संपादकीय
दिल्ली का इलाका एनसीआर कहलाता है, नेशनल कैपिटल रीजन, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, इसके बारे में अभी खबर आई है कि यहां पर वायु प्रदूषण इतना अधिक हो चुका है कि कोरोना वायरस की वजह से होने वाली मौतों से अधिक मौतें वायु प्रदूषण से हो सकती हैं, और जिन लोगों को पहले कोरोना की वजह से फेफड़ों की बीमारी निमोनिया हो रहा था, उससे अधिक संख्या में लोगों को वायु प्रदूषण की वजह से निमोनिया हो रहा है। अब दिक्कत यह है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें सीधे-सीधे कोरोना मौतों की तरह दर्ज नहीं होती हैं और इसलिए वे मोटे तौर पर अनदेखी रह जाती हैं। फिर दूसरी बात यह भी है कि मौतों से अलग, प्रदूषण की वजह से फेफड़ों की, सांस की, जो भी दूसरी बीमारियां हो रही हैं उनकी वजह से लोगों की जिंदगी घट रही है, उनकी मौत तो तुरंत नहीं हो रही है, लेकिन उनकी सेहत कमजोर होती चली जाती है, और वे अपनी पूरी जिंदगी नहीं जी पाते। लेकिन यह बात भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं आ पाती क्योंकि इसे आंकड़ों में नापतौल पाना मुमकिन नहीं होता।
इस बारे में सुप्रीम कोर्ट लगातार सुनवाई कर रहा है कि दिल्ली का प्रदूषण कैसे कम किया जाए, केंद्र और दिल्ली सरकार इन दोनों की खासी आलोचना भी हो रही है, लेकिन हर बरस इस्तेमाल होने वाले तौर-तरीकों को ही बार-बार अपनाया जा रहा है और दिल्ली के बुनियादी ढांचे में जो फेरबदल करके इस शहर को जिंदा रहने लायक बनाना चाहिए उस बारे में अभी तक कोई बातचीत भी नहीं हो रही है। हमने इसी जगह अभी हफ्ते-दस दिन पहले ही लिखा था कि दिल्ली की घनी बसाहट को कम करने के लिए केंद्र सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर एक योजना बनानी चाहिए कि दिल्ली से कौन-कौन सी चीजों को बाहर ले जाया जा सकता है। अभी पिछले डेढ़ बरस से जिस तरह लॉकडाउन और ऑनलाइन काम, वर्क फ्रॉम होम, इन सबका तजुर्बा बाकी दुनिया के साथ-साथ हिंदुस्तान को भी हुआ है, उसे इस्तेमाल करते हुए किस तरह से दिल्ली से दफ्तरों को बाहर ले जाया जा सकता है, दिल्ली से किन कारोबार को बाहर ले जाया जा सकता है, इसके बारे में सोचना चाहिए।
दिल्ली से परे देश की एक उपराजधानी बनाने की एक सोच लंबे समय तक चलती रही लेकिन हाल के वर्षों में उस पर कोई बातचीत नहीं हो रही है। दक्षिण भारत के कुछ राज्यों का यह मानना था कि उत्तर भारत में बसी हुई देश की राजधानी की वजह से दक्षिण भारत के साथ बेइंसाफी होती है, और उपराजधानी दक्षिण भारत में होनी चाहिए। राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में ताकतवर मंत्री रहे माधवराव सिंधिया अपने शहर ग्वालियर में उपराजधानी ले जाना चाहते थे और वे उसके लिए खुली कोशिश भी कर रहे थे। अब हमारा यह मानना है कि शारीरिक रूप से बहुत से दफ्तरों को एक साथ रखने की जरूरत नहीं रह गई है। लोग अब ऑनलाइन काम कर रहे हैं, वीडियो कॉन्फ्रेंस पर बैठकें हो जा रही हैं, लोग कंप्यूटरों पर सारा काम कर ले रहे हैं और एक साथ आना-जाना, बैठना, इसकी जरूरत पहले के मुकाबले घट गई है। ऐसे में केंद्र सरकार को तुरंत ही यह सोचना चाहिए कि वह अपने कौन-कौन से दफ्तरों को दिल्ली के बाहर ले जा सकती है। इसके लिए उसे देशभर के अलग-अलग राज्यों से सलाह भी करनी चाहिए और उनसे प्रस्ताव मंगवाने चाहिए कि कौन-कौन सा राज्य अपने कौन से शहर में केंद्र सरकार के दफ्तरों के लिए कितनी जगह देने को तैयार है, और कितने किस्म की रियायतें वह राज्य दे सकता है। बहुत से राज्य ऐसे होंगे जो अपने किसी शहर के विकास के लिए, एयरपोर्ट और खुली जगह के साथ-साथ केंद्र सरकार के ऐसे संस्थानों के लिए जगह बनाएं।
आज एक बड़ी जरूरत यह है कि केंद्र सरकार एक ऐसा आयोग बनाए जिसमें राज्यों के प्रतिनिधि भी हों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के योजनाशास्त्री हों, शहरी विकास के विशेषज्ञ हों, और जिसमें यह तय हो कि केंद्र सरकार के कौन-कौन से दफ्तर, दिल्ली में चलने वाले कौन-कौन से संवैधानिक संस्थान, कौन-कौन से शैक्षणिक संस्थान बाहर ले जाए जा सकते हैं। इससे परे यह भी देखने की जरूरत है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विदेशी संस्थानों का जो जमावड़ा दिल्ली में हो गया है उसे भी कैसे कम किया जा सकता है। और ऐसा करते हुए देश में आज प्रदूषण और घनी बसाहट झेल रहे दूसरे महानगरों को बाहर रखना चाहिए। ऐसी कोई वजह नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ या ऐसे दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठन देश के किसी दूसरे हिस्से में अपने दफ्तर ना बना सकें। इसके लिए दिल्ली में नए भवन निर्माण पर बड़ी कड़ाई से रोक लगानी होगी। आज प्रदूषण को घटाने के लिए दिल्ली सरकार की जो योजनाएं चल रही हैं, वे बहुत तंग नजरिए की हैं और वे केवल डीजल की गाडिय़ों को कम करने, पुरानी गाडिय़ों को हटाने, इस तरह की छोटी-छोटी बातें कर रही हैं। लेकिन दिल्ली की प्रदेश सरकार का यह अधिकार भी नहीं है कि वह दिल्ली में बसे हुए केंद्र सरकार या अंतरराष्ट्रीय संगठनों के दफ्तरों को बाहर ले जाने के बारे में किसी योजना पर काम करे, वह शायद ऐसा चाहेगी भी नहीं, यह काम केंद्र सरकार को ही करना होगा।
आज हिंदुस्तान में कम से कम 2 दर्जन ऐसे शहर छंाटे जा सकते हैं जो अलग-अलग राज्यों में होंगे, जो हवाई सफऱ के लिए, ट्रेन के लिए जुड़े हुए होंगे, और जहां पर राज्य सरकार खुली जगह दे सकेगी जिससे कि वहां होने वाले भवन निर्माण से स्थानीय रोजगार और कारोबार दोनों को बढ़ावा मिलेगा। यह काम बिना देर किए करना चाहिए और इस बारे में हम एक से अधिक बार इसलिए भी लिखते हैं क्योंकि ऐसी कोई सुगबुगाहट भी आज शुरू नहीं हो रही है। हो सकता है सरकार का इतना बड़ा हौसला न हो लेकिन इस देश में शहरी योजना को लेकर आईआईटी या एसपीए जैसे जो शैक्षणिक संस्थान बड़े-बड़े कोर्स चलाते हैं, जहां बड़ी-बड़ी पढ़ाई होती है, शोध कार्य होते हैं, वहां से भी किसी को ऐसा काम करना चाहिए और ऐसी एक ठोस योजना बनाकर केंद्र सरकार के सामने या सार्वजनिक रूप से सामने रखना चाहिए कि कैसे दिल्ली को फिर से जिंदा रहने लायक एक शहर बनाया जा सकता है। आज हकीकत यह है कि जिनके परिवार के लोग अधिक बीमार हैं और जिनके पास दिल्ली से बाहर उन्हें रखने की सहूलियत है वे लोग उन्हें बाहर ले जा रहे हैं, और जब तक ठंड का पूरा मौसम खत्म नहीं हो जाता तब तक उन्हें वापस नहीं ला रहे हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है और इसके पहले यह सिलसिला बढ़ते चले जाए और कोई योजना न बन सके, हम इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं कि ऐसा फैसला लेने वाले, योजना बनाने वाले, शोध कार्य करने वाले लोगों के के बीच कागज पर काम शुरू हो सके।
यह याद रखने की जरूरत है कि दिल्ली के सबसे गरीब लोगों के पास तो इस जानलेवा प्रदूषण से बचने के लिए न एसी गाडिय़ां हैं, और न ही एसी घर हैं। वे सबसे पहले बेमौत मारे जा रहे हैं।
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कई महीनों से अपने आप को रोकने के बावजूद आज हमें कंगना रनौत पर लिखना पड़ रहा है क्योंकि अब वह एक व्यक्ति से बढक़र एक ऐसा मुद्दा हो गई है जो कि इस देश के लिए एक बड़ा खतरा है। किसी लोकतंत्र के लिए, और उसके भीतर के विविधतावादी समाज के लिए खतरा सिर्फ बंदूक और बम लिए हुए, फौजी वर्दी वाले आतंकी नहीं होते हैं, ऐसे लोग भी खतरा होते हैं जो कि पूरे वक्त समाज में नफरत फैलाने का काम करते हैं, लोगों की सोच में गंदगी घोलते हैं और हर दिन सुबह उठते ही इस देश के इतिहास के गौरव पर थूकते हैं। शायद इस देश के इतिहास के हर महान गौरव पर थूकने के एवज में ही कंगना रनौत को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है, हम उस पर लिखना नहीं चाहते थे, लेकिन अब समाज की जो प्रतिक्रिया उसकी बकवास पर आ रही है उसे देखते हुए भी अगर हम नहीं लिखेंगे, तो यह समाज की अनदेखी होगी। हम अभी तक अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के लोगों का कंगना के खिलाफ कहा हुआ अनदेखा कर रहे थे, लेकिन कल की एक खबर है कि दिल्ली की सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने थाने के साइबर प्रकोष्ठ में शिकायत दर्ज कराई है कि कंगना ने सिखों के खिलाफ जानबूझकर अपमान की बातें लिखी हैं और किसानों के प्रदर्शन को खालिस्तानी आंदोलन बतलाया है। गुरुद्वारा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा है कि सिख समुदाय की भावनाओं को आहत करने के लिए जानबूझकर वह पोस्ट तैयार किया गया और अपराधिक मंशा से उसे साझा किया गया इसलिए इस पर कड़ी कार्यवाही की जाए। कंगना के खिलाफ और भी कई लोगों ने जगह-जगह पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है लेकिन इन्हें देखते हुए भी हम अब तक इस महिला को अनदेखा कर रहे थे, लेकिन जब गुरुद्वारा कमेटी ने सिख किसानों वाले आंदोलन को कंगना द्वारा खालिस्तानी करार देने पर रिपोर्ट की है, तो इसे अनदेखा करने का हमारा कोई हक नहीं है।
कंगना को पिछले एक-दो बरस से जिस तरह से बढ़ावा मिल रहा था और जिस तरह से उसकी बकवास बढ़ती चली जा रही थी उसका अंत शायद यहीं पहुंचकर होना था कि उसके खिलाफ कोई अदालत कोई सजा सुनाए। लेकिन हिंदुस्तान की अदालतों का हाल देखते हुए यह आसान और जल्द होने वाला काम नहीं लग रहा है, इसलिए इस महिला की फैलाई जा रही नफरत के खिलाफ राष्ट्रपति को लिखी गई चि_ी बहुत ही जायज है कि इससे पद्मश्री वापस ली जाए। देश का राष्ट्रीय सम्मान इसलिए नहीं होता कि आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ झोंक देने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के मुंह पर यह औरत रोज सुबह थूके और आज़ादी को अंग्रेजों से मिली हुई भीख बताए, और देश की असली आजादी 2014 (में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने) को बताए। हैरानी की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद होकर इस औरत की कही हुई इस बहुत ही घटिया और ओछी बात के खिलाफ कुछ नहीं कहा। प्रधानमंत्री को चाहिए था कि वे देश की आजादी के खिलाफ कही जा रही इन बातों की सांस में ही उनके प्रधानमंत्री बनने को देश की आजादी करार देने की बात को नाजायज कहते। उनकी चुप्पी उनके लिए नुकसानदेह है क्योंकि देश की आजादी कब मिली है यह सबको मालूम है, और एक नफरतजीवी हिंसक औरत के बयानों से देश और दुनिया के इतिहास का वह दौर नहीं बदलता। ऐसी गंदी बातें कहने वाली औरत जिसकी तारीफ करती है उसी का नुकसान करती है। प्रधानमंत्री के आसपास के कुछ लोगों को तो इस बात को समझना चाहिए और प्रधानमंत्री को समझाना चाहिए कि ऐसे प्रशंसक और ऐसे भक्त उनका नुकसान छोड़ और कुछ नहीं कर रहे हैं। देश के देश के इतिहास में यह अच्छी तरह दजऱ् हो रहा है कि ऐसी गंदी बातों को खबरों की सुर्खियों में देखते हुए भी प्रधानमंत्री चुप रहे। नरेंद्र मोदी खुद भी 2014 में देश की आजादी की बात नहीं सोचते होंगे, और उनके नाम को जोडक़र गांधी-नेहरू सहित लाखों स्वाधीनता संग्रामियों के त्याग और बलिदान पर थूकने वाली इस महिला से अपने बारे में ऐसी तारीफ सुनकर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया क्या होगी यह तो नहीं मालूम, लेकिन ताजा इतिहास इसे अच्छी तरह दर्ज करने वाला है।
सोशल मीडिया का एक सबसे बड़ा प्लेटफार्म ट्विटर पहले ही औरत की बकवास को ब्लॉक कर चुका है, उसके अकाउंट को ही ब्लॉक कर चुका है। अब हैरानी इस बात की है कि देश की कोई अदालत खुद होकर आजादी की लड़ाई में जान गंवाने वाले लोगों की इज्जत को जनहित और देशहित मानकर कोई सुनवाई शुरू क्यों नहीं कर रही है? जिन लोगों ने पुलिस में और राष्ट्रपति को यह लिखा है कि कंगना की बात देशद्रोह है, उन्होंने भी कुछ गलत नहीं लिखा है। अगर कोई गांधी के नाम पर इस तरह बार-बार थूके और बार-बार गांधी के हत्यारों का गुणगान करे, तो उसे देशद्रोही ही मानना चाहिए। यह सिलसिला पता नहीं कब तक चलेगा क्योंकि लोकतंत्र एक बहुत लचीली व्यवस्था रहती है जो इस किस्म के बहुत से गंदे लोगों को उनकी पूरी जिंदगी बर्दाश्त करती है। लेकिन इस औरत के खिलाफ एक जनमत तैयार होना चाहिए और इसकी फैलाई जा रही गंदगी पर लोगों को पुलिस में भी जाना चाहिए, अदालत में भी जाना चाहिए, और लोकतांत्रिक कानूनों से इसका मुंह बंद करवाना चाहिए। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जिम्मेदारियों के साथ ही मिलती है, इसलिए नहीं मिलती है कि ऐसी घटिया औरत नफरत और गंदगी को फैलाए और देश के गौरव पर बार-बार थूके, देश के लिए सबसे अधिक क़ुरबानी देने वाले सिखों को खालिस्तानी कहे। इसकी जगह जेल ही हो सकती है।
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आज दुनिया की एक बड़ी फिक्र यह है कि बहुत से देशों में लोगों के पास खाने-पीने को नहीं है। कुछ देश गृह युद्ध की वजह से, तो कुछ देश सूखे की वजह से भुखमरी की कगार पर हैं। अफ्रीका के कुछ देश भुखमरी का लंबा इतिहास झेल रहे हैं, लेकिन अभी युद्ध जैसे लंबे दौर से गुजरे हुए अफगानिस्तान में भी बच्चों के खाने-पीने को नहीं है, लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं। दुनिया के लोग यह भी मान कर चल रहे हैं कि आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उससे कुछ वक्त बाद जाकर धरती पर अनाज की, या खाने-पीने के सामानों की कमी होने लगेगी। बहुत से लोगों का यह भी कहना है कि मांस के लिए जिन पशुओं को पाला जाता है, उनकी वजह से पानी की खपत बहुत बढ़ जाती है और कई तरह की गैस हवा में घुलती है जिससे मांस पर्यावरण के मुताबिक खान-पान का अच्छा विकल्प नहीं है। कई जागरूक देश धीरे-धीरे मांस की खपत कम कर रहे हैं जिसके पीछे पर्यावरण को बचाना एक मकसद है, लेकिन लोगों को अधिक मांस खाने से रोकना भी एक दूसरा मकसद है ताकि उन्हें कई किस्म की बीमारियां न हों। दुनिया एक अलग किस्म के उथल-पुथल से गुजरते ही रहती है जिसके चलते कुछ देश अपना अधिक अनाज समंदर में फेंक देते हैं और कुछ दूसरे देशों के बच्चे और बड़े लोग कुपोषण और भुखमरी का शिकार होकर कम उम्र में मर जाते हैं, या वक्त के पहले खत्म हो जाते हैं। दुनिया का भविष्य कैसा होगा इसे सोचते हुए लोग खाने-पीने के बारे में जरूर सोचते हैं इतनी आबादी के लिए अनाज कहां से आएगा, या खाने-पीने के और दूसरे कौन से सामान जुटाए जा सकते हैं। हिंदुस्तान में जब कोई व्यक्ति महीनों तक बिना खाए रह लेते हैं, तो दुनिया के बहुत से वैज्ञानिक रिसर्च के लिए पहुँच जाते हैं कि क्या इसका कोई इस्तेमाल गरीब आबादी के लिए भी हो सकता है?
ऐसे में यूरोप में खानपान को सुरक्षा सर्टिफिकेट देने वाली सबसे बड़ी कानूनी संस्था यूरोपीयन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने अभी टिड्डों को खाने के लायक सुरक्षित माना है और उसकी मंजूरी दी है। टिड्डों की दिक्कत दुनिया के कई देशों में भयानक बढ़ते चल रही है और अफ्रीका से शुरू होकर ये टिड्डे ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान होते हुए हिंदुस्तान तक आते हैं और न सिर्फ फसलों को चट कर जाते हैं, बल्कि किसी भी तरह की पत्तियां चाहे वे पेड़ों पर हों चाहे पौधों पर हों, उन सबको खाकर खत्म कर देते हैं। इन तमाम देशों में टिड्डी दलों को फसल और इंसानों पर एक बहुत बड़ा खतरा माना गया है. ऐसे में जब यूरोप ने कानूनी मंजूरी देकर टिड्डों को खाना या उनको जमाकर, या उन्हें सुखाकर और पीसकर, तरह-तरह के खानपान बनाने को मंजूरी दी है तो इससे एक बिल्कुल नई संभावना आ खड़ी हुई है। ऐसा भी नहीं कि कीड़े-मकोड़े कभी खानपान में शामिल ही नहीं थे। चीन सहित बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर तरह-तरह के कीड़ों को हमेशा से खाया जाता रहा है और उन्हें गरीबी की वजह से नहीं, पेट भरने के लिए नहीं, स्वाद के लिए और न्यूट्रीशन के लिए भी खाया जाता रहा है। इसलिए अब जब यूरोप में खाई जाने लायक चीजों की फेहरिस्त में टिड्डों को जोड़ दिया गया है तो ऐसा लगता है कि खानपान में एक नई चीज जुड़ी है जिससे कि धरती के मौजूदा खानपान पर बोझ घटेगा।
यूरोप में कुछ एक कंपनियां पहले से टिड्डों से उनके भारी प्रोटीन की वजह से उन्हें सुखाकर, या सुरक्षित करके तरह-तरह के खानपान बनाते आई थीं। अभी उनका जानवरों के खानपान में अधिक इस्तेमाल हो रहा था, लेकिन अब इंसानों के खानपान में इसके शामिल होने से बहुत से मांसाहारी लोगों की प्रोटीन की जरूरत पूरी हो सकेगी और जहां कहीं टिड्डों का हमला होता है वहां भी उनसे खान-पान तैयार हो सकेगा। जिस तरह आज पोल्ट्री फॉर्म में मुर्गी या अंडा तैयार किए जाते हैं, डेयरी में दूध तैयार किया जाता है या दुनिया में कई जगह मांस के लिए भी जानवरों को पाला जाता है, उसी तरह टिड्डों को पैदा करने के ऐसे केंद्र तैयार हो सकते हैं जहां उनकी आबादी बढ़ाई जाए और वही हाथ के हाथ लगी हुई फैक्ट्री में उनसे डिब्बाबंद या पैकेटबंद सामान बनाए जाएं। दुनिया की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो शौक से भी अलग अलग किस्म के सामान खाती है और बहुत सी आबादी ऐसी है जो मजबूरी में कई किस्म की चीजें खा लेती है। इन सबके बीच टिड्डों दूसरे कीड़े-मकोड़ों के साथ एक अलग बाजार भी रहेंगे और खान-पान का सामान भी रहेंगे।
कीट पतंगों से खानपान बनाने वाली यूरोप की एक बहुत बड़ी कंपनी का कहना है कि टिड्डे प्रोटीन और फाइबर से समृद्ध होते हैं, उनमें खूब विटामिन और मिनरल होता है और वे मैग्नीशियम, कैल्शियम, और जिंक से भरपूर रहते हैं. टिड्डों का प्रोटीन बहुत आसानी से पचने वाला रहता है और इन चीजों से बनाए गए सामान नाश्ता बनाने से लेकर बर्गर बनाने तक, भोजन में, और यहां तक कि मिठाइयों में भी इस्तेमाल हो सकते हैं। इस कंपनी का कहना है कि आज वैसे भी खिलाडिय़ों के बीच में अधिक प्रोटीन की बड़ी जरूरत रहती है, इसके अलावा कुछ बुजुर्ग या दूसरे लोगों को भी अधिक प्रोटीन लगता है, ऐसे तमाम लोगों के बीच टिड्डों से मिला हुआ यह प्रोटीन बहुत काम का हो सकता है। इसी कंपनी की अर्जी पर यूरोपीयन फूड सेफ्टी अथॉरिटी ने तमाम जांच करके अभी यह मंजूरी दी है। लेकिन यह मंजूरी महज इस कंपनी तक सीमित नहीं है और इस मंजूरी के बाद दुनिया भर में कीट-पतंगों के खानपान में इस्तेमाल के रिसर्च में लगी हुई कंपनियां तेजी से आगे बढ़ेंगी, और यह मार्केट आज के मौजूदा मांसाहार और प्रोटीन के बाजार में एक नई संभावना लेकर आएगा।
भारत में भी राजस्थान सहित कुछ दूसरे राज्यों ने पिछले वर्षों में लगातार टिड्डी दल का हमला देखा हुआ है। ऐसे में तमाम मांसाहारी लोगों के बीच एक संभावना यह पैदा होती है कि ऐसे हमले में आने वाले टिड्डी दल को किस तरह पकड़ा जाए और किस तरह खाया जाए। इससे फसल भी बच सकेगी और एक नया खान-पान मिल सकेगा। क्योंकि सैकड़ों और हजारों बरस से चीन जैसे कई देशों में कई तरह के कीट-पतंग खाने का रिवाज लगातार चला आ रहा है, इसलिए उससे बड़ी कोई रिसर्च न तो हो सकती है न उसकी जरूरत है। अब देखना यही है कि अलग-अलग इलाकों में खानपान का स्वाद किस तरह टिड्डों को अपने भीतर जगह दे पाता है। लेकिन इससे एक ऐसी संभावना तो खड़ी होती है कि धरती पर खानपान, और न्यूट्रिशन की कमी को दूर करने के लिए एक छोटा या बड़ा रास्ता निकल रहा है।
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छत्तीसगढ़ के भीतर रहने वाले लोगों को अपने शहरों में साफ-सफाई में चाहे थोड़ी कमी दिखती हो, लेकिन जब भारत सरकार ने देश के तमाम राज्यों की तुलना की, तो छत्तीसगढ़ को लगातार तीसरे साल देश के सबसे साफ-सुथरे राज्य का पुरस्कार मिला है। यह छोटी बात इसलिए नहीं है कि राज्य का इतिहास कुल 20 बरस पुराना है और अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहते हुए छत्तीसगढ़ हमेशा उपेक्षित रहते आया है। इसलिए जब यह राज्य बना यहां शहरों का बहुत काबिल ढांचा नहीं था। लेकिन ऐसे में इतने वर्षों में इसने जो तरक्की की है, वह देखने लायक है, और दक्षिण भारत के अपेक्षाकृत अधिक अनुशासन में रहने वाले राज्यों से भी मुकाबले में जब छत्तीसगढ़ को अधिक साफ-सुथरा पाया गया है, तो यह सचमुच तारीफ का हकदार है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अगुवाई में नगरी प्रशासन मंत्री शिव डहेरिया और अफसरों ने राष्ट्रपति से आज सुबह यह पुरस्कार पाया है। छत्तीसगढ़ के लिए यह एक खुशी का मौका भी है, साथ में एक बड़ी चुनौती भी है। अगले बरस हो सकता है कि कोई और राज्य मेहनत करके छत्तीसगढ़ से आगे निकल जाए, और लगातार चौथे बरस यह पुरस्कार नहीं मिल पाए, इसलिए इस राज्य को न सिर्फ अपनी जगह पर काबिज रहने के लिए और अधिक मेहनत करने की जरूरत है, बल्कि एक दूसरी जरूरत भी है अपने आपको अपने से बेहतर बनाने की।
अब जब पुरस्कार और सम्मान की खुशियां पूरी हो जाएं, तो उसके बाद छत्तीसगढ़ को गंभीरता से यह भी सोचना चाहिए कि यह साफ-सफाई वह किस कीमत पर कर रहा है और क्या इस साफ-सफाई को कम खर्च पर किया जा सकता है? यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या इस साफ-सफाई में सिर्फ सरकारी अमला काम कर रहा है या फिर जनता की भी इसमें कोई भागीदारी है? आज छत्तीसगढ़ में दिक्कत यह लग रही है कि राज्य की संपन्नता की वजह से स्थानीय संस्थाएं साफ-सफाई पर खासा खर्च कर रही हैं और कुछ जगहों पर वार्ड के पार्षद भी निजी दिलचस्पी लेकर अपने साधन जुटाकर वार्ड को साफ रख रहे हैं, लेकिन प्रदेश में शायद ही कहीं जनता की भागीदारी अपने इलाके को, अपने शहर को साफ रखने में दिखाई पड़ती है। कुछ बरस पहले सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के एक सेमिनार में दक्षिण भारत की एक म्युनिसिपल ने एक प्रस्तुतीकरण किया था जिसमें उन्होंने बताया था कि वहां एक पैसा भी सफाई पर खर्च नहीं किया जाता, और यह जनता की जिम्मेदारी मानी जाती है कि वह निर्धारित जगह पर कचरा डाले, और कचरा इस तरह से अलग-अलग करके डाले कि उससे कमाई की जा सके। कचरे को उस म्युनिसिपल ने कमाई का जरिया बना लिया है। हिंदुस्तान का ही एक दूसरा शहर अगर ऐसा कर रहा है, तो कोई वजह नहीं है कि बाकी शहर उससे कोई सबक न ले सकें। वैसे भी सफाई की लागत को अगर छोड़ भी दें, तो भी पर्यावरण के हिसाब से जिस जगह कचरा पैदा होता है, उसी जगह पर उसकी छंटाई धरती को बचाने में मददगार रहती है। इसलिए छत्तीसगढ़ की स्थानीय संस्थाओं को अपने लोगों को जिम्मेदार बनाने का बीड़ा उठाना चाहिए और लोगों को उनके पैदा किए हुए कचरे की छंटाई और उसके निपटारे में जिम्मेदार भी बनाना चाहिए।
आज केंद्र सरकार और प्रदेशों का बहुत सा पैसा शहरों की सफाई पर लगता है। जैसे इंदौर शहर को देश का सबसे साफ सुथरा शहर होने का पुरस्कार लगातार पांच बरस से मिल रहा है, इस बरस भी मिला है। उस शहर में सफाई की लागत सैकड़ों करोड़ रुपए साल की है। अब यह लागत जनता को जिम्मेदार बनाने से बहुत हद तक घट सकती है। दूसरी बात यह कि जब जनता अपने घर और दुकान से ही कचरे को अलग-अलग करके भेजेगी, तो न सिर्फ म्युनिसिपल की सफाई लागत घटेगी बल्कि उस अलग-अलग कचरे के निपटारे से म्युनिसिपल की कमाई भी हो सकेगी। आज छत्तीसगढ़ में कचरे के निपटारे में जनता की भागीदारी शून्य है और स्थानीय संस्थाएं और कुछ चुनिंदा निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपने दम पर अपने इलाकों को साफ रखते हैं। सफाई के काम में लोगों को, गाडिय़ों को, और मशीनों को लगाकर इलाके को साफ कर देना खर्चीला होने के बावजूद आसानी से मुमकिन काम है। दूसरी तरफ जनता से इस काम को करवाना एक अलोकप्रिय काम भी हो सकता है, और उसके लिए अफसरों और पार्षदों को मेहनत भी अधिक करनी पड़ सकती है।
लेकिन पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार या स्थानीय सरकार को नहीं उठानी चाहिए, उसमें लोगों को भी शामिल करना चाहिए। इसके लिए किसी उच्च तकनीक की जरूरत नहीं पड़ती है, बल्कि घरों में अलग-अलग रंग की बाल्टियां रखकर उसमें अलग-अलग किस्म का कचरा जमा करके इस काम को आसानी से शुरू किया जा सकता है। एक बार जब यह कचरा एक साथ मिल जाता है तो फिर उसे अलग-अलग करना किसी भी कीमत पर मुमकिन नहीं होता। उसमें सडऩे लायक बायोडिग्रेडेबल सामान भी ठोस स्थाई कचरे के साथ मिल जाते हैं, और इन दोनों का कोई अलग-अलग इस्तेमाल नहीं हो पाता। शहरों में जहां पर कि कंक्रीट का कचरा लगातार निकलता ही है, वहां पर शहरों को यह कोशिश भी करनी चाहिए कि उसका चूरा बनाकर उसे भवन निर्माण या सडक़ निर्माण में दोबारा इस्तेमाल किया जाए ताकि रेत-मुरम-गिट्टी की जरूरत घटे। लेकिन यह काम बड़े-बड़े शहरों में भी शुरू नहीं हो पा रहा है, जबकि इसकी लागत इमारत मलबे से बने चूरे को बेचकर निकाली जा सकती है।
छत्तीसगढ़ दिल्ली से अभी इतने सारे पुरस्कार लेकर लौट रहा है। खुशी मनाने के बाद इस विभाग को बैठकर अपने म्युनिसिपलों के साथ ऐसे तमाम सुधार के लिए देश के कामयाब शहरों के जानकार और तजुर्बेकार लोगों को आमंत्रित करके उनसे सीखना चाहिए, और प्रदेश के शहरों को अगले वर्षों के लिए और अच्छा बनाकर मुकाबले में खड़ा रखना चाहिए। लोकतंत्र में वही व्यवस्था बेहतर रहती है जो कि जनभागीदारी से पूरी होती है।
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आज सुबह जब यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नौ बजे राष्ट्र को संबोधित करेंगे, तो बहुत से लोगों के मन में यह आशंका हुई कि यह जनता की सहूलियत बढ़ाने वाला कोई फैसला होगा, या कि जनता के लिए नोटबंदी, लॉकडाउन, या जीएसटी की तरह का परेशानी लाने वाला कोई फैसला होगा। लेकिन जिस बात की किसी को उम्मीद नहीं थी, वह घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने एक बार फिर लोगों को चौंकाने का काम किया और कहा कि जिन तीन किसान कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन चल रहा था, उन्हें सरकार वापिस ले रही है। उन्होंने कहा कि सरकार किसानों के एक तबके को इन कानूनों का फायदा समझाने में नाकामयाब रही, और वह इसके लिए लोगों से माफी चाहते हैं। उन्होंने साफ किया कि संसद के शुरू होने वाले सत्र में ही इन कानूनों को वापस लेने की संवैधानिक औपचारिकता पूरी कर ली जाएगी। साथ ही उन्होंने यह घोषणा भी की कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों, किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, और कृषि अर्थशास्त्रियों के प्रतिनिधियों की एक समिति बना रही है, जो इस बात पर चर्चा करेगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कैसे अधिक असरदार बनाया जा सकता है, और कैसे फसल के पैटर्न को वैज्ञानिक तरीके से बदला जा सकता है।
उन्होंने आज की यह घोषणा सिखों के एक सबसे बड़े धार्मिक त्यौहार प्रकाश पर्व के मौके पर की, और पिछले एक बरस से अधिक समय से चले आ रहे किसान आंदोलन में शामिल लोगों से घर लौटने की अपील की। इस आंदोलन में पंजाब, हरियाणा, और उत्तर प्रदेश के किसान शामिल हैं, और इन तीन में से दो राज्य, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अभी 3 महीने बाद चुनाव होने जा रहे हैं। तमाम विपक्षी पार्टियों का यह मानना है कि पंजाब और यूपी के चुनावों को देखते हुए किसानों की नाराजगी को कम करने के लिए प्रधानमंत्री ने यह घोषणा की है। लेकिन इस पर किसानों की पहली प्रतिक्रिया यह आई है कि वे आंदोलन खत्म करने नहीं जा रहे। पहले तो वे इस बात का इंतजार करेंगे कि संसद से यह कानून खत्म हो जाए, और उसके बाद वे इस बात के लिए लड़ाई जारी रखेंगे कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को कानून की शक्ल मिले। किसानों के नेता राकेश टिकैत ने यह भी कहा कि हजारों किसानों पर तरह-तरह के मुकदमे दर्ज किए गए हैं, तो जब कभी भी सरकार की बनाई कमेटी से बात होगी, उसमें यह मुद्दा भी उठेगा कि आंदोलन खत्म करने के पहले ये सारे मुकदमे खत्म किए जाएं। उन्होंने कहा कि यह सोचना गलत होगा कि अपने सिर पर ऐसे मुकदमों का कानूनी बोझ लेकर किसान घर लौटेंगे।
विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी लगातार किसानों के पक्ष में बयान देते आ रहे थे, और आज सुबह से उनका एक वीडियो भी तैर रहा है जिसमें वे दमखम के साथ यह कह रहे थे कि लोग लिखकर रख लें कि एक दिन मोदी सरकार को इन काले किसान कानूनों को वापस लेना पड़ेगा। साल भर से अधिक से चले आ रहे इस किसान आंदोलन के दौरान कांग्रेस के अलावा बहुत सी विपक्षी पार्टियों के लोग खुलकर आंदोलन के साथ में थे, फिर भी इस आंदोलन की कामयाबी यह रही कि वह अहिंसक भी बने रहा और गैर राजनीतिक भी। आज राहुल गांधी ने मोदी की घोषणा के बाद कहा कि अन्याय के खिलाफ जीत की बधाई, देश के किसानों ने अहंकारी सरकार को सत्याग्रह के माध्यम से झुकने के लिए मजबूर किया है। यह लोगों का देखा हुआ है कि किस तरह से वामपंथी पार्टियों के नेता, और वामपंथी किसान संगठनों के मुखिया लगातार किसान आंदोलन के साथ बने रहे. आज इस मौके पर सोशल मीडिया पर देश के हजारों लोगों ने यह याद किया कि किस तरह से 700 किसानों की शहादत के बाद केंद्र सरकार ने अपना इरादा बदला है, और कई लोगों ने यह भी कहा कि जिंदगियों का इतना बड़ा नुकसान होने के पहले भी केंद्र सरकार यह फैसला ले सकती थी। लोगों ने इस मौके पर यह भी याद किया कि भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं ने केंद्र और उसकी राज्य सरकारों के मंत्रियों ने किस तरह किसानों को कभी खालिस्तानी कहा, कभी पाकिस्तानियों से मिला हुआ कहा, कभी देशद्रोही कहा, तो कभी कुछ और। इन्हें बड़े किसानों का और आढ़तियों का दलाल कहा गया, और इनके खिलाफ जितने तरह का दुष्प्रचार सत्तामुखी हो चुके टीवी चैनलों पर किया गया, उसे भी आज लोगों ने याद किया है, और यह सवाल खड़ा किया है कि इन टीवी चैनलों के लोग साल भर तक किसान आंदोलन को बदनाम करने के बाद आज किस तरह इस कानून की वापसी की तारीफ करेंगे, यह देखने लायक होगा।
यह बात बहुत जाहिर तौर पर दिख रही है कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों को लेकर केंद्र सरकार ने यह कड़वा घूंट पिया है, और किसानों के सामने, विपक्ष के समर्थन से चल रहे इस मजबूत आंदोलन के सामने अपनी हार मानी है। लेकिन किसानों का आंदोलन इन तीन कानूनों की वापसी या खात्मे से परे भी जारी रहना सरकार के सामने एक चुनौती रहेगा, लेकिन इसमें एक अच्छी बात यह होने जा रही है कि प्रधानमंत्री की बनाई हुई कमेटी में राज्यों को भी जोड़ा जा रहा है. किसानों के मुद्दों पर बिना राज्य सरकारों को भरोसे में लिए हुए, बिना उनका सहयोग मांगे हुए, और बिना उनकी हिस्सेदारी के राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी फैसला करना गलत और मनमानी होगा। भारत के संघीय ढांचे के मुताबिक भी देशभर के लिए ऐसी कोई भी बड़ी नीति अगर बनती है, तो वह केंद्र सरकार की मनमानी के बजाय राज्य सरकारों की भागीदारी से बननी चाहिए। जिस वक्त संसद में ये तीनों कानून पास किए गए थे उस वक्त की बात भी लोगों को याद है कि किस तरह वहां एक बहुमत के आधार पर, बिना किसी अधिक चर्चा के, सत्तापक्ष ने इन कानूनों को बनवा दिया था। उस वक्त भी अगर एक खुली बहस इन पर हुई रहती, तो भी इन कानूनों की खामियां सामने आ गई रहतीं, लेकिन बहुमत की सरकार ने किसी असहमति की फिक्र नहीं की थी। और यह पहला मौका है जब एक मजबूत आंदोलन के चलते हुए, और विपक्ष के मजबूत समर्थन के जारी रहते हुए, बिना राजनीति, बिना हिंसा चल रहा प्रदर्शन सरकार को झुकने पर मजबूर कर गया।
ये कानून तो खत्म हो गए, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा के लोगों ने किसानों के खिलाफ जितने किस्म की अपमानजनक बातें कही थीं, और जिस तरह लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे ने अपनी गाड़ी से किसान आंदोलन के लोगों को कुचल कर मारा, वह सब कुछ बहुत ही भयानक अध्याय बनकर हमेशा लोगों को याद रहेगा। जब बहुत ही मजबूत केंद्र और राज्य की सत्ता अपनी मनमानी करती है, तो उसके लोग इस हद तक जुबानी और चक्कों की हिंसा पर भी उतर आते हैं। अभी तुरंत तो सामने खड़े हुए विधानसभा चुनाव मोदी सरकार और उनकी पार्टी को डरा रहे होंगे, इसलिए किसान आंदोलन के किसी नए ताजा बड़े दौर के बिना भी केंद्र सरकार ने खुद होकर यह सुधार कुछ उसी तरह किया है, जिस तरह पेट्रोल और डीजल के दाम कम किए हैं। पता नहीं जनता चुनाव तक इन फैसलों के पीछे की चुनावी मजबूरियों को याद रख पाएगी या भूलकर वोट देगी, जो भी हो किसान आंदोलन ने इस देश के किसी भी किस्म के आंदोलन के इतिहास में मील का एक नया पत्थर लगा दिया है जो कि देश के बहुत से लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए हमेशा ही एक मिसाल बना रहेगा। अब आने वाले दिनों में देखना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आज घोषित की गई कमेटी कब तक बनती है और वह किस तरह किसानों के मुद्दों को आगे ले जाती है। इसमें छत्तीसगढ़ जैसे राज्य के मुद्दे भी सामने आएंगे जिसमें केंद्र सरकार ने यह शर्त रख दी थी कि अगर छत्तीसगढ़ धान पर बोनस देगा तो केंद्र सरकार उससे चावल नहीं खरीदेगी। आज दिल्ली में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात को उठाया है, और देशभर के अलग-अलग राज्यों में इस तरह की जो भी और बातें होंगी, वे सब भी किसान-मुद्दों पर बनाई गई ऐसी राष्ट्रीय कमेटी में सामने आएंगी और उन पर राष्ट्रीय स्तर पर ही विचार होना चाहिए, जिनमें केंद्र और तमाम राज्यों की भागीदारी होनी चाहिए। ऐसा लगता है कि किसान कानूनों पर केंद्र सरकार के हाथ जिस तरह जले हैं, उससे उसने यह तय किया है कि आगे बचे हुए मुद्दों पर राज्यों को भी बातचीत में शामिल किया जाए।
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सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला इस साल के शुरू से चले आ रहे एक तनाव को खत्म करने वाला रहा। मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला जज ने जनवरी में फैसला दिया था कि अगर किसी बच्ची के बदन को कोई व्यक्ति कपड़ों के ऊपर से छूता है, और अगर चमड़ी से चमड़ी का संपर्क नहीं होता है, तो उस पर यौन शोषण वाला पॉक्सो कानून लागू नहीं होगा। यह फैसला आते ही विवादों से घिर गया था और इसके ठीक अगले ही दिन इस अखबार ने इसी जगह पर इसके खिलाफ जमकर लिखा था। उस संपादकीय में हमने यह भी लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट को खुद ही इस फैसले के खिलाफ सुनवाई करनी चाहिए और इस फैसले को तुरंत खारिज करके इस महिला जज को आगे इस तरह के किसी मामले की सुनवाई से अलग भी रखना चाहिए। यह मामला एक आदमी द्वारा 12 बरस की एक बच्ची को लालच देकर घर में बुलाने और उसके सीने को छूने, उसके कपड़े उतारने की कोशिश का था, जिस पर जिला अदालत ने उसे पॉक्सो एक्ट के तहत 3 साल की कैद सुनाई थी। नागपुर हाई कोर्ट बेंच की महिला जज ने इस सजा को खारिज कर दिया था और कहा था कि जब तक चमड़ी से चमड़ी न छुई जाए तब तक पॉक्सो एक्ट लागू नहीं होता।
अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाईकोर्ट के फैसले को बेतुका करार दिया और खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत के महान्यायवादी, राष्ट्रीय महिला आयोग, और महाराष्ट्र शासन अपील में गए थे जिस पर यह फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने यह कहा कि पॉक्सो की शर्तों को चमड़ी से चमड़ी छूने तक सीमित करना इस कानून की नीयत को ही खत्म कर देगा जो कि बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि ऐसी परिभाषा निकालना बहुत संकीर्ण होगा और यह इस प्रावधान की बहुत बेतुकी व्याख्या भी होगी। यदि इस तरह की व्याख्या को अपनाया जाता है तो कोई व्यक्ति किसी बच्चे को शारीरिक रूप से टटोलते समय दस्ताने या किसी और कपड़े का उपयोग कर ले, तो उसे अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाएगा, और यह बहुत बेतुकी स्थिति होगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून का मकसद मुजरिम को कानून की पकड़ से बचने की इजाजत देना नहीं हो सकता। अदालत ने फैसले में कहा कि जब कानून बनाने वाली विधायिका ने अपना इरादा स्पष्ट रखा है तो अदालतें उसे अस्पष्ट नहीं कर सकतीं, किसी कानून को अस्पष्ट करने में न्यायालय को अतिउत्साही नहीं होना चाहिए। एक जज ने इस फैसले से सहमतिपूर्ण, लेकिन अलग से फैसला लिखा और कहा कि हाईकोर्ट के विचार ने एक बच्चे के प्रति नामंजूर किए जाने लायक व्यवहार को वैध बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने और भी बहुत सी बातें हाई कोर्ट की इस महिला जज के फैसले के बारे में लिखी हैं, लेकिन उन सबको लिखना यहां प्रासंगिक नहीं है।
जब हाई कोर्ट का यह फैसला आया था उसके अगले ही दिन हमने इसी जगह पर लिखा था- ‘बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने लिखा है- सिर्फ वक्ष स्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन संपर्क होना जरूरी है। हाईकोर्ट का यह फैसला अगर कानून के पॉस्को एक्ट के शब्दों की सीमाओं में कैद है, तो यह शब्दों का गलत मतलब निकालना है। जितने खुलासे से इस मामले के यौन शोषण की जानकारी लिखी गई है, वह मंशा भी दिखाने के लिए काफी है, और बच्ची तो नाबालिग है ही इसलिए पॉस्को एक्ट भी लागू होता है। एक महिला जज का यह फैसला और हैरान करता है कि क्या यह कानून सचमुच ही इतना खराब लिखा गया है? और अगर कानून इतना खराब है तो उसे बदलने और खारिज करने की जरूरत है। फिलहाल तो कानून के जानकार लोग हाईकोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह से गलत मान रहे हैं, और सुझा रहे हैं कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए। कानून के एक जानकार ने कहा है कि पॉस्को एक्ट में कहीं भी कपड़े उतारने पर ही जुर्म मानने जैसी बात नहीं लिखी गई है, यह हाईकोर्ट ने अपनी तरफ से तर्क दिया है।’
हमने लिखा था- ‘अब सवाल यह है कि कई बरस मुकदमेबाजी के बाद तो जिला अदालत से सजा मिलती है, वह अगर कई बरस चलने के बाद हाईकोर्ट से इस तरह खारिज हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट में जाने और कितने बरस लगेंगे। ऐसी ही अदालती बेरूखी, और उसके भी पहले पुलिस की गैरजिम्मेदारी रहती है जिसके चलते शोषण की शिकार लड़कियां और महिलाएं कोई कार्रवाई न होने पर खुदकुशी करती हैं। बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर आज खूब जमकर लिखा जा रहा है, और लिखा भी जाना चाहिए। एक विकसित राज्य के हाईकोर्ट की महिला जज अगर यौन शोषण की शिकार एक लडक़ी के हक के बारे में सोचने के बजाय ऐसे दकियानूसी तरीके से बलात्कारी या यौन शोषण करने वाले के पक्ष में कानूनी प्रावधान की गलत व्याख्या कर रही है, तो निचली अदालत के जजों से क्या उम्मीद की जा सकती है? बाम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला इस मायने में भी बहुत खराब है कि जज उस आदमी का पॉस्को एक्ट के तहत गुनाह नहीं देख रही है जो कि एक नाबालिग बच्ची को बरगला कर घर ले गया, और कपड़ों के ऊपर से उसका सीना थाम रहा है, उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा है। अगर यह सब कुछ यौन उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता, तो फिर यौन उत्पीडऩ और होता क्या है? हाईकोर्ट की महिला जज ने इस एक्ट के तहत शरीर से शरीर के सीधे संपर्क की जो अनिवार्यता बताई है, उसे कानून के जानकारों ने खारिज किया है कि पॉस्को एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं है। हमारा तो यह मानना है कि अगर एक्ट में ऐसी कोई नाजायज शर्त होती भी, तो भी हाईकोर्ट जज को उसकी व्याख्या करके उसके खिलाफ लिखने का हक हासिल है, लेकिन इस जज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।’
हमने फैसले के अगले ही दिन लिखा था-‘हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि लड़कियों और महिलाओं की शिकायत को, बच्चों की शिकायत को भरोसेमंद नहीं माना जाता, और उन्हें आसानी से खारिज कर दिया जाता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के तहत अगर किसी बच्चे का यौन शोषण कपड़ों के ऊपर से हो रहा है, तो उसके खिलाफ कानून लागू ही नहीं होता। यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का हौसला बढ़ाने वाला फैसला है, और देश भर की अदालतों में जहां-जहां पॉस्को एक्ट के तहत ऐसी हालत वाले मामले रहेंगे, वहां-वहां इस फैसले का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे तुरंत सुनवाई के लिए लेना चाहिए इसके पहले कि देश भर के इस किस्म की बलात्कारी अपनी सुनवाई में इसका फायदा उठा सकें। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में फैसला देते हुए ऐसी सोच रखने वाली महिला जज को इस किस्म के अगले मामलों से परे भी रखना चाहिए।’
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हत्या और आत्महत्या की दो अलग-अलग खबरें ऐसी आई हैं जो बताती हैं कि हिंदुस्तानी समाज में लडक़ी की क्या हालत है, पहले कम हिंसक खबर देखें तो छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक युवती की शादी कहीं पर तय हुई, तो उसके प्रेमी या दोस्त ने सडक़ पर उसे पीट डाला। उसने घर जाकर आत्महत्या कर ली। और दूसरी खबर मध्यप्रदेश के भोपाल से है जहां पर एक लडक़ी ने समाज से बाहर शादी कर ली थी, और उसका परिवार उससे नाराज चल रहा था। शादी के बाद उस लडक़ी का एक बच्चा हुआ जो 6 महीने का था और जिसकी मौत हो गई। उस बच्चे को दफनाने के नाम पर इस लडक़ी का पिता और भाई पहुंचे और दफनाने के लिए जंगल ले जाते हुए वह लडक़ी भी साथ चली गई। वहां पर उसके पिता ने पहले अपनी बेटी से बलात्कार किया और फिर उसका गला घोंटकर कत्ल कर दिया फिर बाप-बेटे उस लडक़ी की लाश और उसके बच्चे की लाश को जंगल में फेंककर आ गए। पुलिस ने बाप-बेटे को गिरफ्तार कर लिया है, और 55 बरस के बाप ने अपना कुसूर मान लिया है कि वह बेटी के प्रेम विवाह से नाराज था। यह पूरी जानकारी पुलिस ने एक प्रेस कांफ्रेंस करके दी है।
यह समझ नहीं पड़ता है कि हिंदुस्तानी लडक़ी के हक इंसानों की तरह कुछ हैं भी या कुछ भी नहीं हैं? कहीं उसकी दोस्ती किसी और से है, और मां-बाप किसी और जगह शादी तय कर रहे हैं, तो वह दोस्त या प्रेमी से सडक़ पर पिट रही है और तकलीफ में खुदकुशी कर रही है। दूसरी तरफ परिवार की इज्जत के नाम पर बाप अपनी बेटी से उसके बच्चे की लाश के बगल में बलात्कार कर रहा है, और उसका बेटा बहन से हो रहे इस बलात्कार में बाप का साथ दे रहा है। फिर बाप-बेटे मिलकर उसका कत्ल कर दे रहे हैं, और लाश को फेंककर घर चले आ रहे हैं। जाति के बाहर शादी करने का यह गुनाह कितना बड़ा है जिसके लिए अपनी बेटी के तकलीफ के ऐसे वक्त में जब उसने अपना बच्चा खोया ही है, वह अपना बाप भी खो दे रही है, बाप की शक्ल में एक इंसान को भी खो दे रही है, भाई की इंसानियत भी खो दे रही है, जिस भाई को उसने रक्षा बंधन पर राखी बांधी रही होगी, उसने यह किस किस्म की रक्षा दी उसे! ऐसा कितना बड़ा गुनाह उसने किया था जिसकी ऐसी सजा उसको दी गई ? और परिवार की ऐसी कौन सी इज्जत थी जो लडक़ी की शादी से तबाह हो गई थी, और जिसे वापस लाने के लिए बाप अपनी बेटी से बलात्कार कर रहा है?
हिंदुस्तान में वैसे तो हर महीने कहीं न कहीं ऑनर किलिंग कही जाने वाली ऐसी हत्याएं होती हैं, लेकिन यह हत्या तो सबसे ही भयानक है। ऐसा तो किसी कहानी में भी अभी तक पढऩे में नहीं आया था कि बेटी पहली बार मां बनी, उसने अपने बच्चे को खो दिया, और उसकी लाश के बगल उससे रेप करके बाप-भाई उसे भी मार डालें। जाति और परिवार की इज्जत, धर्म की इज्जत का यह पाखंड इंसानों को इतना घिनौना मुजरिम बना दे रहा है कि इससे लोगों को ऐसी हिंसक जाति और धर्म की व्यवस्था से नफरत होने लगे, या दहशत होने लगे, या दोनों होने लगे। यह भी सोचने की जरूरत है कि जो परिवार या समाज इस तरह की सोच का शिकार है कि परिवार की और जाति की कोई ऐसी इज्जत होती है जो कि बाप-बेटी के रिश्ते से भी ऊपर हो, जो कि एक छोटे बच्चे की मौत की तकलीफ से भी ऊपर हो और जो बेटी पर बलात्कार करने के जुर्म के डर से भी ऊपर हो। इस बारे में क्या कहा जाए, शब्द कम पड़ रहे हैं, और शब्द कमजोर भी पढ़ रहे हैं।
हिंदुस्तान में देवियों की पूजा बहुत प्रचलन में है। नवरात्रि पूरी होती है तो अष्टमी के दिन उत्तर भारत और बाकी कई प्रदेशों में छोटी बच्चियों को खिलाने की कन्या भोज की प्रथा सडक़ों पर दिखती है। लोग तरह-तरह की देवियों की तरह तरह से पूजा करते हैं, हिंदुओं के साल के सबसे बड़े त्यौहार दिवाली पर लक्ष्मी की पूजा होती है, गुजरात में दुर्गा की पूजा होती है, और बंगाल में दुर्गा के एक दूसरे स्वरूप की पूजा होती है। इन सब जगहों पर देवियों की यही पूजा साल की सबसे बड़ी पूजा रहती है। बंगाली जहां-जहां बसते हैं वहां वे एक दूसरी देवी, काली के नाम पर कालीबाड़ी बनाते हैं, उत्तर भारत में तमाम जगहों पर स्कूलों में सरस्वती की पूजा होती है। देवियों की इतनी पूजा करने वाले लोग जिंदा देवियों को पैदा होने के पहले से मारना शुरू करते हैं, घरों में बेटों के मुकाबले उन्हें कम खाना देते हैं, उन्हें कम पढ़ाते हैं, उनका कम इलाज करवाते हैं, और उनकी शादी करके उन्हें यह कहकर विदा करते हैं कि लडक़ी की डोली बाप के घर से उठती है, और अर्थी पति के घर से ही उठती है। इस तरह उसे बाकी पूरी जिंदगी के लिए वनवास पर भेजने की तरह पिता के घर से निकाल दिया जाता है। देश में जगह-जगह, कहीं लडक़ी को मंदिरों में देवदासी बनाया जाता है, और उससे देह का धंधा करवाया जाता है, तो कहीं और उसे पति के गुजरने पर सती बना दिया जाता था, जो कि अब कड़े कानून की वजह से खत्म हुआ है। एक अकेली शाहबानो को सुप्रीम कोर्ट ने उसका हक़ दिलाने की कोशिश की, तो देश की भारी बहुमत वाली सरकार ने संसद में शाहबानो को कुचल डाला था।
अधिक लड़कियां पैदा करने पर बहू को मार देने की एक खबर कल ही आई है कि तीन बेटियां पैदा करने वाली बहू को ससुराल ने मार डाला। हिंदुस्तान ऐसे विरोधाभासों से भरा हुआ ऐसा पाखंडी देश है जो कि पत्थर और मिट्टी की देवियों की, मूर्तियों की तो पूजा करता है, लेकिन जिंदा देवियों को तरह-तरह से मारता है जिसमें आज तक का एक सबसे ऊंचा पैमाना भोपाल में सामने आया है, जिसमें जाति के बाहर शादी करने की सजा देने के लिए बाप ने बेटी से बलात्कार करके उसको कत्ल कर दिया। अब देखना यह है कि परिवार की इज्जत किसने बचाई और किसने बिगाड़ी? क्या बेटी ने इज्जत बिगाड़ दी और बाप ने सुधार दी?
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सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने केंद्र सरकार के वकील तुषार मेहता से कहा कि वे बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं जानते क्योंकि उन्होंने आठवीं के बाद अंग्रेजी पढऩा शुरू किया। यह बात तुषार मेहता और रमन्ना जस्टिस रमन्ना दोनों के बीच एक ही किस्म की थी क्योंकि अप भी पढ़ाई-लिखाई का ऐसा भी इतिहास तुषार मेहता ने भी रखा। यह मुद्दा इसलिए उठा कि केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए तुषार मेहता ने दिल्ली के ताजा प्रदूषण के लिए किसानों को जिम्मेदार ठहराने से अपनी बात शुरू की। इस पर तुरंत ही मुख्य न्यायाधीश ने आपत्ति की। तब सरकारी वकील ने साफ किया कि उनकी बात का यह मतलब बिल्कुल न निकाला जाए कि केंद्र सरकार किसानों को ही जिम्मेदार मान रही है, और वे सिलसिलेवार तरीके से बाकी पहलुओं को भी पेश करने जा रहे हैं। इस मुद्दे पर दोनों ने अपने अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के बारे में बात रखी।
दरअसल हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के अधिकतर देशों में अभावग्रस्त स्कूलों से पढक़र निकले हुए बच्चों को कई तरह की दिक्कत आगे चलकर झेलनी पड़ती है। इन अभावों के अलावा हिंदुस्तान जैसे देश में अंग्रेजी भाषा का अपना एक महत्व है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश तेलुगू स्कूल से पढक़र निकले थे, और उस तेलुगु भाषा का सुप्रीम कोर्ट में कोई काम नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में तो हिंदी भाषा का भी कोई काम नहीं है, वहां पर तो हर कागज अंग्रेजी में दाखिल करना पड़ता है, और सारी बातचीत भी अंग्रेजी में होती है। यह बात समय-समय पर उठी है, और मौजूदा चीफ जस्टिस, जस्टिस रमन्ना ने ही यह बात कही थी कि वकीलों के मुवक्किल अंग्रेजी भाषा न जानने की वजह से यह भी नहीं समझ पाते कि उनके वकील उनकी बात को दमखम से रख रहे हैं या नहीं। भाषा की एक बहुत बड़ी ताकत होती है, और हिंदुस्तान में अंग्रेजी ही ताकतवर जुबान है। सत्ता और सरकार से लेकर कारोबार तक हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला रहता है, और बड़ी अदालतों में तो अंग्रेजी के अलावा किसी और जुबान में काम होता नहीं है। इसलिए यह जुबान ही हिंदुस्तान की कई चीजों को महंगा बना देती है।
फिर भाषा के अलावा कुछ और चीजें भी हैं जो कि लोगों के बीच भेदभाव खड़ा करती हैं। भाषा जानने के बाद भी अगर उस भाषा की बारीकियां न जाने, उसके व्याकरण को न जाने, उसके हिज्जे और उच्चारण को सही-सही ना समझें तो भी जानकार लोग कमजोर लोगों की खिल्ली उड़ाने में पीछे नहीं रहते। जबकि हकीकत यह है कि किसी भी जुबान में हिज्जों और उच्चारण का इस्तेमाल उस भाषा को सिखाने के लिए तो जरूरी है, लेकिन उस भाषा में कामकाज के लिए उसका एक सीमित उपयोग रहता है। अधिकतर काम मामूली गलतियों वाली भाषा के साथ चल सकता है, और चलता है। आज हिंदुस्तान के सोशल मीडिया में हिंदी में लिखने वाले बहुत ही शानदार और दमदार लेखक ऐसे हैं जो कि बड़े वजनदार सोच लिखते हैं, लेकिन उनकी टाइपिंग में कई किस्म की गलतियां रह जाती हैं। अब या तो उन गलतियों पर ही ध्यान दिया जाए, या फिर जिन मुद्दों को वे उठा रहे हैं और जिन सामाजिक सरोकारों पर लिख रहे हैं, उन पर ध्यान देते हुए उनकी भाषा की गलतियों को, या टाइपिंग की गलतियों को भूल जाया जाए।
हमारा तो हमेशा से यही मानना रहता है कि भाषा की शुद्धता को एक शास्त्रीय स्तर तक ले जाना उसे लोगों से काट देने जैसा है ,क्योंकि आम लोग व्याकरण की बारीकियों को समझकर, अगर उसका ख्याल रखकर लिखेंगे और बोलेंगे, तो शायद वे कभी बोल नहीं पाएंगे। और यह बात यहीं नहीं, यह बात अंग्रेजी जुबान के साथ भी है, और हो सकता है कि दूसरी भाषाओं के साथ भी हो। अंग्रेजी में देखें तो एक जैसे हिज्जे वाले शब्दों के बिल्कुल ही अलग-अलग किस्म के उच्चारण किसी भी नए व्यक्ति को वह भाषा सीखते समय मुश्किल खड़ी कर देते हैं। इसके बाद अंग्रेजी के कई अक्षर मौन रहते हैं, और वह मौन क्यों रहते हैं इसे खासे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पाते। ऐसे में अंग्रेजी को पूरी तरह से सही समझ पाना और लिख-बोल पाना मुश्किल हो जाता है। अब अगर कोई यह सोचे कि जिसे पूरी तरह से सही अंग्रेजी ना आए, वे अंग्रेजी में काम ही न करें, तो यह उस भाषा से लोगों को तोडऩा हो जाएगा। ऐसा ही हिंदुस्तान में सही हिंदी को लेकर है, और अब तो एक दिक्कत और होती है कि कंप्यूटरों पर हिंदी टाइप करने के लिए लोग बोलकर भी टाइप कर लेते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए हिज्जों की कई तरह की गलतियां रह जाती हैं। अब लोग अगर यह चाहेंगे कि उनके लिखे हुए में जब कोई भी गलती न बचे तभी वे उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करें, तो ऐसे में उनका लिखना ही बहुत कम हो पाएगा। आज अधिक जरूरत जनचेतना, जागरूकता, और सरोकार की है। आज अधिक जरूरत इंसाफ और अमन की बात करने वालों की है। ऐसे में अगर भाषा की मामूली कमजोरी रह भी जाती है तो भी उसकी अधिक परवाह नहीं करना चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश किसी बड़ी अंग्रेजी स्कूल में नहीं पढ़े हैं, लेकिन उनके फैसले बहुत लोकतान्त्रिक, और जनता के हिमायती हैं। भाषा की लफ्फाजी बहुत ऊँचे दर्जे की होती, और इंसाफ कमजोर होता, तो वैसी अंग्रेजी किस काम की होती?
भाषा हो या संगीत, या कोई और कला, उसमें जब किसी शास्त्रीयता के नियम कड़ाई से लाद दिए जाते हैं, तो फिर उस भाषा को बोलने वाले कमजोर तबकों के लोगों को काट दिया जाता है, यह सिलसिला खराब है। सही भाषा बहुत अच्छी बात है लेकिन भाषा की मामूली कमजोरी को किसी इंसान की ही पूरी कमजोरी मान लेना बेइंसाफी की बात है। दुनिया के बहुत से सैलानी तो सौ दो सौ शब्दों की जानकारी रखकर किसी दूसरी भाषा वाले देश भी घूम आते हैं। वह तो वहां पूरा वाक्य भी नहीं बना पाते, लेकिन अपना काम पूरा चला लेते हैं।
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दिल्ली का प्रदूषण न सिर्फ देश में सबसे अधिक बुरा प्रदूषण बन चुका है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के फेफड़ों को क्योंकि वह सीधे प्रभावित करता है, इसलिए उस पर सुनवाई लगातार होती है। कई बरस हो गए, दिल्ली के प्रदूषण पर अदालत तरह-तरह से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार को कटघरे में लाती है, और फसलों के ठूंठ (पराली) जलाने के मामले में दिल्ली से लगे हुए दूसरे कुछ राज्यों के किसानों पर भी तरह-तरह की तोहमत ये दोनों सरकारें लगाती हैं। आज दिलचस्प बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट में जब केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के वकीलों ने उनके तर्क रखे, तो जजों ने कम से कम दिल्ली सरकार को बहुत बुरी तरह खारिज कर दिया, और मामले से जुड़े हुए मुद्दों से आगे बढ़ते हुए जजों ने कहा कि बेकार के बहाने बनाना ठीक नहीं है, ऐसे में लोकप्रियता के नारों पर दिल्ली सरकार जो खर्च करती है, उसका ऑडिट करवाने के लिए अदालत मजबूर होगी।
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की आपसी राजनीति भी है जिसके चलते हुए दोनों एक-दूसरे को कभी-कभी घेरने का काम भी करती हैं। अदालत में केंद्र सरकार के वकील ने बतलाया कि प्रदूषण में किसानों के खेत में ठूंठ जलाने से 10 फ़ीसदी हिस्सा ही जुड़ा है, और बाकी प्रदूषण दूसरी वजहों से हो रहा है। यह तमाम दूसरी वजहें दिल्ली सरकार के दायरे की हैं, और इसीलिए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि फसल के ठूंठ जलाने के अलावा कंस्ट्रक्शन, बिजली, ट्रांसपोर्ट, और धूल जैसे मुद्दे भी हैं। अदालत ने इस पर तुरंत ही बैठक करके यह योजना लाने के लिए कहा है कि कल शाम तक इस पर कैसे अमल किया जा सकता है. उसने इतना भी सवाल किया है और क्या दिल्ली आने वाली तमाम गाडिय़ों को रोक दिया जाए?
दिल्ली का प्रदूषण बहुत खतरनाक है और वहां रहने वाले लोगों की सेहत के लिए यह हर बरस कई महीनों तक खतरा बने रहता है, अभी भी है। दिल्ली में सरकारी और निजी बड़े-बड़े अस्पतालों में रोजाना लाख-पचास हजार मरीज पहुंचते हैं, और उनमें से दसियों हजार इलाज के लिए भर्ती भी रहते हैं। इसलिए इनकी तकलीफ और दिक्कतों में प्रदूषण से और इजाफा ही होता होगा। पिछले दिनों हमने इसी जगह देश के प्रदूषण, और खासकर दिल्ली के प्रदूषण को लेकर बार-बार लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट पटाखों पर लगाए गए प्रतिबंधों को किसी अमल के लायक नहीं लिख पाया, और उसके आदेश से न तो पटाखे रुकने थे, और न रुके। हमने यह बात भी लिखी थी कि पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट ने जब अलग-अलग धर्मों के कई त्योहारों पर पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगा दी थी, तो सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को पलट दिया। सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही एक अजीब सी नामुमकिन नौबत सरकार और पुलिस के सामने खड़ी कर दी कि मानोकुछ हजार पुलिस वाले दिवाली की रात पटाखे फोडऩे वाले लोगों को लाखों की संख्या में गिरफ्तार कर सकते हैं, या लाखों मामले दर्ज कर सकते हैं। अदालत को कोई आदेश देने के पहले यह भी तो सोच लेना चाहिए कि उस पर अमल करना मुमकिन होगा या नहीं।
अभी भी वक्त है सुप्रीम कोर्ट हर दिवाली के आसपास कुछ हफ्ते तक दिवाली, फसल, मौसम, और बाकी के समय के प्रदूषण को मिलाकर सुनवाई करना बंद करे, और अभी से अगले दिवाली के लिए यह तय करे कि देश में किसी भी तरह के पटाखे न बनाए जाएं और न फोड़े जाएं। पटाखे न तो किसी धर्म का हिस्सा हैं, और न ही लोकतंत्र में पटाखे फोडऩे का हक जरूरी है। आज के वक्त में जब प्रदूषण इतनी बड़ी दिक्कत बन चुका है कि सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी बेंच बैठकर केवल इसी मामले की सुनवाई कर रही है तो अदालत को देश में हवा जहरीली करने वाले पटाखों पर पूरी की पूरी रोक लगानी चाहिए। यह सिलसिला हर बरस दिवाली मनाने की तरह, हर बरस अदालती सुनवाई करने जैसा नहीं हो जाना चाहिए। लोकतंत्र में पुलिस की काम करने की एक सीमा है और वह सारी की सारी जनता को त्यौहार के बीच में पटाखे जलाने से रोककर एक नए किस्म का दंगा खड़ा नहीं कर सकती। इसलिए अदालत को जमीनी हकीकत को थोड़ा सा समझना चाहिए, वरना लोग यह मानकर चलेंगे कि जज बड़ी ऊंची-ऊंची मीनारों में बैठे रहते हैं, जिन्हें यह भी पता नहीं रहता कि पुलिस क्या कर सकती है और क्या नहीं कर सकती।
पटाखों से परे कुछ और चीजों के बारे में सोचने की जरूरत है जिसमें दिल्ली पर तो फोकस रहेगा ही, लेकिन बाकी देश में भी उस पर अमल करना चाहिए। दिल्ली में चूंकि पैसा बहुत है, सरकारी फिजूलखर्ची बहुत है, देश भर की राज्य सरकारों के दफ्तर और अफसर भी दिल्ली में बसे हुए हैं, और दिल्ली में दुनिया भर के विदेशी दूतावास और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के दफ्तर भी हैं, इसलिए वहां पर गाडिय़ों में कोई कमी नहीं होती है। इतने बड़े-बड़े कारोबारी हैं कि वे परिवार के लिए कई-कई गाडिय़ां रख सकते हैं, ड्राइवर रख सकते हैं, और पूरे वक्त सडक़ पर डीजल-पेट्रोल जला सकते हैं। ऐसे शहर में जब तक सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा नहीं मिलेगा, जब तक हर आय वर्ग के लोगों के लिए तरह तरह की बसों का पूरा इंतजाम नहीं होगा, तब तक निजी गाडिय़ों का इस्तेमाल नहीं घट सकता। लेकिन यह बात पूरे देश पर लागू होती है, और देश के अधिकतर शहरों में सार्वजनिक परिवहन को बढ़ाने की जरूरत है। निजी गाडिय़ां लगातार बढ़ रही हैं, और उससे सरकार को एक टैक्स तो मिलता है लेकिन उससे सडक़ों को एक अंधाधुंध दबाव भी मिलता है, बढ़ा हुआ ट्रैफिक जाम भी मिलता है। इसलिए गाडिय़ों की बिक्री को बहुत अच्छी बात मानना ठीक नहीं होगा, और मेट्रो, बस, लोकल ट्रेन, इनका जो भी इंतजाम जहां हो सकता है, वह किया जाना चाहिए ताकि निजी गाडिय़ों का इस्तेमाल कम से कम हो सके। वैसे भी इस बात को समझने की जरूरत है कि जिस रफ्तार से गाडिय़ां बढ़ती जा रही हैं शहरों में सडक़ें वैसे भी इतनी गाडिय़ों को झेल नहीं पाएंगी और थमा हुआ ट्रैफिक सबसे बुरा प्रदूषण पैदा करते रहेगा। इस काम को केंद्र सरकार को बड़े पैमाने पर देश के तमाम शहरों के लिए बढ़ावा देना चाहिए ताकि डीजल का धुआँ कम हो सके। लोगों को उनकी खर्च करने की ताकत के मुताबिक सहूलियत, और शान-शौकत वाले सार्वजनिक परिवहन जब तक मुहैया नहीं कराए जाएंगे, तब तक यह प्रदूषण बढ़ते ही चले जाएगा।
सरकार को आज पूरी दुनिया में चल रही एक दूसरी चर्चा पर भी गौर करना चाहिए कि हिंदुस्तान में कौन-कौन से ऐसे काम है जिन्हें घर पर रहकर किया जा सकता है, जिसके लिए लोगों को काम की जगह पर आना-जाना कम पड़े। यह भी सोचना चाहिए कि क्या अलग-अलग किस्म के दफ्तरों को अलग-अलग दिनों पर, या अलग-अलग वक़्त पर खोलने और बंद करने का कोई ऐसा तरीका निकाला जा सकता है जिससे सडक़ों पर हर दिन कुछ लोगों की भीड़ कम रहे। केंद्र सरकार को दिल्ली से बहुत से सरकारी दफ्तर दूसरे शहर भेजने के बारे में भी सोचना चाहिए। यह तमाम नए तौर-तरीके रहेंगे और केंद्र और राज्य सरकारों को अपने-अपने स्तर पर इनके बारे में फिक्र करनी चाहिए। आज दुनिया के बहुत से देशों में महामारी के चलते घर से काम को बढ़ावा मिला है, और भारत में भी कम से कम बड़े शहरों में इसके कुछ हिस्सों पर तो अमल किया ही जा सकता है। अब देखना यही है कि कल शाम तक केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार कौन सी बंदिशें लागू करने की बात सुप्रीम कोर्ट को बताती हैं, और क्या सुप्रीम कोर्ट महीने-दो महीने की सुनवाई के बाद इस मामले को अगले साल तक फिर छोड़ देगा, या अगली दिवाली और अगले ठंड के मौसम का भी कोई इलाज अभी से करेगा।
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उत्तर प्रदेश के बरेली से एक दिल दहलाने वाली खबर सामने आई है जिसमें एक महिला ने अपने दो बच्चों का गला घोंटकर उन्हें मार डाला और सुबह घरवालों को कहा कि रात सपने में देवी दुर्गा आई थीं, और उन्होंने बच्चों को मार देने के लिए कहा था, इसलिए उसने उनका गला घोंट दिया। सात बरस पहले उसकी शादी हुई थी, और दो बरस का बेटा, छह महीने की बेटी, दोनों को उसने खत्म कर दिया, और खुद जेल चली गई। यह बात पूरी तरह से अभूतपूर्व तो नहीं है क्योंकि कभी-कभी, किसी न किसी प्रदेश से ऐसी खबर आती है कि किसी देवी या देवता का हुक्म मानकर लोग अपने ही घर के लोगों को मार डालते हैं। दरअसल लोगों के मन में अंधविश्वास इतना गहरा बैठा हुआ है कि वह बैठे-बैठे ऐसे सपने देखने लगते हैं, उन्हें ऐसा एहसास होने लगता है कि उन्हें देवी-देवता कोई हुक्म दे रहे हैं, और कोई अपनी जीभ काटकर मंदिर में प्रतिमा पर चढ़ा देते हैं, तो कोई घर के लोगों को मार डालते हैं।
ऐसा सिर्फ देवी-देवताओं के लिए होता है यह भी नहीं है, बहुत से लोग अपने आध्यात्मिक गुरुओं को लेकर इसी तरह का अंधविश्वास दिखाते हैं, और परिवार के लोगों को भी ले जाकर बलात्कारी बाबाओं को समर्पित कर देते हैं। जिस मामले में आसाराम नाम का तथाकथित बापू कैद काट रहा है, उसमें जिस नाबालिग बच्ची से उसने बलात्कार किया था वह उसके भक्तों की बेटी ही थी। ऐसा भी नहीं कि जो लोग बेटी पैदा कर चुके हैं, और बेटी स्कूल तक पहुंच चुकी है, उन मां-बाप को बाबाओं से बेटी को किसी तरह के खतरे का अहसास न रहा हो। लेकिन अंधविश्वास ऐसा रहता है कि लोग अपने पर, अपने परिवार पर होने वाले बलात्कार को भी खुशी-खुशी मंजूर करते हैं। ऐसा ही हाल इस महिला का था जिसने देवी के उस तथाकथित आदेश को पूरा करने के लिए अपने ही बच्चों को मार डाला। बहुत सारी महिलाएं ऐसी रहती हैं जो एक बच्चे की हसरत लिए हुए कई किस्मों के बाबाओं से बलात्कार करवाने की हद तक चली जाती हैं। और इस महिला ने अंधविश्वास में अपने बच्चों को इस तरह खत्म कर दिया, और खुद की भी लंबी जिंदगी जेल में कटने का इंतजाम कर लिया है।
इस बात को बार-बार जोर देकर लिखने की जरूरत रहती है कि किसी देश या समाज में अंधविश्वास से आजादी पाना बहुत मायने रखता है। यह बात न सिर्फ हत्या और आत्महत्या जैसी बड़ी खबरों में उभरकर दिखती है, बल्कि जिंदगी की छोटी-छोटी बातों में भी यह अंधविश्वास लोगों के लिए अड़ंगा बनकर खड़ा हो जाता है। अंधविश्वास के चलते लोग यह समझ नहीं पाते कि तरह-तरह के जादू-टोने और तंत्र मंत्र का पाखंड उनका नुकसान कर रहा है। लोग तरह-तरह के मुहूर्त देखते हैं, ताबीज बंधवाते हैं, और पाखंडी लोगों से कई किस्म की सलाह लेते हैं। नतीजा यह निकलता है कि एक खुले दिमाग से, तर्कशक्ति के साथ निष्कर्ष निकालकर आगे बढऩे का जो रास्ता सूझना चाहिए वह पाखंडियों के सुझाए हुए ऊटपटांग तरीकों से भटक जाता है। बहुत से लोगों ने देखा होगा कि लोगों के घरों में वास्तु शास्त्र के मुताबिक फेरबदल करने के लिए कई लोग चले आते हैं, और सोने के कमरे को रसोई बना देते हैं, रसोई को पाखाना और पखाने की जगह पर पूजा बना देते हैं। इसके बाद लोगों को लगता है कि उनकी जिंदगी बेहतर हो जाएगी। इस सिलसिले में केरल के एक सामाजिक कार्यकर्ता की याद पड़ती है जो कि अंधविश्वास के खिलाफ लगातार काम करता था और उसने वहां बहुत प्रचलित वास्तु शास्त्र के जानकारों को सार्वजनिक चुनौती दी कि वे एक मकान की ऐसी डिजाइन बना कर दें जो वास्तु शास्त्र के हिसाब से सबसे अधिक अशुभ हो, और फिर उसने उसे दी गई ऐसी डिजाइन के मुताबिक मकान बनाया और उसमें बहुत सुख शांति से पूरी जिंदगी गुजारी। पाखंड का इस तरह का विरोध जहां किया जाना चाहिए, वहां पर लोग पाखंड को बढ़ाने में लगे रहते हैं। इसी बलात्कारी आसाराम के पुराने वीडियो देखें उसकी पुरानी तस्वीरें देखें तो अलग-अलग पार्टियों के अनगिनत बड़े-बड़े नेता स्टेज पर जाकर उसके पांव छूते दिखते हैं। ऐसी ही चमत्कारी छवि बनाते हुए लोग अपने आपको स्थापित करते हैं और फिर भक्तों से बलात्कार करने तक की नौबत में आ जाते हैं।
हिंदुस्तानी लोगों के बीच पाखंड के खिलाफ, अंधविश्वास के खिलाफ, जागरूकता लाने की जरूरत है, और लोगों के बीच वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन जब-जब समाज के बहुतायत लोगों को धर्म और जाति के नाम पर, खानपान के नाम पर एक पाखंड में डुबाया जाएगा, और धर्मों का नाम लेकर दुकानदारी करने वाले लोगों को बढ़ावा देकर, उन्हें स्थापित करके, उनका चुनावी इस्तेमाल किया जाएगा, तो फिर ऐसे लोग समाज में खतरा भी बनेंगे, और समाज की अपनी सोचने की ताकत भी खत्म होती चलेगी। आज हिंदुस्तान इसी बात का शिकार है। जब देश अंतरिक्ष में पहुंच चुका है, जब टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने जिंदगी को सहूलियतों से भर दिया है, तब भी लोगों के बीच अंधविश्वास आत्मघाती स्तर पर अगर पहुंचा हुआ है, तो इसके पीछे लोगों को ऐसा बनाए रखने की राजनीतिक साजिश है, और उसे समझना भी चाहिए।
छत्तीसगढ़ में डॉ. दिनेश मिश्रा जैसे सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो कि अपने खर्च से, अपना वक्त निकालकर, गांव-गांव जाकर अंधविश्वास की हर घटना का भांडाफोड़ करते हैं, वहां लोगों को वैज्ञानिक बातें समझाते हैं, वहां पर लोगों की तर्कशक्ति विकसित करने की कोशिश करते हैं। अब दिक्कत यह है कि धर्म और अंधविश्वास के बीच फासले को इतना घटा दिया गया है कि उसे मानने वाले लोग उसे अंधविश्वास से दूर बताते हैं, लेकिन बड़ी आसानी से अंधविश्वास में फंस जाते हैं। इसलिए धार्मिक आस्था को अंधविश्वास से दूर करने की जरूरत है और अंधविश्वास को खत्म करने के लिए लोगों में वैज्ञानिक चेतना बढ़ाने की जरूरत है। इसकी कमी से सिर्फ हिंसक घटनाएं होती हो ऐसा भी नहीं है, वैज्ञानिक चेतना की कमी से लोगों के बीच कितने तरह के पूर्वाग्रह पैदा हो जाते हैं कि वे मेहनत करने के बजाए राहु-केतु और शनि की ग्रह दशा ठीक करने में लगे रहते हैं। यह सिलसिला अंधविश्वासी समाज को कभी भी उसकी पूरी संभावनाएं नहीं पाने देता।
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मद्रास हाईकोर्ट के 237 वकीलों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को चिट्ठी लिखकर इस बात का विरोध किया है कि मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को मेघालय हाई कोर्ट भेजा जा रहा है। वकीलों ने लिखा है कि 75 जजों वाली मद्रास हाई कोर्ट में हर साल 35 हजार मामले आते हैं, और ऐसे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को दो जजों वाली मेघालय हाई कोर्ट में भेजा जा रहा है जहां साल में मुकदमों की संख्या 70-75 ही रहती है। वकीलों ने 12 पेज लम्बे विरोध पत्र में लिखा है कि मद्रास हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस संजीव बनर्जी भ्रष्टाचार को जरा भी बर्दाश्त नहीं करते थे, और ना ही अक्षमता को, और उनके इस मिजाज को सराहा जाता था। ऐसे ईमानदार चीफ जस्टिस को इस तरह देश के एक सबसे बड़े हाई कोर्ट से, देश के सबसे छोटे हाई कोर्ट में भेजना कई तरह के सवाल खड़े करता है। वकीलों ने लिखा है कि न्यायिक प्रशासन के लिए ट्रांसफर जरूरी होते हैं, लेकिन ऐसा अटपटा ट्रांसफर क्यों किया जा रहा है, इस बारे में वकीलों और आम जनता को पता रहना चाहिए। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अभी 2 बरस पहले मद्रास हाई कोर्ट की चीफ जस्टिस विजया के तहिलरामानी का ट्रांसफर मेघालय हाई कोर्ट कर दिया था। जस्टिस विजया ने इसे मंजूर नहीं किया, आपत्ति की, लेकिन कॉलेजियम ने उसे नहीं सुना, इस पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।
भारत की अदालतों के बारे में यह कहा जाता है कि वह कई तरह के दबावों के बीच काम करती हैं। खासकर केंद्र सरकार की एक भूमिका सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में किसी को जज बनाने में या उसके प्रमोशन में रहती है, और ऐसा कहा जाता है कि सरकार अपने मर्जी के लोगों को जज बनवा लेती है, और नापसंद लोगों का जज बनना रोक भी देती है। सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम, जजों की नियुक्ति का एक किस्म से एकाधिकार रखता है, लेकिन उसकी आखिरी मंजूरी तो केंद्र सरकार से होती है। इसलिए यह बात बार-बार होती है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की भेजी गई लिस्ट को केंद्र सरकार क्या करती है। ऐसी हालत में अगर किसी हाई कोर्ट जज का या मुख्य न्यायाधीश का इस केस में से अटपटा तबादला होता है, तो मद्रास हाई कोर्ट के वकीलों की यह बात ठीक लगती है कि यह एक ईमानदार और निडर जज को सजा देने जैसा कदम है।
यह बात भी बड़ी हैरानी खड़ी करती है कि इसी हाईकोर्ट से 2 साल में दो-दो चीफ जस्टिस मेघालय हाई कोर्ट भेजे गए जो कि जाहिर तौर पर प्रशासनिक नियमों की आड़ में दी गई एक सजा है। जब सैकड़ों वकील किसी मुख्य न्यायाधीश को ईमानदार और हिम्मती बताते हुए तबादले का विरोध कर रहे हैं, तो उस जज में कोई तो बात तो होगी ही। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट किसी रहस्य की तरह कैसे तबादला कर सकता है, जो कि जाहिर तौर पर सजा दिख रहा है? यह सिलसिला खत्म होना चाहिए और इस सिलसिले में किसी तरह की पारदर्शिता आनी चाहिए। हमारे पास ऐसे संदेह का कोई तुरंत समाधान नहीं है क्योंकि न्याय व्यवस्था में तबादले किस तरह किए जा सकते हैं इसे दुनिया की दूसरी अदालतों को जानने-समझने वाले लोग बेहतर तरीके से सुझा सकते हैं। लेकिन यह बात तो तय है कि ऐसा रहस्यमय सिलसिला लोकतंत्र में अच्छा नहीं लग रहा है, इसका कोई बेहतर तरीका ईजाद किया जाना चाहिए। यह भी भला कोई बात है कि देश के एक सबसे बड़े हाई कोर्ट से उठाकर किसी को देश के सबसे छोटे एक हाईकोर्ट में भेज दिया जाए, और खासकर तब जबकि बड़े हाईकोर्ट का मुखिया रहते हुए उसके खिलाफ किसी तरह की कोई शिकायत ना आई हो, कोई आरोप ना लगे हो। हो सकता है कि न्याय व्यवस्था के भीतर ऐसे आरोप भी लगे हों जो कि जनता की नजर में न आए हैं, लेकिन ऐसा तबादला लोगों के मन में सरकारी दखल या किसी और तरह के दबाव का शक खड़ा करता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
तमिलनाडु के न्यायिक दायरे में यह जानकारी आम है कि वहां की अदालतों के ईमानदारी और सही तरीके से काम करने के लिए चीफ जस्टिस बनर्जी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कई किस्म की जांच शुरू करवाई थी। अभी माना जा रहा है कि ऐसे अचानक तबादले का, भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू करवाई गई जांच से भी लेना-देना हो सकता है। तमिलनाडु से आया हुआ समाचार बतलाता है कि यह बात इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि जो जज ईमानदार और कडक़ होते हैं, और जो सरकार के खिलाफ बिना डरे फैसले देते हैं, उन्हें कम महत्वपूर्ण जगहों पर भेज दिया जाता है। ऐसे तबादलों को सजा के बतौर तबादला कहा जाता है। ऐसी तमाम बातों को गिनाते हुए मद्रास हाई कोर्ट के वकीलों ने देश के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है कि यह बहुत ही दुर्भाग्यजनक बात है कि किसी ईमानदार जज का इस तरह सजा दिए सरीखे तबादला किया जा रहा है।
और सरकार की ही बात नहीं है, न्यायपालिका कई किस्म के और आरोपों को भी झेलती है। देश के एक भूतपूर्व कानून मंत्री शांति भूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण ने एक वक्त सुप्रीम कोर्ट के बहुत से जजों के भ्रष्ट होने का आरोप लगाया था, और उस मामले की सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे रोक कर रखा है, माफी न मांगने पर भी इन दोनों को कोई सजा नहीं दी है। और ऐसे आरोप पहले और बाद में भी सुप्रीम कोर्ट के जजों पर लगते रहे हैं। अभी-अभी कुछ अरसा पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश तो बहुत ही गंदे गंदे आरोप झेलते रहे, और अपनी कुर्सी पर डटे भी रहे। इसलिए जजों को आलोचना और टिप्पणियों से परे कोई पवित्र संस्थान मानना गलत होगा। यह भी समझ लेना जरूरी है कि अदालतों की प्रशासनिक व्यवस्था अदालत के अदालती कामकाज से अलग है और इसे लेकर अदालत को किसी आलोचना के प्रति अधिक संवेदनशील भी नहीं होना चाहिए। यह बहुत ही अजीब बात है कि देश के सबसे दक्षिणी हिस्से से देश के सबसे पूर्वी हिस्से में इस तरह से 2 बरस में दो मुख्य न्यायाधीशों को भेजा जा रहा है और वकीलों को विरोध करना पड़ रहा है।
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कांग्रेस पार्टी के साथ शायद एक बुनियादी दिक्कत है कि जब कभी चुनाव सामने रहते हैं, उसके कोई ना कोई नेता ऐसे बयान देते हैं कि जिनसे पार्टी का भरपूर नुकसान हो सके। और मानो आज यह काफी नहीं था, तो कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री रहे सलमान खुर्शीद ने अभी आई अपनी एक किताब में हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और बोको हराम जैसे इस्लामिक आतंकी संगठनों से की है। इससे जिस किस्म का भी धार्मिक ध्रुवीकरण उत्तर प्रदेश के वोटरों के बीच होना है, वह तो होगा ही, लेकिन उससे पहले भी उनकी किताब में लिखी गई यह बात बड़ी अटपटी है, बड़ी नाजायज भी है। फिर यह आलोचना लिखने के लिए हमारी जरूरत नहीं रही क्योंकि उनकी किताब को लेकर जैसे ही यह खबर सामने आई, कांग्रेस के एक दूसरे बड़े मुस्लिम नेता, गुलाम नबी आजाद ने ट्विटर पर लिखा कि सलमान खुर्शीद ने अपनी किताब में भले ही हिंदुत्व को हिंदू धर्म की मिली-जुली संस्कृति से अलग एक राजनीतिक विचारधारा मानकर इससे असहमति जताई, लेकिन हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और जिहादी इस्लाम से करना तथ्यात्मक रूप से गलत और अतिशयोक्ति है।
यह किताब अयोध्या पर आए फैसले पर लिखी गई है और जिस बात को लेकर बवाल खड़ा हो रहा है उस वाक्य में सलमान खुर्शीद ने लिखा है ‘भारत के साधु-संत सदियों से जिस सनातन धर्म और मूल हिंदुत्व की बात करते आए हैं, आज उसे कट्टर हिंदुत्व के जरिए दरकिनार किया जा रहा है। आज हिंदुत्व का एक ऐसा राजनीतिक संस्करण खड़ा किया जा रहा है जो इस्लामी जेहादी संगठनों आईएसआईएस, और बोको हराम जैसा है।’ जाहिर है कि इस बात पर बवाल तो होना ही था. सलमान खुर्शीद क्योंकि उत्तर प्रदेश के ही रहने वाले हैं इसलिए उन्हें यह पता होगा कि अगले कुछ महीनों में ही वहां पर चुनाव होने जा रहे हैं, और उत्तर प्रदेश के वोटरों के धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें चल रही हैं. इसलिए ऐसे मौके पर अपनी इस किताब का विमोचन करवाते हुए ऐसा तो है नहीं कि उन्हें उस किताब के बारे में पता नहीं होगा कि उसमें हिंदुत्व के बारे में उन्होंने क्या लिखा है। यह सिलसिला कांग्रेस को हर बार गड्ढे में ले जाकर डालता है। किताब मोटे तौर पर मंदिर के पक्ष में आए फैसले को अच्छा बता कर मंदिर का ही साथ देने वाली है। लेकिन यह लाइन जाहिर तौर पर हिंदुत्व और हिंदू धर्म दोनों से जुड़े हुए लोगों को विचलित करने वाली है।
पूरी किताब में जगह-जगह सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को सही ठहराया गया है कि उसने बाबरी मस्जिद गिराने के बाद खाली हुई उस जगह पर मंदिर बनाने का फैसला दिया है। जबकि किताब के विमोचन के मौके पर मौजूद पिछले केंद्रीय मंत्री पी. चिदंबरम ने माइक से यह कहा था। ‘बहुत समय बीत जाने की वजह से दोनों पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार कर लिया। सुप्रीम कोर्ट का फैसला दोनों पक्षों ने स्वीकार कर लिया इस वजह से यह अच्छा फैसला हो गया, न कि फैसला अच्छा होने की वजह से दोनों पक्षों ने इसे स्वीकार किया।’ किसी बात को बिना किसी को जख्मी किए हुए भी कहा जा सकता है और चिदंबरम ने फैसले की आलोचना करते हुए भी आपा नहीं खोया और सलमान खुर्शीद ने फैसले की तारीफ में पूरी किताब लिखते हुए भी एक गलत लाइन लिखकर अपनी पार्टी को भारी नुकसान पहुंचा दिया है. फिर मानो यह बात काफी नहीं थी तो कांग्रेस के एक और मुस्लिम नेता और पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राशिद अल्वी ने अभी एक समारोह में कहा कि जय श्री राम का नारा लगाने वाले सभी लोग मुनि नहीं हो सकते, इन दिनों जय श्री राम बोलने वाले कुछ लोग संत नहीं हैं, बल्कि राक्षस हैं।
इन दोनों मुस्लिम कांग्रेस नेताओं ने अपनी लंबी जिंदगी राजनीति में गुजारी है और हिंदुस्तान के वोटरों की भावनाओं से भी वे पूरी तरह वाकिफ हैं और चुनावी राजनीति में किसी बयान को तोड़-मरोड़ कर उसका कैसा बेजा इस्तेमाल किया जा सकता है इस प्रचलित चतुराई से भी दोनों का तजुर्बा रहा है। इसके बावजूद इस तरह की नाजायज बातों को करने का क्या मकसद हो सकता है? बिना किसी संदर्भ के आज किसी मुस्लिम कांग्रेस नेता को किसी हिंदू धार्मिक मुद्दे पर फिजूल की बात करना क्यों चाहिए? खासकर तब जबकि उसकी कोई जरूरत नहीं है? यह बात ठीक उसी तरह की है जिस तरह कि किसी मुस्लिम मुद्दे पर किसी हिंदू नेता को फिजूल की कोई बात क्यों करनी चाहिए खासकर तब जब उनकी पार्टी में उस मुद्दे पर बोलने के लिए मुस्लिम नेता मौजूद हैं। हमारी यह बात लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ नहीं है, लेकिन हमारी यह बात किसी राजनीतिक दल को सावधानी सुझाने वाली है कि आज के घोर सांप्रदायिक हो चले सार्वजनिक जीवन में हर पार्टी के प्रवक्ता और नेताओं को किस तरह सावधान रहना चाहिए। आज जब कांग्रेस पार्टी के ही दिग्विजय सिंह संघ परिवार या हमलावर हिंदुत्व के खिलाफ लगातार बोलते हैं, तो उनकी बात को एक सांप्रदायिक मोड़ नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह अपने-आपको एक धर्मालु हिंदू कहते और साबित करते आए हैं। आज यह सावधानी तमाम लोगों को बरतने की जरूरत है जो कि चुनावी राजनीति में हैं। और जो लोग हमारी तरह अखबारनवीसी में हैं वे फिर तमाम धर्मों के बारे में तमाम किस्म की बातें लिखें, और लोगों की नाराजगी झेलने के लिए तैयार भी रहें, लेकिन चूंकि हमें कोई वोट मांगने नहीं जाना है, और हम किसी संगठन के प्रति जवाबदेह नहीं हैं, इसलिए हम अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता के साथ अपनी मर्जी के मालिक हैं। लेकिन जब राजनीतिक दलों को अपनी दाढ़ी-टोपी, तिलक-आरती, और जनेऊ का सार्वजनिक प्रदर्शन करना पड़ता है तो ऐसे माहौल में उसके लोगों को सावधान भी रहना चाहिए।
आज तो हालत यह है कि किसी पार्टी से जुड़े हुए कोई वकील भी अदालत में किन मामलों को लड़ रहे हैं, इसका भी असर उनकी पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर दिखता है। इसलिए सलमान खुर्शीद की बात न सिर्फ बुनियादी रूप से नाजायज बात है, बल्कि वह पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाने वाली बात भी है। हिंदुस्तान अब उतने बर्दाश्त वाला देश नहीं रह गया है कि वह लोगों की लिखी हुई बातों का राजनीतिक इस्तेमाल न करे। और फिर सलमान खुर्शीद की अपनी नीयत शायद यही रही होगी कि वे उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले मंदिर बनाने के अदालती फैसले की तारीफ में यह किताब लिखकर शायद उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक हिंदू वोटरों पर असर डाल सके, और किताब की एक लाइन ने इसका ठीक उल्टा असर डाल दिया है। कांग्रेस के बहुत से नेता इसके हर चुनाव के पहले इस तरह की हरकतें करते हैं, और कांग्रेस की विरोधी पार्टियों को घर बैठे उसका फायदा मिलता है।
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आज माधुरी दीक्षित की एक किसी कामयाब फिल्म के 33 बरस पूरे हुए तो लोगों ने याद किया कि एक वक्त जब माधुरी दीक्षित के करियर की शुरुआत थी तो फिल्म इंडस्ट्री ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया था और यह कहा जाने लगा था कि वह हीरोइन मटेरियल नहीं हैं, बहुत पतली हैं, इस तरह की कई निगेटिव बातें उनके बारे में कही जाती थी। और वहां से निकलकर वे कामयाबी और शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचीं। आज हिंदुस्तान के सबसे कामयाब फिल्म कलाकार अमिताभ बच्चन के बारे में तो यह बात बहुत अच्छी तरह दर्ज है कि जब वे फिल्मों में जगह ढूंढ रहे थे तो कई निर्देशक या प्रोड्यूसर उन्हें ख़ारिज कर चुके थे. एक ने तो उन्हें सलाह दी थी कि वे इतने अधिक लंबे हैं कि नीचे से पैर 6 इंच कटा कर आएं तो शायद उन्हें काम मिल सकता है। उनका चेहरा उन दिनों बहुत ही आम दिखता था, और कोई काम उन्हें मिलता नहीं था। आज हालत यह है कि इस उम्र में भी वे रात तीन-चार बजे तक किसी-किसी साउंड स्टूडियो से घर लौटते रहते हैं, और सोशल मीडिया पर दिन की मेहनत के बारे में लिखते हैं, और यह भी लिखते हैं कि सुबह सात बजे फिर काम पर निकल जाना है। ऐसे और भी बहुत से कलाकार होंगे, और सिर्फ फिल्मों की ही बात क्यों करें, बहुत से ऐसे लेखक होंगे जिनके लिखे हुए को लंबे समय तक खारिज किया गया होगा। व्यक्तिगत संबंधों में भी बहुत से लोग खारिज होते होंगे, और हो सकता है कि जिंदगी में वह आगे जाकर बहुत कामयाब होते हों। अभी राजस्थान से निकले एक छात्र की कहानी सामने आई जिसमें गांव से निकला हुआ वह बहुत गरीब परिवार का लडक़ा, आसपास के लोगों से दान मांगकर किसी तरह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर पाया, और जब वह ट्रिपल आईटी में दाखिला पाकर वहां पहुंचा तो उसने तब तक अपनी जिंदगी का पहला कंप्यूटर भी नहीं देखा था। लेकिन साल गुजरते ना गुजरते वह हिंदुस्तान में कंप्यूटर छात्र-छात्राओं के लिए होने वाले हर कोडिंग मुकाबले को जीत रहा था। आज वह फेसबुक कंपनी के इंस्टाग्राम में न्यूज़ टीम का मुखिया है।
इन बातों को मिलाकर लिखने का मकसद यह है कि अगर किसी को लोग खारिज करते हैं, अगर लोग किसी की खिल्ली उड़ाते हैं, तो उन्हें दिल छोटा नहीं करना चाहिए। बहुत से लोगों ने इस बात को सोशल मीडिया पर लिखा और आगे बढ़ाया है कि आपके ऊपर जो पत्थर फेंके जाते हैं, उन पत्थरों से सीढ़ी बनाकर आप कामयाबी की ऊंचाई तक पहुंच भी सकते हैं। हमने खुद ही अभी कुछ दिन पहले यह लिखा है कि बहुत से लोग अपनी कामयाबी की पूरी कहानी एक रिजेक्शन स्लिप के पीछे के खाली हिस्से में लिख देते हैं। इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत आज इसलिए भी लग रही है कि अभी छत्तीसगढ़ के बस्तर में सीआरपीएफ के एक कैंप में एक जवान ने अपने डेढ़ दर्जन साथियों पर गोलियां चला दीं जिसमें 4 मौतें हो गई हैं। उसका कहना है कि ये लोग उसकी बीवी को लेकर उससे गंदा मजाक करते थे, और उसकी मर्दानगी की खिल्ली उड़ाते थे। ऐसी बातों से थककर जो झगड़ा हुआ था, उसमें उसे ऐसा पता लगा कि बाकी लोग उसे मार डालने वाले हैं, लेकिन वे ऐसा करें, उसके पहले उसने औरों को मार डाला। इस बात में कुछ सच्चाई हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है। इसलिए हम इस घटना की सच्चाई पर नहीं लिख रहे हैं, हम सिर्फ इस बात पर लिख रहे हैं कि लोगों को बहुत से नकारात्मक हमले झेलने पड़ते हैं, और उनके बीच से उबरकर जो लोग आगे बढ़ते हैं, वे कामयाब होते हैं। आज हिंदुस्तान में एक अभिनेत्री स्वरा भास्कर अपनी राजनीतिक विचारधारा के चलते हुए जिस तरह अपनी हर सोशल मीडिया पोस्ट पर सैकड़ों लोगों के गंदे, घिनौने, अश्लील, और हिंसक हमले झेलती है, वह देखकर दिल दहल जाता है। लेकिन ऐसा कोई भी हमला उसके हौसले को कम नहीं कर पाता और वह अपनी राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक सामाजिक इंसाफ के लिए लगातार लड़ती रहती है। ऐसा काम कुछ अखबारनवीस भी करते हैं, ऐसा काम कई दूसरे लेखक भी करते हैं, जो कि ईमानदारी पर डटे रहते हैं।
अभी दो दिन बाद हिंदी के एक महानतम समझे जाने वाले कवि मुक्तिबोध की सालगिरह है, और लोग तरह-तरह के आयोजन में जुटे हुए हैं, इसलिए यह याद रखने की जरूरत है कि मुक्तिबोध के जीते-जी उनकी कविता की कोई किताब नहीं छपी थी। और आज हिंदुस्तान में हिंदी के कोई भी ऐसे गंभीर लेखक नहीं हैं, जो कि मुक्तिबोध को पढ़े बिना लेखक बने हों, या कि लिख रहे हों। तो मुक्तिबोध जैसे महान कवि को अपने जीते-जी अपनी कविताओं की कोई किताब देखने नहीं मिली। और आज हिंदुस्तान की कोई भी ऐसी सम्माननीय लाइब्रेरी नहीं है जो उनकी किताबों के बिना पूरी हो सकती हो। इसलिए लोगों को न खारिज होने से डरना चाहिए, न ही हमलावर लोगों से डर कर घर बैठना चाहिए। आगे बढऩे का रास्ता लोगों के फेंके पत्थरों से सीढिय़ां बनाकर ऊपर चढ़ते जाने से निकलता है, न कि उन पत्थरों को अपना नसीब मानकर उन्हें अपनी कब्र बना लेने से। यह चर्चा जरूरी इसलिए है कि हिंदुस्तान में पिछले कुछ वर्षों में जिस रफ्तार से आत्महत्याएं बढ़ी हैं, उनके पीछे इन निराश लोगों के साथ समाज का किया हुआ बर्ताव भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। अब तमाम लोगों के बर्ताव को तो एकदम से सुधारा नहीं जा सकता, लेकिन हम निराश होने वाले लोगों का हौसला बढ़ाने के लिए उनके सामने यह हकीकत रख रहे हैं कि बहुत ही विपरीत और नकारात्मक स्थितियों में भी बहुत से लोग आगे बढ़ते हैं, और न केवल कामयाबी तक पहुंचते हैं, बल्कि और बहुत से लोगों को भी आगे बढ़ाते हैं। इसलिए हमले झेल रहे लोगों को न केवल खुद आगे बढऩा चाहिए, बल्कि उन्हें यह भी मानकर चलना चाहिए कि उन्हें मजबूत होकर ऐसे दूसरे लोगों की मदद भी करनी है जो समाज के इसी तरह के हमले झेल रहे हैं।
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फेसबुक को लेकर विवाद खत्म होने का नाम नहीं लेते हैं। अभी पश्चिमी दुनिया इस कंपनी में काम करने चुकी एक महिला अधिकारी को सुन रही है जिसने अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक, वहां की सांसदों को इस पर सोचने के लिए मजबूर किया है कि फेसबुक में किस तरह लोगों की हिफाजत से अधिक ख्याल अपनी कमाई का किया जाता है। हालांकि इस कंपनी ने इस बात को गलत करार दिया है, लेकिन इस भूतपूर्व महिला अधिकारी के खुलासे के पहले भी दुनिया में लोग लगातार इस बात को सोच रहे थे। और हिंदुस्तान का तजुर्बा फेसबुक को लेकर इसलिए भी खराब रहा है कि यहां उसने अति महत्वपूर्ण कहे जाने वाले कई लोगों के अकाउंट से नफरत फैलाने को अनदेखा किया, और दूसरे बहुत से भली नीयत वाले लोगों की लिखी गई बातों को ब्लॉक किया, भले लोगों को पोस्ट करने से रोक दिया। इसके साथ-साथ इस बात को याद रखने की जरूरत है कि किस तरह फेसबुक लोगों की जिंदगी पर छाया हुआ एक ऐसा सोशल मीडियम है जिसका गहरा असर लोगों की सोच पर हो रहा है। इस कंपनी के कंप्यूटर यह भी तय करते हैं किस-किस व्यक्ति को किस तरह की चीजें अधिक दिखानी हैं। और इस काम में कंपनी किस राजनीतिक विचारधारा को, या राजनीतिक दल को आगे बढ़ा सकती है, यह बाहरी लोगों के लिए अभी एक रहस्य की बात है। इसके अलावा फेसबुक ने अपने पेज पर दिखाने वाले इश्तहारों को लेकर भी एक और विवाद पैदा किया था कि कुछ खास राजनीतिक दलों का विज्ञापन की जगहों पर इस तरह कब्जा हो जाए कि दूसरों को कोई मौका ही न मिले।
फेसबुक के मुद्दे पर लिखने का हमारा यह कोई पहला मौका नहीं है, लेकिन जिस तरह सोशल मीडिया पर इसका एकाधिकार होते चल रहा है, यह भी समझने की जरूरत है कि इसने सोशल मीडिया या मैसेज मीडिया के दो दूसरे सबसे प्रमुख माध्यमों पर कब्जा कर रखा है, इंस्टाग्राम, और व्हाट्सएप। इन तीनों को अगर देखें तो यह कंपनी विचारों को प्रभावित करने का इतने विकराल आकार का एक खतरा बन चुकी है कि जिसका अंदाज लोगों को ठीक से लग नहीं रहा है। कहने के लिए तो अमेरिका में मीडिया के कारोबार के एकाधिकार के खिलाफ एक वक्त कानून हुआ करता था जो कि टीवी रेडियो और अखबारों के किसी एक हाथ में होने को रोकने के लिए था। अब पता नहीं वह कानून उस कारोबारी देश में इस्तेमाल हो रहा है या नहीं, लेकिन यह तय है कि हिंदुस्तान में विचारों को प्रभावित करने का जिस तरह का एकाधिकार फेसबुक और उसके इन दो औजारों ने हासिल कर लिया है वह हिंदुस्तान के लोकतंत्र के लिए एक बड़ी खतरनाक बात है। खतरनाक बात इसलिए भी है कि इन जगहों पर नफरत और हिंसा की बातों को रोकने का कोई औजार विकसित नहीं किया गया है। फिर जिन लोगों को फेसबुक बहुत खास मानता है उसमें हिंदुस्तान के कुछ खास राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े सत्तारूढ़ नेता हैं जिनके हिंसा के पोस्ट भी किसी कार्रवाई से बच जाते हैं, और दूसरी तरफ जो अमन पसंद लोग हैं उनकी लिखी हुई अहिंसक बातें भी ब्लॉक कर दी जाती हैं।
इसके साथ-साथ यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान की बाकी भारतीय भाषाओं को समझने और उनमें फैलाई जा रही हिंसा को रोकने के लिए फेसबुक ने पर्याप्त औजार नहीं बनाए हैं। हिंदुस्तान के लोग फेसबुक के सबसे बड़े यूजर हैं, लेकिन हिंदुस्तान को लेकर फेसबुक की सुरक्षा प्रणाली सबसे ही कमजोर है। यह मानना भी ठीक नहीं होगा कि एक चतुर कारोबारी लापरवाही में ऐसा कर रहा है, यह भी हो सकता है कि वह राजनीति करने वाले दूसरे कारोबारियों के साथ मिलकर भी ऐसी लापरवाही दिखा रहा हो ताकि कुछ लोगों की पसंद की हिंसा की बातें फैलाई जा सके। क्योंकि सोशल मीडिया दुनिया में एक नई चीज है, और इसमें जो सबसे कामयाब प्लेटफॉर्म हैं उन्हीं पर सबसे अधिक लोग जाते हैं, क्योंकि उनके सबसे अधिक पहचान के लोग वहीं पर रहते हैं. इसलिए कोई अमनपसंद लोग कोई अलग प्लेटफॉर्म बनाएं तो उसकी कामयाबी की संभावना बिल्कुल ही कम है। अमरीका में तो नफरत पर जिंदा पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ट्विटर पर उन्हें ब्लॉक कर दिए जाने के बाद ट्विटर के मुकाबले एक नया प्लेटफॉर्म शुरू करने की घोषणा की थी और वहां के अनगिनत नफरती अरबपति उनके साथ भी थे, लेकिन उनकी वह मुनादी किसी किनारे नहीं पहुंच पाई।
खुद अमेरिकी लोकतंत्र इस बात को लेकर अभी परेशान है कि रूस की सरकार अमेरिकी सोशल मीडिया के मार्फत अमेरिकी वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है या नहीं? और अगर कर भी रही है तो उसे अमेरिका किस तरह रोक सकता है, किस तरह वह बाहरी तत्वों को अपने लोकतंत्र को काबू में करने से रोक सकता है। ऐसी नौबत हिंदुस्तान के भीतर भी आ सकती है, आ रही है, या आ चुकी है। हो सकता है कि सोशल मीडिया पर दिखने वाला सच ऐसा चुनिंदा सच हो जिसे कि दिखाने में किसी राजनीतिक दल की दिलचस्पी हो और जो फेसबुक जैसे कारोबार के साथ सांठगांठ करके उस पर खासा वक्त गुजारने वाले लोगों की सोच को प्रभावित करने का काम कर रहा हो। भारतीय लोकतंत्र को परिपच्ता पाने में लंबा वक्त लगेगा यहां के वोटरों की जागरूकता जागने का काम अभी बाकी ही है। इसलिए फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर की जा रही कारोबारी शरारत का जमकर विरोध करना जरूरी है। इस प्लेटफार्म ने अपने खिलाफ सभी शिकायतों के लिए एक स्वतंत्र ट्रस्ट बना रखा है, लेकिन आज उस पर शिकायत करने वाले लोग किसी एक विचारधारा की तरफ से सैलाब की तरह पहुंच जाते हैं, क्योंकि वे इस औजार को जानते हैं, और ऐसा विरोध दर्ज करने के लिए तैनात हैं। दूसरे लोगों को भी इसकी ताकत को समझना होगा और इसे इस्तेमाल करना होगा।
अभी कुछ दिन पहले ही हमने फेसबुक के एक नए प्रोजेक्ट मेटावर्स के बारे में लिखा था, और वह फेसबुक के मुकाबले भी सैकड़ों गुना अधिक ताकत लेकर आ सकता है। ऐसे किसी दिन की तैयारी करने के लिए हमने कारोबार के लोगों को सावधान किया था, लेकिन अब लग रहा है कि उसके राजनीतिक बेजा इस्तेमाल के बारे में हमने नहीं लिखा था, जो कि अब जरूरी लग रहा है। अगर फेसबुक जैसी कोई ताकत सौ गुना अधिक ताकत हासिल कर लेती है, तो उससे हजार गुना अधिक सावधान रहने की भी जरूरत होगी।
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ऑस्ट्रेलिया में अभी कोरोना का टीका लगवाने के बाद टीके वाले लोगों के बीच हुई एक लॉटरी में एक युवती को एक मिलियन अमेरिकी डॉलर मिल गए। भारत के रुपए के मुताबिक करीब 7.50 करोड़ रुपए। वहां पर लोगों के बीच टीका लगवाने को लेकर अधिक उत्साह नहीं था इसलिए सरकार ने एक लॉटरी शुरू की, और टीकाकरण करवाने वाले लोगों के बीच किसी का नाम निकालकर उसे लॉटरी मिलनी थी, और इस युवती को टीके लगवाने के बाद लॉटरी भी मिल गई। दूसरी तरफ अमेरिका एक ऐसा देश है जहां पर लोग तमाम किस्म के ईनाम, पुरस्कार, और नगद रकम के बावजूद, टीके लगवाने से बड़ी संख्या में कतरा रहे हैं। अमेरिकी लोगों में अपनी आजादी को लेकर एक ऐसी जिद है जो उन्हें उकसाती है कि टीका लगवाना, या न लगवाना, उनका कानूनी हक है। वहां अभी अमेरिकी सरकार ने यह आदेश जारी किया है कि 100 से अधिक कर्मचारियों वाली हर कंपनी को अनिवार्य रूप से अपने कर्मचारियों को दो-दो टीके लगवाने पड़ेंगे, लेकिन इसके खिलाफ लोग अदालत चले गए हैं। लोग मास्क लगाने के खिलाफ हैं, उसे लेकर भी अदालत चले गए, सडक़ों पर उन्होंने मास्क जलाते हुए प्रदर्शन किया। अमेरिकी सरकार चाहकर भी हवाई सफर पर टीकाकरण का प्रतिबंध लागू नहीं कर पा रही है।
दूसरी तरफ हिंदुस्तान को देखें तो यहां सोशल मीडिया पर दो-चार लोगों को छोडक़र टीकाकरण का किसी ने विरोध नहीं किया। लोगों ने लंबी-लंबी कतारें लगाकर टीके लगवाए और राज्य सरकारें लगातार केंद्र सरकार पर दबाव बना रही हैं कि उन्हें अधिक टीके दिए जाएं ताकि वे अपनी तमाम आबादी को लगा सकें। हिंदुस्तान में टीकों को लेकर जागरूकता का एक बड़ा लंबा इतिहास रहा है। इस देश में तकरीबन तमाम आबादी ने अपने बच्चों को पोलियो के टीके लगवाए और कुछ वक़्त के लिए उत्तर भारत के कुछ एक गिने-चुने गांवों के मुस्लिम परिवारों को छोडक़र किसी ने इसका बहिष्कार नहीं किया, और नतीजा यह निकला कि भारत पोलियो मुक्त देश बन गया। कोरोना की मार भी हिंदुस्तान में घनी बस्तियों, और कमजोर अस्पतालों के बावजूद कम रही, उसकी वजह भी कई लोग यह मानते हैं कि तरह-तरह के जो टीके हिंदुस्तान में बचपन से लगते हैं उसकी वजह से बच्चों में कई तरह की प्रतिरोधक क्षमता रहती है, और इसलिए हिंदुस्तान में कमजोर इंतजाम के बावजूद मौतें कम रही। यह कहना वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं होगा कि दूसरी बीमारियों के लिए लगाए गए टीकों की वजह से आज लोगों को कोरोना का असर नहीं हो रहा है, लेकिन यह तथ्य अपनी जगह सही है कि जब कभी ऐसी कोई चुनौती आती है तो हिंदुस्तान की तकरीबन तमाम आबादी एक वैज्ञानिक सोच के साथ अपने बच्चों को, या खुद को टीके लगवाने के लिए खड़ी हो जाती है।
अब इस बात को भी समझने की जरूरत है कि जिस देश में अंधविश्वास घर-घर तक फैला हुआ था, या है, जहां पर चेचक के टीके के मुकाबले लोग माता की पूजा पर अधिक भरोसा करते थे, जहां पर आज भी सांप काटने से लेकर दूसरे कई किस्मों की बीमारियों तक लोग झाड़-फूंक करवाते हैं, वहां भी लोग टीका लगवाने के लिए सामने आए। इस मामले में हिंदुस्तान, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों के मुकाबले बहुत आगे रहा जहां पर किसी ईनाम या नकद रकम की जरूरत नहीं पड़ी और लोगों को दबाव डालकर भी टीके नहीं लगाने पड़े। भारत सरकार जितने टीकों की सप्लाई कर पाई, उतने टीके आनन-फानन लग जा रहे हैं, और कोई टीके लोगों का इंतजार करते हुए फ्रिज में बंद नहीं रहते। मतलब, अब जिस दिन भी बच्चों को टीके लगने शुरू होंगे, उस दिन भी लोग सामने आएंगे, और अधिकतर लोग ऐसे दिन का इंतजार भी कर रहे हैं। इस बात को समझने की जरूरत है कि भारत के कम पढ़े-लिखे लोगों में, अंधविश्वास से भरे हुए देश में, टीकाकरण को लेकर यह जो जागरूकता है, यह कोई छोटी बात नहीं है। इस देश में अगर टीकाकरण के लिए लोगों को नगद रकम या लॉटरी में ईनाम देना पड़ता तो वह कितना महंगा पड़ता है उसकी कितनी लागत आती है। तो भारत में लोगों के बीच टीकाकरण को लेकर यह जो जागरूकता है यह इस देश में आजादी के बाद से लगातार मेहनत करके जो वैज्ञानिक सोच विकसित की गई थी, उसी का नतीजा है कि टीकाकरण पर लोगों का भरोसा है।
लोगों का भरोसा आज भी तंत्र-मंत्र, जादू, झाड़-फूंक पर से पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, लेकिन जो लोग इन बातों पर भरोसा रखते हैं वे लोग भी टीका तो लगा ही लेते हैं। इस बात का सबसे बड़ा सबूत यह है कि पोलियो इस देश से पूरी तरह खत्म हो गया। अगर कहीं भी कोई बच्चा पोलियो वैक्सीन से से बच गया रहता तो पोलियो पूरी तरह खत्म नहीं हुआ रहता। इसलिए आजादी के बाद से लगातार देश के लोगों में जो वैज्ञानिक सोच जिस हद तक भी विकसित हो पाई उसी का नतीजा था कि कोरोना के टीकों का कोई विरोध नहीं हुआ। जब विकसित देशों में लोग टीके लगवा नहीं रहे हैं और आज ऐसे लोग बड़े खतरे में पड़ रहे हैं वहां की सरकारें यह नहीं समझ पा रही हैं कि कैसे लोगों को समझाया जाए, कैसे उनकी कानूनी चुनौतियों से जूझा जाए, ऐसे में हिंदुस्तान में अगर टीकों का कोई भी विरोध नहीं हो रहा है, तो इसकी तारीफ की हक़दार देश में फैल रही तमाम किस्म की धर्मांधता के बावजूद लोगों में बची हुई वैज्ञानिक चेतना है. टीकों पर उनका भरोसा है इसीलिए हिंदुस्तान आज बच पा रहा है। देश में कोरोना के मैनेजमेंट में जितने तरह की नाकामयाबी हुई है, उसके लिए देश की सरकार जिम्मेदार रही है, लेकिन जितने तरह की कामयाबी हुई है, उसके लिए देश की आम जनता हक़दार है।
जब किसी देश में किसी किस्म के इंफ्रास्ट्रक्चर की बात होती है तब वहां गिना जाता है कि वहां पर सडक़ें कितनी हैं, बिजली कितनी फैली हुई है, इलाज की सहूलियतें कितनी हैं, पढ़ाई-लिखाई के संस्थान कितने हैं. जनता की सोच, उसकी जागरूकता को भी ऐसे इंफ्रास्ट्रक्चर में जोड़ कर गिनना चाहिए। जनता की सोच किसी मुसीबत के मौके पर किस तरह सरकार के बोझ को हल्का कर सकती है, यह हिंदुस्तान में कोरोना के इस दौर में साबित हुआ है। अमरीका की तरह ही, हिंदुस्तान के कानून के मुताबिक कोरोना का टीका लगाना किसी के लिए भी जरूरी नहीं है। यहां भी कुछ बददिमाग लोग अगर चाहते, तो अड़ सकते थे कि वे टीका नहीं लगाएंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि देश में जो आम चेतना है, वह टीकाकरण के पक्ष में पीढिय़ों से चली आ रही है। पीढिय़ों की यह जागरूकता हाल के वर्षों में खत्म नहीं की जा सकी है। इस बात को लेकर देश की सरकारों को और राजनीतिक ताकतों को यह सबक लेना चाहिए कि जनता में जागरूकता देश के ढांचे का एक मजबूत हिस्सा रहती है, और उसे न कम आंकना चाहिए और न उसे तबाह करने की कोशिश करनी चाहिए।
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अभी-अभी निपटे दुनिया के सबसे बड़े पर्यावरण सम्मेलन कॉप-26 में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदुस्तान के नेट जीरो एमिशिन पाने के लिए 2070 तक का जो लक्ष्य घोषित किया है, उसे देश के सबसे बड़े पर्यावरणवादियों ने बड़ा महत्वाकांक्षी कहा है। भारत की आज की ऊर्जा की जरूरत लगातार बढ़ती चली जा रही है, और बिजली का उत्पादन भी बढ़ते जा रहा है, लेकिन देश में बिजली का अधिकतर उत्पादन कोयले से हो रहा है, और दुनिया का लक्ष्य कोयले के इस्तेमाल को, और दूसरे जीवाश्म ईंधन को घटाते चलने का है। ऐसे में भारत ने यह भी कहा है कि वह 2040 तक पर्यावरण में कारबन या प्रदूषण की बढ़ोतरी अधिकतम स्तर पर पहुंचने पर स्थिर कर देगा, और उसके बाद 2070 तक वह इसे नेटजीरो कर देगा, जिसका मतलब है कि वह पर्यावरण में प्रदूषण या कार्बन नहीं जोड़ेगा। भारत की विख्यात पर्यावरणशास्त्री सुनीता नारायण का मानना है कि भारत के प्रधानमंत्री का यह लक्ष्य घोषित करना तारीफ के काबिल है, और भारत ने समृद्ध दुनिया के पाले में गेंद डाल दी है, अब उन देशों को इसके मुकाबले अपने प्रदूषण और कार्बन उत्पादन कम करना है। पूरी दुनिया के अलग-अलग देशों का पर्यावरण को बचाने में क्या रुख है, उनके क्या खतरे हैं, और उनकी क्या जिम्मेदारियां हैं, इस पर बहुत चर्चा दुनिया भर में जानकार लोग कर रहे हैं, लेकिन हम उसके हिंदुस्तान वाले हिस्से पर, और खासकर देश के संघीय ढांचे को लेकर कुछ बुनियादी बातों पर आज चर्चा करना चाहते हैं, जिन पर गौर किए बिना भारत अपना भी पर्यावरण नहीं बचा सकेगा, और दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकेगा।
प्रदूषण को कम करना, कार्बन उत्पादन को घटाना, चीजों की खपत को घटाना, और साफ-सुथरी बिजली बनाना, यह पूरा का पूरा काम अकेले केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, और इसमें से बहुत सारा काम राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है, और जिम्मेदारी है तो जाहिर तौर पर अधिकार क्षेत्र भी उन्हीं का है। यह पूरा का पूरा काम केंद्र सरकार अपने बजट से, अपने पैसों से पूरा नहीं कर पाएगी, यह भी है कि अगर वह बजट भी देगी तो भी उस पर अमल तो राज्य सरकारों के रास्ते ही होगा। इसलिए भारत सरकार को देश के संघीय ढांचे के तकाजे के मुताबिक पर्यावरण के मुद्दे पर राज्य सरकारों को भरोसे में लेकर, और राज्य सरकारों को इस मंजिल को हासिल करने के मकसद में शामिल करके इस काम को आगे बढ़ाना चाहिए। अभी हमारे सामने यह बात साफ नहीं है कि ब्रिटेन के ग्लासगो में हुए इस पर्यावरण सम्मेलन के पहले प्रधानमंत्री ने देश के राज्यों से विस्तृत विचार-विमर्श किया था या नहीं, लेकिन अगर नहीं भी किया था तो भी उन्हें अब राष्ट्रीय स्तर पर यह काम इसलिए भी करना चाहिए कि 2070 तक के जो लक्ष्य हैं, उनके पूरे होने तक केंद्र में बहुत सी सरकारें आएंगी-जाएगी, राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की अलग-अलग सरकारें आएंगी-जाएंगी, और जब तक मन, वचन, और कर्म से केंद्र और राज्य सरकारें इस मुद्दे पर एक साथ नहीं रहेंगी तब तक ऐसी कोई भी घोषणा पूरी होने से रही। हम आज इस मुद्दे को देश के संघीय ढांचे की शुरू से चली आ रही व्यवस्था के बीच भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण इसलिए मान रहे हैं क्योंकि देश का पर्यावरण बाकी दुनिया के पर्यावरण से अछूता नहीं है। और देश का पर्यावरण अलग-अलग राज्यों में बंटा हुआ नहीं है, मौसम और पर्यावरण राज्यों की सरहदों का सम्मान नहीं करते, वे तो देशों की सरहदों का भी सम्मान नहीं करते। इसलिए प्रदेशों के नक्शे से परे जाकर केंद्र सरकार को पहल करके मौसम के बदलाव से जूझने की इस जंग में देश के तमाम राज्यों को शामिल करना चाहिए। प्रधानमंत्री को अपनी इन घोषणाओं के बाद इस जिम्मेदारी को राज्यों के साथ बांटना चाहिए, वरना राजनीतिक मतभेदों के चलते इसकी आशंका अधिक है कि राज्यों पर अगर केंद्र की कोई मनमानी थोपी जाएगी तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र को यह जवाब दे सकते हैं कि ग्लासगो में की गई घोषणा क्या उनसे पूछकर की गई?
जरा ठोस शब्दों में अपनी बात को अगर हम कहें तो देश में आज एक पर्यावरण-संसद बनाने की जरूरत है जिसमें प्रधानमंत्री के अलावा केंद्रीय पर्यावरण मंत्री, संसद की पर्यावरण के मामलों से जुड़ी हुई, कोयले और बिजली के मामलों से जुड़ी हुई संसदीय समितियों के सांसद, और इन मंत्रालयों के मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और उद्योग, वित्त, तथा पर्यावरण विभागों के मंत्री रहें। इन सबको शामिल करके एक राष्ट्रीय पर्यावरण संसद तुरंत ही बनानी चाहिए जिसकी साल में कम से कम 2 बैठकें हों। पर्यावरण के मुद्दों को किसी एक राज्य की मनमानी पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए, और न ही इन्हें केंद्र सरकार के रहमोकरम पर छोड़ा जाए। एक राज्य और केंद्र सरकार यह मिलकर भी इसे किसी विपक्षी मुद्दे की तरह ना निपटाएं, क्योंकि किसी भी राज्य का पर्यावरण दूसरे राज्यों को भी प्रभावित करता ही है। इसलिए हमारा यह साफ मानना है कि दुनिया के इस सबसे जलते-सुलगते मुद्दे से निपटने के लिए भारत के भीतर हर प्रदेश को दूसरे प्रदेश के मामलों में अपनी राय रखने का हक रहना चाहिए। जिस तरह संसद में हर प्रदेशों से आए हुए सांसद किसी भी प्रदेश के मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं, ठीक उसी तरह ऐसी एक पर्यावरण संसद बनाकर उसमें तुरंत ही केंद्र सरकार अपनी सोच रखे, अपने बजट को सामने रखे, और राज्य सरकारों से उस पर राय मांगे, उस पर राजनीति से परे का विचार-विमर्श हो, और हर प्रदेश को दूसरे प्रदेशों के मामलों में वहां पर बोलने का खुला मौका मिले।
किसी राज्य के मुख्यमंत्री को भी ऐसी पहल करनी चाहिए कि वह प्रधानमंत्री से पर्यावरण-संसद बनाने को कहे जिसमें कोई ऊपर नीचे न रहे, और जो केंद्र से राज्यों को किसी हुक्म की तरह भी काम न करे, जिसमें हर बात रिकॉर्ड पर दर्ज हो जाए। हमारा तो यह भी मानना है कि किसी भी जिम्मेदार संस्था की तरह ऐसी पर्यावरण-संसद को भी देश और दुनिया के पर्यावरणशास्त्रियों और दूसरे विशेषज्ञों को बुलाकर उनकी राय भी सुननी चाहिए ताकि केंद्र और राज्य सरकारों का अपना ज्ञान भी बढ़ सके, उनमें समझ भी बेहतर हो सके, और उनके फैसले भी बेहतर हो सकें। अलग-अलग राज्य इस मुद्दे पर काम करें इसके बजाय केंद्र के साथ बैठकर तमाम राज्यों को खुली बातचीत करनी चाहिए और ऐसी कोई पहल प्रधानमंत्री के स्तर पर ही हो सकती है। यह बात प्रधानमंत्री के लिए बहुत सुहानी शायद ना हो कि उन्हें अपनी घोषणा पूरी करने के लिए राज्यों के मुख्यमंत्रियों से मदद लेनी पड़े, लेकिन देश का संघीय ढांचा यही कहता है, और इसके बिना प्रधानमंत्री अपनी कही किसी बात को पूरा कर भी नहीं पाएंगे। साल में कम से कम दो बार प्रधानमंत्री और सारे मुख्यमंत्री पूरे दिन बैठकर पिछले 6 महीनों का हिसाब सामने रखें, और अगले छह महीनों की योजना बनाएं। आज दुनिया में मौसम का बदलाव और पर्यावरण की बर्बादी करोड़ों लोगों की जिंदगी को खतरे में डालने की कगार पर है, इसलिए इस अभूतपूर्व खतरे से निपटने के लिए अभूतपूर्व रास्ते निकालने की जरूरत है, और ऐसा ही एक रास्ता आज हम यहां सुझा रहे हैं। हिंदुस्तान में केंद्र और राज्यों की ऐसी मिली-जुली पर्यावरण-संसद ही 2030 या 2070 तक देश को दुनिया के सामने जिम्मेदार साबित कर सकेगी और ऐसा कुछ करने से पहले ही यह भी जरूरी है कि इस देश के भीतर अपने लोगों को बचाने के लिए पर्यावरण का खराब होना थामा जाए।
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दुनिया के एक विकसित देश न्यूजीलैंड में आज ऐसे इच्छा मृत्यु का कानून लागू हो गया है इसके साथ ही यह देश दुनिया के करीब आधा दर्जन ऐसे देशों की कतार में आ गया है जहां लोग कुछ खास हालात में अपनी मर्जी से मरना तय कर सकते हैं, और इसके लिए डॉक्टर उनकी मदद कर सकते हैं। दुनिया में अभी स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, स्पेन, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और कोलंबिया ही ऐसे देश है जहां पर यूथिनिसिया का कानून है, जिसका मतलब होता है अच्छी मृत्यु, इच्छा मृत्यु। इसे मर्सी किलिंग भी कहा जाता है, और यह अमेरिका के कुछ राज्यों में भी लागू है। भारत में यह सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से एक सीमित दायरे में लागू है जहां किसी मरणासन्न मरीज को कोमा की हालत में रहने पर, करीबी रिश्तेदार, करीबी दोस्त, या डॉक्टर जीवनरक्षक उपकरणों से और दवाइयों से अलग कर सकते हैं, ताकि वे चैन की मौत मर सके। इसके लिए कई किस्मों की कानूनी औपचारिकताएं रखी गई हैं ताकि कोई इसका बेजा इस्तेमाल करके किसी को आसानी से न मार सके। इसमें बाहर के अफसरों और मेडिकल बोर्ड की मौजूदगी, और उनकी रिपोर्ट, और गवाहों के दस्तखत जैसी कई बातें भी जोड़ी गई हैं। दुनिया के अधिकतर देशों में इच्छा मृत्यु को कानूनी इजाजत नहीं दी गई है, और हिंदुस्तान में भी आत्महत्या की कोशिश अब तक एक अपराध ही है।
अलग-अलग देश की अपनी संस्कृति और संवेदनशीलता से परे, अलग-अलग धर्मों की सोच भी इच्छा मृत्यु को लेकर अलग-अलग होती है। हिंदुस्तान में ही हिंदू और जैन धर्म में कुछ खास परिस्थितियों में लोग ऐसा फैसला ले सकते हैं कि वे अब आमरण उपवास करके अपना जीवन त्याग दें। जैन समाज में बीच-बीच में संथारा नाम की एक परंपरा सुनाई पड़ती है जिसमें कोई व्यक्ति प्राण त्याग करना तय कर लेते हैं, और उसके बाद भी खाना-पीना बंद करके मौत का इंतजार करते हैं। ऐसे मौके को एक सामाजिक जलसे की तरह मनाया जाता है और धर्म के बहुत से अनुयायी ऐसी जगह पर लगातार इक_े रहते हैं। लेकिन भारत की सुप्रीम कोर्ट तक जाने के बाद भी एक मामला अभी तक नहीं निपट पाया है कि आत्महत्या की कोशिश को जुर्म के दर्जे से बाहर निकाला जाए। आज भी इस देश में आत्महत्या की कोशिश पर सजा का प्रावधान है। जबकि लोगों का यह मानना है कि आत्महत्या की कोशिश करने वाले लोग जिंदगी से वैसे भी इतने निराश रहते हैं कि उन्हें उस कोशिश के लिए सजा देना उनके साथ एक असामाजिक बेइंसाफी की बात रहती है। लेकिन अदालतें और संसद इस बारे में अभी कोई फैसला ले नहीं पाई हैं।
हिंदुस्तान में इच्छा मृत्यु को लेकर जो प्रावधान सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में लिखे हैं, और जो कि संसद के बनाए हुए किसी कानून के आने के पहले तक देश में कानून की तरह ही लागू हैं, उनमें यह साफ किया गया है कि लोगों के अपने चाहने पर और उनके मरणासन्न रहने पर, या कोमा में रहने पर ही ऐसा किया जा सकेगा और इसके लिए डॉक्टरी मदद से मौत नहीं दी जाएगी बल्कि जिंदा रखने के साधनों को तमाम औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद हटाया जा सकेगा। मतलब यह कि उन्हें मारा नहीं जायेगा, मर जाने दिया जायेगा. आज भारत में जब लोग सरकार से बहुत अधिक निराश हो जाते हैं तो उनमें से कुछ लोग सरकारी दफ्तर या मुख्यमंत्री तक पहुंचते हैं, या सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति को चि_ी लिखते हैं कि उन्हें मरने की इजाजत दी जाए। लेकिन निराशा में मरने का फैसला लोकतंत्र के ऊपर एक कलंक की तरह रहेगा इसलिए तुरंत ही ऐसे मामलों पर कार्रवाई की जाती है, और लोगों को बचाया जाता है। लेकिन दुनिया के जिन देशों ने इच्छा मृत्यु को इजाजत दी है वहां भी उनके तर्कों को समझने की जरूरत है। लोग यह मानते हैं कि जहां गरिमा के साथ जीना मुमकिन ना हो, जहां पर मानवीय परिस्थितियां हासिल न हो, वहां पर क्यों जिंदा रहा जाए? और वैसे हालात से बेहतर मर क्यों न जाया जाए? यह सवाल लोकतंत्र के भीतर हमेशा ही खड़े रहता है कि गरिमा के साथ जीना एक बुनियादी अधिकार होना चाहिए, और अगर यह हासिल नहीं है, तो अपनी जिंदगी पर तो अपना फैसला रहना चाहिए। लेकिन दुनिया में स्थानीय धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक या लोकतंत्र के अपने पाखंड के चलते हुए आमतौर पर कोई भी देश ऐसी नौबत का सामना करना नहीं चाहते कि वहां के लोग उनकी व्यवस्था को जिंदा रहने लायक भी नहीं पा रहे हैं, और देश या सरकार से, समाज या परिवार से निराश होकर मर जाना चाहते हैं, और ऐसी मौत के लिए वे डॉक्टरी मदद भी चाहते हैं ताकि जहर के इंजेक्शन से वे अपनी जिंदगी खत्म कर सकें।
इंसान की जिंदगी के अंत की नौबत बहुत अलग-अलग किस्म की रहती है और किन्हीं दो परिस्थितियों की आपस में तुलना नहीं की जा सकती। लेकिन जो बुनियादी बात लोकतंत्र में होनी चाहिए कि गरिमा के साथ जीने का मौका हर किसी को हासिल होना चाहिए, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। किसी लोकतंत्र में अगर लोगों को उनके धर्म की वजह से, काम या जाति, या रंग की वजह से प्रताडऩा झेलनी पड़ती है, तो उसे गरिमापूर्ण जीवन नहीं माना जा सकता, और ऐसे में उनके भीतर मरने की एक इच्छा हो सकती है। अब उन्हें ऐसा अधिकार देना लोकतंत्र के अपने मुंह पर कालिख लगवाने सरीखा होगा, इसलिए लोकतंत्र इसे मान्यता नहीं देते। और इसीलिए बहुत से लोकतंत्र आत्महत्या के अधिकार को भी नहीं मानते और आत्महत्या की कोशिश को जुर्म करार देते रहते हैं।
अभी हिंदुस्तान में डॉक्टरी मदद से जान देना कोई मुद्दा नहीं है इस पर कोई बड़ी चर्चा नहीं है। लेकिन हम इस चर्चा को छेडक़र गरिमापूर्ण जीवन की बात छेडऩा चाहते हैं क्योंकि देश के नागरिकों को, यहां बसे हुए हर किसी को, इज्जत के साथ जिंदा रहने का एक बुनियादी हक रहना चाहिए। धर्म और जाति, खानपान और पहनावे, इन सबको लेकर अगर भेदभाव किया जा रहा है, तो वह नौबत मानवीय गरिमा के खिलाफ होने से जान देने की वजह बन सकती है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसी नौबत में फंसकर जान दे भी देते हैं। इच्छा मृत्यु के बारे में दूसरे देशों के फैसले को देखते हुए हिंदुस्तान को यह सोचना चाहिए कि किस तरह यहां पर आत्महत्या की कोशिश को जुर्म के दायरे से बाहर किया जाए क्योंकि वह एक तनावग्रस्त व्यक्ति को और अधिक अपमानित करने, और उसे सजा देने का एक काम होता है। दूसरी तरफ गरिमापूर्ण जीवन की बात भी सोचनी चाहिए जो कि अपने आप में एक बहुत जटिल मुद्दा है और अलग-अलग लोगों के लिए गरिमा अलग-अलग मायने रख सकती है, उसकी परिभाषा अलग-अलग हो सकती है। लेकिन गरिमापूर्ण जिंदगी और गरिमा के साथ मौत का मुद्दा जब दूसरे देशों से लेकर हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट तक में आ चुका है, तो फिर समाज को भी इस गरिमा के बारे में सोचना चाहिए और इसकी फिक्र करनी चाहिए।
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दिवाली की अगली सुबह चारों तरफ कचरा ही कचरा फैला हुआ था, संपन्न इलाकों में यह कुछ अधिक था जहां पर लोगों ने बड़े-बड़े महंगे फटाके बड़ी संख्या में फोड़े थे। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे, और उन्होंने एक सफाई अभियान छेड़ा था, तो झाड़ू लेकर तस्वीरें खिंचवाने का एक मुकाबला देश भर में चल निकला था। उस वक्त उन्होंने दिवाली की अगली सुबह लोगों को अपना-अपना पैदा किया हुआ कचरा बटोरने के लिए भी कहा था, और लोग अगली सुबह झाड़ू लेकर अपने घर के सामने कचरा इकट्ठा कर भी रहे थे। लेकिन उसके अगले ही बरस से ऐसा कुछ भी दिखना बंद हो गया, और संपन्न लोगों का खड़ा किया हुआ पटाखों का कचरा विपन्न सफाई कर्मचारियों का इंतजार करते हुए बिखरा रहा। ऐसा इसलिए हुआ कि दिवाली के बाद अपने घर के सामने की सफाई करना, एक राजनीतिक नारे की तरह उछाला गया था, और लोगों ने उसे तब तक ही माना जब तक कि उसकी गूंज हवा में बनी हुई थी, उन्होंने शायद दिवाली की अगली सुबह के बाद से ही इस नारे पर अपने घर के बाहर अमल बंद कर दिया गया। फिर वहां-वहां झाड़ू जारी रहा जहां पर कोई राजनीतिक आयोजन होना था, जहां पर किसी मंत्री को अपने आपको मोदी के प्रति वफादार साबित करने के लिए, अपनी तस्वीर खिंचवाने के लिए, झाड़ू पकडक़र कुछ मिनट कचरा साफ करना था। यह कुछ उसी किस्म का है जिस तरह से आज कॉलेज के छात्रों के बीच राष्ट्रीय सेवा योजना नाम का एनसीसी सरीखा एक कार्यक्रम चलता है जिसमें कहीं कचरा साफ करने या कहीं झाडिय़ों को साफ करने के लिए छात्र-छात्राओं का जत्था अपने प्रभारी प्राध्यापक की अगुवाई में इकट्ठा होता है, और बैनर टांगकर 15-20 मिनट सफाई की जाती है, और तस्वीरें खींचकर वहां से रवानगी डाल दी जाती है। हिंदुस्तानियों के बीच चरित्र की ईमानदारी इस कदर कमजोर है कि वह कदम-कदम पर सामने आती है। दिखावे के लिए किसी काम को करना लोगों को बहुत सुहाता है, लेकिन तस्वीरें खिंच जाएं उसके बाद उनकी दिलचस्पी उस काम में खत्म हो जाती है। लोग बैनर लेकर चलते हैं और जहां मौका मिले वहां चार लोग बैनर लेकर खड़े हो जाते हैं और तस्वीरें खिंचवाते हैं। यह सिलसिला हिंदुस्तान के लोगों में गहराई तक बैठी हुई एक बेईमानी का सुबूत है कि वे दिखावे के लिए भी किसी नेक काम को कुछ घंटे भी करना नहीं चाहते, और एक फर्जी सुबूत गढ़ लेने तक ही उनकी दिलचस्पी इस काम में रहती है।
लोग सोशल मीडिया पर अपनी प्रोफाइल फोटो में अपने बच्चों के साथ अपनी तस्वीर लगाते हैं, और उसके बाद उसी प्रोफाइल से वैचारिक रूप से असहमत दूसरी महिलाओं को बलात्कार की धमकी देते हैं, उनके बारे में अश्लील बातें लिखते हैं, गंदी गालियां लिखते हैं। फिर अगले ही ट्वीट, या अगली फेसबुक पोस्ट पर वे अपने धर्म की तारीफ करते हैं, अपने इष्ट देव या इष्ट देवी की तस्वीरें लगाते हैं। यह पूरा मिजाज चरित्र और तथाकथित नैतिकता की बेईमानी का एक बड़ा खुला मामला है जिसमें लोग अपने आपको धार्मिक बतलाते हैं, आध्यात्मिक बतलाते हैं, किसी एक राजनीतिक विचारधारा से जुड़ा हुआ बताते हैं, और उसके बाद इस देश की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल करते हुए हिंसा की बातें लिखते हैं, अश्लील बातें लिखते हैं, और धमकियां लिखते हैं। लोगों की ना केवल सार्वजनिक जीवन के प्रति कोई ईमानदारी नहीं है बल्कि लोगों की अपनी खुद की तथाकथित सामाजिक नैतिकता के प्रति भी कोई ईमानदारी नहीं है। लोग इस देश के एक काल्पनिक और गौरवशाली इतिहास का गुणगान करते नहीं थकते, लोग अपने देवी-देवताओं का कीर्तन करते नहीं थकते, लेकिन यही लोग दूसरे इंसानों के खिलाफ वैसे काम करते हैं जैसे कि वे अपनी कहानियों में राक्षसों का किया हुआ बताते हैं।
हिंदुस्तान में जब किसी व्यक्ति के चरित्र की नैतिकता को देखना है तो उसके सार्वजनिक जीवन के व्यवहार को उस वक्त देखना चाहिए जब वे अपने बाहुबल, या धनबल, या अपने दलबल की ताकत से लैस रहते हैं। जब वे अपने घर के सामने पटाखे फोड़ते हैं, या अपने साथियों के साथ सुबह की सैर पर चलते हैं, अपने दोस्तों के साथ सडक़ के बीच गाडिय़ां रोककर गप्पे मारते हैं। हिंदुस्तानियों को सुबह की सैर पर भी देखें तो अगर तीन लोग भी रहेंगे, तो सडक़ की पूरी चौड़ाई को घेरकर इस बदतमीजी से, और इस हमलावर अंदाज में चलते हैं कि कोई दूसरे लोग सडक़ पर आ जाना सकें। इसी तरह जब वे किसी बारात का हिस्सा रहते हैं उस वक्त वे सडक़ को अपनी मिल्कियत मानते हुए वहां जैसे हिंसक अंदाज में लाउडस्पीकर बजाते हुए, ट्रैफिक को रोक करते हुए नाचते हैं, उससे यह समझ में आता है कि वे एक भीड़ के दिमाग का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो कि वे अकेले नहीं कर सकते थे। यह सिलसिला हिंदुस्तानियों को पूरी तरह से असभ्य और हिंसक बनाते चल रहा है। इस देश में अदालतों ने कोशिश कर ली कि दिवाली पर एक सीमा से अधिक पटाखे ना चलें, लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट का मुंह चिढ़ाते हुए लोगों ने इतने पटाखे फोड़े कि वहां की पूरी हवा जहरीली हो गई। दिक्कत यह है कि जहर फैलाने को लोगों ने अपना धार्मिक अधिकार मान लिया है। और बाकी लोग इस बात में जुट गए हैं कि धर्म का यह अधिकार कहीं भी कमजोर ना पड़े। आम बोलचाल की जुबान में एक बात कही जाती है कि ऐसे लोगों का भगवान ही मालिक है। तो ऐसे लोगों को मालिक का जल्द अपने पास बुला ले ताकि बाकी लोग एक खुली और साफ हवा में सांस ले सकें।
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सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों के बाद देश के अलग-अलग राज्यों में दिवाली पर पटाखे फोडऩे को लेकर तरह-तरह के आदेश जारी हुए हैं, और इन्हें लेकर कई धार्मिक संगठनों में, और कुछ राजनीतिक पार्टियों में कुछ बेचैनी भी है। कुछ लोग इसे एक हिंदू त्यौहार पर हमला मान रहे हैं, और उनका कहना है कि न क्रिसमस पर ऐसी रोक लगती है, और न नए साल पर, जो कि ईसाई त्योहार हैं। इसके अलावा और धर्मों के भी कुछ ऐसे त्यौहार हो सकते हैं, जब पटाखे फोड़े जाते हैं, लेकिन उन पर भी कोई रोक नहीं लगती है। तो इन लोगों का यह मानना है कि हिंदू त्योहारों पर ही रोक क्यों लगनी चाहिए? यह सिलसिला पिछले कई बरस से चल रहा है, जबसे दिवाली पर पटाखों से होने वाले प्रदूषण का खतरा लोगों को समझ में आ रहा है, और खासकर उत्तर भारत में जहां पर कि ठंड के इस मौसम में प्रदूषण वैसे भी आसमान पर रहता है, दिल्ली में दम घुटने लगता है, दिल्ली में हवा इतनी खतरनाक हो जाती है कि कई बीमार लोगों को दूसरे शहर जाने की सोचना पड़ता है, ऐसी हालत में पटाखों पर रोक की बात अदालत तक पहुंची और बहुत सी वैज्ञानिक संस्थाओं की रिपोर्ट को देखते हुए अदालत ने अलग-अलग किस्मों से रोक लगाई है।
एक तरफ पर्यावरण का मुद्दा है और दूसरी तरफ लोगों के रोजगार की बात भी है। पटाखा बनाने वाले उद्योगों में लाखों मजदूरों को काम मिलता है, और तमिलनाडु के शिवकाशी में जहां सबसे अधिक फटाका कारखाना और कुटीर उद्योग हैं, वहां के मुख्यमंत्री ने राजस्थान के मुख्यमंत्री से अभी अपील की कि वे पटाखों पर रोक ना लगाएं। और राजस्थान के मुख्यमंत्री ने प्रतिबंध में ढील भी दी है। लेकिन पटाखों के मुद्दों पर रोजगार और धर्म से परे भी सोचने की जरूरत है। किसी एक दिन के कुछ घंटों में देश में सबसे अधिक पटाखे साल में केवल दिवाली की रात को फोड़े जाते हैं। नतीजा यह होता है कि शहरों की घनी बस्तियों में जहां पर हिंदू आबादी अधिक है, वहां पर इतने अधिक पटाखे फूटते हैं कि उस इलाके में रहने वाले फेफड़े के मरीजों का जीना मुश्किल हो जाता है, और कई किस्म की सांस की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। जो लोग अपने-आपको हिंदू धर्म का रक्षक कहते हैं और हिंदू धर्म के त्यौहारों के ऐसे रिवाजों पर लगने वाले प्रतिबंध का विरोध करते हैं, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि यह रोक हिंदू धर्म पर नहीं है, यह रोक हिंदू धर्म को मानने वाले और दिवाली मनाने वाले लोगों की सेहत की होने वाली बर्बादी पर रोक है। दूसरे धर्मों के त्यौहार पर अगर पटाखे फूटते भी हैं, तो उन लोगों की आबादी इतनी कम रहती है, वे इतने बिखरे हुए रहते हैं, और पटाखे इतने कम फूटते हैं, कि ऐसी रातों में कहीं कोई अधिक प्रदूषण नहीं हो पाता। अगर फटाका उद्योगों के आंकड़ों को देखें तो दिवाली के बाद हिंदुस्तान में पटाखों की सबसे बड़ी खबर महाराष्ट्र में गणेश उत्सव के दौरान होती है जिसमें पटाखों का इस्तेमाल इतना बिखरा हुआ होता है, और किसी एक रात या किसी एक शाम इनका इस्तेमाल नहीं होता, इसलिए प्रदूषण का घनत्व उतना अधिक नहीं होता। लोगों को अपने धर्म से अधिक अपने फेफड़ों की फिक्र करनी चाहिए। दिवाली के पटाखों से सबसे अधिक नुकसान हिंदू आबादी में बसे हुए हिंदू लोगों के फेफड़ों को होती है क्योंकि दूसरे धर्म के लोगों की बस्तियों में पटाखे उतने अधिक फोड़े नहीं जाते हैं।
अब लंका जीतकर अयोध्या लौटे हुए राम की वापसी की खुशी में मनाया जाने वाला दिवाली का त्यौहार इतने पुराने समय से चले आ रहा है कि जब दुनिया में बारूद का आविष्कार भी नहीं हुआ था। चीन में बारूद करीब 11 वीं सदी के आसपास बनाया गया और हिंदुस्तान में बारूद पहली बार चौदहवीं सदी के आसपास आया और लोगों का मानना है कि 14वीं और 15वीं सदी के बीच में किसी समय हिंदुस्तान में पटाखे बनने शुरू हुए। तो जाहिर है कि राम जब अयोध्या लौटे उस दिन न तो बारूद था, और न पटाखे थे और न कोई आतिशबाजी हुई थी। ऐसे में राम की वापसी की याद में मनाया जाने वाला दिवाली का यह त्यौहार पटाखों को लेकर जिद पर अड़े रहे ऐसा कोई ऐतिहासिक आधार नहीं बनता है, ऐसा कोई पौराणिक आधार भी नहीं बनता है। दूसरी बात यह कि अयोध्या में उस रात आबादी कितनी रही होगी? वह इतनी अधिक नहीं रही होगी कि उनके दिए जलाने से भी कोई प्रदूषण होता हो, इसलिए राम का नाम लेकर हिंदू आबादी वाले इलाकों में प्रदूषण का नुकसान फैलाना कोई समझदारी नहीं है यह सीधे-सीधे हिंदू धर्म के लोगों को अधिक नुकसान पहुंचाने की एक जिद है। कोई भी धर्म क्या जहरीले प्रदूषण को फैलाकर अपने मानने वाले लोगों को नुकसान पहुंचाने की नसीहत देता है ? जिस दिन धर्म बना होगा, जिस दिन धर्म के त्योहार बने होंगे, त्यौहार मनाने की परंपराएं बनी बनी होंगी, उन दिनों में किसी बारूद का कोई अस्तित्व नहीं था। इसलिए आज लोगों को आज की दिक्कतों को देखते हुए, आज के प्रदूषण के खतरों को देखते हुए एक समझदारी दिखाने की जरूरत है। यह मौका एक धर्म के दूसरे धर्मों से बराबरी करने का नहीं है, मगर बराबरी करनी है तो भी यह बात साफ है कि दीवाली की एक रात के कुछ घंटों में प्रदूषण का घनत्व जितना बढ़ता है, वह जानलेवा रहता है और उससे होने वाले नुकसान की कोई भरपाई न धर्म कर सकता, न ईश्वर कर सकता। धर्म के ठेकेदार लोगों को इस कदर जिद नहीं करना चाहिए, और पटाखों को बंद करना चाहिए।
हिंदुस्तान में एक दूसरी बेवकूफी चल रही है कि पटाखों की एक किस्म को ग्रीन पटाखा कहा जा रहा है। ग्रीन शब्दों से ऐसा लगता है कि इससे कोई हरियाली पैदा हो जाएगी या कि यह पर्यावरण की बेहतरी करने वाला पटाखा है। इस बात को समझने की जरूरत है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा तय किए गए पैमानों के मुताबिक ग्रीन पटाखे वे हैं जिनमें परंपरागत पटाखों के मुकाबले प्रदूषण 30 फ़ीसदी कम होता है। ग्रीन पटाखों में प्रदूषण शून्य नहीं होता है, यह पुराने पटाखों के मुकाबले 70 फ़ीसदी रहता है। इसलिए यह सोच अपने-आपमें एक झांसा देती है कि कोई ग्रीन पटाखा हो सकता है। किसी को अदालत जाकर इस ग्रीन शब्द को हटाने की मांग करनी चाहिए जिसकी जगह कम प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे जैसा कोई शब्द इस्तेमाल करना चाहिए।
अब इस कारोबार से जुड़ी हुई एक और बात पर चर्चा कर ली जाए कि पटाखे न बनने से शिवकाशी जैसे एक-दो केंद्रों पर जो लाखों लोग रोजगार पाते हैं, उनका क्या होगा? तो सवाल यह है कि जब करोड़ों लोगों की सेहत को इससे नुकसान पहुंच रहा है, तो क्या उस कीमत पर भी इस कारोबार को रहने देना चाहिए, या इस कारोबार का कोई विकल्प वहां के लोगों को रोजगार और कारोबार की शक्ल में मुहैया कराया जाना चाहिए? हिंदुस्तान में ऐसे बहुत से दौर आए हैं। एक समय था जब देशभर में दसियों लाख एसटीडी पीसीओ खुले थे, और एक-एक पीसीओ में दो-दो तीन-तीन लोगों को रोजगार मिलता था। धीरे-धीरे मोबाइल फोन बढ़ते चले गए और आज शायद एसटीडी पीसीओ देश में कहीं भी बचे नहीं है। तो दसियों लाख लोगों का वह रोजगार एसटीडी पीसीओ से तो खत्म हो गया लेकिन लोग मोबाइल के सिम कार्ड बेचने लगे, मोबाइल फोन बेचने लगे, मोबाइल सुधारने लगे, या फिर मोबाइल से जुड़ी हुई छोटी-छोटी दूसरी चीजें बेचने लगे। आज भी शहरों में, हर चौराहे पर, हर सडक़ के किनारे लोग मोबाइल के स्क्रीन गार्ड बेचते मिलते हैं उसके हेडफोन बेचते हुए मिलते हैं। तो रोजगार एसटीडी पीसीओ से निकलकर मोबाइल फोन के सामान बेचने पर आ गया। यह सिलसिला पूरी दुनिया में हमेशा चलते रहता है और चलते रहेगा। एक जगह से रोजगार घट जायेंगे, और दूसरी जगह बढऩे लगेंगे। इसलिए तमिलनाडु के इस एक जिले में अगर बहुत अधिक पटाखा उद्योग हैं तो यह समझने की जरूरत है कि वह इलाका बिना बारिश वाला इलाका माना जाता है, और वहां नमी इतनी कम रहती है, शुष्कता इतनी अधिक रहती है कि वहां पर पटाखे बनाना, और उसके भी पहले से माचिस बनाना एक परंपरागत कारोबार रहा है। लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि इसी शिवकाशी में देश के सबसे अधिक कैलेंडर भी छपते थे और यहां पर छपाई का कारोबार भी खूब होता था। तो यह तो राज्य सरकार की फिक्र करने की बात है कि अगर किसी इलाके से पटाखों का कारोबार घटता है तो लोगों को वहां किस तरह का कारोबार मुहैया कराया जाए, और किस तरह के रोजगार वहां पर जुटाए जाएँ। लेकिन यह सिलसिला अंतहीन नहीं चलने देना चाहिए।
आखिर में एक बात रह जाती है कि हर बरस दिवाली के कुछ हफ्ते पहले इस किस्म की रोक खबरों में आती है, लोग अदालत तक दौड़ लगाते हैं, राज्य सरकारें तरह-तरह के प्रतिबंध लगाती हैं, उसके बाद फिर लोग प्रतिबंध को ढीला करने की कोशिश करते हैं। रोक का यह पूरा सिलसिला दिवाली के तुरंत बाद से अगले बरस के लिए तय हो जाना चाहिए क्योंकि यही वक्त है जब शिवकाशी जैसे बड़े पटाखा उत्पादक केंद्र में अगले बरस के लिए तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए अगर फटाका उत्पादकों को, फटाका मजदूरों को, और फटाका कारोबारियों को लंबा घाटा नहीं होने देना है, तो सरकारों को अगली दिवाली के लिए अभी से अपनी नीति घोषित कर देनी चाहिए। त्यौहार के पहले आखिरी हफ्तों में लाए गए प्रतिबंध बहुत ही खराब रहते हैं, और लोग उनके बावजूद बाजार से पटाखे खरीदने की हालत में रहते हैं, और व्यापारी पटाखे बेचने को मजबूर रहते हैं। इसके बाद तो फिर जब बड़ी हिंदू आबादी वाले संपन्न इलाकों में पटाखे फोडऩे के मुकाबले चलते हैं, तो किसी पुलिस थाने की औकात नहीं रह जाती कि वह वहां जाकर सुप्रीम कोर्ट के किसी हुक्म की याद दिला सके। फिर भी हमारा यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस बार जिस तरह अफसरों की कुर्सियों के नाम लेकर कहा है कि कौन-कौन जिम्मेदार रहेंगे अगर उनके इलाकों में छूट के घंटों के अलावा पटाखे फोड़े जाएंगे, तो लोगों को भी चाहिए कि अपने-अपने इलाकों में अगर अदालती रोक को तोडक़र लोग पटाखे फोड़ते हैं तो उसके वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करें और पुलिस को भेजें ताकि उसके बाद पुलिस कार्रवाई करने पर मजबूर रहे। यह बात सिर्फ हिंदू धर्म को लेकर नहीं कही जा रही है, और सिर्फ हिंदू धर्म पर रोक लगाने पर को लेकर नहीं कही जा रही है, यह बात हिंदुओं को बचाने के लिए कहीं जा रही है, आज का लिखा हुआ पूरा का पूरा हिंदुओं को बचाने के लिए है उनकी सेहत को बचाने के लिए है।
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मुंबई में इन दिनों खबरों की अंधड़ चल रही है। वहां पर शाहरुख खान के बेटे को नशे के एक कारोबार, या नशा पार्टी के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया, और उसकी रिहाई तक वह खबरों में लगातार बने रहा। इसी दौरान महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री नवाब मलिक ने नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मुंबई के अफसर के खिलाफ लगातार एक अभियान छेड़ा जिससे जिससे उस अफसर, समीर वानखेडे, की विश्वसनीयता खतरे में पड़ी, और शाहरुख के बेटे की जांच के बजाए, अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो समीर वानखेड़े की जांच कर रहा है। इसी बीच नवाब मलिक ने महाराष्ट्र के भूतपूर्व भाजपा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उनकी पत्नी पर नशे के सौदागरों और तस्करों से संबंध रखने के आरोप लगाए और पति-पत्नी दोनों की नशे के उन सौदागरों के साथ तस्वीरें पोस्ट की, जो कि एनसीबी द्वारा ही गिरफ्तार करके जेल में रखे गए हैं। अब यह मामला चल ही रहा है कि देवेंद्र फडणवीस की पत्नी अमृता फडणवीस ने एक प्रेस कॉन्फे्रंस लेकर कहा कि अगर नवाब मलिक मर्द हैं, तो वे उनके मार्फत उनके पति देवेंद्र फडणवीस को निशाना न बनाएं। और उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन पर कोई आरोप लगाता है तो वह उसे छोड़ती नहीं है। खैर आरोप लगाने वाले को न छोडऩा, इसके कई मतलब हो सकते हैं लेकिन नवाब मलिक के मर्द होने को लेकर उन्होंने जो बात कही है, उसका सिर्फ एक ही मतलब होता है कि मर्द ऐसा काम नहीं करते हैं।
अमृता फडणवीस सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में लगातार सक्रिय रहने वाली, और खबरों में भी बने रहने वाली, एक बैंक अफसर रही हैं, जिन पर मुंबई में बैंक का अफसर रहते यह आरोप भी लगे थे कि उनकी वजह से महाराष्ट्र सरकार या वहां की पुलिस के लाखों बैंक खाते उनकी बैंक में खोले गए थे। खैर वह बात तो आई-गई हो गई थी और हम आज जो लिखने जा रहे हैं, उसमें अमृता फडणवीस की राजनीति का कोई लेना-देना नहीं है, न ही शाहरुख खान और नवाब मलिक का, लेकिन हम एक सीमित बात को लेकर लिख रहे हैं कि किस तरह एक पढ़ी-लिखी, कामकाजी, कामयाब, हस्ती होने के बावजूद अमृता फडणवीस की भाषा में मर्दों के किए जाने वाले काम बहादुरी के दर्जे में आते हैं, और बिना कहे इस बात का आगे का मतलब यही निकलता है कि शायद औरतें ऐसा कम करती हैं।
हम इस जगह पर और दूसरी जगहों पर भी लगातार इस बात को लिख-लिखकर थक चुके हैं कि महिलाओं को नीचा दिखाने के काम में हिंदुस्तान की महिलाएं पीछे नहीं रहती हैं। आज महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके देवेंद्र फडणवीस की पत्नी रहने के अलावा अपने खुद के जीवन में एक कामयाब बैंक का अफसर रहने के बाद अमृता फडणवीस को यह बात समझ नहीं आ रही कि वे किसी मर्द को कायर मानने से इंकार कर रही हैं, या मर्द के बहादुर रहने की जरूरत बतला रही हैं, या वह औरत को कमजोर और कायर साबित करना चाहती हैं। कुल मिलाकर उनकी बात मर्दों का दबदबा बढ़ाने वाली और औरतों का दर्जा गिराने वाली है, जिसे किसी भी मायने में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन वे अकेली ऐसी नहीं हैं। हिंदुस्तान की संसद की बहुत सी ऐसी महिला सांसद हैं, जो प्रदर्शन करते हुए जब किसी सरकार के खिलाफ अपनी बात रखना चाहती हैं, तो मंत्रियों और अफसरों को चूडिय़ां भेंट करती हैं। मानो चूडिय़ां कमजोरी और नालायकी का प्रतीक हैं, और चूड़ी ना पहनने वाले मर्द मजबूत, बहादुर, और लायक होते हैं। यह सिलसिला राजनीतिक दलों की महिला कार्यकर्ता जगह-जगह करती हैं कि वे अफसरों को चूडिय़ां भेंट करती हैं कि अगर वे काम नहीं कर सकते, तो चूड़ी पहनकर घर बैठ जाएं। जिस कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी जैसी विश्वविख्यात नेता रही हो, जिसकी मुखिया सोनिया गांधी हो, उस पार्टी की नेता भी चूडिय़ां भेंट करने को प्रदर्शन का एक तरीका मानती हैं। दूसरी तरफ भाजपा में भी महिलाएं कम नहीं रहीं, विजयाराजे सिंधिया से लेकर सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया तक बहुत सी प्रमुख महिलाएं भाजपा की राजनीति में रहीं, और इस पार्टी को भी चूडिय़ों को कमजोरी का प्रतीक मानने से बचना चाहिए था, लेकिन वह बच नहीं पाई। बाकी बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी हैं जो कि अपनी सोच से ही दकियानूसी हैं और वे महिलाओं के खिलाफ जितने किस्म की बातें कर सकती हैं, वह करती ही हैं, लेकिन जब मुंबई में एक काबिल और कामयाब, आधुनिक महिला बहादुरी के काम को मर्दों से जोडक़र और कमजोरी के काम को गैर मर्द से जोडक़र देख रही हैं, तो फिर बाकी महिलाओं से क्या उम्मीद की जाए।
हिंदुस्तान में यह सिलसिला ही खराब चले आ रहा है जिसमें महिला को सामाजिक व्यवस्था के तहत आगे बढऩे नहीं दिया गया, और फिर उसे कमजोर साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। समाज की पूरी की पूरी भाषा इसी तरह की बनाई गई कि लड़कियों के मन में कोई आत्मविश्वास पैदा न हो सके महिलाओं का अपने खुद पर कोई भरोसा न हो सके। और ऐसी भाषा को कई किस्मों के प्रतीकों से जोड़ दिया गया। महिलाओं को चूड़ी-कंगन से लेकर मंगलसूत्र और पायजेब तक से घेर दिया गया, उसके माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर से इस बात का प्रदर्शन किया गया कि वह शादीशुदा है, उसके नाम के साथ अनिवार्य रूप से श्रीमती जोडक़र उसका शादीशुदा दर्जा उजागर किया गया जबकि मर्दों के साथ ऐसी कोई चीज नहीं की गई। पूरा सिलसिला महिलाओं को कमजोर साबित करने और कमजोर बनाने का था जिससे उबर पाना किसी के लिए आसान नहीं है।
आज जब हिंदुस्तान की सभी पार्टियों की महिलाओं को अलग-अलग अपने स्तर पर अपनी पार्टियों के बीच, और तमाम पार्टियों को मिलकर भी महिला आरक्षण के लिए लडऩा चाहिए था, तो किसी पार्टी ने अपनी महिलाओं को महत्व नहीं दिया, कांग्रेस पार्टी ने भी नहीं। आज उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रियंका गांधी की साख दांव पर लगी हुई है, और वे तुरुप के पत्ते की तरह 40 फीसदी सीटें महिला उम्मीदवारों को देने की घोषणा कर चुकी हैं। लेकिन उनकी पार्टी ने कई दशक पहले से चले आ रहे महिला आरक्षण विधेयक का उस वक्त भी साथ नहीं दिया जिस वक्त वह ताकत में थी, और चाहती तो कोशिश करके उसे देश में लागू कर सकती थी, और आज एक तिहाई महिला सांसद संसद में रहतीं, और उसी अनुपात में महिला विधायक विधानसभा में रहतीं। भारत में महिलाओं के खिलाफ अन्याय ना सिर्फ भाषा में है बल्कि राजनीतिक दलों की रणनीति में भी है, और समाज के सारे तौर-तरीकों में भी है।
अमृता फडणवीस ने कोई बहुत अलग बात नहीं कही है, उसी भाषा को मर्दों के झांसे में अधिकतर महिलाएं इस्तेमाल करती हैं, और बोलचाल की जुबान में महिलाओं का कोई जिक्र भी नहीं होता, सारी भाषा पुरुष के हिसाब से बनाई गई है, और यह मान लिया गया है कि पुरुष के भीतर महिला शामिल है। भारत के कानून में और अदालतों की कार्यवाही में भी, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में भी, सिर्फ अंग्रेजी का पुरुष का ‘ही’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है, और महिला के लिए ‘शी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होता, और अदालत भी यह मानती है कि पुरुष में महिला शामिल है। यह पूरा सिलसिला गलत है और अदालतों को भी अपनी भाषा सुधारनी चाहिए। संसद को भी अपनी भाषा सुधारनी चाहिए। महिलाओं को पुरुषों की लादी गई भाषा का इस्तेमाल करने के बजाय देश में महिला आरक्षण लाने की कोशिश करनी चाहिए और सोशल मीडिया की, सार्वजनिक जीवन की सारी भाषा को आक्रामकता के साथ सुधारना चाहिए।
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हिंदुस्तान के एक फैशन ब्रांड सब्यसाची ने अभी कुछ मंगलसूत्र बाजार में उतारे तो उनके इश्तहार भी आए और इश्तहारों में एक महिला को मंगलसूत्र पहने हुए और अपने पुरुष साथी की छाती पर सिर टिकाए हुए दिखाया गया है। यहां तक तो ठीक था क्योंकि मंगलसूत्र तो भारतीय शादीशुदा महिला के पुरुष साथी का ही प्रतीक होता है, लेकिन इसमें यह महिला बिना अधिक कपड़ों के, काले रंग की ब्रा में दिख रही है, और यह तस्वीर खासी उत्तेजक लग रही है। ऐसी पोशाक में किसी मॉडल या किसी अभिनेत्री का दिखना कोई अटपटी बात नहीं है, बिकिनी में रोज ही बहुत सी मॉडल दिखती हैं, लेकिन किसी को उसके संदर्भ ही उत्तेजक बनाते हैं। अब इस महिला का संदर्भ क्योंकि एक शादीशुदा हिंदू भारतीय महिला का मंगलसूत्र था, जो कि पति की मंगल कामना करने वाला एक सुहाग या सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है, इसलिए इसे परंपरागत भारतीय हिंदू महिला के संदर्भ में देखा गया, और उस नाते सिर्फ एक काली ब्रा वाला हिस्सा लोगों को अटपटा लगा. मध्य प्रदेश के भाजपा सरकार के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने तुरंत यह चुनौती दी कि सब्यसाची मुखर्जी 24 घंटे में यह इश्तहार बंद करें वरना मध्य प्रदेश पुलिस उनके खिलाफ जुर्म दर्ज करके उन्हें गिरफ्तार करने निकलेगी। आज की खबर के मुताबिक सब्यसाची ने लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए माफी भी मांग ली है और इस इश्तहार को हटा भी दिया है।
हिंदुस्तान इन दिनों विज्ञापनों को लेकर कई किस्म के विवाद देख रहा है। एक दूसरे ब्रांड की ज्वेलरी के विज्ञापन में हिंदू मुस्लिम को लेकर, या किसी और विज्ञापन में समलैंगिकता को लेकर जरा सी प्रगतिशीलता, उदारता दिखाई गई तो परंपरागत लोगों को वह इतनी बुरी तरह खटकी कि सोशल मीडिया पर उसके बायकाट का अभियान छेड़ गया और कंपनियों को वे विज्ञापन हटाने पड़े। इसमें बड़े-बड़े ब्रांड के विज्ञापन थे, और वह इस तरह कोई बदन दिखाने वाले भी नहीं थे, लेकिन लोगों को न हिंदू-मुस्लिम एकता की बात सुहाई और ना ही समलैंगिकता की बात। विज्ञापन देने वाली कंपनियां चाहतीं तो ऐसे विरोध के सामने डटे रहतीं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनको संकीर्णतावादी, परंपरावादी ग्राहकों के खोने का खतरा भी दिख रहा होगा, इसलिए उन्होंने ऐसे विज्ञापन वापस ले लेना बेहतर समझा होगा।
किसी कारोबार के ऐसे किसी एक-दो विज्ञापनों के चलने या न चलने को लेकर हमारी कोई फिक्र नहीं है क्योंकि दुनिया के बहुत से विकसित देशों में या आधुनिक देशों में विज्ञापनों में तरह-तरह का देह प्रदर्शन चलता है, और लोग उसके साथ जीना सीख लेते हैं, वह लोगों को खटकता भी नहीं है। लेकिन जो सबसे उदार देश माने जाते हैं, वहां पर भी राजनीतिक भेदभाव के, रंगभेद के, औरत-मर्द के भेदभाव के विज्ञापनों को बड़ी कड़ाई से रोका जाता है, और कई बार तो ऐसा भी लगता है कि कुछ बड़े ब्रांड भी ऐसे विवादास्पद विज्ञापन जानबूझकर तैयार करवाते हैं, ताकि बाद में उन पर प्रतिबंध लगे, और वे खबरों में बने रहें। इसलिए भारत की संस्कृति और यहां के लोगों का बर्दाश्त देखे बिना यहां कोई विज्ञापन बनाने पर उसका ऐसा नतीजा निकल सकता है। अब यह कानूनी रूप से तो गलत विज्ञापन नहीं था, लेकिन सांस्कृतिक रूप से यह विज्ञापन अटपटा जरूर था, क्योंकि एक शादीशुदा महिला के सुहाग का प्रतीक कहा जाने वाला यह मंगलसूत्र जिस तरह के देह प्रदर्शन के साथ दिखाया जा रहा था, वह मंगलसूत्र की परंपरा से मेल नहीं खा रहा था. कानूनी रूप से यह कोई जुर्म नहीं था लेकिन सांस्कृतिक रूप से लोग इस पर आपत्ति कर सकते थे।
भारत में इन दिनों अलग-अलग प्रदेशों, और देश, की सरकारें अपनी-अपनी सांस्कृतिक सोच, या अपनी धार्मिक प्राथमिकता के मुताबिक अपनी भावनाओं को बहुत जल्दी-जल्दी आहत पा रही हैं, और उन्हें लेकर बड़ी रफ्तार से मामले मुकदमे दर्ज हो रहे हैं। बहुत से मामले ऐसे हैं जो राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी की पसंद या नापसंद के आधार पर दर्ज होते हैं और फिर अदालतों में उनका कोई भविष्य नहीं रहता है। सब्यसाची के इस शहर के लिए मध्य प्रदेश के गृह मंत्री की सार्वजनिक चेतावनी, चेतावनी तो कम थी, वह एक सत्ता की धमकी अधिक थी, जिसके हाथ में जुर्म दर्ज करना और गिरफ्तार करना है. इसके बाद अदालत से क्या फैसला होता इसकी अधिक फि़क्र सत्तारूढ़ पार्टियों को रहती नहीं है क्योंकि वे अपनी जनता के बीच, अपने वोटरों के बीच, जो संदेश देना चाहती हैं, वह संदेश तो ऐसा केस दर्ज करने और ऐसी गिरफ्तारी से चले ही गया रहता। लेकिन ऐसे विज्ञापनों के विवाद से परे यह भी समझने की जरूरत है कि किसी देश में अगर बरदाश्त को इस तरह घटाया जाएगा, तो वह धीरे-धीरे आम जनता के दिमाग में बैठने लग जाएगा कि जो बात उसे सांस्कृतिक रूप से ठीक न लगे, उसे वह गैरकानूनी मानकर उसके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करा दे। और फिर हिंदुस्तान में पुलिस और अदालत का सिलसिला तो लोगों ने देखा हुआ है कि किस तरह बेकसूर लोगों को भी मुकदमे से निकलने में वर्षों लग सकते हैं।
इसलिए जब किसी लोकतंत्र में लोगों का बर्दाश्त सत्ता के उकसावे पर इस तरह घटाया जाए, उसे खत्म किया जाए, तो फिर वह सिलसिला खतरनाक हो चलता है। यह हवा का एक ऐसा झोंका है जो कि इस रवैये को आगे बढ़ाते चलेगा। जब लोगों को लगेगा कि खबरों में आने का यह एक अच्छा जरिया है, अपने वोटरों को रिझाने का यह एक असरदार तरीका है, तो लोग उस काम में लग जाएंगे। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा अपनी पार्टी भाजपा की परंपरागत सोच पर चलते हुए ही इस विज्ञापन का ऐसा विरोध कर रहे थे, और उनसे परे भी बहुत से लोगों को यह विज्ञापन अटपटा लगा होगा, लेकिन कानून इस विज्ञापन को गैरकानूनी नहीं मानेगा। अदालत में इस विरोध का कोई भविष्य नहीं है, इसका भविष्य केवल उस सरकार के हाथ है जिसके हाथ में पुलिस नाम का डंडा है। यह डंडा आगे चलकर किस राज्य में किस पर चलेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है, और लोकतंत्र में ऐसी लाठीबाजी को बढ़ावा देना भी ठीक नहीं है। हर जगह सत्ता को नापसंद कई अलग अलग सर हो सकते हैं जो कि इस डंडे से तोड़े जा सकते हैं।
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भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हमेशा कुछ बवाल खड़ा करता है। अभी ऐसे मैच के स्टेडियम से एक पाकिस्तानी खिलाड़ी की फोटो आई है जिसने पाकिस्तानी टीम की जर्सी पहनी हुई है, और उस पर धोनी का नाम लिखा हुआ है। जाहिर है कि वह धोनी का फैन है, और अपनी पसंद जाहिर कर रहा है। अब तक उसके खिलाफ किसी जुर्म दर्ज होने, या उसकी गिरफ्तारी की बात सामने नहीं आई है, लेकिन पाकिस्तान में भी ऐसा हो सकता है। हिंदुस्तान में तो ऐसे हर मैच के बाद में दो चार जगहों पर कहीं पटाखे फूटते हैं तो कहीं कोई खुशी मनाते हैं तो उसके बाद उनके खिलाफ जुर्म दर्ज होता है। अभी उत्तर प्रदेश में आगरा में कुछ कश्मीरी छात्रों ने भारत-पाकिस्तान मैच के बाद खुशी मनाई तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनके खिलाफ राजद्रोह के आरोप में जुर्म दर्ज किया जाएगा। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज दीपक गुप्ता ने एक इंटरव्यू में दिलचस्प बातें कही हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारतीय टीम को हराने के बाद पाकिस्तानी टीम की जीत का जश्न निश्चित रूप से राजद्रोह का अपराध नहीं है। उन्होंने कहा यह सोचना भी हास्यास्पद है कि यह राजद्रोह के बराबर है। ऐसी खुशी मनाने वालों पर आरोप लगाने के लिए कुछ दूसरी धाराएं हैं, और राजद्रोह के आरोप अदालत में टिक नहीं पाएंगे, इससे समय और जनता का पैसा दोनों बर्बाद होगा। उन्होंने यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं है कि हर कानूनी काम अच्छा और नैतिक हो या सभी अनैतिक और बुरे काम गैरकानूनी हों। उन्होंने इस बात पर राहत जाहिर की कि हिंदुस्तान कानून के शासन से चल रहा है, न कि नैतिकता के नियम से. वे बोले-समाज के अलग-अलग धर्मों, और अलग-अलग समय में नैतिकता के अलग-अलग मतलब होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज का यह कहना मायने इसलिए रखता है कि उन्होंने पहले भी कई बार सार्वजनिक रूप से भारत के राजद्रोह कानून की व्याख्या की है और उन्होंने यह भी कहा है कि अब समय आ गया है कि राजद्रोह की धारा की संवैधानिकता को दी गई चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट को कदम उठाना चाहिए, और साफ साफ शब्दों में कहना चाहिए कि यह कानून वैध है, या अवैध है, और इसकी सीमाएं क्या हैं जो इसे इतना कड़ा बनाती हैं। उन्होंने कहा कि यह अंग्रेजों के समय का बनाया गया कानून है जिसे खत्म किया जाना चाहिए। इस मौके पर यह याद रखने की जरूरत है कि भारत के आज के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा ने भी राजद्रोह के कानून के इस प्रावधान को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजी राज के दौरान पेश किया गया कानून आज के संदर्भ में आवश्यक नहीं हो सकता। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक चुनौती सुनी भी जा रही है।
हिंदुस्तान में ना केवल केंद्र सरकार बल्कि राज्य सरकारें भी असहमति को दबाने के लिए बार-बार राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल करती हैं। किसी सरकार से असहमति लोकतंत्र में एक आम बात रहनी चाहिए, और इससे लोकतंत्र के साथ-साथ सरकार को भी संभलने का और विकसित होने का मौका मिलता है। लेकिन हकीकत यह है कि अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियों की बहुत सी सरकारों ने राजद्रोह के कानून का बेजा इस्तेमाल किया है. जिस तरह आपातकाल के दौरान इंदिरा इज इंडिया का नारा लगाया गया था, उसी तरह आज कहीं कोई मोदी को हिंदुस्तान मान लेते हैं, तो कहीं किसी राज्य में किसी मुख्यमंत्री को ही राज्य मान लेते हैं, और उनकी आलोचना पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हो जाते हैं। जैसा कि जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा है ऐसे मामले अदालत में टिकते नहीं है लेकिन राजद्रोह के मामले में क्योंकि जमानत मिलने में दिक्कत होती है इसलिए जमानत होने तक की जेल को सत्ता एक सजा की तरह लोगों को दिखा देती है, ताकि बाकी लोगों की असहमति उनकी जुबान पर न आ सके, या उनकी कलम से न निकल सके। सरकारों का राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल ऐसा अंधाधुंध है कि जिस पर चाहे उस पर यह कानून लगाकर उसे जेल में डाल दिया जाता है। लेकिन जब अदालतें इस कानून के इस्तेमाल को गलत पाती हैं, और लोगों को महीनों बाद या बरसों बाद जेल से छूटने का मौका मिलता है, तो उस वक्त अदालतें सरकारों पर जुर्माना और हर्जाना नहीं लगाती हैं कि जिसकी जिंदगी का इतना वक्त जेल में गया है, उसे सरकार हर्जाना दे, और इस बात को अदालतें अफसरों के रिकॉर्ड में दर्ज भी नहीं करवाती हैं कि उन्होंने बदनीयत से ऐसे मामले दर्ज किए थे, फिर चाहे वे उन्हें हांकने वाले नेताओं के दबाव में ही क्यों ना दर्ज किए गए हो।
हिंदुस्तान में लोकतंत्र की समझ लगातार कमजोर होते चल रही है, और ऐसी कमजोर समझ के देश में लोगों को आसानी से इस बात पर से सहमत कराया जा सकता है कि सत्ता से असहमति देश से असहमति है, या किसी सत्तारूढ़ नेता से असहमति देश के खिलाफ बगावत है। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है और सुप्रीम कोर्ट को बिना देर किए हुए इस मामले की सुनवाई करके राजद्रोह के इस कानून को, या इसकी अधिक बेजा इस्तेमाल हो रही धाराओं को खत्म करना चाहिए। कहने के लिए तो केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में लगातार कहा है कि उसने गैरजरूरी हो चुके कानूनों को खत्म करने का अभियान छेड़ा हुआ है, और ऐसे सैकड़ों कानून खत्म किए गए हैं, लेकिन आज इस राजद्रोह कानून का सबसे अधिक बेजा इस्तेमाल अदालतों में जाकर साबित भी हो रहा है, इस कानून को, राजद्रोह कानून की धाराओं को खत्म किया जाना चाहिए। यह अदालती फैसला आने के पहले भी लोगों को सजा देने की नीयत से, कैद में रखने की नीयत से इस्तेमाल किया जा रहा है, यह लोकतंत्र के ठीक खिलाफ है, इनसे लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, और सुप्रीम कोर्ट को इसे प्राथमिकता के साथ सुनना चाहिए, और जो सरकारें, जो अफसर इसका बेजा इस्तेमाल करते हुए मिलते हैं, उनके रिकॉर्ड में ऐसे काम दर्ज भी होने चाहिए।
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केंद्र सरकार के बारे में एक खबर यह आई है कि वह लालफीताशाही और नौकरशाही को घटाने के लिए केंद्र के सचिवालय और मंत्रालय में कोई ऐसी प्रक्रिया लागू कर रही है, जिससे एक फाइल चार अफसरों से अधिक के हाथों तक ना जाए। आज देशभर में अलग-अलग सरकारों में, अलग-अलग सरकारी दफ्तरों में हालत यह रहती है कि एक-एक फाइल बहुत से कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच घूमते रहती है, और जिनका सरकार से वास्ता पड़ता है वे हिंदी के एक बड़े तकलीफदेह सीरियल, ऑफिस-ऑफिस की तरह तकलीफ पाते रहते हैं। अभी इस खबर से हमें केंद्र सरकार के कामकाज में क्या फर्क पड़ेगा यह तो समझ नहीं आ रहा, लेकिन सरकारी दफ्तरों से जिनका वास्ता पड़ता है वे जानते हैं कि वहां बैठे हुए लोगों की दिलचस्पी कागजों को अधिक से अधिक लटकाने और घुमाने में रहती है ताकि थके-हारे लोग खुद होकर रिश्वत की बात करें ताकि काम जल्दी निपट जाए। पर जब लोग इस इशारे को भी नहीं समझते हैं, तो सरकारी अमला खुलकर उन्हें बतलाता है कि इस कागज पर जब तक कुछ नहीं रखोगे, वह उड़ जाएगा, इसलिए कागज पर कुछ रखो। और इस वसूली के चक्कर में सरकारी अमला इतने गैरजरूरी कागजों को मांगता है कि जिन्हें जुटाने में लोग थक जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने रिटायर हुए मुख्य सचिव अरुण कुमार के पीछे लग जाने पर मजबूरी में उन्हें एक काम दिया था, और अपनी पूरी नौकरी काम न करने के लिए जाने जाने वाले अरुण कुमार को उन्होंने प्रशासनिक सुधार कमेटी का चेयरमैन बना दिया था, ताकि 1 बरस उनकी सहूलियतें जारी रहें। आसपास में काम करने वाले लोगों का अरुण कुमार का तजुर्बा यह था कि उनके चेंबर में फाइलें जाती थीं। लेकिन वहां से वापस नहीं आती थीं। ऐसे व्यक्ति को प्रशासनिक सुधार का जिम्मा देकर सरकार ने उससे साल भर के लिए पीछा तो छुड़ा लिया था, लेकिन उससे न कुछ और होना था, और न हुआ। पूरे देश की सरकारों को और दूसरे सरकारी संगठनों, संस्थाओं के दफ्तरों को अपने कामकाज को घटाने की जरूरत है, लेकिन सवाल यह है कि रिश्वत की संभावनाओं को घटाने की यह सलाह दे कौन, और उसे माने कौन?
दुनिया के विकसित और परिपक्व लोकतंत्रों में सरकारों के कागजात देखें, तो उन में लिखा रहता है कि किसी फार्म को भरने में अमूमन कितना वक्त लगेगा। हिंदुस्तान से अमेरिका जाने वाले लोग जब वीजा फार्म भरते हैं, तो उसमें वहां की सरकार ने कोशिश करके कम से कम जानकारी मांगने का काम किया है। ऐसा सभ्य लोकतंत्रों में सभी सरकारी कागजात में होता है। हिंदुस्तान में इसके ठीक उल्टे लोगों को हर सरकारी अर्जी के साथ इतने किस्म के कागज लगाने पड़ते हैं, जो कि उसी सरकारी दफ्तर में पहले से जमा रहते हैं, या उसी सरकारी दफ्तर के जारी किए हुए रहते हैं। किसी विश्वविद्यालय में परीक्षा की अर्जी भरने पर उसी विश्वविद्यालय की पुरानी अंक सूचियों को लगाना पड़ता है जो कि उसी विश्वविद्यालय में जमा हैं, वहीं से बनाई हुई हैं। अब तो तमाम काम का कंप्यूटरीकरण हुए बरसों गुजर चुके हैं, लेकिन अपने चंगुल में फंसे हुए किसी इंसान से अधिक से अधिक कागजात नहीं छोडऩे की सरकारी दफ्तरों की हवस खत्म नहीं होती है।
हिंदुस्तान के दफ्तरों को चाहिए कि अपने हर फार्म में यह देखें कि कौन-कौन सी जानकारी मांगना गैरजरूरी है, कौन-कौन से कागजात मांगना गैरजरूरी है। इसके अलावा अभी केंद्र सरकार जो पहल करते दिख रही है, वैसी पहल भी राज्य सरकारों में और स्थानीय संस्थाओं के दफ्तरों में जरूरी है कि फाइल कम से कम टेबिलों पर जाए, और जल्द से जल्द उसका निपटारा हो। इसके लिए जरूरी हो तो हर फाइल की स्थिति विभागों की वेबसाइट पर चलनी चाहिए ताकि लोगों को घर बैठे पता लग सके और खुद सरकार भी जांच सके कि कौन सी फाइल किस टेबल पर कितने दिन रही। ऐसा नहीं कि सरकार में सारे के सारे लोग खराब रहते हैं, बहुत से ईमानदार, और बहुत से भ्रष्ट लोग, ऐसे रहते हैं जो कि हर शाम ऑफिस छोडऩे के पहले टेबल खाली करके जाते हैं। ऐसे लोग काम को तेजी से निपटाते हैं फिर भले उसके पीछे उनकी कमाई की नीयत हो या ईमानदारी से काम करने की नीयत हो। देर से होने वाले काम से वसूली-उगाही का खतरा तो रहता ही है, देश की उत्पादकता का भी बड़ा नुकसान होता है। लोगों को सरकारी दफ्तरों के बार-बार चक्कर लगाने पड़ते हैं और कुल मिलाकर उन दफ्तरों में काम करवाने वाले दलालों के मार्फत काम करवाना पड़ता है। ऐसा करते हुए बहुत से लोगों के सामने यह दिक्कत भी सामने आती है कि वे जब दफ्तर पहुंचते हैं संबंधित अधिकारी या कर्मचारी छुट्टी पर, या गैरमौजूद मिलते हैं। होना यह चाहिए कि विभागीय वेबसाइट पर हर अधिकारी और कर्मचारी की छुट्टी दिख जानी चाहिए, या वे दौरे पर हैं, या पूरे दिन किसी बैठक में हैं, तो वह भी दिख जाना चाहिए ताकि लोगों का वक्त खराब ना हो। और क्योंकि यह बात मामला सरकारी कामकाज से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसमें लोगों की निजी जिंदगी का कोई राज भी उजागर नहीं हो रहा है। अफसर और कर्मचारी किस-किस दिन दफ्तर में नहीं रहेंगे, यह जानकारी सार्वजनिक रूप से उजागर होनी चाहिए।
हिंदुस्तान में जब से सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ है तबसे फाइलों का रहस्य थोड़ा सा घटा है, फिर भी यह आम लोगों के बस का नहीं रह गया कि वे अपने से संबंधित हर फाइल की कॉपी आरटीआई के तहत हासिल कर सकें, और फिर अपना काम तेजी से करवा सकें। लोग फाइल ले भी लेते हैं, तो भी उनका काम रफ्तार से नहीं हो सकता क्योंकि सरकार का ढांचा काम को रोकने के हिसाब से बनाया गया है, काम को करने के हिसाब से नहीं। सरकारी अमला अपनी जिम्मेदारियों की बात ही नहीं करता, अपने अधिकारों की बात करता है, उन्हें यह मालूम है कि वे कितने दिन तक कागज को रोक सकते हैं, क्या अड़ंगा लगाकर वापस भेज सकते हैं, और कौन-कौन सी दूसरी गैरजरूरी चीजों को मांग सकते हैं।
छत्तीसगढ़ का हमारा तजुर्बा यह कहता है कि यहां जब कभी प्रशासनिक सुधार के बारे में कोई बात तो हुई है, तो वह नारे की तरह अधिक हुई है, लेकिन हकीकत में जमीनी स्तर पर लोगों की परेशानी घटाने की कोई कोशिश नहीं हुई। सरकार को अपने अफसरों से प्रशासनिक सुधार का प्रयोग बंद करना चाहिए। इसके लिए तो आम जनता के बीच के लोगों को लेकर उनसे सलाह लेनी चाहिए कि कौन-कौन सी जानकारी गैरजरूरी है, और कौन-कौन सी प्रक्रिया वक्त बर्बाद करती है। सरकारें अगर यह सोचती हैं कि आम जनता का वक्त बर्बाद करने में कोई हर्ज नहीं है, तो यह भी समझ लेना चाहिए कि इससे राष्ट्रीय उत्पादकता भी प्रभावित होती है और जनता का सरकार में भरोसा तो खत्म होता ही है। यह भी एक बड़ी वजह रहती है कि एक कार्यकाल पूरा करने के बाद कोई-कोई सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव हार जाती है क्योंकि लोगों के मन में उसके कामकाज के खिलाफ एक नाराजगी बैठी रहती है। इसलिए न केवल जनता की तरफ से ऐसी मांग उठनी चाहिए, बल्कि सत्तारूढ़ पार्टी को भी अपने खुद के भले के लिए ऐसी कोशिश करनी चाहिए जिससे अगले चुनाव के वक्त एंटी इनकंबेंसी कही जाने वाली नौबत ना आए, और लोग सरकार से नाराज होकर सत्तारूढ़ पार्टी को पूरी तरह ख़ारिज न कर दें।
दुनिया में जो लोग पिछले डेढ़ बरस में जगह-जगह हुए लॉकडाउन और वर्क फ्रॉम होम से अब तक पूरी तरह उबर नहीं पाए हैं, उनके लिए आने वाला वक्त कुछ और चीजें लेकर आने वाला है। एक नई जुबान खबरों में सामने आ रही है, जिसमें वर्चुअल-रियलिटी विजन (मेटावर्स) का इस्तेमाल हो रहा है। और इसी को ध्यान में रखकर दुनिया में ईश्वर की तरह ताकतवर हो चुकी कंपनी फेसबुक ने अपना नाम बदलकर मेटा कर लिया है। अब यह समझना थोड़ा सा मुश्किल भी हो सकता है कि मेटावर्स से क्या होगा। तो इस बारे में फेसबुक सहित दूसरी कुछ कंपनियां मिलकर जो एक नया आभासी वातावरण, वर्चुअल एनवायरमेंट बना रही हैं, उसे समझने की जरूरत है। अभी लोगों ने इंटरनेट पर कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हुए दो लोगों के बीच तरह-तरह की ऑडियोवीजुअल बैठकें की हैं, और इसके साथ-साथ तरह-तरह की कॉन्फ्रेंस भी की हैं। लेकिन अब मेटावर्स के बारे में कहा जा रहा है कि इसे कुछ खास किस्म के हेडसेट लगाकर ऐसा महसूस किया जा सकेगा कि लोग इस आभासी दुनिया के भीतर चल-फिर रहे हैं, उठ-बैठ रहे हैं, वहां दूसरे लोगों से मिल रहे हैं, वहां काम कर रहे हैं, वहां खरीदारी कर रहे हैं, और घर के भीतर भी ऐसे हेड सेट लगाकर लोग दफ्तर की तरह काम कर सकेंगे, या घर में बैठे-बैठे ही दुनिया की दूसरी जगहों की सैर कर सकेंगे। यह कंप्यूटर स्क्रीन पर चलने वाली बैठकों से बहुत ही अलग किस्म का अनुभव होगा और लोग ऐसा महसूस करेंगे कि वे सचमुच इस दुनिया के दूसरे हिस्सों में जाकर वहां लोगों से मिल रहे हैं, सब कुछ देख रहे हैं, और कई किस्मों के काम कर रहे हैं। यह शायद किसी 3-डी फिल्म देखने की तरह होगा, जिसमें देखने वाले उसके भीतर जाकर उसे जी भी सकेंगे।
अब यह समझने की जरूरत है कि हाल के वर्षों में लोग अपनी असल जिंदगी के मुकाबले ऑनलाइन जिंदगी में जिस तरह उलझे हैं, और जिस तरह की संभावनाओं और आशंकाओं के बीच में अपनी ऑनलाइन मौजूदगी बढ़ाते चल रहे हैं, उस तरह अब अगर वे ऑनलाइन के आभासी वातावरण में जाकर वहां रह सकेंगे, बस सकेंगे, काम कर सकेंगे, वहीं लोगों से मिलजुल सकेंगे, सैर सपाटा कर सकेंगे, तो क्या होगा? उससे असल जिंदगी पर कैसा असर पड़ेगा? आज के मौजूदा रिश्ते पर कैसा असर पड़ेगा? ऐसी बहुत सी बातें टेक्नोलॉजी से परे लोगों के निजी मनोविज्ञान और समाज विज्ञान के नजरिए से देखने और समझने की रहेंगी। जब असल जिंदगी और आभासी जिंदगी के बीच के फासले को इस तरह घटाया जा रहा है, और जब लोगों को आभासी जिंदगी में और अधिक जीने की सहूलियत मुहैया कराई जा रही है जहां पर लोग असल जिंदगी की दिक्कतों से दूर वक्त गुजार सकेंगे, और कामकाज कर सकेंगे, तो फिर यह देखना होगा कि ऐसी आभासी जिंदगी के बढ़ते चलने से उनकी असल जिंदगी पर कैसा असर पड़ेगा? आभासी दुनिया के रिश्तों का असल दुनिया के रिश्तों पर क्या असर पड़ेगा? और यह अंदाज लगाना अभी आसान इसलिए नहीं होगा कि अभी तो इस आने वाली, आभासी दुनिया, मेटावर्स की संभावनाओं और उसकी दखल के बारे में भी लोगों की कल्पनाएं काम नहीं कर रही हैं। लोगों को अभी यह पता नहीं लग रहा है कि ऐसी आभासी दुनिया या ऐसे आभासी वातावरण में क्या-क्या किया जा सकेगा। लेकिन चूंकि दुनिया की बहुत सी कंपनियां, बहुत से विश्वविद्यालय, बहुत से वैज्ञानिक संस्थान इस मेटावर्स पर काम कर रहे हैं, और जैसा कि फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने कहा, यह इतनी बड़ी सोच है कि फेसबुक जैसी कंपनी भी इसे अकेले पूरा नहीं कर सकती थी, इसलिए वह बाकी संस्थानों और कंपनियों के साथ इस प्रोजेक्ट में भागीदार बनी है। इसलिए आज किसी को इस सोच की विकरालता का कोई अंदाज नहीं है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि 10-15 बरस पहले किसी को फेसबुक की इन संभावनाओं का अंदाज नहीं था, या कि व्हाट्सएप के बारे में किसी ने सोचा नहीं था कि वह जिंदगी को इस तरह बदल देगा।
इंसानी मनोविज्ञान के जानकार लोगों, और समाज विज्ञान के जानकार लोगों के लिए यह एक बड़ी चुनौती का समय है कि वे ऐसे मेटावर्स के बारे में कल्पना करें और उससे इंसानों की जिंदगी में पढऩे वाले फर्क के बारे में सोचें। यह सोचना जरूरी इसलिए भी है कि जिस दिन बाजार इस नए औजार को हथियार की तरह इस्तेमाल करके इंसानों की मौजूदा जिंदगी को तहस-नहस करने, और उसे दुहने पर आमादा हो जाएगा, उस दिन लोगों के पास संभलने का वक्त भी नहीं होगा। यह भी सोचने की जरूरत है कि टेक्नोलॉजी और बाजार मिलकर आज के मौजूदा बाजार और रोजगार को किस तरह खत्म या प्रभावित कर सकते हैं। यह सोचना भी आसान नहीं है, और दूसरी बात यह कि मेटावर्स से जुड़ी हुई कुछ कंपनियों को छोडक़र बाकी बाजार पर इस आभासी वातावरण का क्या असर होगा, इसे भी बाकी कारोबार को सोचना चाहिए। इससे हो सकता है कि बहुत से कारोबार खत्म होने की नौबत आ जाए, बहुत से रोजगार पूरी तरह खत्म ही हो जाएं। यह भी हो सकता है कि इससे कारोबार और रोजगार का एक नया आसमान खुल जाए। कुल मिलाकर इस दुनिया के भीतर एक नई आभासी दुनिया बन जाने से हालात में जो भूचाल आएगा, उसे समझने का काम शुरू किया जाना चाहिए, और उसके हिसाब से लोगों को तैयारी भी करनी चाहिए। फिलहाल तो हम इतना ही सुझा सकते हैं कि तमाम लोगों को, जो पढऩा-लिखना जानते हैं, उन्हें इस विषय पर आने वाली हर नई जानकारी को जरूर पढऩा चाहिए क्योंकि इससे उनकी जिंदगी बहुत जल्द ही बदलने जा रही है। ऐसे बदलाव के लिए उन्हें दिमागी रूप से तैयार रहना चाहिए। आगे-आगे देखिए होता है क्या।
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एक जाने-माने शायर अदम गोंडवी के गुजरने से भी उनकी मौत नहीं हुई। अपनी लिखी बातों को लेकर वे हिंदुस्तान के बहुत तकलीफजदा लोगों की आवाज बनकर हमेशा बने रहेंगे। उनकी गज़लें और उनके शेर किसी दूसरे शायर से अलग, पूरी तरह लोगों के दुख-दर्द से उपजे हैं और दो-दो लाइनों में तकलीफ को इस कदर साफ-साफ बयां करना हमारे लिए भी आसान नहीं है। कमोबेश इसी किस्म की बातें हम आए दिन इस कॉलम में लिखते हैं और आज हमें यह लग रहा है कि हम एक दिन में इतनी जगह में इतनी बातें और किस तरह कह सकते हैं, बजाय अदम गोंडवी को यह जगह दे देने के। हम उनकी बातों से पूरी तरह सहमत हैं और जुड़े हुए हैं, इसलिए आज का संपादकीय उन्हीं का लिखा हुआ है।
सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आंकिये
असली हिंदुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
सत्ताधारी लड़ पड़े है आज कुत्तों की तरह
सूखी रोटी देखकर हम मुफ्लिसों के हाथ में!
जो मिटा पाया न अब तक भूख के अवसाद को
दफन कर दो आज उस मफ्लूज पूंजीवाद को।
बूढ़ा बरगद साक्षी है गांव की चौपाल पर
रमसुदी की झोपड़ी भी ढह गई चौपाल में।
जिस शहर के मुन्तजिम अंधे हों जलवामाह के
उस शहर में रोशनी की बात बेबुनियाद है।
जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
रोशनी वो गांव तक पहुंचेगी कितने साल में।
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आजादी का वो जश्न मनाएं तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
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घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।।
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी।
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है।।
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में।
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है।।
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसास वो कैसे।
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।।
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ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
जि़न्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
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ज़ुल्फ़-अंगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
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जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये वन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
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तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है
लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
——
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे
——
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
——
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
——
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्ऩ है जो बात, अब उस बात को मत छेडि़ए
गऱ ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालात को मत छेडि़ए
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेडिय़े
छेडिय़े इक जंग, मिल-जुल कर गऱीबी के खिलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडि़ए
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