विचार/लेख
-संजय श्रमण
अपहरण फिल्म का ये एक मशहूर डायलॉग याद है आपको? जब अपहरणकर्ता फिरौती की रकम पर बातचीत कर रहा होता है, और एक नेताजी उस रक़म में अपनी हिस्सेदारी की बात ठोंकते हुए कहते हैं, ‘इसमें मेरे हिस्से का भी ध्यान रखना।’ ये सुनकर अपहरणकर्ता ठेठ बिहारी अन्दाज़ में बमकता है और ये गन्ने वाला डायलॉग नेताजी के मुँह पर मारता है।
फिर एक और फि़ल्म का संवाद है जिसमें माधुरी दीक्षित अपने पति से कहती है ‘पति हैं तो पति ही रहिए, परमेश्वर बनने की कोशिश मत कीजिए’
ऐसे अनगिनत संवाद हैं, ये संवाद केवल प्रकाश झा की फिल्मों में ही संभव है।
उनकी कलम से निकली भाषा, लोकजीवन की बोली-बानी, और मुहावरों का सटीक इस्तेमाल करती है और दिमाग़ को ऐसे भेदती है जैसे तेज तलवार की धार। वो सच, जिसे हम सब जानते हैं लेकिन कहने की हिम्मत कम ही लोग कर पाते हैं। इस सच को न केवल कहना बल्कि सबको स्वीकृत भी करवा देना - ये प्रकाश झा की फि़ल्मकारी का कमाल है।
25 सितंबर को प्रकाश झा आईटीएम विश्वविद्यालय, ग्वालियर के ‘मीटिंग ऑफ माइंड्स’कार्यक्रम के 45 वें आयोजन में छात्रों से मुख़ातिब थे। वे ‘सिनेमा एज़ ए केटेलिस्ट फॉर सोशल चेंज’विषय पर बोल रहे थे। इस कार्यक्रम श्रृंखला में छात्रों को जानी मानी हस्तियों से मुखातिब होने का अवसर मिलता है।
प्रकाश झा साहब कुछ समय से दल-बल सहित आईटीएम विश्वविद्यालय परिसर ग्वालियर में ही अपनी फि़ल्म जनादेश के अंतिम हिस्से की शूटिंग कर रहे हैं। कार्यक्रम में उन्होंने अपने लेखन, निर्देशन और फि़ल्म निर्माण की प्रक्रिया पर विस्तार से बात की।
अपनी फि़ल्मों की पटकथा लिखने में उन्हें वर्षों लगते हैं, तीन साल, पाँच साल, सात साल तक का समय! फिर आखऱि में फि़ल्म पूरी होने पर एक राउंड लेखन और होता है -एडिटिंग के दौरान। उन्होंने साफ़ कहा कि अगर फि़ल्म का डायरेक्टर लेखक भी हो तो फि़ल्म में चार चाँद लग जाते हैं। अच्छे डायरेक्टर हमेशा अच्छे लेखक भी होते हैं, क्योंकि निर्देशन का पहला कदम लेखन से होकर ही गुजरता है। हालाँकि सभी डायरेक्टर लेखक नहीं होते।
आजकल लेखन की अनदेखी हो रही है। नई पीढ़ी न पढ़ रही है, न लिख रही है। और जब पढ़ेगी-लिखेगी ही नहीं, तो समाज की भविष्य की सोच कहाँ से आएगी?
शिक्षा पर बोलते हुए उन्होंने अपनी फि़ल्म राजनीति का जि़क्र किया, जहाँ अमिताभ बच्चन के संवाद के माध्यम से उन्होंने कहा था कि भारत में ‘इंडियन टीचिंग सर्विसेज’ जैसी एक व्यवस्था होनी चाहिए, जहाँ बेहतरीन शिक्षकों को आईएएस से भी ज़्यादा सम्मान और सुविधाएँ मिलें। लेकिन असलियत ये है कि आज का शिक्षक सबसे ‘बेचारा’ हो गया है। नतीजा ये है कि बच्चे अब या तो इंजीनियर बन रहे हैं या मैनेजर, और मानविकी विषय- दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, साहित्य - लगभग उपेक्षित हो गए हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के संयुक्त राष्ट्र महासभा में भाषण का भारत ने जवाब दिया है।
संयुक्त राष्ट ्रमें भारतीय राजनयिक पेटल गहलोत ने राइट टू रिप्लाई का इस्तेमाल करते हुए कहा कि ‘अगर तबाह रनवे, जले हैंगर जीत है तो पाकिस्तान आनंद ले सकता है।’
दरअसल शहबाज शरीफ ने दावा किया था कि ‘पाकिस्तान ने भारत के साथ युद्ध जीत लिया है’ और अब उनका देश शांति चाहता है।
लेकिन भारत ने कहा कि इसके लिए पाकिस्तान को अपने यहां सक्रिय चरमपंथियों के कैंप बंद करने होंगे और भारत में वॉन्टेड चरमपंथियों को उसे सौंपना होगा।
संयुक्त राष्ट्र में भारतीय राजनयिक पेटल गहलोत ने कहा है ‘यही पाकिस्तान था जिसने ओसामा बिन लादेन को एक दशक तक छिपाए रखा।’
भारत ने क्या-क्या कहा?
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी मिशन की फस्र्ट सेक्रेटरी पेटल गहलोत ने कहा, ‘इस सभा ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की बेतुकी नौटंकी देखी, जिन्होंने एक बार फिर आतंकवाद का महिमामंडन किया, जो उनकी विदेश नीति का मूल हिस्सा है।’
उन्होंने कहा कि नाटक और झूठ का कोई भी स्तर सच्चाई को छिपा नहीं सकता।
पहलगाम हमले का जिक्र करते हुए गहलोत ने कहा, ‘यह वही पाकिस्तान है जिसने 25 अप्रैल, 2025 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में, जम्मू और कश्मीर में पर्यटकों पर हुए बर्बर जनसंहार के लिए रेजिस्टेंस फ्रंट (चरमपंथी संगठन) को जवाबदेही से बचाया।’
भारतीय राजनयिक ने कहा, ‘याद कीजिए, यही पाकिस्तान था जिसने ओसामा बिन लादेन को एक दशक तक छिपाए रखा, जबकि वह आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में साझेदार होने का दिखावा कर रहा था।’
गहलोत ने कहा, ‘सच्चाई यह है कि पहले की तरह ही, भारत में निर्दोष नागरिकों पर आतंकवादी हमले के लिए पाकिस्तान ही जि़म्मेदार है।’
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के मंत्रियों ने हाल में ये माना है कि उनका देश दशकों से आतंकवादी शिविर चला रहा है।’
पेटल गहलोत ने कहा, ‘इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि एक बार फिर पाकिस्तान का ढोंग सामने आ गया है। इस बार ये प्रधानमंत्री के स्तर पर दिखा है। एक तस्वीर हज़ार शब्दों को बयां करती है और इस बार हमने बहावलपुर और मुरीदके के आतंकवादी परिसरों में ऑपरेशन सिंदूर में मारे गए आतंकवादियों की कई तस्वीरें देखीं।
उन्होंने कहा, ‘हमने देखा कि पाकिस्तानी सेना के सीनियर अफ़सर और नागरिक सार्वजनिक तौर पर खूंखार आतंकवादियों का महिमामंडन करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे थे। इस शासन का झुकाव किस तरफ है, क्या इसे लेकर कोई शक बाकी रह गया है।’
‘पाकिस्तान शांति चाहता है तो आतंकवादियों को सौंप दे’
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने हाल में भारत के साथ हुए संघर्ष का अजीब ब्योरा पेश किया। इस मामले में रिकॉर्ड क्लियर है। नौ मई तक पाकिस्तान और हमले करने की धमकी दे रहा था लेकिन 10 मई को उसकी सेना ने हमसे सीधा अनुरोध किया कि लड़ाई रोक दी जाए।’
पेटल गहलोत ने कहा, ‘पाकिस्तान की सेना ने इसलिए ये अनुरोध किया क्योंकि भारतीय वायुसेना ने कई पाकिस्तानी एयरबेस पर हमला कर उसे नुकसान पहुंचाया था। इसकी तस्वीरें सार्वजनिक तौर पर मौजूद हैं। अगर तबाह रनवे और जले हुए हैंगर जीत की तरह दिखते हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं तो पाकिस्तान इसका आनंद ले।’
उन्होंने कहा, ‘सच तो ये है कि पहले की तरह ही पाकिस्तान भारत के बेकसूर नागरिकों पर आतंकवादी हमले के लिए जि़म्मेदार है। हमने अपने लोगों का बचाव करने के अपने अधिकारों का इस्तेमाल किया है। इस तरह की कार्रवाई से हमला करने वालों और इसकी साजिश रचने वालों को जवाब दे दिया गया है।’
उन्होंने कहा, ‘पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने कहा है कि वो भारत के साथ शांति चाहते हैं। अगर वो वास्तव में गंभीर हैं तो इसके लिए रास्ता साफ़ है। पाकिस्तान अपने सभी आतंकवादी कैंप तुरंत बंद करे और भारत में वॉन्टेड सभी आतंकवादियों को हमें सौंप दे।’
उन्होंने कहा, ‘ये विडंबना ही है कि जो देश नफऱत, धर्मांधता और असहिष्णुता में डूबा हुआ है वो हमें सिद्धांतों की सीख दे रहा है। पाकिस्तान में जो राजनीतिक और सार्वजनिक विमर्श चल रहा है वो उसका असली स्वरूप दिख रहा है। साफ है कि उसने आईने में बहुत दिनों से खुद को नहीं देखा है।’
‘पाकिस्तान और भारत के बीच काफी पहले ही इस बात पर सहमति बनी थी कि दोनों देशों के बीच कोई भी मामला द्विपक्षीय होगा। तीसरे पक्ष की कोई जगह नहीं है। लंबे समय से हमारी यही पोजीशन रही है।’
‘जहां तक आतंकवाद की बात है तो हम साफ़ कह रहे हैं कि आतंकवादियों और इसके स्पॉन्सर्स में कोई अंतर नहीं किया जाएगा। दोनों जिम्मेदार ठहराए जाएंगे। और न ही न्यूक्लियर ब्लैकमेलिंग के तहत की जाने वाली आतंकवादी गतिविधियों की इजाज़त दी जाएगी। भारत ऐसी धमकियों के आगे नहीं झुकेगा। दुनिया को हमारा संदेश साफ़ है। आतंकवाद पर हमारी जीरो टॉलरेंस की नीति है।’
भागलपुर के पीरपैंती में अदाणी को 1,050 एकड़ जमीन लीज पर मिली. विपक्षी दल कांग्रेस ने इसपर विरोध जताया. पेड़ों की कटाई और मुआवजे पर सवाल उठे. चुनावी राज्य बिहार में इस विवाद के मायने क्या हैं?
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
बिहार में उद्योगपति अदाणी चर्चा में हैं. मामला भागलपुर जिले के पीरपैंती में अदाणी पावर को 1,050 एकड़ जमीन दिए जाने से संबंधित है. इस जमीन पर एक थर्मल पावर प्लांट बनाने की योजना है. जमीन 33 साल की लीज पर दी गई है. कीमत, एक रुपया सालाना.
इस मामले पर कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी पवन खेड़ा ने दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस की. फिर कांग्रेस ने पटना में प्रदर्शन किया. अदाणी को "राष्ट्र सेठ" की संज्ञा देते हुए पवन खेड़ा ने कई गंभीर आरोप लगाए.
इनमें से प्रमुख आरोप यह है कि अदाणी को जमीन देने के लिए किसानों पर दबाव डाला गया, पेंसिल से जबरन हस्ताक्षर करवाए गए और औने-पौने दाम पर जमीन ले ली गई. इसके अलावा एक मुद्दा यह भी उठाया गया कि प्रॉजेक्ट के लिए करीब 10 लाख पेड़ काटे जाएंगे.
बिजली की उपलब्धता और रोजगार मुहैया कराने का दावा
इस बीच 15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अदाणी पावर की 2,400 मेगावाट क्षमता वाली इस ताप विद्युत परियोजना का पूर्णिया से वर्चुअल शिलान्यास भी कर दिया. अदाणी ग्रुप इसके लिए बिहार में करीब 26,000 करोड़ का निवेश करेगा. बिहार की एनडीए सरकार इस परियोजना को पूर्वोत्तर भारत में अब तक का सबसे बड़ा निवेश बता रही है.
अदाणी समूह ने इस संबंध में बिहार राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी लिमिटेड (बीएसपीजीसीएल) के साथ बिजली आपूर्ति समझौते पर हस्ताक्षर किया है. कंपनी का कहना है कि पीरपैंती में बनने वाले 'ग्रीन फील्ड अल्ट्रा सुपर क्रिटिकल थर्मल पावर प्रॉजेक्ट' से बिहार को बिजली भी उपलब्ध कराई जाएगी. दावा है कि इस परियोजना के कारण 10 से 12 हजार लोगों के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे.
पीरपैंती थर्मल पावर प्लांट: अधिग्रहण और मुआवजा
दरअसल, पीरपैंती प्रखंड के हरिनकोल, सुंदरपुर, रायपुरा, श्रीमतपुर और टुंडवा-मुंडवा मौजा (राजस्व ग्राम) में थर्मल पावर प्रॉजेक्ट के लिए भूमि अधिग्रहण का मामला काफी पुराना है. साल 2011 में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की गई थी.
बिहार : क्या फिर महिलाओं के भरोसे हैं नीतीश कुमार
प्रॉजेक्ट के लिए कुल 1,020 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया. इसमें 988.335 एकड़ जमीन किसानों की है. शेष जमीन बिहार सरकार और रेलवे की है. साल 2015-16 तक लगभग 80 प्रतिशत जमीन मालिकों को मुआवजे की रकम दे दी गई. सरकारी दावे के मुताबिक, जुलाई 2025 तक 97 प्रतिशत जमीन मालिकों को मुआवजा दिया जा चुका है.
'एक रुपया सालाना' पर जमीन लीज
पावर प्रॉजेक्ट के लिए 'बिहार स्टेट पावर जनरेशन' कंपनी को साल 2022 में ही सांकेतिक दर 'एक रुपया सालाना' की लीज पर हस्तांतरण की स्वीकृति दी गई थी. दावा किया गया कि बिजली की कीमत कम रहे, इसलिए इसे चयन प्रक्रिया का हिस्सा बनाया गया.
उद्योग मंत्री नीतीश मिश्रा का कहना है, "जमीन का स्वामित्व पूरी तरह से बिहार सरकार के ऊर्जा विभाग के पास ही रहेगा. इसके लिए ई-टेंडर आमंत्रित किया गया था, जिसकी अंतिम तारीख 11 जुलाई 2025 थी. टेंडर की प्रक्रिया टैरिफ बेस्ट कंपीटिटिव बिडिंग (टीबीसीबी) के तहत संचालित की गई. अदाणी पावर ने सबसे कम दर 6.075 रुपये कोट कर इसे हासिल किया."
बांग्लादेश ने अदाणी पावर से बिजली खरीद की आधी
उनके मुताबिक, कांग्रेस पार्टी नाहक ही भ्रम फैला रही है. पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, असम व महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों ने पहले इसी प्रणाली के तहत पावर प्लांट के लिए निविदा निकाल कर बिजली खरीद की प्रक्रिया अपनाई है.
पर्यावरणीय मुद्दे: पेड़ों की कटाई का मामला एनजीटी पहुंचा
'किसान चेतना व उत्थान समिति' की शिकायत पर यह मामला अब राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) में पहुंच चुका है. समिति के अध्यक्ष श्रवण सिंह राजपूत कहते हैं, "पावर प्लांट की प्रस्तावित जमीन पर 25-30 साल पुराने आम के लगभग 10 लाख पेड़ लगे हैं. बीते दिनों यहां हेलीपैड बनाने के लिए 50-60 पेड़ काट डाले गए थे."
बिहार के कई जिलों में हैंडपंप से लेकर तालाब तक सब सूखे
शिकायत में यह भी कहा गया है कि 20 किलोमीटर की परिधि में दो थर्मल पावर प्लांट होने से वायु प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है. जिन दो पावर प्लांटों की बात है, उनमें से एक भागलपुर जिले के कहलगांव में एनटीपीसी का है. और, दूसरा प्लांट पड़ोसी जिला गोड्डा में अदाणी पावर का है.
"जमीन सरकार को दी थी, कंपनी को नहीं"
सुदामा प्रसाद, 'अखिल भारतीय किसान मोर्चा' के महासचिव और सीपीआई (एमएल) से आरा के सांसद हैं. स्थानीय किसानों से मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, "यह जमीन किसानों ने सरकार को दी थी, किसी प्राइवेट कंपनी को नहीं. यहां करीब 10 लाख आम के पेड़ काटने पड़ेंगे, जिनमें भारी संख्या में 25 साल पुराने पेड़ हैं."
सरकार का दावा कहता है कि भूमि अधिग्रहण के समय 10,055 पेड़ गिनती में शामिल किए गए थे. इनमें अधिकांश पेड़ 2010-11 के बाद लगाए गए. केवल पावर प्लांट एरिया (लगभग 300 एकड़) और कोल हैंडलिंग एरिया में ही कुछ पेड़ काटे जाएंगे.
इसके बदले 100 एकड़ में ग्रीन बेल्ट विकसित किया जाएगा, ताकि पर्यावरण में संतुलन बना रहे और लोकल ईकोसिस्टम को कोई नुकसान ना हो. वन विभाग के एक वरीय अधिकारी ने नाम ना छापने की शर्त पर कहा, "उतने एरिया में मुश्किल से 50,000 पेड़ होने चाहिए, वह भी बहुत हो गया. आरोप भले ही जो लगा दिए जाएं."
पीएम और सीएम के नाम कांग्रेस के सवाल
बिहार कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता राजेश राठौड़ ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल किया, "एक पेड़ मां के नाम का छलावा करने वाली बीजेपी यह बताए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 10 लाख आम-लीची जैसे नकदी वृक्षों की कुर्बानी और देशभर में सबसे महंगी दर पर बिजली बिक्री की इजाजत किसके फायदे के लिए दे रहे हैं?"
राजेश राठौड़ ने आगे कहा, "नियम के अनुसार, पांच साल तक अधिग्रहित जमीन का इस्तेमाल ना होने पर जमीन मालिकों को वापस करने और फिर नई दर पर मुआवजा देने का प्रावधान है. फिर अदाणी पावर को जमीन देने के पीछे मंशा क्या है. एनटीपीसी जैसी सरकारी कंपनियों के रहते अदाणी पावर को 1,200 एकड़ जमीन क्यों और किसके इशारे पर दी जा रही है."
सुप्रीम कोर्ट ने किया भूमि अधिग्रहण रद्द, वेदांता और ओडिशा सरकार को फटकार
इस विषय पर पत्रकार रवि रंजन बताते हैं, "बिहार औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन पैकेज- 2025 में योग्य निवेशकों को एक रुपये के टोकन मनी पर जमीन देने की पेशकश की गई है. निवेश की राशि और रोजगार की संख्या के आधार पर मुफ्त जमीन देने का भी प्रावधान है. पेड़ों को लेकर देखिए अब एनजीटी का क्या निर्देश आता है. बिहार सरकार के जवाब के बाद ही सही संख्या का पता चल पाएगा."
मुआवजे की पारदर्शिता पर भी सवाल
पावर प्लांट के लिए ली गई जमीन के मुआवजा वितरण में भी अनियमितता का आरोप लगा है. मोहम्मद मोजाहिद, पीरपैंती प्रखंड के महेशराम पंचायत (अब नगर पंचायत) के पूर्व मुखिया हैं. उन्होंने बताया कि पावर प्लांट के लिए उनकी भी जमीन ली गई. मुआवजे के सवाल पर उन्होंने आरोप लगाया, "मुआवजा देने में तो हेराफेरी की ही गई है. कई मामले तो अदालत तक भी पहुंचे. साल 2011 में मेरी भी एक एकड़ 40 डिसमिल जमीन ली गई, जिसपर आम का बगीचा था. मुझे 32 लाख रुपये प्रति एकड़ का मुआवजा दिया गया. वहीं, 2013 में जिसकी जमीन ली गई, उसको 85 लाख रुपये तक के हिसाब से पैसा दिया गया. पेड़ का पैसा भी मुझे नहीं मिला. किसी-किसी को तो काफी कम पैसा दिया गया."
मो. मुजाहिद आगे कहते हैं, "हमलोगों ने यह समझकर जमीन दी थी कि एनटीपीसी पावर प्लांट बनाएगा. फिर हुआ कि सोलर प्लांट लगेगा और अब जमीन अदाणी को दे दी गई. इसका तो दुख है, सरकार यहां पावर प्लांट बनाती."
मुआवजा देने में अनियमितता को लेकर 'किसान चेतना एवं उत्थान समिति' ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री को पत्र लिखा और पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच का आग्रह किया. इसमें एक प्लॉट में समान रकबा के लिए अलग-अलग हिस्सेदारों को अलग-अलग दर से भुगतान का आरोप लगाया गया था.
समिति ने "एक परियोजना, एक दर" के हिसाब से निर्माण के पहले भुगतान सुनिश्चित करने एवं अन्य आरोपों का जिक्र करते हुए जिला भू-अर्जन कार्यालय से भी पत्राचार किया था. हालांकि, जिला भू-अर्जन पदाधिकारी कार्यालय ने बिंदुवार जवाब देते हुए किसी भी तरह की अनियमितता से इंकार किया है.
पूर्ण राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची के विस्तार की मांग को लेकर बुधवार को लद्दाख में हिंसा भड़क गई, जिसमें चार लोगों की मौत हो गई और 50 के करीब लोग घायल हो गए. केंद्र ने हिंसा के लिए सोनम वांगचुक को जिम्मेदार ठहराया है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
लेह में बुधवार, 24 सितंबर को आंदोलनकारियों और पुलिस की झड़प में चार लोगों की मौत के बाद गुरुवार को शहर शांत था. अधिकारियों ने कहा कि बुधवार शाम से हिंसा की कोई रिपोर्ट नहीं है. प्रशासन ने स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए चार या उससे अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगा दिया है. बुधवार की पुलिस फायरिंग का विरोध करने और लेह के साथ एकजुटता दिखाने के लिए, कारगिल ने गुरुवार को हड़ताल का एलान किया. जबकि प्रशासन ने पहले से ही कारगिल में लोगों के जमा होने को प्रतिबंधित कर दिया है. स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है.
अधिकारियों ने मीडिया से कहा कि बुधवार की हिंसा के बाद स्थिति नियंत्रण में है, जिसमें चार मौतों के अलावा, 50 से अधिक लोग घायल हो गए थे. पुलिस ने उग्र प्रदर्शनकारियों पर उस वक्त फायरिंग कर दी जब उनमें से कुछ ने स्थानीय बीजेपी कार्यालय को आग लगा दी. केंद्र सरकार का कहना है कि पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली चलाई. रिपोर्टों में इसे साल 1989 के बाद लद्दाख का सबसे हिंसक दिन बताया गया.
कैसे उठी चिंगारी
23 सितंबर की शाम भूख हड़ताल पर बैठे दो आंदोलनकारी 72 साल के त्सेरिंग आंगचुक और 60 वर्षीय ताशी डोल्मा की अचानक तबीयत बिगड़ गई. उन्हें गंभीर हालत अस्पताल में भर्ती कराया गया. ऐसा कहा जा रहा है कि दोनों के अस्पताल में भर्ती होने ने लेह के युवाओं को भड़काने का काम किया. इसके अगले दिन यानी 24 सितंबर की सुबह तक बंद का एलान हुआ और लेह के शहीद मैदान में भीड़ जमा हो गई. इसके बाद आंदोलनकारियों ने हिंसक रूप ले लिया.
पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, "दो आंदोलनकारियों की स्थिति बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. हो सकता है कि यही हिंसक प्रदर्शन की तात्कालिक वजह बना." यह आंदोलनकारी पिछले 35 दिनों से अनशन पर थे.
क्या हैं मांगें
आंदोलन के केंद्र में चार मांगें हैं: लद्दाख के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा, छठी अनुसूची का विस्तार, लेह और कारगिल के लिए अलग लोकसभा सीटें और रोजगार में आरक्षण. प्रदर्शनकारियों का तर्क है कि छठी अनुसूची के तहत मिलने वाली सुरक्षा के बिना, लद्दाख के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र, भूमि अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान को गंभीर खतरों का सामना करना पड़ता है.
भारतीय संविधान की छठी अनुसूची के तहत जातीय और जनजातीय क्षेत्रों में स्वायत्त जिला परिषदों और क्षेत्रीय परिषदों को अपने-अपने क्षेत्रों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया है. फिलहाल, भारत के चार राज्य मेघालय, असम, मिजोरम और त्रिपुरा के दस जिले इस अनुसूची का हिस्सा हैं. वांगचुक की मांग है कि लद्दाख को भी इस अनुसूची के तहत विशेषाधिकार दिए जाएं.
इन मांगों को लेकर विरोध प्रदर्शन सालों से हो रहे हैं और वांगचुक ने कई बार भूख हड़ताल भी की है. यह मुद्दा 2019 से चला आ रहा है, जब 2019 में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया था और पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म कर दिया था. इसके बाद जम्मू-कश्मीर एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बना जबकि लेह और कारगिल को मिलाकर लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था.
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा तो है लेकिन लद्दाख में कोई विधानसभा नहीं है. ना ही लद्दाख में कोई स्थानीय परिषद है. लद्दाख की राजनीतिक और कानूनी स्थिति तब से विवादास्पद बनी हुई है, जो केंद्र शासित प्रदेश के लोगों को प्रत्यक्ष केंद्रीय प्रशासन के तहत लाती है. पिछले छह साल से लद्दाख के लोग राज्य का दर्जा और लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं.
दिल्ली में हिरासत में क्यों लिए गए सोनम वांगचुक समेत 150 लोग
विरोध प्रदर्शनों में वांगचुक की भूमिका क्या है?
हाल के वर्षों में, वांगचुक ने लद्दाख के प्रशासन में स्वायत्तता से संबंधित मुद्दों को जोर शोर से उठाया है. वांगचुक ने कहा है कि छठी अनुसूची के तहत सुरक्षा 2019 में बीजेपी द्वारा किया गया एक चुनावी वादा था और भारत सरकार को अपना वादा निभाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि लद्दाख के लोगों ने सत्ता के विकेंद्रीकरण की मांग की है क्योंकि वे मानते हैं कि "नौकरशाही के निचले स्तर पर बैठे लोग औद्योगिक शक्तियों और कॉरपोरेट घारानों से प्रभावित" हो सकते हैं, जो लद्दाख में "खनन करने की योजना" बना रहे हैं.
इससे पहले, पिछले साल मार्च में गृह मंत्रालय के साथ बातचीत के दो दिन बाद, लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस वार्ता से बाहर हो गई, जिसके बाद वांगचुक और अन्य लोगों ने लेह में नमक और पानी के साथ आमरण अनशन किया. यह अनशन 21 दिनों तक चला.
इसके बाद इन्हीं मांगों को लेकर वांगचुक और 150 अन्य लोगों ने सितंबर 2024 में लेह से दिल्ली तक एक पैदल यात्रा निकाली थी. हालांकि पुलिस ने उन्हें दिल्ली में दाखिल होने से पहले ही रोक लिया.
ताजा मामले में भी वांगचुक पिछले 15 दिनों से अनशन पर थे और उन्होंने 24 सितंबर की हिंसा के बाद अपना अनशन खत्म कर दिया. एक्स पर पोस्ट किए गए एक बयान में वांगचुक ने लोगो ने शांति की अपील की. उन्होंने कहा, "युवा पीढ़ी पांच साल से बेरोजगार हैं, एक के बाद एक बहाने करके उन्हें नौकरियों से बाहर रखा जा रहा है और लद्दाख को संरक्षण नहीं दे रहे हैं."
केंद्र सरकार ने क्या कहा
केंद्र ने बुधवार को आरोप लगाया कि लद्दाख में भीड़ को सोनम के "उत्तेजक बयानों" द्वारा भड़काया गया, और कुछ "राजनीतिक रूप से प्रेरित" व्यक्ति सरकार और लद्दाखी समूहों के प्रतिनिधियों के बीच चल रही बातचीत में हुई प्रगति से खुश नहीं थे.
गृह मंत्रालय ने बयान में कहा है कि सोनम वांगचुक ने कई नेताओं द्वारा अपील करने के बाद भी अपना अनशन नहीं रोका और अरब स्प्रिंग-शैली के प्रदर्शनों और नेपाल में जेन-जी के प्रदर्शनों का उल्लेख करते हुए लोगों को गुमराह किया.
बयान में आगे कहा गया, "24 सितंबर को सुबह करीब साढ़े 11 बजे, उनके भड़काऊ भाषणों से उत्तेजित हुई भीड़ अनशन स्थल से निकल गई और एक राजनीतिक पार्टी के दफ्तर और सीईसी लेह के सरकारी कार्यालय पर हमला कर दिया. उन्होंने इन कार्यालयों में आग लगा दी, सुरक्षाकर्मियों पर हमला किया और पुलिस वाहन को जला दिया."
मांगों को लेकर डटी हैं लद्दाख की महिलाएं
बयान के मुताबिक, "बेकाबू भीड़ ने पुलिसकर्मियों पर हमला किया जिसमें 30 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी घायल हो गए. भीड़ ने सार्वजनिक संपत्तियों पर हमला करना और पुलिसकर्मियों पर हमला करना जारी रखा. आत्मरक्षा में पुलिस को गोलीबारी करनी पड़ी, जिसमें दुर्भाग्य से कुछ लोगों की मौत होने की खबर है."
बयान में कहा गया है, "यह सबको मालूम है कि भारत सरकार सक्रिय रूप से शीर्ष लेह एपेक्स बॉकी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस के साथ सक्रिय बातचीत करती रही है. उच्च शक्ति वाली समिति के औपचारिक चैनल के साथ-साथ उप-समिति और नेताओं के साथ कई अनौपचारिक बैठकों के माध्यम से बैठकों की श्रृंखला उनके साथ आयोजित की गई थी और इसके उल्लेखनीय नतीजे सामने आए हैं."
लद्दाख के उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता ने हिंसा की निंदा की है और इसे "दिल से दहलाने वाला" करार दिया. उन्होंने कहा कि लद्दाख की शांति को भंग करने की साजिश रचने वालों को नहीं छोड़ा जाएगा.
ट्रंप प्रशासन ने एच1बी वीजा फीस में भारी बढ़ोतरी कर दी. इसने अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा समूहों की चिंता बढ़ा दी है. चिकित्सक संगठनों का कहना है कि इस फैसले से देश में डॉक्टरों की कमी और गहरी हो जाएगी.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा एच1बी वीजा आवेदनों की फीस बढ़ाने की घोषणा ने स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में हलचल मचा दी है. इस फैसले से विदेशी डॉक्टरों और अन्य चिकित्सा पेशेवरों की अमेरिका में नियुक्ति कठिन हो सकती है. पहले से ही मुश्किलों का सामना कर रहे हेल्थ सेक्टर पर दबाव और बढ़ सकता है. अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र से जुड़े समूहों और चिकित्सकों का मानना है कि इस कदम के नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे.
21 सितंबर से एच1बी वीजा फीस बढ़ाकर 1,00,000 डॉलर कर दी गई है. पहले यह रकम 4,500 डॉलर थी. मौजूदा वीजा धारकों या "नवीनीकृत" आवेदकों को बढ़ी हुई फीस से छूट मिलेगी. ट्रंप प्रशासन का कहना है कि एच1बी वीजा सिस्टम का सबसे ज्यादा दुरुपयोग होता है. यह वीजा उन लोगों के लिए है जो बहुत ज्यादा स्किल वाले हैं और ऐसे सेक्टर में काम करते हैं, जिनमें अमेरिकियों की हिस्सेदारी कम है.
ट्रंप ने एच1बी वीजा फीस बढ़ाकर 1 लाख डॉलर की, बढ़ेंगी भारतीयों की मुश्किलें
विदेशी डॉक्टरों की कमी कैसे पूरा करेगा अमेरिका
अमेरिकी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र एच1बी वीजा का व्यापक रूप से इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय मेडिकल ग्रैजुएट्स और विदेश में ट्रेंड डॉक्टरों की भर्ती के लिए करता है. ये देश के विभिन्न हिस्सों, खासकर ग्रामीण और कम सेवा प्राप्त क्षेत्रों में स्टाफ की कमी को पूरा करते हैं. इन पेशेवरों की उपलब्धता अमेरिकी हेल्थ सिस्टम के लिए बेहद अहम है. आशंका है कि वीजा फीस में भारी वृद्धि से उनकी नियुक्ति प्रक्रिया पर गंभीर असर पड़ सकता है.
अमेरिकन एकेडमी ऑफ फैमिली फिजिशियंस (एएएफपी) के मुताबिक, अमेरिका में काम करने वाले फैमिली डॉक्टरों में पांच में एक से अधिक अंतरराष्ट्रीय ग्रैजुएट्स हैं. उनके ग्रामीण इलाकों में सेवा देने की संभावना अधिक होती है.
अमेरिकी नागरिकता एवं आव्रजन सेवा (यूएससीआईएस) के आंकड़ों के मुताबिक, वित्तीय वर्ष 2025 में सभी क्षेत्रों में एच1बी वीजा प्रोग्राम के लाभार्थियों की संख्या लगभग 4,42,000 थी. इनमें से 5,640 आवेदन स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण क्षेत्र के लिए मंजूर किए गए थे.
1 लाख डॉलर की फीस सिर्फ नए एच1बी आवेदनों के लिए: अमेरिका
मेडिकल स्टाफ की कमी से जूझता अमेरिका
अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) के अध्यक्ष बॉबी मुकामाला कहते हैं, "संयुक्त राज्य अमेरिका पहले से ही डॉक्टरों की कमी का सामना कर रहा है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मेडिकल ग्रैजुएट्स के लिए यहां प्रशिक्षण और काम करना कठिन होने का मतलब है कि मरीजों को इलाज के लिए लंबा इंतजार करना होगा. उन्हें इलाज के लिए दूर जाना होगा."
अस्पताल और डॉक्टर समूहों ने भी चेतावनी दी है कि वीजा फीस बढ़ने से अमेरिका में विदेशी प्रशिक्षित डॉक्टरों का आना काफी कम हो सकता है. इससे उन अस्पतालों पर और बोझ पड़ सकता है, जो पहले ही स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं. इसके कारण विशेषज्ञों की कमी होगी और स्थानीय चिकित्सा कर्मचारियों पर दबाव बढ़ेगा.
ट्रंप की वीजा नीति से हार्वर्ड में पढ़ रहे भारतीय छात्रों में डर
अमेरिकन हॉस्पिटल एसोसिएशन (एएचए) का कहना है कि यह वीजा प्रणाली अस्पतालों को उन क्षेत्रों में काम करने वाले योग्य विदेशी पेशेवरों की भर्ती का अवसर देती है, जहां घरेलू वर्कफोर्स की उपलब्धता सीमित है.
एएचए के एक प्रवक्ता ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया, "एच1बी वीजा कार्यक्रम अस्पताल क्षेत्र में बेहद कुशल डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, ताकि समुदायों और मरीजों के लिए देखभाल तक पहुंच सुनिश्चित की जा सके."
अमेरिका में वीजा की मुश्किल बढ़ने पर सोशल मीडिया की सफाई में जुटे विदेशी छात्र
विदेशी डॉक्टर नहीं आएंगे, तो कौन करेगा इलाज
एएएफपी के मुताबिक "लगभग 2.1 करोड़ अमेरिकी ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं, जहां विदेशी प्रशिक्षित चिकित्सकों का अनुपात 50 प्रतिशत है."
कोविड-19 महामारी के बाद से कई अमेरिकी अस्पतालों को स्टाफ की कमी की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. ओहायो हेल्थ, क्लीवलैंड क्लीनिक, सेडार्स-सिनाई और मास जनरल ब्रिगहम जैसे प्रमुख अस्पताल समूहों ने रॉयटर्स को बताया कि वे ट्रंप प्रशासन द्वारा एच1बी वीजा फीस में की गई भारी वृद्धि के असर का आंकलन कर रहे हैं.
एसोसिएशन ऑफ अमेरिकन मेडिकल कॉलेज के अनुसार, साल 2036 तक अमेरिका में डॉक्टरों की मांग, आपूर्ति की तुलना में तेजी से बढ़ेगी. इसके कारण देश में 13,500 से 86,000 चिकित्सकों की कमी हो सकती है.
'गोल्ड कार्ड' वीजा: 44 करोड़ में मिल जाएगी अमेरिकी नागरिकता
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने हाल ही में अमेरिकी नागरिकता हासिल करने का एक सीधा लेकिन खर्चीला तरीका शुरू करने की योजना बनाई है. इसे नाम दिया गया है 'गोल्ड कार्ड वीजा' स्कीम, आइए इसके बारे में जानते हैं.
'50 लाख डॉलर दें, नागरिकता लें'
डॉनल्ड ट्रंप की प्रस्तावित गोल्ड कार्ड वीजा स्कीम के जरिए अमेरिका में 50 लाख डॉलर (करीब 44 करोड़ रुपये) का निवेश करने वाले लोगों को अमेरिकी नागरिकता आसानी से मिल जाएगी. ट्रंप इस योजना के जरिए भविष्य में 10 लाख गोल्ड कार्ड जारी करने की तैयारी में हैं.
क्या है ग्रीन कार्ड
यदि कोई स्थायी तौर पर अमेरिका में बसना चाहता है तो उसे ग्रीन कार्ड की जरूरत होती है. ग्रीन कार्ड हासिल करने का मतलब है, अमेरिकी नागरिकता हासिल करना. कुछ शर्तें पूरी करने के बाद जिन लोगों को ग्रीन कार्ड मिल जाता है, वे स्थायी तौर पर अमेरिका में रह सकते हैं. हालांकि ग्रीन कार्ड धारकों को वोटिंग का अधिकार नहीं मिलता.
कितने तरह का वीजा
अमेरिकी में गैर-आप्रवासी और आप्रवासी कैटिगरी के तहत अलग-अलग तरह का वीजा जारी किया जाता है. जो लोग घूमने, बिजनस करने, पढ़ाई या किसी अस्थायी काम से कुछ समय के लिए अमेरिका जाते हैं, उन्हें गैर-आप्रवासी कैटिगरी के तहत अस्थायी वीजा और अमेरिका में स्थायी रूप से रहने वालों को दूसरी कैटिगरी में वीजा दिया जाता है.
पहले भी थी ऐसी योजना
अमेरिका में ईबी5 वीजा कैटिगरी में निवेश के जरिए पहले भी अमेरिका की नागरिकता हासिल की जा सकती थी. इसके तहत 10 लाख डॉलर (करीब 8 करोड़ रुपये) का निवेश करके कोई भी इस वीजा के जरिए अमेरिका में स्थायी तौर पर रह सकता था. माना जा रहा है कि गोल्ड कार्ड वीजा इसी की जगह लेगा.
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[अमेरिकी पासपोर्ट] [अमेरिकी पासपोर्ट]
अमेरिका का फायदा
डॉनल्ड ट्रंप का साफ कहना है कि इस स्कीम के जरिए जो पैसा अमेरिका को मिलेगा उससे न सिर्फ देश के राष्ट्रीय कर्ज को चुकाने के लिए धन मिलेगा बल्कि जो लोग इतनी रकम चुकाकर अमेरिका आएंगे वे ढेर सारा टैक्स देंगे और नई नौकरियां पैदा करेंगे.
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[मंच पर भाषण देते डॉनल्ड ट्रंप] [मंच पर भाषण देते डॉनल्ड ट्रंप]
बिकती है नागरिकता
दुनिया के कई देशों में निवेश के जरिए नागरिकता हासिल की जा सकती है. ब्रिटिश कंपनी हेनली एंड पार्टनर्स के अनुसार 100 से ज्यादा देशों में इस तरह की योजनाएं लागू हैं. ब्रिटेन, ग्रीस, कनाडा और इटली समेत कई देशों में इसी तरह नागरिकता हासिल की जा सकती है. कई देशों में तो महंगा घर खरीदने से भी नागरिकता मिल जाती है.
भारत के लिए फायदा या नुकसान
अमेरिका में रह रहे भारतीय प्रवासियों के लिए ये महंगा सौदा है. यूएससीआईएस के अनुसार ग्रीन कार्ड की राह देख रहे करीब 10 लाख भारतीयों की उम्मीदों को इससे झटका लग सकता है. साथ ही इससे भारत से बाहर जाकर निवेश का रास्ता ढूंढ़ रहे लोगों को नया अवसर हासिल होगा, जिससे लोगों का पलायन बढ़ सकता है.
तस्वीर: Mykhailo Polenok/PantherMedia
[भारतीय पासपोर्ट] [भारतीय पासपोर्ट]
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने गुरुवार को नए टैरिफ़ का एलान किया है.
ट्रंप ने कहा है कि अमेरिका के बाहर बनी ब्रांडेड दवाओं पर 100 फ़ीसदी टैरिफ़ लगेगा और ये एक अक्तूबर 2025 से लागू हो जाएगा.
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ट्रुथ सोशल पर जिन नए सामानों पर टैरिफ़ का एलान किया है, उनमें हैवी-ड्यूटी ट्रक, किचन और बाथरूम कैबिनेट भी शामिल हैं.
हैवी-ड्यूटी ट्रकों पर 25 और किचन और बाथरूम कैबिनेट पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगेगा.
भारत अमेरिकी बाजार में दवाओं का बड़ा निर्यातक है. अमेरिका पहले ही भारतीय निर्यात पर 50 फ़ीसदी का टैरिफ़ लगा चुका है.
ट्रंप ने ट्रुथ सोशल पर लिखा, ''एक अक्तूबर 2025 से हम हर ब्रांडेड या पेटेंट वाले फार्मा प्रोडक्ट्स पर 100 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने जा रहे हैं. यहाँ बनने वाली दवाओं को इससे बाहर रखा जाएगा.''
उन्होंने लिखा, ''एक अक्तूबर 2025 से हम सभी किचन कैबिनेट्स, बाथरूम वैनिटीज़ और इससे जुड़े प्रोडक्ट्स पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाएँगे. इसके अलावा अपहोल्स्टर्ड फ़र्नीचर पर 30 फ़ीसदी टैरिफ़ लगेगा. क्योंकि दूसरे देशों से ये प्रोडक्ट बड़े पैमाने पर बाढ़ की तरह आ रहे हैं. यह अनुचित है, लेकिन हमें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर को बचाना होगा.''
उन्होंने हैवी ट्रकों पर टैरिफ़ लगाने को सही ठहराते हुए कहा, ''अपने ट्रक निर्माताओं को अनुचित विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए मैं एक अक्तूबर 2025 से दुनिया के अन्य हिस्सों में बने सभी "हैवी ट्रकों" पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने जा रहा हूँ."
''इस प्रकार हमारे प्रमुख बड़े ट्रक निर्माता, जैसे पीटरबिल्ट, केनवर्थ, फ़्रेटलाइनर, मैक ट्रक्स और दूसरी कंपनियाँ बाहरी बाधाओं से सुरक्षित रहेंगीं.''
भारतीय दवा कंपनियों पर असर
व्यापार अनुसंधान एजेंसी जीटीआरआई (ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव) के मुताबिक़ फार्मास्युटिकल क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक निर्यात है.
भारत हर साल अमेरिका को क़रीब 12.7 बिलियन डॉलर की दवाओं निर्यात करता है.
लेकिन इसमें से अधिकतर दवाएँ जेनेरिक ड्रग्स होती हैं.
भारत से अमेरिका में ब्रांडेड दवाइयाँ भी निर्यात होती हैं, भले ही ये व्यापार जेनेरिक ड्रग्स की तुलना में बहुत कम है.
डॉ रेड्डीज़, ल्यूपिन और सन फार्मा जैसी भारतीय कंपनियाँ अमेरिका को ब्रांडेड ड्रग्स निर्यात करती हैं.
जब ट्रंप ने भारतीय आयात पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया था, तब जीटीआरआई ने कहा था कि अमेरिकी टैरिफ़ लगने से जेनेरिक और ब्रांडेड दवाओं की लागत बढ़ जाएगी.
जीटीआरआई के मुताबिक़ बड़े पैमाने पर अमेरिका को दवाइयाँ बेच रही भारतीय कंपनियाँ बहुत कम मार्जिन पर काम करती हैं.
उत्तरी अमेरिका भारत की फार्मा कंपनियों की आय का एक बड़ा साधन है.
इन कंपनियों की कमाई में अधिकांश योगदान इसी क्षेत्र का है और यह लाभ में एक तिहाई का योगदान देता है.
निशाने पर आयरलैंड?
निशाने पर आयरलैंड?
क्या ब्रांडेड दवाइयों पर टैरिफ़ का निशाना आयरलैंड है?
दरअसल आयरलैंड ब्रांडेड ड्रग्स के बड़े निर्माताओं में से एक है.
दुनिया की एक दर्जन से ज़्यादा बड़ी दवा कंपनियों के आयरलैंड में कारखाने हैं, जिनमें से कुछ दशकों पुराने हैं.
कई कंपनियाँ अमेरिकी बाज़ार के लिए दवाएँ बनाती हैं.
मर्क फार्मा आयरलैंड की राजधानी डबलिन के पास कैंसर के लिए दुनिया की सबसे ज़्यादा बिकने वाली प्रिस्क्रिप्शन दवा कीट्रुडा का उत्पादन करती है.
एबवी वेस्टपोर्ट में बोटॉक्स इंजेक्शन बनाती है, जबकि एलाई लिली का किंसले प्लांट मोटापे की दवाओं की बढ़ती अमेरिकी माँग को पूरा करने में मदद करता है.
रॉयटर्स के मुताबिक़ ट्रंप कई बार आयरलैंड पर कम कॉरपोरेट टैक्स दरों के ज़रिए जॉनसन एंड जॉनसन और फ़ाइज़र जैसी अमेरिकी कंपनियों को लुभाने का आरोप लगाते रहे हैं.
रॉयटर्स के अनुसार अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक ने भी आयरलैंड की नीतियों को एक "घोटाला" बताया है जिसे ट्रंप प्रशासन रोक देगा.
भारत अमेरिका में जेनेरिक दवाओं का भी बड़ा सप्लायर
अमेरिका में बिकने वाली लगभग आधी जेनेरिक दवाइयाँ अकेले भारत से आती हैं. जेनेरिक दवाइयाँ ब्रांड वाली दवाओं का सस्ता संस्करण होती हैं.
अमेरिका में ऐसी दवाइयाँ भारत जैसे देशों से आयात की जाती हैं और 10 में से 9 प्रिस्क्रिप्शन इन्हीं दवाओं के होते हैं.
इससे अमेरिका को स्वास्थ्य सेवा लागत में अरबों डॉलर की बचत होती है.
कंसल्टिंग फर्म आईक्यूवीआईए के एक अध्ययन के अनुसार, 2022 में, भारतीय जेनेरिक दवाओं से 219 अरब डॉलर की बचत हुई.
जानकारों के मुताबिक़ व्यापार समझौते के बिना डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ के कारण जेनेरिक दवाइयाँ बनाने वाली कुछ भारतीय कंपनियों को बाज़ार से बाहर निकलने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.
इससे अमेरिका में मौजूदा दवा की कमी और भी बढ़ सकती है.
-शालिनी श्रीनेत
तमाम उन मंच के संस्थापकों संरक्षकों से मेरा आग्रह है कि जब पता चल जाए कि किसी व्यक्ति पर किसी महिला द्वारा आरोप लगाया गया है, तो जब तक ये सिद्ध नहीं हो जाता कि वो निर्दोष है, तब तक उसे अपने मंच पर ना बुलाएं। इसके आपके मंच की गरिमा बढ़ेगी और आपका सम्मान भी।
इधर लगातार इस तरह चीजें देखने को मिलीं कि किसी लडक़ी ने जिस पुरुष पर आरोप लगाया है उसे सम्मानित किया गया, मंचों पर बुलाया गया, उसके पक्ष में सीनियर लेखकों द्वारा लिखा गया,किसी पत्रिका द्वारा संपादकीय छापा गया, प्रकाशकों द्वारा किताबें छापी गईं, एक्टिविटी पर वाहवाही होती रही... बचाव में कुछ स्वार्थी स्त्रियां भी उतरीं।
किसी संस्थान ने कहा- हमने आवश्यक कदम उठाए, हमारी जांच की और उसके बाद उठाए गये कदम से शिकायतकर्ता पूर्णतया संतुष्ट हैं, किसी ने कहा आरोप अभी सिद्ध नहीं हुए हैं, किसी ने कहा हमें नहीं मालूम सच क्या है, किसी ने नौकरी से निकाल दिया।
जरा सोचिए ये सब देख कर उन लड़कियों पर क्या गुजरती होगी, जिन लड़कियों को इन पुरुषों ने हरेस किया। पुरुष द्वारा चलाए जाने वाले मंच तो कर ही रहे है, जिसके संपादक स्त्रीवादी थे और अब स्त्री संभाल रही हैं, वो भी स्त्रियों का सम्मान नहीं कर पा रही हैं।
एक लडक़ी बहुत जद्दोजहद के बाद अपनी बात रख पाती है। अपने समाज की बनावट और बुनावट ऐसी है कि लड़कियों को चुप रहने की ही सलाह दी जाती है।
मायके में चाचा, भाई ,जीजा और पड़ोसी ने सेक्सुअल हैरेसमेंट किया, तो चुप करा दी गयी कि बात बाहर नहीं जानी चाहिए, नहीं तो शादी विवाह में दिक्कत आयेगी। कौन करेगा शादी ऐसी लडक़ी से। जैसे उस लडक़ी ने ही कुछ ग़लत किया हो।
ससुराल में ससुर, देवर, जेठ, पड़ोसी, बुआ जी के बेटे ने सेक्सुअल हैरेसमेंट किया तो भी चुप ही रहना है, घर की इज्जत की बात हैं कोई क्या कहेगा।
कार्यस्थल पर सहकर्मी-बॉस द्वारा सेक्सुअल हैरेसमेंट होता है और चुप करा दिया जाता है कि ऑफिस की बदनामी होगी।
कई बार लड़कियां खुद चुप रह जाती हैं। अपने घर के हालात देखते हुए,नौकरी के चले जाने के खतरे से डर कर। चुप रहना ही चुनती है, और इस चुप्पी का फायदा पुरुष समाज उठाता रहता है बिना ये सोचे कि किसी की आत्मा मर रही है धीरे-धीरे ।
नेपाल में हाल ही में हुए हिंसक प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए. इनमें अधिकतर युवा थे और वे भ्रष्टाचार व बेरोजगारी के खिलाफ थे. बड़ी संख्या में नेपाली रोजगार की कमी के कारण नौकरी की तलाश में विदेश जाने को मजबूर हैं
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
नेपाल में हुए व्यापक विरोध प्रदर्शनों ने तत्कालीन सरकार को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया. हालिया घटनाक्रम उन ग्रामीण युवाओं के संघर्षों को रेखांकित करता है, जो अपने देश की स्थिति से निराश होकर विदेश में बेहतर अवसरों की तलाश में हैं.
इन्हीं युवाओं में से एक हैं, संतोष सोनार. 31 साल के संतोष बेरोजगार हैं और बहुत बेताब होकर नौकरी की तलाश कर रहे हैं. उन्हें यह भी डर है कि जिस दिन उन्हें अपने गृह क्षेत्र से बाहर नौकरी मिल जाएगी, उनका परिवार और बिखर जाएगा. संतोष की पत्नी काम के सिलसिले में विदेश में हैं. वह अपनी बेटी और मां के साथ रहते हैं. बाहर नौकरी मिलने पर उन्हें अपनी बेटी को मां के पास छोड़कर जाना होगा.
"यहां नौकरी के अवसर नहीं हैं"
काठमांडू के ग्रामीण इलाके फारपिंग में रहने वाले संतोष बताते हैं, "यहां शिक्षा पूरी करने के बाद भी नौकरी के मौके नहीं हैं." नेपाल में उनके जैसे अनगिनत युवा हैं, जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद लगातार किसी-न-किसी तरह की आजीविका की तलाश में रहते हैं.
विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, नेपाल में 15 से 24 वर्ष की आयु का हर पांचवां युवा बेरोजगार है. आश्चर्यजनक रूप से, देश का 82 प्रतिशत कार्यबल किसी-न-किसी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करता है. इस हिमालयी देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद में सामान्य श्रमिकों का प्रति व्यक्ति योगदान केवल 1,447 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष के बराबर है.
नेपालः विरोध प्रदर्शनों के आगे झुके प्रधानमंत्री ओली, 19 मौतों के बाद इस्तीफा
देश में नौकरी नहीं, विदेश जाने को मजबूर
कितनी बड़ी संख्या में नेपाली विदेश में काम करते हैं, इसका अंदाजा कुछ हद तक इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि संतोष के गृह क्षेत्र फारपिंग के हर दूसरे घर का एक व्यक्ति विदेश में रहता और काम करता है.
संतोष की पत्नी अमृता 22 साल की हैं. वह दुबई में वेट्रेस का काम करती हैं. संतोष, जो पहले भारत के बेंगलुरु शहर में काम करते थे, बताते हैं, "मैं और मेरी पत्नी एक-दूसरे को बहुत याद करते हैं."
संतोष कहते हैं, "एक पुरुष के लिए अपनी पत्नी से दूर रहना बहुत मुश्किल होता है. फिर यह सोचना और भी दर्दनाक हो जाता है कि जब मुझे नौकरी मिल जाएगी, तो मुझे अपनी छोटी बेटी और मां को छोड़ना पड़ेगा. लेकिन हम क्या कर सकते हैं?" नेपाल की आबादी लगभग तीन करोड़ है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले साल ही आठ लाख से ज्यादा नेपाली काम की तलाश में देश छोड़कर चले गए.
नेपाल के जेनजी ने सोशल मीडिया ऐप डिस्कॉर्ड पर चुना नया प्रधानमंत्री
देश की अंतरिम प्रधानमंत्री सुशीला कार्की के सामने अब भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसी समस्या से निपटना बड़ी चुनौती है. पद संभालने के बाद उन्होंने कहा कि अंतरिम सरकार छह महीने में नई सरकार के लिए चुनाव कराएगी. कार्की ने युवाओं के प्रदर्शनों के दौरान हुई तोड़फोड़ की जांच कराने की भी बात कही है.
संतोष कहते हैं कि उन्होंने विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा नहीं लिया था, लेकिन वे इसका समर्थन करते हैं. उनकी 48 साल की मां माया सोनार एक ऐसे भविष्य का सपना देखती हैं, जब युवाओं को भोजन और परिवार के बीच चुनाव न करना पड़े. वह कहती हैं, "हमें एक परिवार की तरह रहना याद आता है, लेकिन मुझे भी पता है कि युवाओं के पास कोई और विकल्प नहीं है."
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर वॉशिंगटन में अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो से मुलाकात करेंगे. भारत और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी के मद्देनजर इस बैठक पर सबकी नजरें हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की ओर से भारतीय सामानों पर लगाए गए भारी-भरकम आयात शुल्क के बाद पहली बार विदेश मंत्री एस जयशंकर सोमवार (22 सितंबर) को वॉशिंगटन में अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो से मुलाकात करने वाले हैं. अमेरिका ने भारत पर रूसी तेल खरीदने के कारण 25 प्रतिशत का अतिरिक्त शुल्क लगाया है. इसे मिलाकर भारत पर कुल अमेरिकी टैरिफ 50 फीसदी हो गया.
अमेरिकी विदेश विभाग के सार्वजनिक कार्यक्रम के अनुसार, दोनों नेता न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र (यूएनजीए) से इतर मुलाकात करेंगे. यह मुलाकात ऐसे वक्त में हो रही है, जब भारत और अमेरिका के बीच व्यापार वार्ता चल रही है.
भारत पर लगे ट्रंप के टैरिफ की चपेट में कश्मीरी कारीगर
बैठक के एजेंडे पर क्या अनुमान?
यह बैठक भारत-अमेरिका संबंधों को मजबूत करने के प्रयास का हिस्सा मानी जा रही है. कई विशेषज्ञों के अनुसार, हालिया महीनों में दोनों देशों के पसरे तनाव में सुधार के संकेत दिख रहे हैं.
जयशंकर और रुबियो की पिछली मुलाकात जुलाई महीने में हुई थी. मौका था, वॉशिंगटन में हुई 10वीं क्वाड विदेश मंत्रियों की बैठक. इससे पहले दोनों के बीच जनवरी की शुरुआत में भी बातचीत हुई थी. हालांकि, राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारतीय वस्तुओं पर भारी शुल्क लगाए जाने के कारण बढ़े तनाव के बाद यह उनकी पहली आमने-सामने की मुलाकात होगी.
इकोनॉमिक टाइम्स अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, रुबियो के साथ जयशंकर की चर्चा व्यापार वार्ता और ट्रंप प्रशासन के एच-1बी वीजा शुल्क बढ़ाने के हालिया फैसले पर केंद्रित हो सकती है. ट्रंप द्वारा कुशल विदेशी कर्मचारियों के लिए वीजा फीस बढ़ाकर एक लाख डॉलर (लगभग 88 लाख रुपये) कर दी गई है.
एच-1बी वीजा उन कुशल विदेशी कर्मचारियों के लिए अमेरिका आकर काम करने का एक रास्ता बनाता है, जो सीमित समय (आमतौर पर तीन साल) के लिए कानूनी रूप से अमेरिका में काम करना चाहते हैं. अमेरिकी की टेक कंपनियां इस वीजा कार्यक्रम का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करती हैं.
बड़ी संख्या में भारतीय कर्मचारी इसी वीजा के सहारे अमेरिका में जाकर काम करते हैं. हालांकि, व्हाइट हाउस ने बाद में साफ किया कि यह फीस केवल नए आवेदकों पर लागू होगी, ना कि वर्तमान वीजा धारकों पर. इस स्पष्टीकरण के बाद भी टेक कंपनियां बढ़ी हुई वीजा फीस को लेकर चिंतित हैं.
वार्ता के बीच वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल भी अमेरिका में
जयशंकर और रुबियो की मुलाकात उसी दिन हो रही है, जिस दिन भारत और अमेरिका के बीच अमेरिका में द्विपक्षीय व्यापार समझौता (बीटीए) पर वार्ता शुरू हो रही है. भारतीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल भारतीय पक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं. वह वॉशिंगटन में व्यापार पर मंत्रिस्तरीय वार्ता करेंगे.
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के एक बयान के मुताबिक, 16 सितंबर को अमेरिका व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय के अधिकारियों की भारत यात्रा के दौरान "सकारात्मक चर्चा" हुई. दोनों पक्ष समझौते को अंतिम रूप देने की दिशा में प्रयास तेज करने पर सहमत हुए. ट्रंप द्वारा अधिक सौहार्दपूर्ण लहजे में यह कहने के बाद व्यापार वार्ता दोबारा शुरू हुई कि उनकी टीम नई दिल्ली के साथ बाधाओं को दूर करने के लिए प्रयास जारी रखे हुए है.
भारत और अमेरिका ने इस साल मार्च में बीटीए पर बातचीत शुरू की थी. इस समझौते का पहला चरण अक्टूबर-नवंबर 2025 तक पूरा होने की उम्मीद है. अब तक दोनों देशों के बीच पांच दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. छठा चरण अगस्त में होना था, लेकिन ट्रंप द्वारा टैरिफ लगाए जाने के बाद उसे स्थगित कर दिया गया.
भारत और चीन, रूसी तेल ना खरीदें तो क्या होगा
16 सितंबर को अमेरिका के असिस्टेंट ट्रेड रिप्रेजेंटेटिव ब्रेंडन लिंच ने नई दिल्ली में वाणिज्य मंत्रालय के विशेष सचिव राजेश अग्रवाल से मुलाकात की थी. दोनों ने अगले कदमों पर चर्चा की और जल्द-से-जल्द एक पारस्परिक रूप से लाभकारी समझौते पर पहुंचने के लिए प्रयास तेज करने पर सहमति जताई थी.
भारत को रूस से दूर करने के लिए यूरोपीय संघ की नई रणनीति
ट्रंप दे रहे हैं नरमी के संकेत
इस महीने की शुरुआत में भारत के लिए नामित अमेरिकी राजदूत सर्जियो गोर ने कहा था कि अमेरिकी प्रशासन ने दोनों देशों के बीच व्यापार तनाव को हल करने के लिए गोयल को वॉशिंगटन में आमंत्रित किया था. गोर ने यह भी कहा था कि कुछ हफ्तों में मुद्दों का समाधान हो जाएगा.
वॉशिंगटन, भारत पर रूस से तेल खरीदकर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की युद्ध मशीन को फंडिंग करने का आरोप लगाता रहा है.
जवाब में भारत का रुख यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ भी रूस से उत्पाद खरीद रहे हैं, लेकिन उसे अनुचित तरीके से निशाना बनाया जा रहा है. ट्रंप प्रशासन के अतिरिक्त टैरिफ के फैसले के बाद कुछ खबरें ऐसी भी आई थीं कि भारतीय तेल कंपनियों ने रूस से तेल खरीदना बंद कर दिया है. लेकिन भारतीय तेल कंपनियां अभी भी रूस से तेल खरीद रही हैं.
अमेरिकी टैरिफ के बावजूद भारत खरीद रहा है रूस से सस्ता तेल
हालांकि, जब ट्रंप ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जन्मदिन की शुभकामना देने के लिए फोन किया, तो संबंधों में सुधार आने की उम्मीद जताई गई. मोदी को अपना "घनिष्ठ मित्र" बताते हुए ट्रंप ने उम्मीद जताई कि दोनों देशों के बीच जल्द ही एक व्यापार समझौता हो सकता है. यह तीन महीने में दोनों नेताओं के बीच हुई पहली ज्ञात बातचीत थी.
-अपूर्व गर्ग
जैसा समाज है वैसी ही पुलिस रहेगी। वे अंतरिक्ष से नहीं उतरते बल्कि आपके हमारे और हम सबके घरों से निकलकर पुलिस वाले बनते हैं। एक सीधा सवाल सबको बहुत ईमानदार, अनुशासित, शिष्ट और विद्वान पुलिस की अपेक्षा है। बिलकुल सही अपेक्षा है पर ये समाज ऐसी खरी अपेक्षा के लिए खुद ऐसा कौन सा आदर्श सामने रख पा रहा?
इस बात को यहीं छोड़ते हैं दूसरा सीधा सवाल आम जनता ने ये ‘सिंघम -सिंघम’ क्या रट लगा रखी है और क्यों ?
‘सिंघम’ एक फि़ल्मी चरित्र है जो बुनियादी तौर पर गैर-लोकतांत्रिक है, हिंसक है। धरातल पर खड़े होकर बात करें तो ये चरित्र देश के मूल स्वभाव और संविधान से कितना ज़्यादा उलट है!
जिस तरह गब्बर सिंह की दरिंदगी , हैवानियत ,हिंसक चरित्र के बावजूद समाज ने उसे हीरो बना दिया वैसा ही काम कई दशकों से कई चरित्रों को लेकर जनता ने ये काम किया।
आपको सिंघम क्यों चाहिए?
कानून-संविधान के तहत जान की बाजी लगाकर काम करने वाले जीते जागते ईमानदार पुलिस वाले सिपाही से लेकर आईपीएस तक हमारे बीच हैं ,वो क्यों नहीं चाहिए ?
सुनिए, किसी एक नहीं सभी प्रदेशों में पूरे देश में जब -जब पुलिस वाले सोशल मीडिया में अपनी तस्वीर डालते हैं ..सिंघम ..सिंघम कमेंट्स की बौछार शुरू हो जाती है।
जनता उस पुलिस वाले को ‘सिंघम’ के रूप में देखना ही नहीं चाहती, सोशल मीडिया में ऐसे पोस्ट खंगालती है और उकसाती है।
नतीजा कई पुलिस वालों की रील पर रील और तस्वीरों पर तस्वीरें। इसके बाद लोगों की शिकायत भी कि ये तो बस रील बनाते हैं और सोशल मीडिया में रहते हैं। ऐसी शिकायतों से भी अखबार में खबरें भरी हैं।
हमारा ध्यान कभी इस बारे में जाता है कि इसी पुलिस विभाग में ढेर विद्वान वक्ता, साहित्यकार, कवि, समाज विज्ञानी, डॉक्टर, इंजीनियर, लेखक भरे हैं।
सिंघम जैसों की बजाये ये आदर्श क्यों नहीं हैं?
क्यों पुलिस वालों से फि़ल्मी प्रतिगामी चरित्र की जगह ऐसे विद्वानों की अपेक्षा नहीं करते ?
आप जानते हैं छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी विश्वरंजन साहित्यकार फिराक गोरखपुरी के नाती ही नहीं खुद बड़े कवि और साहित्यकार हैं. बताते हैं राजधानी रायपुर से रवाना होने से पहले विश्वरंजन ने अपनी लाइब्रेरी से लगभग दो हजार किताबें लाइब्रेरी को दान में दी थी।
पूर्व पुलिस महानिदेशक विभूति नारायण राय शहर में कर्फ्यू, किस्सा लोकतंत्र, तबादला, प्रेम की भूतकथा और रामगढ़ में हत्या जैसे कई उपन्यासों के लेखक हैं। नौकरी में रहते हुए ही ज़्यादातर उपन्यास लिखे . इसमें खासतौर पर शहर में कर्फ्यू, साम्प्रदायिक दंगे और भारतीय पुलिस सर्वाधिक पठित और चर्चित है। पुलिस महानिदेशक पद से अवकाश प्राप्त विभूति नारायण राय को सराहनीय सेवाओं के लिए इंडियन पुलिस मैडल और उत्कृष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति का पुलिस मैडल भी मिला। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति रहे।
कर्नाटक के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक खलील उर रहमान उर्दू के विख्यात साहित्यकार रहे जिन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।
कैसर खालिद महाराष्ट्र के वरिष्ठ आईपीएस अच्छे शायर और कवि हैं।
पूर्व आईपीएस विकास नारायण राय कवि और प्रगतिशील लेखक जिनकी किताबें ‘भगत सिंह से दोस्ती’, ‘आरक्षण बनाम रोजग़ार’ , ‘दंगे में प्रशासन’ ‘लड़कियों का इंकलाब जि़न्दाबाद’और कविता संग्रह ‘मेरा बयान’ जरूर पढि़ए और सोचिये फिल्मी हिंसक चरित्र चाहिए या समझदार विद्वान अफसर।
बरसों पहले जब मेरी आँख खुली ही थी तो सबसे अच्छी किताबों की चर्चा और जानकारी पूर्व आईपीएस दिलीप आर्य जी ने दी थी। सिर्फ इतना ही नहीं जिंदगी की सबसे अच्छी चुनिंदा अंग्रेजी क्लासिकल फिल्में भी उन्होंने उस ज़माने में वीसीआर से दिखाईं।
-आर.के.जैन
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की नई रिपोर्ट सामने आई है। यह रिपोर्ट डराने वाली है। कैग के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 10 सालों में सभी 28 राज्यों का कुल कर्ज बहुत बढ़ गया है। 2013-14 में यह कर्ज 17.57 लाख करोड़ रुपये था। 2022-23 में यह बढक़र 59.60 लाख करोड़ रुपये हो गया।
कैग के के. संजय मूर्ति ने यह रिपोर्ट स्टेट फाइनेंस सेक्रेटरीज कॉन्फ्रेंस में जारी की। रिपोर्ट में राज्यों की वित्तीय स्थिति का विश्लेषण किया गया है। इसके अनुसार, 2022-23 के अंत तक 28 राज्यों पर कुल 59,60,428 करोड़ रुपये का कर्ज था। यह कर्ज उनके कुल सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का 22.96 फीसदी है।
सबसे ज्यादा कर्ज पंजाब पर है। वहीं, ओडिशा पर सबसे कम कर्ज है। 11 राज्यों ने अपने खर्चों को पूरा करने के लिए उधार लिए गए पैसे का इस्तेमाल किया।
द इंडियन एक्सप्रेस ने कैग की इस रिपोर्ट का विश्लेषण किया है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार, 2022-23 के अंत तक सभी 28 राज्यों पर कुल 59,60,428 करोड़ रुपये का कर्ज था। यह कर्ज उनके कुल जीएसडीपी का 22.96 फीसदी है।
जीएसडीपी का मतलब है कि एक राज्य के अंदर एक साल में जितनी भी चीजें और सेवाएं बनाई जाती हैं, उनकी कुल कीमत कितनी है। 2013-14 में राज्यों का कुल कर्ज 17,57,642 करोड़ रुपये था। यह जीएसडीपी का 16.66 फीसदी था। रिपोर्ट बताती है कि 2022-23 में यह कर्ज 3.39 गुना बढ़ गया। यह जीएसडीपी का 22.96 फीसदी हो गया।
सबसे ज्यादा कर्ज वाले राज्य-
पंजाब 40.35%
नागालैंड 37.15%
पश्चिम बंगाल 33.70%
रिपोर्ट में कहा गया है कि 31 मार्च 2023 तक आठ राज्यों पर उनके जीएसडीपी का 30 फीसदी से ज्यादा कर्ज था। छह राज्यों पर उनके जीएसडीपी का 20 फीसदी से कम कर्ज था। बाकी 14 राज्यों पर उनके जीएसडीपी का 20 से 30 फीसदी के बीच कर्ज था।
राज्यों का कुल कर्ज 2022-23 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 22.17 फीसदी था। उस समय देश की जीडीपी 2,68,90,473 करोड़ रुपये थी।
अमेरिका में हज़ारों दक्षिण एशियाई पेशेवरों के लिए एच-1बी वीज़ा लंबे समय से एकेडमिक करियर, रिसर्च अवसरों और दुनिया के सबसे बड़े टेक्नोलॉजी बाज़ार में नौकरियों तक पहुंच का साधन रहा है.
लेकिन अब यह रास्ता अचानक कम सुरक्षित दिखाई देने लगा है.
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए हैं जिसके तहत नए एच-1बी वीज़ा आवेदनों पर एक लाख डॉलर की फ़ीस लागू की जाएगी. यह नियम 21 सितंबर से प्रभावी होगा.
इस एलान के बाद से ही भारत के एच-1बी वीज़ा धारक और कंपनी मालिक दोनों असमंजस में हैं.
आदेश जारी होते ही इसके दायरे को लेकर भ्रम फैल गया और वकील, एंप्लॉयर और वीज़ा धारक सभी इसकी भाषा को समझने में उलझे रहे.
ऐसे में वॉशिंगटन डीसी से इरम अब्बासी ने बीबीसी के लिए अमेरिका में रह रहे एच-1बी वीज़ा धारकों और एक्सपर्ट की राय जानी.
वहीं भारत में बीबीसी संवाददाता इशाद्रिता लाहिड़ी ने उन भारतीयों से बात की, जो इस फ़ैसले के समय अपने वतन लौटे थे और अब असमंजस में हैं.
'21 सितंबर की डेडलाइन से पहले लौट आएं'
इरम अब्बासी, बीबीसी के लिए, वॉशिंगटन डीसी से
साउथ एशियन बार एसोसिएशन की तरफ़ से बुलाई गई एक आपात बैठक में वकीलों ने कहा, "टेक्स्ट को ध्यान से पढ़ने के बाद भी इस बात की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है कि इसे कैसे लागू किया जाएगा."
उन्होंने अमेरिका में पहले से रह रहे एच-1बी वीज़ा धारकों को सलाह दी, ''अभी अंतरराष्ट्रीय यात्रा से बचें, क्योंकि बॉर्डर अधिकारियों के पास आदेश की व्यापक व्याख्या करने का अधिकार हो सकता है.''
जो लोग अमेरिका से बाहर थे उन्हें कहा गया, ''अगर संभव हो तो 21 सितंबर की डेडलाइन से पहले लौट आएं, नहीं तो संभावित कोर्ट आदेशों का इंतज़ार करें.''
हाल ही में वीज़ा लॉटरी में चुने गए आवेदकों को भी सलाह दी गई, ''अभी स्टेटस न बदलें और न ही अंतरराष्ट्रीय यात्रा करें, जब तक स्थिति साफ़ न हो.''
लेकिन 48 घंटे के भीतर ही व्हाइट हाउस ने इन आशंकाओं को कम करने की कोशिश की. प्रेस सचिव कैरोलिन लेविट ने एक्स पर लिखा कि यह फ़ीस कोई सालाना चार्ज नहीं है बल्कि सिर्फ़ एक बार की लागत है, जो केवल नए आवेदनों पर लागू होगी.
उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ''जिनके पास पहले से एच-1बी वीज़ा है और जो इस समय अमेरिका से बाहर हैं, उनसे दोबारा प्रवेश के लिए एक लाख डॉलर नहीं लिया जाएगा.''
उन्होंने यह भी कहा, ''मौजूदा वीज़ा धारक पहले की तरह यात्रा कर सकेंगे और अपना स्टेटस रीन्यू कर सकेंगे.''
लेविट ने कहा, ''यह बदलाव पहली बार अगले एच-1बी लॉटरी साइकिल में लागू होगा.''
फिर भी इस अनिश्चितता ने कंपनियों और कर्मचारियों दोनों को हिलाकर रख दिया है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक़ कई बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों ने विदेश में मौजूद अपने एच-1बी स्टाफ़ को सलाह दी है, ''जल्दी लौट आएं या तब तक अंतरराष्ट्रीय यात्रा से बचें जब तक नए नियम साफ़ न हो जाएं.''
प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक़, ''साल 2023 में मंज़ूर हुए सभी एच-1बी वीज़ाओं में से लगभग तीन-चौथाई भारतीय नागरिकों को मिले थे. चीन काफ़ी पीछे दूसरे स्थान पर रहा, जिसे 11 प्रतिशत वीज़ा मिले.''
अमेरिकी सरकारी आंकड़ों से यह भी पुष्टि होती है कि अक्टूबर 2022 से सितंबर 2023 के बीच जारी किए गए सभी एच-1बी वीज़ा में से 70 प्रतिशत से ज़्यादा भारतीयों को मिले.
इस दबदबे का मतलब है कि इतने बड़े पैमाने पर किसी भी बदलाव का सबसे पहले और सबसे गहरा असर भारतीय पेशेवरों पर पड़ता है.
'मेरी ज़िंदगी उलट-पुलट हो गई'
मिसौरी यूनिवर्सिटी की एक भारतीय पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलो, जिन्होंने अमेरिका से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की है, उन्होंने बीबीसी से कहा, ''इस नियम ने मेरी ज़िंदगी को पूरी तरह उलट-पुलट कर दिया है.''
उनका वीज़ा अगले साल रिन्यू होना है और उन्हें शक है कि उनकी यूनिवर्सिटी एक लाख डॉलर की फ़ीस भर पाएगी.
उन्होंने बताया कि वह अमेरिका इसलिए आईं क्योंकि एच-1बी प्रोग्राम ने उनके जैसे रिसर्चर्स को एकेडमिक करियर बनाने में मदद दी.
उनका कहना है कि नए नियमों को लेकर विरोधाभासी संदेशों ने साथियों में घबराहट बढ़ा दी है और भारतीय राजनयिकों से दख़ल की मांगें तेज़ कर दी हैं.
नाम न बताने की शर्त पर उन्होंने बीबीसी से कहा कि एच-1बी पर करियर बनाना उनके लिए बेहद मुश्किल साबित हुआ है.
वह पहली बार अमेरिका स्टूडेंट वीज़ा पर समाजशास्त्र में पीएचडी करने आई थीं.
इसके बाद उन्हें एच-1बी वीज़ा के ज़रिए पहला टीचिंग पोस्ट मिला. पिछले चार साल में वह तीन संस्थानों में काम कर चुकी हैं.
हर बार उन्हें नई जगह जाना पड़ा, नेटवर्क दोबारा बनाना पड़ा और नए पेशेवर माहौल में ख़ुद को ढालना पड़ा. उनका परिवार भारत में ही रहा और इस दौरान वह अपने पिता की हार्ट सर्जरी और बहन की शादी में शामिल नहीं हो सकीं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय यात्रा का जोख़िम उठाना संभव नहीं था.
उनके पति, जो बाद में अमेरिका आए, उन्हें ख़ुद का वर्क परमिट मिलने में दो साल लगे. उन्होंने कहा कि लगातार अस्थिरता ने उनकी सेहत पर असर डाला है, तनाव की वजह से एक ऑटोइम्यून बीमारी और बढ़ गई है.
उनका कहना था कि एकेडमिक सेक्टर में मिलने वाली तनख़्वाह इतनी नहीं है कि वीज़ा से जुड़ी इस भारी लागत को पूरा कर सके.
अमेरिका में एच-1बी वीज़ा पर काम कर रहे एक पाकिस्तानी नागरिक ने भी बीबीसी से नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा, ''मैं पूरी तरह उलझन में हूं और अधिक जानकारी का इंतज़ार कर रहा हूं.''
उन्होंने कहा कि वह रोज़ाना आधिकारिक अपडेट और क़ानूनी सलाह देख रहे हैं, लेकिन अभी तक इस बारे में कोई साफ़ दिशा-निर्देश सामने नहीं आया है कि नियम कैसे लागू होंगे.
उनका कहना है, ''अनिश्चितता ने मुझे बीच में लटका दिया है. मुझे नहीं पता कि अमेरिका में लंबे समय तक योजनाएं बनाऊं या अचानक घर लौटने की तैयारी करूं.'' एक्सपर्ट्स ने चेतावनी दी है कि इस भ्रम के व्यापक असर हैं.
अमेरिकन इमिग्रेशन काउंसिल के पॉलिसी डायरेक्टर जॉर्ज लोवरी ने बीबीसी से कहा, ''यह पॉलिसी बिना किसी सूचना, बिना किसी दिशा-निर्देश और बिना योजना के लाई गई है.''
उन्होंने आगे कहा, ''हम देख रहे हैं कि भ्रम सिर्फ़ वीज़ा धारकों और उनके परिवारों में ही नहीं है, बल्कि एंप्लॉयर और यूनिवर्सिटीज़ भी समझ नहीं पा रहे कि उन्हें कैसे इसका पालन करना है. सरकार पर यह ज़िम्मेदारी है कि वह नियमों को साफ़ करे, ख़ासकर तब जब लोगों की ज़िंदगियां और करियर दांव पर हों.''
अमेरिका में स्थित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार वकील गुंजन सिंह ने बीबीसी से कहा कि यह आदेश सख़्त है और साफ़ नहीं है.
इसने पहले ही एच-1बी नौकरियों की कतार में लगे पेशेवरों और छात्रों में दहशत पैदा कर दी है.
उन्होंने चेतावनी दी, ''एक लाख डॉलर की फ़ीस का असर सबसे ज़्यादा रिसर्चर्स और ग़ैर-लाभकारी संस्थानों में काम करने वालों पर पड़ेगा, क्योंकि उनकी सैलरी कॉर्पोरेट टेक्नोलॉजी भूमिकाओं की तुलना में बहुत कम होती है.''
गुंजन सिंह का कहना है कि इस आदेश ने अमेरिकी कांग्रेस को दरकिनार किया है, जिससे कार्यपालिका की सीमा से बाहर जाने को लेकर संवैधानिक सवाल खड़े हो रहे हैं.
उन्होंने यह भी कहा कि, ''इमिग्रेशन अधिकारियों की ओर से आई सफ़ाई से पता चलता है कि फ़ीस केवल आगे आने वाले नए मामलों पर लागू होगी, इससे मौजूदा एच-1बी वीज़ा धारकों को कुछ राहत मिलेगी.''
इस बीच भारतीय कंपनियां अपने ऑनसाइट स्टाफ़िंग मॉडल पर फिर से विचार कर रही हैं और यूनिवर्सिटीज़ यह सोच रही हैं कि क्या वे शुरुआती करियर वाले रिसर्चर्स को इतनी ऊंची लागत पर स्पॉन्सर कर पाएंगी?
एच-1बी वीज़ा पर ट्रंप के नए एलान के तुरंत बाद 20 सितंबर को रोहन मेहता (बदला हुआ नाम) ने सिर्फ़ आठ घंटे में 8,000 डॉलर से ज़्यादा खर्च कर दिए.
नागपुर से अमेरिका के लिए वह लगातार उड़ानें बुक और रीबुक कर रहे थे. उन्होंने कहा, "मैंने कई ऑप्शन बुक किए क्योंकि ज़्यादातर उड़ानें बहुत नज़दीक कटऑफ़ पर थीं. अगर ज़रा भी देरी होती तो मैं डेडलाइन मिस कर देता."
एक सॉफ़्टवेयर प्रोफ़ेशनल के तौर पर वह पिछले 11 साल से अपने परिवार के साथ अमेरिका में रह रहे हैं. इस महीने की शुरुआत में वह अपने पिता की बरसी पर नागपुर आए थे.
मेहता ने कहा, "मुझे ख़ुशी है कि मेरी पत्नी और बेटी मेरे साथ नहीं आईं. यह एक बहुत ही डरावना अनुभव रहा है. मैं अपनी ज़िंदगी के फ़ैसलों पर पछता रहा हूं. मैंने अपनी जवानी का सबसे अच्छा समय इस देश के लिए काम करने में दिया और अब मुझे लगता है कि मेरी यहां ज़रूरत ही नहीं है."
उन्होंने आगे कहा, "मेरी बेटी ने पूरी ज़िंदगी अमेरिका में बिताई है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं वहां से अपनी जड़ें कैसे उखाड़ूं और भारत में आकर सब कुछ फिर से कैसे शुरू करूं."
बीबीसी ने कई और एच-1बी वीज़ा धारकों से बातचीत की. इनमें से कई दशकों से अमेरिका में काम कर रहे हैं.
इनमें से किसी ने भी अपना नाम प्रकाशित नहीं करने दिया क्योंकि उनके एंप्लॉयर ने इसकी अनुमति नहीं दी थी.
कई लोगों ने हमसे बात करने से इनकार कर दिया और वजह बताई कि, "निगरानी की जा रही है."
हमने जिनसे भी बात की, सभी इस आदेश को लेकर चिंतित दिखे.
ट्रंप प्रशासन का क्या कहना है?
ट्रंप प्रशासन ने इस क़दम का बचाव किया है और कहा है कि यह अमेरिकी श्रमिकों की रक्षा करने, वीज़ा सिस्टम के ग़लत इस्तेमाल को रोकने और यह सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि केवल सबसे कुशल और सबसे अधिक वेतन पाने वाले विदेशी पेशेवर ही योग्य हों.
-दिलीप कुमार पाठक
अमेरिकी इतिहास जब लिखा जाएगा तो लिखा जाएगा कि एक राष्ट्रपति ऐसे बने थे, जो दुनिया बदल डालने, अपनी उंगली पर नचाने की हनक पाले हुए थे, परंतु खुद भी मज़ाक के पात्र बन गए थे । आज डोनाल ट्रम्प अमेरिकी इतिहास के सबसे हास्यापद राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं, ट्रम्प सुबह पाकिस्तान के साथ होते हैं तो शाम को भारत के पक्ष में हो जाते हैं। कभी चाइना के राष्ट्रपति की तारीफों के पुल बांधने लगते हैं तो कभी रसिया के राष्ट्रपति के सम्मान में नारे लगाने लगते हैं। कभी भारत को मित्र बताते हैं तो कभी भारत को सबसे बड़ा दुश्मन... समझ नहीं आता कि ट्रम्प ऐसा क्यों कर रहे हैं । जब से ट्रम्प दोबारा राष्ट्रपति बने हैं, तब से ऐसा कोई भी दिन नहीं गया जिस दिन उन्होंने भारत के खिलाफ़ गलत बयानी न किया हो। पहले 50% टैरिफ लगा दिया, और अब H1 वीजा में सख्ती लगा दी है। ट्रम्प भली भांति जानते हैं कि दक्षिण एशिया में चीन की दादागिरी के सामने अगर कोई टिक सकता है तो वो केवल और केवल भारत है। अन्यथा दक्षिणी एशिया में चाइना अमेरिका की धज्जियाँ उड़ा देगा। ट्रम्प हर दिन भारतीय मीडिया में छाए रहते हैं। आजकल अपनी वीजा पॉलिसी के लिए खबरों में हैं l हर दिन ट्रम्प भारत के खिलाफ़ निर्णय लेते हैं जिससे भारत के बाज़ार में हलचल हो भारतीय लोगों को परेशानी का कारण पड़ता है। ट्रम्प को भूलना नहीं चाहिए कि भारत एक संप्रभुता वाला राष्ट्र है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने H1-B वीजा को लेकर बड़ा ऐलान किया है। H1-B वीजा के लिए आवेदन शुल्क को बढ़ाकर 100000 डॉलर यानी लगभग 84 लाख रुपये कर दिया गया है। इस घोषणा के बाद अमेरिका में काम कर रहे भारतीयों में हड़कंप मचा हुआ है। अमेरिका में H1B वीजा धारकों की सबसे बड़ी संख्या भारतीयों की है, जिन्हें अब अपनी नौकरी पर खतरा नजर आ रहा है। असमंजस की स्थिति और बढ़ गई जब अमेरिकी दिग्गज कंपनियों ने कर्मचारियों को 20 सितम्बर तक हर हाल में अमेरिका वापस लौटने की सलाह दी। इस बीच वॉइट हाउस ने बयान जारी कर स्थिति को साफ किया है। वॉइट हाउस की प्रेस सेक्रेटरी कैरोलिन लेविट ने शनिवार को स्पष्ट किया है कि हाल ही में घोषित 10000 डॉलर का एच1-बी वीजा शुल्क केवल नए वीजा आवेदनों पर लागू होगा। उन्होंने साफ कहा कि यह वार्षिक शुल्क नहीं है। दरअसल ट्रंप की एच1-बी वीजा में व्यापक बदलाव की योजना ने भारतीय आईटी पेशेवरों और कंपनियों में यह आशंका पैदा कर दी है कि अमेरिका से बाहर रहने वाले वीजा होल्डर को वापस लौटने के लिए तत्काल समय सीमा का सामना करना पड़ सकता है। ट्रंप प्रशासन के इस फैसले को लेकर भारत में जबरदस्त हलचल हो गई है क्योंकि बड़ी संख्या में भारतीय प्रोफेशनल्स H-1B वीजा प्रोग्राम के तहत अमेरिका में नौकरी करने जाते हैं l देखा जाए तो इस कदम से भारतीय परिवारों के लिए मुश्किल पैदा हो सकती है। भारत सरकार ने उम्मीद जताई कि इन मुश्किलों को अमेरिकी अधिकारी सही ढंग से हल कर सकते हैं। भारत और अमेरिका दोनों देशों के उद्योग जगत की इनोवेशन और क्रिएटिविटी में हिस्सेदारी है और उनसे आगे बढ़ने के बेहतर रास्ते पर परामर्श की उम्मीद की जा सकती है। स्किल्ड लोगों की आवाजाही ने अमेरिका और भारत में प्रौद्योगिकी विकास, इनोवेशन, आर्थिक वृद्धि, प्रतिस्पर्धा और संपन्नता बढ़ाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। इसलिए, नीति-निर्माता हाल के अमेरिकी फैसले का आकलन आपसी हितों को ध्यान में रखते हुए करेंगे, जिसमें दोनों देशों के बीच गहरे पीपल -टू पीपल संबंध भी शामिल हैं।
- प्रकाश दुबे
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने सउदी अरब पहुंचकर सामरिक- संधि पर हस्ताक्षर किए। सउदी अरब की तरफ से वचन मिला। पाकिस्तान पर किसी भी हमले को धार्मिक और आर्थिक प्रभुत्व रखने वाले मध्य पूर्व के देश सउदी पर हमला माना जाएगा। अपने अपने चश्मे के नंबर के हिसाब से विशेषज्ञ बताने में जुट गए कि इजराइल के हमले के खिलाफ पाकिस्तान-अरब देशों की एकजुटता है, या इसका कोई धार्मिक कोण है? भारत को छकाने और सताने की अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है या कुछ और? पाकिस्तान ने प्रचार माध्यमों का भरपूर सहारा लेकर बताया कि प्रधानमंत्री शाहबाज खान का विमान अरब हवाई सीमा में दाखिल हुआ तभी रायल शाही नभ सेना के एफ-15 जहाज उनकी अगवानी करते हुए राजधानी रियाद के हवाई अड्?डे तक ले गए। प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ अल सउद ने अल यम्मा राजमहल में स्वागत किया। घुड़सवारों का दस्ता तैनात था। 21 तोपों की सलामी दी गई, आदि आदि। भारत में ट्रकों, मकानों आदि पर लिखा रहता है-मां का आर्शीवाद। अरबी भाषा में अल यम्मा का मतलब यही होता है।
सामरिक संधि का निर्णय लेते समय महत्वपूर्ण बैठक के दौरान प्रधानमंत्री के साथ पाकिस्तान के करीब आधा दर्जन मंत्री मौजूद थे। सिंदूर आपरेशन के दौरान चर्चित पाकिस्तान के फील्ड मार्शल सैयद असीम मुनीर विशेष रूप से शामिल थे। अमेरिकी राष्ट्रपति की दावत का असर अवश्य उनकी जुबान और दिमाग में छाया रहा होगा। सैयद तारिक फातमी बैठक में मौजूद थे। बात को हवा में उड़ाते हुए मत कहना कि यूं तो जलवायु परिवर्तन महकमे के मंत्री डा मुसादिक मलिक भी हाजिर थे। बहस-मुबाहिसे में अपनी रुचि नहीं है। दि फ्यूचर आफ पाकिस्तान पुस्तक लिखने मात्र से तारिक फातमी को लेखक बताकर नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते। फातमी साहब पैदाइशी बंगाली हैं। पैदा हुए बांग्लादेश में। ताजि़ंदगी पाकिस्तानी बंगाली की छवि के बावजूद विदेश नीतियों की बारीकियों को घोंट कर पी चुके हैं। अमेरिका के सिवा योरोपियन यूनियन में भी तैनात रहे। बीजिंग में पदस्थ रहे और रूस में काम करने के साथ धारा प्रवाह रूसी बोलते हैं। मस्कवा और वाशिंगटन में दो दो बार पाकिस्तान के कूटनीतिक हितों को साधने के लिए बतौर राजदूत ही उन्होंने अपनी सेवाएं नहीं दी।
परमाणु ऊर्जा के अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ हैं। बीस बरस पहले विदेश सेवा से निवृत्त होकर पाकिस्तान मुस्लिम लीग के सदस्य बने। फातमी को जयशंकर की पाकिस्तानी काट कहा जा सकता है। उनमें और भारत के विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर में बुनियादी अंतर है। जयशंकर मंत्री बने। राज्यसभा के पिछले दरवाजे से संसद में आए। सत्ता की परदे के सामने वाली राजनीति से फातमी बचते रहे। उनकी पत्नी पाकिस्तान की सत्तारूढ़ पार्टी की लोकसभा सदस्य हैं। अनुभव और हुनर में दोनों की तुलना करने की जरूरत नहीं है। दुनिया के चार प्रमुख धर्मों में से एक के सबसे बड़े तीर्थ वाले देश में पहुंचकर सामरिक शतरंज पर गोटियां बिठाने में पाकिस्तान की ललक समझ में आती है। पाकिस्तान यह डींग हांकने नहीं गया कि हमारी तिजोरी में एटम बम है। तेल बादशाह सउदी अरब अमेरिका की नज़दीकी के बावजूद धार्मिक मसलों तक में पचड़े में पडऩे से बचता है। कहने को 22 अरब देशों की अरब लीग का रहनुमा है। फिलस्तीनी विवाद में शाह बयानबाजी से आगे नहीं बढ़ते। गाजा पर इजराइली हमलों को लेकर पहले भी बयान देते थे। गौर करना चाहिए कि पाकिस्तान के साथ संयुक्त वक्तव्य में भी इजराइल को विरोध करने की रस्म अदायगी कर ली। सउदी अरब की राजधानी रियाद से मात्र साठ किलोमीटर की दूरी पर अमेरिकी फौजी ठिकाना है। बड़ी संख्या में अमेरिकी वायुसेना के विमान तैनात हैं। कहा जा सकता है कि अमेरिका सउदी अरब का संरक्षक या रक्षा प्रहरी है। अमेरिका ने अपने तेल कूप बचाकर रखे हैं। खाड़ी देशों का तेल चूसता है। बदले में विलासी जीवन और सैनिक सुरक्षा की गारंटी देता है। अमेरिका के तेवर पर तय होता है कि इजराइल जैसे शत्रु पर कितनी शाब्दिक मिसाइलें दागना है? इजराइल से भारत की मित्रता संयुक्त राष्ट्रसंघ तक जगजाहिर है।
बिहार में चुनाव को देखते हुए विपक्षी महागठबंधन सरकार को रोजगार, नौकरी समेत कई मोर्चे पर घेर रहे हैं वहीं बीजेपी समर्थित नीतीश सरकार लगातार लोकलुभावन घोषणाएं कर रही है, जिनके केंद्र में खास तौर पर महिलाएं हैं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
बिहार में मानदेय पर तैनात आशा-ममता कार्यकर्ताओं का पहले मानदेय बढ़ाया गया, फिर आंगनबाड़ी सेविकाओं-सहायिकाओं का और फिर सभी महिलाओं को अपनी पसंद के रोजगार के लिए पहले मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत दस हजार और फिर आवश्यकतानुसार दो लाख रुपये तक देने की घोषणा की गई.
नीतीश ने महिलाओं को क्यों नहीं दिया कैश ट्रांसफर का ऑफर
सरकार की घोषणाओं में किसानों, युवाओं और उद्यमियों को भी तवज्जो दी जा रही. सड़क संपर्क और यातायात सुविधाओं को बेहतर करने के लिए भी बिहार की डबल इंजन की सरकार काफी संवेदनशील है. ताबड़तोड़ लोकार्पण और शिलान्यास भी किए जा रहे हैं. बीते 15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में पूर्णिया एयरपोर्ट का उद्घाटन किया, वहीं भागलपुर जिले के पीरपैंती में थर्मल पावर प्लांट का शिलान्यास किया. हालांकि इसके लिए अडानी समूह को जमीन देने पर सवाल उठ रहे हैं.
भारत की राजनीति में चुनाव नजदीक आते ही ऐसी घोषणाएं पक्ष-विपक्ष, दोनों ही तरफ से की जाती हैं. राज्य सरकार की इन घोषणाओं को बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष व लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी यादव महागठबंधन की घोषणाओं की नकल करार देते हैं. तेजस्वी कहते हैं, ‘‘यह सरकार हमारी घोषणाओं को हड़बड़ी में लागू कर रही. जनता भी जान चुकी है कि सरकार ठगी कर रही. इसलिए लोग अब कहने लगे हैं कि हमें नकली नहीं, असली सीएम चाहिए.''
बिहार में कितना सुधर सका शिक्षा का स्तर
दूसरी तरफ राज्य सरकार कह रही कि उन वादों को धरातल पर उतारा जा रहा, जिनकी घोषणा 23 दिसंबर, 2024 से 21 फरवरी, 2025 के बीच मुख्यमंत्री की प्रगति यात्रा के दौरान की गई थी. इसी के तहत नागरिक सुविधाओं, शिक्षा, सडक़-पुल व बुनियादी ढांचों, स्वास्थ्य व चिकित्सा, खेल-पर्यटन तथा हवाई परिवहन और औद्योगिक विकास की पहल की जा रही है.
नारी स्वावलंबन का विशेष ख्याल
राजनीतिक समीक्षक समीर सौरभ कहते हैं, ‘‘शायद, इस बार फिर नीतीश कुमार महिलाओं के सहारे सत्ता पाने की जुगत में हैं. जीविका दीदियों के सहारे उनका बड़ा वोट बैंक तैयार हुआ है. प्रगति यात्रा के दौरान उनका संवाद भी महिलाओं, खासकर जीविका दीदियों से हुआ था.''
जीविका निधि के जरिए इन सबों की आत्मनिर्भरता बढ़ाने के उद्देश्य से ही जीविका निधि साख सहकारी संघ लिमिटेड को शुरू किया गया और सरकार ने 105 करोड़ की राशि जीविका निधि में ट्रांसफर कर दी. राज्य में 11 लाख से अधिक समूहों से जु़ड़़ी करीब एक करोड़ 40 लाख से अधिक जीविका दीदियां हैं. स्वरोजगार के लिए सरकार ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की शुरुआत की.
महिला उद्यमियों के बनाए उत्पादों की बिक्री के लिए गांव से लेकर शहर तक हाट-बाजार भी विकसित किया जा रहा है. जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा कहते हैं, ‘‘यह पहल ना केवल महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक निर्णायक कदम साबित होगा, बल्कि यह प्रदेश में आर्थिक क्रांति का भी सशक्त वाहक बनेगा.''
आधी आबादी को पूरा हक
महिलाओं को केंद्र में रख ऐसी घोषणाएं पहली बार नहीं की गई हैं. इससे पहले मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना, बालिका साइकिल योजना, बालिका पोशाक योजना एवं कन्या विवाह योजना ने पूरे देश का ध्यान खींचा और इसका फायदा भी चुनावों में नीतीश कुमार को मिला.
राजनीति शास्त्र की छात्रा कृतिका कुमारी कहती हैं, ‘‘सरकारी सेवाओं में आरक्षण से वाकई महिलाएं सशक्त हुईं. प्राथमिक शिक्षक नियुक्ति में आरक्षण के साथ-साथ बिहार पुलिस तथा अन्य सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिला. इससे महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो हुईं ही.'
-लोन वेल्स, लिंद्रो प्रेजेरेस
ब्राजील के राष्ट्रपति लुईस इनासियो लूला डा सिल्वा ने बीबीसी को दिए एक खास इंटरव्यू में कहा है कि उनके अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ ‘कोई संबंध नहीं’ हैं।
लूला अक्सर ट्रंप की आलोचना करते रहे हैं। लेकिन इस इंटरव्यू से साफ संकेत मिले हैं कि अब उनकी और अमेरिकी राष्ट्रपति की बातचीत तक बंद हो गई है।
दरअसल ट्रंप ने ब्राजील पर 50 फीसदी टैरिफ लगा दिया है। उम्मीद थी कि दोनों देशों की बातचीत के बाद ट्रंप इसे कम कर देंगे। लेकिन अब लूला के बयान से साफ हो गया है कि बात नहीं बनी।
अमेरिका का ब्राजील के साथ ट्रेड सरप्लस है। इसके बावजूद ट्रंप ने जुलाई में ब्राज़ीलियाई सामान पर 50 फीसदी टैरिफ लगा दिए थे।
उन्होंने इसकी वजह ब्राजील के दक्षिणपंथी पूर्व राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो पर तख़्तापलट की साजिश के लिए चलाए जा रहे मुकदमे को बताया था। लूला ने इन अमेरिकी टैरिफ़ को पूरी तरह राजनीतिक बताया और कहा कि इसके चलते अमेरिकी उपभोक्ताओं को ब्राज़ीलियाई सामान अब ज़्यादा दाम पर खरीदने होंगे।
‘ट्रंप की गलती का खमियाजा अमेरिकी लोग भुगतेंगे’
ट्रंप के टैरिफ ने अमेरिका को बेचे जाने वाले कॉफी और बीफ के निर्यात पर सीधा असर डाला है।
लूला ने कहा, ‘राष्ट्रपति ट्रंप ब्राजील के साथ रिश्तों में जो गलतियां कर रहे हैं उसकी कीमत अमेरिकी जनता को चुकानी होगी।’
दोनों नेताओं ने सीधे एक दूसरे से कोई बातचीत नहीं की है। जब लूला से पूछा गया कि उन्होंने ट्रंप को सीधा फोन क्यों नहीं किया और फिर संपर्क करने की कोशिश क्यों नहीं की।
इस पर उन्होंने कहा, ‘मैंने कभी इस तरह का फोन नहीं किया क्योंकि उन्होंने कभी बातचीत करने की इच्छा नहीं जताई।’
ट्रंप पहले कह चुके हैं कि लूला ‘कभी भी उन्हें फोन कर सकते हैं’। लेकिन लूला का कहना है कि ट्रंप प्रशासन के लोग ‘बात करना ही नहीं चाहते’।
लूला ने बीबीसी को बताया कि उन्हें अमेरिकी टैरिफ़ के बारे में जानकारी ब्राजील के अखबारों से मिली।
ट्रंप का जि़क्र करते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने ‘शालीन तरीके से बातचीत नहीं की। उन्होंने बस सोशल मीडिया पर टैरिफ का ऐलान कर दिया।’
जब उनसे पूछा गया कि वे अपने अमेरिकी समकक्ष के साथ अपने रिश्ते को कैसे देखते हैं तो उन्होंने कहा, ‘कोई रिश्ता ही नहीं है।’
‘ट्रंप इस दुनिया के शहंशाह नहीं हैं’
लूला ने कहा कि अमेरिका के राष्ट्रपति के साथ खराब रिश्ते अपवाद हैं। वरना उन्होंने पहले अमेरिकी राष्ट्रपतियों, ब्रिटेन के प्रधानमंत्रियों, यूरोपियन, चीन, यूक्रेन, वेनेज़ुएला और ‘दुनिया के सभी देशों’ के साथ संबंध बनाए हैं।
ब्राजील के राष्ट्रपति इस साल रूस में द्वितीय विश्व युद्ध की वर्षगांठ समारोह में भी शामिल हुए थे। उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन से रिश्ते नहीं तोड़े हैं।
जब उनसे पूछा गया कि उनका रिश्ता किसके साथ बेहतर है, ट्रंप या पुतिन के साथ। तो उन्होंने पुतिन के साथ अपने रिश्तों का बचाव किया। उन्होंने कहा कि ये आज के रिश्ते नहीं हैं। ये उसी समय बने हैं जब पुतिन और वो राष्ट्रपति थे।
लूला ने कहा, ‘मेरा ट्रंप से कोई रिश्ता नहीं है क्योंकि जब ट्रंप पहली बार राष्ट्रपति चुने गए थे, तब मैं राष्ट्रपति नहीं था। उनका रिश्ता बोल्सोनारो से है, ब्राजील से नहीं।’
उन्होंने यह भी कहा कि अगर उनका अगले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र महासभा में ट्रंप से आमना-सामना होता है तो वो उनका अभिवादन करेंगे क्योंकि 'वो एक सभ्य नागरिक हैं।’ लेकिन ये भी कहा कि ट्रंप भले ही ‘अमेरिका के राष्ट्रपति हों, (लेकिन) वे दुनिया के शहंशाह नहीं हैं।’
लूला की ओर से ट्रंप की आलोचना के बारे में पूछने पर व्हाइट हाउस के एक प्रवक्ता ने कहा कि बीबीसी को अमेरिकी राष्ट्रपति की ब्राज़ील पर की गई पहले की सार्वजनिक टिप्पणियों को देखना चाहिए।
‘बोलसोनारो ने की थी तख्ता पलटने की कोशिश’
लूला ने पूर्व राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो पर भी टिप्पणी की। पिछले हफ्ते उन्हें सजा सुनाई गई थी।
ब्राजील के सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों में से चार ने बोल्सोनारो को तख्तापलट की साजि़श का दोषी पाया था।
चुनाव हारने के बाद तख्तापलट की साजि़श रचने के अपराध में उन्हें 27 साल की कैद की सज़ा सुनाई गई थी।
लूला ने बीबीसी से कहा कि बोल्सोनारो और उनके साथियों ने ‘देश को नुकसान पहुँचाया, तख्तापलट की कोशिश की और मेरी हत्या की साजिश रची।’
बोल्सोनारो के वकीलों की ओर से सज़ा के ख़िलाफ़ अपील दायर किए जाने के बारे में पूछे जाने पर लूला ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि बोल्सोनारो अपनी ‘पैरवी जारी रखेंगे’, लेकिन ‘फिलहाल तो वो दोषी हैं।’ लूला ने ट्रंप की आलोचना करते हुए कहा कि ‘झूठ रच रहे हैं।’
ट्रंप का कहना था कि बोल्सोनारो पर अत्याचार हो रहा है और ब्राजील में लोकतंत्र नहीं है।
लूला ने यह भी कहा कि अगर 6 जनवरी 2021 को अमेरिकी कैपिटल हिल पर हुआ हमला ब्राजील में हुआ होता, तो ट्रंप पर मुकदमा चलाया जाता।
यूएन में स्थायी देश एकतरफा फैसला ले लेते हैं
बीबीसी को दिए अपने इंटरव्यू में लूला ने संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में सुधार की भी वकालत की।
उन्होंने कहा कि सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों को फैसलों पर वीटो का अधिकार है।
इससे शक्ति का संतुलन उन देशों के पक्ष में झुक जाता है जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध जीता था, जबकि अरबों लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले देश और ब्राज़ील, जर्मनी, भारत, जापान और अफ्रीका इससे बाहर रह जाते हैं।
लूला ने कहा यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र ‘संघर्षों को हल करने की ताक़त नहीं रखता’। पांच स्थायी सदस्य युद्ध छेडऩे जैसे मामलों पर ‘एकतरफा’ फैसले कर लेते हैं। उन्होंने एक अधिक ‘लोकतांत्रिक’ संयुक्त राष्ट्र की मांग की।
रूस और चीन से गठजोड़ का बचाव
लूला ने रूस और चीन के साथ अपने गठबंधन का बचाव किया।
जब उनसे पूछा गया कि रूस ने यूक्रेन पर युद्ध थोप दिया है और इसके बावजूद ब्राजील रूस से तेल खरीद रहा है, तो उन्होंने कहा कि सबसे पहले यूक्रेन पर हमले की निंदा करने वाले देशों में ब्राजील शामिल था।
ब्राजील उन पहले देशों में से एक था जिसने रूस के यूक्रेन पर कब्जे की निंदा की थी।
लूला ने कहा, ‘ब्राजील रूस को फंड नहीं करता। हम रूस से तेल इसलिए खरीदते हैं क्योंकि हमें तेल की जरूरत है, ठीक वैसे ही जैसे चीन, भारत, ब्रिटेन या अमेरिका को तेल खरीदने की जरूरत होती है।’
उन्होंने कहा कि अगर संयुक्त राष्ट्र ‘सही ढंग से काम कर रहा होता’ तो न यूक्रेन का युद्ध होता और न ही गजा का युद्ध। उन्होंने कहा कि ये ‘युद्ध नहीं, जनसंहार’ है।
बीबीसी ने राष्ट्रपति लूला से नवंबर में होने वाले सीओपी30 जलवायु शिखर सम्मेलन के बारे में भी पूछा। यह सम्मेलन अमेजन के शहर बेलें में होगा।
राष्ट्रपति लूला को अमेजऩ नदी के मुहाने के पास तेल की खोज का समर्थन करने पर आलोचना का सामना करना पड़ा है।
-वंदना
आर्यन ख़ान का डेब्यू अब हकीकत बन चुका है। हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े सुपरस्टारों में से एक, शाहरुख खान के बेटे आर्यन ख़ान, बतौर निर्देशक नेटफ़्िलक्स पर 19 सितंबर को अपनी सिरीज ‘द बैड्स ऑफ बॉलीवुड’ लेकर आ रहे हैं।
इस शो का थीम बॉलीवुड और नेपोटिज़्म के इर्द-गिर्द घूमता है।
सिरीज में फिल्मी परिवार से आई हीरोइन कहती है- किसी की परछाई में रहना अपने आप में एक संघर्ष है। जिसके जवाब में बाहरी दुनिया से आया हीरो जवाब देता है कि पापा की परछाई से निकलो तो मालूम पड़ेगा कितनी धूप है बाहर।
पिछले कुछ सालों से हिंदी सिनेमा में नेपोटिज़्म शब्द बहुत चर्चित रहा है।
जब आर्यन बोले ‘पापा हैं न’
आर्यन जब सिरीज लॉन्च पर पहली दफा स्टेज पर आए थे तो उन्होंने शाहरुख खान का नाम लेने से गुरेज नहीं किया।
आर्यन ने खुल कर कहा, ‘पिछले कई दिनों से लगातार प्रैक्टिस किए जा रहा हूं। मैं इतना घबराया हुआ हूं कि मैंने टेलीप्रॉम्प्टर पर भी अपनी स्पीच लिखवा दी है और अगर यहां बिजली चली जाए तो मैं कागज पर अपनी स्पीच लिखकर भी लाया हूं। टॉर्च के साथ और तब भी अगर मुझसे गलती हो जाएज् तो पापा हैं ना!’
कुछ लोगों ने आर्यन के इस जिक्र में सुपरस्टार शाहरुख़ को ढूँढा तो कुछ ने कहा कि वह सुपरस्टार नहीं पिता शाहरुख की बात कर रहे थे।
तो क्या आर्यन खान को भी लोग सिफऱ् और सिफऱ् नेपोकिड के नजरिए से ही देखेंगे या उनके काम के चश्मे से?
फिल्म ट्रेड एनेलिस्ट गिरीश वानखेड़े बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘आर्यन खान ने एक रिस्की शो बनाया है। इसके लिए मैं उन्हें पूरे नंबर दूंगा। उनका पहला शो फि़ल्म इंडस्ट्री और नेपोटिज्म पर ही पैरोडी है। वो चाहते तो एक सुरक्षित रास्ता अपना सकते थे।’
‘बतौर एक्टर भी लॉन्च हो सकते थे। नेपोटिज्म की बहस तो चलती रहेगी। एक्टर का बच्चा एक्टर बनता है, ये स्वाभाविक है। ये सही है कि उन्हें प्लेटफ़ॉर्म मिल जाता है, लेकिन साबित तो ख़ुद को करना ही पड़ता है।’
अनन्या और सिद्धांत हुए थे आमने-सामने
दर्शकों में ही नहीं फि़ल्म इंडस्ट्री के अंदर भी नेपोटिज़्म को लेकर अलग-अलग राय है जो अपने आप में दिलचस्प है।
2022 में एक इंटरव्यू में फि़ल्मी संघर्ष को लेकर एक शो पर अभिनेत्री अनन्या पांडे ने कहा था कि उनके पिता और अभिनेता चंकी पांडे को कॉफ़ी विद करण जैसे शो पर कभी नहीं बुलाया गया। जिस पर अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी का कहना था कि जहाँ हमारे सपने पूरे होते हैं, इनका स्ट्रग्ल शुरू होता है।
सिद्धांत का इशारा इस तरफ़ था कि जो लोग फि़ल्मी बैकग्राउंड से आते हैं, उनके लिए संघर्ष की परिभाषा बाहर से आए लोगों से बहुत अलग होती है।
नेपोटिज़्म है पर मेरे पास दूसरे प्रिवलेज भी हैं- स्वरा
अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी मानती हैं कि फिल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज़्म है।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘ये सही है कि मुझे उस किस्म का लॉन्च नहीं मिला जो बड़े सितारों के बच्चों को मिलता है। अगर किसी स्टार के बच्चे को आगे पहुँचने में दो साल लगते हैं, वहाँ मुझे दस साल लग जाते हैं। लेकिन मेरे पास बहुत सारे दूसरे प्रिवलेज भी हैं जो शायद किसी छोटे कस्बे से आने वाली लडक़ी के पास न हों। हर इंडस्ट्री में लोग नेपोटिज़्म का शिकार होते हैं।’
गिरीश वानखेड़े के मुताबिक अगर आर्यन ख़ान जैसे लोगों के लिए उनके माता-पिता का सहारा है, तो ऐसे कितने ही स्टार किड्स हैं जो नहीं चल पाए क्योंकि असली कसौटी टैलेंट और दर्शकों की स्वीकार्यता होती है। आर्यन खान की पहली वेब सिरीज को ही लीजिए जिसमें एक तरफ मेन रोल में गैर-फिल्मी बैकग्राउंड वाले लक्ष्य और सहर हैं तो दूसरी ओर बॉबी देओल भी हैं।
धर्मेंद्र ने अपने बेटों सनी और बॉबी को बरसों पहले धूमधाम से लॉन्च किया था। सनी बेताब के बाद कामयाब होते गए लेकिन बॉबी शुरुआती सफलता के बाद ग़ायब हो गए।
बॉबी की सफलता का ताजा क्रम उनकी दूसरी पारी का कमाल है जो उन्हें रणबीर कपूर की एनिमल जैसी फिल्मों में मिली।
रणबीर का जिक्र आया है तो कपूर ख़ानदान को फस्र्ट फैमिली ऑफ हिंदी सिनेमा कहा जाता है। पृथ्वीराज कपूर की शुरू की हुई परंपरा को उनके बेटों राज कपूर, शशि कपूर और शम्मी कपूर और बाद में ऋषि कपूर, करिश्मा और करीना कपूर ने आगे बढ़ाया।
लेकिन इसी परिवार में राजीव कपूर की भी मिसाल है। यूँ तो राज कपूर ने अपने बेटे राजीव कपूर को भी हिट फि़ल्म राम तेरी गंगा मैली से बड़ा मंच दिया था, लेकिन कुछ फि़ल्मों के बाद राजीव कपूर कहां ग़ुम हो गए किसी को पता भी नहीं चला।
बरसों बाद लोगों को उनके गुजऱ जाने की ही ख़बर मिली।
अगर संजय दत्त, अनिल कपूर, आलिया भट्ट कामयाब रहे तो राज कुमार के बेटे पुरु राज कुमार, देव आनंद के बेटे सुनील आनंद, मनोज कुमार के बेटे कुणाल गोस्वामी, माला सिन्हा, हेमा मालिनी, सुनील शेट्टी के बच्चे भी हैं जिनकी फि़ल्में नहीं चल पाईं।
‘नेपोटिज़्म की क्रूर सच्चाई’
कुछ दिनों पहले करण जौहर का एक वीडियो आया था, जिसमें उन्होंने अपने बेटे को नेपोकिड लिखी टी-शर्ट पहनाई हुई थी।
वरिष्ठ फि़ल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज इस पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘नेपोटिज़्म की क्रूर सच्चाई को मज़ाक के ज़रिए इतना हल्का बना दो कि वह अपना अर्थ खो दे। फिल्म इंडस्ट्री के इनसाइडर यही कर रहे हैं। कभी अवॉर्ड शो में मजाक उड़ाते हैं, तो कभी बेशर्मों की तरह स्वीकार कर हंसते हैं। ताकतवर हमेशा फायदे में रहता है और नेपोकिड को यह ताकत मिल जाती है। पिछली पीढ़ी ने मेहनत की है तो उसका लाभ उनके वंशजों को मिले- ऐसे तर्क गलत प्रवृत्तियों को उचित ठहरा देते हैं।’
नेपोटिज़्म की बहस सुशांत सिंह की मौत के बाद ज़्यादा तेज हुई। जब निर्माता जीपी सिप्पी ने अपने बेटे रमेश सिप्पी को 70 के दशक में लॉन्च किया और बाद में उन्होंने शोले बनाई तो नेपोटिज़्म की बहस उठ खड़ी हुई हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।
यहां तक कि जब साल 2000 में ऋतिक रोशन क्रेज़ बनकर उभरे तो भी ये शब्द कोई ख़ास सुनने में नहीं आया।
चिंपैंजी हर दिन कम से कम एक ड्रिंक के बराबर अल्कोहल का उपभोग करते हैं. एक रिसर्च में यह बात सामने आई है. इस खोज से इंसानों में नशे के प्रति आकर्षण को समझने में मदद मिल सकती है.
डॉयचे वैले पर निखिल रंजन का लिखा-
चिंपैंजी जैसे वन्यजीवों को यह अल्कोहल पके और सड़े (फर्मेंटेड) फलों से मिलता है. यह रिसर्च अफ्रीका के जंगलों में की गई जहां चिंपैंजी रहते हैं. इस रिसर्च के नतीजों से उन सिद्धांतों को बल मिलता है जिसके मुताबिक इंसानों को अल्कोहल के स्वाद का उनके पूर्वजों यानी कपियों से पता चला था. सिर्फ स्वाद ही नहीं बल्कि जहरीले होने के बावजूद उन्हें पचाने की क्षमता भी शायद इन्हीं जीवों से होते हुए इंसानों तक पहुंची थी.
बीयर का एक पिंट रोजाना
रिसर्चरों ने उन फलों को भी जमा किया जिन्हें चिंपैंजी खाते हैं. इसके बाद उनमें अल्कोहल की मात्रा का पता लगाया गया. इन फलों में मौजूद चीनी के फर्मेंटेशन से अल्कोहल बनता है. रिसर्चर इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इंसानों के पूर्वज और शुरुआती रिश्तेदार अल्कोहल का उपभोग रोजाना करते हैं. अल्कोहल की यह मात्रा कम नहीं है. बड़ी मात्रा में जिन फलों को चिंपैंजी खाते हैं उसके आधार पर रिसर्चरों का कहना है कि हर दिन करीब 14 ग्राम अल्कोहल की मात्रा उनके शरीर में जाती है.
उनके शरीर के आकार के हिसाब से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि चिंपैंजी हर दिन एक पाइंट बीयर पी रहे हैं. साइंस एडवांसेज जर्नल में छपी रिसर्च रिपोर्ट के प्रमुख लेखक आलेक्से मारो का कहना है, "यह अल्कोहल की गैरमामूली मात्रा नहीं है, लेकिन यह बेहद हल्की और ज्यादातर भोजन से जुड़ी होती है."
"नशे में धुत्त बंदर"
मारो ने यह भी कहा, "हमने पहली बार वास्तव में हमारे सबसे करीबी जीवित रिश्तेदारों को शरीर के लिहाज से अल्कोहल की अहम मात्रा नियमित रूप से रोज उपभोग करते देखा है." करीब एक दशक पहले अमेरिकी जीवविज्ञानी रॉबर्ड डुडले ने "नशे में धुत्त" बंदर का सिद्धांत दिया था. नई रिपोर्ट उसी सिद्धांत का समर्थन करती है. रॉबर्ट डुडले नई रिसर्च रिपोर्ट के भी सहलेखक हैं.
इस सिद्धांत के अनुसार इंसानों ने अल्कोहल को पसंद करना और उसे पचाने की क्षमता हमारे पूर्वज कपियों से हासिल किया था जो रोजाना फल खाते थे और इस तरह से उनके शरीर में अल्कोहल जाता था. मारो का कहना है, "नशे में धुत्त बंदर वाले सिद्धांत की सच्चाई सामने आ रही है. इसका नाम दुर्भाग्यपूर्ण है. इसका बेहतर नाम होगा इवॉल्यूशनरी हैंगओवर."
अल्कोहल वाले फल चुनते चिंपैंजी
विशेषज्ञों ने इस सिद्धांत पर शुरू में संदेह जताया था. हालांकि हाल के वर्षों में इसमें लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है. खासतौर से जब कुछ रिसर्चों ने दिखाया है कि प्राचीन वानर सड़े हुए फल खाते थे जिसमें उन्हें कुछ चुनिंदा मकरंद और अल्कोहल की अलग अलग मात्रा मिलती थी. वे खासतौर से ज्यादा अल्कोहल की मात्रा वाले फलों को चुनते थे.
जर्मनी के हनोवर में डार्टमाउथ कॉलेज में एंथ्रोपोलॉजी और इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी के प्रोफेसर नाथानील डॉमिनी ने इस रिसर्च का स्वागत किया है. उन्होने यह भी कहा कि, "यह उष्णकटिबंधीय फलों में इथेनॉल की मौजूदगी पर चली आ रही बहस को खत्म कर देगा." हालांकि उन्होंने यह भी कहा है कि इस रिसर्च ने गैरमानव प्राचीन जीवों के लंबे समय तक कम मात्रा में इथेनॉल के संपर्क में आने की वजह से जीवविज्ञानी और व्यावहारिक नतीजों पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं. इसके अलावा इस सवाल का जवाब भी नहीं मिला है कि क्या चिंपैंजी सक्रियता से ऐसे फलों की खोज करते हैं या फिर बस मिलने पर खा लेते हैं.
- शम्भूनाथ
कल एक दृश्य देखकर मेरी यह धारणा और मजबूत हुई कि खंड–खंडवादी जन उभार, आंदोलन और विमर्श से आम भारतीय जीवन की बड़ी समस्याएं और गंदगियां ढकी और बनी रह जाती हैं और वे विकराल रूप धारण करती जाती हैं।
स्त्रियां केवल तब उत्तेजित होती हैं जब यौन उत्पीड़न हो या कोई पितृसत्तात्मक हमला होता है। बाकी मुद्दों पर वे सामान्यतः सोई रहती हैं। दलित केवल तब उत्तेजित होते हैं जब कोई मनुवादी प्रसंग हो। आदिवासी जल–जंगल–जमीन के मुद्दे पर उत्तेजित होकर बाकी सवालों पर सामान्यतः सोए रहते हैं!
हिंदुत्ववादियों के संदर्भ में कुछ कहा जाए तो वे मंदिर–मस्जिद, गोरक्षा या पाकिस्तान–चीन के मुद्दे के अलावा अन्य मुद्दों पर जरा भी उत्तेजित नहीं होते। भ्रष्टाचार के मामले में भी ये सेलेक्टिव हैं। देखा जा सकता है कि कुछ समय से स्त्री, दलित और आदिवासियों पर हिंदुत्ववादी उभार का प्रभाव वृद्धि पर है और उनके विमर्शों को हिंदुत्ववादियों ने निगल लिया है।
मुझे भारतेंदु के नाटक 'भारत जननी’ की ये पंक्तियां याद आ रही है कि भारत माता एक को उठाती है तो दूसरा सो जाता है, दूसरे को उठाती है तो पहला सो जाता है। इस तरह से बारी–बारी से सभी सो जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की आज यही दशा है। और हिंदीतर क्षेत्र का मानसिक हथियार इस समय प्रांतीयतावाद है।
कल जिस दृश्य से मेरी उपर्युक्त धारणा पक्की हुई, वह कोलकाता के आर जी कर अस्पताल का है जहां एक डॉक्टर लड़की के यौन उत्पीड़न और हत्या के बाद ( अभया कांड) निर्भया कांड की तरह ही जबरदस्त नागरिक आंदोलन उभरा था और आंदोलन की लहरें उत्ताल पर थीं।
-अपूर्व गर्ग
हिमाचल हाईकोर्ट ने जो कहा वो सुनिए ‘Shimla Town is losing its touch and culture of walking with "umbrella and jacket’
कोर्ट ने टिप्पणी की कि शिमला अपनी ‘छाता और जैकेट’ के साथ पैदल चलने की संस्क=ति खो रहा है और मसूरी जैसी स्थिति में आ रहा है।
कोर्ट ने कम कहा पर जो हालात हैं वो शिमला के लोग समझते हैं।
25 बरस पहले शिमला ने मुझे इतना सम्मोहित किया कि इसके कुछ बरसों बाद मैंने इसके प्रांगण के एक छोटे कोने में खुद को बसा लिया । पहाड़ों की रानी के इस सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया था ।।आज भी अपलक निहारता हूँ और कभी तृप्त न हो पाता हूँ ।
पहाड़ों, शिखरों की आकाशचुम्बी ख़ूबसूरती को निहारते देवदार और चीड़ के बीच शीतल वायु के सुरभित झोंकों से मन पुलकित हो उठता है पर आजकल मन घबराता है।
जहाँ हमारा फ्लैट है वहाँ बेधडक़ ,बेसुध होकर बरसों से घूमते रहे पर अब तस्वीर बदल चुकी ।कारों का बढ़ता रैला, शोर आपकी शान्ति ही नहीं भंग करता बल्कि आपको रौंद सकता है । खासकर ओल्ड शिमला में पहाड़ों पर चलने का आनंद ,सुकून छिन चुका है।
ये तस्वीर सिर्फ शिमला की ही नहीं बल्कि हिमाचल की है , देश के पहाड़ों की है। अभी एक आंकड़ा मिला 'हिमाचल की जनसंख्या 70 लाख और हर साल पर्यटक आ रहे हैं 1.5 करोड़
क्या इन्हीं पर्यटकों के आगमन के लिए पहाड़ों को काट-छांटकर फोरलेन नहीं बनाये जा रहे?
गाडिय़ों के काफि़ले दर काफि़ले हज़ारों -लाखों की संख्या में पहाड़ों पर धुआँ उड़ाते पर्यावरण को रौंद रहे , पर किसी को कोई फिक्र नहीं , क्यों?
और कितनी तबाही देखनी है ? क्या वक़्त ऐसा नहीं आ चुका जब पहाडिय़ों को अपने पहाड़ों के लिए खड़ा हो जाना चाहिए ?
टूरिज्म किस कीमत पर चाहिए ? पहाड़ समतल हो रहे ,तापमान बढ़ रहा , वर्षा प्रभावित हो रही , स्नो फॉल से लगातार महरूम हो रहे , चट्टानें गेंद की तरह लुढक़ रहीं। और कितनी गाडिय़ां ,कितने टूरिस्ट चाहियें ?
जऱा पलट कर देखिये कितने लोगों को खोया , कितनी सम्पत्ति मिट्टी में मिल गई, कितने आंसू बहते हुए पहाड़ों को रुला गए।
नींद टूटनी चाहिए ।
जिस दिन पहाड़ ‘हृह्र ’ कहेगा तस्वीर बदलेगी। जिस दिन होटल व्यवसायी ‘हृह्र’ कहेंगे ये सबसे बड़ा जवाब होगा क्योंकि होटल वालों की दुहाई देकर विनाशकारी पर्यटन की नीति चलती है।
पहाड़ों में इतिहास के सबसे बड़े हादसे उत्तरकाशी से लेकर केदारनाथ , हिमाचल में जगह -जगह देखिये क्या हुआ ?
पर कोई सबक नहीं सीखा जा रहा।
बात शिमला से शुरू हुई। आज शिमला की सडक़ें कारों से ढकी हुई हैं।
-अशोक पांडेय
भरवां परांठों का अविष्कार जरूरत से ज्यादा प्यार करने वाली किसी माँ ने इसलिए किया होगा कि उसका बेटा उसके जीते जी उसे छोडक़र परदेस न चला जाए।
चालुक्य राजा सोमेश्वर तृतीय की किताब ‘मानसोल्लास’ में बेसन और गुड़ का मिश्रण भर कर बनाए जाने वाले पूरण नाम के परांठों का जि़क्र है। भोजन के इतिहासकारों से पूछिए तो कोई परांठे का मूलस्थान पेशावर को बतलाता है कोई कश्मीर को। बाज़ लोग इसे गुजरात और महाराष्ट्र से निकला बताते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में परांठे को राष्ट्रीय नाश्ते के रूप में मान्यता निश्चय ही आज से तीन-साढ़े तीन सौ साल पहले मिली होगी जब ईस्ट इंडिया कंपनी के किसी जहाज में कोई अंग्रेज़ या पुर्तगाली व्यापारी अपने साथ आलू की बोरियां लेकर कालीकट के तट पर उतरा था। उसके पहले आलू केवल सुदूर लातिन अमेरिकी मुल्क पेरू में खाया जाता था।
हमारे देश में पहली बार परांठे में आलू का भरा जाना मानव जाति के इतिहास का उतना ही बड़ा मरहला है जितना हमारे पूर्वजों द्वारा पहली बार धातु का इस्तेमाल।
पेरू का आलू भारत से पहले यूरोप पहुंचाया जा चुका था जहाँ शुरू में उसे पशुओं के भोजन के रूप में अपनाया गया। सभ्य-सुसंस्कृत घरों की खाने की मेजों पर वह पहुंचा भी तो उबाल कर उसका कचूमर भर बनाया गया और नाम दिया गया मैश्ड पोटैटोज़।
कई दफ़ा कल्पना करता हूँ कि अंग्रेज़ों को अगर पता चल जाए कि आलू के साथ हमारी रसोइयों में क्या-क्या बर्ताव किये जाते हैं तो वहां के सामाजिक ताने-बाने का पता नहीं क्या हश्र होगा। मिसाल के लिए शादी शायद उन्हीं लड़कियों की हो सकेगी जिन्हें आलू भरकर ब्रैड पकौड़ा बनाना आता हो या जो हर तरह की नॉन-वेज डिश में आलू खपाने का हुनर जानती हों।
हमारी रसोइयों की रचनात्मकता का लोहा संसार यूं ही नहीं मानता। गुड़-बेसन से लेकर आलू भरे जाने के बाद से परांठों का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने की दरकार रखता है।
भूसे को छोडक़र दुनिया का कोई ऐसा खाद्य पदार्थ नहीं बचा जिसे आटे की लोई में भरकर परांठे की सूरत न मिली हो। चाऊमीन परांठा और पित्ज़ा परांठा जैसे शाहकार भी रचे जा चुके हैं।
हाल के वर्षों में चिकित्सा के क्षेत्र में किये जाने वाले शोध परांठों के सबसे बड़े दुश्मन बन कर उभरे हैं जो चेताते हैं कि ज्यादा परांठे खाने से आदमी की ‘दिल जिगर दोनों घायल हुए’ वाली हालत हो जाती है। डॉक्टर तो यह भी कहने लगे हैं कि परांठे खाओ पर बगैर घी-मक्खन के।
मेरे कई सारे दोस्त इन डॉक्टरों के छलावों में आ चुके हैं। उनके घरों में परांठे पकाए ही नहीं जाते और ओट्स-स्प्राउट्स जैसी शर्मनाक चीजों का नाश्ता होता है। हां कभी होटल-रेस्तरां में नाश्ता करने का इत्तफाक होता है तो परांठे सर्व किये जाते ही वे बैरे से नैपकिन मंगवाते हैं ताकि उनकी मदद से परांठों का घी सोखा जा सके। बताइये! आदमी का ईमान भी कोई चीज़ होती है।
दिल्ली में बीएमडब्ल्यू गाड़ी के साथ हुए हादसे में वित्त मंत्रालय के एक अधिकारी घायल हो गए. बीएमडब्ल्यू की ड्राइवर उन्हें इलाज के लिए 19 किमी दूर स्थित एक अस्पताल लेकर गईं. अब यही उनकी सबसे बड़ी भूल साबित हो रही है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
दिल्ली में 14 सितंबर को हुए इस हादसे में जान गंवाने वाले नवजोत सिंह की पत्नी संदीप कौर ने बीएमडब्ल्यू कार की ड्राइवर गगनप्रीत पर कई आरोप लगाए हैं. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, संदीप का कहना है कि उन्होंने कई बार गगनप्रीत से कहा था कि वे उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए किसी नजदीकी अस्पताल में ले चलें लेकिन गगनप्रीत जानबूझकर उन्हें काफी दूर एक छोटे अस्पताल में लेकर गईं.
वहीं, गननप्रीत ने पूछताछ के दौरान पुलिस को बताया कि वह घबरा गई थीं और केवल उसी अस्पताल के बारे में जानती थी क्योंकि कोरोना महामारी के दौरान वहां उनके बच्चों का इलाज हुआ था. इसके बाद पुलिस को जांच के दौरान पता चला कि उस अस्पताल का मालिक गगनप्रीत का रिश्तेदार है, शायद इसलिए ही गगनप्रीत घायलों को वहां लेकर गई थी.
टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, इस मामले में पुलिस ने गगनप्रीत पर भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के तहत, गैर-इरादतन हत्या, सबूतों से छेड़छाड़ और लापरवाही से गाड़ी चलाने के आरोप लगाए हैं. बुधवार को कोर्ट ने उन्हें 27 सितंबर तक के लिए न्यायिक हिरासत में भेज दिया. इसके अलावा, उस अस्पताल के रिकॉर्ड भी पुलिस ने जांच के लिए जब्त कर लिए हैं.
नजदीकी अस्पताल ले जाना क्यों है जरूरी
सड़क सुरक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले हरमन सिंह सिद्धू भी इसे गगनप्रीत की बड़ी गलती बताते हैं. वे कहते हैं, "एक तरफ प्लैटिनम मिनट और गोल्डन आवर की बात होती है, जिसका मतलब होता है कि ऐसी दुर्घटना की स्थिति में घायल को सबसे नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर पहुंचाया जाए. लेकिन आप (गगनप्रीत) उन्हें दिल्ली जैसी जगह में करीब 20 किलोमीटर दूर लेकर जा रहे हो, इसका मतलब है कि इसमें कम से कम 35 से 40 मिनट लगे होंगे. अगर उन्हें कहीं नजदीकी अस्पताल में ले जाया जाता तो इस बात की काफी संभावना है कि वो अधिकारी आज जिंदा होते.”
सिद्धू 1996 में खुद एक सड़क दुर्घटना का शिकार हुए थे, जिसके बाद उन्होंने सड़क सुरक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ‘अराइव सेफ' एनजीओ की शुरुआत की थी. वे कहते हैं, "घायल को नजदीकी अस्पताल ले जाना इसलिए जरूरी होता है क्योंकि वहां मौजूद डॉक्टर और स्टाफ को आपातकालीन मामलों को संभालना आता है. अधिक खून बहने या सांस लेने में समस्या होने पर वे प्राथमिक उपचार कर सकते हैं और समस्या को देखते हुए आगे के इलाज के लिए सही अस्पताल का सुझाव दे सकते हैं.
क्या होता है गोल्डन आवर और प्लैटिनम मिनट
दुर्घटना होने के बाद के पहले एक घंटे को गोल्डन आवर कहा जाता है. अगर इस समय घायल को उचित मदद मिल जाती है तो उसके जीवित रहने की संभावना काफी बढ़ जाती है, इसलिए घायल को जल्द से जल्द नजदीकी अस्पताल पहुंचाना जरूरी होता है. वहीं, हादसे के बाद के पहले 10 मिनटों को प्लैटिनम 10 मिनट कहा जाता है. यह समय घायल को अस्पताल ले जाने और इलाज शुरू करने के लिहाज से काफी जरूरी होता है.
हालांकि, सिद्धू इस मामले में सावधानी बरतने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं, "अगर घायल हुए व्यक्ति के सिर या रीढ़ की हड्डी में चोट लगती है और उसे थोड़ा भी गलत तरीके से हिलाया जाता है तो उसकी चोट और बढ़ सकती है. इसलिए जरूरी है कि घायल को सीधा लिटाया जाए ताकि उसके दिमाग में खून की आपूर्ति सामान्य रहे.”
सिद्धू यह भी कहते हैं कि अगर एंबुलेस कम समय में आने वाली हो तो घायल को स्ट्रेचर पर एंबुलेंस से ही ले जाना चाहिए क्योंकि सामान्य गाड़ी में झटके भी ज्यादा लग सकते हैं और समस्या बढ़ सकती है. उन्होंने आगे कहा कि एंबुलेंस के ना आने पर पुलिस की पीसीआर गाड़ी भी एक विकल्प हो सकती है क्योंकि उन्हें भी ऐसी घटनाओं को संभालने का प्रशिक्षण मिला होता है.
शेंगेन वीजा के लिए भारतीयों छात्रों में होड़ बढ़ रही है। ऐसे में वीजा अपॉइंटमेंट और आवेदन खारिज होने की दर, दोनों बढ़ते जा रहा हैं। आखिर भारतीय छात्रों को यूरोप के लिए शेंगेन वीजा हासिल करने में क्या दिक्कतें आती हैं।
डॉयचे वैले पर सोनम मिश्रा का लिखा-
दूसरे देश पढऩे जाना हो या किसी काम के सिलसिले में, सबसे जरूरी चीज है वीजा। लेकिन शेंगेन वीजा के लिए आवेदन खारिज होने की सूची में भारतीय पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर आते हैं। 2024 में वीजा आवेदन खारिज होने के कारण भारतीय आवेदकों को 136 करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ा। यूरोपीय आयोग के अनुसार 2024 में भारत के सभी शेंगेन वीजा का लगभग 12 फीसदी आवेदन केवल जर्मनी के लिए था। इतना ही नहीं जर्मनी के लिए वीजा का सबसे अधिक आवेदन करने वाले तीन देशों में चीन और तुर्की के बाद अब भारत है।
पिछले साल शेंगेन वीजा के लिए भारत से कुल 11,08,239 आवेदन किए गए। जिसमें से लगभग 15 फीसदी यानी 1,65,266 आवेदन खारिज कर दिए गए। 2025 में भारतीयों के लिए शेंगेन वीजा की फीस लगभग 90 यूरो यानी 9,100 रूपये है। पर वीजा खारिज होने पर इस में से एक भी रुपया वापस नहीं मिलता। ऐसे में सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, छात्र, जो पहले ही जद्दोजहद करके एडमिशन से लेकर फीस और टाइम पर वीजा आ जाने की उम्मीद में रहते हैं। एक तरफ बाहर जाकर पढऩे का खर्च पहले ही काफी भारी होता है और अगर ऐसे में वीजा की प्रक्रिया अटक जाए तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं।
छात्रों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत
भारत में जर्मन दूतावास के अनुसार, जर्मनी भारतीय छात्रों के लिए शिक्षा के लिए पसंदीदा देश बनता जा रहा है। 2025 में छात्र वीजा आवेदनों में 35 फीसदी की रिकॉर्ड बढ़ोतरी हुई है। जिस कारण जर्मनी में भारतीय छात्रों की संख्या 2024 में 46,000 से बढक़र 2025 में 54,000 हो गई है। और अनुमान है कि 2030 यह आंकड़ा बढ़ कर 1.14 लाख तक पहुंच सकता है।
इस बढ़ती रुचि के कारण अब सरकारी विश्वविद्यालयों में दाखिले और साथ ही साथ वीजा अपॉइंटमेंट के लिए भी प्रतियोगिता पहले से कई गुना बढ़ गई है। अक्टूबर और मार्च के सत्रों में पहले से कहीं ज्यादा आवेदन आ रहे हैं। जिस कारण छात्रों के लिए वीजा पाना पहले से बहुत ज्यादा मुश्किल हो रहा है।
समय रहते आवेदन करना जरूरी
24 साल के सौरभ सुमन को पिछले साल हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी में दाखिला मिला। लेकिन वीजा समय पर ना मिलने के कारण उनका एक साल बर्बाद हो गया। इस साल वह वीजा हासिल करने की कोशिश में दोबारा लगे हुए हैं ताकि इस साल कम से कम वह समय पर अपने कोर्स के लिए जर्मनी पहुंच जाएं। जर्मन कॉन्सुलेट में काम करने वाली एक सहायक वीजा अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि ऐसे में जरूरी है कि वीजा के लिए सही समय पर आवेदन किया जाए। आवेदन ज्यादा देर से नहीं करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है कि आवेदन समय से पहले भी ना किया जाए। दोनों ही हालात में वीजा खारिज होने का खतरा बढ़ जाता है।
कहां से कर रहे हैं अप्लाई यह भी जरूरी
शेंगेन वीजा या सी-टाइप वीजा यानी 90 दिन या उससे कम दिन के वीजा के लिए प्रोसेसिंग समय 15 दिन का होता है। लेकिन यह समय तब शुरू होता है, जब पूरी तरह भरी एप्लीकेशन फॉर्म जर्मन कॉन्सुलेट में पहुंच गई है। ठीक इसी तरह, नेशनल वीजा या डी वीजा यानी 90 दिन से अधिक समय के वीजा के लिए प्रोसेसिंग समय केस के अनुसार निर्भर करता है। जैसे स्टूडेंट वीजा के लिए बारह हफ्ते यानी तीन महीने तक का वक्त भी लग सकता है। यह तब जब स्टूडेंट ने पूर्ण एप्लीकेशन सभी जरूरी कागजात के साथ वक्त रहते जमा किया हो।
अधिकारी ने बताया, ‘यह भी जरूरी है कि आवेदक कहां से आवेदन कर रहे हैं और वहां से जर्मन मिशन की दूरी कितनी है। अगर भारत से कोई शेंगेन वीजा के लिए आवेदन कर रहा है और भारत के सभी शेंगेन वीजा की प्रोसेसिंग मुंबई में होती है। ऐसे में आपका पासपोर्ट आपके शहर से मुंबई जाएगा और वापस आएगा, जो कि समय का अंदाजा लगाने में मददगार हो सकता है।’
भारत सरकार ने देश से नक्सलवाद के खात्मे के लिए 31 मार्च, 2026 की समयसीमा तय की है. सालभर में 350 से अधिक नक्सलियों की मौत हुई है और सैकड़ों नक्सलियों ने हथियार भी डाल दिए हैं. क्या यह नक्सलवाद के खात्मे का संकेत है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
सुरक्षाबलों ने झारखंड में तीन शीर्ष नक्सल नेताओं को मार गिराने की जानकारी दी है. न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक, 15 सितंबर को हजारीबाग जिले में एक मुठभेड़ में इन नक्सलियों की मौत हुई. इन तीनों पर कुल मिलाकर एक करोड़ 35 लाख रुपये का इनाम था. इनमें से एक सहदेव सोरेन, नक्सलियों की केंद्रीय समिति का सदस्य था और उस अकेले पर एक करोड़ रुपये का इनाम था.
यह सुरक्षाबलों को नक्सलियों के खिलाफ मिल रही सफलता का एक ताजा उदाहरण है. इससे पहले, 13 सितंबर को प्रतिबंधित संगठन सीपीआई (माओवादी) के वरिष्ठ नेताओं में शामिल सुजाता ने तेलंगाना में पुलिस महानिदेशक के सामने आत्मसमर्पण किया था. द हिंदू की खबर के मुताबिक, आत्मसमर्पण करने से पहले सुजाता ने 43 सालों तक अंडरग्राउंड रहकर काम किया था.
साल भर में मारे गए 350 से अधिक माओवादी
छत्तीसगढ़ के बस्तर रेंज के आईजी पी सुंदरराज ने 16 जुलाई को मीडिया को सीपीआई (माओवादी) द्वारा जारी किए गए एक पत्र के बारे में बताया था. सुंदरराज के मुताबिक, इस पत्र में सीपीआई (माओवादी) ने स्वीकार किया था कि पिछले साल भर में देशभर में हुई मुठभेड़ों में उसके 350 से ज्यादा सदस्यों ने जान गंवाई है. इनमें केंद्रीय समिति के चार और राज्य स्तरीय समिति के 15 सदस्य शामिल थे.
द हिंदू अखबार की खबर के मुताबिक, सुरक्षाबलों को दण्डकारण्य क्षेत्र में सबसे ज्यादा सफलता मिली है, जो बस्तर रेंज के जिलों और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में फैला हुआ है. पुलिस आईजी सुंदरराज के मुताबिक, अकेले इसी इलाके में पिछले साल भर में 280 से ज्यादा माओवादी मारे गए हैं. यानी करीब 80 फीसदी नक्सली अकेले इसी इलाके में मारे गए हैं.
सुंदरराज ने डीडब्ल्यू हिंदी को बताया कि दण्डकारण्य क्षेत्र पिछले चार-पांच दशकों से नक्सली आंदोलन का केंद्र रहा है. उनके मुताबिक, घने जंगल और दुर्गम क्षेत्र होने की वजह से यह नक्सलियों की पसंद रहा है. उन्होंने बताया कि पिछले कुछ सालों में राज्य और केंद्र सरकार दोनों ने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है कि इस क्षेत्र का उपयोग नक्सलियों द्वारा सुरक्षित ठिकाने या छिपने के स्थान के रूप में ना किया जाए.
पुलिस और प्रशासन की रणनीति
पिछले हफ्ते छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में सुरक्षाबलों ने 10 नक्सलियों का मारने की बात कही थी. इनमें नक्सलियों का एक सीनियर कमांडर भी शामिल था. अगस्त के आखिरी हफ्ते में छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में 30 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था. इससे पहले, 14 अगस्त को सुरक्षाबलों ने 1.16 करोड़ रुपये इनाम वाले दो नक्सलियों को मारने का दावा किया था.
आईजी सुंदरराज बताते हैं कि नक्सलियों के खिलाफ बढ़त हासिल करने के लिए चार अलग-अलग क्षेत्रों में काम किया जा रहा है. उन्होंने बताया कि सुरक्षा अभियानों की पहुंच बढ़ाई जा रही है, सुरक्षाबलों के कैंपों को विकास केंद्र के तौर पर विकसित किया जा रहा है, सड़कें बनाकर कनेक्टिविटी बढ़ाई जा रही है और स्थानीय समुदायों के अंदर सुरक्षाबलों के प्रति भरोसा पैदा करने के लिए भी उपाय किए जा रहे हैं.
उन्होंने डीडब्ल्यू हिंदी से कहा, "पहले भी हम बहुत सारे अभियान चला रहे थे लेकिन पिछले कुछ सालों में हमारे ऑपरेशनल बेस कैंपों की संख्या बढ़ी है, जिससे अब अभियानों की पहुंच बढ़ गई है.” उन्होंने बताया कि सुरक्षाबलों के बेस कैंपों को विकास केंद्रों के रूप में भी विकसित किया जा रहा है, जहां आसपास के इलाकों में रहने वाले लोगों को राशन की दुकानें, प्राइमरी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाई जाती हैं, जिससे स्थानीय लोगों में भरोसा बढ़ता है.
क्या बदल रहा है स्थानीय लोगों का नजरिया
नरेश मिश्रा छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय से बस्तर को कवर करते रहे हैं. वे कहते हैं कि यह नक्सलवाद के लिए बहुत मुश्किल का दौर है और नक्सल संगठनों ने अपने बयानों में इस बात को कबूल किया है. नरेश मिश्रा ने डीडब्ल्यू को बताया, "आत्मसमर्पण करने वाले कई नक्सलियों का कहना है कि वे इसलिए हथियार डाल रहे हैं क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि वे लंबे समय तक इस लड़ाई को जारी रख पाएंगे."
नरेश मिश्रा कहते हैं कि यह एक बदलाव का दौर है. उनके मुताबिक जब नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाबलों के कैंप खुलने शुरू हुए तो इनका बहुत विरोध हुआ, लेकिन इनकी वजह से स्थानीय लोगों को सुविधाएं भी मिलने लगीं. उन्होंने यह भी कहा कि स्थानीय लोगों के लिए सरकारी सुविधाएं तो बढ़ रही हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता में समय लग रहा है.
हालांकि, मिश्रा सरकार के इस दावे पर संदेह करते हैं कि नक्सलवाद 31 मार्च, 2026 तक पूरी तरह खत्म हो जाएगा. वे कहते हैं, “भरोसे की जो समस्या लंबे समय से है, उसमें कुछ कदम सरकार आगे बढ़ी है. लेकिन गांवों में और नए क्षेत्रों में पूरी तरह से भरोसा कायम होने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा और अगर ऐसा हो पाया तभी एक तरह से नक्सलवाद का खात्मा होगा, जो मुझे नहीं लगता कि 2026 तक हो पाएगा”.
80 फीसदी कम हुई वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा
भारत की केंद्र सरकार ने हालिया समय में नक्सल आंदोलन के खिलाफ बेहद कड़ा रुख अपनाया है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने देश से नक्सलवाद के खात्मे के लिए 31 मार्च, 2026 की समयसीमा तय की है. उन्होंने इसी महीने की शुरुआत में कहा था कि जब तक सभी नक्सली आत्मसमर्पण नहीं कर देते, पकड़े नहीं जाते या मारे नहीं जाते, तब तक सरकार चैन से नहीं बैठेगी.
केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने 12 अगस्त को लोकसभा को अपने लिखित जवाब में बताया था कि देश में वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसा में कमी आई है. उन्होंने बताया कि साल 2010 से लेकर 2024 तक, वामपंथी उग्रवाद से संबंधित हिंसक घटनाओं में 81 फीसदी की कमी आई है और इनके परिणामस्वरूप होने वाली आम नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों की मौतों में 85 फीसदी की कमी आई है.
नित्यानंद राय ने अपने जवाब में बताया कि साल 2013 में कुल 126 जिले वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित थे और अप्रैल 2025 में इनकी संख्या घटकर 18 पर आ गई है. उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय नीति और एक्शन प्लान 2015 को अच्छी तरह से लागू करने की वजह से हिंसा में लगातार कमी आई है और वामपंथ उग्रवाद के भौगोलिक विस्तार में भी कमी आई है.
इसके साथ ही, आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की संख्या भी बढ़ी है. प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के मुताबिक, साल 2024 में करीब 930 नक्सलियों ने समर्पण किया था. वहीं, साल 2025 के शुरुआती चार महीनों में ही 700 से ज्यादा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण कर दिया. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने 12 जुलाई को एक्स पर बताया था कि पिछले 15 महीनों में छत्तीसगढ़ में 1,500 से ज्यादा नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है.
ब्रेन ईटिंग अमीबा की वजह से जानलेवा बीमारी होती है. इससे संक्रमित होने के बाद इंसान का बचना बेहद मुश्किल हो जाता है. हालांकि, यह बीमारी संक्रामक नहीं है, यानी एक से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा का लिखा-
एक इंसान के शरीर में औसतन 30 हजार अरब से भी ज्यादा कोशिकाएं होती हैं, वहीं, अबीमा एक ऐसा जीव होता है, जिसमें सिर्फ एक कोशिका होती है. इसी एक कोशिका के सहारे अमीबा अपना खाना ढूंढ़ता है, उसे खाता है, पचाता है और फिर अपशिष्ट पदार्थ बाहर निकाल देता है. अक्सर जलाशयों में पाए जाने वाले अमीबा की एक प्रजाति ने इंसानों में सेहत को लेकर एक बड़ा डर पैदा कर दिया है.
दरअसल, भारत के केरल राज्य में इस साल ‘ब्रेन ईटिंग अमीबा' के 65 से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं और इसके चलते 18 लोगों की मौत हो चुकी है. इस अमीबा को वैज्ञानिक भाषा में ‘नेग्लीरिया फाउलराए' कहा जाता है. इसे ब्रेन ईटिंग अमीबा इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह दिमाग में संक्रमण कर, दिमाग के टिशू यानी ऊतकों को नष्ट कर सकता है.
इंसानों में कैसे पहुंचता है यह अमीबा
अमेरिका के ‘रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र' (सीडीसी) की वेबसाइट के मुताबिक, ब्रेन ईटिंग अमीबा ताजे पानी की झीलों, जलाशयों, नदियों, गर्म झरनों और मिट्टी में पनपता है. जिन स्विमिंग पूलों का ठीक ढंग से रखरखाव नहीं किया जाता, वहां भी इस अमीबा के पनपने का खतरा होता है.
जिस पानी में यह अमीबा मौजूद होता है, उसमें नहाना बेहद खतरनाक होता है. दरअसल, नहाते समय यह अमीबा नाक के जरिए आपके शरीर में प्रवेश कर सकता है और फिर दिमाग तक पहुंच सकता है. इसके चलते, इंसानों में होने वाली बीमारी को प्राइमरी अमीबिक मैनिंगोइंसेफेलाइटिस (पीएएम) कहा जाता है. यह स्थिति बेहद दुर्लभ लेकिन जानलेवा होती है.
केरल में पिछले साल मई से लेकर जुलाई तक पीएएम के चार मामले सामने आए थे और चारों मामलों में पीड़ित बच्चों की मौत हो गई थी. इस साल सामने आए 67 मामलों में से 18 लोगों की मौत हो चुकी है. सीडीसी के मुताबिक, अमेरिका में 1962 से 2024 तक इसके 167 मामले सामने आए और उनमें से सिर्फ चार लोग ही जीवित बच सके.
किन देशों में पाया जाता है यह अमीबा
अमेरिका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट पर पिछले साल इस अमीबा के बारे में एक अध्ययन छपा था. इसके मुताबिक, अंटार्कटिका को छोड़कर दुनिया के हर देश में इस अमीबा की मौजूदगी दर्ज की जा चुकी है. 1965 से 2018 के बीच, दुनिया भर में इसके करीब 380 मामले ही रिपोर्ट किए गए. जाहिर है कि यह काफी दुर्लभ है लेकिन साथ ही खतरनाक भी.
इस अध्ययन के मुताबिक, यह अमीबा इंसानों में तब प्रवेश करता है, जब इसका प्रजनन चक्र चल रहा होता है. इससे संक्रमित होने के बाद, लक्षण दिखने में एक से 14 दिन का वक्त लग सकता है. हालांकि, इस अमीबा से संक्रमित पानी को पीने से बीमारी नहीं फैलती क्योंकि उसके लिए पानी का नाक में जाना जरूरी होता है. इसके अलावा, यह बीमारी संक्रामक भी नहीं है, यानी एक से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती है.
दिमाग में जाकर क्या करता है यह अमीबा
सीडीसी के मुताबिक, ब्रेन ईटिंग अमीबा आमतौर पर बैक्टीरिया खाता है, लेकिन जब यह अमीबा इंसानों में प्रवेश करता है तो यह उनके दिमाग को खाने के स्रोत की तरह इस्तेमाल करता है. कई अध्ययनों में बताया गया है कि यह अमीबा तंत्रिका कोशिकाओं द्वारा संवाद के लिए छोड़े जाने वाले रसायनों के प्रति आकर्षित होता है. इसके चलते वह नाक में घुसने के बाद, ओलफैक्ट्री नर्व से होते हुए दिमाग के सामने वाले हिस्से में पहुंच जाता है.
दिमाग में जाकर यह अमीबा दिमाग के ऊतकों को तो नष्ट करता है, साथ ही शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर भी हमला करता है. दरअसल, दिमाग में संक्रमण होने से शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली एक मजबूत प्रतिक्रिया देती है. इस प्रतिक्रिया से यह अमीबा तो नहीं मरता है लेकिन दिमाग में गंभीर सूजन हो जाती है.
इसके शुरुआती लक्षणों में उल्टी, बुखार, सिरदर्द और सुस्ती आदि शामिल हैं. बीमारी के गंभीर होने पर भ्रमित होने, गर्दन अकड़ने, रोशनी से डर लगने और दौरे आने जैसे लक्षण दिखने लगते हैं. सीडीसी के मुताबिक, इसके लक्षण दिखने के एक से 18 दिन के भीतर ज्यादातर लोगों की मौत हो जाती है. आमतौर पर पीड़ित पहले कोमा में जाता है और फिर उसकी मौत होती है.


