विचार/लेख
आप किसी दिन सोकर उठें और पता चले कि घर के बगल में बड़ा गड्ढा बन गया है. अब वो जगह रहने लायक नहीं रही! दुनिया के कई इलाकों में ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं. इसकी बड़ी वजह है, आबोहवा और मौसम में हो रही तब्दीलियां.
डॉयचे वैले पर सारा श्टेफन का लिखा-
ब्राजील के अमेजन क्षेत्र के उत्तर-पूर्वी सिरे पर बसे एक इलाके में अचानक जमीन धंसने लगी है. इससे वहां विशाल गड्ढे, यानी सिंकहोल बन गए हैं. इन गड्ढों के किनारे मौजूद कई घरों पर खतरा मंडराने लगा है. 1,000 से ज्यादा लोगों को बेघर होने का डर सताने लगा है. सरकार को आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी है.
ब्राजील पानी के संकट से क्यों जूझ रहा है?
यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. अमेरिका से लेकर तुर्की और ईरान तक, पूरी दुनिया में ऐसे सिंकहोल देखने को मिल रहे हैं. ये अचानक बनते हैं और इनसे जान-माल का खतरा पैदा होता है.
सिंकहोल क्या होते हैं?
जमीन में बन आए गड्ढों को सिंकहोल कहा जाता है. ये तब बनते हैं, जब पानी मिट्टी को काट देता है. यह कुदरती तौर पर हो सकता है. मसलन, बारिश का पानी मिट्टी से रिसकर नीचे की चट्टानों को घोल दे.
ये इंसानी गतिविधियों की वजह से भी बन सकते हैं. जैसे, जमीन के नीचे की पाइपलाइन से पानी का रिसाव, तेल या गैस निकालने के लिए की जाने वाली ड्रिलिंग (फ्रैकिंग), और खनन जैसे कामों से भी.
होंग यांग, ब्रिटेन की रीडिंग यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर हैं. यांग के मुताबिक, उन इलाकों में सिंकहोल बनने की संभावना ज्यादा होती है जहां 'कार्स्ट टेरेन' पाया जाता है. यानी, ऐसी जमीन जहां नीचे घुलनशील चट्टानें होती हैं. जैसे, चूना पत्थर, नमक की परतें या जिप्सम.
जब जमीन के नीचे का पानी इन चट्टानों को घोलने लगता है, तो जमीन धीरे-धीरे खोखली हो जाती है और अचानक धंस जाती है. यांग ने हाल ही में जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़े सिंकहोल के खतरों को कम करने पर एक शोध प्रकाशित किया है.
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "अमेरिका में करीब 20 फीसदी जमीन संवेदनशील है. इसमें फ्लोरिडा, टेक्सास, अलबामा, मिसौरी, केंटकी, टेनेसी और पेंसिल्वेनिया में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है." अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में ब्रिटेन, खासतौर पर उत्तरी इंग्लैंड में रिपन और यॉर्कशायर डेल्स जैसे क्षेत्र, इटली का लाजियो क्षेत्र, मेक्सिको का युकाटन प्रायद्वीप, चीन, ईरान और तुर्की के कुछ हिस्से शामिल हैं.
-जो क्लाइमैन
कुछ दिन पहले जब मैं घरेलू कामों में व्यस्त थी तो मैंने अपने सबसे छोटे बच्चे को उसका ध्यान बंटाने के लिए आईपैड दे दिया। लेकिन थोड़ी देर बाद मैं अचानक थोड़ी असहज हो गई और उससे कहा कि अब इसे बंद करने का समय हो गया है।
असल में मैं इस बात पर नजऱ नहीं रख पा रही थी कि वह कितनी देर से इसका इस्तेमाल कर रहा है या वह क्या देख रहा है।
फिर तो जैसे तूफान आ गया। वह चिल्लाया, पैर चलाए, आईपैड को पकड़ कर बैठ गया और मुझे दूर धकेलने की कोशिश करने लगा, पूरे गुस्से में और पांच साल के छोटे बच्चे की पूरी ताकत के साथ।
ईमानदारी से कहूं तो ये मेरे लिए बेहद परेशान करने वाला लम्हा था। मेरे बच्चे की तीखी प्रतिक्रिया मुझे परेशान कर गई।
मेरे बड़े बच्चे सोशल मीडिया, वर्चुअल रिएलिटी और ऑनलाइन गेमिंग की दुनिया में कदम रख चुके हैं और कई बार वह भी चिंता का कारण बनता है।
एपल के पूर्व सीईओ स्टीव जॉब्स, जिनके सीईओ रहते आईपैड लॉन्च हुआ था, उन्होंने कहा था कि वो अपने बच्चों को ये डिवाइस इस्तेमाल नहीं करने देते। बिल गेट्स ने भी कहा था कि उन्होंने अपने बच्चों के लिए गैजेट्स के इस्तेमाल की सीमा तय कर दी थी।
स्क्रीन टाइम अब बुरी ख़बर का पर्याय बन चुका है। इसे युवाओं में डिप्रेशन, व्यवहार संबंधी समस्याएं और नींद की कमी जैसी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है।
मशहूर न्यूरोसाइंटिस्ट बैरोनेस सुसान ग्रीनफ़ील्ड ने तो यहां तक कहा है कि इंटरनेट का इस्तेमाल और कंप्यूटर गेम्स किशोर मस्तिष्क को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
2013 में उन्होंने लंबे स्क्रीन टाइम के नकारात्मक प्रभावों की तुलना जलवायु परिवर्तन के शुरुआती दौर से की थी, यानी एक ऐसा बड़ा बदलाव जिसे लोग गंभीरता से नहीं ले रहे थे।
आज बहुत से लोग इस मुद्दे को पहले से ज़्यादा गंभीरता से ले रहे हैं। लेकिन स्क्रीन के नकारात्मक पक्ष को लेकर दी जाने वाली चेतावनियां शायद पूरी तस्वीर नहीं दिखातीं।
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में छपे एक संपादकीय में कहा गया कि बैरोनेस ग्रीनफील्ड के मस्तिष्क संबंधी दावे ‘वैज्ञानिक तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण पर आधारित नहीं हैं और वे अभिभावकों व आम लोगों को ग़लत दिशा में ले जाते हैं।’
ब्रिटेन के कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि स्क्रीन टाइम के दुष्प्रभावों को लेकर पुख़्ता वैज्ञानिक सबूतों की कमी है। तो क्या हम अपने बच्चों की स्क्रीन एक्सेस को लेकर जो चिंता कर रहे हैं वह सही दिशा में है या नहीं?
क्या जितना दिखता है, ये उससे भी बुरा है?
बैथ स्पा यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी के प्रोफेसर पीट एचेल्स उन वैज्ञानिकों में शामिल हैं जो मानते हैं कि स्क्रीन टाइम के नुकसान को लेकर पर्याप्त सबूत नहीं हैं। उन्होंने स्क्रीन टाइम और मानसिक स्वास्थ्य पर सैकड़ों रिसर्च स्टडीज का विश्लेषण किया है, साथ ही युवाओं की स्क्रीन से जुड़ी आदतों का बड़ा डेटा भी खंगाला है।
अपनी किताब ‘अनलॉक्ड : द रियल साइंस ऑफ़ स्क्रीन टाइम’ में उन्होंने तर्क दिया है कि जो अध्ययन मीडिया की सुर्खियां बनते हैं, उनके पीछे की वैज्ञानिक प्रक्रिया अक्सर अधूरी या गलत होती है।
वह लिखते हैं, ‘स्क्रीन टाइम के भयावह नतीजों को लेकर जो कहानियां गढ़ी गई हैं, उन्हें पुख्ता वैज्ञानिक तथ्यों से समर्थन नहीं मिलता।’
2021 में अमेरिकन साइकोलॉजी एसोसिएशन द्वारा प्रकाशित एक रिसर्च में भी इसी तरह की बात कही गई थी। दुनियाभर की अलग-अलग यूनिवर्सिटी से जुड़े 14 लेखकों ने 2015 से 2019 के बीच प्रकाशित 33 अध्ययनों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि स्मार्टफ़ोन, सोशल मीडिया और वीडियो गेम का इस्तेमाल मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के लिए ‘बहुत ज़्यादा जिम्मेदार’ नहीं है।
कुछ शोध में यह जरूर कहा गया है कि स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी मेलाटोनिन हॉर्मोन को दबा देती है, जिससे नींद आने में दिक्कत होती है। लेकिन 2024 में दुनियाभर के 11 अध्ययनों की समीक्षा करने वाले एक शोध ने यह निष्कर्ष दिया कि सोने से एक घंटे पहले स्क्रीन देखने से नींद में कोई बड़ी परेशानी आती है इसके कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं।
विज्ञान की समस्या
प्रोफेसर एचेल्स बताते हैं कि स्क्रीन टाइम से जुड़े अधिकांश आंकड़े एक बड़ी समस्या से जूझते हैं। ये डेटा ज़्यादातर ‘सेल्फ-रिपोर्टिंग’ पर आधारित होता है। यानी रिसर्चर सीधे युवाओं से पूछते हैं कि उन्होंने कितना समय स्क्रीन पर बिताया और उन्हें कैसा महसूस हुआ।
वह यह भी तर्क देते हैं कि इतने बड़े डेटा सेट की व्याख्या करने के लाखों तरीके हो सकते हैं। वह कहते हैं, ‘हमें सहसंबंध को देखकर सावधानी बरतनी चाहिए।’
वह इसका उदाहरण देते हैं कि गर्मी के मौसम में आइसक्रीम की बिक्री और स्किन कैंसर के लक्षणों में सांख्यिकीय रूप से एक साथ वृद्धि देखी जाती है। दोनों घटनाएं गर्म मौसम से जुड़ी हैं लेकिन आपस में नहीं। आइसक्रीम स्किन कैंसर का कारण नहीं बनती।
वह एक रिसर्च प्रोजेक्ट को भी याद करते हैं, जो एक जनरल फिजिशियन की टिप्पणी से प्रेरित था। डॉक्टर ने दो बातें नोट की थीं। पहली, कि वह अब पहले से ज़्यादा युवाओं से डिप्रेशन और एंग्जायटी को लेकर बातें कर रहे थे और दूसरी, कि बहुत से युवा क्लीनिक के वेटिंग रूम में मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे थे।
प्रोफेसर बताते हैं, ‘तो हमने डॉक्टर के साथ मिलकर काम किया और कहा, ठीक है इसे जांचते हैं। हम डेटा का इस्तेमाल करके इस रिश्ते को समझने की कोशिश कर सकते हैं।’
रिसर्च में पाया गया कि फोन के इस्तेमाल और मानसिक स्वास्थ्य की परेशानी में संबंध तो था लेकिन एक और अहम फैक्टर सामने आया। जो युवा डिप्रेशन या एंग्ज़ायटी से जूझ रहे थे, वे अक्सर अकेले ज़्यादा समय बिता रहे थे।
अंतत: स्टडी ने यह संकेत दिया कि मानसिक स्वास्थ्य की इन चुनौतियों के पीछे असली वजह अकेलापन था, न कि सिर्फ स्क्रीन टाइम।
‘डूमस्क्रॉलिंग’ क्या होती है?
इसके अलावा एक और अहम बात अक्सर छूट जाती है, स्क्रीन टाइम की प्रकृति। प्रोफेसर एचेल्स का तर्क है कि ‘स्क्रीन टाइम’ शब्द अपने आप में बहुत अस्पष्ट है। क्या वह अनुभव प्रेरणादायक था? क्या वह उपयोगी था? सूचनात्मक था? या फिर वह सिर्फ ‘डूमस्क्रॉलिंग’ (बेवजह परेशान करने वाला) था? क्या वह युवा अकेले थे या दोस्तों से ऑनलाइन बातचीत कर रहे थे?
हर स्थिति एक अलग अनुभव पैदा करती है।
अमेरिका और ब्रिटेन के शोधकर्ताओं द्वारा की गई एक स्टडी में 9 से 12 साल के बच्चों के 11हज़ार 500 ब्रेन स्कैन, उनके स्वास्थ्य मूल्यांकन और खुद रिपोर्ट किए गए स्क्रीन टाइम डेटा का विश्लेषण किया गया।
स्टडी में यह ज़रूर पाया गया कि स्क्रीन इस्तेमाल के तरीके ब्रेन के अलग-अलग हिस्सों की कनेक्टिविटी में बदलाव से जुड़े हो सकते हैं, लेकिन ऐला कोई सबूत नहीं मिला कि स्क्रीन टाइम का मानसिक स्वास्थ्य या संज्ञानात्मक क्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है। यहां तक कि उन बच्चों पर भी जो दिन में कई घंटे स्क्रीन का इस्तेमाल करते हैं।
यह स्टडी 2016 से 2018 के बीच चली और इसकी निगरानी ऑक्सफर्ड़ यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एंड्रयू प्रिजबिल्स्की ने की, जिन्होंने वीडियो गेम और सोशल मीडिया के मानसिक स्वास्थ्य पर असर को लेकर व्यापक रिसर्च की है। उनके अध्ययन दिखाते हैं कि ये दोनों माध्यम मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान नहीं बल्कि फायदा भी पहुंचा सकते हैं।
प्रोफेसर एचेल्स कहते हैं, ‘अगर यह सच होता कि स्क्रीन मस्तिष्क को नुकसान पहुंचाती है तो इतने बड़े डेटा सेट में यह साफ़ दिखाई देता। लेकिन ऐसा नहीं है। तो यह धारणा कि स्क्रीन का इस्तेमाल दिमाग को लगातार या स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा रहा है, फिलहाल तो सही नहीं लगती।’
कार्डिफ यूनिवर्सिटी में ब्रेन स्टिमुलेशन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर क्रिस चेम्बर्स भी इसी राय से सहमत हैं। प्रोफेसर एचेल्स की किताब में उनका हवाला दिया गया है, जिसमें वह कहते हैं, ‘अगर कोई गिरावट होती, तो वह साफ दिखती।’
‘पिछले 15 साल के शोधों को देखना आसान होताज् अगर हम पर्यावरण में बदलावों के प्रति इतने संवेदनशील होते तो हम आज अस्तित्व में नहीं होते।’
‘हमें बहुत पहले ही विलुप्त हो जाना चाहिए था।’
‘मेंटल हेल्थ के लिए जटिल फार्मूला’
प्रोफेसर प्रिजबिल्स्की और प्रोफ़ेसर एचेल्स में से कोई भी कुछ ऑनलाइन खतरों, जैसे कि ग्रूमिंग या अश्लील और नुकसानदेह कंटेंट से संपर्क की गंभीरता को नकारते नहीं हैं। लेकिन दोनों का मानना है कि स्क्रीन टाइम को लेकर चल रही मौजूदा बहस इसे और अधिक छिपे तौर पर होने वाली गतिविधियों में बदलने का ख़तरा पैदा कर सकती है।
प्रोफेसर प्रिजबिल्स्की को इस बात की चिंता है कि डिवाइसेज पर पाबंदी लगाने या उनके इस्तेमाल को सीमित करने की दलीलों से उल्टा असर हो सकता है। उनके मुताबिक, अगर स्क्रीन टाइम पर बहुत कड़ाई से नजऱ रखी गई तो यह बच्चों के लिए ‘मनाही’ जैसा बन सकता है।
हालांकि बहुत से लोग इससे असहमत हैं। ब्रिटेन के एक कैंपेन ग्रुप स्मार्टफोन फ्री चाइल्डहुड का कहना है कि अब तक डेढ़ लाख लोग उनके उस संकल्प पर हस्ताक्षर कर चुके हैं, जिसमें 14 साल से छोटे बच्चों को स्मार्टफोन न देने और सोशल मीडिया की पहुंच 16 साल की उम्र तक टालने की मांग की गई है।
सैन डिएगो स्टेट यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी की प्रोफेसर जीन ट्वेंग ने जब अमेरिका में किशोरों में बढ़ते डिप्रेशन पर रिसर्च शुरू की थी, तो उनका मक़सद यह साबित करना नहीं था कि सोशल मीडिया और स्मार्टफोन ‘बहुत बुरे’ हैं, जैसा कि वह बताती हैं।
अब वे मानती हैं कि बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना एक बिल्कुल साफ-सुथरा फैसला है और वह अभिभावकों से अपील कर रही हैं कि बच्चों और स्मार्टफोन के बीच दूरी को जितना संभव हो उतना बनाए रखें।
वह कहती हैं, ‘बच्चों का दिमाग 16 साल की उम्र में ज़्यादा विकसित और परिपक्व होता है। साथ ही स्कूल और दोस्ती का सामाजिक माहौल भी 12 साल की उम्र के बजाय 16 की उम्र में ज़्यादा स्थिर होता है।’
हालांकि प्रोफेसर ट्वेंग इस बात से सहमत हैं कि युवाओं के स्क्रीन इस्तेमाल से जुड़े डेटा का बड़ा हिस्सा खुद बताया गया होता है, लेकिन उनका कहना है कि इससे सबूतों की विश्वसनीयता कम नहीं होती।
2024 में प्रकाशित एक डेनिश स्टडी में 89 परिवारों के 181 बच्चों को शामिल किया गया था। दो हफ्तों तक इनमें से आधे बच्चों को प्रति सप्ताह केवल तीन घंटे का स्क्रीन टाइम दिया गया और उनके टैबलेट व स्मार्टफोन जमा कर लिए गए।
स्टडी में निष्कर्ष निकाला गया कि स्क्रीन मीडिया को कम करने से ‘बच्चों और किशोरों के मनोवैज्ञानिक लक्षणों पर सकारात्मक असर’ पड़ा और ‘सामाजिक सहयोगी व्यवहार’ में सुधार देखा गया, हालांकि यह भी कहा गया कि इस दिशा में और शोध की जरूरत है।
वहीं, एक ब्रिटिश स्टडी में, जिसमें प्रतिभागियों से स्क्रीन टाइम की टाइम डायरी रखने को कहा गया था, यह पाया गया कि लड़कियों में सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल अक्सर डिप्रेशन की भावनाओं से जुड़ा हुआ था।
प्रोफेसर ट्वेंग कहती हैं, ‘आप उस फॉर्मूले को देखिए। ज़्यादातर समय स्क्रीन के साथ, वह भी अकेले। नींद कम, दोस्तों के साथ आमने-सामने वक्त बिताने का समय कम। यह मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद खराब फॉर्मूला है।’ ‘मुझे समझ नहीं आता कि इसमें विवाद की क्या बात है।’
-शेरिलान मोलान
जुलाई के आखऱि में वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने भारत में सहमति से सेक्स की कानूनी उम्र (जो इस समय 18 साल है) को लेकर सुप्रीम कोर्ट में तर्क रखे। इस बहस के साथ किशोरों के बीच यौन संबंध को अपराध मानने के मुद्दे पर चर्चा फिर तेज हो गई।
जयसिंह का कहना है कि 16 से 18 साल के किशोरों के बीच सहमति से बने यौन संबंध न शोषण हैं और न अत्याचार। उनका कहना है कि ऐसे मामलों को आपराधिक मुकदमों के दायरे से बाहर रखा जाए।
अपने लिखित तर्क में उन्होंने कहा, ‘उम्र पर आधारित कानूनों का उद्देश्य बच्चों को शोषण से बचाना होना चाहिए, न कि सहमति पर आधारित और उम्र के लिहाज से उचित संबंधों को अपराध मान लेना।’
लेकिन केंद्र सरकार इस मांग का विरोध कर रही है। उसका कहना है कि अगर ऐसे अपवाद को मंज़ूरी दी जाए तो 18 साल से कम उम्र के बच्चे, जिन्हें भारतीय क़ानून में नाबालिग माना जाता है, उनके शोषण और अत्याचार का ख़तरा और बढ़ जाएगा।
यह मामला सहमति की परिभाषा पर नई बहस छेड़ रहा है। सवाल उठ रहा है कि क्या भारतीय क़ानूनों, ख़ासकर 2012 के पॉक्सो क़ानून में बदलाव करके 16 से 18 साल वाले किशोरों के बीच सहमति से बने संबंधों को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए।
विशेषज्ञों की राय क्या है?
बाल अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर किशोरों को इस दायरे से बाहर किया जाए तो उनकी स्वतंत्रता बनी रहती है। वहीं विरोध करने वालों का मानना है कि ऐसा करने से मानव तस्करी और बाल विवाह जैसे अपराध बढ़ सकते हैं।
विशेषज्ञ यह सवाल भी उठाते हैं कि अगर किसी किशोर के साथ अत्याचार हो जाए तो क्या वह सबूत देने का बोझ उठा पाएगा। सबसे अहम सवाल यह बनता है कि सहमति की उम्र तय करने का अधिकार किसके पास होना चाहिए और इन कानूनों का वास्तविक लाभ किसे मिलता है।
दुनिया के कई देशों की तरह भारत को भी ‘सहमति से सेक्स’ की सही उम्र तय करने में कठिनाई रही है। अमेरिका में यह उम्र अलग-अलग राज्यों में अलग होती है, जबकि भारत में यह पूरे देश के लिए समान रखी गई है।
भारत में सहमति से यौन संबंध बनाने की कानूनी उम्र यूरोप के ज़्यादातर देशों और ब्रिटेन, कनाडा जैसे देशों की तुलना में काफी ज्यादा है। इन देशों में ये उम्र 16 साल है।
1860 में जब भारत का आपराधिक क़ानून लागू हुआ तब यह उम्र 10 साल थी। 1940 में संशोधन कर इसे 16 साल किया गया।
पॉक्सो कानून ने अगला बड़ा बदलाव किया और 2012 में सहमति की उम्र 18 साल कर दी गई। इसके बाद 2013 में आपराधिक कानूनों में बदलाव कर इसे शामिल किया गया और 2024 में लागू हुए नए आपराधिक कानून में भी यही उम्र जारी रखी गई।
पिछले लगभग एक दशक में कई बाल अधिकार कार्यकर्ताओं और अदालतों ने सहमति से यौन संबंध बनाने की कानूनी उम्र पर सवाल उठाए हैं और इसे 16 साल करने की मांग रखी है।
उनका तर्क है कि मौजूदा कानून सहमति पर आधारित किशोर संबंधों को अपराध मान लेता है। कई बार वयस्क इस क़ानून का इस्तेमाल ऐसे रिश्तों को रोकने या दबाने के लिए करते हैं, ख़ासकर लड़कियों के मामले में।
देश में यौन संबंध का विषय अब भी खुलकर बात करने योग्य नहीं माना जाता, जबकि कई अध्ययनों में सामने आया है कि लाखों भारतीय किशोर यौन रूप से सक्रिय हैं।
फॉउंडेशन फॉर चाइल्ड प्रोटेक्शन-मुस्कान की सह-संस्थापक शर्मिला राजे कहती हैं, ‘हम ऐसे समाज में रहते हैं जो जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर बंटा हुआ है। यही कारण है कि सहमति की उम्र से जुड़े कानून के गलत इस्तेमाल का खतरा और बढ़ जाता है।’
2022 में कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्देश
साल 2022 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने, कानूनी सुधारों पर सुझाव देने वाले भारत के विधि आयोग को यह निर्देश दिया था कि पॉक्सो कानून के तहत सहमति की उम्र पर दोबारा विचार किया जाए ‘ताकि ज़मीनी हकीकत को ध्यान में रखा जा सके।’
अदालत ने ऐसे कई मामलों का जिक्र किया था, जहां 16 साल से अधिक उम्र की लड़कियां प्रेम संबंध में पड़ीं और यौन संबंध बनाए, लेकिन बाद में लडक़े पर पॉक्सो और आपराधिक कानून के तहत बलात्कार और अपहरण के आरोप लगा दिए गए।
अगले साल विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उम्र घटाने से इनकार कर दिया, लेकिन यह सिफ़ारिश की कि 16 से 18 साल के बच्चों के सहमति वाले रिश्तों में सजा तय करते समय अदालतें ‘न्यायिक विवेक’ का इस्तेमाल करें।
हालांकि इस सिफारिश को अभी तक कानूनी रूप नहीं दिया गया है, लेकिन देशभर की अदालतें इस सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए अपील सुनने, जमानत देने, बरी करने या कुछ मामलों को खारिज करने जैसे फैसले दे रही हैं। इसमें वे मामले के तथ्य और पीडि़त की गवाही को ध्यान में रखती हैं।
शर्मिला राजे समेत कई बाल अधिकार कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि इस प्रावधान को कानून में शामिल किया जाए ताकि इसके इस्तेमाल में एकरूपता रहे। अगर इसे सिर्फ सुझाव के तौर पर छोड़ दिया गया तो अदालतें इसे नजरअंदाज कर सकती हैं।
अप्रैल में मद्रास हाईकोर्ट ने एक मामले में बरी करने के फैसले को पलट दिया। इस मामले में 17 साल की लडक़ी 23 साल के अभियुक्त के साथ रिश्ते में थी और जब उसके माता-पिता ने उसकी शादी किसी और से तय कर दी तो वह अभियुक्त के साथ अपने घर से चली गई। अदालत ने अभियुक्त को 10 साल की कैद की सजा सुनाई।
एनफोल्ड प्रैक्टिव हेल्थ ट्रस्ट (एक बाल अधिकार संस्था) की शोधकर्ता श्रुति रामकृष्णन ने इस फैसले पर इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में लिखा है, ‘अदालत ने पॉक्सो क़ानून को ज्यों का त्यों शब्दों के आधार पर लागू किया,’ और इस फ़ैसले को उन्होंने ‘न्याय की गंभीर विफलता’ कहा।
चीन 'यारलुंग सांग्पो' नदी पर एक विशाल बांध बना रहा है. इससे भारत में चिंता पैदा हो गई है. क्या चीन, नदी के पानी को भारत के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है?
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन का लिखा-
चीन, पूर्वोत्तर भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश के साथ लगी विवादित सीमा के पास 'यारलुंग सांग्पो' नदी पर एक विशाल बांध बना रहा है. अरुणाचल प्रदेश पर बीजिंग भी दावा करता है. बांध का निर्माण जुलाई 2025 में शुरू हुआ.
इस बांध का निर्माण कार्य चीनी प्रधानमंत्री ली केचियांग की मौजूदगी में आयोजित एक समारोह में शुरू हुआ. 'यारलुंग सांग्पो' नदी जब चीन से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है, तो उसे सियांग कहा जाता है. असम में यह ब्रह्मपुत्र कहलाती है.
इस बांध के निर्माण की वजह से भारत में चिंता पैदा हो गई है. कारण यह है कि इससे न सिर्फ पर्यावरण को खतरा है, बल्कि चीन को भारत के पूर्वोत्तर इलाके और बांग्लादेश की ओर पानी के बहाव को नियंत्रित करने का एक जरिया भी मिल सकता है.
170 अरब डॉलर की अनुमानित लागत वाली इस जलविद्युत परियोजना का लक्ष्य सालाना 300 अरब किलोवॉट घंटे बिजली पैदा करना है. इससे चीन के अन्य हिस्सों में बिजली पहुंचेगी और तिब्बत में भी बिजली की मांग पूरी की जाएगी. यह परियोजना चीन में स्थित दुनिया के अब तक के सबसे बड़े बांध 'थ्री गॉर्जेस डैम' से तीन गुना बड़ी है.
कुछ विशेषज्ञों और पूर्व राजनयिकों का मानना है कि यह बांध भारत और चीन के बीच तनाव को फिर से बढ़ा सकता है. जबकि हाल ही में दोनों देशों के बीच सीमा संबंधी चिंताओं में कुछ सुधार के संकेत मिले हैं.
भारत और चीन के बीच लंबे समय से सीमा विवाद
भारत और चीन, दोनों देशों ने एक-दूसरे पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास के क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश का आरोप लगाया है. भारत का कहना है कि यह सीमा 3,488 किलोमीटर लंबी है, जबकि चीन इसे इससे कम मानता है.
वर्षों के तनाव के बाद, दोनों देशों ने संबंधों को सामान्य बनाने के लिए नए सिरे से प्रयास शुरू किए हैं. जनवरी 2025 में, दोनों पक्ष लगभग पांच वर्षों के बाद उड़ानें फिर से शुरू करने पर सहमत हुए. इसके तीन महीने बाद, भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधियों ने तीर्थयात्राओं और सीमा के जरिए व्यापार को फिर शुरू करके आगे बढ़ने का फैसला किया.
इस सबके बीच यह बांध परियोजना एक नई बड़ी चिंता का कारण बन रही है. इससे पर्यावरण में जो बदलाव होंगे, वे निचले हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जनसंख्या, रहन-सहन और जैव विविधता पर गहरा असर डाल सकते हैं. इसके चलते पर्यावरणीय और भू-राजनीतिक समस्याएं पैदा होने की आशंका है.
भारत और चीन के बीच पानी का डेटा साझा करने के लिए एक व्यवस्था बनाई गई है. इसे एक्सपर्ट लेवल मैकेनिज्म (ईएलएम) कहा जाता है. भारत इतनी बड़ी बांध परियोजना के लिए ईएलएम को पर्याप्त नहीं मानता है. इसकी वजह यह है कि ईएलएम के तहत मुख्य रूप से मॉनसून के मौसम में ही जानकारी दी जाती है, जब बाढ़ का खतरा सबसे अधिक होता है.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पूर्वी एशियाई अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर अरविंद येलेरी ने डीडब्ल्यू को बताया, "भारत का तर्क है कि लंबे समय में यह बांध न केवल असम और बांग्लादेश के निचले इलाकों में मिट्टी की उर्वरता के लिए जरूरी पोषक तत्वों से भरपूर गाद को रोक लेगा, बल्कि इससे सिंचाई पर भी असर पड़ेगा. यह बांध फसल की पैदावार और कृषि उत्पादकता को भी प्रभावित करेगा. साथ ही, नदी के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी इसका असर होगा."
येलेरी के अनुमान के मुताबिक, सीमा पार की नदियां और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को एकतरफा रूप से बदलने का चीन का तरीका पर्यावरणीय और कूटनीतिक दृष्टि से विनाशकारी है.
क्या पानी के दोहन का भी खतरा है?
येलेरी बताते हैं, "कानूनी नजरिए से देखा जाए, तो चीन अपनी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते नदियों के प्रवाह को बनाए रखने की जिम्मेदारी को अनदेखा कर रहा है. यह एक तरह का अपराध है. इससे भारत की सीमा वार्ता में शामिल होने की रणनीतिक सोच पर पहले ही गहरा असर पड़ा है."
चीन ने मेकांग नदी पर भी ऐसा ही रुख अपनाया और कई बांध बनाते हुए नदी के ऊपरी हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया. 1980 के दशक के मध्य से, चीन ने मेकांग नदी पर 11 बड़े बांध बनाए हैं और कई अन्य बांध बनाए जा रहे हैं.
चीनी मामलों के विशेषज्ञ और 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' के फेलो अतुल कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया, "चीन ने अभी तक अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ नदी जल-साझेदारी समझौता नहीं किया है. जबकि, एशिया की ज्यादातर बड़ी नदियों का उद्गम स्थल उसी के नियंत्रण में है."
अतुल कुमार बताते हैं, "यारलुंग सांग्पो के मामले में भी चीन ने ऐसा ही रुख अपनाया है. उसने भारत और बांग्लादेश को इन बांध परियोजनाओं के बारे में जानकारी नहीं दी है. यहां तक कि जल विज्ञान से जुड़ा डेटा साझा करना, जो केवल एक तकनीकी प्रक्रिया है, वह भी द्विपक्षीय संबंधों पर निर्भर करता है. तनावपूर्ण समय में अक्सर यह डेटा उपलब्ध नहीं कराया जाता है."
बीते दिनों एक मीडिया ब्रीफिंग के दौरान चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गुओ जियाकुन ने कहा कि यह परियोजना 'निचले इलाकों पर कोई नकारात्मक असर नहीं डालेगी.' हालांकि, उनके इस बयान को संदेह की नजर से देखा जा रहा है.
अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने चीन की इस विशाल बांध परियोजना को एक 'वॉटर बम' करार दिया. उन्होंने इसे अस्तित्व के लिए भी खतरा बताया, जो सैन्य खतरे से भी कहीं बड़ा मुद्दा है.
'निचले इलाके में विनाश'
खांडू ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, "समस्या यह है कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता. कोई नहीं जानता कि वह क्या कर सकता है." उन्होंने जोर देकर कहा कि चीन ने अंतरराष्ट्रीय जल संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है. इस वजह से वह वैश्विक मानकों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है.
अतुल कुमार ने बांध टूटने के खतरे पर भी चिंता जताई, जो 'पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के निचले इलाकों के लिए हमेशा एक खतरा बना रहेगा.' उन्होंने कहा, "अस्थिर और भूकंप-संभावित हिमालय क्षेत्र में कोई भी प्राकृतिक आपदा, संघर्ष या यहां तक कि तोड़फोड़ भी निचले इलाकों में हर तरफ तबाही ला सकती है."
पूर्व राजनयिक अनिल वाधवा ने एक परामर्शी तंत्र बनाने की मांग की. उन्होंने कहा कि जब बांध बन जाए तो चीन को उसकी क्षमता, पानी के बहाव और बनावट के बारे में सारी जानकारी देनी चाहिए.
अनिल वाधवा ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह जरूरी है कि भारत, अरुणाचल प्रदेश में जल्द-से-जल्द अपना बांध बनाकर सभी रक्षात्मक उपाय करे. बांध का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों को मुआवजा मिलना चाहिए. साथ ही, जिन लोगों पर इसका असर हो रहा है उनसे खुलकर बात करनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह मामला हाथ से निकल सकता है. समस्या ज्यादा बिगड़ सकती है, जैसा कि हमने देश की कई अन्य बड़ी परियोजनाओं के साथ देखा है."
पूर्व राजनयिक अजय बिसारिया का भी ऐसा ही मानना है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "चीन ने जिस तरह से हाल के दिनों में आर्थिक निर्भरता और व्यापार का इस्तेमाल भू-राजनीतिक हथियार के तौर पर किया है, उसे देखते हुए भारत को यह मान लेना चाहिए कि चीन पानी को भी हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगा."
उन्होंने कहा, "ऐसा करने की चीन की इच्छा तो साफ दिखती है, लेकिन उसकी क्षमता और तकनीकी रूप से ऐसा करना कितना संभव है, यह अभी देखना बाकी है. इस खतरे से बचने के लिए भारत को सबसे बुरे हालात के बारे में सोचना चाहिए और उसकी तैयारी अभी से कर लेनी चाहिए."
बच्चों की आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि बच्चों में मानसिक परेशानी होने पर दिनचर्या और व्यवहार में साफतौर पर बदलाव होने लगता है. पहचानें मानसिक परेशानी के संकेत, ताकि बच्चों की मदद की जा सके.
डॉयचे वैले पर रामांशी मिश्रा का लिखा-
25 जुलाई 2025 को अहमदाबाद के नवरंगपुरा स्थित स्कूल में 16 वर्ष की कक्षा 10 की छात्रा हंसते हुए क्लास से बाहर निकली. हाथ में चाबी का गुच्छा घुमाते हुए आराम से स्कूल की चौथी मंजिल की गैलरी में जाकर खड़ी हुई और अचानक ही उसने नीचे छलांग लगा दी. इस पूरी घटना का सीसीटीवी फुटेज सोशल मीडिया पर वायरल हुआ.
26 जुलाई 2025 को लखनऊ के आशियाना स्थित एक स्कूल के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले 14 वर्षीय छात्र ने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया. कारण, उसकी मां ने डांट लगाई थी कि मोबाइल चलाने के बजाय वह पढ़ाई पर ध्यान दे.
ये दो मामले उदाहरण भर हैं. भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में स्कूल जाने वाले बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति में बीते कई वर्षों से इजाफा देखा जा रहा है. यह गंभीर चिंता का विषय है.
क्या इंटरनेट बन रहा है बच्चों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण?
बच्चों में आत्महत्या के मामलों को लेकर मनोवैज्ञानिक अलग-अलग कारण और प्रवृत्तियों पर ध्यान देने की बात करते हैं. हालांकि, अधिकांश मनोवैज्ञानिक सहमति जताते हैं कि सबसे मुख्य कारण बदलती और आधुनिक होती तकनीक है.
डॉ ईशान्या राज, प्रयागराज के मोतीलाल नेहरू डिविजनल हॉस्पिटल में नैदानिक मनोचिकित्सक हैं. वह बताती हैं कि कोरोना काल के बाद से इंटरनेट ने बच्चों की जिंदगी में अहम जगह बनाई है. इसके चलते जहां एक ओर उनकी जिंदगी में मोबाइल फोन और गैजेट्स की संख्या में इजाफा हुआ है, वहीं दूसरी ओर उनके मानसिक स्तर पर इसका प्रतिकूल प्रभाव भी दिख रहा है.
किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के बाल मनोचिकित्सक प्रोफेसर डॉ पवन गुप्ता का कहना कि आज बच्चों के पास बहुत कम उम्र में ही इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स तक पहुंच है. घरों में अनलिमिटेड वाई-फाई है और अभिभावकों के पास उन पर निगरानी रखने का समय बेहद कम है. इसका नतीजा यह होता है कि बच्चों के पास मानसिक विकास के लिए न तो समय होता है और न ही शारीरिक अभ्यास में उनकी रुचि रह जाती है. उन्हें अपना हर जवाब बस एक बटन दबाकर मिल जाता है.
जेनेरेशन गैप में बदलाव के साथ बदल रहा परिवेश
डॉ. ईशान्या का कहना है कि माता-पिता, शिक्षकों और बच्चों के बीच जेनेरेशन गैप है, इस वजह से दोनों पीढ़ियां एक-दूसरे को समझने में अक्षम हो रही हैं. इसमें आधुनिक तकनीक की भी भूमिका है. तकनीक का अत्यधिक प्रयोग न केवल बच्चों के मानसिक विकास और स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, बल्कि माता-पिता को भी उनसे दूर करता जा रहा है.
डॉ ईशान्या बताती हैं, "पहले बच्चे नोट्स बनाते थे, उन्हें याद करते थे, बाहर खेलते थे, लोगों से मिलते-बात करते थे. वे अपने अनुभवों से काफी कुछ सीखते थे, लेकिन अब बच्चे मोबाइल और इंटरनेट पर काफी हद तक निर्भर हैं. इससे उनका सामाजिक कौशल कमजोर हो रहा है. साथ ही, इमोशनल इंटेलिजेंस पर भी असर पड़ रहा है."
उत्तर प्रदेश नेशनल एडोल्सेंट एजुकेशन प्रोग्राम की पेरेंटिंग कोच और काउंसलर लीना विग का कहना है कि देखरेख की कमी भी एक कारण है. लीना कहती हैं, "आजकल दौड़-भाग भरे जीवन में कई माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं होता. बच्चे जो मांगते हैं, अभिभावक उन्हें आसानी से लाकर दे देते हैं. ऐसे में बच्चों में एक अधिकार की भावना आ जाती है. यही आगे चलकर उनके लिए परेशानी का सबब बन जाता है."
लीना यह भी रेखांकित करती हैं कि बच्चों का स्क्रीन टाइम बढ़ गया है. अधिक समय तक मोबाइल में ही लगे रहने से बच्चों का मानसिक विकास बाधित होता है. वह कहती हैं, "बच्चों का जल्दबाजी में हर निर्णय लेना, किसी भी बात पर तुरंत ही रिएक्शन देना और किसी बात के बुरा लगने पर उत्तेजित हो जाना आदि ऐसी बातें हैं, जो बच्चों के लिए 'फॉल्स आइडेंटिटी' के तौर पर सामने आता है."
बच्चों में बढ़ रही 'सबकुछ या कुछ भी नहीं' की आदत
विशेषज्ञ इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि बच्चों में तत्काल संतुष्टि की आदत घर करती जा रही है. ये आदत बच्चों को मेहनत करने की जगह शॉर्टकट की ओर ले जा रही है. डॉ ईशान्या बताती हैं, "इसके कारण उनमें दूसरों से अपनी तुलना करने, तुरंत सबकुछ पा लेने, साथियों के बीच खुद को 'कूल' या सबसे बेहतर दिखाने जैसी होड़ रहती है. जब उनकी उम्मीदें पूरी नहीं होतीं या उनके अनुरूप नहीं होतीं, तो बच्चे खुद को दोष देने लगते हैं. उनमें कुंठा, तनाव और निराशा, बदला लेने की प्रवृत्ति घर करने लगती है. जब ये भावनाएं बेकाबू हो जाती हैं, तो आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं."
आत्महत्या की कोशिश के डराने वाले आंकड़े
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों में भी छात्रों की आत्महत्या की संख्या में इजाफा देखा गया है. एनसीआरबी के 2001 के आंकड़े में 5,425 बच्चों ने आत्महत्या की थी. 2022 तक ये मामले बढ़कर 13,044 तक हो गए. इन मामलों में 2,248 छात्रों ने सीधे तौर पर परीक्षा में फेल होने पर आत्महत्या कर ली थी. इनके अलावा अवसाद, चिंता, अकेलापन, तनाव और समाज, दोस्तों या घर-परिवार से किसी तरह का समर्थन न मिलने के कारण भी कई बच्चे आत्महत्या का रास्ता चुन रहे हैं.
डॉ ईशान्या अपनी क्लीनिकल साइकियाट्रिक ओपीडी में भी स्कूल जाने वाले छात्रों की संख्या में इजाफा देख रही हैं. वह बताती हैं, "हर महीने ओपीडी में आने वाले औसतन 35 ऐसे बच्चे होते हैं, जो किसी-न-किसी तरह की मानसिक समस्या से जूझ रहे होते हैं. इसके अलावा 15 से अधिक ऐसे बच्चे भी हर महीने हमारे पास आ रहे हैं, जो या तो आत्महत्या की कोशिश कर चुके होते हैं या फिर इस तरह की प्रवृत्ति उनमें देखी गई है."
बाल मनोचिकित्सक प्रोफेसर डॉ पवन गुप्ता का कहना है कि उनके ओपीडी में 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों में प्रतिमाह औसतन 20 से 25 बच्चे ऐसे होते हैं, जो टेक्नोलॉजी और मोबाइल फोन के कारण मानसिक परेशानियों से जूझ रहे हैं.
टेक्नोलॉजी की लत से बचाने के लिए पुट क्लीनिक
केजीएमयू में बच्चों के लिए प्रॉब्लमैटिक यूज ऑफ टेक्नोलॉजी (पुट) क्लीनिक बनाया गया है. मार्च 2019 में शुरू हुए इस क्लिनिक का उद्देश्य बच्चों और किशोरों में ऑनलाइन गेमिंग, सोशल मीडिया और पोर्नोग्राफी जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के अत्यधिक उपयोग से होने वाली समस्याओं और मानसिक विकारों का इलाज करना है.
क्लिनिक का संचालन डॉ पवन करते हैं. उनका सुझाव है कि माता-पिता बच्चों को स्क्रीन से दूर रखने के लिए रचनात्मक गतिविधियों पर ध्यान दें. जैसे कि खेलना, पढ़ना-पढ़ाना, कला और नए अनुभव को सिखाने के क्रियाकलाप. समय रहते यदि बच्चों की डिजिटल आदतों पर नियंत्रण न किया जाए, तो यह भविष्य में उनके व्यक्तित्व और सामाजिक विकास को गहराई से प्रभावित कर सकता है.
-डॉ. संजय शुक्ला
हिंदी में एक प्रचलित मुहावरा है ‘पानी-पानी होना’यानि शर्मसार या लज्जित होना यह मुहावरा भारतीय शहरों पर सटीक बैठती है। देश में मानसून ने रफ्तार पकड़ ली है और इसी बीच महानगरों से लेकर बड़े शहरों और कस्बों में जलभराव की खबरें लगातार आ रही है। बीते दिनों हुई लगातार बारिश के चलते छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर, न्यायधानी बिलासपुर सहित अमूमन सभी शहरों और कस्बों में जलभराव की खबरें एक बार फिर से सामने आई है। भारी बारिश के बीच जल निकासी की माकूल व्यवस्था नहीं होने के कारण बिलासपुर में एक रिटायर्ड प्रोफेसर की मौत फर्श पर पानी भरने से दीवार में फैले करंट से हो गई। रायपुर सहित तमाम शहरों की सडक़ें, गलियां और फ्लाईओवर तथा अंडरब्रिज में भारी जलभराव के चलते जहां यातायात व्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित हुआ वहीं निचली बस्तियों के घरों में बारिश का पानी घुटनों तक भर गया फलस्वरूप वाशिंदों को जहां रतजगा करना पड़ा वहीं बुजुर्गों और बच्चों को भोजन के लिए दो- चार होना पड़ा है। इस बीच नगरीय प्रशासन के तमाम दावों के बीच प्रशासनिक अमला असहाय नजर आया तथा नागरिकों में अव्यवस्था के प्रति नाराजगी भी देखी गई। गौरतलब है कि किसी भी देश के मजबूत अर्थव्यवस्था का प्रतिबिंब उसका चमचमाता शहर ही होता है, शहर जहां तरक्की, रचनात्मकता और नवीनता का केंद्र होता है वहीं यह अर्थव्यवस्था में प्रगति और रोजगार का जनक भी होता है।? भारत के कुल जीडीपी में शहरों का योगदान वर्तमान में 63 फीसदी है जिसके 2050 तक 75 फीसदी पहुंचने की संभावना है। मानव सभ्यता के विकास के साथ ही लोगों के लिए शहर हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है लेकिन अब हमारे शहर तमाम विसंगतियों से जूझ रहे हैं। हालिया इस बारिश ने एक बार फिर से भारतीय शहरों के सीवरेज व्यवस्था और आपदा प्रबंधन की पोल खोल कर रख दी है। एक शोध के मुताबिक हर बारिश में देश के 66 फीसदी शहरों में व्यापक जलभराव होता है फलस्वरूप हजारों करोड़ रुपए का नुकसान होता है।
बहरहाल यह तस्वीर उस देश की है जहां 100 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का ढिंढोरा पीटा गया था। शहरों को स्मार्ट बनाने के लिए सरकार के मंत्रियों, नगरीय निकायों और नौकरशाहों के अब तक दर्जनों विदेशों और महानगरों के अध्ययन दौरे हो चुके हैं लेकिन शहरों के हालात दिनों-दिन बदतर होते जा रहे हैं। शहरों की हालात को देखते हुए कथित अध्ययन दौरे आम जनता के टैक्स के पैसे से नेताओं और अफसरों के महज सैर-सपाटे ही साबित हो रहे हैं क्योंकि इन यात्राओं का कोई परिणाम धरातल पर दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। हर मानसून में महज कुछ घंटों की बारिश में हमारे शहरों में ट्रैफिक जाम,जलभराव, जमीन धसकने और बिजली करंट फैलने जैसी घटनाएं अब आम हो चुकी है। बड़े से लेकर छोटे शहरों में बारिश के दौरान बदहाल व्यवस्था का खामियाजा आम नागरिकों को ही भुगतना पड़ता है। साल 2017 में मुंबई में भारी बारिश के दौरान खुले मेन होल में गिरने और डूबने से सुप्रसिद्ध गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट डॉ. दीपक अमरापुरकर की मौत हो गई थी। बीते साल 2024 में दिल्ली के ओल्ड राजेन्द्र नगर के एक कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में पानी भरने की वजह से दो छात्राओं सहित तीन छात्रों की मौत की घटना ने ने देश को झकझोर कर रख दिया था। अलबत्ता यह सिलसिला अभी भी नहीं थमा है और देश के अनेक हिस्सों से शहरों में जलभराव और बिजली करंट के चलते मौत होने की खबरें लगातार आ रही है।
बहरहाल बारिश के दौरान बरसाती पानी के पुख्ता निकासी व्यवस्था नहीं होने की वजह से जहां जान- माल का नुकसान हो रहा है वहीं इसका दुष्प्रभाव जनस्वास्थ्य, कृषि और आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ रहा है। बरसाती पानी के जमाव की वजह से जहां मच्छर जनित रोग जैसे मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसे रोग होते हैं वहीं दूषित पानी पेयजल आपूर्ति व्यवस्था को भी प्रभावित करती है फलस्वरूप आंत्रशोथ(उल्टी- दस्त), पीलिया, टायफाइड बुखार, पेचिश, जिआर्डियोसिस, पोलियो सहित आंख और त्वचा की बीमारी होती है। जलभराव की वजह से घरों में सांप और जहरीले कीड़े - मकोड़ों के प्रविष्ट होने और उनके दंश से मौत की संभावना भी होती है।बिलाशक बीमारी और मौत का सीधा दबाव स्वास्थ्य सेवाओं और परिवार के आय पर पड़ता है जिससे गरीबी बढ़ती है। दूसरी ओर भारतीय शहरों में जलभराव के चलते होने वाले नुकसान, यातायात बाधा, विद्युत आपूर्ति में व्यवधान, औद्योगिक उत्पादन में कमी, फसल और सब्जियों की बर्बादी, पर्यटन उद्योग से जुड़े काम- धंधों में नुकसान और रोजगार गंवाने से देश को भारी आर्थिक क्षति पहुंचती है। जलभराव का सबसे बुरा असर बस और रेल परिवहन के साथ ही हवाई सेवाओं पर भी पड़ता है जिसके चलते यात्रियों और माल परिवहन को भारी नुकसान उठाना पड़ता है। जलभराव की वजह से सडक़ और पुल - पुलिया क्षतिग्रस्त हो जाते हैं जिसके रिपेयरिंग के लिए सरकार को हर साल करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं जो राजकोषीय भार को बढ़ाते हैं। विश्व बैंक के एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में शहरी बाढ़ के चलते हर साल देश को 4 अरब डॉलर का नुकसान होता है।
दरअसल शहरों में बारिश के दौरान जलभराव समस्या के लिए सरकार, स्थानीय नगरीय प्रशासन और नागरिक ही जिम्मेदार हैं। बेतरतीब शहरीकरण, शहरों के वाटर बॉडी यानि तालाबों और झीलों के खत्म होने, बढ़ते कांक्रीटीकरण, अतिक्रमण, पेड़ों की कटाई और सीवेज लाइनों में तकनीकी खामियों के चलते अधिकांश शहर बरसात में बाढ़ की समस्या से जूझ रहे हैं। शहरों में तालाब और झील या तो अतिक्रमण की भेंट चढ़ रहे हैं अथवा इनका क्षेत्रफल कम हो रहा है जबकि एक दौर में पूरे शहर का बरसाती पानी इन्हीं तालाबों और झीलों में जाता था। सडक़ों, फूटपाथ और शहरी विस्तार के कारण अब शहर कांक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके हैं जिसके चलते जमीन के बरसाती पानी सोखने की नैसर्गिक क्षमता खत्म हो रही है। दूसरी ओर शहरों में जलभराव के लिए आम नागरिक भी काफी हद तक जवाबदेह हैं जो नालियों के उपर अवैध निर्माण अथवा अतिक्रमण कर इसके साफ-सफाई में रूकावट पैदा करते हैं। इसके अलावा लोगों द्वारा नालियों में पॉलिथीन बैग, प्लास्टिक सामाग्री और कचरे डाले जाते हैं फलस्वरूप नालियां जाम हो जाती है। लिहाजा नागरिकों की भी जवाबदेही के वे अपने कर्तव्य के प्रति अनुशासित हों ताकि शहर स्वच्छ और सेहतमंद बन सकें।
- निखिल इनामदार
भारत की सॉफ़्टवेयर इंडस्ट्री बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है।
देश में प्राइवेट सेक्टर की सबसे बड़ी आईटी कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) ने मिड और सीनियर मैनेजमेंट लेवल पर 12 हजार से ज्यादा नौकरियां खत्म करने का ऐलान किया है। इससे कंपनी के कर्मचारियों की संख्या में दो फीसदी की कमी आएगी।
यह कंपनी लगभग पांच लाख से ज्यादा आईटी प्रोफेशनल्स को रोजगार देती है और 283 अरब डॉलर की भारतीय सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री का अहम हिस्सा मानी जाती है।
यह देश में व्हाइट-कॉलर नौकरियों की रीढ़ कही जाती है। व्हाइट कॉलर नौकरियां ऐसी नौकरियां होती हैं, जिनमें दफ्तर या पेशेवर माहौल में काम किया जाता है। इनमें शारीरिक मेहनत कम और दिमागी या मैनेजमेंट से जुड़ा काम ज्यादा होता है।
टीसीएस का कहना है कि यह कदम कंपनी को ‘भविष्य के लिए तैयार’ करने के लिए उठाया गया है, क्योंकि वह नए क्षेत्रों में निवेश कर रही है और बड़े पैमाने पर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अपना रही है।
पिछले कई दशकों से टीसीएस जैसी कंपनियां कम लागत पर वैश्विक ग्राहकों के लिए सॉफ्टवेयर बनाती रही हैं, लेकिन अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के चलते कई काम ऑटोमेटिक हो रहे हैं और ग्राहक नई तकनीक पर आधारित समाधानों की मांग कर रहे हैं।
कंपनी ने कहा, ‘कई री-स्किलिंग और नई भूमिकाओं में नियुक्ति की पहल चल रही है। जिन सहयोगियों की नियुक्ति संभव नहीं है, उन्हें कंपनी से रिलीज किया जा रहा है।’
छंटनी की बुनियादी वजह क्या है?
स्टाफिंग फर्म टीमलीज डिजिटल की सीईओ नीति शर्मा ने बीबीसी से कहा, ‘आईटी कंपनियों में मैनेजर लेवल के लोगों को हटाया जा रहा है और उन कर्मचारियों को रखा जा रहा है जो सीधे काम करते हैं, ताकि वर्कफोर्स को व्यवस्थित किया जा सके और क्षमता बढ़ाई जा सके।’
उन्होंने यह भी बताया कि एआई, क्लाउड और डेटा सिक्योरिटी जैसे नए क्षेत्रों में भर्तियां बढ़ी हैं, लेकिन जिस तेजी से नौकरियां जा रही हैं, उस अनुपात में नई भर्तियां नहीं हो रही हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह फ़ैसला देश की सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में ‘स्किल गैप’ को भी उजागर करता है।
बिजनेस सलाहकार कंपनी ‘ग्रांट थॉर्नटन भारत’ से जुड़े अर्थशास्त्री ऋषि शाह के मुताबिक, ‘जनरेटिव एआई के कारण प्रोडक्टिविटी में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। यह बदलाव कंपनियों को मजबूर कर रहा है कि वे अपने वर्कफोर्स स्ट्रक्चर पर फिर से विचार करें और देखें कि संसाधनों को एआई के साथ काम करने वाली भूमिकाओं में कैसे लगाया जाए।’
नेशनल एसोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विसेज कंपनीज (नैसकॉम) का अनुमान है कि 2026 तक भारत को 10 लाख एआई प्रोफेशनल्स की जरूरत होगी, लेकिन फिलहाल देश के 20 फीसदी से भी कम आईटी प्रोफेशनल्स के पास एआई की स्किल है।
तकनीकी कंपनियां नए एआई टैलेंट तैयार करने के लिए ट्रेनिंग पर ज़्यादा खर्च कर रही हैं, लेकिन जिनके पास जरूरी स्किल नहीं है, उन्हें नौकरी से हटाया जा रहा है।
ट्रंप के टैरिफ़ संबंधी फ़ैसले का असर
एआई के आने से पैदा हुए बदलावों के अलावा, वैश्विक निवेश बैंकिंग फ़र्म जेफऱीज़ का कहना है कि टीसीएस का ऐलान भारत के आईटी सेक्टर में ‘ग्रोथ संबंधी व्यापक चुनौतियों को भी दिखाता है।’
जेफऱीज़ ने एक नोट में लिखा, ‘वित्त वर्ष 2022 से इंडस्ट्री स्तर पर नेट हायरिंग कमजोर रही है, इसके पीछे की वजह मांग में लंबे समय से चल रही गिरावट है।’
अमेरिका में आईटी सेवाओं की मांग पर भी असर पड़ा है, जो भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों की कुल कमाई का आधा स्रोत है। डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीतियों ने इस पर असर डाला है।
हालांकि, टैरिफ मुख्य रूप से सामानों को प्रभावित करते हैं। लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि कंपनियां टैरिफ़ से जुड़ी अनिश्चितताओं और अपनी ग्लोबल सोर्सिंग रणनीतियों के आर्थिक प्रभाव का आंकलन करते हुए आईटी पर होने वाले अतिरिक्त खर्च को रोक रही हैं।
जेफरीज के मुताबिक़, ‘एआई तकनीक अपनाने की वजह से अमेरिकी कंपनियां लागत कम करने के लिए दबाव बना रही हैं, जिससे बड़ी आईटी कंपनियों को कम स्टाफ के साथ काम करना पड़ रहा है।’
इसका असर अब बेंगलुरु, हैदराबाद और पुणे जैसे शहरों में दिखने लगा है, जो कभी भारत के आईटी बूम के केंद्र थे।
एक अनुमान के मुताबिक, पिछले साल इस सेक्टर में करीब 50 हजार लोगों की नौकरियां गई थीं। भारत की शीर्ष छह आईटी कंपनियों में नए कर्मचारियों की संख्या में 72त्न की कमी आई।
पिछले एक साल में यूरोपीय संघ (ईयू) की विदेश नीति में एक बड़ा बदलाव आया है। ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन के साथ संबंध सुधरे हैं। माक्रों और मैत्र्स दोनों ने लंदन का दौरा किया है।
डॉयचे वैले पर आयुष यादव का लिखा-
2016 में यूनाइटेड किंगडम के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने तक, उसकी विदेश नीति यूरोपीय संघ के ढांचे, विशेष रूप से इसकी सामान्य विदेश और सुरक्षा नीति (सीएफएसपी) और सामान्य सुरक्षा व रक्षा नीति (सीएसडीपी) द्वारा ही तय होती थी।
ई3 यूनाइटेड किंगडम, जर्मनी और फ्रांस के बीच एक अनौपचारिक विदेश और सुरक्षा सहयोग व्यवस्था है। इसे अंग्रेजी में ‘मिनिलेटरलिज्म’ के रूप में जाना जाता है, जिसका मतलब है समान विचारधारा वाले देशों का एक छोटे समूह में आकर अनौपचारिक रूप से साथ मिलकर काम करना।
कब साथ आई तिकड़ी
ई3 समूह का गठन 2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद हुआ था। शुरुआत में, इसका मकसद इराक के लिए एक त्रिपक्षीय रणनीति तैयार करना और ईरान से जुड़े परमाणु जोखिमों के बारे में पता करना था।
आगे चलकर तीनों देशों ने मुख्य रूप से ईरान से जुड़ी परमाणु गतिविधियों से संबंधित बातचीत करने के लिए ही बैठकें की, खासकर तब जब अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए ) ने ईरान की परमाणु गतिविधियों से जुड़ी रिपोर्ट का खुलासा किया।
ई3 ने अमेरिका, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और ईरान के बीच सामूहिक बातचीत में एक महत्वपूर्ण मध्यस्थ की भूमिका निभाई। इस समूह ने 2015 के ईरान परमाणु समझौते (जेसीपीओए) पर बातचीत करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ब्रेक्जिट के बाद संबंध बिगड़े
2016 में यूके के यूरोपीय संघ छोडऩे के लिए मतदान करने के बाद यूके, फ्रांस और जर्मनी के बीच संबंध खराब हो गए। औपचारिक रूप से यूरोपीय संघ से बाहर होने के बाद ब्रिटेन को टेढ़ी नजरों से देखा गया।
ब्रिटेन और फ्रांस के बीच उत्तरी सागर में मछली पकडऩे के अधिकारों और प्रवासियों के आने जाने को लेकर तल्खी भी दिखाई दी। जर्मनी में भी ब्रेक्जिट के बाद इससे होने वाले आर्थिक नुकसान का अंदेशा था। 2016 में जर्मनी का तीसरा सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक भागीदार यूनाइटेड किंगडम 2024 में नौवें स्थान पर आ गया।
पिछले कुछ सालों में ई3 समूह के पतन का एक और कारण फ्रैंको-जर्मन रिश्तों में आई दूरी को भी माना जाता है। 2022 में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद, तत्कालीन जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स और फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों के बीच यूक्रेन को समर्थन से लेकर ऊर्जा जैसे कई मुद्दों पर मतभेद भी उभरे।
-मोहम्मद शाहिद
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत से आयात होने वाले सामान पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने की घोषणा कर दी है। इसके साथ ही उन्होंने रूस के साथ व्यापार करने को लेकर जुर्माने की भी बात कही है। यह कैसा और किस तरह का जुर्माना होगा, यह अभी तक साफ़ नहीं है।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2 अप्रैल को भारत समेत दुनिया के 100 देशों पर टैरिफ लगाने की घोषणा की थी।
डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि अगर कोई देश अमेरिकी सामान पर ज़्यादा आयात शुल्क लगाता है, तो अमेरिका भी उस देश से आने वाली चीजों पर ज़्यादा टैरिफ लगाएगा। ट्रंप ने इसे ‘रेसिप्रोकल टैरिफ’ कहा है।
अप्रैल में डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 26 फीसदी टैरिफ लगाने की घोषणा की थी। उस समय ट्रंप ने कहा था कि भारत अमेरिका से ट्रेड डील कर सकता है।
पहले टैरिफ की डेडलाइन 9 जुलाई तय की गई थी, लेकिन बाद में इसे बढ़ाकर 1 अगस्त कर दिया गया। इस डेडलाइन के पूरा होने से दो दिन पहले ही ट्रंप ने भारत पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने की घोषणा की है।
हालांकि, भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौते को लेकर बातचीत जारी थी, लेकिन कुछ क्षेत्रों को लेकर मतभेद बने हुए थे।
रिपोर्टों के मुताबिक़, भारत जेनेटिकली मॉडिफ़ाइड फसलें (जैसे सोयाबीन और मक्का) आयात करने का विरोध कर रहा था और घरेलू डेयरी बाज़ार विदेशी कंपनियों के लिए खोलना नहीं चाहता था।
भारत और अमेरिका के बीच व्यापार
साल 2024 में भारत और अमेरिका के बीच 129 अरब डॉलर का व्यापार हुआ था, जिसमें भारत का लगभग 46 अरब डॉलर का व्यापार अधिशेष (ट्रेड प्लस) था।
भारत अमेरिकी वस्तुओं पर सबसे ज़्यादा टैरिफ लगाने वाले देशों में शामिल है। भारत आयात पर सर्वाधिक औसतन 17 फीसदी टैरिफ लगाता है। वहीं अमेरिका का टैरिफ दो अप्रैल से पहले 3।3 फीसदी ही था।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में साल 1990-91 तक औसत टैरिफ दर 125त्न तक थी। उदारीकरण के बाद यह कम होती चली गई। साल 2024 में भारत की औसत टैरिफ दर 11.66त्न थी।
द हिन्दू की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत सरकार ने टैरिफ के 150त्न, 125त्न और 100त्न वाली दरों को समाप्त कर दिया है।
ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद भारत सरकार ने टैरिफ रेट में बदलाव किया। भारत में लग्जरी कार पर 125त्न टैरिफ था, अब यह 70त्न कर दिया गया है।
ऐसे में साल 2025 में भारत का औसत टैरिफ रेट घटकर 10।65त्न हो चुका है।
आमतौर पर हर देश टैरिफ लगाते हैं लेकिन अन्य देशों की तुलना में भारत सबसे ज़्यादा टैरिफ़ लगाने वाले में से एक है। इसी वजह से ट्रंप बार-बार भारत को दुनिया के सबसे ज़्यादा टैरिफ लगाने वाले देशों में गिनते हैं।
ट्रंप चाहते हैं कि जिन देशों के साथ अमेरिका का व्यापार घाटा है उसे ख़त्म किया जाए।
भारत के किन क्षेत्रों पर पड़ेगा असर?
डोनाल्ड ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्रुथ सोशल पर भारत के ऊपर 25 फीसदी टैरिफ लगाने की घोषणा तो की है, लेकिन इसमें किस-किस क्षेत्र पर कितना टैरिफ लगेगा इसका ब्योरा नहीं दिया है।
हालांकि जब अप्रैल में टैरिफ की घोषणा की गई थी तब साफ था कि भारत के किन-किन क्षेत्रों पर इसका असर होगा।
अमेरिका को निर्यात किए जाने वाले उत्पाद खासतौर से भारत के 30 क्षेत्रों से आते हैं। इनमें से छह कृषि और 24 उद्योग क्षेत्र में आते हैं।
हालांकि उस समय सबसे ख़ास बात यह थी कि भारत के सबसे बड़े औद्योगिक निर्यात-फार्मा उद्योग (लगभग 13 अरब डॉलर) को इस टैरिफ से छूट दी गई थी।
इस बार ऐसा हुआ है या नहीं, यह अभी तक साफ नहीं है। इसके अलावा जिन क्षेत्रों पर सबसे ज़्यादा असर पडऩे के आसार हैं, वे जूलरी, कपड़ा, टेलीकॉम और इलेक्ट्रॉनिक सामान, ऑटोमोबाइल और कैमिकल से जुड़े हैं।
निकोर असोसिएट्स में अर्थशास्त्री मिताली निकोर कहती हैं कि इसे सिर्फ 25 फीसदी टैरिफ नहीं मानना चाहिए क्योंकि इसमें 10 फीसदी की पेनल्टी भी है, इसका मतलब टैरिफ 35 फीसदी हो गया है।
वह कहती हैं, ‘25 फीसदी बेस रेट और 10 फ़ीसदी टैरिफ तब तक लगता रहेगा जब तक हम रूस से तेल लेते रहेंगे। यह कुल 35 फीसदी का टैरिफ है।’
भारत से अमेरिका को 11.88 अरब डॉलर का सोना, चांदी और हीरा निर्यात होता है। इस क्षेत्र में निर्यात कम होने पर इसका असर छोटे कारीगरों और कारोबारियों पर पड़ेगा।
मिताली निकोर कहती हैं, ‘जेम एंड जूलरी सेक्टर पर सबसे ज़्यादा असर होगा। गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से सबसे ज़्यादा यह निर्यात होता है।’
भारत से अमेरिका को 4।93 अरब डॉलर का कपड़ा निर्यात होता है, इसलिए इस क्षेत्र पर भी पडऩे वाला है।
मिताली कहती हैं कि टेक्सटाइल उद्योग पर पडऩे वाला असर भारत के पड़ोसी मुल्कों पर लगने वाले टैरिफ से भी तय होगा। वह कहती हैं कि बांग्लादेश से काफी बड़ी तादाद में टेक्सटाइल एक्सपोर्ट होता है और वियतनाम अपनी ट्रेड डील अमेरिका के साथ कर चुका है।
‘अगर यह स्थिति रही तो भारत और बांग्लादेश से अमेरिका का होने वाला व्यापार अब वियतनाम की ओर जाएगा। इस सेक्टर में महिलाएं भी शामिल हैं तो उन पर बहुत असर पडऩे जा रहा है।’
भारत अमेरिका को 14.39 अरब डॉलर के मोबाइल, टेलीकॉम और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस बेचता है। ज़ाहिर है अब इन पर भी असर पड़ेगा।
मिताली कहती हैं कि एपल जैसी कंपनियां भारत में आकर अपना काम कर रही थीं लेकिन इन टैरिफ के बाद वे भारत क्यों आएंगी। स्टील-एल्युमीनियम पर भी असर पड़ेगा।
भारत को कितना होगा नुकसान, अर्थव्यवस्था कहां जाएगी?
सिटी रिसर्च का अनुमान है कि टैरिफ लगने से भारत को सालाना 700 करोड़ डॉलर का घाटा होगा।
मिताली कहती हैं कि ‘7 अरब डॉलर के नुकसान का ये एक आंकड़ा हमारे सामने है लेकिन वर्तमान में इसका प्रत्यक्ष असर हमारे यहां के व्यापारियों के लाभ पर पड़ेगा।’
‘अगर इसके अप्रत्यक्ष असर की बात करें तो यह हमारी अर्थव्यवस्था पर होगा। अर्थव्यवस्था का सीधा सा नियम है कि जब निर्यात कम होता है तो उपभोग कम होता है, नौकरियां जाती हैं। इन सबकी वजह से वे लोग गऱीबी में ज्यादा जा सकते हैं जो अभी गऱीबी से बाहर निकले हैं।’
टैरिफ बढ़ोतरी का सीधा असर उत्पादन पर पड़ेगा और उत्पादन में कमी आने पर रोजगार में भी कमी आएगी। इससे कहीं न कहीं पूरा अर्थचक्र प्रभावित होगा।
वहीं अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार मंजरी सिंह कहती हैं कि अभी भारत की ओर से ट्रेड डील पर द्विपक्षीय बातचीत जारी है इसलिए पहले से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जाना चाहिए।
वह कहती हैं कि भारत का अमेरिका के साथ ट्रेड सरप्लस में है, हम जितना उन्हें निर्यात करते हैं उससे कम आयात करते हैं।
‘अगर 25 फीसदी का टैरिफ लग भी जाता है तो 45 अरब डॉलर के सरप्लस में कमी आएगी। हालांकि ऑटोमोबाइल और फ़ार्मा सेक्टर पर खासा असर पड़ सकता है।’
दोनों देशों के बीच ट्रेड डील न हो पाने की वजह भारत का कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए अपने दरवाज़े न खोलना बताया जा रहा है।
भारत में अमेरिकी कृषि उत्पादों पर औसतन 37.7त्न टैरिफ लगाया जाता है, जबकि अमेरिका में भारतीय कृषि उत्पादों पर यह दर 5.3त्न है। ट्रंप की ताजा घोषणा के बाद भारत से आने वाले उत्पादों पर यह टैरिफ़ 25त्नहो गया है।
मंजरी सिंह कहती हैं कि कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए बाज़ार खोलना भारत को भारी पड़ सकता है, इसलिए इस विषय पर सहमति नहीं बन पा रही है। उनका कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि की अहम भूमिका है। अगर अमेरिकी कृषि और डेयरी उत्पाद भारत में आए, तो इससे यहां के छोटे किसानों पर असर पड़ेगा।
राष्ट्रपति ट्रंप की घोषणा के बाद भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा है कि ‘सरकार भारत के किसानों, उद्यमियों और सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के कल्याण और हितों को सर्वोच्च महत्व देती है।’
-शालिनी श्रीनेत
क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?
मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी 'पंच परमेश्वर' की एक लाइन है।
'हंस' के कार्यक्रम में एक ऐसे व्यक्ति को पैनल में रखा गया है जिस पर एक स्त्री ने आरोप लगाया है कि वह उसके साथ प्रेम में रहते हुए हिंसा करते थे।
कैंपेन Metoo में भी एक लड़की ने उन पर आरोप लगाया। पर उनके बचाव में कुछ लोग आ गये और उन पर कार्रवाई से बचा लिए।
क्या 'हंस' के संचालकों को मालूम नहीं था कि इस व्यक्ति पर आरोप है, एक केस भी चल रहा है मीनाक्षी ने केस भी किया है। मीनाक्षी ने मेरा रंग को मेल करके संजय राजौरा के दुर्व्यवहार और हिंसा की डिटेल दी है।
मीनाक्षी का कहना है कि 27 जुलाई को हंस के पेज पर पोस्टर शेयर हुआ और 28 जुलाई को मीनाक्षी ने देखा और 'हंस' के पदाधिकारियों से शिकायत दर्ज की तो उन लोगों ने कहा कि अब तो कार्यक्रम बहुत पास है कुछ नहीं कर सकते, पहले पता होता तो सोचते...
क्या स्त्री होते हुए भी स्त्री का दर्द समझने और फैसला लेने में इतनी लापरवाही कि पहले पता होता तो कुछ सोचते,अरे जब पता चल गया तभी क्यों नहीं सोचना?
'हंस' के पदाधिकारियों से मेरा सवाल है कि किसी भी कार्यक्रम में पैनल का सलेक्शन करते समय क्या मापदंड होता है?
मीनाक्षी का कहना है कि कार्यक्रम की संचालक स्त्रीवादी शीबा असलम फहमी को सब कुछ मालूम है । तो मेरा सवाल शीबा असलम जी से भी है कि उन्होंने इस पैनल में आने से इनकार क्यों नहीं किया?
मीनाक्षी का कहना है कि संजय राजौरा का हंस से कोई सम्बन्ध नहीं, कोई लेखक तो हैं नहीं कि 'हंस' में छपते रहे हों। पैनल के लिए उनका नाम शीबा असलम फहमी ने दिया है।
हंस की डायरेक्टर भी महिला हैं और प्रेमचंद जयंती पर होने वाले कार्यक्रम की संचालक भी महिला हैं।
पूरी घटना से अवगत होने के बाद भी पैनल में लिया गया है। ऐसी कौन सी मजबूरी लगी है कि जिस व्यक्ति पर आरोप है वहीं पैनल में हो। अच्छे काम करने वालों की कमी है जो इस व्यक्ति को इतना सम्मान दिया जा रहा है?
कहना तो नहीं चाहिए लेकिन इधर लगातार ऐसे लोगों का सहयोग है, हंस को जो तमाम तरह के विवाद में हैं।एक ऐसे सज्जन का सहयोग जो अपनी पत्नी के साथ दुर्व्यवहार और तमाम कम उम्र की लड़कियों के साथ अभद्रता कर चुके हैं Metoo में नाम आते आते रह गया।
आम जनता को सब मालूम है 'हंस' परिवार को कैसे नहीं मालूम?
क्या 'हंस' को अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल नहीं है?
ऐसे बहुत से सवाल हैं।
कल ही कार्यक्रम है और आज सवालों के घेरे में, ऐसे में क्या फैसला लेगा हंस परिवार?
क्या स्त्री होने के नाते कुछ न्याय संगत फैसला कर पायेंगी? क्योंकि सवाल एक स्त्री की गरिमा और उस पर हुई हिंसा का है।
इस्राएल के दो मानवाधिकार संगठनों ने अपनी ही सरकार पर फलीस्तीनियों के जनसंहार के आरोप लगाए हैं। भूख से मरते गाजा के बच्चों की कहानियां सामने आने के बाद कई देशों ने इस्राएल सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है।
डॉयचे वैले पर ओंकार सिंह जनौटी का लिखा-
इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ता जा रहा है। सोमवार को नीदरलैंड्स ने इस्राएल के राजदूत को तलब किया। गाजा में बदतर होते हालात के बीच नीदरलैंड्स के विदेश मंत्री कास्पर फेल्डकाम्प ने सोमवार रात इस्राएल को एक खत भी लिखा। इसमें इस्राएल के दो मंत्रियों पर यात्रा प्रतिबंध लगाने की जानकारी के साथ अन्य कदमों का विवरण भी था। खत में साफ लिखा गया है कि, गाजा में युद्ध रुकना ही चाहिए।
नीदरलैंड्स ने इस्राएल के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतमार बेन-ग्विर और वित्त मंत्री बेजालेल स्मोट्रिष पर यात्रा प्रतिबंध लगाया है। ये दोनों नेता धुर दक्षिणपंथी हैं और इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू की गठबंधन सरकार में मजबूत साझेदार हैं। ये दोनों ही इस्राएली बस्तियों के विस्तार के अभियान और गाजा में युद्ध जारी रखने के प्रबल समर्थक है। बीते महीने, जून में इन दोनों नेताओं पर ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड और नॉर्वे भी आर्थिक प्रतिबंध लगा चुके हैं।
मंगलवार शाम यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स में ईयू के नेताओं की भी मुलाकात होनी है। इसमें इस्राएल के लिए यूरोपीय संघ के जवाब पर बातचीत की जाएगी। समाचार एजेंसी एपी के मुताबिक, इस्राएल के साथ यूरोपीय संघ के कारोबारी समझौते की समीक्षा भी बैठक के एजेंडे में है। नीदरलैंड्स चाहता है कि इस्राएल के साथ कारोबारी समझौते के कुछ हिस्से निलंबित किए जाएं।
इस बीच दुनिया के कई बड़े और प्रभावशाली देश अब इस्राएल और अमेरिका की नाराजगी की परवाह किए बिना मध्य पूर्व में दो राष्ट्र वाले समाधान का खुला समर्थन करने लगे हैं।
इस्राएली नेताओं का पलटवार
बढ़ते दबाव के बीच, इस्राएली मंत्री बेन-ग्विर और स्मोट्रिष अब भी अपने रुख पर कायम हैं। दोनों नेता यूरोप पर तंज भी कस रहे हैं। सोशल मीडिया पर जारी एक बयान में स्मोट्रिष ने कहा कि यूरोपीय नेता ‘कट्ट्ररपंथी इस्लाम के झूठों’ के सामने आत्मसमर्पण कर रहे हैं। बेन-ग्विर ने आरोप लगाया कि यूरोप में ‘इस्राएल का एक यहूदी मंत्री अवांछनीय है, आतंकवादी मुक्त हैं और यहूदियों का बहिष्कार किया जाता है।’
7 अक्टूबर 2023 को इस्राएल पर हमास के हमले के बाद इस्राएल ने गाजा में हमास के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है। लेकिन बीते कई महीनों से यह युद्ध गाजा की पूरी तरह घेरेबंदी में बदल चुका है। इस्राएल पर कई देश और संगठन,गाजा में भुखमरी जैसे हालात पैदा करने का आरोप लगा रहे हैं। हाल के महीनों में इसके कई साक्ष्य भी सामने आए हैं।
इस्राएल दावा करता रहता है कि हमास, गाजा में फलीस्तीनियों तक राहत सामग्री नहीं पहुंचने दे रहा है और उसके लड़ाके ऐसी मदद लूट रहे हैं। यूएन ने योजनाबद्ध तरीके से होने वाली लूट के इन इस्राएली दावों को खारिज किया है।
गाजा से ऐसे कई वीडियो आ रहे हैं जिनमें भुखमरी के कारण बच्चे जीवित कंकाल जैसे दिख रहे हैं। युद्ध से तहस नहस हो चुके इलाके में हर दिन लोग खाने के लिए एक दूसरे पर चढ़ते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे साक्ष्य सामने आने के बाद कई यूरोपीय सरकारों पर भी दबाव बढ़ता जा रहा है। नीदरलैंड्स में अक्टूबर में चुनाव होने हैं। देश के कई इलाकों में पिछले हफ्ते हजारों लोगों ने गाजा में भुखमरी के खिलाफ बड़े प्रदर्शन किए।
-ओसमंड चिया
चीन की सरकार आबादी घटने से रोकने के लिए नई स्कीम लेकर आई है। इस योजना के तहत तीन साल से कम उम्र के हर बच्चे के लिए प्रति वर्ष 3,600 युआन यानी लगभग 1500 डॉलर की पेशकश की जा रही है।
चीन की जन्म दर में गिरावट आ रही है, हालाँकि सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने लगभग एक दशक पहले ही अपनी विवादास्पद एक-बच्चा नीति को समाप्त कर दिया था।
सरकारी मीडिया के अनुसार, यह नकद सहायता लगभग दो करोड़ परिवारों को बच्चों की परवरिश में मदद करेगी।
चीन के कई प्रांतों ने लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए नकद प्रोत्साहन राशि की पायलट योजनाएँ पहले ही शुरू कर दी थीं, क्योंकि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था एक संभावित जनसांख्यिकीय संकट का सामना कर रही है।
सोमवार को घोषित की गई यह योजना माता-पिता को अधिकतम 10,800 युआन तक की राशि देगी। यानी स्कीम के तहत तीन बच्चों को इस योजना के दायरे में लाया गया है।
चीन के सरकारी प्रसारक सीसीटीवी ने बताया है कि यह नीति इस वर्ष की शुरुआत से लागू मानी जाएगी।
2022 से 2024 के बीच जन्मे बच्चों वाले परिवार भी आंशिक सब्सिडी के लिए आवेदन कर सकते हैं।
यह कदम चीन में जन्म दर बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के प्रयासों के बाद उठाया गया है।
तेजी से बुजुर्ग होती आबादी और सरकारी प्रयास
इसी साल मार्च में, चीन के उत्तरी क्षेत्र में स्थित होहोत शहर में तीन या अधिक बच्चों वाले दंपतियों को प्रति बच्चे एक लाख युआन तक की सहायता देने की शुरुआत हुई थी।
बीजिंग के पूर्वोत्तर में स्थित शहर शेनयांग, तीसरे बच्चे के तीन साल का होने तक स्थानीय परिवारों को हर महीने 500 युआन की राशि देता है।
पिछले सप्ताह, बीजिंग ने स्थानीय सरकारों से मुफ्त प्रीस्कूल शिक्षा लागू करने की योजना तैयार करने का भी आग्रह किया था।
चीन-स्थित युवा जनसंख्या अनुसंधान संस्थान द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि चीन दुनिया के सबसे महंगे देशों में से एक है जहाँ बच्चे पालना अपेक्षाकृत महंगा है।
इस अध्ययन के अनुसार, चीन में एक बच्चे को 17 वर्ष की उम्र तक पालने की औसत लागत 75,700 डॉलर है।
जनवरी में जारी सरकारी आंकड़ों में दिखाया गया है कि चीन की जनसंख्या लगातार तीसरे वर्ष 2024 में भी घटी है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के अनुसार, 2024 में चीन में 95 लाख 40 हज़ार शिशुओं का जन्म हुआ।
हालांकि यह आंकड़ा पिछले वर्ष की तुलना में थोड़ा अधिक था, लेकिन देश की कुल जनसंख्या में गिरावट जारी रही।
चीन की 140 करोड़ की जनसंख्या भी तेज़ी से बुज़ुर्ग होती जा रही है, जिससे बीजिंग की जनसांख्यिकीय चिंता और बढ़ गई है।
भारत के तमाम शहरों को तेजी से स्मार्ट ट्रैफिक समाधान चाहिए। वरना, बेंगलुरु जैसी हालत उनकी हालत भी खस्ता कर देगी।
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
दुनिया भर के तमाम संस्थानों और सरकारों को सॉफ्टवेयर सॉल्यूशन मुहैया कराने वाला बेंगलुरु खुद अपनी समस्याओं का समाधान नहीं तलाश पा रहा है। ट्रैफिक समस्या के लिए बदनाम रहे आईटी कैपिटल बेंगलुरु में ट्रैफिक पुलिस ने अब इस समस्या के समाधान के लिए आईटी कंपनियों से ही गुहार लगाई है। ट्रैफिक पुलिस ने अब आईटी कंपनियों से शिफ्ट की टाइमिंग बदलने और बुधवार को वर्क फ्रॉम होम शुरू करने समेत कई सुझाव दिए हैं।
महानगर की लगातार बदतर होती ट्रैफिक समस्या पर कुछ हद तक अंकुश लगाने के लिए ट्रैफिक पुलिस, नगरपालिका, बेंगलुरु महानगर परिवहन निगम और आईटी उद्योग के प्रतिनिधियों के बीच हाल में हुई बैठक में कई उपाय सुझाए गए हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर इनका कितना असर होगा, यह कहना मुश्किल है। कई इलाको में आधारभूत ढांचों का निर्माण, तेजी से बढ़ती वाहनों की तादाद और बीते महीने बाइक टैक्सी पर लगी पाबंदियों ने हालात को बेकाबू करने में अहम भूमिका निभाई है।
अब तमाम उपायों को बेअसर होते देख कर ट्रैफिक पुलिस ने आईटी कंपनियों से इस मामले में मदद की गुहार लगाई है। पुलिस का कहना है कि बुधवार को सडक़ों पर ट्रैफिक सबसे ज्यादा होता है। आईटी कंपनियों के साथ बैठक में पुलिस ने उनसे बुधवार को कर्मचारियों को वर्क फ्रॉम होम की सुविधा देने की अपील की है। इसके साथ ही उनसे सुबह की शिफ्ट की टाइमिंग बदलने का भी अनुरोध किया गया है। ट्रैफिक पुलिस के संयुक्त आयुक्त कार्तिक रेड्डी डीडब्ल्यू से कहते हैं, ‘सुबह नौ से दस बजे तक सडक़ों पर भारी भीड़ रहती है। खासकर ज्यादातर कंपनियों के दफ्तर आउटर रिंग रोड पर हैं। वहां मेट्रो के निर्माण कार्य चलने से सडक़ों पर ऐसे ही भारी दबाव है। ऐसे में अगर कर्मचारियों की सुबह की शिफ्ट नौ से दस बजे के बजाय साढ़े सात बजे से साढ़े नौ के बीच कर दी जाए तो ट्रैफिक का दबाव काफी कम हो सकता है।’
रेड्डी कहते हैं कि कंपनियों को अपने कर्मचारियों को निजी वाहनों की बजाय कार पूलिंग से दफ्तर आने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। बैठक में परिवहन निगम से और ज्यादा तादाद में एसी बसों को सडक़ों पर उतारने का अनुरोध किया गया है ताकि आईटी कर्मचारी इनका इस्तेमाल कर सकें। रेड्डी बताते हैं कि परिवहन निगम ने और अतिरिक्त बसों को सडक़ों पर उतारने का भरोसा दिया है।
आईटी सेक्टर और ग्रेटर बेंगलुरु आईटी एंड कंपनीज एसोसिएशन ने वर्क फ्रॉम होम योजना का समर्थन किया है। लेकिन ऐसा उसी स्थिति में संभव होगा जब इसे ढंग से लागू किया जाए और कर्मचारियों को समय रहते इसकी सूचना दी जाए। एसोसिएशन के एक प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘इस मुद्दे पर प्रबंधन के साथ बातचीत की जाएगी।’
क्यों इतनी बदतर गई बेंगलुरु की यातायात व्यवस्था
लेकिन आखिर बेंगलुरु की ट्रैफिक समस्या कम होने की बजाय लगातार गंभीर क्यों हो रही है? परिवहन विभाग के एक अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से कहते हैं, "महानगर में 1।23 करोड़ वाहन पहले से पंजीकृत हैं। इसके अलावा इस साल के पहले छह महीनों के दौरान तीन लाख से ज्यादा नए निजी वाहनों का पंजीकरण किया जा चुका है। अकेले जून के दौरान ही करीब 50 हजार वाहनों का पंजीकरण किया गया है।’
बीते महीने बाइक टैक्सी पर हाईकोर्ट की पाबंदी ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। ट्रैफिक पुलिस के एक अधिकारी ने बताया कि इस पाबंदी के बाद पीक आवर में सडक़ों पर वाहनों की भीड़ 18 से 22 फीसदी तक बढ़ गई है। इन बाइक टैक्सियों का इस्तेमाल करने वाले लाखों लोग अब निजी वाहनों या तिपहिया स्कूटरों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे सडक़ों पर भीड़ बढ़ी है।
ट्रैफिक पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, महानगर के निजी और सार्वजनिक वाहनों के अलावा रोजाना हजारों की तादाद में पड़ोसी जिलों से भी वाहन पहुंचते हैं।
- पंकज झा
देश भर में कहीं भी महिला या आदिवासी उत्पीड़न का विषय हो, तो समाज से यह अपेक्षा होती है कि वह पीड़ित के पक्ष में खड़ा दिखे न कि आरोपियों की तीमारदारी में लग जाय। न्याय का अपना तकाजा है। नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत तो यह कहता है कि सौ दोषी भले छूट जाय लेकिन किसी एक निर्दोष को दंड नहीं मिलना चाहिए। तो अदालत भले न्याय को अपनी छलनी में छानें किंतु समाज और संगठनों से आशा यही होती है कि वह पीड़ितों का पक्ष ले, तस्करी या दुष्कर्म आदि जैसे विषयों पर आरोपियों का मनोबल नहीं बढ़ाये। दुखद यह है कि अक्सर ऐसे विषयों पर भी कांग्रेस सस्ती और हल्की राजनीति से बाज नहीं आती।
पिछले दिनों दुर्ग में दो संदिग्ध महिला को गिरफ्तार किया गया, जिस पर आरोप था कि वह प्रदेश की आदिवासी बेटियों की तस्करी में संलिप्त है। क्योंकि वे महिलायें ईसाई मिशनरी से संबंधित थी, तो आश्चर्यजनक ढंग से देश भर में कांग्रेस, दुनिया भर में दुष्प्रचार करने जुट गयी। आसमान सर पर उठा लिया उसने। संसद तक में प्रदर्शन करने पहुंच गए कांग्रेस के लोग।
सोचिए जरा। प्रदेश के अंतिम छोर के एक धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्र से संबंधित अपराध में हुई गिरफ़्तारी पर देश भर में हंगामा मचा देना, यह कौन सी नीति है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार देश भर में रोज तकरीबन 18 हजार मुकदमें दर्ज किए जाते हैं। इन मुकदमों में जघन्य अपराधों से लेकर सामान्य अपराधों के विषय भी शामिल होते हैं। जमानतीय से लेकर गैर जमानतीय तक। हत्या से लेकर बलात्कार और धर्मांतरण तक के। चोरी और डकैती, तस्करी आदि से संबंधित भी।
आप कल्पना कीजिए, अगर ऐसे हर अपराध दर्ज होने के बाद मुख्य विपक्षी कांग्रेस संसद तक को घेरने लगे, उसके तमाम बड़े कहे जाने वाले नेतागण ट्वीट/पोस्ट आदि करने लगे, तो कैसा होगा! कानून-व्यवस्था तक की स्थिति उसके बाद क्या होगी?
छत्तीसगढ़ में दो नन की गिरफ्तारी का विषय ऐसा ही है। इस प्रकरण में भी बिना तथ्य जाने कूद कर नतीजे पर पहुंच कर, आदिवासी बेटियों के पक्ष में एक शब्द नहीं बोल पाने वाले कांग्रेस के लोगों को सोचना चाहिए कि क्या हर मामले में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेकर ही अब कोई प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है? या कुछ विशेष संप्रदायों के मामले में यह तय किया जाएगा कि इन संप्रदायों से जुड़े विषयों पर राहुलजी की राय पहले ली जाय? क्या ऐसी कोई व्यवस्था संविधान में है?
तथ्य तो यह है कि हर आरोपी को अंततः विहित व्यवस्था के तहत न्यायिक प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ता ही है। अगर आपको किसी आरोप में निरुद्ध किया गया है, तो न्यायिक व्यवस्था के तहत आपको अपना पक्ष कोर्ट में रखना ही होगा, अगर आप निर्दोष भी हैं तो दोषमुक्ति होने का और कोई उपाय नहीं है। आदिवासी लड़कियों की तस्करी जैसे घृणित आरोप में गिरफ्तार अपराधियों के पक्ष में ही खड़े हो कर आप स्वयं को और अधिक अलोकप्रिय ही बनायेंगे।
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में राजनीतिक लाभ-हानि का विचार कर आरोपियों के पक्ष में ही कांग्रेस के खड़े हो जाने का जाने का यह पहला मामला भी नहीं है। कुछ वर्ष पहले ही जब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, तब पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन नवा रायपुर में हुआ था, वहां कांग्रेस की ही डेलीगेट एक चर्चित दलित नेत्री, जो कांग्रेस प्रत्याशी भी रह चुकी है, ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस नेत्री प्रियंका वाड्रा के निजी सचिव ने न केवल दलित नेत्री का उत्पीड़न किया बल्कि उसने जातिगत गाली-गलौज आदि भी की थी। इस आशय का दलित नेत्री ने बाकायदा मुकदमा भी दर्ज कराया था। उस समय भी मामले को दबा दिया गया था और पीड़ित दलित महिला का ही उत्पीड़न होता रहा, वह दर-दर की ठोकर खाती रही लेकिन प्रियंका गांधी के लिए कई किलोमीटर लंबी गुलाबों की पंखुड़ियां बिछाई जाती रही थी। और उन्हीं मोटी पंखुड़ियों के बीच बीच रायपुर में हुए एक अन्य दुष्कर्म (जैसा कि कांग्रेस की एक पूर्व नेत्री ने आरोप लगाया है) की खबरें भी दबा दी गई थी ताकि अधिवेशन खराब न हो। लड़की हूँ लड़ सकती हूँ के नारे के पीछे किस तरह आदिवासी, दलित, महिलाओं की आवाज दबा दी जाती है और आरोपियों/अपराधियों के पक्ष में कांग्रेस खड़ी हो जाती है, उसके उपरोक्त जैसे सैकड़ों उदाहरण आपको मिल जायेंगे।
लड़कियों को नौकरी का झांसा देकर तस्करी किए जाने अर्थात् ह्यूमन ट्रैफिकिंग विशेषकर आदिवासी क्षेत्रों में एक संगठित अपराध की तरह है। इस पर लगातार सरकारें लगातार कार्रवाई करती ही हैं। आदिवासी जन-जीवन और अस्मिता से जुड़े ऐसी किसी भी लड़ाई को कमजोर नहीं होने देना चाहिए। पुलिस को अपना काम करने देना चाहिए। पर मामले में ईसाई एंगल आते ही इस तरह कांग्रेस का टूट पड़ना निंदनीय है।
राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि सन 2022 में (जब प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार थी) छत्तीसगढ़ में ह्यूमन ट्रैफिकिंग के तहत दर्ज मामलों की संख्या लगभग 100 थी। ये मामले मुख्य रूप से महिलाओं और बच्चों की तस्करी से संबंधित थे, जिनमें देह व्यापार, जबरन मजदूरी, और घरेलू काम शामिल हैं। हाल के दिनों में केवल जनवरी-जुलाई 2024 तक, छत्तीसगढ़ पुलिस ने 50 से अधिक तस्करी पीड़ितों को बचाया, जिनमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे। पिछले वर्ष के एक मामले में तो छत्तीसगढ़ पुलिस ने रायपुर में एक अंतरराज्यीय तस्करी रैकेट का भंडाफोड़ किया, जिसमें 15 नाबालिग लड़कियों को दिल्ली भेजा जा रहा था। तब भी 5 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। जुलाई 2024 में रायपुर में तस्करी रैकेट का भंडाफोड़ कर 8 नाबालिग लड़कियों को बचाया गया। मई 2024 में बस्तर से एक 12 बच्चों को तस्करी से बचाया, जो ईंट भट्टों में काम करने के लिए ले जाए जा रहे थे। इससे पहले सुरजपुर में पुलिस ने सामाजिक संगठनों की सहायता से 10 बच्चों को बचाया, फिर आदिवासी समुदायों से युवतियों को नौकरी का झांसा देकर तस्करी करने के कई मामले दर्ज किए गए। पुलिस ने बाकायदा अभियान चला कर दर्जनों ऐसे संगठित अपराधों का खुलासा किया और पीड़ितों का रेस्क्यू किया।
ऐसे अन्य तमाम विषयों की तरह ही इसे भी देखा जाना चाहिए था। लेकिन लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, उनकी बहन प्रियंका वाड्रा समेत दर्जनों कांग्रेस नेताओं ने आरोपियों के पक्ष में सोश्यल मीडिया पर बयानों की बाढ़ ला दिया। एक बड़े कांग्रेस नेता ने तो बकायदा आरोपियों की सिफारिश करते हुए पत्र तक लिख दिया। संसद में कांग्रेस ने प्रदर्शन तक किया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक स्थगन प्रस्ताव भी लाने की तैयारी से संबंधित खबर आ रही है।
कांग्रेस को यह ध्यान रखना होगा कि मानव तस्करी का यह कृत्य न केवल बच्चियों को देह व्यापार में धकेलने संगठित रूप से यह किया जा रहा है, बल्कि अंग तस्करी आदि के लिए भी ऐसे घृणित अपराध होने की सूचना है। ऐसे मामलों पर कांग्रेस की बासी कढ़ी में इतना उबाल नहीं आना चाहिए। अन्य विषयों से इसमें विशेषता केवल यह थी कि दोनों आरोपी महिला ईसाई समुदाय से जुड़ी थी और ‘नन’ थी। तो क्या छत्तीसगढ़ में पुलिस को अब कोई कार्रवाई करने से पहले यह देखना पड़ेगा कि आरोपी कोई ईसाई या मुस्लिम न हो? अगर ऐसे किसी के खिलाफ मुकदमें आदि दर्ज किए गए, तो कांग्रेस इस तरह अपनी समूची ताकत बस्तर की बेटियों का सौदा करने वालों के पक्ष में झोंक देगी? जिस संविधान की बड़ी-बड़ी बात राहुल गांधी करते हैं, क्या वह संविधान ऐसे किसी कृत्य की इजाजत देता है? क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार प्रदेश की सरकार को आखिरकार क्यों केंद्रीय कांग्रेस से कोई अनापत्ति प्रमाण पत्र चाहिए भला?
-अहमद अजीज
मानव-निर्मित अकाल के बीच, भूख से मरते फिलिस्तीनी परिवार अकल्पनीय स्थिति का सामना कर रहे हैं- बच्चे और बुजुर्ग रोटी के लिए भीख मांग रहे हैं, माता-पिता मौत की दुआ कर रहे हैं और दुनिया चुपचाप देख रही है
गाजा पट्टी पर उगने वाली हर सुबह और ज़्यादा भूख , और ज़्यादा बर्बादी और गहरी होती निराशा के अलावा कुछ नहीं लाती ।
तीन महीने से भी ज़्यादा समय से, बीस लाख से ज़्यादा लोग एक अभूतपूर्व तबाही झेल रहे हैं- हर मायने में एक सच्चा अकाल-एक निर्दयी युद्ध, एक बेरहम घेराबंदी और एक अक्षम्य अंतरराष्ट्रीय चुप्पी के बीच ।
गाजा में अकाल रोज़मर्रा की हकीकत बन गया है। यह अब सिफऱ् अभाव की अनुभूति नहीं रह गया है; यह सडक़ों पर थककर गिरते लोगों के रूप में प्रकट होता है।
बच्चे, औरतें, बुजुर्ग-कोई भी नहीं बख्शा गया। हमने अपनी आँखों से फुटपाथ पर पड़े शवों और बेकरियों के खंडहरों के बाहर या कभी न पहुँच पाने वाली सहायता वितरण केंद्रों पर लोगों की जान जाते देखा है।
एक किलो आटे की कीमत 30 डॉलर से ज़्यादा हो गई है, जबकि एक किलो चीनी अब 130 डॉलर से ज़्यादा की हो गई है। ज़्यादातर खाने-पीने की चीज़ें या तो पूरी तरह से अनुपलब्ध हैं या इतनी दुर्लभ कि काल्पनिक लगती हैं।
त्रासदी सिर्फ कीमतों में नहीं, बल्कि जरूरी चीजों के अभाव में भी है। लोग न सिर्फ खरीदने से इनकार कर रहे हैं, बल्कि खऱीदने के लिए कुछ बचा ही नहीं है।
न तेल है, न चावल, न रोटी-यहाँ तक कि टूना मछली का एक डिब्बा भी नहीं। कभी-कभार जो दिखाई देता है, वह शायद मु_ी भर लाल मिर्च या बर्तन धोने के साबुन की एक बोतल होती है- भुखमरी के सामने यह एक भयावह विडंबना है।
गाजा में अकाल का असर सडक़ों पर थकान से बेहाल लोगों के रूप में दिखाई देता है
उत्तरी राफा या कतानेह जि़ले जैसे ‘सुरक्षित’ माने जाने वाले इलाके मौत के मैदानों में तब्दील हो गए हैं। मदद की तलाश में इन जगहों पर आने वाले भूख से मरते नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, इजराइली सेना ने मई के अंत से अब तक 1,000 से ज़्यादा फिलिस्तीनियों को मार डाला है , जब वे खाद्य सहायता प्राप्त करने की कोशिश कर रहे थे। हर दिन दर्जनों लोग मारे जा रहे हैं।
जैसा कि पूर्व संयुक्त राष्ट्र सहायता प्रमुख मार्टिन ग्रिफिथ्स ने चेतावनी दी थी, यह जानबूझकर किया गया अकाल ‘21वीं सदी का सबसे बुरा अपराध’ है।
शायद सबसे ज़्यादा दिल दहला देने वाली तस्वीर कुछ ही महीनों के शिशु याह्या अल-नज्जर की थी , जिसकी गंभीर कुपोषण से मौत हो गई। उसका नन्हा शरीर हड्डियों में सिमट गया था और पारदर्शी त्वचा से लिपटा हुआ था-फिलिस्तीन के दिल में, दुनिया के सामने एक विनाशकारी दृश्य।
बच्चे अब रोज़ चिल्लाते हैं-‘हमें रोटी चाहिए!" ‘हमें खाना चाहिए!’ लेकिन कोई उन्हें खाना नहीं खिलाता। मेरे छोटे चचेरे भाई, जो सिर्फ पाँच साल के हैं, सुबह-सुबह उठकर अपने पिता से एक रोटी लाने की विनती करते हैं, लेकिन उनके पास एक रोटी भी नहीं है। एक रोटी तो अब विलासिता बन गई है।
कुछ पिता अपने बच्चों की आंखों में निराशा की झलक देख पाने में असमर्थ होकर अपने तंबू छोडक़र भागने लगे हैं।
मैंने एक माँ को अपने बच्चों के मरने की प्रार्थना करते देखा, सिर्फ इसलिए कि वह अब उन्हें खाना नहीं खिला सकती। कुछ माँएँ अपने तंबुओं के द्वार पर बैठी हैं, आँसू बहा रही हैं, और फूट-फूटकर प्रार्थना कर रही हैं- ‘हे भगवान, उन्हें ले लो... उन्हें इस पीड़ा से मुक्त करो।’
सडक़ों पर लोग अब चल नहीं सकते। वे अपने शरीर को घसीटते हैं। कमज़ोरी इतनी ज़्यादा है कि उनके पैर अब उन्हें सहारा नहीं दे पाते। चेहरे खोखले हैं, उनमें जान नहीं बची है। बच्चे हड्डियों के ढाँचे जैसे हो गए हैं। पीले और दुबले-पतले पुरुष भारी खामोशी में अपनी हड्डियाँ ढो रहे हैं।
मैंने अपनी आँखों से देखा कि एक सत्तर साल से ज़्यादा उम्र के बुज़ुर्ग ने एक नौजवान से, जो रोटी का एक टुकड़ा खा रहा था, उसे अपने साथ बाँटने के लिए कहा। क्या भूख ने हमें इस मुकाम पर पहुँचा दिया है कि हमारे बुज़ुर्गों को एक निवाला भीख में माँगना पड़े?
हममें से जो शादीशुदा हैं, वे अब अपनी पत्नियों के लिए खाना नहीं जुटा पाते। पिछले कई महीनों से, मैंने बच्चे पैदा करने के बारे में सोचना ही छोड़ दिया है, अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि इस नरसंहार ने उनके भविष्य की कल्पना करना नामुमकिन बना दिया है।
गाजा पर इजरायल के युद्ध की मिडिल ईस्ट आई की लाइव कवरेज देखें
हर सुबह मेरी पत्नी पूछती है- ‘हमें क्या खाना है?’ और मैं उस व्यक्ति की रक्षा न कर पाने की शर्मिंदगी को निगलते हुए जवाब देता हूँ, ‘मैं आज उपवास कर रहा हूँ।’
हम निराशा के कारण उपवास करते हैं, धर्मपरायणता के कारण नहीं। हम पानी पीते हैं - जब होता है-और खुद को आशा का धोखा देते हैं, बस दिन गुजारने के लिए।
आविष्कृत भोजन
हमारे रोज़मर्रा के खाने का आविष्कार बेतुकेपन से होता है: दाल और पास्ता मिलाकर, लकड़ी की आग पर पका चावल या फिर सिफऱ् उबले पानी से बना सूप। हम खाते हैं, फिर एक घंटे बाद फिर से भूख लगती है। भूख से बचने के लिए हम सो जाते हैं, लेकिन भूख हमारे साथ ही जाग जाती है।
दिन में हमें चक्कर आने लगते हैं। हम चुप हो जाते हैं। हम एक-दूसरे को शब्दों से दिलासा देते हैं। हम झपकी लेते हैं, उम्मीद करते हैं कि शायद दर्द कम हो जाए। मैंने 14 किलो वजऩ कम कर लिया है, और मैं अभी भी संघर्ष कर रही हूँ। लेकिन उन लोगों का क्या जिनके पास नौकरी नहीं है? पैसे नहीं हैं? कोई सहारा नहीं है?
सडक़ पर, जुलाई की तपती धूप में, एक बच्चा बर्फीला पानी बेचने वाले ठेले वाले को हसरत भरी निगाहों से देख रहा है। एक कप की कीमत आधा डॉलर है, लेकिन कोई भी उसे खरीद नहीं सकता।
न बिजली है, न पंखा, न छाँव-बस प्यास हवा में घुली हुई है। कोई सैंडविच खाते हुए गुजऱता है, और पाँच-दस बच्चे, शायद बुज़ुर्ग भी, उसके आस-पास इक_ा होकर एक निवाला माँगने लगते हैं। लालच उन्हें नहीं, बल्कि घोर हताशा की ओर धकेल रहा है - क्योंकि वे इंसान हैं, और भूख ने बाकी सब कुछ छीन लिया है।
बाजार, जहां वे अभी भी मौजूद हैं, खाली हैं।
दक्षिणी गाजा में आखिरी बची जीवनरेखा, नासिर अस्पताल, जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों का जमावड़ा बन गया है। वहाँ न दवा है, न खाना-बस माँओं की चीखें, मरीजों के आँसू और भुखमरी या मौत के कगार पर खड़े लोगों के आँसू हैं।
-सारा इब्राहिम
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का इस्तेमाल तेजी से बढ़ रहा है। इस तकनीक को काम करने के लिए बड़ी मात्रा में बिजली की ज़रूरत होती है और डेटा सेंटर्स को ठंडा रखने के लिए लगातार पानी का इस्तेमाल किया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, दुनिया की आधी आबादी पहले से ही पानी की कमी का सामना कर रही है। जलवायु परिवर्तन और पानी की बढ़ती मांग की वजह से आने वाले समय में यह संकट और गहरा सकता है।
ऐसे में क्या एआई की इतनी तेज रफ्तार पानी की इस कमी को और बढ़ा देगी?
एआई कितना पानी इस्तेमाल करता है?
ओपनएआई के चीफ़ एग़्जीक्यूटिव ऑफि़सर (सीईओ) सैम ऑल्टमैन का कहना है कि चैटजीपीटी से किए गए एक सवाल का जवाब पाने में लगभग एक चम्मच के पंद्रहवें हिस्से जितना पानी लगता है।
लेकिन अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया और टेक्सस में की गई एक स्टडी में पाया गया कि कंपनी के जीपीटी-3 मॉडल से 10 से 50 सवालों के जवाब देने में लगभग आधा लीटर पानी लगता है। यानी हर जवाब के लिए करीब 2 से 10 चम्मच पानी की खपत होती है।
पानी के इस्तेमाल का अनुमान कई बातों पर निर्भर करता है, जैसे किस तरह का सवाल है, जवाब कितना लंबा है, जवाब कहां प्रोसेस हो रहा है और कैलकुलेशन में किन चीज़ों को शामिल किया गया है।
अमेरिकी शोधकर्ताओं की इस स्टडी में जो 500 मिलीलीटर का अनुमान लगाया गया है, उसमें उस पानी को भी गिना गया है जो बिजली बनाने में लगता है, जैसे कोयला, गैस या परमाणु ऊर्जा केंद्रों में टर्बाइन चलाने के लिए भाप तैयार करने में।
सैम ऑल्टमैन के बताए गए आंकड़े में शायद इसे शामिल नहीं किया गया है। बीबीसी ने जब ओपनएआई से इस बारे में पूछा तो कंपनी ने अपने हिसाब लगाने का तरीका नहीं बताया।
ओपनएआई का कहना है कि चैटजीपीटी हर दिन एक अरब सवालों के जवाब देता है और चैटजीपीटी अकेला एआई बॉट नहीं है। इस अमेरिकी स्टडी का अनुमान है कि 2027 तक एआई इंडस्ट्री हर साल डेनमार्क जैसे पूरे देश के मुक़ाबले चार से छह गुना ज़्यादा पानी इस्तेमाल करेगी। इस स्टडी के एक लेखक और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, रिवरसाइड के प्रोफ़ेसर शाओलेई रेन का कहना है, ‘जितना ज़्यादा हम एआई का इस्तेमाल करेंगे, उतना ही ज़्यादा पानी खर्च होगा।‘
एआई पानी का इस्तेमाल कैसे करता है?
हम जो भी ऑनलाइन काम करते हैं, चाहे ईमेल भेजना हो, वीडियो देखना हो या फिर डीपफेक तैयार करना, ये सब बड़े-बड़े डेटा सेंटर्स में मौजूद हज़ारों कंप्यूटर सर्वर प्रोसेस करते हैं। इनमें से कुछ डेटा सेंटर्स कई फुटबॉल मैदानों जितने बड़े होते हैं।
इन सर्वर्स में जब लगातार बिजली चलती है तो ये बहुत गर्म हो जाते हैं। इन्हें ठंडा रखने के लिए पानी, ज़्यादातर साफ़ ताज़ा पानी बहुत अहम होता है। ठंडा करने के तरीक़े अलग-अलग होते हैं, लेकिन कुछ सिस्टम में इस्तेमाल किए गए पानी का 80 फ़ीसद तक हिस्सा भाप बनकर हवा में उड़ जाता है।
एआई वाले काम, जैसे तस्वीरें बनाना, वीडियो बनाना या कॉम्प्लेक्स कंटेंट तैयार करना, सामान्य ऑनलाइन कामों (जैसे ऑनलाइन शॉपिंग या सर्च करना) के मुकाबले कहीं ज़्यादा कंप्यूटिंग पावर मांगते हैं। इस वजह से इनमें बिजली की खपत भी ज़्यादा होती है।
कितना फर्क पड़ता है, इसका सही आंकड़ा निकालना मुश्किल है। लेकिन इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि चैटजीपीटी से किया गया एक सवाल गूगल पर किए गए एक सर्च के मुक़ाबले लगभग 10 गुना ज़्यादा बिजली खर्च करता है। और जब बिजली ज़्यादा लगेगी तो गर्मी भी ज़्यादा पैदा होगी, इस वजह से और ज़्यादा ठंडा करने के लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है।
एआई के लिए पानी का इस्तेमाल कितनी तेज़ी से बढ़ रहा है?
बड़ी एआई टेक कंपनियां यह नहीं बतातीं कि उनकी एआई से जुड़ी गतिविधियों में कितना पानी लगता है, लेकिन उनके कुल पानी के इस्तेमाल के आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं।
गूगल, मेटा और माइक्रोसॉफ्ट, जो ओपनएआई में बड़े निवेशक और शेयरहोल्डर हैं, इन तीनों की एंवायरमेंटल रिपोर्ट के मुताबिक़ 2020 के बाद से इनके पानी के इस्तेमाल में तेज़ बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान गूगल का पानी इस्तेमाल लगभग दोगुना हो गया है। अमेजन वेब सर्विसेज (एडब्ल्यूएस) ने कोई आंकड़ा नहीं दिया है।
जैसे-जैसे एआई की मांग बढ़ेगी, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि 2030 तक डेटा सेंटर्स का पानी इस्तेमाल लगभग दोगुना हो जाएगा। इसमें वह पानी भी शामिल है जो बिजली बनाने और कंप्यूटर चिप बनाने की प्रक्रिया में लगता है।
गूगल का कहना है कि उसके डेटा सेंटर्स ने 2024 में पानी के स्रोतों से 37 अरब लीटर पानी लिया, जिसमें से 29 अरब लीटर पानी ‘खपत’ हो गया यानी ज़्यादातर हिस्सा भाप बनकर उड़ गया।
क्या यह बहुत ज़्यादा है? यह इस पर निर्भर करता है कि आप किससे तुलना करते हैं। संयुक्त राष्ट्र के हिसाब से इतनी मात्रा का पानी 16 लाख लोगों की एक साल तक रोज़ाना 50 लीटर पीने और इस्तेमाल करने की ज़रूरत पूरी कर सकता है। या फिर गूगल के मुताबिक, इतना पानी अमेरिका के दक्षिण-पश्चिमी इलाक़ों में 51 गोल्फ कोर्स को एक साल तक सींचने के बराबर है।
सूखे वाले इलाकों में डेटा सेंटर्स क्यों बनाए जाते हैं?
पिछले कुछ सालों में दुनिया के कई सूखा प्रभावित इलाकों में, जैसे यूरोप, लैटिन अमेरिका और अमेरिका के एरिजोना राज्य में, डेटा सेंटर्स का विरोध लगातार सुर्खियों में रहा है।
स्पेन में ‘योर क्लाउड इज़ ड्राइंग अप माय रिवर (तुम्हारा क्लाउड मेरी नदी सुखा रहा है)’ नाम का एक पर्यावरण समूह बना है, जो डेटा सेंटर्स के बढ़ते विस्तार का विरोध कर रहा है।
चिली और उरुग्वे, जहां इस समय भीषण सूखा पड़ा हुआ है, वहां पानी के इस्तेमाल को लेकर हुए विरोध के बाद गूगल ने अपने डेटा सेंटर्स की योजनाओं को रोक दिया है या उनमें बदलाव किया है।
एनटीटी डेटा के दुनिया भर में 150 से ज़्यादा डेटा सेंटर्स हैं। कंपनी के सीईओ अभिजीत दुबे कहते हैं कि ‘गर्म और सूखे इलाकों में डेटा सेंटर्स बनाने की दिलचस्पी बढ़ रही है।’ वह बताते हैं कि जमीन की उपलब्धता, बिजली का ढांचा, सौर और पवन जैसी नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत और आसान नियम, इन इलाकों को कंपनियों के लिए आकर्षक बनाते हैं।
विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि जहां नमी ज़्यादा होती है, वहां जंग लगने की समस्या बढ़ जाती है और इमारत को ठंडा रखने में और ज़्यादा ऊर्जा लगती है। इस कारण सूखे इलाकों में डेटा सेंटर्स लगाने के फ़ायदे माने जाते हैं। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और मेटा अपनी ताज़ा एंवायरमेंटल रिपोर्ट्स में स्वीकार करते हैं कि वे सूखे इलाकों से पानी ले रहे हैं।
कंपनियों की ताजा एंवायरमेंटल रिपोर्ट्स के मुताबिक़, गूगल का कहना है कि वह जितना पानी लेता है, उसमें 14 फ़ीसद ऐसे इलाक़ों से आता है जहां पानी की कमी का ‘ज़्यादा’ ख़तरा है और 14 फीसद ऐसे इलाकों से जहां ‘मध्यम’ खतरा है।
माइक्रोसॉफ्ट का कहना है कि उसका 46 फीसद पानी ऐसे इलाकों से आता है जहां ‘पानी पर दबाव’है।
वहीं मेटा का कहना है कि उसका 26 फीसद पानी ऐसे इलाकों से आता है जहां पानी की ‘ज़्यादा’ या ‘बेहद ज़्यादा’ कमी का दबाव है। एडब्ल्यूएस (अमेजन वेब सर्विसेज) ने कोई आंकड़ा नहीं दिया है।
क्या कूलिंग के और विकल्प हैं?
प्रोफ़ेसर रेन कहते हैं कि ड्राई या एयर कूलिंग सिस्टम का इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन इनसे पानी की जगह ज़्यादा बिजली खर्च होती है।
माइक्रोसॉफ्ट, मेटा और अमेजन का कहना है कि वे ‘क्लोज़्ड लूप’ सिस्टम तैयार कर रहे हैं, जिसमें पानी या कोई और तरल लगातार सिस्टम में घूमता रहता है और उसे बार-बार उड़ाना या बदलना नहीं पड़ता।
अभिजीत दुबे का मानना है कि भविष्य में सूखे इलाकों में इस तरह के सिस्टम की जरूरत ज्यादा पड़ेगी, लेकिन उनका कहना है कि इंडस्ट्री अभी इन्हें अपनाने के ‘बहुत शुरुआती’ दौर में है।
ऐसी योजनाएं भी चल रही हैं या बनाई जा रही हैं, जिनमें डेटा सेंटर्स से निकलने वाली गर्मी को आसपास के घरों में इस्तेमाल किया जाता है। जर्मनी, फिनलैंड और डेनमार्क जैसे देशों में ये काम हो रहा है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि कंपनियां आम तौर पर साफ़ और ताजे पानी का इस्तेमाल करना पसंद करती हैं, वही पानी जो पीने के लिए इस्तेमाल होता है क्योंकि इससे बैक्टीरिया और जंग लगने का ख़तरा कम होता है।
हालांकि कुछ कंपनियां अब समुद्र के पानी या फैक्ट्री का गंदा पानी (जो पीने लायक़ नहीं होता) इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही हैं।
कुछ देशों में हॉलीवुड फिल्मों पर पाबंदी लगा दी जाती है, तो कहीं कुछ हिस्सों को हटा दिया जाता है। ऐसे में दर्शकों का मजा तो किरकिरा होता ही है, फिल्म कंपनियों को भी नया वर्जन रिलीज करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
डॉयचे वैले पर एलिजाबेथ ग्रेनियर का लिखा-
भारत में फिल्मों के शौकीन यह जानकर बेहद नाराज हुए कि उनके देश के सेंसर बोर्ड ने ‘सुपरमैन' फिल्म के 33 सेकंड वाले किसिंग सीन में काट-छांट करके उसे छोटा कर दिया। इस फिल्म को भारत में 13+ की रेटिंग दी गई थी। इसका मतलब कि यह फिल्म सिर्फ 13 वर्ष की आयु से ऊपर के लोग ही देख सकते हैं। इसके बावजूद, भारत के केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) को उस किसिंग सीन को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसे उन्होंने ‘अत्यधिक कामुक’ बताया था।
जब सिनेमैटोग्राफ अधिनियम 1952 के तहत सीबीएफसी का गठन किया गया था, तब इसका आधिकारिक काम फिल्मों को उम्र के हिसाब से श्रेणियों के लिए प्रमाणित करना था। हालांकि, इस बोर्ड की पहचान फिल्मों को काटने-छांटने यानी सेंसर करने वाले बोर्ड के तौर पर बन गई है।
हॉलीवुड की बड़ी फिल्मों में हाल ही में किए गए बदलावों में एक उदाहरण फिल्म ‘एफ1: द मूवी’ से जुड़ा हुआ है। इस फिल्म में मिडिल फिंगर वाला जो इमोजी था उसे बदलकर मु_ी वाला इमोजी कर दिया गया।
मार्वल की ‘थंडरबोल्ट्स’ और ‘मिशन: इम्पॉसिबल-द फाइनल रेकनिंग’ में गालियों को म्यूट कर दिया गया था। निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन की 2023 में रिलीज हुई फिल्म ‘ओपेनहाइमर’ में एक सीन था जिसमें अभिनेत्री फ्लोरेंस प्यू बिना कपड़ों के दिखाई देती हैं। भारत में यह सीन दिखाने से पहले सेंसर बोर्ड ने उस सीन में कंप्यूटर की मदद से उन्हें कपड़े पहना दिए।
भारतीय ऑनलाइन पत्रिका ‘होमग्रोन’ में लेखिका दिशा बिजोलिया इस मामले पर तर्क देती हैं, ‘अगर कोई सीन सिर्फ समझदार या वयस्क दर्शकों के लिए है, तो उसे बस उसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए। हालांकि, भारतीय सेंसर बोर्ड उस सीन को उचित श्रेणी में रखने के बजाय, बार-बार फिल्म की कहानी में हस्तक्षेप करता है और भावनाओं के बहाव को तोड़ता है। इससे कहानी का असर कम हो जाता है और फिल्म का असली मकसद खो जाता है।’
फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की जगह उसमें काट-छांट
फिल्मों पर प्रतिबंध लगाना ही नहीं, बल्कि उनका एक अलग संस्करण रिलीज करना भी सेंसरशिप का एक जाना-पहचाना तरीका है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि कई दूसरे देशों में भी आम बात है।
सत्तावादी सरकारें जानती हैं कि अगर किसी फिल्म पर प्रतिबंध भी लगा दिया जाए, तो वह चोरी-छिपे या गैरकानूनी तरीके से लोगों तक पहुंच सकती है। इसलिए, वे खुद ही उस फिल्म का ‘अपने मन-मुताबिक’ या सेंसर किया हुआ संस्करण रिलीज कर देती हैं, ताकि लोग वही देखें जो सरकारें चाहती हैं।
काफी पहले, जब एआई से तस्वीरें बनाना सामान्य बात नहीं थी, तब ईरान ने 2010 में ही अपने सेंसर अधिकारियों को नई डिजिटल तकनीक से लैस कर दिया था। इस तकनीक की मदद से, वे उन डायलॉग और तस्वीरों को बदल सकते थे जो इस्लामी नियमों के मुताबिक सही नहीं मानी जाती थीं।
इस तरीके का जिक्र ‘द अटलांटिक’ की 2012 की एक रिपोर्ट में किया गया है। इसमें यह भी दिखाया गया है कि असली सीन को ईरानी संस्करण में कैसे बदला गया। महिलाओं को या तो फ्रेम से पूरी तरह हटा दिया गया या उनके गले के निचले हिस्से को ढकने के लिए वहां बड़ा फूलदान रख दिया गया। यहां तक कि 2006 में रिलीज हुई मोटरस्पोर्ट्स कॉमेडी ‘टैलाडेगा नाइट्स: द बैलाड ऑफ रिकी बॉबी’ में विल फेरेल के कमर के नीचे के हिस्से को एक दीवार के पीछे छिपा दिया गया।
समलैंगिक सितारों के निजी जीवन को नजरअंदाज करना
कई देशों में समलैंगिकता पर प्रतिबंध है। 2018 में रिलीज हुई फिल्म ‘बोहेमियन रैप्सोडी' में फ्रेडी मर्करी की समलैंगिकता से जुड़े दृश्यों को मिस्र सहित कई देशों में हटा दिया गया था। ह्यूमन राइट्स वॉच ने इस पर मिस्र की दोहरी मानसिकता की आलोचना की थी। उसने कहा कि एक ओर मिस्र ने फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाले अभिनेता रामी मालेक के ऑस्कर जीतने की खुलकर तारीफ की, जिनके माता-पिता कॉप्टिक मिस्री हैं। वहीं दूसरी ओर, उसी देश में रामी मालेक को फिल्म के बारे में सार्वजनिक रूप से बोलने तक की इजाजत नहीं दी गई।
रूस में, 2019 में रिलीज हुई एल्टन जॉन की बायोपिक ‘रॉकेटमैन’ से लगभग पांच मिनट का सीन हटा दिया गया था। मुख्य रूप से वे सीन हटाए गए जिनमें पुरुषों के बीच किसिंग, सेक्स और ओरल सेक्स दिखाया गया था। हालांकि, यह सेंसरशिप सीधे तौर पर सरकार ने नहीं लगाई थी, बल्कि रूसी डिस्ट्रीब्यूटर ने खुद ही पहले से सीन काट दिए, ताकि 2013 के ‘समलैंगिक-विरोधी' कानून का पालन किया जा सके जिसके तहत एलजीबीटीक्यू+ संस्कृति के प्रचार पर रोक लगाई गई है।
ड्रग्स ठीक नहीं है, लेकिन न्यूड स्ट्रिपर ठीक है!
2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद से कई बड़े हॉलीवुड स्टूडियो ने वहां अपनी फिल्में रिलीज करना बंद कर दिया है। फिर भी, कुछ विदेशी फिल्में अब भी रूस के सिनेमाघरों या स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर दिखाई देती हैं।
हाल ही में ‘अनोरा’ (2024) नाम की अवॉर्ड विनिंग अमेरिकी फिल्म का बदला हुआ वर्जन रूस में दिखाया गया। रूसी भाषा की स्वतंत्र न्यूज वेबसाइट ‘मेदुजा’ के मुताबिक, सेंसर बोर्ड ने फिल्म के कुछ सीन को जूम-इन करके उन हिस्सों को हटा दिया जिनमें किरदारों को ड्रग्स लेते हुए दिखाया गया था। वहीं दूसरी ओर, फिल्म में स्ट्रिपर का किरदार निभा रहीं माइकी मैडिसन के न्यूड सीन वैसे के वैसे ही छोड़ दिए गए। उनमें कोई बदलाव नहीं किया गया।
तुर्की में सिगरेट और शराब के दृश्यों को धुंधला करना
‘अनोरा’ जैसी फिल्म तुर्की टेलीविजन पर कभी नहीं दिखाई जाएगी। राष्ट्रपति एर्दोआन की रूढि़वादी पार्टी एकेपी की सरकार ने लगभग 95 फीसदी मीडिया को अपनी रूढि़वादी नीतियों के मुताबिक ढाल दिया है।
टीवी चैनल या अन्य प्रसारक आम तौर पर सेक्स सीन और एलजीबीटीक्यू+ किरदारों को दिखाने से बचते हैं। ये ऐसे ऐतिहासिक विषय हैं जिन्हें ‘तुर्की विरोधी सोच' को बढ़ावा देने वाला माना जाता है और इन्हें लेकर विवाद हो सकता है।
टीवी पर सिगरेट और शराब वाले दृश्य को भी धुंधला कर दिया जाता है। कुछ चैनल इन चीजों को छुपाने के लिए रचनात्मक तरीके अपनाते हैं। इस बीच, कुछ हॉलीवुड स्टूडियो ने बैन और सेंसरशिप से बचने के लिए खुद ही फिल्म का संशोधित वर्जन रिलीज करना शुरू कर दिया है। सोनी पिक्चर्स ने ‘ब्लेड रनर 2049’ फिल्म का एक बदला हुआ वर्जन तुर्की और दूसरे गैर-पश्चिमी देशों के लिए जारी किया, जिसमें नग्नता वाले दृश्यों को हटा दिया गया या क्रॉप कर दिया गया है। फिल्म समीक्षक बुराक गोराल ने सबसे पहले इस पर ध्यान दिलाया।
तुर्की के फिल्म क्रिटिक्स एसोसिएशन (एसआईवाईएडी) ने इस सेंसरशिप की निंदा करते हुए एक खुला पत्र जारी किया और कहा कि ऐसे काट-छांट ‘तुर्की के सिने प्रेमियों का अपमान है।’
-कनुप्रिया
राजस्थान में स्कूली बच्चों पर छत गिर गई, कुछ की मौत हो गई, कई घायल हो गए। सरकार न्याय की माँग कर रहे परिजनों पर लाठी बरसा रही है, पुलिस सरकारी तानाशाही और अत्याचार का औजार भर बनकर रह गई है, जनता को छुटपुट केसों में कभी-कभार राहत पहुँचाने के सिवा उससे अब कोई लेना-देना नहीं रहा। कोई पुलिसकर्मी अच्छा है तो वह व्यक्तिगत तौर पर कुछ बेहतर राहत पहुँचा देगा, और उसकी रील हम देख लेंगे।
मौत से भी बड़ी त्रासदी होती है न्याय का न मिलना और उससे भी बड़ी त्रासदी आम लोगों की संवेदनहीनता, जो अब नवसामान्य हो चुकी है। ‘गरीबों की जिंदगी में जीना-मरना चलता रहता है, कई-कई बच्चे होते हैं कुछ एक निपट भी गए तो क्या फर्क पड़ता है, अरे इन लोगों को आदत हो जाती है, अगले ही दिन काम पर चल पड़ते हैं, अच्छा हुआ एक खाने वाला कम हुआ, मरने का दुख है मगर सरकार आखिर क्या-क्या देखेगी, इसमे मोदी जी क्या करेंगे, आप लोगों को सरकार को कोसने का बहाना चाहिए’, आदि-आदि।
एक तरह जख्मों पर नमक हम भी छिडक़ ही देते हैं ये कहकर कि शिक्षा के ऊपर मंदिर को चुना, लो भुगत लो अब। मगर बात तो यही है कि शिक्षा, रोजग़ार, चिकित्सा के ऊपर मंदिर को मध्यम वर्ग भी चुन रहा है, उच्च मध्यम वर्ग भी, सारा ऊपरी प्रोफेशनल तबका चुन रहा है क्योंकि ये सब हासिल करने के लिये उसके पास पैसा है, वो चुन रहा है और भुगत नहीं रहा। सारा नैरेटिव यही तबका बनाता है, इसका मीडिया बनाता है, मगर भुगतता वो गरीब है जिसे समझ कम है और इस नैरेटिव के झाँसे में आ जाता है। और गरीब तबके के लिये क्या तर्क है कि वो आलसी है इसलिये गऱीब है, उसे मुफ्त का चाहिए सब, टैक्स हम दें, सुविधा इन्हें चाहिए।
भारत में हर साल करीब 13,000 छात्र आत्महत्या करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कॉलेजों में सहायता कार्यक्रमों की जरूरत महसूस की जा रही है, पर असल सवाल यह है कि ऐसा हो क्यों रहा है?
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन का लिखा-
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में छात्रों की आत्महत्याएं चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई हैं। देश में आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में छात्रों की संख्या 7.6 फीसदी है। हाल ही में ओडिशा की एक छात्रा ने आत्मदाह कर लिया था।
2022 के आंकड़ों पर आधारित इस नई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में हर साल अनुमानित तौर पर करीब 13,000 छात्र आत्महत्या करते हैं। 2023 और 2024 में आत्महत्या के आधिकारिक आंकड़े अभी जारी नहीं हुए हैं।
शोध और सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि छात्रों की आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण शैक्षणिक और सामाजिक तनाव के साथ-साथ कॉलेजों या संस्थाओं से मदद ना मिलना और जागरूकता का अभाव है।
इस मुद्दे का बारीकी से अध्ययन करने वाली न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट अंजली नागपाल ने डीडब्ल्यू को बताया, ‘मैं इन आंकड़ों को सिर्फ आंकड़े नहीं मानती। बल्कि, ये समाज की उम्मीदों और नियमों के नीचे दबी खामोश पीड़ा के संकेत हैं।’
उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने देखा है कि बच्चों को यह नहीं सिखाया जाता है कि असफलता, निराशा या अनिश्चितता से कैसे निपटना है। उन्हें सिर्फ परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाता है, जिंदगी के लिए नहीं।’
नागपाल ने कहा, ‘स्कूलों में नियमित तौर पर मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा दी जानी चाहिए, ना कि कभी-कभार होने वाले सत्रों तक इसे सीमित रखना चाहिए। इसे हर रोज की पढ़ाई में शामिल करना होगा। बच्चों को ऐसा माहौल चाहिए जहां वे खुलकर बोल सकें और कोई उन्हें ध्यान से सुने। शिक्षकों को सिर्फ पढ़ाने नहीं, बल्कि सुनने की कला भी सिखाई जानी चाहिए।’
मानसिक स्वास्थ्य सहायता की मांग बढ़ी
बीते सोमवार को भारत के शिक्षा राज्य मंत्री सुकांत मजूमदार ने संसद के एक सत्र के दौरान इस रिपोर्ट के निष्कर्ष साझा किए। सरकार ने इस बात को स्वीकार किया कि तमाम शैक्षणिक सुधारों और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर उठाए गए नए कदमों के बावजूद, ‘अत्यधिक शैक्षणिक दबाव’ कमजोर बच्चों और युवाओं पर बुरा असर डाल रहा है।
मजूमदार ने बताया कि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कई तरह के कदम उठा रही है। इसके तहत छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों को मानसिक सहयोग देने के लिए कई योजनाएं शुरू की गई हैं।
सुसाइड प्रिवेंशन इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक नेल्सन विनोद मोसेस ने डीडब्ल्यू को बताया कि लगातार बनी रहने वाली ‘अत्यधिक प्रतिस्पर्धा, सख्त ग्रेडिंग प्रणाली और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, ये सभी चीजें छात्रों की आत्महत्याओं में अहम भूमिका निभाती हैं।
मोसेस ने कहा, ‘यह एक ऐसी खामोश त्रासदी है जो कई जिंदगियों को तोड़ रही है। ऐसा लगता है कि भारत की शिक्षा प्रणाली के भीतर एक अनकही बेचैनी और अविश्वास धीरे-धीरे फैल रहा है।’
उनके मुताबिक, कॉलेज काउंसलर को इतना सक्षम बनाया जाना चाहिए कि वे समय रहते पहचान सकें कि किस छात्र को मदद की जरूरत है। उन्हें आत्महत्या की आशंकाओं, खतरे को समझने और सही सलाह देने की पूरी ट्रेनिंग मिलनी चाहिए।
उन्होंने आगे कहा, ‘हम नहीं चाहते कि कोई युवा अपनी जिंदगी से हार मान ले। हम इसे रोक सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भावनात्मक मजबूती, तनाव से निपटने के तरीके और आत्महत्या की रोकथाम जैसी बातें सिखाई जानी चाहिए। छात्रों और शिक्षकों को यह सिखाना जरूरी है कि वे दूसरों की तकलीफ को समय पर पहचान सकें। इसे ‘गेटकीपर ट्रेनिंग’ कहा जाता है।’
कमजोर छात्रों के लिए ‘सुरक्षा कवच’ जरूरी
2019 में भारत में कॉलेज के छात्रों के बीच आत्महत्या के मामलों पर एक अध्ययन किया गया। यह अध्ययन ऑस्ट्रेलिया की मेलबर्न यूनिवर्सिटी, भारत के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस और कई भारतीय मेडिकल कॉलेजों ने मिलकर किया था। इस अध्ययन का उद्देश्य यह समझना था कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं छात्रों पर किस हद तक असर डाल रही हैं और आत्महत्या जैसे खतरनाक कदम उठाने पर मजबूर कर रही हैं।
इस अध्ययन के लिए, भारत के नौ राज्यों के 30 विश्वविद्यालयों के 8,500 से ज्यादा छात्रों के बीच सर्वे किया गया। इसमें पाया गया कि पिछले एक साल में 12 फीसदी से ज्यादा छात्रों के मन में आत्महत्या के विचार आए थे। 6.7 फीसदी ने अपनी जिंदगी में कभी ना कभी आत्महत्या का प्रयास किया।
अध्ययन में कहा गया है कि स्कूल-कॉलेजों में मानसिक सेहत से जुड़ी मदद और उपाय तुरंत शुरू करने चाहिए, ताकि इस बढ़ती हुई समस्या से निपटा जा सके।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को ‘आत्महत्या की महामारी’ बताया। उसने मार्च में 10 सदस्यों वाले एक राष्ट्रीय कार्यबल का गठन किया। यह कार्यबल अभी कई तरह की जांच, परामर्श, और संस्थागत समीक्षाओं में लगा हुआ है। इसका मकसद एक व्यापक नीतिगत खाका तैयार करना है।
छात्रों पर परीक्षा का बोझ
एजुकेशन टेक्नोलॉजी स्टार्टअप ‘करियर 360' छात्रों को करियर से जुड़ा मार्गदर्शन उपलब्ध कराता है और प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराता है। इस स्टार्टअप के संस्थापक और सीईओ महेश्वर पेरी ने डीडब्ल्यू को बताया कि कई भारतीय युवाओं पर यह दबाव होता है कि उन्हें हर हाल में अपने करियर में सफल होना है।
-अशोक पांडेय
जिम कॉर्बेट की उससे पहली मुलाक़ात इत्तफाक से हुई। कड़ी सर्दी वाले एक दिन जिम और उनकी एक दोस्त किसी परिचित के घर गए हुए थे जिसकी पालतू कुतिया ने तीन माह पहले सात बच्चे जने थे। जिम की दोस्त को दिखाने के लिए उस ढंकी हुई मैली सी टोकरी को उघाड़ा गया जिसमें ये बच्चे सोये हुए थे।
उन सात बच्चों में से जो सबसे कमज़ोर था वह किसी तरह टोकरी से बाहर निकल आया और जिम के पैरों के बीच में गुड़ीमुड़ी होकर लेट गया। उसे कांपता हुआ देख जिम ने उसे उठा लिया और अपने कोट के भीतर रख लिया। जिम की इस सहानुभूति का बदला बच्चे ने उनका मुंह चाट कर दिया। इस मोहब्बत के एवज में जिम ने उसकी देह से निकल रही दुर्गन्ध को अनदेखा किया।
बताया गया बच्चे का बाप एक निपुण शिकारी कुत्ता था। हालांकि जिम के भीतर कुत्ता पालने की ऐसी कोई इच्छा नहीं थी तो भी उन्होंने स्पेनियल प्रजाति के उस दयनीय पिल्ले को अपने साथ लाने का फैसला किया।
बच्चे का नामकरण पहले से ही हो चुका था – पिंचा। जिम ने उसे नया नाम दिया –रॉबिन। जिम के बचपन में उनके घर इसी नाम का एक कुत्ता हुआ करता था जिसने एक दफा छह साल के जिम और चार साल के उनके छोटे भाई की भालू के हमले से जान बचाई थी।
जिम ने बहुत लाड़ के साथ रॉबिन की परवरिश की और उसके तंदुरुस्त हो जाने पर उसे शिकार पर जाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया।
अगले बारह सालों तक जिम के हर शिकार-अभियान में रॉबिन उनके साथ रहा। उसकी बुद्धिमत्ता, बहादुरी और वफ़ादारी की तमाम कहानियां जिम कॉर्बेट ने अपनी एक किताब में दर्ज की है।
जिम उसके बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे एडमंड हिलेरी तेनजिंग नोर्गे के बारे में और उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान अपने तबलावादक उस्ताद दिलदार हुसैन के बारे में किया करते थे।
जिम कॉर्बेट का घर मेरे शहर से कोई तीस किलोमीटर दूर कालाढूँगी में हुआ करता था। जंगलात विभाग ने उसे एक संग्रहालय में तब्दील कर रखा है। अक्सर रामनगर आते-जाते वह मेरे रास्ते में पड़ता है। बार-बार देख चुकने के बाद भी मुझसे वहां जाए बगैर नहीं रहा जाता।
संग्रहालय में जिम के जीवन की बानगियाँ देखने को मिलती हैं- उनके माता-पिता की तस्वीरें, उनकी लिखी चिठ्ठियाँ, बेंत का बना उनका सोफा जो हर बार पिछली बार से ज्यादा जर्जर हो गया नजऱ आता है, उनकी डांडी उनका गिलास वगैरह वगैरह।
-रजनीश कुमार
मालदीव 1200 द्वीपों का समूह है। भौगोलिक रूप से मालदीव को दुनिया का सबसे बिखरा हुआ देश कहा जाता है।
एक द्वीप से दूसरे द्वीप पर जाने के लिए फेरी का इस्तेमाल करना होता है। मालदीव की आबादी महज 5.21 लाख है।
मालदीव ब्रिटेन से 1965 में राजनीतिक रूप से पूरी तरह से आजाद हुआ था। आजादी के तीन साल बाद मालदीव संवैधानिक रूप से इस्लामिक गणतंत्र बना था। आज़ादी के बाद से ही मालदीव की सियासत और लोगों की जि़ंदगी में इस्लाम की अहम जगह रही है। 2008 में मालदीव में इस्लाम राजकीय धर्म बन गया था। मालदीव दुनिया का सबसे छोटा इस्लामिक देश है।
26 जुलाई को मालदीव अपना 60वाँ स्वतंत्रता दिवस मना रहा है और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया है। पीएम मोदी का यह तीसरा मालदीव दौरा है।
2023 में मोहम्मद मुइज़्ज़ू के राष्ट्रपति बनने के बाद नरेंद्र मोदी मालदीव पहुँचने वाले पहले विदेशी नेता हैं। मुइज़्ज़ू के मालदीव की सत्ता में आने में भारत विरोधी कैंपेन ने भी भूमिका निभाई थी।
इससे पहले की मालदीव सरकार ‘इंडिया फस्र्ट’ की नीति पर चल रही थी लेकिन मुइज़्जू ने इस नीति को खत्म करने का वादा किया था। मुइज्जू ने चीन से संबंधों को और गहरा किया था।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने लिखा है कि 7.5 अरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाले मालदीव को भारत ने जब डिफॉल्ट होने से बचाया, तब मुइज्जूू ने भारत को लेकर अपना रुख बदला। राष्ट्रपति बनने के बाद मुइज्जू ने पहले तुर्की, यूएई और चीन का दौरा किया था। इसके बाद मुइज़्ज़ू ने भारत से भी कड़वाहट दूर करने की पहल शुरू की।
जब भारत को लेकर मालदीव की सरकार की तरफ से बहुत आक्रामक बयान आ रहे थे, तब भी भारत के आधिकारिक बयान में सब्र और संयम देखने को मिलता था।
ऐसे में सवाल उठता है कि एक छोटे देश, जिसकी अर्थव्यवस्था महज़ साढ़े सात अरब डॉलर की है, उसे लेकर भारत ने इतना संयम क्यों दिखाया?
1. मालदीव का लोकेशन
मालदीव जहाँ स्थित है, वही उसे खास बनाता है। हिन्द महासागर के बड़े समुद्री रास्तों के पास मालदीव स्थित है।
हिन्द महासागर में इन्हीं रास्तों से अंतरराष्ट्रीय व्यापार होता है। खाड़ी के देशों से भारत में ऊर्जा की आपूर्ति इसी रास्ते से होती है। ऐसे में भारत का मालदीव से संबंध खऱाब होना किसी भी लिहाज़ से ठीक नहीं माना जा रहा है।
बांग्लादेश में भारत की उच्चायुक्त रहीं वीना सीकरी कहती हैं कि मालदीव एक अहम मैरीटाइम रूट है और वैश्विक व्यापार में इसकी खास भूमिका है।
सीकरी कहती हैं, ‘भारत के आर्थिक और रणनीतिक हितों के लिए यह रूट काफी अहम है। खासकर खाड़ी के देशों से भारत का ऊर्जा आयात इसी रूट से होता है। मालदीव के साथ संबंध अच्छा होना भारत की ऊर्जा सुरक्षा को भी सुनिश्चित करता है। भारत के मैरीटाइम सर्विलांस में भी मालदीव का सहयोग अहम है।’
थिंक टैंक ओआरएफ के सीनियर फ़ेलो मनोज जोशी कहते हैं कि ‘जहाँ मालदीव स्थित हैं, वहाँ अहम समुद्री लेन हैं। ये लेन पर्सियन गल्फ़ से ईस्ट एशिया की ओर जाती हैं। भारत भी व्यापार में इस लेन का इस्तेमाल करता है।’
2. भारत से भौगोलिक करीबी
मालदीव भारत के बिल्कुल पास में है। भारत के लक्षद्वीप से मालदीव करीब 700 किलोमीटर दूर है और भारत के मुख्य भूभाग से 1200 किलोमीटर।
मनोज जोशी कहते हैं, ‘अगर चीन ने मालदीव में नेवी बेस बना लिया तो यह भारत के लिए सुरक्षा चुनौती पैदा करेगा। मालदीव में चीन मजबूत होता है तो युद्ध जैसे हालात में उसके लिए भारत पहुँचना बहुत आसान हो जाएगा। चीन के मालदीव में कई प्रोजेक्ट हैं। चीन के बारे में कहा जाता है, वह मालदीव में नेवी बेस बनाना चाह रहा है। ऐसे में भारत का सतर्क रहना लाजि़मी है।’
मनोज जोशी कहते हैं, ‘मालदीव भारत के लिए अब भी चुनौती है। भले नरेंद्र मोदी को मालदीव ने बुलाया है लेकिन राष्ट्रपति मुइज्जूू ने आर्थिक मजबूरी में ऐसा किया है। मालदीव का जनमत भारत के खिलाफ अब भी है और मुइज्जूू इसी का फायदा उठाकर जीते थे। मुइज्जूू ने मजबूरी में भारत से संबंध ठीक किया है, न कि वह ऐसा चाहते थे।’
- दीपक मंडल
भारतीय बाज़ारों में आजकल ए1 और ए2 लेबलिंग के साथ दूध, घी, मक्खन जोर-शोर से बेचा जा रहा है।
खासकर ‘ए2’ घी की मार्केटिंग इस तरह की जा रही है कि ये आम देसी घी से ज्यादा सेहतमंद है।
बाज़ार में आम देसी घी अगर 1000 रुपये प्रति किलो बेचा जा रहा है तो ‘ए2’ घी 3000 रुपये किलो तक बिक रहा है। डेयरी प्रोडक्ट बेचने वाली कंपनियों का दावा है कि ए2 घी देसी गायों के दूध से बनता है। इसलिए ज़्यादा फायेदमंद है।
उनका दावा है कि इसमें प्राकृतिक तौर पर ए2 बीटा-कैसीन प्रोटीन पाया जाता है। ये प्रोटीन सामान्य दूध में पाए जाने वाले ए1 प्रोटीन की तुलना में पचाने में आसान और शरीर में अंदरूनी सूजन (इन्फ्लेमेशन) कम करने वाला होता है।
ये भी दावा किया गया है कि ये घी ओमेगा-3 फैटी एसिड, कंजुगेटेड लिनोलिक एसिड (सीएलए) और विटामिन ए, डी, ई और के जैसे आवश्यक पोषक तत्वों से भरपूर होता है।
ए2 घी के बारे में ये भी दावा किया गया है कि ये पाचन तंत्र को मजबूत करता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है और इससे त्वचा में निखार आता है।
इसे दिल की बीमारियों के लिहाज़ से भी अच्छा बताया गया है। डेयरी कंपनियों का ये भी दावा है कि इस घी के सेवन से घाव भी जल्दी भर जाते हैं।
डेयरी प्रोडक्ट कंपनियां इसे एक नए सुपरफूड के तौर पर बेच रही हैं।
ए1 और ए2 के नाम पर डेयरी प्रोडक्ट बेचना कितना सही
‘फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया’ (एफ़एसएसएआई) ने कंपनियों को इस तरह की लेबलिंग के साथ दूध, घी और बटर बेचने के लिए मना किया था। उसका कहना था कि ए2 लेबल के साथ घी बेचना भ्रामक है।
पिछले साल एफ़एसएसएआई ने एक सर्कुलर जारी कर कहा था कि कंपनियों का दूध या उससे बने प्रोडक्ट उत्पादों को ए1 या ए2 लेबलिंग के साथ बेचना ना केवल भ्रामक है, बल्कि फूड सेफ़्टी और स्टैंडर्ड अधिनियम, 2006 और उसके तहत बनाए गए नियमों का उल्लंघन भी है। एफ़एसएसआई ने कंपनियों को ए1 और ए2 लेबल वाले अपने मौजूदा प्रोडक्ट को छह महीने में ख़त्म करने को कहा था। हालांकि एफएसएसआई ने एक सप्ताह के अंदर ही अपनी ये एडवाइजरी हटा भी ली थी।
अब सवाल है कि क्या वाकई ए1 और ए2 लेबल वाले डेयरी प्रोडक्ट सेहत के लिए ज्य़ादा फ़ायदेमंद हैं।
क्या ए2 घी आम घी की तुलना में शरीर के लिए ज्य़ादा फ़ायदेमंद होता है और इसमें अधिक औषधीय गुण होते हैं।
ए1 और ए2 दूध या घी क्या है?
ए1 और ए2 का फर्क़ बीटा-कैसीन प्रोटीन पर आधारित है, जो दूध में पाया जाने वाला एक प्रमुख प्रोटीन है। यह फर्क़ मुख्य तौर पर गाय की नस्ल पर निर्भर करता है।
नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज़ (एनएएएस) के रिसर्च पेपर में कहा गया है कि बीटा-कैसीन दूध में पाए जाने वाले प्रमुख प्रोटीन में से एक है। गाय के दूध में कुल प्रोटीन का 95 फ़ीसदा हिस्सा कैसीन और व्हे प्रोटीन से बनता है। बीटा-कैसीन में अमीनो एसिड का संतुलन बहुत अच्छा होता है।
बीटा-कैसीन दो तरह के होते हैं। ए1 बीटा कैसिन जो यूरोपीय नस्लों की गायों के दूध अधिक पाया जाता है और ए2 बीटा कैसीन जो भारतीय देसी गायों के दूध में स्वाभाविक रूप से पाया जाता है।
ए1 और ए2 बीटा-कैसीन प्रोटीन अमीनो एसिड स्तर पर अलग होते हैं। इससे प्रोटीन के पचने की प्रक्रिया प्रभावित होती है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि ए2 दूध पचाने में आसान हो सकता है और स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर डाल सकता है, लेकिन इस पर अभी और रिसर्च की जरूरत है। अपर्याप्त रिसर्च की वजह से ये साबित नहीं हो पाया है कि स्वास्थ्य पर इसका अच्छा असर ही होता है।
ए टू घी क्या है
बीबीसी हिंदी ने कुछ एक्सपर्ट्स से ये जानना चाहा कि क्या ए2 घी सचमुच आम घी ज्य़ादा फ़ायदेमंद है या फिर इसके बारे में बढ़ा-चढ़ा कर दावे किए जा रहे हैं। हमारे इस सवाल के जवाब में अमूल के पूर्व एमडी और अब इंडियन डेयरी एसोसिएशन के अध्यक्ष आरएस सोढी ने कहा, ‘मैं इस मार्केटिंग तमाशे को देख रहा हूं। ख़ासकर ऑनलाइन मार्केट प्लेस पर। जहां नामी को-ऑपरेटिव और कंपनियां अपना अच्छा से अच्छा घी 600 से 1000 रुपये किलो बेच रही हैं। वहीं ए2 का लेबल लगाकर वैसा ही घी दो से तीन हजार रुपये किलो बेचा जा रहा है।
इसका अलग-अलग तरह से प्रचार हो रहा है। कोई इसे बिलौना घी कहकर बेच रहा है तो कोई देसी नस्ल की गाय के दूध से बने सेहतमंद घी के नाम से।’
वह कहते हैं, ‘सबसे पहले तो मैं ये साफ़ कर दूं कि ए1 और ए2 एक तरह का प्रोटीन है जो फैटी एसिड चेन से जुड़ा होता है। अब इस बात पर बहस चल रही है कौन अच्छा है तो मैं बता दूं कि इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि इनमें से कौन अच्छा है। ये बहस का विषय है ही नहीं। लेकिन ए2 को अच्छा बताया रहा है जो गलत है। ये बीटा-कैसीन प्रोटीन के दो प्रकार हैं, जिनमें अंतर इस प्रोटीन श्रृंखला के 67वें अमीनो एसिड में बदलाव के कारण होता है।’
आर एस सोढी कहते हैं कि ए2 घी की पौष्टिकता और तथाकथित औषधीय गुणों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर दावे किए जा रहे हैं।
वह कहते हैं, ‘लेकिन ये याद रखना चाहिए कि घी वसा के सिवा कुछ नहीं है। इसमें 99।5 फ़ीसदी वसा होती है। बाकी दूसरी चीजें। इसमें प्रोटीन नहीं होता लेकिन इसलिए ये दावा आप कैसे कर सकते हैं कि मेरे घी में ए2 प्रोटीन होता है और शरीर के लिए बेहद फ़ायदेमंद है।’
उनकी नजऱ में ये और कुछ नहीं लोगों को बेवकूफ़ बनाना है। इसकी मार्केटिंग कर लोगों को ठगा जा रहा है।
हालांकि वह ये भी कहते हैं ए2 घी बेचने वाले कई ब्रांड आए और चले गए। मार्केट में इनका टिकना मुश्किल है। क्योंकि ये कंपनियां मार्केटिंग पर बहुत ज्यादा खर्च करती हैं और इस वजह से ब़ाजार से बाहर हो जाती हैं।
ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में रहने वाले सैकड़ों बंगाली भाषी मुसलमानों को जबरन पड़ोसी देश बांग्लादेश भेजा गया है। इन लोगों ने एचआरडब्ल्यू को बताया कि अगर वे नहीं जाते, तो उनकी जान को खतरा था।
डॉयचे वैले पर महिमा कपूर का लिखा-
एचआरडब्ल्यू की रिपोर्ट में बांग्लादेशी अधिकारियों का हवाला देते हुए कहा गया है कि 7 मई से 15 जून के बीच कम से कम 1,500 मुस्लिम पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को सीमा पार से खदेड़ा गया। इनमें से कुछ के साथ मारपीट की गई और उनके भारतीय पहचान पत्र नष्ट कर दिए गए। वहीं, भारत सरकार ने इस बारे में कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है कि उसने कितने लोगों को अवैध अप्रवासी के तौर पर चिह्नित करके बांग्लादेश भेजा है।
ह्यूमन राइट्स वॉच की एशिया निदेशक इलेन पियर्सन ने कहा, ‘भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) भारतीय नागरिकों सहित बंगाली मुसलमानों को मनमाने ढंग से देश से निकालकर भेदभाव को बढ़ावा दे रही है।’ उन्होंने कहा, ‘भारत सरकार अवैध तरीके से देश में रह रहे विदेशियों की तलाश में हजारों कमजोर लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल रही है, उसकी कार्रवाई मुसलमानों के प्रति व्यापक भेदभावपूर्ण नीतियों को दिखाती है।’
‘घुसपैठियों’के खिलाफ मोदी सरकार की मुहिम
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने लंबे समय से अवैध अप्रवासियों के खिलाफ कड़ा रूख अपनाया हुआ है। चुनाव के दौरान अपने भाषण में पीएम मोदी ने अक्सर बांग्लादेश से आए प्रवासियों का जिक्र किया और उन्हें ‘घुसपैठिया’ कहा है।
गृह मंत्रालय ने मई में राज्यों को बिना दस्तावेज वाले बांग्लादेशी प्रवासियों को पकडऩे के लिए 30 दिन की समय-सीमा दी थी। यह समय-सीमा भारतीय कश्मीर में सैलानियों पर हुए हमले के तुरंत बाद जारी की गई थी। इस हमले में संदिग्ध इस्लामी चरमपंथियों ने हिंदू पर्यटकों को निशाना बनाया था। भारत सरकार का दावा है कि सभी निष्कासन अवैध प्रवासन को रोकने के लिए किए गए थे। एचआरडब्ल्यू की रिपोर्ट में जल्दबाजी में की गई कार्रवाई की कड़ी आलोचना करते हुए कहा गया है कि सरकार का तर्क ‘अविश्वसनीय’ है क्योंकि इसमें ‘उचित प्रक्रिया से जुड़े अधिकारों, घरेलू गारंटियों और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों’ की अवहेलना की गई है।
पियर्सन ने कहा, ‘सरकार राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए उत्पीडऩ से प्रभावित लोगों को शरण देने के भारत के पुराने इतिहास को कमजोर कर रही है।’
मई में, भारतीय मीडिया ने खबर दी थी कि अधिकारियों ने लगभग 40 रोहिंग्या शरणार्थियों को जबरन हिरासत में लिया था और उन्हें नौसेना के जहाजों के जरिए अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में छोड़ दिया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘खूबसूरती से गढ़ी गई कहानी' कहा है, लेकिन मोदी सरकार ने अभी तक सार्वजनिक रूप से इन आरोपों का खंडन नहीं किया है।
मुस्लिम प्रवासी मजदूरों को बनाया गया निशाना
न्यूयॉर्क स्थित एचआरडब्ल्यू ने कहा कि जिन लोगों को देश से निकाला गया उनमें से कुछ बांग्लादेशी नागरिक थे। जबकि, कई भारतीय नागरिक बांग्लादेश के पड़ोसी राज्यों के बंगाली भाषी मुसलमान थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि अधिकारियों ने बिना किसी उचित प्रक्रिया के तुरंत उन्हें देश से निकाल दिया। जबकि, उचित प्रक्रिया के तहत निष्कासन से पहले व्यक्ति की नागरिकता की पुष्टि करनी होती है।
थाईलैंड-कंबोडिया सीमा पर चल रही सैन्य झड़प में अब तक कम से कम 12 लोगों की मौत हो गई है, जबकि 14 लोग घायल हो गए हैं।
थाईलैंड के स्वास्थ्य मंत्री ने बताया कि झड़पों में एक सैन्यकर्मी और 11 नागरिक मारे गए हैं। जबकि दोनों ही पक्षों ने एक-दूसरे पर पहली गोली चलाने का आरोप लगाया है।
यह घटना ऐसे समय में हुई है जब एक दिन पहले सीमा पर एक लैंडमाइन विस्फोट में एक थाई सैनिक घायल हुआ था, जिसके बाद थाईलैंड ने कंबोडिया से अपने राजदूत को वापस बुला लिया था।
सीमा पर गुरुवार सुबह से ही दोनों देशों के सैनिकों के बीच गोलीबारी हो रही है। थाईलैंड ने कहा है कि उसने कंबोडिया के सैन्य ठिकाने पर हवाई बमबारी की है। गुरुवार को सुबह जब फ़ायरिंग शुरू हुई तो दोनों पक्षों ने एक दूसरे पहली गोली चलाने के आरोप लगाए हैं।
थाईलैंड ने कंबोडिया पर थाई गांवों और अस्पतालों पर रॉकेट दागने के आरोप लगाए हैं जबकि थाईलैंड ने कंबोडिया के कुछ ठिकानों पर हवाई बमबारी की है।
कंबोडिया ने थाईलैंड से अपने राजनयिक संबंध को कम कर दिया है और उस पर ज़रूरत से ज़्यादा बल का इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हुए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से आपात बैठक बुलाने की मांग की है।
चीन ने दोनों देशों से बातचीत के मार्फत विवाद के समाधान की अपील की है और दोनों देशों के बीच निष्पक्ष मध्यस्थ की भूमिका निभाने की पेशकश की है।
कंबोडिया के रक्षा मंत्रालय का आरोप
कंबोडिया के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता के अनुसार, गुरुवार सुबह का संघर्ष स्थानीय समयानुसार, करीब 6।30 बजे तब शुरू हुआ जब थाई सैनिकों ने पहले के समझौते का उल्लंघन करते हुए सीमा के पास स्थित एक हिंदू मंदिर की ओर बढ़त बनाई और उसके चारों ओर कंटीली तार लगा दी। इसके बाद थाई सैनिकों ने करीब 7.00 बजे एक ड्रोन छोड़ा और लगभग 8.30 बजे हवाई फ़ायरिंग की।
कंबोडिया के रक्षा मंत्रालय की प्रवक्ता माली सोचेटा ने ‘फनम पेन्ह पोस्ट’ अख़बार को बताया कि 8.46 बजे थाई सैनिकों ने फायरिंग शुरू कर दी, जिससे कंबोडियाई सैनिकों के पास आत्मरक्षा के अलावा विकल्प नहीं बचा।
सोचेटा ने थाईलैंड पर अत्यधिक सैनिक तैनात करने, भारी हथियारों के इस्तेमाल और कंबोडियाई क्षेत्र पर हवाई हमले करने का भी आरोप लगाया।
कंबोडिया के प्रधानमंत्री हुन मानेत ने कहा है कि उनके पास जवाबी कार्रवाई करने के आलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
एक सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने कहा, ‘कंबोडिया सभी मुद्दों को बातचीत से हल करने के सिद्धांत को मानता रहा है लेकिन इस हालत में सैन्य आक्रामकता का जवाब सैन्य ताक़त से देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।’
थाईलैंड का पक्ष क्या है?
थाईलैंड की नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के प्रवक्ता ने बताया कि गुरुवार सुबह स्थानीय समयानुसार 7:30 बजे कंबोडिया की सेना ने सीमा के पास थाई सैनिकों पर निगरानी रखने के लिए ड्रोन तैनात किए।
इसके थोड़ी देर बाद, आरपीजी से लैस कंबोडियाई सैनिक सीमा के पास इक_ा हुए। थाई पक्ष के सैनिकों ने बातचीत की कोशिश की और चिल्लाकर संवाद करने की कोशिश की, लेकिन यह प्रयास असफल रहा।
प्रवक्ता ने बताया कि करीब 08:20 बजे कंबोडियाई सैनिकों ने गोलीबारी शुरू कर दी, जिसके जवाब में थाई सैनिकों को भी कार्रवाई करनी पड़ी। थाईलैंड ने कंबोडिया पर बीएम-21 रॉकेट लॉन्चर और तोपखाने समेत भारी हथियारों को तैनात करने का आरोप लगाया है।
थाई पक्ष का कहना है कि इस हमले से सीमा के पास बसे घरों और सार्वजनिक ढांचों को नुकसान पहुंचा है।
कंबोडिया थाईलैंड सीमा तनाव का इतिहास
इस विवाद की जड़ें सौ साल से भी ज़्यादा पुरानी हैं, जब फ्रांसीसी कब्ज़े के बाद कंबोडिया की सीमाएं तय की गई थीं।
हालात 2008 में तब औपचारिक रूप से तनावपूर्ण हो गए, जब कंबोडिया ने एक विवादित क्षेत्र में स्थित 11वीं सदी के मंदिर को यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट के तौर पर पंजीकृत कराने की कोशिश की।
थाईलैंड ने इसका तीखा विरोध किया। इसके बाद दोनों देशों के बीच कई बार झड़पें हुईं, जिनमें सैनिकों और आम नागरिकों की मौतें हुईं।
हालिया तनाव मई में तब और बढ़ गया, जब एक झड़प में कंबोडियाई सैनिक की मौत हो गई। इसके बाद से दोनों देशों के रिश्ते पिछले एक दशक में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गए।
पिछले दो महीनों में दोनों देशों ने एक-दूसरे पर सीमा संबंधी पाबंदियां लगाई हैं। कंबोडिया ने थाईलैंड से फल-सब्ज़ी जैसी चीज़ों के आयात पर रोक लगा दी, साथ ही बिजली और इंटरनेट सेवाएं लेना भी बंद कर दिया। पिछले कुछ हफ्तों में दोनों देशों ने सीमा पर सैनिकों की तैनाती भी बढ़ा दी है।
बिहार में हाल के दिनों में हुई हत्याओं और दूसरे अपराध की बढ़ती घटनाओं से ‘जंगलराज’ एक बार फिर चर्चा में है. जुलाई महीने के 20 दिनों में 60 से अधिक हत्याएं हो चुकी हैं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार का लिखा-
आंकड़ों के अनुसार राज्य में 2015 से 2024 के बीच अपराधों की संख्या में 80 प्रतिशत वृद्धि हुई है, जबकि भारत के राष्ट्रीय औसत में बढ़ोतरी करीब 24 प्रतिशत की रही। हालांकि, जनसंख्या के हिसाब से प्रति लाख आबादी पर अपराध दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। चुनावी साल में यह एक राजनीतिक मुद्दा बनता जा रहा है। सोमवार को इस मुद्दे पर बिहार में विपक्ष के विधायकों ने विधानसभा के अंदर और बाहर जोरदार प्रदर्शन किया।
इसी महीने की चार तारीख को पटना में प्रसिद्ध उद्योगपति गोपाल खेमका की हत्या के बाद से ही बढ़ते अपराध की चर्चा तेज हो गई थी। इसके बाद 13 जुलाई को एडवोकेट जितेंद्र मेहता और फिर 17 जुलाई को पटना के ही पारस हॉस्पिटल में पैरोल पर इलाज करा रहे कुख्यात अपराधी चंदन मिश्रा की हत्या कर दी गई। इसके बाद खगडिय़ा में एक जेडीयू नेता की हत्या हुई।
पुलिस ने इन सभी मामलों में तुरंत कार्रवाई की और एनकाउंटर से भी परहेज नहीं किया। इन वारदातों में शामिल अपराधी पकड़े भी गए। सुपारी देकर टारगेट किलिंग की बढ़ती संख्या को देखते हुए बिहार पुलिस ने कांट्रैक्ट किलर निगरानी सेल का भी गठन किया है।
जून तक हत्या के 1379 मामले दर्ज
बिहार के राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एससीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार 2015 से 2024 के बीच राज्य में कुल अपराधों की संख्या में 80।2 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जबकि, राष्ट्रीय स्तर के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2015 से 2022 तक औसत वृद्धि 23।7 प्रतिशत रही। इंडियन एक्सप्रेस अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार 2015 से हर साल (कोरोना की महमारी के दौरान 2020 और 2024 को छोड़ कर) बिहार में अपराध की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और यह कुल अपराध दर के मामलों में दस सबसे खराब राज्यों में से एक रहा।
हालांकि, जनसंख्या के हिसाब से प्रति लाख आबादी पर अपराध की दर राष्ट्रीय औसत से काफी कम रही। 2022 में बिहार में अपराध दर 277 रही, जबकि राष्ट्रीय औसत 422 था। 2023 में राज्य में करीब 3।54 लाख अपराध हुए, जो बीते दस वर्षों में अधिकतम थे। 2024 में यह संख्या 3.52 लाख हो गई। वहीं, इस साल जून तक कुल 1.91 लाख अपराध दर्ज किए जा चुके हैं।
एससीआरबी के आंकड़ों के अनुसार बिहार में जून, 2025 तक हत्या के 1379 मामले दर्ज किए गए, जबकि 2024 में यह आंकड़ा 2,786 तथा 2,023 में 2,863 था। बिहार पुलिस की एक रिपोर्ट के अनुसार अवैध हथियार, फर्जी लाइसेंस और गोला-बारूद की अवैध बिक्री बढ़ते हिंसक अपराधों की वजहों में से एक है।
संपत्ति और प्रतिशोध के लिए बढ़ रहा अपराध
हत्या के अधिकतर मामलों में एक बड़ा कारण सालों से प्रॉपर्टी का विवाद और व्यक्तिगत प्रतिशोध रहा है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक इस बात का पता इससे भी चलता है कि 2015 से 2022 तक हर साल हत्या के प्रयासों की दर के मामले में बिहार शीर्ष पांच राज्यों में शामिल रहा है, वहीं इसी अवधि में संपत्ति विवाद से जुड़ी हत्या की घटनाएं सबसे अधिक हुईं।
2018 में प्रॉपर्टी के कारण 1,016 हत्याएं हुईं। बिहार पुलिस के अनुसार, अधिकांश घटनाएं व्यक्तिगत दुश्मनी, विवाद, अवैध संबंध या प्रेम प्रसंग के कारण हुई हैं। आंकड़ों के अनुसार फिरौती के लिए अपहरण व डकैती जैसे अपराधों में काफी कमी आई है, किंतु बलात्कार और दंगे जैसी घटनाओं में बढ़ोतरी चिंताजनक है। इस साल केवल जनवरी माह में बलात्कार के 121 मामले दर्ज हुए, जबकि 2005 से 2020 तक बलात्कार के मामलों में 47.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।