संपादकीय
हिन्दुस्तान बड़ा गजब का देश है। यहां पर साल में एक दिन देश के तमाम सरकारी दफ्तरों में अफसर-कर्मचारी शपथ लेते हैं कि वे आतंकवाद का विरोध करेंगे। अब कल की खबर है कि देश में मनाए जा रहे सतर्कता सप्ताह के तहत फौज के सारे आला अफसरों ने शपथ ली है कि वे कानून के शासन का पालन करेंगे। उन्होंने ईमानदार और पारदर्शी तरीके से काम करने के लिए ईमानदारी का संकल्प लिया। सरकारी खबर में बताया गया है कि अभी भारतीय सेना की ईमानदारी और अखंडता के मूल मूल्यों को बनाए रखने के लिए सतर्कता जागरूकता सप्ताह चल रहा है। अब अगर मंगलवार की इस फौजी खबर के विशेषणों को छोड़ दें, तो क्या बचता है? क्या फौज इस शपथ के बिना कानून के शासन का पालन नहीं करती? क्या वह ईमानदारी और पारदर्शी तरीके से काम नहीं करती? क्या वह सतर्कता और जागरूकता से काम नहीं करती?
हिन्दुस्तान में एक नागरिक के रूप में जो बुनियादी जिम्मेदारी है, और जो सरकारी नौकरी में आने के बाद कुछ बढ़ भी जाती है, उस जिम्मेदारी को साल में एक बार या चार बार शपथ दिलाकर दुहराने का क्या मतलब है? सरकारी सेवा नियम सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों को कई ऐसे काम करने से रोकते हैं जो कि गैरसरकारी लोग कर सकते हैं। सरकारी सेवा खत्म करने के लिए लोगों का चाल-चलन गड़बड़ होना भी काफी वजह बन सकती है, जबकि गैरसरकारी लोगों पर ऐसा कुछ लागू नहीं होता है। ऐसे में लोगों की जिंदगी में जो बुनियादी बातें रहनी चाहिए, उन बातों के लिए इस तरह की शपथ दिलाना यही बताता है कि देश का कानून, सरकारी नियम, सेवा शर्तें, और लोगों में अनिवार्य जिम्मेदारी की भावना सब कमजोर हो चुकी हैं।
क्या परिवारों में लोग रोज सुबह उठने के बाद और रात सोने के पहले यह शपथ लेते हैं कि मुसीबत में पूरा परिवार एक साथ खड़े रहेगा? क्या रिक्शेवाले सवारी को बिठाने के बाद शपथ लेते हैं कि वे उन्हें हिफाजत से मंजिल तक पहुंचाकर रहेंगे? क्या मोची इस बात की शपथ लेते हैं कि वे ईमानदारी से जूते सिलेंगे, मजबूत टांके लगाएंगे? क्या अखबारनवीस साल में एक बार, प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर या किसी और मौके पर ऐसी शपथ लेते हैं कि वे सच्ची खबर ही बनाएंगे?
शपथ का यह पूरा सिलसिला ही इस समझ पर टिका हुआ है कि यह देश झूठा है, यहां के लोग मक्कार हैं, इन्हें कसम दिलाए बिना ये कोई काम सही नहीं करेंगे! और फिर कसम दिलाई भी किसकी जाती है? संविधान की। पन्नों का एक ऐसा पुलिंदा जिसे मानना किसी के लिए तब तक जरूरी नहीं है, जब तक उसमें देश के लिए जागरूकता न हो, ईमानदारी न हो, कानून का शासन पालन करने की इच्छा न हो। इसी संविधान की शपथ लेकर तो तमाम मंत्री काम करते हैं जिनमें से दर्जनों जेल भी जा चुके हैं। संविधान की शपथ का ही इतना वजन होता तो क्या शपथ लेने वाले कटघरे में खड़े होते? सजा पाते? जेल जाते?
एक परिपक्व लोकतंत्र को ऐसे पाखंड से उबर जाना चाहिए। असल जिंदगी में देखें तो बात-बात पर, और गैरजरूरी बातों पर भी, सबसे अधिक कसम वे लोग खाते हैं जो कि झूठ बोलने के लिए मशहूर होते हैं। वे मां-बाप की कसम खा लेते हैं, बच्चों की कसम खा लेते हैं, ईश्वर की कसम खा लेते हैं, और तो और जिससे झूठ बोल रहे हैं उसकी कसम खाकर भी झूठ बोल देते हैं। यहां का राष्ट्रीय चरित्र ऐसा हो गया है कि झूठ बोले बिना कई लोगों का खाना नहीं पचता। आज देश के जिन बड़े फौजी अफसरों को ईमानदारी की शपथ दिलाई गई है, उन्हीं की फौज के कई अफसर बड़े-बड़े भ्रष्टाचार में गिरफ्तार हो चुके हैं, और तो और अपने मातहत अफसरों की बीवियों का देह शोषण करने का मुकदमा भी उन पर चल चुका है, और उन्हें बर्खास्त किया गया है। कौन सी कसम ने उन्हें कुछ बुरा करने से रोका?
अब अदालतों में या मंत्री पद या जज के ओहदे की शपथ लेते हुए लोग संविधान, सत्य, या धर्म की शपथ ले सकते हैं। अपनी-अपनी पसंद से लोग शपथ लेते हैं। लेकिन जो लोग धर्म की शपथ लेते हैं, उनमें से बहुत से लोग अपने धर्म को संविधान से ऊपर मानकर चलते हैं। जब बाबरी मस्जिद गिरी तो कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे, और शपथ लेकर ही बने थे। उन पर संविधान तो निभाने और लागू करने की जिम्मेदारी भी थी। लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में बाबरी मस्जिद को गिरने देने में उनका जो रूख इतिहास में दर्ज है, क्या वह संविधान की शपथ वाला रूख था? और अकेले कल्याण सिंह की बात नहीं है वह तो हमने एक मिसाल के रूप में कहा है, बात तो देश के पूरे ढांचे की है जिसमें लोगों को बिना जरूरत धर्म और सत्यनिष्ठा, संविधान और कई दूसरे किस्म की शपथ दिलाई जाती हैं। पाखंड का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। देश के सबसे बड़े फौजी अफसर अगर ऐसी शपथ के बिना कानून के राज का पालन नहीं करेंगे, ईमानदारी से काम नहीं करेंगे, तो फिर क्या वे शपथ लेकर अपना हृदय परिवर्तन कर लेंगे?
जो समाज झूठ पर जीता है, वही सच की कसमें अधिक खाता है। दुनिया के इतिहास में जो सबसे बड़े सच्चे लोग दर्ज हैं, उनका लिखा और कहा हुआ देख लें, उनमें अपने कहे हुए के सर्टिफिकेट के रूप में कभी कोई कसम दर्ज नहीं होगी।
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चुनाव में हलकटपन बड़ी आम बात है। मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने भाजपा की नेता इमरती देवी को आइटम कहा, और कहकर ऐसे अड़े कि अपने मालिक की नाराजगी के बाद भी अपने शब्द वापिस लेने से इंकार कर दिया। लेकिन दो-चार दिनों के भीतर ही कल के कांग्रेसी और आज के भाजपाई नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक चुनावी मंच से इमरती देवी को भरोसा दिलाते हुए बड़े दम-खम के साथ कहा- क्या सोचकर मेरी इमरती को डबरा में आकर आइटम कहने की हिम्मत की? अब इमरती देवी को भरोसा दिलाते हुए भी ऐसी भाषा बड़ी अटपटी है, और अपने से जरा ही छोटी एक महिला नेता के बारे में इस अंदाज में कहकर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने लोगों में इस पूरे विवाद को मजाक का सामान बना दिया।
अब बिहार के चुनाव प्रचार में नीतीश कुमार ने पिछले चुनाव के अपने भागीदार लालू यादव का नाम लिए बिना उनके बारे में एक बहुत घटिया बात कही- 8-8, 9-9 बच्चे पैदा करने वाले बिहार का विकास करने चले हैं। बेटे की चाह में कई बेटियां हो गईं, मतलब बेटियों पर भरोसा नहीं है। ऐसे लोग बिहार का क्या भला करेंगे?
अब लालू यादव के परिवार की तरफ से इसका जवाब तो आना था, और उनके बेटे के तेजस्वी ने नीतीश कुमार को याद दिलाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी 6 भाई-बहन हैं, कहीं न कहीं नीतीश कुमार अपने बयान से पीएम मोदी पर भी निशाना साध रहे हैं। तेजस्वी ने कहा कि नीतीश कुमार ने एक महिला और मेरी मां की भावनाओं को आहत किया है, उन्होंने मेरे बारे में भी अपशब्द कहे हैं, वे शारीरिक और मानसिक रूप से थक गए हैं।
नीतीश कुमार आमतौर पर बकवास करने और गंदी बात बोलने के लिए नहीं जाने जाते, लेकिन चुनाव की गर्मी ऐसी है कि उन्होंने भी गंदगी में कूद जाने से परहेज नहीं किया, और लालू यादव पर एक ऐसी पारिवारिक बात को लेकर हमला किया जो बात शायद उन्होंने खुद भी लालू से चुनावी दोस्ती और दुश्मनी के चलते हुए कभी उठाई नहीं थी। उन्होंने ही क्या, लालू के बच्चों की गिनती को किसी दूसरी पार्टी या नेता ने कभी चुनावी मुद्दा बनाया हो, ऐसा हमें याद नहीं पड़ता। लेकिन आज अगर लालू राज के भ्रष्टाचार, उनकी कुनबापरस्ती, उनके 15 बरस के लंबे कार्यकाल की बदअमनी, बदइंतजामी जैसे मुद्दों को छोडक़र 15 बरस के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अगर एक घटिया और गंदी बात करना जरूरी लग रहा है, तो फिर वे चर्चाएं सही लगती हैं कि नीतीश इस बार परेशानी में हैं, और एक तरफ चिराग पासवान उन्हें परेशान कर रहे हैं, तो दूसरी ओर भाजपा के इश्तहारों में नीतीश का नाम तक नहीं है, जबकि भाजपा यह कहते आई है कि सीटें चाहे उसे ज्यादा मिले, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनाए जाएंगे। आज बिहार के चुनाव को लेकर बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों को यह गंभीर शक है कि भाजपा ने नीतीश कुमार को परेशान करने के लिए चिराग पासवान को उकसाए रखा है, और चुनाव के बाद के लिए भाजपा के दिमाग में कोई और बात भी हो सकती है। जो नीतीश कुमार पिछले चुनाव के अपने गठबंधन के भागीदार लालू यादव को लात मारकर भाजपा के साथ सरकार बनाने जैसा दलबदलू सरीखा काम कर चुके हैं, वे नीतीश कुमार अगर भाजपा से तिरस्कृत हुए तो फिर लालू यादव के कितने बच्चों को गोद में बिठाने तैयार होंगे?
अभी 5-7 बरस पहले की ही बात है जब नीतीश कुमार ने बिहार की एक आमसभा में मोदी के साथ उनकी तस्वीर के इश्तहारों पर आपत्ति की थी, और अपने आपको आरएसएस विरोधी साबित करने की कोशिश की थी। खैर, राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होते हैं, न कोई स्थाई दुश्मन होते हैं, और हमबिस्तर बदलते ही रहते हैं, इसलिए नीतीश कुमार आज जहां हैं, वहां क्यों हैं और कैसे हैं ये सवाल भारतीय लोकतंत्र में बेमानी हो चुके हैं। अब विधायकों और सांसदों को खरीदना, सरकारों को बारूदी धमाकों से उड़ाना, सत्तापलट करवाना इतना आम हो चुका है कि इनमें से कोई बात अब चौंकाती नहीं है। लेकिन लालू के बच्चों की संख्या को लेकर चुनावी मंच से उन पर तंज क्या हारने की घबराहट में कही हुई घटिया बात है?
जब लोग इतिहास की किसी बात को भुलाकर, उससे उबरकर किसी गठबंधन में भागीदार होते हैं, तो उससे पहले की बातों को कहने का उनका कोई नैतिक हक नहीं रहता। जो लोग 1984 के दंगों के बाद कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ चुके हैं, सरकार में रह चुके हैं, वे बाद में किस मुंह से कांग्रेस पर सिख विरोधी होने की तोहमत लगा सकते हैं? जो लोग 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने के बाद भाजपा और शिवसेना के साथ मिलकर गठबंधन और सरकार बना चुके हैं, चुनाव लड़ चुके हैं, वे हमेशा के लिए मस्जिद गिराने में भाजपा-शिवसेना की हिस्सेदारी पर बोलने का हक खो बैठे हैं। ऐसा ही गुजरात दंगों को लेकर, या कश्मीर के कुछ मुद्दों को लेकर हो चुका है कि उनके बाद के भागीदार भागीदारी शुरू होने के दिन से ही इस इतिहास पर बोलने का हक खो बैठे हैं। इसीलिए आज कई बातें भाजपा को याद दिलाई जा रही है कि तिरंगा न उठाने की बात कहने वाली महबूबा को मुख्यमंत्री तो भाजपा ने ही बनाया था, और खुद महबूबा के मातहत अपने मंत्री बनाए थे। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने कश्मीर में जो किया है उसे लेकर कश्मीर के भीतर महबूबा से भी सवाल उठ रहे हैं कि इन्हीं मोदी के साथ तो कश्मीर की सरकार बनाई थी।
खैर, आज के मुद्दे पर लौटें, नीतीश कुमार ने एक घटिया और अप्रासंगिक बात की है जिससे उनकी जैसी भी घिसीपिटी छवि राजनीति में रही हो, उसमें गहरी चोट लगी है। यह चुनाव तो चले जाएगा, और जीत-हार अलग रहेगी, लेकिन घटिया बात जिनके साथ दर्ज हो जा रही हैं, उन्हें अब मिटाना मुमकिन नहीं है।
अमरीकी विदेश मंत्री माइक पाम्पियो, और अमरीकी रक्षामंत्री मार्क एस्पर आज दोपहर बाद हिन्दुस्तान पहुंचे हैं, और वे यहां मंत्री स्तर की बातचीत करेंगे। हिन्दुस्तान अमरीका के बीच आपसी हितों के बहुत से दूसरे मुद्दे हो सकते हैं, और होंगे भी, लेकिन आज चीन के साथ भारत के जारी सरहदी तनाव के वक्त पर हिन्दुस्तान के लोगों की उम्मीद यह है कि अमरीका चीन के खिलाफ भारत का कैसे साथ देता है। चूंकि दोनों देशों के इन दोनों मंत्रालयों को सम्हालने वाले लोग बैठेंगे, तो जाहिर है कि चीन एक बड़ा मुद्दा रहेगा, और भारत की जनता की आम भावना आज चीन के खिलाफ भडक़ी हुई है, इसलिए भारतीय जनता अमरीका से चीन के खिलाफ कुछ ठोस वायदों की उम्मीद भी करेगी।
लेकिन इस बातचीत के वक्त पर भी ध्यान देना जरूरी है। अमरीका में आज डोनल्ड ट्रंप की सरकार अपने आखिरी कुछ हफ्ते गुजार रही है। वहां पर नए राष्ट्रपति को चुनने के लिए मतदान शुरू हो चुका है, और भारत से अलग अमरीका में यह मतदान कुछ हफ्ते चलता है, इसलिए भारतीय चुनाव की तरह यह दर्शनीय नहीं होता, यह अलग बात है कि 3 नवंबर के मतदान के बाद कुछ हफ्तों के भीतर अमरीकी राष्ट्रपति भवन ट्रंप से परे का कोई राष्ट्रपति काम सम्हाल सकता है, और जैसा कि वहां का चुनावी नजारा है, रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार ट्रंप के अलावा दूसरे उम्मीदवार डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं, और अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं, तो अमरीका की विदेश नीति, रक्षानीति में एक बुनियादी फेरबदल भी आ सकता है। ऐसे में अमरीकी विदेश मंत्री और रक्षामंत्री का यह भारत दौरा कुछ अटपटे वक्त पर हो रहा है क्योंकि हो सकता है कि ये अगली सरकार चुनने के लिए वोट डालकर यहां आए हों। अगली 21 जनवरी को अमरीकी राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण होगा, और उसके साथ ही हो सकता है कि इसी राष्ट्रपति के रहते हुए भी सारे मंत्री बदल जाएं। ऐसे में भारत में जो लोग बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं, उन्हें सही संदर्भों में मंत्रियों की दो दिनों की इस बैठक को समझना चाहिए।
हिन्दुस्तान ने अमरीका से इन बरसों में हथियारों की बड़ी खरीदी की है। हिन्दुस्तान अमरीका के लिए एक बड़ा ग्राहक भी है, और चीन का पड़ोसी होने के नाते भारत का एक रणनीतिक महत्व भी अमरीका के लिए है। हिन्दुस्तान के जो लोग यह मानते हैं कि भारत और चीन के टकराव के बीच अमरीका भारत का साथ देने आ रहा है, उन्हें यह बात सुनना अच्छा नहीं लगेगा कि चीन के साथ अपने बड़े टकराव के चलते हुए हो सकता है कि अमरीका यहां भारत का साथ लेने आ रहा हो। भारत का चीन से सरहदी टकराव तो चल रहा है, लेकिन यह टकराव चीन-अमरीका के टकराव जितना बड़ा और गंभीर नहीं है। अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों पर पिछले महीनों में हमले किए हैं, और ये हमले एक बददिमाग और बेदिमाग राष्ट्रपति की बकवास से अधिक इसलिए रहे हैं कि इन्होंने डब्ल्यूएचओ की साख गिराने की कोशिश भी की है। ऐसे बहुत से अंतरराष्ट्रीय विदेशी मसलों पर अमरीका भारत से साथ की उम्मीद कर सकता है क्योंकि भारत का उन संस्थाओं से ऐसा कोई टकराव नहीं है।
इन सबसे ऊपर एक बात और समझने की जरूरत है कि भारत को इतना महत्व देते हुए इन दो मंत्रियों का प्रवास इस मौके पर इसलिए भी हो सकता है कि अभी अमरीका में जितने भारतवंशियों के वोट पडऩे हैं, उन पर इस प्रवास का एक असर पड़ जाए। ऐसे ही असर के लिए राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप इसी बरस अहमदाबाद आकर अपने प्रचार की शुरूआत कर गए थे, और आज मंत्रियों का यह दौरा उसी की एक अगली कड़ी भी हो सकती है। यह बात समझने की जरूरत है कि विदेश नीति और रक्षानीति ऐसी चीज नहीं है कि जिनसे अगले कुछ हफ्तों के अमरीकी सरकार के कार्यकाल में भारत कुछ हासिल कर पाए। इसलिए यह अमरीकी वोटरों में से भारतवंशियों की जनधारणा को प्रभावित करने की एक मशक्कत हो सकती है।
ऐसी बैठकों के महत्व का अखबारी सुर्खियों के लिए अतिसरलीकरण एक आम बात है। जिनसे हासिल कुछ भी नहीं होता, उन्हें भी बड़े जोर-शोर से शोहरत मिल जाती है। खुद अमरीकी राष्ट्रपति से भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गले मिलते देखकर हिन्दुस्तानी जनता ऐसी खुश हो गई थी कि देश में ट्रंप की जीत के लिए दर्जनों जगह हवन हुए, और कहीं-कहीं मूर्ति बनाकर पूजा भी होने लगी, लेकिन तब से अब तक के इन महीनों में ट्रंप ने भारत की बेइज्जती करने वाली ढेर सारी बकवास भी की है, जिसमें से सबसे ताजा तो अभी यह है कि हिन्दुस्तान एक बहुत ही गंदा देश है, यहां की हवा भी बहुत गंदी है। हिन्दुस्तानी कार्टूनिस्टों ने ट्रंप के ऐसे घटिया बयान पर यह कार्टून भी बनाया कि अहमदाबाद में तो झोपड़पट्टियों को छुपाने के लिए मोदी सरकार ने खासी ऊंची दीवार बनवा दी थी, फिर ट्रंप को दीवार पार की गंदगी कैसे दिख गई?
आज भारत में बिहार में चुनाव हो रहा है, और बाकी पूरे देश में जगह-जगह उपचुनाव भी हो रहे हैं। हो सकता है कि यह ट्रंप के अमरीकी भारतवंशी वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश के अलावा यह कोशिश भी हो कि भारत में जहां कहीं चुनाव हो रहे हैं, वहां मतदान के ठीक पहले अमरीका के साथ प्रतिरक्षा और विदेश नीति पर ऐसी बड़ी बैठक से प्रभाव डालना। हिन्दुस्तानी वोटर गोरी चमड़ी देखकर तेजी से प्रभावित होते हैं, और हो सकता है कि इन दो दिनों में सरकार अपना मुंह खोले बिना भी ऐसा माहौल बनाने में कामयाब हो जाए कि चीन के साथ किसी बड़े टकराव की नौबत में अमरीका भारत के साथ खड़े रहेगा।
यह बैठक अमरीकी ट्रंप-सरकार के कार्यकाल में इतनी लेट हो रही है कि इसका होना न होना एक बराबर है। ट्रंप की वापिसी से ही इस बैठक के किसी फायदे की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन वह भी खासे दूर की बात है। तामझाम के साथ की जा रही दो दिनों की ऐसी बैठक कम से कम भारत को कुछ देकर जाने वाली नहीं है। यह जरूर हो सकता है कि अमरीकी मंत्री भारत के कुछ विदेशी हथियार-खरीद को प्रभावित कर सकें, और अमरीकी कारखानेदारों के लिए कमाई जुटा सकें। अमरीकी रक्षामंत्री अपनी किसी फौज की ताकत लेकर हिन्दुस्तान नहीं आ रहे हैं जैसा कि अमरीका अफगानिस्तान या इराक वगैरह में करते रहा है। अपने साथी देशों के लिए अमरीका के मन में कितनी इज्जत रहती है यह देखना हो तो लोगों को पाकिस्तान में घुसकर अमरीकी फौज द्वारा ओसामा-बिन-लादेन को मारने की घटना याद रखनी चाहिए जिसमें न इस हमले के पहले, और न इस हमले के बाद पाकिस्तान को भरोसे में लिया गया। किसी देश के अधिकारों के लिए ऐसी हिकारत वाले अमरीका से हिन्दुस्तान अगर कुछ पाने की उम्मीद कर रहा है, तो वह नासमझी की बात ही होगी। फिलहाल इस दौरे का सिर्फ एक महत्व हमें जाहिर तौर पर दिख रहा है, अमरीका में बसे हुए भारतवंशी वोटरों को प्रभावित करना, और हिन्दुस्तान में बिहार चुनाव-उपचुनावों में हिन्दुस्तानी वोटरों को गोरी चमड़ी दिखाना।
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भारत की आज की राजनीति में देश में पार्टियां इस कदर खेमों में बंट गई हैं, और इस हद तक कटुता इनके बीच हो गई है कि उससे परे कोई प्रतिक्रिया इनकी तरफ से आ नहीं सकती। न सिर्फ संसद और विधानसभाओं में, बल्कि सोशल मीडिया और मीडिया में भी इनके बीच बातचीत के रिश्ते खत्म हो गए हैं। नतीजा यह हुआ है कि एक अंधाधुंध हड़बड़ी में एक-दूसरे पर हमले हो रहे हैं, और अधिक वक्त नहीं गुजरता कि दूसरे खेमे के हमले का मौका मिल जाता है।
अभी कुछ हफ्ते पहले उत्तरप्रदेश के हाथरस में एक दलित युवती के साथ गैंगरेप के बाद जिस तरह उसका कत्ल हुआ, उससे देश के लोग सिहर गए थे। बड़ी-बड़ी अदालतों तक यह मामला गया, और बलात्कार के बाद अफसरों ने अपने बर्ताव और फैसलों से पीडि़त परिवार के साथ जिस तरह का दूसरा बलात्कार किया, उससे भी लोग सहम गए थे। खुद यूपी हाईकोर्ट ने शासन-प्रशासन के रूख पर भारी नाराजगी जाहिर की थी, और उस पर जमकर लताड़ लगाई थी। उस वक्त भाजपा के तमाम विरोधियों ने भाजपा पर जमकर हमले किए थे, और उत्तरप्रदेश में कानून का राज खत्म हो जाने की बात कही थी।
कुछ ही हफ्ते गुजरे कि कल पंजाब में 6 बरस की एक बच्ची से रेप का एक मामला सामने आया जिसमें एक घर में उस बच्ची से बलात्कार के बाद उसे मार भी डाला गया, और उसके शरीर को जलाने की कोशिश भी की गई। इस बात को लेकर भाजपा के एक केन्द्रीय मंत्री और प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से पूछा है कि वे हाथरस और दूसरी जगहों पर जाते हैं, लेकिन राजस्थान में 10 जगह बलात्कार हुए, वहां क्यों नहीं गए? पंजाब में जहां कांग्रेस की सरकार है वहां बिहार के दलित प्रवासी मजदूर की 6 बरस की बच्ची के साथ ऐसा हुआ, वहां क्यों नहीं गए? प्रकाश जावड़ेकर ने तेजस्वी यादव से भी पूछा है कि उनके बिहार की इस दलित बच्ची के साथ एक कांग्रेस राज में ऐसा हुआ है, और वे वहां क्यों नहीं गए?
यह सवाल जायज है, और आज सार्वजनिक जीवन में जब लोग एक-दूसरे से सवाल अधिक करते हैं, दूसरों के सवालों का जवाब कम देते हैं, तो प्रकाश जावड़ेकर और भाजपा का यह पूछने का हक भी बनता है। जो बात पूछना या कहना वे भूल गए, उस बात को भी हम यहां याद दिला देते हैं कि हाथरस की इस घटना के बाद छत्तीसगढ़ में भी बलात्कार की कई घटनाएं हुई हैं, पहले भी होती रही हैं, लेकिन राहुल गांधी तो छत्तीसगढ़ भी नहीं आए।
हम प्रकाश जावड़ेकर के सवालों और आरोपों को बिल्कुल जायज मानते हैं, और राहुल-प्रियंका को राजस्थान, छत्तीसगढ़ या पंजाब के बलात्कार पर फिक्र और हमदर्दी भी जाहिर करनी चाहिए, इसके अलावा बयान भी देना चाहिए। लेकिन जो बात हाथरस के बलात्कार को बाकी प्रदेशों के दूसरे बलात्कारों से अलग करती है, उस पर प्रकाश जावड़ेकर को अभी तक किसी ने जवाब दिया नहीं है। वह फर्क यह है कि अगर एक दलित युवती के साथ गैंगरेप और हत्या की शिकायत पर पुलिस और प्रशासन ने ठीक से जरूरी कार्रवाई कर दी होती, तो यह मामला इतना बुरा बनता ही नहीं। लेकिन पुलिस और प्रशासन ने बलात्कार की शिकायत आने के बाद से लेकर उस लडक़ी के अंतिम संस्कार तक एक ऐसे अपराधी गिरोह की तरह काम किया जिसकी नीयत बलात्कारियों को बचाने की, और बलात्कार के बाद मार दी गई लडक़ी को एक बार और बलात्कार करके एक बार और मारने की दिखती रही। यह बात हम ही नहीं कह रहे, उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट की जजों ने भी हाथरस के अफसरों से लेकर लखनऊ के बड़े अफसरों तक की खूब खबर ली है, उन्हें खूब लताड़ा और फटकारा है। हाथरस का मामला महज एक बलात्कार और हत्या का मामला नहीं है, वहां पर मुजरिमों को बचाने के लिए, या रेप की शिकार मृत युवती के चाल-चलन से लेकर उसके परिवार तक पर शक के सवाल खड़े करने के लिए सरकारी नुमाइंदों की कोशिश का यह मामला है। आज बिहार चुनाव में फंसे हुए सभी नेताओं में से किसी ने इस नजरिए से प्रकाश जावड़ेकर के सवाल और आरोप का जवाब नहीं दिया है, लेकिन एक अखबार के रूप में हम इस सवाल के बिना, इस मुद्दे को उठाए बिना भाजपा के बयान को ज्यों का त्यों नहीं ले सकते। अभी तक राजस्थान, पंजाब, या छत्तीसगढ़ से ऐसी कोई खबर नहीं आई है कि राज्य सरकार या स्थानीय अधिकारी बलात्कार के मामलों को दबाकर पीडि़त परिवार की साख चौपट करने में लगे हुए हैं, अंतिम संस्कार के उनके बुनियादी हक को छीनने में लगे हुए हैं। बलात्कार और जख्मी करने के बाद की प्रशासन की भूमिका से लेकर राज्य स्तर के अफसरों तक की भूमिका में उत्तरप्रदेश को भाजपा विधायक सेंगर के बलात्कार मामले में भी अलग प्रदेश साबित कर दिया था, और हाथरस के इस मामले में भी।
हमारा स्पष्ट मानना है कि बलात्कारों को कोई भी सरकार पूरी तरह रोक नहीं सकतीं, क्योंकि हर लडक़ी या महिला के पीछे सुरक्षा दस्ता तैनात नहीं किया जा सकता, लेकिन दूसरी तरफ एक बार जानकारी आ जाने पर या शिकायत आ जाने पर शासन-प्रशासन का जो रूख रहता है, वही सरकार की नीयत और जनता की नियति साबित करता है। उत्तरप्रदेश का रिकॉर्ड इस मामले में लगातार बहुत खराब है, और वहां पर सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं, सरकार के बड़े-बड़े अफसरों ने जो संवेदनशून्यता दिखाई है, उसकी कोई मिसाल देश के दूसरे राज्यों में देखने नहीं मिलती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के कांग्रेस और भाजपा नेताओं में शराब को लेकर बहस चल रही है। भाजपा के एक बड़े नेता, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने शराब के मिलावटी होने का आरोप लगाया, तो जवाब में कांग्रेस के लोग टूट पड़े कि कौशिक शराब पीते हैं। इस बयानबाजी के बीच पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. रमन सिंह ने कांग्रेसियों के लगाए आरोपों को खराब बताया है कि नेता प्रतिपक्ष को जो शिकायतें मिलीं उनके आधार पर उन्होंने बयान दिया है, इसे इस तरह बताया जा रहा है कि मानो धरमलाल कौशिक शराब पीते हैं।
अब शराब हिन्दुस्तान में एक हकीकत भी है, और जनधारणा उसके खिलाफ इस तरह है कि खुद तो लोग शराब पीना चाहते हैं, लेकिन अपने नेताओं से उम्मीद करते हैं कि वे शराब न पिएं। यह भी हो सकता है कि उनकी नेताओं से ऐसी उम्मीद न हो, क्योंकि उनको हकीकत का अहसास हो, लेकिन नेता खुद ही अपनी ऐसी तस्वीर पेश करना चाहते हों कि वे शराब नहीं पीते हैं। यह देश शराब के मामले में असभ्य देश है, कोई पार्टी हो, या कहीं और मुफ्त की शराब हो, लोग गिरने-पडऩे तक पीने लगते हैं, कि मानो कोई अगला सबेरा होना ही नहीं है। दुनिया के बहुत से ऐसे देश हैं जहां शराब पीना रोजमर्रा की संस्कृति है, और लोग परिवार के साथ बैठकर शराब पीते हैं, लेकिन बहकने के पहले थम जाते हैं, और वहां रिहायशी इलाकों के बीच भी शराबखाने रहते हैं, सरकारी या सामाजिक संस्थाओं की पार्टियों में भी शराब रखी जाती है, लेकिन शराब वहां गंदी चीज नहीं बन पाई है, जैसी कि हिन्दुस्तान में है।
एक तरफ तो हिन्दुस्तान में इक्का-दुक्का नेताओं को छोडक़र कोई भी सार्वजनिक रूप से यह मंजूर नहीं करते कि वे शराब पीते हैं। कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री रहे, और उन्होंने अपने शराब पीने की बात कभी नहीं छुपाई। शिवसेना के बाल ठाकरे बियर पीते थे, और उन्होंने वह बात नहीं छुपाई। बाल ठाकरे ने एक आमसभा में शरद पवार पर यह आरोप लगाया था कि वे रोज शाम अपने पूंजीपति दोस्तों के साथ बैठते हैं, और विदेशी शराब पीते हैं। अपने खुद के बारे में उन्होंने कहा- मैं राष्ट्रवादी हूं, और मैं सिर्फ हिन्दुस्तानी बियर पीता हूं, रोज दो बोतल बियर मेरा पेट ठीक रखती है।
लेकिन राष्ट्रीय स्तर के कोई और नेता एकबारगी याद नहीं पड़ते जिन्होंने अपने पीने के बारे में खुलकर मंजूर किया हो। हालत यह है कि लोग अपने विरोधियों की ऐसी तस्वीरें जुटाने में लगे रहते हैं जिनमें कांच के पारदर्शी ग्लास में वे दारू के रंग का कुछ पीते दिख रहे हैं, फिर चाहे वह काली या लाल चाय ही क्यों न हों। हिन्दुस्तान में दारू पीने की संस्कृति और सभ्यता न होने से यह नौबत आई है कि दारू इतनी बदनाम हो गई है। वरना जिन लोगों को ब्रिटिश संसद जाना नसीब हुआ है, वे अगर इसके बारे में पहले से पढ़े बिना जाते हैं, तो यह देखकर हक्का-बक्का रह जाते हैं कि वहां निम्न और उच्च सदन, दोनों के सदस्यों के लिए अलग-अलग शराबखाने संसद भवन के भीतर ही हैं। वहां मीडिया के लिए भी अलग से शराबखाना है, और शायद मंत्रियों के लिए या अधिकारियों के लिए भी अलग से बार है। हिन्दुस्तान में कोई ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते कि संसद भवन के अपने कमरे में भी कोई शराब पी ले, और वह बात उजागर हो जाए।
हिन्दुस्तान की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शराब ही अकेला पाखंड नहीं है, और भी बहुत सी चीजें यहां लोगों को बदचलन या बुरा साबित करने के लिए इस्तेमाल होती हैं। नेहरू के जो विरोधी राष्ट्रवादी होने के लिए मेहनत करते रहते हैं, उन्हें नेहरू की सिगरेट पीते हुए दो-तीन तस्वीरें इतनी पसंद हैं कि अपने माता-पिता की फोटो भी उन्हें उतनी पसंद नहीं होगी। वे सोते-जागते नेहरू की सिगरेट पीती तस्वीर को पोस्ट करके उन्हें बदचलन साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। और नेहरू थे कि एक से अधिक मौकों पर उन्होंने बंद कमरे के बाहर भी सिगरेट पी थी और उनको आसपास कैमरे होने का भी अहसास था।
लेकिन राजनीति के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी आम लोगों की खास लोगों से कई उम्मीदें बंध जाती हैं। चाल-चलन को लेकर आम लोग यह उम्मीद करते हैं कि उनके नेता का चाल-चलन ठीक रहे, फिर चाहे आम से लेकर खास तक तमाम लोगों का चाल-चलन हकीकत में बिगड़ा हुआ ही क्यों न रहे। और यह बात महज हिन्दुस्तान में नहीं है, ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर नेताओं को अपने विवाहेतर संबंधों को लेकर पद छोडऩा पड़ा हो, सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर करना पड़ा हो, या अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की तरह संसद में महाभियोग का सामना करना पड़ा हो। जिन पश्चिमी देशों को हिन्दुस्तानी लोग सेक्स-संबंधों के मामलों में बड़ा उदार और खुला हुआ मानते हैं, वहां पर एक-एक सेक्स-संबंध को लेकर लोगों को कुर्सियां छोडऩी पड़ जाती हैं, अगर उनका नाम डोनल्ड ट्रंप न हो। जहां तक ट्रंप का सवाल है, तो वे सार्वजनिक जीवन के किसी भी पैमाने से ऊपर हैं, और हर पैमाने के लिए उनके मन में भारी हिकारत है।
छत्तीसगढ़ में शराब को लेकर शुरू हुई बहस शराब के बहुत से दूसरे पहलुओं तक जा सकती थी, जहां तक जानी चाहिए थी, लेकिन पूरी बहस महज इस मुद्दे पर पटरी से उतर गई कि धरमलाल कौशिक शराब पीते हैं या नहीं। क्या कांग्रेस और भाजपा के लोग अपनी पार्टी के बारे में ऐसा दावा कर सकते हैं कि उनकी पार्टी के नेताओं में शराबी कम हैं? लोगों ने छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस के एक मंत्री के पैर विधानसभा के भीतर लंच के बाद लडख़ड़ाते हुए देखे हैं, हालांकि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिए यह बात विधायकों में अब मजाक के रूप में भी ठंडी पड़ गई है। प्रदेश के आबकारी मंत्री, और आज के कांग्रेस के एक बड़े आदिवासी नेता कवासी लखमा खुलकर इस बात को मंजूर करते हैं कि वे शराब पीते हैं, और यह आदिवासी संस्कृति का एक हिस्सा है। लेकिन बारीकी से समझें तो यह बात साफ है कि वे आदिवासी के रूप में इस बात को कहते हैं जिनकी जिंदगी में छुपाने को कुछ नहीं होता, और जिनके पास दारू पीने के लिए बंद कमरा भी नहीं होता। कवासी लखमा एक कांग्रेस नेता के रूप में इस बात को ठीक उसी तरह छुपा लेते जिस तरह भाजपा के तमाम लोग अपने इतिहास के एक सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में छुपा लेते हैं। हालांकि उनके करीबी लोगों का यह मानना है कि उन्होंने खुद कभी इस बात को नहीं छुपाया, यह एक अलग बात है कि इस बात को शब्दों में मंजूर भी नहीं किया।
हमारा ख्याल है कि सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं अगर वे शराब पीना चाहते हैं तो उन्हें नशे में धुत्त हुए बिना शराब का आनंद लेना आना चाहिए। और इसके साथ-साथ उनमें इतना नैतिक मनोबल भी होना चाहिए कि वे इस बात को मंजूर कर सकें। यह वैसे तो लोगों की निजी जिंदगी की बात है, लेकिन इसे सार्वजनिक मुद्दा बना ही दिया गया है, तो पाखंडी होने के बजाय हौसलेमंद होना बेहतर है। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में जिस प्रदेशों में शराबबंदी नहीं हैं, वहां लोग अपने नेता को हौसलेमंद देखना चाहेंगे, बजाय पाखंडी देखने के।
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भाजपा ने बिहार चुनाव के अपने घोषणापत्र से एक ऐसे मुद्दे को छेड़ा है जो देश के किसी भी चुनाव में शायद पहली बार इस्तेमाल हो रहा है। इसमें संकल्प लिया गया है कि अगर बिहार में भाजपा सत्ता में आती है तो मुफ्त कोरोना-टीकाकरण किया जाएगा। चूंकि भाजपा केन्द्र में भी न सिर्फ सरकार में है, बल्कि सरकार की मुखिया भी है, प्रधानमंत्री भी भाजपा के हैं, इसलिए बिहार की भाजपा को देश से अलग काटकर नहीं देखा जा सकता, और भाजपा भी देश की या दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करते हुए अपने आपको बाकी दुनिया से काटकर नहीं देख सकती। इस नाते भाजपा ने यह घोषणा करके एक सवाल खड़ा किया है कि क्या केन्द्र में उसकी सरकार और उसके प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी बाकी देश के लिए उतनी नहीं है जितनी कि बिहार में भाजपा की सरकार बनने पर वहां की राज्य सरकार उठाने का दावा कर रही है?
चुनावों में लोगों को मुफ्त के तोहफे, कई किस्म की रियायतें, टैक्स की छूट, और जनकल्याणकारी या सार्वजनिक विकास के कार्यक्रमों का लुभावना घोषणापत्र तो अब तक मिलते ही आया है, अगर बिहार में भाजपा गठबंधन वाली सरकार बनती है, तो पूरे बिहार को मुफ्त में कोरोना का टीका भी मिलेगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या बाकी देश ने ऐसा कोई कुसूर किया है कि वहां चुनाव की नौबत नहीं आ रही, और भाजपा को बाकी देश में भी कोरोना का टीका मुफ्त में देने का वायदा नहीं करना पड़ रहा? यह सवाल छोटा नहीं है, क्योंकि आज देश की नीति कोरोना के टीके को लेकर अभी बनी भी नहीं है, और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की घोषणा पर भरोसा किया जाए तो जुलाई 2021 तक देश में 20-25 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका पहुंचाने की पूरी कोशिश केन्द्र सरकार करेगी। खुद मंत्री की कही बातों का सीधा-सीधा मतलब यह है कि जुलाई 2021 तक देश में सौ करोड़ से अधिक लोगों को कोरोना का टीका नहीं मिल पाएगा। अभी तक केन्द्र सरकार की यह नीति भी सामने नहीं आई है कि यह टीका किसी राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत लगाया जाएगा, या किसी तबके को खुद खरीदना होगा। अभी कुछ भी साफ नहीं है। और जहां तक इस महामारी का मामला है तो हमारी साधारण समझ से कोई भी केन्द्र सरकार किसी एक राज्य के साथ अलग बर्ताव नहीं कर सकती, और वह सभी राज्यों को बराबरी से ही देख सकेगी। आज जब कोरोना के टीके को लेकर कुछ भी साफ नहीं है, तब अगर भाजपा बिहार में चुनाव जीतने की हालत में लोगों से मुफ्त टीके का वायदा कर रही है, तो चुनाव हार जाने की हालत में उस पार्टी की केन्द्र सरकार क्या करेगी? भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में क्या करेगी? बिहार की किसी भी पार्टी की सरकार अगर ऐसा करना भी चाहेगी तो क्या एक देश के भीतर ऐसा कोई कार्यक्रम किसी एक प्रदेश की सरकार अपने लोगों के लिए चला सकती है जहां पूरे देश की सरकार और पूरे देश की जिम्मेदारी देश के तमाम तबकों के लिए एक बराबर है? क्या बिहार या किसी भी दूसरी राज्य सरकार को ऐसा कोई हक रहेगा कि वे पूरे देश के लिए केन्द्र सरकार की बनाई गई नीति और कार्यक्रम से परे टीके खरीदकर अपने लोगों को लगा सकें? एक महामारी से देश की आबादी को बचाने के लिए जैसी खतरनाक नौबत आज देश के सामने खड़ी हुई है, उसे देखते हुए एक राज्य के चुनाव में ऐसी घोषणा लुभावनी चाहे जितनी हो, गैरजिम्मेदार बात है, और इसे लेकर पिछले कुछ घंटों में सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है।
चुनाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन देश के प्रमुख राजनीतिक दलों को, केन्द्र और राज्य की सरकारों को, अपने आपको राष्ट्रीय मूलधारा और राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय आपदा, और राष्ट्रीय जरूरत से काटकर अलग नहीं रखना चाहिए। अगर बिहार का कोई क्षेत्रीय दल ऐसी कोई घोषणा करता तो वह क्षेत्रीय दल का तंगनजरिया और उसकी तंगदिली का एक सुबूत रहता। लेकिन एक राष्ट्रीय दल जिसकी मौजूदगी आज देश के हर प्रदेश में है, वह बिहार को चुनाव के मौके पर अलग से ऐसे कौन से लुभावने वायदे दे सकता है जो कि बाकी देश की जिंदगियां बचाने के लिए जरूरी हैं, और जो पूरे देश को एक बराबरी से उपलब्ध कराना केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी है।
हम बाकी चुनावी वायदों को लेकर कुछ नहीं कहते, कोई दस लाख नौकरी का वायदा कर रहा है, तो कोई और किसी दूसरी बात का। लेकिन महामारी से बचाव के लिए टीके को लेकर किया गया ऐसा वायदा सिवाय गैरजिम्मेदारी के और कुछ नहीं है। अभी यह समझना मुश्किल है कि जिस पार्टी की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार के जिम्मे अपना विकसित किया हुआ, या दुनिया में कहीं से भी लाया हुआ टीका पूरे देश को एक नीति और एक कार्यक्रम के तहत बिना भेदभाव के उपलब्ध कराना है, उसकी पार्टी की सरकार बनने पर एक राज्य में किस तरह वह पूरी जनता को राज्य सरकार की तरफ से उपलब्ध कराया जाएगा? बात सिर्फ टीके के दाम की नहीं हैं, और यह दाम भी पूरे देश के लिए केन्द्र सरकार को ही देना चाहिए, क्योंकि एक महामारी से बचने का टीका महज पैसे वाले खरीदकर लगवा लें, और गरीब मर जाएं, ऐसा तो कोई सरकार कर नहीं सकती। अभी तो केन्द्र सरकार राज्य सरकारों से बात करके सीमित संख्या में आने वाले या बनने वाले कोरोना-टीकों को लगाने की प्राथमिकता तय करने वाली है। किस तरह यह काम होगा, वह तय होना भी अभी बाकी है। देश के लोग भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि स्वास्थ्यकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों, सफाईकर्मियों से होते हुए कब बाकी जनता तक यह टीका पहुंचेगा। कोरोना से बचाव का टीका चावल या दाल नहीं है जिसे कोई राज्य सरकार पहले खरीदकर, पहले आयात करके अपने लोगों में बांट दे। इसलिए बिहार चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए भाजपा के घोषणापत्र का यह मुद्दा जिम्मेदारी से तय नहीं किया गया है, इसलिए कि किसी राज्य सरकार की कोई भूमिका अभी तय ही नहीं है, कोरोना के टीके को लेकर कोई नीति या रणनीति ही अभी केन्द्र सरकार ने तय नहीं की है, ऐसे में कोई राज्य सरकार उसे लेकर क्या वायदा कर सकती है?
आज जब लॉकडाऊन और कोरोना के इलाज को लेकर, देश के स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन वाले, और बिना स्मार्टफोन के लोगों के बीच तरह-तरह की खाईयां खुद चुकी हैं, तब ऐसे में बिहार और बाकी प्रदेशों के बीच एक और खाई खोदना निहायत ही गलत बात है। एक महामारी से कोई एक प्रदेश अपने-आपको एक टापू की तरह नहीं बचा सकता, और बिहार में भाजपा को एक टापू-पार्टी की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए। आने वाले दिनों में बाकी देश में इस घोषणा पर और तबकों की प्रतिक्रियाएं सामने आएंगी, हो सकता है कि बिहार चुनाव में भाजपा को इसका फायदा मिल जाए, लेकिन यह हमेशा के लिए एक बहुत बुरी और नाजायज मिसाल की तरह दर्ज तो हो ही चुकी है।
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आंकड़े बड़े दिलचस्प होते हैं। अगर नीयत सही हो, हिसाब लगाने की काबिलीयत हो, तो उनसे भविष्य का अंदाज लगाया जा सकता है। लेकिन नीयत और काबिलीयत में से एक भी बात गड़बड़ हो, तो लोगों को एक नाजायज खुशी दी जा सकती है, या नाजायज दहशत में डाला जा सकता है। जिस तरह हिन्दुस्तान में एक गलत वैज्ञानिक हिसाब लगाया गया, और जुलाई के पहले-दूसरे हफ्ते में शुरू होने वाले कोरोना-वैक्सीन ट्रायल के बाद 15 अगस्त को वैक्सीन की घोषणा का हिसाब भी लगा लिया गया था। खैर, उस बात को छोड़ें, और एक नई दिलचस्प बात पर सोचें कि आने वाले बरसों में नौकरियों और काम के मामले में इंसानों और मशीनों का कैसा मुकाबला होगा।
विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम) की एक ताजा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले बरसों में दुनिया में 8.7 करोड़ लोगों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं। उसका हिसाब है कि 2025 तक ही 8.7 करोड़ नौकरियां इंसानों से छिनकर मशीनों में चली जाएंगी, लेकिन 9.7 करोड़ नए काम पैदा भी होंगे। अब पहली नजर में देखने पर तो ये आंकड़े खुशी के लगते हैं कि जितने इंसानों की नौकरियां जाएंगी, उनसे अधिक नौकरियां खड़ी हो जाएंगी। लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि आज धरती की जो आबादी है वह पांच बरस बाद कितनी होगी? इतनी आबादी तो इन पांच बरसों में अकेले हिन्दुस्तान की बढ़ जाएगी। इसलिए बढ़ती हुई आबादी के मुकाबले बढ़ती हुई नौकरियां अगर अधिक नहीं होंगी, तो वे किसी काम की नहीं रहेंगी, और मशीनें तो रोज लोगों को बेरोजगार करेंगी ही।
अब जैसे आज की यह बात हम एक कम्प्यूटर पर टाईप कर रहे हैं जिसमें टाईपिंग के लिए एक ऑपरेटर की जरूरत पड़ रही है। लेकिन जैसा कि आज अंग्रेजी के साथ है, बिना की-बोर्ड छुए बोलकर टाईप करना चलन में आ चुका है, वैसा ही अगर बाकी भाषाओं में होते चलेगा, होने लग भी गया है, तो बोलकर टाईप करवाने के लिए एक कर्मचारी की जरूरत खत्म हो जाएगी। ऐसे अनगिनत काम हैं जिनमें से इंसानों को हटाया जा रहा है। एयरपोर्ट और विमानों में कर्मचारियों को घटाया जा रहा है, ऐसा भी नहीं कि उनमें से हर काम के लिए मशीन खड़ी हो रही हैं, दरअसल जब कंपनियां घाटे में चल रही हैं, तो वे अपने काम में सुधार करके कहीं बिजली बचा रही हैं, कहीं कर्मचारी घटा रही हैं, और कहीं सामानों की बर्बादी कम कर रही हैं। बुरा वक्त अच्छा सबक लेकर आता है, दुनिया के सारे उद्योग-धंधे आज अपने खर्च को घटाने में लगे हुए हैं, और जाहिर है कि इसकी पहली मार कर्मचारियों पर ही पड़ती है।
वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम की रिपोर्ट कहती है कि 2025 तक दुनिया में काम कर रहे लोगों में 9 फीसदी से लेकर 15.4 फीसदी तक की कमी आएगी, और इसी दौरान 7.8 फीसदी से लेकर 13.5 फीसदी की बढ़ोत्तरी होगी। इन आंकड़ों को बहस के लिए सही मान लें, तो भी यह है कि बढ़ती आबादी का हिसाब न लगाने पर भी नौकरियां घटने वाली हैं। अब जैसे आज के इसी एक घंटे की एक दूसरी खबर है कि हांगकांग की कैथे पैसेफिक एयरलाइंस ने साढ़े 8 हजार पदों को खत्म करने की घोषणा की है। इससे कुछ तो खाली पड़े पद खत्म हो जाएंगे, लेकिन करीब 6 हजार कर्मचारियों की नौकरी चली जाएगी। खुद हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार ने और कई राज्य सरकारों ने लॉकडाऊन से उबरने के लिए, और कारोबारों को पटरी पर लाने के लिए मजदूर कानूनों में भयानक बदलाव किया है, जिनसे मजदूरों के हक छिन गए हैं, मालिकों के लिए उन्हें नौकरी से निकालना आसान हो गया है, उनसे मुफ्त में ओवरटाईम करवाने का हक मिल गया है, और इसके खिलाफ कही और लिखी जा रही बातों का न केन्द्र सरकार पर असर है, न अलग-अलग राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों पर। हुआ यह है कि जब केन्द्र और राज्य सरकारें पूंजीनिवेश पाने की कोशिश करती हैं, तो संभावित उद्योगपति उन्हें मजदूर कानून, जमीन कानून, पर्यावरण कानून की अड़चनों को गिनाना शुरू कर देते हैं कि किन वजहों से वे हिन्दुस्तान या इसके किसी प्रदेश में जाना नहीं चाहते। ऐसे में सरकारें खुलकर कानूनों को खत्म कर रही है, देश में हाल के कुछ बरसों में पर्यावरण कानून को बेअसर सा कर दिया गया है, मजदूर कानूनों का कोई मतलब नहीं रह गया है, और यह सिलसिला रूकते नहीं दिख रहा है।
आज घरेलू कामकाज से लेकर दफ्तर और दुकान-कारखानों के काम तक, मालिक यह सोचने लगे हैं कि कर्मचारी और मजदूर घटाकर कैसे मशीनों पर काम डाला जा सकता है जो कि न हड़ताल करतीं, न लेबर कोर्ट जातीं, और न कामचोरी करतीं। मशीनों को रात-दिन काम पर झोंका जा सकता है, और कई किस्म के कारखानों में किया भी जा रहा है। और तो और बिना ड्राइवर चलने वाली कार, बस, ट्रेन के प्रयोग बरसों से सडक़ और पटरियों पर हैं, और कुछ बरसों के भीतर कारें खुद अपने को चलाने लगेंगीं, वे ड्राइवरों की नौकरियां खा जाएंगी, और उनमें बैठे लोग पूरे सफर अपने कम्प्यूटर पर काम करते हुए कुछ और लोगों की नौकरियां घटाएंगे।
वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम का अंदाज चाहे जो हो, हमारा यह मानना है कि न सिर्फ मशीनों की वजह से, बल्कि दूसरी कई वजहों से भी नौकरियां घटती चलेंगी, खासकर इस लॉकडाऊन का तजुर्बा देखकर लोगों को खर्च घटाना होगा, और इसका पहला तरीका घटी हुई तनख्वाह रहेगी। आज हिन्दुस्तान में पिछले छह महीनों में बढ़ी हुई बेरोजगारी के आंकड़े देखें, और इन छह महीनों में बढ़ी हुई आबादी के साथ मिलाकर उसे देखें, तो कई करोड़ लोग बढ़ गए हैं, और कई करोड़ नौकरियां खत्म हो गई हैं।
आने वाला वक्त महज नौकरियों पर निर्भर दुनिया का वक्त नहीं रहेगा, लोगों को तरह-तरह से नए रोजगार सोचने पड़ेंगे, और हो सकता है कि नौकरी के बजाय स्वरोजगार का चलन बढ़े, और लोग अपनी मेहनत के अनुपात, अपने हुनर के अनुपात में कमाने लगें, जैसा कि आज ओला या उबेर नाम की टैक्सी कंपनियों के साथ जुडक़र कमा रहे हैं। हिन्दुस्तान में आज शहरी सडक़ों पर दसियों लाख लोग खाना पहुंचाने का काम कर रहे हैं, या कूरियर एजेंसियों के मार्फत आने वाले सामान को पहुंचाने का काम। ये काम 10-15 बरस पहले हिन्दुस्तान में नहीं थे, लेकिन अब हैं, और मोटरसाइकिल चलाने के मामूली से हुनर के साथ ऐसे लोग जितनी मेहनत करते हैं, उतना कमाते हैं।
इस पूरी तस्वीर से यह समझने की जरूरत है कि नौकरियों की किस्म बदल जाएंगी, नौकरियां स्वरोजगार में बदल जाएंगी, मशीनें लोगों को बेदखल करेंगी, लेकिन एक बात बनी रहेगी, कोई भी सेक्टर ऐसा नहीं रहेगा कि जिससे सौ फीसदी नौकरियां खत्म हो जाएं। नतीजा यह होगा कि जिस दुकान, दफ्तर-घर, कारखाने-कारोबार में जिन लोगों का काम सबसे अच्छा रहेगा, वे नौकरियों पर आखिरी तक बने रहेंगे। जो कम काबिल, कम मेहनती, कम हुनरमंद रहेंगे, वे सबसे पहले बेरोजगार होंगे। यह नौबत हर किसी को, हर कर्मचारी को अपने काम को बेहतर बनाने का एक मौका भी दे रही है। लोगों को नए हुनर सीखने चाहिए, या अपने मौजूदा हुनर में काम को बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से कम से कम आज के कामगारों की पीढ़ी की जिंदगी तो निकल सकती है, अगली पीढ़ी अपने रोजगार और अपने स्वरोजगार के बारे में खुद सोचेगी। लेकिन अपने जीते जी, अपनी कामकाजी उम्र के चलते हुए बेरोजगार होने के खतरे से बचने के लिए लोगों को अधिक मेहनत तो करनी पड़ेगी, जब छंटाई होती है, तो सूखी डालें जिनसे कुछ हासिल नहीं होता, उन्हें सबसे पहले काटा जाता है।
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इन दिनों कोई फिल्म रिलीज होने वाली रहती है, या कोई टीवी सीरियल या रियलिटी शो शुरू होने वाला रहता है तो उससे जुड़े ढेर सारे समाचार एक साथ सैलाब की तरह टीवी और प्रिंट मीडिया की वेबसाईटों पर छा जाते हैं। मीडिया का जो हिस्सा सिर्फ डिजिटल है, वह शायद और तेज रहता है, और एक फिल्म या एक शो के अलग-अलग कलाकारों के बारे में अलग-अलग फिल्म इतने सुनियोजित ढंग से सब छापा जाता है कि किसी आर्केस्ट्रा पार्टी में कोई गाना बजाया जा रहा हो। पूरे का पूरा मीडिया मनोरंजन को लेकर, खेल को लेकर, या राजनीति को लेकर ओलंपिक में होने वाली सिंक्रोनाइज्ड स्वीमिंग की तरह बर्ताव करने लगता है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण के मुख्यमंत्री रहते हुए जब चुनाव हुआ, तो महाराष्ट्र के बड़े-बड़े अखबारों में सरकार की स्तुति में एक सरीखे परिशिष्ट निकाले, जिनमें कामयाबी की एक जैसी कहानियां थीं, और मजे की बात यह है कि सभी का शीर्षक अशोक पर्व था। अब मानो दीवाली-पर्व हो, या होली-पर्व हो, वैसा ही अशोक-पर्व मनाने में बड़े-बड़े कामयाब-कारोबार वाले अखबार टूट पड़े थे। बाद में प्रेस कौंसिल ने उस पर एक बड़ी सी रिपोर्ट भी बनवाई थी, जो कि सबकी सहूलियत के लिए बखूबी दफन कर दी गई, उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
बहुत पहले जब मीडिया प्रिंट तक सीमित था, टीवी महज सरकारी दूरदर्शन था, और इंटरनेट था नहीं, तब गिने-चुने अखबारों को भी इस तरह से मैनेज नहीं किया जा सकता था जिस तरह आज मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से को खर्च करके मैनेज किया जा सकता है। वह एक वक्त था जब मीडिया में कोई भी जानकारी बिना हवाले के नहीं छपती थी कि वह कहां से मिली है, किसका कहना है, और अमूमन ऐसी जानकारी के साथ सवाल भी पूछे जाते थे। आज वह सब कुछ खत्म हो गया है। आज सरकार या नेता के स्तुति गान के बड़े-बड़े सप्लीमेंट बिना किसी हवाले के छपते हैं, खबरों की तरह छपते हैं, और उनका इश्तहारों की तरह सरकारी भुगतान भी हो जाता है। बीते दस-बीस बरसों में समाचार-विचार का इश्तहार से फासला खत्म कर दिया गया है, और अब इश्तहार समाचार के कपड़े पहनकर खड़े हो जाते हैं, मेहनताना भी पाते हैं।
लेकिन इस मुद्दे पर लिखने से क्या होगा? क्या यह तस्वीर कभी बदल सकती है? अब तो हाल के कुछ बरसों में देखने में यह आ रहा है कि कारोबार और सरकार का साथ देने के लिए मीडिया जिस अनैतिक तरीके को बढ़ाते चल रहा है, वह अनैतिक तरीका अब चरित्र-हत्या के लिए, साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए, जातियों के संघर्ष को बढ़ाने के लिए, किसी धर्म को बदनाम करने के लिए, और आज की कारोबारी जुबान में कहें तो परसेप्शन मैनेजमेंट के लिए बढ़ते चल रहा है। अब सरकारों या राजनीतिक दलों से परे, बड़े-बड़े कारोबार मीडिया के इतने हिस्से को अपनी गोद में या अपनी पैरों पर रखते हैं कि उनसे मनचाहा जनधारणा-प्रबंधन हो जाए। अभी लगातार बलात्कार और लगातार साम्प्रदायिक घटनाओं से जब उत्तरप्रदेश की बदनामी सिर चढक़र बोलने लगी, तो यूपी सरकार ने एक नामी-गिरामी जनसंपर्क एजेंसी को रखा है ताकि देश-विदेश में होती सरकार की बदनामी कम हो, उसे यह जिम्मा दिया गया है।
एक वक्त जिस तरह इश्तहार की एक ही डिजाइन हर अखबार में एक साथ दिखती थी, और अब अखबारों के अलावा टीवी चैनलों पर भी वीडियो-इश्तहार एक साथ दिखते हैं, कुछ उसी तरह का मामला खबरों को लेकर, कुछ चुनिंदा मुद्दों और विषयों पर एक साथ लेख को लेकर, कदमताल करते हुए इंटरव्यू को लेकर हो गया है। अब मीडिया का सत्ता या कारोबार के साथ ऐसा कदमताल इस हद तक बढ़ गया है कि वह जलते-सुलगते जमीनी मुद्दों की तरफ से ध्यान को भटकाने के लिए उसे किसी एक्ट्रेस के बदन पर ले जाता है, या किसी की की हुई बकवास पर बाकी लोगों की जवाबी बकवास को दिखाने में जुट जाता है। हम इस मुद्दे पर पिछले कुछ महीनों में कई बार लिख चुके हैं, लेकिन पांच-दस दिन गुजरते हुए इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया की सोची-समझी कदमताल फिर इतनी दिखने लगती है कि अपनी सलाह दोहराने को जी करता है कि अखबारों को मीडिया नाम के इस दायरे से बाहर निकलना चाहिए, और प्रेस नाम का अपना पुराना और अब तक थोड़ा सा इज्जतदार बना हुआ लेबल फिर से लगाना चाहिए।
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सार्वजनिक जीवन में जो लोग लंबे समय से हैं, और खासकर राजनीति जैसे बेरहम पेशे में जिन्होंने जिंदगी गुजारी है, वे किसी तरह की मासूमियत का दावा नहीं कर सकते। वे लोग कहे हुए शब्दों के खतरे समझते हैं, जनता की भावनाओं को समझते हैं, और अपने देश-प्रदेश की संस्कृति को भी अच्छी तरह जानते हैं। ऐसे में जब मध्यप्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्री, और भावी मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले हुए, कमलनाथ जब एक दलित भाजपा महिला नेता को आइटम कहते हैं, तो वे किसी रियायत के हकदार नहीं हैं। ऐसे ओछे बोल के लिए जो भी सार्वजनिक सजा हो सकती है, उन्हें होनी चाहिए, और अगर यह दलित महिला ऐसी ओछी बात को लेकर कमलनाथ के खिलाफ अदालत भी जाती है तो भी वह नाजायज नहीं होगा। ऐसा नहीं कि इस तरह की अवांछित बातें कहने वाले सिर्फ कांग्रेस पार्टी में हैं, दूसरी पार्टियों में खासकर, भाजपा में तो लोग बलात्कारियों से प्रेम उजागर करने में एक-दूसरे से मुकाबला करते दिखते हैं, जातिवाद की हिंसक बातें करने में, कानून के खिलाफ बोलने में भाजपा के सांसद और विधायक इस अंदाज में मुकाबला करते हैं कि कहीं वे दूसरे से पीछे न रह जाएं। लेकिन कांग्रेस पार्टी चूंकि अपने आपको सबसे पुरानी पार्टी, नेहरू और गांधी की पार्टी, दो-दो महिला कांग्रेस अध्यक्ष वाली पार्टी करार देती है, इसलिए सार्वजनिक जीवन में उससे उम्मीदें भी कुछ अधिक की जाती हैं। दूसरी कई पार्टियों में धर्मांधता की बातें, साम्प्रदायिकता की बातें, हिंसा, और संविधान के लिए हिकारत की बातें होती ही रहती हैं, इसलिए उन्हें लोग गौर से नहीं देखते, लेकिन कांग्रेस के कई नेताओं में बेमौके अटपटी या ओछी बातें करके माहौल अपनी पार्टी के खिलाफ कर देने की अपार क्षमता है, और बेहद हसरत भी है।
ऐसे हसरती लोग देश की प्रचलित भाषा और राजनीति में बातों को तोडऩे-मरोडऩे के अंतहीन खतरों को देखते हुए भी बेमौके अटपटी बात करते हैं, और फजीहत खड़ी करते हैं। बहुत पहले एक कहानी थी। एक आदमी के तीन बेटे थे, और तीनों ही तोतले थे, इस वजह से उनकी शादी नहीं हो पा रही थी। ऐसे में जब तीन कन्याओं का एक पिता रिश्ते की बात करने आता है तो लडक़ों का पिता उन्हें खूब धमकाकर तैयार करता है कि वे विनम्र बने रहेंगे, और मुंह भी नहीं खोलेंगे, जो बात करनी होगी वह पिता करेगा। इसके बाद की कहानी सभी ने सुनी हुई है और खाने की थाली के आसपास मंडराते चूहे को देखकर एक-एक करके तीनों बेटे अपना तोतलापन उजागर करते हैं, और उनका पिता अपना सिर पीट लेता है। कांग्रेस पार्टी में यह काम पिछले बहुत सारे बरसों से दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर कुछ इसी किस्म का बड़बोलापन दिखाते हैं, और अपनी पार्टी को एक निहायत गैरजरूरी मुसीबत में डालते हैं। आज जब बिहार में चुनाव होना है, और देश में राजनीतिक ताकतें घरेलू मुद्दों के बजाय सरहदी, और सरहद पार के मुद्दों की तलाश में हैं, तब शशि थरूर पाकिस्तान जाकर वहां के किसी कार्यक्रम में भारत के बारे में कुछ कहकर भाजपा को हमला करने का मौका देते हैं। अब सवाल यह है कि जो संयुक्त राष्ट्र संघ में बरसों काम कर चुका है, जो भारत में यूपीए सरकार में विदेश राज्यमंत्री रह चुका है, उसे आज भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे तनाव का अंदाज नहीं है, दोनों तरफ एक-दूसरे के खिलाफ भडक़ाई जाने वाली भावनाओं का अंदाज नहीं है? जब भाजपा बिहार में कांग्रेस के एक उम्मीदवार को लेकर उसका जिन्ना-कनेक्शन स्थापित करने की कोशिश कर रही है, तब शशि थरूर को क्या पड़ी थी कि वे पाकिस्तान जाकर किसी प्रोग्राम में शिरकत करते, और वहां पर भारत के बारे में ऐसा कुछ कहते जिसका बेजा राजनीतिक इस्तेमाल होने का खतरा हमेशा ही रहता है। शशि थरूर अपनी निजी जिंदगी के हादसों और कहानियों को लेकर वैसे भी पार्टी के लिए शर्मिंदगी की वजह बनते रहे हैं, और ऐसे में अपनी जुबान से इस शर्मिंदगी की आग में ईंधन झोंकना किसी किस्म की मासूमियत नहीं हो सकती।
दिग्विजय सिंह कांग्रेस के भीतर एक किनारे पर किए जा चुके नेता हैं, और आज मध्यप्रदेश के मिनी आम चुनाव में भी वे अधिक दिख नहीं रहे हैं। हो सकता है कि पार्टी में या मध्यप्रदेश के चुनाव-प्रभारी कमलनाथ ने सोच-समझकर उन्हें किनारे रखा हो ताकि उनके किसी बयान से हिन्दू वोटों का बहुतायत भडक़ न जाए। मुस्लिम समाज के प्रति हमदर्दी रखना न सिर्फ कांग्रेस बल्कि कई राजनीतिक दलों की घोषित नीति है। लेकिन इस हमदर्दी को इस अंदाज में लोगों के बीच रखना कि उससे गैरमुस्लिमों के बीच एक बेचैनी खड़ी हो जाए, नाराजगी खड़ी हो जाए, यह कम से कम चुनावी लोकतंत्र में जरूरी नहीं है, और जायज नहीं है। और तो और मनमोहन सिंह जैसे देश के एक सबसे संतुलित और कम शब्दों में बोलने वाले नेता ने जब यह कहा कि देश के साधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है, तो वे शब्द भी निहायत गैरजरूरी थे। उन शब्दों से जितना नुकसान कांग्रेस का हुआ, उतना ही नुकसान मुस्लिमों की संभावना का भी हुआ कि वे एक पल में बाकी देश की आंखों की किरकिरी बन गए।
मणिशंकर अय्यर अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले बयान देने के मामले में उतने ही माहिर हैं जितने कि उनके गृहराज्य तमिलनाडू से आने वाले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी हैं। मणिशंकर तो अभी कुछ अरसा पहले अपनी अनर्गल बातों के लिए कांग्रेस से निलंबित भी किए जा चुके हैं, और सुब्रमण्यम स्वामी को निलंबित करना भाजपा के लिए उतना आसान काम नहीं है क्योंकि देश के बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लडऩे का जो ठोस काम स्वामी ने किया है, उसे अनदेखा करके उन्हें छेडऩे का हौसला शायद भाजपा में नहीं है।
उत्तरप्रदेश में अनगिनत बलात्कारों और दूसरे वैसे ही जुर्मों की वकालत करते हुए भाजपा के सांसद-विधायक जिस तरह के वीडियो पर कैद हैं, वह भयानक है। कांग्रेस उनके मुकाबले प्रायमरी स्कूल में ही हैं। लेकिन भाजपा के लोग सोशल मीडिया पर अपनी संगठित फौज के साथ पल भर में सक्रिय हो जाते हैं, और कांग्रेस नेताओं के कहे एक भी गलत शब्द पर बवाल खड़ा कर देते हैं। कांग्रेस पार्टी ने ऐसी कोई क्षमता विकसित नहीं की है, और भाजपा के नेता अपने सबसे हिंसक बयानों के साथ भी बच जाते हैं।
फिलहाल वही पार्टी अपने नेताओं की अवांछित बातों की फिक्र कर सकती है जिसे इनसे नुकसान पहुंचता है। भाजपा के बारे में सबका तजुर्बा है कि ऐसे हिंसक बयान सोच-समझकर दिए जाते हैं, और उनसे फायदा उठाया जाता है। कांग्रेस पार्टी अपनी सोचे, फिलहाल तो मध्यप्रदेश में एक दलित महिला नेता के मानहानि के मुकदमे से कमलनाथ कैसे बचेंगे, उनके वकीलों को इसकी फिक्र करनी चाहिए।
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कुछ महीने पहले जब प्रदेश में एक के बाद एक हाथी मरने लगे तो प्रदेश के वन्य जीवन प्रमुख, राज्य के सबसे सीनियर आधा दर्जन आईएफएस में से एक अतुल शुक्ला की बलि चढ़ाई गई। वे इस कुर्सी पर रहते हुए जंगली जानवरों के मरने पर पूरे प्रदेश में दौड़-भाग कर रहे थे, ईमानदारी से मेहनत कर रहे थे, लेकिन हाथियों ने एक के बाद एक मरकर, और इंसानों ने उन्हें मारकर अतुल शुक्ला को कुर्सी से बेदखल कर ही दिया। अब पिछले चार दिनों में तीन हाथियों की मौत हो गई है जिनमें एक हथिनी है, और दो छोटे बच्चे हैं। अब लगातार हो रही मौतों की वजह से क्या फिर वन्य जीवन प्रमुख को हटाया जाएगा, या इस बार बारी और जिम्मेदारी उसके ऊपर किसी तक जाएगी?
जिम्मेदारी तय करते हुए सरकारें अपनी इमेज बचाने के लिए इस तरह के कई काम करती हैं। प्रदेश के वन्य जीवन प्रमुख को हटाकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और वनमंत्री मो. अकबर ने जिम्मेदारी पीसीसीएफ वाइल्ड लाईफ अतुल शुक्ला पर तय कर दी थी। अब किस पर तय होगी? इस कुर्सी पर बैठे नरसिंह राव पर, या मंत्री पर?
लोगों को याद होगा कि जब के.एम. सेठ राज्यपाल थे, और आर.पी. बगई मुख्य सचिव थे, तब पीएससी में गड़बड़ी की खबरें आईं, और राजभवन के सामने प्रदर्शन हुआ। सडक़ पर लग रहे नारे भीतर तक पहुंचे। ये दोनों लोग रिटायर्ड फौजी थे, और रोज शाम की राजभवन की महफिल के संगवारी भी थे। शाम के सुरूर में तय किया गया कि पीएससी चेयरमेन अशोक दरबारी को हटाकर यह दिखा दिया जाए कि पीएससी में गड़बड़ी के जिम्मेदार दरबारी थे। जबकि हकीकत यह थी कि उनके बहुत मातहत लोगों ने अपने नीचे के स्तर पर गलत काम किया था जिसकी कोई जिम्मेदारी दरबारी की नहीं थी। अब नैतिक आधार पर अगर संस्था के प्रमुख को जिम्मेदार ठहराना है तो हर बात के लिए मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहराना बेहतर होगा ताकि हर विधायक को एक बार मुख्यमंत्री बनने मिले, और हर सांसद को एक बार प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल जाए। तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह का वह पहला कार्यकाल था, और इन दो फौजी लोगों के दबाव में आकर उन्होंने दरबारी को हटा दिया। उस वक्त भी इस अखबार में जमकर लिखा गया था कि सरकार यह गलत काम कर रही है, और उसे मुंह की खानी पड़ेगी। दरबारी सुप्रीम कोर्ट तक गए, और सुप्रीम कोर्ट से जीतकर आए। लेकिन उस फैसले के पीछे के न सेठ यहां हैं, न बगई, और रमन सिंह भी, बाकी अच्छे-बुरे मुद्दों से इतने घिरे रहे कि छत्तीसगढ़ के बाहर बसे अशोक दरबारी उनके लिए स्थाई अपमान नहीं खड़ा कर पाए।
जब किसी की जिम्मेदारी कहीं तय करनी होती है, तो हर बात की एक सीमा होनी चाहिए। वरना एक थानेदार की तैनाती भी वैसे तो सरकार राज्यपाल के नाम से करती है, तो क्या थानेदार बलात्कार में पकड़ा जाए तो जिम्मेदारी राज्यपाल तक जाएगी? मैदानी इलाकों में जब अवैध बिजली चारों तरफ फैलाकर रखी जाती है, ताकि जंगली जानवर फसल खराब न कर सकें, तो राजधानी में बिठाए गए प्रदेश स्तर के अफसर को क्या उसके लिए जिम्मेदार ठहराकर सजा दी जा सकती है? जब जिम्मेदारी तय करने की एक जायज सीमा तय नहीं होती, तो ऐसे ही नाजायज काम होते हैं। अब कल एक दिन में ही दो अलग-अलग जगह मारे गए हाथी-शिशुओं के लिए क्या फिर से वन्य जीवन प्रमुख को बेदखल किया जाएगा? सरकार में बैठे लोगों को गलत मिसालें कायम करने से बचना चाहिए। पूरे प्रदेश में अगर बिजली का करंट फैलाकर जंगली जानवरों को खेतों से दूर रखा जा रहा है, तो यह पहली जिम्मेदारी तो बिजली विभाग की है, दूसरी जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासनिक अधिकारियों की है, और वन विभाग की जिम्मेदारी तो इतने हिस्से में कहीं आती नहीं है।
जब नाजायज तरीके से किसी बड़े सिर की बलि देने की नीयत से ऐसी कोई कार्रवाई की जाती है, तो उससे ईमानदार और मेहनती, जिम्मेदार और काबिल अफसरों का मनोबल टूटता है, गलत मिसालें कायम होती हैं, और असली जिम्मेदार बच निकलते हैं। चूंकि मरने वाले जंगली जानवर थे, इसलिए बाकी विभागों को जिम्मेदारी से परे करके केवल जंगली जानवरों के लिए तैनात अफसरों को बलि चढ़ाना एक गलत सिलसिला था। आज तो सारे अफसर बदल दिए गए हैं, और सरकार ने जो इलाज किया था, उसके बाद भी हाथियों की लगातार मौतों की यह बीमारी बनी हुई है।
फैसला लेने वाले नेताओं के आसपास ऐसे अफसर भी रहने चाहिए जो कि नेताओं की गलत मर्जी या फैसले की चूक के खिलाफ मुंह खोल सकें। लेकिन आज दिक्कत यह है कि बड़े-बड़े अफसर सत्तारूढ़ नेताओं के पांव छूने को ऐसे लपकते हैं कि वे नेता की गलती पर उसका हाथ थामकर उसे भला क्या रोक पाएंगे। समझदार नेता वे होते हैं जो कि पांव छूने वालों के बजाय हाथ पकडऩे वालों को करीब रखते हैं। यह एक अलग बात है कि सत्ता या राजनीति में नेताओं के पैरों को हर कुछ देर में कोई न कोई उंगलियां छूते रहना चाहिए, वरना पैर बेचैन होने लगते हैं। ऐसे बेचैन पैर ही गलत फैसले लेते हैं।
फ्रांस की राजधानी पेरिस में एक हमलावर ने एक स्कूल शिक्षक का सिर काट दिया। वह तो कत्ल करने में कामयाब हो गया, लेकिन पुलिस की गोली से इस हमलावर की मौत हो गई। वहां से खबर आई है कि इस शिक्षक ने अपनी क्लास अभिव्यक्ति की आजादी समझाते हुए उन कार्टूनों की मिसाल दी थी, और कार्टून दिखाए थे जो मोहम्मद पैगम्बर पर बनाए गए थे, और जिन्हें प्रकाशित करने वाली एक पत्रिका पर हमले में दर्जन भर से अधिक लोग मारे भी गए थे। शार्ली एब्दो नाम की इस पत्रिका ने कुछ बरस पहले उन्हें छापा था और इसे लेकर उस पर इस्लामी आतंकियों ने बड़़ा हमला किया था जिसमें पत्रिका के कई लोग मारे गए थे। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अभी शिक्षक के कत्ल को इस्लामिक आतंकी हमला बताया है और इसे कायराना हरकत कहा है। राष्ट्रपति उस जगह पर भी पहुंचे जहां इस शिक्षक का सिर काटा गया। उसे रोकते हुए ही पुलिस ने हमलावर को गोली से मार दिया। जब इस शिक्षक ने कक्षा में अभिव्यक्ति की आजादी समझाते हुए मिसाल के तौर पर ये कार्टून दिखाए थे तो कुछ मुस्लिम मां-बाप ने स्कूल से इसकी शिकायत की थी। और अब यह हमला हुआ।
शार्ली एब्दो पर हुए हमले के पीछे के 14 लोगों के खिलाफ अभी मुकदमा शुरू हुआ है और फ्रांस में एक बार फिर ये कार्टून खबरों में हैं। इस पत्रिका ने अभी फिर से इन्हें प्रकाशित किया है जिन्हें लेकर फ्रांस के बाहर भी कुछ जगहों पर आतंकी हमले हुए थे। अब यह लोकतंत्र और धार्मिक संवेदनशीलता के बीच का एक जटिल अंतरसंबंध है जो जगह-जगह टकराहट की वजह बनता है। न सिर्फ फ्रांस में बल्कि दुनिया के कई देशों में धार्मिक आतंकी अपने धर्म को देश के कानून और लोकतंत्र से ऊपर मानते हैं। हिन्दुस्तान में कई लोगों को यह मिसाल खटकेगी, लेकिन हकीकत यह है कि 1992 में जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद गिराने का अभियान छेड़ा था, और जिन लोगों ने उसे गिराया था, उन तमाम लोगों की आस्था अपने धर्म पर देश के संविधान के मुकाबले अधिक थी। उन्होंने संविधान और कानून का राज इन दोनों को खारिज करते हुए बाबरी मस्जिद को गिराया था, और उसके पहले से मंदिर वहीं बनाएंगे का नारा चले आ रहा था, जबकि मामला अदालत में था। लोगों को उस वक्त के बड़े-बड़े नेताओं के बयान याद होंगे जो कि धर्म को संविधान से ऊपर करार देते थे। और इन सब बातों ने देश के माहौल को ऐसा हमलावर बना दिया था कि लाखों लोग मस्जिद गिराने के लिए एकजुट हो गए थे।
अलग-अलग देशों में अलग-अलग धर्मों की संवेदनशीलता भी अलग-अलग रहती है, और वहां सरकारों की सोच भी कानून के मुताबिक, या अराजकता को बढ़ावा देने वाली रहती है। लेकिन एक बात हर जगह एक सरीखी रहती है कि धार्मिक आतंक सबसे पहले अपने धर्म का नाम ही खराब करता है, और लोकतंत्र को कमजोर करता है। आज हिन्दुस्तान में धर्मान्धता और धार्मिक कट्टरता के खतरे उसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं जिस रास्ते पर आगे जाकर फ्रांस सहित दुनिया के कई देशों में ऐसे हमले होते हैं।
फ्रांस योरप का एक विकसित और संपन्न देश है, वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकतों में से एक भी है। वहां पर मुस्लिम समाज का लंबा इतिहास रहा है, और फ्रांस की राजधानी पेरिस के कई इलाके तो सिर्फ बुर्कों और दाढ़ी-टोपी से घिरे हुए दिखते हैं। लंबे समय से फ्रांस के समाज में इस धर्म के मानने वाले लोग बसे हुए हैं, और वे दूसरे धर्मों के लोगों के साथ रहना सीख चुके थे। ऐसे में वहां ताजा धर्मान्ध हमलों ने बाकी मुस्लिम समाज के लिए भी एक बड़ी दिक्कत खड़ी कर दी है। लेकिन जो देखने लायक बात है वह यह है कि फ्रांस की सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ खड़ी हुई है, और वह देश के इस बुनियादी हक के ऊपर धर्मान्धता को हावी नहीं होने दे रही है। न सिर्फ फ्रांसीसी सरकार, बल्कि वहां की संसद ने भी इस हमले के खिलाफ प्रस्ताव पास किया है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे ऊपर माना है।
किसी लोकतंत्र की परिपक्वता और उसका विकास इमारतों से और आसमान छूते बुतों से साबित नहीं होता। लोकतांत्रिक विकास देश के बुनियादी सिद्धांतों के सम्मान के लिए डटकर खड़े रहने से होता है। हम अभी किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, लेकिन हम लोकतांत्रिक सरकारों के रूख की बात कर रहे हैं, देशों के लोकतांत्रिक मिजाज की बात कर रहे हैं। फ्रांस उन देशों में से है जहां किसी भी धर्म को लेकर व्यंग्य किया जा सकता है, किसी भी नेता को लेकर लिखा जा सकता है, और वहां की आम जनता में ऐसे तमाम लिखने और गढऩे को लेकर बहुत बर्दाश्त भी है। यह बात पश्चिम के बहुत से देशों पर लागू होती है। अमरीका की बात करें तो वहां सार्वजनिक रूप से किसी धर्मग्रंथ को जलाने के खिलाफ भी कोई कानून नहीं है। लेकिन अब दुनिया में जिन धर्मों के लोग आतंक के रास्ते दूसरे धर्मों को खत्म करना चाहते हैं, जिन्होंने कई देशों में गृहयुद्ध की नौबत खड़ी कर दी है, उन धार्मिक आतंकी संगठनों के रास्ते पर कई दूसरे गैरआतंकी संगठन भी चल निकले हैं, और इन दोनों के बीच का आतंक का फासला खत्म सा हो गया है।
हिन्दुस्तान ने अपने अड़ोस-पड़ोस में पाकिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, इन तमाम जगहों पर धर्म के आतंक और धर्म के हमलावर तेवरों का नुकसान देखा हुआ है। दुनिया के बाकी देशों में जहां-जहां किसी धर्म के लोगों ने आतंकी हमले किए हैं, वहां-वहां उस धर्म के बसे हुए आम लोगों को नुकसान हुआ है, आतंकी या तो आत्मघाती हमले में खत्म हो जाते हैं, या कहीं छुप जाते हैं, या फरार हो जाते हैं। वे हमलों के बाद अपने धर्म के लोगों का नुकसान करके ही जाते हैं, कोई फायदा करके नहीं। इसलिए दुनिया के जिस-जिस देश में जिस-जिस धर्म के लोग इस तरह की हरकतें कर रहे हैं, वे कुछ लोगों को जरूर मार पा रहे हैं, लेकिन वे सबसे बड़ा नुकसान अपने धर्म के लोगों का कर रहे हैं। फ्रांस में आज अगर सरकार अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता के साथ खड़ी हुई है, और एकजुट होकर खड़ी है, अपने दर्जन भर लोगों को खोने वाली पत्रिका आज भी अपनी सोच के साथ खड़ी है, और दुबारा कार्टून छाप रही है, वहां की अदालतें इस आजादी के साथ हैं, तो हम दूर बैठे हुए वहां के संविधान की इन बुनियादी बातों का विश्लेषण करना नहीं चाहते। योरप के लोकतंत्रों में आजादी की बुनियाद सैकड़ों बरस पहले की है, और धार्मिक आतंक उनके मुकाबले इन देशों में कुछ नया है।
फ्रांस की इस घटना पर हिन्दुस्तान में लिखने का मकसद सिर्फ यही है कि जो देश धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ावा देते हैं, धर्मोन्माद को देश की जमीनी दिक्कतों को ढांकने का एक पर्दा बना लेते हैं, उन देशों में इस किस्म का आतंक खड़ा हो सकता है। किसी भी देश की सरकार को यह समझना चाहिए कि सरकार के तख्ता पलट के लिए ही किसी फौज की जरूरत पड़ती है, आतंकी हमले के लिए तो किसी भी धर्म के मुट्ठी भर लोग काफी होते हैं, और ऐसे हमलों को हमेशा रोका नहीं जा सकता, फिर चाहे वे दुनिया के सबसे विकसित देश ही क्यों न हों।
सरकारों से परे भी समाज को यह सोचना चाहिए कि वे अपने लोगों के बीच लोकतांत्रिक परिपक्वता कैसे ला सकते हैं, कैसे दूसरे धर्मों का सम्मान जरूरी है, और कैसे उसके साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जोडक़र देखा जाना चाहिए। उन देशों को खासकर फिक्र करनी चाहिए जहां आज धार्मिक तनाव इस हद तक हिंसक नहीं हुआ है। भारत में धार्मिक तनाव कई वजहों से जिस तरह बढ़ा हुआ है, उससे बढ़ रहे खतरों को अनदेखा करना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि धर्मान्धता ने पड़ोस के कई देशों को जिस तरह तबाह किया है, वह एकदम ताजा इतिहास है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अभी एक अनुमान बताया है कि जिस रफ्तार से बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति जीडीपी बढ़ रही है, और भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी की जो बदहाली चल रही है, जल्द ही बांग्लादेश भारत से बेहतर अर्थव्यवस्था बन सकता है, इस एक पैमाने पर वह आगे निकल सकता है। इस बात को लेकर कई अर्थशास्त्री सहमत हैं कि 1971 में पैदा हुए बांग्लादेश ने भारी दिक्कतें, फौजी हुकूमत, राजनीतिक अस्थिरता, धार्मिक कट्टरता, और प्राकृतिक विपदाओं को झेलते हुए भी धीमी लेकिन निरंतर गति से जैसी तरक्की की है, वह अहमियत रखती है, और बांग्लादेश दुनिया के कारोबारियों में एक भरोसेमंद जगह बन चुका है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान के पिछले छह बरसों को लेकर राहुल गांधी ने आईएमएफ के ताजा अनुमान का हवाला देते हुए लिखा है कि भाजपा सरकार के पिछले छह बरस के नफरत भरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सबसे ठोस उपलब्धि यही रही है कि बांग्लादेश भी भारत को पीछे छोडऩे वाला है।
किसी तर्क के रूप में कोई मिसाल देना खतरनाक होता है क्योंकि लोग तुरंत ही इस पर उतर आते हैं कि भारत और बांग्लादेश में कौन-कौन से फर्क हैं जिनकी वजह से यह मिसाल ही नाजायज है। किसी तर्क को पटरी से उतारना हो तो ही कोई मिसाल देनी चाहिए। लेकिन अब एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ने अगर एक पैमाने पर भारत, बांग्लादेश, और नेपाल सबके आंकड़े दिए हैं तो लोग तुलना कैसे न करें? मिसाल कैसे न दें? हिन्दुस्तान में आज वह पीढ़ी अभी रिटायर हो रही है जिसने अपने कॉलेज के दिनों में बांग्लादेश से आए हुए शरणार्थियों के गुजारे के लिए इंदिरा सरकार द्वारा लागू किए गए शरणार्थी टैक्स का पैसा हर सिनेमा टिकट पर दिया था। बांग्लादेश 1947 के पहले तक अविभाजित भारत का ही एक हिस्सा था, जो विभाजन में पहले पाकिस्तान में जाकर पूर्वी पाकिस्तान बना, और फिर इंदिरा गांधी के हौसले से उस हिस्से को पाकिस्तान से तोडक़र बांग्लादेश बनाया गया। अब भारत के ही बनाए हुए ऐसे बांग्लादेश में महज इंसानों की मेहनत से अगर अर्थव्यवस्था इस तरह बेहतर होती चली जा रही है तो फिर तुलना के लिए इस पड़ोसी से बेहतर और कौन सा देश हो सकता है? फिर बांग्लादेश ने यह मिसाल भी सामने रखी है कि अपनी महिलाओं को हुनर सिखाकर, कामकाज में लगाकर किस तरह पूरी दुनिया के बड़े-बड़े फैशन ब्रांड के कपड़े बांग्लादेश में सिले जा सकते हैं। अपनी मानव शक्ति का ऐसा इस्तेमाल करके इस देश ने अगर एक मिसाल सामने रखी है, तो हिन्दुस्तान में झंडा-डंडा थमाकर फर्जी मुद्दों पर झोंक दी गई कई पीढिय़ों के बारे में सोचना चाहिए कि उनसे देश की एकता के टुकड़े-टुकड़े होने के अलावा और क्या हासिल हो रहा है?
बात राहुल गांधी ने कही है, या कि एक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठन से आई है, या कि पड़ोस के एक ऐसे गरीब और छोटे देश की है जिसके साथ ‘गर्व से कहो हम भारतीय’ लोग अपनी तुलना नहीं चाहते हैं। इसलिए आज यह हिन्दुस्तान कश्मीर से 370 के खात्मे, राम मंदिर बनने, बाबरी मस्जिद केस में सबके रिहा हो जाने की खुशी में ऐसा डूबा है कि पड़ोस का गरीब मेहनत करते-करते कब उससे आगे निकल गया, यह उसे न पता लगा, और न ही वह इस हकीकत को देखना ही चाहता है। दरअसल किसी भी देश-प्रदेश की सरकार के लिए आर्थिक आंकड़े सबसे बड़ी चुनौती होते हैं, और सबसे बड़ी कसौटी भी होते हैं। ये आंकड़े अगर ईमानदारी से जुटाए जाते हैं, तो ये धोखा देने के काम नहीं आते, और सवाल बनकर मुंह चिढ़ाते हैं। ऐसे में आज भारत में किसी भी किस्म के आर्थिक सर्वे, आर्थिक विश्लेषण, और उनसे जुड़े सवालों से मुंह चुराया जा रहा है। असली आंकड़े झंडों-डंडों से नहीं डरते, उन्हें भीड़ पीट-पीटकर मार भी नहीं सकती, वे न थाली-ताली से खुश होते हैं, और न ही दीयों की लौ से डरकर भागते हैं। अगर कोई चीज सबसे स्थाई होती है, तो वह असल और सच्चे आंकड़े होते हैं। ऐसे में बांग्लादेश की कामयाबी को चुनौती की तरह लेने के बजाय, उससे सबक लेने के बजाय, अपनी नाकामयाबी की लकीर छोटी करने के बजाय बांग्लादेश को एक मिसाल के रूप में भी खारिज कर देना अधिक आसान समझा जा रहा है। हकीकत से इस हद तक मुंह चुराकर दुनिया में कोई भी तरक्की नहीं कर सकते। आज बांग्लादेश में एक-एक महिला लाखों की सिलाई मशीनों पर दुनिया के महंगे ब्रांड के कपड़े सिलकर अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक साख बना रही है, और हिन्दुस्तान ऐसी संभावनाओं को अनदेखा करते हुए अपने लोगों को नारों और कीर्तन में झोंक रहा है। यह सिलसिला अंतरराष्ट्रीय आंकड़ों में जारी नहीं रह सकता, क्योंकि उनके पास इस देश में दबाए गए, छुपाए गए आंकड़ों से परे भी जानकारियां हैं।
हिन्दुस्तान आज जिस आर्थिक बदहाली से गुजर रहा है, उससे उबरने का रास्ता मुंह छिपाने से होकर नहीं गुजरता। उससे उबरना तभी हो सकता है जब हकीकत का सामना किया जाए, समस्या को माना जाए, और उन बातों के बारे में भी सोचा जाए जो तरक्की के रास्तों पर रोड़ा हैं। एक देश जो अपने नामौजूद इतिहास के झूठे गौरव के नशे में मदमस्त रखा जा रहा है, वैसे देश का पिछडऩा तय है। और लोग हैं कि भूखे पेट उन्हें ऐसे झूठे गौरव का नशा और अधिक चढ़ रहा है।
मुम्बई में टीवी चैनलों द्वारा अपना टीआरपी (दर्शक संख्या) बढ़ाने को लेकर जो फर्जीवाड़ा किया गया है उस पर जुर्म दर्ज करके मुम्बई पुलिस कार्रवाई कर रही है, और दो छोटे चैनलों के लोगों को गिरफ्तार किया गया है, और देश के सबसे विवादास्पद और चर्चित समाचार चैनल रिपब्लिक टीवी के लोगों को नोटिस देकर बुलाया गया है। पुलिस का दावा है कि रिपब्लिक टीवी ने लोगों को पैसे देकर अपना चैनल देखने का काम दिया, और यह काम उन घरों में दिया गया जहां पर दर्शकों की संख्या दर्ज करने के लिए अलग से बॉक्स लगे रहते हैं। कुल मिलाकर यह मामला अपनी दर्शक संख्या अधिक दिखाने के लिए की गई बेईमानी का है। जब इस जांच के खिलाफ रिपब्लिक टीवी सुप्रीम कोर्ट गया तो वहां अदालत ने उसकी याचिका सुनने से इंकार किया, और कहा कि किसी भी आम व्यक्ति की तरह इस चैनल को भी पहले हाईकोर्ट जाना चाहिए। अदालत ने पूछा कि पहले हाईकोर्ट क्यों नहीं गए? हाईकोर्ट के विचार किए बिना सीधे सुप्रीम कोर्ट अगर सुनवाई करेगा तो लोगों में यह संदेश जाएगा कि हमें (सुप्रीम कोर्ट) उच्च न्यायालयों पर विश्वास नहीं है।
लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले रिपब्लिक टीवी के मुखिया अर्नब गोस्वामी का एक मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था, तो अदालत ने जिस रफ्तार से अर्नब के केस की सुनवाई की थी, और उन्हें राहत दी थी, उसे लेकर देश भर में लोगों के बीच कई सवाल उठे थे कि लॉकडाऊन में घर लौटते मजदूरों के मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास समय नहीं है, पूरे कश्मीर में इंटरनेट बंद रहने के मामले की सुनवाई के लिए समय नहीं है, एक अकेले अर्नब गोस्वामी के लिए समय है?
हम कानूनी बारीकियों में गए बिना सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि लोकतंत्र में न्यायपालिका को न सिर्फ ईमानदार और निष्पक्ष रहना चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए। जब व्यापक जनहित के मुद्दे जिनसे करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं, वे धरे रह जाते हैं, और मशहूर या रईस लोग सुप्रीम कोर्ट में आनन-फानन में सुनवाई का मौका पा लेते हैं, जज ऐसे लोगों के मामले रात-बिरात घर में भी सुन लेते हैं, तो फिर लोगों की आस्था अदालतों से हिलना स्वाभाविक है। वैसे भी हिन्दुस्तान में न्याय की पूरी प्रक्रिया ताकतवर तबके, संपन्न तबके, और मुजरिमों के पक्ष में इतनी अधिक झुकी हुई दिखती है कि लोगों का भरोसा अदालती इंसाफ से घटते चले गया है। यह सिलसिला अगर थमा नहीं, तो न्यायपालिका पर रहा-सहा भरोसा भी खत्म हो जाएगा।
भारत में किसी जुर्म या बेइंसाफी के खिलाफ इंसाफ पाने की कोशिश थाने के स्तर से ही कुचल दी जाती है जैसा कि अभी हाथरस में बलात्कार की शिकार दलित लडक़ी के साथ हुआ, या यूपी के भाजपा विधायक सेंगर पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली लडक़ी और उसके परिवार के साथ हुआ। यह छोटा सिलसिला नहीं रहता, यह बरसों तक शिकायतकर्ता को कुचलने का सिलसिला रहता है, और आसाराम से लेकर सेंगर तक के मामलों में हमने अनगिनत कत्ल होते देखे हैं जिन्हें हादसा बनाकर पेश किया जाता है। लोकतंत्र में जब सरकारें जुल्म करने वालों के साथ रहती हैं, तो अदालत के सामने जो तस्वीर पेश की जाती है, वह कोई जुर्म साबित करने के लिए काफी नहीं होती। अभी-अभी सीबीआई कोर्ट में बाबरी मस्जिद को गिराने को लेकर जिस तरह कोई जुर्म साबित नहीं हो पाया उसे लोगों ने न्याय की भ्रूणहत्या कहा है। अदालत वहीं से अपना काम शुरू कर सकती है जहां पर पुलिस या दूसरी जांच एजेंसी ने मामले को लाकर खड़ा किया है। अब जिस देश में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने गई लडक़ी के साथ थाना ही बलात्कार करने में जुट जाता है जहां पुलिस खुद ही मुठभेड़-हत्याओं की मुजरिम रहती है वहां पर अदालत में भला कौन जुर्म साबित करने वाले रहते हैं? ऐसे में बेकसूरों पर जुर्म साबित न हो जाए, लाश को ही कातिल करार देकर फांसी पर न टांग दिया जाए वही काफी माना जाना चाहिए।
देश की निचली अदालतों में भयानक भ्रष्टाचार सुनाई पड़ता है। देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट के जजों में से बहुतों को भ्रष्ट कहते-कहते प्रशांत भूषण जैसे दिग्गज वकील की जिंदगी ही निकली जा रही है। और अब तो हाल के बरसों में जिस तरह रिटायर होने के बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज सत्ता की मेहरबानी से पुनर्वास पा रहे हैं, उसके बाद लोगों का भरोसा अदालतों पर और घटा है। आज इस बारे में लिखने की जरूरत इसलिए है कि अर्नब गोस्वामी के केस में यह तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें याद दिलाया कि उन्हें आम लोगों की तरह पहले हाईकोर्ट जाना चाहिए। अगर आज अदालत ऐसा नहीं करती, और अर्नब गोस्वामी के कुछ महीने पहले के केस की तरह उन्हें सीधे राहत देती, तो लोगों के बीच अदालत पर भरोसा और टूटता। आज देश की इस सबसे बड़ी अदालत को यह देखना चाहिए कि व्यापक जनहित के मामले प्राथमिकता के आधार पर कैसे लिए जाएं, और निजी हित या कारोबारी हित के मामलों को न्याय की प्रक्रिया का नक्शा दिया जाए कि उन्हें किस रास्ते से चलकर जरूरत और नौबत आने पर सुप्रीम कोर्ट तक आना चाहिए। आज देश में कमजोर और ताकतवर के बीच इंसाफ पाने के हक में एक साफ फर्क दिखाई पड़ता है। यह फर्क लोकतंत्र के खात्मे का संकेत है, और सुबूत भी है। देश की न्याय व्यवस्था के काम और उसके तौर-तरीकों पर खुली बहस होनी चाहिए। जिस तरह हाल के महीनों में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आपको छुईमुई के पौधे की तरह अवमानना का हकदार माना है, और उस पर अदालत का खासा समय खर्च किया है, उतने समय में तो यह अदालत कश्मीर के लोगों के बुनियादी हक भी सुन सकती थी, और मजदूर-कानूनों की बांह मरोडऩे के खिलाफ तर्क भी सुन सकती थी। लोकतंत्र में व्यापक जनहित प्राथमिकता होना चाहिए, और यह बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत के जजों को ध्यान से समझनी चाहिए।
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महाराष्ट्र में शराब खुली है और मंदिर बंद। इस बात को लेकर वहां के राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को एक चिट्ठी लिखी, और उसने बाकी बातों के अलावा यह ताना भी दिया कि क्या उद्धव ठाकरे अब ‘सेक्युलर’ (धर्मनिरपेक्ष) हो गए हैं? इसके लिखित जवाब में उद्धव ने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को याद दिलाया है कि उन्होंने मुख्यमंत्री पद की जो शपथ ली थी उसमें धर्मनिरपेक्षता की शपथ शामिल थी। राज्यपाल की चिट्ठी को लेकर महाराष्ट्र के सत्तारूढ़ गठबंधन के सबसे वरिष्ठ नेता शरद पवार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक विरोध-पत्र लिखकर भेजा है जिसमें उन्होंने राज्यपाल की भाषा पर कड़ी आपत्ति की है।
राज्यपाल का लिखा हुआ हक्का-बक्का कर देता है कि क्या इस देश में अब किसी की धर्मनिरपेक्षता उसे ताने कसने का सामान बना दी जा रही है! और यह बात महाराष्ट्र के सबसे आलीशान बंगले में समंदर किनारे रहने वाला वह राज्यपाल कर रहा है जो कि प्रदेश का संविधान प्रमुख भी है। अगर संविधान से इतना ही परहेज है, तो राज्यपाल को यह महल छोडक़र चले जाना चाहिए और खुलकर संविधान का विरोध करना चाहिए, धर्मनिरपेक्षता का विरोध करना चाहिए।
मंदिर न खोलने को लेकर राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी थी कि क्या आपने हिन्दुत्व छोड़ दिया है, और धर्मनिरपेक्ष हो गए हैं? एक राज्यपाल की तरफ से एक मुख्यमंत्री को लिखी हुई हमारी ताजा याद में यह सबसे ही घटिया और असंवैधानिक बात है। लेकिन राज्यपालों द्वारा घटिया बात अब अधिक आम होती चल रही हैं। उत्तर-पूर्व में तैनात एक राज्यपाल तथागत राय ने ट्विटर पर लगातार ओछी राजनीति की बात करने के लिए एकदम कुख्यात ही हो गए थे। आज भी एक भूतपूर्व राज्यपाल की हैसियत से उनका ट्विटर अकाऊंट उन्हें कट्टर दक्षिणपंथी हिन्दू बताता है जो कि उनका खुद का लिखा हुआ बखान है।
महाराष्ट्र राज्यपाल की चिट्ठी पर उद्धव ठाकरे ने बढिय़ा जवाब लिखकर भेजा है कि उनके हिन्दुत्व को राज्यपाल के प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है। यह बात कोई दबी-छुपी नहीं है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल के जिस विचारधारा से आए हैं और जिस विचारधारा की वजह से आए हैं, उस विचारधारा में सेक्युलर शब्द को एक गंदा शब्द माना जाता है। लेकिन भारत के संविधान की जो रीढ़ की हड्डी है, वह इसी शब्द से बनी हुई है, और इस शब्द से जिन्हें नफरत हो उन्हें खुलकर संविधान को खारिज करना चाहिए, सेक्युलर शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करने से काम नहीं चलेगा।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने प्रधानमंत्री को लिखी चिट्ठी में राज्यपाल की जुबान की शिकायत की है, और कहा है कि उस तरह की भाषा को देखकर वे हैरान हैं। यह पत्र किसी राजनीतिक पार्टी के नेता का पत्र लग रहा है, न कि किसी राज्यपाल का।
शिवसेना ने राज्यपाल के चिट्ठी के जवाब में एक जुबानी बयान में उन्हें यह ठीक याद दिलाया है कि मंदिरों की कोई तुलना शराबखानों के साथ नहीं की जा सकती। महाराष्ट्र में कोरोना का खतरा पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। शिवसेना के इस जवाब से परे भी हकीकत यही है कि शराबखानों में तो शराबियों को काबू करने के लिए बाहुबली कर्मचारी रखे जाते हैं, लेकिन धर्मस्थलों पर आमतौर पर बेकाबू और अराजक रहने वाले भक्तों को कौन काबू करेंगे? हिन्दुस्तान का इतिहास उठाकर देखें तो धर्म, धार्मिक स्थल, और धर्मालु लोग किसी भीड़ की शक्ल में आते ही अराजक हो जाते हैं, वे हथियार निकाल लेते हैं, वे हिंसा पर उतारू रहते हैं, और वे अपने धर्म को संविधान से ऊपर करार देते हैं। अभी-अभी बाबरी मस्जिद गिराने पर जो फैसला आया है, उसने बड़ी मासूमियत से तमाम लोगों को बरी तो कर दिया, लेकिन 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिराने का लाईव टेलीकास्ट जिन लोगों ने देखा था, उन्होंने तो यह देखा ही है कि नेताओं के उकसावे पर, कई दिनों से उनके बयानों पर यह भीड़ 6 दिसंबर को किस तरह अराजक और हिंसक थी, और उसने मस्जिद गिराकर ही दम लिया था। धर्म का मिजाज ही लोकतंत्र के खिलाफ होता है, संविधान के खिलाफ होता है, और हिंसक होता है। महाराष्ट्र में धर्मस्थलों को एक बार खोलकर क्या कोई उन पर नियम लागू कर सकेंगे? वहां लगने वाली भीड़ पर काबू किया जा सकेगा?
और घोर हिन्दुत्व का झंडा लेकर राजभवन में बैठे इस राज्यपाल को कम से कम यह तो समझना चाहिए कि मंदिरों को न खोलकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे या उनकी सरकार एक किस्म से हिन्दुओं पर ही एक अहसान कर रहे हैं क्योंकि मंदिर खुलने से कोरोनाग्रस्त होने का सबसे बड़ा खतरा अकेले हिन्दू समाज पर ही रहता। इस खतरे को अनदेखा करके मंदिरों को खोलने के लिए राजभवन से इस किस्म की फिकरेबाजी करना पूरी तरह शर्मनाक बात है। यह सरकार के काम में एक ओछी दखल भी है, और ऐसी हरकत लंबे समय से चली आ रही एक सोच को फिर जिंदा करती है कि क्या हिन्दुस्तानी संघीय व्यवस्था में राजभवन की सचमुच कोई जरूरत रह गई है? एक वक्त तो अंग्रेज सरकार के एजेंट की तरह राज्यों पर काबू रखने के लिए लोग तैनात किए जाते थे, लेकिन आज महज शपथ दिलाने, और निर्वाचित सरकार को परेशान करने के लिए यह वृद्धावस्था पुनर्वास खत्म करना चाहिए। हम इस घटना की वजह से नहीं, बल्कि लंबे अरसे से यह बात लिखते चले आ रहे हैं कि राजभवनों का कोई संवैधानिक औचित्य नहीं रह गया है, और राज्यपाल केन्द्र सरकार के इशारे पर निर्वाचित सरकार को इसी तरह परेशान करने वाले एजेंट बनकर रह गए हैं। ऐसी गुजर चुकी संघीय जरूरत को अब विसर्जित कर देना चाहिए। राज्यपाल एक अवांछित बोझ बनकर राज्य पर रहते हैं, और निर्वाचित सरकार की फजीहत करने के लिए केन्द्र से इशारे का इंतजार करते हैं। हिन्दुस्तान के ताजा इतिहास में राजभवन उतनी ही भ्रष्ट जगह बन गई है जितनी भ्रष्ट कोई भी दूसरी सरकारी संस्था रहती है। बहुत से राजभवन दलालों और सप्लायरों का अड्डा बन जाते हैं, और राज्यपालों के परिवार दलाली का धंधा करते हैं। मध्यप्रदेश में अभी कुछ समय पहले तक राज्यपाल रहे रामनरेश यादव व्यापम घोटाले में फंसे हुए थे, और गुजर जाने की वजह से कटघरे से बच गए। बिहार में कांग्रेस के बूटा सिंह ऐसे राज्यपाल रहे कि जिनके बेटे वहां से दलाली का धंधा चलाते थे।
अलग-अलग कई किस्म की वजहें हैं जिनकी वजह से राजभवन संस्था को खत्म कर देना चाहिए। इसकी कोई उपयोगिता नहीं रह गई है, इसकी कोई संवैधानिक जरूरत नहीं रह गई है। जहां तक सरकार को शपथ दिलाने की बात है तो खुद राज्यपाल को हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शपथ दिलाते हैं, और ऐसी कोई वजह नहीं है कि वे मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल को शपथ न दिला सकें।
कल से समाचार-मीडिया और सोशल मीडिया दोनों ही यूपी की एक नौजवान आईएएस अफसर सौम्या पांडेय की खबरों से भरे हुए हैं जिनमें वे अपनी एक महीने की बेटी को गोद में लिए हुए एसडीएम का काम कर रही हैं। वे दिल्ली के करीब गाजियाबाद में एसडीएम है, और बच्ची के जन्म के पहले तक वे लगातार काम करती रहीं, और अब प्रसूति के 22 दिन बाद ही काम पर लौट गई।
सोशल मीडिया पर खासे सोचने-समझने वाले लोग भी इस अधिकारी की तारीफ करते थक नहीं रहे हैं। लोगों को याद होगा कि पश्चिम के कुछ देशों में संसद में वहां की महिला सदस्य अपने दूध पीते बच्चों को साथ लेकर आती रहीं, और सदन की कार्रवाई के बीच उन्होंने बच्चों के दूध पीने के हक को जाहिर भी किया। एक महिला सांसद तो संसद में अपना बयान देते जब खड़ी थी, तब भी वह बच्चे को दूध पिला रही थी। वह बात अपने बच्चे को साथ रखने की भी थी, और सार्वजनिक जगह पर उसे दूध पिलाकर उसके हक को स्थापित करने की भी थी क्योंकि बहुत सी जगहों पर ऐसा दकियानूसी रिवाज बना दिया गया है कि महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर अपने बच्चों को दूध न पिलाएं।
ये दोनों दो बिल्कुल अलग-अलग किस्म के मामले हैं, और भारत की जिस समर्पित महिला अफसर को अभी तारीफ मिल रही है, उस बारे में हम लिखना चाहते हैं, और सवाल उठाना चाहते हैं कि क्या एक महीने की बच्ची का सुरक्षित सेहत का हक सरकारी काम के प्रति समर्पण के मुकाबले कम मायने रखता है? आज जब हिन्दुस्तान में सरकारों में बैठे हुए लोग हरामखोरी के लिए जाने जाते हैं, तब कुछ गिने-चुने अफसर अगर ऐसे समर्पण से काम कर रहे हैं, तो इस एक पहलू से वे बहुत मायने रखते हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब एक छोटी सी जिंदगी इससे जुड़ी हुई है, तो फिर उसे साथ रखकर इस तरह से सरकारी फाइलों को निपटाना क्या उस बच्ची के बुनियादी हकों पर ज्यादती नहीं है? और क्या मां-बाप को भी ऐसा हक दिया जा सकता है कि वे अपने बच्चों को ऐसे खतरे में डालें? यह बात कोरोना जैसी महामारी आने के पहले की होती, तो भी बात समझ आती। लेकिन अभी तो कल ही बीबीसी की एक रिपोर्ट आई है कि किस तरह मोबाइल फोन पर और नोटों पर कोरोना वायरस 28 दिनों तक जिंदा रह सकते हैं। अब जब वे नोटों पर जिंदा रह सकते हैं, तो सरकारी कामकाज की फाइलों पर भी जिंदा रह सकते हैं, उतना अधिक न सही कुछ कम जिंदा रह सकते हैं। ऐसे में महीने भर की बच्ची को खतरे में डालकर काम करने वाली, काम के प्रति समर्पित मां की वाहवाही करते हुए इस खतरे को अनदेखा नहीं करना चाहिए।
हिन्दुस्तान से न्यूजीलैंड जाकर वहां बसे हुए और काम करने वाले कुछ मां-बाप इसलिए वापिस हिन्दुस्तान भेज दिए गए थे कि उन्होंने पैदा होने वाले बच्चे के बाद अगले कई महीनों तक मां-बाप के काम करने के सीमित घंटों के कानून को तोड़ा था, और अधिक काम किया था। लोगों को याद होगा कि अभी जब सुषमा स्वराज विदेश मंत्री थीं, तब योरप के किसी एक देश में सरकार ही लापरवाह मां-बाप से उनके बच्चे को लेकर चली गई थी, और अपनी हिफाजत में रखा था। सभ्य लोकतंत्रों की खूबी यही है कि वहां उनके अधिकारों की सबसे अधिक हिफाजत होती है जो अपने हक के लिए खुद नहीं लड़ सकते। चाहे वे बच्चे हों, कुदरत हो, पशु-पक्षी हों, या बेघर इंसान हों।
हिन्दुस्तान के कानून में अभी हाल ही के बरसों में फेरबदल करके महिला को मिलने वाले प्रसूति-अवकाश को बढ़ाया गया है, और छह महीने का किया गया है। तीन महीने का तो शायद पहले से चले आ रहा था, उसे और बढ़ाया गया। इसके पीछे वैज्ञानिक और मानवीय दोनों किस्म की जरूरतें हैं, जिनका ख्याल रखते हुए यह अवकाश लंबा किया गया है। अभी जिस महिला अधिकारी की तारीफ छप रही है, उस पर भी ऐसी जरूरत लागू होती है, और उससे अधिक उसकी महीने भर की बच्ची पर। हमारा ख्याल है कि अतिउत्साही मां-बाप को ऐसा करने से रोकने के लिए भी सरकार को एक कानून बनाना चाहिए कि महिला के लिए कम से कम तीन महीने छुट्टी पर रहकर अपने नवजात शिशु की देखभाल की बंदिश रहेगी। कई देशों में ऐसा है, और शायद ही कोई सभ्य और विकसित देश ऐसा होगा जो कि महीने भर के भीतर बच्ची को ली हुई महिला को ऐसी महामारी के बीच फाइलों का सरकारी काम करने की छूट देता हो।
कामकाजी महिलाओं पर पुरूषों के मुकाबले बेहतर काम करने का एक मानसिक दबाव हमेशा बने रहता है। पुरूषवादी और पुरूष प्रधान समाज अक्सर यह मानकर चलता है कि अरे ये तो महिला है, ये कहां से इतना काम करेगी। और ऐसे में महिलाओं के सामने यह चुनौती रहती है कि वे पुरूषों से कम साबित न हों। ऐसी भी बहुत सी स्थितियां देखने में आती हैं जब महिला अधिकारी जरूरत से अधिक कड़ाई बरतती हैं, जरूरत से अधिक मेहनत करती हैं, और पुरूषवादी कसौटी पर अपने को अधिक खरा साबित करने में जुटी रहती हैं। इनमें से किसी बात से हमें कोई आपत्ति नहीं है, आज का यह लिखना सिर्फ इसलिए है कि इस कहानी में एक छोटी सी बच्ची की जिंदगी भी जुड़ी हुई है जो अपनी बेहतरी की बात खुद नहीं कर सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लॉकडाऊन ने पूरी दुनिया में लोगों की जिंदगी तहस-नहस कर दी है। जो बहुत संपन्न देश हैं वहां तो लोग फिर भी घर बैठे जी पा रहे हैं, लेकिन हिन्दुस्तान जैसे मिलीजुली अर्थव्यवस्था वाले देश भी बदहाली में पहुंच चुके हैं। दुनिया के अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि अपने देश को कोरोना-लॉकडाऊन की मार से बचाने के लिए किसी देश का संपन्न होना जरूरी नहीं है, बल्कि वहां के शासकों का संवेदनशील होना जरूरी है। लॉकडाऊन ने लोगों की जिंदगी को कैसे-कैसे बदला है यह देखने के लिए अर्थशास्त्रियों की रिपोर्ट जरूरी नहीं है, सुबह घर के बाहर बैठें तो एक-एक सामान बेचने वाले 10-10 फेरीवाले आवाज लगाते निकलते हैं जिनकी आवाज कभी सुनी नहीं थी। कुछ ठेलेवाले अपने बच्चों को साथ लेकर फल और सब्जी बेचते निकलते हैं, और इन इलाकों में कभी ऐसे ठेले घूमते नहीं थे। कार धोने के लिए कई बच्चे आकर घरों के दरवाजे खटखटाते हैं कि उन्हें काम पर रख लें।
लॉकडाऊन से शहरों की तस्वीर बदल गई है, अनगिनत लोगों के रोजगार खत्म हो गए हैं, और उनके घर पर कमाई न आने से दूसरे कई घरों के चूल्हे जलना कम हो गए हैं या बंद हो गए हैं। हैदराबाद की एक रिपोर्ट अभी आई है जो बताती है कि वहां करीब सवा लाख टैक्सियां चलती थीं, इनमें से करीब 5 हजार टैक्सियां एयरपोर्ट पर ही लगती थीं क्योंकि हैदराबाद एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट है। अब लॉकडाऊन के बाद वहां करीब दो सौ टैक्सियां ही लग रही हैं क्योंकि न उड़ानें आ जा रहीं और न मुसाफिर। दूसरी गंभीर बात यह है कि हैदराबाद में आईटी इंडस्ट्री इतनी बड़ी थी कि उसमें रोजाना 30 हजार टैक्सियां किराए पर लगती थीं, लेकिन अब लोग घरों से काम कर रहे हैं और ये लोग भी एकदम से बेरोजगार हो गए। अब एक शहर में अगर टैक्सी के एक कारोबार में एक चौथाई से कम लोग ही काम पा रहे हैं, तो जाहिर है कि उनके भरोसे जो होटल-ढाबे चलते थे, चाय-नाश्ते की बिक्री होती थी, जो गैराज और मैकेनिक काम पाते थे, वे सबके सब भी प्रभावित हुए होंगे। बेरोजगारी और आर्थिक संकट पहाड़ से लुढक़े हुए एक चट्टान की तरह होते हैं जो नीचे आते-आते रफ्तार पकड़ते जाती है, और अधिक खतरनाक होती जाती है। हैदराबाद जैसा हाल हिन्दुस्तान के अलग-अलग बहुत से शहरों में है जहां कोई एक कारोबार पूरी तरह ठप्प हो गया, या काम घर से होने लगा, और बड़े पैमाने पर रोजगार छिन गए, कारोबार प्रभावित हो गए।
कोरोना जैसी महामारी के बारे में अभी कुछ अरसा पहले तक तो कुछ विज्ञान कथा लेखकों को छोडक़र किसी को ऐसा अंदाज नहीं था कि ऐसा भी एक दिन आ सकता है। लेकिन अब जब ऐसा एक दिन आ गया है, आधा बरस ऐसे ही गुजर चुका है, और लोगों को आशंका है कि अगला आधा बरस भी कोरोना के मेडिकल खतरे और साथ-साथ खड़े हुए आर्थिक खतरे से भरा हुआ रहेगा, तो देश चलाने वाले लोगों को यह सोचना होगा कि ऐसी कोई दूसरी बीमारी आएगी, दुबारा आर्थिक खतरा आएगा तो क्या किया जाएगा? आज दुनिया की अर्थव्यवस्था को कोरोना ने तहस-नहस कर दिया है। लेकिन इससे यह बात भी साबित हुई है कि दुनिया के देश-प्रदेश न तो इस बीमारी के लिए तैयार थे, और न ही ऐसी आर्थिक मंदी, तालाबंदी, और भुखमरी के लिए। इसलिए इससे निपटने के साथ-साथ देशों और प्रदेशों को यह भी चाहिए कि अपने पीछे के कमरे में जानकार विशेषज्ञों को बिठाकर ऐसी योजनाएं बनवाएं कि दुबारा ऐसी नौबत आने पर क्या किया जाएगा, कैसे रोजगार के खत्म होने पर कौन से नए रोजगार खड़े किए जा सकेंगे, और ऐसे रोजगार-कारोबार की शिनाख्त भी करनी होगी जो कि लॉकडाऊन को बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे।
अभी हिन्दुस्तान का सुप्रीम कोर्ट भी ऐसे मामलों पर बहस देख रहा है कि लॉकडाऊन के दौर के बैंक कर्ज पर ब्याज पर ब्याज से कैसे बचा जा सकता है, कैसे सरकारी हुक्म की वजह से कारोबार बंद करने वाले लोगों को राहत दी जा सकती है। यह तो सुप्रीम कोर्ट है जो कि एक सामाजिक-आर्थिक सरोकार के तहत ऐसी सुनवाई कर रहा है और लगातार सरकार पर दबाव बना रहा है कि उसे जनता को राहत देनी चाहिए। लेकिन अब कोरोना की वजह से हर देश-प्रदेश की सरकार के पास कुछ तो तजुर्बा आ गया है, और कुछ योजनाशास्त्री अपने अंदाज को इसमें मिला सकते हैं कि आने वाली जिंदगी में कैसे खतरों के लिए कैसी तैयारी रखी जानी चाहिए।
पूरी दुनिया में फैले हुए वायरस से ऐसी तबाही की किसी ने कल्पना नहीं की थी। लेकिन यह वायरस इंसानी जिस्म पर बुरा असर डालने वाला वायरस है। हम इसी जगह हर बरस कई बार इस बात को लिखते हैं कि दुनिया में कुछ आतंकी ताकतें या देशों के बीच की जंग ऐसी भी हो सकती है जिनमें कम्प्यूटर वायरसों का इस्तेमाल करके कुछ या अधिक देशों के तमाम कम्प्यूटरों को खत्म कर दिया जाए। अब तक कई देशों के पास इस किस्म की विनाशकारी ताकत हो चुकी होगी, और कई आतंकी संगठन भी ऐसी ताकत हासिल कर सकते हैं। आज छोटे पैमाने पर कुछ हैकर कुछ कंपनियों के कम्प्यूटरों को हैक करके उनसे फिरौती लेकर हटते हैं, कल को अगर अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन किसी देश के तमाम कम्प्यूटरों को तबाह करने की हालत में आ जाएंगे तो क्या होगा? हम पहले भी कई बार यह सुझा चुके हैं कि साइबर-हिफाजत बढ़ाने के अलावा ऐसे किसी दिन के लिए सरकारों को एक आपात योजना बनाकर भी रखनी चाहिए। एक कल्पना करें कि हिन्दुस्तान में सिर्फ दो सेक्टरों के सारे कम्प्यूटरों को कोई ठप्प कर दे, तो क्या होगा? सारी टेलीफोन कंपनियां कम्प्यूटरों पर ही चलती हैं, और देश की बैंकिंग, सारा एटीएम, क्रेडिट कार्ड, ऑनलाईन भुगतान, यह सब कुछ कम्प्यूटरों पर चलता है। इन दोनों की कमजोर नब्ज पकडक़र वहां घुसपैठ करके अगर कोई इनका सारा डाटा खत्म कर दे, इनका काम ठप्प कर दे, तो क्या होगा? हॉलीवुड की ऐसी कई फिल्में आ चुकी हैं जिनमें आतंकी संगठन पूरे-पूरे शहरों के ट्रैफिक सिग्नलों पर कब्जा कर लेते हैं, टेलीफोन कंपनियों पर कब्जा कर लेते हैं, बिजलीघरों को कम्प्यूटरों से ठप्प कर देते हैं। आज हालत यह है कि आतंकी संगठन किसी देश की सुरक्षा प्रणाली को ऐसे नकली संकेत भी भेज सकते हैं कि कोई दूसरा देश उन पर हमला कर रहा है। जब दुनिया में तीसरा विश्वयुद्ध छिड़वाना बहुत मुश्किल नहीं रह गया है, तब लोगों को गंभीरता से सोचना चाहिए कि क्या कम्प्यूटरों का कोई कोरोना आए, तो दुनिया उसके साथ जी सकेगी? आज मेडिकल कोरोना ने लोगों को जितना बेरोजगार किया है, उतने का उतना बेरोजगार एक कम्प्यूटर-कोरोना कर सकता है। आज के कोरोना के चलते अगर कम्प्यूटर-कोरोना के खतरों का अंदाज लगाकर दुनिया अपने आपको उसके लायक तैयार नहीं करेगी, तो यह सरकारों की गैरजिम्मेदारी होगी।
आने वाली दुनिया मेडिकल और कम्प्यूटर दोनों किस्म के खतरों से घिरी रहना तय है, और जैसा कि जिंदगी की किसी भी दायरे में लागू होता है, बचाव ही अकेला इलाज रहेगा। एक बार अगर कम्प्यूटरों को तबाह कर दिया गया तो देशों की अर्थव्यवस्था उससे पूरी तरह शायद कभी नहीं उबर पाएंगी। आज दुनिया में जुर्म का सबसे बड़ा जरिया कम्प्यूटर और ऑनलाईन ही होना है, शारीरिक अपराध अब बीते वक्त की बात हो जाएंगे। दूसरी तरफ अगर हम यह मानकर चलते हैं कि कम्प्यूटरों के भीतर खुद को नष्ट कर देने वाली कोई बात कभी विकसित नहीं हो पाएगी, तो वह भी अदूरदर्शिता होगी। जैसा कि कई फिल्मों में रोबो-कॉप जैसे किरदार आते हैं जिनमें मशीनों को बनाया तो जाता है इंसानों की सेवा करने के लिए, लेकिन किसी वजह से वे मशीनें बागी हो जाती हैं, और भारी तबाही करती हैं। आज दुनिया के कम्प्यूटरों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जोड़ा जा रहा है, यह इंटेलीजेंस आगे जाकर कभी भी बेकाबू नहीं होगा, कभी अपने फैसले खुद नहीं लेने लगेगा, ऐसा तय तो है नहीं।
इसलिए कोरोना से मेडिकल और आर्थिक इन दोनों तरह के असर देखने के बाद अब दुनिया को साइबर-जुर्म और साइबर-हादसों के बारे में भी सोचना चाहिए, और उसे भी कोरोना जैसी प्राथमिकता देकर बचाव की योजना बनानी चाहिए।
एक और मानसिक स्वास्थ्य दिवस गुजर गया। दुनिया भर में लोगों ने सोशल मीडिया पर अवसादग्रस्त लोगों के लिए हमदर्दी पोस्ट की, कई लोगों ने अपने नंबर पोस्ट किए कि जिस किसी का मन अच्छा न हो, और बात करने की इच्छा हो तो उनसे बात कर सकते हैं। जानकार विशेषज्ञों ने ऑनलाईन वेबीनार किए, और कुछ चर्चित लोगों ने अपनी खुद की जिंदगी के डिप्रेशन का हाल भी बांटा ताकि दूसरे लोग अपने को लेकर हीनभावना न पालें, और यह जान लें कि बड़े कामयाब लोग भी अपनी जिंदगी में किसी वक्त ऐसे दौर से गुजरे हुए रहते हैं।
अब किसी व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य सबसे पहले तो उसके करीब के छोटे दायरे से प्रभावित होता है जिसमें उसकी अपनी निजी जिंदगी के सुख-दुख का बड़ा हाथ रहता है। आसपास के दायरे में घर-दफ्तर, स्कूल-कॉलेज के साथियों की भूमिका रहती है, किसी के खुश रहने या नाखुश रहने में इन सबका भी हाथ रहता है। आसपास के लोगों का यह सोचना भी जरूरी होता है कि कौन करीबी ऐसे हैं जिन्हें कुछ बात करने की जरूरत है, और जो आज अकेलेपन में घुट रहे हैं। एक छोटी सी दिक्कत आज के वक्त की यह है कि लोग दूसरों की निजता का सम्मान इतनी गंभीरता से करने लगते हैं, और इस हद तक करने लगते हैं कि वे किसी की निजी बातों को पूछना भी उनकी निजता के खिलाफ मान लेते हैं, और यह एक बड़ा जटिल मुद्दा रहता है कि किसी के निजी मामलों में कितनी दखल दें, और कहां जाकर रूक जाएं। ऐसे में संबंधों के खराब होने का भी एक खतरा रहता है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह रहता है कि आसपास के कोई करीबी अगर अपने मन के भीतर ही घुट रहे हैं, तो क्या उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना निजता का सम्मान है, या अपने आपको उनकी निजी जिंदगी का एक हिस्सा मानकर, साबित करते हुए, उनके दिल-दिमाग के बोझ को उठाने में हाथ बंटाना बेहतर है? यह सवाल आसान नहीं है, इसे हमने तो चार वाक्यों में पूरा कर दिया है, लेकिन असल जिंदगी में इसे तौलते हुए और तय करते हुए लोगों को बरसों लग जाते हैं, और आखिर में जाकर जब अनहोनी हो चुकी रहती है, तब उसके पास महज मलाल रह जाता है कि उन्हें पहले दखल देना था, और एक जिंदगी बचा लेनी थी।
लेकिन जब हम इस दायरे से बाहर आते हैं, और बाकी समाज की तरफ देखते हैं जिसकी एक व्यापक जिम्मेदारी रहती है तो वहां पर हिन्दुस्तान आज सबसे अधिक नाकामयाब दिख रहा है। राजनीतिक दल लोगों की मानसिक सेहत की तरफ से बेफिक्र हैं, और ऐसी हैवानियत की बातें करते हैं कि मानो वे हैवान किसी और ग्रह से आए हैं, और इस धरती की भावनाओं को नहीं समझते हैं। राजनीतिक दल बलात्कारियों के जेल में रहने की वजह से अगर उन्हें चुनावी उम्मीदवार नहीं बना पा रहे हैं, तो मानो इस अफसोस को जाहिर करने के लिए उनके घर के लोगों को उम्मीदवार बना रहे हैं। जो पार्टियां अपने को देश की सबसे पुरानी पार्टी, दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी, किसी प्रदेश की सबसे बड़ी क्षेत्रीय पार्टी करार देते थकती नहीं हैं, वे बलात्कारियों और दूसरे मुजरिमों को टिकट देने के लिए उनके घर पहुंच जाती हैं। कोई अगर यह समझते हैं कि देश का ऐसा राजनीतिक माहौल जनता के मानसिक स्वास्थ्य पर असर नहीं डालता, तो वे नासमझ हैं। जिस देश में मुजरिमों का लगातार सम्मान होता है, हत्यारों और बलात्कारियों को मालाएं पहनाई जाती हैं, बलात्कारियों के हिमायती राष्ट्रीय झंडा लेकर जुलूस निकालते हैं, तो देश की दिमागी सेहत खराब होती ही होती है क्योंकि हर नागरिक तो राजनीतिक दलों जितनी जुर्म की भागीदारी कर नहीं सकते, और वे ऐसा माहौल देखकर निराश हो जाते हैं। जहां तक राजनीति से जुड़ी हुई सरकारों का सवाल है तो ये सरकारें दिमागी सेहत की तरफ से बेरूखी बनाए रखती हैं क्योंकि मानसिक रोगी कोई ऐसा संगठित वोटर तबका तो है नहीं जो कि चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को हरा सके।
अब बारी आती है मीडिया की। तो मीडिया का रूख पिछले छह महीनों में जितनी आक्रामकता के साथ नकारात्मकता की पीठ पर सवार होकर अधिक दर्शक संख्या की मंजिल तक जाते दिखा है, उसके बारे में आज पूरा देश ही बात कर रहा है। बहुत से लोगों ने ऐसे पोस्ट भी किए हैं कि कोई टीवी परिवार की दिमागी हालत बेहतर कर सकता है अगर उसकी स्क्रीन दीवार की तरफ रखी जाए। यहां हमें हिन्दुस्तानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में कुछ अधिक लिखने की जरूरत नहीं है क्योंकि उसके अधिकतर हिस्से में हाल के महीनों में जितनी गैरजिम्मेदारी दिखाई है उसमें भी जिंदगी से निराश लोगों को और अधिक निराश ही किया है। महीनों से टीवी पर सिर्फ एक खुदकुशी की चर्चा चल रही है जिसे कत्ल साबित करने की कोशिश चल रही है। अपनी जिंदगी से निराश कोई इंसान जब रात-दिन, रात-दिन, जब सिर्फ यही, हत्या-आत्महत्या, हत्या-आत्महत्या देखते रहते हैं, तो वे खुद आत्महत्या की तरफ बढ़ जाते हैं, ऐसा सिर्फ हमारा कहना नहीं है, ऐसा मनोचिकित्सकों का भी कहना है। मीडिया से जुड़ी हुई एक और बात कुछ अरसा पहले हमने लिखी थी कि समाज के अवसादग्रस्त लोगों को लेकर मीडिया के लोगों में न समझ है, न संवेदनशीलता। नतीजा यह है कि इतनी नकारात्मकता फैलाई जा रही है कि उससे लोगों में अवसाद और बढ़ते चल रहा है। मीडिया में खबरें गैरजिम्मेदारी से बनाई जा रही है, टंगी हुई लाशों की तस्वीरें तुरंत इस्तेमाल हो रही हैं, और किसी को यह परवाह नहीं दिख रही कि इससे तनावग्रस्त लोगों पर क्या असर पड़ रहा है।
जब देश में वारदातें अधिक से अधिक भयावह हो रही हैं, उन्हें राजनीतिक बढ़ावा पूरे वक्त मिल रहा है, जब देश में खाने-कमाने की गुंजाइश घटती चली जा रही है, जब कोरोना और लॉकडाऊन ने करोड़ों लोगों को बेरोजगार कर दिया है, और करोड़ों छोटे-बड़े कारोबारियों का दीवाला निकाल दिया है, तब किसी भी किस्म का बढ़ता हुआ तनाव लोगों को अगर मार नहीं डाल रहा है, तो उन्हें कम से कम गंभीर बीमार जरूर कर दे रहा है।
मानसिक स्वास्थ्य दिवस के मौके पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान में मनोचिकित्सक और मानसिक परामर्शदाता आबादी के अनुपात में ऊंगलियों पर गिने जाने लायक हैं। दुनिया के सभ्य और विकसित देशों में शायद सबसे बुरा अनुपात हिन्दुस्तान में ही होगा जहां बड़े शहरों से नीचे कहीं कोई मनोचिकित्सा नहीं है, गरीब के लिए तो बिल्कुल ही नहीं है, मध्यम वर्ग की पहुंच से भी बाहर सरीखी है। इस देश में समाज की चेतना को स्वस्थ रखने की समझ भी नहीं है, उसकी जरूरत को भी न सरकार समझ रही, न समाज समझ रहा। कुल मिलाकर यह देश उन लोगों के लिए जानलेवा हो चुका है जो अधिक संवेदनशील हैं, अधिक भावुक हैं, जो किसी मौजूदा वजह से या किसी आशंका से दहशत में हैं, अवसादग्रस्त हैं, तनावग्रस्त हैं, बेरोजगार हैं। इस माहौल को सिर्फ मानसिक चिकित्सा के नजरिए से देखने के बजाय समाज के मानसिक रूप से स्वस्थ रहने की जरूरत के नजरिए से देखना चाहिए। बात कुछ गंभीर है, खासी बोझिल है, लेकिन हम इतना भरोसा दिला सकते हैं कि हकीकत हमारी बातों से कहीं अधिक गंभीर है, कहीं अधिक बोझिल है, और कहीं अधिक खतरनाक है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी के गुजरने पर उसके बारे में अच्छा ही अच्छा कहने को भारतीय संस्कृति माना जाता है। लेकिन हमारा मानना यह है कि अच्छे के साथ-साथ उन लोगों के बाकी पहलुओं पर भी चर्चा होनी चाहिए जो लोग सार्वजनिक जीवन में रहे हैं, जैसे रामविलास पासवान। पासवान बिहार के एक दलित नेता रहे, और उनका बड़ा लंबा राजनीतिक जीवन रहा। इस लंबे राजनीतिक जीवन में नामुमकिन हद तक लंबा सत्ताकाल रहा। उनके गुजरने पर लगातार लिखा जा रहा है कि छह प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का उनका तजुर्बा दुनिया में उन्हें एक अनोखा नेता बनाता है, और उनका यह सत्ताकाल तकरीबन लगातार भी रहा। जाहिर है कि अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारें आई-गईं, लेकिन पासवान की केन्द्र सरकार में मौजूदगी इमारतों जैसी ही स्थाई बनी रही। तर्क उनका वही रहता था जो कि दलबदल या गठबंधनबदल करने वाले किसी भी नेता का रहता है कि अपने प्रदेश की जनता या अपनी बिरादरी का हित उसके लिए सबसे ऊपर है, और उनके भले के लिए वे अब नई सरकार के साथ हैं।
पासवान को तो मौसम विज्ञानी कहा जाता था कि उन्हें चुनाव के वक्त ही इस बात का अहसास रहता था कि अगली सरकार किस पार्टी की बनेगी, या किस गठबंधन की बनेगी। 1977 के चुनाव में रामविलास पासवान जनता पार्टी की टिकट पर बिहार के हाजीपुर से संसद पहुंचे थे, लेकिन संसद पहुंचने के पहले वे गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में पहुंच गए थे क्योंकि उनकी जीत इतने अधिक वोटों से हुई थी कि दुनिया में उसका कोई सानी नहीं था। अब दुनिया में सानी न होने की कई वजहें भी होती हैं इस एक मामले में हिन्दुस्तानी संसदीय सीटें दुनिया के कई देशों के छोटे प्रदेशों से बड़ी हैं, और वहां के छोटे-छोटे चुनाव की लीड भला क्या खाकर हिन्दुस्तानी लीड का मुकाबला कर सकती है? लेकिन पासवान ने तो हिन्दुस्तान में भी लीड का एक इतिहास रचा, और कांग्रेस उम्मीदवार को सवा 4 लाख से अधिक वोटों से हराया। इसके बाद वे 9 बार सांसद रहे, और केन्द्र में पिछले 30 बरस में दो सरकारों को छोड़ वे हर सरकार में मंत्री रहे। अगर दलबदल या गठबंधनबदल का कोई रिकॉर्ड बन सकता है, तो वह जाहिर तौर पर 6 प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने वाले नेता का ही बन सकता है। लेकिन इसके साथ-साथ पासवान का रिकॉर्ड अधिकतर चुनाव जीतने का भी था।
अब बिहार के सबसे बड़े दलित नेता और देश के दलित नेताओं में एक सबसे बड़े, रामविलास पासवान का नाम अलग-अलग कई वजहों से खबरों में बने ही रहता था। एक अनपढ़ लडक़ी से उनका बाल विवाह हुआ था, और उनकी अपनी राजनीतिक तरक्की के साथ शायद मेल न खाने की वजह से वे पहली पत्नी से अलग हो गए थे, और दिल्ली में अपने राजनीतिक वर्तमान और भविष्य के मुताबिक उन्होंने एक एयरहोस्टेस से दूसरी शादी भी की थी जिससे उनका बेटा चिराग पासवान आज उनकी पार्टी का अध्यक्ष भी है। पारिवारिक रूप से रामविलास पासवान नकारात्मक खबरों की वजह से ही चर्चा में रहते थे। पहली पत्नी से उनकी बेटी की अभी हाल तक यह शिकायत बनी हुई है कि उन्होंने दूसरी पत्नी के बच्चों, बेटे-बेटियों को जिस तरह पढ़ाया, आगे बढ़ाया, उस तरह पहली पत्नी से हुई बेटियों को मौका नहीं दिया। अब देश का एक सबसे ताकतवर दलित सांसद, और लगभग हमेशा का केन्द्रीय मंत्री अपनी बेटियों को ठीक से न पढ़ाए, और महज बेटे को आगे बढ़ाए, तो यह बिहार के उनके वोटरों के बीच तो खप सकता है, लेकिन पासवान का मूल्यांकन किया जाए तो यह बात खटकने वाली रही।
अभी उन पर लिखे गए एक लेख में याद किया गया कि दलितों के बीच से आए हुए पासवान ने बहुजन समाज पार्टी या अंबेडकर की तरह से दलितों के लिए कोई आंदोलन नहीं किया, उनका योगदान बस इतना था कि जब दलितों से संबंधित कानून और संविधान संशोधन पर आंच आती थी, तो वे खुलकर बोलते थे। जहां तक पार्टी बनाकर राजनीति करने का सवाल है तो वे बिहार के लालू प्रसाद यादव के मुकाबले कहीं भी कम कुनबापरस्त नहीं थे। अभी ताजा लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 6 सीटें मिलीं, जिनमें से 3 पर उनके भाई और उनका बेटा लड़े, और ये तीनों जीतकर संसद भी पहुंचे। पासवान की पार्टी उत्तर भारत की उन बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियों की तरह रहीं जहां एक कुनबे से सारा कारोबार चलता है, और मुलायम से लेकर लालू, और मायावती तक की पार्टियां अपने-अपने कुनबे के कब्जे में ही हैं, इस नाते पासवान भी भाई-भतीजे के ही भरोसे पार्टी चलाते रहे। संसद की बहसों में दलित मुद्दों पर मजबूती से बात करने के अलावा पासवान ने किसी भी स्तर पर दलित लीडरशिप विकसित की हो, ऐसा उनके इतिहास में कहीं दर्ज नहीं हो सकता।
पासवान के बारे में जिन जानकार लोगों ने लिखा है, उनका यह भी मानना है कि उन्होंने अपने मंत्रालयों के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। हालांकि कल उनकी जायदाद की जो जानकारी सामने आई है वह लंबे राजनीतिक जीवन के मुकाबले कुछ भी नहीं है, और उन्होंने कोई भ्रष्ट साम्राज्य खड़ा किया हो, ऐसा आरोप भी किसी का नहीं है, लेकिन उनकी राजनीतिक कामयाबी अपने और अपने कुनबे की चुनावी जीत तक सीमित रही यह जरूर कहा जाएगा।
पहली पत्नी को छोडऩे को अधिक मुद्दा बनाना इसलिए जायज नहीं होगा क्योंकि बचपन में जब शादियां हो जाती हैं, और जोड़ीदारों में से जब कोई एक अचानक कामयाबी की एक अलग दुनिया में पहुंच जाते हैं, तो ऐसी शादियां बेमेल हो जाती हैं, और बहुत से मामलों में ये टूट जाती हैं। दूसरा यह कि बिहार की जिस पिछड़ी बिरादरी से वे आए थे, उसमें हो सकता है कि आज से 25-30 बरस पहले बेटियों को पढ़ा-लिखाकर आगे बढ़ाना उन्हें न सूझा हो, और किसी का मूल्यांकन उनके देश-काल, और उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए ही करना ठीक रहता है।
रामविलास पासवान एक बहुत ही कामयाब, और बहुत ही चर्चित दलित नेता रहे, लेकिन उनकी वजह से दलितों की जमीनी हकीकत बेहतर हुई हों, ऐसी कोई मिसालें पिछले दो दिनों में उनके बारे में लिखी गई बातों में पढऩे नहीं मिलीं। पहली बार केन्द्रीय मंत्री बनने के बाद तो उन्हें लगातार यह मौका था ही कि वे दलितों की बेहतरी की कोशिश करते, लेकिन उनसे जुड़ी खबरों में कभी ऐसी कोई बात सुनाई नहीं पड़ती थी।
रामविलास पासवान भारतीय संसदीय जीवन के मौसम विज्ञानी की तरह याद रखे जाएंगे, और बिहार विधानसभा के होने जा रहे चुनाव यह साबित करेंगे कि उनके बिना उनका बेटा पार्टी को कहां पहुंचा सकता है।
हिन्दुस्तान के मीडिया का शायद सबसे बड़ा भांडाफोड़ कल सामने आया जब मुम्बई पुलिस अपने खिलाफ बागी तेवरों के साथ एक कथित और घटिया टीवी मीडियागिरी करने वाले अर्नब गोस्वामी के चैनल को दर्शक संख्या जुटाने के लिए जालसाजी करते पकड़ा। अर्नब का बदन पकड़ा जाना शायद अभी बाकी है लेकिन उसके चैनल को दर्शक संख्या (टीआरपी) खरीदने वाला पाया गया है। दो और चैनल यही काम करते पकड़ाए हैं, और मुम्बई पुलिस ने कहा है कि उसके पास सुबूत हैं।
अर्नब गोस्वामी के किए हुए को हम अखबारनवीसी तो इसलिए नहीं मानते कि अखबार तो एक माध्यम ही अलग है। उसे हम मीडिया भी नहीं मानते क्योंकि अखबारों से परे के मीडिया में भी काफी लोग अब भी शरीफ हैं, और बहुत से लोग अब भी ईमानदार हैं। और ईमानदारी तय करते हुए अखबारनवीसी को अखबार-मालिकी से अलग करके देखना ठीक होगा क्योंकि अखबार का कारोबार वाला हिस्सा कारोबारी मालिक के काबू का रहता है, और वहां पर टीवी की टीआरपी खरीदने की तरह अखबारों की प्रसार संख्या का केन्द्र सरकार का सर्टिफिकेट पाने के लिए गलाकाट मुकाबला चलता है। सर्टिफिकेट से परे भी यह मुकाबला पाठक संख्या तय करने वाले एनआरएस (नेशनल रीडरशिप सर्वे) तक जारी रहता है, और हर बरस कुछ अखबार अपने को दूसरों के मुकाबले अधिक कामयाब दिखाते हुए पूरे-पूरे पेज के इश्तहार छापते हैं। जिस तरह अखबारों के बाद टीवी और टीवी के बाद इंटरनेट तक जर्नलिज्म का विस्तार हुआ, तो अब समाचार वेबसाईटों के बीच भी ऐसा मुकाबला चलता है कि किस वेबसाईट पर कितने हिट्स मिल रहे हैं, कितने अलग-अलग लोग उसे देख रहे हैं, और कितना समय उस वेबसाईट पर गुजार रहे हैं।
अभी सुशांत राजपूत केस में मुम्बई पुलिस को बदनाम करने के लिए जिस तरह रातों-रात 80 हजार फर्जी सोशल मीडिया अकाऊंट खोले गए, और मुम्बई पुलिस के खिलाफ एक अभियान छेड़ा गया, वह पहला मौका नहीं है। इंटरनेट और सोशल मीडिया पर हिट्स और लाईक्स, फॉलोवर्स और री-ट्वीट कैसे खरीदे जाते हैं इसे देखने के लिए गुरू गूगल से पूछना भर है और दुनिया भर के ऐसी एजेंसियों के नाम-पते और रेटकार्ड सामने आ जाते हैं। हालत यह है कि हिन्दुस्तान के एक राज्य के एक नेता के 90 फीसदी फॉलोवर, और लाखों की संख्या में अकेले तुर्की में पैदा हो जाते हैं, और यह राज्य और यह नेता अपनी स्थानीय जुबान इस्तेमाल करते हैं, अंग्रेजी भी नहीं जिसे कि तुर्की कुछ लोग हिज्जों तक तो पढ़ ही सकते हैं। यह सारा का सारा फर्जी कारोबार आज टीवी समाचार चैनलों की टीआरपी-जालसाजी भांडाफोड़ होने से चर्चा में आया है, लेकिन हकीकत यह है कि जब से हिन्दुस्तान में अखबारों का काम शुरू हुआ है, तब से उनकी प्रसार संख्या की जालसाजी चल ही रही है। और सरकार से लेकर बाजार तक के इश्तहार इन्हीं गढ़ी हुई गिनतियों की बुनियाद पर खड़े हो पाते हैं, अगर आपमें जालसाजी करके फर्जी आंकड़ों की जमीन तैयार करने की कूबत नहीं है, तो आपके मीडिया-कारोबार की इमारत खड़ी नहीं हो सकती। और तो और हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार के दिए हुए आंकड़ों के सर्टिफिकेट को तमाम राज्य सरकारें धार्मिक भावना से ज्यों का त्यों मान लेती हैं, फिर चाहे वे प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार को पूरी तरह से खारिज ही क्यों न करने वाली हों। इस देश के मीडिया कारोबार की बुनियाद ही फर्जी आंकड़ों पर बनती है, और अपने-अपने हक में फर्जीवाड़े में किसी को कोई परहेज नहीं होता, जो जितने बड़े कारोबारी होते हैं, वे उतना ही अधिक फर्जीवाड़ा करते हैं।
लेकिन सवाल यह भी है कि अगर बाजार का कारोबार 17 और 19 रूपए के नोट से ही चल रहा है, तो कारोबारी रिजर्व बैंक के 10 और 20 रूपए के नोटों में ही धंधा करने की जिद पर कब तक अड़े रह सकते हैं? बाजार की विज्ञापन एजेंसियों, और विज्ञापनदाताओं को छोड़ दें, आज तो सरकार भी, केन्द्र और राज्य सरकारें सभी, ऐसे ही गढ़े हुए आंकड़ों को धर्मग्रंथ में लिखे शब्दों की तरह श्रद्धा और आस्था से पूजती हैं, तो ऐसे में अखबार की प्रसार संख्या, टीवी चैनलों का टीआरपी, और वेबसाईटों के विजिटर ईमानदारी से बताने वालों का भूखे मरना तय है। जब पूरा बाजार टैक्स चोरी पर काम करता हो, तब इक्का-दुक्का दुकानदार अगर टैक्स सहित कारोबार करने की जिद करें, तो उनकी दुकान पर ताला डलना तय है।
लेकिन बात महज आंकड़ों की नहीं है, इन आंकड़ों को महज जालसाजी से जुटाने की भी नहीं है, इन्हें बेशर्मी और गंदगी से जुटाने की भी है। आज हिन्दुस्तान के तमाम समाचार चैनल समाचारों के साथ-साथ मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित भी करते हैं, और अपनी वेबसाईटों पर भी डालते हैं। अच्छे से अच्छे प्रतिष्ठित और विश्वसनीय समाचार चैनलों की वेबसाईटें ऐसे सनसनाते वीडियो से भरी रहती हैं जिनमें किसी सुंदरी का गिरा हुआ पल्लू, तो किसी का झीना कपड़ा, तो कैसे किसी ने पानी में भीगकर आग लगा दी, किस्म की सुर्खियां लगी रहती हैं। देख-देखकर अखबारों की वेबसाईटों का भी यही हाल हो गया है, और वेबसाईटों का आपस का मुकाबला खबरों या बेहतर सामग्री का न होकर अधिक से अधिक बदन को अधिक से अधिक मादक तरीके से दिखाने का मुकाबला हो गया है, और जनहित के किसी गंभीर लेख से कोई हिट्स नहीं मिलते जितने राखी सावंत के निगाहों के इशारे वाले वीडियो से मिलते हैं कि उसने बदन के किस हिस्से की प्लास्टिक सर्जरी करवाई है। हिन्दुस्तान में अर्नब गोस्वामी जैसा कथित मीडियाकर्मी मीडिया के पूरे पेशे पर एक बहुत बड़ा कलंक का धब्बा है, उसका चैनल मीडिया के कारोबार पर उसी तरह दूसरा धब्बा है। लेकिन सवाल यह है कि कल शाम से अभी तक देश का बाकी मीडिया जिस तरह मजे लेकर अर्नब गोस्वामी और उसके चैनल के लिए सबसे गंदी गालियां लिख रहे हैं, क्या उनके घरों और दफ्तरों के सिंक पर आईने लगे हुए हैं? अर्नब तो पकड़ा गया, लेकिन उसे पत्थर मारने वाले लोग कौन हैं, उनमें से अधिकतर लोग उसी हमाम में नंगे हैं, और राखी सावंत की देह का नजारा बेचकर अपनी मीडिया-कामयाबी पर फख्र करते हैं।
अब पूरी दुनिया में ही इश्तहार के कारोबार तो इस बात से कोई परहेज नहीं है कि मीडिया कारोबार अपने हिट्स कहां से जुटाता है, टीआरपी और पाठक संख्या कैसे पाता है, किस तरह के सेक्सी वीडियो उसकी गिनती बढ़ाते हैं। जब सरकार को ही इससे लेना-देना नहीं है तो बाजार का भला उससे बढक़र कोई सरोकार हो सकता है? और होना भी क्यों चाहिए? जब केन्द्र सरकार से हर मामले में असहमत चलने वाली राज्य सरकारें भी अपने राज्यों में इश्तहार देने के पहले केन्द्र सरकार से पाए गए सर्टिफिकेट की शर्त रखती है, उसे यह जहमत उठाना ठीक नहीं लगता कि पाठकों की संख्या किस तरह जुटाई गई है उसे भी देखा जाए। आज बड़े-बड़े अखबार, बड़े-बड़े चैनल-पोर्टल भविष्यवाणी, ज्योतिष, और तरह-तरह के दूसरे झांसों का इस्तेमाल करके लोगों को जुटाते हैं, लेकिन सरकार पर वैज्ञानिक सोच को विकसित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी होने के बावजूद कोई सरकार मीडिया के ऐसे पाखंड के खिलाफ कुछ भी नहीं करती, और बेवकूफ बनाए गए लोगों की गिनती के आधार पर इश्तहार का रेट बढ़ाती है, इश्तहार देती है।
न सरकार, और न कारोबार, इन दोनों का कोई वास्ता इस बात से रह गया कि अखबारनवीसी और बाकी पत्रकारिता के नीति-सिद्धांत, सामग्री की उत्कृष्टता की फिक्र कौन कर रहे हैं, और कौन नहीं कर रहे हैं। संख्याओं पर इन दोनों का इतना भरोसा हो गया है जितना कि सट्टा लगाने वाले लोगों का मुम्बई के रोज सट्टा खोलने वाले रतन खत्री पर रहता था। ऐसे में आज जब एक चैनल पकड़ाया है जिसने हाल ही में बाकी तमाम चैनलों पर पांव उठाकर धार मारी थी, तब बाकी चैनलों का यह हक बनता है कि उसके खिलाफ हमला बोलें, हल्ला बोलें, वही चल रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कल से बाकी चैनल फर्जी टीआरपी जुटाने के मुकाबले में अपना-अपना पल्लू गिराना बंद कर देंगे, क्या कल से अखबारों में फर्जी आंकड़े जुटाने के खाता-बही जला दिए जाएंगे, क्या कल से नए-नए उगे न्यूजपोर्टलों पर अश्लील वीडियो, झांसा देने वाली हैडिंग लगाकर हिट्स जुटाना बंद कर दिया जाएगा? अगर यह सब हो जाएगा, तब तो अर्नब को मारे गए पत्थर जायज रहेंगे। वरना तो आज टीआरपी का हाथी गड्ढे में गिरा है, और तमाम लोग कूद-कूदकर उसे लात मार रहे हैं, कुछ लोग इसका वीडियो बना रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संस्था ऑक्सफैम ने अपनी ताजा रिपोर्ट में अलग-अलग देशों का सर्वे प्रकाशित किया है कि असमानता को दूर करने में किस देश का क्या हाल रहा। यह असमानता खासकर कोरोना-महामारी से निपटने के संदर्भ में देखी गई, और 158 देशों ने भारत 129वीं जगह पर है। दुनिया के गिने-चुने सबसे गरीब और सबसे फटेहाल देशों के करीब खड़े हुए हिन्दुस्तान को थाली बजाती जनता देख पा रही है, या अपने खुद के थामे दीए और मोमबत्ती की रौशनी में उसे कुछ दिख नहीं रहा है, यह पता नहीं। जब हिन्दुस्तान का माहौल सनसनी से तय हो रहा है, जब कुछ फिल्मी सितारों पर नशे की तोहमत देश को महीनों तक नशे में रख सकती है, तो वैसे में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था के आंकड़े को एक साजिश करार देना बड़ा आसान काम है। जब हाथरस की गैंगरेप-मृतका के हक की बात करना अंतरराष्ट्रीय साजिश करार दी जा रही है, तो ऑक्सफैम के आंकड़ों को फिर अंतरराष्ट्रीय फेहरिस्त में भारत की जगह दिखाने वाले हैं, और इन्हें साजिश से कम मानना देश के साथ गद्दारी करार दी जा सकती है।
ऑक्सफैम इंटरनेशन का कहना है कि असमानता से निपटने में सरकारों की भयानक नामकामयाबी का मतलब था कि दुनिया के अधिकांश देश इस महामारी को रोकने के लिए गंभीर रूप से तैयार नहीं थे। पृथ्वी पर कोई भी देश असमानता घटाने के लिए पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहा था, और आम लोग इस खतरे की तकलीफ भुगत रहे हैं। करोड़ों लोगों को गरीबी और भुखमरी में धकेल दिया गया है, और अनगिनत अनावश्यक मौतें हुई हैं। चूंकि अब भारत में तो किसी किस्म के आर्थिक आंकड़ों का चलन खत्म किया जा रहा है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों को देखकर ही हम अपने को आईने में देख सकते हैं। यह रिपोर्ट कहती है कि नाइजीरिया और बहरीन जैसे देशों के साथ भारत असमानता से निपटने में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में रहा। बजट के अनुपात में स्वास्थ्य के लिए रखे गये हिस्से के मामले में भारत दुनिया में नीचे से चौथा है, और यहां की आधी आबादी के पास ही बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच है। असमानता दूर करने के बजाय, पहले से चले आ रहे बेइंसाफ मजदूर कानूनों को ठीक करने के बजाय भारत में कई राज्य सरकारों ने लॉकडाऊन और कोरोना के नाम पर न्यूनतम वेतन कानून निलंबित किया, और रोज काम के घंटे 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे तक किए।
ऐसा नहीं है कि एक अंतरराष्ट्रीय संगठन ही भारत को आईना दिखा रहा है। इस देश के वामपंथी दल मजदूर कानूनों के खिलाफ पहले से आंदोलन कर रहे थे, और कोरोना-लॉकडाऊन के बहाने मजदूर-कर्मचारियों पर हुए केन्द्र-राज्यों के हमलों के खिलाफ भी उन्होंने लगातार आवाज उठाई है। लेकिन चूंकि अब देश में किसी की भी कोई आवाज रह नहीं गई है, इसलिए भारत में तो वामपंथियों को अनसुना कर दिया गया, अब अंतरराष्ट्रीय मंच से यह तस्वीर सामने आ रही है। हिन्दुस्तान के इतिहास में एक सोने की चिडिय़ा की कल्पना या कहानी जिन लोगों को खुश करती है, उन लोगों को यह भी देखना चाहिए कि पड़ोस का गरीब बांग्लादेश 158 देशों की इस फेहरिस्त में भारत के मुकाबले बहुत बेहतर है। भारत 129वें नंबर पर है, और बांग्लादेश 113वें नंबर पर है। बांग्लादेश ने सेहत और इलाज के मोर्चे पर काम करने वाले सबसे नीचे के कर्मचारियों को बड़ा बोनस भी दिया है, और इसे पाने वालों में अधिकांश महिलाएं हैं। ऑक्सफैम के इस अध्ययन का कहना है कि बहुत अधिक असमानता को दूर करने के लिए किसी देश का घनी होना जरूरी नहीं है, किसी भी देश में सामाजिक सुरक्षा, अच्छी मजदूरी, और जायज टैक्स की व्यवस्था से भी असमानता को कम किया जा सकता है। इस संस्था का निष्कर्ष है कि असमानता को दूर करने में विफलता एक राजनीतिक फैसला रहता है जिसे कि कोरोना ने अधिक भयानक हद तक उजागर किया है।
इस बात को समझना इसलिए भी जरूरी है कि देश के संपन्न या विपन्न होने से वहां के लोगों के बीच आर्थिक असमानता की खाई का अधिक लेना-देना नहीं रहता है। अगर सरकार की नीतियां जनकल्याण की रहें तो एक गरीब देश में भी गरीबी और बहुत गरीबी के बीच फासला घट सकता है, और लोगों के बीच अधिक बराबरी आ सकती है। वरना हिन्दुस्तान तो एक भयानक मिसाल है ही जहां किसी कंपनी में तकरीबन हर दिन 5 हजार करोड़ रूपए का पूंजीनिवेश दूसरे देशों से आ रहा है, और सडक़ किनारे सामान बेचकर जिंदा रहने वाले लोग फटेहाली में पहुंच चुके हैं।
आज दिक्कत यह है कि भारत की राजनीतिक ताकतों में गिनी-चुनी पार्टियां ही ऐसी बची हैं जो आर्थिक मुद्दों को लेकर बारीकी से अध्ययन करती हैं, और गंभीरता से सोचती हैं। देश की अधिकतर जनता को ऐसी सार्वजनिक बकवास में उलाझकर रख दिया गया है कि उसे अपनी भूख से अधिक फिल्मी सितारों के नशे की फिक्र हो रही है। और बहुत पहले से लोकतंत्र के बारे में जो कहा जाता है वही बात यहां लागू होती है कि किसी भी देश की जनता वैसी ही सरकार पाती है जैसी सरकार पाने की वह हकदार रहती है।
हिन्दुस्तान की इस नौबत का क्या होगा? क्या इस देश को इस बात की शर्म आएगी कि वह 3-4 हजार करोड़ की एक-एक प्रतिमा बनाने के बाद भी दुनिया के आखिरी 25 देशों में गिना जा रहा है। जहां आज भी पढ़ाई और इलाज का सबसे बड़ा इंतजाम नेहरू के बनवाए हुए एम्स और आईआईएम, आईआईटी के ढांचे पर टिका हुआ है। ऐसे देश में लोग आज अपने नामौजूद काल्पनिक इतिहास के गर्व में महज गोमूत्र पीकर जी सकते हैं। ऐसी नौबत में क्या किसी अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के आंकड़े यहां के लोगों को शर्मिंदगी में डाल पाएंगे, या फिर सबसे पसंदीदा तर्क एक बार फिर काम आएगा कि यह भारत को बदनाम करने के लिए ईसाई देशों के एनजीओ की साजिश है?
दिल्ली में पिछले बरस शाहीन बाग आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है कि सार्वजनिक जगहों को किसी प्रदर्शन के लिए बेमुद्दत नहीं घेरा जा सकता। यह प्रदर्शन नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ पुरानी दिल्ली के बीच व्यस्त इलाके में चल रहा था, और महीनों तक चलते रहा। इसी आंदोलन का चेहरा बनी एक बुजुर्ग महिला को ‘टाईम’ पत्रिका ने पिछले बरस के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक चुना है। यह आंदोलन कई मायनों में अनोखा रहा, महीनों तक चलते रहा, आरोप झेलते रहा, उकसावे और भडक़ावे पर भी इसने आपा नहीं खोया, पूरी तरह अहिंसक रहा, और मोटेतौर पर मुस्लिम समुदाय के लोगों के इस आंदोलन का साथ देने के लिए देश के बाकी दूसरे सभी समुदायों के लोग पहुंचे, और एक वक्त तो ऐसा भी हुआ कि इन्हें खाना खिलाने का काम सिक्ख बिरादरी कर रही थी। यह बात सही है कि इससे आसपास के रास्ते बंद हुए थे, और आवाजाही बंद होने से इर्द-गिर्द के लोगों का कारोबार, उनकी जिंदगी भी प्रभावित हुए ही होंगे। यह आंदोलन खत्म हो चुका है, हालांकि इसका मुद्दा खत्म नहीं हुआ है। यह आंदोलन तमाम किस्म की तोहमतें झेलते हुए चलते रहा, और इन्हें कभी राष्ट्रविरोधी करार दिया गया, तो कभी विदेशी पैसों पर पलने वाले गद्दार कहा गया, लेकिन गांधी के आंदोलन की तरह इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत इसकी अहिंसा रही, जिसने एक हाथ भी नहीं उठाया।
शाहीनबाग का आंदोलन कोई स्थाई ढांचा नहीं था। और लोकतंत्र में आंदोलन सार्वजनिक जगहों पर ही होते हैं। पश्चिम बंगाल एक ऐसा राज्य है जहां वामपंथियों से लेकर ममता बैनर्जी तक की एक-एक सभा में 10-10 लाख लोग भी मौजूद रहते आए हैं, और ऐसी हर सभा वहां सडक़ पर ही होती है क्योंकि कोई मैदान तो इतना बड़ा होता नहीं है। देश के हर प्रदेश में जब जिस राजनीतिक दल या धार्मिक, जातीय संगठन की जितनी ताकत होती है, उतना बड़ा, उतना लंबा प्रदर्शन होता है, और इसी देश में हमने महीनों तक पटरियों पर धरना देखा है जिससे रेलगाडिय़ां बंद करनी पड़ी थीं। कई जगहों पर कई-कई दिन तक सडक़ें बंद कर दी जाती हैं, और आंदोलन से जिंदगी में कुछ रूकावट पैदा होना कोई अनहोनी नहीं है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से शाहीनबाग का आंदोलन न तो गैरकानूनी साबित हुआ है, और न ही गलत साबित हुआ है। सुप्रीम कोर्ट ने एक स्थापित सत्य को ही लिखा है कि सार्वजनिक जगहों पर आंदोलन अंतहीन नहीं चल सकते, और प्रशासन इन पर कार्रवाई कर सकता है। अदालत ने एक पुराना स्थापित सिद्धांत भी दुहराया है कि लोकतांत्रिक अधिकार जिम्मेदारियों के साथ ही आते हैं, और सार्वजनिक जगहों को लेकर आंदोलनकारियों की भी एक जिम्मेदारी बनती है।
बात सही है, और शाहीनबाग का आंदोलन भी सही था, और सार्वजनिक जगह पर इसे अंतहीन न चलने देना भी सही है। लोकतंत्र एक लचीली व्यवस्था है जिसके भीतर तरह-तरह के आंदोलनों की गुंजाइश है। ऐसे आंदोलनों में कानून न सही स्थानीय नियम कभी-कभी टूटते हैं, और भला कौन सी ऐसी पार्टी है, कौन से ऐसे नेता हैं जिन पर आंदोलनों में नियम तोडऩे के मामले मुकदमे दर्ज न हुए हों? अभी राहुल और प्रियंका गांधी जिस तरह पुलिस इंतजाम के बीच से हाथरस जाने की कोशिश कर रहे थे, उनके खिलाफ भी यूपी पुलिस ने कई किस्म के मामले दर्ज किए हैं, जिनमें से एक दफा महामारी के बीच भीड़ जुटाने की भी है। दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में रोजाना ही सत्तारूढ़ भाजपा की भीड़ दिखाई पड़ती है, और जिस राज्य में जिसकी लाठी रहती है वे सार्वजनिक जीवन की भैंस को अपने हिसाब से हांकते हैं। लेकिन सत्ता और राजनीति से परे भी सार्वजनिक जगहों के बारे में कुछ सोचने की जरूरत है।
जिस अमरीका में लोकतांत्रिक अधिकारों को लेकर लोगों में एक दीवानापन है, जहां लोग मास्क पहनने के बजाय उसे जलाना अपना बुनियादी संवैधानिक हक मानते हैं, और उसका इस्तेमाल करते हैं, वहां पर सार्वजनिक जगहों को लेकर एक मतभेद चलते ही रहता है। वहां बहुत से बाग-बगीचों में बेघर लोग डेरा डाल लेते हैं, और फिर वहां से हिलते ही नहीं। ऐसे में वहां कई बार यह बहस छिड़ती है कि सार्वजनिक जगहों पर पहला हक किसका? जिस इस्तेमाल के लिए जगह बनी है वह इस्तेमाल करने वाले नागरिकों का, या फिर जिनके पास घर नहीं है उनके बसने का? अलग-अलग राज्यों में, अलग-अलग शहरों में वहां पर अलग-अलग सोच के लोग हैं, और जहां वामपंथी रूझान के लोग हैं, या जहां उदार लोकतांत्रिक सोच है वहां लोग सार्वजनिक जगहों पर वंचित तबके का पहला हक मानते हैं, वे मानते हैं कि घर-बार वाले लोगों का बाग-बगीचों में घूमना उतना जरूरी नहीं है जितना जरूरी बेघर लोगों का ठहरना है। इस बात की चर्चा हम शाहीनबाग के संदर्भ में नहीं कर रहे हैं, बल्कि सार्वजनिक जगहों के तरह-तरह के इस्तेमाल की जिम्मेदारी, और इस्तेमाल के हक की विविधता बताने के लिए एक मिसाल के रूप में कर रहे हैं। हिन्दुस्तान में ऐसा ही चौराहों पर भीख मांगने, या सामान बेचने वाले लोगों के लिए सोचा जाता है कि ट्रैफिक के बीच यह काम उनका हक है, या उन्हें इस काम से रोकना चाहिए? फुटपाथ पर जीने वाले, या रेलवे प्लेटफार्म पर जीने वाले लोगों को हटाया जाना चाहिए, या किसी भी सरकारी जगह पर सिर छुपाने का उनका हक सरकार के हटाने के हक से अधिक बड़ा है? ऐसी कई बातें सार्वजनिक जीवन को लेकर सामने आती हैं, और कोई सभ्य और लोकतांत्रिक समाज इन पर गौर किए बिना नहीं रहता। जो समाज जितना अधिक सभ्य रहता है, वह अपने बीच के वंचितों के मुद्दों पर उतना ही अधिक गौर करता है। और जो समाज जितना असभ्य, अपरिपक्व, और अलोकतांत्रिक रहता है, वह अपने बीच के वंचितों को एक आम नागरिक या इंसान मानने से भी मना कर देता है, और उन्हें संपन्न और संचित समाज की नजरों से भी दूर रखने की कोशिश करता है। यह महज मोदी का गुजरात नहीं था जहां ट्रंप के आने पर सडक़ किनारे की झोपड़पट्टियों को छुपाने के लिए ऊंची दीवार ही खड़ी कर दी गई थी, जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉन मेजर बंगाल आए थे, तो वहां की वामपंथी सरकार ने भी राजधानी कोलकाता से लाखों भिखारियों और बेघर लोगों को सार्वजनिक फुटपाथ से हटाकर शहर के बाहर कर दिया था। इसलिए राजनीतिक सोच एक किस्म की हो सकती है, और उसी पार्टी की सरकार की सरकारी सोच एक अलग किस्म की हो सकती है। कुल मिलाकर सार्वजनिक जीवन में, सार्वजनिक जगहों पर आम लोगों या आंदोलनकारियों के अधिकार कैसे रहें, कितने रहें, दूसरे लोगों के मुकाबले कम रहें, या ज्यादा रहें, इन तमाम बातों पर उस देश-प्रदेश की सरकारों और वहां के समाज को सोचना पड़ता है, सोचना चाहिए।
हमारा तो यह मानना है कि शाहीनबाग के आंदोलन में 21वीं सदी में गांधी के अहिंसक आंदोलन की मिसाल को एक बार फिर जिंदा किया, और देश के बाहर की एक पत्रिका ने उस आंदोलन की ताकत को पहचाना, उसका सम्मान किया। इस जगह पर यह लिखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि इसी पत्रिका के इसी अंक की इसी लिस्ट में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी सबसे असरदार लोगों में छांटा गया है, लेकिन उन्हें छांटने की वजहों में इस पत्रिका ने उनके बारे में जितनी नकारात्मक बातें लिखी हैं, उनसे लगता है कि खुद मोदी यह सोच रहे होंगे कि खलनायक साबित करने के लिए इस पत्रिका को क्या वे ही मिले थे? जब मोदी और शाहीनबाग आंदोलन की 80 बरस की आंदोलनकारी बिल्किस बानो दोनों को एक फेहरिस्त में साथ रखा गया है, तो लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि एक सार्वजनिक जगह पर 101 दिन चले आंदोलन के बाद भी इस पत्रिका को यह महिला नायिका लगी। किसी सार्वजनिक जगह के इस्तेमाल को, उसके पीछे की नीयत को देखे बिना उसे सही या गलत करार नहीं दिया जा सकता। जम्मू में एक खानाबदोश बच्ची के साथ मंदिर में पुजारी और पुलिस समेत ढेर लोगों द्वारा किए गए बलात्कार और कत्ल के बाद भी उन्हें बचाने के लिए उनके हिमायती लोगों ने जिस तरह तिरंगा झंडा लेकर सडक़ों पर जुलूस निकाले थे, वे जुलूस शायद कुछ घंटों के ही रहे होंगे, लेकिन वे इस देश के सार्वजनिक जगह पर शाहीनबाग के मुकाबले लाख गुना अधिक बोझ थे। शाहीनबाग तो इस देश के लोकतंत्र का सम्मान बढ़ाने वाला आंदोलन था, और कोई अदालत इस बात का जिक्र अपने फैसले में करे, या न करे, यह तो उस जज, या उस बेंच की लोकतांत्रिक समझ की बात है, हम किसी जज के मुंह में अपने शब्द डालना नहीं चाहते, लेकिन इस फैसले पर लिखने के वक्त हम इस आंदोलन की खूबियों को याद करना जरूरी समझते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हाथरस में दलित युवती के साथ गैंगरेप के बाद उसे बुरी तरह जख्मी किया गया था जिससे अस्पताल में उसकी मौत हो गई थी। रात में ही पुलिस ने दिल्ली के अस्पताल से उसकी लाश ले ली थी, और उसके गांव ले जाकर घरवालों के कड़े विरोध के बावजूद खुद ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। अब जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है तो उत्तरप्रदेश सरकार वहां पर एक ऐसी फिल्मी कहानी सुना रही है जैसी इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के लिए उसके पहले सुनाई थी। इंदिरा गांधी ने भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए विदेशी ताकतों की साजिश की बात कही थी, और इसके पीछे विदेशी हाथ बताया था। आज यूपी के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार अदालत को कुछ वैसी ही कहानी सुना रही है।
आज सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि इस युवती का अंतिम संस्कार रात में इसलिए किया गया क्योंकि युवती और आरोपी, दोनों के समुदायों के लाखों लोग राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ उसके गांव में इकट्ठा होंगे जिससे कानून व्यवस्था को लेकर बड़ी समस्या हो जाती। सरकार ने अदालत से कहा कि जातिगत विभाजन से उत्पन्न संभावित हिंसक स्थिति के अलावा दाह संस्कार जल्दी करने के पीछे कोई बुरा इरादा नहीं हो सकता।
उत्तरप्रदेश सरकार का यह हलफनामा पता नहीं सुप्रीम कोर्ट के जजों को कितना जंचेगा, हमको पहली नजर में यह फर्जी तर्कों से भरा हुआ एक गुब्बारा दिख रहा है जिसका वजन हवा के गुब्बारे जितना भी नहीं लग रहा। जिन लाखों लोगों के इकट्ठा होने की खुफिया सूचना की बात यूपी सरकार ने की है, उनमें से कुछ सौ लोग अगले दिन बलात्कार के आरोपियों के हिमायती होकर वहां के शायद एक भाजपा विधायक के घर पर इकट्ठा हुए थे, और पुलिस घेरे में बैठकर दलित परिवार को धमकियां देते हुए ऊंची कही जाने वाली जाति के एक नौजवान का वीडियो चारों तरफ घूम रहा है। इसके अलावा कोई तनाव वहां अभी तक नहीं हुआ है, बल्कि जिले की सरहद पर भी बाहर से मीडिया या चुनिंदा नेताओं-सांसदों के अलावा कोई पहुंचे हों ऐसी भी कोई खबर नहीं है।
यूपी सरकार के खिलाफ जो भी वकील वहां खड़े होंगे, वे इस बात को सामने रखें या नहीं, हमारी जैसी साधारण कानूनी समझ वाले लोगों को भी यह बात सूझ रही है कि हड़बड़ी में बंदूक की नोंक पर रातों-रात अंतिम संस्कार करने के पीछे सरकार की बहुत साफ बदनीयत यह थी कि उस लडक़ी का दुबारा पोस्टमार्टम न हो सके। पहले के पोस्टमार्टम के नमूने इकट्ठे करने में यूपी पुलिस ने कानून में निर्धारित समय के मुकाबले चार गुना अधिक समय लगाया ताकि बलात्कार के सुबूत ही जांच में न मिल सकें। इसके बाद यूपी पुलिस का एक सबसे बड़ा अफसर प्रेस कांफ्रेंस लेकर यह तर्क देता है कि उस लडक़ी के बदन से चूंकि वीर्य नहीं मिला, इसलिए उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ। यह बात नहीं है कि उस पुलिस अफसर को इतनी कानूनी अक्ल नहीं थी, या इतनी कानूनी जानकारी हासिल नहीं थी कि बलात्कार को मानने के लिए किसी भी मेडिकल जांच की जरूरत नहीं है, बस लडक़ी का बयान काफी था। इसके बावजूद बलात्कार की शिकार इस लडक़ी का अपमान करते हुए, दलित समाज का अपमान करते हुए, घायल और दुखी परिवार को और चोट पहुंचाते हुए इस अफसर ने ऐसा घटिया और गंदा बयान दिया, सोच-समझकर दिया, और मीडिया का जो बड़ा हिस्सा इस बदनामी से यूपी सरकार को बचाने में लगा हुआ है उसने हाथोंहाथ इस बयान को लपका, और इसे दिखाते रहा।
अब जब पुलिस और सरकार इस मामले में बहुत बुरी तरह घिर चुके हैं, जब कांग्रेस पार्टी के राहुल और प्रियंका यूपी जाकर, पुलिस का सामना करके, उसकी धक्का-मुक्की झेलकर दुखी दलित परिवार में हमदर्दी दिखाकर लौट चुके हैं, देश के सोशल मीडिया के एक बड़े तबके में राहुल-प्रियंका की तारीफ हो रही है, तब यूपी सरकार डैमेज कंट्रोल की नीयत से एक नई साजिश की कहानी रचने में लग गई है। अब एक किसी फर्जी वेबसाईट का हवाला देते हुए यह कहानी गढ़ी जा रही है कि इस्लामी देशों के आतंकी संगठन इस मामले को लेकर यूपी सरकार पलटने के लिए साजिश रच रहे थे, और यूपी की पुलिस ने इस साजिश को पकड़ लिया है। ऐसी कहानी किसी छोटे बच्चे को भी भरोसा नहीं दिला पाएगी कि अनगिनत मुस्लिम लड़कियों या महिलाओं से बलात्कार, अनगिनत मुस्लिम हत्याओं के बाद भी ऐसे किसी इस्लामी आतंकी संगठन को यूपी सरकार पलटने की जरूरत नहीं लगी थी, और आज एक दलित लडक़ी की बलात्कार-हत्या पर इस्लामी आतंकी संगठन इतने विचलित हो गए हैं कि वे इसकी वजह से यूपी सरकार पलटने की आतंकी साजिश रच रहे हैं। दुनिया में ऐसे कौन से आतंकी संगठन है जो कि सरकार को पलटने की साजिश रचने के लिए ऐसी वेबसाईट बनाते हैं? और कौन से आतंकी संगठन है जिनका भरोसा सरकार को पलटने में होता है? देश के भीतर के नक्सली-संगठनों से लेकर अलकायदा और आईएएस तक कौन सा संगठन इतना बेवकूफ है कि वह यूपी की सरकार को पलटने की सोचेगा।
अब यह सुप्रीम कोर्ट पर है कि उसे ऐसी घटिया फिल्मी कहानी सरकार के जुर्म माफ करने लायक लगती है या नहीं जिस पर बॉलीवुड में भी योगी सरकार के प्रशंसक कोई फिल्म बनाने का दुस्साहस नहीं कर पाएंगे। यह सिलसिला योगी सरकार की गलतियों और गलत कामों दोनों को बढ़ाते चल रहा है। जब देश के सबसे बड़े प्रदेश का सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री, अपनी पार्टी की केन्द्र सरकार के रहते हुए, देश में अपनी पार्टी सबसे ताकतवर रहते हुए भी ऐसी अधकचरी हरकतों में अपने अफसरों के साथ जुट गया है, तो वह और बड़ी शर्मिंदगी लेकर आने की बात है। सरकार ने तो यह बलात्कार किया नहीं था, आरोपों के मुताबिक ऊंची कही जाने वाली जाति के चार युवकों ने एक दलित युवती के साथ इसे किया था। यूपी सरकार के लिए समझदारी की बात यही हुई होती कि वह इसे अपनी एक नाकामयाबी मान लेती, और कड़ी कार्रवाई करती। उससे उस पर से आगे की तोहमतें तो नहीं आई होतीं। लेकिन जिस तरह पिघले गुड़ मेें फंस गई मक्खी निकलने के चक्कर में अपने आपको और फंसाते चलती है, उसी तरह यूपी की योगी सरकार इस दलदल में और गहरे धंसते जा रही है। इससे देश भर में दलितों के बीच एक अलग भावनात्मक ध्रुवीकरण की नौबत भी आई है, और यह भी नहीं कहेंगे कि भाजपा को इसके खतरे का बिल्कुल अहसास नहीं है। आने वाले दिनों में जख्मी दलितों का ध्रुवीकरण किस तरह चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है यह तो देखने की बात रहेगी, लेकिन हम चुनाव से परे भी इंसानियत के नाते योगी सरकार को सुझाना चाहते हैं कि वह जख्मी परिवार और जख्मी बिरादरी के साथ तोहमतों के मार्फत बलात्कार जारी न रखे, और इंसानियत दिखाए।
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अमरीका के एक बड़े फौजी अस्पताल में कोरोना का इलाज करा रहे राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने आज सुबह एक अनोखा काम किया। वे अस्पताल से एक कार में निकले, और बाहर खड़े अपने समर्थकों की भीड़ की तरफ हाथ हिलाया, और वापिस अस्पताल चले गए। हाथ हिलाने की इस हरकत में वैसे तो एक मिनट लगा, लेकिन जानकार विशेषज्ञ डॉक्टरों का कहना है कि ऐसा करते हुए ट्रंप ने अपने सुरक्षा कर्मियों, और कार के ड्राइवर सबकी जिंदगी संक्रमण के खतरे में डाल दी। इस अस्पताल में जरूरत पर बुलाए जाने वाले एक विशेषज्ञ डॉक्टर ने अपने नाम से ट्रंप की इस हरकत को पागलपन करार दिया है। लोगों को याद होगा कि ट्रंप के करीबी दायरे में अभी कई लोग कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, और उनकी भतीजी ने अभी यह कहा है कि अमरीका कोरोना के मोर्चे पर इस बुरे हाल में इसलिए है कि उसके चाचा बीमारी को माफ न करने लायक कमजोरी मानते हैं।
ट्रंप की यह हरकत लोगों को चाहे कितनी गैरजरूरी लग रही हो, यह उनकी एक चुनावी जरूरत हो सकती है क्योंकि अमरीका चुनाव प्रचार से गुजर रहा है, और टं्रप उम्मीदवार हैं। दूसरी बात यह भी कि चुनाव के महीनों में अमरीका में रोज होने वाले सर्वे में ट्रंप अपने विरोधी डेमोक्रेट उम्मीदवार से खासे पिछड़ते भी दिख रहे हैं। ट्रंप के इतने बरसों के बयान पढ़ें, तो वे अहंकार में डूबे हुए महत्वोन्मादी के बयान लगते हैं जो कि पागलपन की हद तक आत्मकेन्द्रित है। ट्रंप एक निहायत असामान्य दिमागी हालत के इंसान दिखते हैं, लेकिन अमरीका ने उनके ऐसे ही दिखते हुए उन्हें पहली बार राष्ट्रपति चुना था, और आज ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि उनकी कम से कम ऐसी किसी बात की वजह से अमरीकी वोटर उन्हें खारिज करें। वे कुख्यात बदचलन थे, महिलाओं के लिए उनके मन में परले दर्जे की घटिया हिकारत थी, आज भी है, लेकिन वोटरों ने उन्हें चुना था। इसलिए आज वे अपने आपको बीमारी के शिकंजे से बाहर दिखाने के लिए, अपने प्रशंसकों और भक्तों को खुश करने के लिए, उनका आत्मविश्वास बनाए रखने के लिए अगर अस्पताल के बिस्तर पर पूरी तरह आइसोलेशन में रहने के बजाय वहां से निकलकर ऐसी मटरगश्ती कर रहे हैं, तो यह उनके मिजाज के माफिक बात ही है, इसमें किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।
हमारा ख्याल है कि अमरीकी राष्ट्रपति तो अपनी अहमियत की वजह से इस बात को लेकर खबरों में अधिक आ गए हैं, वरना हम हिन्दुस्तान को देखें जहां महामारी का कानून बहुत कड़ी सजा का इंतजाम लिए बैठा है, यहां भी बड़े और छोटे सभी किस्म के नेता, और दूसरी ताकतों वाले लोग नियमों के लिए, संक्रमण की सावधानी के लिए इसी किस्म की लापरवाही दिखा रहे हैं, और हिकारत दिखा रहे हैं। हिन्दुस्तान में नेता और अफसर कदम-कदम पर नियमों को तोड़ते दिख रहे हैं, जिनके हाथ में पैसों की ताकत है वे महामारी के बीच भी, लॉकडाउन के चलते हुए भी पार्टियां कर रहे हैं, शराबखाने चला रहे हैं, और उन्हें किसी किस्म का कोई डर भी नहीं है।
जिस वक्त कोरोना शुरू हुआ, उस वक्त भी हिन्दुस्तान का तजुर्बा यही है कि इसे पासपोर्ट वाले बाहर से लेकर आए, और यहां राशन कार्डवालों को थमा दिया। यह अमीरों की लाकर गरीबों को दी गई बीमारी है, जिसका हिन्दुस्तान के बाहर से आना ही रिकॉर्ड में दर्ज है। लोगों को याद होगा कि यही ट्रंप, अपने इसी महत्वोन्माद के चलते हुए, ऐसे ही चुनाव प्रचार की नीयत से हिन्दुस्तान के गुजरात में मोदी के न्यौते पर आया, और अमरीका में बसे प्रवासी हिन्दुस्तानियों के समर्थन की अपील करते हुए लौटा। लेकिन इस अकेले कार्यक्रम, नमस्ते ट्रंप, की वजह से गुजरात और अहमदाबाद में कोरोना आसमान तक पहुंचा, और देश में सबसे बुरी हालत इसी एक शहर में हुई। वह पूरा जलसा गैरजरूरी था, उस भीड़ की मौजूदगी लोगों पर खतरा थी, उस एक कार्यक्रम के लिए अमरीका से दसियों हजार लोग पहुंचे थे, और लोगों ने लगातार हिन्दुस्तानी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस कार्यक्रम को रद्द करने के लिए कहा था। लेकिन दुनिया के सबसे ताकतवर ओहदे पर बैठे हुए ट्रंप के साथ ऐसा घरोबा दिखाने का मौका मोदी भी नहीं छोड़ पाए, और उन्होंने हिन्दुस्तान के अनगिनत लोगों की राय और चेतावनी अनसुनी और खारिज कर दी, और यह कार्यक्रम किया। वह भी ट्रंप के चुनाव अभियान का हिस्सा कहा गया, और अभी जब वे अस्पताल के बिस्तर से निकलकर समर्थकों को दर्शन देकर लौटे, तो भी पूरी दुनिया के सामने यह साफ है कि वे चुनाव प्रचार कर रहे थे।
आज दुनिया के जिन देशों में शासन-प्रमुख तानाशाही मिजाज के हैं, जहां वे अकेले फैसले लेते हैं, वहां पर कोरोना का नुकसान सबसे अधिक हुआ है। जहां मुखिया ने विशेषज्ञों की बात नहीं सुनी, जानकारों की चेतावनी नहीं सुनी, लोगों की सलाह नहीं सुनी, वहां पर नुकसान सबसे अधिक हुआ है। ऐसे आधा दर्जन देशों में अमरीका का नाम भी गिना जाता है, और हिन्दुस्तान का भी।
यह बात जाहिर है कि किसी भी जगह के डॉक्टर अस्पताल में भर्ती मरीज को इस तरह का कार का फेरा लगाने की छूट तो दे नहीं सकते, और यह बात राष्ट्रपति की मनमानी के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती। लेकिन अपने समर्थकों के बीच हाथ हिलाने, हाथ हिलाते हुए तस्वीरें खिंचवाने, और उसे फैलाकर चुनावी या राजनीतिक फायदा पाने के मिजाज से संक्रामक रोग का खतरा कितना बढ़ रहा है, आसपास के लोग कितने खतरे में पड़ रहे हैं, इसे लेकर अमरीकी मीडिया कुछ मिनटों के भीतर ही ट्रंप के पीछे लग गया है। सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे इंसान की लापरवाही की मिसाल नीचे चारों तरफ लोगों को लापरवाह करेगी, यह तय है। और यह बात महज अमरीका पर लागू नहीं होती, दुनिया के तमाम देश, और उनके प्रदेशों पर भी बराबरी से लागू होती है।
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आज उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में बलात्कार की वारदातें एक के बाद एक सामने आ रही हैं, और उन्हें लेकर बहुत चर्चा भी हो रही है कि किस तरह ऊंची जाति या सत्ता की ताकत से ये बलात्कार हो रहे हैं, या बलात्कारी बच रहे हैं। ऐसे में पूरे देश के जिम्मेदार और संवेदनशील लोग भडक़े हुए हैं, वे आहत हैं, तनाव में हैं, और सोशल मीडिया पर लगातार अपनी सोच लिख भी रहे हैं। ऐसे में उत्तरप्रदेश का एक भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह लगातार ऐसे बयान दे रहा है जो उसे विधायक तो दूर, मतदाता भी बनाए न रखने के लायक साबित कर रहे हैं। उसका एक वीडियो अभी सामने आया है जिसमें वह हाथरस की इस दलित लडक़ी के साथ गैंगरेप और उसकी हत्या, और उसे सरकारी बंदूकों की नोंक पर रफा-दफा करने की पूरी कोशिश के बाद भी यह कह रहा है कि सरकार और तलवार मिलकर भी बलात्कार नहीं रोक सकते, और मां-बाप अपनी लड़कियों को संस्कार दें तो ही बलात्कार रोके जा सकते हैं। जिस व्यक्ति की इंसानियत की समझ ऐसी हैवानियत भरी हुई हो वह उत्तरप्रदेश में कानून निर्माता विधायक है। इसी विधायक का दूसरा वीडियो सामने आया है जिसमें वह बलात्कार की किसी दूसरी वारदात को लेकर पूछे गए सवालों के जवाब में मीडिया से ही बार-बार पूछ रहा है कि क्या तीन-चार बच्चों की किसी मां से भी कोई बलात्कार करेगा? और यह बात वह अपने खुद के शादीशुदा होने की बात कहते हुए अपने तजुर्बे के साथ, और दावे के साथ कह रहा है।
क्या देश में मौजूदा कानूनों में से कोई भी ऐसी घटिया, नाइंसाफ, और हिंसक सोच रखने वाले को विधानसभा की सदस्यता से हटाने के लिए नहीं हैं? अगर नहीं हैं, तो यह लोकतंत्र कमजोर है। ऐसे आदमी से मतदान का हक भी छीनना चाहिए क्योंकि वह तो बलात्कारी को वोट देगा क्योंकि गुनहगार तो संस्कारहीन लड़कियां होंगी, या कुछ बच्चों की मां बन चुकी ऐसी महिला होगी जो कि बलात्कार का झूठा आरोप ही लगा सकती है क्योंकि वह तो बलात्कार के लायक रह नहीं गई है।
हैरानी इस बात पर भी होती है कि ऐसे खुले वीडियो इस आदमी की ऐसी बातें पहली बार नहीं बता रहे हैं, पहले भी यह ऐसी ही हिंसक और बेइंसाफ बातें कहते आया है, और देश-प्रदेश के महिला आयोग सुविधाओं की मलाई का कटोरा चट करते हुए ऐसे लोगों को कोई नोटिस तक नहीं भेजते हैं। अभी बहुत समय बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट इंसाफ के लिए एक पहल करते दिखा जिसमें उसने हाथरस के गैंगरेप, हत्या, और उसके बाद पुलिस गुंडागर्दी से परिवार बिना उसके अंतिम संस्कार को लेकर सरकार से जवाब मांगा है, और जुड़े हुए अफसरों को अदालत में पेश होने कहा है। कानून की शून्य समझ वाले, यूपी के कानून-व्यवस्था के एडीजी को भी अदालत में नोटिस भेजकर बुलाया है, जिसने प्रेस कांफ्रेंस लेकर यह घोषणा की थी कि इस दलित युवती के बदन में वीर्य नहीं मिला है, इसलिए उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ है। यह देश के कानून के ठीक खिलाफ बात थी, और हाईकोर्ट ने शायद इस बात को लेकर पेश होने कहा है। हमारा ख्याल है कि यूपी के इस भाजपा विधायक सुरेन्द्र सिंह की बातें संविधान के जितने खिलाफ हैं, इंसानियत और इंसाफ के जितने खिलाफ हैं, इस विधायक की भी पेशी होनी चाहिए, और कहीं न कहीं से यह बात उठनी चाहिए कि संविधान और इंसानियत के खिलाफ हिंसक बातें संसद या विधानसभा की सदस्यता खत्म करने के लिए काफी बनाई जाएं।
यूपी वह राज्य है जहां पहले भी कई सांसद और विधायक, मंत्री और भूतपूर्व मंत्री बलात्कार के मामलों में फंसे हुए हैं, और न सिर्फ बलात्कार, बल्कि बलात्कार के बाद शिकार लडक़ी के परिवार के लोगों को, वकील को मार डालने के मामलों में भी घिरे हुए हैं। ऐसे राज्य में जब सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक ऐसी भयानक हिंसक बातें करते हैं, तो उनसे बलात्कारियों को ही बढ़ावा मिलता है।
लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश के एक भूतपूर्व मंत्री आजम खां ने बलात्कार की शिकार एक लडक़ी की शिकायत को राजनीति कहा था, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे कटघरे में खड़ा करके तब तक मजबूर किया था जब तक उसने अपनी उगली हुई ऐसी तमाम हिंसक बातों को वापिस नहीं निगला था, थूके हुए को चाटा नहीं था तब तक अदालत ने उसे बेबस किया था। यह उसी उत्तरप्रदेश का एक दूसरा मामला है जिसमें एक विधायक लगातार इसी तरह की महिलाविरोधी बकवास कर रहा है, हिंसक बातें कर रहा है, और बलात्कारियों को बेकसूर साबित कर रहा है। ऐसी हिंसक बकवास को अनसुना करना ठीक नहीं है, इसे जेल भेजना चाहिए, और इसके लिए हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर मामला शुरू करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कुछ महीनों से इस देश की मीडिया का सबसे बड़ा हिस्सा मुम्बई के एक अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत को समर्पित रहा। पहली नजर में यह जाहिर तौर पर खुदकुशी का मामला था, लेकिन सुशांत के चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार का होने की वजह से बिहार सरकार इस मौत की जांच में कूद पड़ी, और जब कानूनी रूप से महाराष्ट्र उसका क्षेत्राधिकार नहीं बना तो बिहार सरकार के अनुरोध पर एक अटपटे तरीके से केन्द्र सरकार ने सीबीआई की जांच शुरू करवा दी। अब सीबीआई-जांच के दौरान देश के सबसे बड़े अस्पताल, केन्द्र सरकार के एम्स के डॉक्टरों के एक पैनल ने यह राय दी है कि सुशांत के परिवार और उसके वकीलों का यह आरोप गलत पाया गया है कि सुशांत को जहर दिया गया था, और गला दबाकर मारा गया था। एम्स के दिग्गज डॉक्टरों के पैनल ने सीबीआई को अपनी मेडिको-लीगल राय देकर अपने पास यह केस बंद कर दिया है। इन डॉक्टरों ने मुम्बई के सरकारी अस्पताल के पोस्टमार्टम से सहमति जताई है।
अब जब देश के इस सबसे बड़े, और केन्द्र सरकार के मातहत इस अस्पताल की यह राय आ गई है तो कई सवाल खड़े होते हैं। एक साधारण मौत के मामले में राज्य सरकार के जांच के अधिकार को कुचलते हुए जिस तरह केन्द्र सरकार ने सीबीआई जांच शुरू की थी, वह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में चल ही रहा है, और वहां से क्षेत्राधिकार का मुद्दा तय होना बाकी है। केन्द्र और राज्य के बीच सीबीआई जांच को लेकर टकराव नया नहीं है, और छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्य हैं जिन्होंने सीबीआई के आकर राज्य में जांच करने के अधिकार वापिस ले लिए हैं। अब राज्य सरकार की मर्जी के बिना, उसकी अनुमति के बिना सीबीआई राज्य के दायरे में आने वाले अपराधों या मामलों की जांच नहीं कर सकती। अभी भी सुशांत राजपूत की मौत की जांच को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आना बाकी है कि इस या ऐसे दूसरे मामलों में क्षेत्राधिकार किसका होगा।
अब सवाल यह उठता है कि जहां एक राज्य सरकार का पूरा-पूरा अधिकार था, और उसकी पूरी-पूरी जिम्मेदारी थी, वहां उसे अलग करने के लिए एक इतना बड़ा बवाल खड़ा किया गया जिसने पूरे देश के लोगों का ध्यान देश के जलते-सुलगते जमीनी मुद्दों से अलग करके इस एक मौत की तरफ खींच दिया। अब इस बात का खुलासा तो शायद ही कभी हो पाए कि यह कितना खींचा गया, कितना धकेला गया, हर घंटे मीडिया को हथियार और औजार की तरह कितना चारा पेश किया गया, मीडिया ने किस रफ्तार से उसे खाया, और फिर 24-24 घंटे उसकी जुगाली करते रहा। यह पूरा सिलसिला शायद ही कभी उजागर हो क्योंकि मीडिया जिस तरह एक औजार की तरह मंडी में खड़ा हुआ दिखा, वैसा पहले किसी ने सोचा नहीं था। देश के इतने महीने एक निहायत फर्जी मुद्दे को लेकर गंवाए गए, और शायद सोच-समझकर किए गए ताकि इतने वक्त तक इस देश के बेवकूफ लोगों को उनके खुद के दुख-दर्द का अहसास न हो। यहां पर यह भी समझने की जरूरत है कि चुनाव के मुहाने पर खड़े हुए बिहार में भाजपा ने ऐसे पोस्टर या स्टिकर छपवाए कि सुशांत की मौत को याद रखा जाएगा। यह पूरे का पूरा सिलसिला शुरू से ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की मदद से खड़े किए गए एक बेबुनियाद मुद्दा था। और सच तो यह है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जब दिन में चार-छह घंटे यही मौत दिखा रहा है, उससे जुड़े हुए दूसरे ग्लैमरस स्कैंडल खड़े कर रहा है, उससे जुड़े हुए नशे के मामलों के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी वहां कूद पड़ी है, और एक ऐसा माहौल बनाया गया कि मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री सांस कम लेती है, नशे का धुआं ज्यादा लेती है। यह माहौल कुछ ऐसा भी था कि मानो हिन्दुस्तान में कहीं और कोई नशा नहीं होता, और सुशांत के आसपास के लोग ही नशा कर रहे थे, उसे नशा करवा रहे थे। इस दौरान यह भी याद रखने की बात है कि जिस दिल्ली से जाकर नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डायरेक्टर तक मुम्बई में डेरा डाले बैठे थे, उसी दिल्ली में नशे का जखीरा पकड़ा रहा था, और वहां पर जब्त 160 किलो मरिजुआना में से कुल एक किलो जमा कराकर पुलिसवालों ने 159 किलो बेच मारा। उधर मुम्बई में छांटे गए निशानों से 25-50 ग्राम गांजे की पूछताछ एक राष्ट्रीय मुद्दे की तरह चल रही थी। यह भी याद रखने की बात है कि इसी दौरान भाजपा सरकार वाले कर्नाटक में एक पूरी गाड़ी भरकर गांजे के साथ भाजपा का एक स्थानीय नेता पकड़ाया, लेकिन वह भी एनसीबी के लिए मानो पर्याप्त बड़ा नहीं था क्योंकि उसके साथ बिहार के किसी सपूत की मौत जुड़ी हुई नहीं थी, और कर्नाटक में अभी चुनाव नहीं था।
सुशांत की मौत को लेकर खड़े किए गए इस पूरे बवाल से केन्द्र और राज्य के संबंधों पर भी आंच आती है। जिस तरह बिहार के कल के डीजीपी और आज के राजनीतिक कार्यकर्ता ने इस मामले में ओछी और घटिया बयानबाजी की थी, उससे भी एक राज्य के रूप में बिहार ने भरपूर निराश किया था। अब इस देश में करोड़ों के नशे के रोज के कारोबार को छोडक़र देश की सबसे बड़ी नशाविरोधी जांच एजेंसी एक-एक फिल्म एक्ट्रेस की एक-एक सिगरेट को सूंघते हुए बैठी है, यह देश के लिए एक बहुत ही शर्मनाक नौबत है। सरकार की जांच की सीमित क्षमता होती है, और इस क्षमता को संगठित नशा-कारोबार के पीछे लगाने के बजाय कंगना रनौत नाम की एक अभिनेत्री को नापसंद लोगों के पीछे लगाकर एक बहुत ही बुरी मिसाल पेश की गई है।
इस देश के मूर्ख लोगों को भी यह समझने की जरूरत है कि उनकी अपनी जिंदगी की तकलीफों की तरफ से उनका ध्यान हटाने के लिए किस तरह उन्हें सुशांत की मौत की एक सनसनीखेज अपराधकथा पेश की गई थी, उसमें रोजाना किसी नए ग्लैमर का तडक़ा लगाना जारी रखा गया था, और ईडियट बॉक्स कहे जाने वाले टीवी के सामने वे कैसे ईडियट की तरह बैठकर परोसी हुई गंदगी को चाट रहे थे। जिन लोगों ने भी अपनी जिंदगी के ये महीने इस प्रायोजित मैला-भोज को समर्पित किए हैं, उन्हें अपनी समझ पर शर्म से डूब मरना चाहिए।
अब जब सुशांत राजपूत की मौत निर्विवाद रूप से आत्महत्या साबित हो चुकी है, अब सीबीआई के पास और कोई मेडिको-लीगल विकल्प बचा नहीं है, तो बिहार के चुनाव तक सुशांत राजपूत की लाश का इस्तेमाल और किस तरह हो सकेगा इसके लिए राजनीतिक-कल्पनाशीलता की ऊंचाईयां सामने आना अभी बाकी है। राजनीतिक ताकतों की तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी कहीं-कहीं पर सच को सांस लेने की गुंजाइश मिल जाती है, और इस बार यह ऑक्सीजन एम्स के डॉक्टरों ने दी है। एक वक्त की अपराध-पत्रिका मनोहर कहानियां को इस देश में राष्ट्रीय पत्रिका का दर्जा देना भर बाकी है। अब अगली किसी सनसनी का इंतजार करें, और हमें पूरा भरोसा है कि वह अधिक दूर नहीं है, जल्द ही आपके साथ होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)