थिक उत्पादकता क्या रही? जब जनता तक किसी रियायत या सरकार खरीद का पैसा पहुंचता है तो वाहवाही तो मिलती है लेकिन सरकारी खर्च की भरपाई कैसे हुई यह जानना बाकी रहता है। दो दिन पहले कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे ने प्रेस कांफे्रंस में कहा कि सरकार अब तक गोबर खरीदी का साठ करोड़ से अधिक भुगतान कर चुकी है, तो यह हिसाब लगना अभी बाकी है कि इस साठ करोड़ से सरकार ने कितनी कमाई की है, या पूरी की पूरी रकम ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में चली गई है।
जिस तरह केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में एक अभूतपूर्व बहुमत से सरकार बनी है, और उसके बहुमत की वजह से संसद के भीतर और बाहर उसकी जवाबदेही बहुत कम रह गई है, कमोबेश वैसी ही नौबत छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार के साथ है। इस विशाल बहुमत से यह सरकार विधानसभा में और बाहर भी जैसा चाहे वैसा कर सकती है, और यह खुद सरकार के लिए एक खतरनाक नौबत रहती है। भूपेश बघेल के सामने उन्हें मिला असाधारण बहुमत एक तरफ सरकार के स्थायित्व की एक गारंटी है, तो दूसरी तरफ खुद के लिए चुनौती भी है कि इसके चलते गलतियां न हों।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस संगठन को पन्द्रह बरस बाद सत्ता में आने का मौका मिला है, और इस सरकार ने जनता की आबादी के इतने बड़े हिस्से को सीधे फायदा पहुंचाने का काम किया है जितने मतदाता सरकार बनाने के लिए भी जरूरी नहीं होते। यह एक किस्म से पांच बरस तक चलने वाली, अगले चुनाव की तैयारी भी है, या फिर यह गैरचुनावी निरंतर जनकल्याण की नीति है जिसका आर्थिक भार कहां से पूरा होगा यह आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल सरकार को दो बरसों का जश्न मनाने का एक बड़ा मौका मिला है और यह मौका कोरोना, लॉकडाऊन से उबरकर आगे बढऩे की शुरूआत का मौका भी है। यह कॉलम इस सरकार के बाकी दर्जनों दूसरे जनकल्याणकारी फैसलों की एकमुश्त चर्चा के लिए छोटा है, उन पर चर्चा आने वाले दिनों में। फिलहाल देश में कांगे्रस पार्टी के सामने अकेला छत्तीसगढ़ है जो कि उसकी इज्जत को बचाकर रखे हुए है। आगे के तीन बरस देखते हैं क्या होता है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अन्ना हज़ारे कुम्भकर्ण को मात देकर नींद से जागे हैं, और उन्होंने मोदी सरकार को चिट्ठी लिखी है कि किसानों की समस्या न सुलझी तो वे अनशन पर बैठेंगे. पिछली बार वे यूपीए सरकार को हटाने छह बरस से सो गए थे. अन्ना हजारे ने भारत के लोकतंत्र के लिए, यहां के संविधान के लिए, यहां की संसद के लिए जो हिकारत दिखाई, लोगों के बीच इस देश के संस्थानों के खिलाफ जो अनास्था बोई और रात-दिन खाद-पानी देकर उस फसल को लहलहाने का भी काम किया, वह सब जनता को थका देने वाला था। उन्होंने ने सुपारी लेकर कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के खिलाफ जो माहौल बनाया वह भनायक था.
एक वक्त ऐसा था जब एक तबके ने इस देश के लोगों को भड़का कर अयोध्या की तरफ रवाना कर दिया था और बाबरी मस्जिद को गिरवा दिया था। लेकिन दोबारा आज धर्मान्धता को, साम्प्रदायिकता को राजनीतिक मकसद से उस तरह कोई फिर इस्तेमाल कर सके, ऐसी कोई कल्पना भी नहीं करता, खुद मंदिरमार्गी भी नहीं करते। ऐसा ही तजुर्बा इमरजेंसी का रहा, और इस देश में कोई दोबारा वैसे दौर की कल्पना नहीं कर सकता। अन्ना हजारे ने भी देश के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन के नाम पर जो मनमानी की, नेताओं और अफसरों के सारे तबके को, संसद को जिस तरह से गालियां दीं, उनका एक न एक दिन इस देश की अमनपसंद जनता के बर्दाश्त से बाहर होना ही था, और वह बहुत जल्द हो गया। अन्ना के साथ एक दूसरी दिक्कत यह रही कि वे जिस लोकतंत्र और जनता की बात हर सांस के साथ बोल रहे थे, उसी जनता को उन्होंने तानाशाही के अपने साम्राज्य रालेगान सिद्धी में अपने गुलामों की तरह रखा। वहां उन्होंने पंचायत के चुनाव नहीं होने दिए, शराब पीने वालों को मंदिर में कसम दिलाने और खंभे से बांधकर कोड़े लगाने जैसे कानून बनाकर लागू किए, लोगों का टीवी पर मनोरंजन धार्मिक कार्यक्रमों तक सीमित कर दिया और महिलाओं के बारे में घोर अपमान की जुबान का इस्तेमाल किया। उनकी जिस ताजा बात को लेकर अभी लोग हक्का-बक्का हैं, उसमें उन्होंने मुंबई के अनशन के माईक से ही कहा है- बांझ औरत प्रसूता की वेदना को क्या समझेगी?
यह बात इस देश में शोषण का शिकार चली आ रहीं महिलाओं के लिए पुरूष प्रधान समाज की आम हिकारत का ही एक सुबूत है। हमने दर्जन भर से अधिक बार इस जगह इस बात को लेकर अन्ना की आलोचना की है कि उन्होंने लोकपाल मसौदा कमेटी में सरकार के न्यौते पर अपने जिन सदस्यों को रखा, उनमें एक भी महिला नहीं थीं। वैसे तो उसमें एक भी दलित नहीं था, एक भी अल्पसंख्यक नहीं था और समाज के या तथाकथित सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों के रूप में पांचों कुर्सियों पर अन्ना की टोली का कब्जा पूरी तरह अलोकतांत्रिक और गांधी विरोधी था। लेकिन हम उस बात पर अभी नहीं जा रहे हमारी तकलीफ बिना संतान वाली किसी महिला पर अन्ना हजारे के ऐसे घटिया बात को लेकर है। एक महिला जिसे प्राकृतिक कारणों से कोई संतान नहीं हुई है, वह परिवार और समाज के बीच वैसे भी लोगों के ताने और उनकी हिकारत का शिकार होती ही है। इस बात को भारत जैसे समाज में हर कोई अच्छी तरह जानता है। और रात-दिन बोलने वाले अन्ना हजारे जितने बुजुर्ग और अनुभवी को तो यह बात अपने बचपन से ही देखने मिली होगी कि बेऔलाद औरत को एक गाली की तरह कैसे भारतीय समाज इस्तेमाल करता है। ऐसी ही अनगिनत बातों का नतीजा यह रहा कि देश की जनता का अन्ना हजारे के प्रति सम्मान कम होते-होते अब इस कदर घट गया कि वह मुंबई जैसे महानगर में कुछ हजार पर टिक गया। लोगों को याद होगा कि किस तरह अन्ना हजारे ने एक विचलित या प्रचारप्रेमी नौजवान द्वारा शरद पवार पर हमला करने पर खुशी जाहिर की थी। मानो उनकी वह वीडियो क्लिप उनके लिए पर्याप्त आत्मघाती नहीं थी, उन्होंने उसके बाद कई बार उस हमले को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की और यहां तक कहा कि शरद पवार और उनके लोग उस थप्पड़ का बुरा क्यों मान रहे हैं? अपने गांव में अपने कद और अपनी शोहरत के आतंक तले तानाशाही चलाने वाले अन्ना हजारे को यह बात ठीक लग सकती है कि सरकार से नाराज या असहमत लोग सरकार को चला रहे लोगों पर हमले करें, लेकिन इस देश की हमारी समझ यह कहती है कि यहां की जनता हिंसक नहीं है और वह अभी भी उकसावे और भड़कावे के दौर में कभी चूक कर देने के अलावा लगभग हमेशा ही शांत रहती है। और कम से कम अन्ना हजारे जैसे महत्वोन्मादी, आत्मकेन्द्रित, तानाशाह और सिद्धांतों को लेकर पूरी तरह बेईमान के भड़कावे में वह बहुत लंबे समय तक नहीं रह सकती थी। इतिहास, और पिछले एक बरस का इतिहास इस बात का गवाह है कि अन्ना हजारे के सारे हमले सिर्फ केन्द्र सरकार और कांग्रेस पार्टी तक सीमित रहे। अपने ही साथी जस्टिस संतोष हेगड़े की रिपोर्ट में कर्नाटक के भाजपा मुख्यमंत्री को हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार से जब जोड़ा गया तब भी अन्ना हजारे का मुंह एक बार भी भाजपा के किसी राज के किसी भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं खुला। इतना ही नहीं देश में दूसरी जगहों पर दूसरी पार्टियों के राज में होती बेईमानी पर भी उन्होंने अपना मुंह बंद रखा। और जिस अंदाज में छोटे बच्चों ने जनमोर्चा के दिनों में गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है, के नारे लगाए थे, उसी अंदाज में अन्ना हजारे लोकपाल विधेयक को लेकर लगातार राहुल गांधी और सोनिया गांधी पर हमले करते रहे। देश ने यह साफ-साफ देखा कि सोनिया गांधी की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने अन्ना हजारे की बातों को जिस तरह हफ्तों तक घंटों-घंटों सुना, और उसके बाद हर बार अन्ना की टोली बैठक से निकलकर सरकार को गालियां बकती रही, वह भी लोगों को, हमारे हिसाब से, निराश करने वाली बात थी। अन्ना हजारे ने इस विशाल देश की विविधता को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए अपने आंदोलन को, और उसके पहले की भी अपनी पूरी सोच को, पूरी तरह हिन्दूवादी रखा जिसमें कि अल्पसंख्यकों की, दलितों और आदिवासियों की, महिलाओं की कोई जगह नहीं थी। वे बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे घोषित रूप से हिन्दू विचारधारा के ही लिए काम करने वाले लोगों के साथ भागीदारी करते हुए देश भर के नेता बनने में लगे रहे।
अन्ना हजारे बरसों तक एक घोषणा को किए चल रहे थे कि आने वाले चुनावों में वे कांग्रेस पार्टी के खिलाफ प्रचार करेंगे। यह उनका लोकतांत्रिक हक है कि वे क्या करेंगे, वे और उनकी टोली के लोग पिछले महीनों में ऐसा कर भी चुके हैं। और ऐसी चुनावी राजनीति में भागीदार होकर, कांग्रेस के खिलाफ एक साजिश चलाकर अन्ना हजारे ने जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो दी। जिनको राजनीति करना है उन्हें खुलकर राजनीति में आना चाहिए और भाड़े के भोंपुओं की तरह, गांधी टोपी की आड़ लेकर ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए।
हम इसे अन्ना का स्थायी अंत नहीं मानते, लेकिन यह आज की तारीख में उनके करिश्मे का फिलहाल अंत दिख रहा है कि मोदी सरकार के खिलाफ अनशन की उनकी मुनादी पर किसी की प्रतिक्रिया नहीं आयी। बहुत से लोग राख के ढेर से दोबारा उठकर खड़े होते हैं, और कल के दिन अन्ना हजारे भी भीड़ के बादशाह बन जाएं तो हम वैसी अविश्वसनीय लगती संभावना से इंकार नहीं करते। लेकिन आज इस अन्नातंत्री आंदोलन का यह हाल होना इस देश के लोकतंत्र के लिए एक अच्छी बात है और भावनात्मक उकसावे से बाहर आकर अब लोग यह सीखने की कोशिश करें कि किसी जननायक को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के चलते अचानक होने वाली बहुत सी मौतों की बात न भी करें, तो भी बीच-बीच में कमउम्र के लोगों की, बिना दुर्घटना की, ऐसी मौतें सामने आती रहती हैं जो हक्का-बक्का कर देती हैं। दारू या सिगरेट न पीने वालों, तंबाकू-गुटखा न चबाने वालों को भी कमउम्र में कैंसर होता है, वे तो चल बसते हैं, बाकी लोगों के सामने लापरवाही के लिए एक मिसाल छोड़ जाते हैं कि सिगरेट न पीने वाले क्या कैंसर से मरते नहीं हैं? यह लापरवाही और बहुत सी मौतों को बढ़ावा देती है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि अभी कोरोना की वजह से लोगों में सिगरेट-गुटखा कम होने से मौतें घटी भी हैं। बहुत सी मौतों को लेकर दूसरे लोग कुछ देर की फिक्र भी करते हैं, और फिर श्मशान वैराग्य से उबरकर अपनी लापरवाह जिंदगी जीने लगते हैं।
कोरोना ने जिस तरह अचानक बहुत से लोगों को खत्म कर दिया, सोशल मीडिया पर वैसे जवान लोगों की तस्वीरें देख-देखकर अटपटा लगता है। दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर ही बहुत से बुजुर्ग एक दहशत में जीते दिखते हैं क्योंकि उनकी उम्र के लोग अधिक खतरे में हैं, और मरने वालों में सबसे बड़ा हिस्सा साठ बरस से अधिक के लोगों का है। किसी के गुजर जाने पर उसकी खबरों को देख-देखकर बहुत से लोग अपनी सेहत के बारे में एक तनाव में रहते हैं, इसमें बस तनाव गैरजरूरी है, लेकिन उससे सबक लेकर सावधान रहना उतना ही जरूरी है।
एक महामारी, कोरोना, की वजह से लोगों में आई अतिरिक्त सावधानी कोई बुरी बात नहीं है। इसी सावधानी के चलते लोगों की जिंदगियां भी बचेंगी, और लोगों का घर भी बिकने से बचेगा। आज जो लोग सरकारी इलाज को नाकाफी पाते हैं और बेहतर लगने वाले महंगे निजी इलाज की तरफ जाते हैं, वे एक लंबे खर्च में फंस जाते हैं। अब उस परिवार की सोचें जिसमें पहले कोरोनाग्रस्त को महंगा निजी इलाज दिलवाया गया, और फिर एक-एक करके दो-चार और लोग परिवार में कोरोनाग्रस्त निकल गए। बाद के सदस्यों को क्या कहकर सरकारी अस्पताल ले जाया जा सकता है? अभी छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ चिकित्सक ने फेसबुक पर पोस्ट किया कि किस तरह उनके एक मरीज बच्चे के परिवार में पांच लोग कोरोना पॉजिटिव हो गए जिनमें दो बच्चे भी हैं, और इन्हें सीटी स्कैन की जरूरत भी है। अब बहुत रईस लोगों को छोडक़र और कौन हो सकते हैं जो इस तरह का खर्च उठा सकें?
ऐसे में एक बड़े कामयाब वकील रहे एक संपन्न बुजुर्ग अचानक दहशत में आकर सोशल मीडिया पर अपनी सेहत को लेकर लोगों से तरह-तरह की राय लेने में लग गए हैं। राय लेने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सोशल मीडिया इसके लिए सही जगह नहीं है क्योंकि अधकचरी जानकारी वाले लोग भी वहां रायबहादुर बन जाते हैं। दहशत से परे उनकी सावधानी अच्छी चीज है क्योंकि यह सावधानी बाकी जिंदगी बड़े काम आती है। कोरोना ने यह नौबत पैदा की है, और इसके चलते हुए लोगों को न सिर्फ अपनी सेहत के लिए, बल्कि अपनी बाकी तमाम जिम्मेदारियों और अधिकारों के लिए भी सचेत हो जाना चाहिए। जो लेना है उसे लेने की कोशिश करनी चाहिए, जो देना है उसे देने की तैयारी करनी चाहिए। और अपने वारिसों के लिए इस तमाम जानकारी को कानूनी कागजात की शक्ल में छोडऩा भी चाहिए। कोरोना ने जितनी जिंदगियां दुनिया में खत्म की हैं, हो सकता है कि उससे अधिक जिंदगियां उसने बचाई भी हों। लोग जब सावधानी के साथ जीने लगेंगे, साफ-सफाई के लिए फिक्रमंद रहेंगे तब वे मौत को टालने में कामयाब भी होंगे। लोग आज अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए जागरूक हुए हैं, और ऐसा होने से उनकी जिंदगी लंबी हो सकती है, सेहतमंद हो सकती है। इसी तरह गैरजरूरी भटकना कम होने से लोग हादसों में कम मर रहे हैं, और बहुत सी जिंदगियां बच रही हैं। लोग तरह-तरह की जांच करवा रहे हैं जिनसे उन्हें ऐसी बीमारियों की खबर लग रही है जिसका उन्हें अंदाज नहीं रहा होगा, और यह बात भी दुनिया में मौतों को घटाने वाली है।
हर आपदा में एक अवसर छुपा होता है यह बात सदियों पहले से चली आ रही है। कोरोना की आपदा भी ऐसे अवसर लेकर आई है जब लोग सेहत के लिए एक नई जागरूकता पा रहे हैं, काम-धंधों को लेकर, रोजगार को लेकर लोग जिस भरोसे में बेफिक्र जी रहे थे, उससे उबरकर वे अब चौकन्ने होकर जिंदा रहने की लड़ाई के लिए बेहतर तैयार हो रहे हैं। कोरोना के इस दौर में जितना नुकसान हुआ है उसकी भरपाई तो नहीं हो सकती, लेकिन लोग बेहतर तैयारी से उससे उबर सकते हैं, हो सकता है कि आने वाले कुछ बरसों में लोग अधिक काबिल हो जाएं, और अगली मुसीबत को झेलने के लिए अधिक तैयार रहें।
कतरा-कतरा इन बातों को आज यहां लिखने का मकसद यही है कि कोरोना को रोकना न तो कुदरत के हाथ था, और न ही विज्ञान के। साल गुजरते-गुजरते इससे लडऩे के लिए एक वैक्सीन के आसार दिख रहे हैं, और लोग जिंदगी पर आई मुसीबत से निपटने के लिए कुछ बेहतर तैयार दिख रहे हैं। जो चले गए उनका तो कुछ नहीं हो सकता, लेकिन जो रह गए वे अगर श्मशान वैराग्य जैसी क्षणिक सावधानी के शिकार न रहे, और लंबे समय तक के लिए सावधान रहे तो उनका भला जरूर हो सकता है। दुनिया के तरह-तरह के कारोबार ने भी इस दौरान किफायत के कुछ नए सबक लिए हैं, कामगारों ने भी अपने काम को बेहतर बनाना सीखा है, और लोगों ने नए-नए हुनर भी सीख लिए हैं। इन सब बातों को मिलाकर देखें तो लगता है कि कोरोना जैसी इस विकराल आपदा में भी एक अवसर है कि लोग आगे की जिंदगी के लिए हर किस्म से बेहतर तैयार हो सकें। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत पहले युवा पीढ़ी के लिए एक पाक्षिक या मासिक पत्रिका आती थी जिसमें नौजवानों के शारीरिक, मानसिक, और भावनात्मक पहलुओं पर उनके पूछे सवाल रहते थे, और उनके लिए सलाह के रूप में जवाब रहते थे। आमतौर पर पश्चिम में अंग्रेजी भाषा में ऐसे कॉलम कोई महिला लिखती है, और उन्हें एगनी आंट कहा जाता है, उलझन सुलझाने वाली आंटी। उस पत्रिका में इस कॉलम का नाम, मैं क्या करूं, था, और उसे लोग दिलचस्पी के साथ पढ़ते थे फिर चाहे वे सवाल गढ़े हुए क्यों न हों, फर्जी नामों से छपे हुए क्यों न हों। कुछ ऐसे ही कॉलम अलग-अलग जगहों पर मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं के लिए हुए भी छपते हैं जिनके बारे में कुछ परामर्शदाताओं का यह मानना है कि उनसे पढऩे वालों का नफा कम, नुकसान अधिक होता है क्योंकि वे कई समस्याओं के शिकार न रहते हुए भी उन्हें पढक़र अपने आपको उनसे जोड़ लेते हैं, और एक नामौजूद उलझन में सचमुच ही उलझ जाते हैं।
लेकिन असल जिंदगी में रोजाना ही कोई न कोई ऐसी नौबत आती है, जब लगता है कि कोई बताने वाले रहें कि ‘मैं क्या करूं’? अब जैसे इन दिनों रिहायशी इलाकों में घूम-घूमकर फल-सब्जी, और दूसरे सामान बेचने वाले लोग एकदम से कई दर्जन गुना हो गए हैं। जिनका कोई दूसरा काम छूट गया, वे हजार-दो हजार रूपए की सब्जियां लेकर घूमते हैं, और कुछ न कुछ धंधा शायद हो जाता है। ऐसे लोग जब तक जोरों से आवाज नहीं लगाते तब तक उनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता, और ग्राहकी नहीं होती। अब इनसे यह उम्मीद रखना कि वे जोरों की आवाज लगाते हुए भी मास्क लगाए रखेंगे कुछ ज्यादती इसलिए होगी कि उससे तो आवाज दब ही जाएगी। तो ऐसे लोगों को मास्क का ज्ञान देना ठीक होगा या नहीं?
शहरी चौराहों पर बहुत से परिवारों के अलग-अलग कई उम्र के लोग सामान बेचते दिखते हैं। कुछ महिलाएं कुछ महीनों के बच्चों को गोद में टांगे भी रहती हैं। और चौराहों की लालबत्ती पर गाडिय़ों के धुएं का प्रदूषण बहुत अधिक रहता है। अब इन लोगों को ऐसे जहरीले धुएं के बीच अपनी रोजी-रोटी कमाने से रोका जाए, या इनसे कुछ खरीदा जाए, या आगे बढ़ लिया जाए? जब यह नजारा सामने पड़ता है तब मन में सवाल उठता है कि मैं क्या करूं? इन्हीं चौराहों पर कई अपाहिज, कई बूढ़े या बच्चे, जमीन पर घिसटकर चलते कई लोग थमी हुई गाडिय़ों के लोगों से भीख भी मांगते हैं। अब इन्हें भीख देने का मतलब इन जगहों पर उन्हें बढ़ावा देना होगा, या उनकी मदद करना होगा? अक्सर लगता है कि कोई तर्कसंगत या न्यायसंगत सलाह मिल जाए, लेकिन जरूरत के वक्त सलाह मिलती कहां है, यह एक अलग बात है कि बिना जरूरत सलाह देने वाले बेमौसम की बारिश की तरह सलाह बरसाते रहते हैं।
अभी एक सुबह घूमते हुए 8-10 बरस का एक छोटा सा बच्चा छत्तीसगढ़ की इस राजधानी की एक संपन्न बस्ती में बड़ा सा झाड़ू थामे सडक़ साफ कर रहा था। रूककर उससे पूछा गया कि वह किसके लिए काम कर रहा है? आसपास के किसी घरवालों के लिए, म्युनिसिपल के लिए, या किसी और के लिए? उसका कहना था कि मां की तबियत खराब है, इसलिए उसकी जगह वह ड्यूटी करने आ गया है ताकि हाजिरी न कटे। अब यह देखकर यह समझ नहीं पड़ा कि इस बारे में म्युनिसिपल के अफसरों से बात करें, वार्ड के पार्षद से बात करें, या किसी सफाई ठेकेदार से बात करें? या कुछ भी न करें क्योंकि लॉकडाऊन के कारण इस उम्र की बच्चों की स्कूलें बंद चल रही हैं, और बीमार मां की मदद के लिए अगर उसकी जगह यह बच्चा काम कर रहा है, तो उसे रोका तो जा सकता है, लेकिन हो सकता है कि उसकी मां की मजदूरी कट जाए, या उसे काम से हटा दिया जाए। बाल मजदूरी खराब है, लेकिन अगर घर चलाने के लिए वही एक रास्ता बचा है, तो उस रास्ते पर जाने से किसी बच्चे को रोका जाए, या न रोका जाए?
स्कूलें बंद रहने से बच्चे टोलियां बनाकर घूम रहे हैं, और कॉलोनियों की नालियों में झांकते दिखते हैं जहां कीचड़ में जरा भी हलचल हो, तो वे नीचे तक पैर-हाथ डालकर मछलियां टटोलने लगते हैं। अब कोरोना जैसी महामारी के बीच गंदगी भरी नालियों में उतरे हुए इन बच्चों को भगाया जाए, रोका जाए, या उनके लिए कुछ और किया जाए? यह सवाल दिल को कोंचता है, और दिमाग को भी, और इन दोनों से जवाब अलग-अलग निकलते हैं।
शहरी फुटपाथों पर और रेलवे प्लेटफॉर्म पर जीने वाले अनगिनत भिखारी और बेघर बच्चे ऐसे रहते हैं जो इन जगहों पर तो खाने को कुछ पा जाते हैं, लेकिन दूसरी जगहों पर शायद उन्हें पेट भर भीख भी नसीब न हो। अब सार्वजनिक जगहों को साफ रखने के लिए भिखारियों और बेघर लोगों को वहां से भगा दिया जाए, या सार्वजनिक जगहों पर जिंदगी जीने का उनका हक एक बुनियादी हक माना जाए? यह सवाल आसान नहीं रहता, और अलग-अलग वक्त पर एक ही सोचने वाले को अलग-अलग जवाब सूझते हैं। अमरीका के कई शहरों में सार्वजनिक उद्यानों जैसी जगहों पर बेघर कब्जा करके वहां रहने लगते हैं। जिन प्रदेशों में लोगों की सोच अधिक पूंजीवादी रहती है, वहां की स्थानीय सरकार और पुलिस उन्हें भगाती हैं, और कुछ प्रदेशों में जहां की राजनीतिक चेतना अधिक उदारवादी रहती है वहां पर किसी भी सार्वजनिक जगह पर जिंदा रहने के हक को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, और उन्हें वहां रहने देने के लिए भी आंदोलन होते हैं।
ऐसे सवाल बहुत सी जगहों पर उठ खड़े होते हैं कि किसी नौबत में क्या किया जाए। किसी उद्यान या सार्वजनिक जगह पर अश्लील गालियां बकते लडक़ों की टोलियों को रोककर, टोककर यह खतरा उठाया जाए कि बाद में आते-जाते वे गाडिय़ों के चक्कों की हवा निकाल जाएं, या फिर उन गालियों को अनदेखा करके चुपचाप आगे बढ़ लिया जाए? यही हाल सार्वजनिक जगहों पर बैठकर सिगरेट या गांजा पीते लोगों को देखकर होता है, या दारू पीते लोगों को देखकर होता है कि उसे अनदेखा किया जाए, या खतरा मोल लेकर उन्हें रोका-टोका जाए?
असल जिंदगी में कोई परामर्शदाता नहीं मिलते जो बताएं कि ऐसी नौबतों में कब क्या करना चाहिए। यह जरूर हो सकता है कि लोग अपने आसपास के दो-चार लोगों से चर्चा करें कि ऐसी नौबत में उन्हें क्या करना चाहिए था, या क्या करना चाहिए। कितना अच्छा होता कि असल जिंदगी में भी उलझन सुलझाने वाली ऐसी कोई आंटी मौजूद होती, और वह बेहतर राह सुझाती रहती। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना वैक्सीन अभी प्रयोगशाला से निकलकर कुछ देशों में कुछ लोगों को लगने जा रही है, और दुनिया भर के लोग बेफिक्र हो गए हैं कि कोरोना का खतरा टल गया है। हिन्दुस्तानी लोग चूंकि कई करोड़ देवी-देवताओं और ईश्वरों पर प्रयोगशालाओं से अधिक भरोसा रखते हैं इसलिए वे कुछ अधिक बेफिक्र हो गए हैं। दूसरी तरफ कोरोना के मोर्चे पर अधिकतर काम राज्य सरकारों को करना पड़ा है लेकिन कोरोना से लेकर लॉकडाऊन तक तकरीबन हर प्रतिबंध केन्द्र सरकार के काबू का रहा है। आज भी कोरोना की वैक्सीन किस तरह आएगी, किनको मुफ्त मिलेगी, किनको भुगतान करना होगा, केन्द्र या राज्य उसमें हिस्सा कैसे बटाएंगे, प्राथमिकता किन्हें दी जाएगी, इसकी कालाबाजारी न हो उसे कैसे रोका जाएगा जैसे दर्जनों सवाल खड़े हुए हैं, और केन्द्र सरकार की राज्यों के साथ कोई अधिक मिलीजुली तैयारी दिख नहीं रही है। फिर यह भी है कि क्या राज्य सीधे ही यह वैक्सीन देश के किसी निर्माता से या किसी विदेशी निर्माता से खरीद सकेंगे, और अपने राज्य में उसका मनचाहा इस्तेमाल कर सकेंगे, या वे केन्द्र के नियमों से बंधे रहेंगे यह भी साफ नहीं है। जिस तरह बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बिहार के हर नागरिक को मुफ्त में कोरोना वैक्सीन लगाने की औपचारिक चुनावी घोषणा की थी, वह घोषणा भी सही थी या झूठी थी, यह भी अब तक साफ नहीं है क्योंकि केन्द्र सरकार अब यह कह रही है कि हर नागरिक को वैक्सीन लगेगी भी नहीं। ऐसे में बिहार का यह वायदा क्या कहा जाए?
आज सुबह की खबर है कि केन्द्र सरकार ने राज्यों से कहा है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव की वोटर लिस्ट के आधार पर 50 बरस से अधिक उम्र वालों की शिनाख्त की जाएगी, और प्राथमिकता के आधार पर पहले से रजिस्टर होने वाले लोगों को टीका लगाया जाएगा। केन्द्र सरकार से बागी तेवर रखने वाली बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने इस फैसले को गलत ठहराया है और कहा है कि जिन लोगों के नाम वोटर लिस्ट में नहीं हैं उनका क्या होगा? पार्टी ने मांग की है कि बिना भेदभाव के सभी नागरिकों को वैक्सीन लगाई जाए। अलग-अलग पार्टियों या अलग-अलग राज्यों की सोच अलग-अलग है। लेकिन केन्द्र सरकार ने बीते कई महीनों में अब तक कोई साफ नक्शा सामने नहीं रखा है कि टीके की लागत कौन उठाएंगे? किस आय वर्ग से ऊपर के लोगों को अपने खर्च पर टीका लगवाना होगा? खर्च में केन्द्र और राज्य का क्या हिस्सा रहेगा? बहुत सारी बातें अभी साफ नहीं हैं जबकि बीते कई महीने इस देश को तैयारी के लिए मिल चुके हैं।
यह बात सही है कि सिर्फ मतदाता सूची को, या सिर्फ नागरिकता के दस्तावेजों को, या आधार कार्ड को बुनियाद बनाकर टीके पाने वाले लोगों की सीमा तय करना गलत होगा। अब तक केन्द्र सरकार को राज्यों से विचार-विमर्श करके यह तय कर लेना था, या राज्यों को तय करने देना था कि वे टीकाकरण कैसे करेंगे। भारत सरकार हर मामले में सबसे अच्छी योजना बनाने वाली हो यह भी जरूरी नहीं है, और दूसरी तरफ राज्यों के चिकित्सा ढांचे एक सरीखे हों यह भी जरूरी नहीं है। इसलिए राज्यों की प्रतिभाओं का भी इस्तेमाल ऐसे टीकाकरण कार्यक्रम की बारीकियों को तय करने में होना चाहिए। यह बात जाहिर है, और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने एक से अधिक बार कही है कि अगले बरस जून-जुलाई तक 20-25 करोड़ वैक्सीन लोगों को लगाने का अनुमान है। अब जैसा कि हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज के साथ हुआ, पहला टीका लगने के एक पखवाड़े बाद वे कोरोना पॉजिटिव हो गए, बाद में डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें दूसरा टीका भी लगना था, जिसकी तारीख नहीं आई थी, इसलिए वे पहले टीके से पूरी तरह सुरक्षित नहीं थे। अब देश में जिन लोगों ने खुद होकर टेस्ट-वैक्सीन लगवाई है, वे बताते हैं कि किस तरह कई तरह की जांच के बाद वैक्सीन लगाई गई, उसके बाद फिर हफ्ते-हफ्ते जांच हुई, और फिर दूसरा डोज लगाया गया। अब सवाल यह है कि टीका लगवाने में फिर गरीब-मजदूरों की कम से कम दो दिनों की मजदूरी जाएगी, और बहुत से लोगों के लिए तो दी गई तारीख पर दूसरे डोज के लिए पहुंचना मुश्किल भी होगा। अब जबकि ऐसे दावे किए जा रहे हैं कि टीका कुछ ही महीने दूर है, तब ऐसी बारीक योजना का खुलासा हो जाना चाहिए था ताकि राज्य सरकारें, स्थानीय संस्थाएं, और सामाजिक संगठन इस बड़ी चुनौती के लिए तैयार हो सकते। लेकिन अब तक जमीन पर ऐसी कोई चर्चा भी सुनाई नहीं दे रही है।
और हिन्दुस्तानी लोग हैं कि वे इस लापरवाही के साथ जी रहे हैं कि मानो लैब में वैक्सीन बन गई है तो वे महफूज हो गए हैं। जबकि हकीकत यह है कि वैक्सीन हर व्यक्ति तक पहुंचने में साल-दो साल भी लग सकते हैं, और इस बीच कोरोना की दूसरी लहर भी आ सकती है क्योंकि लोग लापरवाह हो चुके हैं, सरकारी प्रतिबंध तकरीबन खत्म हो चुके हैं, और बीमारी का खतरा बना हुआ है। हिन्दुस्तान में जिस गैरजिम्मेदारी के साथ शादी-ब्याह, दूसरे जलसे, और मृत्यु कर्म किए जा रहे हैं, वे बताते हैं कि सावधानी से थके हुए इस देश ने अब गैरजिम्मेदारी को ही जीने का ढर्रा बना लिया है। दिक्कत यह है कि देश और प्रदेशों के प्रमुख नेता, सार्वजनिक जीवन के चर्चित और प्रमुख लोग कोई अच्छी मिसाल पेश नहीं कर रहे हैं। वे खुद कैमरों के मोह में बिना मास्क चलते हैं, चुनावों में धक्का-मुक्की को बढ़ावा देते हैं, और कोरोना के खतरे को बढ़ाते चल रहे हैं। आम जनता से लेकर खास लोगों तक का, फिक्र की कोई बात नहीं है, अब खतरा नहीं रह गया है जैसी बातें खतरे को बढ़ाते चल रही हैं। यह खतरा अस्पताल तक पहुंचने की नौबत या जान जाने की नौबत तक सीमित नहीं है, यह खतरा कोरोना के बने रहने तक चौपट हो रही अर्थव्यवस्था पर मंडराता खतरा भी है जो कि टला नहीं है, और न ही टीकाकरण से वह एकदम से टल जाएगा। लोगों को सावधानी जारी रखना जरूरी है, और सावधानी की चर्चा महज अमिताभ बच्चन की टेलीफोन पर घोषणा तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ राज्य महिला आयोग के अध्यक्ष डॉ. किरणमयी नायक का एक चौंकाने वाला बयान आया है जिसमें उन्होंने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि ज्यादातर मामलों में लड़कियां पहले से सहमति से संबंध बनाती हैं, लिव-इन में रहती हैं, और बात बिगडऩे पर रेप का केस दर्ज करा देती हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे रिश्ते में पडऩे का नतीजा बुरा होता है। कई लड़कियां तो 18 साल की होते ही शादी कर लेती हैं, और बच्चा होने पर आयोग में शिकायत लेकर आती हैं। उन्होंने कहा कि ऐसी लड़कियों को फिल्मी तरीके से किसी के चक्कर में नहीं पडऩा चाहिए।
किरणमयी नायक महज कांग्रेस सरकार की मनोनीत आयोग अध्यक्ष नहीं हैं, वे लंबे समय से कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय रही हैं, और पेशे से एक वकील भी हैं। वे कानून को और लोगों के मुकाबले बेहतर समझती हैं, और इसलिए भी उनका यह बयान हक्का-बक्का करता है। बलात्कार की शिकायतों में भारत में यह कानूनी व्यवस्था लंबे समय से है कि बलात्कार की शिकायत कर रही लडक़ी या महिला की नीयत पर जज भी शक नहीं करेंगे। मोटेतौर पर उसकी शिकायत को तब तक सही ही माना जाएगा जब तक वह गलत या झूठी साबित न हो जाए। जब कानून में ही ऐसी व्यवस्था करके रखी है, तो महिला आयोग की अध्यक्ष का बयान उनकी कानूनी जिम्मेदारी के ठीक उल्टे जा रहा है। महिला आयोग का तो जिम्मा ही यही है कि उसके पास आने वाली लड़कियों और महिलाओं की शिकायतों पर वह गौर करे, जो मामले सार्वजनिक रूप से उसकी नजर में भी आते हैं, उन पर गौर करे। अब अगर आयोग की अध्यक्ष ही महिलाओं की शिकायतों पर शक करते हुए उन्हें झूठी शिकायतें न करने की नसीहत दे रही हैं, तो ऐसा लगता है कि महिला आयोग का नजरिया भी समाज में चली आ रही पुरूषवादी सोच से ही उपजा हुआ है। अगर किसी लडक़ी या महिला की शिकायत झूठी है, तो उस पर आयोग भी जांच करने के बाद उसे खारिज कर सकता है, और अदालत भी। लेकिन शिकायतों को लेकर ऐसा आम बयान तो नाजायज है।
हिन्दुस्तान में दिक्कत यह है कि ताकत की जगह पर बैठने के बाद भी महिलाएं दूसरी महिलाओं के हक के आम मुद्दे को नहीं समझ पाती हैं। कई सांसद और भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री भी किसी आंदोलन के दौरान किसी सरकार को उसकी निष्क्रियता, निकम्मेपन, या गैरजिम्मेदारी के लिए चूडिय़ां भेंट करने चली जाती हैं मानो चूडिय़ां कायरता या कमजोरी का प्रतीक हैं। अभी हमें जितना याद पड़ता है उसके मुताबिक इंदिरा गांधी ने प्रदर्शन के इस तरीके की आलोचना की थी, और इंदिरा गांधी को गुजरे भी कई दशक हो चुके हैं। तब से अब तक गंगा का पानी और बहुत प्रदूषित हो चुका है, लेकिन लोगों की सोच नहीं बदली है। अभी कुछ महीने पहले ही खबरों में आए एक बड़े विरोध-प्रदर्शन में बड़ी पार्टियों की प्रमुख महिलाएं किसी सरकार को चूडिय़ां भेंट करते दिख रही थीं।
हिन्दुस्तानी समाज में एक तो वैसे भी महिलाओं के साथ सैकड़ों बरस का भेदभाव चले ही आ रहा है। पहले महिलाओं को सती बनाया जाता था, फिर कन्या भ्रूण हत्या लोकप्रिय थी जो कि आज तक दबे-छुबे चली आ रही है, और दहेज-हत्या, बलात्कार, कामकाज की जगह पर यौन शोषण बहुत ही आम बात है। इन सबके साथ-साथ घर में पुरूषों और लडक़ों के खाना खा लेने के बाद ही महिला और लड़कियों की बारी आती है। एक-दो बरस पहले मुंबई के टाईम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट थी कि वहां के टाटा कैंसर हॉस्पिटल में बच्चों में कैंसर की पहचान होने के बाद उन्हें इलाज के लिए वापिस लाए जाने वाले बच्चों में लड़कियां गिनी-चुनी ही रहती हैं, और तमाम लडक़े इलाज के लिए लाए जाते हैं। अब आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित एक जिम्मेदार अस्पताल का यह निष्कर्ष एक बड़ा सुबूत है कि हिन्दुस्तान में लडक़ों को बचाने लायक माना जाता है, और लड़कियों को मरने के लिए छोड़ देने के लायक।
इन्हीं तमाम बातों को देखते हुए हिन्दुस्तान के कानून में महिलाओं की यौन शोषण की शिकायतों को गंभीरता से लेने के लिए पहले विशाखा गाईडलाईंस बनाई गईं, और उसे बाद में एक व्यापक कानून की शक्ल दी गई। बलात्कार या यौन शोषण की शिकायतकर्ता महिला की नीयत पर कोई शक न किया जाए यह भी भारत में सुप्रीम कोर्ट के स्तर पर तय की गई एक कानूनी व्यवस्था है। इसके बाद भी महिला आयोग की अध्यक्ष का ऐसा व्यापक और आम बयान महिलाओं की आम विश्वसनीयता और साख को खत्म करता है। और इस तरह से यह बयान महिला आयोग के मकसद को ही शिकस्त देता है। हम बहस के लिए अगर पल भर को यह मान भी लें कि उनकी कही बात सही है, और लड़कियां सहमति से संबंध बनाती हैं, और बाद में शिकायत करती हैं। ऐसा होने पर भी उनका शिकायत का हक खत्म नहीं होता है। संबंध बनाने का यह मतलब नहीं रहता कि बाद में कोई शिकायत ही न हो सके।
इसी राज्य छत्तीसगढ़ में कई सरकारी अफसरों द्वारा मातहत कर्मचारियों के यौन शोषण के चर्चित मामले बरसों से चले आ रहे हैं, और उन पर पिछली सरकार के बाद यह सरकार भी कार्रवाई करने से कतरा रही है। छोटे ओहदों की जिन महिलाओं के शोषण के मामलों पर कांग्रेस पार्टी भाजपा सरकार के दौरान सार्वजनिक रूप से आलोचना करती थी, आज सरकार बनकर कांग्रेस उन पर चुप है, और महिलाओं का यौन शोषण करने वाले लोगों को बढ़ावा भी दे रही है। महिला आयोग को ऐसे मामलों को उठाना चाहिए, और पार्टी-पॉलीटिक्स से परे महिलाओं के व्यापक हित और व्यापक हक के लिए काम करना चाहिए। किरणमयी नायक का खुद होकर दिया हुआ यह बयान बहुत ही निराशाजनक है, और इससे एक तबके के रूप में महिलाओं की साख को उन्होंने बहुत नुकसान पहुंचाया है। ऊंचे ओहदे, ऊंची जिम्मेदारियां भी लेकर आते हैं, और उनके साथ ऊंचे दर्जे की सावधानी भी बरती जानी चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के नए संसद भवन का शिलान्यास उस वक्त किया गया है जब सुप्रीम कोर्ट ने इसके निर्माण पर रोक लगाकर रखी है। खींचतान कर अदालत से सरकार ने इस भूमिपूजन और शिलान्यस की इजाजत ली थी, और आज देश की बदहाली के बीच हजार करोड़ के बजट वाली यह इमारत बनाने पर सरकार आमादा है। मौजूदा संसद भवन एक सदी पुराना भी नहीं है, और इसे छोटा बताया जा रहा है। देश का मीडिया लिख रहा है कि दुनिया के बहुत से देशों में संसद की इमारतें सदियों पुरानी हैं। हालैंड की संसद की इमारत13वीं सदी में बनी है, अमरीका की संसद भवन सन् 1800 में बनी है, और उसे दो सदी से अधिक हो गए हैं। ब्रिटिश संसद की इमारत 1840 और 1870 में बनी है। इटली की संसद की इमारत 16वीं सदी में बनी है। फ्रांस की संसद 1615 से 1645 के बीच बने भवन में लगती है। भारत का संसद भवन 1927 में बनकर तैयार हुआ था, और अब इसे छोटा बताकर एक नया ही भवन बनाया जा रहा है।
अभी जब सुप्रीम कोर्ट ने इस भवन निर्माण पर रोक लगाई हुई है, तो जाहिर है कि शिलान्यास और भूमिपूजन करके निर्माण करने की कोई हड़बड़ी तो थी नहीं। ऐसे में जब किसान इसी दिल्ली के किनारे सडक़ों पर धरना दिए हुए एक पखवाड़े से खुली ठंड में पड़े हैं, वहां कुछ मौतें भी हो गई हैं। आज देश में राजनीतिक बकवासों से परे सिर्फ एक ही मुद्दे पर चर्चा चल रही है, और वह किसानों का मुद्दा है। इस बीच नए संसद भवन को बनाने के लिए समारोहपूर्वक पूजा का मौका कुछ अटपटा है, और ऐसा लगता है कि किसी भी संवेदनशील लोकतंत्र को आज इससे बचना चाहिए था, क्योंकि निर्माण पर तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई हुई ही है। अब कहने के लिए यह कहा जा सकता है कि संसद भवन के लिए शिलान्यास का फैसला लोकसभा अध्यक्ष का है जो कि संसद परिसर के मुखिया माने जाते हैं, लेकिन उन्हें अध्यक्ष बनाने वाली भाजपा और उसके प्रधानमंत्री की औपचारिक या अनौपचारिक सहमति के बिना तो ऐसा कोई कार्यक्रम लोकसभा अध्यक्ष ने तय किया नहीं होगा।
भारत का मौजूदा संसद भवन भारी भव्यता वाला है, और यह भी अपने आपमें एक फिजूलखर्ची वाली शाही फितरत की इमारत रही। लेकिन वह वक्त अंग्रेज राज का था जो कि राजसी मिजाज वाला ही था, और जिसने अपने खुद के देश और गुलाम देशों में पश्चिमी वास्तुशिल्पियों से ऐसी ही शाही इमारतें बनवाई थीं। आज अंग्रेजों के वक्त के बनाए गए सडक़ और रेल के पुल तो सौ बरस बाद भी मजबूती के साथ काम कर रहे हैं, इसलिए संसद भवन की मजबूती को लेकर कोई शक नहीं हो सकता। पिछले कई दशकों में ऐसा भी सुनाई नहीं पड़ा कि संसद भवन का कोई हिस्सा जर्जर होकर गिर गया हो, और वह लोगों के लिए खतरा बन गया हो। इसलिए नए संसद भवन की सोच पहली नजर में हम एक बहुत बड़ी फिजूलखर्ची लगती है। अगर संसद का काम पिछली पौन सदी में बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया है कि उसके दफ्तर के लिए जगह कम पडऩे लगी हैं, तो दफ्तर की कोई इमारत आसपास की लगी हुई जगह पर बनाकर उससे संसद भवन को जोड़ा जाना चाहिए था, न कि संसद के लिए ही नई इमारत बनाना।
हम लोकसभा और राज्यसभा दोनों की कार्रवाई टीवी पर देखते हैं, और सेंट्रल हॉल में दोनों सदनों के संयुक्त सत्रों को भी देखते हैं, इनमें से किसी में भी जगह कम नहीं पड़ती। इससे परे लोगों को बीबीसी टीवी पर ब्रिटिश संसद की कार्रवाई देखनी चाहिए जहां भारतीय लोकसभा की तरह निम्न सदन, हाऊस ऑफ कॉमन्स के दरवाजे पर सांसद खड़े रहते हैं, और सीट खाली होने का इंतजार करते हैं। वहां संसदीय सीटों की संख्या बढ़ गई लेकिन ब्रिटिश संसद ने अपने सदन में सीटें नहीं बढ़ाईं, इसलिए वहां सारे सदस्य एक साथ नहीं बैठ सकते। कुछ न कुछ सांसद दरवाजे पर खड़े रहते हैं, और सीट खाली होने पर जाकर बैठते हैं। दूसरी तरफ उसी ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था पर बनी हुई भारतीय संसद में तो अभी 6 बरस पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार पांव धरते हुए वहां माथा टिकाया था, और इन 6 बरसों में ही वह संसद भवन नाकाफी लगने लगा!
हजार करोड़ की लागत से यह नया संसद भवन बनाया जा रहा है। लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों की गिनती करें तो प्रति सांसद इस भवन की लागत करीब एक-सवा करोड़ रूपए आएगी। आज जब देश में फटेहाली है, गरीबी और बेरोजगारी है, जब अन्नदाता किसान सडक़ों पर मर रहा है, तब देश की संसद का अपने ऊपर यह निहायत गैरजरूरी और नाजायज है। होना तो यह चाहिए कि सांसद किफायत और सादगी में जीकर अपने विचार-विमर्श, बहस और तर्क-वितर्क बेहतर बनाते, लेकिन वह तो हो नहीं रहा। संसद अप्रासंगिक हो चुकी है, और एक संवैधानिक जरूरत की तरह वहां ध्वनिमत से काम चल रहा है। ऐसी संसद जिसने अपनी बुनियादी भूमिका खो दी है, उस संसद को इतनी फिजूलखर्ची का कौन सा नैतिक हक हो सकता है? और फिर सरकार में खर्च के न्यायोचित रहने का एक सिलसिला होता है। जब कोई भी सरकारी निर्माण अपनी उम्र खो बैठता है, जब वह खतरनाक हो जाता है, तब उसकी जगह नई इमारत बनाई जाती है। आज तो संसद की इमारत का कोई खतरा सुनाई नहीं पड़ा था, और अब जब पूरी दुनिया में कागजों का काम घट रहा है, और वह कम्प्यूटरों पर आ रहा है, तब तो संसद के लिए जगह कम लगनी चाहिए थी। सुप्रीम कोर्ट में नए संसद भवन के खिलाफ यह तर्क भी सामने आया है कि संसद भवन और आसपास की इमारतों का विकल्प तैयार करने के लिए सरकार उस इलाके पर 20 हजार करोड़ रूपए खर्च करने जा रही है। अभी भूमिपूजन के मौके पर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा जारी सूचना में सरकार ने यह कहा है कि नया संसद भवन आत्मनिर्भर भारत के दृष्टिकोण का एक हिस्सा रहेगा। इसी बयान में बताया गया है कि लोकसभा अपने मौजूदा आकार से तीन गुना बड़ी रहेगी, और राज्यसभा भी पर्याप्त बड़ी रहेगी। यह भी कहा गया है कि सदस्यों के लिए बैठने का और अधिक आरामदेह इंतजाम रहेगा।
अब सवाल यह है कि सांसदों को और कितने आराम की जरूरत है? जब देश में आराम-हराम हो की नौबत है, जब हर हिस्से में तरह-तरह की नकारात्मक बातें हो रही हैं, तो उनकी चर्चा करने के लिए सांसदों को और कितना आराम चाहिए? दिल्ली में जानकार विशेषज्ञों ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर आपत्ति की है कि नया भवन 900 से 1000 लोकसभा सदस्यों का अनुमान लगाकर बनाया जा रहा है जो आज से करीब दोगुने का है। अदालत में यह कहा गया है कि लोकसभा सीटों के पुनर्गठन की अगली बैठक ही 2031 में होनी है, और उसमें आज की 543 सीटों को बढ़ाने पर विचार होगा। उस पुनर्गठन आयोग से परे सीटें बढ़ाने का फैसला और कोई नहीं ले सकते। ऐसे में आज सरकार एक अनुमान लगाकर लोकसभा के आकार को तीन गुना और सीटों को करीब दो गुना करने जा रही है जो कि बेवक्त की बात है।
हमारा बहुत साफ मानना है कि हिन्दुस्तान के सारे राष्ट्रीय आर्थिक आंकड़ों से परे हकीकत यह है कि यह एक बहुत गरीब देश है। इसमें एक फीसदी ऐसे रईस हैं जिनके पास देश की 58 फीसदी दौलत है। उनसे परे भी गरीबों और मध्यमवर्गीयों के बीच बहुत बड़ा फासला है। इसलिए इस देश को किफायत की जरूरत है न कि ऐसी आत्मनिर्भरता की जिसका इस्तेमाल अगले सौ-दो सौ बरस भी शायद न हो सके। जब देश की जनता पूरी जिंदगी रेलगाडिय़ों में फर्श पर बैठकर या पखाने में घुसकर सफर करने को मजबूर है, तब लोकसभा में जरूरत पडऩे पर मौजूदा भवन की ही क्षमता कुछ बढ़ाई जा सकती है। गरीब देश की अमीर संसद का यह प्रदर्शन हिंसक और अश्लील है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर इस बात पर बहस छिड़ी है कि क्या देश के आरक्षित तबकों में, खासकर अनुसूचित जाति, और अनुसूचित जनजाति में किसी तरह की क्रीमीलेयर लागू करनी चाहिए ताकि उन समुदायों के बीच आरक्षण के फायदे उन लोगों तक भी पहुंच सकें जो कि समान अवसरों को पाने की तैयारी में बहुत अधिक पिछड़े हुए हैं। इनमें से पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए तो क्रीमीलेयर लागू है ताकि उनमें सबसे संपन्न लोग, उन्हीं के बच्चे ओबीसी आरक्षण के फायदों के अकेले हकदार न रह जाएं, और उन समुदायों के कमजोर तबकों के लोगों को इस आरक्षण का अधिक फायदा मिले। दूसरी तरफ जब एसटी-एससी तबकों के लिए आरक्षण की बात आती है, तो इन्हीं तबकों के हिमायती नेता एक बवाल खड़ा करते हैं कि दलितों और आदिवासियों में सामाजिक परिस्थितियां इतनी अलग हैं कि एक पीढ़ी को आरक्षण का फायदा देकर उसके बाद उसे फायदे से बाहर कर देने से वह सामाजिक बराबरी की नौबत में नहीं पहुंच जाती। एक प्रमुख दलित-आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता का यह मानना है कि आरक्षण का यह फायदा कम से कम तीन पीढ़ी तक जारी रहना चाहिए तब कोई दलित-आदिवासी परिवार सदियों के सामाजिक अन्याय से बाहर आ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल उठाया है उसके 10-20 बरस पहले से मैं दलित-आदिवासी तबकों के भीतर से क्रीमीलेयर को पढ़ाई और नौकरी के आरक्षण से बाहर करने की वकालत करते आया हूं। इसके पीछे सरल और सहज तर्क यह है कि इन दोनों किस्म के आरक्षणों में इन तबकों के एक फीसदी लोगों को भी मिलने जितने मौके नहीं रहते हैं। अगर किसी दलित के लिए एक सीट है, तो शायद कई सौ या कई हजार दलित उम्मीदवार उसके लिए रहते हैं। ऐसे में एक परिवार जिसे एक बार नौकरी का फायदा मिल चुका है, जो एक दर्जे से ऊपर के सार्वजनिक, सरकारी, अदालती, या किसी और किस्म के जनसेवक के ओहदे पर पहुंच चुके हैं, उनके बच्चों को आरक्षण के फायदे से बाहर करना चाहिए। वे ऐसी हालत में पहुंच चुके रहते हैं कि वे अपने बच्चों को आगे की पढ़ाई और नौकरी के मुकाबलों के लिए बेहतर तैयार कर सकते हैं। अब अगर हम यहां पर तीन पीढ़ी के तर्क को लागू करें, तो क्रीमीलेयर में पहुंच चुके और ताकतवर हो चुके दलित या आदिवासी की अगली दो पीढिय़ां भी आरक्षण का फायदा पाने की हकदार रहेंगी। हकदार रहने के साथ-साथ वे ताकतवर भी होती जाएंगी ताकि वे अपनी बिरादरी के बाकी लोगों के साथ होने वाले मुकाबले में बेहतर तैयार रहें, अधिक मजबूत रहें। करोड़पति हो चुके एक दलित या आदिवासी के बच्चों को आगे भी ऐसे मौके देना उनके साथ तो इंसाफ हो सकता है, लेकिन यह उन्हीं आरक्षित तबकों के तीन चौथाई, या उससे भी अधिक 90 फीसदी कमजोर लोगों के साथ बेइंसाफी ही रहेगी जो कि समान मौकों के मुकाबले के लिए तैयार ही नहीं हो पाते हैं। इस तरह आज आरक्षित तबकों के भीतर संपन्न, ताकतवर, और बेहतर शिक्षित लोगों का एक ऐसा आभिजात्य वर्ग तैयार हो गया है जो कि एक फौलादी मलाई की शक्ल में मौकों और तबके के लोगों के बीच जमकर बिछ गया है। इस फौलादी मलाई को चीरकर नीचे के कमजोर और विपन्न लोग, पहली पीढ़ी के शिक्षित लोग, किसी भी मुकाबले में बराबरी की तैयारी नहीं कर पाते।
जो लोग यह सोचते हैं कि तीन पीढ़ी तक आरक्षण का फायदा मिले बिना किसी परिवार का सामाजिक पिछड़ेपन से, सामाजिक शोषण से उबर पाना मुमकिन नहीं है, वे लोग महज क्रीमीलेयर के लिए फिक्रमंद शहरी, शिक्षित, संपन्न, और ताकतवर लोगों के हिमायती लोग हैं। आरक्षण की पूरी सोच जिस सामाजिक और आर्थिक शोषण से तबकों को उबारने के लिए है, उन तबकों के भीतर ही लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी पिछड़ते चले जाएं, यह सामाजिक न्याय नहीं होगा, यह आर्थिक न्याय नहीं होगा, यह किसी भी किस्म का न्याय होगा।
दिक्कत वहां खड़ी होती है जहां आरक्षित तबकों के बाहर के लोग (जिनमें यह लेखक भी शामिल है) इस बात को उठाते हैं, उस वक्त गैरगंभीर बहस में तो कुछ लोग इसे ऐसा भावनात्मक नारा भी बनाने की कोशिश करते हैं कि मानो आरक्षण को खत्म करने की कोई बात हो रही है। इसलिए इस बहस के बीच भी इस बात का खुलासा जरूरी है कि यह तमाम तर्क आरक्षण को किसी भी तरह से घटाने की बात नहीं कर रहा है, यह महज आरक्षित तबकों के भीतर एक अधिक तर्कसंगत और न्यायसंगत बंटवारे की बात कर रहा है।
आज दिक्कत यह है कि जब कभी संसद में दलित-आदिवासी तबकों में से क्रीमीलेयर को आरक्षण के फायदों से बाहर करने की बात होगी, संसद में कानून बनाने वाले सांसदों के अपने बच्चे ऐसे किसी प्रतिबंध से फायदे से बाहर हो जाएंगे। जिन अफसरों को सरकार में बैठकर प्रस्ताव तैयार करने होते हैं, उनके बच्चे भी क्रीमीलेयर में गिनाकर फायदे से बाहर हो जाएंगे। इसलिए दलित-आदिवासी तबकों की क्रीमीलेयर के वर्गहित में यह नहीं है कि उस क्रीमीलेयर पर किसी तरह की रोक लगे, उसे आरक्षण के फायदों से किसी तरह बाहर किया जाए। यह सीधे-सीधे हितों के टकराव का एक मामला है जिसमें क्रीमीलेयर यह तर्क देने लगती है कि आरक्षण का फायदा कम से कम तीन पीढ़ी जारी रहना चाहिए।
जिस सामाजिक-आर्थिक अन्याय के खिलाफ आरक्षण की व्यवस्था बनाई गई थी, उसी अन्याय को अब आरक्षित तबकों के भीतर बढ़ावा दिया जा रहा है, और समाज के नेता बने हुए लोग, समाज के ताकतवर लोग यह काम कर रहे हैं। अन्याय के शिकार आरक्षित तबकों के तीन चौथाई लोग तो कभी भी ऐसी फौलादी क्रीमीलेयर में छेद करके अवसरों के आसमान तक नहीं पहुंच पाएंगे, वे महज सतह के नीचे रह जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट में भी आज जो बहस चल रही है, वह इन आरक्षित तबकों के भीतर के कमजोर वर्गों के बारे में बात कर रही है। लेकिन हम जातियों के आधार पर आरक्षित तबकों के भीतर बंटवारा करने के बजाय आर्थिक और ताकतवर ओहदों के आधार पर अवसरों के बंटवारे की वकालत बेहतर समझते हैं। जाति के आधार पर आरक्षण तो हो चुका है, अब ओबीसी की तरह जाति के भीतर अधिक पिछड़ी जाति जैसी बात दलित और आदिवासी तबकों पर अगर लागू की जाती है, तो वह एक बहुत जटिल चुनौती रहेगी। शायद आरक्षित तबकों के भीतर यह तरीका अकेला मुमकिन और कारगर तरीका रहेगा कि संपन्नता और सरकारी-सार्वजनिक ओहदों को क्रीमीलेयर का पैमाना बनाया जाए, आरक्षण पाई हुई एक पीढ़ी अगर ऐसे ओहदों तक पहुंच गई है, ऐसी संपन्नता तक पहुंच गई है कि वह अपने बच्चों को बेहतर तैयार करने की हालत में हैं, तो उसे नौकरी और पढ़ाई के आरक्षण से बाहर करना चाहिए। तभी एक सामाजिक न्याय की बात हो सकेगी। और अगर, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है, आरक्षित जातियों के भीतर अधिक पिछड़ी और अधिक कमजोर जातियों के आधार पर इन तबकों के आरक्षण-ढांचे में फेरबदल किया जाता है, तो उस फेरबदल के साथ भी क्रीमीलेयर की शर्त जोड़ी जानी चाहिए। हम गिने-चुने परिवारों को बार-बार आरक्षण का फायदा देकर आरक्षित जातियों के भीतर एक अनारक्षित जैसी ताकत के हिमायती नहीं हैं। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मोबाइल फोन पर एक गेम खेलते हुए एक छोटे बच्चे की खुदकुशी सामने आई है। यह बात दिल को दहलाने वाली है, और यह हादसा अपने आपमें अकेला नहीं है, हर कुछ हफ्तों में कोई बच्चा इसी तरह कुछ खेलते हुए जान दे रहा है। मोबाइल पर किसी एक गेम पर प्रदेश की सरकारें या देश की सरकार रोक लगाती हैं, और या तो उससे बचकर लोग यह खेलते रहते हैं, या फिर कोई नया कातिल-वीडियो खेल सामने आ जाता है। आज हालत यह है कि मोबाइल फोन के भयानक इस्तेमाल के चलते छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे भी बड़ों को देख-देखकर उस पर वीडियो देखे बिना खाने-पीने से मना कर देते हैं, और उनको कुछ खिलाने के चक्कर में मां-बाप तुरंत समझौता कर लेते हैं।
अब चौथाई सदी पहले तक हिन्दुस्तान में जो फोन किसी ने देखा-सुना नहीं था, उसने इस भयानक रफ्तार से, और इस भयानक हद तक घुसपैठ कर ली है कि पति-पत्नी में फोन के बुरी तरह इस्तेमाल को लेकर तलाक की नौबत आ रही है, अपनी मर्जी का फोन पाने के लिए जिद करते हुए बच्चे मांग पूरी न होने पर खुदकुशी कर रहे हैं। फोन पर तरह-तरह के एप्लीकेशन के चलते लोग लापरवाही में अपनी फोटो या वीडियो बांट रहे हैं, और उसके फैल जाने पर जान ले रहे हैं, या जान दे रहे हैं। कुल मिलाकर टेक्नालॉजी और उसके इस्तेमाल को लेकर लोगों में समझ की कमी खूनी हुई जा रही है। डिजिटल नशा सिर चढक़र बोल रहा है, और दुनिया के दूसरे कई देशों की तरह इसके नशे से नशामुक्ति करवाने के लिए हिन्दुस्तान में भी अभियान चलाने की जरूरत आ खड़ी हुई है।
दुनिया के बाल मनोचिकित्सकों का मानना है कि छोटे बच्चों के सामने फोन, कम्प्यूटर, या टीवी, किसी भी तरह की स्क्रीन एक दिन में तीस मिनट से अधिक नहीं रहनी चाहिए, वरना उनकी दिमागी सेहत पर, उनकी आंखों पर इसका बुरा असर पड़ता है। लेकिन बच्चों के इर्द-गिर्द रहने पर भी परिवार के बड़े लोग अपनी जरूरत, अपने शौक, या अपनी लत के चलते हुए ऐसे तमाम डिजिटल उपकरणों का घंटों इस्तेमाल करते हैं, और उनके चाहे-अनचाहे छोटे बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं। सरकारें तो किसी खूनी खेल पर कानूनी रोक लगाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रही हैं, लेकिन घर के भीतर ऐसे प्रतिबंधित खेलों से परे परिवार के लोग कितनी देर तक किस स्क्रीन पर क्या देखते हैं, इस पर तो न कोई सरकार निगरानी रख सकती, न इसे रोकने का कोई कानून बन सकता। लोगों को खुद ही अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, और अपने न सही, अपने बच्चों के भले के लिए तमाम किस्म के डिजिटल उपकरणों का रोजाना का एक ऐसा कोटा तय करना होगा जिससे कि बच्चों के सामने ये सामान कम से कम शुरू हों।
यह भी समझने की जरूरत है कि बच्चों के दिमाग विकसित होने के जो शुरूआती बरस रहते हैं, उसमें उनके सामने कल्पनाएं अधिक महत्वपूर्ण रहती हैं, बजाय रेडीमेड फिल्मों के, या कि गढ़े हुए संगीत के। जब वे खुद कुछ लकीरें बनाते हैं, या चीजों को ठोक-बजाकर आवाज पैदा करते हैं, तो वही उनके मानसिक विकास के लिए बेहतर होता है, फिर चाहे वह कार्टून फिल्मों की तरह अधिक चटख रंगों वाला न हो, या स्टूडियो में बनाए गए गीत-संगीत जितना मधुर न हो। इसलिए छोटे बच्चों को बड़ा करते हुए आज के वक्त यह सावधानी इसलिए भी अधिक जरूरी है क्योंकि हर आम परिवार में एक से अधिक ऐसे फोन या दूसरे उपकरण हो गए हैं जिन पर लगभग मुफ्त मिलने वाले इंटरनेट से ऐसी तमाम फिल्में बच्चों को दिखाई जा सकती हैं। ऐसा करना परिवार के बड़े लोगों को अपने दूसरे काम करने के लिए वक्त तो दिला देता है, लेकिन छोटे बच्चों को बहुत बुरी तरह ऐसे वीडियो, और फिर आगे जाकर ऐसे गेम का नशेड़ी भी बना देता है। परिवार के बड़े लोगों के एक सामाजिक-शिक्षण की जरूरत है ताकि वे उपकरणों के बीच रहते हुए भी अपने बच्चों को एक सेहतमंद माहौल में बड़ा कर सकें। इस बात की गंभीरता जिनको नहीं लग रही है, वे कल मोबाइल-गेम खेलते हुए इस तरह खुदकुशी करने वाले बच्चे की खबर कुछ बार जरूर पढ़ लें। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के निर्वाचित-राष्ट्रपति जो बाइडन ने आज अमरीकी फौज के एक रिटायर्ड जनरल लॉयर्ड ऑस्टिन को अपना रक्षामंत्री चुना है। उनका कार्यकाल शुरू होने में अभी समय है, लेकिन अमरीका में निर्वाचित-राष्ट्रपति अपनी सरकार के तमाम ओहदों पर पहले से लोगों को मनोनीत करने की परंपरा पर चलते आए हैं। जनरल ऑस्टिन सैकड़ों बरस के अमरीकी लोकतंत्र में पहले अफ्रीकी-अमरीकी रक्षामंत्री होंगे। हालांकि एक अफ्रीकी-अमरीकी बराक ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति भी हो चुके हैं, और इस बार उपराष्ट्रपति चुनी गई कमला हैरिस भी काली महिला हैं। अमरीका में दो ही पार्टियों का राज चलता है, उनमें से इस बार जीते राष्ट्रपति जो बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं जो कि इन दोनों पार्टियों में अधिक उदार मानी जाती है, जो अप्रवासियों, यौन-विविधताओं वाले लोगों, महिलाओं, गरीबों, बेरोजगारों, बेघरों के प्रति अधिक हमदर्दी रखती है।
आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का मकसद यह है कि निर्वाचित-राष्ट्रपति ने अभी कुछ दिन पहले ही यह घोषणा की है कि उनकी सरकार सर्वाधिक विविधता से भरी हुई होगी। आज हिन्दुस्तान जैसे दकियानूसी देश को छोड़ दें, तो पश्चिम के बहुत से विकसित लोकतंत्र ऐसे हैं जिनमें अब एक-एक करके बहुत से नेता अपनी लीक से हटकर यौन-प्राथमिकता घोषित भी करने लगे हैं। बहुत से ऐसे मंत्री होने लगे हैं जो कि समलैंगिक हैं। बहुत से ऐसे प्रधानमंत्री हो गए हैं जो कि शादी के बिना मां-बाप बने हैं, और जिन्हें शादी की कोई जरूरत नहीं लगती है। लोग अब पहले के मुकाबले बहुत खुलकर अपने निजी जीवन को लोगों के सामने रखने लगे हैं, और हिन्दुस्तान में यहां के नेताओं के बारे में अभी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।
दुनिया भर में जो संकीर्णतावादी राजनीतिक दल होते हैं, वे अपने उम्मीदवार चुनते हुए, या अपने ओहदों पर लोगों को मनोनीत करते हुए बहुत तंगदिली और तंगनजरिए से काम लेते हैं। वे धर्म के आधार पर, नस्ल और रंग के आधार पर, जाति के आधार पर अपने बहुमत से मेल खाते हुए लोगों को ही बढ़ावा देते हैं। नतीजा यह होता है कि किसी जनकल्याणकारी सरकार के भीतर विचार-विमर्श के वक्त जो विविधता रहनी चाहिए, वह नहीं रह पाती। लोग अपने आपको दलितों और आदिवासियों का मसीहा ही क्यों न मान लें, अपने आपको अल्पसंख्यकों का बहुत बड़ा मददगार क्यों न मान लें, हकीकत यह रहती है कि उन तबकों की बुनियादी दिक्कतों को समझने के लिए उन्हीं के बीच से आए हुए ऐसे प्रतिनिधि ही मददगार होते हैं जो कि सचमुच ही उन तबकों की चुनौतियों और महत्वाकांक्षाओं से वाकिफ होते हैं। हिन्दुस्तान में भी देश-प्रदेश के मंत्रिमंडलों में अगर सत्तारूढ़ पार्टी उदारवादी है, तो सभी धर्म, जाति, और तबकों को जगह देने की कोशिश होती है। यह एक अलग बात है कि इन तबकों से अक्सर ही ऐसे लोग आ जाते हैं जो कि राजनीति में बने रहकर अपने तबकों की जड़ों से दूर हो चुके रहते हैं, और वे सत्ता की ताकत से ताकतवर हो चुके रहते हैं। नतीजा यह होता है कि वे अपने डीएनए की वजह से सत्ता में अपने तबके के प्रतिनिधि मान लिए जाते हैं, और वे तबके से ऊपर उठ चुके रहते हैं।
अमरीका ने पिछले चार बरस में डोनल्ड ट्रंप नाम के बेदिमाग और बददिमाग कट्टरपंथी राष्ट्रपति को देखा है, और अपनी तमाम ताकत के बावजूद वह दूसरा कार्यकाल नहीं पा सका, और राष्ट्रपति भवन से अब चल बसने का वक्त आ गया है। अमरीका जिन सस्ते मैक्सिकन मजदूरों पर चलता है, उनको रोकने के लिए बंदूक की नोंक पर सरहदी दीवार बनाने की मुनादी टं्रप ने तानाशाह के अंदाज में की थी, और यह भी कहा था कि इसका खर्च मैक्सिको को देना पड़ेगा। ट्रंप के इस कार्यकाल के साथ ही भेदभाव की ऐसी नीतियां खत्म होने का समय आ गया है, ऐसा बददिमाग राष्ट्रपति भी ऐसी कोई दीवार नहीं बनवा सका। ट्रंप के दिमाग में अमरीकी ताकत और उसकी श्रेष्ठता ऐसे बैठी हुई थी कि वह हिन्दुस्तान जैसे दोस्त देशों को भी जब चाहे तब धिक्कारता रहता था, और अपने स्वागत में पलकें बिछाने वाले हिन्दुस्तान को एक गंदा देश करार देता था। उससे छुटकारा मिलने के बाद अब अमरीका एक बेहतर कल की तरफ बढ़ेगा लेकिन एक पिछले राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह कहा कि ट्रंप ने देश को जिस हद तक बांट दिया है, उस हालत को सुधारना शायद अगले चार बरस में नए राष्ट्रपति के लिए भी मुमकिन नहीं होगा।
दुनिया के लोगों को यह समझना चाहिए कि सत्ता पर बैठे हुए लोग बर्बादी महज अपने कार्यकाल के रहते हुए नहीं करते हैं, वे कई किस्म की ऐसी बर्बादी कर जाते हैं जिन्हें कि आने वाली सरकार अपने कार्यकाल में भी पूरी तरह सुधार नहीं पाती। नफरत और अलगाव को अपने कार्यकाल में बढ़ावा देकर फिर उसे बंद नहीं किया जा सकता। नफरती-सरकारें चली जाती हैं, लेकिन नफरत और हिंसा का सिलसिला छोड़ जाती हैं, जो कि बाद में बरसों तक चलते रहता है। ट्रंप ने अमरीकी विविधता को खत्म करने की जितनी कोशिश की थी, शायद अमरीकी उसी से दहल गए, और उन्होंने ट्रंप से छुटकारा पा लिया। ट्रंप की सोच और उसके फैसले अमरीकी संस्कृति और चरित्र के खिलाफ थे। ऐसा रहते हुए भी उसने एक चुनाव तो जीत लिया था, और दूसरे चुनाव में उसे पूरी तरह खारिज नहीं समझा जा रहा था। लेकिन लोगों ने एक उदारवादी और विविधतावादी जो बाइडन को, डेमोक्रेटिक पार्टी को चुन लिया। आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए जरूरी लग रहा है कि न सिर्फ सरकारों में बल्कि अखबारों और टीवी चैनलों में भी काम करने वाले लोगों की अगर विविधता नहीं रहेगी, तो उनके फैसले कभी जनकल्याणकारी नहीं रहेंगे। अमरीका के कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशनों में यह घोषित नीति है कि उनके समाचार-विचार के विभागों में देश की आबादी के हर तबके के लोगों का अनुपातिक प्रतिनिधित्व होना चाहिए। जब कभी किसी कुर्सी को भरना होता है, तो देखा जाता है कि किस तबके के लोग कम हैं, या नहीं हैं, और फिर उन तबकों के लोगों को छांटा जाता है।
हिन्दुस्तान के माहौल में ऐसी विविधता की बात करना कुछ अटपटा लगेगा, लेकिन किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र की बात अलग होती है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली को घेरे हुए चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में कल हिन्दुस्तान बंद का आव्हान किया गया है। बहुत से लोगों को यह लग रहा है कि यह पंजाब का किसान आंदोलन है, और बाकी देश का इससे क्या लेना-देना है? इसी वजह से आंदोलन के विरोधी इसके किसी एक लापरवाह बकवासी के असली या नकली वीडियो को लेकर आंदोलन को खालिस्तानी साबित कर रहे हैं। सोशल मीडिया इन तोहमतों से भी भरा है कि इस आंदोलन को मुसलमानों का साथ है। जवाब में सोशल मीडिया पर दूसरे लोग यह भी गिना रहे हैं कि तोहमत लगाने वालों के तो बहनोई ही मुस्लिम हैं, तो वे किसान आंदोलन को मुस्लिमों के समर्थन को बुरा कैसे कह सकते हैं? हरियाणा के कृषि मंत्री का औपचारिक बयान और अधिक दिलचस्प और सनसनीखेज था कि किसानों का यह आंदोलन चीन और पाकिस्तान की साजिश का नतीजा है। अब तक हिन्दुस्तान में सबसे विख्यात विदेशी हाथ वाली तोहमत इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी के तर्क की थी, अब किसान आंदोलन पर दो दुश्मन देशों की साजिश होने की तोहमत लग रही है। दूसरी तरफ कनाडा के प्रधानमंत्री से लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव तक, और ब्रिटेन के दर्जनों सांसदों तक ने किसान आंदोलन पर भारत सरकार के रूख का विरोध किया है। कुल मिलाकर तस्वीर ऐसी बनी है कि दुनिया की कई सरकारें तो भारत के किसान आंदोलन के साथ हैं, और इस देश की सरकार, इसके हरियाणा जैसे प्रदेशों की सरकारें, इस देश की साइबर-फौज इस आंदोलन को विदेशी साजिश करार देने पर आमादा हैं।
देश के एक बड़े सीनियर और मोदी के विरोधी न समझे जाने वाले पत्रकार ने लिखा है कि मोदी सरकार और भाजपा इस आंदोलन से सीधे जुड़े हुए पंजाब के सिक्ख किसानों की फितरत नहीं समझ पाए, और उनसे एक गैरजरूरी लड़ाई मोल ले बैठे हैं। उन्हें यह भी समझ नहीं पड़ रहा कि सिक्ख ऐसी लड़ाई लाद दिए जाने पर उससे पीछे नहीं हटते क्योंकि वे लड़ाकू मिजाज के रहते हैं। बात सही है। मुगलों के समय से लेकर अंग्रेजों के समय तक, और पाकिस्तान से लेकर चीन के समय तक सिक्खों ने लड़ाईयों में सबसे बड़ी शिरकत की है, और सबसे बड़ी शहादत भी दी है। पंजाब के हर कुछ एकड़ के खेतों से एक सैनिक निकलता है, और घर में खेती की संपन्नता होने के बाद भी पंजाबी किसान इस बात पर गर्व महसूस करता है कि उसकी औलाद मुल्क की हिफाजत के लिए सरहद पर डटी है। दरअसल सिक्ख गुरूओं ने अपने बच्चों की जितनी शहादतें दी हैं, वे मिसालें सिक्खों के दिमाग से कभी हटती नहीं हंै, इसीलिए वे न फौज में जाने से पीछे हटते, न ही किसी आंदोलन से। और तो और इस धर्म ने उनमें सेवाभाव इतना कूट-कूटकर भरा है कि वे किसी भी मुसीबतजदा के साथ खड़े हो जाते हैं, बात की बात में लंगर खोल लेते हैं, और अपनी नजरों की जद में किसी को भूखा नहीं रहने देते। ऐसा सब करते हुए इस लड़ाकू कौम के किसानों को रोकने के लिए केन्द्र सरकार की पानी की तोपें एक हास्यास्पद हथियार रही।
अब देश के करीब एक दर्जन राजनीतिक दल किसानों के साथ खड़े हो गए हैं, और केन्द्र सरकार के कृषि कानूनों का खुलकर विरोध कर रहे हैं। यहां पर भारत के संसदीय लोकतंत्र को कुछ समझने की जरूरत है। जिस वक्त संसद में ये किसान कानून आए, और विपक्ष के तकरीबन तमाम हिस्से ने इसका विरोध किया तो सरकार ने इन्हें ध्वनिमत से पारित करा लिया। ध्वनिमत से किसी विधेयक को कानून बनाना एक सबसे आखिरी हथियार होना चाहिए। ऐसा हथियार संसद में सर्वानुमति या आमसहमति की संभावना को खत्म करने के बाद ही इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन भारत की आधी आबादी को प्रभावित करने वाली कृषि के पूरे ढांचे को बदलने वाले इन कानूनों को बनाते हुए केन्द्र सरकार ने विपक्ष को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि आज वह बात सडक़ों पर नारों की शक्ल में गूंज रही है, और संसद में जितनी फजीहत होती, उससे बहुत अधिक फजीहत सरकार आज सडक़ पर करवा रही है। सडक़ के काम संसद में करना या संसद के काम सडक़ पर करना कोई समझदारी नहीं है। आज अगर दिल्ली के इर्द-गिर्द केन्द्र सरकार को यह आंदोलन महज पंजाब के सिक्ख किसानों का आंदोलन दिख रहा है, तो यह उसके तंगनजरिए से पैदा नुकसान है। देश के बाकी हिस्सों के अधिकतर किसानों की माली हालत इतनी अच्छी नहीं है कि वे अपने खेत-खलिहान छोडक़र, मंडी में उपज बेचने की कतार छोडक़र दिल्ली जाकर डेरा डालें। वे अपने जिंदा रहने की लड़ाई में इस कदर फंसे हुए हैं कि वे पंजाब के अपेक्षाकृत संपन्न किसानों की तरह दिल्ली में डेरा डालो-घेरा डालो जैसी मजबूती नहीं दिखा पा रहे हैं। लेकिन इसका कहीं भी यह मतलब नहीं है कि वे केन्द्र के कृषि कानूनों से खुश हैं। देश के मीडिया का जो हिस्सा मोदी सरकार, हिन्दुत्व, और भाजपा के प्रति समर्पित और पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं है, वह पूरे का पूरा मीडिया किसान कानूनों की आलोचना कर रहा है, किसानों के साथ है। अब यह एक अलग बात है कि देश के मीडिया का कितना हिस्सा इन दो तबकों में किस अनुपात में बंटा हुआ है। प्रतिबद्ध मीडिया, और प्रतिबद्ध समर्थकों की फौज केन्द्र सरकार को जमीनी हकीकत का एहसास नहीं होने दे पा रही है, और लोगों को याद रखना चाहिए कि आपातकाल के बाद ऐसा प्रतिबद्ध मीडिया और प्रतिबद्ध खुफिया एजेंसियों ने ही इंदिरा गांधी को यह भरोसा दिलाया था कि 1977 के चुनाव में वे बहुमत से जीतकर आएंगी।
खैर, किसी चुनाव और किसी की हार-जीत से आज की इस चर्चा का कोई लेना-देना नहीं है। बात महज इतनी है कि अगर देश के किसानों पर खतरा रहेगा, तो वह खतरा खेतिहर मजदूरों तक अनिवार्य रूप से पहुंचेगा, और खेती से जुड़े दूसरे कारोबारों तक पर वह मंडराएगा। हिन्दुस्तान में कल 8 दिसंबर को किसानों के समर्थन में भारत बंद रखा गया है। हो सकता है कि जिस बाजार के बंद होने की उम्मीद किसानों के हिमायती कर रहे होंगे वे बाजार अपने-आपको किसानों से अछूते मानकर चल रहे होंगे, और उन्हें लगेगा कि उनका भला किसानों से क्या लेना-देना? लेकिन इतिहास गवाह है कि हिन्दुस्तान में किसी बरस की खुशहाली इस बात से जुड़ी रहती है कि उस बरस मानसून कैसा आया, फसल कैसी हुई। बम्पर पैदावार, ये दो शब्द ही बाजार के लिए भी बम्पर कारोबार बनकर आते हैं। कल यह देखना है कि इस देश का बाजार अपने कारोबार की बुनियाद के साथ है कि राष्ट्रवाद के खोखले नारों पर बैठकर धंधा कर रहा है।
यह भारत बंद देश भर के किसान संगठनों और एक दर्जन राजनीतिक दलों का मिलाजुला कदम है। एक घायल सिक्ख-किसान चेतना ऐसे एक आक्रोश के लिए मजबूर हुई है। जब 80 बरस की दोहरी हो चुकी काया के साथ लाठी टेककर चलती एक बुजुर्ग सिक्ख किसान महिला को सौ-सौ रूपए में चलने वाली शाहीन बाग की आंदोलनकारी मुस्लिम महिला करार देकर उसे एक गाली की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की गई, तो जाहिर है कि कोई भी बिरादरी उससे जख्मी होगी। जब किसी को देशद्रोही, पाकिस्तानी, खालिस्तानी, राष्ट्रविरोधी, और चीनी साजिश का हिस्सा करार दिया जा रहा है, तो जाहिर है कि एक वफादार कौम इससे घायल होगी। इन सबका मिलाजुला नतीजा देश में यह नौबत है। आगे-आगे देखें, होता है क्या। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब किसी बात को एक जिम्मेदार तबका सोच-समझकर योजना के साथ लोगों पर असर डालने के लिए कहता है, और अच्छी नीयत से कहता है तो उस बात के शब्द बड़ी बारीकी से चुने जाने चाहिए। कुछ बरस पहले मोदी सरकार ने देश में नोटबंदी की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद ही पहले अपने इस ऐतिहासिक फैसले की सूचना केन्द्रीय मंत्रिमंडल को दी, और मिनटों के भीतर वे राष्ट्र के नाम संदेश देकर नोटबंदी के फायदे गिना रहे थे। इस बात को बरसों हो गए हैं लेकिन सच तो यह है कि अटपटे शब्द की तरफ किसी ने भी ध्यान नहीं खींचा। वह नोटबंदी नहीं थी, नोटबदली थी। नोट बंद नहीं हो रहे थे, उन्हें बदला जाना था। जिनके पास कानूनी नोट थे जो कि कालाधन नहीं थे, उनके तो बंद होने का सवाल नहीं उठता था, और उन्हें बैंकों से बदलाया जा सकता था, और बदलाया गया था। यह एक अलग बात है कि बंदी, या बदली, जो कुछ भी हुआ वह इस देश के ऊपर एक ऐतिहासिक यातना को थोपने का फैसला भी था जिससे देश का भयानक आर्थिक नुकसान हुआ, कालेधन का एक धेला भी उजागर नहीं हुआ, और निहायत गैरजरूरी और नाजायज इस मशक्कत से देश के दसियों करोड़ गरीब लोगों की जिंदगी महीनों तक बर्बाद हुई क्योंकि काम-धंधे ठप्प हो गए, लोगों को रोजी-मजदूरी छोडक़र बैंकों की कतार में लगना पड़ा। लेकिन बहुत ही सोच-समझकर बनाई गई बहुत ही नासमझी की इस अहंकारी योजना का नाम ही गलत रखा गया, और उसने सरकार के अपने मकसद का नुकसान किया कि मानो यह नोट बंद हो रहे थे, जबकि नोट महज बदले जाने थे।
इसी तरह अभी कोरोना को लेकर कुछ शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं जिनका मनोवैज्ञानिक असर पड़ रहा है, और जिन्हें अधिक सावधानी से गढऩे की जरूरत थी। जब प्रधानमंत्री के स्तर से राष्ट्र के नाम संदेश में कहा गया कि कोरोना के खतरे को देखते हुए लोग सामाजिक दूरी बरतें, तो उसका मतलब सामाजिक छोड़ भला और क्या हो सकता था? लेकिन सच तो यह है कि आज लोगों की दुनिया जितनी शरीर की है उतनी की उतनी वह सोशल मीडिया और इंटरनेट के रास्ते, टेलीफोन और कम्प्यूटरों के रास्ते आभासी भी है। वर्चुअल वल्र्ड आज किसी भी तरह भौतिक दुनिया से छोटा अस्तित्व नहीं रखता, और लोग एक-दूसरे से शारीरिक रूप से तो कम मिलते हैं, अधिक मुलाकातें तो वैसे भी संचार माध्यमों से होती हैं, सोशल मीडिया पर होती हैं। इस तरह आज समाज शरीर से परे की एक दुनिया भी बन गया है जो कि शरीर के संपर्क के बिना भी एक-दूसरे के लिए मायने रखते हुए इंसानों की जगह है। ऐसे में कई हफ्तों की तैयारी के बाद गढ़े गए प्रधानमंत्री के शब्द अगर शारीरिक दूरी जैसे शब्द की जगह सामाजिक दूरी बनाए रखने की बात कहते हैं, तो जाहिर है कि इन शब्दों को या तो गढऩे वाली समझ कमजोर थी, या फिर लापरवाही से इन्हें गढ़ दिया गया था। जो बात चिकित्सा विज्ञान की सलाह के मुताबिक शारीरिक दूरी की होनी चाहिए थी, उसे सामाजिक दूरी बनाए रखने की बात बना दिया गया।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होतीं, आज टेलीफोन उठाते ही अमिताभ बच्चन की आवाज में लोगों के लिए कोरोना-बीमारी के खतरे बताते हुए सावधानी बरतने की नसीहत सुनाई पड़ती है। ऐसा भी सुनाई पड़ा है कि जया बच्चन ने तंग आकर टेलीफोन का इस्तेमाल ही बंद कर दिया है कि निजी जिंदगी में घर पर जो आवाज सुनना पड़ता है, वही आवाज कोई कॉल लगाते ही फोन से भी सुनाई पड़ती है। इतनी बार दुहराई जाने वाली बात के शब्द तो जाहिर तौर पर बहुत चुनकर लिखे जाने चाहिए थे। लेकिन टेलीफोन की घोषणा से लेकर ईश्तहारों तक अमिताभ बच्चन सरकारी संदेश बोलते दिखते हैं कि जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं। अब सच तो यह है कि कोरोना की कोई दवाई तो तलाशी भी नहीं जा रही है, उसकी तो वैक्सीन ढूंढी जा रही है, टीका बनाया जा रहा है। और वैक्सीन किसी बीमारी का इलाज नहीं है, वह तो बीमारी होने से बचाने के लिए लगाया जाने वाला टीका है, ठीक उसी तरह जिस तरह का ईश्तहार अमिताभ बच्चन दशकों से करते आ रहे हैं- दो बूंद जिंदगी की। पोलियो से बच्चों को बचाने के लिए जिस वैक्सीन की दो बूंदें पिलाई जाती हैं, वह पोलियो की दवाई नहीं है, वह महज पोलियो से बचाने का टीका है। अब अमिताभ बच्चन रात-दिन एक अवैज्ञानिक बात दोहरा रहे हैं- जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं।
इसका एक मतलब तो यह भी हुआ कि दवाई (या वैक्सीन) बन जाने के बाद ढिलाई करने में कोई बुराई नहीं रहेगी। जिस बात को अमिताभ बच्चन की आवाज में दिन में कई-कई बार सुनना पड़ रहा है, उसका एक मनोवैज्ञानिक असर होता है, और वह यह है कि कोरोना की एक दवाई बन रही है, और दूसरा असर यह है कि इस दवाई के बन जाने के बाद ढिलाई करने में कोई बुराई नहीं रहेगी। ये दोनों ही बातें अवैज्ञानिक सोच को स्थापित करती हैं। कोरोना की दवा न तो आज है, और न ही बनाई जा रही है। फिर यह है कि कोरोना का जो टीका बन रहा है, वह भी सबको मिलने वाला नहीं है, सौ फीसदी असर वाला नहीं है, और उसकी एक खुराक के बाद भी हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री पखवाड़े बाद कोरोनाग्रस्त हो चुके हैं। इसलिए जिस सावधानी को बाकी तमाम जिंदगी के लिए सुझाना चाहिए, ढिलाई से हमेशा के लिए बचने को कहना चाहिए, उसे महज दवाई (वैक्सीन) आ जाने तक के लिए सुझाना, बिना कहे एक लापरवाही को बढ़ाने सरीखा है। राजनीति के चुनावी नारों में तो हर किस्म की लापरवाही खप जाती है क्योंकि उन्हें चुनावी या राजनीतिक उत्तेजना में कही गई बात कहा जाता है, और आमसभाओं में कई बार ऐसा होता भी है। किसी को मौत का सौदागर कह दिया जाता है, और किसी की सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड पर तंज कस दिया जाता है। राजनीति में तो लापरवाही कई बार योजनाबद्ध तैयारी से भी की जाती है, और कई बार हो जाती है। लेकिन राष्ट्रीय महत्व के, जनहित के, जनशिक्षण के जो मुद्दे हैं, उनमें एक-एक शब्द को समाज पर व्यापक असर वाला मानकर सावधानी से छांटना चाहिए। अगर स्कूल की कोई किताब अमर घर चल, कमला जल भर जैसे मासूम लगने वाले शब्दों से अक्षर और भाषा ज्ञान करवा रही है, तो वह बिना कहे हुए भी बच्चों के दिमाग में यह भर रही है कि अमर, यानी लडक़ा, पानी भरने का काम नहीं करेगा, और यह काम कमला, यानी लडक़ी का है। जो देश जितना सभ्य और लोकतांत्रिक होता है, वह उतना ही अधिक सावधान भी होता है। जब भाषा की लापरवाही लोगों को वैज्ञानिक सोच या सामाजिक न्याय, या लैंगिक समानता से दूर ले जाती है, तो उसके खिलाफ जमकर आवाज उठनी चाहिए। अगर यह किसी मासूम गलती से हुई है, तो वह सुधार ली जाए, और अगर यह किसी लापरवाही से हुई है, तो उसका जिम्मा भी किसी न किसी सर पर मढ़ा जाए। फिलहाल भारत सरकार और प्रदेश सरकारों को, और इनकी भाषा दुहराने वाले मीडिया को भी अपनी भाषा में सुधार करना चाहिए। संक्रमण से बचने की सावधानी वैक्सीन आ जाने के बाद भी जारी रहनी चाहिए क्योंकि कुंभ के मेले में खोया हुआ कोरोना का कोई भाई साल-दो साल में आकर अगला हमला नहीं करेगा, ऐसी कोई गारंटी तो है नहीं। दूसरी बात यह कि आज जिस वैक्सीन से चमत्कार की उम्मीद की जा रही है, उस वैक्सीन को चखकर मौजूदा कोरोना ही अपने हथियार बदल न डाले इसकी कोई गारंटी तो है नहीं। इसलिए अमिताभ बच्चन को पढऩे के लिए जो संदेश दिया गया है, उसमें सुधार की जरूरत है, और दुनिया को महज शारीरिक दूरी की जरूरत है, सामाजिक संबंधों में शरीर से परे और किसी दूरी की जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तान में वैसे भी पिछले बरसों में लोग लगातार एक-दूसरे से दूर, और दूर होते गए हैं, अब उन्हें और कितना दूर करना चाहते हैं? क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में जो लोग मीडिया पर अपना खासा समय लगाते हैं, वे उसमें से खासा समय गंवाते भी हैं। ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर पहली खबर से लेकर अखबारों के गंभीरता ओढ़े हुए संपादकीय पेज तक दर्शक और पाठक को जो हासिल होता है, वह वक्त के अनुपात में खासा कम होता है। टीवी के घंटे भर के समाचार-बुलेटिन में जितनी जानकारी रहती है उसे अखबार के पन्ने पर पांच मिनट में पढ़ा जा सकता है, और वह भी अगर काम का न रहे, तो एक खबर से दूसरी खबर पर मेंढक की तरह कूदा जा सकता है, जो कि टीवी पर किसी एक चैनल में मुमकिन नहीं रहता क्योंकि वहां खबरें रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह कतार में लगी रहती हैं। यह जरूर होता है कि एक चैनल से दूसरे चैनल पर कूदा जा सकता है, लेकिन फिर भी मनचाही खबर तक नहीं पहुंचा जा सकता। डिजिटल मीडिया ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यह दिक्कत भी दूर कर दी है, और लोग इंटरनेट पर सीधे अपने मतलब की बात तक पहुंच सकते हैं।
अब सवाल यह है कि अखबारनवीसी का गंभीर हिस्सा जो गिने-चुने लोग गंभीरता से लेते हैं, गंभीरता से पढ़ते हैं, वे बहुत सा गैरजरूरी पाते हैं। हमारे इस अखबार के इस कॉलम सहित, जिसे कि हम बहुत गंभीरता से लेते हैं, तमाम विचार-लेखन अमूमन अलाल किस्म के दिमाग लिखते हैं। दुनिया में मुद्दे रोज नए नहीं रहते, उनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो पहले सामने आ चुके किसी मुद्दे की तरह के रहते हैं। नतीजा यह रहता है कि समकालीन और सामयिक मुद्दों पर विचार लिखने वाले लोगों को घटनाएं नई होने के बावजूद मिलते-जुलते मुद्दों पर ही लिखना होता है, जो पहले लिखा जा चुका है उसमें किसी ताजा घटना का जिक्र करके पूरे का पूरा बाकी हिस्सा फिर से दिया जा सकता है। नतीजा यह होता है कि लिखने वाले लोग अलाल होने लगते हैं। लेकिन इससे भी परे एक और दिलचस्प बात होती है। लोग अपने कुछ पसंदीदा निशाने बना लेते हैं, और वक्त-बेवक्त उन पर लिखते रहते हैं। इससे एक बड़ी सहूलियत यह होती है कि नई जानकारी कम पढऩी होती है, नया विश्लेषण बहुत कम करना पड़ता है, और नए तर्क तो गढऩे ही नहीं पड़ते क्योंकि बार-बार उन्हीं मुद्दों पर लिखते हुए दिमाग की ताजा याददाश्त में उनसे जुड़े जुमले बैठ जाते हैं। खुद का लिखा हुआ तुरंत याद आ जाता है, पुराना विश्लेषण, पुराने तर्क, पुराने जुमले, और इनके इस्तेमाल से एक बार फिर लिख देना। यह कुछ उसी किस्म का आत्मविश्वास देने वाला काम रहता है जैसा कि पहले से पढ़े हुए पसंदीदा उपन्यास को दुबारा पढ़ लेना जिससे कि कोई निराशा होने का खतरा न हो।
इन बातों को नतीजा यह निकलता है कि न सिर्फ विचार-लेखन, बल्कि समाचार-लेखन में लगे हुए लोग भी हर बरस-दो बरस में अपनी ही किसी पुरानी रिपोर्ट को ताजा आंकड़ों के साथ अपडेट करके नई रिपोर्ट बना लेते हैं, और दिमाग को अधिक कसरत करने से बचाते हैं। कम लोग ऐसे होते हैं जो कि नए-नए विषय सोचते हैं, नए-नए मुद्दों पर नए तर्क सोचते हैं, और एक ताजा विश्लेषण करके लिखते हैं। आमतौर पर तो यह होता है कि लिखने वाले लोग अपने विषय से जुड़े हुए दूसरों के लिखे हुए को भी बहुत कम पढ़ते हैं। क्योंकि दूसरों का लिखा हुआ पढऩे से अपने पूर्वस्थापित और जमे हुए तर्कों का फौलादी ढांचा चरमराने लगता है, लोगों को यह लगता है कि दूसरों के लिखे तर्क, उनके विचार एक चुनौती दे रहे हैं, और फिर अपना अब तक का सोचा हुआ तो अधिक काम का रह नहीं जा रहा, अपने पुराने और पसंदीदा जुमले काम नहीं आ रहे। यह सिलसिला अपनी मान्यताओं और अपने जुमलों को झकझोरने वाला रहता है, यह जिम में जाकर चर्बी को चुनौती देने वाली कसरतों सरीखा रहता है, लोग उसके बजाय अपने दीवानखाने में आरामदेह सोफा पर लदे, पसंदीदा खाते हुए ऐसा पसंदीदा टीवी चैनल देखते हैं जो कि दिल-दिमाग को कोई चुनौती नहीं देता, उस पर कोई बोझ नहीं बनता।
अब अलाल लोगों के लिखे गए समाचार-विचार देखने, सुनने, और पढऩे वालों को कितना झकझोर सकते हैं? और एक सवाल यह भी उठता है कि लोग क्या सचमुच झकझोरा जाना पसंद भी करते हैं? या फिर अपनी पसंदीदा यथास्थिति की ठंडी छांह में लेटना बेहतर समझते हैं? अब वक्त छपे अखबार के एकाधिकार से आगे बढ़ गया है जिसे पढऩे वाले लोगों का अंदाज मुश्किल रहता था, और फिर पढऩे वालों में भी उस अखबार के किस समाचार या किस विचार को कितने लोग पढ़ रहे हैं, इसका अंदाज नहीं लगता था। अखबारों की बिक्री के आंकड़े, किसी अखबार की एकप्रति को पढऩे वाले लोगों की औसत गिनती के तमाम आंकड़े फर्जी रहते आए हैं, और यह फर्जीवाड़ा प्रिंट मीडिया का एक बड़ा कारोबार था, और है। दूसरी तरफ हाल के महीनों में हिन्दुस्तान के सबसे अधिक बड़बोले और बकवासी टीवी समाचार-चैनल ने दर्शकसंख्या का टीआरपी जुटाने के लिए जिस तरह का फर्जीवाड़ा किया था, वह अभी पुलिस की जांच और गिरफ्तारी के साथ आगे बढ़ रहा है। कमोबेश ऐसा ही हाल इंटरनेट पर डिजिटल मीडिया में फर्जी हिट्स और फर्जी लाईक्स के सहारे चल रहा है, और हकीकत में किसके कितने दर्शक हैं, किसके कितने पाठक हैं, यह खरीदे गए झूठ पर उसी तरह टिका है जिस तरह किसी चुनाव में वोटरों को दारू और नगदी देकर उनसे बहुमत पाने का मामला रहता है।
जिस तरह दुनिया में एक पुरानी पहेली चली आ रही है कि पहले मुर्गी आई, या पहले अंडा आया? कुछ उसी किस्म का मामला मीडिया के दर्शक-पाठक का भी है कि मीडिया ने उसके टेस्ट को पहले बिगाड़ा, या उसने मीडिया को मजबूर किया कि वह अधिक सनसनीखेज, अधिक गैरजिम्मेदार समाचार-विचार परोसे? लेकिन नतीजा यह है कि आज मीडिया के पूरे हिन्दुस्तानी कारोबार में गंभीर और ईमानदार समाचार-विचार का बाजार खत्म सा हो चला है। जो गंभीर और ईमानदार हैं वे भूखे हैं, और इस धंधे से तकरीबन बाहर हैं। जो देह परोस सकते हैं, जो सनसनी परोस सकते हैं, जो ईमानदारी छोडक़र बेईमानी और बदनीयत से किसी कोलड्रिंक की बोतल की तरह झागदार सनसनी पेश कर सकते हैं, वही जिंदा हैं, और उनमें से जो इस काम में अव्वल हैं, वे कामयाब हैं।
अनंतकाल से चली आ रही पहली मुर्गी या पहले अंडे वाली बहस धरती के रहने तक चल सकती है, और इसी तरह मीडिया की गैरजिम्मेदारी या पाठक की गैरजिम्मेदारी की बहस भी। आज का यह लिखना उन लोगों के लिए है जो मीडिया को गंभीरता से लेते हैं। उन लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे अपना जितना वक्त जिन लोगों के लिखे, और कहे पर लगाते हैं, वे कितने ईमानदार हैं, या कितने जुमलेबाज हैं। लोगों को अगर सचमुच ही अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना है, तो उन्हें एक प्रचलित मुहावरे की तरह का हॅंस बनना पड़ेगा जो कि मोती-मोती चुनकर खा लेता है। हालांकि हकीकत यह है कि हॅंस और मोती का शायद कोई रिश्ता नहीं होता, लेकिन लिखने वाले लोगों को एक बात साबित करने के लिए यह जुमला आसान पड़ता है और सुहाता है, इसलिए यह किस्सा भी कामयाब हो गया है। फिलहाल लोगों को अगर अपनी जिंदगी में कामयाब होना है तो उन्हें जुमलों से परे बेहतर पढऩा चाहिए, बेहतर देखना और सुनना चाहिए। जिंदगी में रोजाना का बाकी वक्त तो बहुत से रोज के कामों में लगता ही है जिनमें कोई फर्क नहीं किया जा सकता, बस मीडिया को देखना, सुनना, और पढऩा ही ऐसा है जिसमें पसंद काम कर सकती है। हॅंस के किस्से को सही मानें, और मोती चुनना सीखें। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना पर एक सुनवाई करते हुए कहा कि जो लोग सार्वजनिक जगहों पर मास्क नहीं पहन रहे हैं, वे हर किसी के जीने के अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं। अदालत ने सभी राज्यों को लोगों को मास्क पहनाने और सामाजिक दूरी बनाने के निर्देश दिए हैं। अदालत ने अफसोस जाहिर किया कि लोग मास्क नहीं पहन रहे हैं, सामाजिक दूरी नहीं रख रहे हैं, और प्रशासन भी इससे जुड़े नियमों को लागू करने के प्रति उदासीन हैं।
हिन्दुस्तान में अपनी मनमर्जी से गलत काम करके दूसरों की जिंदगी खतरे में डालने का यह कोई नया मामला नहीं है। कोरोना का खतरा तो नया है, लेकिन लोग तो पुराने हैं। ये वही लोग हैं जो दारू पीकर गाड़ी चलाते हैं, जो बिना हेडलाईट और बैकलाईट के गाड़ी चलाते हैं, जिनकी गाडिय़ों की फिटनेस सही नहीं रहती, बस और ट्रक चलवाने वाले मालिक अपने ड्राइवरों की आंखों की जांच नहीं करवाते। लोग दोपहियों पर चार-चार लोग सवार होकर और सामान भी लादकर चलते हैं जिससे कि सडक़ दुर्घटनाओं का खतरा बने रहता है। लोग दुपहिया चलाते हुए भी एक हाथ से मोबाइल थामे रहते हैं, बात करते रहते हैं, और स्क्रीन पर सर्च भी करते रहते हैं, ये लोग खुद तो खतरे में रहते ही हैं, औरों के लिए भी ये खतरा रहते हैं। लेकिन शायद ही किसी पुलिस, प्रशासन की दिलचस्पी इन पर कार्रवाई करने में हो।
हम अपने आसपास देखते हैं तो लोग बिना हेलमेट लापरवाही से गाड़ी चलाते हैं, बड़ी मोटरसाइकिलों के साइलेंसर फाडक़र रखते हैं, और लोगों का जीना हराम करते हैं। गाडिय़ों के ऊपर अंधाधुंध लाईट लगा लेते हैं, और सायरन भी लगा लेते हैं, इनसे भी सडक़ पर दूसरों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। बड़ी-बड़ी गाडिय़ां इतनी ओवरलोड चलती हैं कि खुद सरकारी सडक़ निर्माण विभाग सडक़ों के जल्द खत्म हो जाने पर ऐसी ओवरलोड गाडिय़ों को जिम्मेदार बताते हैं। इन सबसे लोग अपनी कमाई बढ़ाते हैं, लापरवाही से काम करते हैं, और दूसरों की जिंदगी खतरे में डालते हैं।
दुनिया में जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र हैं वे दूसरों के अधिकार और अपनी जिम्मेदारी का ख्याल रखने वाले नागरिकों वाले देश रहते हैं। हिन्दुस्तान में लोग अपने बेजा हक को बर्दाश्त करने और ढोने की दूसरों की जिम्मेदारी के सिद्धांत पर काम करते हैं, और दूसरों की जिंदगी खतरे में डालते हैं। आज सडक़ों पर लगातार सरकारी विभागों और म्युनिसिपलों की महिला कर्मचारी बिना मास्क वाले लोगों को रोक-रोककर हिदायत देते दिखती हैं। लापरवाह लोगों से सौ रूपए का जुर्माना लेकर उन्हें छोड़ दिया जाता है। अगर लोगों को जिम्मेदारी सिखानी है तो हिन्दुस्तान ऐसी सौ रूपए जुर्माने की पेनेसिलिन के असर से ऊपर उठ चुका है। अब यहां नई पीढ़ी की एंटीबायोटिक की शक्ल में ऐसा जुर्माना लगाना पड़ेगा कि बिना मास्क वाले लोगों पर बिना हेलमेट का जुर्माना भी लगे, उनकी गाड़ी की फिटनेस की जांच भी हो जाए, नंबर प्लेट गलत हो तो उसका जुर्माना भी हो जाए, प्रदूषण सर्टिफिकेट न हो तो उसका जुर्माना भी हो जाए। जब तक एक-एक बिना मास्क वाले पर कुछ हजार रूपए का जुर्माना नहीं होगा, तब तक नालायक लोग अपने अलावा दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डालते ही रहेंगे। बेअसर कार्रवाई की औपचारिकता पूरी करने के लिए सडक़ों पर जूनियर सरकारी कर्मचारी महिलाओं को खतरे में डालना बेकार है। जब लोगों को सौ रूपए जुर्माने से तकलीफ नहीं हो रही है, तो जुर्माना इतना बढ़ाया जाए कि दो-चार दिन उसकी खबरें पढक़र ही बाकी लोग मास्क लगाने को सस्ता मानकर चलें। जब तक मास्क लगाना सस्ता नहीं पड़ेगा, तब तक लोग मास्क नहीं लगाएंगे। जब मास्क न लगाना हजारों रूपए का जुर्माना लगवा देगा, तभी लोग दूसरों की जिंदगी की फिक्र करेंगे। हिन्दुस्तान जैसा गैरजिम्मेदार देश कम ही होगा जहां लोग अपनी लापरवाही से दूसरों की मौत की परवाह भी नहीं करते।
किसी देश को आर्थिक रूप से विकसित होने में हो सकता है कि एक सदी लगे, लेकिन उस देश को सभ्य होने में कई सदियां लग सकती हैं, और हो सकता है कि कई सदियों के बाद भी हिन्दुस्तान जैसा असभ्य देश सभ्यता न सीख पाए। आज कोरोना जैसी महामारी से देश में लाखों बेकसूरों की मौत हो रही है, और सरकारों पर अंधाधुंध खर्च का बोझ पड़ रहा है जिससे कि कुल मिलाकर जनकल्याण की योजनाओं में ही कटौती होगी। लेकिन हिन्दुस्तानी हैं कि आज भी चारों तरफ थूकते घूम रहे हैं, मानो इस देश में थूक ही राष्ट्रीय पदार्थ हो। इससे कोरोना जैसी महामारी के फैलने का बड़ा खतरा है, और आज देश में यह बीमारी जितनी फैली है उसमें भारत के इस राष्ट्रीय पदार्थ का भी योगदान जरूर होगा। अब सवाल यह है कि जब लोग जुर्म के दर्जे के लापरवाह हों, गैरजिम्मेदार हों, दूसरों की जिंदगी के प्रति बेपरवाह हों, तो सरकारी या अदालती आदेश किस हद तक लागू किया जा सकता है? दिक्कत यह है कि हादसे हों, या महामारी, इनसे होने वाला नुकसान दूसरों को अधिक होता है, गैरजिम्मेदारों को कम। एक-एक गैरजिम्मेदार कई बेकसूर लोगों को बीमारी भी कर सकते हैं, और सडक़ हादसों में मार भी सकते हैं।
हमारा साफ मानना है कि जनता से इस किस्म की रियायत करने वाले प्रशासन को इस रियायत को देने का कोई हक नहीं है। महामारी कानून के तहत जो कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए वह अगर हर शहर में दस-बीस लोगों पर हो जाए, उनकी गिरफ्तारी हो जाए, उन पर मोटा जुर्माना हो जाए, और उनके मामले खबरों में प्रमुखता से आ जाएं, तो बाकी हिन्दुस्तानियों पर ऐसी मार का असर हो सकता है। कुछ लोगों पर यह बोझ अधिक बड़ा होगा, लेकिन वे बेकसूर तो होंगे नहीं, वे भी बिना मास्क के लापरवाह लोग होंगे जिनकी और तमाम किस्म की जांच करके गाड़ी सहित अधिक से अधिक जुर्माना ठोकना चाहिए। इससे कम में इस देश के लोग नहीं सुधरेंगे। इनका बस चलेगा तो तम्बाकू खाकर सोने की चिडिय़ा पर भी इतना थूक देंगे कि वह पीक के रंग की हो जाए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश में आयुर्वेदिक दवाईयां बनाने वाली कंपनियों के अलावा दर्जनों दूसरी कंपनियां शहद बेचती हैं। शहद कारखाने में तो बन नहीं सकता इसलिए वह गांव-जंगल में बसे हुए असंगठित लोगों से होकर इन कंपनियों तक पहुंचता है या मधुमक्खी पालकों के माध्यम से आता है। देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने अभी एक बड़ी वैज्ञानिक-पड़ताल की तो पता लगा कि देश के अधिकतर ब्रांड अपने शहद में एक ऐसा चीनी प्रोडक्ट मिला रहे हैं जो कि भारत में शहद की जांच को धोखा देता है। चीन से आए हुए इस घोल को शहद में मिलाकर उसकी जांच की जाए तो वह उसे खालिस शहद ही बताता है। नतीजा यह हुआ है कि देश के मधुमक्खी पालक लोग इस धंधे को छोडऩे की कगार पर हैं क्योंकि उनके तैयार किए हुए शहद से आधे से भी कम दाम पर यह चीनी सिरप आ रहा है, और खबर ऐसी भी है कि चीन की कंपनियों ने यह सिरप तैयार करने के कारखाने भारत में भी बनाए हैं। ऐसा सिरप गैरकानूनी नहीं है क्योंकि पिपरमेंट बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है, लेकिन इसने हिन्दुस्तान के शहद-उत्पादन और बिक्री को पूरी तरह मिलावटी बनाकर छोड़ा है।
सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायरामेंट की यह जांच बताती है कि जैसे-जैसे इस सिरप का इस्तेमाल भारत के शहद कारोबार में बढ़ते गया, मधुमक्खी पालकों को उनके शहद का मिलने वाला बाजार भाव गिरते चले गया। अब हिन्दुस्तान में आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, या घरेलू नुस्खों में शहद के फायदे ही फायदे गिनाए गए हैं। लोग तरह-तरह से इसका इस्तेमाल करते हैं लेकिन दिलचस्प बात यह है कि 2018 में भारत सरकार ने शहद में मिलावट की जांच के कुछ पैमानों को रहस्यमय तरीकों से कमजोर कर दिया जिससे मिलावटी शहद की शिनाख्त मुश्किल हो गई। अब भारत सरकार के फैसलों को कोई गांव के शहद उत्पादक तो बदलवा नहीं सकते, इसलिए ऐसी रहस्यमय रियायत के पीछे देश की बड़ी कंपनियां ही रही होंगी। जो देश हजारों बरस पहले के आयुर्वेद का गौरवगान करते हुए थकता नहीं है, वह आयुर्वेद में व्यापक इस्तेमाल होने वाले इस सामान में मिलावट का रास्ता भारत सरकार के स्तर पर खोलता है तो इसे क्या समझा जाए? ऐसे में तब हैरानी नहीं होनी चाहिए जब पश्चिम के कई विकसित देश भारत की आयुर्वेदिक दवाईयों को जोखिम के पैमाने पर ऊपर पाकर उन पर रोक लगाते हैं। एक तरफ जहां दुनिया खानपान की चीजों की जांच के पैमाने कड़े बनाती चल रही है, वहीं पर भारत सरकार ने 2018 में यह जानते हुए अपने पैमानों को लचर और कमजोर बनाया कि चीन से आयात होने वाले ऐसे सिरप का इस्तेमाल लोग शहद बनाने में कर रहे हैं क्योंकि इससे लागत घट जाती है, और ये सिरप कारखानों से आसानी से हासिल है।
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आज सवाल यह है कि सीमित साधन-सुविधाओं वाला एक पर्यावरण-संगठन जिस बात की जांच करके इस मिलावट का भांडाफोड़ कर रहा है, वह काम भारत सरकार अपनी जांच एजेंसियों, निगरानी एजेंसियों के रहते हुए भी नहीं कर पा रही, या शायद यह कहना अधिक सही होगा कि नहीं कर रही। जिस चीन के साथ भारत सरकार सरहद पर जीत और हार के बीच डांवाडोल चल रही है, उसी चीन से खुलेआम भारत में आने वाले ऐसे सिरप से हिन्दुस्तान के दसियों लाख मधुमक्खी पालकों के बेरोजगार होने की नौबत आ गई है। चीन के सामानों के बहिष्कार को एक नारे की तरह इस्तेमाल करके भारत के राजनीतिक दल भी कल सार्वजनिक हुए इस भांडाफोड़ पर अब तक चुप हैं। हिन्दुस्तान के मिलावटखोर कारोबारी धड़ल्ले से चीनी उत्पाद बुला रहे हैं, और वह कानूनी रास्ते से आकर गैरकानूनी मिलावट में 50 से 80 फीसदी तक मिलाया जा रहा है, और सरकार की जांच में वह खालिस शहद साबित हो रहा है।
आज दुनिया के देशों में कोई कारोबार उसी हालत में चल सकते हैं जबकि वे देश-विदेश की ऐसी साजिश के शिकार न हों। आज देश का कोई ईमानदार शहद उत्पादक ब्रांड क्या खाकर मिलावटी शहद का मुकाबला कर सकता है, अगर मिलावटी शहद को शुद्ध होने का सरकारी सर्टिफिकेट आसानी से हासिल हो सकता है। सरकार की निगरानी एजेंसियां अगर ऐसे व्यापक और संगठित कारोबार को रोकने का काम नहीं कर सकतीं, तो ऐसी विदेशी मिलावट किसी भी देसी कारोबार को सडक़ पर ला सकती है। एक तरफ तो चीन के बने हुए सामानों के खिलाफ राष्ट्रवादी फतवे दीवाली की झालरों की बिक्री बंद करवा देते हैं, दूसरी तरफ चीन के ऐसे विवादास्पद सामान हिन्दुस्तान के एक सबसे पुराने और परंपरागत दवा-सामान को कानूनी धंधे से बाहर ही कर दे रहे हैं।
यह पूरा सिलसिला एक निराशा पैदा करता है क्योंकि यह देश में कुटीर उद्योगों को खत्म करने का मामला तो है ही, यह देश में आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा की साख को खत्म करने का मामला भी है। आज देश भर में कहीं खादी ग्रामोद्योग के तहत, तो कहीं प्रदेश शासन के वनविभाग के मातहत वनवासियों के लिए शुरू किए गए मधुमक्खी पालन की अर्थव्यवस्था को ऐसी मिलावट खत्म कर रही है। जब शहद उत्पादकों को कुछ बरस पहले के दाम से आधा दाम भी आज नहीं मिल रहा है, तो जाहिर है कि उनकी रोजी-रोटी चीनी कंपनियों के मिलावट के कच्चे माल की शक्ल में आ रहे हैं, और हिन्दुस्तानी मधुमक्खियों को भी बेरोजगार कर रहे हैं।
सीएसई ने एक वैज्ञानिक-पड़ताल की रिपोर्ट सार्वजनिक की है, और जाहिर है कि वह भारत सरकार की नजरों में तो आ ही चुकी है। भारत में लोगों को रोजगार देने का जो सरकारी दावा है, उस दावे को कुचल-कुचलकर मारने का काम यह मिलावटी-कारोबार कर रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। आज सरकार के पास तमाम सुबूतों के साथ यह मामला तश्तरी पर पेश किया गया है। इस पर भी अगर कार्रवाई नहीं होती तो देश के लोग शहद के फायदों की बात को आयुर्वेद का इतिहास मानकर उसका चिकित्सकीय उपयोग भी बंद कर देंगे। केन्द्र सरकार न सिर्फ जांच करे, बल्कि मिलावट करने वालों को तेजी से जेल भेजे, कड़ी से कड़ी कार्रवाई करे, और चाहे जितनी बड़ी कंपनी हो, ऐसी कंपनियों को बंद करवाने की कानूनी पहल करे। अगर यह सरकार ऐसा नहीं करती है, तो फिर यह बात साफ रहेगी कि 2018 में मिलावट पकडऩे वाले जांच के कड़े पैमाने क्यों ढीले किए गए थे। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ईरान में एक परमाणु वैज्ञानिक की सडक़ पर हत्या के तरीके से दुनिया की हिफाजत पर एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। टेक्नालॉजी ने लोगों की जिंदगी पर एक अभूतपूर्व खतरा खड़ा कर दिया है। एक तरफ तो फौजों में हत्यारे मशीन मानव इस्तेमाल करने के खिलाफ दुनिया भर एक जागरूकता अभियान चल रहा है कि फौजी इंसानों को मारने के लिए मशीनों की तैनाती न की जाए। दूसरी तरफ ईरान की राजधानी तेहरान में इस वैज्ञानिक को जिस तकनीक से मारा गया है, वह बहुत भयानक है।
खबरों में मिली जानकारी के मुताबिक यह हत्या इजराईल की बनाई हुई एक ऐसी ऑटोमेटिक गन से हुई है जिसे एक ट्रक पर तैनात करके रखा गया था, और इसे चलाने वाले कोई भी नहीं थे। यह गन अंतरिक्ष के एक उपग्रह से नियंत्रित थी, और उस उपग्रह को धरती से ही काबू किया गया था। इस तरह दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठकर हत्यारे ने इस गन के साथ लगी दूरबीन से निशाने को देखा, और गोलियां चला दीं। इसके तुरंत बाद उस ट्रक को विस्फोटक से उड़ा दिया जिस पर यह गन लगाई गई थी। ऐसा माना जा रहा है कि कत्ल के बहुत ही पेशेवर अंदाज से, सारे सुबूत खत्म करने के हिसाब से यह काम किया गया। हालांकि ईरान ने इस कत्ल को इजराईल का काम बताया है, और इसका बदला लेने की घोषणा की है। सुबूतों से परे जनधारणा यह है कि ईरान की खुफिया एजेंसी मोसाद दुनिया में सबसे पेशेवर अंदाज से कत्ल करती है, और अमरीका की सीआईए भी इससे पीछे है।
अभी दो दिन पहले बस्तर में नक्सलियों के बिछाए गए एक विस्फोटक की वजह से सीआरपीएफ का एक अफसर मारा गया, और कई लोग जख्मी हो गए। उस पर भी यह बात उठी कि दुनिया में जमीन के नीचे विस्फोटकों को लगाना बंद होना चाहिए। दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहां पर जमीनी सुरंग लगाकर दुश्मन को नुकसान पहुंचाने का जाल बिछाया जाता है, लेकिन फौजों और आतंकियों से परे नागरिक उनके शिकार हो जाते हैं। जमीनी सुरंग, या लैंडमाईन, का इस्तेमाल पूरी दुनिया में बंद करने के लिए एक अलग अभियान चल रहा है, क्योंकि कुछ देशों में हजारों बेकसूर लोग अपने पैर खो बैठे हैं, और हजारों लोग जान खो बैठे हैं।
जो टेक्नालॉजी परमाणु बमों जितनी खतरनाक नहीं है, उनसे भी नुकसान इतना हो रहा है कि वह इंसानी ताकत से रोकना मुमकिन नहीं है। टेक्नालॉजी और मशीनें जानलेवा होते चल रहे हैं, और ये हथियार व्यापक जनसंहार के हथियार भी नहीं है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर तेहरान के इस ताजा कत्ल की तरह रिमोट कंट्रोल से मशीनगन चलाकर लोगों को ऐसे मारा जा सकता है, तो फिर मौके पर किसी कातिल का जाना भी जरूरी नहीं है, और उपग्रह के रास्ते किए गए ऐसे हमले के सुबूत भी ढूंढना आसान नहीं है। कत्ल करने और बर्बाद करने, तबाही लाने के औजार और हथियार बनाए तो इंसान ने हैं, लेकिन उनसे बचाव इंसान की क्षमता से बाहर हो चला है। अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के कत्ल के बाद कातिल की शिनाख्त का सिलसिला चला, और फिर संदिग्ध कातिल को भी मार डाला गया था। उस वक्त तो केनेडी की राह पर किनारे की एक इमारत से गोली चलाई गई थी, और कातिल उस बंदूक के पीछे था ही। अब अगर दूर बैठे ऐसी बंदूकें चलने लगेंगी, तो किसकी हिफाजत हो सकेगी?
दुनिया को इजराईल के बारे में फिलीस्तीन के साथ उसके किए जा रहे युद्ध-अपराधों के अलावा भी कई बातों के लिए सोचना चाहिए। लोगों के टेलीफोन और कम्प्यूटर पर घुसपैठ करने की जो टेक्नालॉजी इजराईल ने विकसित की है, और जिसकी वह पूरी दुनिया में बिक्री भी कर रहा है, उससे भी इंसानी जिंदगी में भारी तबाही आ रही है। जो सरकारें अपने विरोधियों और आलोचकों पर नजर रखना चाहती हैं, वे इजराईल की ऐसी तकनीक खरीदकर अपने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को कुचल रही हैं, और उनकी जासूसी कर रही हैं। अब इजराईल ऐसे-ऐसे हथियार बना रहा है जिससे गैरफौजी नागरिकों को भी युद्धकाल से परे भी इतनी आसानी से मारा जा रहा है। इजराईल एक परले दर्जे का घटिया कारोबारी देश है, और पूरी दुनिया में वहां के कारोबारी बदनाम हैं। ऐसे में उसकी कौन सी तकनीक, उसके कौन से हथियार सरकारों के अलावा मुजरिमों के हाथों में जा रहे होंगे इसका अंदाज लगाना मुश्किल है।
हिन्दुस्तान जैसे देश के सुरक्षा अधिकारियों को अपने इंतजाम को इस कसौटी पर कस लेना चाहिए कि अगर तेहरान के ताजा कत्ल की तरह का कत्ल हिन्दुस्तान में किसी का किया जाएगा, तो सुरक्षा एजेंसियां उसे किस तरह रोक लेंगी? आज दुनिया में उपग्रह सिर्फ सरकारों के नहीं हैं, उपग्रह कारोबारियों के भी हैं। इनमें से कौन सा उपग्रह आतंकियों के काबू में आ जाए, और वे बंदूकों से परे भी कौन से दूसरे विस्फोटकों और हथियारों को रिमोट कंट्रोल से चला सकें, यह अंदाज लगाना अभी नामुमकिन है। लेकिन दुनिया की सरकारों को इजराईल के ऐसे विध्वंसकारी तकनीकी विकास के खतरों को समझना चाहिए। यह बेकाबू और मुजरिम देश अमरीकी शह पर संयुक्त राष्ट्र के खिलाफ जाकर भी फिलीस्तीन में ज्यादती जारी रखे हुए है, और अब ऐसी कातिल टेक्नालॉजी का इस्तेमाल भी करते दिख रहा है। इन खतरों को सभी को समझना चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
असल जिंदगी में कहावत और मुहावरों के मुताबिक भेड़ की खाल ओढ़े हुए भेडिय़े छुप जाते हैं, लेकिन जब से यह जिंदगी इंटरनेट जैसी सार्वजनिक जगह बन गई है, और इस पर किसी तस्वीर या वाक्य को ढूंढना पलक झपकने जितनी देर का काम हो गया है, तो ऐसे में यह खाल उजागर होने लगी है। कुछ लोगों ने इसे भुगतान वाला, या मुफ्त का पेशा बना लिया है कि झूठ को फैलाया जाए, गंदी और हिंसक बातें लिखी जाएं, और दुनिया का भला चाहने के लिए काम करने वाले लोगों को इतना परेशान किया जाए कि उनकी नींद हराम हो जाए, और वे भला चाहना, भला करना बंद करके चुप घर बैठें। अगर सोशल मीडिया पर तैरता शक सही है, तो ऐसे लोगों को परेशान करने के लिए पेशेवर लोगों की एक साइबर फौज बनाई गई है जो कि प्रशिक्षित शिकारी पशुओं की तरह किसी पर भी छोड़ दी जाती है, और वे लोग नेकनीयत लोगों की जिंदगी खराब करके छोड़ते हैं।
दो दिनों से ट्विटर पर एक ट्वीट तैर रही है जिसमें देश की सबसे चर्चित अभिनेत्री और इतिहास के पन्नों से निकलकर वर्तमान में आ गई रानी लक्ष्मीबाई यानी कंगना रनौत, ने शाहीन बाग आंदोलन की सबसे बुजुर्ग महिला की तस्वीर, और अभी चल रहे किसान आंदोलन में झंडा लेकर सडक़ पर चल रही एक बहुत बुजुर्ग महिला को एक ही बताते हुए यह लिखा है कि टाईम मैग्जीन ने जिसे हिन्दुस्तान की सबसे ताकतवर महिला चुना है, वह सौ रूपए में उपलब्ध है। कंगना ने इसके साथ एक किसी व्यक्ति की पोस्ट की हुई एक ट्वीट भी जोड़ी है जिसमें उसने इन दोनों महिलाओं को एक बताया है।
कंगना के ठहाकों को एक झूठ पर आधारित बताते हुए बहुत से लोगों ने इसे किसान आंदोलन में शामिल बुजुर्ग महिला, और शाहीन बाग आंदोलन की बुजुर्ग दादी इन दोनों का अपमान बताया है। कंगना रनौत ने अपनी ट्वीट डिलीट तो कर दी है, लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने का दावा किया है, और उनकी ट्वीट को झूठा बताने वालों को जयचंद (गद्दार) कहा है। यह बहस आज चल ही रही है, और अब देश के कुछ साखदार मीडिया वेबसाईटों ने कंगना के दावे को झूठा करार दिया है, और खुलकर सच को लिखा है। वेबसाईटों ने दोनों तस्वीरों की साइबर जांच करके लिखा है कि ये दोनों अलग-अलग महिलाओं की फोटो है। लोगों ने शाहीन बाग की बिल्किस बानो को इंटरव्यू भी किया है जिसमें उसने कहा है कि यह उसकी फोटो नहीं है। दोनों तस्वीरों की डिजिटल जांच भी यही साबित करती है।
अब सवाल यह है कि कुछ लोग शाहीन बाग के लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलन के विरोधी हो सकते हैं, हकीकत यह है कि बहुत से लोग विरोधी हैं, दूसरी तरफ किसान आंदोलन की आलोचना करने वाले लोगों के बारे में कल ही हमने इसी जगह लिखा है। इन दोनों बातों को मिलाकर देखें, और फिर कंगना रनौत जैसी चर्चित और ताकतवर अभिनेत्री की सोशल मीडिया पर सक्रियता देखें, तो यह बात साफ है कि इस हमलावर तलवारबाज महिला के पास अपने दावे की जांच-परख के लिए देश की कुछ सबसे बड़ी ताकतें हैं। ऐसे में दो बुजुर्ग महिलाओं, दो संघर्षशील महिलाओं को झूठा, षडय़ंत्रकारी, बिकाऊ साबित करने की साजिश करके यह अभिनेत्री क्या साबित कर रही है? क्या इस देश में किसी गरीब को आंदोलन का हक नहीं है? क्या इस देश में गरीब, बुजुर्ग, महिला को बेइज्जत करने का हक एक अरबपति, चर्चित, और अभूतपूर्व ताकत-हासिल महिला को इस हद तक है? क्या मानहानि के सारे मुकदमों का हक महज कंगना जैसे संपन्न लोगों को है, और गरीबों की कोई इज्जत ही नहीं है? अगर इन गरीब बुजुर्ग महिलाओं की जगह कंगना की तस्वीरों को जोडक़र कोई सौ रूपए में बिकने वाली लिखते, तो अब तक देश की दो-चार सबसे बड़ी अदालतें महज कंगना का ही मानहानि मुकदमा सुनती रहतीं। इसलिए आज सवाल यह है कि किसी गरीब और बेकसूर को इस देश की ताजा-ताजा तस्वीर में आईं कंगनाओं के मुकाबले जिंदा रहने का कोई हक है या नहीं?
जिस तरह टाईम पत्रिका ने हिन्दुस्तान की एक सबसे असरदार महिला के रूप में शाहीन बाग आंदोलन की बिल्किस बानो का नाम छांटा है, उसी तरह इस पत्रिका ने उसी लिस्ट में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी नाम छांटा है। अगर यह लिस्ट खिल्ली उड़ाने लायक है, तो लगे हाथों कंगना को नरेन्द्र मोदी के बारे में भी कह देना चाहिए कि इस पत्रिका की इस पसंद पर वे क्या सोचती हैं? क्या दिल्ली में कुछ ऐसे सामाजिक सरोकारी वकील हैं जो कि इन दो बुजुर्ग महिलाओं की ऐसी बेइज्जती करने वाली कंगनाओं के खिलाफ मुकदमा दायर करे, और कंगना से इन्हें सौ-सौ करोड़ रूपए दिलवाए? आज इस देश में इस बात का फैशन चला हुआ है कि सबसे संपन्न और सबसे ताकतवर लोग 5-5 सौ करोड़ रूपए के मानहानि दावे के मुकदमे कर रहे हैं। इन दो बुजुर्ग महिला आंदोलनकारियों के पास चाहे मुकदमे के लिए पैसे न हों, चाहे वे दौलतमंद न हों, लेकिन महान आंदोलनकारी होने का उनका जो मान है, उसकी हानि करने का हर्जाना कंगनाओं से क्यों वसूल न किया जाए? और अभी तो कंगना रनौत को कुछ और पैसे मिलने ही वाले हैं क्योंकि अदालत ने उसके दफ्तर में तोडफ़ोड़ का हर्जाना देने का हुक्म मुंबई महानगरपालिका को दिया है। अब यह देखना है कि ईमानदार और बेकसूर बुजुर्ग आंदोलनकारी महिलाओं की खिल्ली उड़ाने, उन्हें सौ रूपए में उपलब्ध बताने और उनकी एक संगठित और सुनियोजित बेइज्जती करने से उनकी इज्जत की जो तोडफ़ोड़ कंगना और उसके हमख्यालों ने की है, उसका क्या हर्जाना देश की अदालतें दिलाती हैं। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई न कोई ऐसे सरोकारी वकील होंगे जो कि इस मुद्दे को लेकर भारतीय सोशल मीडिया की गंदगी को उजागर करने की कोशिश करेंगे, और हिन्दुस्तान की कंगानाओं को यह सबक भी सिखाएंगे कि इज्जत महज पैसेवालों का एकाधिकार नहीं है, और तोडफ़ोड़ महज किसी दफ्तर की नहीं होती है, किसी की इज्जत की भी हो सकती है। देखें हमारी यहां लिखी गई बात किसी वकील को भी सूझती और सुहाती है कि नहीं। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के लोगों का कम से कम एक तबका अपनी राजनीतिक पसंद और नफरत के मुताबिक किसी पर ओछे हमले करने में बहुत से दूसरे देशों के लोगों को मात देते दिखते हैं। अभी जिन लोगों को किसानों के आंदोलन से नफरत है, और जो इसे गैरजरूरी या मोदी-विरोधी समझ रहे हैं, वे इसका मखौल उड़ाते हुए यह भूल जा रहे हैं कि दिन में तीन बार वे किसानों का उगाया हुआ ही खा रहे हैं। जब बाजार में सोना-चांदी आसमान पर पहुंच जाते हैं, तब फसल के दाम में पसीने के दाम जोडऩे में भी लोगों को तकलीफ होती है, किसी को किसानों की कार खटकती है, तो किसी को किसानों के ट्रैक्टर पर लगी गद्दी। इनमें से हर बात किसानों के खिलाफ इस्तेमाल की जा रही है मानो उनका हक नंगा और भूखा रहना ही है, उससे अधिक कुछ भी मांग करना देश के साथ गद्दारी है।
ऐसे में किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के लिए एक वीडियो इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें कुछ सिक्ख (किसानों) के बीच बैठा एक आदमी केन्द्र सरकार के खिलाफ नाराजगी जाहिर कर रहा है, और बीच में वह खालिस्तान के बारे में भी कुछ बोलते सुनाई पड़ता है। हमने कम से कम एक दर्जन अलग-अलग जगहों पर इस वीडियो को देखने-सुनने के बाद पाया जहां पर वह कोई उत्तेजक बात कह रहा है, वहां आवाज अचानक बदलती सुनाई पड़ती है, और ऐसा लगता है कि रिकॉर्डिंग में छेड़छाड़ की गई है। लेकिन इसकी जांच करने के लिए देश में भारत सरकार और प्रदेशों के पास साइबर-सहूलियतें हैं, और इसकी जांच की जा सकती है कि क्या आंदोलन के बीच अचानक सामने आया ऐसा एक वीडियो आंदोलन को बदनाम करने के लिए गढ़ा गया है या आंदोलन से जुड़े किसी एक व्यक्ति ने कोई उत्तेजक बात सचमुच ही कही है। जब पंजाब की अधिकतर आबादी किसानी से जुड़ी हुई है, और अधिकतर आबादी केन्द्र सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ है, तो उनमें से कोई एक व्यक्ति हो सकता है कि मन से खालिस्तान-समर्थक भी हो, लेकिन उससे बाकी तमाम आंदोलन का क्या लेना-देना? किसी पार्टी के कुछ नेता अगर बलात्कारी को माला पहनाते हैं तो क्या पूरी की पूरी पार्टी को बलात्कारी कहा जाएगा, जैसा कि आज किसानों को लेकर सोशल मीडिया पर सुनियोजित तरीके से खालिस्तानी लिखना शुरू किया गया है। लोगों को एक ताजा मामला भूलना नहीं चाहिए कि कन्हैया कुमार के बताए गए जेएनयू के एक वीडियो को लेकर अदालत ने बाद में यह पाया कि देश के टुकड़े-टुकड़े करने का कोई नारा नहीं लगाया गया था, और उस वीडियो को गढ़ा गया था। लेकिन उस झूठ को इतनी बार दुहराया गया था कि आज भी बड़े-बड़े नेता अपने भाषणों में टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
कन्हैया कुमार तो फिर भी वामपंथी विचारधारा का और सीपीआई का कार्यकर्ता था, और जेएनयू तो वामपंथ-विरोधियों की आंखों की किरकिरी रहता ही है इसलिए उसके खिलाफ एक वीडियो-ऑडियो गढक़र टुकड़े-टुकड़े गैंग विशेषण को उछालना एक राजनीतिक हरकत थी। लेकिन आज पंजाब के किसानों को अगर खालिस्तानी कहा जा रहा है, तो देश के बहुत से लोगों ने इस पर ऐतराज करते हुए यह लिखना शुरू किया है कि देश के मुस्लिम पाकिस्तानी करार दिए जा रहे हैं, देश के सिक्ख किसान खालिस्तानी करार दिए जा रहे हैं, तो फिर हिन्दुस्तानी है कौन? यह सवाल जायज है, और किसी तबके को बदनाम करने की यह साजिश नाजायज है। कल तक इसी पंजाब में भाजपा और अकाली दल की सरकार थी। भाजपा का एक सबसे पुराना भागीदार, अकाली दल तो धर्म पर आधारित सिक्ख समाज की ही राजनीति करता है। आज अकाली दल भाजपा और एनडीए से अलग है, तो क्या सिक्ख समाज को खालिस्तानी कहना किसी भी कोने से जायज है? यह सिलसिला खतरनाक है, देश के दलित-आदिवासियों को कहीं चमार, तो कहीं सरकारी दामाद कहा जाता है, दलितों को अछूत तो समझा ही जाता है, और उन्हें प्रताडि़त करने की जितनी पुरातनी प्रथाएं हैं, उनको नई-नई शक्लों में आज भी इस्तेमाल किया जा रहा है। यह देश आखिर है किसका? मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने पर आमादा है, दलित-आदिवासियों से मांस छुड़वाना चाहता है, ईसाईयों को धर्मांतरण के आरोप में जिंदा जलाया जाता है, सिक्खों को किसान मानने से इंकार किया जा रहा है, और उन्हें खालिस्तानी करार दिया जा रहा है। यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा? राजनीति इतनी ओछी नहीं हो जानी चाहिए कि वह लोगों को सम्प्रदायों में बांटकर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े कर दे, वह लोगों को देश के प्रति गद्दार और किसी दुश्मन देश के प्रति वफादार करार दे, राजनीति इतनी ओछी भी नहीं होनी चाहिए कि वह बेकसूरों पर देश के टुकड़े करने की तोहमत थोपे। राजनीति इतनी ओछी भी नहीं हो जानी चाहिए कि वह इस मुल्क की फौज में काम करते हुए जिंदगी गुजारने वालों को यहां का नागरिक मानने से इंकार कर दे, और देश के भीतर ही शरणार्थी शिविरों में डाल दे। पंजाब बिल्कुल दिल्ली के करीब है, और पंजाब के लोगों की इज्जत को इस तरह मिट्टी में मिलाना, उन्हें गद्दार करार देना उन लोगों को बहुत भारी पड़ेगा जिनके प्रशंसक और समर्थक ऐसा अभियान चला रहे हैं। आज हिन्दुस्तानी फौज में किसी एक राज्य से सबसे अधिक लोग हैं, तो वह पंजाब है। पंजाब के जो किसान आज सरकार के कृषि कानून के खिलाफ सडक़ पर हैं, उनके बच्चे फौजी वर्दियों में सरहदों पर तैनात हैं। आज जब वे फौजी अपने परिवार के लिए खालिस्तानी नाम की गाली सुन रहे होंगे, तब उनके दिल पर क्या गुजर रहा होगा? कुदरत ने मुंह में जुबान दी है इसलिए लोकतंत्र ने किसी को भी गद्दार करार देने का हक दे दिया है ऐसा भी नहीं है। यह सिलसिला अलोकतांत्रिक है, और जिन लोगों के समर्थन में यह चलाया जा रहा है उनकी जिम्मेदारी है कि वे इसे धिक्कारें। हालांकि हमारी इस नसीहत का किसी पर कोई असर होगा ऐसी उम्मीद नहीं है क्योंकि हरियाणा के भाजपा-मुख्यमंत्री किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी समर्थकों का समर्थन जैसी बातें कहकर माहौल को और बिगाड़ ही चुके हैं। सिक्खों की कौम ऐसी तोहमतों को सुनने की आदी नहीं है क्योंकि वह मुल्क के लिए बढ़-चढक़र शहादत देने को आगे रहते आई है। केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए कि एक किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए एक पूरी कौम को जिस तरह बदनाम किया जा रहा है, वह एक बड़ा जुर्म है, और केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इसके खिलाफ कार्रवाई करे।
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तमाम लोकतांत्रिक दुनिया में आज लोग सोशल मीडिया पर अपनी सोच सामने रखते हैं, और वह बहुतों के लिए बहुत मायने भी रखती है। पहले किसी औपचारिक समारोह में लोगों को सुनना-देखना हो पाता था, या बहुत करीबी 5-10 लोगों से रूबरू मुलाकात होने पर उनसे कोई बहस हो जाती थी, तर्क-वितर्क चलता था। लेकिन अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोग अनजाने लोगों की बातें भी देख-सुन लेते हैं, और उनके साथ किसी बहस में भी शामिल हो जाते हैं। सोशल मीडिया का मिजाज इस हद तक लोकतांत्रिक है कि बहुत से लोग उसे अराजक भी मानते हैं कि उस पर न तो किसी देश का कानून लागू होता है, और न ही किसी समाज के सांस्कृतिक नियम। लोग इन सबसे परे जाकर किसी की तारीफ लिखते हैं, तो किसी को धमकियां।
ऐसे सोशल मीडिया की वजह से आज सुबह एक राजनीतिक व्यक्ति ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि अनजाने लोग उनके पेज पर अपनी राय पोस्ट न करें। सोशल मीडिया को एक मेला है जिसमें जो जैसे नियम चाहें वे अपने पेज के लिए लागू कर सकते हैं। और इन नियमों को तोडऩे वाले लोगों को ब्लॉक कर सकते हैं, उनका लिखा मिटा सकते हैं, या निजी मैसेज बॉक्स में उनके भेजे संदेश की फोटो अपने पेज पर सभी लोगों के देखने के लिए पोस्ट कर सकते हैं। अमूमन महिलाओं को निजी मैसेज बॉक्स में बहुत से लोग प्यार का इजहार करने लगते हैं, और पकडऩे को जब उंगली नहीं मिलती तो कंधे तक को कोसने लगते हैं। कभी गिड़गिड़ाने लगते हैं, तो कभी धमकाने लगते हैं। अब महिलाएं हिम्मत करके ऐसे संदेश भेजने वालों का भांडाफोड़ भी करने लगी हैं, और उनकी शिनाख्त के साथ उनके प्रेम-प्रदर्शन या सेक्स-प्रदर्शन को पोस्ट भी करने लगी हैं। इसलिए सोशल मीडिया ने महिलाओं को एक नया हक दिया है जो कि इसके आने के पहले तक हासिल नहीं सरीखा था। जैसे किसी मनचले ने नोटों पर एक लडक़ी का नाम लिखकर यह लिखना शुरू कर दिया कि फलां-फलां बेवफा है, जिस तरह लोग सार्वजनिक शौचालयों के दरवाजों के भीतर या पर्यटन केन्द्रों की दीवारों और पेड़ों पर किसी लडक़ी का नाम लिखकर भद्दी बातें लिख दिया करते थे, वह गुमनाम हरकत अब सोशल मीडिया पर मुमकिन नहीं है, और अब यहां शिनाख्त उजागर हो सकती है, और अगर झूठी शिनाख्त से किसी ने खाता खोला है, तो पुलिस बड़ी आसानी से उसका भांडाफोड़ कर सकती है।
ऐसे सोशल मीडिया पर कल एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता ने लिखा- ‘विद्वान से विमर्श कीजिए, बराबर वाले से बहस, और मूर्ख से हाथ जोडक़र क्षमा मांग लीजिए।’ बात एकदम सही है और लोगों की अपनी मानसिक तरक्की के लिए जरूरी भी है। किसी को भी किसी बेवकूफ के साथ बहस करके अपना वक्त जाया नहीं करना चाहिए। मूर्खों के बारे में किसी ने बहुत पहले यह लिखा था कि वे आपको बहस में खींचकर एक तर्कहीन बात करने लगते हैं, आपको अपने स्तर तक ले आते हैं, और फिर आसानी से परास्त कर देते हैं क्योंकि वे उस स्तर की बहस के आदी हैं, उसमें उन्हें महारथ हासिल है। आज जिस तरह सोशल मीडिया पर लोगों का रोज खासा वक्त गुजरता है, उससे समझदारों का फायदा होता है क्योंकि वे अपने से अधिक समझदार को पढ़ते-सुनते हैं, और उनसे विचार-विमर्श करते हैं। लेकिन बहुत से लोग नफरती बातों में उलझे रहते हैं, और वे हर दिन अधिक हिंसक, और अधिक घटिया होते जाते हैं क्योंकि अपने से बेहतर सोच और समझ रखने वाले से किसी बहस में उलझने से मेहनत करनी पड़ती है, और अपनी बेवकूफी तुरंत उजागर भी हो जाती है। इसलिए बहुत से लोग अपनी किस्म की सोच रखने वाले लोगों के साथ नफरत और हिंसा का कीर्तन करते हुए सक्रिय रहते हैं जिसमें महज सिर हिलाना पड़ता है, और सिर के भीतर के दिमाग का कोई इस्तेमाल नहीं करना पड़ता।
सोशल मीडिया की इन्हीं खूबियों, और मजबूरियों की वजह से लोग वहां पर सावधानी से दोस्त बनाते हैं, और सावधानी से ही उनसे बात करते हैं। लेकिन यह रवैया उन्हीं लोगों का रहता है जो जिम्मेदार रहते हैं, जो गैरजिम्मेदार रहते हैं वे सोशल मीडिया पर किसी एक व्यक्ति, पार्टी, संगठन, या सोच के पक्ष में, या किसी के खिलाफ जिंदाबाद-मुर्दाबाद किस्म की नारेबाजी में लगे रहते हैं। जो लोग सोचे-विचारे बिना, दिमाग पर जोर डाले बिना किसी जुलूस में या भीड़ में नारे लगाते चलते हैं, उनके लिए भी सोशल मीडिया पर काफी जगह है, और उन्हीं के गुरूभाई, उन्हीं की गुरूबहनें वहां पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं।
इस बारे में आज यहां लिखने का मकसद यह है कि लोग सोशल मीडिया पर रोज अपने पढऩे-लिखने, सोचने-विचारने में खासा वक्त खर्च करते हैं। अगर रोज के चौबीस घंटों में से एक घंटा भी लोग सोशल मीडिया पर लगाते हैं, तो वह जिंदगी का करीब चार फीसदी वक्त हो जाता है, और कामकाजी जिंदगी में इस एक घंटे का अनुपात और अधिक बढ़ जाता है क्योंकि दिन के सोलह घंटे तो लोग सोने और काम करने में खर्च करते हैं, और उनके पास खुद के लिए आठ घंटे से ज्यादा अमूमन नहीं बचते। इस नजरिए से देखें तो यह एक घंटा उनकी सोचने-विचारने वाली जिंदगी का पन्द्रह फीसदी से ज्यादा हो जाता है। यह ध्यान में रखते हुए लोगों को अपने को बेहतर बनाने, या अपने को बदतर बनाने, दोनों किस्म की संभावनाओं वाले सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना चाहिए। वैचारिक हुआ-हुआ, या वैचारिक कीर्तन से किसी का कुछ भला नहीं होता, और न ही बेवकूफों से दिमागी कुश्ती करने का। इसलिए लोगों को सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपनी जानकारी और समझ बढ़ाने के लिए करना चाहिए, और ऐसा करने की अपार संभावना इस पीढ़ी से ही शुरू हुए इस सोशल मीडिया में है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पंजाब से दिल्ली पहुंच रहे किसानों की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, और जो वीडियो मीडिया में तैर रहे हैं उन्हें लेकर सामाजिक जिम्मेदारी की एक नई शक्ल दिख रही है। आंदोलन कर रहे और पुलिस की रोक को पार करके दिल्ली पहुंचने की कोशिश कर रहे किसानों को पानी की धार की मार से रोका गया, पुलिस ने सडक़ों को कहीं खोद दिया, तो कहीं चट्टानों से सडक़ पाट दी गई। लेकिन ऐसे किसी भी मौके पर पुलिस का जो आम हाल होता है, वह यहां भी था, और किसानों ने अपने खाने के इंतजाम में से पुलिस को खाना खिलाया, उन्हें पानी पिलाया। कुछ किसान नेताओं के ऐसे भाषण के वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें वे कह रहे हैं कि पुलिस अगर लाठी से पीटे, गोली चलाए, तो भी पुलिस के खिलाफ कुछ नहीं करना है, उसे हाथ भी नहीं लगाना है।
हिन्दुस्तान के इस आंदोलन में ही नहीं, पूरी दुनिया में हर किस्म की अच्छी और बुरी नौबत पर सिक्ख समुदाय लोगों की मदद में जुट जाता है। म्यांमार से मारकर निकाले गए रोहिंग्या शरणार्थी हों, या अमरीकी लॉकडाउन की वजह से वहां भूखे रहने वाले लोग हों, सिक्ख समुदाय आनन-फानन लंगर शुरू कर देता है, और लोगों को खाना खिलाना धर्म का काम मानकर उसे बढ़ाते चलता है। अभी दो-चार दिन पहले ही अमरीका के न्यूयॉर्क में एक सडक़ का नाम बदलकर पंजाब रखा गया है क्योंकि उस सडक़ पर मौजूद एक गुरूद्वारे में लॉकडाउन के पूरे दौर में हर दिन 10 हजार से अधिक लोगों को खाना खिलाया। हिन्दुस्तान के भीतर भी किसी भी शहर में गुरुद्वारा ऐसी जगह होता है जहां लोगों का धर्म पूछे बिना उन्हें खाना खिलाया जाता है, किसी को मना नहीं किया जाता। जो लोग जरूरतमंद नहीं होते हैं, वैसे लोग भी हिमाचल के मणिकरण जैसे पर्यटनस्थल पर जाने पर खाने के लिए गुरूद्वारे पहुंच जाते हैं। इसलिए आज जब पानी की तोप से मार करती, या लाठी चलाती पुलिस को भी जब बिठाकर सिक्ख समुदाय, किसान खाना खिला रहे हैं, तो यह बाकी लोगों के लिए बहुत कुछ सीखने की मिसाल भी है।
देश के अधिकतर दूसरे धर्मस्थलों पर लोगों के खाने का इंतजाम महज अपने धर्म के लोगों के लिए रहता है। कुछ जगहों पर तो लोगों को कुछ धार्मिक बातें बोलकर इसका सुबूत भी देना पड़ता है, तब उन्हें वहां खाना नसीब होता है, फिर चाहे वे भुगतान करके ही क्यों न खा रहे हों। अधिक धर्मों में इतने संगठित रूप से लोगों की मदद के लिए टूट पडऩे वाले लोग नहीं रहते। ऐसा भी अधिक धर्मों में नहीं होता कि धर्मस्थल पर जो सबसे छोटा काम होता है, उसमें भी उस धर्म के सबसे संपन्न लोग जुट जाते हैं। लोगों का तजुर्बा है कि देश-विदेश से आने वाले अरबपति सिक्ख भी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में रसोई घर में काम करने लगते हैं, सफाई करने लगते हैं, और तो और वहां आने वाले दर्शनार्थियों के जूते-चप्पल साफ करते फर्श पर बैठे रहते हैं।
एक बार फिर शुरू की बात पर लौटें तो हिन्दुस्तान में किसी भी प्रदर्शन में पुलिस के साथ होने वाले आम टकराव से परे यहां पर लोग जिस तरह पुलिस को खाना परोसकर खिला रहे हैं, उससे उनकी समझदारी भी झलकती है। मौके पर तैनात पुलिस महज प्यादा रहती है, उसे वहां तैनात करने वाली ताकतें दूर बड़े दफ्तरों में बैठी रहती हैं। इसलिए किसी प्रदर्शन को रोकने का फैसला लेना जिस पुलिस के हाथ नहीं रहता, और जो महज ऊपर के हुक्म को मानकर हर किस्म का तनाव झेलती है, उससे टकराना कोई समझदारी नहीं है। यह बात और जगहों पर भी प्रदर्शन करने वालों को समझनी चाहिए कि पुलिस शतरंज की बिसात पर सिर्फ प्यादे सरीखी रहती है जो सबसे पहले नाराजगी झेलती है, लोगों की मार झेलती है, और ऊपर के हुक्म से हिंसा भी करती है। दुनिया में जगह-जगह फौज और पुलिस के सामने प्रदर्शन करने वाले लोग दिखते हैं जो कि सिपाहियों और सैनिकों को फूल भेंट करते हैं। ये तमाम बातें लिखने का मकसद यह है कि सडक़ों पर एक गैरजरूरी टकराव टालना चाहिए, पुलिस को भी हिंसा से बचना चाहिए, और प्रदर्शनकारियों को भी पुलिस को दुश्मन नहीं मानना चाहिए। सिक्खों से सीखने को बहुत कुछ रहता है, दूसरों की मदद करना उनमें सबसे ऊपर है। जो सिपाही या सैनिक उनको रोकने को तैनात हैं, उन्हें भी बिठाकर खिलाना एक बहुत बड़ी सोच है, और इससे सभी को दरियादिली सीखनी चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)