संपादकीय
नए साल का मौका एक वक्त तो डायरी कैलेंडर बदलने का रहता था, लेकिन अब तो मोबाइल फोन ने डायरी और कैलेंडर दोनों की जरूरत को खत्म कर दिया है। नतीजा यह है कि शायद ही कोई डायरी और कैलेंडर आते होंगे, या उसका इस्तेमाल करते होंगे। ऐसे में बाकी तमाम चीजें ज्यों की त्यों बनी रहतीं, अगर कोरोना का हमला नहीं हुआ रहता। आज हालत यह है कि बहुत सी जगहों पर सरकारी हुक्म से, और बहुत सी जगहों पर अपनी मर्जी से भी, लोग नए साल के जश्न से दूर हैं। लेकिन फिर भी मोबाइल फोन की मेहरबानी से लोग एक-दूसरे को बहुत से संदेश भेज रहे हैं, और कुछ डिजाइनें घूम-घूमकर बहुत से लोगों की तरफ से आ रही हैं। लोगों के पास वक्त भी कम रहता है और कल्पनाशीलता भी कम, इसलिए लोग किसी की गढ़ी हुई डिजाइन को आगे बढ़ाते रहते हैं, या किसी के बनाए हुए संदेश को। लेकिन यह मौका बहुत से लोग अपने-आपको धोखा देने के लिए भी इस्तेमाल करते हैं। नया साल नए वायदों और नई कसमों का वक्त भी रहता है, और लोग कई किस्म के संकल्प लेते हैं। इनमें से बहुत से संकल्प तो किसी नशे से पीछा छुड़ाने के होते हैं, लेकिन कुछ और खाने-पीने की नुकसानदेह चीजों को छोडऩे के रहते हैं, तो बहुत से उत्साही लोग नए साल से सुबह-शाम की सैर, कसरत, योग, या जिम शुरू करने की कसमें भी खाते हैं। बुरी आदतों को छोडऩा, और अच्छी आदतों को शुरू करना, यह नए साल के मौके पर सबसे लोकप्रिय कसमें रहती हैं, और इन्हीं के मार्फत लोग अपने-आपको धोखा देते हैं। फिर भी दो-चार फीसदी लोग भी अगर इन पर कायम रहते हैं तो वे अपने नए साल को सचमुच चमकता हुआ नया साल बना सकते हैं।
बुरी आदतों को छोडऩा और अच्छी आदतों को शुरू करना, दोनों में से अधिक मुश्किल कौन रहता है, यह सोच पाना आसान नहीं है. हो सकता है कि इन दोनों के बीच कड़ा मुकाबला रहता हो, और एक ड्रॉ की नौबत आती हो। फिर भी इन दोनों की कोशिश करना चाहिए क्योंकि किसी के लिए इन दोनों में से किसी एक ही को छांटने की मजबूरी तो रहती नहीं है, लोग इन दोनों को अगर साथ-साथ करें तो इन्हें खुद एक-दूसरे से बढ़ावा भी मिलता है. हम कुछ तो अपने खुद के तजुर्बे से यह नसीहत देने की हालत में हैं कि जब कभी समझदारी आती है, वह अकेले नहीं आती, सहेलियों के साथ आती है। लोग किसी एक मामले को लेकर जिम्मेदार नहीं होते हैं अगर वह खाने-पीने को लेकर जिम्मेदार बनते हैं, तो वे अपने आप सैर, कसरत या योग के लिए भी जिम्मेदार हो जाते हैं। इसी तरह जो लोग कसरत या योग शुरू करते हैं, वे लोग अपने-आप खाने-पीने को लेकर चौकन्ने हो जाते हैं। और ये दोनों बातें एक-दूसरे से बड़ी गहराई से जुड़ी हुई इसलिए हैं कि एक पर ध्यान देते ही दूसरे का महत्व समझ आने लगता है। इसलिए लोगों को तुरंत ही इन दोनों में से किसी एक को पकडऩा चाहिए तो दूसरी बात अपने-आप साथ चलने लगती है।
आज तो टेक्नोलॉजी की मेहरबानी से बहुत सी चीजें आसान हो गई हैं। तकरीबन हर किसी के हाथ में एक मोबाइल फोन रहता ही है और मोबाइल फोन पर मुफ्त के दर्जनों ऐसे एप्लीकेशन हासिल हैं जो कि आपके पैदल चलने, दौडऩे, या साइकिल चलाने का हिसाब-किताब रखते हैं आपकी रफ्तार बताते हैं, आपकी तय की हुई दूरी बताते हैं, और हर हफ्ते या हर दिन आपके पिछले रिकॉर्ड के मुकाबले ताजा रिकॉर्ड की तुलना करके भी आपके सामने रखते हैं। इसमें कोई खर्च नहीं होता है। एक बार यह सिलसिला शुरू हो जाए तो उत्साह बने रहता है और जो लोग इस सफर पर बढ़ निकलते हैं, उनका यह भी मिजाज होने लगता है कि वे उठते-बैठते दूसरे लोगों से अपने फिटनेस की चर्चा करने लगते हैं। फिटनेस का ख्याल रखते हुए लोगों को यह समझ आता है कि एक दिन पहले खाई हुई मिठाई का नुकसान घटाने के लिए कितने किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा, यह याद आते ही लोगों को हर बार मिठाई सामने आते ही किलोमीटर याद आने लगते हैं। इस तरह खानपान और फिटनेस इन दोनों की एक यारी है जो कि साथ-साथ चौकन्ना होकर चल सकती है, या कि साथ-साथ लापरवाह होकर।
लोगों को नए साल के इस मौके पर हम यही नसीहत या सलाह देना चाहते हैं कि वे अगर अपने खुद पर हर दिन एक-दो घंटे खर्च करने का फैसला लें, तो उनका तन और मन भी ऐसा फैसला लेंगे कि वे उनकी जिंदगी को इन खर्च किए हुए घंटों से कई गुना अधिक बढ़ा दें। इस बात के महत्व को समझने की जरूरत है कि लोग निठल्ले हों, या जरूरत से ज्यादा व्यस्त रहते हों, सबके पास अपने ऊपर खर्च करने के लिए दिन में एक-दो घंटे रहने चाहिए। यह एक किस्म का पूंजी निवेश होता है जिसका नफा कुछ महीनों के भीतर ही बढ़ी हुई ताकत और बढ़ी हुई ऊर्जा की शक्ल में मिलने लगता है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि सेहत का ख्याल न रखने से जितने किस्म की बीमारियां घर कर जाती हैं, वे बीमारियां दिवाला भी निकाल सकती हैं, और दिवाली का मजा भी खत्म कर सकती हैं, जिंदगी की उत्पादकता भी घटा सकती हैं, और उम्र तो घटती ही है। इसलिए अपनी सेहत को बेहतर रखने के लिए हर दिन 1-2 घंटों का पूंजी निवेश सबसे अधिक फायदा देने वाला म्यूच्युअल फंड है, इस बात को याद रखते हुए सुबह-शाम वक्त निकालने का सिलसिला शुरू भर करना होता है, और कुछ ही महीनों में वह जिंदगी का सबसे मजेदार हिस्सा बन जाता है। जो लोग सुबह-शाम पैदल चलना या दौडऩा नहीं करते हैं, जो योग-ध्यान या कसरत नहीं करते हैं, उन्हें यह अंदाज भी नहीं रहता कि यह कोई यातना-प्रताडऩा नहीं है, एक बहुत ही मजे और सुख का सिलसिला है जिसका स्वाद विकसित होने में कुछ महीनों का समय जरूर लग सकता है।
नए साल के इस मौके पर यह भी समझने की जरूरत है कि लोग अपनी अगली पीढ़ी के लिए कारोबार खड़ा कर जाते हैं, मकान बना जाते हैं, गहने और बैंक डिपॉजिट छोड़ जाते हैं। इनमें से कोई भी चीज अगली पीढ़ी के लिए इतने काम की नहीं रहती, जितने काम की उनकी सेहत हो सकती है। और उन पर अच्छी सेहत की कोई भी नसीहत इतना असर नहीं कर सकती जितना कि आप अपनी मिसाल सामने रखकर डाल सकते हैं। जो लोग अपनी फिटनेस और अपनी सेहत पर ध्यान देते हैं, और मेहनत करते हैं, वे अपनी अगली पीढ़ी की बेहतर सेहत की एक किस्म से गारंटी भी कर जाते हैं। परिवार में किसी एक का फिट रहना बाकी लोगों के लिए बिन बोली चुनौती सरीखा रहता है और उसका असर होता ही होता है। लोग अपने परिवार से परे, अपने दोस्तों के बीच, अपने दफ्तर और पड़ोस के लोगों के बीच, एक मिसाल की तरह रहते हैं, अच्छे कामों के लिए भी, और बुरे कामों के लिए भी। इसलिए नए साल के इस मौके पर लोगों को नशे और बुरी आदतों को छोडऩा तो तय करना ही चाहिए, और इसके साथ-साथ अच्छे खान-पान और बेहतर जीवन शैली का संकल्प भी लेना चाहिए। आज बीमारियां इतनी जानलेवा और इतनी महंगी हो रही हैं कि उनसे जूझ पाना हर किसी के बस का नहीं रह गया है। किसी बीमारी के होने से बच जाना ही सबसे अच्छा इलाज है। इसलिए जीवन शैली से होने वाली अनगिनत जानलेवा बीमारियों से बचने का सबसे सस्ता और आसान रास्ता है बिना किसी खर्च वाली ऐसी जीवन शैली को अपना लेना जिसमें आसान सी कसरत करके, पैदल चलकर, और दौडक़र, योग और ध्यान करके, और सेहतमंद चीजें खाकर अपने को अधिक उत्पादक बनाकर रखना और बीमारियों से दूर रखना। आज के दिन इससे अधिक जरूरी बात हमें और कोई नहीं सूझ रही है और इसे अधिक नैतिक अधिकार से कहने का दमखम आज इसलिए है कि पिछले कई महीनों से हमने ऐसी बेहतर जीवन शैली का अनुभव किया है और उसका फायदा देखा है। इससे सस्ता और इससे अधिक सुखद और कोई काम नहीं हो सकता, बस यही है कि इसका टेस्ट डेवलप होने में कुछ हफ्तों या कुछ महीनों का समय लग सकता है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सोशल मीडिया पर हिंदुस्तान के बहुत से लोग लगातार दूसरों को धमकियां देने का काम करते हैं, और तरह-तरह की गालियां देते हैं। बहुत से लोगों का यह मानना है कि वैचारिक आधार पर यह हमला जिस किस्म का दिखता है, उससे यह लगता है कि ये किसी एक संगठन से जुड़े हुए लोग हैं जो कि भुगतान पाकर रात-दिन अलग-अलग नाम से किसी पर हमला करते हैं, किसी को विचलित करने का काम करते हैं। ऐसे में सोशल मीडिया पर कुछ लोग अपने नाम के साथ फ़ख्र से यह भी लिखते हैं कि उन्हें देश के कौन सबसे चर्चित और बड़े लोग फॉलो करते हैं। यह भी हो सकता है कि जब इतने बड़े लोग जो कि गिने-चुने लोगों को ही फॉलो करते हैं, वे जब ऐसे धमकीबाजों को और ऐसे नफरतजीवियों को फॉलो करते हैं, तो हो सकता है कि उन्होंने सोच-समझकर ही इन पर यह मेहरबानी की हो। यह बात हक्का-बक्का करती है लेकिन सोशल मीडिया पर किसने, किसे, किसलिए फॉलो किया है यह तो पता लगता नहीं है। इस बीच कुछ ऐसे लोग भी सोशल मीडिया पर देखते हैं जिन्होंने अपने प्रोफाइल पर किसी एक पार्टी का झंडा लगा रखा है, और उस पार्टी के नेता की तस्वीर भी लगा रखी है। इसके अलावा उनकी पोस्ट में एक चौथाई पोस्ट ऐसी भी रहती हैं जो कि उस पार्टी के प्रचार की रहती है और उस पार्टी की सकारात्मक बातों को भी वे आगे बढ़ाते रहते हैं। लेकिन कई ऐसे अकाउंट भी देखने में आ रहे हैं जो जाहिर तौर पर अपने को किसी एक पार्टी का तरफदार साबित करते हैं, और फिर साथ-साथ दूसरी पार्टियों के नेताओं के खिलाफ गंदी गालियां लिखते हैं, धमकियां लिखते हैं, उनके खिलाफ नफरत की बातें लिखते हैं। तो इससे एक तस्वीर ऐसी बनती है कि एक पार्टी के लोग दूसरी पार्टी के लोगों के खिलाफ इस तरह की गंदी बातें लिख रहे हैं। जबकि ऐसे लोग किसी पार्टी के हैं या नहीं यह देखने की फुर्सत उस पार्टी को भी नहीं रहती। जबकि होना यह चाहिए कि अपने आपको किसी पार्टी का समर्थक बताने वाले लोग अगर उसके नेता और उसके झंडे की तस्वीरें इस्तेमाल कर रहे हैं, तो उनकी पोस्ट की हुई चीजों को भी वह पार्टी देखे, और अगर उनमें अश्लीलता, हिंसा, या धमकी दिखे, तो तुरंत फेसबुक, ट्विटर, या इंस्टाग्राम में शिकायत दर्ज कराए कि ऐसे गलत लोग उनकी पार्टी और नेता के फोटो का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं।
सोशल मीडिया ऐसी दोधारी तलवार है कि जिसमें कौन दोस्त है, और कौन दुश्मन है, यह कभी-कभी तो साफ हो जाता है, लेकिन कभी-कभी यह धुंधला भी रहता है। ऐसा भी रहता है कि दिख तो दोस्त रहे हैं, लेकिन काम दुश्मन सरीखा कर रहे हैं। इसलिए आज किसी भी कारोबार को किसी वैचारिक या राजनीतिक संगठन को, जिन्हें सोशल मीडिया पर अपनी मौजूदगी या अपने बारे में कही जाने वाली बातों से कोई फर्क पड़ता हो, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी कैसी छवि वहां बन रही है। हम तो ऐसे दर्जनों अकाउंट देख-देखकर हक्का-बक्का हैं कि क्या इन्हें उन पार्टियों या धार्मिक आध्यात्मिक संगठनों की तरफ से अब तक कोई नोटिस नहीं मिला है कि उनकी हरकतों से ये संगठन भी बदनाम हो रहे हैं? आज किसी से दुश्मनी निकालनी हो तो उसका एक आसान तरीका दिख रहा है कि उसके समर्थक की तरह बनकर एक सोशल मीडिया अकाउंट बनाया जाए और उनके समर्थन की चार बातें पोस्ट की जाए और उसके बाद चालीस बातें उनके विरोधियों को धमकी, हिंसा या अश्लीलता की पोस्ट की जाए। किसी को बदनाम करने के लिए उसी का हिमायती, उसी का दोस्त बनकर यह काम अधिक आसानी से किया जा सकता है। आज बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया का ऐसा इस्तेमाल हो रहा है और सार्वजनिक जीवन में जो राजनीतिक दल या संगठन सक्रिय हैं वह इसे अनदेखा करने की मासूमियत का दावा नहीं कर सकते। जो लोग जनता के बीच में जी रहे हैं उनकी यह भी जिम्मेदारी बनती है कि उनके समर्थक बनकर सक्रिय लोग किस किस्म के हैं इस पर नजर रखी जाए। सोशल मीडिया आज न सिर्फ हिंदुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में जनधारणा प्रबंधन (परसेप्शन मैनेजमेंट) का इतना बड़ा औजार और हथियार बन चुका है कि उसकी ताकत को अनदेखा करना ठीक नहीं है। अभी हमारे पास कई ऐसे सोशल मीडिया अकाउंट हैं जो पहली नजर में किसी एक पार्टी के समर्थक दिख रहे हैं, लेकिन उस पार्टी के विरोधियों के लिए वैसी जुबान में गालियां और अश्लील बातें लिख रहे हैं जैसे कि पहले लोग शौचालयों के भीतर दरवाजों पर कुरेद देते थे। अब हैरानी की बात यह भी है कि बहुत से लोग जो अपने-आपमें बहुत भले हैं वे भी किसी तरह झांसे में आकर ऐसे लोगों के सोशल मीडिया दोस्त हो गए हैं। इनकी लिखी हुई बातें इतनी अधिक गंदी हैं कि उनका कोई जिक्र भी यहां नहीं हो सकता, इसलिए हम बतौर सावधानी यहां पर सार्वजनिक जीवन के लोगों को यह समझाना चाह रहे हैं कि उन्हें अपने समर्थक से दिखने वाले लोगों के प्रति अधिक सावधान रहना चाहिए क्योंकि उनके किए हुए कुकर्म उनके समर्थन पाने वाले नेताओं या संगठनों की भी इज्जत खराब करते हैं। यह भी हो सकता है की एक साजिश के तहत बड़े पैमाने पर ऐसा किया जा रहा हो लेकिन उसकी छानबीन का हमारे पास कोई जरिया नहीं है, जिन लोगों का नाम इससे बदनाम हो सकता है उन्हें यह परवाह हो तो वे खुद ही इसकी शिकायत कर सकते हैं। फिलहाल लोगों को हमारी यही सलाह है कि किसी की तस्वीर या उसका झंडा देखकर, उसके किसी के समर्थक देखते हुए सोशल मीडिया अकाउंट को सच्चा मान लेना ठीक नहीं होगा। हो सकता है कि बदनाम करने की नीयत से कोई समर्थक बनकर ऐसा कर रहा हो।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नफरत नजरों को छीन लेती है। कुछ लोगों की नजरों को तो कुदरत छीनती है लेकिन नफरत उनकी नजरों को भी छीन लेती है जिन्हें कुदरत ने नजरें दी हुई है। नतीजा यह होता है कि ना हकीकत दिखाई पड़ती, और न दिमाग उस मुताबिक काम करता। उत्तर प्रदेश सरकार में पूरे प्रदेश का भगवाकरण करने की मुहिम इस हद तक बढ़ गई है कि मुस्लिम विरोध की नफरत उसकी सोच-समझ को पूरी तरह खत्म कर बैठी है। एक-एक कर अलग-अलग शहर-मोहल्ले और सडक़ों के नाम बदलते हुए सरकार का दिमाग ही खत्म हो गया है। या फिर यह भी हो सकता है कि पूरे का पूरा दिमाग बाकी मुस्लिम नामों को तलाश करने में लगा हुआ होगा कि अगला नाम क्या बदला जाए। इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज रख देना तो हिंदूकरण का अंत होना चाहिए था, लेकिन बात वहां पर थमी नहीं। राज्य सरकार की वेबसाइट देखें तो उस पर प्रयागराज के बारे में सामान्य जानकारी यह मिलती है कि इस शहर के अकबर प्रयागराजी एक प्रमुख आधुनिक शायर थे, और तेग प्रयागराज, राशिद प्रयागराज जैसे और शायरों की जगह प्रयागराज ही थी। अगर उर्दू साहित्य में इन नामों को तलाशा जाए तो इनका लिखा हुआ एक शेर ना मिले, शेर तो शेर, सियार या लोमड़ी भी ना मिले। इसलिए कि अकबर प्रयागराजी अकबर इलाहाबादी थे, और तेग प्रयागराज, तेग इलाहाबादी थे, और राशिद प्रयागराज, राशिद इलाहाबादी थे। उत्तर प्रदेश सरकार के उच्च शिक्षा विभाग की वेबसाइट इन उर्दू शायरों के नाम को प्रयागराज ही बना कर पेश कर रही है। पता नहीं कब्र में अकबर इलाहाबादी किस तरह बेचैनी से करवट बदल रहे होंगे।
नफरत के इस सिलसिले ने चीजों के हिंदूकरण कि यह पराकाष्ठा पेश की है जिसमें लोगों के नामों को बदलकर उनका हिंदूकरण किया जा रहा है। अब कृष्ण के बारे में लिखने वाले अनगिनत मुस्लिम शायरों और कवियों के नाम का हिंदूकरण अभी बाकी ही है, और पता नहीं कबीर को कौन सा नाम अलॉट किया जाएगा, शायद वे अब कृष्णवीर कहलायेंगे। आमतौर पर किसी राज्य सरकार का अमला भी इस दर्जे का बेवकूफ नहीं होता है कि जिंदा या मरे हुए शायरों के नाम को वह अपने बदले हुए शहरों के नाम के मुताबिक बदल दे, लेकिन उत्तर प्रदेश की बात अनोखी है, वहां पर मुस्लिम नामों और मुस्लिमों से नफरत इस हद तक बढ़ गई है कि उसने सरकारी अमले की अक्ल पर भी पर्दा डाल दिया है। दुनिया के इतिहास में इस दर्जे की घटिया हरकत और बेवकूफी का मिलाजुला मेल शायद ही कहीं और देखने मिलेगा। लेकिन अच्छा है इतिहास में नफरत और बदनीयत को इसी तरह साफ-साफ दर्ज होना चाहिए।
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार को भगवा रंग से अपनी मोहब्बत और हरे रंग से अपनी नफरत के चलते हुए अब कुछ काम और करने चाहिए। अपने प्रदेश के कृषि वैज्ञानिकों को लगाकर भगवे और केसरिया रंग की फसलें तैयार करनी चाहिए और पेड़-पौधों के हरे रंग को भी बदलकर भगवा-केसरिया करने का विज्ञान ढूंढना चाहिए। इसके अलावा योगी सरकार को अपने प्रदेश की महिलाओं का पूरा भारतीयकरण करने के लिए उनके उबटन की मुल्तानी मिट्टी पर रोक लगानी चाहिए क्योंकि वह तो पाकिस्तान के मुल्तान से आती है, हिंदू त्योहारों के उपवास के खाने में काले नमक या सेंधा नमक के इस्तेमाल पर भी रोक लगानी चाहिए क्योंकि यह भी पाकिस्तान से आता है, और हिंदुस्तान में नहीं होता। रामलला के मंदिर से लेकर बाकी मंदिरों तक तमाम जगहों पर केसर के इस्तेमाल पर रोक लगानी चाहिए क्योंकि इसे कश्मीर की वादियों में मुस्लिम उगाते हैं, और वही इसे इक_ा करके बेचते हैं। फिर अफगानिस्तान से आने वाले मेवे पर भी रोक लगानी चाहिए क्योंकि वह भी तालिबानी सरकार के मातहत आने वाला एक मुस्लिम देश है और मुस्लिम हाथों के बिना कोई मेवा हिंदुस्तान पहुंच नहीं पाता। हाल के बरसों में थोड़ा बहुत मेवा अमेरिका से भी आता है और कैलिफोर्निया ब्रांड सहित कुछ दूसरे मेवे बाजार में दिखाई पडऩे लगे हैं, लेकिन यह जाहिर है कि वहां पर भी ऐसे बागानों के मजदूर गौमांस खाने वाले लोग हैं, इसलिए उनके छुए हुए सामान को तो बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। योगी सरकार को अपनी धार्मिक शुद्धता कायम रखनी चाहिए और दुनिया के किसी भी गौभक्षक देश से न तो मोबाइल फोन आने देने चाहिए, और ना ही कंप्यूटर। अभी जो मेट्रो शुरू हो रही हैं, और जो एयरपोर्ट बनने जा रहे हैं, उनके सामान भी किसी गौभक्षक देश से नहीं आने देने चाहिए। योगी आदित्यनाथ एक बहुत मजबूत नेता है और वह बिना गौभक्षकों के अपनी सरकार को, अपने प्रदेश को अच्छी तरह चला सकते हैं। प्रदेश की लाइब्रेरी से ऐसी तमाम किताबों को हटा देना चाहिए जो किसी वक्त किसी इलाहाबादी, बाराबंकवी, लखनवी, कानपुरी की लिखी हुई होंगी, और अब अगर उनके नए संस्करण उत्तर प्रदेश में बेचने हैं तो उन्हें प्रयागराजी जैसे नाम से दोबारा छापा जाए तो ही उन्हें बिकने दिया जाए। उत्तर प्रदेश को धार्मिक शुद्धता की एक मिसाल बनाकर पेश करना चाहिए और योगी आदित्यनाथ इसकी पूरी क्षमता रखते हैं। फिर संसद में भाजपा को श्राप देने वाली जया बच्चन के ससुर हरिवंश राय बच्चन के लिखे हुए को भी बदलने का वक्त है जिसमें प्रयागराज को इलाहाबाद कहकर जगह-जगह बदनाम किया गया है। उनकी किताबों को भी प्रदेश के बाहर करने का अब सही वक्त, और मौका है।
योगी आदित्यनाथ एक मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से संपन्न नेता हैं। और उन्हें उत्तर प्रदेश के खेतों में किसी भी हरी फसल को इजाजत नहीं देनी चाहिए। हरा रंग एक किसी धर्म से जुड़ा हुआ दिखता है, और योगीराज में ऐसी फसलें ठीक नहीं हैं। वहां पर लाल-केसरिया टमाटर के ऐसे पौधों को ही छूट मिलनी चाहिए जिनके पत्ते भी भगवा केसरिया, पीले या लाल रंग के हैं। ऐसा अगर तुरंत नहीं हो पाता है तो भी किसानों पर यह बंदिश लगानी चाहिए कि वह गोरखपुर के शहरी अफसरों से भगवा रंग लेकर अपनी फसलों को रंगें, तभी उन्हें पकने का मौका दिया जाएगा। और उत्तर प्रदेश को तो यह फैसला भी लेना चाहिए कि एक मुस्लिम के बनाए हुए ताजमहल को राज्य में रहने की छूट दी जाए या नहीं? अभी-अभी तो भाजपा के एक किसी बड़े मंत्री ने यह बयान दिया था कि ताजमहल बनाने वाले कारीगरों के हाथ काट दिए गए थे। जिस निर्माण के बाद मजदूरों और कारीगरों के हाथ काट दिए गए हैं, उस निर्माण को, और खासकर उस मकबरे को वहां पर रहने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? ऐसे मामलों में धर्म के आधार पर राज करने वाले तालिबान ने एक मिसाल पेश की है कि उन्होंने अफगानिस्तान से बुद्ध की आसमान छूती प्रतिमा को बमों से उड़ा कर चूर-चूर कर दिया। अब अगर ताजमहल को यह सरकार ना उड़ा सके तो यह तो तालिबानों के मुकाबले कमजोर सरकार साबित होगी। योगी आदित्यनाथ और चाहे जो भी हों, एक कमजोर नेता तो बिल्कुल नहीं हैं, और उत्तर प्रदेश के पर्यटन नक्शे को देखें तो राज्य भर में मुस्लिम शासकों की बनाई हुई ऐसी ढेर सारी इमारतें हैं जिन्हें उड़ाना चाहिए। और यह काम अगर योगी आदित्यनाथ जैसा मजबूत नेता नहीं कर सकेगा, तो फिर तो आगे और कोई भी नहीं कर सकेगा।
उत्तर प्रदेश में एक आसार है कि चुनाव कुछ महीने आगे बढ़ जाएं ऐसे में योगी आदित्यनाथ को प्रयागराजी अमरूदों को इलाहाबादी अमरूद कहने पर सजा का इंतजाम करना चाहिए, और जितने किस्म के शायर और लेखक मुस्लिम उपनाम वाले हैं, उन्हें भी कोई ना कोई हिंदू उपनाम देना चाहिए ताकि कहीं भी उत्तर प्रदेश का शासन अफगानिस्तान के शासन के मुकाबले कमजोर न गिना जाए। कब्रिस्तानों में शायरों की कब्र में इतनी बेचैनी भर देने की जरूरत है कि वे सब कफन फाडक़र निकलें, और माइकल जैक्सन के गाने की दफन लाशों की तरह इलाका छोडक़र चले जाएँ।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केंद्र सरकार के नीति आयोग ने देश के तमाम राज्यों का एक हेल्थ इंडेक्स जारी किया है जिसमें 2019-20 में राज्यों की स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल रहा, इसका मूल्यांकन किया गया है। नीति आयोग के इस मूल्यांकन का यह चौथा साल ऐसा है जिसमें केरल देश में अव्वल रहा। और ये चारों साल मोदी सरकार के शासनकाल के ही हैं, और केरल के साथ कोई खास रियायत की गई हो ऐसा तो नहीं माना जा सकता। दूसरी तरफ 19 बड़े राज्यों में सबसे आखिर में उत्तर प्रदेश का नंबर है जिसे कि देश का सबसे कामयाब राज्य साबित करने की कोशिश चुनावी माहौल के बीच चल ही रही है। केंद्रीय गृह मंत्री वहां कहकर आ रहे हैं कि इस उत्तर प्रदेश में आधी रात को भी कोई लडक़ी गहनों से लदकर दुपहिया पर जा सकती है और वह सुरक्षित रहेगी। दूसरी तरफ हर दिन ऐसी खबर आ रही है कि किस शहर में शहर के बीच चलती हुई गाड़ी में किसी लडक़ी या महिला से कैसे बलात्कार हो रहा है। खैर हम दूसरी बातों पर अभी जाना नहीं चाह रहे हैं और केवल स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर बात करना चाहते हैं, तो इसमें 19 बड़े राज्यों की लिस्ट में सबसे आखिर में यूपी है, और उसके ठीक पहले भाजपा के गठबंधन वाला बिहार है जहां पर कहने को डबल इंजन की सरकार है। अब दिलचस्प बात यह है कि इस लिस्ट को देखें तो इसमें शुरू के 4 सबसे अच्छे राज्य केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, और आंध्र प्रदेश से चारों के चारों दक्षिण भारत के हैं, और दक्षिण भारत का बचा हुआ अकेला राज्य कर्नाटक इस लिस्ट में नौवें नंबर पर हैं जहां पर कि भाजपा की सरकार है। शुरू के चारों दक्षिण भारतीय राज्य बिना भाजपा की सरकार वाले हैं। लिस्ट में आखिरी के 3 राज्य देश के सबसे बड़े राज्यों में से हैं, और मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं को सबसे बदहाल पाया गया है। जहां केरल को इस हेल्थ इंडेक्स में 82.20 नंबर दिए गए हैं, वही उत्तर प्रदेश को 30.57 नंबर मिले हैं। ऐसे ही इस फर्क का अंदाज लगाया जा सकता है।
यह बात समझने की जरूरत है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार जिस तरह से धर्म और जाति का नाम लेकर पूरे-पूरे शहर को भगवा रंग से रंगकर, बसों से लेकर सरकारी इमारतों तक का, और हज हाउस से लेकर कांग्रेस भवन तक का रंग बदलकर अपने को कामयाब मान रही है, वह हकीकत में कोई कामयाबी नहीं है। जिस तरह से केरल लगातार स्वास्थ्य सेवाओं में सबसे अव्वल माना जा रहा है, पाया जा रहा है, उसे देखें और इसी दौरान उत्तर प्रदेश में गंगा पर तैरती हुई लाशों को देखें, रेत में उथली दफनाई गई और सतह चीरकर बाहर आती हुई लाशों को देखें तो यह फर्क साफ समझ आता है कि गंगा के तट पर महाआरती, गंगा आरती, और हर बात पर धार्मिक नारे, धार्मिक उन्माद, इनसे असल जिंदगी नहीं चलती। केरल के दूसरे पैमानों को देखने की जरूरत भी है क्योंकि केरल वह राज्य है जहां पर सत्तारूढ़ वामपंथी लोगों और वहां के आर एस एस के लोगों के बीच हिंसक संघर्ष चलते ही रहता है। इसलिए केरल के साथ उत्तर प्रदेश की तुलना करना दो राजनीतिक विचारधाराओं की तुलना करने तरीका भी हो जाता है, कम से कम ऐसी दो राजनीतिक विचारधाराओं की शासन व्यवस्था की तुलना। केरल देश में पढ़ाई-लिखाई में सबसे आगे चलने वाला राज्य है जहां के लोग दुनिया में चारों तरफ जाकर काम करते हैं और वहां से पैसा घर भेजते हैं। केरल का भौतिक विकास बहुत हो रहा है और वहां के लोग तकनीकी शिक्षा और प्रशिक्षण पाकर तरह-तरह के हुनर सीखते हैं और उनका कोई मुकाबला नहीं है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में लगातार धर्म को पेट पालने का एक विकल्प बनाकर पेश किया जा रहा है जिससे किसी से भजन भी नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि भूखे पेट भजन नहीं हो पाते। राज्य में पढ़ाई-लिखाई का हाल बुरा है, नौकरियों का हाल बुरा है, प्रति व्यक्ति आय का हाल बुरा है, और देश के बीचों-बीच रहते हुए भी उत्तर प्रदेश में विकास, केरल जैसे एक किनारे के राज्य के मुकाबले कहीं भी नहीं है। केरल की प्रतिव्यक्ति आय उत्तर प्रदेश से 3.8 गुना अधिक है. उत्तर प्रदेश, जाहिर है कि अपने डबल इंजन भाई, बिहार के साथ देश में सबसे नीचे की दो जगहों पर है, इनसे कम प्रति व्यक्ति आय और कहीं नहीं है।
यह समझने की जरूरत है कि यह सिलसिला बहुत हद तक धार्मिक उन्माद से प्रभावित है जहां कि लोगों की सोच को मार-मारकर कुंदकर दिया गया है कि उनके दिमाग में किसी तरह से भी कोई वैज्ञानिक तथ्य या तर्क का आग्रह न आ जाए। जनता को लोकतांत्रिक और प्रगतिशील सोच से कैसे दूर किया जा सकता है, और कैसे उन्हें एक उन्मादी ध्रुवीकरण से उपजी भीड़ में बदला जा सकता है, इसकी एक जलती-सुलगती मिसाल उत्तर प्रदेश में देखने मिलती है। अब जब मोदी सरकार के नीति आयोग ने अपने इंडेक्स में बहुत साफ-साफ केरल को नंबर वन, और यूपी को आखिरी करार दिया है, तो इसे सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं से जोडक़र नहीं देखना चाहिए, राज्यों की बाकी स्थिति को भी देखना चाहिए। यह एक अच्छा मौका है कि चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार के नीति आयोग ने ही यह आंकड़े जारी किए हैं, किसी और के तैयार किए हुए रहते तो यह बात उठती कि यह चुनाव को प्रभावित करने के लिए, और योगी की महान सरकार को बदनाम करने के लिए तैयार किए गए आंकड़े हैं। अब उत्तर प्रदेश के लोगों के समझने की यह बात है कि उन्हें भगवा सरकार के रूप में भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया है, और इस सरकार का आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था से कुछ भी लेना देना नहीं है। भगवान भरोसे हिन्दू होटल, जहाँ पकाने-खिलाने को कुछ नहीं !!
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कल सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने मुख्य न्यायाधीश को एक चिट्ठी लिखी कि हरिद्वार और दूसरी जगहों पर एक धर्म को निशाना बनाकर मानवसंहार का जो फतवा दिया जा रहा है, उस पर अदालत खुद होकर कार्यवाही शुरू करे। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर यह बात सूझनी थी और उत्तर प्रदेश सरकार सहित ऐसी तथाकथित धर्म संसद के आयोजकों को नोटिस जारी करना था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी शायद क्रिसमस के आसपास की छुट्टियों पर थे। बेहतर तो यह होता कि मुख्य न्यायाधीश जहां थे वहीं से वे टेलीफोन पर उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार के नाम नोटिस जारी करते और वहीं बैठकर सुनवाई शुरू कर देते तो उससे अदालत की सोच की गंभीरता देश को पता लगती और देश के उन अल्पसंख्यक मुस्लिम लोगों के मन में एक भरोसा कायम होता जिन्हें आज खुला निशाना बनाया जा रहा है और जिन्हें मारने के लिए फतवा दिया जा रहा है। इससे देश के उन हिंदुओं के मन में भी भरोसा कायम होता जो हिंदू धर्म का नाम लेकर ऐसे हत्यारे फतवे देने वाले लोगों के साथ नहीं हैं, जो अमनपसंद हैं और जो सर्वधर्म सम्मान करने वाले हिन्दू हैं।
आज हिंदू धर्म के नाम पर भगवा कपड़े पहने हुए कई किस्म के मुजरिम और कई किस्म के नफरतजीवी चारों तरफ सक्रिय हैं और कल जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को यह चिट्ठी पहुंची हुई होगी, उस वक्त छत्तीसगढ़ के रायपुर में एक तथाकथित धर्म संसद चल रही थी जो सांप्रदायिक हरकतें झेल रहा है। छत्तीसगढ़ देश के बीच सांप्रदायिक सद्भाव का एक टापू सरीखा रहते आया है लेकिन यहां भी कुछ हफ्ते पहले कबीरधाम नाम के जिले में कवर्धा नाम के शहर में कबीर की तमाम नसीहतों के खिलाफ जाकर एक सांप्रदायिक हिंसा भड़की और उसे और अधिक भड़काने के लिए कोशिशें जारी ही हैं. इसी दौरान कल के इस आयोजन में एक भगवे ने गांधी को गालियां बकते हुए माइक और मंच से ही गोडसे को इसके लिए धन्यवाद दिया कि उसने गांधी को निपटा दिया। गांधी को आमतौर पर इतनी गंदी गाली गोडसेपूजक भी नहीं देते हैं जितनी कि कल इस भगवे ने दी। आधी रात एक रिपोर्ट पर इस भगवे के खिलाफ जुर्म कायम हुआ है, लेकिन उसके पहले इस धर्म संसद में शामिल, छत्तीसगढ़ में हिंदू धर्म के एक सबसे प्रमुख व्यक्ति महंत रामसुंदर दास ने उसी आयोजन में शामिल रहते हुए इस भाषण का विरोध किया और इसका बहिष्कार किया। यह कम हौसले की बात नहीं थी क्योंकि महंत रामसुंदर दास की सारी जमीन ही हिंदू धर्म पर टिकी हुई है, और वे कांग्रेस पार्टी के पूर्व विधायक भी हैं, और राज्य की गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष भी हैं. ऐसे में उनकी दोहरी जिम्मेदारी बनती थी क्योंकि कांग्रेस सरकार का कोई मंत्री स्तर दर्जा प्राप्त पूर्व विधायक अगर ऐसी सांप्रदायिकता के विरोध में खड़ा नहीं होता तो पार्टी और सरकार पर कई किस्म की तोहमतें भी लगतीं।
हमारा ख्याल है कि छत्तीसगढ़ सरकार को एक मिसाल कायम करनी चाहिए और ऐसी हिंसक बातें करने वाले के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जुर्म दर्ज करके कार्रवाई करनी चाहिए ताकि उत्तर प्रदेश को भी एक सबक मिल सके कि देश में गृह युद्ध छिड़वाने का काम जो लोग कर रहे हैं, उन लोगों पर कैसी कार्रवाई की जानी चाहिए। देश में वैसे तो संघीय व्यवस्था है और राज्य अपने-अपने दायरे में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन लोकतंत्र का इतिहास बताता है कि बहुत से मामलों में किसी राज्य को आगे बढ़कर एक मिसाल कायम करनी होती है जिससे कि और राज्य भी सबक ले सकते हैं। यह ऐसा ही एक मौका है और छत्तीसगढ़ को एक लोकतांत्रिक जिम्मेदार रुख दिखाना चाहिए और अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। आज के माहौल में एक धर्म की बात करते हुए एक धर्म के नाम पर इकट्ठा होकर गांधी को इस तरह से गालियां देना, गोडसे की पूजा करना, और दंगा फैलाने की कोशिश करना, इसे छोटी हरकत मानना गैरजिम्मेदारी होगी यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा का है और छत्तीसगढ़ सरकार को बेधड़क कार्रवाई करनी चाहिए।
आज हिंदुस्तान को और खासकर उत्तर भारत को केंद्र में रखकर उस प्रदेश में, और देश भर में जिस तरह की नफरत फैलाई जा रही है वह छोटी बात नहीं है. इससे चुनाव में एक धार्मिक ध्रुवीकरण तो हो सकता है इससे धर्मांध और बेवकूफ तबकों को एकजुट किया जा सकता है, लेकिन यह सिलसिला देश के भीतर एक तबाही लेकर आएगा यह बात तय है। लोगों को इस बात को भी याद रखना चाहिए कि अभी देश के कुछ बहुत जिम्मेदार रिटायर्ड फौजियों ने एक बयान जारी करके इस खतरे को गिनाया है कि देश के भीतर ऐसे हालात खड़े करना, इतनी नफरत फैलाना, यह राष्ट्रीय सुरक्षा पर एक खतरा है। उस बयान को भी ध्यान से देखा जाना चाहिए, और कायदे की बात तो यह होती कि सुप्रीम कोर्ट इस बयान को देखते ही नींद से जागता, और हरिद्वार जैसी धार्मिक नगरी से धार्मिक हिंसा से एक धर्म को खत्म कर देने के मानवसंहार के जो खतरे दिए गए थे, उन वीडियो पर सबसे कड़ी कार्रवाई करता, लेकिन देश को बांट देने की आग रखने वाले ऐसे वीडियो ने भी सुप्रीम कोर्ट को विचलित नहीं किया, रिटायर्ड फौजी अफसरों की नसीहत को भी उसने अनसुना कर दिया, और सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने कल जो लिखा है उस पर भी अब तक सुप्रीम कोर्ट का कोई रुख सामने नहीं आया है। यह सिलसिला बहुत खतरनाक है. सुप्रीम कोर्ट के पिछले कुछ महीनों के ताजा रुख को देखते हुए मौजूदा मुख्य न्यायाधीश से हिंदुस्तानी लोकतंत्र को कुछ उम्मीदें बंध रही हैं। ऐसी उम्मीदें भी हरिद्वार से शुरू नफरत की आग को देखते हुए अब निराश हो रही हैं।
यह मौका हिंदुस्तान के बाकी उन लोकतांत्रिक प्रदेशों का भी है जो कि सोशल मीडिया पर फैल रहे ऐसे वीडियो को देखते हुए, ऐसे भाषणों को देखते हुए, हरिद्वार से लेकर रायपुर तक लगाई जा रही आग को देखते हुए, ऐसे नफरतजीवियों के खिलाफ जुर्म दर्ज कर सकते हैं। देश के प्रदेशों को अपने-अपने प्रदेशों में खतरा समझना चाहिए और सांप्रदायिकता को देखते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जुर्म दर्ज करने चाहिए क्योंकि हरिद्वार का आयोजन तो उत्तर प्रदेश के अतिथि सत्कार के बीच हुआ था जहां की सरकार इन लोगों पर मेहरबान है, और शायद इनका चुनावी इस्तेमाल भी कर रही है, लेकिन देश के सभी प्रदेशों को जिन्हें देश के सांप्रदायिक सद्भाव की फिक्र है, उन सभी को सोशल मीडिया पर और खबरों में तैरते हुए ऐसे वीडियो देखकर अपने अपने प्रदेश की शांति व्यवस्था के हित में इन लोगों पर जुर्म दर्ज करने चाहिए, इन पर कड़े से कड़े कानून लगाने चाहिए और देश को एक बहुत बड़े और खूनी सांप्रदायिक विभाजन से बचाना चाहिए। यह खतरा छोटा नहीं है, यह खतरा आज सोच-समझकर देश में जगह-जगह खड़ा किया जा रहा है, और इसके खिलाफ अगर मुमकिन हो तो हिंदू धर्म के कुछ जिम्मेदार लोगों को भी अदालत जाना चाहिए कि हिंदू धर्म के नाम पर जो हिंसा और नफरत फैलाई जा रही है वह उनकी धार्मिक भावनाओं को जख्मी कर रही है, और ऐसे भगवे लोगों के खिलाफ कारवाई की जाए, उनका मुंह बंद किया जाए। इन लोगों ने सोच-समझकर और एक साजिश के तहत देश में गृह युद्ध फैलाने की जितनी कोशिशें की हैं, और जो कर रहे हैं, इनकी बाकी पूरी जिंदगी अगर जेल में कटे तो भी वह इनके साथ रहमदिली होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चुनाव के मुहाने पर खड़े हुए उत्तर प्रदेश के एक बड़े शहर कानपुर में इत्र के एक बड़े व्यापारी पर पड़े आयकर छापे को लेकर कुछ लोग उसे इससे जोड़ रहे हैं कि पिछले दिनों समाजवादी पार्टी ने जो समाजवादी इत्र बाजार में उतारा था, उस इत्र को बनाने वाले कारोबारी पर यह छापा पड़ा है। हो सकता है कि यह बात सच भी हो लेकिन सवाल यह भी है कि इस कारोबारी के ठिकानों से अब तक ढाई सौ करोड़ रुपए से अधिक के नगद नोट मिल चुके हैं, 15 किलो सोना और 50 किलो चांदी बरामद हो चुकी, और नोटों की गिनती अभी जारी है। भारत के इतिहास में इतनी बड़ी नगद रकम किसी और कारोबारी से मिलने की याद पहली नजर में तो नहीं आ रही है, और अगर ऐसा हुआ भी होगा तो भी यह अपने आपमें एक बहुत बड़ी रकम है। ढाई सौ करोड़ रुपए के नोट कम नहीं होते हैं खासकर उस वक्त जबकि हिंदुस्तान में नोटबंदी को इस मकसद से लागू करना बताया गया था कि इससे कालेधन में कमी आएगी। अब वर्षों से जिस प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का राज्य चल रहा है वहां पर अगर दो नंबर का इतना बड़ा कारोबार चल रहा था, तो जाहिर है कि राज्य के बहुत से लोगों की जानकारी में भी यह रहा होगा और राज्य पुलिस के खुफिया विभाग के पास भी इस जानकारी को जुटाने का कोई ना कोई जरिया रहा होगा। ऐसे में इतनी बड़ी रकम की बरामदगी हक्का-बक्का करती है कि क्या आज भी हिंदुस्तान में कारोबार के लिए नगद काले धन की इतनी बड़ी आवाजाही चल रही है? और यह भी कि एक अकेले व्यापारी के पास अगर काले धन का ऐसा भंडार निकलता है तो उस पर कार्यवाही तो होनी चाहिए फिर चाहे वह चुनिंदा समाजवादी समर्थक क्यों न हो या किसी और पार्टी का समर्थक क्यों ना हो। अब यह तो जो सत्तारूढ़ पार्टी रहेगी उसके साथ यह बात लागू होगी कि वह अपनी नापसंद के दस नंबरी लोगों को पहले निशाना बनाए, अधिक से अधिक यह उम्मीद की जा सकती कि तमाम लोगों पर ऐसी कार्रवाई हो, लेकिन इस बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस पर कार्रवाई हुई है वह कोई मासूम कारोबारी नहीं था।
आज एक तरफ तो हिंदुस्तानी बैंक दो-चार लाख की नकदी निकालने पर भी छोटे-छोटे कारोबारियों के लिए दिक्कत खड़ी करते हैं, उस पर कई तरह से कोई भुगतान करना होता है, या अपना पैन कार्ड देना पड़ता है, और छोटे व्यापारियों के लिए नगद में कोई भी काम करना अब आसान नहीं रह गया है। लेकिन एक इत्र व्यापारी अगर सैकड़ों करोड़ रुपए की नगदी लेकर बैठा है तो यह इस बात का सबूत है कि बाजार में धड़ल्ले से न सिर्फ काला धन चल रहा है बल्कि वह नकली नोटों की शक्ल में भी चल रहा है। नोटों की इतनी बड़ी बरामदगी नोटबंदी की नाकामयाबी का एक बड़ा सबूत भी है। अब भारत की अर्थव्यवस्था में काले धन को कैसे घटाया जा सकता है, यह आसान नहीं रह गया है। बहुत तरह के दावे बहुत से राजनीतिक दल करते हैं और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के बाहर से कालेधन को लाने के बारे में और नोटबंदी से काले धन को घटाने के बारे में कई बातें कही थीं। पिछले 7 बरस में देश में कितना काला धन लौट पाया इसकी कोई जानकारी लोगों को नहीं है। इसके साथ-साथ नोटबंदी से अगर कोई फायदा हुआ हो तो उसकी भी कोई जानकारी लोगों के पास नहीं है, और न ही मोदी सरकार ने या भाजपा ने नोटबंदी के कुछ महीनों के बाद से लेकर आज तक उसकी किसी कामयाबी को किसी चुनावी सभा में गिनाया है। जाहिर है कि वह पूरी मशक्कत पानी में गई, और ऐसा लगता है कि लोगों के पास थोड़े बहुत नकली नोट या खराब नोट जो थे, उन्हें भी बैंकों में किसी तरह खपा दिया गया।
आज हिंदुस्तान में जीएसटी की वजह से या नोटबंदी के तुरंत बाद से, लॉकडाउन और बाजार की मंदी की वजह से छोटे-छोटे कारोबारी एक किस्म से सडक़ों पर आ गए हैं। बहुत से छोटे-छोटे काम धंधे बंद हो गए हैं और यह बात राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इसलिए खुलकर नहीं दिखती है कि देश के कुछ सबसे बड़े उद्योग घरानों का कारोबार आसमान पर पहुंच रहा है उनकी संपत्ति छलांग लगाकर बढ़ रही है. जब राष्ट्रीय उत्पादकता की बात आती है तो इस तरह संपन्न तबकों की बढ़ी हुई उत्पादकता और कमाई देश की बेरोजगार हो चली जनता या धंधा खो चुके कारोबारियों के नुकसान के साथ मिलकर एक औसत तस्वीर बताती है। ऐसी औसत तस्वीर में देश के सबसे खुशहाल तबके और देश के सबसे बदहाल तबके का जिक्र अलग-अलग नहीं हो पाता है। हिंदुस्तान में इतने बड़े पैमाने पर काला धन केंद्र सरकार की सारी टैक्स और जांच प्रणाली दोनों के लिए बड़ी चुनौती है। कानपुर का यह इत्र कारोबारी चाहे समाजवादी इत्र बनाने वाला हो या न हो, या फिर यह पैसा समाजवादी पार्टी के चुनावी खर्च के लिए रखा गया हो या कारोबार का काला धन हो, जो भी हो, इतने बड़े काले धन पर कार्रवाई तो होनी ही चाहिए। ऐसे बड़े काले कारोबारियों के साथ किसी की हमदर्दी नहीं होनी चाहिए। और फिर चुनिंदा कारोबारियों को सजा देना, और चुनिंदा कारोबारियों को बढ़ावा देना, इसमें नया कुछ भी नहीं है। भारत में इंदिरा गांधी के समय से ही धीरूभाई अंबानी जैसे कुछ चुनिंदा कारोबारी सत्ता का बढ़ावा पाते थे और ऐसी चर्चा रहती थी कि वे सरकार की नीतियां तय करते थे। इसलिए हर सरकार के चहेते कारोबारी रहते हैं, और विपक्ष के करीबी कई कारोबारी सत्ता के निशाने पर भी रहते हैं। जो भी हो, टैक्स चोरों और काले धंधेबाजों पर कार्रवाई होनी ही चाहिए और अगर बाकी लोगों के पास ऐसे बाकी धंधेबाजों के बारे में कोई जानकारी है तो उसे भी उजागर किया जाना चाहिए। काले धंधे पर कार्रवाई अकेले सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि जिस-जिसको इसके बारे में जानकारी है उन्हें इसकी शिकायत सरकार की एजेंसियों या न्यायपालिका से करना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तर प्रदेश में फरवरी में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और देश के चुनाव आयोग दोनों का नाम लेकर यह अपील की है की कोरोना वायरस के खतरे को देखते हुए चुनावों को टालने पर विचार करना चाहिए और चुनावी सभाओं और रैलियों पर तुरंत ही रोक लगानी चाहिए। हाईकोर्ट ने लीक से हटकर अपने इस सुझाव को प्रधानमंत्री और चुनाव आयोग के नाम एक अपील की तरह जारी किया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोरोना मोर्चे पर अब तक की कामयाबी की तारीफ भी की है।
हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में लगातार बढ़ते हुए कोरोना संक्रमण और मौतों का जिक्र किया है और कहा है कि तीसरी लहर हमारे दरवाजे पर खड़ी हुई है ऐसे में फरवरी में होने जा रहे चुनावों को एक दो महीनों के लिए टाला जाना चाहिए। जस्टिस शेखर कुमार यादव ने इस अदालती अपील में कहा है कि राजनीतिक दलों की बड़ी-बड़ी आम सभाओं और रैलियों से लोगों के लिए एक खतरा खड़ा होगा। उन्होंने चुनाव आयोग से यह भी अपील की है कि वे राजनीतिक दलों से यह कहें कि वे रैलियों और आम सभाओं के रास्ते प्रचार न करें बल्कि अखबारों और टीवी का इस्तेमाल करें। जस्टिस यादव ने कहा कि जान है तो जहान है अगर जिंदगी बची रही तो चुनावी रैलियां और आम सभाएं बाद में भी हो सकती हैं, और उन्होंने याद दिलाया कि संविधान की धारा 21 लोगों को जीने का अधिकार देती है। जस्टिस यादव ने प्रधानमंत्री से भी इस भयानक नौबत को ध्यान में रखते हुए विचार करने की अपील की है।
जज ने कहा है कि अगर कोरोना के बढऩे को समय पर नहीं रोका गया तो इसके नतीजे इसकी दूसरी लहर से भी अधिक खतरनाक होंगे। उन्होंने याद दिलाया कि उत्तर प्रदेश के ग्राम पंचायत चुनावों और पश्चिम बंगाल के चुनावों में बहुत लोग कोरोनावायरस से मारे गए थे। इस पर पूछे जाने पर सरकार की तरफ से केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि यह फैसला चुनाव आयोग को लेना है कि चुनाव कब होंगे। दूसरी तरफ चुनाव आयोग का यह कहना है कि वह अगले हफ्ते उत्तर प्रदेश जाएगा, वहां की समीक्षा करेगा और फिर उचित फैसला लेगा।
अभी राजनीतिक दलों ने हाई कोर्ट के जज की इस अपील पर कुछ नहीं कहा है क्योंकि चुनाव हर राजनीतिक दल को अच्छा लगता है। हर किसी के पास अपनी बात कहने का एक मौका रहता है और लोगों की हिफाजत, या लोकतंत्र की हिफाजत राजनीतिक दलों की आखिरी प्राथमिकता रहती हैं। जैसा कि हिंदुस्तान के चुनावों का आम ढर्रा है, लोगों को शराब पिलाकर, उन्हें तोहफे बांटकर, नगद रकम देकर, धर्म और जाति का ध्रुवीकरण करके, भावनात्मक और भडक़ाऊ झूठे मुद्दे उठाकर, वोटरों को प्रभावित करने की एक साजिश में अधिकतर पार्टियां जुट जाती हैं, और लोकतंत्र या देश-प्रदेश का भला उनकी आखिरी प्राथमिकता रहती है। हमने बंगाल के चुनाव के वक्त भी देखा कि तमाम राजनीतिक दलों ने लाखों लोगों की एक-एक चुनावी आमसभा से लोगों की जिंदगी पर होने वाले खतरों के खिलाफ कोई फिक्र नहीं की और हर बड़ी पार्टी के बड़े नेता ने लाखों लोगों को इक_ा किया, उसके लिए एक-एक गाड़ी में सैकड़ों लोगों को भरकर चुनावी सभा में लाया गया।
वैसा ही आज उत्तर प्रदेश में चल रहा है और उत्तर प्रदेश में तो केंद्र और राज्य में दोनों पर भाजपा काबिज होने की वजह से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के स्तर पर बड़े-बड़े सरकारी कार्यक्रम हो रहे हैं जिनमें उद्घाटन और शिलान्यास चल रहे हैं, और जिन्हें लेकर कोई चुनावी आपत्ति भी नहीं की जा सकती, और ऐसे कार्यक्रमों में सरकारी इंतजाम से लोगों को इकट्ठा किया जा रहा है। इनसे परे भी राजनीतिक कार्यक्रम हो रहे हैं जिनमें लाखों लोगों की भीड़ जुटने का दावा सत्तारूढ़ पार्टी ही कर रही है। एक तरफ तो आज देश में अधिकतर राज्यों में रात का कफ्र्यू या तो लगाया जा चुका है, या उस पर विचार चल रहा है। केंद्र सरकार ने तमाम राज्यों को यह सलाह दी है कि वे रात के कफ्र्यू लगाने के बारे में सोचें। आज एक दर्जन राज्यों में कोरोना का नया खतरनाक वेरिएंट ओमिक्रॉन दाखिल हो चुका है, और और उसके खतरे से जूझने के लिए हिंदुस्तान पता नहीं कितना तैयार है। हिंदुस्तान में आज आधी से अधिक आबादी तो बिना टीकों के है और जिन्हें पहला टीका लगा है उनमें से भी बहुत से लोगों को दूसरा टीका नहीं लगा है। दुनिया के विकसित देश तीसरे और चौथे बूस्टर डोज की तरफ बढ़ रहे हैं और हिंदुस्तान में अभी आधी आबादी के लिए टीकाकरण शुरू ही नहीं हो पाया है। ऐसे में देश नए खतरे को किस हद तक झेल पाएगा यह सोच पाना बड़ा मुश्किल है।
लोगों को यह भी याद रहना चाहिए कि जिस उत्तर प्रदेश को लेकर यह बात हो रही है उस उत्तर प्रदेश में पिछली लहर में लगातार इतने लोग मारे गए थे कि उनकी लाशों को गंगा में बहाया गया था, या गंगा के तट पर रेत में दबा दिया गया था, जो बाद में उजागर होकर दुनिया की कुछ सबसे भयानक तस्वीरें बना रही थीं। वह दौर कई किस्म की सरकारी नाकामयाबी का एक भयानक दौर था, और देश के किसी भी दूसरे राज्य में वैसी तबाही नहीं देखी थी। इसलिए आज हाईकोर्ट के एक जज की फिक्र के साथ-साथ राज्य सरकार और केंद्र सरकार को भी जनता की फिक्र करनी चाहिए और राजनीतिक दलों को भी यह चाहिए कि इस मुद्दे पर अपना रुख साफ करें। आज पार्टियां चुप्पी साधकर बैठी हैं जबकि चुनाव उत्तर प्रदेश के अलावा भी दूसरे राज्यों में होने जा रहा है और ऐसे तमाम राज्यों को, वहां चुनाव लडऩे जा रही पार्टियों को, अपना रुख साफ करना चाहिए। हिंदुस्तान में अब अखबार और टीवी चैनल, मोबाइल फोन और तरह-तरह के मैसेंजर, इन सबकी जनता के बीच में इतनी घुसपैठ हो चुकी है अगर कोई चुनाव करवाना भी है तो उस चुनाव की तारीखों को फैलाकर रखना चाहिए ताकि किसी भी जगह भीड़ और धक्का-मुक्की की नौबत ना आए, मतदान केंद्र बढ़ाने चाहिए, आम सभाओं और किसी भी किस्म की भीड़ को पूरी तरह से रोक देना चाहिए। वरना लोकतंत्र के नाम पर जो ढकोसला चुनाव की शक्ल में होता है, और जिसे तमाम किस्म की अलोकतांत्रिक बातों से प्रभावित किया जाता है, उसे कोरोना वायरस के सबसे बड़े आयोजन की तरह इतिहास में दर्ज किया जाएगा।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ऑस्ट्रेलिया की सरकार अभी अपने एक फैसले को लेकर कई जगह आलोचना झेल रही है जिसमें वह तैयारी कर रही है कि जिन लोगों ने कोरोना वैक्सीन नहीं लगवाई है उनके बीमार होकर अस्पताल पहुंचने पर अपने इलाज का खर्च वे खुद उठाएं और सरकार पर इसका बोझ न आए। डॉक्टरों के कुछ संगठन इसे एक अनैतिक फैसला कह रहे हैं लेकिन दूसरी तरफ सरकार के अपने तर्क हैं। ऑस्ट्रेलियन सरकार ने सिंगापुर को देखकर यह फैसला लिया है जहां की सरकार बहुत लोकतांत्रिक नहीं मानी जाती है और उसने यह तय किया है कि जो लोग अपनी पसंद से बिना वैक्सीन रहना चाहते हैं, वे कोरोना वायरस के शिकार होने पर अपने इलाज का खर्च खुद उठाएं। ऑस्ट्रेलिया ने सिंगापुर के इसी फैसले पर चलना तय किया है और अभी वहां सरकार इसकी तैयारी कर रही है। सरकार के एक मंत्री जिन्हें इस अभियान के लिए जिम्मेदार बनाया गया है उन्होंने कहा कि देश की चिकित्सा व्यवस्था वैसे ही बहुत ज्यादा बोझ ढो रही है और इस पर ऐसे लोगों का बोझ और नहीं डालना चाहिए जो इंटरनेट पर बेवकूफी की बातों पर भरोसा करते हैं, और मेडिकल सलाह को अनदेखा करते हैं। इस मंत्री ने कहा कि ऐसे लोगों की अस्पताल में भर्ती से अस्पताल की सीमित क्षमता खत्म होती है जिसकी वजह से डायबिटीज या अस्थमा जैसी दूसरी बीमारियों के मरीजों के भी मरने की नौबत आ जाती है क्योंकि उन्हें इलाज के लिए बिस्तर नहीं मिलते। सरकार का यह फैसला विवाद छेड़ रहा है क्योंकि कई देशों में ऑस्ट्रेलियाई सरकार के इस फैसले को गलत माना जा रहा है। अधिकतर देशों में इसे लोगों की मर्जी पर छोड़ा गया है कि वे चाहें तो टीका लगवाएं ,चाहें तो टीका न लगवाएं, लेकिन इसका असर यह है कि अमेरिका जैसे अधिक पढ़े-लिखे देश में भी टीका न लगवाने वाले लोगों की भारी भीड़ है। इनमें ऐसे लोग भी हैं जिन्हें टीकों पर भरोसा नहीं है क्योंकि इनकी पर्याप्त क्लीनिकल ट्रायल नहीं हुई है, और इनमें ऐसे लोग भी हैं जो अपने शरीर में किसी बाहरी पदार्थ के डाले जाने के खिलाफ हैं। हिंदुस्तानी लोगों को याद होगा कि जब महात्मा गांधी अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ पूना के आगा खान पैलेस में ब्रिटिश सरकार के कैदी बनाकर रखे गए थे, उस वक्त कस्तूरबा की तबीयत बहुत खराब हुई और जो ब्रिटिश डॉक्टर उन्हें देखने आया, उसने पेनिसिलिन का इंजेक्शन लगाने की तैयारी की। इसे देखकर बापू ने पूछा कि वह क्या कर रहे हैं तो डॉक्टर ने कहा कि उनकी जान बचाने के लिए पेनिसिलिन का इंजेक्शन जरूरी है. इस पर गांधी ने कहा कि वे तो शरीर में किसी भी बाहरी चीज को दाखिल करने के खिलाफ हैं क्योंकि यह प्रकृति के खिलाफ है, लेकिन उन्होंने फैसला कस्तूरबा पर छोड़ा जो कि गांधी की इस बात को सुन चुकी थीं। आखिर में डॉक्टर को इंजेक्शन नहीं लगाने दिया गया और गांधी की गोद में सिर रखे-रखे कस्तूरबा गुजर गईं। कुछ वैसा ही बाहरी पदार्थों से परहेज पश्चिम के भी बहुत से देशों में है जो कि किसी भी तरह का इंजेक्शन लेना नहीं चाहते, कोई टीका लगवाना नहीं चाहते।
अब मुद्दा यह है कि जो लोग वैक्सीन पर भरोसा नहीं करते हैं, या जिन्हें अपने शरीर में बाहरी इंजेक्शन लगवाने से परहेज है, ऐसे लोग भी बीमार पडऩे पर इलाज के लिए उसी चिकित्सा विज्ञान के पास अस्पताल जाते हैं जिस चिकित्सा विज्ञान ने यह वैक्सीन भी विकसित की है। वे वहां अस्पताल में भर्ती होने के बाद वही इंजेक्शन लगवाते हैं जिन्हें लगवाने का वे विरोध कर रहे हैं। तो इस तरह वैक्सीन न लेने वाले लोग किसी भी देश की सरकार की सीमित चिकित्सा सुविधा पर एक बड़ा बोझ बन रहे हैं क्योंकि वे अधिक संख्या में बीमार पड़ रहे हैं, उन्हें अधिक संख्या में अस्पताल जाने की जरूरत पड़ रही है, और वहां पर भी कई किस्म की बीमारियों के उन तमाम मरीजों के हक के बिस्तर पर कब्जा कर रहे हैं जिन्हें किसी न किसी दूसरी बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल में दाखिल होना था, जिन्होंने एक जिम्मेदार की तरह वैक्सीन लगवा रखी थी, लेकिन जिन्हें आज अस्पताल में बिस्तर नहीं मिल रहा है।
आज ऑस्ट्रेलिया की सरकार की सोच को कोई कितना ही अनैतिक कहें, सवाल यह भी है कि जब कोई बीमारी महामारी का दर्जा पाती है, वह देशों की सरहदों के भी आर-पार चारों तरफ पूरी मानव प्रजाति पर एक खतरा बनकर मंडरा रही है, तब भी क्या लोगों को चिकित्सा विज्ञान की सलाह के खिलाफ ऐसी आजादी दी जा सकती है कि वे वैक्सीन ना लगवाएं, लेकिन जरूरत पडऩे पर वे अस्पतालों में जाएं? अस्पतालों में उनको आने से मना नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करना उनके मानवीय अधिकारों का उल्लंघन होगा, लेकिन दूसरी तरफ यह बात भी है कि ऐसे लोगों का इलाज मुफ्त में क्यों किया जाए?
अमेरिका के सबसे बड़े महामारी विशेषज्ञ इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि वहां के करोड़ों लोग अब तक बिना वैक्सीन के चल रहे हैं और जिस तरह अभी लाखों लोग कोरोना वायरस का शिकार हर दिन हो रहे हैं, उसमें ऐसे लोग पता नहीं कितना बड़ा बोझ बनेंगे? वहां की सरकार ने यह तय किया है कि कोरोनावायरस की जांच-किट लोगों के घरों पर मुफ्त में भेजी जा रही है ताकि लोग का घर बैठे जांच कर सकें। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि ऐसे लोग जो घर पर रहते हुए वैक्सीन से भी परहेज कर रहे हैं वे इस जांच किट का क्या इस्तेमाल करेंगे, और अगर वे अपने आपको कोरोना पॉजिटिव पाते हैं तो भी क्या करेंगे? ऐसे बहुत से सवाल हर देश में खड़े हो रहे हैं जहां पर टीकाकरण पर्याप्त नहीं हुआ है। खुद हिंदुस्तान के टीकाकरण का जो हाल है उस पर हमने दो-तीन दिन पहले इसी जगह पर लिखा है कि किस तरह देश की 40 फ़ीसदी आबादी का टीकाकरण शुरू भी नहीं हुआ है जो कि 18 बरस से कम उम्र की है। फिर बाकी 60 फ़ीसदी आबादी में आधे लोग ऐसे हैं जिनको एक ही टीका लगा है, और बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें कोई टीका नहीं लगा है। यह दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के लिए भी सोचने और समझने की बात है कि महामारी की नौबत में लोगों को निजी आजादी कितनी दी जाए? क्योंकि ऐसे लोग न केवल आत्मघाती साबित हो सकते हैं, बल्कि ये लोग बाकी पूरे देश के लिए भी एक खतरा हो सकते हैं। और जानकार लोगों का यह मानना है कि दुनिया का कोई भी देश अपने नागरिकों को वैक्सीन का तीसरा और चौथा बूस्टर डोज देकर भी अपने देश को पूरी तरह महफूज नहीं रख सकता जब तक कि पूरी दुनिया के तमाम देशों के लोगों को पर्याप्त वैक्सीन ना लग जाए। कोई भी सुरक्षित टापू नहीं रह सकता, जब तक कि आसपास के दूसरे देश या टापू सुरक्षित ना हों। अब ऐसे में किसी देश के लापरवाह नागरिक जो कि चिकित्सा विज्ञान की सलाह के खिलाफ जाकर टीके लगवाने से परहेज कर रहे हैं, वे न सिर्फ अपने देश के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए खतरा हैं, और क्या किसी देश को ऐसा अधिकार भी हासिल है कि वह अपने नागरिकों को बाकी दुनिया के लिए खतरा बन जाने दे? इसलिए आज जब अलग-अलग देश-प्रदेश अपने लोगों पर कई तरह के प्रतिबंध लगा रहे हैं कि अगर उन्होंने पर्याप्त टीकाकरण नहीं करवाया है तो वे सार्वजनिक जगहों पर नहीं जा सकते, भीड़ भरी जगहों पर नहीं जा सकते, तो यह रोक-टोक बहुत लोकतांत्रिक चाहे ना हो यह एक वैज्ञानिक रोक-टोक है, और पूरी दुनिया पर छाए हुए महामारी के खतरे को देखते हुए यह लोकतांत्रिक अधिकारों को निलंबित करके महामारी की जरूरतों को पूरा करने का वक्त भी है।
तमाम देशों को बहुत ही कड़ाई से टीकाकरण की शर्तों को लागू करना चाहिए और अपने अलावा दूसरे गरीब देशों के टीकाकरण का इंतजाम भी करना चाहिए क्योंकि जब तक किसी भी एक देश में कोरोनावायरस बाकी रहेंगे तब तक वहां से इनका बाकी दुनिया में फैलने का खतरा तो बने ही रहेगा। दुनिया ने अभी ताजा-ताजा देखा है कि 2 बरस पहले किस तरह चीन के वुहान से शुरू होकर कोरोना वायरस पूरी दुनिया में फैला और पूरी दुनिया का जीना हराम कर दिया इसलिए आज कोई गरीब देश भी अगर बिना टीकों के है तो तीसरा और चौथा बूस्टर डोज़ लेने वाले जर्मन और ब्रिटिश नागरिक भी अपने घरों में बैठे हुए भी सुरक्षित नहीं है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जापान के प्रधानमंत्री ने 2 दिन पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस लेकर देश के लोगों से अपील की कि वे अधिक से अधिक दूध पिएं, इसके अलावा वे पकाने के काम में भी दूध का अधिक इस्तेमाल करें क्योंकि वहां पैदा होने वाला दूध खराब होने की नौबत आ रही है। कोरोना की वजह से लोगों का बाहर घूमना, होटलों में खाना कम हो रहा है, और दूध की खपत घट गई है, लेकिन दूध पैदा होना पहले की तरह जारी है तो उसके खराब होने की नौबत न आए इसलिए जापान सरकार के मंत्री कहीं प्रेस कॉन्फ्रेंस में दूध पीते दिख रहे हैं, तो कहीं प्रधानमंत्री लोगों से दूध का अधिक इस्तेमाल करने की अपील करते दिख रहे हैं। लोगों से नाश्ते के तौर तरीके में बदलाव लाने के लिए कहा जा रहा है ताकि दूध का अधिक इस्तेमाल हो सके।
यह एक बड़ी अटपटी नौबत है कि देश के प्रधानमंत्री को किसी एक चीज को अधिक खाने-पीने के लिए अपील करनी पड़ रही है। हालांकि हम हिंदुस्तान में बहुत से राज्यों में दूध की मांग कम होने पर या उसका उत्पादन बढऩे पर दूध कारखानों को देखते हैं कि वे किस तरह उसे सुखाकर दूध पाउडर बना लेते हैं और बाद में मांग बढऩे पर उसे घोल कर, दूध बनाकर लोगों के घर भेजते हैं, और बड़ी आसानी से उत्पादन और मांग के इस फासले को पाट लिया जाता है। पता नहीं जापान में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा है क्योंकि वह तो हिंदुस्तान के मुकाबले भी बहुत अधिक विकसित और उच्च तकनीक वाला देश है, लेकिन हम इस खबर के एक छोटे से पहलू पर लिखने जा रहे हैं, इसलिए जापान की दिक्कत की बारीकियों से यहां कोई अधिक वास्ता नहीं है। यह समझने की जरूरत है कि जब किसी देश में किसी चीज की जरूरत से अधिक पैदावार हो जाती है या जरूरत से बहुत कम, तो देश के नेता अपील करके उस नौबत को सुधारने में कैसे मदद कर सकते हैं। अब हिंदुस्तान में हर बरस दो-चार बार कभी प्याज की कमी हो जाती है, तो कभी टमाटर के दाम आसमान पर पहुंचते हैं। खाने के तेल के दाम तो आसमान पर ही टंग गए हैं जो वहां से नीचे उतरने का नाम नहीं लेते। यही हाल पेट्रोल और डीजल का भी है। लेकिन पूरे देश में कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, या दूसरे नेता लोगों के सामने कोई मिसाल पेश करते नहीं दिखते कि किस तरह वे अपने काफिले की कारें कम करें, अपनी कार के आकार को कम करें, अपने अफसरों के ईंधन की खपत को घटाएं, या लोगों को खाने-पीने के सामानों के लिए यह सुझाव दें कि जिन दिनों किसी चीज की कमी हो रही है उन दिनों कुछ दिनों के लिए बिना प्याज और टमाटर भी लोग काम चला सकते हैं, तो चलाएं। ऐसी अगर कोई अपील हो और लोग अगर इस तरह उसे मानें, तो हो सकता है कि चीजों की कमी भी खत्म हो जाए और जो हाय-तौबा मीडिया में सामने आता है वह भी कुछ घट जाए।
यह तो हुई सतह पर तैरती हुई खबरों की बात, लेकिन इनसे परे केंद्र और राज्य सरकारें दूध और फल सब्जी जैसी चीजों के लिए मार्केटिंग का ऐसा एक नेटवर्क खड़ा करने में भी मदद कर सकती हैं जिनमें बिचौलियों की जेब में जाने वाली मोटी रकम किसान और ग्राहक के बीच बंट जाए। अभी सब्जी उगाने वाले लोगों के बारे में यह पता लगता है कि उन्हें कई बार तो सब्जी तुड़वाकर खेत से बाजार तक लाने में जो खर्च आता है उतना पैसा भी बाजार से नहीं मिलता। दूसरी तरफ ग्राहक लगातार इस बात की शिकायत करते हैं कि सब्जियां बहुत महंगी होती जा रही हैं। तो यह पैसा जाता कहां है ? सब्जी मंडियों के आढ़तियों की जेब में अगर इतना बड़ा हिस्सा जा रहा है तो केंद्र और राज्य सरकारों को फल-सब्जी-दूध के ऐसे बाजार बनाने चाहिए जहां पर किसान बेचने बैठ सकें। डेयरी के लोग सीधे दूध बेच सकें, या फल-सब्जी उगाने वाले लोग मंडी में सीधे सामान बेच सकें। ऐसा होने पर एक तरफ तो किसी सामान की उपज बढऩे पर उसकी खपत की अपील भी की जा सकती है और उसकी कमी होने पर उससे कुछ दिन परहेज करने की भी।
हिंदुस्तान में बहुत से लोकप्रिय नेता अभिनेता हैं, खिलाड़ी और चर्चित लोग हैं जिनकी बात का लोगों पर बड़ा असर होता है और वे अगर एक सार्वजनिक अपील करें तो उन्हें मानने वाले लोग अपनी रोज की जिंदगी में कुछ चीजों की खपत को कम या अधिक भी कर सकते हैं। लोगों को याद होगा कि बहुत पहले जब हिंदुस्तान की कोई जंग चल रही थी तो लोगों ने एक वक्त का खाना छोड़ा था, और एक प्रधानमंत्री की अपील पर देश की महिलाओं ने फौज के लिए अपने गहने उतारकर दे दिए थे। जिन लोगों को लोकप्रियता हासिल रहती है या जिनकी बातों को मानने वाले लोग बड़ी संख्या में रहते हैं उन्हें कई किस्म के नेक कामों के लिए अपने असर का इस्तेमाल करना चाहिए। आज दिक्कत यह हो गई है कि खेल और सिनेमा जैसे चकाचौंध शोहरत वाले सितारे मोटी रकम लिए बिना समाजसेवा की कोई ट्वीट भी नहीं करते। दूसरी तरफ नेता अपने सारे असर को वोटों की शक्ल में भुनाते हुए अपनी लोकप्रियता भी खो बैठते हैं और उनकी बातें मोटे तौर पर बेअसर होने लगती हैं। जो उनके समर्थक रहते हैं उनके बीच भी उनका असर कम होता है। ऐसे में यह देखना होगा कि क्या इन लोगों की बातों का लोगों पर ऐसा असर हो सकता है कि लोग अपना खाना पीना बढ़ा लें या घटा दें? हर देश प्रदेश में ऐसे लोग रहते हैं जिनकी बातों को लोग गंभीरता से लेते हैं, और ऐसे लोगों को अपने असर का समाज के भले के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ बरस पहले तबाही का शिकार हुए उत्तराखंड के लोगों के बनाये सामान खरीदने के लिए ऐसे अपील हुई थी।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड के चंपावत जिले में एक स्कूल के सवर्ण बच्चे पिछले एक हफ्ते से स्कूल में दोपहर का खाना नहीं खा रहे हैं क्योंकि वह एक दलित महिला द्वारा बनाया जा रहा है। इन बच्चों ने पहले दिन तो बिना किसी विवाद के इस महिला का पकाया हुआ खाना खा लिया था, लेकिन अगले दिन से सवर्ण बच्चे घरों से अपना टिफिन लेकर आने लगे और इस दलित भोजनमाता का बनाया हुआ खाना खाने से मना कर दिया। इस सरकारी इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल का कहना है कि 57 छात्र-छात्राओं में से कुल 17 वहां खा रहे हैं जो कि दलित समुदाय के हैं, बाकी ने खाना बंद कर दिया है। जबकि खाना पकाने के लिए दलित महिला की नियुक्ति एक कमेटी ने की थी जिसमें स्कूल मैनेजमेंट के लोग भी थे और पालक शिक्षक संघ के लोग भी थे। उत्तराखंड में ऊंची कक्षाओं वाली स्कूल को इंटर कॉलेज भी कहा जाता है और दलित महिला के पकाए खाने को खाने के बजाय यहां के सवर्ण छात्र-छात्रा घर से खाना लेकर आ रहे हैं।
यह तो मामला है स्कूल का, जहां पर छात्र-छात्राओं के सवर्ण मां-बाप एक दलित महिला को खाना पकाने पर रखने के खिलाफ बात कर रहे हैं और जाहिर है कि उनके कहे हुए ही उनके बच्चे घर से टिफिन लेकर आ रहे हैं। लेकिन एक दूसरी खबर को इसके साथ जोडक़र देखने की जरूरत है। अभी मध्य प्रदेश के एक प्रमुख राजनीतिक कार्यकर्ता बादल सरोज ने फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया है जिसमें कोई एक हिंदू प्रवचनकर्ता भगवे कपड़ों में धर्म की बहुत सी बातों को कर रहा है और साथ-साथ उनसे अधिक बातें मुस्लिमों के खिलाफ घोर सांप्रदायिक और नफरत फैलाने वाली कर रहा है। किसी भी सेहतमंद दिमाग वाले के लिए इतनी नफरत की बातें सुनना मुश्किल है लेकिन इस नफरतजीवी के सामने बैठे भक्तजन तालियां बजा रहे हैं और इस भीड़ में बैठे हुए छोटे-छोटे बच्चे नफरत की बातों पर हाथ जोडक़र तालियां बजाते दिख रहे हैं। जाहिर है कि अपने परिवार के बड़े लोगों के साथ वहां पहुंचे हुए ऐसे छोटे बच्चे पांच-दस बरस की उम्र से ही नफरत की ऐसी हिंसक बातों को सुन रहे हैं कि मुस्लिमों के खिलाफ क्या-क्या किया जाना चाहिए।
इन दो बातों को अगर मिलाकर देखें तो ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान में नफरत पर जीने वाले लोग न केवल आज की हवा को जहरीली करने के खतरों से बेफिक्र हैं बल्कि वे अपनी आने वाली पीढिय़ों को भी एक जहरीली हवा देकर जाना चाह रहे हैं। उनके लिए हिंदुस्तान का संविधान, इसकी बुनियादी बातें, इंसानियत की बुनियादी बातें, कोई मायने नहीं रखतीं, वे सिर्फ नफरत पर जी रहे हैं और नफरत को ही बढ़ाते चलना चाहते हैं। जिस तरह तिल का लड्डू बनाने के लिए गुड़ की चाशनी तिलों को जोडऩे का काम करती है उसी तरह हिंदुस्तान में नफरत धार्मिक हिंसा, जातिवादी हिंसा के नाम पर लोगों को बहुत तेजी से एक कर लेती है, उन्हें जोडक़र एक लड्डू के दानों की तरह मजबूत बना देती है। चारों तरफ आज लोग आने वाली पीढ़ी के भविष्य से बेफिक्र, आज ही हिंदुस्तान को इतनी खतरनाक जगह बनाने पर आमादा हैं कि जिसकी कोई हद नहीं। ऐसे लोगों के लिए कोई धार्मिक प्रवचन हो या यह स्कूल का खाना हो या ट्रेन और बस में बैठ कर बातें करना हो, हर जगह नफरत इनकी पहली प्राथमिकता रहती है। फिर ऐसा भी नहीं है कि लगातार हिंसक नफरत की बातें करने वाले समाज में सिर्फ तनाव खड़ा करके उतना ही नुकसान करते हैं। लगातार ऐसी हिंसा और नफरत सोचने वाले लोग अपने दिल-दिमाग पर भी इसका असर पाते हैं और उनका खुद का कामकाज भी इससे बहुत बुरी तरह प्रभावित होता है। उनके परिवार और आस पड़ोस में, काम की जगह पर जो लोग उनके प्रभाव में रहते हैं उन तक भी ऐसी हिंसक नफरत फैलती है और फिर यही हिंसक नफरत लहरों की तरह दौड़-दौडक़र वापस उन तक आती हैं।
समाज में जो सामाजिक और राजनीतिक चेतना रहनी चाहिए, मानवीय मूल्यों की जो समझ लेनी चाहिए, जो दूसरों के अधिकारों और अपनी जिम्मेदारी के प्रति सम्मान रहना चाहिए, वह सब बहुत रफ्तार से खत्म हो चला है। लोगों को सच से एलर्जी हो गई है और समझदारी की बातों से परहेज हो गया है। देश की हवा ऐसी घोर सांप्रदायिक और हिंसक हो गई है कि जिसकी कोई हद नहीं। सवाल यह है कि जो लोग ऐसी नफरत के हिमायती नहीं हैं वे लोग चुप हैं, और जो लोग नफरत के वकील हैं वे झंडे-डंडे लेकर सडक़ों पर हैं। जहां भलमनसाहत घर के भीतर आरामकुर्सी पर हाथ टिकाए महफूज रहती है वहां नफरत सडक़ों पर राज करती है। इसे हमने जगह-जगह देखा है और यह हिंसा मिजाज में ऐसे बैठ जाती है कि वह फिर अपने धर्म की रक्षा के नाम पर, किसी शक के आधार पर, किसी की भी सामूहिक हत्या कर लेती है और उसे अपने धर्म को बचाने का नाम दे देती है।
कहीं पर गाय को बचाने के नाम पर ऐसी हत्याएं हो रही हैं, तो कहीं पर किसी हिंदू-मुस्लिम लडक़े-लडक़ी को मिलने से रोकने के लिए ऐसी हत्याएं हो रही हैं। धर्म और जाति के नाम पर फैलाई जा रही नफरत मासूम नहीं है, यह वोटों की राजनीति करने के लिए, चुनाव जीतने के लिए सोच समझकर साजिशन फैलाई जा रही है। इसके खतरों को समझना जरूरी है। समाज में जो जिम्मेदार लोग हैं उनको मुंह खोलना होगा, उनको ऐसे मामलों में सामने आना होगा। आज जो लोग अपने बच्चों को एक दलित महिला के पकाए हुए खाने को खाने से रोक रहे हैं, वे उन बच्चों की पूरी पीढ़ी को एक जातिवादी नफरत में झोंक रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए आज देश का कानून इसे खत्म करने की ताकत रखता है, लेकिन उस ताकत के इस्तेमाल की राजनीतिक इच्छाशक्ति तो उन लोगों के पास जरूरी है जो कि सरकार हांकते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पंजाब में गुरु ग्रंथ साहब के अपमान के आरोपों के साथ पिछले लगातार दो दिनों में दो लोगों की हत्याएं हुई हैं। पहली हत्या तो स्वर्ण मंदिर में ग्रंथ साहब के पास पहुंचने वाले एक नौजवान की हुई है जो कि बहुत बुरे हाल में दिख रहा था, उसे वहां मौजूद सिख संगत के लोगों ने पीट-पीटकर मार डाला। इसके बाद पंजाब के एक और शहर कपूरथला में एक गुरुद्वारे में कुछ गलत हरकत करने के आरोप में एक और नौजवान को पहले तो पुलिस ने पकड़ा और फिर पुलिस से छीनकर उसे भीड़ ने मार डाला। बाद में कपूरथला पुलिस ने ही यह साफ किया कि न कोई बेअदबी हुई, और न ही इस आदमी ने कुछ किया था।
इस बारे में जब देश के एक प्रमुख टीवी समाचार चैनल एनडीटीवी ने पंजाब के बहुत से नेताओं और शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष से बात करके यह जानना चाहा कि गुरु ग्रंथ साहब की बेअदबी तो बहुत ही निंदनीय है, लेकिन ऐसे शक में पकड़े गए लोगों को पीट-पीटकर मार डालने पर उनका क्या कहना है? इस पर कांग्रेस के पंजाब अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू तो आग उगलते हुए मंच और माइक से कह रहे हैं कि जो ऐसी बेअदबी कर रहा है उसे देश की सबसे कड़ी सजा मिलनी चाहिए और चौराहे पर फांसी लगानी चाहिए। पंजाब चुनाव के मुहाने पर खड़ा हुआ है इसलिए वहां के दूसरे राजनीतिक दल बहुत पीछे तो रह नहीं सकते थे, और उन्होंने भी तकरीबन इसी अंदाज में बयान दिए हैं और भीड़त्या की कोई भी निंदा करने से इंकार कर दिया है। हर किसी को यह लग रहा है कि गुरु ग्रंथ साहब का अपमान एक व्यक्ति पर हमला है और आत्मरक्षा के लिए कोई भी कार्रवाई की जा सकती है। अकाली दल के प्रवक्ता पेशे से वकील भी हैं और उन्होंने दुनिया भर की धाराएं भी गिना दीं कि ग्रंथ साहब पर हमला होने पर आत्मरक्षा में कौन-कौन सी कार्यवाही की जा सकती है। पंजाब की किसी भी प्रमुख पार्टी के नेता ने भीड़ की ऐसी हिंसा और मौके पर लोगों को शक में मार डालने के खिलाफ एक शब्द भी बोलना मंजूर नहीं किया है, न ही शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने।
यह एक बड़ी खतरनाक नौबत है कि जब देश के राजनीतिक दल सार्वजनिक और सामूहिक हिंसा के खिलाफ कुछ भी बोलने से कतराएं, और साथ ही उसे जायज बताने के लिए बहस करने लगें। और कांग्रेस के सिद्धू ने तो बाकी सबको पीछे छोड़ दिया और चौराहे पर फांसी पर टांगने की मांग कर डाली। इन तमाम बातों का नतीजा यह होगा कि पंजाब में अगर दोबारा ऐसी कोई नौबत आती है कि जब लोगों को यह संदेह हो कि धर्म ग्रंथ का या धर्म का कोई अपमान हो रहा है तो कोई भी भीड़ मौके पर ही अपने अंदाज का इंसाफ करने में लग जाएगी। हालत यह है कि स्वर्ण मंदिर में जिस नौजवान की हत्या हुई उसके बारे में चुप्पी साधकर मुख्यमंत्री से लेकर बाकी तमाम लोगों ने बार-बार यह बयान दिए कि इसके पीछे, गुरु ग्रंथ साहब के अपमान की कोशिश के पीछे, कौन सी साजिश थी उसका पता लगाना चाहिए। सवाल यह उठता है कि किसी संदिग्ध को मार देने के बाद कौन सी साजिश का पता लग सकता है? अगर और किसी वजह से न भी किया जाए, तब भी साजिश की जांच का पता लगाने के लिए तो संदिग्ध व्यक्ति को जिंदा बचाना चाहिए। किसी भी जुर्म को अगर बड़ा माना जा रहा है, तो उस सिलसिले में पकड़ाए गए व्यक्ति को भी बड़ा संवेदनशील मानकर उसे बचाना चाहिए और सजा देने का काम कानून के जिम्मे छोडऩा चाहिए।
धर्म के नाम पर और धर्म का नाम लेते हुए कत्ल जैसी सार्वजनिक घटना की जाए, और उस पर किसी को कोई अफसोस भी न हो। जब राज्य के मुख्यमंत्री ही अपने पहले बयान में इसे एक साजिश मानते हैं और पुलिस को गहराई से जांच करने कहते हैं, लेकिन अपने राज में हुई इस हत्या पर उन्हें न अफसोस है और न ही पुलिस को वह हत्यारों का पता लगाने के लिए कहते हैं। भयानक नौबत यह है कि राज्य का कोई भी राजनीतिक दल इन दोनों भीड़त्याओं को देखना भी नहीं चाह रहा उस बारे में कुछ बोलना भी नहीं चाह रहा। आज नौबत यह है कि पंजाब में किसी भी गुरुद्वारे के आसपास कोई भी विचलित व्यक्ति अगर संदिग्ध हालत में मिले तो उसे मारने के लिए भीड़ आनन-फानन जुट जाएगी। जबकि लंबा इतिहास यह है कि जब लोगों को खाने कहीं कुछ नहीं मिलता है तो वे गुरुद्वारे पहुंचकर लंगर पाने की उम्मीद करते आए हैं, और यह कौम चारों तरफ मुसीबत में दूसरों की मदद करते आई है। जब वह मुस्लिमों को नमाज पढऩे के लिए जगह नहीं मिलती है, तो कई जगहों पर अपने गुरुद्वारों को उनके लिए खोल देते हैं। अब ऐसे में जिन दो लोगों को मार डाला गया है, वे सिख पंथ के अपमान के लिए आए थे या गुरु ग्रंथ साहब को नुकसान पहुंचाने के लिए आए थे, ऐसा कोई भी सुबूत नहीं है, और कि यह दोनों ही लोग मानसिक रूप से विचलित हैं, और उन्हें खुद नहीं पता होगा कि वह क्या कर रहे थे। स्वर्ण मंदिर में ग्रंथ साहब के करीब तक पहुंचने वाले व्यक्ति को जब पकड़ कर वहीं के एक ऑफिस में ले जाया गया तो उस आदमी को यह भी नहीं मालूम था कि वह खुद कौन है। वह जाहिर तौर पर एक बहुत ही कमजोर और विचलित व्यक्ति दिख रहा था जिसे बात की बात में मार डाला गया। यह सिलसिला खतरनाक है। ऐसे कामों से किसी धर्म का सम्मान नहीं बढ़ता। दुनिया की मुसीबत में अलग-अलग तमाम देशों में सिख लोग सबसे आगे बढक़र दूसरों की मदद करते हैं। उन्हें जगह-जगह ऐसी समाज सेवा के लिए वाहवाही भी मिलती है। लेकिन धर्म ग्रंथ की रक्षा के नाम पर अगर आनन-फानन सिर्फ शक के आधार पर किसी संदिग्ध को मार डाला जाएगा तो यह दुनिया के कौन से पैमाने पर इंसाफ कहलाएगा?
पंजाब के राजनीतिक और धार्मिक तमाम लोगों को इस खतरे के बारे में सोचना चाहिए जिसे कि वे आज चुनावी माहौल को देखते हुए बढ़ावा देने पर आमादा हैं। अगर खून-खराबा सिर्फ शक के आधार पर बिना किसी जांच और न्यायिक प्रक्रिया के होते चलेगा, तो वह उस प्रदेश में लोकतंत्र का खात्मा भी होगा। आज वहां पर तमाम राजनीतिक दलों के लोगों को यह शिकायत है कि इसके पहले जहां-जहां ग्रंथ साहब की बेअदबी हुई है, उन मामलों में पिछले कई वर्षों में कोई कार्यवाही नहीं हुई, किसी को सजा नहीं मिली। अब अगर पिछले मामलों में कोई गुनहगार नहीं पकड़ाया है तो उसका यह मतलब तो नहीं कि आज शक के आधार पर जो पकड़ा गया है उसे ही दुनिया की सबसे भयानक सजा दे दी जाए। पंजाब में सक्रिय देश के तमाम राजनीतिक दलों को एक जिम्मेदारी दिखानी होगी और आज जिस तरह से वे लोगों से शांति की अपील करने के लिए भी तैयार नहीं है, वह खतरनाक रुख बदलना होगा। वरना ऐसी धार्मिक और सार्वजनिक हिंसा बढ़ते-बढ़ते कहां पहुंचेगी इसका कोई ठिकाना तो है नहीं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दुनिया के बहुत से देशों में यह हड़बड़ी मची हुई है कि सामने क्रिसमस के त्यौहार पर भीड़ को किस तरह रोका जाए, किस तरह लोगों को कोरोना के संक्रमण से बचाया जाए। यूरोप के देशों में एक-एक करके कई तरह के प्रतिबंध लग रहे हैं, और नीदरलैंड ने एक बड़ा लॉकडाउन घोषित कर दिया है जिसमें बहुत ही जरूरी चीजों की दुकानों के अलावा बाकी सब कुछ बंद कर दिया गया है। अधिकतर देशों में क्रिसमस की पार्टियों को लेकर सरकार चौकन्ना है और ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्री ने भी यह कहा है कि वे क्रिसमस के प्रतिबंधों के लिए कुछ भी नहीं कह सकते क्योंकि हालात बदलते जा रहे हैं, और कोई भी प्रतिबंध कभी भी लागू किए जा सकते हैं। ऐसे में ब्रिटेन ने रात-दिन टीकाकरण का एक नया अभियान छेड़ा है क्योंकि वहां बहुत से लोग टीका लगवाने से परहेज करते चले आ रहे थे। इस बारे में हमने इसी जगह पर पिछले दिनों एक से अधिक बार लिखा भी है लेकिन आज हिंदुस्तान के टीकाकरण के बारे में कुछ चर्चा की जरूरत है जहां पर लोगों के बीच टीकों को लेकर कोई परहेज नहीं है। ऐसे देश में टीकाकरण के आज तक के आंकड़ों को अगर देखें तो कुछ निराशा होती है। हिंदुस्तान में अब तक 18 बरस से ऊपर की आबादी को ही टीके लगाए जा रहे हैं। और यह आबादी तकरीबन 60 फीसदी है। 40 फीसदी आबादी 18 बरस से कम उम्र की है जिसको टीके लगाना अभी शुरू भी नहीं किया गया है। पूरी आबादी के अनुपात में अगर देखें तो 40 फीसदी लोग अब तक पूरी तरह टीके पा चुके हैं। और 60 फीसदी आबादी ऐसी है जिसे कम से कम एक डोज लग चुका है। उम्र के हिसाब से अगर देखें तो 18 से 45 बरस की उम्र में 100 लोगों पर कुल 86 डोज़ लगे हैं। 45 से 60 वर्ष की उम्र में 100 लोगों पर 160 लगे हैं, और 60 बरस की से अधिक की उम्र वाले लोगों को 100 लोगों पर 151 लगे हैं। कुल मिलाकर तस्वीर यह बनती है कि देश की आबादी का कुल 40 फीसदी हिस्सा अभी पूरी तरह वैक्सीन पाया हुआ है, और आज जब दुनिया के 60 से अधिक देशों में दो डोज के बाद एक तीसरे बूस्टर डोज का काम शुरू हो चुका है, हिंदुस्तान में 40 फीसदी आबादी तो एकदम ही अछूती है जिसके लिए टीकाकरण शुरू ही नहीं किया गया है।
18 बरस से कम के लोग जो कि अधिक सक्रिय रहते हैं, जिनका कि स्कूल-कॉलेज में अधिक उठना-बैठना, आना-जाना, खेलना-कूदना चलता है, उस आबादी को टीके लगना शुरू ही नहीं हुआ है। और अगर हिंदुस्तान में तीसरी लहर आती है, जैसा कि कई विशेषज्ञों का मानना है, तो स्कूल-कॉलेज के बच्चे और 18 बरस से कम उम्र के तमाम लोग एक बड़े खतरे में रहेंगे क्योंकि उनका एक दूसरे से मेलजोल दूसरी उम्र के लोगों के मुकाबले अधिक होता है। ऐसे में भारत में टीकाकरण की रफ्तार बढ़ क्यों नहीं रही है यह एक सवाल उठता है। दूसरी बात यह है कि राज्य सरकारों ने अपने टीकाकरण केंद्रों का ढांचा विकसित कर लिया है, और किसी भी प्रदेश से ऐसी खबरें नहीं आ रही हैं कि लोगों की भीड़ लग रही हो और टीके न हों, उनको लगाने वाले लोग न हों। अब दिक्कत यह है कि आबादी के 40 फ़ीसदी को तो टीके लगना शुरू ही नहीं हुआ है इसमें सिर्फ टीकों की कमी आड़े आ सकती है।
टीकाकरण के आंकड़ों को देखें तो एक हैरानी की बात यह है कि 60 फ़ीसदी आबादी को कम से कम एक डोज़ लग चुका है, और 40 फ़ीसदी आबादी ऐसी है जिसे 2 डोज़ लग चुके हैं। इसका मतलब यह है कि सरकार के रिकॉर्ड में जो लोग आ चुके हैं, आबादी का ऐसा 20 फीसदी हिस्सा भी पहले डोज़ के बाद दूसरे डोज के लिए नहीं लौटा है जबकि सरकार के पास इनका आधार कार्ड है, इनके मोबाइल फोन नंबर हैं, इनका पता है, सब कुछ है। लेकिन इन्हें ढूंढकर या इन्हें बुलाकर टीके का दूसरा डोज देना नहीं हो पाया है। अब इसमें राज्य सरकारों की चूक है या केंद्र सरकार के स्तर पर कोई कमी है, या फिर ऐसा है कि वैक्सीन की केंद्र सरकार की तरफ से सप्लाई कम है इसलिए अधिक जोर नहीं दिया जा रहा है? अभी हाल-फिलहाल में सरकारों की तरफ से इस बारे में कुछ कहा नहीं गया है। इसलिए एक तो इस फिक्र को भी दूर करने की जरूरत है कि पहला टीका लगने के बाद दूसरा टीका न पाने वाली देश की 20 फीसदी आबादी को बुलाकर या ढूंढकर यह दूसरा टीका लगवाया जाए। लेकिन इससे भी अधिक फिक्र की बात यह है कि 18 बरस से नीचे की देश की 40 फीसदी आबादी को टीके लगना शुरू ही नहीं हुआ है। जबकि आबादी का यह हिस्सा अधिक संगठित है, इसके बहुत बड़े हिस्से को स्कूल-कॉलेज में पाया जा सकता है, और वहां पर टीकाकरण हो सकता है। लेकिन अब तक इनका टीकाकरण शुरू नहीं किया गया जबकि कई महीने पहले इसकी घोषणा की गई थी।
पिछले 1 साल में केंद्र सरकार के कई मंत्रियों ने बार-बार यह दावा किया था कि 18 बरस से अधिक की तमाम आबादी को इस साल दिसंबर के पहले दोनों टीके लग जाएंगे। ऐसी आबादी करीब 94 करोड़ है, लेकिन इसका एक बड़ा हिस्सा अभी तक पहले डोज़ भी दूर है, और दूसरे डोज से तो दूर है ही। इसलिए सरकार अब लगातार इस बात पर ध्यान दे रही है कि कैसे पहला डोज पाए हुए लोगों को दूसरा डोज लगाया जाए, बजाय इसके कि बाकी आबादी को पहला डोज लगाना शुरू किया जाए। मतलब यह कि अगले कई हफ्तों तक 18 बरस से नीचे के लोगों की बारी शुरू भी नहीं होने वाली है, और स्कूल-कॉलेज खुलने से इस उम्र के बच्चों के बीच संपर्क बढ़ते चले जा रहा है। सरकार के वैक्सीन के आंकड़ों का अंदाज भी बड़ा गलत निकल रहा है। कुछ महीने पहले मई में देश के टीकाकरण के लिए बनाई गई राष्ट्रीय कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बी के पाल ने कहा था कि दिसंबर तक देश में 216 करोड़ डोज लग चुके रहेंगे। लेकिन जुलाई के महीने में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट को एक हलफनामे में कहा था कि कुल 135 करोड़ डोज ही साल के आखिरी तक उपलब्ध हो पाएंगे।
आज दुनिया में 60 से अधिक देश ऐसे हैं जिन्होंने अपने लोगों को तीसरा डोज लगाना शुरू कर दिया है, लेकिन हिंदुस्तान में सरकार लगातार ट्रायल किए चले जा रही है और अब तक यह तय नहीं कर पा रही है कि तीसरा डोज़ लगाया जाए, या न लगाया जाए। फिर एक बात यह भी है कि आज जब आबादी को पहला और दूसरा डोज़ ही ठीक से नहीं लग पाया है, तो बच्चों और नौजवानों को टीकाकरण शुरू किया जाए, या पहले से दो डोज़ पाए हुए लोगों को तीसरा डोज़ दिया जाए। यह बात तो वैज्ञानिक और विशेषज्ञ ही तय कर सकते हैं, लेकिन इतना तय है कि अगर कोई तीसरी लहर आती है तो नौजवानों और बच्चों की बिना टीके वाली पीढ़ी इसका आसान शिकार हो सकती है। देश और प्रदेश की सरकारों को रोज टीकाकरण के आंकड़े जारी करने के साथ-साथ यह भी बताना चाहिए कि देर किस बात की है, कितनी टीकाकरण-क्षमता का इस्तेमाल रहा है, और किसकी बारी कब आएगी। हिंदुस्तान में ओमिक्रॉन तो आधे राज्यों में पहुँच चुका है, लेकिन आधी आबादी का टीकाकरण अभी शुरू भी नहीं हुआ है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पंजाब में स्वर्ण मंदिर में कल शाम हुई वारदात बहुत ही भयानक है। एक बहुत कमजोर सा दिख रहा कोई नौजवान स्वर्ण मंदिर के गुरु ग्रंथ साहब के पास तक पहुंचा और रेलिंग पर से कूदकर वह ग्रांट साहब के करीब पहुंच गया। इसके बाद उसने कुछ उठाने की कोशिश की, जिसे लेकर अलग-अलग लोगों का अलग-अलग कहना है। कुछ का कहना है कि उसने वहां रखी हुई सोने की एक ऐतिहासिक तलवार उठाने की कोशिश की थी, कुछ का कहना है कि उसने वहां से फूल उठाने की कोशिश की थी। जो भी हो वहां से उसे तुरंत दबोच कर मंदिर के ऑफिस में ले जाया गया और उसे इतना मारा गया कि उसकी मौत हो गई। मारने वालों में से एक व्यक्ति ने मीडिया से बतलाया-‘मैंने इस नौजवान की दो उंगलियां तोड़ दी। जब हमने उससे उसकी पहचान के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह खुद के बारे में नहीं जानता है, इसके बाद संगत के लोगों ने उसे मारना शुरू किया और वह मर गया।’ मरने वाले की लाश को देखें तो वह बहुत ही कमजोर दिख रहा है, और मारने वालों की भीड़ के बीच देर तक उसकी लाश बिना ढके हुए खुली पड़ी हुई थी। बाद में जब पुलिस ने उसकी लाश को अस्पताल पहुंचाया तो वहां हथियारबंद सिखों ने प्रदर्शन किया और लाश बाहर ले जाने का विरोध किया।
पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने भी गुरु ग्रंथ साहब की बेअदबी की इस घटना पर दुख जाहिर किया है, हालांकि मुख्यमंत्री के ट्वीट में मरने वाले नौजवान का कोई जिक्र नहीं है। ऐसा ही हाल अकाली दल के ट्वीट का है, अरविंद केजरीवाल के ट्वीट का है, और बाकी तमाम लोगों का है। तमाम लोगों ने गुरु ग्रंथ साहब की बेअदबी पर तो दुख जताया है, लेकिन वहां भक्तों के मारे इस नौजवान के बारे में मुख्यमंत्री ने भी कुछ नहीं कहा है, और ना ही बाकी नेताओं ने। चारों तरफ यही माहौल है कि सिखों के सबसे बड़े धार्मिक ग्रंथ के अपमान की यह साजिश थी, कुछ लोगों का कहना है कि पंजाब में चुनाव होने जा रहे हैं और किसान आंदोलन खत्म होने के बाद अब बदले हुए हालात में किसी राजनीतिक मुद्दे की तलाशो में साजिशन ऐसा किया गया हो सकता है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले जब दिल्ली की सरहद पर किसान आंदोलन चल रहा था उस वक्त उसके पास ही डेरा डाले हुए निहंगों ने एक दलित नौजवान को पकड़ा था और उस पर आरोप लगाया था कि वह सिखों के एक धार्मिक ग्रंथ का अपमान कर रहा है और उसके हाथ-पैर काट-काटकर उसे रस्सियों पर बांधकर टांग दिया गया था और बाद में शहीद के अंदाज में हत्यारे निहंगों ने पुलिस के सामने अपने को पेश किया था। पिछले कुछ वर्षों से पंजाब में कोई न कोई ऐसी घटना हो रही है जिसे लेकर सिक्खों के धर्म प्रतीकों की बेअदबी की बात उठती है, और वह राजनीतिक मुद्दा बने रहती है।
दुनिया में कुछ धर्मों के लोग अपने धार्मिक ग्रंथों के लिए दूसरे धर्म वालों के मुकाबले अधिक संवेदनशील हैं। इनमें से सिक्ख हैं और मुस्लिम भी हैं। धार्मिक ग्रंथों को लेकर जगह जगह इन दोनों धर्मों के लोगों के लिए खुद भी परेशानी खड़ी होती है, और फिर इनकी की हुई हिंसा सबके लिए परेशानी खड़ी करती है। अब सवाल यह है कि आज के वक्त में जब धार्मिक ग्रंथ आसानी से चारों तरफ हासिल किए जा सकते हैं, तब उनकी बेअदबी किसी अनजानी वजह से भी हो सकती है, और सोच-समझकर किसी साजिश के तहत भी हो सकती है। लोगों को याद होगा कि बांग्लादेश में अभी कुछ महीने पहले दुर्गा पूजा के वक्त हिंदुओं के खिलाफ जितने दंगे हुए और हिंदुओं को जिस तरह से मारा गया, उस वक्त भी यही तोहमत लगाई गई थी कि एक किसी पूजा मंडप में किसी हिंदू देवी-देवता की गोद में कुरान रखी हुई मिली थी और उसे देखकर मुस्लिमों का गुस्सा भडक़ा था। कल स्वर्ण मंदिर में जो हुआ है उसे सत्ता की राजनीति करने वाले लोगों में से तो कोई भी हिंसा की एक घटना करार नहीं देंगे क्योंकि सिख धर्म के धर्मालुओं के बीच अपने वोटों को बरकरार रखना है। लेकिन सवाल यह है कि अगर किसी नौजवान ने ऐसी कोई बेअदबी कर भी दी थी, तो उसे कानून के हवाले करना चाहिए था, न कि धर्म को कानून से ऊपर साबित करते हुए इस तरह वहां मंदिर परिसर में ही उसकी हत्या कर देना। सिक्खों की कौम दुनिया में हर किस्म की मुसीबत में मदद करने के लिए सबसे आगे रहने वाली कौम है। हिंदुस्तानी फौज में किसी एक कौम के लोग सबसे ज्यादा हैं, तो वह भी शायद सिक्ख ही होंगे। इसलिए ऐसी बहादुर और ऐसी सेवाभावी कौम को कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए। किसी ने भी धार्मिक प्रतीकों का अपमान किया है यह आरोप लगाकर जगह-जगह दुनिया में लोगों को मारा जाता है। पाकिस्तान में भी ईशनिंदा का एक ऐसा कानून बना हुआ है कि जो कोई इस्लाम का, या मोहम्मद पैगंबर का अपमान करते दिखे उसे सजा दिलवाई जाती है, या भीड़ अगर चाहती है तो उसे घेरकर मार डालती है। लेकिन हिंदुस्तान एक मजबूत न्याय व्यवस्था वाला देश है और यहां पर किसी धर्म के लोगों को कोई शिकायत अगर है, तो उन्हें ऐसे नौजवान को पकडक़र कानून के हवाले करना था और वीडियो कैमरों के सबूतों के साथ उसे सजा दिलवाना मुश्किल काम भी नहीं होता। धर्म के नाम पर कानून को अपने हाथ में लेना एक खराब बात है और उससे उस धर्म की सकारात्मक छवि भी खराब होती है।
यह सिलसिला पंजाब चुनावों के ठीक पहले सामने आया है इसलिए वहां का मुख्यमंत्री भी यह बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है कि जिस नौजवान की हत्या हुई है उसकी भी जांच की जाएगी। अभी तक जितनी जानकारी सामने आई है उसमें यह भी खुलासा नहीं हुआ है कि इस नौजवान की नीयत क्या थी और जिस तरह उससे पूछताछ में समझ में आया है, वह विचलित या अस्थिर चित्त का दिख रहा है। ऐसे में प्रदेश का मुख्यमंत्री भी ऐसी खुली हत्या की जांच की बात करने से भी अगर डर रहा है तो यह राजनीति और सरकार पर धर्म के दबदबे का एक बड़ा सबूत है, यह सिलसिला ठीक नहीं है। किसी भी धर्म के लोगों को यह बात मानकर चलना चाहिए कि अगर उसे मानने वाले लोग अपनी धार्मिक किताब की सीख और नसीहत पर अमल कर रहे हैं, तो उस किताब का कोई अपमान नहीं हो सकता। एक किताब या उसके कुछ पन्ने मान-अपमान से ऊपर रहते हैं। धार्मिक ग्रंथ का अपमान तभी होता है जब उस धर्म के लोग हिंसा करते हैं, कोई आतंक फैलाते हैं, या बेकसूरों को मारते हैं। कोई और व्यक्ति किसी धर्म की बेअदबी नहीं कर सकते। कल की घटना बहुत ही तकलीफदेह है और एक धर्म स्थान में ऐसी हिंसा होना अपने-आपमें बहुत बुरी बात तो है ही, यह बात भी बहुत तकलीफ देती है कि कोई संगठन, कोई सरकार, कोई नेता, राजनीतिक दल, कोई भी इस हत्या के बारे में कुछ बोलने को ही तैयार नहीं है। चुनाव सामने हैं लेकिन फिर भी ऐसी भीड़त्या को अनदेखा नहीं करना चाहिए, और हर धर्म के लोगों को यह चाहिए कि वे अपने धार्मिक ग्रंथों की हिफाजत और कड़ी करें ताकि उन तक पहुंचना आसान काम ना रहे।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में तो अभी कोरोना के नए वेरिएंट ओमिक्रॉन का खतरा सीमित मन जा रहा है क्योंकि न अधिक पॉजिटिव मिले हैं और न ही इससे मौतें हो रही हैं। लेकिन दुनिया के वैज्ञानिकों और जानकार लोगों का यह मानना है कि 77 देशों में तो यह अभी तक जाँच में मिल चुका है, लेकिन अगर जांच के अलावा भी अंदाज लगाएं तो यह हर देश में पहुंच चुका होगा। ऐसे में हिंदुस्तान में भी इसका हमला कितना हो चुका है इसका अंदाज जांच के नतीजों से नहीं निकल सकता क्योंकि इस देश में लोग जांच से बचते हुए इधर-उधर घूमते रहते हैं। लेकिन कोरोना की यह नई किस्म कितनी खतरनाक है इसका अंदाज लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार का यह अंदाज देखना चाहिए कि वहां पर अगले 4 महीनों में 75 हजार लोगों की मौत ओमिक्रॉन से होने की आशंका है। यह आंकड़ा भारत के मुकाबले यूके की छोटी आबादी के अनुपात में देखने की जरूरत है, और अगर ऐसी नौबत हिंदुस्तान में आती है तो इस संख्या से कई गुना अधिक लोगों की मौत यहां हो सकती हैं, हिंदुस्तान की आबादी यूके से 13 गुना अधिक है। फर्क सिर्फ यही है कि हिंदुस्तान में सरकार जितनी वैक्सीन लगा पा रही हैं, उससे अधिक लोग वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार हैं। दूसरी तरफ पश्चिम के देशों में लोग वैक्सीन को लेकर कई तरह की आशंकाओं से भरे हुए हैं और उन्हें अपनी संवैधानिक आजादी की अधिक फिक्र है कि वैक्सीन लगवाना कानूनी अनिवार्य नहीं है। सरकारें लोगों को मना-मना कर थक गई हैं और यूरोप के कई विकसित देशों में तो जब सरकार ने यह तय किया कि सार्वजनिक जगहों पर लोगों की आवाजाही उसी हालत में हो सकेगी जब उन्होंने वैक्सीन लगवा ली होगी, तो लोगों ने वहां दंगा कर दिया, पुलिस को गोलियां भी चलानी पड़ी। लोगों का वैक्सीन पर भरोसा कम है, और अपने नागरिक अधिकारों पर अधिक। नतीजा यह हो रहा है कि सबसे विकसित देश आज सबसे अधिक खतरनाक हालत में हैं, क्योंकि वहां तमाम आबादी को लगाने के लिए टीके तो हैं, लेकिन आबादी का एक बड़ा हिस्सा टीके लगवाने को तैयार नहीं है।
जब लोगों की सोच ऐसी हो जाती है तो उससे किस तरह का खतरा पैदा होता है यह समझने की जरूरत है। यूरोप और अमेरिका में बहुत सी जगहों पर लोग खुलकर टीकों के खिलाफ खड़े हुए हैं। और वे अपनी मर्जी के पक्ष में संविधान में दिए गए अधिकारों को भी गिनाते हैं। हो यह रहा है कि लोग टीके नहीं लगवा रहे हैं और जब संक्रमण बढ़ रहा है तो यह लोग अस्पताल जा रहे हैं। टीके लगवाने के पीछे इनका तर्क है कि उन्हें विज्ञान पर भरोसा नहीं है, कि यह वैक्सीन अभी पूरे ट्रायल से गुजरी नहीं है। दूसरी तरफ जब वह बीमार पड़ते हैं तो इसी चिकित्सा विज्ञान पर पूरा भरोसा हो जाता है, और वे इलाज के लिए अस्पताल जा रहे हैं, और किसी भी देश में इलाज की सीमित क्षमता को खत्म कर दे रहे हैं। नतीजा यह हो रहा है कि टीके लगवाए हुए लोग जब कोरोनावायरस से संक्रमित होकर या किसी और बीमारी के इलाज के लिए अस्पताल पहुंचते हैं तो वहां उन्हें जगह नहीं मिल रही। अब विज्ञान पर जिन्हें भरोसा नहीं है, और जो बिना टीकों के रहना चाहते हैं, उन्हें इलाज के लिए विज्ञान पर पूरा भरोसा है। यह नौबत इन तमाम देशों में टीके लगवाए हुए लोगों के लिए अधिक बड़ा खतरा बन रही है जो कि सामाजिक जिम्मेदारी से काम ले रहे हैं। लेकिन दूसरे गैरजिम्मेदार लोगों की लापरवाही की सजा भुगत रहे हैं। यह कुछ वैसा ही है कि सडक़ पर ठीक से गाड़ी चलाते हुए लोग किसी नशेड़ी ड्राइवर की लापरवाह ड्राइविंग की सजा भुगतते हैं।
हिंदुस्तान दुनिया के उन देशों में है जहां पर वैक्सीन के लिए प्रतिरोध सबसे ही कम है। लोगों को हैरानी भी हो सकती है कि यह देश धर्म के बोझ से दबा हुआ है, यहां तरह-तरह के अंधविश्वास हैं, यहां लोगों की वैज्ञानिक सोच को लगातार खत्म किया जा रहा है, फिर भी लोग वैक्सीन के खिलाफ क्यों नहीं है? और क्यों लंबी-लंबी कतारें लगाकर भी लोग वैक्सीन लगा रहे हैं, जबकि इसके लिए किसी तरह के कोई इनाम नहीं रखे गए हैं। दुनिया के कई देशों में तो बड़े-बड़े इनाम रखने के बाद भी लोग वैक्सीन लगवाने सामने नहीं आ रहे हैं। दरअसल हिंदुस्तान में आजादी के बाद से लगातार आधी सदी तक तो लोगों की सोच को वैज्ञानिक बनाकर रखा गया था, और हर तरह के विज्ञान के लिए लोगों के मन में बड़ा सम्मान था। लोगों ने विज्ञान और टेक्नोलॉजी, चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, कृषि विज्ञान जैसे बहुत से क्षेत्रों में विकास देखा था, और उसके फायदे भी देखे थे। लोगों ने भारत के अंतरिक्ष संस्थान इसरो को उस समय से काम करते देखा था जब उपग्रह को साइकिल और बैलगाड़ी पर ले जाकर वहां से अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी की जाती थी। इसलिए लोगों की सोच वैज्ञानिक बनी हुई थी, और देश के हर बच्चे को जब पोलियो ड्रॉप्स दिए गए तो भी तमाम आबादी ने उत्साह के साथ इस वैक्सीन को मंजूर किया। इसके अलावा भी कई और तरह की वैक्सीन इस देश में बच्चों को दी गई और कम पढ़े-लिखे, गांवों में रहने वाले, जंगलों में रहने वाले लोगों ने भी अपने बच्चों को सारे टीके लगवाए थे। उसी समय की सोच अब तक काम आ रही है और कोई कोरोना वैक्सीन प्रतिरोध नहीं कर रहा है। आबादी में जिन लोगों को अभी वैक्सीन लगना शुरू नहीं हुआ है या जिस उम्र के लिए शुरू भी हो गया है और उनकी बारी नहीं आई है, वे सारे लोग वैक्सीन का इंतजार कर रहे हैं, उससे कतरा नहीं रहे हैं। पश्चिम के विकसित देशों के मुकाबले कम पढ़े-लिखे हिंदुस्तान से दुनिया को आज बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। भारत की आज की इस हालत से यह भी साबित होता है कि लोगों के वैज्ञानिक का सोच जो कि बहुत लंबे समय में ढलकर मजबूत हुई है, उसे आनन-फानन रफ्तार से खत्म भी नहीं किया जा सकता है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब कभी ऐसा लगने लगे कि कोई नेता या कोई पार्टी अपने सबसे घटिया बयान दे चुके हैं तो उसी वक्त वह कुछ और नया लेकर आते हैं जो गंदगी का एक नया रिकॉर्ड कायम करने के लिए काफी रहता है। कर्नाटक में कांग्रेस के एक बड़े नेता और विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष रमेश कुमार ने विधानसभा के भीतर अध्यक्षों से बातचीत करते हुए यह बयान दिया कि एक बात कही जाती है कि जब बलात्कार होना एकदम तय हो, तो लेट जाओ और इसका मजा लो। इस बयान के बाद रमेश कुमार खुद हँसते हुए दिखते हैं, दूसरे सदस्य भी हँसते हुए दिखते हैं, और तो और विधानसभा अध्यक्ष भी जोरों से हँसते हुए दिखते हैं जिनकी हँसी देर तक चलती है। सच तो यह है कि दूर बैठे हुए विधानसभा की कार्यवाही के इस हिस्से का कन्नड़ भाषा का जितना वीडियो देखा जा सकता है और सदन की कार्रवाई के इस हिस्से को जितना सुना जा सकता है उससे ऐसा लगता है कि आज के विधानसभा अध्यक्ष ने सदन में चल रहे हंगामे से थककर सामने बैठे पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार को देखा और कहा आप जानते हैं रमेश कुमार, मुझे लगता है कि अब हमें सिर्फ इस स्थिति का आनंद लेना चाहिए मैंने फैसला लिया है कि अब न मैं उन्हें शांत कराने की कोशिश करूंगा और न ही स्थिति को व्यवस्थित करने की। विधानसभा अध्यक्ष की इस बात का एक पुराना संदर्भ दिखता है कि जब 2 साल पहले रमेश कुमार स्पीकर थे तब भी उन्होंने इसी किस्म का एक बयान बलात्कार को लेकर दिया था। और हो सकता है कि इस बार विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार से बात करते हुए उसी बात के बारे में बोल रहे हों। लेकिन जो भी हो, ऐसा न भी हो तो भी कम से कम यह तो देखा ही जा सकता है कि एक भूतपूर्व विधानसभा अध्यक्ष के रेप को लेकर महिलाओं के खिलाफ ऐसे भयानक हिंसक और अश्लील बयान पर सदन में और सदस्य भी हँसते हैं, और मौजूदा विधानसभा अध्यक्ष भी हँसते हैं, जबकि ऐसा घटिया बयान सदन की कार्यवाही से तुरंत ही निकाल दिया जाना चाहिए था लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। यह ताजा मामला यह याद दिलाता है कि किस तरह इसी कर्नाटक विधानसभा में बैठकर ब्लू फिल्म देखने का मामला सामने आया था।
जिस कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रही हों, जिसकी मौजूदा अध्यक्ष सोनिया गांधी हों, उस पार्टी का इतना बड़ा नेता, जो कि 2 बार विधानसभा अध्यक्ष था, वह इतनी गंदी और घटिया बात कहकर एक लुकाछिपी वाली माफी मांगकर बच निकल रहा है। कल के विधानसभा के अपने बयान के बारे में आज रमेश कुमार ने कहा -‘अगर मेरे बयान से महिलाओं की भावनाएं आहत हुई हैं तो मुझे माफी मांगने में कोई दिक्कत नहीं है’। दूसरी तरफ लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा है कि रमेश कुमार को ऐसी बात नहीं करनी चाहिए थी, लेकिन आप जब उन्होंने माफी मांग ली है तो इस मामले को और तूल नहीं देना चाहिए। विधानसभा अध्यक्ष जो कि जाहिर तौर पर भाजपा के हैं, उन्होंने कहा कि जब रमेश कुमार ने माफी मांग ली है तो इस मामले को और नहीं खींचना चाहिए। खैर यह दोनों हँसी-ठहाके में भागीदार रहे हैं तो दोनों की एक दूसरे के साथ हमदर्दी भी जायज है।
विधानसभा और संसद देश के यह दोनों ही निर्वाचित सदन अपने-आपको तरह-तरह के विशेष अधिकारों के घेरे में रखते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह कि सुप्रीम कोर्ट के जज अदालत की अवमानना के कानून को छोडऩा ही नहीं चाहते हैं, फिर चाहे वे जज की कुर्सी पर बैठकर किसी की भी अवमानना क्यों ना करते हों। ऐसे में देश के ताकतवर तबकों ने अपने-आपको विशेषाधिकार और अवमानना के कानूनों से घेर कर रखा हुआ है क्योंकि उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम है कि उनके बीच में जो गड़बडिय़ां चल रही हैं, जो खामियां हैं, उन्हें लेकर लोग उन पर हमले कर सकते हैं। और आम लोगों पर भले भीड़ के हमले ऐसे होते चलें कि उनमें किसी को चिथड़े उड़ाकर मार डाला जाए, लेकिन संसद और अदालत की तरफ कोई नजर उठाकर भी ना देख सके, इसलिए ऐसे कानून बनाए गए हैं। और यही वजह है कि गंदगी की बातें कहकर भी सांसद और विधायक बच जाते हैं क्योंकि इन सदनों के भीतर कही गई बातों को लेकर उनके खिलाफ कोई अदालती कार्यवाही नहीं की जा सकती, किसी अदालतों में कही गई जुबानी बात के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। तमाम देश के तमाम किस्म के कानून महज आम जनता के लिए हैं, जिसे कुचलना बहुत आसान है, जिसे कानून भी मार सकता है और जिसे गैरकानूनी हिंसक भीड़ भी घेरकर मार सकती है, और फिर अगर संसद या विधानसभा के भीतर बाहुबल हो तो ऐसी हत्यारी भीड़ को बचाने का काम भी हो सकता है।
हिंदुस्तान में इतने बड़े-बड़े पदों पर बैठे हुए लोग भी महिलाओं से होने वाले बलात्कार को लेकर जिस तरह का हँसी-ठट्ठा करते हैं, वह देखना भी भयानक है। या उससे कहीं कम नहीं है जिन मामलों में बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने गई महिला से थाने के पुलिस वाले भी बलात्कार करने में जुट जाते हैं। विधानसभा के भीतर जहां देश के कानून के लिए महिलाओं के लिए सबसे अधिक सम्मान की सोच रहनी चाहिए, वहां पर ऐसी घटिया और हिंसक सर्वदलीय सोच सामने आती है तो यह जाहिर है कि ऐसे नेता सदन के कैमरे और माइक्रोफोन से परे महिलाओं के बारे में कैसी सोच रखते होंगे। यह तो कांग्रेस पार्टी के आज दुर्दिन चल रहे हैं कि वह अपने नेताओं के खिलाफ किसी कार्रवाई करने की ताकत आज नहीं रखती है, वरना ऐसे विधायक को कांग्रेस पार्टी को तुरंत ही निलंबित करना चाहिए था।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तय किया है कि भारत में शादी के लिए निर्धारित कानूनी उम्र, लड़कियों के लिए भी 18 से बढ़ाकर 21 वर्ष कर दी जाए। अभी लडक़ों के लिए यह 21 बरस और लड़कियों के लिए 18 बरस है। अब शादी के कानून में संशोधन के लिए यह मामला संसद में जाएगा और संशोधन के बाद यह लागू हो जाएगा। इसके पीछे केंद्र सरकार की बनाई हुई एक कमेटी की सिफारिशें हैं जिसने यह कहा था कि कम उम्र में लड़कियों की शादी होने से वे कम उम्र में मां बनती हैं, और मां-बच्चे दोनों की सेहत पर उससे फर्क पड़ता है। इस कमेटी ने अपनी सिफारिशों में यह भी कहा था कि उसने देश भर में नौजवान पीढ़ी के लोगों से बात की है, जिनमें शहरी और ग्रामीण दोनों किस्म के लोग बराबरी से शामिल किए गए थे, और उस कमेटी का यह कहना था कि शादी की उम्र को लड़कियों के लिए भी 21 बरस कर देना चाहिए। दूसरी तरफ जब यह चर्चा छिड़ी थी उस वक्त कुछ लोगों ने यह कहकर इसका विरोध किया था कि देश के जिन समुदायों में कम उम्र में बच्चों की शादी का चलन है, वहां अभी भी 18 बरस से कम उम्र के बच्चों की शादी करने पर वे शादियां कानून में अवैध करार दी जाती हैं, और ऐसे में अगर लड़कियों की उम्र भी 21 वर्ष कर दी जाएगी तो अवैध या गैरकानूनी करार दी जाने वाली शादियां अधिक हो जाएंगी और लोगों को कानून तोडऩे वाला माना जाएगा जो कि अच्छी बात नहीं होगी। इस समुदाय का यह भी तर्क था कि भारत में तो आज भी एक चौथाई शादियां तय की गई उम्र से कम उम्र में ही होती हैं, और कानून से इसमें कोई गिरावट नहीं आ रही है, इसमें जो बहुत मामूली गिरावट आ रही है वह लड़कियों के लिए पढ़ाई-लिखाई के मौके बढऩे से और उनके कामकाज की संभावनाएं बढऩे से आ रही है।
यह मामला बड़ा ही जटिल है और सीधे-सीधे इस फैसले का समर्थन या इसका विरोध करना इस मुद्दे का अतिसरलीकरण होगा जो कि ठीक नहीं रहेगा। भारत में बाल विवाह एक समय तो गरीब और अमीर सभी तबकों के बीच चलता था लेकिन हाल के दशकों में यह गरीबों के बीच अधिक होता है। इसकी एक वजह होती है कि जहां मां-बाप दोनों मजदूर रहते हैं, दोनों काम करने बाहर जाते हैं, वहां मजदूर बस्ती में या किसी अकेले झोपड़े में किसी लडक़ी को छोडक़र जाना खतरे का मामला लगता है। भारत में जितनी बड़ी संख्या में बलात्कार दर्ज हो रहे हैं उन्हें देखते हुए मां-बाप दहशत में भी रहते हैं, इसलिए भी वे चाहते हैं कि कम उम्र में लडक़ी की शादी हो जाए ताकि बिना किसी विवाद के, बिना किसी हंगामे के, लडक़ी अपने ससुराल चली जाए और उसके बाद वह अपने पति और ससुराल की जिम्मेदारी रहे। इस सोच में कुछ बहुत गलत भी नहीं है क्योंकि यह गरीबी की बेबसी पर उपजी हुई सोच है जिसे इस बेबसी के खत्म होने तक बदलना मुमकिन नहीं है। दूसरी तरफ आज देश के एक बड़े हिस्से में लड़कियों की पढ़ाई के मौके बढ़ रहे हैं, वे स्कूलों में पढऩे के बाद कॉलेजों में अधिक संख्या में जा रही हैं, और कामकाज करने के लिए भी लड़कियां बड़ी संख्या में आगे आ रही हैं। ऐसे में 18 बरस की उम्र के बाद अगर कानूनी शादी करना मां-बाप के हाथ में रहता है तो लडक़ी की अधिक पढ़ाई के बिना, लडक़ी के कामकाज या रोजगार की संभावनाओं के बिना उसकी शादी कर दिए जाने की आशंका ही अधिक रहती है। यहां पर गरीब मां-बाप जैसी बेबसी तो नहीं रहती है, लेकिन संपन्न मां-बाप के लिए भी यह जरूरी नहीं रहता कि लडक़ी इतना पढ़े कि वह किसी कामकाज के लायक हो सके, और ऐसे बहुत से मामलों में जल्द शादियां हो जाती हैं। ऐसे मामलों में शादी की उम्र बढ़ जाने से लड़कियों के अधिक पढऩे की एक संभावना तो पैदा होगी ही, लड़कियों के 21 वर्ष के बाद शादी होने से, उसके बाद ही उनके मां बनने से, जच्चा-बच्चा दोनों की सेहत पर एक सकारात्मक असर पड़ेगा जो कि छोटी बात नहीं रहेगी। जैसा कि चिकित्सा वैज्ञानिकों और समाज शास्त्रियों का अध्ययन कहता है कि लड़कियों की शादी की उम्र 3 वर्ष बढ़ जाने से उनका कम उम्र में मां बनना बंद होगा और देश की शिशु मृत्यु दर, मातृ (जननी) मृत्यु दर भी घटेगी, बच्चों में कुपोषण भी घटेगा, क्योंकि कम उम्र की मां अपने बच्चे को बेहतर पोषण नहीं दे पाती है। इसलिए लडक़ी की पढ़ाई-लिखाई के हिसाब से, उसके कामकाज और रोजगार की संभावनाओं के हिसाब से, और उसके मां बनने के हिसाब से भी, आयु सीमा को बढ़ाया जाना एक अच्छा फैसला लगता है। भारत में क्योंकि समाज व्यवस्था ऐसी है कि स्कूल कॉलेज में सेक्स एजुकेशन से परहेज किया जाता है, और कम उम्र की लड़कियों को शादी के बाद की शारीरिक जिम्मेदारियों की इतनी समझ नहीं रहती, इसलिए भी 18 बरस के बजाय 21 बरस की उम्र बेहतर लग रही है।
लेकिन अब सवाल यह रहता है कि देश की आधी आबादी जितनी गरीब है और उस तबके में अगर किसी लडक़ी के मां-बाप दोनों ही मजदूर हैं या बाहर काम करते हैं तो वहां पर किस तरह लडक़ी का ख्याल रखा जा सकेगा? इस कड़वी सामाजिक हकीकत को अनदेखा करना भी ठीक नहीं होगा। बच्चियों की सामाजिक सुरक्षा पर अधिक ध्यान देने के साथ-साथ यह भी सोचना होगा कि शादी की उम्र को 3 बरस बढ़ाने के बाद गरीब बच्चियों के लिए 18 से 21 वर्ष की उम्र तक क्या-क्या पढऩे और सीखने के लायक संभावनाएं सरकार मुहैया करा सकती है? सरकार की जिम्मेदारी संसद में उम्र बढ़वाने के संविधान संशोधन तक नहीं है, इससे बढ़ी हुई उम्र का बेहतर इस्तेमाल कैसे हो सकता है यह भी देखना होगा, और इससे भारत में एक बहुत बड़ी कामयाबी भी हासिल हो सकती है। जच्चा-बच्चा की सेहत अपने-आपमें एक बड़ी कामयाबी रहती है और उसके अलावा अगर लडक़ी की पढ़ाई-लिखाई, उसके रोजगार, उसके शिक्षण-प्रशिक्षण में इन 3 वर्षों में कोई महत्वपूर्ण बात जोड़ी जा सकती है, तो उससे भारत की लड़कियां अधिक आत्मनिर्भर भी हो सकेंगी। आज भी देश में एक चौथाई शादियां 18 वर्ष से कम उम्र में हो रही हैं, उन्हें भी सरकार को ठीक से रोकना होगा और 3 बरस की यह बढ़ी हुई जिम्मेदारी मोटे तौर पर राज्य सरकारों पर आएगी कि 21 बरस के पहले लडक़ी की शादी ना हो सके।
अब हम नौजवान पीढ़ी के दिल-दिमाग की बात करें तो उनके लिए भी यह फैसला इसलिए बेहतर है कि पुराने वक्त में तो कम उम्र में शादियां हो जाती थीं, और लड़कियां एक गुलाम की तरह ससुराल चली जाती थीं, और शादियां किसी तरह से निभ जाती थीं। आज हालत यह है कि लड़कियां कुछ पढ़-लिखकर शादी करती हैं, लेकिन उनका रोजगार शुरू होने के पहले शादी हो जाती है, और शादी के बाद अगर उनकी कोई महत्वाकांक्षा कुचलने से बची रहती है तो शादियों में कभी-कभी दिक्कत भी आती है। इसलिए 18 बरस के बजाय 21 बरस की उम्र में शादी लड़कियों के लिए इसलिए बेहतर होगी कि वे तब तक मानसिक रूप से अधिक परिपच् हो चुकी रहेंगी, दुनिया को अधिक देख चुकी रहेंगी, और शादी में उनकी अपनी मर्जी भी कुछ हद तक काम कर पाएगी। 18 बरस की लडक़ी के मुकाबले 21 बरस की लडक़ी पर मां-बाप की मनमर्जी कुछ कम हद तक चलेगी, इससे समाज का परंपरागत ढांचा तो निराशा होगा, लेकिन इससे लड़कियों का भला होगा। कुल मिलाकर आखिर में कहने के लिए यही एक बात रह जाती है कि गरीब परिवारों में बेबसी में लड़कियों की जो शादी कम उम्र में की जाती है उस बारे में क्या होगा इसकी फिक्र करनी चाहिए, और देश की संसद और विधानसभाओं में इसकी फिक्र कम हो पाएगी क्योंकि वहां गरीब ही कम बच गए हैं, लगभग नहीं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी हिंदुस्तान में आधार कार्ड को लेकर लोगों की जिंदगी की निजता भंग होने की फिक्र टली नहीं है कि एक और फिक्र का सामान तैयार होने लगा है। केंद्र सरकार यह योजना बना रही है कि भारतीय डाक-तार विभाग देश के हर घर, दुकान, मकान का एक डिजिटल नंबर तैयार करेगा जो कि उस घर का पोस्टल एड्रेस रहेगा। यह बात सुनने में बहुत अच्छी लगती है कि लोगों को लंबा-चौड़ा पता लिखने के बजाय सिर्फ एक डिजिटल नंबर डाल देना काफी होगा लेकिन बात इतनी आसान भी नहीं रहेगी। हर मकान, दुकान, दफ्तर का एक नंबर रहेगा और उस नंबर से वहां पहुंचने वाली चिट्टियां, वहां पहुंचने वाले सामान पहुंच जाएंगे। आज जिस तरह से लोग खाने-पीने का सामान बुलाते हैं, ऑनलाइन आर्डर करके खरीदे गए सामानों को कूरियर कंपनियां पहुंचाती हैं, और जिस तरह से किसी पते को गूगल मैप पर लोगों को भेजकर उन्हें वहां आने का रास्ता बताया जाता है, या टैक्सी बुलवाई जाती है, उन सबको देखें तो लगता है कि एक डिजिटल नंबर से जिंदगी बड़ी आसान हो जाएगी। लेकिन दूसरी तरफ यह भी है कि ऐसे एक डिजिटल नंबर से सरकारी एजेंसियां आज नहीं तो कल, पल भर में यह पता लगा लेंगी कि किस पते पर किस कूरियर एजेंसी से कब क्या सामान पहुंचा, कब कहां से चिट्ठी आई, कब खाने का क्या-क्या सामान बुलवाया गया और फिर तो निजी कारोबारियों के कंप्यूटरों से सरकारी एजेंसियां ये जानकारी निकाल ही लेंगी कि हिंदुस्तान के किस पते पर किस टैक्सी से लोग पहुंच रहे हैं, कितने देर बाद वहां से वापस निकल रहे हैं। इस तरह की तमाम संभावनाएं सरकार के लिए तो संभावनाएं रहेंगी, लेकिन निजता की बात उठाने वाले लोगों के लिए ये आशंकाएं रहेंगी। यह कम खतरे की बात नहीं रहेगी कि सरकारी एजेंसियों के कंप्यूटर किसी घर पर चिट्ठियों से लेकर टैक्सियों की आवाजाही तक सभी चीजों को एक साथ जोडक़र एक स्क्रीन पर देख सकेंगी और उससे अपने नतीजे निकाल सकेंगी। लोगों की जिंदगी पर निगरानी रखने का काम केंद्र सरकार के लिए और अधिक आसान हो जाएगा क्योंकि ऐसे पोस्टल एड्रेस के नंबर का जब-जब जहां-जहां इस्तेमाल होगा, उनको एक साथ देखा जा सकेगा, उनका विश्लेषण किया जा सकेगा और लोगों की जिंदगी की कोई निजता नहीं बचेगी।
आधार कार्ड की अनिवार्यता की वजह से आज हिंदुस्तान में लोगों की आवाजाही, लोगों की खरीदी बिक्री, उनके बैंकों और दूसरे सरकारी कामकाज की कोई निजता नहीं रह गई है। लोग एयरपोर्ट पर कितने बजे कहां पहुंच रहे हैं, कहां सफर कर रहे हैं, किस बैंक खाते से भुगतान कर रहे हैं, किस खाते से खरीदारी कर रहे हैं, मोबाइल फोन से होने वाले भुगतान में वे किस वक्त किस जगह पर किस सामान को खरीद रहे हैं, इसे पल भर में जाना जा सकता है। आज आम तो आम, अच्छे खासे जानकार लोगों को भी इस बात का एहसास नहीं हो रहा कि उनके डिजिटल पद चिन्ह किस तरह सुबह से रात तक चारों तरफ निशान छोड़ते चल रहे हैं, और आधार कार्ड, सिम कार्ड, एटीएम कार्ड, क्रेडिट कार्ड, और टेलीफोन पर आधारित भुगतान के दूसरे तरीके हर व्यक्ति के 24 घंटों में सैकड़ों निशान बना जाते हैं। जब सरकार देश के लोगों की नागरिकता तय करने पर जुटी हुई हो, तो फिर ऐसी जानकारी उसके हाथ में एक बहुत बड़ा औजार या हथियार बनना भी तय है।
अभी केंद्र सरकार की डिजिटल एड्रेस की तैयारी एक प्रस्ताव के स्तर पर है, लेकिन यह जाहिर है कि जिस तरह संसद में केंद्र सरकार पर सत्तारूढ़ गठबंधन का विशाल बहुमत है, वह अपनी किसी भी बात को वहां से पास करवा सकती है। अब सवाल यही उठेगा कि निजता के मुद्दे उठाने वाले सामाजिक संगठन किस तरह अदालत में जाकर कई सवालों के जवाब केंद्र सरकार से मांगने की कोशिश करते हैं। दुनिया के अधिक देशों में ऐसे किसी डिजिटल एड्रेस का तजुर्बा भी नहीं है। ऐसे में इससे ऑनलाइन कारोबार करने वाले लोगों को तो फायदा हो सकता है कि उन्हें पता ढूंढने के बजाय मोबाइल फोन पर नक्शा सीधे किसी घर पर ले जाकर खड़ा कर दें, लेकिन ऐसे कारोबारियों से परे किसका फायदा इससे होगा यह अभी साफ नहीं है। और फिर बहस के लिए यह मान भी लें कि जिनके घर-दफ्तर का पता डिजिटल हो जाएगा उन्हें खुद भी कोई सहूलियत होगी, तो भी यह सवाल तो रहता ही है कि ऐसे डिजिटल पते के हर इस्तेमाल की जानकारी सरकार के कंप्यूटरों पर दर्ज होगी या कारोबारियों के। और फिर सरकार जब चाहे तब उन पतों की पूरी जिंदगी को खंगाल सकती है, उस पर अपने कंप्यूटरों से ही पूरी निगरानी रख सकती है। किसी भी सरकार के हाथ इतनी ताकत से उसके बेजा इस्तेमाल की गारंटी हो जाती है। आज भी भारत की सरकार पेगासस जैसे खुफिया फौजी घुसपैठिए सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कोई हलफनामा देने से मना कर चुकी है और मजबूरी में सुप्रीम कोर्ट को एक जांच कमेटी बनानी पड़ी है कि सरकार ने इसका इस्तेमाल किया है या नहीं। ऐसे में डिजिटल एड्रेस को अगर केंद्र सरकार अनिवार्य कर पाती है, तो उसके लिए लोगों पर नजर रखना, लोगों की जासूसी करना एक बहुत आसान काम हो जाएगा। देखना है कि ऐसे किसी औजार को बनाकर उसे हथियार की तरह इस्तेमाल करने से केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट रोक पाता है या नहीं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई ने अभी दसवीं के अंग्रेजी के पर्चे में अपनी एक किताब के कुछ पैराग्राफ दिए और उन पर सवाल किए। इस मामले को लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उठाया और इसके हिस्से पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि यह महिलाओं के लिए बहुत ही अपमानजनक बात है कि एक केंद्रीय बोर्ड इस तरह के सवाल कर रहा है। उन्होंने इसके हिस्से पढक़र सुनाए जिसमें कहा गया है कि महिलाओं को स्वतंत्रता मिलना कई तरह की सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं का मुख्य कारण है। इसी पर्चे में यह बात भी लिखी गई है कि पत्नियां अपने पतियों की बात नहीं सुनती हैं जिसकी वजह से बच्चे और नौकर अनुशासनहीन होते हैं। सोनिया गांधी ने संसद में इस पर कड़ी आपत्ति की और संसद के बाहर प्रियंका गांधी ने इस प्रश्न पत्र की कॉपी ट्विटर पर पोस्ट करते हुए यह लिखा कि यह बात अविश्वसनीय है कि हम अपने बच्चों को इस तरह की चीजें पढ़ा रहे हैं, भाजपा सरकार महिलाओं पर इस तरह के दकियानूसी ख्याल रखती है और इसी वजह से सीबीएसई में ऐसी बातें पढ़ाई जा रही है। इस बात पर कांग्रेस से परे के लोगों ने भी सोशल मीडिया पर खूब जमकर लिखा। संसद में भी बहुत से लोगों ने सोनिया गांधी के उठाए गए मुद्दे का साथ दिया और सीबीएसई की जमकर आलोचना की गई। आखिर में सीबीएसई को अपने पर्चे से इस सवाल को हटाना पड़ा और कहना पड़ा कि सभी परीक्षार्थियों को इस सवाल की जगह पर पूरे नंबर दिए जाएंगे।
हिंदुस्तान में महिलाओं का अपमान खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। लोगों के मिजाज में यह बात सदियों से बैठी हुई है और रीति-रिवाज, कहावत-मुहावरे, हर किस्म की बातों में महिलाओं को पांव की जूती की तरह मानकर चलना इस 21वीं सदी में भी जारी है। अभी दो दिन पहले मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता एक महिला ने फेसबुक पर पोस्ट की जिसकी पहली ही लाइन यह है- ‘नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो कुछ काम करो, जग में रहकर कुछ नाम करो, कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को’। मतलब यह कि अभी पिछली ही सदी के मैथिलीशरण गुप्त को भी केवल नर ही दिख रहे थे, उनके पास नारियों को प्रेरणा देने के लिए कुछ नहीं था। मानव प्रेरणा पाने के हकदार सिर्फ नर ही रहते हैं। अखबारों को देखें तो उनकी सुर्खियों में कहीं पर महिला का नरकंकाल मिल जाता है, तो कहीं पर नरसंहार में महिला मारी जाती है। यानी लाशों और कंकालों में भी एक नारी को जगह नहीं मिल पाती है। इस बात को पहले भी हम यहां पर लिख चुके हैं कि शेर आदमखोर होता है, मानो वह सिर्फ आदमियों को खाएगा और औरतों को नहीं छुएगा। लेकिन यह दिक्कत महज उर्दू की नहीं है, यह दिक्कत हिंदी की भी है, जहां पर शेर नरभक्षी होता है, और कभी भी नारीभक्षी नहीं होता। और यह दिक्कत अंग्रेजों की भी है जहां पर एक टाइगर मैनईटर होता है और वह कभी भी वह वुमनईटर नहीं होता। काम-काज की दुनिया में मैनपावर होता है, कभी भी वूमेनपावर नहीं होता। गांधी का लिखा पढ़ें या पिछली सदी के बहुत से दूसरे दार्शनिकों का, हिंदुस्तान के जे कृष्णमूर्ति की बातों को पढ़ें, तो उनमें भी आदमी का जिक्र ही तमाम इंसानों का जिक्र मान लिया जाता है, मानो औरत तो उस आदमी के भीतर समाहित है ही। भारत के कानून की भाषा को देखें तो पूरे कानून में सिर्फ आदमी के हिसाब से लिखा गया है सिर्फ ‘ही’ लिखा गया है कहीं भी ‘शी’ की गुंजाइश नहीं है। नतीजा यह है कि औरत को गिना ही नहीं जाता। बच्चों के जन्म का सर्टिफिकेट बनाना हो या स्कूल का दाखिला हो या उसकी नौकरी हो, हर जगह बाप का नाम ही पूछा जाता है। मां का नाम दर्ज करना अब 21वीं सदी में आकर तमाम कानूनी लड़ाई लडऩे के बाद रियायत के तौर पर मर्जी पर छोड़ा गया है, न कि किसी कानूनी जरूरत के तहत मां के नाम का जिक्र जरूरी है।
देश का सबसे बड़ा केंद्रीय स्कूली बोर्ड अगर इस तरह की घटिया बातों को बढ़ा रहा है और उन्हें इम्तिहान में पूछने का भी हौसला रखता है, तो यह बात जाहिर है कि देश की राजनीति की हवा और फिजा उसी तरह की है। उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ से लेकर हरियाणा के मनोहर लाल तक कितने ही ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो कि महिलाओं के बारे में एक से बढक़र एक घटिया बातें बोलते आए हैं, और कभी उनकी पार्टी ने उन बातों का विरोध नहीं किया। और तो और, पिछले वर्षों में कई पार्टियों और गठबंधनों ने केंद्र सरकार की अगुवाई की है, लेकिन किसी ने भी महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने की कोई फिक्र नहीं की। अब तो ऐसा दिखता है कि इसकी मांग भी कोई राजनीतिक दल नहीं करता। आज जब चुनाव सामने खड़ा हुआ है तो हर पार्टी अलग अलग राज्य में अलग-अलग किस्म के वायदे महिलाओं के लिए कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने 40 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं रखने की घोषणा की है। पंजाब में कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने महिलाओं के लिए कई किस्म की मदद की घोषणा की है। उत्तराखंड में केजरीवाल ने आज ही कहा है कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो हर महिला को हजार रुपया महीना दिया जाएगा। लेकिन गोवा की महिला के लिए अधिक फायदे की घोषणा ममता बनर्जी की टीएमसी ने की है जिसमें वहां कहां है कि हर महिला को पांच हजार रूपया हर महीने दिया जाएगा। लेकिन तोहफे या खैरात की शक्ल में ऐसी नगदी देने से परे कोई पार्टी आज संसद में यह मांग भी नहीं कर रही कि महिला आरक्षण बिल पास किया जाए। जो कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में 40 फ़ीसदी सीटें महिलाओं को दे रही है वह पार्टी भी संसद में एक तिहाई सीटें महिलाओं को देने के विधेयक का नाम भी लेना बंद कर चुकी है। सरकारों में अगर देखें तो जहां-जहां पर नौकरियों में महिलाओं को उम्र की छूट है वहां पर जिस टेबिल पर फाइल जाती है, वहां बैठे हुए मर्द उसका विरोध करना शुरू कर देते हैं, उस फाइल को खोलते ही गालियां बकना शुरू कर देते हैं और सरकार में किसी महिला को उसका हक पाने के लिए बरसों तक लडऩा पड़ता है।
यह पूरा सिलसिला देश के कड़े कानून के बावजूद जमीन पर महिला की फजीहत का सुबूत है। कानून चाहे जो कहता हो, महिला को आपसी रंजिश निपटाने के लिए बलात्कार करने का एक सामान मान लिया जाता है कि किसी परिवार की महिला से बलात्कार करके उस परिवार से दुश्मनी का हिसाब चुकता किया जा सकता है। देशभर में जगह-जगह ऐसा सुनाई पड़ता है कि पुरानी दुश्मनी के चलते किसी महिला से बलात्कार किया गया और यह मान लिया गया कि दुश्मन के परिवार की इज्जत खत्म हो गई। हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि इज्जत तो बलात्कार और बलात्कारी के परिवार की खत्म होनी चाहिए जिसने एक जुर्म किया है, जबकि हिंदुस्तानी सोच बलात्कार की शिकार लडक़ी की इज्जत खत्म होने की बात सोचती है। सीबीएसई में जिन लोगों ने ऐसी बातें पढ़ाना तय किया था, उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, अगर वे सरकारी नौकरी में हैं तो उनकी तनख्वाह कटनी चाहिए, उनका प्रमोशन खत्म होना चाहिए, और उन्हें सस्पेंड करना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह और अपमान के ऐसे पुख्ता सुबूत कम मिलते हैं, इसलिए सरकार को इसे एक मिसाल मानकर लोगों के सामने कड़ी कार्यवाही की एक मिसाल पेश करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और आज के राज्यसभा सदस्य जस्टिस रंजन गोगोई अपने एक टीवी इंटरव्यू में कही गई कुछ बातों को लेकर विशेषाधिकार हनन के एक मामले में घिर गए हैं। तृणमूल कांग्रेस ने रंजन गोगोई के खिलाफ राज्यसभा में विशेषाधिकार हनन और सदन की गरिमा गिराने की शिकायत की है। दरअसल अभी-अभी रंजन गोगोई की लिखी हुई एक किताब आई है जिसमें उन्होंने अयोध्या पर अपनी अगुवाई में एक बेंच द्वारा दिए गए फैसले के बारे में भी लिखा है, और जैसा कि आजकल बाजार में आमतौर पर होता है कि किसी किताब की बिक्री को बढ़ाने के लिए उसके लेखक बिक्री शुरू होने के आसपास कई तरह के इंटरव्यू देते हैं, वैसा ही एक इंटरव्यू रंजन गोगोई ने भी एनडीटीवी को दिया था। इसमें जब उनसे पूछा गया था कि पिछले बरस राज्यसभा में मनोनीत होने के बाद से अब तक वे कुल 10 फ़ीसदी बार ही सत्र में गए हैं, तो इस पर उनका कहना था कि वे कोरोना की वजह से भी वहां नहीं गए थे, और संसद में बैठने की व्यवस्था भी उन्हें बहुत आरामदेह नहीं लगी.उन्होंने कह कि इसके अलावा वे राज्यसभा तभी जाते हैं जब उन्हें जाने की इच्छा होती है, जब उन्हें लगता है कि ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दे वहां पर हैं जिस पर वे बोल सकते हैं। उन्होंने कहा कि मैं एक मनोनीत सदस्य हूं और किसी पार्टी की व्हिप से नहीं चलता हूं, इसलिए वहां जाना और वहां से निकलना यह मेरी मर्जी का है। उन्होंने टीवी के इस इंटरव्यू में यह भी कहा-राज्यसभा में ऐसा कौन सा जादू है, अगर मैं किसी ट्रिब्यूनल का चेयरमैन रहता तो मैं वहां से वेतन-भत्ते अधिक पाते रहता मैं राज्यसभा से एक पैसा भी नहीं ले रहा हूं।
रंजन गोगोई की इन बातों को तृणमूल कांग्रेस ने तो संसद के लिए अपमानजनक माना ही है उसके अलावा भी कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ सांसद रहे जयराम रमेश ने भी इन बातों पर आपत्ति की है। जयराम रमेश ने कहा कि एनडीटीवी के इंटरव्यू में जस्टिस गोगोई ने जो कहा है कि वह राज्य सभा तब जाते हैं, जब उन्हें जाने को दिल करता है, यह संसद का अपमान है। जयराम रमेश ने ट्वीट करके यह बात कही और कहा कि जिस सदन में उन्हें मनोनीत किया गया है, उस सदन में लोग न सिर्फ बोलने के लिए जाते हैं बल्कि सुनने के लिए भी जाते हैं।
जस्टिस रंजन गोगोई ने पहली बार कोई स्तरहीन काम किया हो ऐसी बात भी नहीं है, इसके पहले भी जब वे भारत के मुख्य न्यायाधीश थे और उनके खिलाफ मातहत काम करने वाली एक महिला कर्मचारी ने सेक्स शोषण की शिकायत की थी, तो उन्होंने परंपराओं और नैतिकता से परे जाकर खुद ही उस मामले की सुनवाई पर बैठना तय किया। उस बात ने भी लोगों को हक्का-बक्का कर दिया था, और लोगों ने उसकी जमकर आलोचना भी की थी। उसके बाद अयोध्या का फैसला आया और कुछ महीनों के भीतर ही रंजन गोगोई ने राज्यसभा सदस्य मनोनीत होना मंजूर कर लिया। बहुत से लोगों ने इन दोनों बातों को जोडक़र देखा, बहुत से लोगों ने यह कहा कि रंजन गोगोई के बहुत से अदालती फैसले सरकार को खुश करने वाले थे, और उन्हीं के एवज में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता दी गई है। अभी उन्होंने इस इंटरव्यू में जिस तरह से यह कहा कि राज्यसभा में ऐसा कौन सा जादू है और वह बाहर किसी ट्रिब्यूनल के चेयरमैन होकर अधिक फायदा पाते, यह बात भी राज्यसभा की गरिमा के बहुत खिलाफ है। और राज्यसभा का कोई सदस्य यह कहे कि जब उसकी मर्जी होती है, या जब उसका दिल करता है, तब वह राज्यसभा जाता है, यह निश्चित रूप से राज्यसभा की अवमानना है। अब संसदीय व्यवस्था में नियमों की बारीकी के तहत इसे अवमानना माना जाएगा या नहीं इससे हमारा अभी बहुत लेना-देना नहीं है, लेकिन हमारी मामूली समझ यही कहती है कि देश की इस सबसे ऊंची संस्था के उच्च सदन राज्यसभा के बारे में इस अंदाज में कुछ कहना, और इस अंदाज में वहां आना-जाना, यह कहना कि उनकी जब मर्जी होती है तब वहां जाते हैं, और जब मर्जी होती है तब वहां से आते हैं, यह पूरा सिलसिला बड़ा खतरनाक है। यह सिलसिला बताता है कि देश का जो उच्च सदन देश के, दुनिया के मुद्दों पर गौर करता है, विचार करता है, फैसले लेता है, वहां का एक सदस्य इस तरह अपने आपको मनमर्जी का मालिक बताता है, खासकर सदन के मामलों को लेकर।
हो सकता है कि तृणमूल कांग्रेस की शिकायत के साथ कई और पार्टियां भी इस नोटिस के समर्थन में जुट जाएं क्योंकि जिस तरह रंजन गोगोई ने राज्यसभा की सदस्यता मंजूर की थी उसने कई पार्टियों की भावनाओं को चोट पहुंचाई थी और लोगों को लगा था कि यह देश में एक बहुत ही खराब परंपरा शुरू हुई है कि रिटायर होने के कुछ ही समय के भीतर भारत के मुख्य न्यायाधीश राज्यसभा की सदस्यता को मंजूर करें। उनके इस फैसले से लोगों को यह भी याद पड़ गया था कि अदालत में जज की कुर्सी पर बैठकर उन्होंने ऐसे कौन-कौन से फैसले और हुक्म दिए थे जिनसे सरकार का खुश होना लाजिमी था। ऐसे तमाम राजनीतिक दल जिन्होंने रंजन गोगोई की आलोचना की थी आज उनके पास यह सोचने का एक मौका है कि क्या वे इस विशेषाधिकार हनन और अवमानना के मामले में तृणमूल कांग्रेस के साथ खड़े होंगे या नहीं। यह भी हो सकता है कि कांग्रेस जैसी पार्टी जिसके भीतर घुसकर तृणमूल कांग्रेस लगातार शिकार कर रही है, वह ममता बनर्जी की पार्टी के इस फैसले के साथ खड़ा होना ना चाहे। फिर भी दूसरी और पार्टियां हैं, और आगे देखना है कि कौन-कौन सदन की गरिमा की फिक्र करती हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व मुख्यमंत्री, और वहां की एक प्रमुख पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारुख अब्दुल्ला ने अभी जम्मू में अपनी पार्टी के अल्पसंख्यक संगठन के कार्यक्रम में कश्मीरी पंडितों के बीच कहा कि राज्य में अगर हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत बढ़ती है तो इसका फायदा दुश्मनों को होगा। उन्होंने दुश्मन का नाम तो नहीं लिया लेकिन यह जाहिर है कि उनका इशारा पाकिस्तान की तरफ था। यह एक और बात है कि उन्होंने पिछले दो दिनों में दो-तीन अलग-अलग कार्यक्रमों में एक जगह यह भी कहा है कि भारत को पाकिस्तान के साथ बातचीत करनी चाहिए। लेकिन उन्होंने बड़े खुलासे से यह कहा कि जिस वक्त कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को दहशत पैदा करके बाहर किया गया उस वक्त उसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति आज ऊपर ईश्वर के पास है, और वहां अपना हिसाब दे रहा होगा। उनका इशारा 1990 के दौर में वहां पर राज्यपाल रहे हुए जगमोहन की तरफ था जिन्होंने कश्मीरी पंडितों के कश्मीर छोडऩे के लिए गाडिय़ों का इंतजाम भी किया था। लोगों को याद होगा कि यही जगमोहन इमरजेंसी के दौरान तुर्कमान गेट पर लोगों पर बुलडोजर चलवाने के जिम्मेदार दिल्ली के अफसर थे, संजय गांधी के चहेते थे। बाद में वे भारतीय जनता पार्टी के पसंदीदा अफसर रहे और जम्मू-कश्मीर में उनके रहते हुए ही कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडऩा पड़ा और आज तक वे घर लौट नहीं पाए हैं। आज की बात फारुख अब्दुल्ला के बयान पर है जिन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि अगर इस देश के नेता राजनीति और धर्म को एक-दूसरे से अलग नहीं करेंगे, तो यह देश नहीं चल पाएगा। उनका हमला बिल्कुल साफ था और उन्होंने केंद्र सरकार की अगुवाई कर रही भाजपा के बारे में कहा कि उनके पास संसद में 300 सदस्य हैं, लेकिन वह महिला अधिकार विधेयक क्यों पारित नहीं करते, वे नहीं चाहते कि महिलाओं को वह दर्जा मिले जो मर्दों को मिला हुआ है।
फारुख अब्दुल्ला की कही हुई बातों की गंभीरता को समझने की जरूरत है। उन्होंने अपने रहते हुए कश्मीर में कभी हिंदू और मुस्लिम के बीच में फर्क नहीं किया था, और कश्मीरी पंडितों को जिन हालात में कश्मीर छोडऩा पड़ा उसके पीछे दूसरे लोग थे। आज अगर वे इस बात को कह रहे हैं कि धर्म और राजनीति को अगर अलग नहीं किया गया तो यह देश चल नहीं पाएगा, उस बात की गंभीरता को समझना चाहिए। हिंदुस्तान में धर्म की राजनीति करने वाले लोगों की कमी नहीं है, और धर्म के बिना राजनीति करने वाले लोगों की भी कमी नहीं है। दिक्कत यह होती है कि जब दूसरे धर्म से नफरत से सिखाकर अपने धर्म के लोगों को एक करने का काम किया जाता है, तो नफरत में लोगों को जोडऩे की ताकत अधिक रहती है। मोहब्बत जब तक लोगों को कुछ समझा पाती है तब तक नफरत लोगों को एकजुट कर चुकी रहती है, और खासकर जब एक काल्पनिक दुश्मन को सामने पेश करके उसके खिलाफ आत्मरक्षा के लिए एक होने की बात लोगों को समझाई जाती है तो कमअक्ल लोग ऐसी बात को तेजी से समझ लेते हैं। और फिर हिंदुस्तान तो है ही ऐसे लोगों का देश जिनके बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि 90 फीसदी हिंदुस्तानी बेवकूफ हैं। यहां के आम लोग जिस तरह धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर, एक दूसरे के खिलाफ हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं, उससे यह बात साबित होती है कि लोगों की बहुतायत बेवकूफों की है। अब कश्मीर तो एक बहुत नाजुक मुद्दा हो गया, वहां के लिए तो हिंदू-मुस्लिम की एकता बहुत जरूरी है ही क्योंकि लाखों कश्मीरी पंडित अपना घर खोकर, बेवतन होकर कश्मीर के बाहर पड़े हुए हैं, और एक शरणार्थी की तरह की जिंदगी जी रहे हैं। जिन पार्टियों ने अपनी पूरी जिंदगी कश्मीरी पंडितों की वापिसी के नारे के साथ गुजारी है उन पार्टियों को भी आज कश्मीरी पंडितों की कोई परवाह नहीं रह गई है। इसलिए जब फारुख अब्दुल्ला कश्मीर के एक मुस्लिम नेता की हैसियत से और एक धर्मनिरपेक्ष भूतपूर्व मुख्यमंत्री की हैसियत से यह बात कहते हैं कि राजनीति और धर्म को अलग करना चाहिए तो उसके मतलब समझने की जरूरत है।
आज हिंदुस्तान में जगह-जगह जिस तरह धर्म के नाम पर राजनीति की जा रही है और धर्मों को आपस में बांटकर उनका ध्रुवीकरण करके राजनीति की जा रही है उसका एक असर कश्मीर पर भी पड़ रहा है। कश्मीर हिंदुस्तान का हिस्सा है और उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह बाकी हिंदुस्तान के हिंदू-मुस्लिम मुद्दों से अछूता रह जाएगा। आज देश के कुछ राज्यों में चुनाव हैं जिनमें से एक उत्तर प्रदेश भी है और उत्तर प्रदेश को लेकर जितने किस्म के धार्मिक कर्मकांड लेकर, जितने किस्म के धर्मांध ध्रुवीकरण की कोशिश वहां पर की जा रही है, उसका असर देश में जगह-जगह न सिर्फ मुस्लिमों पर पड़ रहा है, बल्कि दूसरे गैर हिंदू अल्पसंख्यकों पर भी पड़ रहा है। फारुख अब्दुल्ला ने कश्मीर के संदर्भ में भी कहा है और पूरे हिंदुस्तान के सिलसिले में भी उन्होंने इस बात को कहा है और उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। आज हिंदुस्तान का कोई राजनीतिक दल यह सोचे कि यहां लोगों की नागरिकता खत्म करके उन्हें प्रताडऩा शिविरों में रखा जाएगा और उनके धर्म के लोगों पर कश्मीर या दूसरे प्रदेशों में कोई असर नहीं होगा, तो यह सोचना बहुत ही अलोकतांत्रिक है। आज देश में जगह-जगह कुछ राजनीतिक दलों और कुछ सरकारों का रुख जिस हद तक मुस्लिमों के खिलाफ दिखता है और मुस्लिमों के खिलाफ एक हमलावर तेवर बनाए रखने के लिए हिंदू धर्म का जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है उसका असर भी न सिर्फ हिंदुस्तान के मुस्लिम समुदाय पर पड़ता है, बल्कि दुनिया में कई देशों में वहां की मुस्लिम आबादी पर भी पड़ता है जो कि हिंदुस्तानी लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार देती है। भारत में मुस्लिमों के साथ अगर ज्यादती होती है तो खाड़ी के देशों में काम करने वाले गैर मुस्लिम हिंदुस्तानियों को भी उसका दाम चुकाना पड़ता है।
हमने दुनिया के बहुत से देशों को देखा है जहां पर सत्ता की राजनीति धर्म के आधार पर की गई और उसका क्या नतीजा हुआ। यह पाकिस्तान में भी देखने मिल रहा है और इस्लामी नारों के साथ चलाए जा रहे आतंक के दूसरे देशों में भी। धर्म का मिजाज ही ऐसा रहता है कि वह किसी भी लोकतंत्र और किसी भी संविधान के ऊपर हावी होने की कोशिश करता है और हिंदुस्तान को इससे बचना भी चाहिए। फारुख अब्दुल्ला की कही बातें देशभर में सोचने-विचारने लायक हैं। उन्होंने और भी बहुत से मुद्दों को लेकर कहा है, जिसमें उन्होंने यह भी याद किया है कि जिस वक्त उनके पिता शेख अब्दुल्ला कश्मीर के सबसे बड़े नेता थे, उस दौर में, 1947 में जब भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ, उस पूरे दौर में भी पूरे कश्मीर में एक भी हिंदू को नहीं मारा गया। वहां की स्थानीय लीडरशिप थी जिसने इस बात की गारंटी की थी कि वहां सांप्रदायिक दंगे ना हों। लेकिन बाद के वर्षों में जब केंद्र सरकार के तैनात किए हुए राज्यपाल ने वहां रहते हुए कश्मीरी पंडितों के कश्मीर छोडऩे का माहौल बनने दिया, उनके निकलने का इंतजाम किया, तो यह देखना तकलीफदेह रहा कि उसके बाद उसी अफसर जगमोहन को पद्म भूषण और पद्म विभूषण दिया गया। ऐसी तमाम बातों से सीख और सबक लेना चाहिए क्योंकि कश्मीर आज भी कश्मीरी पंडितों के वापस लौटने लायक प्रदेश नहीं बन पाया है। पूरी तरह से केंद्र सरकार के काबू में उसे कई बरस हो चुके हैं। लेकिन अब तक कश्मीरी पंडितों की वापिसी के मुद्दे पर बात दो कदम भी आगे नहीं बढ़ी है। हिंदुस्तान में धर्म को राजनीति से अलग किए बिना इस देश को न तो चलाया जा सकता है और न ही बचाया जा सकता है। इस बात को नेता समझें न समझें, जनता को गंभीरता से समझ लेना चाहिए और यह मानकर चलना चाहिए कि धर्म के नाम पर जो लोग राजनीति कर रहे हैं वह हिंदुस्तान को खत्म करने का काम कर रहे हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना अपने सामाजिक सरोकार को लेकर कई बार हैरान करते हैं कि क्या उन्हें रिटायरमेंट में किसी और पुनर्वास की कोई चाह नहीं है? उनकी बातें सत्ता को बगावती तेवरों की बातें लग सकती हैं। अभी उन्होंने दिल्ली नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक समारोह में छात्रों के बीच कहा कि पिछले कुछ दशकों से छात्र बिरादरी से कोई बड़े नेता निकलकर नहीं आए हैं, और यह एक ऐसे देश का हाल है जहां छात्र, देश की आजादी के आंदोलन का चेहरा थे। उन्होंने कहा कि आर्थिक उदारीकरण के बाद ऐसा लगता है कि सामाजिक मुद्दों को लेकर उनमें छात्रों की भागीदारी घटती चली गई है। मुख्य न्यायाधीश ने निजी हॉस्टल-स्कूलों और कोचिंग सेंटरों में भेज दिए जाने वाले छात्रों के बारे में कहा कि वे कटी हुई ऐसी जिंदगी जीते हैं जिन्हें उनके आसपास की सामाजिक हकीकत का भी एहसास नहीं रहता, उनके भीतर की प्रतिभा भी बस आगे करियर बनाने में झोंक दी जाती है। उन्होंने कहा कि आज चारों तरफ ऐसे पेशेवर कोर्स की चाह रह गई है जिनसे ऊंची तनख्वाह वाले काम मिल सकें, दूसरी तरफ इंसानों से जुड़े हुए विषयों और कुदरत से जुड़े हुए विषयों की पढ़ाई पूरी तरह उपेक्षित होती जा रही है। जस्टिस रमना ने कहा कि प्रोफेशनल कोर्स वाले विश्वविद्यालयों में जाने के बाद बच्चे वहां पर क्लास रूम की पढ़ाई में रह जाते हैं, और पता नहीं ऐसे में सामाजिक सरोकारों से उनके कट जाने की तोहमत किसे दी जाए। उन्होंने कहा कि आज हिंदुस्तान की आबादी का एक चौथाई हिस्सा बुनियादी तालीम पाने से भी दूर है और विश्वविद्यालयों में पढऩे की उम्र वाले कुल 27 फीसदी लोग ही यूनिवर्सिटी की पढ़ाई कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में पढ़े-लिखे लोग बड़ी पूंजी होते हैं, और हिंदुस्तान में उसी की कमी दिखाई पड़ती है। उन्होंने छात्र-छात्राओं की समाज में भूमिका के बारे में एक बड़ी बात कही कि छात्र ही आजादी, इंसाफ, समानता, नैतिकता, इन सबके रखवाले होते हैं, और जब यह पीढ़ी, इस उम्र के लोग, सामाजिक और राजनीतिक रूप से चेतनासंपन्न होते हैं, तब समाज और देश में शिक्षा, भोजन, कपड़े, इलाज, और रहने जैसे बुनियादी मुद्दे राष्ट्रीय बहस के बीच में बने रहते हैं। पढ़े-लिखे नौजवान सामाजिक हकीकत से कटे नहीं रह सकते हैं।
जस्टिस रमना आए दिन कभी अदालत के फैसले में, कभी सुनवाई के दौरान अपनी टिप्पणियों से, और कभी बाहर किसी जगह पर भाषण देते हुए सामाजिक इंसाफ की बहुत सारी बातें कहते हैं। बहुत समय बाद भारत का कोई प्रमुख न्यायाधीश लीक से हटकर और अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी से बाहर जाकर इस तरह की बातें कहते हुए सुनाई पड़ रहा है। हम उनकी इन बातों के एक छोटे से हिस्से से कुछ असहमत हैं, लेकिन उनकी पूरी सोच के साथ हैं, और यह भी समझने की जरूरत है कि आज हिंदुस्तान में ऐसा हो क्यों रहा है। हम उनकी यह बात ठीक नहीं मानते कि हिंदुस्तान में हाल के दशकों में कोई बड़ा छात्र नेता उभरकर सामने नहीं आया। ताजा इतिहास गवाह है कि जिस वक्त देश की सरकार और दिल्ली की पुलिस जेएनयू के छात्र-छात्राओं पर तरह-तरह की झूठी और साजिशन तोहमत लगाकर उनके खिलाफ फर्जी मामले दर्ज कर रही थी, उस वक्त भी जेएनयू में कन्हैया कुमार जैसे छात्र नेता सामने आए और उन्होंने देश को हिलाकर रख दिया। कन्हैया कुमार अभी कुछ अरसा पहले तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में थे और उसी पार्टी की छात्र शाखा में वे राजनीति कर रहे थे। उन्होंने बार-बार खुलकर इस बात पर जोर दिया था कि विश्वविद्यालयों के छात्र राजनीति में हिस्सा लेंगे ही। और जो लोग विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को राजनीति से परे रखने की बात करते हैं, उनको यह भी समझना चाहिए की 18 बरस की उम्र में जब वोट देने का अधिकार दिया गया है तो छात्र राजनीति से परे कैसे रहेंगे? और फिर विश्वविद्यालयों में न सिर्फ वामपंथी दलों के छात्र संगठन हैं, बल्कि कांग्रेस और भाजपा इन दोनों का छात्र संगठनों का लंबा इतिहास रहा है. इसलिए वहां जेएनयू की मिसाल दे-देकर छात्रों को राजनीति से दूर रखने की बात करना एक बड़ी बेवकूफी की बात रही है, और वह मोटे तौर पर वामपंथी रुझान के छात्र-छात्राओं को कुचलने की सोच रही है। लेकिन ऐसी तमाम साजिशों के पीछे से उबरकर जेएनयू के और जामिया मिलिया के छात्र नेता जिस तरह से पिछले वर्षों में सामने आए हैं, हमारा ख्याल है कि जस्टिस रमना को इन्हें अनदेखा नहीं करना था। कन्हैया कुमार ने जेल से रिहा होने के बाद जेएनयू के कैंपस में करीब 1 घंटे का जो भाषण दिया था और जो देश के कई चैनलों पर लाइव दिखाया गया था उसने लोगों को यह बतलाया था कि छात्र नेता भी कितने समझदार और गंभीर हो सकते हैं, और बाद में भी कन्हैया कुमार ने लगातार एक परिपच् नेता के रूप में अपने आपको पेश किया। उनकी निजी राजनीति सीपीआई से निकलकर कांग्रेस तक आ गई लेकिन उससे हमारी आज की बात का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे और भी छात्र नेता वहां पर रहे, लेकिन सवाल यह है कि जब देश या प्रदेशों की सरकारें छात्र आंदोलनों को कुचलने में लगी रहें, और जब उनके खिलाफ झूठे जुर्म दर्ज किए जाएं, उनके खिलाफ देशद्रोह के नारों वाले झूठे वीडियो गढ़े जाएं, जिन्हें अदालतें ही फर्जी साबित करें, तो फिर ऐसी सरकारों के खिलाफ छात्र आंदोलन कितने चल सकते हैं? ऐसा भी नहीं है कि ज्यादती से डरकर कन्हैया कुमार जैसे लोग किसी सत्तारूढ़ दल में चले गए हैं। लेकिन जब जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में कुलपति बनाने से लेकर बाकी तमाम फैसलों तक में सरकार की नीयत साफ दिखती है कि छात्र आंदोलन को किस तरह कुचला जाए, तो फिर वहां से कोई बहुत बड़ा आंदोलन निकलना कुछ मुश्किल भी रहता है. फिर अलग-अलग राज्य में राज्यों में सरकारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ जिस तरह का रुख दिखाया है, उससे भी नौजवान पीढ़ी और छात्रों का हौसला पस्त हुआ है।
लेकिन जस्टिस रमना की इस बात से हम पूरी तरह सहमत हैं कि जिस देश में छात्रों की पीढ़ी जागरूक रहेगी और सामाजिक-राजनीतिक चेतना संपन्न रहेगी, वहां पर जमीनी हकीकत भी बेहतर होगी। देश के बुनियादी मुद्दों से नौजवान पीढ़ी को जुड़े रहना चाहिए और उसे अपने-आपको कभी हाशिए पर नहीं जाने देना चाहिए। जब नौजवान कॉलेज और विश्वविद्यालय में रहते हैं उस वक्त भी कुछ खतरे उठाने का हौसला भी रखते हैं। लेकिन आज आर्थिक उदारीकरण के बाद जिस तरह से हिंदुस्तान में उच्च शिक्षा के नगदीकरण का सिलसिला चल रहा है उसमें मां-बाप और नौजवान पीढ़ी को ऊंची तालीम पाने के लिए पूंजी निवेश करना पड़ता है, और फिर उस पूंजी निवेश की वापिसी के लिए ऊंची तनख्वाह, ऊंची कमाई वाले काम करने पड़ते हैं, और इन सबका नतीजा यह रहता है कि वे सामाजिक सरोकार से कटते चले जाते हैं। आज देश में अधिकतर छात्रों का हाल यह है कि वे महंगे मोबाइल और महंगी मोबाइक से परे कम ही सोच पाते हैं। और डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, कानून या मैनेजमेंट जैसी पढ़ाई करने वाले लोग तो अपने-आपको जमीन से काट ही लेते हैं। जेएनयू या जामिया जैसे संस्थानों के, या सामाजिक विज्ञान के विषय पढऩे वाले दूसरे छात्र-छात्राओं के बीच जागरूकता का एक बेहतर स्तर दिखता है और वहीं से कुछ उम्मीद भी की जा सकती है।
जस्टिस रमना के पूरे दीक्षांत-भाषण को पढऩा या सुनना चाहिए और छात्रों के बीच इसे लेकर एक चर्चा भी छिडऩी चाहिए। नौजवान पीढ़ी अगर भारत के 2-4 राजनीतिक दलों से जुड़े हुए छात्र संगठनों की सोच के कैदी होकर रह जाएगी, तो भी उससे छात्र आंदोलनों का नुकसान होगा। होना यह चाहिए कि छात्रों के बीच से अधिक असरदार आंदोलन शुरू हों, और इस बात को खारिज कर दिया जाए कि छात्रों का काम केवल पढ़ाई करना है, राजनीति करना नहीं है। जिस दिन से लोगों को वोट डालने का हक मिलता है उस दिन से ही उन्हें राजनीति करने का हक भी मिल जाता है, और आज देश के तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों के छात्र संगठन इसीलिए हैं कि वे छात्र-छात्राओं के राजनीति में आने की उम्मीद करते हैं, उसे बढ़ावा देते हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में बहुत सी जगहों पर ऐसे मौलिक फैसले लिए जाते हैं जिनसे बाकी दुनिया कुछ सीख सकती है। हर फैसला तो हर जगह लागू नहीं हो सकता क्योंकि अलग-अलग देशों के कानून अलग होते हैं, वहां की लोकतांत्रिक या दूसरे किस्म की व्यवस्था अलग होती है, लेकिन फिर भी कई बातों को लेकर एक-दूसरे से सीखा जा सकता है। अब जैसे आज की खबर है कि न्यूजीलैंड दुनिया में सबसे कड़ा धूम्रपान कानून लागू करने जा रहा है, और इस प्रस्तावित कानून में 14 साल या उससे कम उम्र के लोग 2027 के बाद कभी सिगरेट नहीं खरीद पाएंगे। अभी 2 दिन पहले न्यूजीलैंड में इस नए कानून का मसौदा पेश किया गया और स्वास्थ्य मंत्री ने यह कहा कि हम इस बात की गारंटी करना चाहते हैं कि नौजवान कभी धूम्रपान न करें। वहां की सरकार का यह कहना है कि धूम्रपान घटाने की बाकी कोशिशें इतना धीमा असर करती हैं कि उससे लोगों का सिगरेट पीना छूटने में कई दशक लग जाएंगे, और सरकार लोगों का इतना लंबा नुकसान नहीं चाहती है। आज न्यूजीलैंड में 15 साल से अधिक उम्र के लोगों में 11 फ़ीसदी लोग सिगरेट पीते हैं और वहां के मूल निवासी माओरी आदिवासियों में यह अनुपात 29 फ़ीसदी तक है। अभी लोगों के सामने पेश किया गया यह मसौदा अगले साल संसद में पेश होगा और 2024 से इस पर कड़ाई से अमल किया जाएगा, और 2027 से धूम्रपान मुक्त पीढ़ी आने लगेगी ऐसा सरकार का कहना है। इसी खबर में यह जानकारी भी मिलती है कि न्यूजीलैंड की तरह यूनाइटेड किंगडम भी 2030 तक धूम्रपान मुक्त होने का एक लक्ष्य लेकर चल रहा है।
हिंदुस्तान में हाल के वर्षों में ऐसा लगने लगा है कि सिगरेट पीना तो इतना बड़ा खतरा शायद नहीं रह गया है जितना बड़ा खतरा तंबाकू और सुपारी का मिला हुआ गुटखा बन गया है। हिंदुस्तान में गुटखा जेब में रखकर चलना आसान है, खरीदने के लिए तो कदम-कदम पर दुकानें हैं, और गांव-देहात के बहुत से लोग तो खाली तंबाकू को मसलकर उसे मुंह में दबाकर घंटों तक उसका मजा और नशा लेते रहते हैं, यह एक अलग बात है कि मुंह के कैंसर को न्यौता देने का यह सबसे असरदार तरीका है। हिंदुस्तान में मुंह के कैंसर की एक सबसे बड़ी वजह मुंह में तंबाकू दबाकर रखने वाले लोग हैं, लेकिन देश और प्रदेश की किसी भी सरकार की फिक्र में यह नहीं दिखता है क्योंकि बड़े-बड़े नेता भी इस तरह से तंबाकू खाते हुए दिखते हैं। बहुत से नेताओं की तो ऐसी तस्वीरें आती है जिनमें उनके कमरों में पीकदान रखे रहते हैं और जो बात करते हुए मुंह को आसमान की तरफ उठाकर पीक को मुंह में समाए हुए बात करते हैं। कहने के लिए हिंदुस्तान में धूम्रपान के खिलाफ कानून है और यहां सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट-बीड़ी पीने वाले लोगों पर जुर्माना है लेकिन इस कानून का कभी कोई अमल होता हो ऐसा दिखाई नहीं पड़ता है. अभी जब कोरोना की वजह से पिछले डेढ़-दो बरस में लोगों को अधिक साफ-सफाई और सावधानी बरतने की जरूरत लगने लगी, तब भी सड़कों पर भूख और पीक उगलते हुए लोगों की भीड़ दिखती ही है। हर चौराहे पर जहां लाल बत्ती पर गाड़ियां रूकती हैं वहां कारों के दरवाजे खुलने लगते हैं, और अगर किसी ने हेलमेट लगाया हुआ है तो उसे हटाकर भी, थूकने का सिलसिला चलता है. कोरोना वायरस को यह देश बड़ा पसंद भी आता होगा क्योंकि यहां लोग खूब सारा थूक चारों तरफ फैलाते चलते हैं, और सड़कों पर बड़े-बड़े हिस्से तंबाकू की पीक के रंग के दिखते हैं।
भारत में कैंसर के आंकड़े अगर देखें तो मुंह के कैंसर के शिकार लोग बहुत हैं। सिगरेट-बीड़ी पीने से फेफड़ों का कैंसर भी होता है और उनकी गिनती अलग है। सिगरेट-बीड़ी पीने वालों के आसपास के लोग भी उनके धुएं के बुरे असर के शिकार होते हैं और पैसिव स्मोकिंग से भी बहुत से लोगों को कैंसर होता है। न्यूजीलैंड ने जिस तरह का कड़ा फैसला सामने रखा है उसे देख कर दुनिया के बाकी देशों को भी अपने बारे में सोचना चाहिए और सिगरेट-बीड़ी, तंबाकू-गुटखा, या शराब पर किस तरह काबू पाया जाए, उस बारे में सोचना चाहिए।
जिन सरकारों को यह लगता है कि तंबाकू या शराब से इतना टैक्स मिलता है कि सरकार उसी कमाई से चलती है, तो उन्हें इन चीजों से होने वाली बीमारियों की पारिवारिक और सामाजिक लागत के बारे में भी सोचना चाहिए, और यह भी सोचना चाहिए कि गरीब जनता इन पर कितना खर्च करती है, और उसके बाद उनमें से कितने लोगों की उत्पादकता किस बुरी तरह प्रभावित होती है, कितने लोगों को महंगे इलाज की जरूरत पड़ती है, कितने लोगों की जिंदगी घट जाती है। सरकारें बुराइयों से, नशे से कमाई के आंकड़े गिनते हुए ऐसे खर्च के आंकड़ों को अनदेखा कर देती है जिनका एक बड़ा बोझ सरकार पर ही पड़ता है। आज एक-एक कैंसर मरीज के इलाज में लाखों रुपए खर्च होते हैं, और गरीब मरीजों को तो सरकारी इंतजाम का ही सहारा रहता है। भारत में केंद्र सरकार को और राज्य सरकारों को भी तंबाकू से जुड़ी हुई चीजों के बारे में कड़े फैसले करने चाहिए और ऐसा करते हुए तंबाकू उत्पादक किसानों की फिक्र नहीं करनी चाहिए। ऐसे किसानों को दूसरी फसलों तक ले जाने में सरकारें मदद कर सकती हैं, और उन्हें अधिक नुकसान से बचा सकती हैं, लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी अगर तंबाकू का चलन इसी तरह चलता रहेगा तो उससे आने वाली पीढ़ियों के नुकसान की भी गारंटी रहेगी।
न्यूजीलैंड ने जिस तरह अगली पीढ़ी की फिक्र करते हुए इस नए कानून का मसौदा सामने रखा है, उसे देखना चाहिए और भारतीय परिस्थितियों में उस बारे में क्या हो सकता है यह सोचना चाहिए। किसी एक प्रदेश के लिए ऐसा फैसला लेना आसान नहीं होगा क्योंकि भारत के प्रदेश एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और किसी एक अकेली जगह प्रतिबंध लागू करना मुश्किल होता है। इसलिए देशभर में ऐसी किसी व्यवस्था के बारे में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक सहमति होना भी जरूरी है तभी जाकर लोगों की जिंदगी बच पाएगी।
उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में एक दलित युवती को बंधक बनाकर उससे गैंग रेप करने वाले 2 गैर दलितों को अदालत से उम्रकैद की सजा हुई है, लेकिन बलात्कार के 8 बरस बाद जाकर निचली अदालत का यह फैसला आया है, और जाहिर है कि सजा पाने वाले लोग ऊपर की अदालतों में जाएंगे, और एक पूरी जिंदगी वहां लड़ाई चलती रहेगी। इस बीच इस मामले में मुकदमे के कुछ पहलुओं पर गौर करने की जरूरत है। यह युवती दलित थी इसलिए यह मामला एसटी-एससी अधिनियम की विशेष अदालत में चला। यह एक विशेष अदालत थी जहां इस अधिनियम के तहत दर्ज मामले ही चलते हैं, लेकिन उसमें भी इस मामले को 8 बरस लग गए। मामले की जानकारी बताती है कि बलात्कारियों ने घटना के बारे में किसी को बताने पर परिवार की हत्या की धमकी भी दी थी। अब ऐसे दबंग लोगों के बीच एक दलित परिवार अदालत में लड़ते हुए 8 बरस किस तरह गुजार रहा होगा यह सोचना आसान भी है, और मुश्किल भी। लेकिन इस फैसले के एक और पहलू पर हम बात करना चाहते हैं कि दोनों बलात्कारियों को उम्र कैद सुनाते हुए अदालत ने 20 हजार रुपयों का जुर्माना भी लगाया। यह जुर्माना किसके काम का रहेगा? बलात्कार की शिकार युवती को देने के लिए तो यह मुआवजा किसी तरह से काफी नहीं है और न ही एक राजपूत और एक ब्राह्मण बलात्कारी को यह जुर्माना बहुत भारी पड़ रहा होगा। सजा के अलावा इस जुर्माने के बारे में भी चर्चा की जरूरत है।
हम पहले भी इसी जगह पर कई बार लिख चुके हैं कि जब कभी गैर बराबरी के दो लोगों के बीच कोई जुर्म होता है, और अमूमन ताकतवर लोग ही कमजोर लोगों के खिलाफ कोई जुर्म करते हैं, तो वैसे में ताकतवर को आम सजा देना बहुत ही नाकाफी होता है। ताकतवर को सजा अधिक बरस की कैद की शक्ल में भी मिलनी चाहिए, और उसकी संपत्ति की ताकत को भी नहीं छोडऩा चाहिए। भारत जैसे समाज में पैसे की ताकत से भी कई लोगों को बलात्कार का हौसला मिलता है, इसलिए उनकी इस ताकत को भी सजा मिलनी चाहिए। जो जितना अधिक संपन्न हो, उसकी संपन्नता का एक हिस्सा बलात्कार की शिकार लडक़ी को मिलना चाहिए। शायद उस व्यक्ति की संपत्ति के बंटवारे में उसकी एक-एक औलाद या उसकी बीवी को जितना हिस्सा मिले, उतना ही हिस्सा जुर्म साबित हो जाने के बाद बलात्कार की शिकार लडक़ी को मिलना चाहिए। ऐसा होने पर ही समाज में संपन्न और ताकतवर लोगों के बीच खौफ बैठेगा कि वे खुद तो जेल जाएंगे, परिवार भी दौलत के एक बड़े हिस्से से हाथ धो बैठेगा। बलात्कार के दिन बलात्कारी की जितनी दौलत है, उसे अदालत को तुरंत ही अपनी निगरानी में लेना चाहिए, और उसके एक हिस्से का कब्जा भी बलात्कारी के परिवार से परे कर लेना चाहिए। यह बात इसलिए जरूरी है कि देश में न सिर्फ बलात्कार, बल्कि किसी भी तरह के अपराध, संपन्न और ताकतवर लोगों द्वारा कमजोर और विपन्न लोगों पर अधिक होते हैं। यह ताकत ओहदे की ताकत भी होती है कि मानो कोई सुप्रीम कोर्ट का जज हो जो अपनी मातहत कर्मचारी का सेक्स शोषण करता हो, या कि कोई बड़ा अफसर या मंत्री हो जो कि किसी बेरोजगार या जरूरतमंद के साथ बलात्कार करता हो। इसलिए ताकत का जितना बड़ा हौसला हो उतना ही बड़ा जुर्माना होना चाहिए, कैद तो होनी ही चाहिए। ऐसा बड़ा जुर्माना ही बलात्कार या हत्या के शिकार परिवार के पुनर्वास में काम आ सकता है
भारत की न्याय प्रक्रिया में ऐसा इंतजाम भी होना चाहिए कि जब कोई गरीब परिवार किसी जुर्म के खिलाफ शिकायत करके अदालत आने-जाने के लिए मजबूर होता है तो उसकी कुछ भरपाई भी सरकार की तरफ से होनी चाहिए। आज भी अदालत से गरीबों को रोजाना कुछ छोटी सी रकम पेशी पर आने के लिए मिलने का प्रावधान तो है लेकिन शायद ही उसका कहीं कोई भुगतान होता है, अदालत के बाबू ही उसे रख लेते हैं। जब पूरे-पूरे दिन पुलिस थानों में, वकीलों के पास, और अदालत के गलियारों में खराब होते हैं तो गरीबों को उसकी भरपाई भी होना चाहिए। इसके बिना लोग भूखे मरने के डर से भी कई बार शिकायत नहीं कर पाते कि उनकी उस दिन की मजदूरी का क्या होगा, दिनभर अदालत में रहेंगे शाम को चूल्हा कैसे जलेगा? जब जुल्म और जुर्म की शिकार गरीब जनता की तकलीफें इतनी बड़ी रहती हैं कि वे अदालत में पूरा दिन गंवाना भी बर्दाश्त नहीं कर पाते, तो उनके लिए अदालत की तरफ से एक गुजारा भत्ते का इंतजाम होना चाहिए। यह इंतजाम कम से कम एक दिन की सरकारी रोजी जितना होना चाहिए ताकि गरीब लोग जिंदा रह सके। इसके साथ-साथ गरीबों को अदालत में मिलने वाली मुफ्त कानूनी मदद के ढांचे को भी मजबूत करने की जरूरत है ताकि उन्हें इंसाफ मिलने की थोड़ी सी गुंजाइश बढ़ सके। दुनिया के बहुत से विकसित देशों में बड़े-बड़े वकील भी अपने वक़्त का कुछ हिस्सा गरीबों के लिए मुफ्त में देते हैं। हिंदुस्तान में भी ऐसी मदद को बढ़ावा मिलना चाहिए।
कुल मिलकर जिस बात से आज की यह चर्चा शुरू हुई है, बलात्कार के मामलों की सुनवाई तेज होनी चाहिए और कोशिश होनी चाहिए कि साल भर के भीतर बलात्कारी को सजा मिल जाये, और उसकी संपत्ति का एक हिस्सा जुर्माने की शक्ल में वसूलकर बलात्कार की शिकार को दिया जाये।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के सौ प्रमुख अर्थशास्त्रियों ने मिलकर विश्व असमानता रिपोर्ट जारी की है, इस रिपोर्ट की प्रस्तावना भारतीय मूल के नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने लिखी है। रिपोर्ट को देखें तो समझ आता है कि दुनिया में गरीब और अमीर के बीच फासला कितना बड़ा है, और कितना बढ़ते चल रहा है। लेकिन इससे बड़ी बात हिंदुस्तान के लिए यह है कि हिंदुस्तान गरीब और अमीर के बीच बहुत बड़ी असमानता वाला देश है। यहां पर अमीर लोग बहुत अधिक अमीर हैं, और गरीब लोग बहुत गरीब, और पिछले एक-दो बरस में गरीबों की हालत खराब हुई है. भारत में आर्थिक आधार पर नीचे की 50 फीसदी आबादी की कमाई गिर गई है, और संपन्न तबके की कमाई बढ़ गई है। रिपोर्ट की जानकारी को देखें तो यह दिखाई पड़ता है कि भारत में सबसे ऊपर के 10 फ़ीसदी लोग 57 फीसदी कमाई पर काबिज हैं, और इनमें भी एक फीसदी ऐसे हैं जो राष्ट्रीय आय के 22 फीसदी पर काबिज हैं। दूसरी तरफ देश की 50 फीसदी गरीब आबादी पिछले एक बरस में 13 फीसदी कमाई खो बैठी है। रिपोर्ट में इस बात को खुलकर कहा है कि भारत गरीबी और अमीरी के बीच फासले की एक जलती हुई मिसाल है।
भारत में आर्थिक असमानता के ये आंकड़े बहुत भयानक हैं, लेकिन इनको समझते हुए यह भी देखना होगा कि जब-जब इस देश में कुपोषण से गरीबों की बदहाली की रिपोर्ट आती है तो पता लगता है कि उसी के एक या दो दिन बाद भारतीय शेयर बाजार आसमान पर पहुंच जाता है। जब पता लगता है कि देश में बेरोजगारी बढ़ गई है, लोगों के पास खाने-पीने को नहीं है, लोगों को महंगाई बर्दाश्त नहीं हो पा रही है, और उस वक्त शेयर मार्केट एक नया रिकॉर्ड बनाने लगता है, पुराने रिकॉर्ड तोडऩे लगता है. जाहिर है कि देश की सबसे बड़ी कंपनियां, या देश का सबसे संपन्न तबका, इनका कोई भी लेना-देना जमीनी हकीकत से नहीं है, आम जनता से तो बिल्कुल भी नहीं है। जब लोगों के पास खाने को नहीं है उस वक्त हिंदुस्तानियों को शेयर बाजार में पूंजी निवेश से फुर्सत नहीं है। आज जो रिपोर्ट दुनिया भर में छपी है उस रिपोर्ट की हकीकत हिंदुस्तानी शेयर बाजार पहले ही साबित करते आया है। आम जनता की तकलीफ, उसकी बदहाली, उसकी भूख, और उसकी बेरोजगारी इन सबके बीच हिंदुस्तान में एक-एक बड़ी कंपनी एक-एक दिन में दसियों हजार करोड़ रुपए की पूंजी बढ़ा लेती है। यह पूरा सिलसिला हिंदुस्तान को दो हिस्सों में बांटता है। और अभी जब एक किसी कॉमेडियन ने किसी दूसरे देश में जाकर हिंदुस्तान के दो हिस्सों के बारे में कविता पढ़ी, तो उसे गद्दार और देशद्रोही करार देते हुए उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाने की कोशिश की गई कि उसने देश को बदनाम किया है। अब अभिजीत बनर्जी के खिलाफ भी कोई जाकर पुलिस में रिपोर्ट लिखा सकते हैं कि हिंदुस्तान में गरीबी और अमीरी के इस फैसले को इस तरह से दिखाना हिंदुस्तान के साथ गद्दारी है। यह एक अलग बात है कि अभिजीत बनर्जी का हिंदुस्तान से कोई खास लेना-देना रहा नहीं है वे अमेरिका में रहते हैं, वहीं के विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं, और वहीं पर उनके काम के लिए उन्हें और उनकी पत्नी को, एक और सहयोगी के साथ नोबेल अर्थशास्त्र पुरस्कार मिला है। लेकिन फिर भी वे भारतवंशी हैं इसलिए उन्हें गद्दार करार देने का हक तो इस देश के लोगों का बनता है, फिर चाहे वे एक आईना दिखाने की कोशिश कर रहे हो। हिंदुस्तान की हकीकत बताती है कि बहुत गरीब लोगों के पास तो आईना खरीदने के लिए पैसे भी नहीं रहते, और न ही उनकी अपनी हालत आईने में देखने लायक रहती इसलिए अगर कोई आईना दिखा रहे हैं तो जाहिर तौर पर वह संपन्न तबके को दिखा रहे हैं, और ऊंची कमाई वालों को नीचा दिखाना देश के साथ एक किस्म की गद्दारी तो करार दी ही जा सकती है।
लेकिन हिंदुस्तान की यह हकीकत सडक़-चौराहों से लेकर फुटपाथ, और मजदूर बस्तियों से लेकर देश की संसद और विधानसभाओं तक सभी जगह दिखती है। आज हालत यह है कि देश की आधी गरीब आबादी की जरूरतों पर जिन सदनों में चर्चा होनी चाहिए, वहां करोड़पति भीड़ हो चुकी है। इतने संपन्न लोगों की मजलिस भला क्या खाकर देश के सबसे गरीब लोगों की जरूरतों पर बात कर सकती है? इसलिए यह पूरा सिलसिला जनतंत्र के नाम पर धनतंत्र का एक ऐसा शिकंजा है जो गरीबों को जकडक़र रखता है ताकि वे अमीरों पर कोई हमला न कर बैठें, कहीं उनके हितों में हिस्सा न बताने लगें, कहीं वहां अपना हक न मानने लगें। असमानता की रिपोर्ट दिल दहलाती है, और बताती है कि हिंदुस्तान के लोकतंत्र में लोक की जगह नहीं रह गई है, अब तंत्र ही तंत्र रह गया है जो कि सबसे महंगे जूतों की पॉलिश करने में लगा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
घरेलू हिंसा के मामलों पर कितना लिखा जाए और कितना उन्हें अनदेखा किया जाए, यह फैसला आसान नहीं होता। घरेलू हिंसा की खबरों को भी कितना छापा जाए और कितना छोड़ दिया जाए यह बात भी परेशान करती है, और क्या हिंसा की ऐसी खबरों से और लोगों को हिंसा सूझती है या फिर ऐसी खबरों से लोग सावधान होते हैं, यह समझना भी कुछ मुश्किल रहता है। बहुत से लोग तो टीवी पर अपराध के कार्यक्रम इसलिए देखते हैं कि उन्हें लगता है कि इन्हें देखकर भी अपराध के शिकार होने से बच सकते हैं, कई दूसरे लोगों का मानना रहता है कि इससे लोगों को अपराध करना सूझ सकता है या जिन्होंने अपराध करना तय कर लिया है उन्हें यह सुझा सकता है कि अपराध कैसे किया जाए। जो भी हो, बीच-बीच में कुछ खबरें ऐसी आती है जिन्हें अनदेखा करना मुमकिन नहीं होता, न समाचार के रूप में, न विचार के रूप में. ऐसी ही एक खबर महाराष्ट्र की है जहां औरंगाबाद जिले में एक हिंदू लडक़ी ने एक हिंदू लडक़े से परिवार की मर्जी के खिलाफ शादी की, और कुछ महीनों बाद जब वह गर्भवती थी, उसकी मां उससे मिलने आई। उसे बेटी के गर्भवती होने का पता लगा और उसके बाद दोबारा वह अपने बेटे के साथ वहां आई, और उन दोनों ने मिलकर उसका कत्ल कर दिया, मां ने पैर पकड़े, बेटे ने बहन का सिर धड़ से अलग कर दिया और फिर उसके घर के बाहर आकर लोगों को उसका कटा हुआ सिर दिखाया, उसके साथ सेल्फी ली और फिर मोटरसाइकिल से थाने जाकर मां के साथ अपने को कानून के हवाले कर दिया। ऐसा लगता है कि मां और बेटे की तसल्ली इस कत्ल से ही पूरी हुई कि बेटी ने अपनी मर्जी से शादी की थी तो उन्होंने बेटी को ही खत्म कर दिया। गांव के लोगों का कहना है कि लडक़ा आर्थिक रूप से कमजोर था और लडक़ी की मां अपने बेटे सहित इस बात को अपना अपमान मान रही थी और परिवार की प्रतिष्ठा खराब होने की सोच ने उन्हें इस हत्या तक पहुंचा दिया। यह दूसरी ऑनर किलिंग के मुकाबले कुछ अधिक खतरनाक है जहां पर पिता और भाई मिलकर हत्या करते हैं, इसे एक मामले में तो मां और बेटे ने मिलकर ऐसा कत्ल किया, इतने खूंखार तरीके से किया, और उस पर फख्र भी किया। अपनी गर्भवती बेटी को इस तरह मारने वाली मां के मन में क्या रहा होगा और यह समाज की कैसी व्यवस्था है जो कि मां और भाई को इस हद तक हिंसक बना देती है, इस बारे में सोचने की जरूरत है।
हिंदुस्तान में हिंदू समाज के एक बड़े हिस्से में परिवार की प्रतिष्ठा को लडक़ी या महिला से जोडक़र देखा जाता है। अगर लडक़ी ने दूसरे धर्म या जाति में शादी की या कि किसी गरीब से शादी की, या कि अपनी मर्जी से शादी की, तो उसका परिवार उसके कत्ल पर उतारू हो जाता है। लेकिन शायद ही कहीं ऐसा सुनाई पड़ता होगा कि किसी लडक़े ने यही काम किया हो और उस लडक़े को उसके परिवार ने मारा हो। ऐसी हिंसा कहीं सुनाई नहीं पड़ती कि लडक़े के किसी काम को परिवार अपने खानदान की बेइज्जती मानता हो। लडक़ा भले बलात्कारी हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उससे कोई अपमान नहीं होता, लेकिन लडक़ी के साथ अगर बलात्कार कोई और कर दे तो भी उससे लडक़ी का अपमान होता है, और उसे डूब मरने लायक मान लिया जाता है, और लडक़ी को भी इस बात का एहसास होता है कि उसका परिवार और समाज उसके बारे में क्या सोच रहा है और इसीलिए वह अपने बलात्कार के बाद बिना किसी जुर्म के खुद फंदे पर टंग जाती है। किसी बलात्कारी के परिवार का कोई भी फंदे पर टंगता हो ऐसा कहीं सुनाई नहीं पड़ता। बलात्कारी के माँ-बाप को भी औलाद के कुकर्म पर ऐसी शर्म नहीं आती कि वे आत्महत्या कर लें। हम कहीं भी यह बात नहीं सुझा रहे हैं कि बलात्कारी के मां-बाप को आत्महत्या करना चाहिए, लेकिन हम बलात्कारी के जुर्म को, परिवार और समाज को देखते हैं, और दूसरी तरफ बलात्कार की शिकार लडक़ी को मुजरिम की तरह देखने वाले परिवार और समाज को भी देखते हैं। जब कभी दो धर्मों के या दो जातियों के लोगों के बीच शादी होती है, तो ऑनर किलिंग के नाम पर केवल लडक़ी को मारा जाता है। या फिर लडक़ी के घर वाले लडक़े को भी मारते हैं। लडक़े का परिवार कभी लडक़ी को नहीं मारता कि लडक़े ने नीची जाति या दूसरे धर्म में शादी की, उससे परिवार का अपमान हो गया है। कुल मिलाकर किसी भी पहलू से देखें तो दिखता यही है कि परिवार या समाज के सम्मान का बोझ लडक़ी के सिर पर रखा जाता है, और लडक़ा या मर्द मानो कुछ भी कर ले, उनका सम्मान कभी बिगड़ नहीं सकता, न ही उनकी वजह से परिवार का सम्मान बिगड़ सकता।
मर्दवादी सोच से बना हुआ यह समाज किसी कोने से बदलते हुए नहीं दिखता है, और महाराष्ट्र की यह ताजा हिंसा अकेली नहीं है। हिंदुस्तान में शायद हर बरस सौ-पचास ऐसी ऑनर किलिंग कहीं जाने वाली हिंसा होती है जिसमें लडक़ी को मार दिया जाता है, या लडक़ी के मां-बाप लडक़े-लडक़ी दोनों को मार देते हैं। इस बात पर लिखने की जरूरत हमें इसलिए लग रही है कि यह हिंसा की एक पराकाष्ठा है, लेकिन अगर हम इस तनाव को देखें तो समाज में जब लडक़े लडक़ी को अपनी मर्जी से मोहब्बत करने, उठने-बैठने, साथ रहने या शादी करने से इस तरह रोका जाता है, तो इससे उनकी दिमागी हालत पर जो फर्क पड़ता होगा उसका अंदाज लगाना चाहिए। नौजवान पीढ़ी की महत्वाकांक्षाओं को निजी जिंदगी में भी खत्म किया जाता है और उनके सार्वजनिक जीवन में भी। वे अपनी मर्जी की पढ़ाई नहीं कर सकते, अपनी मर्जी का काम नहीं कर सकते, अपनी मर्जी से मोहब्बत और शादी नहीं कर सकते, और वे जवान होकर अधेड़ होने लगते हैं, तब तक उन्हें मानो पतलून भी अपने मां-बाप के पसंद किए हुए कपड़े से सिलानी पड़ती है। यह पूरा सिलसिला मानसिक रूप से बीमार एक समाज का सुबूत है जो कि अपनी अगली पीढ़ी को अपने पूर्वाग्रहों का कैदी बनाए रखना चाहता है। यह सिलसिला न सिर्फ अहिंसक है बल्कि यह सिलसिला समाज के आगे बढऩे की राह में बहुत बड़ा रोड़ा है। आज दुनिया में जो भी देश आगे बढ़ रहे हैं वहां पर नौजवानों को अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने की आजादी है। दुनिया में खुशहाली के पैमानों पर आज जो देश सबसे ऊपर हैं वहां पर लोगों को यह भी आजादी है कि वे बच्चे पैदा करने के लिए शादी करें या ना करें। ऐसे देश जहां पर कोई पूछते भी नहीं है कि बच्चों के मां-बाप शादीशुदा है या नहीं, उन्हीं देशों का नाम खुशहाल देशों के पैमाने पर सबसे ऊपर आता है। वे देश व संपन्नता और विकास में भी ऊपर रहते हैं। एक खुशहाल युवा पीढ़ी एक उत्पादक युवा पीढ़ी भी रहती है जो राष्ट्रीय संपन्नता में योगदान दे पाती है, और जो अगली पीढ़ी को भी एक खुशहाल भविष्य देकर जाती है।
हिंदुस्तान में शहंशाह अकबर की कहानी जिस तरह सलीम और अनारकली की हसरतों को कुचलने वाली रही है, वही कहानी कई पीढिय़ों बाद भी, सैकड़ों बरस बाद भी घर-घर में दोहराई जाती है जहां मोहब्बत के दुश्मन बनकर खड़े हुए मां-बाप अगली पीढ़ी पर लगातार हिंसा करते हैं, लेकिन चूंकि वह हिंसा मरने और मारने तक नहीं पहुंचती है, इसलिए उसकी अधिक चर्चा नहीं होती है। हिंदुस्तान में यह सिलसिला कैसे खत्म होगा पता नहीं, क्योंकि दूसरे धर्म या दूसरी जाति में शादी करने के खिलाफ परिवार के अलावा समाज भी खड़ा हो जाता है, राजनीतिक दल भी खड़े हो जाते हैं, और सांप्रदायिक संगठन तो लाठी लिए हुए खड़े ही रहते हैं। हिंदुस्तान का यह बीमार समाज अगली पीढिय़ों को लगातार बीमार किए जा रहा है। ऐसे ही मौकों पर शहरीकरण काम आता है जहां जाकर रहते हुए लोग अपनी मर्जी से कुछ कर सकते हैं। जहां कहीं गांव की बात आती है तो वहां पर अपनी मर्जी का कुछ भी नहीं हो पाता क्योंकि लोगों को यह लगता है कि अपनी बराबरी में, अपनी जाति में, और अपने धर्म में शादी अगर नहीं होगी तो परिवार की नाक कट जाएगी। यह सिलसिला पता नहीं कब खत्म होगा क्योंकि जब परिवार अपनी गर्भवती बेटी को मारकर फख्र हासिल करता है तो फिर वैसी सोच को समझाकर क्या बदला जा सकता है?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)