संपादकीय
केन्द्र सरकार के निर्देश पर देश भर में जगह-जगह विश्वविद्यालय अपने इम्तिहान की तैयारी कर रहे हैं। उसका एक नमूना कल छत्तीसगढ़ में देखने मिला जब यहां कॉलेजों में छात्र-छात्राओं को उत्तरपुस्तिकाएं लेने के लिए बुलाया गया, और वहां पर उनकी ऐसी भीड़ टूट पड़ी, उनकी ऐसी भयानक खतरनाक तस्वीरें सामने आईं कि रात होने तक सरकार को यह इंतजाम वापिस लेना पड़ा। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम इसी जगह पर पिछले महीनों में लगातार इस बात को लिखते आ रहे हैं कि स्कूल-कॉलेज खोलने में कोई हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए और हमने यहां तक लिखा कि अगर सरकार स्कूल-कॉलेज जबर्दस्ती खोलती भी है तो भी लोगों को अपने बच्चे नहीं भेजना चाहिए, पढ़ाई तो होती रहेगी, गई जिंदगी तो लौटेगी नहीं।
इस देश में पढ़ाई को लेकर एक अजीब सा बावलापन चल रहा है कि कोरोना महामारी के इस दौर में, लॉकडाऊन के बीच, बीमारी के खतरे के बीच बिना तैयारी के दाखिला-इम्तिहान लिए जाएं, बिना कॉलेजों की पढ़ाई के, बिना किसी डिजिटल-ढांचे के इम्तिहान लिए जाएं। आज हालत यह है कि छत्तीसगढ़ में ही एक विश्वविद्यालय ने किसी किस्म की ऑनलाईन परीक्षा लेना शुरू किया, तो पहले ही दिन सारा इंतजाम चौपट हो गया। एक के बाद एक अलग-अलग विश्वविद्यालयों और अलग-अलग शहरों में यह बवाल देखने मिल रहा है, और आज जब कोरोना जंगल की आग की तरह आगे बढ़ रहा है, तब सरकार मानो बचे हुए पेड़ों पर पेट्रोल छिडक़ने का काम कर रही है।
छत्तीसगढ़ में जिस रफ्तार से कोरोना बढ़ रहा है, और जिस रफ्तार से अस्पतालों में मरीजों के लिए बिस्तर खत्म हो चुके हैं, उसे देखते हुए प्रदेश के कुछ शहरों में व्यापारियों के संगठनों ने लॉकडाऊन दुबारा करने की मांग की है, उसके लिए दबाव डाला है। ये वही संगठन है, यह वही बाजार है जो कि कुछ हफ्ते पहले खुलने के लिए बेताब था क्योंकि लोगों की रोजी-रोटी खत्म हो गई थी। लेकिन आज कोरोना की लपटें जब पड़ोस तक आ चुकी हैं, तो दुकानदार और बाजार भी बंद हो जाना चाहते हैं, राजधानी रायपुर से लगे हुए एक जिले में 20 से 30 सितंबर तक पूरी तरह का लॉकडाऊन बाजार की मांग पर ही घोषित किया है। आज पूरे प्रदेश को लेकर सरकार को यह तय करना चाहिए कि वह भीड़ कैसे-कैसे घटा सकती है, कैसे-कैसे गैरजरूरी काम बंद किए जा सकते हैं, और जिन लोगों की रोजी-रोटी छिन रही है उन्हें जिंदा रहने में कैसे मदद की जा सकती है। एक तरफ केन्द्र सरकार नई संसद और उसके आसपास का नया अहाता कोई 20 हजार करोड़ खर्च करके बनाने जा रही है, दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में सरकार नई विधानसभा पर पौने 3 सौ करोड़ खर्च होने वाले हैं। कुल 90 निर्वाचित, और एक मनोनीत, इतने जनप्रतिनिधियों का काम फिलहाल मौजूदा विधानसभा से अच्छी तरह चल रहा है, और आज के माहौल में यह खर्च छत्तीसगढ़ की कांग्रेस पार्टी से मोदी के दिल्ली के 20 हजार करोड़ के खर्च की आलोचना करने का हक छीन चुका है।
आज कोरोना के खतरनाक माहौल को देखते हुए, और आगे मौजूद साल-छह महीने, या इससे भी लंबे चलने वाले खतरे को देखते हुए सरकारों को तमाम गैरजरूरी काम खत्म करने चाहिए, जिसमें हम स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई, और परीक्षाओं को भी गिन रहे हैं। कल जिस तरह की भीड़ कॉलेजों में लगी है, यह तय है कि छत्तीसगढ़ में उससे दसियों हजार लोगों तक संक्रमण बढ़ जाना तय है। कॉलेजों से ही हजारों छात्र-छात्राएं कोरोना का संक्रमण लेकर लौटे होंगे।
अभी हम जब यह लिख रहे हैं तभी छत्तीसगढ़ के एक जिले से खबर आ रही है कि वहां जंगल की जमीन पर कब्जे के आरोप में वन विभाग लोगों की गिरफ्तारी के लिए पहुंचा, और वहां से दर्जनों महिलाओं ने दर्जनों बच्चों सहित गिरफ्तारी दी और वे लोग कल से जिला अदालत में पेशी के लिए पड़े हुए हैं, कल उनकी बारी नहीं आई तो आज भी किसी एक भवन को जेल घोषित करके उन्हें वहां रखा गया है। यह कमअक्ल हमारी समझ से परे है कि आज ऐसे किसी मामले में गिरफ्तारी की जा रही है जो कि आज ही जरूरी नहीं है। आज तो अधिक से अधिक लोगों को जेलों से पैरोल पर छोड़ देना चाहिए ताकि एक सीमित जगह में असीमित भीड़ पर कोरोना का खतरा घट सके। लेकिन सरकारी अफसरों का मिजाज अधिक से अधिक प्रतिबंध, अधिक से अधिक कार्रवाई का रहता है, क्योंकि उन्हें इलाज का वही एक तरीका मालूम है। आज शहरों में जिन दुकानों पर खूब भीड़ लगती है, उनके खोलने का समय भी सीमित घंटों का रखा गया था, हमने बार-बार इसके खिलाफ लिखा भी था, लेकिन निर्वाचित नेता मानो अफसरों की सलाह से परे खुद कुछ नहीं सोच पा रहे हैं, उन्होंने अफसरों को हर कहीं ऐसी मनमानी की छूट दी, और दुकानों पर अंधाधुंध भीड़ लगी रही। आज कोरोना के तेजी से बढ़ते मामलों के बीच हम एक बार फिर यह सुझाव दे रहे हैं कि सरकारों को अपनी तमाम गैरजरूरी कार्रवाई अगले कई हफ्तों या महीनों के लिए रोक देनी चाहिए, स्कूल-कॉलेज और इम्तिहान इनको अगले कई हफ्तों के लिए रोक देना चाहिए, बाजार में जिन दुकानों और कारोबार को खोलने की छूट देना जरूरी है, उन्हें चौबीसों घंटे खुले रखने की छूट देनी चाहिए, ताकि उन पर कोई भीड़ न जुटे। छत्तीसगढ़ में शराब एक बड़ा मुद्दा है, और बाकी का बाजार बात-बात पर शराब की मिसाल भी देता है कि किराना बंद है, और शराब शुरू है। हम इस मौके पर कांग्रेस पार्टी की इस चुनावी घोषणा पर तुरंत अमल नहीं सुझा रहे कि प्रदेश में शराबबंदी की जाए। लेकिन अगर शराब बेचना है तो दुकानों को रात-दिन खोल देना चाहिए, ताकि जिनको पीना है उनकी भीड़ न लगे। आज भी दुकानों पर धक्का-मुक्की के बीच शराब लेने वाले लापरवाही से बीमारी भी ले-दे रहे हैं, और इस बात का हमारे पास कोई सुबूत तो नहीं हैं, लेकिन सामान्य समझ कहती है कि शराब की वजह से, शराबियों की भीड़ और धक्का-मुक्की के मार्फत कोरोना अधिक फैला है। इसलिए अगर दारू बेचना है तो उसे बिना भीड़, बिना धक्का-मुक्की, बिना समय के नियंत्रण के रात-दिन बेचना चाहिए, उसी तरह किराना, दूध, गैस, चौबीसों घंटे बिकना चाहिए जैसे कि पेट्रोल और डीजल बिकते हैं। किसी भी तरह का काबू जिससे भीड़ इक_ी हो सकती है, वह काबू नहीं आत्मघाती आदेश रहेगा। अभी पूरा प्रदेश एक और लॉकडाऊन के लायक हो चुका है क्योंकि शासन-प्रशासन ने बिना मास्क वाले लापरवाह लोगों पर कोई भी कार्रवाई नहीं की। ऐसी महामारी के बीच भी अगर अफसरों की हिम्मत कार्रवाई की नहीं हो रही है, तो यह बहुत ही शर्म की बात है, बहुत ही निराशा की बात है। सरकार को आज कमर कसकर बैठना चाहिए, और पूरे प्रदेश से किसी भी किस्म की भीड़ के मौके खत्म कर देना चाहिए, वरना श्मशान में लाशों और चिताओं की जो भीड़ बढ़ती चल रही है, उसकी गिनती होना मुश्किल हो चुका है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अखबार में काम करते हुए और रात-दिन खबरों से जूझते हुए यह मुमकिन नहीं रह जाता कि सोशल मीडिया से बचकर चल सकें। लेकिन सोशल मीडिया खबरों में मदद करता हो वहां तक तो ठीक है, जब वह खबरों पर सोचने-विचारने वाली समझ को तोडऩे-मरोडऩे लगता है, तो उसका खतरा समझ आता है।
आज एक औसत व्यक्ति ट्विटर या फेसबुक पर जिस तरह के पूर्वाग्रही, दुराग्रही, या आग्रही लोगों का सामना करने को मजबूर हो जाते हैं, वह एक फिक्र की बात है। जो लोग सोशल मीडिया को जानकारी और तर्क के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनका खासा वक्त ऐसे ग्रहों से जूझने में बर्बाद होता है जिनके पास किसी बहस के लायक कोई तर्क नहीं होते, तथ्य नहीं होते, और महज जुमले, फतवे, नारे, या स्तुतियों की भरमार रहती है।
सोशल मीडिया पर किन लोगों को फॉलो करना है, किनकी दोस्ती छांटनी है, इस बारे में लोगों को बड़ी गंभीरता से सोचना-विचारना चाहिए। हम कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि आज सोशल मीडिया पर रोज खासा वक्त गुजारने वाले लोग अपनी असल जिंदगी में उतने ही अच्छे हो पाते हैं जितने अच्छे उनके इर्द-गिर्द के लोग हैं। आपके आसपास के लोगों का औसत अच्छा, या औसत बुरा ही आपको बनाता है। इस बात को समझे बिना जो लोग महज सनसनी, नफरत, मोहब्बत, या अंधभक्ति के चलते हुए अपना दायरा तय करते हैं, वे जिंदगी के बहुत से फायदों से दूर रह जाते हैं, और घटिया लोगों के करीब रह जाते हैं। एक वक्त था जब लोगों के दोस्त असल जिंदगी में रहते थे, वह वक्त खत्म हो गया। अब असल जिंदगी के लोग बड़े कम रह गए हैं, और लोगों का अधिक वक्त ऑनलाईन दोस्तों, और वॉट्सऐप दोस्तों के साथ गुजरता है, और ऐसे में वे उसी तरह का नफा या नुकसान पाते हैं जिस तरह अच्छी या बुरी सोहबत की वजह से असल जिंदगी में पाते थे। असल जिंदगी में तो बुरे असर की एक सीमा रहती थी, लेकिन आज सोशल मीडिया, और ऐसी दूसरी जगहों पर ऐसी कोई सीमा नहीं रह गई है। नफरती लोग तेजी से एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं, झूठ बढ़ाते हैं, नफरत फैलाते हैं। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि सोशल मीडिया पर जो लोग नफरत और हिंसा फैलाने वाले हैं, अंधभक्ति फैलाने वाले हैं, उनकी सोहबत से वक्त की बड़ी बर्बादी भी होती है, और अपने दिल-दिमाग की, अपने संस्कारों की भी।
आज मुम्बई की फिल्म इंडस्ट्री से शुरू हुई गंदगी का हाल यह है कि वह संसद के भीतर भी दाखिल हो रही है, और संसद के भीतर अगर कोई समझदारी की बात की जा रही है, तो उस पर भी संसद के बाहर गंदगी पोतने का काम हो रहा है। यह एक भयानक नौबत है जब हिन्दुस्तान के आम लोग, इस देश के बड़े छोटे से तबके वाले खास लोगों के गैरजरूरी मुद्दों को आम जिंदगी के जरूरी मुद्दों से ऊपर मानकर गंदगी की होड़ में शामिल हो गए हैं। यह कुछ उसी किस्म का है कि कई दिनों का भूखा कोई इंसान राह चलती किसी रईस बारात के बैंड की धुन पर नाचने लगे। यह नौबत बहुत खराब है जब देश के एक बड़े तबके को अपनी हकीकत का अहसास नहीं रह गया है, और वह अतिसंपन्न तबके की अफवाहों, उसकी गंदगी में उसी तरह शामिल हो गया है जिस तरह एक वक्त योरप के गरीब राजकुमारी डायना की जिंदगी से जुड़ी हुई अफवाहों में शामिल रहते थे। जनता के पैसों पर पलने वाला ब्रिटिश राजघराना जिस किस्म की सनसनीखेज सेक्स-चर्चाओं को जन्म देता था, शायद वही सनसनी जनता के टैक्स की भरपाई भी थी। आज हिन्दुस्तान में लोग फिल्म इंडस्ट्री से निकली हुई मुफ्त की सनसनी को अपनी जिंदगी के सच के ऊपर रखकर चल रहे हैं। नतीजा यह है कि ऐसी लापरवाह कौम को देश का मीडिया भी गंदगी परोस रहा है क्योंकि उसे जनता के टेस्ट की समझ हो गई है, या मीडिया ने एक सामूहिक साजिश के तहत जनता के टेस्ट को बर्बाद करने का काम जारी रखा है।
एक वक्त यह कहना भी कुछ अधिक कड़ी बात लगती थी कि लोगों को अखबार और टीवी छांटते हुए जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए क्योंकि कोई व्यक्ति उतने ही अच्छे हो सकते हैं जितने अच्छे अखबार वे पढ़ते हैं, या जितने अच्छे टीवी चैनल वे देखते हैं। लेकिन अब ये दोनों किनारे हो गए हैं, और लोग अब उतने ही अच्छे रह पाते हैं जितने अच्छे लोगों को वे सोशल मीडिया पर फॉलो करते हैं, पढ़ते हैं, देखते हैं। इसलिए आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का मकसद महज यह याद दिलाना है कि जिंदगी बहुत छोटी है, उसमें हर दिन सोशल मीडिया में झांकने के घंटे भी अमूमन सीमित रहते हैं, इसलिए उनका बहुत समझदारी से इस्तेमाल करना चाहिए, ऐसा न हो कि सोशल मीडिया पर लोग उन घंटों में अपनी बदनीयत के लिए आपको इस्तेमाल करते रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आन्ध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने मीडिया और सोशल मीडिया पर एक रोक लगाई है कि राज्य के एक भूतपूर्व एडवोकेट जनरल के खिलाफ दर्ज एक एफआईआर को प्रकाशित या प्रसारित न किया जाए। अदालत ने यह भी कहा है कि इस एफआईआर के बारे में भी न छापा जाए, या सोशल मीडिया पर पोस्ट भी न किया जाए। इस बारे में कानूनी खबरों की एक वेबसाईट बारएंडबेंचडॉटकॉम में जानकारी दी है कि इस भूतपूर्व एजी ने अदालत में अपील की है कि राज्य सरकार उनके खिलाफ बदनीयत से ऐसा कर रही है। खबर में यह भी है कि पहले यह अपील जिस जज के पास गई थी उसने इसे सुनने से इंकार कर दिया था, और इसे मुख्य न्यायाधीश को भेजने कहा था। दूसरी तरफ कुछ पत्रकारों ने ट्विटर पर यह बात भी लिखी है कि आन्ध्र की इस बनने जा रही राजधानी अमरावती में सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज की दो बेटियों द्वारा जमीन खरीदने में गड़बड़ी इस मामले में है, और इस वजह से इसकी खबरों का गला घोंटा जा रहा है। कुछ प्रमुख और भरोसेमंद वेबसाईटों ने इस एफआईआर के आधार पर जो खबरें छापी हैं, उनमें इस बात का खुलासा है।
किसी दर्ज एफआईआर की जानकारी के प्रकाशन पर रोक अपने आपमें कुछ अटपटी बात है। एक तो कुछ एफआईआर ऐसी होती हैं जिनमें खुद पुलिस या जांच एजेंसी उन्हें उजागर होने से रोकती हैं, और उसके लिए अलग कानूनी प्रावधान है। महिला और बच्चों से जुड़े हुए कुछ किस्म के मामले और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हुए कुछ मामले इस तरह से रोके जाते हैं कि उनकी एफआईआर इंटरनेट पर अपलोड नहीं की जाती। लेकिन बाकी तमाम एफआईआर 24 घंटे के भीतर अपलोड करने की स्थायी व्यवस्था है, और यह जांच एजेंसियों का जिम्मा है। ऐसे में जमीन खरीदी के किसी मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों पर खुद सरकार द्वारा दर्ज की गई एफआईआर पर कोई खबर बनाने, या सोशल मीडिया पोस्ट बनाने पर रोक एक अजीब बात है, और पहली नजर में यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने वाला आदेश लगता है। खासकर तब जब यह एफआईआर एक राज्य शासन ने खुद दर्ज की है जो कि एक जवाबदेह संस्था है। अगर राज्य सरकार अपनी ही किसी योजना में जमीन खरीदी-बिक्री या आबंटन में गड़बड़ पा रही है, तो उसकी एफआईआर में ऐसा क्या गोपनीय है जिसे जनता के जानने के हक से ऊपर माना जा रहा है?
इस मामले की अधिक जानकारी पर चर्चा किए बिना हम इस अदालती सोच पर चर्चा कर रहे हैं जिसे लेकर जिम्मेदार मीडिया ने बड़ा साफ-साफ लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा जज की दो बेटियों द्वारा वहां पर जमीन खरीदी के खिलाफ यह एफआईआर है। आज देश में अदालतों को लेकर आम जनता का क्या सोचना है यह प्रशांत भूषण के मामले में खुलकर सामने आ चुका है जिसमें जजों ने प्रशांत भूषण की सोशल मीडिय-टिप्पणियों को अदालत की अवमानना मानते हुए एक रूपए का जुर्माना सुनाया है, और प्रशांत भूषण अपनी बात पर कायम रहते हुए इसके खिलाफ अपील करने जा रहे हैं। लोगों को याद है कि प्रशांत भूषण ने कई बरस पहले सुप्रीम कोर्ट के कई मौजूदा और भूतपूर्व जजों के बारे में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, और उस अलग मामले में उनके खिलाफ अवमानना का पुराना केस खोलकर ताजा किया जा रहा है। पिछले कुछ महीनों में प्रशांत भूषण की वजह से, उनके मामले पर देश का जो रूख सामने आया है, उसे देश भर की बड़ी अदालतों को देखना चाहिए, और जनता की लोकतांत्रिक-उम्मीदों को समझना चाहिए। आज अगर न्यायपालिका अपने से जुड़े हुए लोगों की जानकारी सार्वजनिक होने से रोकने की कोशिश करती है, तो ऐसी राहत लोगों को सदमा जरूर देगी। न सिर्फ न्यायपालिका बल्कि निजी और सरकारी, अदालती और संसदीय, संवैधानिक या कारोबारी, किसी भी किस्म की ताकत की जगहों पर लोग जिस तरह से गलत कर भी रहे हैं, और अपने से जुड़ी जानकारियों को छुपाने में भी कामयाब हो रहे हैं, वह लोकतंत्र की एक बड़ी शिकस्त है। इस देश में बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोगों की छोटी-छोटी सी डिग्रियां भी देने से मना किया जा रहा है, और लोकतंत्र की कोई व्यवस्था जनता के हक की मदद नहीं कर पा रही है। अब अगर किसी भूतपूर्व महाधिवक्ता, या वर्तमान जज की बेटियों की जमीन खरीदी-बिक्री के मामले को भी अगर जनता के जानने के हक से ऊपर करार दिया जा रहा है, तो यह बहुत ही निराशा की बात है, और आने वाले वक्त में इस रोक के खिलाफ जनमत तैयार होगा। ऐसी कोई रोक पूरी जिंदगी तो चल नहीं सकती क्योंकि सरकार ने अगर एफआईआर दर्ज की है तो सरकार तो आगे कार्रवाई भी करेगी, और उस पर तो अदालत अभी तक कोई रोक लगा नहीं पाई है। आगे की किस-किस कार्रवाई पर मीडिया के कवरेज या सोशल मीडिया पर टिप्पणियों को रोका जा सकेगा? यह सिलसिला न्यायपालिका की साख को घटाने के अलावा और कुछ नहीं कर रहा है। आज न्यायपालिका जिस तरह बहुत से अप्रिय विवादों से घिर गई है, उसके सामने विश्वसनीयता का एक संकट खड़ा हुआ है, जिस तरह आज सोशल मीडिया पर लोग कई बरस पहले की अरूण जेटली की संसद की एक टिप्पणी का वीडियो पोस्ट किए जा रहे हैं कि रिटायर होने के बाद दिल्ली के आलीशान इलाके में सरकारी बंगले में काबिज बने रहने के लिए सुप्रीम कोर्ट जजों के रिटायरमेंट के पहले के फैसले प्रभावित हो रहे हैं, उन्होंने काफी दम-खम के साथ यह बात कही थी, और लोग उनकी उस समय की बात को आज के संदर्भ में और अधिक सही पा रहे हैं, और अब तो मीडिया में रिटायर हुए कुछ जजों के फैसलों को लेकर लंबे-लंबे विश्लेषण भी हो रहे हैं कि किस तरह वे फैसले कुछ तबकों को सुहाने लगने वाले हैं।
अदालत को अपने आपको किसी परदे में रखने के किसी विशेषाधिकार का दावा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब सुप्रीम कोर्ट के जज इस बात पर अड़ गए थे, कि वे सूचना के अधिकार के तहत अपनी संपत्ति की घोषणा करने की बंदिश नहीं मानेंगे, तब दिल्ली हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट जजों के इस रूख के खिलाफ एक फैसला दिया था, और कहा था कि जजों को अपनी संपत्ति तो उजागर करनी ही होगी।
लोकतंत्र में जब-जब जनता के जानने के हक को कुचलने की कोशिश होती है, वह कुचलने वाले पैरों का ही चिथड़ा उड़ा देती है। आन्ध्र हाईकोर्ट का यह आदेश आने वाले दिनों में लंबे पोस्टमार्टम से गुजरेगा, और हमारा यह मानना है कि जानकारी छुपाने की अपील करने वाले लोगों का और बड़ा भांडाफोड़ होगा जब यह आदेश हटेगा, और सरकार कार्रवाई करेगी। न्यायपालिका को खबरों से अधिक अपनी साख की फिक्र करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के मोर्चे पर अभी एक नया निष्कर्ष सामने आया है जो बताता है कि हिन्दुस्तान की हालत आज के सरकारी आंकड़ों के मुकाबले दोगुने से भी अधिक खराब है। सरकारी आंकड़े आज देश में 95 हजार से एक लाख नए कोरोना पॉजिटिव रोज मिलना बता रहे हैं, लेकिन एक वैज्ञानिक अनुमान यह आया है कि ये आंकड़े दो से ढाई लाख हर दिन हो सकते हैं क्योंकि आज के सरकारी आंकड़े एक ऐसे रैपिड टेस्ट के आधार पर हैं जिनमें बहुत से पॉजिटिव लोगों को निगेटिव पाया जाता है, बताया जाता है। यह वैज्ञानिक निष्कर्ष है कि जब अधिक भरोसेमंद पीसीआर टेस्ट किया जाता है, और उसे भी सही तरीके से किया जाता है तो रैपिट टेस्ट के मुकाबले दो से तीन गुना अधिक पॉजिटिव मिलते हैं। दिल्ली और महाराष्ट्र इन दो राज्यों में जांच अधिक अच्छे से हुई, तकनीक का ठीक इस्तेमाल हुआ, और वहां पीसीआर जांच में रैपिट टेस्ट के मुकाबले ढाई-तीन गुना अधिक पॉजिटिव मिले हैं। ये आंकड़े अगर देश में दहशत पैदा नहीं करते तो यह मान लेना चाहिए कि यह देश जिम्मेदारी से बरी हो चुका है, और यहां पर सब कुछ जनधारणा पर चल रहा है जिसे कि ढाला जा रहा है, और कुछ भी सच के आधार पर नहीं चल रहा।
आज लोकसभा में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया है कि चीन ने लद्दाख में हिन्दुस्तान की 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा है। अब अगर कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विपक्षी नेताओं के साथ चीन के मुद्दे पर ही हुई बातचीत को याद करें, तो उन्होंने बड़े साफ शब्दों में यह कहा था कि हिन्दुस्तान की जमीन पर न कोई विदेशी घुसे हैं, न यहां पर हैं। प्रधानमंत्री के उस बयान पर पहले भी बहुत हंगामा हो चुका है कि वह सच से परे का था क्योंकि उस वक्त भी भारत सरकार के बड़े-बड़े लोग हिन्दुस्तान में चीनी घुसपैठ, अवैध कब्जे, अवैध निर्माण की बातें कर चुके थे, लेकिन प्रधानमंत्री ने बहुत साफ शब्दों में इन सबका खंडन किया था। तब से लेकर अब तक इस देश के पास सरकारी स्तर पर और कोई जानकारी नहीं थी, आज संसद में राजनाथ सिंह ने साफ-साफ 38 हजार वर्ग किलोमीटर पर अवैध कब्जा कहा है। जाहिर है कि यह कब्जा प्रधानमंत्री के बयान के बाद तो नहीं हुआ है क्योंकि उसके बाद से रोज निगरानी की खबरें आ रही हैं। ऐसा शायद पहली ही बार हुआ कि देश की जमीन पर विदेशी अवैध कब्जे को लेकर केन्द्र सरकार ने प्रधानमंत्री की दी गई जानकारी पर ऐसा विवाद हो रहा है। इतिहास बताता है कि यह 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन अक्साईचिन का इलाका है जिस पर भारत 1962 की जंग के पहले से अपना हक जताते आया है, और हमेशा उसने इसे अपनी जमीन पर चीन का अवैध कब्जा, अवैध मौजूदगी माना है। भारत सरकार का यह रूख केन्द्र में किसी भी पार्टी की सरकार रहे, लगातार जारी रहा है। इस हिसाब से प्रधानमंत्री का सर्वदलीय बैठक का बयान सच से दो मायनों में परे था। इस 38 हजार वर्ग किलोमीटर पर चीन की मौजूदगी को वह बयान अनदेखा कर रहा था, और दूसरी बात यह भी कि आज राजनाथ सिंह ने संसद में जिन इलाकों में चीन की घुसपैठ की बात कही है, उन इलाकों के बारे में प्रधानमंत्री उस दिन सभी दलों से बात कर रहे थे, और उन्होंने इस घुसपैठ को भी अनदेखा करते हुए साफ शब्दों में कहा था कि भारत की जमीन पर न कोई आया है, न कोई है। यह बात आज के राजनाथ सिंह के बयान के साथ मिलाकर देखें, तो हकीकत समझ आती है।
देश में आज हकीकत की हालत इतनी खराब इसलिए है कि केन्द्र सरकार ने नोटबंदी के नफे-नुकसान का हिसाब देश को आज तक नहीं दिया है, देश के आर्थिक सर्वेक्षण, राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के आंकड़े देश के सामने रखने से मना कर दिया, पीएम केयर्स नाम के बनाए गए एक खास फंड को सीएजी के ऑडिट से भी परे रखा गया, उसके बारे में कोई भी जानकारी देने से मना कर दिया गया। ऐसे बहुत से अलग-अलग मामले हैं जिनमें जानकारी देने से मना किया जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि जिस देश परंपरागत रूप से पंचवर्षीय योजनाओं से लेकर सालाना बजट तक देश के आंकड़ों के आधार पर बनते आए हैं, और इन्हें देश से कभी नहीं छुपाया गया, आज उनको क्यों छुपाया जा रहा है? लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि चीनी सरहद पर हिन्दुस्तानी सैनिकों की शहादत करीब आधी सदी बाद हुई, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस सरहदी तनाव के बारे में जो कुछ भी कहा, उसमें चीन का नाम भी नहीं लिया गया, चीन शब्द भी नहीं कहा गया। यह पूरा सिलसिला बड़ा अटपटा है, और इस देश के प्रधानमंत्री के ओहदे की साख को भी घटाता है क्योंकि नरेन्द्र मोदी ही गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए शायद पांच बार चीन गए थे, प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने बहुत ही दोस्ताना और अनौपचारिक अंदाज में चीनी राष्ट्रपति की भारत में लीक से हटकर, परंपरा से आगे बढक़र खातिरी की थी। इसके बाद अगर आज भारत के चीन के साथ राष्ट्रप्रमुख के स्तर पर बातचीत के रिश्ते भी नहीं है, तो यह बहुत ही हैरानी की बात है, बहुत ही सदमे की बात भी है।
हम आज यहां पर कोरोना के आंकड़ों से लेकर भारतीय जमीन पर चीनी कब्जे के आंकड़ों तक कई बातों को देख रहे हैं, और इनमें एक ही बात साफ लग रही है कि जनता से सच बांटने में सरकार बिल्कुल भी साफ नहीं है। भारत जैसे लोकतंत्र में जहां बहुत सा काम भरोसे पर चलता है, जहां पर मुसीबत के वक्त सर्वदलीय बैठक भी सारे अधिकार प्रधानमंत्री को देते आई है, वैसे देश में जानकारी को छुपाकर रखना एक नया सिलसिला है, बहुत ही खतरनाक सिलसिला है। पहले तो चीनी कब्जे को लेकर यह बात साफ लग रही थी कि प्रधानमंत्री का कहा हुआ सच नहीं है। वे क्यों सच से परे कह रहे हैं, यह बात आज भी साफ नहीं है। खासकर तब जब उनकी सरकार और उनकी पार्टी आधी सदी से भी अधिक पहले नेहरू की चीन-नीति को रात-दिन कोसते आए हैं, ऐसे में मोदी को तो अपनी चीन-नीति को पारदर्शी रखने चाहिए था, संसद, देश, और सर्वदलीय बैठक में खुलकर साफ बात करनी थी। अगर चीन ने हिन्दुस्तानी जमीन पर कब्जा किया है तो उस बात को छुपाने की कोई वजह हमें समझ नहीं आती है। अगर सरहद पर किसी तरह की शिकस्त हुई है, या पड़ोस के देश ने इतना बड़ा कब्जा किया है, तो उसे देश से छुपाना नहीं था। अभी यह लिखते हुए भी संसद से रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का बयान आ रहा है, और उनके बयान की यह जानकारी बार-बार टीवी की खबरों पर आ रही है कि चीनी कब्जा कितना बड़ा है। राजनाथ सिंह इस कब्जे का पुराना इतिहास नहीं बता रहे हैं, लेकिन वे भारत सरकार का हमेशा से स्थापित एक स्टैंड बता रहे हैं, जो कि हर प्रधानमंत्री के रहते लगातार जारी रहा है।
भारतीय लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य सरकारों को जनता के साथ पारदर्शी तरीके से रहना चाहिए। जनता कभी भी सरकार की फौजी खुफिया जानकारी मांगने के चक्कर में नहीं रहती, लेकिन यह बात तो कई महीनों से दुनिया के कई देशों के उपग्रहों से खींची गई तस्वीरों के आधार पर दुनिया के कई विशेषज्ञ लिख चुके हैं कि हिन्दुस्तानी जमीन पर चीनी कब्जा है, चीन निर्माण कर रहा है।
आज कोरोना पर हिन्दुस्तान के लोग बहुत बुरी तरह लापरवाह दिख रहे हैं। और इतनी लापरवाही की एक वजह यह भी हो सकती है कि लोगों को खतरे की असलियत देखने नहीं मिल रही है, लोगों को खतरा घटाकर दिखाया जा रहा है। यह सिलसिला ठीक नहीं है। आज अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पर यही तोहमत लग रही है कि उन्होंने अमरीका में कोरोना के खतरे को घटाकर दिखाया। और उसका नतीजा सामने है।
सरकार को तात्कालिक अलोकप्रियता से डरकर सच को छुपाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। लोकतंत्र में सरकार पर लोगों की आस्था इस बात पर भी टिकी रहती है कि सरकार की सच के मामले में क्या साथ। भारत का इतिहास बताता है कि नेहरू के मौत की आधी सदी बाद भी उन पर यह तोहमत लगती है कि उन्होंने चीनियों पर जरूरत से अधिक भरोसा किया था। आज राजनाथ सिंह बयान देखें, तो यह साफ लगता है कि सर्वदलीय बैठक में मोदी की कही बातें भी चीन पर जरूरत से अधिक भरोसे वाली थीं, या कम से कम वे चीन के ऐतिहासिक कब्जे के जिक्र के बिना थीं, या सरहद पर जिस ताजा घुसपैठ का जिक्र आज राजनाथ सिंह ने किया है, उनके भी जिक्र के बिना थीं। आने वाले दिनों में प्रधानमंत्री को अपने ही उस बयान को लेकर और सवालों का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन वे अपने आपको सवालों के घेरे से खासा दूर रखते हैं, इसलिए ऐसा कोई खतरा उन पर नहीं रहता। तो क्या आज मोदी व्यक्तिगत रूप से चीन पर अपनी बाकी सरकार के मुकाबले अधिक भरोसा करते हुए उसके आधी सदी अवैध कब्जे के भी जिक्र से बच रहे हैं, चीन की ताजा घुसपैठ को भी साफ-साफ शब्दों में नकार रहे हैं, और ऐसा करते हुए क्या वे नेहरू की वैसी ही चूक को दुहरा नहीं रहे हैं जैसी कि उनकी पार्टी हमेशा से नेहरू के नाम के साथ जोड़ती आई है?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई की जुबानी जंग दिमागी बीमारी की हद तक पहुंची हुई दिख रही है। अब अगर किसी को मानसिक बीमार कहलाने में दिक्कत हो, तो उन्हें हम नशे में होने के संदेह की छूट भी दे सकते हैं। ये दोनों बातें अगर किसी को पसंद नहीं है, तो फिर वे किसी बड़ी साजिश के भागीदार जरूर होंगे।
सुशांत राजपूत विवाद में बेगानी शवयात्रा में कंगना दीवानी के अंदाज में जो बहस चालू हुई, वह बढ़ते-बढ़ते अब सचमुच ही गांजे के नशे में डूबी हुई दिख रही है। यह अलग बात है कि देश में नशे का कारोबार पकडऩे के लिए बनाई गई राष्ट्रीय एजेंसी इस पर कार्रवाई नहीं करेगी, क्योंकि इस बकवास में पसंदीदा निशाने घेरे में नहीं आएंगे। पिछले दो दिनों में लोगों ने याद दिलाया है कि किस तरह भाजपा के राज वाले कर्नाटक में भाजपा का एक वर्दीधारी कार्यकर्ता गांजे के एक बहुत बड़े स्टॉक के साथ पकड़ाया है, लेकिन इस 12 सौ किलो गांजे पर कार्रवाई के बजाय एमसीबी नाम की एजेंसी मुम्बई में रिया के 59 ग्राम गांजा खरीदी पर पूरी ताकत झोंककर बैठी है। खैर, जब देश गांजे के धुएं से घिरा हो तो ऐसी कई बातें हो सकती हैं, होती हैं। अब जैसे अयोध्या में हनुमानगढ़ी के महंत राजूदास पिछले दिनों अचानक कंगना रनौत के इतने बड़े हिमायती बनकर सामने आए कि शायद कंगना खुद हैरान रह गई होगी कि यह दूसरा अब्दुल्ला दीवाना कहां से आ गया? और इस महंत का बयान कंगना के दफ्तर की तोडफ़ोड़ के खिलाफ आया था जिसमें उसने महाराष्ट्र की सरकार के अन्याय के खिलाफ चुप न बैठने का फतवा दिया था, और कहा था कि उद्धव ठाकरे को अयोध्या आने पर घुसने नहीं दिया जाएगा।
अब बाबरी मस्जिद गिराने के गर्व के अकेले सार्वजनिक दावेदार बालासाहब ठाकरे के उत्तराधिकारी और उनके बेटे को अयोध्या न घुसने देने का यह फतवा मुम्बई म्युनिसिपल द्वारा कंगना के दफ्तर को तोडऩे पर दिया गया! जाहिर है कि नशे का कारोबार देश भर में कई जगह फैला हुआ है, और उसका इस्तेमाल भी खूब जमकर होता है, और साधुओं के बीच भी उसका खूब चलन है। सुशांत राजपूत की मौत के मामले में जिस तरह कंगना नाम का धूमकेतु आसमान से गिरा था, उसी तरह यह दूसरा धूमकेतु कंगना के टूटे दफ्तर पर अयोध्या से जाकर गिरा है।
लेकिन गांजे के धुएं का असर दूर-दूर तक दिख रहा है। दो-चार दिन पहले अपने दफ्तर की तोडफ़ोड़ को लेकर कंगना का बयान आया था कि इस पर सोनिया गांधी की चुप्पी इतिहास अच्छी तरह दर्ज कर रहा है। अब मुम्बई में किसी एक दफ्तर के अवैध निर्माण पर वहां की म्युनिसिपल की कार्रवाई पर सोनिया के बयान की उम्मीद कोई सामान्य दिमागी हालत तो कर नहीं सकती। सामान्य दिमाग तो यह जरूर पूछ सकता था कि दिल्ली में जिन 48 हजार झुग्गियों को गिराने का हुक्म सुप्रीम कोर्ट ने दिया है, उन पर केन्द्र सरकार के किसी नेता ने कुछ कहा है क्या? जिनके पांवतले अपनी जमीन नहीं है, सिर पर पक्की छत नहीं है, उनकी फिक्र छोडक़र मुम्बई में एक अरबपति के अवैध निर्माण की फिक्र सोनिया गांधी से कोई असामान्य दिमाग, या नशे में डूबा दिमाग ही कर सकता है।
खैर, बात अगर यहीं खत्म हो गई रहती तो भी हमें इस बारे में कुछ लिखना नहीं पड़ता। आज मजबूरी यह है कि कंगना का ताजा बयान देखने लायक है जिसमें उसने अचानक ही अपनी पसंदीदा निशाना शिवसेना के लिए लिखा- आपके लिए ये बहुत अफसोस की बात है कि बीजेपी एक ऐसी व्यक्ति को बचा रही है जिसने ड्रग्स और माफिया रैकेट का भांडाफोड़ कर डाला है। इसका मतलब बीजेपी को शिवसेना के गुंडों को मेरा मुंह तोड़ देने, रेप करने, या लिंच करने से नहीं रोकना चाहिए संजयजी?
हिन्दुस्तानी मीडिया में रात-दिन कंगना नाम का यह कंगन खनक रहा है, लेकिन अभी तक किसी जगह भी कंगना को रेप की कोई धमकी किसी ने दी हो ऐसा नजर नहीं आया, ऐसा सुनाई नहीं पड़ा। ऐसे में शिवसेना पर अपने से रेप करने की तोहमत लगाना एक बार फिर सामान्य दिमाग का काम नहीं लग रहा है, या तो दिमाग में कोई नुक्स है, या किसी पदार्थ का असर है, या फिर यह किसी साजिश के तहत लिखी गई एक तेजाबी फिल्मी स्क्रिप्ट है जिसके पीछे बड़ी साफ राजनीतिक नीयत है।
ऐसा इसलिए भी लिखना पड़ रहा है कि अपने दफ्तर को तोडऩे को लेकर कंगना ने जिस अंदाज में उसे बाबर से जोड़ा है, उसे कश्मीरी पंडितों से जोड़ा है, वह गणित आर्यभट्ट को भी आसानी से समझ नहीं आया होता। अभी कल तक की बात है जब शिवसेना बाबरी मस्जिद गिराने की अकेली स्वघोषित दावेदार थी, जिसने कश्मीर में धारा 370 खत्म होने पर सार्वजनिक खुशी जाहिर की थी, तो अब इन दो मुद्दों को लेकर कंगना क्या शिवसेना से अधिक बड़ी हिन्दू बनने जा रही है?
यह पूरा सिलसिला गांजे के धुएं में धुंधला दिख रहा है, शायद धुंधला भी नहीं दिख रहा। बेगानी शादियों में अब्दुल्ला इस अंदाज में नाच रहे हैं, या नाच रही हैं कि समझ नहीं पड़ रहा कि दुल्हे के रिश्तेदार और दोस्त नाचने कहां जाएं? अयोध्या का एक महंत जिस अंदाज में बाबरी मस्जिद गिराने वाले परिवार के खिलाफ ताल ठोंकते हुए कंगना के साथ कूद पड़ा है, उससे हनुमानगढ़ी के हनुमान भी कुछ हैरान जरूर हुए होंगे।
कंगना के तरंगी बयानों में अब तक वेटिकन के खिलाफ, मक्का-मदीना के खिलाफ, और फिलीस्तीन के खिलाफ कुछ न आने पर भी इन तमाम जगहों में बड़ी निराशा है। और मुम्बई में कुछ महंगे किस्म की ग्रास बेचने वाले लोगों की साख चौपट हो रही है कि उनकी ग्रास बेअसर है। विवाद के चलते 10 दिन हो रहे हैं, और अब तक इतनी महत्वपूर्ण जगहों को कंगना के दफ्तर तोडऩे में कोई किरदार नहीं मिल पाया, यह छोटी समस्या नहीं है। देश और दुनिया को कंगना के दफ्तर के अवैध निर्माण टूटने को गंभीरता से लेना चाहिए, और बाबर के बाद के भी कई ऐसे लोग हैं जिनका हाथ इस तोडफ़ोड़ में हो सकता है। कश्मीरी पंडितों की बेदखली के अलावा फिलीस्तीनियों की बेदखली भी इस तोडफ़ोड़ के पीछे हो सकती है। दुनिया को कंगना के बयानों को गंभीरता से लेना चाहिए, और मुम्बई के मनोचिकित्सक यह भी जांचने की कोशिश कर सकते हैं कि कंगना के खिलाफ रेप का कोई बयान सामने न आने पर भी उसे शिवसैनिकों के हाथों रेप की बात कैसे, कहां से, और क्यों सूझ रही है। यह बात मनोविज्ञान और मनोचिकित्सा के लिए भी बड़ी चुनौती है, और कोरोना तो खैर आता-जाता रहता ही है, इस मन:स्थिति पर शोध पहले हो जाना चाहिए। दिल्ली में जो पार्टियां और जो नेता राजनीति करते हैं, उनको कांग्रेस की तरह की बेवकूफी नहीं करनी चाहिए कि 48 हजार झोपडिय़ों के लोगों को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाए। आज देश के इतिहास की सबसे बड़ी बेदखली, 3 लाख कश्मीरी पंडितों की बेदखली से भी बड़ी, कंगना के दफ्तर की तोडफ़ोड़ है, और देश को पहले उस पर ध्यान देना चाहिए। संसद आज से शुरू हुई है, और अगर संसद इस दफ्तर के तोडफ़ोड़ के अलावा किसी भी और मुद्दे पर चर्चा करती है, तो फिर इस संसद का होना न होना एक बराबर है। यह एक अलग बात है कि मुम्बई का धुआं दिल्ली तक पहुंचा है या नहीं, और उसका असर दिल्ली पर उसी तरह हो रहा है या नहीं जिस तरह अयोध्या की हनुमानगढ़ी के महंत पर हो रहा है। बेगानी शादी में अभी भी कुछ और लोगों के नाचने की जगह देश की संसद को निकालनी चाहिए, और राष्ट्रीय महत्व के इस मुद्दे पर चर्चा करनी चाहिए, क्योंकि चीन तो 1962 के पहले से भी समस्या बना हुआ है, और उस मोर्चे पर अभी हाल-फिलहाल तो कुछ दर्जन हिन्दुस्तानी सैनिक ही शहीद हुए हैं, इसलिए महत्व के हिसाब से संसद को भी फिलहाल सिर्फ कंगना के दफ्तर पर अपना फोकस बनाए रखना चाहिए।
हिन्दुस्तान में मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में दाखिले के लिए राष्ट्रीय पात्रता और प्रवेश परीक्षा एनईईटी (नीट) के ठीक एक दिन पहले तमिलनाडू में तीन छात्रों ने आत्महत्या कर ली। इनका इम्तिहान अभी होना ही था, उसके पहले आत्महत्या से कुछ अलग-अलग सवाल उठते हैं। एक तो राष्ट्रीय स्तर का यह मुकाबला इतना बड़ा और इतना कड़ा है कि यह अच्छी खासी तैयारी करने वाले लोगों के मन में भी दहशत पैदा करता है। सिर्फ यही इम्तिहान नहीं, ऐसे बहुत से दाखिला इम्तिहान हैं जिनकी तैयारी करते हुए हर बरस कई छात्र-छात्राएं राजस्थान के कोटा में आत्महत्या करते हैं, और देश भर में शायद पढ़ाई के मुकाबलों में आत्महत्या करने वाले सैकड़ों में हो जाते हैं। आत्महत्या करने वाले तो पुलिस के रिकॉर्ड में आने की वजह से एक ठोस खबर बनते हैं, और दिखते हैं, लेकिन आत्महत्या की कगार पर पहुंचे हुए लोग जिस तरह के मानसिक अवसाद के शिकार होते हैं, उनकी कोई गिनती कभी सामने आती नहीं हैं। इस बरस कोरोना और लॉकडाऊन की वजह से, पढ़ाई न हो पाने की वजह से निराश छात्र-छात्राओं की संख्या काफी अधिक है, और सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षाएं आगे बढ़ाने से इंकार करके एक बड़ा गलत फैसला दिया है जिससे संपन्न परिवारों के बच्चे तो तैयारी कर पाएंगे, लेकिन गरीब परिवारों के बच्चों की तैयारी पिछड़ जाना तय है।
अब देश कई अलग-अलग किस्म के दाखिला-इम्तिहानों से खिसकते हुए अब राष्ट्रीय स्तर की ऐसी कुछ परीक्षाओं पर पहुंच गया है जिनमें कई राज्यों के बच्चों का पिछड़ जाना तय है क्योंकि वहां विकसित राज्यों के मुकाबले पढ़ाई का स्तर नीचा है। लेकिन क्या हर राज्य के बच्चों का अलग-अलग अधिकार नहीं होना चाहिए? यह एक बुनियादी सवाल धरा रह जाता है जब दाखिला-इम्तिहान की सोच ही गड़बड़ लगती है। आज पूरे देश में बचपन से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई के नंबर धरे रह जाते हैं, और दाखिला-इम्तिहान ही मायने रखते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चे स्कूल-कॉलेज की नियमित पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते, और सिर्फ मुकाबलों की तैयारी करने में लगे रहते हैं। मानो जिंदगी में मकसद पढ़ाई नहीं, मुकाबला है। इससे देश भर में पढ़ाई की ओर लोगों का रूझान घटते जा रहा है क्योंकि पढ़ाई के नंबर आगे के ऐसे किसी बड़े मुकाबले में काम नहीं आते, वहां पहुंचने पर कोटा जैसे दाखिला-उद्योग की सेवाएं खरीदना ही काम आता है। चूंकि यह पूरी व्यवस्था समाज की आर्थिक असमानता पर पूरी तरह टिकी हुई है, इसलिए भी बहुत से बच्चे आत्महत्या की कगार पर पहुंचते हैं, क्योंकि वे गरीब तबकों से आते हैं।
अब कुछ देर के लिए दाखिला-इम्तिहानों, और उन पर आधारित पढ़ाई को छोड़ दें, और यह चर्चा करें कि बरसों की तैयारी के बाद जो बच्चे इन इम्तिहानों में सीटों की गिनती तक नहीं पहुंच पाते, उनके लिए क्या बच जाता है? उनमें से बहुत से दूसरे छोटे इम्तिहानों से गुजरते हुए कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले कॉलेजों तक पहुंचते हैं, कोई दूसरी पढ़ाई करते हैं, और बेरोजगार के कॉलम में किसी दूसरी केटेगरी में दर्ज हो जाते हैं।
क्या हिन्दुस्तान में सोच में एक बुनियादी फेरबदल की जरूरत नहीं है कि गिनी-चुनी सीटों के लिए देश की इतनी बड़ी आबादी को, नौजवान पीढ़ी के एक बड़े हिस्से को एक अंतहीन मुकाबले में न झोंका जाए, और उन्हें कोई दूसरी राह भी सुझाई जाए? क्या गिने-चुने अधिक लोकप्रिय कोर्स छोडक़र जिंदगी में स्वरोजगार की कोई ऐसी तैयारी करवाई जा सकती है जिससे लोग बिना किसी मुकाबले अपने-अपने दायरे में अपने-अपने हुनर, और अपनी-अपनी काबिलीयत का काम कर सकें, और गुजारा चला सकें? यह बात सोचना इसलिए भी जरूरी है कि कुछ चुनिंदा कॉलेज नौजवान बच्चों की महत्वाकांक्षा का केन्द्र बन जाते हैं, और वे उनसे परे कुछ नहीं देख पाते। होना तो यह चाहिए कि ग्रामीण उद्योग, कुटीर उद्योग, खेती पर आधारित कई दूसरे किस्म के काम, शहरों में सर्विस देने के कई तरह के मरम्मत के काम, इन सबके लिए हुनर सिखाने के आगे का इंतजाम भी करना चाहिए ताकि लोगों को हुनर सीखने के बाद काम मिल सके। आज हिन्दुस्तान में कौशल विकास की योजना की बड़ी चर्चा होती है, लेकिन कोई कौशल सीख लेने के बाद उससे रोजी-रोटी तक पहुंच पाना कम ही लोगों के लिए हो पा रहा है। दूसरी तरफ शहरी जिंदगी में ऐसे हुनरमंद लोगों की जरूरत हमेशा ही बनी रहती है जो कि संपन्न तबके या उच्च-मध्यम वर्ग के लिए तरह-तरह के काम कर सकें।
सरकारों को अलग-अलग अकेले हुनर की ट्रेनिंग से परे भी कई और बातें सोचनी चाहिए जिससे देश की गिनी-चुनी परीक्षाओं में लगने वाली अंतहीन भीड़ को घटाया जा सके। आज जिस डेंटल पढ़ाई के लिए देश भर में दसियों लाख बच्चे मुकाबला करते हैं, वे डेंटिस्ट महीने में 10-15 हजार रूपए भी नहीं कमा पाते जबकि एक मामूली बिजली मिस्त्री उनसे ज्यादा कमा लेता है। हिन्दुस्तान में हुनर की ट्रेनिंग, और हुनर की जरूरत के बीच एक रिश्ता बनाने की जरूरत है जो कि कुछेक मोबाइल एप्प कर भी रहे हैं। इस काम को और बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि लोग कमा सकें, और तरह-तरह के हुनर सीखने की तरफ जा सकें। आज औसत पढ़ाई वाले छात्र-छात्राओं को जब देश के सबसे कड़े मुकाबलों का सपना दिखाया जाता है, मां-बाप भी बच्चों से अपनी उम्मीदें ऐसी ही बड़ी पाल लेते हैं, तो फिर कुछ बच्चे आत्महत्या करते हैं, उनसे हजारों गुना बच्चे मानसिक अवसाद में जीते हैं, और वे अपनी काबिलीयत और समझ के किसी मुकाम तक पहुंच नहीं पाते।
इसलिए देश की सोच में इस फेरबदल की जरूरत है कि देश को इस पढ़ाई, ट्रेनिंग, और हुनर के कितने लोग चाहिए, और उस हिसाब से ही पढ़ाई, प्रशिक्षण, और मुकाबला होना चाहिए। इस मामले में केरल की मिसाल दी जानी चाहिए जो कि न केवल देश में बल्कि खाड़ी के देश और दूसरे देशों तक की जरूरतों के मुताबिक अपनी नौजवान पीढ़ी को तैयार करता है, और जहां के लोग सात समंदर पार जाकर भी आसानी से रोजगार पाते हैं, और कमाई भेजकर अपने प्रदेश को संपन्न भी करते हैं। हमारी बात समझने के लिए किसी अंतरिक्ष विज्ञान की जरूरत नहीं है, बाकी राज्य केरल को ही देख लें, तो वे अपने लोगों में बेरोजगारी खत्म कर सकते हैं, और लोग दाखिला-मुकाबलों के बजाय कुछ दूसरे रास्ते भी समझ सकते हैं। फिलहाल हमारी बात दाखिला-इम्तिहान से शुरू होकर स्वरोजगार की ट्रेनिंग की केरल मॉडल तक पहुंची है, लोग अपनी पसंद और जरूरत के पहलू यहां से उठाकर उन पर चर्चा कर सकते हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तिसगढिय़ा स्वामी अग्निवेश जिंदगी के लंबे सामाजिक संघर्ष के बाद कल गुजर गए। यूं तो हम आमतौर पर गुजरे हुए लोगों के बारे में लिखना पसंद नहीं करते क्योंकि श्रद्धांजलि के मौके पर बहुत सी झूठी बातें लिखी जाती हैं, लेकिन अग्निवेश उन लोगों में से रहे जिन्होंने अपनी जिंदगी में जीते-जी ही खूब गालियां खाईं, मार खाई, जान का खतरा झेला, लेकिन फिर भी सामाजिक मोर्चे पर डटे रहे। वे उन लोगों में से नहीं थे जो घर पर या किसी आश्रम में महफूज बैठे हुए मसीहाई-प्रवचन करते रहें, कॉलम लिखते रहें, या बयान जारी करते रहें। वे अपनी पूरी जिंदगी सामाजिक लड़ाई के मोर्चे पर सामने खड़े रहे, अपने मुद्दों पर डटे रहे। और यही वजह है कि आज हम उनके गुजरने पर इस जगह उन्हें याद कर रहे हैं।
अग्निवेश छत्तीसगढ़ में नाना के घर पले और बड़े हुए, यहीं पढ़े, वकालत से जीवन शुरू किया, लेकिन फिर आर्यसमाजी आंदोलन में वे हिन्दू धर्म के पाखंडों के खिलाफ लड़ाई में उतरे। लेकिन आर्य समाज में रहते-रहते भी अग्निवेश ऐसे मुद्दों की लड़ाई में उतर गए जो कि आर्य समाज के एजेंडा से परे के थे। वे बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने और उनके पुनर्वास की लंबी लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे, और उसका नतीजा देश भर में मजदूरों को फायदे की शक्ल में मिला, हजारों मजदूरों को छत्तीसगढ़ में भी परंपरागत बंधुआ मजदूरी से आजादी मिली, उन्हें पुनर्वास भी मिला। वे आर्यसमाजी होने के साथ-साथ एक सन्यासी के पोशाक में भी रहते थे, और इस नाते उनकी तमाम सुधारवादी कोशिशें हिन्दू धर्म की विकृतियों को घटाने वाली रही, और हिन्दुत्व की साख को बढ़ाने वाली भी रहीं। यह एक अलग बात है कि सीबीआई के एक रिटायर्ड प्रभारी डायरेक्टर रहे, और आईपीएस रहे एम.नागेश्वर राव ने उनकी मौत पर खुशियां मनाते हुए यमराज से शिकायत की है कि वे इस शर्मनाक हिन्दू को ले जाने में इतने लेट क्यों हुए। जाहिर है कि जो धर्म के पाखंड के खिलाफ लडऩे वाले रहते हैं, उनके जिंदा रहने से पाखंडी तो विचलित होते ही हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि सीबीआई के सबसे ऊंचे ओहदे तक पहुंचने वाले अफसर की सोच किस तरह की है, और अभी पिछले बरसों तक इस संवेदनशील विभाग में काम करते हुए उसका यह पूर्वाग्रह किस तरह कहां-कहां देश को नुकसान करते रहा होगा। लोगों ने सोशल मीडिया पर तुरंत याद किया है कि ये वही नागेश्वर राव हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट के हुक्म के बाद भी बिहार के मुजफ्फरनगर बालिका गृह में बच्चियों से लगातार चलते रहे बलात्कार के जांच अफसरों को बदल दिया था, और इस जुर्म में अदालत ने इन्हें दिन भर कोर्ट के एक कोने में बिठा रखा था। एक मौत ने ऐसे एक धर्मान्ध पाखंडी को उजागर भी कर दिया। और अग्निवेश ऐसा भांडाफोड़ करते ही रहते थे।
वे एक खालिस छत्तीसगढ़ी थे, और दुनिया भर में घूमने के बावजूद मौका मिलते ही वे धाराप्रवाह छत्तीसगढ़ी पर उतर आते थे। उन्होंने आर्य समाज के सिद्धांतों पर एक पार्टी भी बनाई, हरियाणा में चुनाव लड़ा, विधायक और मंत्री बने, लेकिन उनका बुनियादी काम बंधुआ मजदूर मुक्ति मोर्चा बनाने से शुरू हुआ। वे नक्सलियों की सरकार के साथ बातचीत में मध्यस्थ भी रहे क्योंकि एक मानवाधिकारवादी आंदोलनकारी के रूप में उनकी साख अच्छी तरह जमी हुई थी। छत्तीसगढ़ के बस्तर में जब नक्सलियों ने एक अफसर का अपहरण कर लिया था, तो उसे छुड़ाने में भी उन्होंने दखल दी थी। इन्हीं वजहों से बस्तर में एक वक्त तानाशाही का राज करने वाले कुख्यात और मुजरिम पुलिस अफसरों की शह पर बस्तर में उन पर हमला भी किया गया, उन पर कालिख पोती गई, और उन्हें मारा गया। आक्रामक हिन्दुत्ववादी इस उदार हिन्दू चेहरे से इतना खफा रहते थे कि वे जगह-जगह उन पर हमले करते थे।
बंधुआ मजदूरी के खात्मे और गुलाम प्रथा खत्म करने के मुद्दों पर अग्निवेशजी एक अंतरराष्ट्रीय मौजूदगी की और वे संयुक्त राष्ट्र के अलग-अलग कई मंचों से लगातार मजदूरों के अधिकार, महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ते रहते थे। एक नजर में देखें तो वे छत्तीसगढ़ से निकलकर बाहर जाकर देश और दुनिया में सामाजिक आंदोलनों में ही पूरी जिंदगी खफा देने वाले सबसे बड़े व्यक्ति रहे। वे आक्रामक हिन्दुत्व के खिलाफ जाकर दूसरे धर्मों और हिन्दुओं के बीच सद्भावना के लिए काम करते रहे, वे मुस्लिमों के खिलाफ हिंसक भेदभाव के खिलाफ भी काम करते रहे, आदिवासी अधिकारों, किसान अधिकारों, कमजोर तबकों की लड़ाई लड़ते रहे। सत्तारूढ़ पार्टियां आमतौर पर उनके खिलाफ रहीं, सरकारें उनके खिलाफ रहीं, हिन्दू संगठन उनके खिलाफ रहे।
अपने लंबे जीवन में स्वामी अग्निवेश ने जितने सामाजिक मुद्दों की लड़ाई लड़ी, और पूरे का पूरा जीवन संघर्ष में गुजारा, वह एक अनोखी बात रही। बहुत कम लोग ऐसा संघर्ष कर पाते हैं। अग्निवेश उन तमाम लोगों के लिए एक मिसाल बने रहेंगे जो हिन्दुस्तान को एक बेहतर जगह बनाना चाहते हैं, जो हिन्दुस्तानियों को एक बेहतर समाज बनाना चाहते हैं। वे उनके लिए भी एक मिसाल रहेंगे जो हिन्दू हैं, कि कैसे एक बेहतर हिन्दू बना जा सकता है, कैसे हिन्दू धर्म का सम्मान बढ़ाया जा सकता है। वे सामाजिक आंदोलनकारियों के लिए भी एक मिसाल रहेंगे कि किस दमखम से अपने सिद्धांतों के लिए सडक़ों पर भी मार खाने के लिए तैयार रहना पड़ता है।
छत्तीसगढ़ में पिछले डेढ़ दशक में ऐसा माहौल रहा कि जो व्यक्ति आदिवासियों के हक की बात करे, उसे नक्सल-समर्थक करार दे दिया जाए। ऐसी ही सोच ने स्वामी अग्निवेश पर हमले करवाए, और राज्य की भाजपा सरकार इसकी गवाह बनी रही, सत्तारूढ़ भाजपा उस दौरान अग्निवेश का कई मुद्दों पर विरोध करती रही। लेकिन देश और दुनिया के सबसे कमजोर तबकों की लड़ाई लडऩे में छत्तीसगढ़ का यह बहादुर बेटा एक अलग मिसाल बने रहा, जिसने हिन्दू धर्म का सम्मान भी बढ़ाया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लॉकडाऊन का दौर खत्म होने के बाद अब करीब पूरे ही देश में जिंदगी को वापिस शुरू करने की हड़बड़ी शुरू हो गई है ताकि जिंदा रहा जा सके। देश-प्रदेश की सरकारें ऐसी हों जो लोगों की तकरीबन तमाम जरूरतों को पूरा कर सके, तब तो आम जनता बाराती बनकर मुफ्त में जीने को बुरा नहीं मानेगी, लेकिन सरकार भूख से मरने से बचाने के लिए मुफ्त राशन तक दे रही है, बाकी कुछ भी मुफ्त नहीं है। बैंक से कर्ज लेकर कारोबार करने वाले लोगों के सिर पर ब्याज पर ब्याज का खतरा टंगा हुआ है, और किसी कारोबार का तजुर्बा न होने पर भी सुप्रीम कोर्ट इसे नाजायज मान रहा है, सरकार पर दबाव डाल रहा है कि लोगों को लॉकडाऊन के दौर के ब्याज से भी छूट दी जानी चाहिए, ब्याज पर ब्याज को तो सुप्रीम कोर्ट नाजायज मान ही रहा है। लेकिन सरकारें एक सीमा से अधिक कोई मदद किसी की कर नहीं रही हैं। अब तो कोरोना के चलते हालत यह है कि सरकार लोगों को अपनी अस्पतालों और अपने बनाए हुए दूसरे डेरों में भी नहीं टिका रही, लोगों को उनके घर पर ही रहने दे रही है।
हिन्दुस्तान में आज शायद एक दिन में बढऩे वाले पॉजिटिव की गिनती एक लाख पार कर जाए। और सरकार इसी बात को एक बड़ी राहत मान रही है कि देश में संक्रमित लोगों के बढऩे की संख्या के मुकाबले ठीक होने वाले लोगों की संख्या अधिक तेजी से बढ़ रही है। हालांकि हमें इन आंकड़ों पर धेले भर का भी भरोसा नहीं है क्योंकि जब कोरोना शुरू हुआ उस वक्त तो कोरोना पॉजिटिव लोगों को 15 दिन अस्पताल में रखने का नियम था, और तीन दिनों के फासले में दो बार निगेटिव आ जाने के बाद ही उन्हें अस्पताल से छोड़ा जा रहा था। अब तो हालत यह है कि तीन दिन-चार दिन में लोगों को अस्पतालों से छोड़ दिया जा रहा है। कोरोना को लेकर ऐसी तस्वीर बनाई गई है कि जब तक कोई बड़ी तकलीफ न हो, अस्पताल में दाखिल होने की जरूरत नहीं है, और लोग घर पर ही रह सकते हैं, इसलिए बहुत से लोग तो मामूली लक्षण होने पर भी जांच से कतरा रहे हैं जिसकी कतारें बहुत लंबी हैं, और जिसके नतीजे दस-दस दिन तक नहीं आ रहे हैं। इसलिए आंकड़ों के हुनर की बाजीगरी जानने वाली सरकारें किस तरह आंकड़ों से एक झूठी तस्वीर भी पेश कर सकती हैं, यह सब लोग जानते हैं। पश्चिम के एक बड़े नेता ने एक वक्त कहा था कि दुनिया में झूठ तीन किस्म के होते हैं, झूठ, सफेद झूठ, और आंकड़े। इसलिए हिन्दुस्तान में जीडीपी के आंकड़े, नोटबंदी के आंकड़े, जीएसटी के आंकड़े, नेशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़े, कुछ भी भरोसेमंद नहीं है, और इनमें से जो कुछ भरोसेमंद हैं, सरकारें उन्हें अपने काबू से बाहर नहीं निकलने देती हैं। इसलिए हमारा यह मानना है कि कोरोना के संक्रमण से ठीक होने के आंकड़े बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं क्योंकि कोरोना से ठीक होने का पैमाना ही बदल दिया गया है। ऐसे में लोगों को कोरोना के खतरे को सरकारी दावों से परे खुद भी समझना चाहिए। और कोरोना काबू में होने के सरकारी दावे करने वाले नेताओं को देखें, उन्हें बिना मास्क लगाए हुए भीड़ के बीच घिरे हुए देखें, तो समझ पड़ता है कि उनके मन में सावधानी के लिए कितना सम्मान है।
आज हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में हालत बहुत खराब सुनाई पड़ रही है। जिस तरह दो नंबर के कारोबार के अकाऊंटेंट आंकड़ों को तोड़-मरोडक़र टैक्स चोरी का इंतजाम करते हैं, कमाई को छुपा लेते हैं, कुछ उसी किस्म का काम सरकारें भी कर रही हैं। अभी-अभी अमरीका में एक किताब में यह दावा किया गया कि राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने सोच-समझकर कोरोना के खतरे को हकीकत के मुकाबले घटाकर पेश किया था। किसी भी देश-प्रदेश की सरकार ऐसा ही करती है, और जो सरकारें अपनी इस हरकत को मानती भी हैं, वे भी उसे जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए जनहित में की गई कोशिश करार देती हैं। ऐसे में जनता को अपनी सेहत खुद ही बचाकर रखना चाहिए, लेकिन वह बात दूर-दूर तक देखने नहीं मिल रही है।
आज जिस तरह से देश भर में जिंदगी को वापिस जिंदा करने के नाम पर स्कूल-कॉलेज शुरू किए जा रहे हैं, वह एक निहायत ही बेवकूफी का दुस्साहस है जिसकी बहुत बड़ी कीमत पूरे देश को देनी पड़ सकती है। आज जब इन बच्चों के मां-बाप बाजार में बिना मास्क घूमते हैं, शराब दुकानों पर घंटे-घंटे भर धक्का-मुक्की करते हैं, तब इन बच्चों के सामने सावधान रहने की कौन सी मिसाल रहेगी? कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकते हैं कि महीनों बाद मिलने वाले बच्चे एक-दूसरे से दो मीटर की दूरी पर रहेंगे, एक-दूसरे को नहीं छुएंगे, खाते वक्त एक-दूसरे से दूर रहेंगे। ये बच्चे किसी फौज की जिंदगी में ढले हुए नहीं हैं कि वे विपरीत परिस्थितियों में भी नियमों को मानें। ये बच्चे अपने लापरवाह मां-बाप, लापरवाह बुजुर्ग, लापरवाह नेता देखते आ रहे हैं, और वही मिसाल उनके सामने है। सरकारें कोरोना के बढ़ते हुए कर्व के बीच स्कूल-कॉलेज शुरू करके एक बहुत बड़ा खतरा मोल ले रही हैं। आज किसी भी आम डॉक्टर से भी पूछा जाए, तो वे स्कूल-कॉलेज के फैसले से बहुत ही गैरजिम्मेदारी का बताएंगे।
लेकिन लोग इस हद तक लापरवाह हैं, बाजारों में रात 8 बजे अगर चाट ठेले बंद करवाए जा रहे हैं, तो उसके ठीक पहले लोग उन पर टूट पड़ रहे हैं कि मानो वह सुबह अस्पताल जाने के पहले की आखिरी चाट होने जा रही है। यह समाज परले दर्जे का गैरजिम्मेदार है, और हिन्दुस्तान में नियमों की कोई इज्जत नहीं है। और सरकारों का हाल यह है कि वे कोरोना से कम डरी हैं, वे वोटरों की नाराजगी से ज्यादा डरी हुई हैं, और इसलिए वे एक लुभावनी-अनदेखी, और सोची-समझी लापरवाही पर आमादा हैं। हम अब मास्क न लगाने पर होने वाले जुर्माने की बात भी नहीं पढ़ पा रहे हैं, जबकि यह एक आसान काम हो सकता था, बिना मास्क लोगों की गाडिय़ों की भी जब्ती हो सकती थी, लेकिन सरकारें वोटरों को खुश रखना चाहती हैं, फिर चाहे उसमें कोरोना की खुशी भी शामिल क्यों न हो जाए।
सभी लोगों के लिए आज हम यही सलाह दे सकते हैं कि अधिक से अधिक सावधान रहें, कम से कम बाहर निकलें, बाहर का बिल्कुल भी न खाएं-पिएं, लोगों से दूर रहें, और अपने परिवार के बाकी लोगों को जिंदा रहने दें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कुछ महीनों से दुनिया में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित की गई कोरोना वैक्सीन का मानव परीक्षण चल रहा था, और एक ब्रिटिश वालंटियर के बीमार पडऩे से यह रोक दिया गया है। इस वैक्सीन का परीक्षण हिन्दुस्तान के भी कई अस्पतालों में चल रहा था। इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि वैक्सीन से सुरक्षा प्राथमिकता का मुद्दा है। काम तेजी से करना है लेकिन सुरक्षा से समझौते के बिना। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने एक दवा कंपनी के साथ मिलकर इसे बनाया है, और इसका तीसरे चरण का ट्रॉयल अभी चल रहा था। वैक्सीन को इतना संवेदनशील मामला माना जाता है कि करीब 30 हजार वालंटियर में से एक पर इसका नकारात्मक असर दिखा तो इसे पूरी तरह रोक दिया गया है।
आज इस मुद्दे पर इसलिए लिखना ठीक लग रहा है कि पूरी दुनिया बड़ी बेसब्री से कोरोना वैक्सीन का इंतजार कर रही है, और दुनिया के बहुत से देशों में इस पर काम चल रहा है, और रूस के अलावा चीन ने इसे बना लेने का दावा किया है, और लोगों को लगाना शुरू करने का भी। ये दोनों ही देश एक नियंत्रित आजादी वाले देश हैं इसलिए यहां की सरकारें किसी के प्रति जवाबदेह नहीं रहती, और उनके दावों की सच्चाई को परखना बाहरी लोगों के लिए मुमकिन नहीं होता। इसके अलावा दुनिया के देशों में एक होड़ भी मची हुई है कि कौन इसे पहले विकसित कर सकते हैं, दवा कारोबार में भी होड़ मची है कि कौन सी कंपनी पहले यह टीका बाजार में उतार सकती है। हिन्दुस्तान भी देश में इसके टीके विकसित करने में लगा हुआ है, और यह देश एक शर्मनाक दावे से किसी तरह उबर पाया जब जुलाई की शुरूआत में इसके मानव परीक्षण शुरू होने के पहले देश की भारतीय चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, आईसीएमआर, ने टीके से संबंधित लोगों को यह चिट्ठी लिखी थी कि इसे तेजी से विकसित किया जाए ताकि स्वतंत्रता दिवस के मौके पर इसे लोगों के लिए उतारा जा सके। इस बात का खूब मखौल बना क्योंकि आजादी की सालगिरह एक जलसा हो सकती है, वह लालकिले से कोरोना-वैक्सीन की घोषणा का एक बेहतरीन मौका हो सकती है, लेकिन वह प्रयोगशाला और अस्पतालों में काम कर रहे वैज्ञानिकों के लिए एक समय सीमा नहीं बन सकती। खैर, शर्मिंदगी के बाद आईसीएमआर ने अपनी चिट्ठी वापिस ली थी। और अब हिन्दुस्तान इस बारे में बोलने की हालत में नहीं बचा है कि भारतीय वैक्सीन में और कितना समय लगेगा।
आज वैक्सीन को लेकर इसके कामयाब हो जाने के बाद भी बहुत से सवाल बचे रहने वाले हैं। इसे विकसित करने वाले देश अपने देश और अपने समर्थकों के बाद इसे किसको देंगे, कितने में देंगे, दवा कंपनियां इस पर कितनी कमाई करेंगी, ऐसे कई सवाल अभी बाकी ही हैं। कल ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह कहा है कि कोरोना के टीके को लेकर एक राष्ट्रवादी सोच दुनिया के लिए बहुत घातक होगी। यह बात एकदम सही है। दुनिया को अगर बचाना है तो लोगों को देशों की सीमा के आरपार फैली हुई, फैलती हुई, और बढ़ती हुई इस महामारी से निपटने के लिए एक राष्ट्रवादी नजरिए के बजाय वैज्ञानिक नजरिए से काम लेना होगा। पूरी दुनिया की फिक्र किए बिना कोई भी देश अपने आपमें महफूज नहीं रह सकेंगे। लोगों को यह भी समझना होगा कि जिन गरीब देशों के पास इस टीके को खरीदने की ताकत नहीं होगी, उन्हें भी वैश्विक स्तर पर एक योजना के तहत ये टीके उपलब्ध कराने होंगे।
अभी हमने भारत में तो ऐसी कोई चर्चा नहीं सुनी है कि केन्द्र सरकार या राज्य सरकारें उस दिन के हिसाब से कोई तैयारी कर रही हैं जिस दिन ऐसा कोई टीका देश को मिल सके। अभी रूस की खबर है कि उसने बड़े पैमाने पर इसके उत्पादन के लिए भारत से बातचीत की है। लेकिन वह उत्पादन तो रूस का रहेगा, भारत का नहीं, और अभी तो उसका असर साबित होना बाकी ही है क्योंकि रूस और चीन के अपारदर्शी ढांचे से निकले किसी सामान पर आसानी से भरोसा नहीं किया जा सकता। लेकिन एक बात जो अभी करना जरूरी है वह यह कि हिन्दुस्तान जैसे भ्रष्ट देश में जहां वीआईपी संस्कृति बुरी तरह से हावी है, जहां पर पूंजीवाद बहुत ही अश्लील और हिंसक ताकत रखता है, वहां पर इस टीके को पहले किनको लगाया जाए यह बात अभी से तय होनी चाहिए। क्योंकि सारे भ्रष्टाचार के बीच भी इस देश में कई तबके अदालत तक जा सकते हैं कि वे पहले इसके हकदार हैं। यह बात तो तय है कि 130 करोड़ से अधिक आबादी को एकमुश्त ऐसे टीके न मिल पाएंगे, न लग पाएंगे। और कुछ अनुमान बताते हैं कि इसमें दो बरस तक का समय लग सकता है। इसलिए सरकार को आज से व्यापक विचार-विमर्श करके यह तय करना चाहिए कि टीकाकरण किन तबकों से चालू हो। और केन्द्र सरकार ने जिस तरह लॉकडाऊन के हर फैसले से राज्यों को परे रखा, कोरोना से जुड़े हर फैसले से राज्यों को अलग रखा, वैसा नहीं होना चाहिए। केन्द्र सरकार इस देश में टीकाकरण के लिए एक एजेंसी हो सकती है, लेकिन उसे हर राज्य से अभी से राय लेनी चाहिए कि वे किस क्रम में टीकाकरण चाहते हैं, और ऐसी तमाम बातों पर सोच-विचार कर ही एक खुला कार्यक्रम बनाना चाहिए।
यह क्रम समझने के लिए बहुत बड़ी अक्ल की जरूरत भी नहीं है, जाहिर है कि सबसे पहले डॉक्टरों और ऐसे चिकित्सा कर्मचारियों का टीकाकरण होना चाहिए जो कि कोरोना-मरीजों के संपर्क में आते हैं। इसके साथ-साथ ऐसे मरीजों के संपर्क में आने वाले एम्बुलेंस ड्राइवर से लेकर शव वाहन चलाने वाले तक का नाम लिस्ट में रहना चाहिए। पुलिस के जो लोग सार्वजनिक ड्यूटी करते हैं, खासकर मरीजों के आसपास जिनकी मौजूदगी की नौबत आती है, उन्हें भी शुरू में ही रखना चाहिए। इस तरह केन्द्र और राज्य सरकारों को टीके के आने के पहले एक पुख्ता लिस्ट बनाकर रखनी चाहिए, अभी से टीकाकरण केन्द्र तय करने चाहिए, वहां पर इंतजाम करने चाहिए। जितने देश टीका विकसित करने में लगे हैं, किसी भी दिन कहीं से अच्छी खबर आ सकती है, और उस वक्त भारत के लॉकडाऊन की तरह हड़बड़ी का कोई वैसा बुरा फैसला फिर से नहीं होना चाहिए। इस भ्रष्ट देश में एक खतरा यह भी रहेगा कि कोरोना का टीका काले बाजार में बिकने लगेगा, जिस तरह इस देश में लोगों की किडनी निकालकर बेचने का धंधा चलता है, तो इस टीके की जगह कोई साधारण इंजेक्शन लगाकर टीके को ब्लैक में बेचने का धंधा नहीं चलेगा यह सोचना भी बेकार है। बहुत से गरीब और अनपढ़ लोग ऐसे रहेंगे जो समझ भी नहीं पाएंगे कि उन्हें किस चीज का इंजेक्शन लग रहा है, और उनका टीका किसी और को बिकना शुरू हो जाएगा। ऐसी तमाम आशंकाओं और ऐसे तमाम खतरों की कल्पना करके उनसे बचाव की योजना भी अभी से तैयार कर लेना चाहिए क्योंकि बिना योजना के बड़े-बड़े फैसले लेने का क्या नतीजा होता है यह हिन्दुस्तान मेें नोटबंदी से लेकर जीएसटी, और लॉकडाऊन तक खूब अच्छी तरह देखा है। कोरोना के टीके पर काम करने वाले लोग अलग हैं, और दुनिया में उसे लगाने वाले संगठन, इस काम को करने वाली सरकारें अलग हैं। इसलिए इस विशाल मेहनत के लिए, एक जटिल व्यवस्था और सावधानी के लिए केन्द्र सरकार को राज्यों की भागीदारी के साथ अभी से योजना बनानी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों बाकी दुनिया के साथ-साथ, शायद बाकी दुनिया से अधिक, हिन्दुस्तान का मीडिया एक पल-पल मीडिया बन गया है। एक झलक, एक सुर्खी, एक शब्द आगे रहने के लिए लोगों में गलाकाट मुकाबला हो रहा है। आज कोरोना के फैलाव से बचने के लिए लोगों पर जिस तरह की जिम्मेदारी है, उसे तोड़ते हुए मीडिया के लोग जिस तरह अनैतिक सीमा जाकर काम कर रहे हैं, वह भयानक है। और इसके लिए मीडिया के भीतर जिंदगी गुजार देने वाले हमारे सरीखे लोगों की भी जरूरत नहीं रह गई है, अब आम लोग भी मीडिया को जमकर गालियां देने लगे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि मीडिया को जिस सोशल मीडिया पर गालियां दी जा रही हैं उसकी अपनी विश्वसनीयता बहुत अधिक नहीं है क्योंकि वह गैरजिम्मेदार भी है, अराजक भी हैं, और वह कोई एक चेहरा नहीं है। सोशल मीडिया पर बाकी मीडिया कहे जाने वाले तबके का जितना भांडाफोड़ होता है, उसे जितना कोसा जाता है, उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं बन पाती है। ऐसे में लंबे समय से चले आ रहे एक शब्द को जिंदा करने की जरूरत है, वॉच-डॉग।
वैसे तो मीडिया को ही समाज में, समाज पर निगरानी रखने वाला कुत्ता कहा जाता था, लेकिन अब मीडिया पर नजर रखने के लिए एक थोड़े से संगठित और व्यवस्थित तरीके की जरूरत है। कहने के लिए हिन्दुस्तान में सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज की अगुवाई में प्रेस कौंसिल दशकों से बनी हुई है, लेकिन वह किसी काम की नहीं है। वहां तक कोई शिकायतें पहुंचे तो उस पर मीडिया संस्थान तो एक नोटिस जारी हो जाता है, और अगर सुनवाई के बाद लगता है कि मीडिया ने गलत किया था तो उसे चेतावनी जारी हो जाती है, उसे खंडन, स्पष्टीकरण या माफी छापने को कह दिया जाता है, जिसे कोई गंभीरता से नहीं लेते, और शायद ही कोई प्रेस कौंसिल के निर्देशों पर अपने समाचार-विचार के खिलाफ ऐसा कुछ छापते हैं।
दूसरी तरफ हाल के बरसों में आल्ट न्यूज नाम की एक वेबसाईट ने काम करना शुरू किया जो जाहिर तौर पर आल्टरनेटिव न्यूज जैसी किसी बुनियाद से शुरू हुई है, और जो खबरों में चल रहे, सोशल मीडिया में चल रहे झूठ को उजागर करने का काम करती है। धीरे-धीरे ऐसा काम कई और मीडिया संस्थान भी करने लगे हैं, जिनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो कि खुद गैरजिम्मेदारी से झूठ फैलाते हैं, लेकिन साथ-साथ अपनी साख बनाने के लिए वे इस तरह झूठ-उजागरी की बाजीगरी भी करते हैं। वे कुछ चुनिंदा खबरों के झूठ को उजागर करने के लिए जांच करते हैं, और अपने मकसद, अपनी नीयत के साथ पकड़े गए झूठ को सामने रखते हैं। इसमें भी कोई बुराई नहीं है अगर उनकी उजागरी-बाजीगरी चुनिंदा मामलों में ही हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के संविधान में लोकतंत्र के तीन स्तंभ बनाए गए, उनमें कहीं भी अमरीकी संविधान की तरह प्रेस की जगह नहीं थी। प्रेस के किसी किस्म के मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में नहीं है, जबकि दुनिया के कई लोकतंत्रों में उसे अलग से जगह दी गई है। लेकिन धीरे-धीरे मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने लगा, फिर एक वक्त आया कि एनजीओ काम करने लगे, और वे लोकतंत्र के न पहले तीन स्तंभों को बनाते समय सोचे गए थे, न ही चौथे स्तंभ का अस्तित्व मानते हुए सोचे गए थे। कुछ वक्त के लिए ऐसा लगा था कि वे भारतीय लोकतंत्र में पांचवां स्तंभ बन सकते हैं। लेकिन ऐसे औपचारिक लेबल की बात छोड़ दें, तो आज जरूरत एक ऐसे वैकल्पिक मीडिया की है जो कि मीडिया पर खुर्दबीनी नजर रखे, और उसके झूठ को उजागर करे, उसका भांडाफोड़ करे, उसे कसौटी पर कसे। यह इसलिए भी जरूरी है कि जब मीडिया, और खासकर आज जिस तरह का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो गया है, वह मीडिया, अपनी मनमानी पर उतर जाता है, अपनी नंगई और हिंसा पर उतर जाता है, तो फिर किसी के लिए करने का कुछ नहीं बचता। यह सिलसिला टूटना चाहिए। जो मीडिया रात-दिन लोगों के सामने गैरजरूरी सवाल खड़े करने में लगे रहता है, उस मीडिया की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए।
पहले कई देशों में मीडिया-वॉच नाम के कॉलम प्रचलित थे जो कि समाज के वॉच-डॉग पर भी नजर रखते थे। वह सिलसिला छोटे पैमाने पर अभी भी कहीं-कहीं पर चलता है, लेकिन वह इतना छोटा है कि वह कोई असर नहीं डाल पाता। दूसरी तरफ आल्ट न्यूज जैसी जो नई कोशिशें हैं, वे बुनियादी रूप से झूठ के भांडाफोड़ के लिए हैं, वे मीडिया की किसी तरह की समीक्षा के लिए नहीं है, उसकी आलोचना के लिए नहीं है। इसलिए आज यह बात बहुत जरूरी है कि मीडिया की जवाबदेही बढ़ाने के लिए अधिक संगठित कोशिशें होनी चाहिए। आज इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाईन मीडिया अपनी तकनीकी खूबियों की वजह से जब जो चाहे बदल लेते हैं, और वे अखबारी कतरनों की तरह हमेशा के लिए शर्मिंदगी बनकर खड़े नहीं रहते। यह तकनीकी खूबी कामकाज की जिम्मेदारी में एक बड़ी खामी है। और ऐसी खामी वाले मीडिया की जवाबदेही कुछ अधिक हद तक तय करना जरूरी है। यह बात हम सिर्फ टीवी या इंटरनेट के लिए नहीं लिख रहे हैं, हम इसे प्रिंट के लिए भी लिख रहे हैं कि देश के मानहानि कानून से परे, प्रेस कौंसिल जैसी कागजी संस्था से परे, मीडिया के बीच से ही ऐसी कोशिशें होनी चाहिए कि झूठ का भांडाफोड़ हो सके, बदनीयत उजागर हो सके। और यह काम फैक्ट-चेक से अधिक है, यह महज सफेद झूठ पकडऩे वाला काम नहीं है, यह अर्धसत्य को भी पकडऩे की बात है, बदनीयत को पकडऩे की बात है। ऐसी वेबसाईटें ये सवाल उठा सकें कि मीडिया के कौन-कौन से काम गलत हैं, अनैतिक हैं, अमानवीय हैं, बेईमान हैं। यह जवाबदेही अगर नहीं बढ़ेगी, तो हिन्दुस्तानी मीडिया के कम से कम एक बड़े हिस्से की साख मिट्टी में मिल चुकी है, और मिट्टी के नीचे वह कहां तक जाएगी यह आसानी से सोचा जा सकता है। इसकी बहुत छोटी सी शुरुआत कुछ वेबसाईटों ने की है, और दुनिया में जो लोग, जो कंपनियां, जो संगठन लोकतंत्र को बढ़ाना चाहते हैं, बेइंसाफी को घटाना चाहते हैं, यह उनकी भी जिम्मेदारी है कि ऐसी कोशिशों को मदद करे। आज भी हिन्दुस्तान में ऐसी शुरुआत हो चुकी है, और कुछेक मीडिया वेबसाईटों को दानदाताओं का सहयोग मिल रहा है, लेकिन वे भी मीडिया वेबसाईट ही हैं, वे मीडिया पर वॉच-डॉग की तरह काम करने का काम नहीं कर रही हैं। आज जरूरत ऐसी गंभीर और मजबूत कोशिशों की है जो कि मीडिया की साख मिट्टी से और नीचे गटर तक जाने से रोक सके, और लोकतंत्र को और अधिक नुकसान से बचाएं।
फ्रांस की सरकार ने अपने देश के इतिहास से पौन सदी पहले का एक पन्ना निकाला है, और कोरोना-महामारी से देश पर पड़े फर्क, अर्थव्यवस्था की बर्बादी से उबरने की तैयारी शुरू की है। जब फ्रांस द्वितीय विश्वयुद्ध से उबरकर आगे बढऩा चाह रहा था तब वहां 1946 में इसी तरह से पांच बरस की एक योजना बनाई गई थी जिससे जंग से तबाह देश उठकर खड़ा हो सके। वैसा ही कुछ-कुछ अभी फिर किया जा रहा है। सरकार ने सत्तारूढ़ गठबंधन के एक बड़े समर्थक को ऐसी योजना का मुखिया बनाया है। सरकार का मानना है कि 2006 में औपचारिक रूप से भंग कर दिए गए इस योजना मंडल को गैरजरूरी मान लिया गया था, और इसके पहले के 30 बरस तक कोई पंचवर्षीय योजना नहीं बनाई गई थी। लेकिन अब राष्ट्रपति ने इसे जिंदा करने के पीछे की वजह बताई है कि दीर्घकालीन शब्द के मायने एक बार फिर ढूंढने की जरूरत है। सरकार का यह संगठन कोरोना के बाद की दुनिया के मुताबिक फ्रांस के लिए नई योजना बनाएगा, और यह तय करेगा कि वर्ष 2030 में फ्रांस कहां पहुंचना चाहिए।
पंचवर्षीय योजना, दीर्घकालीन योजना, योजना आयोग, या योजना मंडल एक तमाम शब्द भारत में आज अवांछित हो चुके हैं। अब रात के 8 बजते हैं, और हिन्दुस्तान को हिला देने वाले फैसलों की मुनादी होती है जिन्हें खुद केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पहले कभी सुना हुआ नहीं रहता। ऐसी सरकार को किसी दीर्घकालीन योजना, या किसी योजना मंडल की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि हमारे पाठक यह बात इसी जगह पढ़ते आ रहे हैं कि तमाम सरकारों को यह तय करना चाहिए कि कोरोना के बाद की दुनिया में वे किसी तरह रहेंगे, इसके लिए योजनाएं बनानी चाहिए, इसके लिए कल्पनाशील भविष्य वैज्ञानिकों को लगाना चाहिए जो कि बदले हुए हालात, बदली हुई अर्थव्यवस्था, और नए खतरों को देखते हुए एक नई तैयारी करें।
हिन्दुस्तान में नेहरू के वक्त के बनाए हुए योजना आयोग, और उस वक्त की दीर्घकालीन योजनाओं का सिलसिला देश का एक बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण पहलू था, लेकिन वह दो चीजों में आज बेकार साबित हो रहा था। आज किसी महत्वपूर्ण गंभीरता की कोई जरूरत नहीं थी, और योजना आयोग का यह पहलू पुरातत्व का सामान मान लेना बेहतर समझा गया। दूसरा पहलू यह कि कोई गंभीर दीर्घकालीन योजना कभी लुभावनी मुनादी नहीं हो सकती, उसमें नाटकीयता नहीं होती, और इसलिए भी योजना आयोग या किसी और किस्म की दीर्घकालीन योजना घर के पीछे के कमरे में बिस्तर पर पड़े खांसते मां-बाप की तरह अवांछित बातें हो चुकी थीं। मोदी सरकार ने उनसे हाथ धो लिया। इसलिए आज देश में सिवाय मौजूदा मुसीबत के और किसी बात की चर्चा नहीं है, अगले कुछ महीनों की भी नहीं है, अगले कुछ बरसों की तो बात ही छोड़ दें। जबकि यह बात जाहिर है कि लोगों की सेहत पर जिस किस्म का खतरा कोरोना है, और आज सुबह ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सावधान किया है कि कोरोना जब कभी भी खत्म होगा, वह मुसीबतों का खात्मा नहीं होगा, और न ही वह आखिरी महामारी होगा। दूसरी तरफ दुनिया के अनेक अर्थशास्त्री यह बात लगातार कह रहे हैं कि दुनिया एक बहुत बड़ी आर्थिक मुसीबत में है, और बिना भेदभाव के इनमें से अधिकतर अर्थशास्त्री हिन्दुस्तान की हालत को दूसरे देशों के मुकाबले बहुत अधिक खराब है। यह नौबत देश के भविष्य को लेकर योजनाशास्त्रियों, भविष्यवैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और समाजवैज्ञानिकों के गंभीर विचार-विमर्श और कम से कम दस-बीस बरस लंबी योजनाओं के बारे में एक दस्तावेज तैयार करने की है। नेहरू के दस्तखत वाला योजना आयोग तो अब रद्दी में जा चुका है, मौजूदा सरकार का यह हक है कि वो जो भी नया नाम चाहे उसके इस्तेमाल करे, लेकिन ऐसे लोगों को साथ ले जो दस-बीस बरस बाद की दुनिया के बारे में सोच सकते हैं, कैलेंडर के उस बरस में हिन्दुस्तान की एक कल्पना कर सकते हैं, और एक बेहतर भारत की तैयारी कर सकते हैं। आज बेहतर शब्द बड़ा ही अटपटा है क्योंकि जहां पर हैं वहीं पर अगर रह जाएं, तो भी वह अयोध्यापुत्र राम की मेहरबानी से ही हो पाएगा।
हिन्दुस्तान में आईआईटी और आईआईएम से निकले हुए नौजवान आज दुनिया की ऐसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के मुखिया हैं जो कि दस-बीस बरस बाद के बाजार, समाज, और दुनिया की कल्पना करके अपने कारोबार को लगातार बदल रहे हैं। ऐसे काबिल लोग हिन्दुस्तान के बाहर जाकर ही अधिक कामयाब शायद इसलिए हो पाते हैं कि वहां कारोबार में सरकार की दखल हिन्दुस्तान जितनी, और जैसी नहीं रहती है। इस देश को यह भी सोचना चाहिए कि सचमुच ही काबिल लोगों से अगले दस-बीस बरस के सफर का एक नक्शा क्यों न बनवाया जाए? काबिल और महान नेता वे नहीं होते जो कि खुद तमाम फैसले लेते हैं, काबिल और महान वे होते हैं जो जानकार लोगों को तैयारी करने देते हैं, उनकी योजनाओं को परखते हैं, अपने तजुर्बे को जोड़ते हैं, और सामूहिक फैसले से रास्ता तय करते हैं। इनमें से कई बातें आज के माहौल में बड़ी ही अटपटी लग सकती हैं, कि इनमें से तो कोई सी भी बात चुनाव जीतने में मदद नहीं कर सकती, और चुनाव में तो ऐसे लीडर की अगुवाई लगती है जो तमाम फैसले खुद, और आनन-फानन, मौके पर, और अकेले ही लेने की ताकत रखते हों। ऐसे माहौल में ऐसे नेता से भविष्य की कल्पना, योजना, और फैसलों की अनोखी ताकत को दूसरों के साथ साझा करने की कल्पना नहीं की जा सकती, और आज देश में वही हो रहा है। यह देश आज उस तस्वीर सरीखा दिख रहा है जिसमें बहुत ही तंग एक गली में दो दीवारों के बीच जाकर एक सांड फंस गया है, न वह आगे बढ़ पा रहा है, न पीछे हट पा रहा है, और उसके पास कोई विकल्प नहीं रह गया है।
लेकिन आज फ्रांस की किनारे कर दी गई ऐसी ही योजना की परंपरा को फिर से जिंदा होते देखकर यह लगा कि दुनिया में कम से कम कुछ जगहों पर ऐसा चल रहा है जैसा कि हम पिछले कुछ महीनों में इसी जगह लगातार लिखते आ रहे हैं। यह एक बहुत ही असाधारण, और अभूतपूर्व नौबत है, और ऐसे में कुछ असाधारण फैसले लेने चाहिए, जिनमें से आज सबसे अधिक जरूरत अगले दस-बीस बरस की कल्पना करके उनके लिए तैयारी करने की लग रही है।
आज देश की जो हालत है उसमें केन्द्र सरकार के हाथ कुछ रह गया दिखता नहीं है। सब कुछ बेकाबू है, अगर कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, तो वे सरकार की मेहनत के बिना बढ़ रहे हैं, या सरकार के रहने के बावजूद बढ़ रहे हैं। अगर घट रहे हैं, तो भी यही दोनों बातें लागू हो रही हैं। और तो और अब राज्यों ने भी इस नौबत में अपने हाथ खींच लिए हैं, कोरोना की जांच घटाई जा रही है, पॉजिटिव आ रहे मरीजों को उनके हाल पर, उनके घर पर छोड़ देने का काम हो रहा है। यह नौबत तो आज की मुसीबत में आज कुछ न कर पाने की है। लेकिन साल-छह महीने में जब भी, और अगर, कोरोना से निपटा जा सका, तो भी उसके बाद देशों के सामने, प्रदेशों के सामने बहुत लंबा वक्त बाकी रहेगा, हजारों या लाखों बरस की जिंदगी बाकी रहेगी, और वह वक्त हो सकता है कि इस महामारी कोरोना से भी अधिक मुसीबत का हो। लोगों को याद है कि किस तरह अमरीका में 1930 के दशक में भयानक मंदी आई थी, और हालत यह हो गई थी कि समाज का एक तबका वेश्यावृत्ति को मजबूर हो गया था। लोग सरकारी खाने के लिए कतारों में लगे रहते थे, और एक पूरी पीढ़ी तबाह हो गई थी। आज हालत उससे जरा भी बेहतर नहीं है। भारत सरकार को, प्रदेश सरकारों को भी कोरोना-मोर्चे से परे आगे की जिंदगी के बारे में सोचना चाहिए, और तैयारी करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
रेलगाडिय़ों और रेलवे स्टेशन पर भीख मांगने वाले या बीड़ी-सिगरेट पीने वाले अब जुर्माना देकर बरी हो सकेंगे। अब तक उन्हें जेल की कैद सुनाने का कानून लागू है इसे बदलने का प्रस्ताव रेल मंत्रालय ने केन्द्र सरकार को भेजा है। जिन लोगों ने हिन्दुस्तानी ट्रेनों में सफर किया है वे जानते हैं कि एक दिन अगर तमाम भीख मांगने वालों और सिगरेट-बीड़ी पीने वालों को कैद हो जाए, तो हिन्दुस्तान की तमाम जेलें कम पड़ेंगी। यह उन कानूनों में से एक है जिसका इस्तेमाल शायद भ्रष्टाचार के लिए होता होगा कि रेलवे पुलिस को रिश्वत न दें, तो इन लोगों को कैद करवाई जा सकती है। और पुलिस के ऊपर अदालत की प्रक्रिया भी कोई बहुत ईमानदार रहती हो, ऐसा तो हिन्दुस्तान में मुमकिन दिख नहीं रहा है।
अभी जब रेल मंत्रालय के इस प्रस्ताव की खबर आई, तो ही इस तरफ ध्यान गया कि ऐसा कोई कानून लागू है जिसमें इतनी कड़ी सजा हो सकती है। इसके बिना ऐसी सजा अगर किसी को होती भी है, तो भी वह खबरों तक नहीं पहुंच पाती। हिन्दुस्तान में रेलगाडिय़ों और स्टेशनों पर करोड़ों लोग भीख मांगते हैं, वहां पर गुजारा करते हैं। वहां सिर छुपाने को कोई कोना मिल जाता है जहां बारिश से बचाव हो सके, जहां ठंड के मौसम में एक आड़ मिल सके। वहां लोगों को बचा हुआ खाना मुसाफिरों से मिल जाता है, और कोई मुसाफिर खुशी का सफर करते हैं तो वे खुशी के मौके पर कुछ लोगों को भीख दे देते हैं, और कुछ लोग तकलीफ का सफर करते हैं, इलाज के लिए जाते होते हैं, तो वे भिखारियों की दुआ खरीदने के लिए उन्हें कुछ दे देते हैं। इसलिए हिन्दुस्तान में बेघरों के लिए, अनाथ बच्चों के लिए, भिखारियों के लिए रेलवे स्टेशन देश का सबसे बड़ा आसरा है।
देश में बहुत से ऐसे गैरजरूरी कानून हैं जिनको खत्म किया जाना चाहिए। केन्द्र की मोदी सरकार का यह दावा है कि उसने सैकड़ों या हजारों ऐसे गैरजरूरी कानून खत्म किए भी हैं, लेकिन जाहिर है कि अब बदले हुए वक्त में जब किसी को जेल में रखना एक राष्ट्रीय खतरा हो सकता है, तब सरकारों को और अदालतों को कैद से बचना चाहिए। ऐसे जो भी कानून लोगों को जेल भेजने वाले हैं उनके बारे में फिर से सोचना चाहिए क्योंकि लोगों को जेलों में रखना सरकार पर एक बोझ है, और हाल के महीनों में जिस तरह गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों की कमर टूटी है, उसमें किसी घर से कमाने वाले लोगों को कम करना ठीक नहीं है। कोरोना का खतरा लोगों को, सरकारों को एक मौका दे रहा है कि वे अपने पुराने ढर्रे पर चलना छोडक़र नए तौर-तरीके इस्तेमाल करें जो कि कोरोना, या ऐसी आने वाली किसी और बीमारी के वक्त अधिक खतरा न बने। जेलों में कैदियों की जिंदगी बहुत साफ-सुथरी तो हो नहीं सकती, और वहां बीमारी पनपने पर तेजी से बढऩे का खतरा रहता है। अभी अनौपचारिक चर्चाओं में पुलिस से यह पता लगता है कि छोटे-मोटे मामलों में पुलिस जिन्हें पकडक़र जेल भेजने के लिए अदालत में पेश कर रही है, उन्हें अदालतें दरियादिली से जमानत दे रही हैं ताकि जेल जाने की नौबत न आए। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकारों को भी यह सोचना चाहिए कि वे जेलों का बोझ अपने सिर पर और क्यों बढ़ाएं, सरकारों को सजा देने के दूसरे तरीके देखने चाहिए क्योंकि आज हिन्दुस्तान में यह बात साफ हो गई है कि किसी प्रदेश की सरकार के पास कोरोना से जूझने का मेडिकल-ढांचा बच नहीं गया है। अगर साल-छह महीने यह खतरा इसी तरह चला, इसी तरह आगे बढ़ा तो देश के कोई स्टेडियम भी नहीं बचेंगे जहां और बिस्तर लगाए जा सकें।
रेल मंत्रालय ने यह समझदारी का फैसला लिया है कि छोटी-छोटी बातों पर कैद की सजा को हटाया जाए। लेकिन आज महामारी के तजुर्बे के बाद देश-प्रदेश की हर सरकार को तुरंत ही यह सोचना चाहिए कि वे सरकारी दफ्तरों का कामकाज कैसे घटा सकते हैं, कैसे कागज कम मांगे जाएं, कैसे कागजों पर जानकारी कम मांगी जाए, कैसे इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाईन काम बढ़ सके। आज हालत यह है कि हम अपने आसपास सरकारी अमले को बड़ी संख्या में कोरोना का शिकार होते देख रहे हैं। आज जब निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के सामने घरों में सुरक्षित बैठने का विकल्प हासिल है, तब सरकारी अमला बड़े अफसरों या नेताओं के हुक्म मानकर काम पर जाने को बेबस है। स्वास्थ्य विभाग, पुलिस, सफाई विभाग, स्टेशन और एयरपोर्ट जैसी जगहों पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों का कोई बचाव नहीं है, उन्हें तो काम पर जाना ही है। ऐसे में हर जगह किसी सामान को छूना, किसी कागज का लेन-देन, कहीं कुर्सी पर जाकर बैठना, कतार में लगना, इन सबको कम से कम करना चाहिए। रेलवे की जिस बात से हमने आज यहां लिखना शुरू किया है, सरकारी सावधानी की यह बात उससे सीधी जुड़ी हुई नहीं दिखेगी, और एक ही जगह इन दो मुद्दों पर लिखना कुछ अटपटा भी लगेगा, लेकिन इन दोनों से एक ही किस्म की नौबत बढ़ती है, और उसे घटाने के लिए ऐसे अलग-अलग दर्जनों तरीके इस्तेमाल करने पड़ सकते हैं। सरकार को, कारोबार, और परिवार को सबको अलग-अलग, और मिलकर भी यह सोचना होगा कि किस तरह महामारी के खतरे को कम किया जाए क्योंकि अभी इसके खत्म होने की कल्पना ही की जा रही है, और इसका टीका विकसित हो जाने का एक अतिमहत्वाकांक्षी अनुमान ही लगाया जा रहा है। न तो इस बीमारी के घटने की कोई गारंटी है, न ही टीका समय पर आने, या उसके सब लोगों को मिल जाने, या उसके असरदार हो जाने का कोई ठिकाना अभी दिख रहा है। इसलिए तमाम तबकों को अपने तौर-तरीकों को ही सुधारना होगा ताकि इस खतरे को बढऩे से रोका जा सके। आज हिन्दुस्तान भर में अस्पतालों के बिस्तर खत्म हो जाने पर कोरोना-पॉजिटिव, लेकिन बिना लक्षण वाले लोगों को घरों में ही रहने की छूट दी जा रही है। यह अच्छी नौबत नहीं है, और इससे यह खतरा छलांग लगाकर आगे बढ़ सकता है, इसलिए बचाव में ही इलाज है, और कोई इलाज नहीं है ऐसा मानना बेहतर होगा। जिस तरह रेलवे कोरोना को देखते हुए, या किसी और वजह से भी जेलों पर दबाव घटाने जा रही है, उसी तरह सरकारी दफ्तरों से, सार्वजनिक जगहों से बोझ घटाने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ से जाकर आईएएस होते हुए उत्तरप्रदेश के महत्वपूर्ण रायबरेली जिले के कलेक्टर के बारे में खबर आई है कि उन्होंने भरी बैठक में जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को गधा कहा, और जमीन में गड़वा देने को कहा। जब इसकी शिकायत चिकित्सा अधिकारियों के संघ को की गई और मीडिया ने कलेक्टर से पूछा तो उन्होंने कहा कि सीएमओ काम में शिथिलता बरत रहे थे, इसलिए उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने कहा कि खाल खींचकर भूसा भरा दूंगा, लेकिन कोई गाली नहीं दी। आज ही छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव की एक खबर है कि वहां लोग ऐसे श्मशान बनाने का विरोध कर रहे थे जहां कोरोना-मृतकों के शव जलाए जाते, तो नगर निगम आयुक्त ने सरपंच से कहा- तेरे को सरपंच किसने बनाया, तू कहां से सरपंच बना, इसे अंदर करो, इसको उल्टा लटकाओ।
अफसरों में भी जो प्रशासनिक या पुलिस अफसर होते हैं, उनमें से बहुतों का ऐसा बर्ताव आम बात है। खासकर जो लोग कलेक्टर या एसपी से लेकर थानेदार-तहसीलदार तक की कुर्सियों पर काबिज रहते हैं, उनके दिमाग को गर्मी कुर्सी की गद्दी से मिलती है, और बदसलूकी उस कुर्सी का एक बुनियादी हक सरीखा मान लिया जाता है। देश में जगह-जगह अफसरों की ऐसी बदतमीजी सामने आती है, और कई जगहों पर लाठी भांजने वाली पुलिस के अलावा प्रशासनिक अधिकारी भी खुद लाठी लेकर लोगों पर टूट पड़ते हैं। जगह-जगह ऐसी अफसरी-हिंसा के वीडियो बनते हैं, लेकिन उन पर होता कुछ नहीं। जब सरकार के बड़े लोग बंद कमरे में बैठते हैं, तो यही बात उठती है कि कोई कार्रवाई करने से अधिकारियों का मनोबल टूटेगा, और राजनीतिक ताकतें हिचक जाती हैं क्योंकि उन्हें भी अपने तमाम गलत काम उन्हीं अफसरों से करवाने होते हैं, वे भ्रष्टाचार में निर्वाचित नेताओं के भागीदार रहते हैं, और एक गिरोह के दो लोग भला एक-दूसरे के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों चाहेंगे?
हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में अफसरी मिजाज अभी तक आजाद भारत की जमीन पर पांव नहीं रख पाया है। अब तक अफसर अपने को अंग्रेज सरकार के एजेंट के रूप में ही देखते हैं, और मानते हैं कि वे संविधान से ऊपर हैं जो कि आजादी के कई बरस बाद लागू हुआ था। भारत में अखिल भारतीय स्तर की अधिकतर नौकरियों का मिजाज अंग्रेज सरकार के लिए काम करने का है। और तो और आईएएस और आईपीएस एसोसिएशन देश भर के अपने सदस्यों की मनमानी के खिलाफ कभी मुंह भी नहीं खोलते। अब रायबरेली कलेक्टर ने अपने कहे के बारे में जितना मंजूर किया है, क्या उस पर एसोसिएशन को कुछ कहना नहीं चाहिए? अपने मातहत अफसर की खाल खींचकर भूसा भरवा देने की बात क्या आईएएस एसोसिएशन का गौरव बढ़ाती है? दिक्कत यह है कि देश के बाकी सभी कर्मचारी संगठनों या दूसरे किस्म के संगठनों की तरह ही आईएएस और आईपीएस एसोसिएशन अपने सदस्यों की कामयाबी, मौलिक सूझ-बूझ की तारीफ के मंच बनकर रह गए हैं, और किसी की बुरी हरकतों, उनके जुर्म के बारे में ये कुछ भी नहीं कहते। अपने वर्गहित को सम्हालकर रखने के लिए देश के सबसे बड़े अफसरों के ऐसे संगठन उनके कुकर्मों को अनदेखा करते हैं।
लेकिन एक बात हम पहले भी लिखते आए हैं कि आज का वक्त हर मोबाइल फोन पर रिकॉर्डिंग करने का है। लोगों को इस सहूलियत का फायदा उठाना चाहिए, और उनके सीनियर, या उनके जूनियर सरकारी कामकाज के सिलसिले में, या सरकारी कामकाज से परे उनसे कोई भी नाजायज बात अगर करते हैं, तो उसकी रिकॉर्डिंग करनी चाहिए, उसे सुबूत की तरह सम्हालकर रखना चाहिए, और उसे शिकायत में इस्तेमाल करना चाहिए। जिन लोगों का सरकारी अफसरों के साथ उठना-बैठना रहता है वे तो आए दिन इस तरह की बदसलूकी देखते रहते हैं। अगर मातहत कर्मचारी या अधिकारी इन बातों की रिकॉर्डिंग करेंगे, तो हमारी कानून की बहुत सहज समझ के आधार पर हम कह सकते हैं कि उसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं होगा। इससे यह जरूर होगा कि जब 10-20 अफसरों पर, या मंत्रियों पर, दूसरे नेताओं पर कोई कार्रवाई होगी, तो उसके झटके से बाकी बहुत से लोग सुधर जाएंगे। लोगों को अपनी निजी दिक्कतों को लेकर भी ऐसा हौसला दिखाना चाहिए, और सरकार में सुधार लाने के लिए इसे एक सामूहिक जिम्मेदारी मानकर भी लोगों को ऐसा करना चाहिए। मंझले दर्जे के अफसरों, और छोटे कर्मचारियों को बड़े लोगों से कई किस्म की बदसलूकी झेलनी पड़ती है, ऐसे अफसरों और कर्मचारियों के संगठनों को अपने लोगों की सुरक्षा के लिए उन्हें तरह-तरह की रिकॉर्डिंग सिखानी चाहिए ताकि वे गलत काम करने वाले नेताओं-अफसरों के स्टिंग ऑपरेशन कर सकें, उनके बदसलूकी रिकॉर्ड कर सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में इन दिनों हकीकत देखनी हो तो कार्टून देखें और अखबारों में खबरें पढ़ें, और फसाने देखने हों तो टीवी चैनलों पर खबरें देखें, और सोशल मीडिया पर फुलटाईम नौकरी की तरह काम करने वाली ट्रोल आर्मी की पोस्ट देखें। कुछ महीनों से यह लतीफा चल रहा था कि अलग-अलग किस चैनल को देखने से देश की कैसी तस्वीर दिखती है, कौन से अखबार को पढऩे से देश का क्या हाल दिखता है, लेकिन अब यह लतीफा एक हकीकत बन गया है कि देश को किस तरह के चश्मे से देखने पर क्या दिखेगा? कुछ लोगों को ऐसे किसी एक चश्मे से देश की जीडीपी दिख रही है, चीनी सरहद पर खतरा दिख रहा है, बेरोजगारी के भयानक आंकड़े दिख रहे हैं, लॉकडाऊन के बाद बढ़ी हुई खुदकुशी दिख रही है, दूसरा चश्मा ऐसा है जो पिछले दो-तीन महीनों से मुम्बई के एक अभिनेता की खुदकुशी दिख रही मौत के अलावा कुछ भी नहीं देख पा रहा, इसके अलावा वह मोर को दाना जरूर देख पाया, लेकिन उससे परे कुछ भी नहीं। यह चश्मा इन दिनों बड़ी इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों के बनाए हुए वर्चुअल रियलिटी चश्मे की तरह का है जिसमें वही दिखता है जिस रिकॉर्डिंग को दिखाया जाता है। इसमें मेले में बैठकर अकेले सुनसान रेगिस्तान का नजारा भी देखा जा सकता है, और मरघट पर अकेले बैठे किसी मेले का नजारा भी देखा जा सकता है। हिन्दुस्तान इन दिनों इतना आत्मनिर्भर हो गया है कि वह बिना वीआर-ग्लासेज के भी वही आभासी हकीकत देख रहा है जो कि यह देश, या इस देश की कुछ ताकतें उसे दिखाना चाह रही हैं।
दिन का कोई घंटा ऐसा नहीं है जब फिल्म अभिनेता सुशांत राजपूत से जुड़े हुए, या भूतकाल में उससे जुड़े रहे लोगों की खबरों का सैलाब आया हुआ न रहे। टीवी का मीडिया तो मानो खुदकुशी वाली इस लाश पर उसी तरह सवार होकर दौड़े चल रहा है जिस तरह भैंसे पर बैठे हुए यमराज की तस्वीर बनाई जाती है। अब आसपास के लोगों से जुड़े हुए पहलू खत्म हो चले थे, तो ऐसे में एक अभिनेत्री इस मामले में कूद पड़ी है, और उसने तो महाराष्ट्र के सारे सम्मान, स्वाभिमान, सारे गौरव, इतिहास, को चुनौती दे डाली है, और एक बहुत ही गंदी जुबान में उसने सार्वजनिक रूप से महाराष्ट्र के मानो तमाम लोगों को चुनौती दी है कि वे उसका कुछ बिगाडक़र देखें। जिस जुबान में उसने ट्विटर पर यह चुनौती दी है, वह जुबान आमतौर पर सबसे अश्लील जुबान इस्तेमाल करने वाले इंसान सबसे गंदी बात कहते हुए बोलते हैं। हम न तो खबर में, और न ही इस जगह पर, न किसी मर्द की कही हुई, और न ही किसी औरत की कही हुई ऐसी जुबान दुहराते हैं। लेकिन पिछले दो-चार दिनों से यह अभिनेत्री सुशांत राजपूत केस में तलवार चलाए जा रही थी, और अब उसने अपना हमला महाराष्ट्र की सत्तारूढ़ पार्टी शिवसेना, महाराष्ट्र सरकार, और मराठी-मानुष सभी की तरफ मोड़ दिया है। उसने एक अजीब से घमंड के साथ महाराष्ट्र की पूरी अस्मिता के खिलाफ यह लिखा है- इनकी औकात नहीं है, इंडस्ट्री (मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री) के सौ सालों में भी एक भी फिल्म मराठा प्राइड पे बनाई हो, मैंने इस्लाम डॉमिनेटेड इंडस्ट्री में अपनी जान और कॅरियर दांव पर लगाया, शिवाजी महाराज और रानी लक्ष्मीबाई पे फिल्म बनाई, आज महाराष्ट्र के इन ठेकेदारों से पूछो किया क्या है महाराष्ट्र के लिए? किसी के बाप का नहीं है महाराष्ट्र, महाराष्ट्र उसी का है जिसने मराठी गौरव को प्रतिष्ठित किया है, और मैं डंके की चोट पर कहती हूं, हां मैं मराठा हूं...(इसके बाद का हिस्सा अछपनीय है)।
हिन्दुस्तान एक ऐसा मूढ़ समाज हो गया है जिसमें लोगों को इस किस्म की भडक़ाऊ-भावनात्मक बातों से, सनसनीखेज अप्रासंगिक बकवास से उलझाकर रखा जा सकता है ताकि उन्हें न भूख-प्यास सताए, और न ही देश के दूसरे जलते-सुलगते मुद्दे याद आएं। हम पहले भी इस बारे में कई बार लिख चुके हैं कि जनधारणा-प्रबंधन के चतुर पंडित ऐसे मामलों में मासूम दर्शक नहीं होते, वे परदे के पीछे से, नजरों के ऊपर से कठपुतलियों के धागे सम्हालने वाले लोग रहते हैं। आज अनायास एक अभिनेत्री झाग ठंडे पडऩे वाले एक स्कैंडल में एक नई जान फूंक रही है, और यह अनायास नहीं है, यह जानकार-तजुर्बे के मुताबिक सायास है। हर दिन कोई ऐसा शिगूफा शुरू किया जाए जिसमें रात तक लोग उलझे रहें। कल ही कई लोगों ने ये कार्टून बनाए हैं, और वीडियो-व्यंग्य पोस्ट किए हैं कि हिन्दुस्तानी जनता मांगे नौकरिया, और चैनल दिखाएं रिया-रिया।
परसेप्शन-मैनेजमेंट की ऐसी पराकाष्ठा हिन्दुस्तान ने कभी देखी नहीं थी। खूबी यह है कि खुले मैदान के बीच यह कठपुतली नाच हो रहा है, और न तो किसी को डोरियां दिख रही हैं, और न ही आसमान तक कहीं कोई हाथ नजर आ रहे हैं। ऐसा तो किसी ने देखा-सुना नहीं था। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानी आबादी का एक बड़ा हिस्सा यह सोचते हुए ही सुबह जागता है कि आज के लिए मसाला क्या है, आज क्या देखने, क्या पढऩे, और क्या वॉट्सऐप करने का इशारा है, क्या कहा जा रहा है।
हकीकत की इतनी अनदेखी किसी भी देश या समाज को खत्म करने के लिए काफी है। और जब हम समाज की बात कर रहे हैं, तो यह हिन्दुस्तानी मध्यमवर्ग ही है जो कि सतह के ऊपर दिखता है, बढ़-चढक़र बोलता है, और ऐसा अहसास पैदा करता है कि मानो वही पूरा हिन्दुस्तान है। जो ऊपर के लोग हैं, जो कमाना जानते हैं, वे हकीकत भी जानते हैं। बिना हकीकत को जाने कोई न कारोबारी बन सकते, न कमा सकते। जो सबसे नीचे के लोग हैं, उनके पास आज न काम है, न कल की कोई उम्मीद है, और न ही उनके पास सोशल मीडिया या जुबान है। इन दोनों के बीच का मध्यम वर्ग ही आज हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तान कहला रहा है, वही ऐसे झांसों को अपनी मर्जी से देख-सुन रहा है, आगे बढ़ा रहा है, और यह सब करते हुए वह खुद भी कुछ या अधिक हद तक इस पर भरोसा भी कर रहा है। हमने एक बार कहीं मजाक में लिखा था कि आप कुल 87 बार कोई झूठ बोल सकते हैं, उसके बाद तो आपको खुद को उस पर इतना भरोसा हो जाता है कि अगली बार आप वह झूठ नहीं, उसे सच ही मानकर बोलते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के कुछ दूसरे हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में कोरोना पॉजिटिव रफ्तार से बढ़ रहे हैं। शुरुआती महीनों में छत्तीसगढ़ में रफ्तार कुछ कम रही लेकिन अब इस तेजी से बढ़ रही है कि लोगों को अपने घर पहुंचते हुए कई रास्ते बदलकर जाना पड़ता है क्योंकि जहां ज्यादा कोरोना पॉजिटिव निकल गए हैं वहां रास्ते बंद कर दिए गए हैं। जिन घरों में कोरोना पॉजिटिव हैं वहां दरवाजों पर प्रशासन नोटिस चिपका रहा है, और उन घरों के सामने पुलिस के रोड स्टॉपर लगाकर लोगों की आवाजाही रोक दी जा रही है। अब सरकार की कोई सावधानी, अगर है भी तो, वह किसी काम की नहीं रह गई है क्योंकि लॉकडाऊन खुल गया है, लोग बाजारों में घूम-घूमकर खेलों और रेस्त्रां में खाते दिख रहे हैं, दुकानों में धक्का-मुक्की चल रही है, दारू के कारोबार में देह का देह से भाईचारा अभूतपूर्व प्यार-मोहब्बत का दिख रहा है।
अब ऐसी नौबत में सरकार दुबारा लॉकडाऊन करती है, तो बहुत से लोगों की जिंदगी मुश्किल हो जाना तय है। हम घिसी-पिटी जुबान में यह तो नहीं कहेंगे कि लोग भूखे मर जाएंगे, क्योंकि केन्द्र और राज्य सरकार की जितने किस्म की मुफ्त-अनाज योजनाएं हैं, उनके चलते देश में किसी का भूखा मरना अब तकरीबन नामुमकिन रह गया है। लेकिन जिंदा रहने लायक अनाज पेट में जाए, उससे अधिक भी कई खर्च जरूरी रहते हैं, और वहां पर लॉकडाऊन लोगों की कमर तोड़ चुका है। इसलिए अब वह कोई विकल्प नहीं दिख रहा है। यह भी समझने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार ने लॉकडाऊन में ढील के जो ताजा हुक्म दिए हैं, उनमें यह कहा गया है कि केन्द्र से इजाजत लिए बिना राज्य अपने स्तर पर कोई और प्रतिबंध लागू नहीं करेंगे। यह बात आदेश में लिखी जरूर है, लेकिन हमें यह राज्य के अधिकार क्षेत्र में केन्द्र की एक नाजायज दखल लगती है क्योंकि कोई भी राज्य अपने जिले के स्तर पर किसी भी तरह का प्रतिबंध लगाने के लिए आजाद है, अगर वह व्यापक जनजीवन से जुड़ा हुआ कोई मुद्दा है। लेकिन आज यहां चर्चा का मुद्दा केन्द्र और राज्य के बीच की तनातनी के लायक एक और मुद्दे को उठाना नहीं है, बल्कि यह चर्चा करना है कि देश के किसी भी राज्य में कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है?
राज्य सरकार के पास रोज लिस्ट तैयार होती है कि कौन-कौन व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव निकले हैं। उनका पता, उनके फोन नंबर भी सरकार के पास रहते हैं। इसके बाद उनके घर पर पोस्टर चिपकाया जाता है, आसपास चारों तरफ दवा छिडक़ी जाती है, और बैरियर लगाया जाता है। कुल मिलाकर जिस परिवार में कोई पॉजिटिव है, उसके बारे में लोगों को सतर्क किया जाता है कि वे उस घर में न जाएं, उस घर के लोगों से न मिलें, और उस घर के लोगों से भी कहा जाता है कि वे बाहर न निकलें। अब यहां हमारे मन में एक सवाल यह आता है कि क्या सरकार को कोरोना पॉजिटिव निकले हुए लोगों के नाम सार्वजनिक रूप से उजागर करना चाहिए? बहुत से प्रमुख लोग जो सरकार या राजनीति में बड़े ओहदों में हैं, या सामाजिक रूप से चर्चित और मशहूर हैं, वे तो कोरोना पॉजिटिव आते ही सोशल मीडिया पर तुरंत यह बात पोस्ट कर देते हैं, और अपने संपर्क में आए हुए लोगों को सावधान रहने भी कह देते हैं। लेकिन जो ऐसे चर्चित नहीं हैं, और जो खुद होकर सोशल मीडिया पर यह बात नहीं लिखते हैं, उनके संपर्क में हाल ही में आए हुए लोगों का क्या? किसी दुकान से सामान खरीदकर जाने वाले को अगले दिन यह कैसे पता लगेगा कि वह दुकानदार कोरोना पॉजिटिव निकला है? कैसे उसके संपर्क में आने वाले लोग बाकी परिवार के साथ संपर्क में सावधानी बरत सकेंगे?
यहां पर निजता का सवाल उठता है, और चिकित्सा विज्ञान के नीति-सिद्धांतों का भी। चिकित्सा विज्ञान किसी मरीज की जानकारी को उजागर करने के खिलाफ है। यही वजह है कि टीबी या एचआईवी जैसी गंभीर बीमारियों वाले लोगों के नाम भी उजागर नहीं किए जाते हैं, जबकि ऐसे मरीजों के संपर्क में आने से दूसरे लोगों को भी संक्रमण का खतरा हो सकता है। अभी कोरोना को पूरी दुनिया में महामारी का दर्जा देकर महामारी के लिए बने हुए अलग कड़े कानून पर अमल किया जा रहा है। जनता को संक्रमण से बचाने के लिए अगर सरकार चाहे तो वह तमाम कोरोना पॉजिटिव लोगों के नाम उजागर कर सकती है। उनके परिवार, उनके कारोबार तो वैसे भी उजागर हो जाते हैं क्योंकि वहां पर सरकारी नोटिस चिपका दिया जाता है, घेरेबंदी कर दी जाती है। लेकिन सरकार के पास नाम रहते हुए भी सरकार इन नामों को उजागर नहीं करती है, तो उनके संपर्क के लोगों को सावधान होने का मौका नहीं मिल सकता, और महज घर-दुकान में लगे नोटिस देखने वाले लोग ही सावधान हो सकते हैं।
हमारा मानना है कि सेक्स-संबंधों से आमतौर पर होने वाले एचआईवी जैसे संक्रमण से परे अभी का कोरोना तो बिना किसी सामाजिक बदनामी वाला ऐसा संक्रमण है जो कि किसी को भी हो सकता है, बहुत सावधान रहने वाले लोगों को भी हो सकता है। इसलिए सरकार को और समाज में निजता की रखवाली करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या कोरोना पॉजिटिव लोगों के नाम-पते उजागर करना बाकी समाज की जिंदगी को बचाने के लिए एक बेहतर फैसला होगा, या इसका नुकसान अधिक होगा। हमारा निजी मानना यह है कि यह किसी किस्म की बदनामी वाली बात नहीं है कि कोई कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, यह महज सावधानी की बात है कि बाकी तमाम लोगों को यह बात पता लग जाए और लोग उनसे संपर्क करना बंद कर दें। यह भी सोचना चाहिए कि आज अगर किसी को नाम उजागर होने से चार दिन की असुविधा भी होती है, तो भी पहले के चार दिनों में उनके संपर्क में आने वाले लोगों को यह सावधानी बरतने की चेतावनी मिल जाएगी कि वे अपने आपको अपने परिवार के बीच, अपने कारोबार के बीच कुछ अलग-थलग रखें। सरकारों को अपने राज्य में दस-बीस हजार, या कुछ लाख लोगों की नाराजगी की फिक्र किए बिना बाकी करोड़ों लोगों की सेहत की फिक्र करनी चाहिए। महामारी कानून के तहत सरकार को अंधाधुंध अधिकार इसीलिए दिए गए हैं कि सरकार निजता जैसे मुद्दों को कुछ देर के लिए अलग रखे, और लोगों को सावधान करने, लोगों के सावधान रहने का इंतजाम करे।
आज समझदार लोग खुद होकर अपने बारे में लोगों को मैसेज भी कर रहे हैं कि वे कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं, और पिछले दिनों उनके संपर्क में आने वाले लोग सतर्क हो जाएं। ऐसी सतर्कता से लोग अगर संक्रमण हो चुका है, तो उससे तो नहीं बच सकते, लेकिन अपने आसपास के और लोगों के अधिक संपर्क में आने से परहेज जरूर कर सकते हैं। आज निजता का मुद्दा महत्वपूर्ण नहीं है। जब असाधारण परिस्थितियां रहती हैं, तो असाधारण फैसले भी लेने पड़ते हैं, असाधारण सावधानी भी बरतनी पड़ती है। ऐसे में कई साधारण अधिकार कुछ वक्त के लिए निलंबित किए जा सकते हैं। और हमने महामारी के कानून के बारे में और कोरोना संक्रमण से लोगों को बचाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे तरीकों के बारे में जितना पढ़ा और समझा है, उससे यही बात लगती है कि घर-दफ्तर के बाहर पोस्टर चिपकाने के बाद अब और कोई निजता नहीं बचती है, और सरकार को खुलकर कोरोना पॉजिटिव लोगों के नाम उजागर करने चाहिए ताकि उनके संपर्क में आए बहुत से और लोग अपने को एक सीमित दायरे में रखें, संक्रमण को आगे बढ़ाने से बचें।
इस बारे में सोशल मीडिया पर अब तक हमें कहीं चर्चा नहीं दिखी है, इसलिए आने वाले दिनों में इसके पहले कि कोरोना संक्रमण पूरी तरह बेकाबू हो जाए, सरकार और समाज को खुद होकर निजता छोडऩी चाहिए, और इस संक्रमण के होने पर नाम उजागर करना चाहिए। अगर कोई बचाव हो सकता है, तो वह संक्रमित लोगों के अधिक संपर्क से बचकर ही हो सकता है, और महज पड़ोस को बचाकर पिछले दिनों के संपर्कों का बचाव नहीं हो सकता। कोरोना पॉजिटिव होना किसी कलंक की बात नहीं है, और इस बारे में लोगों को भी खुलकर हौसला दिखाना चाहिए, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग दिखा भी रहे हैं, लेकिन संक्रमित आम जनता तो सोशल मीडिया पर नहीं है इसलिए कोई भी व्यापक काम तो सरकार के किए हुए ही हो सकता है, सरकार के बिना नहीं। और कोरोना जांच आंकड़े और लोगों की जानकारी भी सिर्फ सरकार के ही पास है, उसे ही महामारी कानून के तहत इसे उजागर करने का हक है, और हमारा मानना है कि आज मुफ्त में हासिल इंटरनेट और सोशल मीडिया से सरकार को तुरंत ही यह काम शुरू करना चाहिए, ताकि और लोगों को बचाया जा सके। वरना वह वक्त दूर नहीं है जब यह फैलाव पूरी तरह बेकाबू हो जाए।
फ्रांस की एक विख्यात व्यंग्य पत्रिका, शार्ली एब्डो, ने कुछ बरस पहले मोहम्मद पैगम्बर पर कुछ कार्टून बनाकर छापे थे, तो उसके बाद उस पर हुए एक हमले में 17 लोग मारे गए थे, और राजधानी पेरिस के आसपास तीन दिन तक हिंसा चलती रही थी। अब इस पत्रिका ने उस हमले की सुनवाई शुरू होने के मौके पर एक बार फिर अपने वही कार्टून फिर छापे हैं जिन्हें लेकर उसे वह हमला झेलना पड़ा था। इस बार पत्रिका का कहना है कि वह इसके पहले भी ये कार्टून दुबारा छाप सकती थी, उस पर कोई रोक नहीं थी, लेकिन ऐसा कोई मौका नहीं आया था कि उन्हें दुबारा छापा जाए। अब अदालत में सुनवाई शुरू हो रही है तो उसने ये कार्टून फिर छापे हैं। यह पत्रिका मुस्लिमों, यहूदियों, और दूसरे कई धार्मिक कट्टरपंथियों पर ऐसे तीखे संपादकीय-हमले करने के लिए जानी जाती है।
फ्रांस या योरप के बहुत से दूसरे देश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक अलग परिभाषा को मानते हैं। अमरीका या कुछ और देश भी धार्मिक मामलों में धार्मिक भावनाओं के बजाय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक मानते हैं, और इन तमाम देशों में किसी धर्मग्रंथ को फाडऩा, या जलाना कोई जुर्म नहीं है। सदियों पहले से दुनिया में देशों के स्थानीय धर्मों से परे दूसरे देशों के धर्मों का वहां पहुंचना, और बसना शुरू हो चुका था। दुनिया के बहुत से देश किसी एक धर्म को अपना राजकीय धर्म मानते हैं, और इसमें मोटेतौर पर मुस्लिम देश ही हैं। चूंकि वहां देश ही इस्लामिक रहता है, इसलिए किसी और धर्म को बराबरी का अधिकार अधिकतर जगहों पर नहीं मिलता। लेकिन जब इस्लाम मानने वाले लोग योरप की उदार संस्कृति में जाते हैं, तो उन्हें वहां नागरिक अधिकार तो बराबरी के मिलते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में सांस्कृतिक अधिकारों को लेकर टकराव खड़ा होता है। मुस्लिम महिलाओं के बुर्के पहनने को लेकर बहुत से देशों में कानून बनाए गए हैं कि सार्वजनिक जगहों पर उन्हें मंजूरी नहीं दी जा सकती। फिर भी ऐसे तमाम देशों में बसे हुए, या शरणार्थी का दर्जा पाकर वहां ठहरे हुए लोगों के बुनियादी अधिकार उन लोगों के मुकाबले बहुत अधिक है जो कि इस्लामी देशों में बसे हुए गैरमुस्लिम लोग हैं। यह अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा, और अपनी-अपनी संस्कृति है कि दूसरे देशों से आए हुए लोग, दूसरे धर्मों के लोग, इनके साथ कैसा बर्ताव किया जाए।
लेकिन जब मुस्लिमों को, मुस्लिम देशों से आए हुए शरणार्थियों को बसने का मौका दिया जाता है, तो उनके धार्मिक अधिकारों के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को कई देश अपने हिसाब से सीमाओं में बांधते हैं। इन पश्चिमी देशों की उदार राजनीतिक व्यवस्था भी मुस्लिम बिरादरी के माने जाने वाले बहुत से रीति-रिवाजों को बर्दाश्त नहीं करते, और उन्हें आमतौर पर मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ मानते हुए उन रीति-रिवाजों के खिलाफ कानून भी बनाते हैं। इनमें से एक सबसे चर्चित मुद्दा बुर्का पहनने का रहा है।
टकराव का दूसरा मुद्दा सामने आता है कि उदार लोकतंत्रों में लोग अपने या दूसरों के धर्मों को लेकर अपनी सोच लिख सकते हैं, या बोल सकते हैं। लेकिन हर धर्म का बर्दाश्त अलग-अलग होता है, अलग-अलग देशों में रहते हुए उसमें और भी फर्क आता है, दुनिया में जिस वक्त जैसा माहौल रहता है, उस माहौल से भी किसी धर्म का बर्दाश्त प्रभावित होता है। कुल मिलाकर एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और दूसरे व्यक्ति की धार्मिक भावना के बीच एक बड़ा टकराव कोई अनोखी बात नहीं है। खुद हिन्दुस्तान में ऐसा बहुत होता है, और आजकल तो आए दिन सोशल मीडिया पर किसी धार्मिक टिप्पणी को लेकर पुलिस रिपोर्ट होती रहती है।
फ्रांस में जब पहली बार ऐसे कार्टून विवाद में आए, और वहां पर इस्लामी आतंकियों के हमले में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए, इस पत्रिका के दफ्तर पर भी हमला हुआ, तो भी फ्रांस और योरप में लोगों ने ऐसे आतंकी खतरे के बीच भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ऊपर माना।
हिन्दुस्तान जैसा रूख इन लोकतंत्रों का नहीं रहता कि सलमान रूश्दी की लिखी किताब जब दुनिया के किसी मुस्लिम देश में भी बैन नहीं हुई थी, तब वह हिन्दुस्तान में बैन हो गई थी। इसी तरह अभी कुछ बरस पहले एक पश्चिमी लेखक की हिन्दू धर्म पर लिखी हुई एक बहुत गंभीर शोधपरख किताब को भारत में बैन कर दिया गया। भारत के इतिहास के खरे तथ्यों को लेकर भी लोगों को नापसंद कोई बात लिखना यहां मुमकिन नहीं है, और अधिकतर पार्टियों की सरकारें पल भर भी जाया किए बिना इन पर रोक लगा देती हैं। हालत यह है कि बांग्लादेश छोडऩे को मजबूर लेखिका तसलीमा नसरीन ने भारत में शरण ली हुई है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से वे अपने अनुकूल बंगाल में रहना चाहती थीं, लेकिन वहां की वामपंथी सरकार ने भी उन्हें इजाजत नहीं दी थी।
आज दुनिया में लोकतंत्र के जितने किस्म के चेहरे प्रचलन में हैं, उनमें से बहुत से अपनी जमीन पर उदार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। इन लोकतंत्रों में धार्मिक कट्टरता मेल नहीं खाती है, लेकिन दूसरे देशों के नागरिकों को लेकर उनका जो कानूनी रूख है, उसके मुताबिक वे किसी धर्म के लोगों की अपने यहां आवाजाही, या बसाहट रोकते भी नहीं हैं। ऐसे लोगों को यह तय करना होगा कि वे जिस लोकतंत्र में हैं, वे वहां के कानून और वहां की संस्कृति के मुताबिक अपने को ढाल कर रहेंगे, या फिर वे लगातार एक टकराव का सामना करते रहेंगे, टकराव खड़ा करते रहेंगे? यह सिलसिला बहुत ही जटिल हो चुका है क्योंकि हाल के बरसों में बहुत से मुस्लिम देशों को छोडक़र दसियों लाख शरणार्थी दूसरे देशों में पहुंचे हैं, जिन्हें लेकर वहां के स्थानीय और मूल निवासियों के बीच भी तनाव है। बहुत से इलाकों को यह लग रहा है कि इतने बाहरी मुस्लिम आ जाने से उनके स्थानीय समाज का ढांचा ही बदल जाएगा। अपने देशों से बेदखल, लेकिन अपने धर्म को मानते हुए लोग जब ऐसे देशों में पहुंच रहे हैं जहां की स्थानीय संस्कृति भी उनसे मेल नहीं खाती, तो संस्कृतियों का यह टकराव खड़ा होता है। यह टकराव तब और बढ़ जाता है जब सिर्फ स्थानीय, या बाहरी आतंकी मदद से लोग उदारवादी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कातिल हमले करने लगते हैं। यह सिलसिला आसान नहीं है, और इसका कोई सरल हल नहीं है। लोग अगर आतंकी हमलों में थोक में मौतें झेलते हुए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाकी चीजों से ऊपर मान रहे हैं, और उनका कानून भी उनका हिमायती है, तो फिर वहां बसे हुए, बाहर से आए हुए उन धर्मों के लोगों को सोचने की जरूरत पड़ती है जो कि ऐसे उदार व्यंग्य के खिलाफ हैं। संस्कृतियों का यह टकराव आसान मोर्चा नहीं है जिसे खारिज किया जा सके, यह आधुनिक लोकतांत्रिक सोच के साथ रखकर देखने पर ऐसे हिंसक टकराव का खतरा बताता ही है।
केन्द्र सरकार ने अपने कर्मचारियों-अधिकारियों के लिए मौजूदा नियमों के हवाले से ही एक बार यह साफ किया है कि उन्हें 30 बरस की नौकरी या 50-55 बरस की उम्र पूरी हो जाने पर कभी भी नौकरी से अलग किया जा सकता है। सरकार ने कहा कि अब तक चले आ रहे नियमों में ही इसका स्पष्ट प्रावधान है, लेकिन अगर किसी बात को लेकर लोगों को गलतफहमी होती है, तो उसे दूर करने के लिए यह बात साफ की जा रही है। सरकार का कहना है कि जनहित में केन्द्रीय कर्मचारियों को समय से पहले रिटायर किया जा सकता है। यह खुलासा ऐसी खबरों के बीच आया है कि केन्द्र सरकार ने 50 बरस से अधिक के अपने सभी कर्मचारियों का रजिस्टर तैयार करने कहा है कि अगर उनका काम संतोषजनक नहीं पाया जाता है तो उन्हें समय से पहले रिटायर किया जा सके।
यह बात कर्मचारी संगठनों या अधिकारियों की एसोसिएशन को खराब लगेगी, लेकिन हकीकत यह है कि इस देश में केन्द्र सरकार, और राज्य सरकारों के अधिकारी-कर्मचारी एक बार अगर सरकारी नौकरी में आज जाते हैं, तो उसके बाद उन्हें इस नौकरी की सुरक्षा बड़ी तेजी से निकम्मा बना देती है। बहुत से लोग तो हैरानी की हद तक निकम्मा हो जाते हैं, और आम मेहनतकश लोग जब सरकारी दफ्तरों में जाते हैं, तो उन्हें यह भी लगता है कि वे लोग दिन भर ठीक से काम किए बिना रात को किस तरह तसल्ली के साथ सो सकते होंगे? जिस तरह पड़े हुए लोहे पर तेजी से जंग पकड़ लेता है, उसी तरह सरकारी विभागों में लोगों के तन-मन पर जंग लगा दिखता है।
जैसा कि केन्द्र सरकार ने कहा है, यह व्यवस्था पहले से है कि 30 साल की नौकरी, या 50-55 बरस की उम्र हो जाने पर काम अच्छा न रहने पर किसी की नौकरी खत्म की जा सकती है। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसा होता नहीं है। अपवाद के रूप में इक्का-दुक्का लोगों की नौकरी खत्म भी की जाती है, तो वह भयानक भ्रष्टाचार के भयानक मामले उनके खिलाफ इक_ा हो जाने पर की जाने वाली कार्रवाई रहती है। निकम्मेपन से किसी की नौकरी गई हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।
लेकिन जैसा कि निजी कारोबार और निजी दफ्तरों में होता है, लोगों का काम अच्छा न रहने पर या तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है, या फिर ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाती हैं कि ऐसे लोग नौकरी छोड़ दें। ऐसा कई बार कर्मचारियों के शोषण के लिए भी किया जाता है, लेकिन निजी संस्थानों में निकम्मेपन के एक इलाज के रूप में भी इसे इस्तेमाल करते हैं। हम मजदूर कानूनों की आड़ में निकम्मेपन को बढ़ावा देने के खिलाफ हैं, फिर चाहे कर्मचारी संघ ही उसे क्यों न कर रहे हों। हिन्दुस्तान वैसे भी काम की संस्कृति के मामले में दुनिया के तमाम विकसित देशों से कोसों पीछे है। इसके बाद देश-प्रदेश की सरकारों का हाल इतना खराब रहता है कि सरकारी-काम शब्द किसी गाली की तरह हो गए हैं। सरकार तो सरकार, सरकार के जो सार्वजनिक उपक्रम हैं, उनका भी हाल बहुत खराब रहता है, और स्टेट बैंक जैसे देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक में लोगों के काम न करने को लेकर अनगिनत लतीफे और कार्टून चलते ही रहते हैं। ऐसे कर्मचारी न सिर्फ जनता के पैसों से मिलने वाली तनख्वाह बर्बाद करते हैं, बल्कि अपनी नालायकी, निकम्मेपन, और अपने भ्रष्टाचार से देश के आगे बढऩे की संभावनाओं को भी खत्म करते हैं। एक कल्पना करें कि किसी कार में लंबा सफर करना है, और उसके हर चक्के हर दिन ग्रीस मांगने लगें, उसकी स्टेयरिंग कुछ पाए बिना घूमने से इंकार कर दे, एक्सीलरेटर बिना हाथ गर्म किए दबने से इंकार कर दे, हॉर्न बजने के लिए बख्शीश मांगने लगे, तो वह गाड़ी कितना सफर कर पाएगी? हिन्दुस्तान में सरकारी ढांचा इस कार सरीखा ही है जिसके हर पुर्जे, हर हिस्से कुछ न कुछ उम्मीद करत हैं।
केन्द्र सरकार को यह तय कर लेना चाहिए कि 30 बरस पूरे होने पर, या 50 बरस की उम्र, जो भी जल्दी आए, उस वक्त अपने एक चौथाई अमले से छुटकारा पा ले। इस वक्त तक लोग इतनी तनख्वाह पा चुके रहते हैं, पेंशन के हकदार हो चुके रहते हैं कि उनकी जगह नए लोगों को नियुक्त करके उन्हें नीचे से ऊपर लाना शुरू करना चाहिए। इसके बाद 55 बरस की उम्र होने पर एक बार फिर नालायक लोगों को नौकरी से निकालना चाहिए। यह कुछ उसी किस्म का होगा जैसा कि किसी फूलदार पौधे की कटिंग की जाती है, उसकी डालें छांटी जाती हैं, तब वह पौधा पनप पाता है। नौकरी से हटाने का यह सिलसिला अमानवीय लग सकता है, लेकिन जनता के पैसों पर मिली नौकरी को जागीर की तरह हमेशा की दौलत मानकर चलने वालों के हाथ-पांव इससे हिलने लगेंगे।
राज्य सरकारों और म्युनिसिपलों को भी यह काम करना चाहिए, इससे सरकारी अमले में काम का उत्साह बने रहेगा। जब ऊपर के लोग छंटेंगे, तो नीचे के लोगों को समय से पहले प्रमोशन भी मिल सकेगा। सरकारी नौकरी की निश्चिंतता खत्म होनी चाहिए, उसे सुधार का मौका तो देना चाहिए, लेकिन उससे अधिक देना देश की जनता के साथ अन्याय होगा। अब यह बात रह जाती है कि सरकार के हाथ अगर लोगों को निकालना रहेगा, तो अपने को नापसंद लोगों को वह निकालती जाएगी। इस काम के लिए केन्द्र और राज्य के लोक सेवा आयोगों को जिम्मा देना चाहिए जो कि नौकरी देने वाले संगठन भी हैं। ये संस्थाएं संवैधानिक अधिकारों के साथ सरकारों के बाहर भी कुछ स्वायत्तता से तो काम करती हैं, उन्हें इस छंटनी का अधिकार देना चाहिए। इस देश को एक बेहतर सरकारी ढांचे की जरूरत है, और सरकारी नौकरी की निहायत गैरजरूरी असीमित सुरक्षा सबके बदन पर तेजी से स्थायी चर्बी चढ़ा देती है। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। नौकरी से निकालने के लिए महज भ्रष्टाचार के मामलों का इंतजार नहीं करना चाहिए, नालायकी को भी पैमाना मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के आंकड़ों के साथ-साथ जो दूसरी जानकारी आती है वह पॉजिटिव लोगों के पतों और नाम की वजह से यह साफ कर देती है कि वे एक ही परिवार के लोग हैं। हम रोजाना ऐसे सैकड़ों लोगों के नाम देख रहे हैं जिनमें से एक-एक घर के पांच-दस लोग भी हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक परिवार के एक चूल्हे पर पका खाना खाने वाले करीब दो दर्जन लोग अब तक पॉजिटिव हो चुके हैं। इनमें से हर किसी को अलग-अलग बाहर से संक्रमण नहीं हुआ होगा, बाहर से तो कोई एक-दो लोग ही कोरोना लाए होंगे, लेकिन इसके बाद घर के भीतर ही बाकी लोगों को इनसे संक्रमण पहुंचा होगा। इस खतरे पर हम चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि जो लोग घर के भीतर हैं, जिनका काम बाहर निकले बिना चल जा रहा है, वे लोग अपने आपको महफूज मान लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं।
जो लोग घर के बाहर जाते हैं वे लोग तो एक बार थोड़ी-बहुत सावधानी बरत भी लेते हैं, मास्क लगा लेते हैं, चीजों को बिना जरूरत छूने से परहेज कर लेते हैं, और हाथों को सेनेटाइज भी कर लेते हैं। लेकिन जब लोग परिवार के बीच घर में रहते हैं, तो बच्चे-बड़े, तमाम लोग एक-दूसरे के साथ संपर्क में आते ही हैं। जब कोरोना फैलना शुरू हुआ तभी डॉक्टरों ने इस बारे में सचेत कर दिया था कि छोटे बच्चे खतरनाक साबित हो सकते हैं क्योंकि एक कोरोना पॉजिटिव हो जाएंगे, तो भी उनमें प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहने की वजह से उनमें कोई लक्षण नहीं दिखेंगे, और वे ऐसे बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी, को संक्रमित करने का खतरा बन सकते हैं जो कि अपनी उम्र, कम प्रतिरोधक क्षमता, और कई किस्म की बीमारियों की वजह से अधिक नाजुक रहेंगे। अब यह बात परिवारों के बीच कहने-सुनने में अच्छी नहीं लगती है क्योंकि दादा-दादी, नाना-नानी को तो अपनी जिंदगी ही परिवार के छोटे बच्चों के लिए बची हुई लगती है। उन्हें वे गोद में रखते हैं, साथ खिलाते हैं, साथ सुलाते हैं, और सिर चढ़ाए रखते हैं।
आज जिस तरह थोक में अनगिनत परिवार कोरोना पॉजिटिव हो रहे हैं, उनमें परिवार के ही कुछ लोग बाहर से खतरा लाकर बाकी लोगों के लिए खतरा बने होंगे। तमाम लोगों को इस नजरिये से भी परिवार के भीतर बहुत बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है। यह कॉलम आमतौर पर विचारोत्तेजक-विचारों का है, लेकिन हम बहुत किस्म के खतरों के बारे में इसी जगह पर सावधानी सुझाने का काम भी करते रहते हैं। यह लिखा हुआ पढऩा उतना विचारोत्तेजक नहीं होगा, लेकिन यह जिंदगी के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि हम समय-समय पर ऐसे कुछ मुद्दों को इसी जगह उठाते हैं। कोरोना के बारे में घर के बाहर बरती जाने वाली सावधानियों पर तो दर्जन भर से अधिक बार हम लिख चुके हैं, लेकिन परिवार के भीतर आपस में भी लोगों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है। यह बात लिखते हुए हमें अच्छी तरह मालूम है कि देश की तीन चौथाई आबादी के पास तो ऐसी सावधानी बरतने की अधिक गुंजाइश नहीं है क्योंकि वे बहुत छोटे-छोटे घरों में रहते हैं, और वहां एक-दूसरे से परहेज की गुंजाइश बड़ी सीमित रहती है। लेकिन वहां पर भी यह सावधानी बरती जा सकती है कि एक से अधिक लोग एक वक्त में आसपास बैठकर न खाएं, क्योंकि खाते हुए मास्क तो उतरना ही है, और आपस में बातचीत करते हुए मुंह से खाने और थूक के छींटे तो उड़ते ही हैं। रसोई में एक घड़े में या एक फ्रिज में, खाने-पीने के दूसरे सामानों में हाथ लगते ही हैं। एक टॉवेल या एक नेपकिन, एक सिंक या एक नल को कई लोग छूते हैं। छोटे घरों में यह खतरा और अधिक रहता है।
आज ही एक खबर आई है कि 80 बरस से अधिक उम्र के 17 लोग एक जगह अपने एक साथी का जन्मदिन मनाने इक_ा हुए, वे लोग वैसे तो मास्क लगाए हुए थे, लेकिन उन्होंने खाते-पीते वक्त मास्क हटा दिए थे। अब ये सारे के सारे 17 बुजुर्ग कोरोना पॉजिटिव निकले हैं। अब आज ऐसे वक्त में क्यों तो इतने लोगों को किसी दावत में शामिल होना चाहिए, और क्यों एक साथ खाना-पीना चाहिए? लेकिन कोरोना को लेकर जो दहशत थी, वह अब धीरे-धीरे डर में बदली, और उसके बाद अब वह लापरवाही में बदल रही है। लोगों को लग रहा है कि डर-डरकर क्या जीना। लोग अब धीरे-धीरे साफ-सफाई, और सावधानी से थकते चले जा रहे हैं, और उसे फिजूल का मान रहे हैं। हर किसी के आसपास कुछ ऐसी मिसालें हैं कि बिना किसी बाहरी संपर्क वालों को भी कोरोना हो गया, ऐसे में सावधानी रखकर क्या फायदा? यह तर्क कुछ इसी तरह का है कि सिगरेट-तम्बाकू से परे रहने वाले लोगों को भी कैंसर हो गया है, तो फिर सिगरेट से परहेज से क्या फायदा?
ऐसे लापरवाह दौर में लोगों को बहुत अधिक सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है कि दुनिया भर के बहुत से विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि हिन्दुस्तान में कोरोना अभी और आगे बढ़ेगा। मतलब यह कि अभी तक जो खतरे नहीं आए हैं, वे खतरे और भी आ सकते हैं। अस्पतालों में बिस्तर नहीं बचे हैं, और सच तो यह है कि अगर निजी अस्पतालों में जाने की नौबत आई, तो इस देश के 99 फीसदी लोगों की क्षमता भी पूरे परिवार के निजी इलाज की नहीं है। ऐसे में बचाव ही अकेला इलाज है, और बचाव से परे सिर्फ खतरा ही खतरा है। अपने लिए न सही तो घरबार के दूसरे लोगों के लिए, अपने दफ्तर और कारोबार के दूसरे लोगों के लिए सावधानी बरती जाए। अब जब सावधानी से थकान बढ़ती जा रही है, तो खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं, और यही वजह है कि हिन्दुस्तान में कल एक दिन में 80 हजार से अधिक कोरोना पॉजिटिव निकले, जो कि दुनिया में एक रिकॉर्ड रहा।
हम यहां कोई भी ऐसी बात नहीं लिख रहे हैं जो लोगों को खुद होकर न मालूम हो, हम बस लोगों को अधिक सावधान भर कर रहे हैं, और उन्हें अपने दायरे के बारे में सोचने कह रहे हैं कि वे संक्रमण से बचने के कौन से तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक अमरीकी प्राध्यापक और विज्ञान कथा लेखक इसाक एसिमोव के लिखे या कहे हुए वाक्य अक्सर इधर-उधर उनके नाम के साथ दिखते हैं, और चोरी के शौकीन लोग उनकी कही बातों को अपने नाम के साथ भी खपाते रहते हैं। उन्होंने करीब पांच सौ किताबें लिखी हैं, या संपादित की हैं, और उनकी लिखी हुई करीब 90 हजार चिट्ठियां प्रकाशित हैं। अमरीका में पढ़ाने वाले इस रूसी मूल के विज्ञान-शिक्षक का लिखा हुआ एक वाक्य आज फिर हमारी नजरों के सामने आया है। उन्होंने लिखा था- जिंदगी का सबसे दुखद पहलू यह है कि विज्ञान इतनी रफ्तार से ज्ञान जुटा लेता है, जिस रफ्तार से समाज समझ नहीं जुटा पाता।
हम इस अखबार में और इसके अलग-अलग कॉलम में पहले भी कई बार ज्ञान और समझ को लेकर लिख चुके हैं। बहुत से लोग बहुत पढ़े-लिखे लोगों को ज्ञानी मान लेते हैं, और फिर ज्ञानियों को समझदार मान लेते हैं। इन दोनों का जाहिर तौर पर कोई रिश्ता नहीं होता है। दुनिया के अलग-अलग लाखों आदिवासी इलाकों में बसे हुए लोगों में बहुत सी जातियां ऐसी हैं जिन्होंने पढ़ा कुछ भी नहीं क्योंकि वे अशिक्षित हैं, और शहरी जुबान में कहें तो वे ज्ञान से दूर हैं। लेकिन उनकी समझ किसी भी शहरी की समझ के मुकाबले अधिक तगड़ी या अधिक इंसाफपसंद हो सकती है, आमतौर पर होती है। वे कुदरत और दूसरे प्राणियों के लिए रहमदिल होते हैं, और प्राकृतिक न्याय पर अपार भरोसा भी करते हैं, अमल भी करते हैं। अपनी जरूरत से अधिक इकट्ठा नहीं करते हैं, और दूसरा को देखकर किसी हीनभावना या भड़ास में भी नहीं जीते हैं। अपनी महिलाओं को शहरियों के मुकाबले अधिक बराबरी का दर्जा देते हैं। वे शहरी ज्ञान से दूर हैं, लेकिन गहरी समझ से लैस हैं।
इस बुनियादी समझ के साथ इस मुद्दे से थोड़ा हटकर सोचें तो आज की शहरी और आधुनिक दुनिया में ऐसी बहुत सी चीजें हो रही हैं जो कि अपनी जरूरत से खासी अधिक रफ्तार से घट रही हैं। एक वक्त लोगों के पास, खासकर संपन्न लोगों के पास एक रिकॉर्ड प्लेयर होता था, और गिने-चुने रिकॉर्ड होते थे। घर के लोग इक_े होकर, या मेहमान के आने तक कोई रिकॉर्ड बजाते थे, और तीन मिनट तक सारे लोग ध्यान से उस संगीत को सुनते थे। जाहिर है कि जब सब एक साथ सुनते थे, तो उसके बाद उस पर चर्चा भी करते थे। अब एक माइक्रोचिप में कई घंटों का संगीत आ जाता है, या कई दिनों तक लगातार अलग-अलग बजने वाला संगीत आ जाता है, लेकिन लोगों का सुनना कम हो गया है। पहले लोगों के पास गिनी-चुनी किताबें रहती थीं, और एक-दूसरे से लेन-देन करके भी पढ़ते थे, आज इंटरनेट पर लाखों-करोड़ों किताबें मुफ्त में हासिल हैं, लोग छोटे से किंडल पर हजारों किताबें लेकर उसे जेब में डालकर चलते हैं, लेकिन पढऩा कम हो गया है। ठीक उसी तरह ज्ञान बढ़ते चल रहा है, विज्ञान बढ़ते चल रहा है, लेकिन उसके साथ उस अनुपात में समझ नहीं बढ़ रही है। आज लोग बिना समझे हजारों तस्वीरें, सैकड़ों वीडियो, और लाखों पन्ने कम्प्यूटर पर सेव कर लेते हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल घट गया है।
आज ही एक बहुत पुरानी तस्वीर सैकड़ों बार नजरों के सामने से आने के बाद एक बार फिर सामने आई। एक जापानी बच्चा खड़ा हुआ है, और उसकी पीठ पर उसके छोटे भाई की लाश टंगी हुई है। वह जापान के नागासाकी का बच्चा है, और अमरीका द्वारा वहां पर गिराए गए हाइड्रोजन बम से मारे गए लोगों में से एक यह छोटा बच्चा भी था। अपने छोटे भाई की लाश को लिए हुए वह अंतिम संस्कार के लिए एक लंबा सफर कर रहा है। इस उम्र में अगर यह जापानी बच्चा पढ़ा भी होगा, तो भी बहुत अधिक नहीं पढ़ा होगा। और अमरीका के बड़े-बड़े वैज्ञानिक जिन्होंने हाइड्रोजन बम बनाया, जिन्होंने हवाई जहाज से लेकर उस बम को जापान पर गिराया, और अमरीकी सरकार में बैठे हुए लोग जिन्होंने इस हमले का फैसला लिया, वे तमाम लोग तो इस जापानी बच्चे के मुकाबले हजार-लाख गुना अधिक पढ़े हुए होंगे, लेकिन उन अमरीकियों की समझ महज इतनी थी कि उन्होंने बम बनाया, गिराने का फैसला लिया, जाकर गिराया, और लाखों को मार डाला। दूसरी तरफ यह बच्चा अपने बचपन में ही अपने छोटे भाई के अंतिम संस्कार के लिए उसकी लाश पीठ पर बांधे हुए एक लंबे पैदल सफर पर निकला हुआ है। इस बच्चे की हालत को देखें, उसकी दिमागी हालत को देखें तो दिल हिल जाता है। उसकी समझ इतनी गजब की है कि वह छोटे भाई के एक उचित अंतिम संस्कार का जिम्मा भी इतनी जिम्मेदारी के साथ उठा रहा है। तो पश्चिम का वह ज्ञान कहां काम आया, और जापान के इस बच्चे की बिना ज्ञान की समझ किस हद तक काम आ रही है, कितनी बड़ी मिसाल का इतिहास दर्ज कर रही है, यह सोचने लायक है।
ज्ञान एक अहंकारी शब्द हो गया है, अहंकार हो गया है, बददिमाग हो गया है, और हमलावर हो गया है, वह बेइंसाफ भी हो गया है, बेरहम तो है ही। दूसरी तरफ इस ज्ञान की किसी भी जरूरत के बिना समझ एक ऐसा छोटा सा आसान शब्द है जो कि ऊपर लिखे गए ज्ञान के तमाम विशेषणों से दूर है। लोग आम बोलचाल की जुबान में कहते हैं- पढ़े-लिखे समझदार हो, फिर भी ऐसी बात कहते हो। जबकि ये दो बातें एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं, पढ़ा-लिखा होना और समझदार होना इनका कोई रिश्ता नहीं है। आज जब लोग अपने बच्चों को यह दुआ देते दिखते हैं कि खूब पढ़ो-लिखो, खूब कामयाब बनो, तो थोड़ी सी हैरानी भी होती है कि क्या समझदारी की बात यह नहीं हुई होती कि खूब समझदार बनो, खूब अच्छे इंसान बनो?
ज्ञान को नापना-तौलना कुछ आसान है। लोग किसी के बारे में उसका ज्ञान बताते हुए आसानी से गिना सकते हैं कि उसने कौन-कौन सी डिग्रियां हासिल की हैं। हिन्दुस्तान के एक नेता श्रीकांत जिचकर के बारे में कहा जाता है कि वे देश में सबसे अधिक डिग्रियां पाने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने विश्वविद्यालयों की 42 परीक्षाओं में शामिल होकर 20 डिग्रियां हासिल की थी, और देश में सबसे कमउम्र, 26 बरस में विधायक बनने वाले व्यक्ति थे। उनकी डिग्रियों की लंबी लिस्ट देखने लायक है। ज्ञान का ऐसा मूर्त रूप होता है कि उसे गिना, नापा, तौला जा सकता है। दूसरी तरफ समझ एक अमूर्त चीज होती है। लोगों को यह आसानी से पता ही नहीं चलता कि दूसरे कौन लोग कितने समझदार हैं, या खुद कितने नासमझ हैं। इसलिए यूनिवर्सिटी की डिग्री का महत्व अधिक मान लिया जाता है क्योंकि वह आंखों से दिखती है, लेकिन लोगों की समझदारी का महत्व नहीं माना जाता क्योंकि वह आंखों से परे की बात रहती है।
आज ज्ञान-विज्ञान छलांग लगा-लगाकर आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन लोगों की समझ, लोगों के सरोकार, अंग्रेजी में कहें तो लोगों की विज्डम की रफ्तार बड़ी धीमी है, इससे होता यह है कि जिस तरह किसी नौसिखिए मोटरसाइकिल-चालक के हाथ अंधाधुंध रफ्तार की मोटरसाइकिल लग जाए और उसे अंधाधुंध ट्रैफिक के बीच चलाना पड़े, उसी तरह ज्ञान-विज्ञान के औजार-हथियार इतनी तेजी से आ रहे हैं कि उन्हें इस्तेमाल करना सीखने का भी मौका लोगों के पास नहीं है। नतीजा यह है कि समझ ज्ञान से 20 स्टेशन पीछे चल रही है। एक और अजीब सी दिक्कत यह भी है कि अंग्रेजी की कई डिक्शनरियों में विज्डम की परिभाषा में ज्ञान को भी जोड़ लिया गया है, और कई लोग इन दोनों को एक-दूसरे का विकल्प इसलिए भी मान बैठते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यूं तो सुशांत राजपूत की मौत के मामले में लोगों का पढऩे का बर्दाश्त खत्म हो चुका होगा, और हम इस मौत के बारे में लिख भी नहीं रहे, लेकिन इस मौत से जुड़े हुए जो इंसानी मिजाज सामने आ रहे हैं, हम उनके बारे में लिखना चाहते हैं जो कि किसी और केस में भी सामने आ सकते हैं। एक कामयाब सितारे की भूतपूर्व दोस्त या प्रेमिका, उसकी ताजा प्रेमिका, आसपास के लोग, और नाहक ही बदनाम किए जाने वाले गिद्धों की तरह मंडराने वाला मीडिया। इन सबको देखें तो लगता है कि लोगों को किसी प्रेमसंबंध में पडऩे के पहले, या किसी से दोस्ती करने के पहले बहुत सी बातों के बारे में सोचना चाहिए। वक्त निकल जाता है लेकिन बीते वक्त में दर्ज बातें टेलीफोन और कम्प्यूटर के तरह-तरह के रिकॉर्ड से कहीं नहीं निकल पातीं, और आगे चलकर वे सुबूत भी बन जाती हैं, और बदनामी की जड़ भी।
सुशांत राजपूत के मामले को देखें, या इस किस्म के और बहुत से दूसरे चर्चित मामलों को देखें, तो यह समझ पड़ता है कि लोग अच्छे वक्त अपने करीबी लोगों पर भरोसा करके उनके साथ जिन बातों को बांटते हैं, वे बातें उन लोगों के चाहे-अनचाहे किसी भी दिन जांच एजेंसियों के हाथ लग सकती हैं, मीडिया के हाथ लग सकती हैं, और वे खुद भी दूसरे लोगों को इन्हें बांट सकते हैं। इसलिए अंतरंगता के दौर में अपनी नाजुक और कमजोर बातों को दूसरों के साथ बांटने के पहले सुशांत की मौत के मामले में जांच एजेंसी से निकलकर फैलने वाली बातों को भी देख लेना चाहिए, और टीवी पर इंटरव्यू देने के लिए बेताब करीबी लोगों को भी सुन लेना चाहिए।
यह मौत बताती है कि किस तरह महीनों और सालों पहले के गड़े मुर्दों को उखाड़ा जा रहा है, और उखाड़ा जा सकता है। मीडिया आज उत्तरप्रदेश में इस कहानी की किरदार एक युवती के स्कूल तक पहुंच रहा है, और सुशांत की स्कूल तक भी जा रहा है। पिछले साल-छह महीने की घटनाओं से उपजी यह मौत आज जिंदगी की उतनी पुरानी कब्रों को भी खोद रही है। लोगों के फोन को जांच एजेंसियां परख रही हैं, और देश के कड़े कानून के मुताबिक महज सुबूत जुटाने के लिए, सुराग पाने के लिए कॉल रिकॉर्ड और मैसेज देखे जा सकते हैं, लेकिन आज तो जांच किसी किनारे पहुंची नहीं है, और इस मौत से जुड़े तमाम लोगों के एक-एक संदेश मीडिया में छप रहे हैं। एक बार कोई चर्चित हो जाए तो उसकी जिंदगी की निजता तो खत्म कर ही दी जाती है, उसके आसपास के लोगों के साथ भी यह सुलूक होता है। इसलिए चर्चित, या गैरचर्चित, आप जैसे भी हों, आपके आसपास के लोग जैसे भी हों, उनसे कुछ भी बांटते हुए यह कल्पना कर देखें कि वे बातें अगर पोस्टर बनकर सडक़ किनारे की दीवारों पर चिपक जाएंगी, तो आपका सुकून कितना बचेगा, कितना बर्बाद होगा।
आज अगर कोई सभ्य या विकसित देश होता जहां देश के कानून की इज्जत होती, तो वहां यह सवाल भी उठता कि सुशांत के करीबी लोगों के दूसरे परिचित लोगों की जिंदगी की निजता को खत्म करने का हक जांच एजेंसियों को किसने दिया है, और मीडिया को किसने दिया है। आज ही एक दूसरी खबर यह कहती है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एनआईए के एक भूतपूर्व अफसर के खिलाफ जुर्म दर्ज हुआ है क्योंकि उसने अपने कामकाज के दौरान किसी भी केस से संबंध न रखने वाले किसी फोन नंबर के कॉल डिटेल्स निकलवाए थे जो कि कानून के तहत जुर्म है। आज जब यह खबर छप रही है उसी वक्त सुशांत राजपूत की मौत की जांच करती सीबीआई के अफसरों के नाम से मीडिया में ऐसे सवालों की लिस्ट छप रही है कि सीबीआई ने सुशांत की करीबी रही एक अभिनेत्री से क्या-क्या सवाल किए। एक बहुत बड़े मीडिया संस्थान के टीवी की आज की ही सुर्खी उसकी वेबसाईट पर टंगी है कि सीबीआई के किस सवाल से इस अभिनेत्री के माथे पर पसीना छलक आया! अब क्या सीबीआई चौराहे या फुटपाथ पर टीवी कैमरों के सामने पूछताछ कर रही है जिसमें सवाल से माथे पर आने वाले पसीने के दर्शन हो रहे हैं? यह पूरा सिलसिला बहुत ही घातक है। सार्वजनिक जीवन के चर्चित लोग कुछ सीमा तक तो अपनी निजता खो बैठते हैं, लेकिन उनके आसपास के लोग, और इन लोगों के पास-दूर के लोग, जितने लोगों की निजता खत्म हो रही है, वह पूरी तरह से गैरकानूनी काम है, जुर्म है, और हमारी समझ से अदालत उस पर सजा भी दे सकती है।
इस मामले से जुड़े हुए जो कई पहलू आज फिर इस पर लिखने को बेबस कर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा तो निजी संबंधों में राज बांटने का है। लोगों को इस मामले का हाल देखकर यह समझ लेना चाहिए कि उनका क्या हाल हो सकता है, उनके आसपास के लोगों का क्या हाल सकता है, अगर वे किसी जांच के घेरे के आसपास कुछ मील की दूरी तक भी दिखेंगे। यह सिलसिला खुद जांच एजेंसियों के सोचने का है कि उनके हवाले से किस तरह के राज छप रहे हैं, अगर वे सच हैं तो भी फिक्र की बात है क्योंकि किसी की निजी जिंदगी का भांडाफोड़ करने का हक कानून भी सीबीआई को नहीं देता। आज एनआईए के रिटायर्ड अफसर के खिलाफ जिस तरह का जुर्म दर्ज हुआ है, उसे भी जांच अफसरों को याद रखना चाहिए। मीडिया को भी यह सोचने की जरूरत है कि देश की प्रेस कौंसिल ने कल एक लंबा बयान जारी करके मौत के इस चर्चित मामले के कवरेज को लेकर मीडिया को उसकी जिम्मेदारी, और उसकी सीमाएं याद दिलाई हैं।
हम इस मौत पर कुछ भी लिखना नहीं चाहते, लेकिन इस मौत से जो सवाल उठ रहे हैं, उन सवालों की चर्चा इसलिए जरूरी है कि इनमें से एक या कई सवाल बहुत से दूसरे मामलों को लेकर भी उठने की नौबत आ सकती है, और वह न आए तो बेहतर होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश की एक ताजा घटना अभी एक टीवी चैनल के वेबसाईट पर पढऩे मिली जिसमें वॉट्सऐप पर हुई गोष्ठी के चलते एक मुस्लिम युवती अपने वॉट्सऐप-प्रेमी से शादी करने के लिए तीन सौ किलोमीटर अकेले सफर करके उसके घर पहुंच गई, और वहां जाकर उसे पता लगा कि वह लडक़ा तो उससे पांच बरस छोटा है, और नाबालिग है। उसकी बहुत सी तस्वीरें भी इस वेबसाईट पर आई हैं जिनमें वह एकदम गरीब इस परिवार के घर के बाहर खाट पर डेरा डालकर बैठ गई है, और वह अपने इस फेसबुक-प्रेमी के बड़े भाई से भी शादी करने को तैयार है, इस्लाम छोडक़र हिन्दू बनने को तैयार है लेकिन वह अपने घर जाना नहीं चाहती क्योंकि वहां सौतेली मां है जो उसे प्रताडि़त करती है।
एलएलबी कर रही एक युवती की यह कहानी हैरान करती है, और दिल भी दहलाती है कि लोग बिना कुछ देखे-समझे, बिना किसी जानकारी के किस तरह पूरी जिंदगी किसी के साथ गुजारने के लिए न सिर्फ तैयार हो जाते हैं बल्कि आमादा भी हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर होने वाले रिश्तों की कहानी आसानी से मैसेंजर सर्विसों तक पहुंच जाती है, और फिर फोटो-वीडियो का लेन-देन हो जाता है, अंतरंग पलों की रिकॉर्डिंग हो जाती है, और अनगिनत मामलों में ब्लैकमेल की नौबत आ जाती है, हत्या या आत्महत्या हो जाती है। इस नौबत को देखकर यह समझना जरूरी है कि ऐसा लापरवाह मिजाज आखिर होता कैसे है?
हिन्दुस्तान में तो एक बहुत बड़ी वजह यह है कि देश के बहुत बड़े हिस्से में अभी भी जवान लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना बहुत आसान नहीं है। महानगरों, और दूसरे शहरों तक तो लडक़े-लड़कियां मिल लेते हैं, लेकिन जहां बात छोटे शहरों या कस्बों की आती है, तो बेचैन और बेकरार दिल इसी तरह टेलीफोन और इंटरनेट के सहारे जीते हैं, और जब ऐसा जीना मुमकिन नहीं रह जाता तो साथ मर जाते हैं। इंटरनेट की दोस्ती कब मोहब्बत में तब्दील हो जाती है, और कब जिंदगी के राज, जिंदगी के नाजुक पल दूसरे के साथ बंटना शुरू हो जाते हैं, वह भी पता नहीं चलता। जिस तरह एक पहाड़ी नदी ऊंचाई से नीचे पहुंचते हुए चट्टानों से टकराते बेतहाशा रफ्तार पकड़ लेती है, कुछ वैसी ही बात ताजा-ताजा मोहब्बत के साथ होती है, आंखें और अक्ल दोनों बंद हो जाते हैं, किसी बुरे वक्त के बारे में सोचना बंद हो जाता है, और लोग मोबाइल-कैमरों के सामने तन-मन खोलकर बैठ जाते हैं, और हत्या-आत्महत्या की नौबत का सामान बन जाते हैं। यह पूरा सिलसिला टेक्नालॉजी का मामला तो कम है, समाज में लोगों के मिलने-जुलने पर जो रोक-टोक है, उससे उपजा हुआ अधिक है।
दुनिया के जिन देशों में हमउम्र लोगों के साथ उठने-बैठने पर, साथ रहने पर, साथ जीने और घूमने पर रोक नहीं रहती है, वहां इस किस्म की नौबत कम आती है, या हो सकता है कि न भी आती हो। जहां लोगों को अपनी पसंद के जीवन-साथी के साथ रहने मिलता है, वहां शायद इस किस्म की अपरिपक्व हरकत भी कम होती होगी। लेकिन हिन्दुस्तान ऐसा देश है जहां ऑनरकिलिंग के नाम पर अपने ही बच्चों को उनके प्रेमी-प्रेमिका के साथ सार्वजनिक रूप से मार डालकर लोग फख्र महसूस करते हैं कि उन्होंने खानदान की इज्जत बरकरार रखी। हिन्दी फिल्में भी ऐसे तानाशाह, अकबर-मिजाजी जल्लाद बाप की कहानियों से भरी रहती हैं जिनमें बच्चों को मर्जी से जीने नहीं दिया जाता। फिल्में समाज से प्रेरित होकर बनती है, और समाज फिल्मों से प्रेरित होता है, और मां-बाप ऐसे ही फिल्मी किरदार बनने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं जो नापसंद बहू को घर से निकाल दें, या नापसंद दामाद को बेटी सहित मार ही डालें।
हिन्दुस्तान में नौजवान पीढ़ी इस कदर भड़ास में जीती है कि जिसकी कोई हद नहीं। लडक़े-लड़कियों का साथ पढऩा मुश्किल, साथ घूमना-फिरना मुश्किल, मां-बाप टेलीफोन तक की जासूसी पर उतारू, वेलेंटाइन डे या फ्रेंडशिप डे पर धर्मान्ध साम्प्रदायिक संगठन बाग-बगीचों में पीटने को तैयार, और वहां मौजूद पुलिस वहां से भगाने को तैयार। कुल मिलाकर देश का माहौल जवान हसरतों को जिंदा रहने देने के बहुत ही खिलाफ है। लोग अपने बच्चों के लिए कॉलेज पहुंच जाने पर भी आगे की पढ़ाई तय करते हैं, उनके टी-शर्ट का रंग पसंद करते हैं, लड़कियों के घर आने-जाने का वक्त एक कडक़ चौकीदार की तरह तय करते हैं। ये ही तमाम वजहें हैं कि अपने घर से थके हुए लडक़े-लड़कियां आपा खोकर फैसला लेते हैं, कहीं किसी के साथ जीने के लिए चले जाते हैं, तो कहीं किसी के साथ मरने के लिए।
हम इस मुद्दे पर लिख तो रहे हैं, लेकिन इसका कोई आसान इलाज हमारे पास नहीं है। फिर यह भी समझने की जरूरत है कि यह बात महज नौजवान पीढ़ी तक सीमित नहीं है, हर दिन ऐसी कई खबरें रहती हैं जिनमें शादीशुदा लोग भी जीवन-साथी से परे किसी और के साथ रिश्ता शुरू कर लेते हैं, बातचीत फेसबुक से शुरू होती है, और बाद में उन्हें किसी बंद कमरे से पीट-पीटकर निकालते हुए वीडियो चारों तरफ फैलते हैं। हिन्दुस्तानी अधेड़ लोगों ने भी फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के रास्ते घर बैठे ऐसे संबंध बनने की बात कभी सोची नहीं थी, समाज में ऐसा कुछ आसान नहीं था, और आजकल अपने जीवन-साथी से थके हुए या निराश लोग बड़ी संख्या में ऐसे ऑनलाईन रिश्तों में पड़ जाते हैं क्योंकि ऑनलाईन एक-दूसरे की खूबियां ही खूबियां दिखती हैं, खामियां तो लोग मामूली समझदारी से ही छुपाए रख जाते हैं।
अब एलएलबी की एक छात्रा अपना परिवार और अपना धर्म छोडक़र महज वॉट्सऐप-दोस्ती के रास्ते एक अनजान परिवार में शादी के लिए पहुंच जाती है, और प्रेमी के नाबालिग निकलने पर उसके भाई से भी शादी करके वहीं रहना चाहती है। यह सिलसिला भयानक है, नौजवान पीढ़ी को अधिक परिपक्व होने की जरूरत है, और उनके मां-बाप को, उनके भाई-बहनों को यह समझ आना जरूरी है कि लोग अपनी मर्जी से भी जीना चाहते हैं। प्रेम-संबंधों में नाकामयाब होने पर अनगिनत हत्या-आत्महत्या होती हैं, और प्रेम कामयाब रहने पर भी अगर उसके शादी में बदलने में कामयाबी नहीं मिलती, तो भी ऐसी ही किस्म की हिंसा होती है। इस देश के समाज को सार्वजनिक परामर्श की जरूरत है, पूरी की पूरी आबादी को अगली पीढ़ी के हक की इज्जत करना सिखाने की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं होगा, नई पीढ़ी घुट-घुटकर जिएगी, और घुट-घुटकर ही मर जाएगी। समाज की ऐसी सोच के खिलाफ लोगों को खुलकर सार्वजनिक बातचीत करनी चाहिए।
हिन्दुस्तान का मीडिया और सोशल मीडिया दोनों अलग-अलग, और मिलकर भी विजय तेंदुलकर का एक नाटक खेल रहे हैं, शांतता कोर्ट चालू आहे। कई दशक पहले यह नाटक खूब खेला जाता था, और उसकी जितनी सीमित याद अभी है, उसके मुताबिक किसी जगह एक रात फंस जाने, और वक्त गुजारने को मजबूर लोगों की एक टोली एक खेल खेलती है। एक अदालत का सीन गढ़ा जाता है जिसमें कोई जज, कोई वकील, और कोई आरोपी बन जाते हैं। एक महिला को आरोपी बनाया जाता है, और उसके बाद उसके खिलाफ केस साबित करने के नाटक में वकील बना व्यक्ति, और शायद गवाह भी अपने मन की सारी भड़ास, अपनी सारी कुंठाएं उसके खिलाफ निकालते हैं, और उसे बदचलन साबित करने की कोशिश करते हैं। खेल-खेल में खेला गया यह नाटक उस महिला को कटघरे में तोड़ देता है। विजय तेंदुलकर के लिखे इस नाटक का बस इतना ही जिक्र यहां काफी है।
हिन्दुस्तान इन दिनों जिस अकेले नाटक को खेल रहा है, सुशांत राजपूत की मौत नाम का यह नाटक अंतहीन चल रहा है। देश के मीडिया को इसमें एक रोजगार मिल गया है, जिंदा रहने का एक रास्ता मिल गया है, देश की तमाम कुंठाग्रस्त आबादी, सेक्सवंचित लोगों को यह मुद्दा मिल गया है जिसमें यह एक खूबसूरत और मादक अभिनेत्री को प्यार, सेक्स, और बेवफाई के साथ-साथ मौत से रिश्ते के जुर्म में भी घेर पा रहे हैं। मीडिया के हमलावर तेवर इस हद तक चले गए हैं कि इस अभिनेत्री की इमारत में कहीं खाना पहुंचाने आए कूरियर एजेंसी के लडक़े को 15 टीवी कैमरे घेरे हुए हैं, और उससे उसका नाम जानना चाहते हैं, यह जानना चाहते हैं कि उस अभिनेत्री ने खाने क्या बुलाया है, और वह लडक़ा कहे जा रहा है कि वह जानता भी नहीं है कि वे किसके बारे में पूछ रहे हैं। टीवी-मीडिया का यह हमलावर दस्ता उस अभिनेत्री को खलनायिका साबित करने को एक राष्ट्रवादी कर्तव्य मानकर, बिहार के आने वाले चुनाव में मृतक अभिनेता को शहीद का दर्जा दिलाने के तेवरों के साथ इमारतों के बाहर टूटा पड़ा है, और स्टूडियो तो कहीं इस अभिनेत्री को काला जादू करने वाली साबित कर रहे हैं, तो कहीं बदचलन, कहीं बेवफा, कहीं हत्यारी, कहीं नशे की सौदागर, और कहीं अंडरवल्र्ड की हसीना, डॉन की साथी वगैरह-वगैरह।
और लोग विजय तेंदुलकर का नाटक असल जिंदगी में कैसे न खेलें? मुम्बई में एक फिल्म अभिनेता की मौत, जो कि पहली नजर में खुदकुशी लगती है, उसका किस्सा बढ़ते-बढ़ते हत्या की कहानी तक पहुंच गया, और फिर मृतक अभिनेता के गृहराज्य बिहार के पुलिस प्रमुख जिस अंदाज में महाराष्ट्र की पुलिस पर तोहमत लगा रहे हैं, वैसा तो शायद इस देश में इसके पहले कभी न हुआ हो, और इन दोनों प्रदेशों के बीच में दो बड़े-बड़े प्रदेश और न हुए होते, तो हो सकता है कि दोनों के बीच जंग छिड़ गई होती, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की तरह। जिस अंदाज में बिहार के डीजीपी एक अभिनेत्री के बारे में सार्वजनिक रूप से यह कहते कैमरे पर दिखे कि उसकी औकात क्या है कि वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर कोई टिप्पणी करे, वह रूख भी लोकतांत्रिक भारत के किसी राज्य के पुलिस प्रमुख का न होकर विजय तेंदुलकर के नाटक के एक किरदार का था।
बॉलीवुड की किसी फिल्मी कहानी को भी फीका साबित करने वाली यह कहानी अनायास ही गढ़ गई हो, ऐसा तो नहीं लगता है। इस आजाद हिन्दुस्तान का इतना विशाल मीडिया जब इतने धार्मिक समर्पण के साथ एक मौत के पीछे की वजहें ढूंढने के बजाय, एक सेक्सी अभिनेत्री को कातिल, ड्रग डीलर, और भी जानें क्या-क्या साबित करने पर उतारू हो गया है, तो आज देश के नाजुक हालात के साथ मिलाकर इस मीडिया-रूख को समझने की जरूरत है। आज बिहार बाढ़ में डूबा हुआ है, दसियों लाख लोग बेघर हैं, देश कोरोना की मार से कराहता हुआ सरकारी अनाज की मदद पर बस जिंदा ही है, उससे अधिक कुछ नहीं, तो ऐसे में देश की बदहाली को ढांकने के लिए एक गोरी-सेक्सी अभिनेत्री की खाल उतारकर उससे देश की दिक्कतों को ढांक दिया गया है। क्या इतना सब कुछ अनायास और मासूम हो सकता है? हमारे पास इसके मासूम न होने के कोई सुबूत तो नहीं है, लेकिन ऐसा समझने की एक मामूली समझ जरूर है।
सेक्स से वंचित, उस भूख की वजह से कुंठित, और एक मादक महिला पर हमले के लिए मत चूको चौहान के ऐतिहासिक अंदाज में टूट पडऩे को आमादा हिन्दुस्तानियों से अधिक उपजाऊ जमीन ऐसी किसी कहानी के लिए और भला क्या हो सकती थी? नतीजा यह है कि जिस तरह झारखंड और छत्तीसगढ़ में किसी अकेली, बेसहारा, कमजोर महिला को घेरकर, उसे बदनीयत से टोनही या जादूगरनी करार देकर उसका कत्ल कर दिया जाता है, आज कुछ वैसी ही भीड़त्या का माहौल इस एक अभिनेत्री के खिलाफ बना दिया गया है। लोगों का, और सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे समझदार दिखते चले आ रहे लोगों का रूख यह है कि कल जब एक समाचार चैनल ने इस अभिनेत्री को इंटरव्यू किया, उसका पक्ष जाना, उसकी बातें दिखाईं जिनमें वह यह भी कह रही है कि उसे लग रहा है कि वह आत्महत्या कर ले, तो इस टीवी चैनल के खिलाफ सोशल मीडिया पर लोगों का एक बहुत बड़ा हिस्सा टूट पड़ा है। उस चैनल से पूछा जा रहा है कि वह कितने में बिका, जिस टीवी-जर्नलिस्ट ने इस अभिनेत्री से बात की, उसे गालियां दी जा रही हैं, उसे भड़वा कहा जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि जिसके खिलाफ हफ्तों या महीनों से हर गंदी तोहमत लगाई जा रही है, क्या उसकी बात को सामने रखना गुनाह हो गया? उसकी बात तमाम तोहमतों पर सवाल खड़ा करती है, क्या इसीलिए वे बातें लोगों को अब सुनना भी बर्दाश्त नहीं है? क्या लोग अब शांतता कोर्ट चालू आहे की उस रात की तरह बस एक महिला के चरित्र पर अंतहीन हमले ही जारी रखना चाहते हैं? यह पूरा सिलसिला जो कल तक मीडिया के खिलाफ लिखने की वजह लग रहा था, आज उसके साथ-साथ एक और बड़ी वजह लिखने की यह बनी है कि तोहमतों से जख्मी किसी युवती की कराह सुनना भी क्या अब इस देश के लोगों को मंजूर नहीं है? यह अभिनेत्री अगर इस सिलसिले में तीसरी खुदकुशी बनती है, तो उसकी जिम्मेदारी मीडिया पर रहेगी, सोशल मीडिया पर रहेगी, या उसकी औकात गिनाने वाले एक सरकारी वर्दीधारी आईपीएस पर रहेगी, किस पर रहेगी?
हिन्दुस्तान का लोकतंत्र भेडिय़ों के एक झुंड सरीखा हो गया है, इसे गोश्त से भरा कोई बदन दिखा, तो यह उस पर टूट पड़ा। ऐसा लगता है कि सेक्स से भूखे इस देश में चूंकि 99.99 फीसदी मर्दों को ऐसी खूबसूरत युवती नसीब नहीं हो सकती, इसलिए उनके बागी तेवरों और तोहमतों के लिए मानो यह भी एक काफी वजह है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र से और परे जाकर देखें तो हिन्दुस्तानी समाज के भीतर की वह आदिम और हिंसक सोच आज पूरे हमलावर तेवरों के साथ ओवरटाईम कर रही है जो कि लोकतंत्र के हजारों बरस पहले थी, और आज लोकतंत्र को किनारे धकेलकर भीड़ की शक्ल में इस युवती को घेरना चाहती है, उसकी देह का एक हिस्सा चाहती है।
हाल के बरसों में किसी एक मामले में हिन्दुस्तान के लोगों के हिंसक मिजाज को इस हद तक उजागर किया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। अगर मीडिया, और सोशल मीडिया पर भाड़े के सैनिक देश को सोते-जागते इसी एक सेक्स-क्राईम थ्रिलर में बांधे रखना चाहते हैं, तो देश के असल मुद्दों से ध्यान हटाने की यह एक बड़ी कामयाब तरकीब रही है। बेरोजगार, बाढ़ से बेघर, भूखी देह इसके मुकाबले भला किसका ध्यान खींच सकती है? और एक बार सेक्स और क्राईम का यह नॉनस्टॉप सीरियल शुरू हो गया है तो देश में किसी इस बात की परवाह है कि वह डूबे बिहार के सुशासन बाबू को उनका जिम्मा याद दिला सके, उनकी देहरी पर तो एक वर्दीधारी, सबसे अधिक सितारों वाली वर्दी में उनका अफसर बाकी हिन्दुस्तान को औकात गिनाते खड़ा ही है। उधर ऊपर आसमान के और ऊपर विजय तेंदुलकर की आत्मा यह देखकर हैरान होगी कि किस तरह हिन्दुस्तान, पूरे का पूरा हिन्दुस्तान उनके शांतता कोर्ट चालू आहे का मंच बन गया है! (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत सरकार जिस तरह से बड़े कॉलेजों में दाखिले के इम्तिहान लेने पर अड़ी हुई है, और उसे उसकी जिद पर सुप्रीम कोर्ट का साथ भी मिल गया है, वह देश के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है। कोरोना-महामारी का पूरा असर पहले कभी किसी का देखा हुआ नहीं है इसलिए खतरे का अंदाज लगा पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है, सुप्रीम कोर्ट के लिए भी नहीं। इस खतरे का अहसास कराने के लिए कुछ छात्रों का यह कहना काफी होना चाहिए कि मां-बाप बड़ी बीमारियों के मरीज हैं, संक्रमण का खतरा उठाते हुए वे कैसे इम्तिहान देने जाएं?
कोरोना के खतरे ने इस देश और इसके प्रदेशों को दाखिला-इम्तिहान जैसे तरीके के बारे में एक बार और सोचने का मौका भी दिया है। छत्तीसगढ़ सरकार इस बरस बी.एड. जैसे कड़े दाखिला-इम्तिहान की जगह ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट इम्तिहानों में मिले नंबरों के आधार पर दाखिला देने की सोच रही है। देश को यह भी सोचना चाहिए कि आज बड़े कॉलेजों की हर दाखिला-परीक्षा की तैयारी के लिए देश में ऐसे कारखाने चल रहे हैं जहां आबादी के सबसे ऊंचे एक चौथाई लोग ही अपने बच्चों को भेज पाते हैं। बाकी तीन चौथाई की तो ऐसे मुकाबलों में संभावना ही नहीं रहती क्योंकि वे बराबरी की तैयारी की सरहद तक भी नहीं पहुंच पाते।
लोगों को याद होगा कि जब कोरोना का हमला हुआ तो राजस्थान के कोटा शहर में दाखिलों की तैयारी के कारखानों में किस तरह लाखों बच्चे थे और उन्हें राज्य सरकारों ने घर वापिस लाने के इंतजाम किए थे। हर बरस के दाखिला-इम्तिहान देश में सामाजिक असमानता की खाई को और गहरा, और चौड़ा कर देते हैं। और यह खाई महज एक पीढ़ी तक नहीं रह जाती, वह आने वाली तमाम पीढिय़ों के लिए हो जाती है। कोरोना ने एक मौका दिया है कि बड़े कॉलेजों, या बाकी कॉलेजों में भी दाखिले के तरीकों के बारे में फिर सोचा जाए। अभूतपूर्व हालात अभूतपूर्व तरीकों को भी पैदा करते हैं।
जानकार लोगों को एक ऐसा तरीका निकालना चाहिए कि स्कूली इम्तिहानों से लेकर कॉलेज के इम्तिहानों तक के चुनिंदा नंबरों को भी आगे के दाखिलों और नौकरियों में वजन मिले। यह महत्व मिले बिना पढ़ाई का महत्व खत्म हो चुका है और बस दाखिला-इम्तिहानों की ही अहमियत रह गई है। यह बात हिंदुस्तान को दुनिया के समझदार देशों के मुकाबिले हमेशा ही बहुत पीछे रखेगी। अगर स्कूलों के कुछ चुनिंदा बोर्ड इम्तिहानों और कॉलेज इम्तिहानों के औसत नंबरों को आगे दाखिले-नौकरी की पूर्व शर्त रखा जाए तो बच्चों की पढ़ाई की तरफ वापिसी हो सकती है।
फिलहाल आज की बात करें तो देश का माहौल बिल्कुल भी इन परीक्षाओं के लायक नहीं है। यह सामान्य जिंदगी नहीं है कि इतना बड़ा इंतजाम किया जा सके, और उससे संक्रमण न फैले। कल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने और साथी मुख्यमंत्रियों के साथ यह सही पहल की है। बाकी राजनीतिक दलों को भी इस बारे में सोचना चाहिए। यह सबकी राजनीतिक जिम्मेदारी का वक्त है। आज जो पार्टी जलते-सुलगते मुद्दों पर चुप रह जाएंगी वो इतिहास में गैरजिम्मेदार दर्ज होगी। आज की महामारी ने देश को जिस हद तक बर्बाद किया है, उसे और अधिक बढऩे देने के खतरे वाला कोई भी गैरजिम्मेदाराना काम नहीं करना चाहिए। कोरोना का टीका आने, सबको लगने में हो सकता है कि एक-दो और पन्द्रह अगस्त निकल जाए। टीके के लोकार्पण की जो हड़बड़ी आईसीएमआर दिखा रहा था, वह हड़बड़ी पढ़ाई के लिए दिखाना ठीक नहीं है। भारत की सबसे बड़ी चिकित्सा विज्ञान संस्था अपने फर्जी दावे के साथ जिस तरह औंधे मुंह गिरी है, वह नौबत भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की नहीं होनी चाहिए। नाजुक मौके के बीच ऐसी दाखिल परीक्षा से दसियों लाख छात्र-छात्राएं और उनके परिवारों के करोड़ों लोग एक गैरजरूरी और भयानक खतरे में पड़ेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
रोज सुबह से कचरा ले जाने के लिए गाड़ी आती है, और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की तरह देश के और भी बहुत से शहरों में कचरा बाहर लाने के लिए गाना बजाती होगी। सामाजिक सरोकार रखने वाले कुछ जिम्मेदार लोगों ने ऐसे कार्टून बनाए और अपने बच्चों को समझाते भी हैं कि वे कचरे वाले नहीं हैं, वे सफाई वाले हैं, कचरे वाले तो लोग हैं जिनके घरों में इतना कचरा पैदा होता है कि जिसे ले जाने के लिए गाडिय़ों को दिन में कई फेरे लगाने पड़ते हैं।
अभी जब पिछले कुछ महीनों में लोगों के घरों में काम करने वाले कम रहे या नहीं रहे, तो उन्हें कचरे की बाल्टियां ले जाकर बाहर रखनी पड़ीं, और खाली बाल्टियां वापिस लानी पड़ीं। इतने में ही लोगों के होश उड़ गए कि इन बाल्टियों से कैसी बदबू आती है, और इनमें कहीं चीटियां भर जाती हैं, तो कहीं दूसरे कीड़े। अब उन लोगों की कल्पना करें जो दिन में कम से कम आठ घंटे ऐसी ही बाल्टियों को उठा-उठाकर कचरे की गाडिय़ों में पलटते हैं, अपने सिर से ऊपर तक उठाते हैं, और बाल्टियां वापिस गेट पर छोडक़र जाते हैं। बारिश के दिनों में इन बाल्टियों में पानी भर जाता है, और जब कचरा-गाड़ीवाले इन्हें पलटते हैं तो उनके ऊपर यह पानी गिरते भी रहता है।
यह तो फिर भी ठीक है, लेकिन शहरों में गटर सफाई करने वाले लोगों को जिस तरह गटर में उतरना पड़ता है, और कीचड़ के पानी में डुबकी लगाकर फंसे हुए कचरे को निकालना पड़ता है, उस जिंदगी की कल्पना करना भी उस तबके के बाहर के लोगों के लिए नामुमकिन है। और यह तबका हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म के भीतर सबसे ही हिकारत और नफरत के लायक माना गया दलित तबका है, दलितों में भी और नीचे के दलित जिन्हें कि सफाई के अलावा और किसी काम के लायक माना नहीं गया है।
अब पल भर के लिए कल्पना करें कि हिकारत के लायक समझी जाने वाली, अछूत मानी जाने वाली यह जाति खत्म हो जाए। लोगों के घरों का कचरा तो खत्म नहीं होगा, लोगों के मुहल्लों और शहरों की नालियां, उनके गटर तो खत्म नहीं होंगे, फिर क्या होगा? अगर तमाम दलित यह तय कर लें कि सफाई के जिस काम की वजह से उन्हें अछूत माना जाता है वह काम करना ही नहीं है, तो सफाईकर्मियों की ऐसी जातियां तो मेहनत का कोई दूसरा काम एक बार कर भी लेंगी, शर्तियां ही कर लेंगी, लेकिन लोग अपने कचरे और अपनी फंसी हुई नालियों का क्या करेंगे? उनका काम तो कचरा पैदा करने वाले लोगों, उनसे ऊंची जातियों के लोगों के बिना एक बार चल जाएगा, वे तो मनरेगा जैसी किसी सरकारी योजना में मिट्टी भी खोद लेंगे जो कि कचरा और गटर के मुकाबले बेहतर काम होगा, लेकिन बाकी हिन्दुस्तानी क्या करेंगे? वे अपना कचरा लेकर कहां जाएंगे? और घरों में, इमारतों में पखाने की टंकियां भर जाएंगी, तो क्या होगा? अलग-अलग इलाकों में गटर का पानी सडक़ों पर फैल जाएगा तो क्या होगा?
ऐसी नौबत के बारे में कुछ देर सोचना चाहिए, फिर गटर में काम करने वाले लोगों के हाल पर भी सोचना चाहिए, और फिर यह सोचना चाहिए कि उन्हें खुद यह काम करना पड़ा तो वे क्या कर पाएंगे? यह पूरा सिलसिला अब उन दिनों का नहीं रह गया है जब गंदगी साफ करने वाले लोगों के बिना भी ऊंची मानी जाने वाली जातियों के लोग पखाने के लिए गांव के बाहर खेत चले जाते थे, और नालियां खुली रहती थीं, गटर रहते नहीं थे, न पखाने होते थे न उनकी टंकियां। उन दिनों वैसे में तो सफाईकर्मियों के बिना काम चल जाता था, लेकिन अब क्या होगा? क्या सफाईकर्मियों के ऐसे मजबूत संगठन बन सकते हैं जो कि अपनी खतरनाक नौबत के मुताबिक अधिक मेहनताना और अधिक मुआवजा मांग सकें? और फिर इस बात का मुआवजा भी मांग सकें कि समाज की गंदगी को ढोने की वजह से उन्हें जिस सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, उसके लिए भी तो गंदगी पैदा करने वाला समाज कुछ दे।
लेकिन जाति व्यवस्था और समाज व्यवस्था से परे भी एक बात समझने की जरूरत है। आज शहरों में, और खासकर संपन्न लोगों में जिस बड़े पैमाने पर कचरा पैदा किया जा रहा है, क्या उससे निपटना हमेशा के लिए मुमकिन हो पाएगा? आज छोटे-छोटे से सामान भी ऑनलाईन ऑर्डर करके बुलाए जा रहे हैं, और वे भारी-भरकम पैकिंग के भीतर आ रहे हैं। क्या इतनी पैकिंग के निपटारे के लिए कोई शहरी ढांचा बना हुआ है, या इतनी पैकिंग बनाने के लिए भी धरती पर काफी पेड़ हैं? ये तमाम बातें सोचना इसलिए जरूरी है कि कुछ लोगों को यह भी लग रहा है कि ऑनलाईन खरीदी से लोगों का बाजार जाना कम हो रहा है, और ईंधन बच रहा है, उसका प्रदूषण बच रहा है। हमारे पास अभी कोई वैज्ञानिक आंकड़े इस बात के नहीं हैं कि ईंधन कितना बच रहा है, और पैकिंग कितनी अधिक लग रही है, और इनमें से कौन सी बात धरती के लिए अधिक नुकसानदेह है। लेकिन यह बात तय है कि आज दुनिया की सरकारों को कारोबार पर नकेल कसकर यह देखना होगा कि पैकिंग कितनी गैरजरूरी हो रही है, और उसे कैसे कम किया जाना चाहिए। यह राज्यों को भी अपने स्तर पर देखना चाहिए कि उनकी जमीन पर चाहे स्थानीय बाजार में पहुंचने वाले सामान, या फिर ऑनलाईन ऑर्डर से कूरियर के मार्फत आने वाले सामान की पैकिंग कितनी है? हमने कई बरस पहले भी इसी जगह यह बात सुझाई थी कि स्थानीय सरकारों को अपने प्रदेश में एक गार्बेज टैक्स लगाना चाहिए जिसमें आई हुई पैकिंग का पूरा वजन हो, और उसके भीतर इस्तेमाल होने वाले सामान का भी वजन हो। जितना भी प्लास्टिक, पु_ा, या किसी और किस्म का पैकिंग मटेरियल आ रहा है, उस पर एक टैक्स लगाना चाहिए। हर बक्से या पैकेट पर यह लिखने का नियम रहे कि उसके भीतर इस्तेमाल के सामान का वजन कितना है। बाकी तो पूरा का पूरा कचरा बनकर उस प्रदेश पर बोझ रहेगा, और उस पर एक टैक्स लगाना चाहिए। हो सकता है कि केन्द्र सरकार के स्तर पर ऑनलाईन कंपनियों से लेकर बाजार में जाने वाले थोक सामान तक पर ऐसा एक टैक्स लग सके जिससे लोगों को यह भी समझ में आए कि गैरजरूरी पैकिंग एक गलत बात है, और उसके लिए टैक्स या जुर्माना लग रहा है। आज छोटे-छोटे से सामानों को सजावटी और आकर्षक दिखाने के लिए उनकी ढेर-ढेर पैकिंग की जाती है।
इस बात को लिखने का सीधा रिश्ता इस बात से है जिससे कि आज हमने यहां लिखना शुरू किया है। यह सारी गैरजरूरी पैकिंग कचरा भी बढ़ा रही है, और नालियों को चोक भी कर रही है, इन दोनों के चलते इस देश से कभी भी सफाई कर्मचारी कम नहीं होने वाले हैं, और जब तक उनका यह काम जारी रहेगा, तब तक यह जाति व्यवस्था भी कायम रहेगी। इसलिए कचरे को कम करने की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत कचरे के व्यवस्थित निपटारे की भी है ताकि वह धरती पर कम बोझ बने, और उसे उसका निपटारा करने वाले लोगों को वह इंसानों की तरह माने भी। धरती को बचाने, इंसानों को बचाने, और शहरी जिंदगी को बचाने के लिए इन तमाम बातों पर सोचने की जरूरत है। घर या दफ्तर, दुकान से ही, बाजार से ही कचरे को अलग-अलग करना शुरू हो, स्थानीय म्युनिसिपल अलग-अलग कचरे को अलग-अलग उठाए, उसका अलग-अलग निपटारा हो, और ऐसे में ही यह निपटारा करने वाले इंसान इंसान की तरह जी सकेंगे। आज पिछले पांच-छह महीनों में लॉकडाऊन से और कोरोना-सावधानी से लोगों को जैसी जिंदगी जीनी पड़ी है, वे यह सोचकर देखें कि छह हफ्ते भी अगर सफाई कर्मचारियों के बिना जीना पड़ा तो क्या होगा?
आज अपनी सेहत के लिए खतरा उठाकर, अमानवीय परिस्थितियों में गंदगी का काम करते हुए, सामाजिक बहिष्कार और छुआछूत झेलते हुए जो लोग इंसानी जिंदगी से गंदगी को कम कर रहे हैं, उनको इतना संगठित करने की जरूरत है कि वे अपने इस काम के लिए अतिरिक्त भुगतान पा सकें। वे तो दूसरी जातियों के लोगों का काम कर लेंगे, लेकिन उनके काम के लिए तो आरक्षण को कोसने वाली जातियों के पास भी कोई ऐसे लोग नहीं हैं जो सफाई में आरक्षण मांगें।
फिलहाल हर कोई अपने-अपने स्तर पर यह सोचे कि सुबह से उनके घर कचरा लेने आने वाले लोग भी इंसान हैं, और कैसे उन पर बोझ कम किया जा सकता है। हिन्दुस्तान में दक्षिण भारत में कई म्युनिसिपल ऐसी हैं जिन्होंने पिछले बरसों में बिना किसी खर्च के वैसी सफाई हासिल की है जैसी सफाई के लिए इंदौर जैसा शहर सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना खर्च कर रहा है। देश के बाकी शहरों को भी ऐसी म्युनिसिपलों से कुछ सीखना चाहिए।
कांग्रेस के चाय के कप में आया तूफान थम गया दिखता है। हाल के बरसों में, या पिछले कुछ दशकों में पहली बार इस पार्टी के करीब दो दर्जन लोगों ने गैरचापलूसी का एक रूख दिखाया था, और वह रूख पार्टी पर कोई असर नहीं डाल पाया। कल कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक सुबह से शाम तक चली, और वह इस नतीजे पर खत्म हुई कि फिलहाल सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी। इस पार्टी की सबसे ताकतवर कमेटी की बैठक भी अगले अध्यक्ष के बारे में न कुछ सोच पाई, न कोई तरीका सोच पाई, और चिट्ठी लिखने वालों के तरीकों के खिलाफ सोनिया से लेकर नीचे तक बहुत से नेताओं ने नाराजगी और असहमति जताई।
बहस के लिए हम यह मान भी लेते हैं कि जब चिट्ठी लिखने वाले 23 लोगों में से आधा दर्जन से अधिक लोग कांग्रेस कार्यसमिति के मेम्बर भी थे, जहां उनके पास इस बात को उठाने का मौका था, तो फिर शायद यह चिट्ठी इस मीटिंग के पहले मीडिया में पहुंचना एक अच्छी बात नहीं थी। लेकिन एक दूसरे नजरिए से देखें तो अजगरी अंदाज में चलती इस पार्टी का ध्यान खींचने के लिए सार्वजनिक रूप से कुछ ढोल बजाने में बुराई क्या थी? इस चिट्ठी में कोई आरोप नहीं लगाए गए थे, किसी को नाकामयाबी का जिम्मेदार नहीं बताया गया था, महज एक सकारात्मक बदलाव की बात की गई थी। तो क्या आज कांग्रेस पार्टी ऐसे मोड़ पर खड़ी है कि वह किसी सकारात्मक बदलाव की मांग करने वाले अपने ही दो दर्जन बड़े नेताओं की बात को बगावत मान रही है? अगर यह बगावत है, तो यह कांग्रेस पार्टी के हित में है। वह युग खत्म हो गया जब नेहरू-गांधी परिवार से परे की संभावनाओं को सोचने पर उसे हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा पाप मान लिया जाता था। अब पार्टी को यह तय करना है कि उसे जिंदा रहना है, या मौजूदा लीडरशिप को पार्टी की अगुवाई में जिंदा रखना है? बहुत से संगठनों में एक वक्त ऐसी नौबत आ जाती है कि उसके नेता पार्टी को आगे ले जाने की अपनी क्षमता के सर्वोच्च स्तर तक पहुंच चुके रहते हैं, और वहां से आगे मशाल किसी और को ही ले जानी होती है। अब अगर पार्टी यह मानकर चले कि वे सोनिया या राहुल की अगुवाई में जहां तक पहुंचे हैं, उससे आगे जाने की पार्टी की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है तो एक अलग बात है। आज सोनिया-परिवार के हिमायती दिग्विजय सिंह का बयान लीडरशिप की एक थोड़ी सी और संभावना वाला है। उन्होंने सोनिया और राहुल का नाम लेने के बजाय यह कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद गांधी परिवार में ही रहना चाहिए। इसका मतलब यह है कि वे प्रियंका गांधी की संभावनाओं को अनदेखा नहीं कर रहे हैं, फिर चाहे वे अभी शब्दों में उसे नहीं कह रहे हैं।
हमने कल भी इस बारे में लिखा था, इसलिए बहुत से तर्कों को आज एक दिन के भीतर यहां दुहराने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन यह बात साफ है कि दो दर्जन बड़े नेता अगर इस चिट्ठी पर दस्तखत करने वाले हैं, तो कई दर्जन और बड़े नेता भी इस चिट्ठी के साथ होंगे, और अभी हवा का रूख देख रहे हैं, या पानी में एक पैर डालकर गहराई देख रहे होंगे। यह बात समझने की जरूरत है कि ये दो दर्जन नेता अगर कांग्रेस के विभाजन पर उतारू होते हैं, तो पार्टी का बड़ा नुकसान भी होगा। वे अगर पार्टी संविधान के मुताबिक अध्यक्ष के चुनाव पर अड़ते हैं, तो भी पार्टी के भीतर एक ढांचे के भीतर भी विभाजन हो जाएगा। यह सोनिया-परिवार के सोचने की बात है कि पार्टी का अब क्या करना चाहिए? अगर दूसरे लोग यह सोचने वाले रहेंगे, तो हो सकता है कि आगे चलकर इस परिवार की मर्जी का अध्यक्ष भी न बने।
एक अखबार के रूप में हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कांग्रेस का अध्यक्ष कौन रहे। लेकिन इस बात हमें फर्क पड़ता है कि देश का एक बड़ा विपक्षी दल अगर और कमजोर होते चला गया तो भारत के लोकतंत्र में भाजपा और एनडीए की ताकत अनुपातहीन ढंग से अधिक हो जाएगी, और वह कोई बहुत अच्छी नौबत जनता के हित में नहीं होगी। कांग्रेस को आज न केवल अपना घर सम्हालने की जरूरत है, बल्कि अपने घर की मरम्मत की भी जरूरत है, और अपने भविष्य के बारे में भी उसे सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि क्या नौबत ऐसी आ गई है कि सोनिया-परिवार का भविष्य और कांग्रेस पार्टी का भविष्य दो अलग-अलग बातें हो चुकी हैं?
हमारा ख्याल है कि कांग्रेस के भीतर कुछ लोग जिसे असंतोष और बगावत कह रहे हैं, वह किसी भी पार्टी के जिंदा रहने का पहला सुबूत है। यह कांग्रेस के लिए एक अनहोनी हो सकती है कि उसके भीतर के कुछ लोग उसे जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि आमतौर पर चापलूसी को इस पार्टी के लिए काफी माना जाता है, और उससे अधिक कुछ क्यों किया जाए, यह सवाल हमेशा ही पार्टी की नीति बने रहता है।
लेकिन अब हिन्दुस्तान की राजनीति के तौर-तरीके मोदी युग के हैं, अब कांग्रेस या कोई भी दूसरी पार्टी यह मानकर नहीं चल सकतीं कि मोदी की गलतियों से वे सत्ता में आ जाएंगे। और जब सत्ता से परे रहना एक लंबा भविष्य दिख रहा है, तो बहुत से नेताओं को अपनी पार्टी से अधिक असरदार, अधिक लड़ाकू, और आखिर में अधिक कामयाब बनाने की जरूरत लग सकती है। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उनके मुताबिक तो पार्टी के पास एक पखवाड़े से पड़ी हुई इस चिट्ठी को लेकर कल की कार्यसमिति की बैठक में कोई अधिक बात नहीं हुई, या कम से कम उस पर कोई कार्रवाई होते नहीं दिखी। कल की बैठक के पहले पार्टी जहां पर थी, गांधी परिवार की उसी देहरी पर, उसी जगह, उसी तरह आज भी खड़ी हुई है, बस इतना ही फर्क पड़ा होगा कि ये 23 लोग पार्टी में घोषित रूप से अवांछित बन गए हैं, और जैसा कि दुनिया में कहीं भी होता है इतनी बड़ी संख्या में अवांछित लोग अपने वांछित नतीजों को पाने के लिए आगे भी कुछ न कुछ करते हैं। कांग्रेस पार्टी में आने वाले दिनों में अगर यह संघर्ष बढ़ता है तो भी वह पार्टी के लिए अच्छा ही होगा। पार्टी को तर्कहीन तरीके से अंतहीन चापलूस बने रहना उसे किसी किनारे नहीं पहुंचा सकता। जिन लोगों ने यह चिट्ठी लिखी, उनकी नीयत क्या थी, और आगे उनकी तैयारी क्या है, इसका खुलासा तो आगे धीरे-धीरे होगा लेकिन कांग्रेस पार्टी कम से कम एक जिंदा पार्टी बनी दिख रही है, और वह भी कोई छोटी कामयाबी नहीं है। इस चिट्ठी में उठाए गए मुद्दों पर इस पार्टी को सोचना चाहिए, क्योंकि उसके अलावा उसके पास सोचने को कुछ और तो अधिक बचा भी नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)