संपादकीय
इन दिनों बाकी दुनिया के साथ-साथ, शायद बाकी दुनिया से अधिक, हिन्दुस्तान का मीडिया एक पल-पल मीडिया बन गया है। एक झलक, एक सुर्खी, एक शब्द आगे रहने के लिए लोगों में गलाकाट मुकाबला हो रहा है। आज कोरोना के फैलाव से बचने के लिए लोगों पर जिस तरह की जिम्मेदारी है, उसे तोड़ते हुए मीडिया के लोग जिस तरह अनैतिक सीमा जाकर काम कर रहे हैं, वह भयानक है। और इसके लिए मीडिया के भीतर जिंदगी गुजार देने वाले हमारे सरीखे लोगों की भी जरूरत नहीं रह गई है, अब आम लोग भी मीडिया को जमकर गालियां देने लगे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि मीडिया को जिस सोशल मीडिया पर गालियां दी जा रही हैं उसकी अपनी विश्वसनीयता बहुत अधिक नहीं है क्योंकि वह गैरजिम्मेदार भी है, अराजक भी हैं, और वह कोई एक चेहरा नहीं है। सोशल मीडिया पर बाकी मीडिया कहे जाने वाले तबके का जितना भांडाफोड़ होता है, उसे जितना कोसा जाता है, उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं बन पाती है। ऐसे में लंबे समय से चले आ रहे एक शब्द को जिंदा करने की जरूरत है, वॉच-डॉग।
वैसे तो मीडिया को ही समाज में, समाज पर निगरानी रखने वाला कुत्ता कहा जाता था, लेकिन अब मीडिया पर नजर रखने के लिए एक थोड़े से संगठित और व्यवस्थित तरीके की जरूरत है। कहने के लिए हिन्दुस्तान में सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज की अगुवाई में प्रेस कौंसिल दशकों से बनी हुई है, लेकिन वह किसी काम की नहीं है। वहां तक कोई शिकायतें पहुंचे तो उस पर मीडिया संस्थान तो एक नोटिस जारी हो जाता है, और अगर सुनवाई के बाद लगता है कि मीडिया ने गलत किया था तो उसे चेतावनी जारी हो जाती है, उसे खंडन, स्पष्टीकरण या माफी छापने को कह दिया जाता है, जिसे कोई गंभीरता से नहीं लेते, और शायद ही कोई प्रेस कौंसिल के निर्देशों पर अपने समाचार-विचार के खिलाफ ऐसा कुछ छापते हैं।
दूसरी तरफ हाल के बरसों में आल्ट न्यूज नाम की एक वेबसाईट ने काम करना शुरू किया जो जाहिर तौर पर आल्टरनेटिव न्यूज जैसी किसी बुनियाद से शुरू हुई है, और जो खबरों में चल रहे, सोशल मीडिया में चल रहे झूठ को उजागर करने का काम करती है। धीरे-धीरे ऐसा काम कई और मीडिया संस्थान भी करने लगे हैं, जिनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो कि खुद गैरजिम्मेदारी से झूठ फैलाते हैं, लेकिन साथ-साथ अपनी साख बनाने के लिए वे इस तरह झूठ-उजागरी की बाजीगरी भी करते हैं। वे कुछ चुनिंदा खबरों के झूठ को उजागर करने के लिए जांच करते हैं, और अपने मकसद, अपनी नीयत के साथ पकड़े गए झूठ को सामने रखते हैं। इसमें भी कोई बुराई नहीं है अगर उनकी उजागरी-बाजीगरी चुनिंदा मामलों में ही हैं।
लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के संविधान में लोकतंत्र के तीन स्तंभ बनाए गए, उनमें कहीं भी अमरीकी संविधान की तरह प्रेस की जगह नहीं थी। प्रेस के किसी किस्म के मौलिक अधिकार भारतीय संविधान में नहीं है, जबकि दुनिया के कई लोकतंत्रों में उसे अलग से जगह दी गई है। लेकिन धीरे-धीरे मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने लगा, फिर एक वक्त आया कि एनजीओ काम करने लगे, और वे लोकतंत्र के न पहले तीन स्तंभों को बनाते समय सोचे गए थे, न ही चौथे स्तंभ का अस्तित्व मानते हुए सोचे गए थे। कुछ वक्त के लिए ऐसा लगा था कि वे भारतीय लोकतंत्र में पांचवां स्तंभ बन सकते हैं। लेकिन ऐसे औपचारिक लेबल की बात छोड़ दें, तो आज जरूरत एक ऐसे वैकल्पिक मीडिया की है जो कि मीडिया पर खुर्दबीनी नजर रखे, और उसके झूठ को उजागर करे, उसका भांडाफोड़ करे, उसे कसौटी पर कसे। यह इसलिए भी जरूरी है कि जब मीडिया, और खासकर आज जिस तरह का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो गया है, वह मीडिया, अपनी मनमानी पर उतर जाता है, अपनी नंगई और हिंसा पर उतर जाता है, तो फिर किसी के लिए करने का कुछ नहीं बचता। यह सिलसिला टूटना चाहिए। जो मीडिया रात-दिन लोगों के सामने गैरजरूरी सवाल खड़े करने में लगे रहता है, उस मीडिया की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए।
पहले कई देशों में मीडिया-वॉच नाम के कॉलम प्रचलित थे जो कि समाज के वॉच-डॉग पर भी नजर रखते थे। वह सिलसिला छोटे पैमाने पर अभी भी कहीं-कहीं पर चलता है, लेकिन वह इतना छोटा है कि वह कोई असर नहीं डाल पाता। दूसरी तरफ आल्ट न्यूज जैसी जो नई कोशिशें हैं, वे बुनियादी रूप से झूठ के भांडाफोड़ के लिए हैं, वे मीडिया की किसी तरह की समीक्षा के लिए नहीं है, उसकी आलोचना के लिए नहीं है। इसलिए आज यह बात बहुत जरूरी है कि मीडिया की जवाबदेही बढ़ाने के लिए अधिक संगठित कोशिशें होनी चाहिए। आज इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाईन मीडिया अपनी तकनीकी खूबियों की वजह से जब जो चाहे बदल लेते हैं, और वे अखबारी कतरनों की तरह हमेशा के लिए शर्मिंदगी बनकर खड़े नहीं रहते। यह तकनीकी खूबी कामकाज की जिम्मेदारी में एक बड़ी खामी है। और ऐसी खामी वाले मीडिया की जवाबदेही कुछ अधिक हद तक तय करना जरूरी है। यह बात हम सिर्फ टीवी या इंटरनेट के लिए नहीं लिख रहे हैं, हम इसे प्रिंट के लिए भी लिख रहे हैं कि देश के मानहानि कानून से परे, प्रेस कौंसिल जैसी कागजी संस्था से परे, मीडिया के बीच से ही ऐसी कोशिशें होनी चाहिए कि झूठ का भांडाफोड़ हो सके, बदनीयत उजागर हो सके। और यह काम फैक्ट-चेक से अधिक है, यह महज सफेद झूठ पकडऩे वाला काम नहीं है, यह अर्धसत्य को भी पकडऩे की बात है, बदनीयत को पकडऩे की बात है। ऐसी वेबसाईटें ये सवाल उठा सकें कि मीडिया के कौन-कौन से काम गलत हैं, अनैतिक हैं, अमानवीय हैं, बेईमान हैं। यह जवाबदेही अगर नहीं बढ़ेगी, तो हिन्दुस्तानी मीडिया के कम से कम एक बड़े हिस्से की साख मिट्टी में मिल चुकी है, और मिट्टी के नीचे वह कहां तक जाएगी यह आसानी से सोचा जा सकता है। इसकी बहुत छोटी सी शुरुआत कुछ वेबसाईटों ने की है, और दुनिया में जो लोग, जो कंपनियां, जो संगठन लोकतंत्र को बढ़ाना चाहते हैं, बेइंसाफी को घटाना चाहते हैं, यह उनकी भी जिम्मेदारी है कि ऐसी कोशिशों को मदद करे। आज भी हिन्दुस्तान में ऐसी शुरुआत हो चुकी है, और कुछेक मीडिया वेबसाईटों को दानदाताओं का सहयोग मिल रहा है, लेकिन वे भी मीडिया वेबसाईट ही हैं, वे मीडिया पर वॉच-डॉग की तरह काम करने का काम नहीं कर रही हैं। आज जरूरत ऐसी गंभीर और मजबूत कोशिशों की है जो कि मीडिया की साख मिट्टी से और नीचे गटर तक जाने से रोक सके, और लोकतंत्र को और अधिक नुकसान से बचाएं।
फ्रांस की सरकार ने अपने देश के इतिहास से पौन सदी पहले का एक पन्ना निकाला है, और कोरोना-महामारी से देश पर पड़े फर्क, अर्थव्यवस्था की बर्बादी से उबरने की तैयारी शुरू की है। जब फ्रांस द्वितीय विश्वयुद्ध से उबरकर आगे बढऩा चाह रहा था तब वहां 1946 में इसी तरह से पांच बरस की एक योजना बनाई गई थी जिससे जंग से तबाह देश उठकर खड़ा हो सके। वैसा ही कुछ-कुछ अभी फिर किया जा रहा है। सरकार ने सत्तारूढ़ गठबंधन के एक बड़े समर्थक को ऐसी योजना का मुखिया बनाया है। सरकार का मानना है कि 2006 में औपचारिक रूप से भंग कर दिए गए इस योजना मंडल को गैरजरूरी मान लिया गया था, और इसके पहले के 30 बरस तक कोई पंचवर्षीय योजना नहीं बनाई गई थी। लेकिन अब राष्ट्रपति ने इसे जिंदा करने के पीछे की वजह बताई है कि दीर्घकालीन शब्द के मायने एक बार फिर ढूंढने की जरूरत है। सरकार का यह संगठन कोरोना के बाद की दुनिया के मुताबिक फ्रांस के लिए नई योजना बनाएगा, और यह तय करेगा कि वर्ष 2030 में फ्रांस कहां पहुंचना चाहिए।
पंचवर्षीय योजना, दीर्घकालीन योजना, योजना आयोग, या योजना मंडल एक तमाम शब्द भारत में आज अवांछित हो चुके हैं। अब रात के 8 बजते हैं, और हिन्दुस्तान को हिला देने वाले फैसलों की मुनादी होती है जिन्हें खुद केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने पहले कभी सुना हुआ नहीं रहता। ऐसी सरकार को किसी दीर्घकालीन योजना, या किसी योजना मंडल की कोई जरूरत नहीं है। हालांकि हमारे पाठक यह बात इसी जगह पढ़ते आ रहे हैं कि तमाम सरकारों को यह तय करना चाहिए कि कोरोना के बाद की दुनिया में वे किसी तरह रहेंगे, इसके लिए योजनाएं बनानी चाहिए, इसके लिए कल्पनाशील भविष्य वैज्ञानिकों को लगाना चाहिए जो कि बदले हुए हालात, बदली हुई अर्थव्यवस्था, और नए खतरों को देखते हुए एक नई तैयारी करें।
हिन्दुस्तान में नेहरू के वक्त के बनाए हुए योजना आयोग, और उस वक्त की दीर्घकालीन योजनाओं का सिलसिला देश का एक बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण पहलू था, लेकिन वह दो चीजों में आज बेकार साबित हो रहा था। आज किसी महत्वपूर्ण गंभीरता की कोई जरूरत नहीं थी, और योजना आयोग का यह पहलू पुरातत्व का सामान मान लेना बेहतर समझा गया। दूसरा पहलू यह कि कोई गंभीर दीर्घकालीन योजना कभी लुभावनी मुनादी नहीं हो सकती, उसमें नाटकीयता नहीं होती, और इसलिए भी योजना आयोग या किसी और किस्म की दीर्घकालीन योजना घर के पीछे के कमरे में बिस्तर पर पड़े खांसते मां-बाप की तरह अवांछित बातें हो चुकी थीं। मोदी सरकार ने उनसे हाथ धो लिया। इसलिए आज देश में सिवाय मौजूदा मुसीबत के और किसी बात की चर्चा नहीं है, अगले कुछ महीनों की भी नहीं है, अगले कुछ बरसों की तो बात ही छोड़ दें। जबकि यह बात जाहिर है कि लोगों की सेहत पर जिस किस्म का खतरा कोरोना है, और आज सुबह ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सावधान किया है कि कोरोना जब कभी भी खत्म होगा, वह मुसीबतों का खात्मा नहीं होगा, और न ही वह आखिरी महामारी होगा। दूसरी तरफ दुनिया के अनेक अर्थशास्त्री यह बात लगातार कह रहे हैं कि दुनिया एक बहुत बड़ी आर्थिक मुसीबत में है, और बिना भेदभाव के इनमें से अधिकतर अर्थशास्त्री हिन्दुस्तान की हालत को दूसरे देशों के मुकाबले बहुत अधिक खराब है। यह नौबत देश के भविष्य को लेकर योजनाशास्त्रियों, भविष्यवैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और समाजवैज्ञानिकों के गंभीर विचार-विमर्श और कम से कम दस-बीस बरस लंबी योजनाओं के बारे में एक दस्तावेज तैयार करने की है। नेहरू के दस्तखत वाला योजना आयोग तो अब रद्दी में जा चुका है, मौजूदा सरकार का यह हक है कि वो जो भी नया नाम चाहे उसके इस्तेमाल करे, लेकिन ऐसे लोगों को साथ ले जो दस-बीस बरस बाद की दुनिया के बारे में सोच सकते हैं, कैलेंडर के उस बरस में हिन्दुस्तान की एक कल्पना कर सकते हैं, और एक बेहतर भारत की तैयारी कर सकते हैं। आज बेहतर शब्द बड़ा ही अटपटा है क्योंकि जहां पर हैं वहीं पर अगर रह जाएं, तो भी वह अयोध्यापुत्र राम की मेहरबानी से ही हो पाएगा।
हिन्दुस्तान में आईआईटी और आईआईएम से निकले हुए नौजवान आज दुनिया की ऐसी बड़ी-बड़ी कंपनियों के मुखिया हैं जो कि दस-बीस बरस बाद के बाजार, समाज, और दुनिया की कल्पना करके अपने कारोबार को लगातार बदल रहे हैं। ऐसे काबिल लोग हिन्दुस्तान के बाहर जाकर ही अधिक कामयाब शायद इसलिए हो पाते हैं कि वहां कारोबार में सरकार की दखल हिन्दुस्तान जितनी, और जैसी नहीं रहती है। इस देश को यह भी सोचना चाहिए कि सचमुच ही काबिल लोगों से अगले दस-बीस बरस के सफर का एक नक्शा क्यों न बनवाया जाए? काबिल और महान नेता वे नहीं होते जो कि खुद तमाम फैसले लेते हैं, काबिल और महान वे होते हैं जो जानकार लोगों को तैयारी करने देते हैं, उनकी योजनाओं को परखते हैं, अपने तजुर्बे को जोड़ते हैं, और सामूहिक फैसले से रास्ता तय करते हैं। इनमें से कई बातें आज के माहौल में बड़ी ही अटपटी लग सकती हैं, कि इनमें से तो कोई सी भी बात चुनाव जीतने में मदद नहीं कर सकती, और चुनाव में तो ऐसे लीडर की अगुवाई लगती है जो तमाम फैसले खुद, और आनन-फानन, मौके पर, और अकेले ही लेने की ताकत रखते हों। ऐसे माहौल में ऐसे नेता से भविष्य की कल्पना, योजना, और फैसलों की अनोखी ताकत को दूसरों के साथ साझा करने की कल्पना नहीं की जा सकती, और आज देश में वही हो रहा है। यह देश आज उस तस्वीर सरीखा दिख रहा है जिसमें बहुत ही तंग एक गली में दो दीवारों के बीच जाकर एक सांड फंस गया है, न वह आगे बढ़ पा रहा है, न पीछे हट पा रहा है, और उसके पास कोई विकल्प नहीं रह गया है।
लेकिन आज फ्रांस की किनारे कर दी गई ऐसी ही योजना की परंपरा को फिर से जिंदा होते देखकर यह लगा कि दुनिया में कम से कम कुछ जगहों पर ऐसा चल रहा है जैसा कि हम पिछले कुछ महीनों में इसी जगह लगातार लिखते आ रहे हैं। यह एक बहुत ही असाधारण, और अभूतपूर्व नौबत है, और ऐसे में कुछ असाधारण फैसले लेने चाहिए, जिनमें से आज सबसे अधिक जरूरत अगले दस-बीस बरस की कल्पना करके उनके लिए तैयारी करने की लग रही है।
आज देश की जो हालत है उसमें केन्द्र सरकार के हाथ कुछ रह गया दिखता नहीं है। सब कुछ बेकाबू है, अगर कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, तो वे सरकार की मेहनत के बिना बढ़ रहे हैं, या सरकार के रहने के बावजूद बढ़ रहे हैं। अगर घट रहे हैं, तो भी यही दोनों बातें लागू हो रही हैं। और तो और अब राज्यों ने भी इस नौबत में अपने हाथ खींच लिए हैं, कोरोना की जांच घटाई जा रही है, पॉजिटिव आ रहे मरीजों को उनके हाल पर, उनके घर पर छोड़ देने का काम हो रहा है। यह नौबत तो आज की मुसीबत में आज कुछ न कर पाने की है। लेकिन साल-छह महीने में जब भी, और अगर, कोरोना से निपटा जा सका, तो भी उसके बाद देशों के सामने, प्रदेशों के सामने बहुत लंबा वक्त बाकी रहेगा, हजारों या लाखों बरस की जिंदगी बाकी रहेगी, और वह वक्त हो सकता है कि इस महामारी कोरोना से भी अधिक मुसीबत का हो। लोगों को याद है कि किस तरह अमरीका में 1930 के दशक में भयानक मंदी आई थी, और हालत यह हो गई थी कि समाज का एक तबका वेश्यावृत्ति को मजबूर हो गया था। लोग सरकारी खाने के लिए कतारों में लगे रहते थे, और एक पूरी पीढ़ी तबाह हो गई थी। आज हालत उससे जरा भी बेहतर नहीं है। भारत सरकार को, प्रदेश सरकारों को भी कोरोना-मोर्चे से परे आगे की जिंदगी के बारे में सोचना चाहिए, और तैयारी करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
रेलगाडिय़ों और रेलवे स्टेशन पर भीख मांगने वाले या बीड़ी-सिगरेट पीने वाले अब जुर्माना देकर बरी हो सकेंगे। अब तक उन्हें जेल की कैद सुनाने का कानून लागू है इसे बदलने का प्रस्ताव रेल मंत्रालय ने केन्द्र सरकार को भेजा है। जिन लोगों ने हिन्दुस्तानी ट्रेनों में सफर किया है वे जानते हैं कि एक दिन अगर तमाम भीख मांगने वालों और सिगरेट-बीड़ी पीने वालों को कैद हो जाए, तो हिन्दुस्तान की तमाम जेलें कम पड़ेंगी। यह उन कानूनों में से एक है जिसका इस्तेमाल शायद भ्रष्टाचार के लिए होता होगा कि रेलवे पुलिस को रिश्वत न दें, तो इन लोगों को कैद करवाई जा सकती है। और पुलिस के ऊपर अदालत की प्रक्रिया भी कोई बहुत ईमानदार रहती हो, ऐसा तो हिन्दुस्तान में मुमकिन दिख नहीं रहा है।
अभी जब रेल मंत्रालय के इस प्रस्ताव की खबर आई, तो ही इस तरफ ध्यान गया कि ऐसा कोई कानून लागू है जिसमें इतनी कड़ी सजा हो सकती है। इसके बिना ऐसी सजा अगर किसी को होती भी है, तो भी वह खबरों तक नहीं पहुंच पाती। हिन्दुस्तान में रेलगाडिय़ों और स्टेशनों पर करोड़ों लोग भीख मांगते हैं, वहां पर गुजारा करते हैं। वहां सिर छुपाने को कोई कोना मिल जाता है जहां बारिश से बचाव हो सके, जहां ठंड के मौसम में एक आड़ मिल सके। वहां लोगों को बचा हुआ खाना मुसाफिरों से मिल जाता है, और कोई मुसाफिर खुशी का सफर करते हैं तो वे खुशी के मौके पर कुछ लोगों को भीख दे देते हैं, और कुछ लोग तकलीफ का सफर करते हैं, इलाज के लिए जाते होते हैं, तो वे भिखारियों की दुआ खरीदने के लिए उन्हें कुछ दे देते हैं। इसलिए हिन्दुस्तान में बेघरों के लिए, अनाथ बच्चों के लिए, भिखारियों के लिए रेलवे स्टेशन देश का सबसे बड़ा आसरा है।
देश में बहुत से ऐसे गैरजरूरी कानून हैं जिनको खत्म किया जाना चाहिए। केन्द्र की मोदी सरकार का यह दावा है कि उसने सैकड़ों या हजारों ऐसे गैरजरूरी कानून खत्म किए भी हैं, लेकिन जाहिर है कि अब बदले हुए वक्त में जब किसी को जेल में रखना एक राष्ट्रीय खतरा हो सकता है, तब सरकारों को और अदालतों को कैद से बचना चाहिए। ऐसे जो भी कानून लोगों को जेल भेजने वाले हैं उनके बारे में फिर से सोचना चाहिए क्योंकि लोगों को जेलों में रखना सरकार पर एक बोझ है, और हाल के महीनों में जिस तरह गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों की कमर टूटी है, उसमें किसी घर से कमाने वाले लोगों को कम करना ठीक नहीं है। कोरोना का खतरा लोगों को, सरकारों को एक मौका दे रहा है कि वे अपने पुराने ढर्रे पर चलना छोडक़र नए तौर-तरीके इस्तेमाल करें जो कि कोरोना, या ऐसी आने वाली किसी और बीमारी के वक्त अधिक खतरा न बने। जेलों में कैदियों की जिंदगी बहुत साफ-सुथरी तो हो नहीं सकती, और वहां बीमारी पनपने पर तेजी से बढऩे का खतरा रहता है। अभी अनौपचारिक चर्चाओं में पुलिस से यह पता लगता है कि छोटे-मोटे मामलों में पुलिस जिन्हें पकडक़र जेल भेजने के लिए अदालत में पेश कर रही है, उन्हें अदालतें दरियादिली से जमानत दे रही हैं ताकि जेल जाने की नौबत न आए। ऐसे में केन्द्र और राज्य सरकारों को भी यह सोचना चाहिए कि वे जेलों का बोझ अपने सिर पर और क्यों बढ़ाएं, सरकारों को सजा देने के दूसरे तरीके देखने चाहिए क्योंकि आज हिन्दुस्तान में यह बात साफ हो गई है कि किसी प्रदेश की सरकार के पास कोरोना से जूझने का मेडिकल-ढांचा बच नहीं गया है। अगर साल-छह महीने यह खतरा इसी तरह चला, इसी तरह आगे बढ़ा तो देश के कोई स्टेडियम भी नहीं बचेंगे जहां और बिस्तर लगाए जा सकें।
रेल मंत्रालय ने यह समझदारी का फैसला लिया है कि छोटी-छोटी बातों पर कैद की सजा को हटाया जाए। लेकिन आज महामारी के तजुर्बे के बाद देश-प्रदेश की हर सरकार को तुरंत ही यह सोचना चाहिए कि वे सरकारी दफ्तरों का कामकाज कैसे घटा सकते हैं, कैसे कागज कम मांगे जाएं, कैसे कागजों पर जानकारी कम मांगी जाए, कैसे इलेक्ट्रॉनिक और ऑनलाईन काम बढ़ सके। आज हालत यह है कि हम अपने आसपास सरकारी अमले को बड़ी संख्या में कोरोना का शिकार होते देख रहे हैं। आज जब निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के सामने घरों में सुरक्षित बैठने का विकल्प हासिल है, तब सरकारी अमला बड़े अफसरों या नेताओं के हुक्म मानकर काम पर जाने को बेबस है। स्वास्थ्य विभाग, पुलिस, सफाई विभाग, स्टेशन और एयरपोर्ट जैसी जगहों पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों का कोई बचाव नहीं है, उन्हें तो काम पर जाना ही है। ऐसे में हर जगह किसी सामान को छूना, किसी कागज का लेन-देन, कहीं कुर्सी पर जाकर बैठना, कतार में लगना, इन सबको कम से कम करना चाहिए। रेलवे की जिस बात से हमने आज यहां लिखना शुरू किया है, सरकारी सावधानी की यह बात उससे सीधी जुड़ी हुई नहीं दिखेगी, और एक ही जगह इन दो मुद्दों पर लिखना कुछ अटपटा भी लगेगा, लेकिन इन दोनों से एक ही किस्म की नौबत बढ़ती है, और उसे घटाने के लिए ऐसे अलग-अलग दर्जनों तरीके इस्तेमाल करने पड़ सकते हैं। सरकार को, कारोबार, और परिवार को सबको अलग-अलग, और मिलकर भी यह सोचना होगा कि किस तरह महामारी के खतरे को कम किया जाए क्योंकि अभी इसके खत्म होने की कल्पना ही की जा रही है, और इसका टीका विकसित हो जाने का एक अतिमहत्वाकांक्षी अनुमान ही लगाया जा रहा है। न तो इस बीमारी के घटने की कोई गारंटी है, न ही टीका समय पर आने, या उसके सब लोगों को मिल जाने, या उसके असरदार हो जाने का कोई ठिकाना अभी दिख रहा है। इसलिए तमाम तबकों को अपने तौर-तरीकों को ही सुधारना होगा ताकि इस खतरे को बढऩे से रोका जा सके। आज हिन्दुस्तान भर में अस्पतालों के बिस्तर खत्म हो जाने पर कोरोना-पॉजिटिव, लेकिन बिना लक्षण वाले लोगों को घरों में ही रहने की छूट दी जा रही है। यह अच्छी नौबत नहीं है, और इससे यह खतरा छलांग लगाकर आगे बढ़ सकता है, इसलिए बचाव में ही इलाज है, और कोई इलाज नहीं है ऐसा मानना बेहतर होगा। जिस तरह रेलवे कोरोना को देखते हुए, या किसी और वजह से भी जेलों पर दबाव घटाने जा रही है, उसी तरह सरकारी दफ्तरों से, सार्वजनिक जगहों से बोझ घटाने की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ से जाकर आईएएस होते हुए उत्तरप्रदेश के महत्वपूर्ण रायबरेली जिले के कलेक्टर के बारे में खबर आई है कि उन्होंने भरी बैठक में जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को गधा कहा, और जमीन में गड़वा देने को कहा। जब इसकी शिकायत चिकित्सा अधिकारियों के संघ को की गई और मीडिया ने कलेक्टर से पूछा तो उन्होंने कहा कि सीएमओ काम में शिथिलता बरत रहे थे, इसलिए उन्हें गुस्सा आया और उन्होंने कहा कि खाल खींचकर भूसा भरा दूंगा, लेकिन कोई गाली नहीं दी। आज ही छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव की एक खबर है कि वहां लोग ऐसे श्मशान बनाने का विरोध कर रहे थे जहां कोरोना-मृतकों के शव जलाए जाते, तो नगर निगम आयुक्त ने सरपंच से कहा- तेरे को सरपंच किसने बनाया, तू कहां से सरपंच बना, इसे अंदर करो, इसको उल्टा लटकाओ।
अफसरों में भी जो प्रशासनिक या पुलिस अफसर होते हैं, उनमें से बहुतों का ऐसा बर्ताव आम बात है। खासकर जो लोग कलेक्टर या एसपी से लेकर थानेदार-तहसीलदार तक की कुर्सियों पर काबिज रहते हैं, उनके दिमाग को गर्मी कुर्सी की गद्दी से मिलती है, और बदसलूकी उस कुर्सी का एक बुनियादी हक सरीखा मान लिया जाता है। देश में जगह-जगह अफसरों की ऐसी बदतमीजी सामने आती है, और कई जगहों पर लाठी भांजने वाली पुलिस के अलावा प्रशासनिक अधिकारी भी खुद लाठी लेकर लोगों पर टूट पड़ते हैं। जगह-जगह ऐसी अफसरी-हिंसा के वीडियो बनते हैं, लेकिन उन पर होता कुछ नहीं। जब सरकार के बड़े लोग बंद कमरे में बैठते हैं, तो यही बात उठती है कि कोई कार्रवाई करने से अधिकारियों का मनोबल टूटेगा, और राजनीतिक ताकतें हिचक जाती हैं क्योंकि उन्हें भी अपने तमाम गलत काम उन्हीं अफसरों से करवाने होते हैं, वे भ्रष्टाचार में निर्वाचित नेताओं के भागीदार रहते हैं, और एक गिरोह के दो लोग भला एक-दूसरे के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों चाहेंगे?
हिन्दुस्तान के लोकतंत्र में अफसरी मिजाज अभी तक आजाद भारत की जमीन पर पांव नहीं रख पाया है। अब तक अफसर अपने को अंग्रेज सरकार के एजेंट के रूप में ही देखते हैं, और मानते हैं कि वे संविधान से ऊपर हैं जो कि आजादी के कई बरस बाद लागू हुआ था। भारत में अखिल भारतीय स्तर की अधिकतर नौकरियों का मिजाज अंग्रेज सरकार के लिए काम करने का है। और तो और आईएएस और आईपीएस एसोसिएशन देश भर के अपने सदस्यों की मनमानी के खिलाफ कभी मुंह भी नहीं खोलते। अब रायबरेली कलेक्टर ने अपने कहे के बारे में जितना मंजूर किया है, क्या उस पर एसोसिएशन को कुछ कहना नहीं चाहिए? अपने मातहत अफसर की खाल खींचकर भूसा भरवा देने की बात क्या आईएएस एसोसिएशन का गौरव बढ़ाती है? दिक्कत यह है कि देश के बाकी सभी कर्मचारी संगठनों या दूसरे किस्म के संगठनों की तरह ही आईएएस और आईपीएस एसोसिएशन अपने सदस्यों की कामयाबी, मौलिक सूझ-बूझ की तारीफ के मंच बनकर रह गए हैं, और किसी की बुरी हरकतों, उनके जुर्म के बारे में ये कुछ भी नहीं कहते। अपने वर्गहित को सम्हालकर रखने के लिए देश के सबसे बड़े अफसरों के ऐसे संगठन उनके कुकर्मों को अनदेखा करते हैं।
लेकिन एक बात हम पहले भी लिखते आए हैं कि आज का वक्त हर मोबाइल फोन पर रिकॉर्डिंग करने का है। लोगों को इस सहूलियत का फायदा उठाना चाहिए, और उनके सीनियर, या उनके जूनियर सरकारी कामकाज के सिलसिले में, या सरकारी कामकाज से परे उनसे कोई भी नाजायज बात अगर करते हैं, तो उसकी रिकॉर्डिंग करनी चाहिए, उसे सुबूत की तरह सम्हालकर रखना चाहिए, और उसे शिकायत में इस्तेमाल करना चाहिए। जिन लोगों का सरकारी अफसरों के साथ उठना-बैठना रहता है वे तो आए दिन इस तरह की बदसलूकी देखते रहते हैं। अगर मातहत कर्मचारी या अधिकारी इन बातों की रिकॉर्डिंग करेंगे, तो हमारी कानून की बहुत सहज समझ के आधार पर हम कह सकते हैं कि उसमें कुछ भी गैरकानूनी नहीं होगा। इससे यह जरूर होगा कि जब 10-20 अफसरों पर, या मंत्रियों पर, दूसरे नेताओं पर कोई कार्रवाई होगी, तो उसके झटके से बाकी बहुत से लोग सुधर जाएंगे। लोगों को अपनी निजी दिक्कतों को लेकर भी ऐसा हौसला दिखाना चाहिए, और सरकार में सुधार लाने के लिए इसे एक सामूहिक जिम्मेदारी मानकर भी लोगों को ऐसा करना चाहिए। मंझले दर्जे के अफसरों, और छोटे कर्मचारियों को बड़े लोगों से कई किस्म की बदसलूकी झेलनी पड़ती है, ऐसे अफसरों और कर्मचारियों के संगठनों को अपने लोगों की सुरक्षा के लिए उन्हें तरह-तरह की रिकॉर्डिंग सिखानी चाहिए ताकि वे गलत काम करने वाले नेताओं-अफसरों के स्टिंग ऑपरेशन कर सकें, उनके बदसलूकी रिकॉर्ड कर सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में इन दिनों हकीकत देखनी हो तो कार्टून देखें और अखबारों में खबरें पढ़ें, और फसाने देखने हों तो टीवी चैनलों पर खबरें देखें, और सोशल मीडिया पर फुलटाईम नौकरी की तरह काम करने वाली ट्रोल आर्मी की पोस्ट देखें। कुछ महीनों से यह लतीफा चल रहा था कि अलग-अलग किस चैनल को देखने से देश की कैसी तस्वीर दिखती है, कौन से अखबार को पढऩे से देश का क्या हाल दिखता है, लेकिन अब यह लतीफा एक हकीकत बन गया है कि देश को किस तरह के चश्मे से देखने पर क्या दिखेगा? कुछ लोगों को ऐसे किसी एक चश्मे से देश की जीडीपी दिख रही है, चीनी सरहद पर खतरा दिख रहा है, बेरोजगारी के भयानक आंकड़े दिख रहे हैं, लॉकडाऊन के बाद बढ़ी हुई खुदकुशी दिख रही है, दूसरा चश्मा ऐसा है जो पिछले दो-तीन महीनों से मुम्बई के एक अभिनेता की खुदकुशी दिख रही मौत के अलावा कुछ भी नहीं देख पा रहा, इसके अलावा वह मोर को दाना जरूर देख पाया, लेकिन उससे परे कुछ भी नहीं। यह चश्मा इन दिनों बड़ी इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों के बनाए हुए वर्चुअल रियलिटी चश्मे की तरह का है जिसमें वही दिखता है जिस रिकॉर्डिंग को दिखाया जाता है। इसमें मेले में बैठकर अकेले सुनसान रेगिस्तान का नजारा भी देखा जा सकता है, और मरघट पर अकेले बैठे किसी मेले का नजारा भी देखा जा सकता है। हिन्दुस्तान इन दिनों इतना आत्मनिर्भर हो गया है कि वह बिना वीआर-ग्लासेज के भी वही आभासी हकीकत देख रहा है जो कि यह देश, या इस देश की कुछ ताकतें उसे दिखाना चाह रही हैं।
दिन का कोई घंटा ऐसा नहीं है जब फिल्म अभिनेता सुशांत राजपूत से जुड़े हुए, या भूतकाल में उससे जुड़े रहे लोगों की खबरों का सैलाब आया हुआ न रहे। टीवी का मीडिया तो मानो खुदकुशी वाली इस लाश पर उसी तरह सवार होकर दौड़े चल रहा है जिस तरह भैंसे पर बैठे हुए यमराज की तस्वीर बनाई जाती है। अब आसपास के लोगों से जुड़े हुए पहलू खत्म हो चले थे, तो ऐसे में एक अभिनेत्री इस मामले में कूद पड़ी है, और उसने तो महाराष्ट्र के सारे सम्मान, स्वाभिमान, सारे गौरव, इतिहास, को चुनौती दे डाली है, और एक बहुत ही गंदी जुबान में उसने सार्वजनिक रूप से महाराष्ट्र के मानो तमाम लोगों को चुनौती दी है कि वे उसका कुछ बिगाडक़र देखें। जिस जुबान में उसने ट्विटर पर यह चुनौती दी है, वह जुबान आमतौर पर सबसे अश्लील जुबान इस्तेमाल करने वाले इंसान सबसे गंदी बात कहते हुए बोलते हैं। हम न तो खबर में, और न ही इस जगह पर, न किसी मर्द की कही हुई, और न ही किसी औरत की कही हुई ऐसी जुबान दुहराते हैं। लेकिन पिछले दो-चार दिनों से यह अभिनेत्री सुशांत राजपूत केस में तलवार चलाए जा रही थी, और अब उसने अपना हमला महाराष्ट्र की सत्तारूढ़ पार्टी शिवसेना, महाराष्ट्र सरकार, और मराठी-मानुष सभी की तरफ मोड़ दिया है। उसने एक अजीब से घमंड के साथ महाराष्ट्र की पूरी अस्मिता के खिलाफ यह लिखा है- इनकी औकात नहीं है, इंडस्ट्री (मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री) के सौ सालों में भी एक भी फिल्म मराठा प्राइड पे बनाई हो, मैंने इस्लाम डॉमिनेटेड इंडस्ट्री में अपनी जान और कॅरियर दांव पर लगाया, शिवाजी महाराज और रानी लक्ष्मीबाई पे फिल्म बनाई, आज महाराष्ट्र के इन ठेकेदारों से पूछो किया क्या है महाराष्ट्र के लिए? किसी के बाप का नहीं है महाराष्ट्र, महाराष्ट्र उसी का है जिसने मराठी गौरव को प्रतिष्ठित किया है, और मैं डंके की चोट पर कहती हूं, हां मैं मराठा हूं...(इसके बाद का हिस्सा अछपनीय है)।
हिन्दुस्तान एक ऐसा मूढ़ समाज हो गया है जिसमें लोगों को इस किस्म की भडक़ाऊ-भावनात्मक बातों से, सनसनीखेज अप्रासंगिक बकवास से उलझाकर रखा जा सकता है ताकि उन्हें न भूख-प्यास सताए, और न ही देश के दूसरे जलते-सुलगते मुद्दे याद आएं। हम पहले भी इस बारे में कई बार लिख चुके हैं कि जनधारणा-प्रबंधन के चतुर पंडित ऐसे मामलों में मासूम दर्शक नहीं होते, वे परदे के पीछे से, नजरों के ऊपर से कठपुतलियों के धागे सम्हालने वाले लोग रहते हैं। आज अनायास एक अभिनेत्री झाग ठंडे पडऩे वाले एक स्कैंडल में एक नई जान फूंक रही है, और यह अनायास नहीं है, यह जानकार-तजुर्बे के मुताबिक सायास है। हर दिन कोई ऐसा शिगूफा शुरू किया जाए जिसमें रात तक लोग उलझे रहें। कल ही कई लोगों ने ये कार्टून बनाए हैं, और वीडियो-व्यंग्य पोस्ट किए हैं कि हिन्दुस्तानी जनता मांगे नौकरिया, और चैनल दिखाएं रिया-रिया।
परसेप्शन-मैनेजमेंट की ऐसी पराकाष्ठा हिन्दुस्तान ने कभी देखी नहीं थी। खूबी यह है कि खुले मैदान के बीच यह कठपुतली नाच हो रहा है, और न तो किसी को डोरियां दिख रही हैं, और न ही आसमान तक कहीं कोई हाथ नजर आ रहे हैं। ऐसा तो किसी ने देखा-सुना नहीं था। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानी आबादी का एक बड़ा हिस्सा यह सोचते हुए ही सुबह जागता है कि आज के लिए मसाला क्या है, आज क्या देखने, क्या पढऩे, और क्या वॉट्सऐप करने का इशारा है, क्या कहा जा रहा है।
हकीकत की इतनी अनदेखी किसी भी देश या समाज को खत्म करने के लिए काफी है। और जब हम समाज की बात कर रहे हैं, तो यह हिन्दुस्तानी मध्यमवर्ग ही है जो कि सतह के ऊपर दिखता है, बढ़-चढक़र बोलता है, और ऐसा अहसास पैदा करता है कि मानो वही पूरा हिन्दुस्तान है। जो ऊपर के लोग हैं, जो कमाना जानते हैं, वे हकीकत भी जानते हैं। बिना हकीकत को जाने कोई न कारोबारी बन सकते, न कमा सकते। जो सबसे नीचे के लोग हैं, उनके पास आज न काम है, न कल की कोई उम्मीद है, और न ही उनके पास सोशल मीडिया या जुबान है। इन दोनों के बीच का मध्यम वर्ग ही आज हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तान कहला रहा है, वही ऐसे झांसों को अपनी मर्जी से देख-सुन रहा है, आगे बढ़ा रहा है, और यह सब करते हुए वह खुद भी कुछ या अधिक हद तक इस पर भरोसा भी कर रहा है। हमने एक बार कहीं मजाक में लिखा था कि आप कुल 87 बार कोई झूठ बोल सकते हैं, उसके बाद तो आपको खुद को उस पर इतना भरोसा हो जाता है कि अगली बार आप वह झूठ नहीं, उसे सच ही मानकर बोलते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के कुछ दूसरे हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में कोरोना पॉजिटिव रफ्तार से बढ़ रहे हैं। शुरुआती महीनों में छत्तीसगढ़ में रफ्तार कुछ कम रही लेकिन अब इस तेजी से बढ़ रही है कि लोगों को अपने घर पहुंचते हुए कई रास्ते बदलकर जाना पड़ता है क्योंकि जहां ज्यादा कोरोना पॉजिटिव निकल गए हैं वहां रास्ते बंद कर दिए गए हैं। जिन घरों में कोरोना पॉजिटिव हैं वहां दरवाजों पर प्रशासन नोटिस चिपका रहा है, और उन घरों के सामने पुलिस के रोड स्टॉपर लगाकर लोगों की आवाजाही रोक दी जा रही है। अब सरकार की कोई सावधानी, अगर है भी तो, वह किसी काम की नहीं रह गई है क्योंकि लॉकडाऊन खुल गया है, लोग बाजारों में घूम-घूमकर खेलों और रेस्त्रां में खाते दिख रहे हैं, दुकानों में धक्का-मुक्की चल रही है, दारू के कारोबार में देह का देह से भाईचारा अभूतपूर्व प्यार-मोहब्बत का दिख रहा है।
अब ऐसी नौबत में सरकार दुबारा लॉकडाऊन करती है, तो बहुत से लोगों की जिंदगी मुश्किल हो जाना तय है। हम घिसी-पिटी जुबान में यह तो नहीं कहेंगे कि लोग भूखे मर जाएंगे, क्योंकि केन्द्र और राज्य सरकार की जितने किस्म की मुफ्त-अनाज योजनाएं हैं, उनके चलते देश में किसी का भूखा मरना अब तकरीबन नामुमकिन रह गया है। लेकिन जिंदा रहने लायक अनाज पेट में जाए, उससे अधिक भी कई खर्च जरूरी रहते हैं, और वहां पर लॉकडाऊन लोगों की कमर तोड़ चुका है। इसलिए अब वह कोई विकल्प नहीं दिख रहा है। यह भी समझने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार ने लॉकडाऊन में ढील के जो ताजा हुक्म दिए हैं, उनमें यह कहा गया है कि केन्द्र से इजाजत लिए बिना राज्य अपने स्तर पर कोई और प्रतिबंध लागू नहीं करेंगे। यह बात आदेश में लिखी जरूर है, लेकिन हमें यह राज्य के अधिकार क्षेत्र में केन्द्र की एक नाजायज दखल लगती है क्योंकि कोई भी राज्य अपने जिले के स्तर पर किसी भी तरह का प्रतिबंध लगाने के लिए आजाद है, अगर वह व्यापक जनजीवन से जुड़ा हुआ कोई मुद्दा है। लेकिन आज यहां चर्चा का मुद्दा केन्द्र और राज्य के बीच की तनातनी के लायक एक और मुद्दे को उठाना नहीं है, बल्कि यह चर्चा करना है कि देश के किसी भी राज्य में कोरोना के फैलाव को रोकने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है?
राज्य सरकार के पास रोज लिस्ट तैयार होती है कि कौन-कौन व्यक्ति कोरोना पॉजिटिव निकले हैं। उनका पता, उनके फोन नंबर भी सरकार के पास रहते हैं। इसके बाद उनके घर पर पोस्टर चिपकाया जाता है, आसपास चारों तरफ दवा छिडक़ी जाती है, और बैरियर लगाया जाता है। कुल मिलाकर जिस परिवार में कोई पॉजिटिव है, उसके बारे में लोगों को सतर्क किया जाता है कि वे उस घर में न जाएं, उस घर के लोगों से न मिलें, और उस घर के लोगों से भी कहा जाता है कि वे बाहर न निकलें। अब यहां हमारे मन में एक सवाल यह आता है कि क्या सरकार को कोरोना पॉजिटिव निकले हुए लोगों के नाम सार्वजनिक रूप से उजागर करना चाहिए? बहुत से प्रमुख लोग जो सरकार या राजनीति में बड़े ओहदों में हैं, या सामाजिक रूप से चर्चित और मशहूर हैं, वे तो कोरोना पॉजिटिव आते ही सोशल मीडिया पर तुरंत यह बात पोस्ट कर देते हैं, और अपने संपर्क में आए हुए लोगों को सावधान रहने भी कह देते हैं। लेकिन जो ऐसे चर्चित नहीं हैं, और जो खुद होकर सोशल मीडिया पर यह बात नहीं लिखते हैं, उनके संपर्क में हाल ही में आए हुए लोगों का क्या? किसी दुकान से सामान खरीदकर जाने वाले को अगले दिन यह कैसे पता लगेगा कि वह दुकानदार कोरोना पॉजिटिव निकला है? कैसे उसके संपर्क में आने वाले लोग बाकी परिवार के साथ संपर्क में सावधानी बरत सकेंगे?
यहां पर निजता का सवाल उठता है, और चिकित्सा विज्ञान के नीति-सिद्धांतों का भी। चिकित्सा विज्ञान किसी मरीज की जानकारी को उजागर करने के खिलाफ है। यही वजह है कि टीबी या एचआईवी जैसी गंभीर बीमारियों वाले लोगों के नाम भी उजागर नहीं किए जाते हैं, जबकि ऐसे मरीजों के संपर्क में आने से दूसरे लोगों को भी संक्रमण का खतरा हो सकता है। अभी कोरोना को पूरी दुनिया में महामारी का दर्जा देकर महामारी के लिए बने हुए अलग कड़े कानून पर अमल किया जा रहा है। जनता को संक्रमण से बचाने के लिए अगर सरकार चाहे तो वह तमाम कोरोना पॉजिटिव लोगों के नाम उजागर कर सकती है। उनके परिवार, उनके कारोबार तो वैसे भी उजागर हो जाते हैं क्योंकि वहां पर सरकारी नोटिस चिपका दिया जाता है, घेरेबंदी कर दी जाती है। लेकिन सरकार के पास नाम रहते हुए भी सरकार इन नामों को उजागर नहीं करती है, तो उनके संपर्क के लोगों को सावधान होने का मौका नहीं मिल सकता, और महज घर-दुकान में लगे नोटिस देखने वाले लोग ही सावधान हो सकते हैं।
हमारा मानना है कि सेक्स-संबंधों से आमतौर पर होने वाले एचआईवी जैसे संक्रमण से परे अभी का कोरोना तो बिना किसी सामाजिक बदनामी वाला ऐसा संक्रमण है जो कि किसी को भी हो सकता है, बहुत सावधान रहने वाले लोगों को भी हो सकता है। इसलिए सरकार को और समाज में निजता की रखवाली करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या कोरोना पॉजिटिव लोगों के नाम-पते उजागर करना बाकी समाज की जिंदगी को बचाने के लिए एक बेहतर फैसला होगा, या इसका नुकसान अधिक होगा। हमारा निजी मानना यह है कि यह किसी किस्म की बदनामी वाली बात नहीं है कि कोई कोरोना पॉजिटिव निकले हैं, यह महज सावधानी की बात है कि बाकी तमाम लोगों को यह बात पता लग जाए और लोग उनसे संपर्क करना बंद कर दें। यह भी सोचना चाहिए कि आज अगर किसी को नाम उजागर होने से चार दिन की असुविधा भी होती है, तो भी पहले के चार दिनों में उनके संपर्क में आने वाले लोगों को यह सावधानी बरतने की चेतावनी मिल जाएगी कि वे अपने आपको अपने परिवार के बीच, अपने कारोबार के बीच कुछ अलग-थलग रखें। सरकारों को अपने राज्य में दस-बीस हजार, या कुछ लाख लोगों की नाराजगी की फिक्र किए बिना बाकी करोड़ों लोगों की सेहत की फिक्र करनी चाहिए। महामारी कानून के तहत सरकार को अंधाधुंध अधिकार इसीलिए दिए गए हैं कि सरकार निजता जैसे मुद्दों को कुछ देर के लिए अलग रखे, और लोगों को सावधान करने, लोगों के सावधान रहने का इंतजाम करे।
आज समझदार लोग खुद होकर अपने बारे में लोगों को मैसेज भी कर रहे हैं कि वे कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं, और पिछले दिनों उनके संपर्क में आने वाले लोग सतर्क हो जाएं। ऐसी सतर्कता से लोग अगर संक्रमण हो चुका है, तो उससे तो नहीं बच सकते, लेकिन अपने आसपास के और लोगों के अधिक संपर्क में आने से परहेज जरूर कर सकते हैं। आज निजता का मुद्दा महत्वपूर्ण नहीं है। जब असाधारण परिस्थितियां रहती हैं, तो असाधारण फैसले भी लेने पड़ते हैं, असाधारण सावधानी भी बरतनी पड़ती है। ऐसे में कई साधारण अधिकार कुछ वक्त के लिए निलंबित किए जा सकते हैं। और हमने महामारी के कानून के बारे में और कोरोना संक्रमण से लोगों को बचाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे तरीकों के बारे में जितना पढ़ा और समझा है, उससे यही बात लगती है कि घर-दफ्तर के बाहर पोस्टर चिपकाने के बाद अब और कोई निजता नहीं बचती है, और सरकार को खुलकर कोरोना पॉजिटिव लोगों के नाम उजागर करने चाहिए ताकि उनके संपर्क में आए बहुत से और लोग अपने को एक सीमित दायरे में रखें, संक्रमण को आगे बढ़ाने से बचें।
इस बारे में सोशल मीडिया पर अब तक हमें कहीं चर्चा नहीं दिखी है, इसलिए आने वाले दिनों में इसके पहले कि कोरोना संक्रमण पूरी तरह बेकाबू हो जाए, सरकार और समाज को खुद होकर निजता छोडऩी चाहिए, और इस संक्रमण के होने पर नाम उजागर करना चाहिए। अगर कोई बचाव हो सकता है, तो वह संक्रमित लोगों के अधिक संपर्क से बचकर ही हो सकता है, और महज पड़ोस को बचाकर पिछले दिनों के संपर्कों का बचाव नहीं हो सकता। कोरोना पॉजिटिव होना किसी कलंक की बात नहीं है, और इस बारे में लोगों को भी खुलकर हौसला दिखाना चाहिए, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग दिखा भी रहे हैं, लेकिन संक्रमित आम जनता तो सोशल मीडिया पर नहीं है इसलिए कोई भी व्यापक काम तो सरकार के किए हुए ही हो सकता है, सरकार के बिना नहीं। और कोरोना जांच आंकड़े और लोगों की जानकारी भी सिर्फ सरकार के ही पास है, उसे ही महामारी कानून के तहत इसे उजागर करने का हक है, और हमारा मानना है कि आज मुफ्त में हासिल इंटरनेट और सोशल मीडिया से सरकार को तुरंत ही यह काम शुरू करना चाहिए, ताकि और लोगों को बचाया जा सके। वरना वह वक्त दूर नहीं है जब यह फैलाव पूरी तरह बेकाबू हो जाए।
फ्रांस की एक विख्यात व्यंग्य पत्रिका, शार्ली एब्डो, ने कुछ बरस पहले मोहम्मद पैगम्बर पर कुछ कार्टून बनाकर छापे थे, तो उसके बाद उस पर हुए एक हमले में 17 लोग मारे गए थे, और राजधानी पेरिस के आसपास तीन दिन तक हिंसा चलती रही थी। अब इस पत्रिका ने उस हमले की सुनवाई शुरू होने के मौके पर एक बार फिर अपने वही कार्टून फिर छापे हैं जिन्हें लेकर उसे वह हमला झेलना पड़ा था। इस बार पत्रिका का कहना है कि वह इसके पहले भी ये कार्टून दुबारा छाप सकती थी, उस पर कोई रोक नहीं थी, लेकिन ऐसा कोई मौका नहीं आया था कि उन्हें दुबारा छापा जाए। अब अदालत में सुनवाई शुरू हो रही है तो उसने ये कार्टून फिर छापे हैं। यह पत्रिका मुस्लिमों, यहूदियों, और दूसरे कई धार्मिक कट्टरपंथियों पर ऐसे तीखे संपादकीय-हमले करने के लिए जानी जाती है।
फ्रांस या योरप के बहुत से दूसरे देश अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक अलग परिभाषा को मानते हैं। अमरीका या कुछ और देश भी धार्मिक मामलों में धार्मिक भावनाओं के बजाय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक मानते हैं, और इन तमाम देशों में किसी धर्मग्रंथ को फाडऩा, या जलाना कोई जुर्म नहीं है। सदियों पहले से दुनिया में देशों के स्थानीय धर्मों से परे दूसरे देशों के धर्मों का वहां पहुंचना, और बसना शुरू हो चुका था। दुनिया के बहुत से देश किसी एक धर्म को अपना राजकीय धर्म मानते हैं, और इसमें मोटेतौर पर मुस्लिम देश ही हैं। चूंकि वहां देश ही इस्लामिक रहता है, इसलिए किसी और धर्म को बराबरी का अधिकार अधिकतर जगहों पर नहीं मिलता। लेकिन जब इस्लाम मानने वाले लोग योरप की उदार संस्कृति में जाते हैं, तो उन्हें वहां नागरिक अधिकार तो बराबरी के मिलते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में सांस्कृतिक अधिकारों को लेकर टकराव खड़ा होता है। मुस्लिम महिलाओं के बुर्के पहनने को लेकर बहुत से देशों में कानून बनाए गए हैं कि सार्वजनिक जगहों पर उन्हें मंजूरी नहीं दी जा सकती। फिर भी ऐसे तमाम देशों में बसे हुए, या शरणार्थी का दर्जा पाकर वहां ठहरे हुए लोगों के बुनियादी अधिकार उन लोगों के मुकाबले बहुत अधिक है जो कि इस्लामी देशों में बसे हुए गैरमुस्लिम लोग हैं। यह अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा, और अपनी-अपनी संस्कृति है कि दूसरे देशों से आए हुए लोग, दूसरे धर्मों के लोग, इनके साथ कैसा बर्ताव किया जाए।
लेकिन जब मुस्लिमों को, मुस्लिम देशों से आए हुए शरणार्थियों को बसने का मौका दिया जाता है, तो उनके धार्मिक अधिकारों के सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को कई देश अपने हिसाब से सीमाओं में बांधते हैं। इन पश्चिमी देशों की उदार राजनीतिक व्यवस्था भी मुस्लिम बिरादरी के माने जाने वाले बहुत से रीति-रिवाजों को बर्दाश्त नहीं करते, और उन्हें आमतौर पर मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ मानते हुए उन रीति-रिवाजों के खिलाफ कानून भी बनाते हैं। इनमें से एक सबसे चर्चित मुद्दा बुर्का पहनने का रहा है।
टकराव का दूसरा मुद्दा सामने आता है कि उदार लोकतंत्रों में लोग अपने या दूसरों के धर्मों को लेकर अपनी सोच लिख सकते हैं, या बोल सकते हैं। लेकिन हर धर्म का बर्दाश्त अलग-अलग होता है, अलग-अलग देशों में रहते हुए उसमें और भी फर्क आता है, दुनिया में जिस वक्त जैसा माहौल रहता है, उस माहौल से भी किसी धर्म का बर्दाश्त प्रभावित होता है। कुल मिलाकर एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, और दूसरे व्यक्ति की धार्मिक भावना के बीच एक बड़ा टकराव कोई अनोखी बात नहीं है। खुद हिन्दुस्तान में ऐसा बहुत होता है, और आजकल तो आए दिन सोशल मीडिया पर किसी धार्मिक टिप्पणी को लेकर पुलिस रिपोर्ट होती रहती है।
फ्रांस में जब पहली बार ऐसे कार्टून विवाद में आए, और वहां पर इस्लामी आतंकियों के हमले में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए, इस पत्रिका के दफ्तर पर भी हमला हुआ, तो भी फ्रांस और योरप में लोगों ने ऐसे आतंकी खतरे के बीच भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ऊपर माना।
हिन्दुस्तान जैसा रूख इन लोकतंत्रों का नहीं रहता कि सलमान रूश्दी की लिखी किताब जब दुनिया के किसी मुस्लिम देश में भी बैन नहीं हुई थी, तब वह हिन्दुस्तान में बैन हो गई थी। इसी तरह अभी कुछ बरस पहले एक पश्चिमी लेखक की हिन्दू धर्म पर लिखी हुई एक बहुत गंभीर शोधपरख किताब को भारत में बैन कर दिया गया। भारत के इतिहास के खरे तथ्यों को लेकर भी लोगों को नापसंद कोई बात लिखना यहां मुमकिन नहीं है, और अधिकतर पार्टियों की सरकारें पल भर भी जाया किए बिना इन पर रोक लगा देती हैं। हालत यह है कि बांग्लादेश छोडऩे को मजबूर लेखिका तसलीमा नसरीन ने भारत में शरण ली हुई है, लेकिन सांस्कृतिक रूप से वे अपने अनुकूल बंगाल में रहना चाहती थीं, लेकिन वहां की वामपंथी सरकार ने भी उन्हें इजाजत नहीं दी थी।
आज दुनिया में लोकतंत्र के जितने किस्म के चेहरे प्रचलन में हैं, उनमें से बहुत से अपनी जमीन पर उदार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। इन लोकतंत्रों में धार्मिक कट्टरता मेल नहीं खाती है, लेकिन दूसरे देशों के नागरिकों को लेकर उनका जो कानूनी रूख है, उसके मुताबिक वे किसी धर्म के लोगों की अपने यहां आवाजाही, या बसाहट रोकते भी नहीं हैं। ऐसे लोगों को यह तय करना होगा कि वे जिस लोकतंत्र में हैं, वे वहां के कानून और वहां की संस्कृति के मुताबिक अपने को ढाल कर रहेंगे, या फिर वे लगातार एक टकराव का सामना करते रहेंगे, टकराव खड़ा करते रहेंगे? यह सिलसिला बहुत ही जटिल हो चुका है क्योंकि हाल के बरसों में बहुत से मुस्लिम देशों को छोडक़र दसियों लाख शरणार्थी दूसरे देशों में पहुंचे हैं, जिन्हें लेकर वहां के स्थानीय और मूल निवासियों के बीच भी तनाव है। बहुत से इलाकों को यह लग रहा है कि इतने बाहरी मुस्लिम आ जाने से उनके स्थानीय समाज का ढांचा ही बदल जाएगा। अपने देशों से बेदखल, लेकिन अपने धर्म को मानते हुए लोग जब ऐसे देशों में पहुंच रहे हैं जहां की स्थानीय संस्कृति भी उनसे मेल नहीं खाती, तो संस्कृतियों का यह टकराव खड़ा होता है। यह टकराव तब और बढ़ जाता है जब सिर्फ स्थानीय, या बाहरी आतंकी मदद से लोग उदारवादी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कातिल हमले करने लगते हैं। यह सिलसिला आसान नहीं है, और इसका कोई सरल हल नहीं है। लोग अगर आतंकी हमलों में थोक में मौतें झेलते हुए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाकी चीजों से ऊपर मान रहे हैं, और उनका कानून भी उनका हिमायती है, तो फिर वहां बसे हुए, बाहर से आए हुए उन धर्मों के लोगों को सोचने की जरूरत पड़ती है जो कि ऐसे उदार व्यंग्य के खिलाफ हैं। संस्कृतियों का यह टकराव आसान मोर्चा नहीं है जिसे खारिज किया जा सके, यह आधुनिक लोकतांत्रिक सोच के साथ रखकर देखने पर ऐसे हिंसक टकराव का खतरा बताता ही है।
केन्द्र सरकार ने अपने कर्मचारियों-अधिकारियों के लिए मौजूदा नियमों के हवाले से ही एक बार यह साफ किया है कि उन्हें 30 बरस की नौकरी या 50-55 बरस की उम्र पूरी हो जाने पर कभी भी नौकरी से अलग किया जा सकता है। सरकार ने कहा कि अब तक चले आ रहे नियमों में ही इसका स्पष्ट प्रावधान है, लेकिन अगर किसी बात को लेकर लोगों को गलतफहमी होती है, तो उसे दूर करने के लिए यह बात साफ की जा रही है। सरकार का कहना है कि जनहित में केन्द्रीय कर्मचारियों को समय से पहले रिटायर किया जा सकता है। यह खुलासा ऐसी खबरों के बीच आया है कि केन्द्र सरकार ने 50 बरस से अधिक के अपने सभी कर्मचारियों का रजिस्टर तैयार करने कहा है कि अगर उनका काम संतोषजनक नहीं पाया जाता है तो उन्हें समय से पहले रिटायर किया जा सके।
यह बात कर्मचारी संगठनों या अधिकारियों की एसोसिएशन को खराब लगेगी, लेकिन हकीकत यह है कि इस देश में केन्द्र सरकार, और राज्य सरकारों के अधिकारी-कर्मचारी एक बार अगर सरकारी नौकरी में आज जाते हैं, तो उसके बाद उन्हें इस नौकरी की सुरक्षा बड़ी तेजी से निकम्मा बना देती है। बहुत से लोग तो हैरानी की हद तक निकम्मा हो जाते हैं, और आम मेहनतकश लोग जब सरकारी दफ्तरों में जाते हैं, तो उन्हें यह भी लगता है कि वे लोग दिन भर ठीक से काम किए बिना रात को किस तरह तसल्ली के साथ सो सकते होंगे? जिस तरह पड़े हुए लोहे पर तेजी से जंग पकड़ लेता है, उसी तरह सरकारी विभागों में लोगों के तन-मन पर जंग लगा दिखता है।
जैसा कि केन्द्र सरकार ने कहा है, यह व्यवस्था पहले से है कि 30 साल की नौकरी, या 50-55 बरस की उम्र हो जाने पर काम अच्छा न रहने पर किसी की नौकरी खत्म की जा सकती है। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसा होता नहीं है। अपवाद के रूप में इक्का-दुक्का लोगों की नौकरी खत्म भी की जाती है, तो वह भयानक भ्रष्टाचार के भयानक मामले उनके खिलाफ इक_ा हो जाने पर की जाने वाली कार्रवाई रहती है। निकम्मेपन से किसी की नौकरी गई हो, ऐसा याद नहीं पड़ता।
लेकिन जैसा कि निजी कारोबार और निजी दफ्तरों में होता है, लोगों का काम अच्छा न रहने पर या तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है, या फिर ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाती हैं कि ऐसे लोग नौकरी छोड़ दें। ऐसा कई बार कर्मचारियों के शोषण के लिए भी किया जाता है, लेकिन निजी संस्थानों में निकम्मेपन के एक इलाज के रूप में भी इसे इस्तेमाल करते हैं। हम मजदूर कानूनों की आड़ में निकम्मेपन को बढ़ावा देने के खिलाफ हैं, फिर चाहे कर्मचारी संघ ही उसे क्यों न कर रहे हों। हिन्दुस्तान वैसे भी काम की संस्कृति के मामले में दुनिया के तमाम विकसित देशों से कोसों पीछे है। इसके बाद देश-प्रदेश की सरकारों का हाल इतना खराब रहता है कि सरकारी-काम शब्द किसी गाली की तरह हो गए हैं। सरकार तो सरकार, सरकार के जो सार्वजनिक उपक्रम हैं, उनका भी हाल बहुत खराब रहता है, और स्टेट बैंक जैसे देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक में लोगों के काम न करने को लेकर अनगिनत लतीफे और कार्टून चलते ही रहते हैं। ऐसे कर्मचारी न सिर्फ जनता के पैसों से मिलने वाली तनख्वाह बर्बाद करते हैं, बल्कि अपनी नालायकी, निकम्मेपन, और अपने भ्रष्टाचार से देश के आगे बढऩे की संभावनाओं को भी खत्म करते हैं। एक कल्पना करें कि किसी कार में लंबा सफर करना है, और उसके हर चक्के हर दिन ग्रीस मांगने लगें, उसकी स्टेयरिंग कुछ पाए बिना घूमने से इंकार कर दे, एक्सीलरेटर बिना हाथ गर्म किए दबने से इंकार कर दे, हॉर्न बजने के लिए बख्शीश मांगने लगे, तो वह गाड़ी कितना सफर कर पाएगी? हिन्दुस्तान में सरकारी ढांचा इस कार सरीखा ही है जिसके हर पुर्जे, हर हिस्से कुछ न कुछ उम्मीद करत हैं।
केन्द्र सरकार को यह तय कर लेना चाहिए कि 30 बरस पूरे होने पर, या 50 बरस की उम्र, जो भी जल्दी आए, उस वक्त अपने एक चौथाई अमले से छुटकारा पा ले। इस वक्त तक लोग इतनी तनख्वाह पा चुके रहते हैं, पेंशन के हकदार हो चुके रहते हैं कि उनकी जगह नए लोगों को नियुक्त करके उन्हें नीचे से ऊपर लाना शुरू करना चाहिए। इसके बाद 55 बरस की उम्र होने पर एक बार फिर नालायक लोगों को नौकरी से निकालना चाहिए। यह कुछ उसी किस्म का होगा जैसा कि किसी फूलदार पौधे की कटिंग की जाती है, उसकी डालें छांटी जाती हैं, तब वह पौधा पनप पाता है। नौकरी से हटाने का यह सिलसिला अमानवीय लग सकता है, लेकिन जनता के पैसों पर मिली नौकरी को जागीर की तरह हमेशा की दौलत मानकर चलने वालों के हाथ-पांव इससे हिलने लगेंगे।
राज्य सरकारों और म्युनिसिपलों को भी यह काम करना चाहिए, इससे सरकारी अमले में काम का उत्साह बने रहेगा। जब ऊपर के लोग छंटेंगे, तो नीचे के लोगों को समय से पहले प्रमोशन भी मिल सकेगा। सरकारी नौकरी की निश्चिंतता खत्म होनी चाहिए, उसे सुधार का मौका तो देना चाहिए, लेकिन उससे अधिक देना देश की जनता के साथ अन्याय होगा। अब यह बात रह जाती है कि सरकार के हाथ अगर लोगों को निकालना रहेगा, तो अपने को नापसंद लोगों को वह निकालती जाएगी। इस काम के लिए केन्द्र और राज्य के लोक सेवा आयोगों को जिम्मा देना चाहिए जो कि नौकरी देने वाले संगठन भी हैं। ये संस्थाएं संवैधानिक अधिकारों के साथ सरकारों के बाहर भी कुछ स्वायत्तता से तो काम करती हैं, उन्हें इस छंटनी का अधिकार देना चाहिए। इस देश को एक बेहतर सरकारी ढांचे की जरूरत है, और सरकारी नौकरी की निहायत गैरजरूरी असीमित सुरक्षा सबके बदन पर तेजी से स्थायी चर्बी चढ़ा देती है। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। नौकरी से निकालने के लिए महज भ्रष्टाचार के मामलों का इंतजार नहीं करना चाहिए, नालायकी को भी पैमाना मानना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के आंकड़ों के साथ-साथ जो दूसरी जानकारी आती है वह पॉजिटिव लोगों के पतों और नाम की वजह से यह साफ कर देती है कि वे एक ही परिवार के लोग हैं। हम रोजाना ऐसे सैकड़ों लोगों के नाम देख रहे हैं जिनमें से एक-एक घर के पांच-दस लोग भी हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक परिवार के एक चूल्हे पर पका खाना खाने वाले करीब दो दर्जन लोग अब तक पॉजिटिव हो चुके हैं। इनमें से हर किसी को अलग-अलग बाहर से संक्रमण नहीं हुआ होगा, बाहर से तो कोई एक-दो लोग ही कोरोना लाए होंगे, लेकिन इसके बाद घर के भीतर ही बाकी लोगों को इनसे संक्रमण पहुंचा होगा। इस खतरे पर हम चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि जो लोग घर के भीतर हैं, जिनका काम बाहर निकले बिना चल जा रहा है, वे लोग अपने आपको महफूज मान लेते हैं, जबकि ऐसा है नहीं।
जो लोग घर के बाहर जाते हैं वे लोग तो एक बार थोड़ी-बहुत सावधानी बरत भी लेते हैं, मास्क लगा लेते हैं, चीजों को बिना जरूरत छूने से परहेज कर लेते हैं, और हाथों को सेनेटाइज भी कर लेते हैं। लेकिन जब लोग परिवार के बीच घर में रहते हैं, तो बच्चे-बड़े, तमाम लोग एक-दूसरे के साथ संपर्क में आते ही हैं। जब कोरोना फैलना शुरू हुआ तभी डॉक्टरों ने इस बारे में सचेत कर दिया था कि छोटे बच्चे खतरनाक साबित हो सकते हैं क्योंकि एक कोरोना पॉजिटिव हो जाएंगे, तो भी उनमें प्रतिरोधक क्षमता अच्छी रहने की वजह से उनमें कोई लक्षण नहीं दिखेंगे, और वे ऐसे बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी, को संक्रमित करने का खतरा बन सकते हैं जो कि अपनी उम्र, कम प्रतिरोधक क्षमता, और कई किस्म की बीमारियों की वजह से अधिक नाजुक रहेंगे। अब यह बात परिवारों के बीच कहने-सुनने में अच्छी नहीं लगती है क्योंकि दादा-दादी, नाना-नानी को तो अपनी जिंदगी ही परिवार के छोटे बच्चों के लिए बची हुई लगती है। उन्हें वे गोद में रखते हैं, साथ खिलाते हैं, साथ सुलाते हैं, और सिर चढ़ाए रखते हैं।
आज जिस तरह थोक में अनगिनत परिवार कोरोना पॉजिटिव हो रहे हैं, उनमें परिवार के ही कुछ लोग बाहर से खतरा लाकर बाकी लोगों के लिए खतरा बने होंगे। तमाम लोगों को इस नजरिये से भी परिवार के भीतर बहुत बड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है। यह कॉलम आमतौर पर विचारोत्तेजक-विचारों का है, लेकिन हम बहुत किस्म के खतरों के बारे में इसी जगह पर सावधानी सुझाने का काम भी करते रहते हैं। यह लिखा हुआ पढऩा उतना विचारोत्तेजक नहीं होगा, लेकिन यह जिंदगी के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि हम समय-समय पर ऐसे कुछ मुद्दों को इसी जगह उठाते हैं। कोरोना के बारे में घर के बाहर बरती जाने वाली सावधानियों पर तो दर्जन भर से अधिक बार हम लिख चुके हैं, लेकिन परिवार के भीतर आपस में भी लोगों को बहुत सावधान रहने की जरूरत है। यह बात लिखते हुए हमें अच्छी तरह मालूम है कि देश की तीन चौथाई आबादी के पास तो ऐसी सावधानी बरतने की अधिक गुंजाइश नहीं है क्योंकि वे बहुत छोटे-छोटे घरों में रहते हैं, और वहां एक-दूसरे से परहेज की गुंजाइश बड़ी सीमित रहती है। लेकिन वहां पर भी यह सावधानी बरती जा सकती है कि एक से अधिक लोग एक वक्त में आसपास बैठकर न खाएं, क्योंकि खाते हुए मास्क तो उतरना ही है, और आपस में बातचीत करते हुए मुंह से खाने और थूक के छींटे तो उड़ते ही हैं। रसोई में एक घड़े में या एक फ्रिज में, खाने-पीने के दूसरे सामानों में हाथ लगते ही हैं। एक टॉवेल या एक नेपकिन, एक सिंक या एक नल को कई लोग छूते हैं। छोटे घरों में यह खतरा और अधिक रहता है।
आज ही एक खबर आई है कि 80 बरस से अधिक उम्र के 17 लोग एक जगह अपने एक साथी का जन्मदिन मनाने इक_ा हुए, वे लोग वैसे तो मास्क लगाए हुए थे, लेकिन उन्होंने खाते-पीते वक्त मास्क हटा दिए थे। अब ये सारे के सारे 17 बुजुर्ग कोरोना पॉजिटिव निकले हैं। अब आज ऐसे वक्त में क्यों तो इतने लोगों को किसी दावत में शामिल होना चाहिए, और क्यों एक साथ खाना-पीना चाहिए? लेकिन कोरोना को लेकर जो दहशत थी, वह अब धीरे-धीरे डर में बदली, और उसके बाद अब वह लापरवाही में बदल रही है। लोगों को लग रहा है कि डर-डरकर क्या जीना। लोग अब धीरे-धीरे साफ-सफाई, और सावधानी से थकते चले जा रहे हैं, और उसे फिजूल का मान रहे हैं। हर किसी के आसपास कुछ ऐसी मिसालें हैं कि बिना किसी बाहरी संपर्क वालों को भी कोरोना हो गया, ऐसे में सावधानी रखकर क्या फायदा? यह तर्क कुछ इसी तरह का है कि सिगरेट-तम्बाकू से परे रहने वाले लोगों को भी कैंसर हो गया है, तो फिर सिगरेट से परहेज से क्या फायदा?
ऐसे लापरवाह दौर में लोगों को बहुत अधिक सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है कि दुनिया भर के बहुत से विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि हिन्दुस्तान में कोरोना अभी और आगे बढ़ेगा। मतलब यह कि अभी तक जो खतरे नहीं आए हैं, वे खतरे और भी आ सकते हैं। अस्पतालों में बिस्तर नहीं बचे हैं, और सच तो यह है कि अगर निजी अस्पतालों में जाने की नौबत आई, तो इस देश के 99 फीसदी लोगों की क्षमता भी पूरे परिवार के निजी इलाज की नहीं है। ऐसे में बचाव ही अकेला इलाज है, और बचाव से परे सिर्फ खतरा ही खतरा है। अपने लिए न सही तो घरबार के दूसरे लोगों के लिए, अपने दफ्तर और कारोबार के दूसरे लोगों के लिए सावधानी बरती जाए। अब जब सावधानी से थकान बढ़ती जा रही है, तो खतरे भी बढ़ते जा रहे हैं, और यही वजह है कि हिन्दुस्तान में कल एक दिन में 80 हजार से अधिक कोरोना पॉजिटिव निकले, जो कि दुनिया में एक रिकॉर्ड रहा।
हम यहां कोई भी ऐसी बात नहीं लिख रहे हैं जो लोगों को खुद होकर न मालूम हो, हम बस लोगों को अधिक सावधान भर कर रहे हैं, और उन्हें अपने दायरे के बारे में सोचने कह रहे हैं कि वे संक्रमण से बचने के कौन से तरीके इस्तेमाल कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक अमरीकी प्राध्यापक और विज्ञान कथा लेखक इसाक एसिमोव के लिखे या कहे हुए वाक्य अक्सर इधर-उधर उनके नाम के साथ दिखते हैं, और चोरी के शौकीन लोग उनकी कही बातों को अपने नाम के साथ भी खपाते रहते हैं। उन्होंने करीब पांच सौ किताबें लिखी हैं, या संपादित की हैं, और उनकी लिखी हुई करीब 90 हजार चिट्ठियां प्रकाशित हैं। अमरीका में पढ़ाने वाले इस रूसी मूल के विज्ञान-शिक्षक का लिखा हुआ एक वाक्य आज फिर हमारी नजरों के सामने आया है। उन्होंने लिखा था- जिंदगी का सबसे दुखद पहलू यह है कि विज्ञान इतनी रफ्तार से ज्ञान जुटा लेता है, जिस रफ्तार से समाज समझ नहीं जुटा पाता।
हम इस अखबार में और इसके अलग-अलग कॉलम में पहले भी कई बार ज्ञान और समझ को लेकर लिख चुके हैं। बहुत से लोग बहुत पढ़े-लिखे लोगों को ज्ञानी मान लेते हैं, और फिर ज्ञानियों को समझदार मान लेते हैं। इन दोनों का जाहिर तौर पर कोई रिश्ता नहीं होता है। दुनिया के अलग-अलग लाखों आदिवासी इलाकों में बसे हुए लोगों में बहुत सी जातियां ऐसी हैं जिन्होंने पढ़ा कुछ भी नहीं क्योंकि वे अशिक्षित हैं, और शहरी जुबान में कहें तो वे ज्ञान से दूर हैं। लेकिन उनकी समझ किसी भी शहरी की समझ के मुकाबले अधिक तगड़ी या अधिक इंसाफपसंद हो सकती है, आमतौर पर होती है। वे कुदरत और दूसरे प्राणियों के लिए रहमदिल होते हैं, और प्राकृतिक न्याय पर अपार भरोसा भी करते हैं, अमल भी करते हैं। अपनी जरूरत से अधिक इकट्ठा नहीं करते हैं, और दूसरा को देखकर किसी हीनभावना या भड़ास में भी नहीं जीते हैं। अपनी महिलाओं को शहरियों के मुकाबले अधिक बराबरी का दर्जा देते हैं। वे शहरी ज्ञान से दूर हैं, लेकिन गहरी समझ से लैस हैं।
इस बुनियादी समझ के साथ इस मुद्दे से थोड़ा हटकर सोचें तो आज की शहरी और आधुनिक दुनिया में ऐसी बहुत सी चीजें हो रही हैं जो कि अपनी जरूरत से खासी अधिक रफ्तार से घट रही हैं। एक वक्त लोगों के पास, खासकर संपन्न लोगों के पास एक रिकॉर्ड प्लेयर होता था, और गिने-चुने रिकॉर्ड होते थे। घर के लोग इक_े होकर, या मेहमान के आने तक कोई रिकॉर्ड बजाते थे, और तीन मिनट तक सारे लोग ध्यान से उस संगीत को सुनते थे। जाहिर है कि जब सब एक साथ सुनते थे, तो उसके बाद उस पर चर्चा भी करते थे। अब एक माइक्रोचिप में कई घंटों का संगीत आ जाता है, या कई दिनों तक लगातार अलग-अलग बजने वाला संगीत आ जाता है, लेकिन लोगों का सुनना कम हो गया है। पहले लोगों के पास गिनी-चुनी किताबें रहती थीं, और एक-दूसरे से लेन-देन करके भी पढ़ते थे, आज इंटरनेट पर लाखों-करोड़ों किताबें मुफ्त में हासिल हैं, लोग छोटे से किंडल पर हजारों किताबें लेकर उसे जेब में डालकर चलते हैं, लेकिन पढऩा कम हो गया है। ठीक उसी तरह ज्ञान बढ़ते चल रहा है, विज्ञान बढ़ते चल रहा है, लेकिन उसके साथ उस अनुपात में समझ नहीं बढ़ रही है। आज लोग बिना समझे हजारों तस्वीरें, सैकड़ों वीडियो, और लाखों पन्ने कम्प्यूटर पर सेव कर लेते हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल घट गया है।
आज ही एक बहुत पुरानी तस्वीर सैकड़ों बार नजरों के सामने से आने के बाद एक बार फिर सामने आई। एक जापानी बच्चा खड़ा हुआ है, और उसकी पीठ पर उसके छोटे भाई की लाश टंगी हुई है। वह जापान के नागासाकी का बच्चा है, और अमरीका द्वारा वहां पर गिराए गए हाइड्रोजन बम से मारे गए लोगों में से एक यह छोटा बच्चा भी था। अपने छोटे भाई की लाश को लिए हुए वह अंतिम संस्कार के लिए एक लंबा सफर कर रहा है। इस उम्र में अगर यह जापानी बच्चा पढ़ा भी होगा, तो भी बहुत अधिक नहीं पढ़ा होगा। और अमरीका के बड़े-बड़े वैज्ञानिक जिन्होंने हाइड्रोजन बम बनाया, जिन्होंने हवाई जहाज से लेकर उस बम को जापान पर गिराया, और अमरीकी सरकार में बैठे हुए लोग जिन्होंने इस हमले का फैसला लिया, वे तमाम लोग तो इस जापानी बच्चे के मुकाबले हजार-लाख गुना अधिक पढ़े हुए होंगे, लेकिन उन अमरीकियों की समझ महज इतनी थी कि उन्होंने बम बनाया, गिराने का फैसला लिया, जाकर गिराया, और लाखों को मार डाला। दूसरी तरफ यह बच्चा अपने बचपन में ही अपने छोटे भाई के अंतिम संस्कार के लिए उसकी लाश पीठ पर बांधे हुए एक लंबे पैदल सफर पर निकला हुआ है। इस बच्चे की हालत को देखें, उसकी दिमागी हालत को देखें तो दिल हिल जाता है। उसकी समझ इतनी गजब की है कि वह छोटे भाई के एक उचित अंतिम संस्कार का जिम्मा भी इतनी जिम्मेदारी के साथ उठा रहा है। तो पश्चिम का वह ज्ञान कहां काम आया, और जापान के इस बच्चे की बिना ज्ञान की समझ किस हद तक काम आ रही है, कितनी बड़ी मिसाल का इतिहास दर्ज कर रही है, यह सोचने लायक है।
ज्ञान एक अहंकारी शब्द हो गया है, अहंकार हो गया है, बददिमाग हो गया है, और हमलावर हो गया है, वह बेइंसाफ भी हो गया है, बेरहम तो है ही। दूसरी तरफ इस ज्ञान की किसी भी जरूरत के बिना समझ एक ऐसा छोटा सा आसान शब्द है जो कि ऊपर लिखे गए ज्ञान के तमाम विशेषणों से दूर है। लोग आम बोलचाल की जुबान में कहते हैं- पढ़े-लिखे समझदार हो, फिर भी ऐसी बात कहते हो। जबकि ये दो बातें एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं, पढ़ा-लिखा होना और समझदार होना इनका कोई रिश्ता नहीं है। आज जब लोग अपने बच्चों को यह दुआ देते दिखते हैं कि खूब पढ़ो-लिखो, खूब कामयाब बनो, तो थोड़ी सी हैरानी भी होती है कि क्या समझदारी की बात यह नहीं हुई होती कि खूब समझदार बनो, खूब अच्छे इंसान बनो?
ज्ञान को नापना-तौलना कुछ आसान है। लोग किसी के बारे में उसका ज्ञान बताते हुए आसानी से गिना सकते हैं कि उसने कौन-कौन सी डिग्रियां हासिल की हैं। हिन्दुस्तान के एक नेता श्रीकांत जिचकर के बारे में कहा जाता है कि वे देश में सबसे अधिक डिग्रियां पाने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने विश्वविद्यालयों की 42 परीक्षाओं में शामिल होकर 20 डिग्रियां हासिल की थी, और देश में सबसे कमउम्र, 26 बरस में विधायक बनने वाले व्यक्ति थे। उनकी डिग्रियों की लंबी लिस्ट देखने लायक है। ज्ञान का ऐसा मूर्त रूप होता है कि उसे गिना, नापा, तौला जा सकता है। दूसरी तरफ समझ एक अमूर्त चीज होती है। लोगों को यह आसानी से पता ही नहीं चलता कि दूसरे कौन लोग कितने समझदार हैं, या खुद कितने नासमझ हैं। इसलिए यूनिवर्सिटी की डिग्री का महत्व अधिक मान लिया जाता है क्योंकि वह आंखों से दिखती है, लेकिन लोगों की समझदारी का महत्व नहीं माना जाता क्योंकि वह आंखों से परे की बात रहती है।
आज ज्ञान-विज्ञान छलांग लगा-लगाकर आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन लोगों की समझ, लोगों के सरोकार, अंग्रेजी में कहें तो लोगों की विज्डम की रफ्तार बड़ी धीमी है, इससे होता यह है कि जिस तरह किसी नौसिखिए मोटरसाइकिल-चालक के हाथ अंधाधुंध रफ्तार की मोटरसाइकिल लग जाए और उसे अंधाधुंध ट्रैफिक के बीच चलाना पड़े, उसी तरह ज्ञान-विज्ञान के औजार-हथियार इतनी तेजी से आ रहे हैं कि उन्हें इस्तेमाल करना सीखने का भी मौका लोगों के पास नहीं है। नतीजा यह है कि समझ ज्ञान से 20 स्टेशन पीछे चल रही है। एक और अजीब सी दिक्कत यह भी है कि अंग्रेजी की कई डिक्शनरियों में विज्डम की परिभाषा में ज्ञान को भी जोड़ लिया गया है, और कई लोग इन दोनों को एक-दूसरे का विकल्प इसलिए भी मान बैठते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यूं तो सुशांत राजपूत की मौत के मामले में लोगों का पढऩे का बर्दाश्त खत्म हो चुका होगा, और हम इस मौत के बारे में लिख भी नहीं रहे, लेकिन इस मौत से जुड़े हुए जो इंसानी मिजाज सामने आ रहे हैं, हम उनके बारे में लिखना चाहते हैं जो कि किसी और केस में भी सामने आ सकते हैं। एक कामयाब सितारे की भूतपूर्व दोस्त या प्रेमिका, उसकी ताजा प्रेमिका, आसपास के लोग, और नाहक ही बदनाम किए जाने वाले गिद्धों की तरह मंडराने वाला मीडिया। इन सबको देखें तो लगता है कि लोगों को किसी प्रेमसंबंध में पडऩे के पहले, या किसी से दोस्ती करने के पहले बहुत सी बातों के बारे में सोचना चाहिए। वक्त निकल जाता है लेकिन बीते वक्त में दर्ज बातें टेलीफोन और कम्प्यूटर के तरह-तरह के रिकॉर्ड से कहीं नहीं निकल पातीं, और आगे चलकर वे सुबूत भी बन जाती हैं, और बदनामी की जड़ भी।
सुशांत राजपूत के मामले को देखें, या इस किस्म के और बहुत से दूसरे चर्चित मामलों को देखें, तो यह समझ पड़ता है कि लोग अच्छे वक्त अपने करीबी लोगों पर भरोसा करके उनके साथ जिन बातों को बांटते हैं, वे बातें उन लोगों के चाहे-अनचाहे किसी भी दिन जांच एजेंसियों के हाथ लग सकती हैं, मीडिया के हाथ लग सकती हैं, और वे खुद भी दूसरे लोगों को इन्हें बांट सकते हैं। इसलिए अंतरंगता के दौर में अपनी नाजुक और कमजोर बातों को दूसरों के साथ बांटने के पहले सुशांत की मौत के मामले में जांच एजेंसी से निकलकर फैलने वाली बातों को भी देख लेना चाहिए, और टीवी पर इंटरव्यू देने के लिए बेताब करीबी लोगों को भी सुन लेना चाहिए।
यह मौत बताती है कि किस तरह महीनों और सालों पहले के गड़े मुर्दों को उखाड़ा जा रहा है, और उखाड़ा जा सकता है। मीडिया आज उत्तरप्रदेश में इस कहानी की किरदार एक युवती के स्कूल तक पहुंच रहा है, और सुशांत की स्कूल तक भी जा रहा है। पिछले साल-छह महीने की घटनाओं से उपजी यह मौत आज जिंदगी की उतनी पुरानी कब्रों को भी खोद रही है। लोगों के फोन को जांच एजेंसियां परख रही हैं, और देश के कड़े कानून के मुताबिक महज सुबूत जुटाने के लिए, सुराग पाने के लिए कॉल रिकॉर्ड और मैसेज देखे जा सकते हैं, लेकिन आज तो जांच किसी किनारे पहुंची नहीं है, और इस मौत से जुड़े तमाम लोगों के एक-एक संदेश मीडिया में छप रहे हैं। एक बार कोई चर्चित हो जाए तो उसकी जिंदगी की निजता तो खत्म कर ही दी जाती है, उसके आसपास के लोगों के साथ भी यह सुलूक होता है। इसलिए चर्चित, या गैरचर्चित, आप जैसे भी हों, आपके आसपास के लोग जैसे भी हों, उनसे कुछ भी बांटते हुए यह कल्पना कर देखें कि वे बातें अगर पोस्टर बनकर सडक़ किनारे की दीवारों पर चिपक जाएंगी, तो आपका सुकून कितना बचेगा, कितना बर्बाद होगा।
आज अगर कोई सभ्य या विकसित देश होता जहां देश के कानून की इज्जत होती, तो वहां यह सवाल भी उठता कि सुशांत के करीबी लोगों के दूसरे परिचित लोगों की जिंदगी की निजता को खत्म करने का हक जांच एजेंसियों को किसने दिया है, और मीडिया को किसने दिया है। आज ही एक दूसरी खबर यह कहती है कि देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी एनआईए के एक भूतपूर्व अफसर के खिलाफ जुर्म दर्ज हुआ है क्योंकि उसने अपने कामकाज के दौरान किसी भी केस से संबंध न रखने वाले किसी फोन नंबर के कॉल डिटेल्स निकलवाए थे जो कि कानून के तहत जुर्म है। आज जब यह खबर छप रही है उसी वक्त सुशांत राजपूत की मौत की जांच करती सीबीआई के अफसरों के नाम से मीडिया में ऐसे सवालों की लिस्ट छप रही है कि सीबीआई ने सुशांत की करीबी रही एक अभिनेत्री से क्या-क्या सवाल किए। एक बहुत बड़े मीडिया संस्थान के टीवी की आज की ही सुर्खी उसकी वेबसाईट पर टंगी है कि सीबीआई के किस सवाल से इस अभिनेत्री के माथे पर पसीना छलक आया! अब क्या सीबीआई चौराहे या फुटपाथ पर टीवी कैमरों के सामने पूछताछ कर रही है जिसमें सवाल से माथे पर आने वाले पसीने के दर्शन हो रहे हैं? यह पूरा सिलसिला बहुत ही घातक है। सार्वजनिक जीवन के चर्चित लोग कुछ सीमा तक तो अपनी निजता खो बैठते हैं, लेकिन उनके आसपास के लोग, और इन लोगों के पास-दूर के लोग, जितने लोगों की निजता खत्म हो रही है, वह पूरी तरह से गैरकानूनी काम है, जुर्म है, और हमारी समझ से अदालत उस पर सजा भी दे सकती है।
इस मामले से जुड़े हुए जो कई पहलू आज फिर इस पर लिखने को बेबस कर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा तो निजी संबंधों में राज बांटने का है। लोगों को इस मामले का हाल देखकर यह समझ लेना चाहिए कि उनका क्या हाल हो सकता है, उनके आसपास के लोगों का क्या हाल सकता है, अगर वे किसी जांच के घेरे के आसपास कुछ मील की दूरी तक भी दिखेंगे। यह सिलसिला खुद जांच एजेंसियों के सोचने का है कि उनके हवाले से किस तरह के राज छप रहे हैं, अगर वे सच हैं तो भी फिक्र की बात है क्योंकि किसी की निजी जिंदगी का भांडाफोड़ करने का हक कानून भी सीबीआई को नहीं देता। आज एनआईए के रिटायर्ड अफसर के खिलाफ जिस तरह का जुर्म दर्ज हुआ है, उसे भी जांच अफसरों को याद रखना चाहिए। मीडिया को भी यह सोचने की जरूरत है कि देश की प्रेस कौंसिल ने कल एक लंबा बयान जारी करके मौत के इस चर्चित मामले के कवरेज को लेकर मीडिया को उसकी जिम्मेदारी, और उसकी सीमाएं याद दिलाई हैं।
हम इस मौत पर कुछ भी लिखना नहीं चाहते, लेकिन इस मौत से जो सवाल उठ रहे हैं, उन सवालों की चर्चा इसलिए जरूरी है कि इनमें से एक या कई सवाल बहुत से दूसरे मामलों को लेकर भी उठने की नौबत आ सकती है, और वह न आए तो बेहतर होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश की एक ताजा घटना अभी एक टीवी चैनल के वेबसाईट पर पढऩे मिली जिसमें वॉट्सऐप पर हुई गोष्ठी के चलते एक मुस्लिम युवती अपने वॉट्सऐप-प्रेमी से शादी करने के लिए तीन सौ किलोमीटर अकेले सफर करके उसके घर पहुंच गई, और वहां जाकर उसे पता लगा कि वह लडक़ा तो उससे पांच बरस छोटा है, और नाबालिग है। उसकी बहुत सी तस्वीरें भी इस वेबसाईट पर आई हैं जिनमें वह एकदम गरीब इस परिवार के घर के बाहर खाट पर डेरा डालकर बैठ गई है, और वह अपने इस फेसबुक-प्रेमी के बड़े भाई से भी शादी करने को तैयार है, इस्लाम छोडक़र हिन्दू बनने को तैयार है लेकिन वह अपने घर जाना नहीं चाहती क्योंकि वहां सौतेली मां है जो उसे प्रताडि़त करती है।
एलएलबी कर रही एक युवती की यह कहानी हैरान करती है, और दिल भी दहलाती है कि लोग बिना कुछ देखे-समझे, बिना किसी जानकारी के किस तरह पूरी जिंदगी किसी के साथ गुजारने के लिए न सिर्फ तैयार हो जाते हैं बल्कि आमादा भी हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर होने वाले रिश्तों की कहानी आसानी से मैसेंजर सर्विसों तक पहुंच जाती है, और फिर फोटो-वीडियो का लेन-देन हो जाता है, अंतरंग पलों की रिकॉर्डिंग हो जाती है, और अनगिनत मामलों में ब्लैकमेल की नौबत आ जाती है, हत्या या आत्महत्या हो जाती है। इस नौबत को देखकर यह समझना जरूरी है कि ऐसा लापरवाह मिजाज आखिर होता कैसे है?
हिन्दुस्तान में तो एक बहुत बड़ी वजह यह है कि देश के बहुत बड़े हिस्से में अभी भी जवान लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना बहुत आसान नहीं है। महानगरों, और दूसरे शहरों तक तो लडक़े-लड़कियां मिल लेते हैं, लेकिन जहां बात छोटे शहरों या कस्बों की आती है, तो बेचैन और बेकरार दिल इसी तरह टेलीफोन और इंटरनेट के सहारे जीते हैं, और जब ऐसा जीना मुमकिन नहीं रह जाता तो साथ मर जाते हैं। इंटरनेट की दोस्ती कब मोहब्बत में तब्दील हो जाती है, और कब जिंदगी के राज, जिंदगी के नाजुक पल दूसरे के साथ बंटना शुरू हो जाते हैं, वह भी पता नहीं चलता। जिस तरह एक पहाड़ी नदी ऊंचाई से नीचे पहुंचते हुए चट्टानों से टकराते बेतहाशा रफ्तार पकड़ लेती है, कुछ वैसी ही बात ताजा-ताजा मोहब्बत के साथ होती है, आंखें और अक्ल दोनों बंद हो जाते हैं, किसी बुरे वक्त के बारे में सोचना बंद हो जाता है, और लोग मोबाइल-कैमरों के सामने तन-मन खोलकर बैठ जाते हैं, और हत्या-आत्महत्या की नौबत का सामान बन जाते हैं। यह पूरा सिलसिला टेक्नालॉजी का मामला तो कम है, समाज में लोगों के मिलने-जुलने पर जो रोक-टोक है, उससे उपजा हुआ अधिक है।
दुनिया के जिन देशों में हमउम्र लोगों के साथ उठने-बैठने पर, साथ रहने पर, साथ जीने और घूमने पर रोक नहीं रहती है, वहां इस किस्म की नौबत कम आती है, या हो सकता है कि न भी आती हो। जहां लोगों को अपनी पसंद के जीवन-साथी के साथ रहने मिलता है, वहां शायद इस किस्म की अपरिपक्व हरकत भी कम होती होगी। लेकिन हिन्दुस्तान ऐसा देश है जहां ऑनरकिलिंग के नाम पर अपने ही बच्चों को उनके प्रेमी-प्रेमिका के साथ सार्वजनिक रूप से मार डालकर लोग फख्र महसूस करते हैं कि उन्होंने खानदान की इज्जत बरकरार रखी। हिन्दी फिल्में भी ऐसे तानाशाह, अकबर-मिजाजी जल्लाद बाप की कहानियों से भरी रहती हैं जिनमें बच्चों को मर्जी से जीने नहीं दिया जाता। फिल्में समाज से प्रेरित होकर बनती है, और समाज फिल्मों से प्रेरित होता है, और मां-बाप ऐसे ही फिल्मी किरदार बनने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं जो नापसंद बहू को घर से निकाल दें, या नापसंद दामाद को बेटी सहित मार ही डालें।
हिन्दुस्तान में नौजवान पीढ़ी इस कदर भड़ास में जीती है कि जिसकी कोई हद नहीं। लडक़े-लड़कियों का साथ पढऩा मुश्किल, साथ घूमना-फिरना मुश्किल, मां-बाप टेलीफोन तक की जासूसी पर उतारू, वेलेंटाइन डे या फ्रेंडशिप डे पर धर्मान्ध साम्प्रदायिक संगठन बाग-बगीचों में पीटने को तैयार, और वहां मौजूद पुलिस वहां से भगाने को तैयार। कुल मिलाकर देश का माहौल जवान हसरतों को जिंदा रहने देने के बहुत ही खिलाफ है। लोग अपने बच्चों के लिए कॉलेज पहुंच जाने पर भी आगे की पढ़ाई तय करते हैं, उनके टी-शर्ट का रंग पसंद करते हैं, लड़कियों के घर आने-जाने का वक्त एक कडक़ चौकीदार की तरह तय करते हैं। ये ही तमाम वजहें हैं कि अपने घर से थके हुए लडक़े-लड़कियां आपा खोकर फैसला लेते हैं, कहीं किसी के साथ जीने के लिए चले जाते हैं, तो कहीं किसी के साथ मरने के लिए।
हम इस मुद्दे पर लिख तो रहे हैं, लेकिन इसका कोई आसान इलाज हमारे पास नहीं है। फिर यह भी समझने की जरूरत है कि यह बात महज नौजवान पीढ़ी तक सीमित नहीं है, हर दिन ऐसी कई खबरें रहती हैं जिनमें शादीशुदा लोग भी जीवन-साथी से परे किसी और के साथ रिश्ता शुरू कर लेते हैं, बातचीत फेसबुक से शुरू होती है, और बाद में उन्हें किसी बंद कमरे से पीट-पीटकर निकालते हुए वीडियो चारों तरफ फैलते हैं। हिन्दुस्तानी अधेड़ लोगों ने भी फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के रास्ते घर बैठे ऐसे संबंध बनने की बात कभी सोची नहीं थी, समाज में ऐसा कुछ आसान नहीं था, और आजकल अपने जीवन-साथी से थके हुए या निराश लोग बड़ी संख्या में ऐसे ऑनलाईन रिश्तों में पड़ जाते हैं क्योंकि ऑनलाईन एक-दूसरे की खूबियां ही खूबियां दिखती हैं, खामियां तो लोग मामूली समझदारी से ही छुपाए रख जाते हैं।
अब एलएलबी की एक छात्रा अपना परिवार और अपना धर्म छोडक़र महज वॉट्सऐप-दोस्ती के रास्ते एक अनजान परिवार में शादी के लिए पहुंच जाती है, और प्रेमी के नाबालिग निकलने पर उसके भाई से भी शादी करके वहीं रहना चाहती है। यह सिलसिला भयानक है, नौजवान पीढ़ी को अधिक परिपक्व होने की जरूरत है, और उनके मां-बाप को, उनके भाई-बहनों को यह समझ आना जरूरी है कि लोग अपनी मर्जी से भी जीना चाहते हैं। प्रेम-संबंधों में नाकामयाब होने पर अनगिनत हत्या-आत्महत्या होती हैं, और प्रेम कामयाब रहने पर भी अगर उसके शादी में बदलने में कामयाबी नहीं मिलती, तो भी ऐसी ही किस्म की हिंसा होती है। इस देश के समाज को सार्वजनिक परामर्श की जरूरत है, पूरी की पूरी आबादी को अगली पीढ़ी के हक की इज्जत करना सिखाने की जरूरत है। जब तक ऐसा नहीं होगा, नई पीढ़ी घुट-घुटकर जिएगी, और घुट-घुटकर ही मर जाएगी। समाज की ऐसी सोच के खिलाफ लोगों को खुलकर सार्वजनिक बातचीत करनी चाहिए।
हिन्दुस्तान का मीडिया और सोशल मीडिया दोनों अलग-अलग, और मिलकर भी विजय तेंदुलकर का एक नाटक खेल रहे हैं, शांतता कोर्ट चालू आहे। कई दशक पहले यह नाटक खूब खेला जाता था, और उसकी जितनी सीमित याद अभी है, उसके मुताबिक किसी जगह एक रात फंस जाने, और वक्त गुजारने को मजबूर लोगों की एक टोली एक खेल खेलती है। एक अदालत का सीन गढ़ा जाता है जिसमें कोई जज, कोई वकील, और कोई आरोपी बन जाते हैं। एक महिला को आरोपी बनाया जाता है, और उसके बाद उसके खिलाफ केस साबित करने के नाटक में वकील बना व्यक्ति, और शायद गवाह भी अपने मन की सारी भड़ास, अपनी सारी कुंठाएं उसके खिलाफ निकालते हैं, और उसे बदचलन साबित करने की कोशिश करते हैं। खेल-खेल में खेला गया यह नाटक उस महिला को कटघरे में तोड़ देता है। विजय तेंदुलकर के लिखे इस नाटक का बस इतना ही जिक्र यहां काफी है।
हिन्दुस्तान इन दिनों जिस अकेले नाटक को खेल रहा है, सुशांत राजपूत की मौत नाम का यह नाटक अंतहीन चल रहा है। देश के मीडिया को इसमें एक रोजगार मिल गया है, जिंदा रहने का एक रास्ता मिल गया है, देश की तमाम कुंठाग्रस्त आबादी, सेक्सवंचित लोगों को यह मुद्दा मिल गया है जिसमें यह एक खूबसूरत और मादक अभिनेत्री को प्यार, सेक्स, और बेवफाई के साथ-साथ मौत से रिश्ते के जुर्म में भी घेर पा रहे हैं। मीडिया के हमलावर तेवर इस हद तक चले गए हैं कि इस अभिनेत्री की इमारत में कहीं खाना पहुंचाने आए कूरियर एजेंसी के लडक़े को 15 टीवी कैमरे घेरे हुए हैं, और उससे उसका नाम जानना चाहते हैं, यह जानना चाहते हैं कि उस अभिनेत्री ने खाने क्या बुलाया है, और वह लडक़ा कहे जा रहा है कि वह जानता भी नहीं है कि वे किसके बारे में पूछ रहे हैं। टीवी-मीडिया का यह हमलावर दस्ता उस अभिनेत्री को खलनायिका साबित करने को एक राष्ट्रवादी कर्तव्य मानकर, बिहार के आने वाले चुनाव में मृतक अभिनेता को शहीद का दर्जा दिलाने के तेवरों के साथ इमारतों के बाहर टूटा पड़ा है, और स्टूडियो तो कहीं इस अभिनेत्री को काला जादू करने वाली साबित कर रहे हैं, तो कहीं बदचलन, कहीं बेवफा, कहीं हत्यारी, कहीं नशे की सौदागर, और कहीं अंडरवल्र्ड की हसीना, डॉन की साथी वगैरह-वगैरह।
और लोग विजय तेंदुलकर का नाटक असल जिंदगी में कैसे न खेलें? मुम्बई में एक फिल्म अभिनेता की मौत, जो कि पहली नजर में खुदकुशी लगती है, उसका किस्सा बढ़ते-बढ़ते हत्या की कहानी तक पहुंच गया, और फिर मृतक अभिनेता के गृहराज्य बिहार के पुलिस प्रमुख जिस अंदाज में महाराष्ट्र की पुलिस पर तोहमत लगा रहे हैं, वैसा तो शायद इस देश में इसके पहले कभी न हुआ हो, और इन दोनों प्रदेशों के बीच में दो बड़े-बड़े प्रदेश और न हुए होते, तो हो सकता है कि दोनों के बीच जंग छिड़ गई होती, हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की तरह। जिस अंदाज में बिहार के डीजीपी एक अभिनेत्री के बारे में सार्वजनिक रूप से यह कहते कैमरे पर दिखे कि उसकी औकात क्या है कि वह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर कोई टिप्पणी करे, वह रूख भी लोकतांत्रिक भारत के किसी राज्य के पुलिस प्रमुख का न होकर विजय तेंदुलकर के नाटक के एक किरदार का था।
बॉलीवुड की किसी फिल्मी कहानी को भी फीका साबित करने वाली यह कहानी अनायास ही गढ़ गई हो, ऐसा तो नहीं लगता है। इस आजाद हिन्दुस्तान का इतना विशाल मीडिया जब इतने धार्मिक समर्पण के साथ एक मौत के पीछे की वजहें ढूंढने के बजाय, एक सेक्सी अभिनेत्री को कातिल, ड्रग डीलर, और भी जानें क्या-क्या साबित करने पर उतारू हो गया है, तो आज देश के नाजुक हालात के साथ मिलाकर इस मीडिया-रूख को समझने की जरूरत है। आज बिहार बाढ़ में डूबा हुआ है, दसियों लाख लोग बेघर हैं, देश कोरोना की मार से कराहता हुआ सरकारी अनाज की मदद पर बस जिंदा ही है, उससे अधिक कुछ नहीं, तो ऐसे में देश की बदहाली को ढांकने के लिए एक गोरी-सेक्सी अभिनेत्री की खाल उतारकर उससे देश की दिक्कतों को ढांक दिया गया है। क्या इतना सब कुछ अनायास और मासूम हो सकता है? हमारे पास इसके मासूम न होने के कोई सुबूत तो नहीं है, लेकिन ऐसा समझने की एक मामूली समझ जरूर है।
सेक्स से वंचित, उस भूख की वजह से कुंठित, और एक मादक महिला पर हमले के लिए मत चूको चौहान के ऐतिहासिक अंदाज में टूट पडऩे को आमादा हिन्दुस्तानियों से अधिक उपजाऊ जमीन ऐसी किसी कहानी के लिए और भला क्या हो सकती थी? नतीजा यह है कि जिस तरह झारखंड और छत्तीसगढ़ में किसी अकेली, बेसहारा, कमजोर महिला को घेरकर, उसे बदनीयत से टोनही या जादूगरनी करार देकर उसका कत्ल कर दिया जाता है, आज कुछ वैसी ही भीड़त्या का माहौल इस एक अभिनेत्री के खिलाफ बना दिया गया है। लोगों का, और सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे समझदार दिखते चले आ रहे लोगों का रूख यह है कि कल जब एक समाचार चैनल ने इस अभिनेत्री को इंटरव्यू किया, उसका पक्ष जाना, उसकी बातें दिखाईं जिनमें वह यह भी कह रही है कि उसे लग रहा है कि वह आत्महत्या कर ले, तो इस टीवी चैनल के खिलाफ सोशल मीडिया पर लोगों का एक बहुत बड़ा हिस्सा टूट पड़ा है। उस चैनल से पूछा जा रहा है कि वह कितने में बिका, जिस टीवी-जर्नलिस्ट ने इस अभिनेत्री से बात की, उसे गालियां दी जा रही हैं, उसे भड़वा कहा जा रहा है। अब सवाल यह उठता है कि जिसके खिलाफ हफ्तों या महीनों से हर गंदी तोहमत लगाई जा रही है, क्या उसकी बात को सामने रखना गुनाह हो गया? उसकी बात तमाम तोहमतों पर सवाल खड़ा करती है, क्या इसीलिए वे बातें लोगों को अब सुनना भी बर्दाश्त नहीं है? क्या लोग अब शांतता कोर्ट चालू आहे की उस रात की तरह बस एक महिला के चरित्र पर अंतहीन हमले ही जारी रखना चाहते हैं? यह पूरा सिलसिला जो कल तक मीडिया के खिलाफ लिखने की वजह लग रहा था, आज उसके साथ-साथ एक और बड़ी वजह लिखने की यह बनी है कि तोहमतों से जख्मी किसी युवती की कराह सुनना भी क्या अब इस देश के लोगों को मंजूर नहीं है? यह अभिनेत्री अगर इस सिलसिले में तीसरी खुदकुशी बनती है, तो उसकी जिम्मेदारी मीडिया पर रहेगी, सोशल मीडिया पर रहेगी, या उसकी औकात गिनाने वाले एक सरकारी वर्दीधारी आईपीएस पर रहेगी, किस पर रहेगी?
हिन्दुस्तान का लोकतंत्र भेडिय़ों के एक झुंड सरीखा हो गया है, इसे गोश्त से भरा कोई बदन दिखा, तो यह उस पर टूट पड़ा। ऐसा लगता है कि सेक्स से भूखे इस देश में चूंकि 99.99 फीसदी मर्दों को ऐसी खूबसूरत युवती नसीब नहीं हो सकती, इसलिए उनके बागी तेवरों और तोहमतों के लिए मानो यह भी एक काफी वजह है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र से और परे जाकर देखें तो हिन्दुस्तानी समाज के भीतर की वह आदिम और हिंसक सोच आज पूरे हमलावर तेवरों के साथ ओवरटाईम कर रही है जो कि लोकतंत्र के हजारों बरस पहले थी, और आज लोकतंत्र को किनारे धकेलकर भीड़ की शक्ल में इस युवती को घेरना चाहती है, उसकी देह का एक हिस्सा चाहती है।
हाल के बरसों में किसी एक मामले में हिन्दुस्तान के लोगों के हिंसक मिजाज को इस हद तक उजागर किया हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। अगर मीडिया, और सोशल मीडिया पर भाड़े के सैनिक देश को सोते-जागते इसी एक सेक्स-क्राईम थ्रिलर में बांधे रखना चाहते हैं, तो देश के असल मुद्दों से ध्यान हटाने की यह एक बड़ी कामयाब तरकीब रही है। बेरोजगार, बाढ़ से बेघर, भूखी देह इसके मुकाबले भला किसका ध्यान खींच सकती है? और एक बार सेक्स और क्राईम का यह नॉनस्टॉप सीरियल शुरू हो गया है तो देश में किसी इस बात की परवाह है कि वह डूबे बिहार के सुशासन बाबू को उनका जिम्मा याद दिला सके, उनकी देहरी पर तो एक वर्दीधारी, सबसे अधिक सितारों वाली वर्दी में उनका अफसर बाकी हिन्दुस्तान को औकात गिनाते खड़ा ही है। उधर ऊपर आसमान के और ऊपर विजय तेंदुलकर की आत्मा यह देखकर हैरान होगी कि किस तरह हिन्दुस्तान, पूरे का पूरा हिन्दुस्तान उनके शांतता कोर्ट चालू आहे का मंच बन गया है! (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत सरकार जिस तरह से बड़े कॉलेजों में दाखिले के इम्तिहान लेने पर अड़ी हुई है, और उसे उसकी जिद पर सुप्रीम कोर्ट का साथ भी मिल गया है, वह देश के लिए एक बड़ा खतरा हो सकता है। कोरोना-महामारी का पूरा असर पहले कभी किसी का देखा हुआ नहीं है इसलिए खतरे का अंदाज लगा पाना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है, सुप्रीम कोर्ट के लिए भी नहीं। इस खतरे का अहसास कराने के लिए कुछ छात्रों का यह कहना काफी होना चाहिए कि मां-बाप बड़ी बीमारियों के मरीज हैं, संक्रमण का खतरा उठाते हुए वे कैसे इम्तिहान देने जाएं?
कोरोना के खतरे ने इस देश और इसके प्रदेशों को दाखिला-इम्तिहान जैसे तरीके के बारे में एक बार और सोचने का मौका भी दिया है। छत्तीसगढ़ सरकार इस बरस बी.एड. जैसे कड़े दाखिला-इम्तिहान की जगह ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट इम्तिहानों में मिले नंबरों के आधार पर दाखिला देने की सोच रही है। देश को यह भी सोचना चाहिए कि आज बड़े कॉलेजों की हर दाखिला-परीक्षा की तैयारी के लिए देश में ऐसे कारखाने चल रहे हैं जहां आबादी के सबसे ऊंचे एक चौथाई लोग ही अपने बच्चों को भेज पाते हैं। बाकी तीन चौथाई की तो ऐसे मुकाबलों में संभावना ही नहीं रहती क्योंकि वे बराबरी की तैयारी की सरहद तक भी नहीं पहुंच पाते।
लोगों को याद होगा कि जब कोरोना का हमला हुआ तो राजस्थान के कोटा शहर में दाखिलों की तैयारी के कारखानों में किस तरह लाखों बच्चे थे और उन्हें राज्य सरकारों ने घर वापिस लाने के इंतजाम किए थे। हर बरस के दाखिला-इम्तिहान देश में सामाजिक असमानता की खाई को और गहरा, और चौड़ा कर देते हैं। और यह खाई महज एक पीढ़ी तक नहीं रह जाती, वह आने वाली तमाम पीढिय़ों के लिए हो जाती है। कोरोना ने एक मौका दिया है कि बड़े कॉलेजों, या बाकी कॉलेजों में भी दाखिले के तरीकों के बारे में फिर सोचा जाए। अभूतपूर्व हालात अभूतपूर्व तरीकों को भी पैदा करते हैं।
जानकार लोगों को एक ऐसा तरीका निकालना चाहिए कि स्कूली इम्तिहानों से लेकर कॉलेज के इम्तिहानों तक के चुनिंदा नंबरों को भी आगे के दाखिलों और नौकरियों में वजन मिले। यह महत्व मिले बिना पढ़ाई का महत्व खत्म हो चुका है और बस दाखिला-इम्तिहानों की ही अहमियत रह गई है। यह बात हिंदुस्तान को दुनिया के समझदार देशों के मुकाबिले हमेशा ही बहुत पीछे रखेगी। अगर स्कूलों के कुछ चुनिंदा बोर्ड इम्तिहानों और कॉलेज इम्तिहानों के औसत नंबरों को आगे दाखिले-नौकरी की पूर्व शर्त रखा जाए तो बच्चों की पढ़ाई की तरफ वापिसी हो सकती है।
फिलहाल आज की बात करें तो देश का माहौल बिल्कुल भी इन परीक्षाओं के लायक नहीं है। यह सामान्य जिंदगी नहीं है कि इतना बड़ा इंतजाम किया जा सके, और उससे संक्रमण न फैले। कल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने और साथी मुख्यमंत्रियों के साथ यह सही पहल की है। बाकी राजनीतिक दलों को भी इस बारे में सोचना चाहिए। यह सबकी राजनीतिक जिम्मेदारी का वक्त है। आज जो पार्टी जलते-सुलगते मुद्दों पर चुप रह जाएंगी वो इतिहास में गैरजिम्मेदार दर्ज होगी। आज की महामारी ने देश को जिस हद तक बर्बाद किया है, उसे और अधिक बढऩे देने के खतरे वाला कोई भी गैरजिम्मेदाराना काम नहीं करना चाहिए। कोरोना का टीका आने, सबको लगने में हो सकता है कि एक-दो और पन्द्रह अगस्त निकल जाए। टीके के लोकार्पण की जो हड़बड़ी आईसीएमआर दिखा रहा था, वह हड़बड़ी पढ़ाई के लिए दिखाना ठीक नहीं है। भारत की सबसे बड़ी चिकित्सा विज्ञान संस्था अपने फर्जी दावे के साथ जिस तरह औंधे मुंह गिरी है, वह नौबत भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय की नहीं होनी चाहिए। नाजुक मौके के बीच ऐसी दाखिल परीक्षा से दसियों लाख छात्र-छात्राएं और उनके परिवारों के करोड़ों लोग एक गैरजरूरी और भयानक खतरे में पड़ेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
रोज सुबह से कचरा ले जाने के लिए गाड़ी आती है, और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की तरह देश के और भी बहुत से शहरों में कचरा बाहर लाने के लिए गाना बजाती होगी। सामाजिक सरोकार रखने वाले कुछ जिम्मेदार लोगों ने ऐसे कार्टून बनाए और अपने बच्चों को समझाते भी हैं कि वे कचरे वाले नहीं हैं, वे सफाई वाले हैं, कचरे वाले तो लोग हैं जिनके घरों में इतना कचरा पैदा होता है कि जिसे ले जाने के लिए गाडिय़ों को दिन में कई फेरे लगाने पड़ते हैं।
अभी जब पिछले कुछ महीनों में लोगों के घरों में काम करने वाले कम रहे या नहीं रहे, तो उन्हें कचरे की बाल्टियां ले जाकर बाहर रखनी पड़ीं, और खाली बाल्टियां वापिस लानी पड़ीं। इतने में ही लोगों के होश उड़ गए कि इन बाल्टियों से कैसी बदबू आती है, और इनमें कहीं चीटियां भर जाती हैं, तो कहीं दूसरे कीड़े। अब उन लोगों की कल्पना करें जो दिन में कम से कम आठ घंटे ऐसी ही बाल्टियों को उठा-उठाकर कचरे की गाडिय़ों में पलटते हैं, अपने सिर से ऊपर तक उठाते हैं, और बाल्टियां वापिस गेट पर छोडक़र जाते हैं। बारिश के दिनों में इन बाल्टियों में पानी भर जाता है, और जब कचरा-गाड़ीवाले इन्हें पलटते हैं तो उनके ऊपर यह पानी गिरते भी रहता है।
यह तो फिर भी ठीक है, लेकिन शहरों में गटर सफाई करने वाले लोगों को जिस तरह गटर में उतरना पड़ता है, और कीचड़ के पानी में डुबकी लगाकर फंसे हुए कचरे को निकालना पड़ता है, उस जिंदगी की कल्पना करना भी उस तबके के बाहर के लोगों के लिए नामुमकिन है। और यह तबका हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म के भीतर सबसे ही हिकारत और नफरत के लायक माना गया दलित तबका है, दलितों में भी और नीचे के दलित जिन्हें कि सफाई के अलावा और किसी काम के लायक माना नहीं गया है।
अब पल भर के लिए कल्पना करें कि हिकारत के लायक समझी जाने वाली, अछूत मानी जाने वाली यह जाति खत्म हो जाए। लोगों के घरों का कचरा तो खत्म नहीं होगा, लोगों के मुहल्लों और शहरों की नालियां, उनके गटर तो खत्म नहीं होंगे, फिर क्या होगा? अगर तमाम दलित यह तय कर लें कि सफाई के जिस काम की वजह से उन्हें अछूत माना जाता है वह काम करना ही नहीं है, तो सफाईकर्मियों की ऐसी जातियां तो मेहनत का कोई दूसरा काम एक बार कर भी लेंगी, शर्तियां ही कर लेंगी, लेकिन लोग अपने कचरे और अपनी फंसी हुई नालियों का क्या करेंगे? उनका काम तो कचरा पैदा करने वाले लोगों, उनसे ऊंची जातियों के लोगों के बिना एक बार चल जाएगा, वे तो मनरेगा जैसी किसी सरकारी योजना में मिट्टी भी खोद लेंगे जो कि कचरा और गटर के मुकाबले बेहतर काम होगा, लेकिन बाकी हिन्दुस्तानी क्या करेंगे? वे अपना कचरा लेकर कहां जाएंगे? और घरों में, इमारतों में पखाने की टंकियां भर जाएंगी, तो क्या होगा? अलग-अलग इलाकों में गटर का पानी सडक़ों पर फैल जाएगा तो क्या होगा?
ऐसी नौबत के बारे में कुछ देर सोचना चाहिए, फिर गटर में काम करने वाले लोगों के हाल पर भी सोचना चाहिए, और फिर यह सोचना चाहिए कि उन्हें खुद यह काम करना पड़ा तो वे क्या कर पाएंगे? यह पूरा सिलसिला अब उन दिनों का नहीं रह गया है जब गंदगी साफ करने वाले लोगों के बिना भी ऊंची मानी जाने वाली जातियों के लोग पखाने के लिए गांव के बाहर खेत चले जाते थे, और नालियां खुली रहती थीं, गटर रहते नहीं थे, न पखाने होते थे न उनकी टंकियां। उन दिनों वैसे में तो सफाईकर्मियों के बिना काम चल जाता था, लेकिन अब क्या होगा? क्या सफाईकर्मियों के ऐसे मजबूत संगठन बन सकते हैं जो कि अपनी खतरनाक नौबत के मुताबिक अधिक मेहनताना और अधिक मुआवजा मांग सकें? और फिर इस बात का मुआवजा भी मांग सकें कि समाज की गंदगी को ढोने की वजह से उन्हें जिस सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, उसके लिए भी तो गंदगी पैदा करने वाला समाज कुछ दे।
लेकिन जाति व्यवस्था और समाज व्यवस्था से परे भी एक बात समझने की जरूरत है। आज शहरों में, और खासकर संपन्न लोगों में जिस बड़े पैमाने पर कचरा पैदा किया जा रहा है, क्या उससे निपटना हमेशा के लिए मुमकिन हो पाएगा? आज छोटे-छोटे से सामान भी ऑनलाईन ऑर्डर करके बुलाए जा रहे हैं, और वे भारी-भरकम पैकिंग के भीतर आ रहे हैं। क्या इतनी पैकिंग के निपटारे के लिए कोई शहरी ढांचा बना हुआ है, या इतनी पैकिंग बनाने के लिए भी धरती पर काफी पेड़ हैं? ये तमाम बातें सोचना इसलिए जरूरी है कि कुछ लोगों को यह भी लग रहा है कि ऑनलाईन खरीदी से लोगों का बाजार जाना कम हो रहा है, और ईंधन बच रहा है, उसका प्रदूषण बच रहा है। हमारे पास अभी कोई वैज्ञानिक आंकड़े इस बात के नहीं हैं कि ईंधन कितना बच रहा है, और पैकिंग कितनी अधिक लग रही है, और इनमें से कौन सी बात धरती के लिए अधिक नुकसानदेह है। लेकिन यह बात तय है कि आज दुनिया की सरकारों को कारोबार पर नकेल कसकर यह देखना होगा कि पैकिंग कितनी गैरजरूरी हो रही है, और उसे कैसे कम किया जाना चाहिए। यह राज्यों को भी अपने स्तर पर देखना चाहिए कि उनकी जमीन पर चाहे स्थानीय बाजार में पहुंचने वाले सामान, या फिर ऑनलाईन ऑर्डर से कूरियर के मार्फत आने वाले सामान की पैकिंग कितनी है? हमने कई बरस पहले भी इसी जगह यह बात सुझाई थी कि स्थानीय सरकारों को अपने प्रदेश में एक गार्बेज टैक्स लगाना चाहिए जिसमें आई हुई पैकिंग का पूरा वजन हो, और उसके भीतर इस्तेमाल होने वाले सामान का भी वजन हो। जितना भी प्लास्टिक, पु_ा, या किसी और किस्म का पैकिंग मटेरियल आ रहा है, उस पर एक टैक्स लगाना चाहिए। हर बक्से या पैकेट पर यह लिखने का नियम रहे कि उसके भीतर इस्तेमाल के सामान का वजन कितना है। बाकी तो पूरा का पूरा कचरा बनकर उस प्रदेश पर बोझ रहेगा, और उस पर एक टैक्स लगाना चाहिए। हो सकता है कि केन्द्र सरकार के स्तर पर ऑनलाईन कंपनियों से लेकर बाजार में जाने वाले थोक सामान तक पर ऐसा एक टैक्स लग सके जिससे लोगों को यह भी समझ में आए कि गैरजरूरी पैकिंग एक गलत बात है, और उसके लिए टैक्स या जुर्माना लग रहा है। आज छोटे-छोटे से सामानों को सजावटी और आकर्षक दिखाने के लिए उनकी ढेर-ढेर पैकिंग की जाती है।
इस बात को लिखने का सीधा रिश्ता इस बात से है जिससे कि आज हमने यहां लिखना शुरू किया है। यह सारी गैरजरूरी पैकिंग कचरा भी बढ़ा रही है, और नालियों को चोक भी कर रही है, इन दोनों के चलते इस देश से कभी भी सफाई कर्मचारी कम नहीं होने वाले हैं, और जब तक उनका यह काम जारी रहेगा, तब तक यह जाति व्यवस्था भी कायम रहेगी। इसलिए कचरे को कम करने की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत कचरे के व्यवस्थित निपटारे की भी है ताकि वह धरती पर कम बोझ बने, और उसे उसका निपटारा करने वाले लोगों को वह इंसानों की तरह माने भी। धरती को बचाने, इंसानों को बचाने, और शहरी जिंदगी को बचाने के लिए इन तमाम बातों पर सोचने की जरूरत है। घर या दफ्तर, दुकान से ही, बाजार से ही कचरे को अलग-अलग करना शुरू हो, स्थानीय म्युनिसिपल अलग-अलग कचरे को अलग-अलग उठाए, उसका अलग-अलग निपटारा हो, और ऐसे में ही यह निपटारा करने वाले इंसान इंसान की तरह जी सकेंगे। आज पिछले पांच-छह महीनों में लॉकडाऊन से और कोरोना-सावधानी से लोगों को जैसी जिंदगी जीनी पड़ी है, वे यह सोचकर देखें कि छह हफ्ते भी अगर सफाई कर्मचारियों के बिना जीना पड़ा तो क्या होगा?
आज अपनी सेहत के लिए खतरा उठाकर, अमानवीय परिस्थितियों में गंदगी का काम करते हुए, सामाजिक बहिष्कार और छुआछूत झेलते हुए जो लोग इंसानी जिंदगी से गंदगी को कम कर रहे हैं, उनको इतना संगठित करने की जरूरत है कि वे अपने इस काम के लिए अतिरिक्त भुगतान पा सकें। वे तो दूसरी जातियों के लोगों का काम कर लेंगे, लेकिन उनके काम के लिए तो आरक्षण को कोसने वाली जातियों के पास भी कोई ऐसे लोग नहीं हैं जो सफाई में आरक्षण मांगें।
फिलहाल हर कोई अपने-अपने स्तर पर यह सोचे कि सुबह से उनके घर कचरा लेने आने वाले लोग भी इंसान हैं, और कैसे उन पर बोझ कम किया जा सकता है। हिन्दुस्तान में दक्षिण भारत में कई म्युनिसिपल ऐसी हैं जिन्होंने पिछले बरसों में बिना किसी खर्च के वैसी सफाई हासिल की है जैसी सफाई के लिए इंदौर जैसा शहर सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना खर्च कर रहा है। देश के बाकी शहरों को भी ऐसी म्युनिसिपलों से कुछ सीखना चाहिए।
कांग्रेस के चाय के कप में आया तूफान थम गया दिखता है। हाल के बरसों में, या पिछले कुछ दशकों में पहली बार इस पार्टी के करीब दो दर्जन लोगों ने गैरचापलूसी का एक रूख दिखाया था, और वह रूख पार्टी पर कोई असर नहीं डाल पाया। कल कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक सुबह से शाम तक चली, और वह इस नतीजे पर खत्म हुई कि फिलहाल सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी रहेंगी। इस पार्टी की सबसे ताकतवर कमेटी की बैठक भी अगले अध्यक्ष के बारे में न कुछ सोच पाई, न कोई तरीका सोच पाई, और चिट्ठी लिखने वालों के तरीकों के खिलाफ सोनिया से लेकर नीचे तक बहुत से नेताओं ने नाराजगी और असहमति जताई।
बहस के लिए हम यह मान भी लेते हैं कि जब चिट्ठी लिखने वाले 23 लोगों में से आधा दर्जन से अधिक लोग कांग्रेस कार्यसमिति के मेम्बर भी थे, जहां उनके पास इस बात को उठाने का मौका था, तो फिर शायद यह चिट्ठी इस मीटिंग के पहले मीडिया में पहुंचना एक अच्छी बात नहीं थी। लेकिन एक दूसरे नजरिए से देखें तो अजगरी अंदाज में चलती इस पार्टी का ध्यान खींचने के लिए सार्वजनिक रूप से कुछ ढोल बजाने में बुराई क्या थी? इस चिट्ठी में कोई आरोप नहीं लगाए गए थे, किसी को नाकामयाबी का जिम्मेदार नहीं बताया गया था, महज एक सकारात्मक बदलाव की बात की गई थी। तो क्या आज कांग्रेस पार्टी ऐसे मोड़ पर खड़ी है कि वह किसी सकारात्मक बदलाव की मांग करने वाले अपने ही दो दर्जन बड़े नेताओं की बात को बगावत मान रही है? अगर यह बगावत है, तो यह कांग्रेस पार्टी के हित में है। वह युग खत्म हो गया जब नेहरू-गांधी परिवार से परे की संभावनाओं को सोचने पर उसे हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा पाप मान लिया जाता था। अब पार्टी को यह तय करना है कि उसे जिंदा रहना है, या मौजूदा लीडरशिप को पार्टी की अगुवाई में जिंदा रखना है? बहुत से संगठनों में एक वक्त ऐसी नौबत आ जाती है कि उसके नेता पार्टी को आगे ले जाने की अपनी क्षमता के सर्वोच्च स्तर तक पहुंच चुके रहते हैं, और वहां से आगे मशाल किसी और को ही ले जानी होती है। अब अगर पार्टी यह मानकर चले कि वे सोनिया या राहुल की अगुवाई में जहां तक पहुंचे हैं, उससे आगे जाने की पार्टी की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है तो एक अलग बात है। आज सोनिया-परिवार के हिमायती दिग्विजय सिंह का बयान लीडरशिप की एक थोड़ी सी और संभावना वाला है। उन्होंने सोनिया और राहुल का नाम लेने के बजाय यह कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष का पद गांधी परिवार में ही रहना चाहिए। इसका मतलब यह है कि वे प्रियंका गांधी की संभावनाओं को अनदेखा नहीं कर रहे हैं, फिर चाहे वे अभी शब्दों में उसे नहीं कह रहे हैं।
हमने कल भी इस बारे में लिखा था, इसलिए बहुत से तर्कों को आज एक दिन के भीतर यहां दुहराने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन यह बात साफ है कि दो दर्जन बड़े नेता अगर इस चिट्ठी पर दस्तखत करने वाले हैं, तो कई दर्जन और बड़े नेता भी इस चिट्ठी के साथ होंगे, और अभी हवा का रूख देख रहे हैं, या पानी में एक पैर डालकर गहराई देख रहे होंगे। यह बात समझने की जरूरत है कि ये दो दर्जन नेता अगर कांग्रेस के विभाजन पर उतारू होते हैं, तो पार्टी का बड़ा नुकसान भी होगा। वे अगर पार्टी संविधान के मुताबिक अध्यक्ष के चुनाव पर अड़ते हैं, तो भी पार्टी के भीतर एक ढांचे के भीतर भी विभाजन हो जाएगा। यह सोनिया-परिवार के सोचने की बात है कि पार्टी का अब क्या करना चाहिए? अगर दूसरे लोग यह सोचने वाले रहेंगे, तो हो सकता है कि आगे चलकर इस परिवार की मर्जी का अध्यक्ष भी न बने।
एक अखबार के रूप में हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कांग्रेस का अध्यक्ष कौन रहे। लेकिन इस बात हमें फर्क पड़ता है कि देश का एक बड़ा विपक्षी दल अगर और कमजोर होते चला गया तो भारत के लोकतंत्र में भाजपा और एनडीए की ताकत अनुपातहीन ढंग से अधिक हो जाएगी, और वह कोई बहुत अच्छी नौबत जनता के हित में नहीं होगी। कांग्रेस को आज न केवल अपना घर सम्हालने की जरूरत है, बल्कि अपने घर की मरम्मत की भी जरूरत है, और अपने भविष्य के बारे में भी उसे सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि क्या नौबत ऐसी आ गई है कि सोनिया-परिवार का भविष्य और कांग्रेस पार्टी का भविष्य दो अलग-अलग बातें हो चुकी हैं?
हमारा ख्याल है कि कांग्रेस के भीतर कुछ लोग जिसे असंतोष और बगावत कह रहे हैं, वह किसी भी पार्टी के जिंदा रहने का पहला सुबूत है। यह कांग्रेस के लिए एक अनहोनी हो सकती है कि उसके भीतर के कुछ लोग उसे जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि आमतौर पर चापलूसी को इस पार्टी के लिए काफी माना जाता है, और उससे अधिक कुछ क्यों किया जाए, यह सवाल हमेशा ही पार्टी की नीति बने रहता है।
लेकिन अब हिन्दुस्तान की राजनीति के तौर-तरीके मोदी युग के हैं, अब कांग्रेस या कोई भी दूसरी पार्टी यह मानकर नहीं चल सकतीं कि मोदी की गलतियों से वे सत्ता में आ जाएंगे। और जब सत्ता से परे रहना एक लंबा भविष्य दिख रहा है, तो बहुत से नेताओं को अपनी पार्टी से अधिक असरदार, अधिक लड़ाकू, और आखिर में अधिक कामयाब बनाने की जरूरत लग सकती है। अभी तक जो बातें सामने आई हैं उनके मुताबिक तो पार्टी के पास एक पखवाड़े से पड़ी हुई इस चिट्ठी को लेकर कल की कार्यसमिति की बैठक में कोई अधिक बात नहीं हुई, या कम से कम उस पर कोई कार्रवाई होते नहीं दिखी। कल की बैठक के पहले पार्टी जहां पर थी, गांधी परिवार की उसी देहरी पर, उसी जगह, उसी तरह आज भी खड़ी हुई है, बस इतना ही फर्क पड़ा होगा कि ये 23 लोग पार्टी में घोषित रूप से अवांछित बन गए हैं, और जैसा कि दुनिया में कहीं भी होता है इतनी बड़ी संख्या में अवांछित लोग अपने वांछित नतीजों को पाने के लिए आगे भी कुछ न कुछ करते हैं। कांग्रेस पार्टी में आने वाले दिनों में अगर यह संघर्ष बढ़ता है तो भी वह पार्टी के लिए अच्छा ही होगा। पार्टी को तर्कहीन तरीके से अंतहीन चापलूस बने रहना उसे किसी किनारे नहीं पहुंचा सकता। जिन लोगों ने यह चिट्ठी लिखी, उनकी नीयत क्या थी, और आगे उनकी तैयारी क्या है, इसका खुलासा तो आगे धीरे-धीरे होगा लेकिन कांग्रेस पार्टी कम से कम एक जिंदा पार्टी बनी दिख रही है, और वह भी कोई छोटी कामयाबी नहीं है। इस चिट्ठी में उठाए गए मुद्दों पर इस पार्टी को सोचना चाहिए, क्योंकि उसके अलावा उसके पास सोचने को कुछ और तो अधिक बचा भी नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जिस तरह पानी की सतह पर जब जलकुंभी फैल जाती है, और उसके नीचे यह भी नहीं दिखता कि पानी है कि कोई और कचरा है। यह तो दूर की बात है कि उस पानी के नीचे तलहटी में कोई मोती हैं और वे दिख जाएं। ठीक उसी तरह आज हिन्दुस्तान में खबरों का हाल है। कल से देश का मीडिया टूट पड़ा है कि मोदी जिस मोर को दाना खिला रहे हैं, उस वक्त मोदी के बाल इतने कम क्यों दिख रहे हैं? प्रधानमंत्री निवास से बनकर जो वीडियो बाहर आया है, वह वीडियो कैसे बना, उसने मोदी ने कितनी पोशाकें बदलीं, प्रधानमंत्री निवास के भीतर मोरों का दिखना कोई नियम तोड़ रहा है या नहीं, ऐसी कई बातें कल से चारों तरफ छाई हुई हैं। कार्टूनिस्ट भी जमकर पिल पड़े हैं, और सोशल मीडिया पर लोग इसी पर बहस कर रहे हैं। इससे परे देश के वित्तमंत्री बनने की हसरत लिए हुए दुनिया के हर मुद्दे पर अपनी जानकार राय वाले हमलों के योद्धा सुब्रमण्यम स्वामी अब सुशांत राजपूत की मौत पर टूट पड़े हैं, और जांच करती सीबीआई को शर्मिंदा करने लायक जांच कर रहे हैं, जानकारियां ट्विटर पर पोस्ट कर रहे हैं। फिर मानो यह भी काफी न हो तो बलात्कार का एक आरोपी नित्यानंद जिसने कि देश से फरार होकर कहीं एक टापू खरीदकर कैलाश नाम का एक देश बनाने की घोषणा की थी, वह अब वहां अपनी करेंसी के बाद अपनी हिन्दू संसद बनाने की घोषणा कर चुका है। पूरा देश हर किस्म की गैरजरूरी खबरों में डूब गया है, जितने गहरे पानी में बिहार की गरीब जनता डूबी हुई है, उससे बहुत अधिक गहरे इस देश की जनता गैरजरूरी अफवाहों और गॉसिप में डूबी हुई हैं।
दरअसल एक वक्त अखबारों का जो मीडिया लोगों तक समाचार, और समाचार से जुड़े विचार पहुंचाने का जरिया था, उसकी जगह को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, और डिजिटल मीडिया ने ऐसा अवैध कब्जाया है कि अब चतुर और धूर्त नेताओं और पार्टियों के परसेप्शन मैनेजमेंट के लिए प्रिंट की जरूरत नहीं पड़ती, टीवी चैनलों के गलाकाट मुकाबले में जितनी भी अधिक बेबुनियाद बात उछाली जाए, वह उतनी ही तेजी से लपकी जाती है, और फिर डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया भी चैनलों के किए शिकार में से हड्डियों में चिपके मांस को नोचने के लिए तैयार रहते हैं। कभी-कभी उल्टा भी होता है कि सोशल मीडिया या डिजिटल मीडिया शिकार करते हैं, और टीवी चैनल उसके कंकाल में चिपके कुछ टुकड़ों को नोंचते रह जाते हैं। अखबारों को समझ ही नहीं पड़ता कि ऐसे मुकाबले में वे कहां खड़े रहें, क्या करें, और ऐसे में कई बार वे प्रिंट की परंपरागत जिम्मेदार सोच को छोडक़र शिकार की लाश में मुंह मारने में लग जाते हैं। अब यह मुकाबला इस दर्जे का हो गया है कि इसमें पानी में डूबे हुए लोग, बिना इलाज मरते हुए लोग, बिना पीपीई किट के अस्पतालों में ड्यूटी करते डॉक्टर-नर्स, नौकरी खो चुके लोग, बिना मजदूरी भूखों मरने के करीब लोग किनारे बैठे या लेटे हुए यह देख रहे हैं कि इस देश का तथाकथित मीडिया, और सोशल मीडिया किस किस्म की मुद्दों पर गलाकाट मुकाबले में लगे हुए हैं। इसके बीच कुछ-कुछ देर के लिए खबरें ऐसी आती हैं कि दस कदम पीछे उनका खंडन भी दौड़ते हुए आते ही रहता है। दाऊद पाकिस्तान में है, और नहीं है, इन दोनों को मिलाकर आधा-एक घंटा गुजर जाता है। राहुल गांधी ने चि_ी लिखने वालों को भाजपा के साथ मिला हुआ कहा, और नहीं कहा, इन दोनों के बीच कपिल सिब्बल जैसे लोग राहुल पर टूट पड़े, अपना राजनीतिक-धर्मनिरपेक्ष जनेऊ निकालकर दिखाने लगे, और बिहार की बाढ़ में इतनी देर में और कुछ हजार लोग बेघर हो गए।
किसी देश में वहां के लोगों की जिंदगी से जुड़े हुए असल मुद्दे किस तरह धकेलकर हाशिए पर कर दिए जाते हैं, उसकी आज के हिन्दुस्तान से बेहतर मिसाल मिलना मुश्किल है। जाने महीना हुआ है, या दो महीने, सुशांत राजपूत की मौत के बाद यह देश उसे राष्ट्रीय मौत साबित करने में जुट गया, केन्द्र और राज्य के संबंध कसौटी पर चढ़ा दिए गए, राज्यों के आपसी संबंध सरहद पर जंग करते खड़े हो गए, और ऐसा लगा कि मीडिया बॉलीवुड के तमाम गंदे कपड़े धोने का धोबीघाट बन गया है। मीडिया में उन सवालों की फेहरिस्त सिलसिलेवार छपने लगी कि सुशांत राजपूत से जुड़े और जुड़ी किन-किन लोगों से पुलिस या सीबीआई, ईडी या मुम्बई पुलिस ने क्या-क्या पूछताछ की है। इस मौत से जुड़े हुए लोगों के बीच आपस में निजी मैसेंजरों पर क्या-क्या बात हुई वह हैरानी की हद तक खुलासे के साथ जांच एजेंसियों से निकलकर मीडिया में छा गई, और देश सुशांत राजपूत की मौत के समारोह में डूब गया। मीडिया के तकरीबन तमाम लोगों ने इस बात की परवाह नहीं की कि निजी बातचीत को क्यों नहीं छापना चाहिए, क्योंकि न छापें तो गंदगी के गलाकाट मुकाबले में बहुत पीछे रह जाएंगे। इसलिए देश कीचड़ फेंकने के इस मुकाबले की रनिंग कमेंटरी करने वाले मीडिया को देखते रह गया, पढ़ते रह गया।
कहने वाले लोग इसे बहुत पहले से जानते हैं, और कहते हैं कि जब कभी देश के सामने जलते-सुलगते मुद्दे रहते हैं, किस तरह एक पड़ोसी दुश्मन देश से आए कुछ आतंकी पकड़ाते हैं, किस तरह वे बयान देते हैं कि वे हिन्दुस्तान के किन बड़े लोगों को मारने आए थे, किन बड़े शहरों की कौन सी धार्मिक जगहों पर हमले करने वाले थे, और दो-चार दिन मीडिया उसी में डूब जाता है। यह जनधारणा प्रबंधन गजब का है, और मीडिया की इस अघोषित साजिश में भागीदारी करने की बेसब्र और बेचैन हसरत भी गजब की है। देश के जलते-सुलगते असल मुद्दे फुटपाथों पर इंतजार करते हुए बुझे हुए चूल्हों सरीखे हो जाते हैं, और झूठ, अफवाहें, और इन सबसे बढक़र अर्धसत्य, गैरजरूरी सत्य, ये सब उसी तरह धूम-धड़ाके के साथ सडक़ पर से परेड करते निकलते रहते हैं जैसे कि ब्राजील में चकाचौंध मादकता वाली सांबा नर्तकियां सालाना जलसे में निकलती हैं। अब मीडिया और सोशल मीडिया, और मैसेंजर सर्विसों के बीच की विभाजन रेखा झाड़ू लेकर मिटा दी गई है, और इन सारे औजारों का इस्तेमाल परसेप्शन मैनेजमेंट में गजब की पेशेवर खूबी से हो रहा है। इसलिए जिस बिहार में लोग, दसियों लाख लोग बाढ़ से बेघर हैं, उस बिहार को खुश करने के लिए आज यह काफी साबित किया जा रहा है कि सुशांत राजपूत की मौत की जांच मुम्बई पुलिस से छीनकर सीबीआई को दी जा रही है। ऐसे ही तमाम और मुद्दे हैं जो लोगों को असल जलती हुई हकीकत की जमीन पर पांव भी नहीं रखने देंगे क्योंकि उतने सुलगते पैरों के साथ लोग अगर संसद और अदालत की ओर बढ़ चले, तो फिर बगावत सी हो जाएगी। उसके मुकाबले एक मौत का राष्ट्रीयकरण अधिक आसान और अधिक सहूलियत का है।
आखिर कांग्रेस पार्टी में बम फूटा। पार्टी में मायने रखने वाले दो दर्जन लोगों ने सोनिया गांधी को लगभग खुली चिट्ठी लिखकर संगठन में ऊपर से नीचे तक बदलाव की मांग की है, और कहा है कि कांग्रेस को एक पूर्णकालिक और प्रभावी लीडरशिप चाहिए। जाहिर है कि न तो सोनिया गांधी, और न ही राहुल पूर्णकालिक हैं, और किसी दूसरी वजह से न सही, इसी एक वजह से तो कम से कम प्रभावहीन हैं हीं। पार्टी के जिन लोगों ने बहुत कड़वा लगने वाला यह खत लिखा तो सोनिया गांधी के नाम पर है, लेकिन मीडिया में इसके पूरे के पूरे छप जाने की वजह से यह जाहिर है कि इसे भेजने के पहले ही इसे जनता के सामने भी रख देना तय किया गया था। वैसे भी जब किसी चिट्ठी पर देश भर में बिखरे हुए 23 बड़े कांग्रेस नेताओं के दस्तखत हो रहे हैं, तो वह चिट्ठी कम, पोस्टर अधिक है।
खैर, इसमें कोई बुराई नहीं है क्योंकि पिछले दिनों ही हमने कम से कम दो-तीन बार इस मुद्दे पर लिखा, और अभी चार-छह दिन पहले ही यह भी लिखा कि किसी कारोबार के मालिक को खुद मैनेजरी करके उसे नाकामयाब नहीं बनाना चाहिए, बल्कि एक काबिल मैनेजर रखकर कारोबार को कामयाब करना चाहिए। यह बात गांधी परिवार पर भी लागू होती है कि जब वह एक संगठन को चलाने के लिए पूरा वक्त नहीं दे पा रहा है, तो उसे मेहनत करने वाले लोगों को रखना चाहिए, काबिल ढूंढने चाहिए, और ऐसे लोगों को डूबे हुए टाइटैनिक को तलहटी से सतह तक लाने का जिम्मा देना चाहिए। लेकिन यह लिखते हुए भी हमें यह उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस के इतने नेता खुलकर सोनिया गांधी को लिखेंगे, बल्कि जिस वक्त हमने लिखा, उस वक्त वे इस चिट्ठी को सोनिया को भेज भी चुके थे। इसमें लोकसभा और राज्यसभा के पार्टी के बड़े-बड़े नेता, आधा दर्जन भूतपूर्व मुख्यमंत्री, कई प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे हुए लोग शामिल हैं, जिनके नाम खबर में जा रहे हैं, इसलिए यहां पर उस फेहरिस्त को देने का कोई मतलब नहीं है।
इस चिट्ठी में कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव मांगे गए हैं, और पार्टी के पुनरूद्धार के लिए सामूहिक रूप से, संस्थागत नेतृत्व-तंत्र की बात कही गई है। इस चिट्ठी के बाद कल, सोमवार सुबह कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक है, और इस बैठक में इस पर चर्चा हो सकती है। हमारा मानना है कि हाल के बरसों में कांग्रेस पार्टी के भीतर यह सबसे बड़ा समुद्रमंथन है, जिससे कुछ लोगों को अमृत की उम्मीद होगी, और कुछ लोगों को जहर का खतरा दिखेगा। लेकिन हम भारतीय लोकतंत्र के हित में कांग्रेस का मजबूत बने रहना जरूरी मानते हैं, और उसके लिए इस पार्टी के भीतर ऐसी हलचल भी जरूरी है। अभी कई बरस से कांग्रेस संगठन के फैसले अजगर के करवट बदलने के फैसले से भी धीमी रफ्तार से होते थे। यह बात देश में मजाक हो चली कि हर चुनाव के बाद राहुल गांधी बिना किसी जनसूचना के निजी प्रवास पर विदेश चले जाते हैं, सोनिया गांधी उपलब्ध नहीं रहती हैं, प्रियंका गांधी अपने को मोटेतौर पर उत्तरप्रदेश तक सीमित रखती हैं, और पार्टी के बाकी बहुत से नेता जनता की राजनीति के पैमाने पर फॉसिल (जीवाश्म) हो चुके हैं। यह बात हम किसी नेता की उम्र को लेकर नहीं कह रहे, उनके जनाधार, और उनके जनसंघर्ष को लेकर कह रहे हैं।
कांग्रेस के इन नेताओं ने मोदी की कामयाबी की हकीकत को माना है, और अच्छा ही काम किया है क्योंकि हकीकत को माने बिना किसी बात का हल तो निकल नहीं सकता। और मोदी इस देश के राजनीतिक इतिहास की एक अनोखी कामयाबी बन चुके हैं, जो कि आने वाले वक्त में भी आसानी से हराने लायक नहीं दिखते। आज ही एक पुराने अखबारनवीस ने लिखा है कि मोदी को सिर्फ एक व्यक्ति हरा सकता है, खुद नरेन्द्र मोदी। ऐसी हकीकत के दौर में अगर कांग्रेस पार्टी छींके के नीचे बैठी बिल्ली की तरह लेटी रहेगी, तो उससे उसे कुछ हासिल नहीं होना है। दुनिया में लोकतंत्र, चुनाव, सोशल मीडिया, और जनधारणा-प्रबंधन के सारे के सारे पैमाने बदल चुके हैं, नए हथियार चलन में आ गए हैं, रोजाना के औजार भी तमाम ऑटोमेटिक हो गए हैं। ऐसे में एक पार्टी अपने को सवा सौ से अधिक साल पुरानी मानते हुए सवा सौ से अधिक साल पुराने तौर-तरीकों और हथियार-औजारों संग जीने की कोशिश अगर कर रही है, तो वह न तो भविष्य गढ़ रही, न ही वर्तमान में जी रही, वह महज इतिहास लिख रही है।
कांग्रेस अगर अपनी कल की कार्यसमिति में इस चिट्ठी के मुद्दों पर खुलकर चर्चा नहीं करती, तो यह जाहिर है कि राहुल की यह बात जुबानी जमाखर्च थी कि गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष होना चाहिए। अभी जब प्रियंका गांधी का एक इंटरव्यू आया जिसमें उन्होंने भाई की इस बात से सहमति जताई थी, तो अगले ही दिन कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने प्रियंका के बयान को साफ-साफ खारिज करने के बजाय यह कहकर खारिज सा कर दिया कि यह इंटरव्यू तो साल भर पहले दिया गया था, मानो इस एक साल में कांग्रेस इसरो पर सवार होकर अंतरिक्ष पहुंच चुकी हो, और हालात बदल गए हों। इस एक साल में कांग्रेस के हालात अगर किसी किस्म से बदले हैं, तो वे बद से बदतर ही हुए हैं। ऐसे में राहुल और प्रियंका का कुछ कहना, और फिर कांग्रेस प्रवक्ता का उससे एक किस्म से मुकरना एक लतीफे सरीखा है।
भारतीय लोकतंत्र और देश के हित में, और खुद कांग्रेस पार्टी के हित में यही है कि वह संगठन में लोकतंत्र लेकर आए, अधिक से अधिक यही तो होगा कि कई लोगों के बागी तेवर उसके ढांचे को हिलाकर रख देंगे। लेकिन आरामकुर्सी पर चढ़ती हुई चर्बी के मुकाबले बहता हुआ पसीना हमेशा ही बेहतर होता है। कांग्रेस को आज जितने बड़े बदलाव की जरूरत है, वह पूरे का पूरा नेताओं की इस चिट्ठी में सामने आया है। इस पार्टी का भला चाहने वाले लोगों को इस पर खुलकर चर्चा करनी चाहिए, यह गांधी परिवार के भी हित में होगा कि उसे पार्टी कुछ वक्त के लिए आजादी दे। इसी परिवार की पीठ पर इस तरह से सवारी करते रहने ने इस पार्टी को आरामतलब कर दिया है। इसे संघर्ष करने के लिए दूसरों के हवाले करना चाहिए, और चिट्ठी में यह बात सही लिखी हुई है कि देश की सबसे बड़ी और सबसे कामयाब पार्टी की सरकार के मुखिया रहते हुए एक तरफ तो नरेन्द्र मोदी शायद 16 घंटे रोज काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ कांग्रेस के पास कोई भी पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है, जबकि उसे संघर्ष की जरूरत अधिक है।
कांग्रेस के नेताओं की यह चिट्ठी बहुत सही मौके पर आई है और कल कांग्रेस कार्यसमिति में समझदारी भी सामने आ सकती है, और पारंपरिक चापलूसी भी। इस पार्टी का भविष्य एक किस्म से कल तय भी हो सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
वकील प्रशांत भूषण के मामले में सुप्रीम कोर्ट का रूख उसे भारतीय लोकतंत्र के अधिकतर समझदार लोगों से अलग कर रहा है। और ये समझदार क्रिकेट या रॉकेट साईंस के समझदार नहीं हैं, बल्कि ये संविधान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसे जटिल मुद्दों को समझने वाले लोग हैं। इनमें सबसे ताजा नाम एक भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे, आपातकाल के खिलाफ लड़े, और इंडियन एक्सप्रेस जैसे धाकड़ अखबार के दमदार संपादक रहे अरूण शौरी का है। उन्होंने अभी खुलकर कहा कि देश का जो सुप्रीम कोर्ट दो ट्वीट से अपने को खतरे में समझ रहा है वह देश की जनता को खतरे से क्या बचाएगा। उन्होंने बहुत से शब्दों में इस बात को कहा है- मुझे हैरानी हो रही है कि 280 अक्षर-मात्राओं के ट्वीट लोकतंत्र के झंडे को हिला रहे हैं। उन्होंने कहा मुझे नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की छवि इतनी नाजुक है। 280 अक्षर-मात्राओं से सुप्रीम कोर्ट अस्थिर नहीं हो जाता। उनका कहना है कि इस फैसले से पता चलता है कि लोकतंत्र का यह स्तंभ इतना खोखला हो चुका है कि महज दो ट्वीट से इसकी नींव हिल सकती है। उन्होंने प्रशांत भूषण के माफी मांगने से इंकार पर कहा कि यह उनका निजी फैसला हो सकता है, लेकिन अगर वे माफी मांगते तो मुझे हैरानी होती।
अरूण शौरी ने इस बारे में कहा- पिछले कुछ दिनों में प्रशांत भूषण ने इस पर विचार किया होगा। कोर्ट ने 108 पेज का फैसला सुनाया है, कोर्ट का स्तर बहुत ऊंचा है। अगर आप कुल्हाड़ी से मच्छर मारेंगे तो आप अपने आपको चोट पहुंचाएंगे। आपको पता है जो शख्स ऊंचे ओहदे पर बैठता है, चाहे वह राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, या जज कोई भी हो, वो कुर्सी बैठने के लिए होती है, न कि खड़े होने के लिए। उन्होंने कहा- कोर्ट का मान ट्वीट से नहीं, जजों के काम से और उनके फैसलों से घटता है। यदि सुप्रीम कोर्ट खुद को सुरक्षित नहीं रख सकता, तो वह हमारी रक्षा कैसे करेगा। शौरी ने कहा- अगर कोई विज्ञापन कंपनी ट्विटर के लिए विज्ञापन बनाना चाहती है तो इससे अच्छा कोई विज्ञापन नहीं होगा कि ‘आओ ट्विटर से जुड़ो, हमारा प्लेटफॉर्म इतना शक्तिशाली है कि इस पर किया गया ट्वीट दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के केंद्रीय स्तंभ को हिलाने की क्षमता रखता है।’
अरूण शौरी ने कहा- प्रशांत भूषण के ट्वीट नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों द्वारा की गई इन टिप्पणियों के चलते लोगों का विश्वास सुप्रीम कोर्ट से घटेगा। लोग कहेंगे ‘अरे यार तुम सुप्रीम कोर्ट के पास भाग रहे हो कि वो तुम्हें बचाएंगे, जबकि वो खुद कह रहे हैं कि वे इतने कमजोर हो गए हैं कि दो छोटे से ट्वीट सारे ढांचे को गिरा देंगे।’ उन्होंने कहा, ‘यह वही बात हुई जैसा कि शायर कलीम आजि•ा ने कहा है, ‘हम कुछ नहीं कहते, कोई कुछ नहीं कहता, तुम्ही क्या हो तुम्ही सबसे, कहलवाए चले हो।’’ शौरी ने कहा कि कोर्ट के फैसलों की आलोचना और विश्लेषण करना अवमानना नहीं होता है। उन्होंने कुछ मामलों की मिसाल देते हुए कहा कि कोर्ट के कई ऐसे फैसले हैं जहां अदालत ने तर्कों को नजरअंदाज करते हुए फैसला दिया, या अभी भी लंबित है। उन्होंने कहा कि जैसा कोर्ट ने जजलोया और रफाल मामले में फैसला दिया, दोनों मामलों में महत्वपूर्ण सुबूतों की ओर से मुंह फेर लिया गया।
अरूण शौरी ने कहा कि अदालत हमारे संविधान के केन्द्र में स्थित बेहद महत्वपूर्ण विषयों, कश्मीर, मुठभेड़-हत्या, नागरिकता-संशोधन एक्ट को लगातार नजरअंदाज कर रही है। उन्होंने कहा, ‘क्या सत्य को उस देश में रक्षा के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा, जिसका आदर्श राष्ट्रीय वाक्य सत्यमेव जयते है? जिस देश के राष्ट्रपिता ने बार-बार कहा है कि सत्य ही भगवान है।’ उन्होंने कहा, ‘न्यायिक व्यवस्था का मान किसी ट्वीट से कम नहीं होता है, बल्कि अन्य कई कारणों, जैसे तथ्यों को नजरअंदाज करने, महाभियोग जैसे मामलों को डील करने की प्रक्रिया अपर्याप्त और निष्पक्ष न होने, और पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के खिलाफ दुराचार के आरोपों के संबंध में पूरी तरह गोपनीयता बरतने, से कोर्ट का मान घटता है। किसी के ट्वीट पर अपना गुस्सा निकालने से अच्छा है कि इन कमियों को दूर किया जाए। याद रखें कि भ्रष्टाचार का अर्थ केवल धन स्वीकार करना नहीं है। हो सकता है कि एक अकादमिक या पत्रकार पैसे स्वीकार न करे, और फिर भी वह बौद्धिक रूप से भ्रष्ट हो कि वह आदतन दूसरों के काम को अपना बताकर छापता हो, या उससे नकल करता हो।
शौरी ने कहा कि इस तरह यदि कोई भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं तो इसका मतलब हमेशा ये नहीं होता कि वे पैसे के भ्रष्टाचार की बात कर रहे हों। एक व्यक्ति, एक जज, या एक राजनेता पैसे के मामले में पूरी तरह से ईमानदार हो सकता है, लेकिन नैतिक रूप से भ्रष्ट हो सकता है। वह किताबों में उच्च सिद्धांतों की खूब पैरवी करता होगा, मौलिक अधिकारों के बारे में खूब बोलता होगा, लेकिन जब इसे लागू करने की बात होती हो, तो वह पीछे हट जाता होगा। इस तरह के भ्रष्टाचार के ढेरों उदाहरण हैं।’
अरूण शौरी ने अलग-अलग कई अखबारों और समाचार माध्यमों से बातें की हैं, और उनकी बातों को हल्के में खारिज करना नाजायज होगा। वे खुद देश की कई सरकारों के खिलाफ लड़ चुके हैं, और वे लोकतंत्र के तमाम पहलुओं से बहुत अच्छी तरह वाकिफ इंसान हैं। आज अपने अखबार के विचारों की इस जगह पर उनकी बातों को जस का तस धर देने के पीछे इस जगह को भर देने की नीयत नहीं है, बल्कि इस अखबार की अपनी सोच से मेल खाने वाली उनकी जो सोच कल सामने आई है उसे हम पिछले कुछ दिनों में अपनी लिखी बातों के एक विस्तार के रूप में यहां रख रहे हैं, और इसीलिए उनकी बातों को पूरे खुलासे से देना ठीक लगा है।
सुप्रीम कोर्ट अगले एक-दो दिनों में इस मामले पर अपना तय किया जा चुका रूख सामने रखेगा, और अदालत की जुबान में इसे सजा का निर्धारण कहा जाएगा। प्रशांत भूषण के मुद्दे पर हमारे तर्क फिलहाल खत्म हो चुके हैं, और अभी दो दिन पहले ही हमने इस बारे में लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फैसला भी दे सकता है, और इंसाफ भी कर सकता है। यह पूरा सिलसिला सुप्रीम कोर्ट की एक अनुपातहीन अधिक ताकत के खतरे भी बता रहा है कि दर्जनों जजों वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच पूरी न्यायपालिका के सम्मान पर एक फैसला ले रही है, और इस बेंच से दस गुना अधिक दूसरे जज इस बुनियादी और लोकतांत्रिक मुद्दे पर राय देने से बाहर हैं। सुप्रीम कोर्ट से अभी रिटायर हुए जज जस्टिस कुरियन जोसेफ ने किसी विवाद को लेकर दो दिन पहले एक बयान जारी करके कहा है कि मामले की सुनवाई पांच या सात जजों की संवैधानिक बेंच को करनी चाहिए। इस तरह के महत्वपूर्ण मामलों को कोर्ट के भीतर विस्तृत रूप से सुना जाना चाहिए जहां व्यापक चर्चा, और व्यापक भागीदारी की गुंजाइश हो। उन्होंने लिखा- भारत के सर्वोच्च न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने न्यायालय की अवमानना के दायरे और सीमा पर कुछ गंभीर प्रश्नों को सुनने का फैसला लिया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक स्वत: संज्ञान मामले में दोषी ठहराए व्यक्ति को अंतर-अदालत की अपील का मौका मिलना चाहिए क्योंकि आपराधिक मामलों में सजा की अन्य सभी स्थितियों में दोषी व्यक्ति के पास अपील के माध्यम से दूसरे अवसर का अधिकार है। अदालत की अवमानना अधिनियम के तहत एक अंतर-अदालत अपील दी जाती है जहां उच्च न्यायालय के एकल जज द्वारा आदेश पारित किया जाता है तो मामले में डिवीजन बेंच सुनवाई करती है, जिसकी अपील भारत के सर्वोच्च न्यायालय में निहित है। उन्होंने लिखा यह सुरक्षा शायद न्याय के अंत की आशंका से बचने के लिए भी प्रदान की गई है। क्या अन्य संवैधानिक न्यायालय, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भी इस तरह की सुरक्षा नहीं होनी चाहिए, जब एक स्वत: संज्ञान आपराधिक अवमानना मामले में सजा हो?
जस्टिस कुरियन ने अपने बयान में लिखा है- न्याय किया जाना चाहिए, भले ही आसमान टूट पड़े, ये बात न्यायालयों द्वारा न्याय के प्रशासन की बुनियादी नींव है। लेकिन अगर न्याय नहीं किया जाता है, या न्याय विफल होता है, तो आसमान निश्चित रूप से टूट पड़ेगा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा नहीं होने देना चाहिए। वर्तमान अवमानना मामले केवल एक या दो व्यक्तियों से जुड़े हुए नहीं हैं, बल्कि न्याय से संबंधित देश की अवधारणा और न्यायशास्त्र से संबंधित बड़े मुद्दे हैं। इन जैसे महत्वपूर्ण मामलों को विस्तृत रूप से सुना जाना चाहिए जहां व्यापक चर्चा और व्यापक भागीदारी की गुंजाइश है। लोग आ सकते हैं, और लोग जा सकते हैं, लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय को सर्वोच्च न्याय के न्यायालय के रूप में हमेशा के लिए रहना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फिल्म उद्योग के कलाकार सोनू सूद की समाजसेवा पर हम पहले भी एक-दो बार इसी जगह पर लिख चुके हैं, और कई खबरें भी छापी हैं। जिस तरह देश भर से इस नौजवान कलाकार को मदद की अपील मिल रही हैं, और वह जिस तरह लोगों का इलाज करवा रहा है, संगठित रूप से लोगों को नौकरियां दिलवा रहा है, किसी का मकान बनवा रहा है, तो किसी को बह गई भैंस दिलवा रहा है, सोशल मीडिया पर कोई तस्वीर आई कि एक किसान अपनी बेटियों को हल में जोतकर खेत में काम कर रहा है, तो सोनू सूद की तरफ से ट्रैक्टर उनके घर पहुंच जाता है। यह पूरा सिलसिला अनोखा है, और अटपटा है। क्या इतना बड़ा देश लोगों की अंतहीन जरूरतों के लिए किसी एक जिंदा इंसान के कंधों पर इस हद तक सवार होकर चल सकता है? इस देश में केन्द्र सरकार है, राज्य सरकारें हैं, स्थानीय म्युनिसिपल और पंचायतें हैं, बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीएसआर फंड हैं, बड़े-बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन हैं, क्या इन सबके ढांचे ढह चुके हैं? क्या पूरे हिन्दुस्तान की जरूरतें इस रफ्तार से एक मददगार पर टूट पड़ेंगी कि किसी एक दिन उसे 41 हजार अपीलें मिलें? कोई एक इंसान, इंसान की ताकत से बहुत ऊपर उठकर अगर जरूरतमंदों का ऐसा मददगार हो रहा है, तो यह क्षमता अविश्वसनीय है। सोनू सूद की विनम्रता भी अविश्वसनीय है, उसकी रफ्तार भी अविश्वसनीय है, और मदद का उसका आकार भी अविश्वसनीय है। इस सिलसिले को नाकामयाबी के पहले दूसरे लोगों को खुद मदद की जरूरत है। अगर एक इंसान ही अंतहीन इस हद तक करते चलेगा, तो फिर लोगों को किसी ईश्वर की जरूरत क्यों होगी? इसलिए हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के बाकी तबकों को सोनू सूद नाम के एक आईने में अपना चेहरा देखना चाहिए, और अपने-अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभानी चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो अब अपने पीएम केयर्स फंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक से क्लीन चिट पा चुके हैं कि उसमें कुछ गलत नहीं है। इस फंड में यह भी इंतजाम है कि इसके दानदाताओं को टैक्स में छूट मिलेगी, कंपनियों के सीएसआर का पैसा इस फंड में दिया जा सकेगा, और इसे सीएजी से ऑडिट भी नहीं करवाना पड़ेगा। अब तक पब्लिक सेक्टर कंपनियों से ही इसे हजार-दो हजार करोड़ मिल चुके हैं, और देश की बाकी बड़ी कंपनियों से भी। आज सोनू सूद किसी राजनीतिक दल का झंडा उठाए बिना जिस अंदाज में लोगों की मदद के लिए जादूगर मैन्ड्रेक और महाबली बेताल का मिलाजुला रूप बनकर सुपरमैन की तरह आसमान पर उड़ते हुए पूरे देश के गांव-गांव तक पहुंच जा रहा है, दरअसल वह अंदाज हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री को बेहतर सुहाता। नरेन्द्र मोदी अगर ट्विटर पर देख-देखकर देश भर के लोगों की दिक्कतों को इसी तरह दूर करते, तो वह लोकतंत्र में ऐसी सेवा का एक फायदेमंद काम भी होता कि उन्हें चुनाव में इसका असर देखने मिलता। लेकिन सोनू सूद फिलहाल तो किसी राजनीतिक दल में गए नहीं हैं, किसी पार्टी का प्रचार कर नहीं रहे हैं, किसी पार्टी से चुनाव लडऩे की नीयत नहीं दिख रही है, और फिर वे अकेले बिहार की मदद भी नहीं कर रहे हैं। इसलिए उनके अविश्वसनीय नेक काम पर हम शक करके उसकी बेइज्जती करना नहीं चाहते। अगर वे चुनाव लड़ते भी हैं, तो भी आज उनके किए हुए कामों से जिन लाखों जिंदगियों को राहत मिली है, या मिलने जा रही है, वह काम तो खत्म नहीं हो जाता। अब सवाल यह है कि 130 करोड़ आबादी के इस देश में सुबह से रात तक जरूरतमंद लोगों की ऐसी मदद से भी क्या तकलीफें खत्म हो जाएंगी? या तो समाज के संपन्न लोग सोनू सूद के साथ आएं, और एक ट्रस्ट बनाकर उन्हें ऐसी ताकत दें कि वे इस काम को जारी रख सकें। दूसरा रास्ता यह हो सकता है कि सरकारें अपनी जिम्मेदारी पूरी करें, मकान देने के लिए सरकारों के पास बजट है, और उनके इलाकों में गरीबों की शिनाख्त भी है, तो किसी को मकान बनवाकर देने की जिम्मेदारी सोनू सूद तक पहुंचनी क्यों चाहिए? छत्तीसगढ़ में बारिश से किसी आदिवासी छात्रा की सारी किताबें भीगकर खत्म हो गईं, टूटी छत बिना दीवारों वाला घर, उसे देखकर सोनू सूद ने किताबों और मकानों दोनों का भरोसा दिलाया है। अब यह काम छत्तीसगढ़ के जिस हिस्से में भी होना है, वहां पर स्थानीय शासन है, राज्य शासन के आला अफसर हैं, और समाज के भी ताकतवर लोग हैं, क्या ये तमाम लोग भी सोनू सूद की ट्वीट जमीन पर उतरते देखने की राह तकेंगे? या इनकी खुद की भी अपने इलाकों के लिए कोई जिम्मेदारी बनती है?
यह पूरा सिलसिला मुंबई से मजदूरों को उनके गांव वापिस भेजने से शुरू हुआ था। सोनू सूद ने हजारों बसों में लोगों को भेजा, कई रेलगाडिय़ां चलवाईं, और दर्जनों विमानों से भी मजदूरों को भेजा। यही काम कई राज्य सरकारें भी कर रही थीं। लेकिन क्या किसी सरकार ने अपने राज्य में लौटे हुए मजदूरों के लिए सोनू सूद को भुगतान की पेशकश की? कम से कम एक-दो राज्यों के मंत्रियों की तो हमें याद भी है कि किस तरह उन्होंने सोशल मीडिया पर ही सोनू सूद को इस बात के लिए धन्यवाद लिखा था कि उन्होंने उनके राज्य के मजदूरों को भिजवाया। सोनू सूद ने तो अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से लाख गुना अधिक करते हुए ऐसे काम किए हैं, लेकिन क्या सरकारों का जिम्मा बस इतना ही बनता है कि थैंक्यू सोनू सूद टाईप करके पोस्ट कर दें?
लोकतंत्र अगर अपनी व्यापक जिम्मेदारियों को, अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों को किसी एक करिश्माई व्यक्ति के भरोसे छोड़क़र खुद चादर तानकर सो जाए, तो यह करिश्माई की कामयाबी कम है, लोकतंत्र की नाकामयाबी और गैरजिम्मेदारी अधिक है। आज इस देश के तमाम सत्तारूढ़ लोगों को यह सोचना चाहिए कि सोनू सूद के किए हुए कौन-कौन से काम दरअसल उनकी (सत्तारूढ़ लोगों की) जिम्मेदारी थे, और उन्होंने जब जरूरतमंदों की मदद नहीं की, तो लोगों को यह एक आदमी देश का सबसे बड़ा मददगार, सबसे बड़ा भरोसेमंद, सुपरमैन, और ईश्वर सरीखा दिखने लगा।
हमको पक्का भरोसा है कि कम से कम ईश्वर को तो ऐसी तुलना नहीं सुहाएगी, क्योंकि वह अपने आपको तमाम इंसानों से ऊपर रखना चाहेगा, लेकिन क्या अदालतों, सरकारों, और सामाजिक संगठनों पर काबिज लोगों को ऐसी तुलना सुहा रही है कि कल का एक छोकरा, फिल्मों में खलनायक बनने वाला, मार खाने वाला, आज देश का सबसे बड़ा नायक बनकर उभर रहा है? जिन लोगों के हिस्से के काम सोनू सूद कर रहे हैं, उन लोगों को अपने बारे में सोचना चाहिए कि इतिहास उनके जिम्मे की नाकामयाबी को भी दर्ज करते चल रहा है। जब एक आम एक्टर देश का सबसे बड़ा नायक बन रहा है, देश का रहनुमा माना जा रहा है, तो फिर जनता के पैसों पर कुर्सियों पर बैठे हुए नायक तो खलनायक ही साबित हुए न? और इतिहास इस बात को भी दर्ज करते चल रहा है कि मजदूरों को लेकर जब लोग सुप्रीम कोर्ट तक दौड़े थे, तब सुप्रीम कोर्ट का क्या रूख था। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के एक प्रमुख वकील और सार्वजनिक मुद्दों पर कई सरकारों, कई जजों के कटु आलोचक रहते आए प्रशांत भूषण के दो ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट उन्हें अदालत की अवमानना की सजा सुना रही है। दो दिन पहले इसी जगह हमने इस मुद्दे पर अपनी सोच खुलासे से सामने रखी थी, और आज उसे दुहराने का हमारा कोई इरादा नहीं है। इसलिए हम आज प्रशांत भूषण के समर्थन में कुछ लोगों के बयानों के कुछ हिस्से यहां दे रहे हैं, और खुद प्रशांत भूषण का आज सुप्रीम कोर्ट में दिया गया एक बयान भी दे रहे हैं क्योंकि इनसे अधिक हमारे पास दो दिन के भीतर लिखने के लिए और कुछ नहीं है।
प्रशांत भूषण की जिन दो ट्वीट को अदालत ने अवमानना माना है, और उन्हें सजा का हकदार माना है उनमें उन्होंने लिखा था- जब इतिहासकार भारत के बीते 6 सालों को देखते हैं, तो पाते हैं कि कैसे बिना आपातकाल के देश में लोकतंत्र खत्म किया गया। इसमें वे (इतिहासकार) उच्चतम न्यायालय, खासकर चार पूर्व न्यायाधीशों की भूमिका पर सवाल उठाएंगे।
दो दिन बाद अगली ट्वीट में प्रशांत भूषण ने मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबड़े की विदेशी मोटरसाइकिल पर बैठी फोटो पोस्ट की थी, और लिखा था- मुख्य न्यायाधीश ने कोरोना काल में अदालतों को बंद रखने का आदेश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट में आज प्रशांत भूषण को सजा देने पर चल रही बहस के दौरान प्रशांत भूषण ने एक लिखित बयान में महात्मा गांधी का जिक्र किया और कहा- बोलने में विफलता कर्तव्य का अपमान होगा। मुझे तकलीफ है कि मुझे अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है, जिसकी महिमा मैंने एक दरबारी या जय-जयकार के रूप में नहीं, बल्कि 30 बरस से एक चौकीदार के रूप में बनाए रखने की कोशिश की है। मैं सदमे में हूं और इस बात से निराश हूं कि अदालत इस मामले में मेरे इरादों का कोई सुबूत दिए बिना इस निष्कर्ष पर पहुंची है। कोर्ट ने मुझे शिकायत की कापी नहीं दी, मुझे यह विश्वास करना मुश्किल है कि कोर्ट ने पाया कि मेरे ट्वीट ने इस संस्था की नींव को अस्थिर करने का प्रयास किया। लोकतंत्र में खुली आलोचना जरूरी है। हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब संवैधानिक सिद्धांतों को सहेजना व्यक्तिगत निश्ंिचतता से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए। बोलने में असफल होना कर्तव्य का अपमान होगा। यह मेरे लिए बहुत ही बुरा होगा कि मैं अपनी प्रमाणित टिप्पणी के लिए माफी मांगता रहूं।
प्रशांत भूषण ने महात्मा गांधी के बयान का जिक्र करते हुए कहा- ‘‘मैं दया की अपील नहीं करता हूं। मेरे प्रमाणित बयान के लिए कोर्ट की ओर से जो भी सजा मिलेगी, वह मुझे मंजूर है।’’
प्रशांत भूषण ने कहा- मेरे द्वारा किए गए ट्वीट देश के एक नागरिक के रूप में सच को सामने रखने की कोशिश है। अगर मैं इस मौके पर नहीं बोलूंगा तो मैं अपनी जिम्मेदारी को निभा पाने में नाकामयाब रहूंगा। मैं यहां पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की एक बात को रखना चाहूंगा। उन्होंने कहा था- मैं दया करने के लिए नहीं कहूंगा, मैं उदारता दिखाने के लिए नहीं कहूंगा, मैं अदालत द्वारा दी गई किसी भी सजा को स्वीकार करूंगा, और यही एक नागरिक का पहला कर्तव्य भी है।
अदालत ने जब प्रशांत भूषण को अवमानना पर अदालत से माफी मांगने पर विचार करने के लिए दो दिन और देने की बात कही तो प्रशांत भूषण ने कहा- मैंने जो कुछ भी कहा है, वह बेहद सोच-समझकर और विचार करने के बाद ही कहा है। अगर अदालत मुझे समय देना चाहती है तो मैं इसका स्वागत करता हूं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसका कोई फायदा, इससे अदालत का समय ही बर्बाद होगा। इसकी बहुत संभावना नहीं है कि मैं अपना बयान बदलूंगा।
इस मामले में देश के अलग-अलग राजनीतिक दलों के 21 नेताओं ने बयान जारी करके प्रशांत भूषण के प्रति समर्थन जताया है, और लिखा है- न्याय देने में आ रही दिक्कतों, और लोकतांत्रिक संस्थाओं में गिरावट को लेकर उनके दो ट्वीट पर अवमानना की कार्रवाई की गई। यह दुखद है कि माननीय न्यायालय ने यह जरूरी नहीं समझा कि रचनात्मक आलोचना और दुर्भावनापूर्ण बयान में अंतर करे। हम ऐसी एप्रोच के लिए वैध आधार नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि यह एक आम व्यक्ति के लिए अपनी नागरिकता के उस दायित्व को निभाने में बाधा खड़ी करेगा जो दायित्व हमारे लोकतांत्रिक गणतंत्र के बारे में तथ्यपरक अभिव्यक्ति देने के रूप में है। हमारा विश्वास है कि बोलने की आजादी की रक्षा की जाए, और इसको बढ़ावा दिया जाए क्योंकि हमारे युवा लोकतंत्र में अलग-अलग नजरिए की विविधता और सभी संस्थाओं के सार्थक होने के लिए मुस्तैदी जरूरी है।
इसके पहले बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने भी इस मामले में गहरी चिंता जताई थी, और मंगलवार को एक बयान जारी करके कहा था- जैसे यह अवमानना-कार्रवाई की गई है उससे अदालत की प्रतिष्ठा बने रहने से ज्यादा नुकसान पहुंचने की आशंका है। कुछ ट्वीट से सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। जब कोर्ट ने इस मामले का संज्ञान लिया था तब हमने अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था, लेकिन गलती से सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री में इसे शामिल नहीं किया। हमारे बयान में बार के बोलने की ड्यूटी से जुड़ी धारा का भी उल्लेख था जिसमें कहा गया है- न्यायपालिका, न्यायिक अधिकारियों, व न्यायिक आचरण से संबंधित संस्थागत और संरचनात्मक मामलों पर टिप्पणी करना सामान्य रूप से न्याय प्रशासन और एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर भी वकीलों की ड्यूटी है।
देश के पन्द्रह सौ से ज्यादा वकीलों ने प्रशांत भूषण के पक्ष में बयान जारी करके कहा है- सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर पुनर्विचार करे ताकि न्याय की हत्या न हो। अवमानना के डर से खामोश बार से सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता, और आखिरकार ताकत कम होगी।
सुप्रीम कोर्ट की एक प्रमुख वकील इंदिरा जयसिंह ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि जस्टिस अरूण मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने प्रशांत भूषण के खिलाफ जो फैसला दिया है उस पर पुनर्विचार किया जाए। उन्होंने सुनवाई के लिए 32 जजों की एक पूरी अदालत की मांग की है। उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अपने भाषण में कहा- अगर मैं अपने मन की बात कहती हूं, इसलिए मेरा अस्तित्व है, लेकिन अगर यह अधिकार खतरे में पड़ता है तो मेरा अस्तित्व भी नहीं बच पाएगा। एक अदालत जिसके पास जनहित याचिका की सुनवाई की शक्ति है, वह असंतोष के स्वरों को सुनने से खुद को नहीं रोक सकती। हमारा कर्तव्य है कि यदि हम न्यायालय को उसके रास्ते से भटकते हुए देखें, तो बोलें। नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है कि हम जीवंत आलोचना करें। हमें स्वतंत्र रूप से बोलने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही। सुप्रीम कोर्ट जनता का सहयोगी है, और एक भारतीय नागरिक का सार्वजनिक क्षेत्राधिकार सार्वजनिक है, इसलिए नागरिकों को असहमति का अधिकार है। अदालत यह दिखाने में विफल रही कि ट्वीट न्याय में हस्तक्षेप कैसे हो सकता है? फैसले में कहा गया है कि न्यायालय पर से जनता का विश्वास हिल जाएगा। क्या जनता से सलाह ली गई थी? क्या तीन जज ही जनता हैं? कई संपादकीय और बयान फैसले के खिलाफ आए हैं, और उनसे स्पष्ट है कि लोग बोलने की आजादी के हिमायती हैं। मैं सुप्रीम कोर्ट के 32 जजों की एक पूर्ण अदालत द्वारा फैसले पर पुनर्विचार पर अपील करती हूं, हम यह जानना चाहते हैं कि क्या यह (फैसला) पूरे न्यायालय का नजरिया है?
अलग-अलग लोगों के बयानों के हिस्से ऊपर देने के साथ-साथ हम अपनी तरफ से आज यहां बस इतना लिखना चाहते हैं कि आज सुप्रीम कोर्ट के सामने दो विकल्प हैं, वह सजा पर फैसला भी दे सकता है, और वह इंसाफ भी कर सकता है। यह एक ऐतिहासिक मौका है, और आज इस बेंच में मौजूद तीन जजों के जाने के बाद भी लोकतंत्र और न्यायपालिका, हिन्दुस्तान का संविधान, और जनता की जिम्मेदारी, इन सब मुद्दों पर जमकर इतिहास लिखा जाएगा।
अभी हफ्ते भर पहले प्रकाशित हुई एक किताब जिसमें अगली पीढ़ी के युवा नेताओं के इंटरव्यू हैं, उसमें ऐसा छपा है कि प्रियंका गांधी ने किताब के लेखकों को कहा है कि वे अपने भाई राहुल गांधी से पूरी तरह सहमत हैं कि किसी गैरकांग्रेसी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए। किताब के मुताबिक प्रियंका ने कहा है कि हममें (परिवार) से किसी को पार्टी अध्यक्ष नहीं होना चाहिए, पार्टी के अपना रास्ता खुद तलाशना चाहिए।
अभी पिछले दो घंटों में देश के तमाम मीडिया में इस किताब से प्रियंका की बातचीत के हिस्से छा गए हैं, और यह किसी किताब की बिक्री के लिए एक शानदार तरीका भी रहता है। लेकिन इन कुछ घंटों में दिल्ली में प्रियंका, या कांग्रेस पार्टी की तरफ से इन खबरों के खिलाफ कुछ नहीं कहा गया है, तो हम भी पहली नजर में किताब के लेखकों से उनकी बातचीत से सही मान रहे हैं। प्रियंका का इंटरव्यू पढऩे लायक है, क्योंकि उसमें परिवार और पार्टी की बहुत सी बातों पर पहली बार उनका बयान आया है, लेकिन आज यहां उस पर लिखने का मकसद कांग्रेस अध्यक्ष के बारे में लिखना है।
अगर ये बातें सही हैं, तो कांग्रेस पार्टी के पास एक बार गांधी नाम की लाठी के बिना अपने पैरों पर खड़े होने का एक मौका आया हुआ दिख रहा है। और खुद गांधी परिवार के इन तीन लोगों को भी कुछ बरस चैन से गुजारना चाहिए, अगर वे सचमुच ही पार्टी की लीडरशिप से कुछ या अधिक वक्त के लिए अलग होना चाहते हैं, तो शायद यह सबसे सही मौका है, और अगर इस मौके को यह परिवार चूकता है, तो यही माना जाएगा कि वह मन-मन भावे, मूड़ हिलावे का काम कर रहा है।
आज जब हम इस परिवार के बाहर कांग्रेस अध्यक्ष की संभावना पर चर्चा कर रहे हैं, तो हो सकता है कि पहले हमारी लिखी हुई कुछ बातों से परे जाकर, या उसके खिलाफ भी जाकर हम यहां लिख रहे हों। शीशे पर लुढक़ते पारे की तरह अस्थिर राजनीति में जब हालात बदलते हैं, तो व्यक्तियों और पार्टियों के कुछ पहलुओं के बारे में हमारे जैसे लोगों के खयालात भी बदलते हैं। आज कांग्रेस पार्टी में गांधी परिवार सर्वमान्य और स्वाभाविक नेता है, तो यह यथास्थिति कांग्रेस के लिए पार्टी के भीतर विवादहीन और सुविधाजनक लगती है। लेकिन दूसरी तरफ कांग्रेस की संभावनाएं, और खुद इस परिवार की संभावनाएं यह स्थिति जारी रहने पर कमजोर लगती हैं। हो सकता है कि परिवार से परे की पार्टी लीडरशिप पार्टी का भी भला कर सके, और इस परिवार को भी सांस लेने का एक मौका दे सके। आज जब तक कांग्रेस में लीडरशिप के स्तर पर कोई शून्य नहीं है, तब तक यह सोचना कुछ मुश्किल है कि उसे कौन भर सकते हैं। लेकिन यह संभावना असंभव नहीं है। 18 बरस प्रधानमंत्री रहने के बाद जब नेहरू गुजरे थे, तो उनके रहते-रहते ही यह सवाल उठने लगा था कि नेहरू के बाद कौन? लेकिन नेहरू के बाद भी हिन्दुस्तान खत्म नहीं हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी संसद में दो सीटों पर आ गई थी, तब भी उसकी संभावनाएं खत्म नहीं हुई थीं, और आज वह संसद में फर्श, दीवार, और छत तक पर काबिज हुई है। जब इमरजेंसी लगी थी, तो उसके बाद के चुनाव में इंदिरा का जो हाल हुआ था, उससे लगता था कि अब वे खत्म हो गई हैं, लेकिन वे तो ढाई बरस के भीतर ही खुद-गिरी जनता पार्टी सरकार के बाद सत्ता पर आ गई थीं। नरसिंहराव के प्रधानमंत्री रहते हुए सोनिया परिवार से कोई भी न पार्टी अध्यक्ष थे, और न ही किसी मंत्री पद पर भी थे, लेकिन फिर भी यह परिवार पार्टी की सत्ता पर फिर से आ गया, और लगातार दो कार्यकाल के लिए मनमोहन सिंह की सरकार बनाने में कामयाब हुआ। इसलिए इस परिवार को ऐसी किसी दहशत में रहने की कोई जरूरत भी नहीं है कि एक बार पार्टी की कमान किसी बाहरी के हाथ चली गई, तो वह घर में लौटेगी ही नहीं। लोगों को यह याद रखना चाहिए कि काबिल मालिक वे नहीं होते हैं, जो कि अपने कारोबार को बर्बाद करने की हद तक खुद चलाते हैं, काबिल मालिक वे होते हैं जो काबिल मैनेजर रखकर उसके हाथों कारोबार को कामयाब बनाते हैं।
किसी पार्टी में इतनी जिंदगी बाकी भी रहना चाहिए कि वह सबसे आसानी से हासिल एक विकल्प से परे सोचने की मशक्कत भी कर सके। बिना ऐसी मशक्कत के, पार्टी के बाकी लोगों के सामने बिना किसी संभावना के पार्टी मुर्दा होने लगती है। आज देश में बहुत से ऐसे कांग्रेस नेता हो सकते हैं जो कि पार्टी को राहुल या सोनिया के मुकाबले बेहतर तरीके से चला सकें। पार्टी के नेताओं की क्षमता को कम नहीं आंकना चाहिए। कांग्रेस में प्रदेश स्तर पर भी कई ऐसे नेता हाल के बरसों में उभरकर सामने आए हैं जिन्होंने बड़ी उम्मीदें जगाई हैं। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल ने विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष रहते हुए जिस दम-खम के साथ भाजपा की रमन सरकार का विरोध किया था, और जिस अभूतपूर्व-ऐतिहासिक बहुमत के साथ उन्होंने कांग्रेस की सरकार बनाई, कुछ वैसी ही मेहनत और लड़ाई की जरूरत कांग्रेस को देश भर में है।
राहुल, सोनिया, और प्रियंका से परे की कांग्रेस लीडरशिप, कांग्रेस विरोधी पार्टियों, खासकर भाजपा, के हाथों से एक बड़ा मुद्दा भी छीनकर ले जाएंगे। कुनबापरस्ती या व्यक्तिवादी पार्टी का भाजपा का आरोप हमेशा ही कांग्रेस के खिलाफ एक आसान और सदासुलभ हथियार रहा, फिर चाहे उसके अपने साथियों में से अधिकांश ठीक इसी तरह के व्यक्तिवादी और कुनबापरस्त क्यों न रहे हों। भाजपा ने समय-समय पर, और सबसे लंबे समय तक शिवसेना और अकाली दल इन दो पार्टियों पर सवारी की है, और दोनों ही परले दर्जे की व्यक्तिवादी और कुनबापरस्त पार्टियां रही हैं। ठीक ऐसी ही पार्टी बसपा के साथ भी भाजपा की भागीदारी रही है, और एनडीए की दूसरी पार्टियों में दर्जन भर पार्टियां ऐसी ही खूबी या खामी वाली रही हैं। फिर भी भाजपा का अकेला हमला कांग्रेस पर ही होते आया है, और वह भी किसी गैरगांधी पार्टी अध्यक्ष रहने से बेअसर हो जाएगा।
जो भी कारोबार, या राजनीतिक-सामाजिक काम अधिक चुनौतियों भरे होते हैं, उनमें नया खून हमेशा ही कुछ न कुछ बेहतर संभावनाएं ला सकता है। कांग्रेस को अपने इस राज परिवार की आम सहमति के बाद इनकी हसरत और इनकी जरूरत की इज्जत करनी चाहिए, और अपने आपको एक दीवालिया पार्टी न मानकर दूसरा नेता चुनना चाहिए। हो सकता है कि देश और प्रदेशों में कांग्रेस पार्टी नए लोगों के बारे में सोचे, तो इसके भीतर एक लोकतांत्रिक उत्साह भी आए। अगले आम चुनाव में अभी खासा वक्त है, और यही सही समय है कि पार्टी किसी और को अगर मुखिया चुनने जा रही है तो वह अभी चुना जाना चाहिए, छांटा जाना चाहिए।
खाने-पीने के शौक के लिए विख्यात शहर इंदौर की एक तस्वीर किसी ने ट्विटर पर पोस्ट की हैं कि वहां बाजारों में लोग खाने-पीने किस तरह टूट पड़े हैं। उस शहर में खाने-पीने की संस्कृति ऐसी है कि लोग रात खाने के बाद भी घर से निकलकर बाजार जाते हैं, और वहां कुछ-कुछ और भी खाते हैं। इसलिए अब तो वैसी भीड़ वहां दिखनी ही थी। लेकिन छत्तीसगढ़ के अलग-अलग कई शहरों से खबर यह है कि कोरोना पॉजिटिव के आंकड़े चाहे कितने ही बढ़ते जाएं, लोग लॉकडाऊन खत्म होने के तुरंत बाद खाने-पीने के लिए निकल पड़े हैं। आबादी का एक बहुत छोटा सा हिस्सा ऐसा होगा जो कि कोरोना से डरा हुआ होगा, बाकी लोगों की धडक़ लॉकडाऊन खुलने के साथ ही खुल गई है।
राजधानी में सुबह की सैर पर निकले लोग बिना मास्क निकलते हैं, और अगल-बगल सटे हुए चलते हुए गप्प मारते जाते हैं। जितना उन्हें अच्छा लगता है, उतना ही अच्छा कोरोना को भी लगता होगा। लोगों को याद होगा कि जिस वक्त लॉकडाऊन दुबारा लगाने की नौबत आ रही थी उस वक्त उसे दो-तीन दिन लेट किया गया क्योंकि सामने हरेली का त्यौहार था। आज फिर पोला के मौके पर उसी तरह का माहौल दिख रहा है, सरकारी जलसा भी चल रहा है, और लोगों के बीच भी त्यौहारों का माहौल सिर चढक़र बोल रहा है। कोरोना को और चाहिए क्या? वह नास्तिकों के बीच तो भूखों मर जाता है, लेकिन आस्तिकों के बीच उसके शिकार चलकर पहुंचते हैं।
लापरवाह लोगों को याद रखना चाहिए कि उनके परिवार के बच्चे और बूढ़े बेबस हैं कि वे उन्हें रोक नहीं सकते, लेकिन उनसे कोरोना पाने का खतरा जरूर रहते हैं। इसी तरह दफ्तरों के बड़े लोग, कारोबार के मालिक अगर लापरवाह होते हैं, तो उनके मातहत भी खतरा झेलते हैं। ऐसे लापरवाह लोगों को देश का झंडा उठाकर राष्ट्रप्रेम साबित करने में तो बड़ा मजा आता है, लेकिन उन्हें यह फिक्र नहीं रहती कि इस देश के लोगों को बचाने के लिए पुलिस, स्वास्थ्य कर्मचारी, और एम्बुलेंसकर्मियों जैसे लोग अपनी जान दे रहे हैं ताकि कोरोनाग्रस्त लोग बच सकें। जो अब तक कोरोना से बचे हुए हैं, वे न अपनी सोच रहे, न परिवार की, न ऐसे कोरोना-योद्धाओं की।
आज देश की हालत यह है कि कोरोना के तनाव के चलते आत्महत्याएं लगातार बढ़ रही हैं, और एक-एक आत्महत्या के पीछे दसियों हजार लोग मानसिक अवसाद को शिकार होकर हताश बैठे हैं, दहशत में हैं। इनमें से किसी भी बात की फिक्र किए बिना जब संपन्न और विपन्न सभी किस्म के लोग लापरवाही में ऐसे लगे हैं कि उसका उन्हें कोई भुगतान होना है। ऐसे लोग ही जिंदगियां बचाने वाले लोगों की जिंदगियां लेने के जिम्मेदार भी हैं।
दरअसल हिन्दुस्तानी लोगों की सामूहिक जिम्मेदारी की भावना शून्य है। सडक़ पर कोई एक फिसलकर गिर पड़े, तो आसपास के तमाम लोगों को पहले हॅंसी आती है, उसके बाद उन्हें उठाने के लिए उनके हाथ बढ़ते हैं। किसी सामान की ट्रक पलटती है तो उसे लूटने में लोग सबसे आगे रहते हैं। पुलिस मुफ्त में हेलमेट या मास्क बांटती है, तो संपन्न तबके लोगों की लार भी टपकने लगती है कि मुफ्त का जो-जो मिल जाए अच्छा है। जिस देश को अपने ऊपर दुनिया का सबसे अच्छा देश होने का घमंड हो, जो अपने आपको सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां बताता हो, उस देश का हाल यह है। लोग दूसरों की जान ले लेने की हद तक लापरवाह हैं, गैरजिम्मेदार हैं, और सरकारें इस कदर कायर हैं कि वे ऐसे लापरवाह लोगों पर कोई कार्रवाई करने के बजाय उन्हें मुफ्त में मास्क बांटती हैं। मुफ्त के मास्क के मुकाबले हजार-हजार रूपए जुर्माना होने लगे, तो हिन्दुस्तानी जनता में जिम्मेदारी थोड़ी सी आ भी सकती है।
इस देश में सरकारें इस कदर गैरजिम्मेदार हैं कि जून के आखिरी हफ्ते में केन्द्र सरकार के संगठन आईसीएमआर ने कोरोना-वैक्सीन पर मानव परीक्षण के लिए इतनी तैयारियां कर लेने को कहा था कि 15 अगस्त को उसकी घोषणा हो सके। उस वक्त तक मानव परीक्षण बस शुरू होने की तारीख भर आई थी कि 7-8 जुलाई से परीक्षण शुरू होगा, और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने वैक्सीन उतारने की तारीख भी छांट ली थी कि आजादी की सालगिरह पर यह काम किया जाएगा। ऐसे गैरजिम्मेदार देश में आम जनता की गैरजिम्मेदारी किसी हैरानी की बात नहीं है। सरकार और केन्द्र सरकार के संगठनों के रूख लोगों का रूख भी तय करते हैं। आज देश में सामूहिक जिम्मेदारी और सामूहिक जवाबदेही शून्य है। यह बात किसी भी राष्ट्रीय खतरे की घड़ी में खतरे को कई गुना बढ़ा सकती है, बढ़ाती है। अमरीका कोरोना के खतरे के बीच एक अलग किस्म का खतरा झेल रहा है, वहां पर लोग मास्क न पहनने को अपना बुनियादी संवैधानिक अधिकार मानकर चल रहे हैं, और मास्क की तमाम बंदिशों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं, सार्वजनिक और सामूहिक रूप से मास्क जला रहे हैं। अपने बुनियादी अधिकारों को लेकर लोगों को सेहत के खतरे भी दिखना बंद हो गए हैं, और सरकार के निर्देश मानना भी उन्हें गैरजरूरी लग रहा है। हिन्दुस्तान में सरकार कागजी निर्देश तो इतने दे रही है कि कोई फोन करने पर पहले 20 सेकेंड सिर्फ कोरोना से सावधानी सुननी पड़ रही है, ऐसे में कभी यह भी हो सकता है कि किसी इमरजेंसी में, पुलिस, फायरब्रिगेड, या एम्बुलेंस को बुलाने के लिए फोन लगाया जाए, और कोरोना सुनते हुए ही कोई दम तोड़ दे। दूसरी तरफ लोगों के बीच यह टेलीफोन-चेतावनी मजाक बन गई है, कोरोना का खतरा मजाक बन गया है। एक से अधिक मामलों में केन्द्र सरकार के संगठन यूजीसी या दूसरे कोई संगठन ऐसे माहौल में भी इम्तिहान लेना तय कर रहे हैं, और अपने महफूज टापुओं पर बैठे सुप्रीम कोर्ट के जज उन इम्तिहानों पर रोक भी नहीं लगा रहे हैं। खुद जज तो मामलों की सुनवाई वीडियो के मार्फत कर रहे हैं, क्या इम्तिहान देने वाले बच्चों को ऐसी हिफाजत हासिल हो सकेगी?
देश का यह सिलसिला जानलेवा साबित होगा। यह लापरवाही जितनी लंबी खिंचेगी, उतनी ही लंबी लोगों की बेरोजगारी, बेकारी, गरीबी भी रहेगी। लोगों को अगले कुछ महीने जिंदा रहने की मदद करके, नियम-कानून कड़ाई से लागू करके, किसी वैक्सीन के आने तक कोरोना के खतरे को अगर टाला जाए, तो ही बेहतर है। आज लापरवाह लोगों को उनकी जुर्माना-भुगतान की ताकत के मुताबिक तगड़ा जुर्माना लगाना चाहिए ताकि लोग बिना मास्क मटरगश्ती करना भूल जाएं, और डॉक्टर-पुलिस जैसे तबकों के लिए खतरा न बनें। सरकारों को इस मौके पर अपनी लोकप्रियता, और वोटरों को खुश रखने की फिक्र नहीं करना चाहिए, देश और दुनिया को इतिहास के इस सबसे बड़े खतरे से बचाने की जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े की एक परदेसी मोटरसाइकिल सवारी पर सुप्रीम कोर्ट के एक प्रमुख वकील और एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण की ट्वीट को सुप्रीम कोर्ट ने अदालत की अवमानना माना है, और अभी दो दिन बाद अदालत उनकी सजा तय करेगी। प्रशांत भूषण ऐसी सजा से डरने वाले वकील नहीं हैं, उन्होंने अपने पिता, देश के एक वरिष्ठ वकील और भूतपूर्व कानून मंत्री के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट के बहुत से जजों के भ्रष्ट होने की बात कई बार औपचारिक रूप से कही थी, और शायद 10 बरस पहले से वह अवमानना केस भी चल रहा था, और अब शायद उसे भी खोला जा रहा है।
हम कुछ दिन पहले इस मुद्दे पर लिख चुके हैं कि हम प्रशांत भूषण के तर्क से सहमत हैं कि कोई जज सुप्रीम कोर्ट नहीं होता, और किसी जज के तौर-तरीकों की आलोचना अदालत की आलोचना नहीं हो सकती। हमारा खुद का यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अपने गृहनगर नागपुर में सुबह की सैर पर थे, और वहां खड़ी एक बहुत महंगी विदेशी मोटरसाइकिल को देखकर उनका पुराना शौक जाग गया, और वे मोटरसाइकिल पर बैठकर उसे महसूस करने लगे। इसे लेकर देश में सैकड़ों कार्टून बने, और लाखों ट्वीट की गईं। जाहिर है कि देश के मुख्य न्यायाधीश को इस तरह सार्वजनिक रूप से देखना देश को बहुत बार तो नसीब होता भी नहीं है। सीजेआई की आलोचना करने वाले भी हजारों लोग थे कि एक भाजपा नेता के बेटे की मोटरसाइकिल पर इस तरह बैठना उन्हें शोभा नहीं देता। हम तो शोभा के ऐसे पैमानों पर भरोसा नहीं करते लेकिन फिर भी चूंकि देश का सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट, और यहां तक कि छोटी अदालतें भी अपने मान-सम्मान को लेकर छुईमुई के पौधे की पत्तियों की तरह संवेदनशील रहती हैं, इसलिए उन्हें कम से कम यह सोचना चाहिए कि अपने सार्वजनिक बर्ताव से वे हॅंसी-मजाक या हिकारत का सामान न बनें।
अब जब यह मुद्दा बन ही गया, और प्रशांत भूषण जैसे दसियों हजार लोगों ने सोशल मीडिया पर अदालत की जमकर चर्चा की, जज की बाईक सवारी की आलोचना की, और अदालत ने सुनवाई करके इसे अपनी अवमानना मान ही लिया, तो देश को आज इस पर चर्चा करनी चाहिए। यह देश अंग्रेजों के उन रीति-रिवाजों से आजाद नहीं हुआ जिन पर इस देश का सुप्रीम कोर्ट और बाकी की न्यायपालिका अभी चलते हैं। अंग्रेजों को अपने ठंडे देश में माकूल बैठने वाली जो काली पोशाक हिन्दुस्तान की सत्ता पर ठीक लगती थी, वही काला बोझ हिन्दुस्तानी न्यायपालिका आज तक ढो रही है। जब धरती खौलती रहती है, तब भी अदालतें वकीलों से काले लबादे में वहां पहुंचने की उम्मीद करती हैं। लेकिन हिन्दुस्तान का लोकतंत्र अंग्रेजों के छोड़े हुए ऐसे लबादों को नहीं ढोता। यह लोकतंत्र एक जिंदा लोकतंत्र है, इसने इमरजेंसी भी देखी है, उससे भी उबरा है, कई और किस्म की तानाशाही भी देखी हैं, उनसे भी उबरा है। इस देश का इतिहास गांधी के आंदोलन का है जो कि उस वक्त की सत्ता से असहमति रखने पर सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाते थे। इस देश को अपने ऐसे गौरवशाली लोकतांत्रिक इतिहास को याद रखना चाहिए, और देश के जो लोग सुप्रीम कोर्ट के रूख से सहमत नहीं हैं, उन्हें अदालत के रूख के खिलाफ एक सविनय अवज्ञा आंदोलन छेडऩा चाहिए।
आज प्रशांत भूषण की जिस ट्वीट को लेकर सुप्रीम कोर्ट इस कदर संवेदनशील हो गया है, वह आज भी सोशल मीडिया पर मौजूद है। जिन लोगों को लगता है कि प्रशांत भूषण सही हैं, उनके पास आज भी यह हक हासिल है कि वे उस ट्वीट को री-ट्वीट करके कहें कि वे प्रशांत भूषण की बात से सहमत हैं, और वे अपने आपको अदालत के सामने पेश कर रहे हैं कि जो सजा प्रशांत भूषण की, वही सजा उन्हें भी दी जाए।
सविनय अवज्ञा का आजाद हिन्दुस्तान में यह कोई पहला मौका नहीं रहेगा, और न ही सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से, उसके रूख से, उसके जजों के सार्वजनिक बर्ताव से असहमति का यह पहला मौका रहेगा। लेकिन लोकतंत्र अदालत से ऊपर है, अदालत लोकतंत्र का एक हिस्सा है, पूरा का पूरा लोकतंत्र नहीं। इसलिए अदालत के इस रूख और प्रशांत भूषण को गुनहगार ठहराने से असहमत लोगों के सामने आज भी यह मौका है कि वे अगले दो दिनों में अपनी असहमति को इतिहास में दर्ज कराएं, और सुप्रीम कोर्ट को यह अहसास कराएं कि उसे महज प्रशांत भूषण को सजा नहीं देनी होगी, हजारों, दसियों हजार, या शायद लाखों लोगों को सजा देनी होगी।
यह तो हिन्दुस्तान में अदालतों को लेकर एक निहायत ही गैरजरूरी लिहाज बरता जाता है। अमरीका में देखें तो वहां किसी को जज बनाने के पहले लंबी-चौड़ी खुली संसदीय सुनवाई चलती है, और संभावित जज से उसकी निजी जिंदगी, उसकी निजी सोच पर कई-कई दिन तक सवाल पूछे जाते हैं। वहां पर अदालतों में जब कोई नाजुक मामला फैसले तक पहुंचता है, तो सुनवाई के वक्त भी, और फैसले के दिन भी मामले के पहलुओं से जुड़े हुए लोग अदालत के बाहर सडक़ों पर प्रदर्शन करते हैं, बैनर-पोस्टर लेकर नारे लगाते हैं, और खुलकर अपनी बात रखते हैं। आज हिन्दुस्तान में अगर ऐसा हो तो उसे जजों को प्रभावित करने वाला काम मान लिया जाएगा, और उसे अदालत की अवमानना भी मान लिया जाएगा।
इस देश में संसद और उसकी तर्ज पर विधानसभाओं ने अपने आपको जनता की प्रतिक्रियाओं से महफूज रखने के लिए अलग कानून बना रखे हैं। कुछ बातों को अदालत अपनी अवमानना मानती है, और इस देश की संसदीय व्यवस्था कुछ बातों को अपने विशेषाधिकार का हनन मानती है। संसद और विधानसभाओं को अपार अधिकार दिए गए हैं कि उनका विशेषाधिकार भंग करने वाले लोगों को वे कितनी भी सजा दे सकती हैं। अदालतों की सुनाई गई सजा की तो सीमा है, लेकिन सदन किसी को कितनी भी सजा दे सकता है। यह पूरा सिलसिला अलोकतांत्रिक है। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। किसी एक जज के अधिकार, किसी एक सांसद या विधायक के अधिकार देश के आम नागरिकों के अधिकार से अधिक कैसे हो सकते हैं? अगर अस्पताल में लोग जाकर किसी डॉक्टर को पीटते हैं, तो उस डॉक्टर का क्या कोई विशेषाधिकार हनन होता है? क्या यह उस डॉक्टर की अवमानना गिनी जाती है? उस डॉक्टर के पास पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने, अदालत में केस करने की आजादी रहती है, और उतना ही हक भी रहता है। अदालत या संसद को इससे अधिक कोई हक क्यों होना चाहिए? किसी मामले की सुनवाई के दौरान अगर कोई वकील या गवाह जजों के साथ बदसलूकी करते हैं, तो भी उसके लिए आपराधिक मामला चलाने का एक प्रावधान रहना चाहिए, न कि जनता के पैसों पर तनख्वाह पाने वाले लोग उसे अपनी अवमानना मानें। ऐसा मानना यही जाहिर करता है कि जजों और सांसद-विधायकों में लोकतंत्र के लिए संविधान में लिखे गए शब्दों भर की समझ है, और लोकतंत्र की भावना उन्हें छू नहीं गई है। जनता के बीच से आंदोलन खड़ा होना चाहिए ताकि यह सिलसिला खत्म हो सके। देश के किसी भी आम नागरिक, सरकार के किसी भी आम कर्मचारी के अधिकार, उनका सम्मान जजों और सांसद-विधायकों से कम कैसे हो सकता है? इसलिए चुनिंदा तबके अपने सम्मान के पुतले खड़े करें, और फिर उनकी हिफाजत के लिए बंदूकों का घेरा डलवा दें, यह लोकतंत्र नहीं है। संविधान की भावना के खिलाफ जाकर इस देश के ताकतवर तबके ऐसे नियम बनाते आए हैं जो अलोकतांत्रिक हैं। इस काम में संसद और विधानसभाओं के भी मुकाबले न्यायपालिका बहुत आगे है, और उसने अपने आपको लोकतंत्र में अपनी भूमिका के मुकाबले बहुत अधिक और अतिरिक्त सम्मान का केन्द्र बनाकर रखा हुआ है। हम ऐसे भेदभाव के खिलाफ हैं। अदालतों को या किसी भी और संवैधानिक संस्था को ऐसे विशेषाधिकार देना आम जनता के नागरिकता के बुनियादी अधिकारों के खिलाफ है।
आज इस देश में जो लोकतांत्रिक आंदोलनकारी हैं, उनके सामने यह एक मौका है कि वे अपने आपको प्रशांत भूषण के साथ खड़ा दिखाएं, और इसकी राह तो गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन से दिखाई ही थी। अंग्रेजों के कानूनों की परवाह करके अगर गांधी उस यथास्थिति को बने रहने देते, तो देश तो कभी आजाद होता ही नहीं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दो दिन पहले आजादी की सालगिरह के जलसे की तैयारी के बीच हमने देश के ऐसे कुछ तबकों को याद किया था जिनके लिए आजादी आज भी नहीं है। जिस 14 अगस्त की दोपहर हम यह लिख रहे थे, और इसके साथ गुजरात के उना में दलितों के साथ हुई हिंसा की तस्वीरों से तिरंगा बना रहे थे, ठीक उसी समय उत्तरप्रदेश के लखीमपुर खीरी में दिल दहलाने वाली एक और हिंसा दलितों के साथ हो रही थी। तेरह बरस की एक बच्ची दोपहर शौच के लिए गन्ने की खेतों की तरफ गईं, और उसके साथ दो युवकों ने बलात्कार किया, उसकी जीभ काट ली, उसकी आंखें निकाल लीं, और उसके गले में फंदा डालकर खेत में घसीटा, और फिर उसे मार डाला। गांव के ही संतोष यादव और संजय गौतम पर रेप का आरोप लगा है, और पुलिस ने पोस्टमार्टम में गैंगरेप पाए जाने के बाद इन दोनों को रेप-हत्या में गिरफ्तार कर लिया है।
हिन्दुस्तान में परिवार और जान-पहचान से परे जितने बलात्कार होते हैं, उनके पीछे एक बात खुलकर दिखती है कि वे समाज में ऊंची समझी जाने वाली जातियों के लोगों द्वारा उनसे नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों पर किए जाते हैं। ऐसा ही कुछ हत्या या हिंसा के दूसरे मामलों में भी होता है कि अपने से कमजोर जाति पर हिंसा के मामलों में दिखता है, हालांकि प्रदेशों की सरकारें और भारत सरकार के आंकड़े ऐसी व्यक्तिगत हिंसा के पीछे जाति के आधार पर विश्लेषण करके सामने रखते नहीं हैं, लेकिन आए दिन आने वाली ऐसी खबरों को देखें तो यह बात साफ दिखती है कि सबसे अधिक निजी हिंसा इस देश में दलितों के खिलाफ होती है, उसके बाद आदिवासियों के खिलाफ, और उसके बाद दूसरी कमजोर जातियों के खिलाफ। जो लोग जातिवादी व्यवस्था के अस्तित्व को मानना नहीं चाहते, वे इसके खिलाफ कुछ तर्क आसानी से ढूंढकर निकाल सकते हैं कि ऐसी हिंसा किसी जाति के आधार पर नहीं होती, बल्कि संपन्नता के आधार पर होती है, और संपन्न लोग विपन्न लोगों के साथ ऐसी ज्यादती इसलिए अधिक करते हैं क्योंकि वे प्रतिरोध करने की हालत में नहीं रहते। हो सकता है कि ऐसा हो, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि दलित आबादी का अधिकांश हिस्सा सबसे गरीब है, उसके बाद आदिवासियों का अधिकांश हिस्सा गरीब है। लेकिन आदिवासियों के साथ एक बात रहती है कि उन्हें हिन्दू समाज का सवर्ण हिस्सा अछूत नहीं मानता, और उनके साथ उतने जुल्म उन्हें जरूरी नहीं लगते जितने कि दलितों के साथ लगते हैं। मध्यप्रदेश में आज भी बहुत से इलाकों के किसी भी गांव में कोई दलित दूल्हा घोड़ी पर चढक़र नहीं निकल सकता, और हर बरस ऐसे में हिंसा की कई वारदातें सामने आती हैं, पुलिस की सुरक्षा में ऐसी बारात निकाली जाती है, और अभी कुछ समय पहले की तस्वीरें याद पड़ती हैं जिनमें घोड़ी पर चढ़ा दलित दूल्हा, और हिफाजत करते चल रही पुलिस सवर्ण पत्थरों से बचने के लिए हेलमेट लगाए हुए थे।
लेकिन उत्तरप्रदेश में अभी जिस दलित बच्ची के साथ यह बलात्कार और हिंसा हुई है, उसे देखकर कुछ और बातों पर भी सोचने को दिल करता है। पहली बात तो यह कि क्या ऐसे जुर्म देखते हुए भी हमें मौत की सजा के खिलाफ अपनी सोच को बदल नहीं देना चाहिए? हमारी सोच महज सोच है, देश का कानून तो ऐसे बलात्कारी-हत्यारों को मौत की सजा दे ही सकता है क्योंकि आज उसका प्रावधान है। बच्ची से सामूहिक बलात्कार, उसके बाद उसकी जीभ काटना, उसकी आंखें निकालना, उसे खेत में घसीटना, और उसे मार डालना, ये सारे काम मौत की सजा से कम किसी लायक नहीं हैं, और जब कभी इस पर फैसला आएगा, हमारा अंदाज है कि मौत की सजा ही होगी। लेकिन उससे कमजोर तबकों पर, कमजोर जातियों पर, बच्चियों पर खतरा कम नहीं हो जाता। उत्तर भारत और मध्यप्रदेश ऐसी दलित ज्यादतियों की अधिक वारदातों वाले राज्य हैं। उत्तरप्रदेश के बारे में यह कहा जाता है कि वहां पुलिस का साम्प्रदायीकरण भी हुआ है, और जातिकरण भी हुआ है। समाजवादी पार्टी के मुलायम-अखिलेश की सरकारों के चलते वहां की पुलिस का यादवीकरण लिखा जाता था। अभी पुलिस की धर्मान्ध और जातिवादी सोच के चलते अल्पसंख्यक तबके, और दलित लगातार समाज और पुलिस दोनों के निशानों पर बने हुए हैं। यह सिलसिला खत्म करने की नीयत उत्तरप्रदेश की किसी पार्टी में नहीं दिखती है, और कमोबेश यही हाल मध्यप्रदेश में भी है।
दलितों और आदिवासियों की हिफाजत के लिए अलग से कानून बने हुए हैं, और अभी कुछ समय पहले उसके कुछ प्रावधानों की धार भोथरी करने की कोशिश की गई थी, लेकिन पूरे देश में उसका जमकर विरोध हुआ, और वह सिलसिला वापिस लेना पड़ा। दिक्कत यह है कि सरकार, संसद, और न्यायपालिका, मीडिया और दूसरी संवैधानिक संस्थाओं में अगर इन कमजोर तबकों के लोग भी बैठे हुए हैं, तो भी वे खुद ताकत पाकर सत्ता की एक सोच से लैस हो जाते हैं, और जिन तबकों से वे आते हैं, उनके वर्गहित के खिलाफ काम करने लगते हैं।
पिछले दो दिनों से देश में आजादी के बहुत गीत गाए जा रहे हैं, प्रधानमंत्री ने भी कल आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास का सबसे लंबा भाषण दिया है। लेकिन देश में दलितों की जो हालत है, उन पर हिंसा की वारदातों के चलते हुए भी प्रधानमंत्री सहित बहुत से नेताओं के मुंह नहीं खुलते हैं। गुजरात के उना में दलितों पर जुल्म के जो नजारे सामने आए, उन्होंने पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान के लिए शर्मिंदगी पैदा की थी। लेकिन इस देश में फैसले लेने की ताकत रखने वाले तबकों को कोई शर्म नहीं आती, उन्हें आजादी के जलसे मनाने में फख्र जरूर होता है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)