संपादकीय
हिंदुस्तान का मीडिया पिछले 20-25 दिनों से शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान की गिरफ्तारी को लेकर उफना हुआ है। रात दिन टीवी पर उसी की तस्वीर दिखती है, और अधिकतर अखबारों के पहले पन्ने पर उसका कब्जा है। एक आलीशान जहाज पर चल रही पार्टी में नशा परोसा जा रहा था, और भारत के नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने उस पर छापा मारा तो बिना किसी नशे के आर्यन को भी उसी पार्टी में गिरफ्तार किया गया, और अब तक उसकी जमानत नहीं हो पाई है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि क्योंकि शाहरुख खान ने एक-दो बरस पहले बिना नाम लिए देश के माहौल की कुछ आलोचना की थी, या देश में सांप्रदायिकता और असहिष्णुता के खिलाफ कुछ कहा था, इसलिए उनके बेटे को निशाना बनाकर यह कार्यवाही की जा रही है। जो भी हो अगर किसी ने नशा किया है, या उसके पास से नशा पकड़ाया है, या वह नशे के कारोबार से जुड़ा हुआ मिला है तो उस पर कार्यवाही तो होनी चाहिए। फिर शाहरुख खान का बेटा होने के नाते आर्यन को हिंदुस्तान के सबसे महंगे वकीलों की सहूलियत हासिल है और आज जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं उस वक्त उसकी जमानत के लिए देश के एक सबसे महंगे वकील मुकुल रोहतगी के पहुंचने की खबर है। इसलिए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि शाहरुख खान की तमाम दौलत की मदद से उनका बेटा हिंदुस्तानी अदालतों में इंसाफ पाने की अधिक संभावना रखता है बजाए किसी गरीब फटेहाल बेबस के।
लेकिन जितने टीवी चैनल या जितने अखबार सरसरी नजर में हमारे देखने में आते हैं, उनमें आर्यन की गिरफ्तारी की खबर के पीछे दबी-छुपी हुई भी एक खबर नहीं दिखती कि कर्नाटक में 12 बरस पहले एक आदिवासी छात्र को नक्सल साहित्य रखने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, और उसके बूढ़े पिता को भी। अदालत ने अभी उन्हें उनके खिलाफ कोई भी सबूत न होने की वजह से रिहा किया है, और जिंदगी के इतने बरस गंवाने के बाद वे अब खुली हवा में आए हैं। लेकिन खबरों में उनका इतना भी महत्व नहीं है कि एक आदिवासी के साथ हो गई ऐसी ज्यादती को ठीक से जगह मिल सके, या मामूली जगह भी मिल सके। इससे यह पता चलता है कि देश में लोकतंत्र का क्या हाल है। जब लोकतंत्र में एक गरीब आदिवासी छात्र और उसके बूढ़े पिता के साथ हो रही ऐसी सरकारी और पुलिसिया ज्यादती के खिलाफ किसी के चेहरे पर कोई शिकन ना पड़े, तो उसका मतलब देश में ऐसी सरकारों और ऐसी अदालतों का बढ़ जाना है जहां से किसी फिल्मी सितारे के बेटे को भी हो सकता है कि बेकसूर होने पर भी इंसाफ ना मिल सके। लोकतंत्र में सबसे कमजोर और सबसे गरीब को इंसाफ न मिलने का एक खतरा यह रहता है कि धीरे-धीरे बेइंसाफी उस लोकतंत्र का मिजाज बनने लगता है। देश में लोकतंत्र के पैमाने नीचे आने लगते हैं, और अदालतों को इंसाफ का ख्याल रखना जरूरी नहीं रह जाता है।
देशभर में केंद्र सरकार और अलग-अलग प्रदेशों की एजेंसियों ने जिस तरह के मामलों को अदालतों में बढ़ावा दिया है और जिस बड़े पैमाने पर ये मामले अदालतों से खारिज हो रहे हैं, उससे भी पता लगता है कि लोकतंत्र में इंसाफ की जरूरत को ही नकार दिया जा रहा है। ऐसे में हो यह रहा है कि हर जगह सत्ता पर बैठे लोग अपनी मर्जी से चुनिंदा लोगों को परेशान करने के लिए कानूनों का बेजा इस्तेमाल करते हैं और जितने समय तक किसी बेकसूर को सता सकते हैं, सताते चलते हैं, जमानत में जितनी देर कर सकते हैं उतनी देर करते हैं, और फिर आखिर में सरकारें अदालतों में मुंह की खाती हैं। लेकिन इंसाफ कहा जाने वाला यह सिलसिला इसी तरह चल रहा है और देश की सबसे बड़ी अदालत भी सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं कर पा रही हैं। अदालतों का हाल तो यह है कि सरकार खाली कुर्सियों के लिए जज नहीं बना रही, और देश का मुख्य न्यायाधीश सरकार की मौजूदगी में बतलाता है कि 26 फ़ीसदी अदालतों में महिला जजों के लिए शौचालय तक नहीं है, और 16 फीसदी अदालतों में तो किसी जज के लिए शौचालय नहीं है। सरकार का न्यायपालिका के लिए यह रुख बताता है कि न्यायपालिका को गैरजरूरी मान लिया गया है, और ऐसा इसलिए किया गया है कि जांच एजेंसियों के रास्ते मनमानी को और अधिक वक्त तक जारी रखा जा सके।
लेकिन सरकार का यह सिलसिला ऐसे लोकतंत्र में कमजोर नहीं पड़ सकता जहां पर कमजोर तबके के लिए बाकी लोगों के मन में कोई रहम न हो, कोई फिकर न हो। आज देश की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में सबसे अधिक संख्या में अल्पसंख्यक, दलित, और आदिवासी तबकों के लोग हैं, क्योंकि ये लोग वकीलों का खर्च नहीं उठा सकते, जांच एजेंसियों में जो भ्रष्ट लोग हैं उन्हें रिश्वत नहीं दे सकते, और अदालतों में जो भ्रष्ट लोग हैं उन्हें खरीद नहीं सकते, सबूतों को तोड़ मरोड़ नहीं सकते, और गवाहों को प्रभावित नहीं कर सकते। जिनके पास पैसा है वे इनमें से सब-कुछ कर सकते हैं। इसलिए आज हिंदुस्तान में इंसाफ पाने के लिए लोगों का संपन्न और सक्षम, ताकतवर और दबदबे वाला होना जरूरी है। जहां पहले कुछ घंटों से ही देश का मीडिया शाहरुख खान के बेटे के लिए बेचैन हो चला है, वहां पर अल्पसंख्यक तबके के आम और गरीब लोग 20-20 बरस जेल में कैद रहकर अदालत से बेकसूर साबित होकर बाहर निकल रहे हैं, तब तक उनके परिवार की जिंदगी खत्म हो चुकी रहती है, उनकी खुद की जिंदगी खत्म हो चुकी रहती है।
देश के नक्सल इलाकों में इसी तरह बरसों से बेकसूर आदिवासी कैद हैं, और सरकारें बार-बार यह कहती हैं कि उनके मामलों को तेजी से निपटाया जाएगा, या उन्हें छोड़ा जाएगा, लेकिन होता इनमें से कुछ नहीं है। कर्नाटक के जिस छात्र की हम बात कर रहे हैं उस कर्नाटक के बारे में अभी-अभी हमने लिखा है कि किस तरह वहां कांग्रेस, भाजपा, और जनता दल तीनों के मुख्यमंत्री रहे लेकिन यह बेकसूर आदिवासी छात्र अपने बाप सहित जेल में बंद रहा। इसलिए जेल में बंद रहा कि वह पत्रकारिता का छात्र था और उसके पास भगत सिंह की किताब सहित कुछ दूसरे लेख मिले जिनमें गांव की समस्या दूर न होने पर संसदीय चुनावों के बहिष्कार की बात लिखी हुई थी। देश का सबसे संपन्न तबका वोट डालने न जाकर वैसे भी चुनावों का बहिष्कार करता ही है, लेकिन अगर किसी ने जागरूकता के साथ इस मुद्दे को लिख रखा है, तो उसे नक्सल करार दे दिया गया। इस देश के लोगों को सोचना है कि क्या तमाम ताकत और असर हासिल रहने पर भी शाहरुख खान का बेटा अधिक हमदर्दी का हकदार है, और बरसों तक बूढ़े बाप के साथ जेल में बंद आदिवासी छात्र हमदर्दी का हकदार नहीं है? जिसकी कि कोई चर्चा भी नहीं हो रही है। यह इस देश की जनता का हाल है जिसके बीच बेबस लोगों की कोई बात नहीं होती है, और जिन्हें देश के सबसे महंगे वकील हासिल हैं, उनकी फिक्र में देश का मीडिया दुबला हुए जा रहा है।
हम कहीं भी शाहरुख खान के बेटे के जमानत के हक को कम नहीं आंक रहे हैं, लेकिन हम सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि इस देश में बेइंसाफी झेल रहे लोगों के बीच प्राथमिकता की लिस्ट में आर्यन खान दसियों लाख लोगों के बाद ही आ सकता है, फिर चाहे वह अखबार के पहले पन्ने पर एकाधिकार क्यों न पा रहा हो।
किसी हार में भी कोई जीत हो सकती है यह सोचना थोड़ा मुश्किल है। बहुत पहले सुदर्शन की बाबा भारती और खडग़सिंह वाली विख्यात कहानी, ‘हार की जीत’ में जरूर ऐसा था, लेकिन असल जिंदगी में बीती रात भारत और पाकिस्तान के मैच में यह देखने मिला। मैच में हिंदुस्तान खासी बुरी तरह हारने के बाद भी बहुत अच्छी तरह जीत गया। खुद पाकिस्तान में पाकिस्तान की जीत की जिस किस्म से खुशी मनाई जा रही है, उसी किस्म से सोशल मीडिया पर पाकिस्तान के क्रिकेट प्रेमी इस बात की खुशी भी मना रहे हैं कि भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली ने मैच हारने के बाद किस तरह पाकिस्तानी कप्तान को बधाई दी, हंसते-मुस्कुराते हुए हर खिलाड़ी से गले मिले, और पूरे मैच के दौरान भी तनाव मुक्त रहे। इस पर पाकिस्तान के लोगों ने इतना सुंदर लिखा कि बस। एक महिला ने लिखा कि इतिहास इन तस्वीरों को याद रखेगा। एक दूसरे ने लिखा कि विराट कोहली बहुत अच्छे शख्स हैं जो जानते हैं कि यह खेल है युद्ध नहीं। एक खिलाड़ी ने लिखा-‘खुद एक खिलाड़ी होने के नाते मुझे यह लम्हा बहुत अच्छा लगा क्योंकि खेलना ही खेल भावना है शाबाश विराट कोहली’। एक और पाकिस्तानी ने मजाकिया लहजे में लिखा-‘विराट कोहली को अपनी टीम में शामिल होने का न्योता देने में कोई नुकसान नहीं है वह पहले से ही घुले मिले हुए हैं’। एक और ने लिखा-‘वहां भारतीय और पाकिस्तानी साथ साथ खेल रहे हैं और यहां हम बेवकूफों की तरह लड़ रहे हैं’। भारतीय कप्तान विराट कोहली ने मैच के दौरान भी एक बड़प्पन का खुशमिजाज बनाए रखा और मैच के बाद भी उन्होंने कहा कि हम हारे हैं जिसे हम मंजूर करते हैं और पाकिस्तान को जीत का श्रेय देते हैं उन्होंने वाकई हमें हर क्षेत्र में मात्र दी। कोहली ने कहा उनके बल्लेबाजों ने जिस अंदाज में बल्लेबाजी की उसने हमें कोई मौका नहीं दिया। कोहली के अलावा धोनी भी पाकिस्तानी खिलाडिय़ों से खेल भावना में अच्छे मिजाज में बात करते दिखे, और धोनी की भी तारीफ हो रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच सरहद पर जो नफरत चलती है, और जो जंग राजधानियों में बैठकर लड़ी जाती है, और सरहद के दोनों तरफ के जो धर्मांध कट्टरपंथी लगातार एक जंग की उम्मीद करते हैं, और दुनिया के हथियारों के सौदागर इन दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ाते चलने में भरोसा रखते हैं, और जिस तरह इन दोनों देशों के नेता कई बार अपनी घरेलू दिक्कतों को अपने वोटरों की नजरों से पीछे धकेलने के लिए दूसरे देश पर तोहमत लगाते हैं, उन सबको अगर देखें तो लगता है कि जिस तनाव का जिक्र करके क्रिकेट को रोकने की कोशिश की जा रही है, उस तनाव को तो क्रिकेट कम ही करता है। और महज क्रिकेट नहीं इन दोनों देशों के बीच लेखक, शायर, संगीतकार और कलाकार भी तनाव को कम करने में मदद करते हैं, यह एक अलग बात है कि दोनों तरफ के कट्टरपंथी अपनी हस्ती और मौजूदगी को साबित करने के लिए वक्त-वक्त पर तोहमतें लगाते हैं, हिंसा करते हैं, और सरहद पार के लोगों को भगाने की बात करते हैं। ऐसा सिर्फ पाकिस्तान में होता है ऐसा भी नहीं, हिंदुस्तान में भी मुंबई में कई बार ऐसा होता है। मुंबई में भी टीवी के रियलिटी शो में हिस्सा लेने वाले कुछ पाकिस्तानी कलाकारों को वापिस भेज दिया जाता है क्योंकि सांप्रदायिक संगठन उनके खिलाफ तनाव खड़ा करने लगते हैं।
अभी जब भारत और पाकिस्तान के बीच टी-20 का यह मैच खेला जाना तय हुआ था उस वक्त हिंदुस्तान में भाजपा के मददगार माने जाने वाले और एक कट्टर मुस्लिम राजनीति करने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने खुलकर इस मैच का विरोध किया था, और कहा था कि जब कश्मीर में आतंकी हमलों में हिंदुस्तानी सैनिक मारे जा रहे हैं, तब हिंदुस्तानी टीम को पाकिस्तानी टीम के साथ क्रिकेट क्यों खेलना चाहिए। यह बात अपने आपको एक कट्टर राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश अधिक थी जिसमें अंतरराष्ट्रीय समझ-बूझ छू भी नहीं गई थी। ओवैसी कट्टरता की बातें करने के लिए जाने जाते हैं, और मुस्लिमों के बीच अपने एक सीमित समर्थक तबके को बाकी हिंदुस्तानियों के मुकाबले अधिक राष्ट्रवादी साबित करने के लिए, अधिक बड़ा देशभक्त साबित करने के लिए, उन्होंने इस किस्म की भडक़ाने वाली बात की थी। ऐसी बात तो हिंदुस्तान के सबसे अधिक सांप्रदायिक दूसरे हिंदू संगठनों ने भी नहीं की थी, उन्होंने भी पाकिस्तान के साथ मैच के बहिष्कार का कोई फतवा नहीं दिया था जो कि ओवैसी ने दिया।
लेकिन विराट कोहली की दरियादिली और खेल भावना के इस मौके पर जब चारों तरफ सब कुछ अच्छा अच्छा लिखा जा रहा था उसके बीच भी एक गंदी बात करने से भारत के एक बड़े उद्योगपति हर्ष गोयनका नहीं चूके। हर्ष गोयनका ट्विटर पर सक्रिय रहते हैं और कई किस्म की सकारात्मक बातें भी पोस्ट करते हैं, लेकिन कल उन्होंने पाकिस्तान के टॉस जीतने के बाद यह लिखा- ‘पाकिस्तान ने टॉस जीता और यह तय किया कि वह इस सिक्के को वापस पाकिस्तान ले जाएंगे ताकि वहां की अर्थव्यवस्था सुधर सके’। यह बात एक मजाक के रूप में तो तीखा तंज हो सकती थी, लेकिन कल का मौका बड़प्पन दिखाने का था, और दोनों देशों के बीच जिसने बड़प्पन दिखाया, उसने महफिल लूटी। हर्ष गोयनका की इस बात पर एक प्रमुख पत्रकार हृदयेश जोशी ने तुरंत लिखा कि इस ट्वीट को देखकर मास्टर कार्ड का विज्ञापन याद आ रहा है जो कहता है कि कुछ चीजें पैसों से नहीं खरीदी जा सकतीं। वैसे ही गोयनका साहब के लिए तमीज किसी मास्टर कार्ड से नहीं खरीदी जा सकती।
भारत और पाकिस्तान के बीच मैच दोनों देशों में खेल की सबसे बड़ी उत्सुकता का मौका रहता है, और इससे बड़ा मैच इन दोनों देशों के लिए दुनिया में और कुछ भी नहीं होता है। ऐसे ही मौके पर खेल यह साबित कर सकता है कि वह सरहद के सारे तनाव को कम करने की ताकत रखता है। ऐसे ही मौके पर खिलाड़ी यह साबित कर सकते हैं कि वे नेताओं और फौजी जनरलों के मुकाबले बेहतर इंसान हैं। ऐसे ही मौके पर क्रिकेट का बैट न केवल गेंद को मैदान के बाहर फेंक पाता है बल्कि हथियारों के सौदागरों की तमाम किस्म की साजिशों को भी दोनों देशों से बाहर फेंकने की कोशिश करता है। ऐसे मौके एक दरियादिली और बड़प्पन दिखाने के रहते हैं, मोहब्बत दिखाने के रहते हैं, और भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली ने सचमुच यही एक विराट दिल कल दिखाया, जब उन्होंने हार के बावजूद पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को लिपटाकर बड़प्पन और मोहब्बत से बातें की, और हारते हुए भी उन्होंने तनाव को अपने पर हावी नहीं होने दिया। यह सिलसिला जारी रखना चाहिए, सरहद के दोनों तरफ बुरे लोग भी हैं, और अच्छे लोग भी हैं, बुरे लोग दिखते अधिक हैं, लेकिन अच्छे लोग गिनती में ज्यादा हैं। ऐसे ही मौके हैं जब लोगों को दोनों देशों के बीच दोस्ती की संभावनाओं को टटोलना चाहिए जिन्हें कि वोटों के चक्कर में पड़े हुए नेता नहीं तलाश सकते। खेल भावना ने बहुत ही तंग नजरिए वाले राष्ट्रवाद को उसकी जगह दिखा दी है, और इसके लिए किसी आंदोलन की जरूरत नहीं पड़ी, झंडे-डंडे की जरूरत नहीं पड़ी, और थोड़ी सी मोहब्बत, और थोड़ी सी दरियादिली से यह काम हो गया। पाकिस्तान की टीम मैच जीतने की लिए, और विराट कोहली और उनकी टीम हार के बाद भी मोहब्बत का बर्ताव करने के लिए बधाई की हकदार है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक की एक जिला अदालत से अभी एक आदिवासी नौजवान को उसके बूढ़े पिता के साथ बरी किया गया है जिन्हें पुलिस ने नक्सलियों से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया था। इस आदिवासी छात्र के हॉस्टल के कमरे से जिन किताबों को जप्त करके उस पर नक्सली होने का आरोप लगाया गया था, उनमें भगत सिंह की लिखी एक किताब भी थी। उसके पास अखबारों की कुछ कतरनें भी थीं, और एक चिट्ठी लिखी हुई थी कि जब तक गांव को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलती हैं, तब तक संसद के चुनावों का बहिष्कार करना चाहिए। अब 32 बरस का हो गया यह नौजवान अपने पिता के साथ 9 बरस तक चले इस मुकदमे के बाद बरी किया गया क्योंकि पुलिस कुछ भी साबित नहीं कर सकी और उसके पास कोई सबूत नहीं था। जबकि मामले को दायर करते हुए पुलिस ने इस आदिवासी छात्र के मोबाइल फोन से नक्सलियों की मदद करने और राजद्रोह का अपराध करने की बातें कही थीं, लेकिन इसके मोबाइल फोन के कॉल डिटेल्स तक पुलिस ने अदालत में पेश नहीं किए। देश में बेकसूरों को कुचलने के लिए जो यूएपीए नाम का एक बहुत ही कड़ा कानून इस्तेमाल किया जा रहा है, उस कानून के तहत यह मामला चलाया गया था, और यह गरीब आदिवासी परिवार अपने 9 बरस खोने के बाद अब खुली हवा में सांस ले रहा है। लेकिन अदालत ने इन्हें सिर्फ बरी किया है, इन्हें बाइज्जत बरी नहीं किया है, इसलिए अब ये फिर ऊंची अदालत जा रहे हैं, ताकि उन्हें बाइज्जत बरी किया जाए। फैसले में अदालत ने यह तक लिखा कि चुनाव के बहिष्कार का आह्वान करने की जो चिट्ठी है, तो उसे पत्रकारिता के छात्र ने इसलिए लिखा क्योंकि नेताओं ने उस आदिवासी गांव के लोगों की लंबे समय से चली आ रही मांगों को पूरा नहीं किया था, और इसे पढऩे पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि इस पत्र में स्थानीय लोगों की मांगें हैं।
हिंदुस्तान की सरकारों को इस तरह के कानून बहुत अच्छे लगते हैं जिनमें लोगों के मौलिक अधिकारों को कुचला जा सकता है, उन्हें जमानत पाने से भी रोका जा सकता है, और बरसों तक बिना किसी सुनवाई के, बिना किसी ठोस सुबूत के उन्हें जेलों में बंद करके रखा जा सकता है। यह सारा कानूनी इंतजाम अंग्रेजों के वक्त किया गया था ताकि हिंदुस्तानियों को अदालतों के ढकोसले से भी कोई राहत ना मिल सके, और आजाद हिंदुस्तान की काली सरकारों ने भी इन गोरे कानूनों को और अधिक कड़ा बनाकर जारी रखा और अपने ही लोगों की असहमति को कुचलने का काम किया। हिंदुस्तान में किसी को कुचलना हो तो उसके घर से नक्सलियों के बारे में एक किताब का बरामद होना काफी रहता है. पता नहीं संसद की लाइब्रेरी में नक्सलियों के बारे में किताबें हैं या नहीं, सुप्रीम कोर्ट की लाइब्रेरी में नक्सलियों की किताबें हैं या नहीं। लोकतंत्र से असहमति रखने की किताबें भी अगर किसी को 9 बरस तक जेल में डालने के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल की जा रही है, तो इस पर धिक्कार है। और कर्नाटक के बारे में यह बात समझने की जरूरत है कि यह 2012 में दर्ज मामला है, और तबसे लेकर अब तक वहां पर भाजपा, कांग्रेस, जनता दल, इन सभी की सरकारें रहीं, इन तीनों पार्टियों के मुख्यमंत्री रहे लेकिन एक गरीब आदिवासी छात्र को उसके बूढ़े बाप के साथ जेल में फंसाकर रखा गया और वे अदालत के धक्के खाते रहे।
हिंदुस्तान में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो या किसी भी गठबंधन की, उन्होंने कभी ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों को हटाने के बारे में कोई कोशिश नहीं की। जब जो सत्ता में रहते हैं उन्हें ऐसा चाबुक पसंद आता है, उन्हें ऐसी हथकड़ी पसंद आती है, जिसे असहमत लोगों के हाथों पर डाला जाए, उन्हें असहमति की जुबान छीन लेने के औजार पसंद आते हैं, और इसलिए हिंदुस्तान में ऐसे भयानक कानून और कड़े बनाए जा रहे हैं। 1967 में बनाया गया यूएपीए कानून 2019 में मोदी सरकार ने संसद में एक संशोधन करके और कड़ा कर दिया, और उसमें कई किस्म की धाराएं जोड़ दीं जिसमें जांच एजेंसियों और मुकदमा चलाने वाली एजेंसी पर से जिम्मेदारी हटा दी गई, और बेकसूर नागरिकों के अधिकार और घटा दिए गए। लोकतंत्र में कानून की जो बुनियादी जरूरतें रहती हैं उन सबको घटाते हुए कानून को इतना कड़ा कर दिया गया है कि जिसके खिलाफ यह इस्तेमाल हो उसके बचने की कोई गुंजाइश न रहे, और 10-20 बरस बाद जाकर हिंदुस्तान के कुछ मुसलमान अगर आतंक के आरोपों से निकलकर बाहर आ रहे हैं तो उनकी जिंदगी भी क्या जिंदगी बच जाती है?
20-20, 25-25 बरस तक लोग जेलों में कैद रहे आतंक के मुकदमे झेलते रहे और आखिर में बिना किसी सबूत के उनको छोड़ देना पड़ा क्योंकि सुबूत कभी था ही नहीं। लोगों को केवल खुली जमीन से हटाने और इसे दूसरे लोगों के लिए एक धमकी की तरह इस्तेमाल करने की नीयत केंद्र सरकार की भी रही, राज्य सरकारों की भी रही, और इनसे शायद ही कोई पार्टी बची रही। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक, और ममता बनर्जी से लेकर दूसरे क्षेत्रीय दलों के मुख्यमंत्रियों तक इन सबने ऐसे कानूनों को एक ताकतवर हथियार की शक्ल में पाया, और उसका जमकर इस्तेमाल किया। दिक्कत यह है कि देश के सुप्रीम कोर्ट तक ने इन कानूनों के अलोकतांत्रिक होने के बारे में कोई फैसले नहीं दिए, और सरकारें मनमर्जी से इनका इस्तेमाल कर रही हैं।
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अफगानिस्तान 2011 में जब अमेरिकी फौजों के काबू में था, और कहने के लिए वहां पर एक स्थानीय सरकार थी, उस वक्त काबुल के एक पांच सितारा होटल में तालिबान ने एक आत्मघाती हमला किया था, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे, मरने वालों में बहुत से अफगानी भी थे. अभी 9 साल बाद तालिबान ने उन आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को उसी होटल में न्योता देकर बुलाया और उन्हें पैसे और तोहफे दिए, उनका सम्मान किया। इस मौके पर अफगानिस्तान के गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि ये आत्मघाती हमलावर देश के, और हमारे हीरो हैं। इन हमलावरों के परिवारों को नगद रकम के साथ एक-एक जमीन देने का वादा भी तालिबान ने किया था और अब सरकार बनने पर उसे पूरा किया जा रहा है। इस बात को लेकर अफगानिस्तान के बहुत से दूसरे लोग नाराज भी हैं क्योंकि इस तरह के जितने आत्मघाती हमले तालिबान आतंकियों ने किए थे, उनमें मरने वाले अधिकतर अफगान ही थे। जिस होटल में यह सम्मान समारोह हुआ उस होटल पर तालिबान ने दो बार हमला किया था जिसमें दर्जनों अफगान मारे गए थे। आज तालिबान ने इन हमलावरों की तारीफ में एक वीडियो भी जारी किया है जिसमें उन हमलों में इस्तेमाल की हुई आत्मघाती जैकेट को भी दिखाया गया है. एक आतंकी कहे जाने वाले और अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित संगठन, हक्कानी नेटवर्क, के मुखिया आज अफगानिस्तान के गृह मंत्री हैं और उन्होंने खुलकर यह बात कही है कि दुनिया चाहे कुछ भी कहे आत्मघाती हमलावर हमारे हीरो हैं और बने रहेंगे।
आज इस मामले पर लिखने की जरूरत क्यों लग रही है? यह तो अफगानिस्तान का एक ऐसा अलोकतांत्रिक मामला है जिसकी कि आदत अफगानिस्तान में लोगों को पड़ चुकी है, और ऐसे ही तालिबानी आतंक के बढ़ते-बढ़ते आज हालत यहां तक आ गई है कि वहां औरतों को इंसान नहीं माना जाता। अब सुना जा रहा है कि दूसरे धर्म के लोगों को बाहर निकलने कहा जा रहा है, और खुद मुस्लिम धर्म को मानने वाले शिया समुदाय के लोगों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। तो ऐसे देश के बारे में वहां अगर आतंकियों का सम्मान हो रहा है तो उस बारे में लिखने की जरूरत क्यों होनी चाहिए? यह सवाल कुछ पाठकों के मन में उठ सकता है इसलिए यह लिख देना ठीक है कि इतिहास से सबक लेना तो बहुत से लोग सुझाते हैं लेकिन वर्तमान से भी सबक लेना चाहिए और अड़ोस-पड़ोस से भी सबक लेना चाहिए यह तमाम लोग नहीं सुझाते। आज हालत यह है कि हिंदुस्तान में दिल्ली हरियाणा सरहद पर किसान आंदोलन के करीब एक सिख धर्म ग्रंथ की बेअदबी का आरोप लगाकर सिख निहंगों ने जिस तरह एक दलित को काट-काटकर टांग दिया, उसे तालिबानी हिंसा से जोडक़र देखने की जरूरत है। तालिबान का किया हुआ सब कुछ अपने धर्म के नाम पर किया हुआ बताया जाता है, महिलाओं के हक कुचल देना भी शरीयत के नाम पर बतलाया जाता है, और हाथ-पैर काटने की सजा भी वहां चौराहों पर दी जाती है और नई तालिबान सरकार ने भी चौराहे पर सिर कलम करने की वह पुरानी सजा कायम रखने की घोषणा की है।
कुछ ऐसा ही मिजाज हिंदुस्तान में धर्म के नाम पर एक इंसान के टुकड़े कर देने का है, और इस हत्यारे निहंग के पुलिस में समर्पण करने जाने के पहले दूसरे निहंगों की तरफ से सार्वजनिक अभिनंदन किया गया और लोगों ने इसे गर्व की बात माना। कुछ ऐसी किस्म की बात देश में दूसरी कई जगहों पर दूसरे धर्मों के लोगों के बीच होती है। राजस्थान में एक किसी मुस्लिम को मारने वाले और उसका वीडियो बनाने वाले हिंदू का सार्वजनिक रूप से अभिनंदन किया गया था। उत्तर प्रदेश की एक छोटी पार्टी जो अपनी सांप्रदायिकता के लिए जानी जाती है, उसने घोषणा की थी कि वह मोहम्मद अफऱाज़ुल नाम के मजदूर को सार्वजनिक रूप से मारने और उसे जिंदा जलाने वाले शंभू लाल रैगर को आगरा से लोकसभा का चुनाव लड़वाएगी। राजस्थान में 3 बरस पहले, बाबरी मस्जिद गिराने के दिन 6 दिसंबर को इस शंभूलाल ने इस मुस्लिम मजदूर को बिना किसी भडक़ावे के, बिना किसी तनाव के, सार्वजनिक जगह पर मारा, जिंदा जलाया, और उसका वीडियो बनाकर चारों तरफ बांटा। उस हत्यारे का भी सम्मान किया गया। ऐसा कई जगह हुआ है। कई जगहों पर गाय ले जाने के आरोप में किसी मुस्लिम को पीट-पीटकर मारने वाले लोगों का सम्मान होता है, तो नाथूराम गोडसे का सम्मान तो होते ही रहता है, जगह-जगह उसकी प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं, जगह-जगह उसके मंदिर बनाए जाते हैं, और उसे महिमामंडित करना बंद ही नहीं होता है।
हिंदुस्तान के बड़े तबके में तालिबान को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है और अगर हिंदुस्तान के किसी संगठन का किसी व्यक्ति का तालिबान से कोई जुबानी नाता भी जोड़ दिया जाए तो उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हो जा रही है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में जगह-जगह धर्म के आधार पर, नफरत के आधार पर, जब सार्वजनिक रूप से किसी को मारा जा रहा है और हत्यारे का इस तरह सार्वजनिक अभिनंदन हो रहा है, तो ऐसे लोगों में और तालिबान में फर्क क्या है? जिस निहंग ने अभी एक दलित को काटकर टुकड़े टांग दिए वह तालिबान से किस मायने में अलग है? ऐसे ही पंजाब के आतंक के दिनों में भिंडरावाले के आतंकियों ने लगातार छंाट-छाँटकर हिंदुओं को मारा था, और उन हत्यारों का स्वर्ण मंदिर में कितनी ही बार सम्मान हुआ था। अब आतंकियों का ऐसा सम्मान और आत्मघाती तालिबानों का ऐसा सम्मान, इसमें फर्क अगर कोई ढूंढना चाहे तो ढूंढ ले, हमको तो इसमें कोई फर्क दिखता नहीं है। दोनों ही धर्म के नाम पर किए गए हथियारबंद आतंक हैं, जो कातिल थे, कातिल हैं, और कातिल ही रहेंगे। इसलिए दुनिया को महज इतिहास से सबक लेने की जरूरत नहीं रहती, दुनिया को अधिक बड़ा सबक वर्तमान से मिल सकता है. यह देखने की जरूरत है कि जब धर्म के नाम पर हिंसा आगे बढ़ती है और जब धर्म के नाम पर किसी इलाके या देश का राज्य चलाया जाता है तो वह धर्म किस तरह कातिल हो जाता है, वह किस तरह हत्याएं करने लगता है, उसमें इंसाफ की कोई भी गुंजाइश नहीं बच जाती है। इस बात को समझने की जरूरत है जिन लोगों को आज हिंदुस्तान को एक हिंदू राज्य बनाने की सनक सवार है, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अफगानिस्तान में आज मुस्लिम दूसरे धर्मों के लोगों को कम मार रहे हैं, खुद मुस्लिमों को अधिक मार रहे हैं। ऐसा ही एक संगठन के मुस्लिम आतंकियों ने पाकिस्तान में दूसरे समुदाय के मुस्लिम नागरिकों के साथ किया। धर्म पहले तो दूसरे धर्म के लोगों को मारता है, लेकिन बाद में वह अपने ही धर्म के अलग-अलग समुदाय के लोगों को मारना शुरू करता है। इसलिए तालिबान को हत्यारा मानना और निहंग को या शंभूनाथ रैगर को अलग मानना एक परले दर्जे की बेवकूफी की बात होगी। किसी भी लोकतंत्र में समझदारी की बात यही होगी कि ऐसे तमाम धर्मांध आतंकी संगठनों को काबू में करना, जेल भेजना, सजा दिलवाना, और खत्म करना। लेकिन फिर गोडसे की प्रतिमाएं कैसे लग सकेंगी? कहीं तालिबान ने हिंदुस्तान में गोडसे की पूजा देखकर तो अपने आत्मघाती हमलावरों का अभिनन्दन नहीं सीखा?
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हिंदुस्तान के एक बहुत चर्चित फिल्म कलाकार आमिर खान ने दिवाली के ठीक पहले यह सलाह दी कि लोग सडक़ों पर पटाखे ना फोड़ें। उनकी यह सलाह कोई निजी सलाह नहीं थी, बल्कि टायर बनाने वाली एक कंपनी के एक इश्तहार में उन्होंने यह बात कही। इस तरह इस इश्तहार के लिए मोटे तौर पर यह कंपनी जिम्मेदार थी और क्योंकि टायर का सडक़ों से लेना-देना रहता है इसलिए शायद टायर कंपनी को सडक़ों को महफूज रखना भी सूझा होगा। खैर जो भी हो आमिर खान और उनकी पिछली पत्नी कुछ बरस पहले भी एक विवाद में थे जब उनकी पूर्व पत्नी किरण राव ने भारत में रहने में अपने को सुरक्षित न महसूस करने की बात कही थी। उस बात को लेकर भी सोशल मीडिया पर बात का मतलब समझे और निकाले बिना दुर्भावना से उनके खिलाफ एक बड़ा अभियान चला था, और उसके बाद से आमिर तकरीबन चुप चल रहे थे। अब आमिर खान को दिखाने वाले इस इश्तहार के बारे में कर्नाटक के एक सांप्रदायिक मिजाज वाले भाजपा सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने इस टायर कंपनी को चि_ी लिखकर कहा है कि इस विज्ञापन से हिंदुओं में नाराजगी है। उन्होंने लिखा है- आमिर खान इस इश्तहार में लोगों को सडक़ों पर पटाखे नहीं जलाने की सलाह दे रहे हैं, जो कि बहुत अच्छा संदेश है, सार्वजनिक के मुद्दों पर आपकी चिंता के लिए मैं आपकी सराहना करता हूं, और आपसे एक और समस्या के समाधान का अनुरोध करता हूं जिसमें शुक्रवार और अन्य महत्वपूर्ण त्योहारों के दिन नमाज पढऩे के नाम पर मुस्लिमों द्वारा सडक़ें जाम कर दी जाती हैं। उन्होंने लिखा कि कई भारतीय शहरों में यह बहुत आम नजारा है और ऐसे वक्त एंबुलेंस और फायर ब्रिगेड जैसी गाडिय़ां भी ट्रैफिक जाम में फंस जाती हैं जिसे बड़ा नुकसान होता है. सांसद हेगड़े ने यह भी लिखा है कि वह अपनी कंपनी के विज्ञापनों में ध्वनि प्रदूषण का मुद्दा भी उठाएं क्योंकि हमारे देश में मस्जिदों के ऊपर लगे लाउडस्पीकर से अजान के समय बहुत अधिक शोर होता है।
आमिर खान ने शायद अपने मन की बात नहीं कही है और एक विज्ञापन में उनसे जो कहने के लिए कहा गया वह कहा हो, और इस कंपनी के मालिक गोयनका तो एक हिंदू हैं इसलिए ऐसा खतरा नहीं लगा होगा कि एक मुस्लिम अपने पैसे से पटाखों के खिलाफ अभियान चला रहा है। भाजपा के इस सांसद से ऐसी ही प्रतिक्रिया की उम्मीद की जा रही थी क्योंकि उनका पुराना रिकॉर्ड कुछ इसी किस्म का रहा है। लेकिन इन दोनों पक्षों की नीयत से परे हम इस मुद्दे पर आना चाहते हैं जिसमें चाहे एक हिंदू त्योहार दिवाली पर चारों तरफ अंधाधुंध पटाखे जलाकर इतना प्रदूषण फैला दिया जाता है कि दमे के मरीजों को सांस के मरीजों को भारी तकलीफ होने लगती है और उनके लिए बड़ा खतरा इक_ा हो जाता है। भारत के शहरों के वैज्ञानिक परीक्षण बतलाते हैं कि दिवाली के पटाखों से प्रदूषण का स्तर कितना बढ़ जाता है और हवा कितनी जहरीली हो जाती है इसलिए किसी बारात में फूटने वाले पटाखे या किसी के जुलूस में फूटने वाले पटाखों से परे दिवाली के पटाखों में फर्क यह है कि एक साथ कुछ घंटों में अंधाधुंध संख्या में फूटने वाले रहते हैं और उसे हवा में प्रदूषण का स्तर बहुत अधिक बढ़ जाता है।
लेकिन भाजपा सांसद अनंत हेगड़े ने जो दूसरा मुद्दा उठाया है वह मुद्दा भी सही है कि नमाज पढऩे के लिए सडक़ों को कैसे रोका जा सकता है? हिंदुस्तान में जहां पर कि सांप्रदायिक नजरिए से धर्मों के बीच एक अंधा मुकाबला चलता है और एक धर्म सार्वजनिक जीवन को बर्बाद करने के लिए दूसरे धर्म से अधिक गैर जिम्मेदारी दिखाने में लगे रहता है. ऐसे में अगर नमाज से जाम होने वाली सडक़ों के मुकाबले अगर हिंदू मंदिरों के सामने कोई विशाल आरती होने लगे सडक़ों के बीच विशाल भंडारा लगने लगे तो क्या होगा? नमाज तो हफ्ते में एक दिन पढ़ी जाती है, लेकिन आरती तो सडक़ों पर रोज की जा सकती है, दिन में दो बार की जा सकती है। इसका मुकाबला कैसे तय होगा कि किसे कितनी इजाजत मिले? हेगड़े ने मस्जिदों से लाउडस्पीकर से दी जाने वाली अजान की बात उठाई है। दिन में कई बार कुछ -कुछ मिनटों की यह अजान बहुत से लोगों के लिए दिक्कत खड़ी करती है लेकिन इसके टक्कर में साल में कई-कई दिन, शायद दर्जनों दिन हिंदू मंदिरों से और हिंदू धार्मिक आयोजनों से रात-रात भर जगराते के लाउडस्पीकर बजते हैं, अखंड रामधुन एक-एक हफ्ते चलती है, और तरह-तरह के घरेलू हवन और यज्ञ में भी लाउडस्पीकर लगा दिया जाता है। अब इसका हिसाब कैसे लगाया जाए कि दिन में 5 बार अजान में कितने वक्त लाउडस्पीकर चलता है, और अखंड रामधुन में उससे कम घंटे चलता है या उससे अधिक घंटे चलता है?
धर्म से परे भी अगर हम ध्वनि प्रदूषण की बात करें, तो जितने धार्मिक जुलूस निकलते हैं, उन्हीं के टक्कर के लाउडस्पीकर शादी की बारात में भी चलते हैं, किसी तरह के विजय जुलूस में भी चलते हैं, और मोटे तौर पर लाउडस्पीकर का कारोबार करने वाले लोग कानून को हाथ में लेकर चलते हैं, और अपने को मिलने वाले पैसों को जायज ठहराने के लिए अधिक से अधिक ऊंची आवाज में इसे बजाते हैं। यह पूरा सिलसिला बहुत खतरनाक है, सार्वजनिक जीवन में अराजकता पूरी तरह खत्म होनी चाहिए चाहे, वह सडक़ों पर नमाज हो, चाहे वह सडक़ की चौड़ाई को घेरते हुए गणेश और दुर्गा बैठाने का मामला हो, चाहे वह प्रतिमा स्थापना और विसर्जन के जुलूस हों, चाहे वे किसी रिहायशी इलाके में किसी मंदिर या गुरुद्वारे में बजने वाले लाउडस्पीकर हों। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। राजनीतिक दल धार्मिक तत्वों को खुश करने के लिए कभी इन पर कोई कार्यवाही नहीं करेंगे और कट्टरता बढ़ते-बढ़ते ऐसी बढ़ती है कि अभी धर्मांध निहंगों ने एक गरीब दलित को काट-काट कर उसके बदन के हिस्से टांग दिए और हत्यारे का सार्वजनिक अभिनंदन करते हुए उसे पुलिस के सामने पेश किया गया। यह सिलसिला देश में हाल के वर्षों में एक सबसे ही खतरनाक, वीभत्स, और हिंसक मामला था जिससे कुछ लोग हिले हैं, और कुछ लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि धर्म के नाम पर तमाम हिंसा उन्हें जायज लगती है।
हिंदुस्तान में केवल अदालतों को यह काम करना पड़ेगा कि वह धर्म के सार्वजनिक पहलू को काबू में करें, और किसी का जीना हराम न होने दें। आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के ढेर सारे फैसलों और आदेशों के बावजूद धर्म बेकाबू है, और धर्मांध लोग अंधाधुंध हिंसा करते हैं जो उन्हें खुद को हिंसा नहीं दिखती। एक धर्म के लोगों को मिसाल के तौर पर दूसरे धर्म की अराजकता और हिंसा हासिल रहती है और देखा-देखी सिलसिला बढ़ते चले जा रहा है। इस सिलसिले को खत्म करना चाहिए। धर्म एक निजी आस्था का सामान रहना चाहिए जिसके लिए लोग अपनी निजी जगह पर आराधना करें, न कि सार्वजनिक जगह पर अवैध कब्जा करके, अवैध निर्माण करके, नियम-कानून को तोड़ते हुए आराधना करें, लाउडस्पीकर बजाएं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। धर्म आज हिंदुस्तान की एक सबसे बड़ी दिक्कत हो गई है, एक सबसे बड़ा खतरा बन गया है, जिससे उबरने की जरूरत है।
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हिंदुस्तान और दूसरे बहुत से देशों की अलग-अलग जुबान में सूअर को एक गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है। ठीक उसी तरह जिस तरह की कुत्ते को, या सांप को। जबकि सूअर दुनिया के बहुत से देशों में लोगों के खाने के काम भी आता है, और गंदगी को साफ भी करता है। इस पर भी लोग उसे बहुत बुरी गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं और कुछ धर्मों में तो सूअर को बहुत ही बुरा माना जाता है, और अगर उस धर्म के लोगों को भडक़ाना हो तो किसी एक सूअर को मारकर उस धर्म के धर्मस्थल पर फेंक देना दंगा शुरू करवाने की पर्याप्त वजह हो सकती है। सूअर को लोग गाली की तरह अपने घर-परिवार के सामने या क्लास के बच्चों के सामने इस्तेमाल करते हैं। किसी ने कोई बहुत बुरा काम किया तो उसे कहा जाता है कि सूअर जैसा काम मत करो, मानो कि सूअर बहुत बुरा काम करता है। आमतौर पर जानवरों के खिलाफ जितने किस्म की कहावतें और मुहावरे प्रचलन में रहते हैं, उन्हें देखते हुए हम कई बार इस जगह पर लिखते हैं कि इंसानों को अपनी भाषा से बेइंसाफी खत्म करनी चाहिए। लेकिन कहावतें और मुहावरे उसी युग के बने हुए हैं जिस वक्त जानवरों के अधिकारों का सम्मान करना तो दूर रहा, खुद इंसानों में शूद्रों का सिर्फ अपमान होता था, महिलाओं का सिर्फ अपमान होता था, और किसी किस्म की गंभीर बीमारी, विकलांगता वाले लोग गाली बनाने के ही काम के माने जाते थे। इसलिए अब जब सूअर को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है, तो आज की 2 खबरें याद पड़ती हैं।
यूरोप में हालैंड के एमस्टरडम एयरपोर्ट के आसपास किसान एक मीठी कंद उगाते हैं, और जब मिट्टी खोदकर फसल निकाली जाती है तो कंद के कुछ टुकड़े जमीन में रह जाते हैं और कंद के साथ-साथ कुछ तरह के केंचुए वगैरह बाहर आ जाते हैं। इनको खाने के लिए वहां पर बड़े-बड़े पंछी टूट पड़ते हैं, और लगे हुए एयरपोर्ट पर आते-जाते विमानों के लिए खतरा बन जाते हैं। विमानों के जेट इंजन में अगर कोई बड़ा पंछी चले जाए तो क्रैश लैंडिंग करने की नौबत भी आ जाती है। ऐसे में इस एयरपोर्ट ने एक तरकीब निकाली है, उसने ऐसे खेतों के एक हिस्से में 20 सूअर छोड़ दिए जो कि निकली हुई कंद को तेजी से खाकर खत्म कर रहे थे और एक दिन के भीतर ही उन्होंने कंद के निकले हुए सारे टुकड़े खत्म कर दिए। नतीजा यह हुआ कि यहां पंछियों का आना रुक गया। दूसरी तरफ एयरपोर्ट के एक अलग तरह तरफ, इतनी ही जमीन को बिना सूअर रखा गया और वहां फसल से निकले गए मीठे कंद के टुकड़े पड़े रहे, और उन्हें खाने के लिए बड़े-बड़े पंछी पहुंचते रहे। अब एयरपोर्ट के आसपास के इलाके को पंछियों से मुक्त रखने के लिए यह तरकीब दूसरी जगहों पर भी आजमाने की बात चल रही है।
लेकिन एक दूसरी खबर यूरोप से अलग अमेरिका के न्यूयॉर्क से आई है जहां पर चिकित्सा वैज्ञानिकों ने एक सूअर की किडनी को एक इंसान के शरीर से जोड़ दिया है और वह किडनी ठीक से काम कर रही है। इस ट्रांसप्लांट के पहले सूअर के जींस में इंसानी जींस भी डाले गए थे ताकि मानव शरीर सूअर की किडनी को तुरंत खारिज ना कर दे। यह प्रयोग ब्रेन डेड घोषित हो चुके एक मरीज के शरीर पर उसके परिवार की इजाजत से किया गया, और सूअर की किडनी को इस मरीज के शरीर के बाहर ही रखा गया था जहां वह मरीज की खून की नलियों के साथ ठीक से काम करते रही। डॉक्टरों ने ट्रांसप्लांट के इस प्रयोग को पूरी तरह सामान्य बतलाया है और इसे पहली बार दूसरे प्राणी की किडनी का सफल ट्रांसप्लांट भी कहा है। आज दुनिया भर में एक लाख से अधिक लोग अंग प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे हैं जिसमें से 90 हजार सिर्फ किडनी की कतार में हैं।
यह बात कई बरस पहले भी सामने आई थी जब यह कहा गया था कि सूअर का शरीर इंसान के शरीर से सबसे अधिक मिलता-जुलता है और किसी दिन सूअर के अंग इंसान को लग सकेंगे, इससे दो किस्म की नैतिक अड़चन आ रही थी एक तो यह कि कई धर्मों में सूअर को बहुत ही निकृष्ट प्राणी माना जाता है, ऐसे धर्म के लोग सूअर के अंग लगे हुए इंसानों को क्या मानेंगे? इंसान मानेंगे या सूअर मानेंगे? दूसरा नैतिक सवाल यह खड़ा होता है कि सूअर को इंसान के करीब लाने के लिए जब इंसान के जींस सूअर के शरीर में डाले जाते हैं, तो फिर वह सूअर क्या खाने के काम में भी लाया जा सकता है? या उसे खाना इंसानों के एक हिस्से को खाने जैसा तो नहीं मान लिया जाएगा? लेकिन ये दोनों नैतिक सवाल ऐसे नहीं हैं जिनका रास्ता न निकल सके। सूअर के अंग लगवाना तो दूर की बात है, आज भी अलग-अलग धर्मों के लोग अलग-अलग किस्म से काटे गए जानवरों को ही खाते हैं। मुस्लिमों के तरीके से काटे गए जानवरों को सिक्ख नहीं खाते और सिक्खों के तरीके से काटे गए जानवरों को मुस्लिम नहीं खाते। ऐसा ही कुछ और धर्मों में भी है। लेकिन परहेज की अपनी सीमाएं हैं, जिनको मानने में किसी को बहुत दिक्कत भी नहीं होती। इसी तरह जिन इंसानों को सूअर की किडनी या उसके दूसरे अंगों से परहेज नहीं होगा वही ऐसे अंग लगवाएंगे, और जिन्हें सूअर से परहेज है, वे या तो इंसानी अंग का इंतजार करेंगे या चल बसेंगे।
अभी हम इस बहस में पडऩा नहीं चाहते कि एक जानवर को उसके अंगों के लिए इस तरह से मारना कितनी बड़ी हिंसा है। क्योंकि उसके अंगों के लिए नहीं तो उसके मांस के लिए उसे मारा तो जाता ही है। इसलिए किसी जानवर का मारा जाना इतना बड़ा नहीं नैतिक मुद्दा भी नहीं है और वैज्ञानिक मुद्दा तो है ही नहीं। देखना यही है कि जिस सूअर को सबसे गंदा और सबसे निकृष्ट प्राणी मानकर लोग जिससे नफरत करते हैं, और बिना किसी वजह के नफरत करते हैं, उस प्राणी के बचाए हुए लोग बचना चाहेंगे या नहीं बचना चाहेंगे?
फिलहाल तो लोगों को अपनी जुबान सुधारनी चाहिए और पशु-पक्षियों को गालियां देना बंद करना चाहिए। ऐसा इसलिए भी करना चाहिए कि कुछ विज्ञान कथाओं में पहले भी ऐसा जिक्र हुआ है जिसमें इंसानों की नस्ल के करीब के माने जाने वाले बन्दर जैसे किसी प्राणी के शरीर में इंसान के जींस डालकर उसे एक टापू पर रेडियो कॉलर लगाकर छोड़ दिया जाता है, और जिस दिन उस इंसान को अंग प्रत्यारोपण की जरूरत पड़ती है तो वह पहुंचकर उस टापू के अस्पताल में भर्ती होते हैं, और रेडियो कॉलर के रास्ते उस प्राणी को ढूंढकर लाया जाता है, और उसके शरीर के अंग निकालकर इंसान को लगाए जाते हैं। रॉबिन कुक नाम के एक विज्ञान उपन्यासकार ने दशकों पहले यह कहानी लिखी थी जो कि अभी न्यूयॉर्क में सही साबित होते दिख रही है, और ठीक उस कहानी की तरह पहले सूअर के शरीर में इंसान के जींस डाले गए ताकि उसके अंग इस तरह तैयार रहें कि इंसान का शरीर उन्हें तुरंत ही रिजेक्ट ना कर दे। जानवर आज भी इंसानों के काम आ रहे हैं और आगे भी काम आते रहेंगे। इसलिए लोगों को अपनी कहावतें और मुहावरे सुधारने चाहिए, अपनी बोलचाल की और लिखने की भाषा भी सुधारनी चाहिए और कुत्ते, सूअर इन सबको गालियों की तरह इस्तेमाल करना बंद करना चाहिए।
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करीब 2 बरस की कोरोना के रुकावट के बाद अब उत्तराखंड में चार धाम की यात्रा शुरू होने को थी, कानूनी दिक्कतें भी सब हट गई थीं, और वहां पर ऐसी बाढ़ आई है कि अब तक 50 के करीब मौतें हो चुकी हैं, बहुत से लोग गायब हैं। भारी बारिश हुई है, नदियां उफन रही हैं, बड़े-बड़े रास्ते बंद हैं, सैलानी जगह-जगह फंसे हुए हैं, और फौज बचाव के काम में लगी हुई है। मौतों की तकलीफ से परे एक बात यह भी है कि उत्तराखंड का पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ है, देश भर से आए पर्यटक जगह-जगह फंसे हुए हैं और उन्हें बचाना एक बड़ी चुनौती हो गई है। इससे तुरंत मुसीबत से परे यह बात भी है कि प्रदेश में बहुत सी जगहों पर किसानों की फसल को भारी नुकसान हुआ है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले केदारनाथ में जो भयानक बाढ़ आई थी और जिसमें हजारों मौतों का अंदाज था, हजारों लोगों का अभी तक कोई पता भी नहीं चला है, उसके बाद यह एक बड़ा हादसा है हालांकि मौतें कम हैं लेकिन सैलानी जिस तरह प्रभावित हुए हैं उससे यह बात साफ है कि आने वाले वक्त में भी सैलानी यहां आने से कतराएंगे। दूसरी तरफ यही एक ऐसा वक्त है जब कश्मीर पहुंचने वाले सैलानी वहां छाँट-छाँट कर की जा रही हत्याओं को लेकर सदमे में हैं और कश्मीर का पर्यटन कारोबार भी बुरी तरह प्रभावित होने जा रहा है।
उत्तराखंड के इस ताजा प्राकृतिक हादसे के कई पहलू हैं। पहली बात तो यह कि पूरी दुनिया में मौसम की जो सबसे बड़ी और सबसे कड़ी मार के मौके हैं, वे लगातार बढ़ते चल रहे हैं, और वेदर एक्सट्रीम कही जाने वाली घटनाएं बार-बार हो रही हैं। मौसम में जो तब्दीली इंसानों की करतूतों से आई है, उसी का नतीजा आज उत्तराखंड में इस तरह देखने मिल रहा है। इसके पहले भी लोग लगातार यह बात कर रहे थे कि क्या भारत के पहाड़ी इलाके सचमुच ही इतने पर्यटकों को झेलने की हालत में हैं? क्या वहां पर इतनी सैलानी गाडिय़ों का धुआं, सैलानियों का इतना कचरा, सैलानियों का लाया हुआ खपत का इतना प्रदूषण, क्या ये पहाड़ सचमुच इतना सब कुछ झेलने की हालत में हैं? लगातार होटलों को बनाने के लिए, सडक़ों को चौड़ा करने के लिए, पुल बनाने के लिए, पेड़ कट रहे हैं, जंगल घट रहे हैं, और पत्थरों का सीना चीरकर लोगों की आवाजाही का, रहने का रास्ता तैयार किया जा रहा है। इन सबसे इस पहाड़ी इलाके की प्रकृति पर बड़ा बुरा असर पड़ रहा है जो कि पहले भी भूकंप के खतरे के बीच रहती है। इसलिए आज बिना देर किए यह भी सोचने की जरूरत है कि हिंदुस्तान के पर्यटन केंद्र कितने लोगों को झेल सकते हैं, किन मौसमों में झेल सकते हैं, और अगर पर्यटन उद्योग घटता है, तो फिर इन इलाकों की अर्थव्यवस्था का क्या होगा, क्योंकि यहां का कारोबार कश्मीर के कारोबार की तरह ही सैलानियों पर जिंदा रहता है। आतंक की वारदातों से या प्राकृतिक विपदाओं से जब कभी सैलानी घट जायेंगे तो इस इलाके में रोजगार की बहुत बड़ी दिक्कत खड़ी होगी। इसलिए पर्यटन कारोबार, प्राकृतिक विपदाओं, और जलवायु परिवर्तन के बीच एक संतुलन बनाकर चलना पड़ेगा जो कि आसान बात नहीं है। हिंदुस्तान जैसे देश में जहां पर पर्यटन कारोबार को नियंत्रित करने का अधिकतर अधिकार राज्य सरकारों का रहता है, वहां पर बहुत सोच-विचारकर कोई काम इसलिए नहीं होता कि राज्य सरकारें 5 बरस के लिए ही आती हैं और उन्हें उससे अधिक वक्त की बहुत फिक्र भी नहीं रहती। इसी उत्तराखंड के बारे में यह बात समझने की जरूरत है कि किस तरह वहां हर एक-दो बरस में मुख्यमंत्री बदलते आए हैं, तो ऐसे बदलते हुए मुख्यमंत्रियों से बहुत दीर्घकालीन योजनाओं की उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
दूसरी बात यह भी है कि हिंदुस्तान जैसे बड़े देश को जो कि बहुत विविधताओं वाला है और जहां पर पर्यटन के चुनिंदा इलाकों के बहुत से विकल्प हो सकते हैं, जहां पर बहुत सी ऐसी अच्छी जगहें बाकी हैं जहां पर अभी तक सैलानियों के जाने का कोई ढांचा नहीं बना है, तो हिमाचल, उत्तराखंड, कश्मीर जैसे परंपरागत पहाड़ी पर्यटन केंद्रों के साथ-साथ ऐसे दूसरे पर्यटन केंद्र भी विकसित करने की जरूरत है जिससे देश में कारोबार के कुल जमा मौके कम न हों। वैसे हो सकता है कि किसी एक प्रदेश में मौके कम हों, लेकिन हिंदुस्तान जैसे देश में तो लोग सारे प्रदेशों में आ-जाकर वहां कोई न कोई रोजगार और कारोबार ढूंढ ही लेते हैं। इसलिए देश को राष्ट्रीय स्तर पर यह सोचना चाहिए कि साल के अलग-अलग महीनों के लिए लोगों के पास समंदर से लेकर पहाड़ तक कौन से विकल्प हो सकते हैं? ऐसा करना देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा होगा और देश का राष्ट्रीय एकता का ढांचा भी इससे विकसित होगा। आज देश के लोकप्रिय पर्यटन केंद्र भीड़ से भरे रहते हैं, और दूसरी तरफ बड़ी संख्या में ऐसे प्रदेश हैं जिनको लोगों ने देखा भी नहीं रहता। कुदरत की ऐसी मार को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पूरे कैलेंडर को सामने रखकर, और अलग-अलग किस्म की जगहों को उनके मौसम के मुताबिक जांचकर पर्यटन का एक ढांचा विकसित करना चाहिए जिससे लोगों को भी जाने-आने का, देश को देखने का मौका मिले।
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अमरीका के लोग अपने अधिकारों को लेकर दुनिया में सबसे अधिक चौकन्ने लोगों में माने जाते हैं, और आज हालत यह है कि कोरोनावायरस की महामारी के बीच भी अमेरिकी लोग अपनी सरकारों से लड़ रहे हैं कि वे मास्क नहीं लगाएंगे, या टीके नहीं लगवाएंगे, और इसके बावजूद वे विमान में सफर करना चाहेंगे, या दफ्तर में काम करने जाना चाहेंगे। अधिकारों की यह पराकाष्ठा अमेरिका की तरह किसी और देश में देखने नहीं मिलती जहां लोग महामारी के बीच भी सडक़ों पर आकर मास्क जलाकर अपना रुख जाहिर करते थे और सरकारी प्रतिबंधों का विरोध करते थे। ऐसे अमेरिका में एक ताजा मामला सामने आया है जिसे अधिकारों की इस जागरूकता से जोडक़र देखने की जरूरत है।
अमरीका के फिलाडेल्फिया राज्य में एक ट्रेन में सफर कर रही महिला के बगल में बैठे हुए एक निहत्थे मुसाफिर ने उसके कपड़े फाडऩा शुरू कर दिया और फिर वहीं उसके साथ बलात्कार किया। वह अकेली महिला अपनी पूरी ताकत से इसका विरोध करती रही, लेकिन उस आदमी का मुकाबला नहीं कर पाई। करीब 10 मिनट तक चले इस हमले को आसपास के लोग दूसरे मुसाफिर न सिर्फ देखते रहे, बल्कि अपने मोबाइल फोन से फोटो भी खींचते रहे, और वीडियो भी बनाते रहे। उस महिला का बयान और ट्रेन के डिब्बे में लगे सुरक्षा कैमरों की जांच से यह पता लगता है कि इतनी संख्या में मुसाफिर आसपास थे कि वे मिलकर इस बलात्कारी को पकड़ सकते थे, रोक सकते थे, उनमें से हर किसी के पास मोबाइल फोन थे जिससे वे 911 नंबर डायल करके पुलिस को खबर कर सकते थे या ट्रेन के डिब्बे के भीतर लगे हुए इमरजेंसी अलार्म की बटन दबा सकते थे, या जोरों से चीखकर भी बलात्कारी को डरा सकते थे। लेकिन उन्होंने इनमें से कोई भी काम नहीं किया। उस डिब्बे में पहुंची एक सरकारी कर्मचारी ने जब इस महिला की हालत देखी तो उसने रेलवे और पुलिस दोनों को खबर की, अगले स्टेशन पर इस महिला को उतारकर अस्पताल भेजा गया और उस बलात्कारी को गिरफ्तार किया गया। अब फिलाडेल्फिया के सरकारी वकील यह तय करेंगे कि डिब्बे में मौजूद दूसरे लोग जिन्होंने ऐसी मुसीबत के वक्त भी उस महिला की मदद नहीं की, क्या उनके खिलाफ किसी तरह की कानूनी कार्यवाही की जा सकती है? हालांकि जो लोग ऐसी नौबत में आसपास के लोगों को मदद के लिए आगे बढऩे की ट्रेनिंग देते हैं उनका यह भी कहना है कि लोगों के आगे ना आने की कई वजहें हो सकती हैं जिनमें से एक यह कि वे सदमे में चले जाते हैं, दूसरी वजह ये कि वे यह मानकर चल रहे हैं कि कोई और पहल करें, और तीसरी वजह यह भी हो सकती है कि उन्हें यह भरोसा ना हो कि वे अगर पहल करें तो दूसरे लोग साथ देंगे या नहीं। लेकिन इस मामले में बलात्कारी जाहिर तौर पर निहत्था था, वह एक अकेली महिला से डिब्बे के भीतर बलात्कार कर रहा था, और आसपास के लोग उसका फोटो ले रहे थे उसके वीडियो बना रहे थे, जबकि वे इतनी संख्या में थे कि वे बलात्कार रोक सकते थे।
इस बात को समझने की जरूरत है कि जो समाज अपने अधिकारों को लेकर इस कदर चौकन्ना रहता है कि बात-बात में सरकार के खिलाफ, स्थानीय संस्थाओं के खिलाफ अदालतों तक पहुंच जाता है, मुकदमे दायर करने लगता है, ऐसा समाज अपने बीच किसी महिला पर हुए ऐसे हमले की नौबत में कैसे दर्शनार्थी बने रहता है, बल्कि कैसे वह इसका वीडियो बनाते बैठे रह सकता है, जबकि किसी एक की पहल करने पर और लोग भी सामने आ सकते थे, या किसी एक के चीखने-चिल्लाने पर बलात्कारी डरकर हट सकता था। अपने अधिकारों और अपनी जिम्मेदारियों के बीच का यह बहुत बड़ा फासला अमेरिकी समाज की आज की एक बहुत ही कड़वी और दर्दनाक हकीकत बतलाता है कि लोगों की कानूनी जागरूकता महज अपनी मतलबपरस्ती तक सीमित है, और अपनी जिम्मेदारियों को लेकर उनके बीच जागरूकता नहीं है, उन्हें उसकी परवाह भी नहीं है। अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग किस्म के कानून हैं, और शायद इस राज्य फिलाडेल्फिया में ऐसा कानून नहीं है कि किसी जुर्म के गवाह लोगों को जुर्म के शिकार की किसी तरह की मदद करना ही चाहिए। इसलिए हो सकता है कि इस डिब्बे के बाकी मुसाफिरों के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही ना हो सके।
एक दूसरी हकीकत यह है जो अमरीका के बाहर भी बाकी दुनिया पर भी लागू होती है कि आज लोगों ने मानो अपनी आंखों से कोई भी उल्लेखनीय, महत्वपूर्ण, चौंकाने वाली या सदमा पहुंचाने वाली बात देखना बंद कर दिया है। आज लोग इनमें से जो भी देखते हैं, वह किसी मोबाइल कैमरे के मार्फत देखते हैं। उनके भीतर के इंसान ऐसे मोबाइल फोन के पीछे रहते हैं और कैमरे का लेंस मानो एक सरहद बन जाता है जिसके पास जाकर इन इंसानों को किसी दूसरे की कोई मदद करना जरूरी नहीं रहता। लोगों को याद होगा कि पिछले बहुत सालों से एक कार्टून चारों तरफ फैला हुआ है जिसमें पानी में डूबते हुए किसी एक इंसान का एक हाथ ही बचाने की अपील करता हुआ सतह के ऊपर, बाहर दिख रहा है, और किनारे खड़े हुए दर्जनों लोग अपने-अपने मोबाइल फोन से उसकी फोटो ले रहे हैं, या उसका वीडियो बना रहे हैं। यह नौबत बहुत ही खतरनाक है। हम बहुत दूर जाना नहीं चाहते, अभी 4 दिन पहले ही दिल्ली-हरियाणा सीमा पर किसान आंदोलन के धरना स्थल के पास ही निहंगों के एक जत्थे ने एक दलित नौजवान को सिख धार्मिक ग्रंथ की बेअदबी के आरोप में काटकर टांग दिया, और इस क़त्ल को रोकने वाले कोई नहीं थे। सिख निहंगों ने इस पूरे जुर्म की तोहमत अपने पर ली है और शान से सम्मान करवाते हुए पुलिस के सामने समर्पण किया है। अब जांच में ही पता लग सकेगा कि क्या इतनी हिंसा और इतना खून-खराबा यह किसान आंदोलन के पास, उनके देखते हुए हुआ, या उनके देखे बिना हुआ। और यही एक मामला नहीं है, हिंदुस्तान में जगह-जगह जहां-जहां भीड़त्या कर दी जाती है, या कि गुंडे और दबंग किसी एक गरीब या कमजोर पर हिंसा करते हैं, उसे मार डालते हैं, या जख्मी करते हैं, या उसके कपड़े उतारकर उसका जुलूस निकालते हैं, किसी महिला के साथ भी ऐसा सुलूक करते हैं, और लोग उसके वीडियो बनाते खड़े रहते हैं। पिछले कई वर्षों में ऐसा कोई वीडियो देखना हमें याद नहीं पड़ रहा जिसमें लोग हिंसा का कोई विरोध कर रहे हैं, उसे रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए वह आज महज अमरीकियों को गाली देना ठीक नहीं है। यह भी याद करने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में जब कोई गिरोह कोई टोली या कोई भीड़त्या करने की हद तक हमलावर हो जाती है, तो हिंदुस्तानी भी महज उसका वीडियो बनाने तक सीमित रहते हैं।
यह पूरा सिलसिला इंसान के भीतर की सोच को एक चुनौती देता है जिसे कि बोलचाल में इंसान इंसानियत कहते हैं। हालांकि इंसानियत और हैवानियत नाम की दो अलग-अलग चीजें होती नहीं हैं, और ये दोनों ही एक ही इंसान के भीतर अलग-अलग अनुपात में हो सकती हैं या होती हैं। यह सिलसिला बहुत ही भयानक है क्योंकि यह एक और झूठ को उजागर करता है जिसे समाज की सामूहिक चेतना कहा जाता है। जब लोग समाज की इज्जत करना चाहते हैं, या समाज के लोगों की इज्जत करना चाहते हैं, तो वे समाज की सामूहिक चेतना जैसे फर्जी शब्द का इस्तेमाल करते हैं। जैसा कि अमेरिकी ट्रेन के एक डिब्बे के लोगों ने साबित किया, या जैसा कि सिंघु बॉर्डर पर एक निहत्थे दलित की हत्या से साबित हुआ, या कि जैसा देश भर में कमजोर तबकों पर सार्वजनिक जुल्म से साबित होता है, समाज की सामूहिक चेतना एक फर्जी मुखौटा है जिसके पीछे कोई सच नहीं होता। सच तो यही होता है कि लोग अपने मोबाइल फोन के कैमरे के लेंस के पीछे महफूज बैठे रहना चाहते हैं, और वे दूसरों पर हो रही हिंसा को भी अपने मजे का सामान मानकर चलते हैं। अपने आसपास के बारे में सोचकर देखें कि क्या आपके इर्द-गिर्द ऐसा कोई बलात्कार होने लगेगा तो आप उठकर, खड़े होकर उसे रोकने की कोशिश करेंगे, या फिर उसका वीडियो ही बनाते रहेंगे। अपने खुद के हौसले और अपनी नैतिक जिम्मेदारी इन दोनों को तौल लेना ठीक है। और इसके साथ-साथ यह भी समझ लेना बेहतर होगा कि आपके घर वालों के साथ अगर ऐसा बलात्कार होगा, और दूसरों के पास महज वीडियो कैमरे की बटन दबाने के लिए एक अंगूठा होगा, तो आपको कैसा लगेगा?
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छत्तीसगढ़ में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब सडक़ों पर दुपहियों के एक्सीडेंट में किसी की मौत ना होती हो। और ऐसा करीब-करीब बाहर राज्य में होता होगा, बहुत छोटे राज्यों में शायद हर दिन मौत न होती हो, लेकिन देश के छत्तीसगढ़ जितने बड़े किसी भी राज्य में रोजाना सडक़ों पर कई मौतें होती हैं, और यहां इस राज्य में तो लगातार दुपहियों पर मौत दिखती है। पुलिस की जानकारी बतलाती है कि इनमें से शायद ही कोई हेलमेट पहने रहते हैं, और किसी भी हादसे में सिर पर लगने वाली चोट के बाद बचने की गुंजाइश कम रहती है, जो कि हेलमेट से बच सकती थी। देशभर में सडक़ों के लिए यह नियम तो लागू है कि बिना हेलमेट लोगों पर जुर्माना लगाया जाए, दुपहिया पर तीन लोग दिखें तो जुर्माना लगाया जाए, या कारों और बड़ी गाडिय़ों में लोग बिना सीट बेल्ट दिखें तो जुर्माना लगाया जाए, या किसी भी तरह की गाड़ी चलाते हुए लोग अगर मोबाइल फोन पर बात कर रहे हैं तो उन पर जुर्माना लगाया जाए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। छत्तीसगढ़ की राजधानी में बैठकर हम देखते हैं जहां पर पुलिस की कोई कमी भी नहीं है वहां पर भी चौराहों पर से इन तमाम नियमों को तोड़ते हुए लोग निकलते हैं, लेकिन उनका चालान होते नहीं दिखता। नतीजा यह होता है कि बड़ों को देखकर बच्चे भी कम उम्र से ही इन तमाम नियमों को तोडऩा सीख जाते हैं, और उनके मिजाज में नियमों का सम्मान करना कभी आ भी नहीं पाता।
दिक्कत यह है कि जो लोग ऐसे नियम तोड़ते हैं वे न सिर्फ खुद खतरे में पड़ते हैं बल्कि सडक़ों पर दूसरे तमाम लोगों को भी बड़े खतरे में डालते हैं। कुछ लोगों की लापरवाही का दाम दूसरे लोग अपनी जिंदगी देकर चुकाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की वजह से या लापरवाही की वजह से, या ताकतवर लोगों से किसी टकराव से बचने के लिए, जब कभी पुलिस सडक़ों पर अपनी जिम्मेदारी से मुकरती है, वह बहुत सी जिंदगियों को खतरे में डालती है। इसी छत्तीसगढ़ में आज से 20-25 बरस पहले हमने एक जिले के एसपी को कड़ाई से हेलमेट लागू करवाते देखा था, और उस पूरे जिले में कोई दुपहिया बिना हेलमेट नहीं दिखता था। अगर लोगों पर हजार-पांच सौ रुपये जुर्माना होने लगे तो तुरंत ही सारे लोग नियमों को मानने लगेंगे। लगातार जुर्माना करके नियम लागू करवाने में पुलिस का कुछ भी नहीं जाता, लेकिन जैसे-जैसे सत्तारूढ़ दल, दूसरी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया के लोग अपनी ताकत का इस्तेमाल करके ट्रैफिक पुलिस की कार्यवाही को रोकते हैं, वैसे-वैसे पुलिस का हौसला पस्त होते जाता है, और सडक़ों पर तमाम लोगों के लिए खतरा बढ़ जाता है।
हिंदुस्तान में कई ऐसे प्रदेश हैं जहां कई शहरों में हेलमेट लागू है और 100 फ़ीसदी लोग उसका इस्तेमाल करते हैं या फिर जुर्माना पटाते हैं। इन शहरों में बिना हेलमेट लोग 2-4 चौराहे भी पार नहीं कर पाते। हेलमेट जैसे नियम को लागू करना सत्तारूढ़ लोगों के लिए चुनाव के ठीक पहले तो एक परेशानी की वजह हो सकती है क्योंकि जिन लोगों की जिंदगी बचाने के लिए यह किया जा रहा है, वैसे वोटर भी इस बात को लेकर तात्कालिक रूप से नाराज हो सकते हैं, और अगर चुनाव कुछ महीनों के भीतर हों, तो उसमें सत्तारूढ़ पार्टी को इस नियम को लागू करवाने का नुकसान हो सकता है। लेकिन जब कोई चुनाव सामने नहीं रहता, वह वक्त किसी भी सरकार के लिए या स्थानीय संस्थाओं के लिए नियमों को कड़ाई से लागू करवाने का मौका रहता है, जिससे नियम भी लागू हो जाए और वोटरों की नाराजगी चुनाव तक शांत भी हो जाए. लोगों को यह समझ भी आ जाए कि हेलमेट सरकार की जिंदगी बचाने के लिए नहीं है, दुपहिया चलाने वालों की जिंदगी बचाने के लिए है। हमने इस अखबार में वर्षों तक हेलमेट की जरूरत को लेकर जन जागरण अभियान चलाया। लेकिन जब सरकार की नीयत ही इसे लागू करने की नहीं रहती, तो कोई अखबार इसमें क्या कर ले।
छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश की हालत यह है कि जब भाजपा में सरकार रहती है तो विपक्षी कांग्रेस पार्टी सरकार के फैसले को ‘हेलमेट के दलाल का फैसला’ करार देती है। और जब कांग्रेस सत्ता में आती है तो विपक्षी भाजपा हेलमेट के खिलाफ हो जाती है। राजनीति इतनी सस्ती और घटिया हो चुकी है कि नेता लोगों की जिंदगी की कीमत पर उन्हें जागरूकता से दूर रखना चाहते हैं, गैर जिम्मेदारी सिखाते हैं, और उनकी जिंदगी खतरे में डालते हैं। जो नेता हेलमेट के खिलाफ सडक़ों पर आते हैं वे खुद तो जाने कहां से की गई कमाई से खरीदी गई बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं खुद महफूज रहते हैं, और दुपहिया वालों की जिंदगी खतरे में डालकर अपनी नेतागिरी चलाते हैं। हम ऐसी किसी भी सरकार को गैर जिम्मेदार मानते हैं जो लोगों की जिंदगी बचाने की पूरी-पूरी संभावना रखने वाले नियमों को लागू करने की अपनी जिम्मेदारी से कतराती हैं, और लोगों को गैर जिम्मेदार बनाती हैं। छत्तीसगढ़ में अभी अगला चुनाव 2 बरस बाद है । अगर सरकार अभी से ट्रैफिक नियम कड़ाई से लागू करे तो अगले चुनाव तक लोगों का गैरजिम्मेदारी छोडऩे का दर्द जाता रहेगा, और वे हेलमेट लगाना सीख जाएंगे, सीट बेल्ट लगाना सीख जाएंगे, मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाना छोड़ देंगे। लेकिन इसके लिए सरकार में जिम्मेदारी की जरूरत है। देश में नियम-कानून पर्याप्त बने हुए हैं, और उनका इस्तेमाल करना सरकार की एक बुनियादी जिम्मेदारी है।
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उत्तर प्रदेश के सोनभद्र की खबर है कि वहां ट्रैफिक जाम की वजह से एक एंबुलेंस उसमें फंसी रही उसमें एक गर्भवती महिला दर्द से छटपटाते रही। अस्पताल जाने का कोई रास्ता नहीं मिला, और एंबुलेंस में ही उस महिला और उसके गर्भस्थ बच्चे की मौत हो गई। यह बताया जा रहा है कि इस इलाके में अक्सर ऐसा ट्रैफिक जाम रहता है। दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के रायपुर का एक वीडियो किसी ने व्हाट्सएप पर भेजा था कि राजधानी में दुर्गा विसर्जन के जुलूस में किस तरह एक एंबुलेंस फंसी हुई थी, और वह अपना सायरन बजाते खड़ी थी किसी को उसे जगह देने की फुर्सत नहीं थी। छत्तीसगढ़ में ही जशपुर जिले में एक जगह दुर्गा विसर्जन के जुलूस पर गांजा तस्करों ने गाड़ी चढ़ा दी और एक मौत हुई, बहुत से जख्मी हुए। इसके बाद मानो यह काफी नहीं था, तो मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में दुर्गा विसर्जन के जुलूस में किसी ने कार चढ़ा दी और कई लोग घायल हो गए। हालांकि जिस बात से हमने यह चर्चा शुरू की है सोनभद्र का वह ट्रैफिक जाम किसी धार्मिक वजह से नहीं था, लेकिन हिंदुस्तान में आमतौर पर ट्रैफिक जाम की एक बड़ी वजह धार्मिक आयोजन रहते हैं। तरह-तरह के जुलूस निकलते हैं, और सडक़ों पर बेकाबू धार्मिक कब्जा हो जाता है, जिसे रोकने की ताकत पुलिस में भी नहीं रहती। इसके अलावा भी दूसरे किस्म की दिक्कतें लोगों को होती हैं और लाउडस्पीकरों के शोरगुल से लोगों का जीना हराम होते रहता है, लेकिन हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के आदेश थानों में धूल खाते पड़े रहते हैं, जिलों के अफसरों के लिए जब तक कोई निजी अवमानना नोटिस अदालत से ना आ जाए तब तक उनकी सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि धार्मिक गुंडागर्दी कितनी बढ़ रही है। और यह बात महज किसी एक धर्म की नहीं है, तकरीबन सभी धर्मों का यही हाल है, और हिंदुस्तान में तो स्थानीय शासन या राज्य शासन की लापरवाही और ढीलेपन के चलते हुए सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर अवैध कब्जे, हर किस्म के अवैध निर्माण, और नियमों के खिलाफ शोरगुल, नियमों के खिलाफ ट्रैफिक जाम, यह इतनी आम बात हो गई है कि एक धर्म की अराजकता को देखकर दूसरे धर्म के लोग हौसला पाते हैं, और जब तक वह भी इससे अधिक ऊंचे दर्जे की अराजकता खड़ी ना कर दें वे मानो हीनभावना के शिकार रहते हैं।
यह सिलसिला बढ़ते ही चल रहा है, या कम होते नहीं दिखता। किसी भी धर्म स्थल को सडक़ तक कब्जा करते देखा जा सकता है, और वहां आने वाले लोगों के लिए कोई जगह न छोडक़र सब कुछ सडक़ों पर किया जाता है। धर्म स्थलों के अवैध कब्जे और अवैध निर्माण पूरी-पूरी रात जागकर होते हैं, और ऐसी साजिश के साथ होते हैं कि जिन दिनों पर अदालतें बंद हैं, सरकारी दफ्तर बंद है, उन्हीं दिनों पर इन्हें किया जाए ताकि कोई रोकने वाले लोग न रहे। सरकारें चलाने वाले राजनीतिक दल वोटरों के किसी भी तबके को नाराज करने से इस कदर डरे-सहमे रहते हैं कि धर्म या जाति के आधार पर बने हुए संगठनों की किसी भी किस्म की अराजकता पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। नतीजा यह होता है कि धर्म से जुड़े हुए लोग अब तक की जा चुकी अराजकता से आगे बढक़र और अधिक अराजकता की तरफ आगे बढ़ते रहते हैं। हिंदुस्तान की अदालतों के, और खासी बड़ी-बड़ी अदालतों के बड़े-बड़े जज जिस तरह से खुलेआम अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन करते हैं, उसके चलते भी लोगों को यह लगता है कि वे भी अपनी धार्मिक आस्था के प्रदर्शन को किसी भी दूसरे धर्म के मुकाबले अधिक बढ़-चढक़र दिखा सकते हैं, और इसके लिए जब तक सडक़ें बंद ना हो जाएं, जब तक शोरगुल से लोगों के कान न फट जाएं, तब तक धर्मांध लोगों को चैन नहीं पड़ता।
अब सवाल यह उठता है कि जब धर्मों के बीच आपसी मुकाबला बढ़ रहा है और यह मुकाबला किसी रहमदिली के लिए नहीं, अराजकता के लिए बढ़ रहा है, गलत कामों के लिए बढ़ रहा है, सडक़ों पर लोगों का जीना हराम करने के लिए बढ़ रहा है, उस वक्त जो लोग अमन-चैन से जीना चाहते हैं, जो लोग धर्म को निजी आस्था का बनाए रखना चाहते हैं, वे लोग क्या करें ? क्या उनको बचाने के लिए कोई है? कोई अदालत, कोई कानून, कोई सरकार कोई है? अभी तक का हमारा जो देखा हुआ है वह यही कहता है कि धर्म की अराजकता को कोई रोकना नहीं चाहते हैं, बल्कि लोग उसे बढ़ाते चले जाना चाहते हैं। राजनीति में धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने से लोगों को वोटों की शक्ल में फायदा होता है क्योंकि नफरत और हिंसा लोगों को आपस में तुरंत बांध लेते हैं, तुरंत जोड़ लेते हैं, और राजनीति ऐसा ही फेविकोल के समान मजबूत जोड़ चाहती है ताकि वोटरों को आपस में बांधा जा सके, उन्हें दूसरे धर्म का नाम लेकर डराया जा सके, अपने धर्म की रक्षा की जरूरत बताई जा सके, और यह साबित किया जा सके कि जिस नेता के नाम पर उनसे वोट मांगा जा रहा है वही एक नेता उनके धर्म को बचा सकता है। यह सिलसिला इस देश में बढ़ते चल रहा है और हर चुनाव धर्मांधता को सांप्रदायिकता को कट्टरता को कुछ और आगे तक बढ़ा देता है। ऐसे में सडक़ों पर बेकसूर लोग तकलीफ पाते रहेंगे, और पुलिस इस पूरी अराजकता को अनदेखा करने के लिए बेबस रहेगी क्योंकि उसे वैसा ही कहा गया है।
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पिछले दो-तीन दिनों में दुनिया के अलग-अलग देशों में जो वारदातें हुई हैं, उन्हें अगर देखें, तो धर्म और लोकतंत्र को लेकर एक बुनियादी टकराव खड़ा होते दिखता है। यूरोप के नार्वे में दो दिन पहले तीर-धनुष लेकर एक मुस्लिम नौजवान ने 5 लोगों को मार डाला। पुलिस का मानना है कि इस हमलावर ने इस्लाम अपनाया था, और ऐसा लग रहा है कि वह कट्टरपंथ के असर में था। पुलिस इसे एक आतंकी हमला मान रही है। दूसरी तरफ कल की ताजा खबर यह है कि ब्रिटेन में वहां के एक कंजरवेटिव सांसद सर डेविड अमेस को एक नौजवान ने चाकू के कई वार करके मार डाला। वे अपने चुनाव क्षेत्र के एक चर्च में आम लोगों से मुलाकात कर रहे थे, और यह गिरफ्तार किया गया नौजवान 25 साल का ब्रिटिश नागरिक बताया जाता है, जो कि सोमालिया से वहां आकर बसा था, और पुलिस का कहना है कि यह इस्लामिक अतिवाद से जुड़ा हुआ हो सकता है। एक तीसरी वारदात हिंदुस्तान में दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर पर हुई है, जहां एक दलित नौजवान को सिक्ख निहंगों ने तलवार से काटकर उसके शरीर के हिस्से, और उसके धड़ को टांग दिया और सार्वजनिक जगह पर उसकी नुमाइश की। इस हत्या की जिम्मेदारी लेते हुए निहंगों ने यह कहा कि उसने एक धार्मिक ग्रंथ का अपमान किया था और इसकी सजा देने के लिए हत्यारे निहंग का बाकी निहंगों ने सम्मान करते हुए पुलिस के सामने समर्पण के लिए भेजा। यह ग्रंथ सिखों के सबसे पवित्र माने जाने वाले गुरु ग्रंथ साहिब से अलग एक ग्रंथ है जिसके कुछ हिस्सों को सिख मानते हैं, और कुछ हिस्सों को वे नहीं मानते। फिर मानो यह मामला काफी न हो, हाल के चार-छह दिनों में ही बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान हिंसक मुस्लिम भीड़ ने इस्कॉन मंदिर और दुर्गा पूजा पंडालों पर हमला किया, कई प्रतिमाओं को तोड़ा, और कई हिंदुओं को मार डाला। अभी तक वहां आधा दर्जन हिंदू मारे जा चुके हैं।
इस पूरे सिलसिले को देखें तो दुनिया भर में अलग-अलग जगहों पर धर्म से जुड़े हुए लोग तरह तरह से लोगों की हत्या कर रहे हैं। खासकर दिल्ली-हरियाणा सीमा पर निहंगों ने जिस तरह एक दलित के टुकड़े-टुकड़े करके टांगे हैं, उसकी तो कोई मिसाल भी हिंदुस्तान में याद नहीं पड़ती है। और इस बात पर बाकी निहंगों को फख्र है. क्योंकि यह क़त्ल किसान आंदोलन के पास हुआ है, इसलिए बदनामी आज किसानों पर भी आ रही है। इनसे परे अभी-अभी अफगानिस्तान में काबिज हुए तालिबान के राज को देखें तो वहां पर इस्लामी आतंकी संगठन आई एस के हमले जारी हैं, और वह शिया मुस्लिमों की मस्जिदों पर, उनके जनाजे पर लगातार हमले कर रहे हैं, और एक-एक हमले में दर्जनों लोगों को मार रहे हैं। अफगानिस्तान के यह सारे के सारे लोग एक ही खुदा को मानने वाले लोग हैं, उनके रिवाजों और तौर-तरीकों में थोड़ा सा फर्क है, लेकिन सभी मुसलमान हैं, और एक-दूसरे को इतनी बड़ी संख्या में बिना किसी उकसावे के, बिना किसी वजह के, आतंक से मार रहे हैं।
अफगानिस्तान तो अभी किसी लोकतंत्र से कोसों दूर है, लेकिन जो लोग ब्रिटेन या नार्वे या हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में जीते हुए यहां की सारी लोकतांत्रिक सहूलियतों का मजा लेते हैं, सारे अधिकार पाते हैं, वे भी धर्म की बारी आने पर किसी भी किस्म की हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं। एक दूसरी घटना अभी कुछ ही दिन पहले न्यूजीलैंड में सामने आई थी जहां पर श्रीलंका से गए हुए एक मुस्लिम छात्र ने चाकू से हमला करके आधा दर्जन लोगों को घायल कर दिया था। सितंबर के पहले हफ्ते में हुई इस वारदात में न्यूजीलैंड गया हुआ यह छात्र 2011 से वहां पढ़ रहा था, लेकिन उसकी शिनाख्त चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के समर्थक की थी। इसने जब कई लोगों को चाकू के हमले से घायल कर दिया, तो पुलिस ने मौके पर ही उसे मार डाला।
अब सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र में जहां सभी देशों से आए हुए, या सभी धर्मों के लोगों को बराबरी से मौका मिलता है, वहां पर अगर कुछ धर्मों के लोग लगातार हिंसा करते हैं, तो उससे सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं के धर्मों के बाकी लोगों को होता है जो शक के घेरे में आ जाते हैं, और जिनकी विश्वसनीयता खत्म हो जाती है। हिंदुस्तान में भी जब पंजाब में आतंकवाद फैला हुआ था और भिंडरावाले के आतंकी स्वर्ण मंदिर से बाहर निकल लगातार आतंकी वारदातें करते थे छंाट-छांटकर गैरसिक्खों को मारते थे, तब भी पूरे हिंदुस्तान में सिखों के खिलाफ एक सामाजिक तनाव बना हुआ था। आज भी जब पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर हमले होते हैं, तो हिंदुस्तान में हिंदुओं की एक नाराजगी मुस्लिमों के खिलाफ होती है। ठीक वैसी ही नाराजगी आज बांग्लादेश को लेकर हिंदुस्तान में है। और ठीक ऐसी ही नाराजगी यूरोप के देशों में या न्यूजीलैंड में मुस्लिम समुदाय के लोगों को लेकर खड़ी हुई है, या दूसरे देशों से वहां आए हुए शरणार्थियों को लेकर स्थानीय लोगों के भीतर एक तनाव खड़ा हुआ है।
दुनिया का इतिहास इस बात को बताता है कि धार्मिक कट्टरता और लोकतंत्र का कोई सहअस्तित्व नहीं है। वे एक साथ नहीं चल सकते। लोग जब धर्म को लेकर कट्टर हो जाते हैं तो उनके लिए किसी देश का संविधान, या वहां की शासन व्यवस्था जरा भी मायने नहीं रखते। यह हिंदुस्तान में बहुत से धर्मों को लेकर बहुत से मामलों में सामने आ चुकी बात है, और पूरी दुनिया ऐसी धर्मांधता को भुगतते रहती है। दुनिया के जिस-जिस लोकतंत्र में राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि आज तो धार्मिक आतंकी लोग दूसरे धर्म के लोगों पर हमला कर रहे हैं, कल वे अफगानिस्तान की तरह अपने धर्म के ही दूसरी पद्धति से पूजा करने वाले लोगों पर हमला करेंगे और अधिक समय नहीं लगेगा जब वह लोकतंत्र पर हमला करने लगेंगे, और अपनी धार्मिक मान्यताओं को लोकतंत्र और संविधान से बहुत ऊपर मानने लगेंगे। लोगों को याद होगा हिंदुस्तान में बहुत बरस तक चले राम मंदिर आंदोलन का नारा ही यही था कि मंदिर वहीं बनाएंगे। अब जो मामला अदालत में चल रहा था वहां अदालत का फैसला आने के दशकों पहले से अगर लोग मंदिर वही बनाने को लेकर एक उग्र और हिंसक आंदोलन चला रहे थे और भीड़ की शक्ल में जाकर उन्होंने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था, तो यह समझने की जरूरत है कि धर्मांध और कट्टर भीड़ किसी कानून को नहीं मानती। दुनिया के अलग-अलग देशों की इन वारदातों को लेकर लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे लोकतंत्र खत्म करने की कीमत पर भी अपने धर्म को हिंसक और हमलावर बनाना चाहते हैं?
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एक योगी कहे जाने वाले आदमी की चलाई जा रही उत्तर प्रदेश सरकार के तहत इस राज्य का हाल ऐसा हो गया है कि देखकर हैरानी होती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कुछ महीने बाद के चुनाव की तैयारी में आज हिंदुस्तान के अधिकतर समाचार चैनलों पर कई-कई मिनट का इश्तहार लेकर मौजूद हैं और यह साबित करने में लगे हुए हैं कि वहां एक रामराज्य चल रहा है। लेकिन हालत यह है कि उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक घटनाओं से भरा हुआ है, बलात्कारों से भरा हुआ है, सत्तारूढ़ भाजपा के लोगों की गाडिय़ों से कुचले हुए किसानों की लाशें अभी आंखों के सामने ही हैं. खुद मुख्यमंत्री के गोरखपुर शहर में योगीराज का विकास देखने बाहर से आकर ठहरे हुए एक शरीफ इंसान को पुलिस आधी रात होटल के कमरे से निकालकर पीट-पीटकर मार डाल रही है, और सरकार को उसकी पत्नी को सरकारी नौकरी देनी पड़ रही है। खबरों की किसी भी वेबसाइट को खोलें तो उत्तर प्रदेश के तरह-तरह के जुर्म भरे पड़े रहते हैं। और जुर्म केवल सत्तारूढ़ लोग कर रहे हैं ऐसा भी नहीं है, अयोध्या की खबर सामने है कि दुर्गा पूजा के दौरान फायरिंग, एक मौत, दो बच्चियां गंभीर, एक दूसरी खबर है कि रामलीला के मंच पर अश्लीलता रोकने गए दारोगा, सिपाहियों को भीड़ ने दौड़ाया, इस तरह की खबरें उत्तर प्रदेश से हर दिन दर्जनों की संख्या में आ रही हैं। मतलब यही है कि वहां राजकाज बदहाल है और राम का नाम लेकर जैसे रामराज को गिनाया जा रहा है उसे सुनकर अगर राम कहीं हैं तो वह भी बेहद शर्मिंदा होंगे। अब कहने के लिए यह कहा जा सकता है उत्तर प्रदेश तो हमेशा से ऐसे जुर्म से भरा हुआ राज रहा है, कोई यह भी कह सकते हैं कि मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के राज में और ज्यादा जुर्म होते थे, कोई यह भी कह सकते हैं कि बसपा की मायावती मुख्यमंत्री थी तब भी जुर्म बहुत होते थे। लेकिन राम का नाम लेकर काम करने वाले, बिना परिवार वाले, अपने-आपको योगी और सन्यासी बताने वाले एक मुख्यमंत्री के राज में भी अगर यही हाल होना है तो फिर क्या बदला है? और यह तो इस राज्य का पांचवां साल चल रहा है, पांचवें साल के आखिरी महीने चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश की पुलिस की हरकतें पूरी तरह से सांप्रदायिक भी दिखती हैं, जातिवादी दिखती हैं, और अपार हिंसा वहां की पुलिस के कामकाज में सामने आ रही है। बलात्कार की शिकार कोई लडक़ी या महिला थाने पहुंचे तो उसके साथ और बलात्कार हो जाए, इस किस्म की बातें वहां से आती हैं।
यह उत्तर प्रदेश हिंदुस्तान को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाला प्रदेश रहा है, और महज कांग्रेस के प्रधानमंत्री नहीं, कई पार्टियों के प्रधानमंत्री यहां से दिल्ली पहुंचे हैं। ऐसे में यह प्रदेश न केवल पिछड़ा रह गया, न केवल अनपढ़ रह गया, न केवल आबादी अंधाधुंध बढ़ाने वाला रह गया, बल्कि यह प्रदेश देश की सबसे हिंसक पुलिसवाला प्रदेश बन गया है, और देश में सांप्रदायिकता शायद सत्ता की मर्जी से इस हद तक तो किसी और प्रदेश में चलती नहीं दिखती है। रही सही कसर किसान आंदोलन पर केंद्रीय मंत्री के बेटे का कार चढ़ा देना था, तो वह भी हो गया है और उत्तर प्रदेश सरकार से लेकर भारत सरकार तक के लिए एक शर्मिंदगी की बात खड़ी हुई है।
ऐसे उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में भाजपा के सामने आज कम से कम तीन पार्टियां तो दिख रही हैं जिनमें समाजवादी पार्टी की संभावनाएं सबसे अधिक बताई जा रही हैं, उसके बाद बसपा की, और उसके बाद कुछ लोगों का कहना है कि कांग्रेस को भी कुछ सीटें मिल सकती हैं। अभी-अभी एक चुनावी सर्वे सामने आया जो कांग्रेस को शायद दो-चार सीटें दे रहा है। चुनावी नतीजे आने के बाद कांग्रेस को कितनी सीटें मिलती हैं, और कितने वोट मिलते हैं, यह साफ होगा। लेकिन आज जब उत्तर प्रदेश में सरकार का इतना खराब हाल है तो कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भाजपा के खिलाफ समाजवादी पार्टी की संभावनाएं बहुत बड़ी हैं। और इसी के साथ-साथ कुछ लोगों का यह भी मानना है कि कांग्रेस वहां पर वोट काटने वाली एक पार्टी बनकर रह गई है, और प्रियंका गांधी को जितनी शोहरत मिलेगी, उतना ही नुकसान समाजवादी पार्टी का होगा। अब इस बात को बंगाल की मिसाल से समझना बेहतर होगा कि जिस बंगाल में भाजपा की संभावनाएं अंधाधुंध देखी जा रही थीं, और ममता को लोग डावांडोल मान रहे थे वहां पर कांग्रेस और वामपंथी जब शून्य पर चले गए, और ममता बनर्जी आसमान पर चली गईं, और भाजपा को बुरी तरह पीछे छोड़ा। अब अगर उत्तर प्रदेश में वैसी ही एक नौबत आनी है, तो यह जाहिर है कि कांग्रेस वहां पर भाजपा के परंपरागत वोटों में तो कोई सेंध लगा पाने से रही, वह समाजवादी पार्टी या बसपा को मिलने जा रहे ऐसे ही कुछ वोटों को कम करके अपनी थोड़ी सी गुंजाइश निकाल सकती है। ऐसे माहौल में लोग अगर भाजपा को हराने की सोच रहे हैं, तो लोगों को यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या गैरभाजपा पार्टियां एक दूसरे के मुकाबले उम्मीदवार खड़े करके सचमुच ही भाजपा को हरा पाएंगी?
पिछला विधानसभा चुनाव गैरभाजपा दलों ने सीटों का बंटवारा करके लड़ा था और सबका तजुर्बा एक दूसरे से खराब था। चुनाव के तुरंत बाद ही सपा, बसपा, और कांग्रेस सभी ने यह कह दिया था कि अब साथ में मिलकर कोई चुनाव नहीं लड़ा जाएगा। ऐसे में यह भाजपा के लिए बड़ी सहूलियत की बात है कि उसके मुकाबले कोई एक अकेला ताकतवर उम्मीदवार नहीं रहने वाला है, और दो-तीन उम्मीदवार गैर भाजपा वोटों को बाटेंगे। फिर मानो यह तीन पार्टियां काफी नहीं हैं इसलिए हैदराबाद शहर के एक हिस्से के राष्ट्रीय नेता असदुद्दीन ओवैसी भी मैदान में आ गए हैं, और वे लगातार मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण की एक ऐसी हमलावर कोशिश कर रहे हैं कि जिससे मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो या ना हो, हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में जरूर हो जाए। और उनका मकसद भी शायद यही है. ओवैसी चुनाव के पहले से जिस तरह से भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला माहौल बनाने लगते हैं, उससे ऐसा लगता है कि वे भाजपा की एडवांस पार्टी हैं जो कि चुनावी राज्य में पहुंचकर भाजपा के लिए शामियाना बांधने का काम करते हैं। इसलिए आज उत्तर प्रदेश चाहे कितना ही बदहाल क्यों ना हो, जुर्म से कितना ही लदा हुआ क्यों ना हो, इस प्रदेश में चुनाव में विपक्ष जिस हद तक बिखरा हुआ है, और एक दूसरे के खिलाफ है, उससे योगीराज को खतरा कम ही दिखाई पड़ता है। आने वाले महीने बताएंगे कि भाजपा उत्तर प्रदेश में कितनी कामयाबी पाती है, लेकिन यह बात है कि अगर विपक्ष टुकड़ा-टुकड़ा रहे, तो फिर सरकार को अधिक मेहनत करने की जरूरत भी नहीं रहती, और सरकार के सारे कुकर्म धरे रह जाते हैं, उसे कोई सजा नहीं मिल पाती।
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छत्तीसगढ़ के आदिवासी मुद्दे धीरे-धीरे, और अलग-अलग, सुलग रहे हैं, और शायद राजनीतिक दलों और सरकारों को इसका एहसास नहीं हो रहा है, इनके बारे में जानते हुए भी उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं है। एक अजीब बात यह है कि कांग्रेस और भाजपा इन दोनों की सरकारों में आदिवासियों के नाम पर सरकारी रुख में कोई बड़ा फर्क नहीं दिख रहा है। आज इस मौके पर लिखना इसलिए भी जरूरी लग रहा है कि छत्तीसगढ़ के एक हिस्से से हसदेव के जंगलों को कोयला खदानों से बचाने के लिए सैकड़ों आदिवासी, रायपुर पहुंच रहे हैं। दूसरी तरफ एक अलग मुद्दे को लेकर बस्तर के आदिवासी 300 किलोमीटर चलकर, भारत के संविधान को थामे हुए राजधानी पहुंचे हैं, उनकी मांग है कि उनके अधिसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकार ने जिस तरह पंचायतों को नगर पंचायत में तब्दील कर दिया है, उस असंवैधानिक फैसले को रद्द किया जाए और उन्हें वापस ग्राम पंचायत बनाया जाए। यह मामला थोड़ा सा जटिल है, लेकिन आदिवासियों के अधिसूचित क्षेत्रों में उनकी मर्जी के खिलाफ राज्य सरकार को ऐसा करने का कोई हक नहीं है. यह एक और बात है कि भाजपा की पिछली रमन सिंह सरकार ने भी ऐसा किया था, और उस वक्त के राज्यपाल शेखर दत्त ने उसके खिलाफ सरकार को लिखा भी था। आज कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने भी ऐसा ही किया है और राज्यपाल अनुसुइया उइके ने भी इसके खिलाफ राज्य शासन को चिट्ठियां लिखी हैं। इन चिट्ठियों का कोई जवाब न तो उस समय राजभवन को मिला, और न ही शायद अभी की राज्यपाल को ही इसका कोई जवाब मिला है। दूसरी तरफ बस्तर के आदिवासी जिस तरह संविधान को एक पवित्र ग्रंथ मानते हुए उसे लेकर 300 किलोमीटर पैदल राजधानी पहुंचे हैं, वह नजारा पहली बार देखने मिल रहा है। और कुछ बरस पहले जब झारखंड के आदिवासी इलाकों में गांव के लोगों ने अपने इलाके में एक पत्थर डालकर वहां अपनी सरकार और अपना अधिकार कायम करने का पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू किया था, उसमें भी आदिवासी संविधान की किताब को सामने रखकर बात करते थे, और सिर्फ यही बात करते थे कि वह इस संविधान को लागू करने की मांग कर रहे हैं। आज बरसों बाद छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी शायद पहली ही बार संविधान को उस तरह थाम कर राजधानी पहुंचे हैं, और सरकार का दरवाजा खटखटा रहे हैं।
कोयला खदानों से अपने जंगलों को बचाने के लिए हसदेव के इलाके से जो आदिवासी राजधानी पहुंचे हैं, उन्हें अब तक शायद मुख्यमंत्री से मिलने का वक्त नहीं मिला है। दूसरी बात यह है कि छत्तीसगढ़ के उत्तर और दक्षिण से अलग-अलग मुद्दों को लेकर पहुंचे हुए इन आदिवासियों के साथ किसी राजनीतिक दल के लोग भी नहीं हैं। इन्हें सामाजिक आंदोलनकारियों का साथ मिला है, मीडिया का कुछ तबका उनके साथ है, और सरकार का रुख अब तक सामने आया नहीं है। हमने शुरुआत में ही अलग-अलग आदिवासी मुद्दों की जो बात की है, उनमें से एक और मुद्दा बस्तर का है जहां पर केंद्रीय सुरक्षा बलों का एक कैंप बनाने का विरोध करते हुए ग्रामीण आदिवासियों पर सुरक्षाबलों की गोलियां चली थी और उन में कुछ लोग मारे गए थे। वह आंदोलन भी खत्म नहीं हुआ है, सिलगेर का वह आंदोलन चल ही रहा है, और उसकी चर्चा पूरे देश में चल रही है। ठीक उसी हसदेव के जंगल बचाओ आंदोलन की चर्चा अब पूरी दुनिया में होने जा रही है क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी पर्यावरण आंदोलनकारी युवती ग्रेटा थनबर्ग ने कल ही छत्तीसगढ़ के हसदेव के जंगल बचाओ आंदोलनकारियों के एक वीडियो को रीट्वीट किया है।
ऐसा भी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने से भारत सरकार या भारत के किसी राज्य की सरकार की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है। आज की राजनीतिक व्यवस्था ऐसी संवेदनशीलता से बहुत ऊपर उठ चुकी है, और अब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर जो कुछ कहा जाता है, उससे पूरी तरह अछूता रहना एक राजनीतिक हुनर हो चुका है। लेकिन छत्तीसगढ़ में इस किस्म के आदिवासी मुद्दों को बिना सुलझाए छोड़ देना राज्य के लिए शायद आज कोई खतरा न भी हो, लेकिन यह तय है कि लंबे वक्त में ऐसी अनसुलझी बातें बड़ा खतरा बन सकती हैं। बस्तर में पिछले कुछ दशक से जो नक्सल हिंसा चल रही है, वह अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहते हुए बस्तर की अनदेखी का नतीजा है। आज छत्तीसगढ़ सरकार को इन मुद्दों को राजभवन से आने वाली चिट्ठी, या सडक़ों पर निकल रहे जुलूस तक सीमित मानकर इनकी तरफ से लापरवाह नहीं होना चाहिए। एक तो बस्तर में नक्सल हिंसा अब तक जारी है और उसे बातचीत से सुलझाने की कोशिश मौजूदा सरकार में भी शुरू भी नहीं हो पाई है, ऐसे में नए-नए मुद्दे और खड़े हो जाना एक सबसे खतरनाक बात है। अभी-अभी बस्तर-सरगुजा के कुछ चयनित शिक्षकों ने भर्ती की मांग को लेकर ऐसे बैनर को लेकर फोटो खिंचवाई है कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं होगी तो वे नक्सली बन सकते हैं। ऐसा माहौल ठीक नहीं है जिसमें कि लोग नक्सली बनने की बात सोचने लगें, करने लगें, और उसके बैनर छपवा कर तस्वीरें खिंचवाने लगें। सरकार को आदिवासियों के सभी तबकों से बात करनी चाहिए, हसदेव के आंदोलनकारियों के आ रहे जत्थे से भी बात करनी चाहिए क्योंकि बातचीत से अगर कोई रास्ता नहीं निकलता है तो हो सकता है कि लोग अदालत जाएं और अदालत में सरकार की शिकस्त हो। लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार को अपनी जनता से बातचीत के दरवाजे हमेशा खुले रखने चाहिए और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को इन दोनों इलाकों से आ रहे अलग-अलग आदिवासी जत्थों से लंबी बातचीत करने का समय निकालना चाहिए और मुद्दों को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए।
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ब्रिटेन के ग्लासगो में इसी महीने के आखिर में दुनिया भर से पर्यावरण के विशेषज्ञ इकट्ठे होने वाले हैं जिनमें अधिकतर देशों की सरकारों के प्रतिनिधि भी रहेंगे। पर्यावरण आंदोलनकारियों से लेकर पर्यावरण पत्रकारों तक सबने वहां पहुंचने की तैयारी कर ली है और ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले कुछ वर्षों में यह धरती बचाई जाए या ना बचाई जाए इसका फैसला ग्लासगो में होने जा रहा है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति थे उस वक्त पेरिस में एक क्लाइमेट समिट हुई और अमेरिका ने उससे बाहर निकलने की घोषणा कर दी थी। ऐसे पर्यावरण सम्मेलनों का एक मकसद यह होता है कि दुनिया के विकसित देश पर्यावरण बहुत अधिक तबाह कर रहे हैं, वे दुनिया के विकासशील और गरीब देशों में पर्यावरण को बचाने के लिए आर्थिक योगदान दें ताकि धरती का औसत पर्यावरण बेहतर हो सके, लेकिन बहुत से देशों ने इस जिम्मेदारी से हाथ खींच लिया था। अब ग्लासगो में एक बार फिर यह सामने आएगा कि किस देश का कैसा रुख है।
कुछ समय पहले हमने इसी जगह पर इस मुद्दे पर लिखा था, लेकिन कल ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने यह कहा है कि आगे जाकर जब कभी 2021 का इतिहास लिखा जाएगा तो इस दौर को अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी, या कोरोना की वजह से याद नहीं किया जाएगा, बल्कि इस बात के लिए याद किया जाएगा कि दुनिया के देशों ने पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना तय किया, या उससे मुंह चुराया। यह बात कुछ हफ्ते बाद होने जा रही इस ग्लासगो सम्मेलन को लेकर कहीं गई है, और इसके साथ-साथ दुनिया भर में यह चर्चा हो रही है कि मौसम की जो अभूतपूर्व बुरी मार दुनिया के देशों पर पड़ रही है, सौ-पचास बरसों में जैसी बाढ़ नहीं आई थी, वैसी बाढ़ आ रही है, जैसी बारिश नहीं हुई थी, वैसी बारिश हो रही है, जैसा सूखा नहीं पड़ा था, वैसा सूखा पड़ रहा है, और अमेरिका से लेकर रूस तक के जंगलों में जैसी आग लग रही है, वैसी किसी ने देखी नहीं थी। ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की भयानक आग की तस्वीरें और भयानक हैं, जिनमें कंगारू खड़े-खड़े अपनी जगह पर ही जल गए और अब उनका ठूंठ वहां खड़ा हुआ है।
इस बीच अमेरिका के कैलिफोर्निया से खबर आ रही है कि वहां पर ऐसा भयानक सूखा पड़ा है कि लोगों ने अपने घरों में हवा से पानी बनाने वाली मशीनें लगाई हैं। हवा से नमी को इक_ा करके या हवा से ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को लेकर पानी बनाने की तकनीक तो पहले से है, लेकिन आज लोगों को अपने खुद के लिए, अपने घरों की सफाई के लिए, अपने पेड़-पौधों और पालतू जानवरों के लिए पानी की जिस तरह कमी पड़ रही है, वह किसी ने कभी देखी-सुनी नहीं थी। लोगों ने यह जरूर सुना था कि कुछ दूरदर्शी लोग यह कहते थे कि दुनिया का तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। तब भी बात उन लोगों को समझ नहीं आती है जिनके घरों पर जमीन के नीचे से पानी निकालने के लिए पंप लगे हुए हैं और जिन्हें खुद पानी की कोई कमी नहीं है। लेकिन अब लोगों को यह समझ आने लगा है कि पंप हैं भी तो उन्हें सौ-सो दो-दो सौ फीट और गहरे उतरना पड़ रहा है, तब जाकर पानी मिल रहा है। हिंदुस्तान के भीतर ही महाराष्ट्र के कुछ इलाकों की ऐसी भयानक तस्वीरें आती हैं जिनमें महिलाएं जान पर खेलकर गहरे कुएं में उतरकर वहां से किसी तरह रिसते हुए पानी को घड़ों में इकठ्ठा करके लंबी रस्सी से ऊपर पहुंचाती हैं, और उन्हें कई किलोमीटर दूर घरों तक ले जाया जाता है। कहने के लिए तो हिंदुस्तान ने स्वच्छ भारत मिशन के नाम पर जगह-जगह फ्लश से चलने वाले शौचालय बना लिए हैं। लेकिन हर घर में शौचालय बनाने कि यह सोच कुल मिलाकर महिला की कमर ही तोड़ रही है। कई जगहों पर तो कई किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है, और तब कहीं जाकर उन शौचालयों का इस्तेमाल हो सकता है, क्योंकि वहां फ्लश करने के लिए अधिक पानी लगता है।
हिंदुस्तान में पानी की दिक्कत एक बात है लेकिन पूरी दुनिया में पर्यावरण पर छाया हुआ खतरा एक अलग मुद्दा है जो कि पानी से अधिक व्यापक है। पानी की बात तो अमेरिका के सबसे विकसित प्रदेश में पानी की कमी को देखकर याद पड़ रहा है जहां लाखों रुपए की मशीन लगाकर ढेरों बिजली जलाकर एक-एक घर के लिए पानी बनाया जा रहा है हिंदुस्तान में ना तो किसी के पास पानी के लिए ऐसी मशीनें खरीदने को पैसा है और ना ही इतनी बिजली ही है। लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि खुद हिंदुस्तान के भीतर ही पानी की कमी अकेला पर्यावरण मुद्दा नहीं है, हिंदुस्तान में हवा में इतना जहर घुला हुआ है कि शहरों में जीना मुश्किल है, लोग अधिक बीमार होने पर दिल्ली के बाहर जाकर बसने की सोचने लगते हैं, और हवा के प्रदूषण से हिंदुस्तान में हर बरस लाखों लोगों के बेमौत मरने का एक अंदाज है। ऐसे में पर्यावरण को केवल पानी तक सीमित मानना ठीक नहीं होगा, आज तो जिस तरह से कोयले से चल रहे बिजलीघर हैं, और कोयले से बिजली के वायु प्रदूषण पर पूरी दुनिया में फि़क्र जाहिर की जा रही है, तो वह भी एक बात है। हिंदुस्तान में जहां पर गरीब अधिक हैं, और जहां पर डीजल-पेट्रोल दुनिया में सबसे महंगा है, वहां पर भी न तो केंद्र सरकार ने, न किसी राज्य सरकार ने निजी गाडिय़ों को घटाने के लिए सार्वजनिक परिवहन को पर्याप्त बढ़ावा दिया है। आज भी देश के महानगरों से लेकर देश के छोटे शहरों तक कहीं भी इस बात की पर्याप्त योजना नहीं बनाई गई है कि कैसे मेट्रो, बस या कोई और तरीका निकालकर निजी गाडिय़ों को घटाया जाए। इससे पर्यावरण का नुकसान बढ़ते चल रहा है क्योंकि हर दिन हिंदुस्तान में दसियों हजार गाडिय़ां सडक़ों पर बढ़ जाती हैं।
पर्यावरण को लेकर मुद्दे इतने अधिक हैं कि जिसके हाथ जो मुद्दा लगता है, जिसकी समझ जहां तक जाती है, वे उसे ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण मान लेते हैं। लेकिन हिंदुस्तान के सामने गांधी की एक मिसाल है जिन्होंने किफायत से जिंदगी जीने की बात कही थी, कम से कम सामानों के इस्तेमाल की बात कही थी, और जो एक लंगोटी जैसी आधी धोती में पूरी जिंदगी गुजार रहे थे, और अपनी जिंदगी को एक मिसाल की तरह लोगों के सामने रख रहे थे। ऐसे गांधी के देश में किफायत नाम का शब्द ही आज कहीं सुनाई नहीं पड़ता है। गांधी की मेहरबानी से देश आजाद हुआ यहां लोकतंत्र आया, लेकिन इस लोकतंत्र का उपभोग करने वाले सत्तारूढ़ लोग जिस बेदर्दी के साथ एक-एक घर-दफ्तर में दर्जनों एसी चलाते हैं, गाडिय़ों का काफिला लेकर चलते हैं, सामानों की अंधाधुंध खपत करते हैं, और इन सबका बोझ पर्यावरण पर पड़ता है। आज गरीब जनता के पैसों से सरकारें अपने लिए बड़ी-बड़ी इमारतें बनाती हैं, और सरकार चला रहे लोग अपने लिए बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं। जब जनता के पैसों से सत्ता को कुछ लेना रहता है या बनाना रहता है तो वह सब कुछ बहुत बड़ा-बड़ा बनाती है बहुत बड़ी-बड़ी गाडिय़ां लेती है।
ग्लासगो में दुनिया भर के मुद्दों पर जो भी चर्चा हो, हिंदुस्तान को तो अपने भीतर के बारे में भी देखना चाहिए। इसके भीतर पर्यावरण को बचाने की अभी अपार संभावनाएं हैं। और इतने वर्षों में जितना हमने देखा है, उसके मुताबिक सत्ता पर बैठे हुए लोग, और अति संपन्न तबके पर्यावरण को बर्बाद करने के सबसे बड़े गुनहगार हैं। इस बारे में भी जनता को सार्वजनिक बात करना चाहिए।
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नेताओं में जो सत्ता पर सवार हो जाते हैं वे अपने-आपको दुनिया के हर विषय में माहिर, जानकार, और विशेषज्ञ मान लेते हैं। वे बड़े से बड़े तकनीकी फैसले खुद करने लगते हैं उनके सामने इंजीनियरिंग की कोई कीमत नहीं होती है, उनके सामने किसी योजना या विज्ञान की किसी दूसरी ब्रांच की कोई जरूरत नहीं होती है, और वे लड़ाकू विमानों से लेकर अंतरिक्ष यान तक को रास्ता बता सकते हैं। नतीजा यह होता है कि सत्ता सिर चढक़र बोलने लगती है और ऐसे में तानाशाही, मूर्खता, धर्मांधता, और कट्टरता की बातें खुलकर सामने आती हैं। अभी कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. के सुधाकर ने विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर बेंगलुरु में देश के सबसे बड़े मानसिक स्वास्थ्य केंद्र निमहंस में भाषण देते हुए कहा कि भारत की आधुनिक महिलाएं अकेले रहना चाहती हैं, और अगर वे शादी करती भी हैं तो भी वे बच्चे पैदा करना नहीं चाहतीं, और वे सरोगेसी से बच्चे चाहती हैं। उन्होंने अपनी सोच के पीछे के किसी अध्ययन की बात नहीं कही कि उन्होंने यह निष्कर्ष कैसे निकाला है, लेकिन हिंदुस्तानी समाज की साधारण जानकारी रखने वाले लोग भी आसानी से यह बात कह सकते हैं कि मंत्री की कही हुई ये बातें बिल्कुल ही बेबुनियाद और फिजूल की हैं, बेहूदी भी हैं।
आज हिंदुस्तानी समाज में कुछ फ़ीसदी लड़कियां और महिलाएं ही बिना शादी के रहती हैं, और तीन-चौथाई से अधिक आधुनिक महिलाएं भी शादी करती ही हैं. इनमें से भी तकरीबन तमाम महिलाएं बच्चे चाहती हैं, और बच्चे पाने के लिए कोशिश करती हैं। इनका एक बहुत छोटा सा हिस्सा ऐसा हो सकता है जो स्वाभाविक रूप से अपने बच्चे न होने पर सरोगेसी से बच्चे पैदा करने के बारे में सोचें, लेकिन भारत के सरोगेसी कानून के चलते हुए अब यह काम भी आसान नहीं रह गया है। नियम कानून से बचते हुए अघोषित रूप से किराए की कोख जुटाकर, डॉक्टरों का, अस्पताल का, लाखों रुपए का खर्च करके अगर कोई जोड़ा सरोगेसी से बच्चे पाता भी है तो उस पर बहुत आसानी से 15-20 लाख रुपए खर्च होते हैं। कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री को यह अंदाज ही नहीं है हिंदुस्तान में कितने लोग एक बच्चा पाने के लिए इतनी रकम खर्च कर सकते हैं। ऐसी बेबुनियाद बात किसी महिला के बारे में लापरवाही से कहना बहुत से मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की आदत में शुमार हो चुका है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल जैसे लोग महिलाओं के बारे में ओछी बातें करने का एक मुकाबला चलाते रहते हैं, और उसकी दौड़ में खुद सबसे आगे रहते हैं. कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री की यह बात उसी दर्जे की है। इस बात का जमकर जवाब देना चाहिए और मीडिया को उनसे पूछना चाहिए कि उन्होंने किस सर्वे या किस अध्ययन के आधार पर भारत की महिलाओं के बारे में या भारत की आधुनिक महिलाओं के बारे में ऐसी अच्छी बात कही है।
आज हालत यह है कि मंच, माइक, माला, और महत्व मिलने पर किसी भी सत्तारूढ़ मुंह से ऊटपटांग बात निकलना शुरू हो जाती है। लेकिन मीडिया इन बातों का तर्कसंगत जवाब हासिल करने के बजाए इन बातों को ज्यों का त्यों परोसकर अपना जिम्मा पूरा कर लेता है। जितने भी अखबारों और समाचार माध्यमों में हमने इस खबर को देखा है, किसी में भी मंत्री से कोई सवाल नहीं किया गया है, न तो कार्यक्रम के अंत में, और न बाद में। इसलिए जिस तरह सामाजिक और धार्मिक नेता मनमाने फतवे जारी करते हैं, उसी तरह सत्तारूढ़ मंत्री मनमानी बातें करने लगते हैं, और एक पूरे तबके का अपमान करने पर उतारू रहते हैं। यह मंत्री एक आदमी है और उसे अगर किसी तबके को पहले सुधारना चाहिए तो वह आदमियों के तबके को सुधारना चाहिए, लेकिन वैसी कोई कोशिश करने के बजाय वह जब महिलाओं का अपमान करने पर उतारू दिखता है तो महिला संगठनों को भी नोटिस भेजकर उससे पूछना चाहिए कि उसने यह बात किस आधार पर की है। वैसे तो अगर देश के महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, या प्रदेशों के भी ऐसे आयोग राजनीतिक मनोनयन से नहीं भरे गए होते, तो हो सकता है कि कोई महिला आयोग कर्नाटक के इस मंत्री को नोटिस भेजकर उससे जवाब मांगते।
हिंदुस्तान में धार्मिक पाखंडियों और उनकी मदद से सत्ता पर पहुंचे हुए लोगों ने यह आदत बना ली है कि वह आए दिन किसी न किसी बहाने भारत की लड़कियों और महिलाओं को नीचा दिखाने की कोशिश करें, उनको सीमाओं में बांधने की कोशिश करें, उनसे मोबाइल फोन छीनने की कोशिश करें, और उनके जींस के ऊपर सलवार-कुर्ता पहनाने की कोशिश करें। यह सब करने के साथ-साथ जब इन्हें गर्व करने की जरूरत लगती है तो इन्हें हिंदुस्तान की उन लड़कियों का ही मोहताज होना पड़ता है जो ओलंपिक तक जाकर मेडल लेकर आती हैं। इन्हें अपनी धार्मिक हसरत पूरी करने के लिए देवियों की प्रतिमाएं लगती हैं, और नवरात्रि पर उपवास करना जरूरी लगता है। लेकिन जब जिंदा लड़कियों और महिलाओं के सम्मान की बारी आती है तो इन्हें वह लड़कियां पैदा होने से पहले ही मार डालने के लायक लगती हैं, या नाबालिग रहते हुए शादी के लायक लगती हैं, या शादी के बाद पति के घर से अर्थी उठने तक बंधुआ मजदूर की तरह काम करने लायक लगती हैं। यह तो बात हिंदुस्तान की आम महिलाओं की है, लेकिन इससे परे जो कामकाजी महिलाएं हैं, जो शहरी या आधुनिक महिलाएं हैं, उनका अपमान करने का एक नया रास्ता कर्नाटक के इस मंत्री ने निकाला है, जिसे लोगों को जमकर धिक्कारना चाहिए।
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हिंदुस्तान के शहरों में आए दिन विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री या किसी दूसरे मंत्री के पुतले जलाते दिखती हैं। ऐसे मौके पर पुलिस का यह जिम्मा हो जाता है कि सत्ता का पुतला न जलने दे। कई बार तो ऐसा होता है कि किसी थानेदार के इलाके में मंत्री या मुख्यमंत्री का पुतला जल गया तो नाराज होकर उसका तबादला कर दिया जाता है। इसलिए पहले तो पुतले को लेकर पुलिस छीना-झपटी करती है, उसके बाद भी अगर आंदोलन करने वाले लोग पुतले को बचा ले जाते हैं, या कहीं से दूसरा पुतला ले आते हैं, और जला देते हैं, तो पुलिस जवान और अफसर अपने जूतों से उस आग को बुझाने की कोशिश करते हैं कि सत्ता कहीं जल ना जाए। यह देखना दिलचस्प रहता है कि पुतला जलाने वाले लोग तो हाथों में, या सिर पर लादकर पुतला लाते हैं, लेकिन आग बुझाने के लिए पुलिस जूते मार-मारकर सत्ता की आग बुझाती है। पता नहीं इन दोनों में से कौन सी बात अधिक अपमानजनक है, प्रतीक के रूप में पुतले को जलाने की, या ऐसे जलते हुए पुतले को जूते मार-मारकर आग बुझाने की। लेकिन यह पुलिस का जिम्मा रहता है कि सत्ता का पुतला जल न पाए और इसके लिए जरूरत पड़ती है तो पुलिस आसपास की दुकानों से पानी की बोतल खरीद कर लाती है, और उनसे आग बुझाती है।
यह सिलसिला बड़ा बेहूदा है, और जिस पुलिस के मत्थे सैकड़ों-हजारों मामले बाकी रहते हैं, उसे इस तरह पुतले बचाने के लिए लगा दिया जाता है मानो पुतले कोई जादू-टोने वाले हैं, और उनसे उस नेता का सचमुच ही कोई बड़ा नुकसान होने वाला हो जिसका नाम बतलाकर पुतला जलाया जा रहा है। यह पूरा सिलसिला पुतले जलाने की हद तक तो लोकतांत्रिक है, लेकिन उसे जलने से रोकने के लिए पुलिस झोंक देने के मामले में अलोकतांत्रिक है। बिना किसी हिंसा के अगर किसी का पुतला जलाकर लोगों को तसल्ली मिलती है, तो वह सबसे कम नुकसानदेह विरोध प्रदर्शन है, और इसे होने देना चाहिए। बल्कि होना तो यह चाहिए कि हर शहर में जहां पर धरना-प्रदर्शन या आंदोलन के लिए जगह तय की गई है, वहां पर भट्टी वाली ईंटों से एक चबूतरा बना देना चाहिए, जहां पर पुतले जलाए जा सकें, और वे प्रदर्शनकारी चाहें तो वे अगले दिन वहां से पुतले का अस्थि संचय करके उसका विसर्जन भी कर सकें। लोकतंत्र में तो धरनास्थल पर ऐसे फंदे का इंतजाम भी कर देना चाहिए जिसमें लोगों को चाहिए तो किसी का पुतला बनाकर उसे फांसी दे सके। लोगों के मन की भड़ास और उनकी नाराजगी निकलने का कोई जरिया देना चाहिए। ऐसे तरीकों से अगर लोगों की नाराजगी निकल जाएगी तो हो सकता है कि वे दूसरों पर किसी हिंसा से बचें।
जापान में एक बड़ी दिलचस्प परंपरा है। वहां शहरी जिंदगी में इतनी कुंठा है, इतने किस्म के तनाव लोगों में हैं कि उससे आजाद होने के लिए लोग तरह-तरह के तरीके आजमाते हैं। वहां पर ऐसे पार्लर बने हुए हैं जहां पर लोग जा सकते हैं, और वहां जाकर अपनी मर्जी के सामान खरीद सकते हैं, और फिर भीतर बने हुए कमरों में उन सामानों को फेंककर, तोडक़र अपनी भड़ास निकाल सकते हैं, वहां वे चीख-चिल्ला भी सकते हैं, और अपनी क्षमता के मुताबिक खरीदा सामान तोड़ सकते हैं। इसके बाद वे भड़ासमुक्त होकर घर जा सकते हैं, ताकि वहां किसी का सिर ना तोड़ें, और घर के दूसरे सामान ना तोड़ें।
हिंदुस्तानी लोकतंत्र में प्रदर्शन एक आम बात है, और ऐसे में लोगों को अपनी भड़ास निकालने के लिए कई तरह की अहिंसक आजादी मिलनी चाहिए। अभी हमने देखा देशभर में जगह-जगह लोग बहुत हिंसक प्रदर्शन करते हैं, और हिंसा करते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि लोगों को जब प्रतीकों में भी हिंसा करने ना मिले तो उनकी हिंसा की हसरत बची रह जाती होगी, और वे धीरे-धीरे जाकर असली हिंसा की शक्ल में निकलती होगी। अब यह बात तो सामाजिक मनोवैज्ञानिक जानकार बता सकते हैं कि आंदोलनकारियों और प्रदर्शनकारियों की मानसिक उत्तेजना को शांत करने के लिए कौन-कौन से लोकतांत्रिक तरीके मुहैया कराए जाने चाहिए।
किसान आंदोलन के तहत कल ही यह घोषणा की गई है कि लखीमपुर खीरी में किसानों से हुई हिंसा के खिलाफ 18 तारीख को देशभर में रेल रोको आंदोलन किया जाएगा। हम किसानों के मुद्दों से सहमत हैं, लेकिन रेलगाडिय़ां सरकार को नहीं ढोतीं जनता को ढोती हैं। आंदोलनकारियों के लिए यह मुमकिन नहीं होगा कि वे केंद्र सरकार के किसी भी विमान का उडऩा रोक सकें, इसलिए वे ट्रेन रोक रहे हैं। लेकिन इससे क्या होना है, बड़े नेता, बड़े अफसर ट्रेन में न सफर करते, न उनकी सेहत पर आम मुसाफिरों के घंटों लेट होने से भी कोई फर्क पड़ता। आंदोलन प्रतीकात्मक रूप से केंद्र सरकार का ध्यान खींचने वाला कहा जाएगा लेकिन प्रतीक से परे इसका असली असर आम जनता पर पड़ेगा जो वक्त पर इलाज के लिए नहीं पहुंच पाएगी, या किसी इम्तिहान या इंटरव्यू के लिए लोग नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए देश में आंदोलन के ऐसे तरीकों के बजाय तो पुतला जलाना बेहतर है जिससे बहुत मामूली सा प्रदूषण होता है, लेकिन और कोई नुकसान नहीं होता। इस 18 तारीख को देश में सैकड़ों-हजारों जगहों पर रेलगाडिय़ों को रोकने से मुसाफिरों को जो दिक्कत होगी, उसकी तुलना में पुतला जलाना एक बेहतर रास्ता है।
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छत्तीसगढ़ में सांप्रदायिक तनाव बहुत आम बात नहीं है। कहीं-कहीं पर किसी चर्च के पादरी पर, या प्रार्थना सभा करवा रहे पास्टर पर हमला जरूर होते रहा है, लेकिन सांप्रदायिक तनाव की वजह से कफ्र्यू लगाने की नौबत आ जाए ऐसा इसी हफ्ते शायद बरसों बाद हुआ है। भाजपा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के अपने शहर और कबीरधाम जिला मुख्यालय कवर्धा में हिंदू-मुस्लिम तनाव के चलते हुए कई दिनों से कफ्र्यू लगा हुआ है। पुलिस ने हालात पर तेजी से काबू पाया इसलिए हिंसा अधिक नहीं बढ़ पाई, लेकिन दोनों समुदाय एक-दूसरे के सामने खड़े हुए हैं। इस झगड़े की शुरुआत कैसे हुई इस बारे में लोगों का अलग-अलग कहना हो सकता है, लेकिन एक बार जब बवाल खड़ा हो गया तो उसके बाद भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के लोग दूसरे जिलों से भी वहां पहुंचे और तनाव बढ़ते चले गया। इस इलाके के आईजी का कहना है कि भाजपा और दूसरे संगठनों के लोगों ने दूसरे जिलों से लोगों को बुलाया और उसकी वजह से तनाव बढ़ा। भाजपा ने पुलिस अफसर की इस बात को अपमानजनक माना है और इस आरोप के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने भाजपा थाने भी पहुंची है। झगड़े की शुरुआत के जो वीडियो सामने आए हैं उनके मुताबिक एक चौराहे पर सरकारी खंभे पर किसी एक धर्म का झंडा लगा था, जिसे दूसरे धर्म के लोगों ने निकाल फेंका, और वहां से बात बढ़ती चली गई।
अभी कवर्धा से कई तरह के वीडियो सामने आ रहे हैं और उनकी हकीकत की जांच तो पुलिस या कोई दूसरी जांच एजेंसी ही करवा सकती हैं। लेकिन जिस तरह देश की राजधानी दिल्ली के इलाके में कुछ महीने पहले प्रशासन की मंजूरी न मिलने पर भी भाजपा के एक पदाधिकारी ने एक सभा की थी, और उस सभा में मौजूद कई लोगों के वीडियो तैरे जिनमें वे लोग मुस्लिमों के लिए एक सबसे अपमानजनक गाली का इस्तेमाल करते हुए नारे लगा रहे थे कि जब ———- काटे जायेंगे तो राम-राम चिल्लाएंगे। वह मामला अभी अदालत में चल रहा है, और लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। ठीक वैसा ही एक वीडियो कवर्धा से निकलकर आया है जिसमें डॉ. रमन सिंह के बेटे, और इस इलाके के भूतपूर्व सांसद अभिषेक सिंह की अगुवाई में एक जुलूस निकल रहा है, और इसमें लाउडस्पीकर पर वही हिंसक नारा लगाया जा रहा है कि जब ———- काटे जायेंगे तो राम-राम चिल्लाएंगे। यह वीडियो 5 दिनों से घूम रहा है, और अभिषेक सिंह या भाजपा के किसी और नेता ने इसका कोई खंडन नहीं किया है। इसलिए यह मानने की कोई वजह नहीं दिख रही यह फर्जी है। फिर फिर भी आगे मामले-मुकदमे के लिए तो पुलिस को इसकी जांच करवानी ही होगी, और देश में समय-समय पर बहुत से ऐसे वीडियो फर्जी भी निकले हैं जिनमें सबसे चर्चित वीडियो कन्हैया कुमार के खिलाफ गढ़ा गया था।
कवर्धा शहर के इस सांप्रदायिक तनाव को बिना गहराई में गए सिर्फ झंडा निकालकर फेंक देने की एक घटना से अगर जोडक़र बैठ जाएंगे, तो वहां की समस्या का कोई समाधान नहीं निकलेगा। वहां के जानकार लोग बतलाते हैं कि किस तरह पिछले कई महीनों से वहां पर कई मुजरिम लगातार गुंडागर्दी, हिंसा, और जुर्म कर रहे थे, जिनके खिलाफ आदिवासी समाज ने आंदोलन भी किया, सरकार को शिकायत भी दी, कलेक्ट्रेट भी पहुंचे, लेकिन राजधानी की राजनीतिक ताकतों के दबाव में इन मुजरिमों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। और तो और जब इनके जुर्म बहुत बढ़ गए, और कवर्धा पुलिस से राजधानी को इसकी मौखिक जानकारी दी गई, तो इसकी सजा के बतौर कुछ महीने पहले ही वहां पहुंचे पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया गया। कई महीनों से कवर्धा के कई ऑडियो और वीडियो घूम रहे थे जिनसे यह साफ होता था कि किस तरह राजनीतिक ताकतों के दबाव में पुलिस मुजरिमों को छूने से भी बच रही थी, और आदिवासियों पर हिंसा करने के बाद भी इनका कुछ नहीं बिगड़ रहा था। राज्य सरकार अगर कवर्धा के सांप्रदायिक तनाव का कोई स्थाई इलाज चाहती है तो उसे हिंसा की ताजा घटनाओं के पहले के माहौल को भी देखना होगा, वरना पुलिस की तैनाती करके, अगर आज हालात काबू करके, उसे काफी मान लिया जाता है, तो हो सकता है कि आगे फिर यह बात भडक़े। आदिवासियों का जो संगठन कवर्धा में आदिवासियों पर हिंसा की शिकायत लेकर घूम रहा है, उसे सरकार फर्जी आदिवासी संगठन मानती है। अपने को नापसंद किसी संगठन की कही हुई सही बात को भी अनसुना करना किसी भी सरकार के लिए नुकसानदेह हो सकता है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा ने पिछले कुछ महीनों में हिंदुओं के धर्मांतरण का मामला जोर-शोर से उठाया है, और राजधानी रायपुर में भाजपा के कुछ लोगों ने पुलिस थाने में एक ईसाई पास्टर पर हमला भी किया था, जो मामला अभी चल ही रहा है। ऐसे में प्रदेश में कोई भी दूसरा सांप्रदायिक तनाव धर्म की राजनीति करने वाले संगठनों को आगे बढऩे का एक मौका देता है। जिस किसी धर्म के संगठन इस काम में लगे हुए हैं, उन पर सरकार को कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए, लेकिन सरकार को यह आत्मविश्लेषण भी करना चाहिए कि कवर्धा में ऐसे तनाव के पीछे उसकी खुद की कौन सी गलतियां रही हैं। आज तो अभिषेक सिंह की अगुवाई का जुलूस हिंसक और सांप्रदायिक नारे लगाते कैमरे पर कैद हुआ दिख रहा है, लेकिन इसे ही सारे तनाव की जड़ मान लेना गलत होगा। ऐसे नारों के लिए कानून है और खासा कड़ा कानून है, लेकिन कुछ लोगों पर कार्रवाई से सरकार का काम नहीं चलता, प्रदेश का काम नहीं चलता। प्रदेश में अमन चैन बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए सरकार को बड़ी गंभीरता से किसी भी धर्म के मुजरिमों के साथ पर कड़ी कार्रवाई करनी होगी, और किसी भी तरह की ढील प्रदेश में एक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जमीन तैयार करेगी, जो कि आज की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को भारी पड़ेगी।
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अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अभी पाकिस्तान की एक बड़ी आलोचना इस बात को लेकर हो रही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर दूसरे देशों के बीच वह अपनी फिक्र करने के बजाए अफगानिस्तान के तालिबान की फिक्र कर रहा है, और लोगों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है कि वे तालिबान का साथ दें। इस बात को वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान भी आगे बढ़ा रहे हैं, और पाक विदेश मंत्री, या पाकिस्तानी राजदूत भी अंतरराष्ट्रीय बातचीत में तालिबान का झंडा लेकर चलते दिख रहे हैं। पाकिस्तान के मामलों के राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि इमरान खान को यह एजेंडा पाकिस्तान के फौजी जनरलों ने दिया हुआ है जो कि तालिबान की सरकार को अपने लिए बेहतर मान रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है कि अफगानिस्तान की पिछली गनी सरकार भारत को अधिक महत्व दे रही थी, और पाकिस्तान के साथ उसके तनातनी के रिश्ते चल रहे थे। इसलिए वहां पर गनी सरकार के चलते हुए ही पाकिस्तान के संबंधों उससे बहुत खराब थे और उस वक्त से ही पाकिस्तान वहां पर तालिबान के आने की राह देख रहा था। लेकिन पाकिस्तान की आज की निर्वाचित सरकार की दिक्कत यह है कि वह अपनी घरेलू दिक्कतों को किनारे रखकर तालिबान की अफगान दिक्कतों की वकालत करते घूम रही है। यह बात अजीब इसलिए है कि दुनिया के देशों के बीच में जहां अपने बचे हुए असर का इस्तेमाल करके पाकिस्तान अपने लिए कोई राहत जुटाता, उसके बजाय वह तालिबान का काम कर रहा है। यह कुछ उसी किस्म का लग रहा है जैसे अपनी कंपनी को डूबते छोडक़र कोई सेल्स एजेंट किसी दूसरी कंपनी के सामान को बेचने की कोशिश करे।
तालिबान को लेकर उसके आने के पहले हफ्ते में लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की गई थी कि वे पिछली बार के, 20 वर्ष पहले के, तालिबान के मुकाबले अलग हैं। वह अब तजुर्बेकार हो चुके हैं, और वह दुनिया की मीडिया से बात करने वाले अधिक रहमदिल, और महिलाओं को कुछ हक देने वाले लोग हैं। तालिबान ने खुद होकर यह दावा भी किया था कि उनकी सरकार अफगानिस्तान में सभी तबकों को मिलाकर बनी सरकार होगी, लेकिन पहले मंत्रिमंडल बनने से लेकर अब तक इस तरह की तमाम खुशफहमियां खत्म हो गई हैं। अब कोई भी यह मानकर नहीं चल रहे कि ये तालिबान पिछली बार के तालिबान के मुकाबले अलग हैं. यह भी है कि इस बार पाकिस्तान और चीन अधिक मजबूती से तालिबान के साथ खड़े हुए हैं और उनकी यह मजबूरी भी है क्योंकि उनकी लंबी सरहदें अफगानिस्तान के साथ लगी हुई हैं, और क्योंकि तालिबान की अमेरिका से दुश्मनी रही है इसलिए भी चीन और चीन के साथ-साथ पाकिस्तान उन्हें महत्व दे रहा है। और ठीक इसी वजह से ईरान भी उन्हें महत्व दे रहा है। इन सबकी एक मजबूरी यह भी है कि ये देश अफग़़ानिस्तान से अपने देश में नशे का कारोबार नहीं चाहते हैं।
आज दुनिया के सामने अफगान लोगों को लेकर यह बात साफ हो रही है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से आम अफगान नागरिकों को मदद नहीं मिल पाएगी तो वहां लाखों लोगों के भूखे मरने का एक खतरा खड़ा हुआ है। वहां न खाने को है, न काम है, न इलाज है, न कोई अर्थव्यवस्था बाकी है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को तालिबान से सबसे पहले तो अपनी खुद की हिफाजत की गारंटी चाहिए, जो कि देने की हालत में तालिबान नहीं है. आज तो आईएस नाम के आतंकी संगठन के अफगानिस्तान में हमले जारी हैं, और तालिबान उन्हें रोकने की हालत में नहीं दिख रहा है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों के लोगों को देश भर में काम करने देने की हिफाजत तालिबान सरकार कैसे मुहैया करा सकेगी यह सोचना आसान नहीं है फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह शक अपनी जगह कायम है कि तालिबान अपने नागरिकों के प्रति अपनी बुनियादी जिम्मेदारी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर डालकर खुद अपनी फौजी तैयारी में अपनी रकम खर्च करेगा या पड़ोसी देशों के साथ मिलकर दूसरे देशों के खिलाफ किसी तरह की साजिश करेगा। इसलिए अब अफगान तालिबान सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से न तो अभी तक कोई मान्यता मिल रही है, और न ही कोई मदद उसे मिलने के आसार हैं। अंतरराष्ट्रीय मूल्यों के हिसाब से आम नागरिकों को जिंदा रहने के लिए, और इलाज के लिए जो मदद दी जानी चाहिए, उसी मदद की उम्मीद अभी तालिबान सरकार कर रही है, और वह भी आसानी से पूरी होते नहीं दिख रही है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह भी मानना है कि मदद की यह शर्त एक ऐसा मौका है जिसे इस्तेमाल करके दूसरे देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तालिबान से अफगान महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात कर सकती हैं, और वहां के नागरिक अधिकारों के बारे में बात कर सकती हैं। आज तो हालत यह है कि अब अफगान तालिबान लगातार कहीं मुजरिमों के हाथ-पैर काटने की बात कह रहे हैं, तो कहीं महिलाओं को घर तक सीमित करने का उनका अभियान चल ही रहा है। ऐसे में उस देश के भीतर महिलाओं और आम नागरिकों के मानवाधिकारों की हिफाजत करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं एक शर्त रख सकती हैं, और उस शर्त पर ही कोई मदद वहां के लोगों तक पहुंचाने की बात कर सकती हैं। यह मौका सभी के बारीकी से देखने का है कि तालिबान ऐसी अंतरराष्ट्रीय शर्तों को किस हद तक मानते हैं, अपने को कितना लचीला और उदार बनाते हैं या फिर क्या वे अपने नागरिकों को भूखा मरने के लिए छोड़ भी सकते हैं? पड़ोस का पाकिस्तान जो कि लगातार तालिबान का वकील बन कर दुनिया में उस की हिमायत करते घूम रहा है, उसकी खुद की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अफगानिस्तान की कोई भी मदद कर सके। दूसरी तरफ चीन के पास इतनी ताकत तो है कि वह अफगानिस्तान की मदद कर सके लेकिन सवाल यह है यह मदद शुरू तो हो सकती है, लेकिन अफगान अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर कब खड़ी हो सकेगी इसका कोई अंदाज नहीं लग सकता, और यह मदद कब तक जारी रहेगी इसका भी कोई अंदाज नहीं है, इसलिए चीन भी अफगानिस्तान का जिम्मा अपने ऊपर लेने के पहले सौ बार इस बात को सोचेगा कि वह मदद को बंद कब कर सकेगा। अभी पूरी दुनिया ने यह देखा हुआ है कि अफगानिस्तान पर फौजी कब्जा करने के बाद अमेरिका को वहां से शिकस्त झेलते हुए निकलने में कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। इसलिए अफगानिस्तान को लेकर लंबे वक्त के लिए कोई जिम्मेदारी चीन भी उठाने को तैयार नहीं होगा।
यह सही वक्त है जब तालिबान सरकार को मान्यता देने के पहले दुनिया उसके सामने इंसानियत की शर्तें रखे, लोकतंत्र की शर्तें रखे, महिलाओं के अधिकारों की शर्त रखे, और उसके बाद ही उसे मान्यता दे, और कोई सहायता दे। आने वाला वक्त यह बताएगा कि तालिबान के साथ ऐसी बातचीत और ऐसे मोल-भाव में दुनिया कहां तक पहुंच सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान के कश्मीर से कुछ परेशान करने वाली खबरें आ रही हैं। पिछले एक हफ्ते में आधा दर्जन से अधिक आम नागरिकों को मारा गया है, और ऐसा कहा जा रहा है कि आतंकियों ने चुन-चुन कर यह हत्याएं की हैं, जिनमें अधिकतर गैर-मुस्लिम हिंदू और सिख लोग थे, इनमें मुस्लिम नागरिक भी हैं, जिन्हें भी निशाना बनाकर मारा गया है. पुलिस का यह कहना है कि यह स्थानीय मुस्लिमों को बदनाम करने के लिए की गई साजिश है। वहां के पुलिस प्रमुख ने कहा कि यह कश्मीर के सांप्रदायिक सद्भाव को खत्म करने के लिए किया जा रहा है, और चुन-चुन कर लोगों को मारा जा रहा है, ताकि ऐसा लगे कि गैर-मुस्लिमों की हत्या हो रही है।
कश्मीर से जुड़ा हुआ कोई भी मामला बड़ा ही मुश्किल और उलझा हुआ रहता है। वहां की बहुत सी वारदातें ऐसी रहती हैं जिनमें किसी एक तबके को बदनाम करने की साजिश जुड़ी रहती है। फिर ऐसी साजिश हिंदुस्तान की जमीन से भी कुछ ताकतें कर सकती हैं, और कश्मीर की सरहद से लगे हुए पाकिस्तान के इलाके से भी ऐसा हो सकता है। यह मामला इतना उलझा हुआ है कि यहां पर सामने दिख रही वजहों से परे छुपी हुई वजह कौन सी हैं, यह सोचना कुछ मुश्किल रहता है। और जांच में तो पिछले बरसों में कश्मीर में हुए बहुत से बड़े-बड़े आतंकी हमलों के मुजरिम भी पकड़ में नहीं आए हैं। इस बार तो खबरें बताती हैं कि छोटी पिस्तौल से भी हत्या हुई है, और अगर हत्यारे ऐसे छोटे हथियार लेकर चलेंगे तो उनको पकडऩा तो सरकार के लिए, सुरक्षाबलों के लिए और मुश्किल बात होगी।
कश्मीर अलगाववाद और आतंक के लंबे दौर से गुजरा हुआ राज्य है, शायद गुजर ही रहा है। जबसे वहां केंद्र सरकार ने 370 खत्म करके और राज्य का दर्जा खत्म करके बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात किया है, तबसे वहां हिंसा थमी हुई थी, पत्थर चलने बंद हुए थे, और आतंक की घटनाएं भी कम हुई थीं। लेकिन अब जिस तरह छांट-छांटकर लोगों को मारा जा रहा है तो इससे पंजाब के आतंक के दिन याद पड़ रहे हैं जहां पर भिंडरावाले के आतंकियों ने स्वर्ण मंदिर से बाहर निकलकर बसों से मुसाफिरों को निकालकर छांट-छांटकर हिंदुओं की हत्या की थी। अभी जिन लोगों को मारा गया है उनमें कश्मीरी पंडित हैं, सिक्ख हैं, और दूसरे हिंदू हैं। जाहिर है कि इससे एक तनाव खड़ा होगा और पूरे कश्मीर में जगह-जगह बसे हुए गैर मुस्लिमों की हिफाजत करना भी बड़ा मुश्किल काम हो सकता है।
क्या यह किसी विदेशी साजिश के तहत हो रहा है या कश्मीर में ही बसी हुई कुछ हिंदुस्तानी आतंकी ताकतें ऐसा कर रही हैं, इस बारे में कुछ तय करना जल्दबाजी होगी। लेकिन यह तो तय है कि अगर कोई ताकतें ऐसा तय कर लेती हैं तो ऐसी आतंकी वारदातें बहुत मुश्किल भी नहीं रहेंगी और यह तनाव तो बढ़ते चलेगा। कश्मीर शायद दुनिया का सबसे अधिक फौजी मौजूदगी वाला इलाका है। इसके बहुत बड़े दाम हिंदुस्तान को चुकाने पड़ते हैं, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह माना जाता है कि कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच के विवाद जब तक नहीं निपटेंगे तब तक महज दूसरे मुद्दों पर इन दोनों देशों की बातचीत का बहुत अधिक मतलब नहीं रहेगा। अभी इस बात को याद दिलाने का यह मतलब कहीं नहीं है कि हम इन हमलों के पीछे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। हिंदुस्तान के दूसरे हिस्सों में नक्सल हिंसा से लेकर उत्तर-पूर्व की हिंसा तक कई ऐसे मामले हैं जो पाकिस्तान के बिना भी हो रहे हैं, और जो पूरी तरह हिंदुस्तानी ताकतें कर रही हैं। इसलिए कश्मीर के हमलों को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ बयानबाजी तो हो सकती है लेकिन पाकिस्तान से रिश्ते को और अधिक खराब करना समझदारी की बात नहीं होगी। जब तक ऐसे कोई सुबूत नहीं जुटते हैं कि इन हमलों के पीछे पाकिस्तान हैं तब तक जांच एजेंसियों को खुले दिमाग से मुजरिमों को तलाशना चाहिए वरना पाकिस्तान पर तोहमत लगाना तो आसान है और उसके बाद हिंदुस्तान में इसी जमीन के मुजरिमों को ढूंढने की जरूरत भी नहीं रह जाती है. सरकार को ऐसी चूक से बचना चाहिए। हो सकता है कि पाकिस्तान की मदद के बिना भी हिंदुस्तान के कुछ लोग ऐसा कर रहे हों। कश्मीर के ये ताजा हमले बहुत फि़क्र खड़ी करते हैं, और सरकार को जल्द ही मुजरिमों तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फ्रांस के कैथोलिक चर्च के पादरियों ने 1950 से लेकर अब तक इन 70 वर्षों में कम से कम सवा दो लाख नाबालिग बच्चों का का सेक्स शोषण किया। वहां पर चर्च ने इसके लिए एक जांच आयोग बनाया था जिसने ढाई साल तक जांच करने के बाद 25 सौ पेज की रिपोर्ट में इस पूरे भयानक सिलसिले का ब्यौरा दिया है। अब वहां पर सवाल यह खड़ा हो गया है कि इनमें से अधिकांश पादरी या तो मर चुके हैं, या मरने के करीब कब्र में पैर लटकाए हुए हैं, तो क्या उन्हें अदालत में खींचने से कुछ साबित हो पाएगा? लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी बड़ी चीज है कि पादरियों से परे चर्च के दूसरे कर्मचारियों, चर्च के स्कूलों के शिक्षकों ने बच्चों का जो देह शोषण किया होगा, उनके बारे में एक अंदाज लगाया जा रहा है कि ऐसे बच्चों की गिनती 10 लाख से अधिक पहुंच सकती है। कहने के लिए कैथोलिक चर्च के मुखिया पोप फ्रांसिस ने जांच के नतीजों पर गहरी तकलीफ जाहिर की है और इन नतीजों को भयानक बताया है। यह सिलसिला दुनिया भर के उन तमाम चर्चों में चलते ही आया है जहां पर पादरियों को शादी से दूर रहने को कहा जाता है और चर्च ने अपनी पूरी कोशिश करके ऐसे मामलों को दबाने का काम किया है। धर्म से जुड़े हुए लोगों के हाथों बच्चों का, महिलाओं का, और आदमियों का भी शोषण, कोई नई बात नहीं है। हिंदुस्तान में भी ऐसा देखने में बहुत आता है। आसाराम जैसे लोग और उसके साथ ही उसका बेटा भी, भक्तों और अनुयायियों का सेक्स शोषण करते आए हैं, और बाबा राम रहीम नाम का एक नौटंकीबाज भी बलात्कार में जेल की सजा काट रहा है। लेकिन यह सिलसिला नया नहीं है और इसे दुनिया के ऐसे कुछ एक और मामलों से जोडक़र देखना चाहिए, जिनमें कुछ बरस पहले का हिंदुस्तान का एक केरल का मामला ऐसा था जहां कई मुस्लिम लोग ऐसे पाए गए थे जो अपने बच्चों से 4 वर्ष की उम्र तक बलात्कार करने को जायज मानते थे।
केरल में तीन चार बरस पहले पुलिस ने लोगों के एक ऐसे समूह को पकड़ा था जो कि आपस में अपने बच्चों के अश्लील वीडियो बनाकर, उनकी नग्न तस्वीरें खींचकर शेयर करते थे, और इस समूह को चलाने वाले ने ऐसे पांच हजार लोगों को जुटा लिया था। यह सरगना मुस्लिम नौजवान इस बात की वकालत करता था कि जब तक बच्चियां चार बरस की रहें, उनसे बलात्कार करने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि इस उम्र की बातें उनको याद नहीं रहती। यह आदमी अपनी ही बच्चियों से बलात्कार करते उनके भी वीडियो पोस्ट करता था। केरल पुलिस ने इन पांच हजार लोगों को पकडऩे की पूरी कोशिश की है, लेकिन ये लोग मोबाइल फोन के एक ऐसे मैसेंजर, सिग्नल, का इस्तेमाल करते हुए जहां किसी को पकड़ा नहीं जा सक रहा है। इन लोगों ने अपने सरीखे हजारों लोगों के साथ ऐसे वीडियो शेयर करने का काम कर रखा था और इसमें गिरफ्तारियां हुई थीं।
बच्चों के साथ बलात्कार के मामले तो सामने आते रहते हैं, लेकिन जब उनके मां-बाप ही उनसे बलात्कार करने लगें, और उसकी फोटो या वीडियो दूसरों में बांटने लगें, तो यह एक बहुत ही गंभीर जुर्म भी है, और शायद मानसिक बीमारी भी है। भारत में अधिकतर लोगों का यह मानना रहता है कि बच्चों के साथ आसपास के लोग, परिवार के लोग ऐसा सुलूक नहीं कर सकते और महज अनजान लोग ही उनका यौन शोषण कर सकते हैं। अधिकतर परिवारों में अगर बच्चे किसी पारिवारिक सदस्य या करीबी के बारे में कोई शिकायत भी करते हैं, तो मां-बाप उन्हें डांटकर चुप कर देते हैं। ऐसे में बच्चों के पास कहीं और जाकर शिकायत करने की कोई गुंजाइश बचती नहीं है। लेकिन पूरी दुनिया की तरह भारत में भी चाईल्ड पोर्नोग्राफी का खतरा है जो कि मौजूद है, और बच्चों का यौन शोषण एक हकीकत है। दुनिया के किसी भी दूसरे गरीब देश की तरह भारत में भी गरीब बच्चे इसके शिकार अधिक होते हैं, लेकिन केरल से यह जो मामला सामने आया है, इसमें वहां तो ऐसी गरीबी भी नहीं है, वहां तो लोग पढ़े-लिखे भी हैं, और अगर ऐसे गिरोह में मुस्लिम लोग ही सरगना हैं, तो फिर उनके धर्म की रोक-टोक भी उनके गलत कामों को नहीं रोक पाई। इसलिए बच्चों का यौन शोषण संपन्नता से परे, शिक्षा से परे, धर्म से परे एक अलग किस्म का खतरा है जिससे कोई भी बच्चा सुरक्षित नहीं है।
बच्चों को ऐसे शोषण से बचाने के लिए उनको जागरूक बनाना, उनके आसपास के माहौल को तरह-तरह की निगरानी से सुरक्षित रखना, और बच्चों के मां-बाप को भी जागरूक करना एक समाधान हो सकता है। इस बारे में सरकारों को पहल करनी चाहिए, समाज को शामिल करना चाहिए, और फिर अलग-अलग किस्म के संगठन अपने-अपने सदस्यों को इस खतरे की तरफ से जागरूक करते चलें, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। श्रीलंका या बैंकाक की तरह ही भारत में भी गोवा में पर्यटकों की बड़ी मौजूदगी के बीच बच्चों के यौन शोषण की बड़ी घटनाएं सामने आ चुकी हैं। अब एक दूसरा बड़ा पर्यटक-राज्य केरल ऐसी भयानक खबर लेकर आया है। पूरे देश को इससे चौकन्ना होने की जरूरत है, ऐसी खबरों को अनदेखा करना कोई इलाज नहीं होगा, लोगों को अपने आसपास के लोगों से इस खतरे के बारे में खुलकर बात करनी होगी, और हर किसी को अपने आसपास के बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए कोशिश करनी होगी। हर राज्य सरकार को अपने नागरिक संगठनों को साथ लेकर तुरंत ही ऐसी जागरूकता का अभियान चलाना चाहिए। दूसरी बात यह कि देश में आईटी एक्ट तो बहुत मजबूत है, लेकिन वह अदालत में किसी को सजा नहीं दिला पा रहा है। ऐसे में इंटरनेट या सोशल मीडिया पर, या कि किसी मैसेंजर सर्विस पर इस तरह के वीडियो आगे बढ़ाकर जो लोग समाज को एक खतरनाक जगह बना रहे हैं, उन्हें अपने बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए। कुल मिलाकर यह दुनिया एक भयानक जगह है, और लोगों को अपने बच्चों को बचाने के लिए इस पूरी दुनिया को सुरक्षित बनाना पड़ेगा, महज अपने घर को सुरक्षित रखकर, महज अपने बच्चों को सुरक्षित रखकर कुछ भी नहीं हो सकेगा।
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बीती शाम से रात तक कुछ घंटों के लिए दुनिया का सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक बंद रहा, और इसी कंपनी के दो और कारोबार, व्हाट्सएप मैसेंजर और इंस्टाग्राम नाम का एक फोटो-वीडियो प्लेटफार्म भी बंद रहे। कंपनी के लोग कंप्यूटर पर कुछ फेरबदल कर रहे थे और उनकी किसी गलती से यह हुआ। कोई स्थाई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन कुछ घंटों की इस गड़बड़ी से इस कंपनी के शेयर 5 फीसदी गिर गए और इसके मालिक के अरबों रूपये डूब गए। इन सबसे परे, बचे हुए एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर लोगों ने इन घंटों में खूब लिखा, अपनी तकलीफ भी बताई, और मजा भी लिया। मैसेंजर और सोशल मीडिया के बिना कुछ घंटों जिंदगी भी किस तरह थम गई यह कल सामने आया। जबकि लोगों के पास दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी थे, और दूसरी बहुत सी मैसेंजर सर्विस भी थीं जो कि बंद नहीं हुई थीं।
अब इस छोटे से हादसे से यह समझने की जरूरत है कि लोगों की जिंदगी किस तरह इन सहूलियत ऊपर टिक गई है, उनकी मोहताज हो गई है। इनके बिना होना तो यह चाहिए था कि लोग कुछ देर अपने आसपास के दायरे में जी लेते, कुछ देर परिवार और दोस्तों का सीधा मजा ले लेते, लेकिन उनकी दिमागी बेचैनी ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं करने दिया। लोग लगातार कभी अपने फोन को चेक करते, तो कभी इंटरनेट को, और कभी इन्हें बंद करके फिर शुरू कर देखते कि क्या उनके सिरे पर कोई गड़बड़ी है? इस बात को लेकर लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या इंटरनेट और फोन-कंप्यूटर से परे कुछ देर रह लेना उनकी अपनी सेहत, और रिश्तों के लिए ठीक नहीं है? यह भी सोचना चाहिए कि क्या एक हठयोग की तरह कुछ देर वह ऑफलाइन भी रह सकते हैं? आप बिना इंटरनेट के और टेलीफोन के रह सकते हैं? लोगों को यह बड़ा मुश्किल काम लग सकता है क्योंकि दिल और दिमाग हर कुछ मिनटों में किसी मैसेज की उम्मीद करते हैं, या किसी कॉल की, ये दोनों न आएं तो लोग खुद कोई मैसेज करने लगते हैं। लोगों के हाथ हर थोड़ी देर में अपने फोन को ढूंढने और टटोलने लगते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि सिगरेट पीने वालों के हाथ सिगरेट के पैकेट और माचिस या लाइटर को टटोलकर, अपने पास पाकर एक तसल्ली पाते हैं, और फिर चाहे उनका अगली सिगरेट का वक्त हुआ हो या ना हुआ हो, उन्हें यह भरोसा तो रहता है कि जब जरूरत रहेगी, यह पास में है। ठीक इसी तरह लोगों को इंटरनेट, फोन और कंप्यूटर, इन पर बैटरी चार्जिंग की तसल्ली इतनी ही जरूरी हो गई है जितनी कि किसी नशे या लत के सामान की रहती है।
इन सबसे परे अगर कुछ देर के लिए लोग अपने परिवार में बैठ जाएं या दोस्तों के साथ बैठ जाएं और तमाम लोग यह तय कर लें कि कोई इतनी देर न फोन देखेंगे, न कंप्यूटर देखेंगे, और शायद टीवी भी देखने से परहेज करेंगे, तो लोगों को घर के भीतर ही एक-दूसरे के बारे में कई नई बातें पता लग सकती हैं। लोग अगर फोन पर बात किए बिना सुबह शाम की सैर पर जा सकते हैं, तो उन्हें कुदरत के बारे में कई नई बातें पता लग सकती हैं, पेड़ों और पंछियों के बारे में कुछ पता लग सकता है, और जिंदगी की रोज की चीजों से परे वे कुछ नई कल्पनाएं भी कर सकते हैं। कई लोग बातचीत में आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग की बात करते हैं, यानी बंधे बंधाए ढर्रे से परे कुछ नया सोचना, कुछ नए तरह से सोचना, लीक से हटकर कुछ सोचना। लेकिन जब जिंदगी का अधिकतर जागा हुआ वक्त फोन और कंप्यूटर से ही बंधा हुआ है, इन्हीं चीजों के भीतर कैद है तो फिर आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग आ कहां से सकती है?
हमारी अधिकतर सोच उन बातों से जुड़ गई है जो बातें दूसरे लोग हमें भेजते हैं, या जो सोशल मीडिया हमें अपने पेज पर दूसरों का लिखा हुआ दिखाता है। ऐसे में अपनी मौलिक सोच के लिए वक्त और गुंजाइश यह दोनों बचते ही कहां हैं? अपनी खुद की फिक्र के लिए, अपनों की फिक्र के लिए कहां जगह निकलती है? इसलिए कल जब कुछ घंटों के लिए लोगों के हाथ से व्हाट्सएप और फेसबुक निकल गया, तो लोगों को लगा कि उनके हाथ-पैर कट गए, और अब उनका दिल-दिमाग कैसे काम करेगा? लोगों को यह याद रखना चाहिए कि जब उनके सोचने की शुरुआत दूसरों के लिखे हुए, दूसरों के पोस्ट किए हुए और दूसरों के भेजे हुए संदेशों से होती है, तो वह मौलिक कहां से हो सकती है? अब इस जगह इस मुद्दे पर और अधिक लिखकर हम एक बक्सा बनाना नहीं चाहते जिसके बाहर लोगों का सोचना मुश्किल हो, हम सिर्फ इस मुद्दे को छोडक़र बात को खत्म करना चाहते हैं ताकि लोग अपने-अपने हिसाब से इस बारे में सोचें।
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देश में लंबे समय से चले आ रहे किसान आंदोलन में कल एक दर्दनाक मोड़ तब आया जब उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में वहां पहुंच रहे केंद्र और राज्य के भाजपा मंत्रियों का विरोध करने के लिए इक_ा किसानों पर एक केंद्रीय मंत्री के बेटे की गाड़ी चढ़ा दी गई जिसमें 4 किसान कुचलकर मर गए। ऐसी खबर है कि इसके जवाब में कुछ किसानों ने भी हिंसा की और इस पूरे घटनाक्रम के बाद भाजपा के दो कार्यकर्ताओं और दो ड्राइवरों के भी मरने की खबर है। उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद चुनाव होने जा रहा है और किसान आंदोलन तो पूरे देश में चल ही रहा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश की कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी तुरंत लखीमपुर के लिए रवाना हुईं, जिन्हें रास्ते में ही रोककर गिरफ्तार कर लिया गया, कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के कुछ दूसरे नेताओं को भी गिरफ्तार किया गया और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लखनऊ में विमान उतारने की भी इजाजत नहीं दी गई और वह रायपुर में रवानगी का इंतजार करते रहे. भूपेश बघेल ने यह सवाल उठाया है कि क्या अब उन्हें उत्तर प्रदेश जाने के लिए कोई वीजा लेना पड़ेगा? यह बात इसलिए है कि उनके या पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी के लखनऊ पहुंचने के बाद भी उन्हें आगे बढऩे से रोका जा सकता था, लेकिन एक प्रदेश के मुख्यमंत्री को दुसरे प्रदेश की राजधानी तक पहुंचने की इजाजत भी न मिलना उन्हें एक अलोकतांत्रिक मामला लग रहा है, और जाहिर तौर पर ऐसा दिख भी रहा है। लखीमपुर जिले में जहां पर कि यह घटना हुई है वह नेपाल की सरहद पर बसा हुआ एक गांव है और वहां से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर लखनऊ तक किसी को न उतरने दिया जाए, यह बात थोड़ी अटपटी लगती है। स्थानीय शासन प्रशासन का तो यह अधिकार रहता है कि वे तनावग्रस्त से इलाके में किसी को जाने से रोकें, और वह काम इस डेढ़ सौ किलोमीटर में कहीं भी हो सकता था।
लेकिन यह मुद्दा कांग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों के उत्तर प्रदेश पहुंचने से रोके जाने का नहीं है, वह तो इस पूरी घटना का एक छोटा हिस्सा है, बड़ा हिस्सा तो यह है कि देश के कई राज्यों में चल रहे किसान आंदोलन के प्रति देशभर में अधिकांश हिस्सों में चल रही भाजपा की सरकारों का क्या रुख है। केंद्र सरकार के सामने डेरा डाले हुए किसानों को सैकड़ों दिन हो चुके हैं, लेकिन अपने किसान कानूनों को लेकर केंद्र सरकार टस से मस नहीं हो रही। दूसरी तरफ पिछले महीनों में कहीं हरियाणा के किसी मंत्री ने, तो कहीं भाजपा के किसी बड़े नेता-पदाधिकारी ने किसान आंदोलन को नक्सलियों से जुड़ा बताया, किसी ने देशद्रोहियों से जुड़ा हुआ बताया, किसी ने उसका संबंध पाकिस्तान और खालिस्तान से जोड़ा। अभी दो दिन पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने किसान आंदोलन से लाठियों से निपटने की बात लोगों से की, और कुछ वैसी ही बातें उत्तर प्रदेश में भी किसानों के बारे में केंद्र और राज्य के भाजपा-मंत्री करते आए थे। माहौल ऐसा बन गया है कि भाजपा सरकारों के मंत्री और भाजपा के बड़े पदाधिकारी किसान विरोधी दिखने लगे हैं। यह जनधारणा हर लापरवाह बयान के साथ अधिक मजबूत होते चल रही है, और रास्ता रोके आंदोलनकारियों को सत्तारूढ़ गाड़ी से कुचलकर मारने का यह देश का शायद पहला ही मौका है। पता नहीं भाजपा किस तरह देश के पूरे के पूरे किसान तबके को इस हद तक नाराज करने का एक अभियान सा चलाते दिख रही है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जब उत्तर प्रदेश जाने की इजाजत राज्य सरकार ने नहीं दी तो उन्होंने दिल्ली में पार्टी दफ्तर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा, जिनके बेटे की कार ने किसानों को कुचल कर मारा है, उन्हें बर्खास्त किया जाना चाहिए। भूपेश ने इस बात पर भी अफसोस जाहिर किया कि इस तरह की मौतों पर प्रधानमंत्री की तरफ से कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आई जो कि बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात है. उन्होंने कहा कि यह साधारण घटना नहीं है यह हत्या का मामला है। उन्होंने कहा कि ये लोग अंग्रेजों की राह पर चलने वाले लोग हैं, ये किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। भूपेश बघेल ने आरोप लगाया कि भाजपा को किसान पसंद नहीं है और भाजपा किसानों की आवाज को दबा देना चाहती है, रौंद देना चाहती है। आज प्रियंका गांधी के उत्तर प्रदेश में हिरासत में रहने के बाद भूपेश बघेल वहां जाने की कोशिश कर रहे सबसे बड़े नेता हैं, और कांग्रेस पार्टी ने उन्हें दो दिन पहले ही उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर वरिष्ठ पर्यवेक्षक नियुक्त किया है।
यह बात सच है कि उत्तर प्रदेश के कुछ महीने बाद के चुनावों को लेकर राजनीतिक दल अधिक सक्रिय हुए होंगे, लेकिन पिछले साल भर में भाजपा की केंद्र सरकार, उसकी हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार ने किसान आंदोलन पर जो रुख दिखाया है, वह एक आम नजरिए से देखने पर किसान विरोधी दिखता है। ऐसा लगता है कि राज्यों और केंद्र के चुनाव जीतने में एक महारत हासिल कर लेने के बाद भाजपा को देश के बहुत से तबकों की परवाह नहीं रह गई है। उसे लगता है कि मोदी के नाम और चेहरे पर वह देश में कहीं भी जीत सकती है। यह सिलसिला चुनावी राजनीति के हिसाब से तो ठीक है, लेकिन हिंदुस्तान में लोकतंत्र की परंपराओं को देखें, तो बातचीत के सिलसिले को खत्म करना कोई अच्छी बात नहीं है। और संसद से लेकर सडक़ तक, मोदी सरकार और भाजपा, बातचीत के सिलसिले को गैरजरूरी साबित करते चल रही हैं। बहुमत की वजह से उनका काम चल सकता है, लेकिन यह उनका काम ही चल रहा है, देश की लोकतांत्रिक परंपराएं नहीं चल रहीं। उत्तर प्रदेश में किसानों की ये मौतें आने वाले चुनाव पर चाहे जो असर करें, हम उसके असर को चुनावों से परे भी देश के किसान आंदोलन और देश के किसान मुद्दों पर देखना चाहेंगे, क्योंकि अभी 2 अक्टूबर को ही तो लाल बहादुर शास्त्री की जयंती पर लोगों ने जय जवान, जय किसान की बात कही, और जिन लोगों को गांधी के मुकाबले भी शास्त्री अधिक पसंद आते हैं, उन्हें भी शास्त्री के जय किसान पसंद नहीं आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में आने वाले दिन देश के किसान आंदोलन की रफ्तार भी तय करेंगे, और इस बारे में कुछ दिन बाद फिर लिखने का मौका आएगा।
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हिंदुस्तान में रोज बहुत से प्रदेशों में ऐसे मामले पुलिस में दर्ज होते हैं जिनमें किसी लडक़ी या महिला से शादी का वादा करके देह संबंध बनाने और बाद में शादी न करने की शिकायत रहती है। कानून कुछ ऐसा है कि ऐसे मामलों को शादी का झांसा देकर रेप करने के तहत दर्ज किया जाता है, और इनमें खासी लंबी सजा का भी इंतजाम है। बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जिनमें ऐसी शिकायतकर्ता लडक़ी या महिला, ऐसे लडक़े या आदमी के साथ वर्षों तक लिव इन रिलेशनशिप में भी रहती है, लेकिन शादी न होने पर वे रिपोर्ट लिखवाती हैं, और कानून में उसकी गुंजाइश है इसलिए ऐसे लडक़े या आदमी की गिरफ्तारी में अधिक समय भी नहीं लगता। इस बारे में कुछ प्रदेशों के हाईकोर्ट ने समय-समय पर शक जाहिर किया है कि क्या सचमुच ऐसे मामलों को बलात्कार मानना चाहिए, या फिर यह बलात्कार के दायरे से बाहर रखना चाहिए। हमने इस अखबार में ऐसे मामलों को लेकर साफ-साफ लिखा है कि इन्हें बलात्कार मानना गलत होगा और ऐसा लिखने पर बहुत सी महिला आंदोलनकारियों ने हमारी आलोचना भी की है कि यह महिला विरोधी नजरिया है। ताजा मामला दिल्ली का है जिसमें एक नाबालिग को शादी का झांसा देकर उसके साथ बलात्कार किया गया था, और उसकी रिपोर्ट पर मामला दर्ज हो गया है।
भारत में महिला को कानून में खास हिफाजत मुहैया कराई गई है, और इसलिए इन मामलों में महिला के बयान को ही सुबूत मान लिया जाता है, और इनमें बलात्कार या सेक्स शोषण जैसे मामले रहते हैं। जिस समाज में महिला सदियों से कुचली चली आ रही है, वहां पर उसे बराबरी का दर्जा देने या सुरक्षा देने के लिए ऐसा कानून जरूरी भी था। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या समाज के किसी एक कमजोर तबके को उसका जायज हक दिलाने के लिए कानून ऐसा बनाया जाए जिसका एक बड़ा बेजा इस्तेमाल भी हो सकता हो? दिल्ली की जिस घटना को लेकर आज इस मुद्दे पर यहां लिखा जा रहा है उसमें तो शिकायत करने वाली लडक़ी नाबालिग है और इसलिए उसके साथ किसी बालिग का देह संबंध, अनुमति से बनाना भी जायज नहीं है, और कानूनन जुर्म है। इसलिए जो कुछ हम लिखने जा रहे हैं वह इस मामले पर लागू नहीं होता है लेकिन दूसरे बहुत से ऐसे मामले हैं जिनके बारे में एक मानवीय और सामाजिक नजरिए से सोचने की जरूरत है।
यह कोई नई बात नहीं है कि शादी के पहले लोगों के सेक्स संबंध बनें, हिंदुस्तान जैसे दकियानूसी समाज में भी लंबे समय से ऐसा चले आ रहा है और इसके पीछे दो वजहें हैं। एक तो किसी लडक़ी या महिला की अपनी शारीरिक जरूरतें रहती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह किसी से संबंध बना सकती है। दूसरी बात यह कि शादी हो जाने की एक उम्मीद से भी वह किसी आदमी के सामने समर्पण कर सकती है कि शायद इसके बाद शादी हो जाए। यह दूसरी वजह ऐसी है जो कि भारत की सामाजिक व्यवस्था से पैदा हुई है जहां पर किसी भी लडक़े या लडक़ी के बालिग हो जाने पर उसके शादी कर लेने की सामाजिक उम्मीद एक बहुत बड़ा पारिवारिक दबाव बना देती है। 20-25 बरस के होते ही परिवार से लेकर पड़ोस तक, और रिश्तेदारों तक के दबाव पडऩे लगते हैं कि कब हाथ पीले हो रहे हैं, कब शादी हो रही है। और चूँकि लडक़ी की शादी उसके परिवार पर एक बड़ा आर्थिक बोझ भी रहती है, इसलिए भी लडक़ी पर यह मानसिक दबाव रहता है कि वह किस तरह अपने परिवार का बोझ कम कर सकती है। इसके अलावा पारिवारिक स्तर पर तय हुई शादी में लडक़ी की कोई मर्जी तो रहती नहीं है, और जो लडक़ी अपनी मर्जी से शादी करना चाहती है, वह भी ऐसी शादी अपने बूते पर करने के लिए कई बार किसी लडक़े के सामने उसके सुझाये अपने बदन को खड़ा कर देती है। कुल मिलाकर यह कि हिंदुस्तान में जब शादी की उम्मीद में किसी लडक़ी या महिला को किसी के सामने एक समझौता करना पड़ता है, तो वह निजी जरूरत का कम रहता है पारिवारिक और सामाजिक जरूरत का अधिक रहता है। इसलिए इस बात को समझने की जरूरत है कि इस देश में शादी को जितना जरूरी करार दिया जाता है, उसकी वजह से भी लड़कियों पर शादी का रास्ता निकालने का एक दबाव बनता है।
दूसरी बात को भी समझने की जरूरत है कि लडक़े-लड़कियों के बीच या औरत-मर्द के बीच बिना शादी के भी प्रेम संबंध बनते हैं, जो देह संबंध तक पहुंचते हैं, जो पूरी तरह से दोनों की सहमति के रहते हैं। हो सकता है कि इस बीच किसी एक ने दूसरे से शादी का वायदा किया हो, और यह भी हो सकता है कि ऐसा वायदा करते समय सच में ही उसकी नीयत आगे चलकर शादी करने की रही हो, लेकिन बाद में किसी वजह से शादी ना हो पाना, या बाद में मन का बदल जाना या साथी का शादी के लायक न लगने लगना भी हो सकता है। और ऐसे इसे देह संबंध बनाने के लिए दिया गया झांसा मान लेना ज्यादती की बात होगी। बहुत से मामलों में तो सगाई होने के बाद भी शादी टूट जाती है और इस दौर में अमूमन न तो कोई देह संबंध बनता है न कुछ और। तो इसे क्या कहा जाए? लोगों के विचार समय के साथ-साथ सचमुच बदल भी सकते हैं। इसलिए अगर प्रेम संबंध और देह संबंध को अनिवार्य रूप से शादी में बदलने की शर्त रख दी जाए, तो ऐसी शर्त की गारंटी इन संबंधों की शुरुआत में ही कौन दे सकते हैं? इसलिए यह सिलसिला कुछ ज्यादती का लगता है. दो बालिग लोगों के बीच आपसी सहमति से प्रेम हो, आपसी सहमति से देह संबंध बने, और उसके बाद उन दोनों के बीच शादी को लेकर अगर कभी कोई बात हुई थी तो उसे पूरा न होने की नौबत आने पर इस संबंध को बलात्कार करार दे देना, यह इंसाफ की बात तो नहीं लगती।
महिलाओं के अधिकारों को लेकर लडऩे वाले लोगों को यह बात खटक सकती है लेकिन अखबार में लगातार महिलाओं के अधिकारों के लिए लिखते हैं, और बहुत से मुद्दे ऐसे भी उठाते हैं जो कहीं चर्चा में नहीं रहते, फिर भी यह बात लगती है कि इंसाफ को किसी एक तबके के अधिकारों से भी ऊपर मानना चाहिए, और किसी तबके के हक इंसाफ के नजरिए से ही तय होने चाहिए। अगर लोग प्रेम संबंध और देह संबंध बनाते हुए इसी तनाव और फिक्र में रहेंगे कि उनके साथी आगे चलकर उन्हें बलात्कार में जेल भेज सकते हैं, तो इससे लोगों के संबंधों में शुरू से ही एक अविश्वास पैदा हो सकता है, जो कि प्रेम और सेक्स दोनों को खराब कर सकता है। इस बारे में अधिक विचार-विमर्श की जरूरत है, लोगों के बीच सार्वजनिक बहस होनी चाहिए कि क्या शादी के वायदे के बिना कोई संबंध बन ही नहीं सकते या शादी का वायदा करने के बाद लोगों का अपना इरादा बदलने का हक़ खत्म हो जाता है? और अगर लोग अपना इरादा बदल लें, तो क्या पहले का वह आपसी सहमति का बालिग रिश्ता बलात्कार करार दिया जाए?
इस बारे में सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए
वैसे तो कांग्रेस पार्टी कुछ अच्छी और कुछ बुरी बातों के लिए लगातार खबरों में बनी हुई है, और पंजाब से लेकर राजस्थान, छत्तीसगढ़ तक पार्टी के भीतर अलग-अलग किस्म के मुद्दों को लेकर बेचैनी भी बनी हुई है, लेकिन उसकी खबरें दिल्ली से बन रही हैं। राज्यों को लेकर फैसले भी क्योंकि परंपरागत रूप से इस पार्टी में, और सच तो यह है कि बाकी तमाम पार्टियों में भी, दिल्ली से होते हैं, इसलिए राज्यों की खबरें भी दिल्ली से निकल रही हैं. लेकिन कुछ दूसरी दिलचस्प बातें भी हो रही हैं। देश की नौजवान पीढ़ी में एक सबसे चर्चित नौजवान चेहरा, जेएनयू का छात्र नेता रहा हुआ कन्हैया कुमार, अपने सीपीआई से राजनीतिक संबंधों का एक लंबा दौर छोडक़र कांग्रेस में शामिल हुआ। उसी के साथ जिग्नेश मेवाणी नाम का गुजरात का एक दलित राजनीतिक कार्यकर्ता, और मौजूदा निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस में आया। जिग्नेश मेवाणी वकील और अखबारनवीस भी रह चुका है और बाद में एक दलित कार्यकर्ता की हैसियत से निर्दलीय विधायक बना है। इन दोनों के कांग्रेस में आने की चर्चा कई दिनों से चल रही थी, और राहुल गांधी से मिलकर शायद एक से अधिक मुलाकातें करके ये कांग्रेस में आए हैं. इनके पहले गुजरात में एक और नौजवान सामाजिक कार्यकर्ता हार्दिक पटेल भी कांग्रेस में लाया गया था और उसे हैरान कर देने वाले तरीके से गुजरात प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया गया। हार्दिक ने पिछले कुछ वर्षों में गुजरात में लगातार सामाजिक और आरक्षण आंदोलनों में बड़ी अगुवाई की थी, और वहीं से हार्दिक का नाम लगातार खबरों में आया, बने रहा, और इतनी कम उम्र का कोई नौजवान इतने बड़े आंदोलन का अगुआ बने ऐसा कम ही होता है। तो हार्दिक पटेल गुजरात के पाटीदार-ओबीसी समुदाय का एक बड़ा असरदार चेहरा है और जिग्नेश मेवानी गुजरात का एक दलित चेहरा है, इन दोनों का कांग्रेस से कोई पुराना इतिहास नहीं रहा बल्कि इन दोनों का कोई चुनावी राजनीतिक इतिहास नहीं रहा है। पाटीदार आंदोलन से हार्दिक पटेल खबरों में आए क्योंकि वे अपने समाज को ओबीसी आरक्षण में शामिल करवाना चाहते थे। और गुजरात के दलितों की तकलीफ तो बहुत बुरी तरह खबरों में बनी हुई रहती ही हैं।
अब यह सिलसिला थोड़ा सा अटपटा लगता है कि कांग्रेस में एक तरफ तो अपने जमे-जमाए पुराने नेताओं से बातचीत का सिलसिला भी टूटते जा रहा है। कांग्रेस के मौजूदा तौर तरीकों से बेचैन, लेकिन कांग्रेस में ही अब तक बने हुए, करीब दो दर्जन बड़े नेताओं से ऐसा लगता है कि राहुल गांधी, या कांग्रेस हाईकमान, या सोनिया परिवार ने सीधे बातचीत बंद ही कर रखी है। और दूसरी तरफ प्रशांत किशोर नाम के एक चुनावी राजनीतिक रणनीतिकार से जिस तरह कांग्रेस सलाह-मशविरा कर रही है, उसे ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपने भीतर की जड़ हो चुकी, फॉसिल बन चुकी, भूतपूर्व प्रतिभाओं को छोडक़र, कुछ नई नौजवान प्रतिभाओं की तरफ जा रही है। यह भी हो सकता है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी को कांग्रेस में लाने के पीछे प्रशांत किशोर जैसे किसी गैरकांग्रेसी की राय रही हो। जो भी हो कांग्रेस को आज एक नए खून की जरूरत है, और बहुत बड़ी जरूरत है. जरूरत तो उसे कांग्रेस की लीडरशिप के स्तर पर भी है कि वहां पर भी कुछ नया होना चाहिए, लेकिन जब तक वह नहीं हो सकता, जब तक वह नहीं होता है, तब तक कम से कम कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी जैसे लोग पार्टी में लाए जाएं, तो इसे कारोबारी दुनिया में एक नए कामयाब स्टार्टअप को किसी पुरानी बड़ी कंपनी द्वारा अधिग्रहित कर लेने जैसा मानना चाहिए। कारोबार से भी राजनीति कुछ सीख सकती है, और उसमें यह है कि अपने पुराने लोग अगर एसेट के बजाय लायबिलिटी अधिक हो चुके हैं, तो बाहर से कम से कम कुछ नई नई प्रतिभाओं को लाकर पार्टी की एसेट बढ़ाई जाए।
यह बात हम कन्हैया कुमार के आज कांग्रेस में लाए जाने को लेकर नहीं कह रहे हैं, जिस दिन कन्हैया कुमार जेल से छूटकर जेएनयू पहुंचे थे और वहां पर करीब पौन घंटे का उनका भाषण टीवी चैनलों पर बिना किसी काट-छांट के पूरा दिखाया गया था, उस दिन से ही हम यह मानकर चल रहे हैं कि देश को ऐसे नौजवानों की जरूरत है। हमारे नियमित पाठकों ने इसी जगह पर उसी दौर में कई बरस पहले हमारा लिखा हुआ पढ़ा होगा कि देश की संसद में अगर किसी एक व्यक्ति को लाया जाना चाहिए तो वह कन्हैया कुमार है। सार्वजनिक जीवन में और चुनावी राजनीति में निजी ईमानदारी के साथ जब मजबूत विचारधारा को ओजस्वी तरीके से बोलने का हुनर किसी में होता है, तो उसका बड़ा असर भी होता है. यह बात फुटपाथ पर चूरन या तेल बेचने वाले के बोलने के हुनर से अलग रहती है। और जनसंघ के जमाने से भाजपा के इतिहास के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेई अपनी साफगोई और बोलने की अपनी खूबी के चलते हुए ही इतने लोकप्रिय रहते आए थे। इसलिए कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना और खासकर ऐसे वक्त आना जब उसका वर्तमान ही अंधेरे में दिख रहा है, और उसका भविष्य एक लंबी अंधेरी सुरंग के आखिर में टिमटिमाती रोशनी जैसा दिख रहा है, तब यह कांग्रेस के लिए एक हासिल है।
अब इसे एक दूसरे पहलू से भी देखने की जरूरत है। जिन चार नामों की हमने यहां चर्चा की है, हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी, और प्रशांत किशोर, इन सबके साथ एक बात एक सरीखी है कि ये कांग्रेस की राजनीति में अगर रहते हैं, तो भी ये राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई पकड़ नहीं रखते कि ये राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के लिए कई बरस बाद जाकर भी किसी तरह की कोई चुनौती बन सकें। जबकि कांग्रेस पार्टी के भीतर के जिन दर्जनों नेताओं को धीरे-धीरे अलग-अलग वजहों से किनारे होना पड़ा है, उनमें से कई ऐसे हो सकते थे जिन्हें कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप के लिए एक किस्म की चुनौती माना जा सकता था। अभी भी यह संभावना या आशंका खत्म नहीं हुई है कि जब कभी कांग्रेस के संगठन चुनाव होंगे तो 23 बेचैन नेताओं में से कोई पार्टी अध्यक्ष का चुनाव भी लडऩे के लिए तैयार हो जाए. इसलिए राहुल गांधी या उनके परिवार ने देश के कुछ चर्चित और दमखम वाले नौजवानों को पार्टी में लाकर पार्टी को समृद्धि तो किया है, लेकिन शायद अपनी हिफाजत का भी पूरा ध्यान रखा है। राजनीति किसी किस्म के त्याग और आध्यात्म का कारोबार नहीं है और इसमें लोग अगर अपने प्रतिद्वंद्वियों को कम करते हैं, कमजोर करते हैं, तो उसमें कोई अटपटी बात नहीं है। ऐसे में कांग्रेस ने अपने बड़े कमजोर राज्यों में, गुजरात और बिहार में इन नौजवानों को पार्टी में लाकर अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने की कोशिश की है, जो कि एक अच्छी बात है।
हो सकता है कि कांग्रेस संगठन के पुराने जमे जमाए मठाधीशों को यह बात अच्छी न लगे, लेकिन वह अधिक काम के रह नहीं गए हैं। वे भाजपा में होते तो घोषित या अघोषित मार्गदर्शक मंडल में भेजे जा चुके रहते। लेकिन कांग्रेस की संस्कृति कुछ अलग है, और इसने अभी एक बरस पहले तक देश के सबसे बुजुर्ग कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा को राहुल और सोनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते देखा हुआ है। इसलिए बिना रिटायर किए या बिना घर भेजे भी कांग्रेस अपने पुराने बोझ को किनारे करना जानती है, और अब उसने जिन नए होनहार लोगों को पार्टी में लाने का काम किया है, वह उसके लिए एक अच्छी बात है। हम यहां पर किनारे किए गए पुराने लोगों के साथ इन नए लोगों को जोडक़र कोई नतीजा निकालना नहीं चाहते क्योंकि संगठन के भीतर की राजनीति का इतना सरलीकरण करना मुमकिन नहीं है। लेकिन देश में तेजस्वी और होनहार नौजवानों को आगे लाना किसी भी पार्टी के लिए एक अच्छी बात है और कांग्रेस ने इस हफ्ते कुछ हासिल ही किया है। हो सकता है कि इसी संदर्भ में पंजाब में भारी अलोकप्रिय हो चुके बुजुर्ग मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को किनारे करना, और एक दलित, तकरीबन नौजवान को मुख्यमंत्री बनाना भी गिना जा सकता है। देखें आगे-आगे होता है क्या।
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उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय में वहीं की एक महिला शिक्षिका ने छात्राओं के नहाते और कपड़े बदलते हुए वीडियो बना लिए और अब उन लड़कियों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा है क्योंकि वे इस बात से डरी-सहमी हैं कि कहीं वह टीचर यह वीडियो और फोटो वायरल ना कर दे। पुलिस उस महिला शिक्षिका को तलाश रही है जो कि फरार हो गई है। यह मामला छत्तीसगढ़ के जशपुर में विकलांग बच्चों के एक प्रशिक्षण केंद्र और छात्रावास में अभी कुछ दिन पहले हुए बलात्कार और सामूहिक सेक्स शोषण जितना गंभीर नहीं है, लेकिन अपने आप में गंभीर तो है ही। हिंदुस्तान में एक तो लोग लड़कियों को बाहर पढऩे भेजना नहीं चाहते, ऐसे में जब किसी हॉस्टल में लड़कियों को रखकर गरीब मां-बाप उनके बेहतर भविष्य की कोशिश करते हैं, तो जशपुर के प्रशिक्षण केंद्र में वही के केयरटेकर कर्मचारियों ने बलात्कार किया, और देशभर में जगह-जगह ऐसी घटनाएं होती रहती हैं।
इस मामले से जुड़े हुए दो अलग-अलग पहलू हैं. एक तो यह कि बच्चों से जुड़ी हुई शिक्षण या प्रशिक्षण संस्थान या फिर उनके खेलकूद के संस्थान ऐसे रहते हैं जहां पर बच्चों से सेक्स की हसरत रखने वाले लोग नजर रखते हैं, और मौका मिलते ही वहां यह जुर्म करने में लग जाते हैं। फिर हिंदुस्तान में तो कानून भी लचर है और सरकारी इंतजाम उससे भी अधिक लचर है, लेकिन जिस अमेरिका में कानून मजबूत है, और सरकारी इंतजाम भी खासे मजबूत हैं, वहां भी अभी ओलंपिक में पहुंची हुई बहुत सी जिमनास्ट की शिकायतें जांच में सही पाई गईं कि उनके एक प्रशिक्षक ने अनगिनत लड़कियों का सेक्स शोषण किया। टोक्यो ओलंपिक में अमेरिकी जिमनास्ट टीम की जो सबसे होनहार खिलाड़ी थी उसने आखिरी वक्त में अपना नाम वापस ले लिया और कहा कि वह मानसिक रूप से इतनी फिट नहीं है कि वह मुकाबले में हिस्सा ले सके। बाद में यह जाहिर हुआ कि वह भी ऐसे शोषण की शिकार लड़कियों में से एक थी, और अमेरिका में ओलंपिक में पहुंचने वाली बच्चियां तक का शोषण करने वाला यह प्रशिक्षक लंबे समय तक किसी कार्रवाई से बचे रहा, शिकायतें अनसुनी होती रही, और जाने कितने दर्जन लड़कियों को इस यातना से गुजरना पड़ा जो कि जिंदगी भर उनका पीछा नहीं छोड़ेगी। हिंदुस्तान में पढ़ाई, खेलकूद, और सभी किस्म की दूसरी जगहों पर लड़कियों और महिलाओं के देह शोषण की कोशिश चलती ही रहती है, और इस देश का इंतजाम इतना घटिया है कि वह मुजरिम की शिनाख्त तो हो जाने पर भी उसे 10-20 बरस तक तो कानूनी लुकाछिपी का मौका देते रहता है। छत्तीसगढ़ में ही ऐसे बहुत से मामले हैं जिनमें सारे सबूतों के बावजूद 5 से 10 बरस तक ना तो पिछली रमन सरकार ने अपने अफसरों पर कार्यवाही की, और ना ही पिछले ढाई साल की भूपेश सरकार ने ऐसे मामलों को एक इंच भी आगे बढ़ाया। ऐसे में किसकी हिम्मत हो सकती है कि वे शिकायत लेकर जाएं और सारी कार्रवाई के बावजूद, सारे सबूतों के बावजूद, केवल अदालतों में वकील खड़े करते रहें, लड़ते रहें, और कोई इंसाफ ना पाएं।
दूसरी तरफ हिंदुस्तानी समाज के बारे में भी यह सोचने की जरूरत है कि संस्थागत शोषण से परे जब परिवारों के भीतर बच्चों का देह शोषण होता है तो ऐसे अधिकतर मामलों के पीछे परिवार के लोग, रिश्तेदार, या घर में आने-जाने वाले लोग, घरेलू कामगार ही रहते हैं। लेकिन जब बच्चे शिकायत करते हैं तो आमतौर पर मां-बाप ही अपने बच्चों की शिकायतों को अनसुना कर देते हैं, उस पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उससे परिवार या सामाजिक संबंधों का बना-बनाया ढांचा चौपट हो जाने का खतरा उन्हें अधिक गंभीर लगता है। जो अपने बच्चों की हिफाजत से अधिक महत्वपूर्ण अपने पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को मानते हैं, ऐसे मां-बाप को क्या कहा जाए। लेकिन हिंदुस्तान में बच्चों के यौन शोषण में अधिकतर मामले इसी किस्म के हैं। बच्चे और बच्चियां न तो घर-परिवार में सुरक्षित हैं, और न ही किसी संस्थान में। ऐसी ही वजह रहती हैं जिनके चलते हुए गरीब मजदूरों के परिवार अपनी बच्चियों का बाल विवाह कर देते हैं कि किसी हादसे के पहले अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली जाए, और बच्ची के हाथ पीले कर दिए जाएं। उसके बाद उसकी हिफाजत उसके ससुराल की जिम्मेदारी रहेगी। जिन गरीब घरों में मां-बाप दोनों काम करने बाहर जाते हैं, वहां पर अक्सर ही बच्ची की शादी जल्दी कर दी जाती है। यह पूरे का पूरा सिलसिला हिंदुस्तान में लड़कियों पर जुल्म का है, और क्योंकि इस देश का कानून इस कदर कमजोर है कि वह कागज पर तो अपना बाहुबल दिखाता है लेकिन जब उसके इस्तेमाल की बात आती है तो अदालतों का पूरा ढांचा आखिरी दम तक मुजरिम का साथ देता है और शिकायत करने वाले लोग वहां अपराधी की तरह देखे जाते हैं। अभी जशपुर में जो हुआ है उसके बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रदेश के बाकी सभी छात्रावासों और रिहायशी संस्थानों में बच्चे-बच्चियों की हिफाजत की जांच करने के लिए कहा है, देखते हैं कि जिलों के बड़े-बड़े अफसर कितनी गंभीरता से ऐसी जांच करते हैं।
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