संपादकीय
हिन्दुस्तान का चुनाव आयोग एक वक्त टी.एन.शेषन की मेहरबानी से देश की एक सबसे ताकतवर संवैधानिक संस्था बना था, और ऐसा लगता है कि उस साख को बाद में लगातार खोते चले गया। अब तो नए चुनाव आयुक्त बनाने के लिए जो तरीका केन्द्र सरकार ने बनाया है उससे आयोग सरकार के ही एक विभाग की तरह होकर रह जाएगा। आज भी चुनाव आयोग के सामने अलग-अलग पार्टियों की तरफ से जो शिकायतें जा रही हैं, उन्हें मानो पार्टी का चेहरा देखकर सही या गलत ठहराया जा रहा है। जिस तरह आज देश और दुनिया में किसी लाश का मजहब जानने के बाद ही उस पर आंसू बहाए जाते हैं, या उसे अनदेखा किया जाता है, ठीक उसी तरह चुनाव आयोग अलग-अलग पार्टियों या नेताओं के चेहरे देखकर कार्रवाई करते दिखता है। लेकिन आज हमारा लिखने का मकसद आयोग की आलोचना से कुछ अधिक भी है।
चुनावों में जिन सीटों पर सीमा से बहुत अधिक खर्च की आशंका रहती है, वहां पर आयोग निगरानी रखने के लिए अलग से ऑब्जर्वर तैनात करता है जो कि आमतौर पर भारतीय राजस्व सेवा, या कस्टम जैसे विभागों से आए रहते हैं, और जो खर्च का हिसाब बेहतर निकाल सकते हैं। लेकिन इसके बावजूद जो उम्मीदवार अंधाधुंध खर्च के लिए जाने जाते हैं, जहां सीमा से सौ-सौ गुना खर्च होता है, वैसी सीटें पहले से सबको पता रहती है, और यह भी पता रहता है कि कौन से उम्मीदवार ऐसा खर्च करेंगे। लेकिन ऐसा खर्च भी आयोग के इन खास पर्यवेक्षकों को या तो दिखता नहीं है, या वे उस पर हाथ नहीं डाल पाते। यह एक बड़ी वजह है कि भारतीय चुनाव लोकतांत्रिक क्यों नहीं रह पाते, और क्यों सबसे संपन्न उम्मीदवारों की जीत की संभावना सबसे अधिक रहती है। सच तो यह है कि पार्टियां भी अब किसी को उम्मीदवार बनाते हुए यह तौलती हैं कि वे चुनाव में खर्च कितना कर पाएंगे? और इस खर्च का मैनेजमेंट करने की उनकी क्षमता है या नहीं? इस तरह भारतीय संसद और विधानसभाओं में धीरे-धीरे अतिसंपन्न लोग भरते चले जा रहे हैं। यह एक अलग बात है कि अगर कुछ मामूली लोग भी वहां पहुंच जाते हैं, तो भी वे एक कार्यकाल खत्म होते-होते खासे संपन्न हो जाते हैं।
जब चुनाव की उम्मीदवारी पाने में संपन्न की संभावना अधिक हो, और उस संपन्नता से वोट पाने की संभावना अधिक हो, तो फिर लोकतंत्र के जिंदा रहने की संभावना रह कहां जाती है। और अगर खर्च से परे की बातों को भी देखें, तो कई पार्टियां और उम्मीदवार, या उनके स्टार-प्रचारक जिस तरह की नफरती, हिंसक, साम्प्रदायिक बातें करते हैं, उससे भी जाहिर है कि लोगों को लोकतांत्रिक फैसला नहीं लेने दिया जा रहा है, और उनको ऐसे अलोकतांत्रिक और हिंसक असर का शिकार बनाकर उनके वोटों का ध्रुवीकरण किया जा रहा है। धर्म और जाति का जितना खुलकर इस्तेमाल हिन्दुस्तानी चुनाव में हो रहा है, वह अपने आपमें चुनावों के मकसद को खत्म कर रहा है। लोगों को चुनाव में भेड़ों की रेवड़ की तरह एक ही खड्ड में गिराने के लिए नेता और उनकी पार्टियां धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण में लगी रहती हैं, और लोगों की लोकतांत्रिक समझ खत्म करने में भी। इसलिए कि जिनकी लोकतांत्रिक समझ रहेगी, वे अपने वोट बेचेंगे नहीं, या धर्म और जाति की नफरत के आधार पर नहीं देंगे।
अपने आसपास हम देखते हैं तो लगता है कि कोई पार्टी या उम्मीदवार जितने वोटों से जीतते हैं, उससे कई गुना अधिक वोट कालेधन, या साम्प्रदायिकता की बदनीयत के झांसे में आए रहते हैं। ऐसा लगता है कि जीत हासिल नहीं की जाती, खरीदी जाती है, या हिंसक भडक़ावे से पाई जाती है। जब हार-जीत का फासला देखें तो लगता है कि उससे कई गुना अधिक बिके हुए वोट, और साम्प्रदायिक वोट रहते हैं, जो कि यह साबित करते हैं कि जीत और हार किसी भी कोने से लोकतांत्रिक नहीं है। ऐसा लगता है कि बिना हिंसा के एक मशीनी मतदान करवा देने को ही लोकतांत्रिक चुनाव मान लिया गया है, जबकि यह चुनाव न होकर सिर्फ मतदान है। चुनाव तो तब हो सकता है जब लोगों को खरीद-बिक्री करने न मिले, भडक़ाने न मिले, हिंसा और नफरत की बातें करने न मिले। लेकिन हिन्दुस्तानी चुनाव अब इन तमाम चीजों की गिरफ्त में आ गए हैं। पार्टियों के पास सैकड़ों करोड़ रूपए हैं, और अभी जब सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में मामला पहुंचा, तो केन्द्र सरकार ने वहां कहा कि राजनीतिक दलों को चुनावी बॉंड से जो दान मिलता है, उसके बारे में कोई भी जानकारी पाने का जनता को हक नहीं है। यह किस किस्म की पारदर्शिता है? ऐसे लुके-छिपे काम में तो सरकार से अपना काम निकलवाने वाले लोग सत्तारूढ़ पार्टी को दलाली, कमीशन, या रिश्वत देने के लिए उस पार्टी के बॉंड खरीद लेंगे, और जनता को यह पता भी नहीं लगेगा कि यह रकम किस एवज में दी गई है। हम यह उम्मीद करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट केन्द्र सरकार के इस रूख के पीछे की बेईमानी और खतरों को समझेगा, और राजनीतिक दान को सौ फीसदी पारदर्शी बनाएगा। कारोबारियों से लिए जाने वाले चंदे के बारे में जनता को जानने का हक क्यों नहीं होना चाहिए जबकि सत्ता या विपक्ष में बैठी पार्टियां ऐसे कारोबारियों के गलत धंधों को बचाने के लिए गिरोहबंदी भी कर लेती हैं।
चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों के अंधाधुंध खर्च पर रोक लगाने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति वाले चुनाव आयोग और पर्यवेक्षकों की जरूरत रहती है। इन लोगों को सत्तारूढ़ या सत्ता पर आने की संभावना वाली पार्टियों के आतंक से आजाद भी रहना चाहिए। आज पैसे वाले नेता, और पार्टियां जितने बेधडक़ होकर चुनाव कानून तोड़ते हैं, अंधाधुंध खर्च करते हैं, वह सिलसिला खत्म होना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केरल में कल येहोवा विटनेस ईसाई समुदाय के एक सभा भवन में एक धमाका हुआ जिसमें तीन महिलाओं की मौत हो गई, और 50 से अधिक लोग जख्मी हुए हैं। इस बीच इतवार की सुबह प्रार्थना के वक्त धमाके करने वाले एक व्यक्ति ने सामने आकर उसकी जिम्मेदारी ली है, और कहा है कि इस समुदाय (या सम्प्रदाय) की शिक्षाएं देशविरोधी हैं, इसलिए उसने ऐसा किया है। उसने यह भी कहा कि 16 बरस पहले वह इस चर्चा से जुड़ा हुआ था, लेकिन 6 बरस पहले उसने चर्च को चेतावनी दी थी कि वह देशविरोधी काम करता है, और उसने ये हमले किए। इस चर्च के लोगों का कहना है कि वह किसी भी धार्मिक या राजनीतिक आंदोलन में नहीं रहता, न विरोध करता, न समर्थन करता, और इस हमले के एक दिन पहले शनिवार को इजराइल और गाजा के बीच चल रहे संघर्ष पर उसने एक प्रार्थना सभा आयोजित की थी, जिसके अगले दिन यह हमला हुआ। केरल के बहुत से परिवारों में कोई सदस्य किसी और चर्च में है, और कोई दूसरे सदस्य येहोवा विटनेस नाम के इस छोटे समूह से जुड़े हुए हैं। हमलावर ने एक वीडियो में कहा है कि यह चर्च बच्चों को राष्ट्रगान से रोकता है, उनके बड़े होने पर उन्हें वोट न देने, सेना में न जाने, या सरकारी नौकरी न करने की नसीहत उन्हें दी जाती है। उसका यह भी कहना है कि यह चर्च लोगों को अपने से परे रहने पर तबाह हो जाने की बात कहता है।
इस चर्च से परे, और इस हमलावर से परे, जो बात परेशान करने वाली है, वह यह है कि हिन्दुस्तान में धर्म का एक और चेहरा इस तरह हिंसक और जानलेवा हो रहा है, और धर्म के हिमायती, या उसके विरोधी इस तरह आतंकी हमले कर रहे हैं। यह सिलसिला बहुत खतरनाक इसलिए है कि हिन्दुस्तान में धर्म की दखल बहुत अधिक है, और आज देश में किसी भी दूसरे राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे से ऊपर धर्म हावी हो जाता है। धर्मों के बीच इस देश में टकराव भी खड़ा किया जा रहा है, एक-दूसरे के खिलाफ नफरत भी फैलाई जा रही है, और भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाएं, संवैधानिक संस्थाएं लोगों के बीच धर्म के आधार पर बड़ा भेदभाव कर रही है। एक तरफ इस देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात हो रही है, दूसरी तरफ एक वक्त के अखंड भारत कहे जाने वाले नक्शे को फिर जिंदा करने की बात होती है, देश के हर चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश होती है जो कि बढ़ते-बढ़ते साम्प्रदायिकता-आधारित ध्रुवीकरण में तब्दील हो जाती है। नतीजा यह है कि धर्म इस देश की कानून व्यवस्था को भी कुचलने जितना ताकतवर हो गया है, और हिन्दुस्तान के अंतरराष्ट्रीय संबंधों को भी नुकसान पहुंचाने लायक। इन सबके बीच यह भी है कि देश में कुछ ताकतें धर्म को चुनाव जीतने का एक सबसे बड़ा हथियार मान रही हैं, और इसका इस्तेमाल बढ़ते ही चल रहा है। कहने के लिए एक फर्जी लाईन गढ़ी और कही जाती है कि हर धर्म शांति सिखाता है, और आज धर्मों की जो शक्ल जमीन पर दिखती है, वह इसके ठीक खिलाफ है।
केरल के ईसाईयों के बीच एक छोटे समुदाय पर जैसा हिंसक हमला हुआ है, वह एक अकेले हमलावर की ताकत भी बताता है कि किस तरह छोटी सी जगह पर जुटने वाले बहुत से धर्मालुओं पर कैसे आसानी से हमला किया जा सकता है। अगर यह केरल में हो रहा है, तो दूसरे प्रदेशों में भी हो सकता है, और अगर ईसाईयों पर हो रहा है तो दूसरे धर्मों के लोगों पर भी हो सकता है। फिर एक और बात यह भी है कि दुनिया के दूसरे देशों में अगर किसी धर्म पर हमला होता है, तो उसकी एक प्रतिक्रिया भी बाकी देशों में होती है, और केरल में यह जांच चल रही है कि शनिवार को इजराइल-गाजा संघर्ष पर चर्च में हुई सभा के अगले ही दिन हुए इस हमले से क्या ऐसे लोगों का लेना-देना हो सकता है जो कि इजराइल या फिलीस्तीन को लेकर विचलित हैं। ऐसी नौबतें और भी आ सकती हैं, और हिन्दुस्तान के कई लोग इस बात को लेकर भी विचलित हो सकते हैं कि दो दिन पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा में जब गाजा पर हमले रोकने या युद्धविराम करने की बात आई, तो हिन्दुस्तान ने उस पर मतदान करने से मना कर दिया, और वहां से चले गया। इसके बाद फिलीस्तीनी संगठन हमास की निंदा का संशोधन जब जोड़ा गया, तो हिन्दुस्तान ने सिर्फ उस संशोधन पर समर्थन का वोट दिया। दुनिया भर के मुस्लिम फिलीस्तीन के मुद्दे से जुड़े हुए हैं, और हिन्दुस्तान गांधी और नेहरू के वक्त से लेकर अटल बिहारी बाजपेयी के विदेश मंत्री रहने तक भारत की फिलीस्तीन नीति को साफ-साफ कहते आए हैं कि फिलीस्तीन को एक मुल्क रहने का हक है। अब हिन्दुस्तानी प्रधानमंत्री ने देश की घोषित विदेश नीति से परे जाकर जिस तरह इजराइल के साथ एकजुटता दिखाई है, उसने हिन्दुस्तान के विपक्ष को, मीडिया के लोगों को, और इस देश के मुस्लिमों को हक्का-बक्का कर दिया है। केरल की इस ताजा वारदात के पीछे कोई साम्प्रदायिकता हो न हो, यह बात तो साफ है कि देश में किसी धर्म के लोगों का अधिक विचलित होना यहां की आंतरिक शांति और सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है, जैसा कि कल केरल में सामने आया है। इसलिए भारत की सरकार और बाकी तमाम ताकतों को भी दुनिया में हो रहे धार्मिक टकराव, या ऐसे टकराव जिनसे धार्मिक टकराव उपज रहा हो, उन सबको बारीकी से देखना होगा, और भारत की प्रतिक्रिया उन पर ऐसी रखनी होगी कि इस देश में नफरत और तनाव न फैले। यहां पर आकर देश और प्रदेश की सरकारों की धर्मनिरपेक्षता, या साम्प्रदायिकता, इनसे एक बड़ा फर्क पड़ेगा। केरल से हमने बात शुरू की है, लेकिन केरल पर बात खत्म नहीं हो रही है, इससे एक सबक शुरू हो रहा है, और उस सबक का एक तर्कपूर्ण नतीजे तक जाना जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी दीवाली दूर है, और दिल्ली की हवा में प्रदूषण बहुत खराब केटेगरी तक पहुंच गया है। चारों तरफ धुंध छाई है, धुआं सा दिख रहा है, और सुबह की सैर पर निकले लोग भी मास्क लगाए हुए हैं। जैसा कि हर बरस होता है दीवाली पर फटाके जलाने को लोग अपना धार्मिक विशेषाधिकार मान लेते हैं, और इस पर रोक को हिन्दू धर्म पर हमला करार देते हैं। कोई भी अदालत, या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल धार्मिक भावनाओं के ऊपर वैज्ञानिक समझ लागू नहीं कर पाती हैं। नतीजा यह होता है कि भारत में चीन से अरब के रास्ते आने वाले बारूद और फटाकों को लोग हिन्दू धर्म से जोडक़र उसे जलाना एक धार्मिक रिवाज मानते हैं, और इस पर किसी भी रोक की बात से भडक़ उठते हैं। इस तरह एक और हिन्दुस्तानी त्यौहार प्रदूषण को अंधाधुंध बढ़ाने वाला, और जानलेवा हो रहा है। दीवाली के आसपास दिल्ली जैसे शहर के प्रदूषण में लाशें गिरती तो नहीं हैं, लेकिन फेंफड़े खोखले हो जाते हैं, और हर बरस हिन्दुस्तान में लाखों मौतें हो रही हैं, 2019 में ही भारत में वायु प्रदूषण से 16 लाख 70 हजार मौतों का वैज्ञानिक अनुमान है। और चूंकि वे भोपाल गैस त्रासदी की तरह एक दिन में एक जगह पर नहीं होती हैं, इसलिए उनकी तरफ लोगों का ध्यान नहीं जाता है।
अब हिन्दुस्तान में वायु प्रदूषण को लेकर जनता के बीच जागरूकता की जरूरत तो दीवाली जैसे मौकों पर अधिक दिखती है, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो सरकार पर आती है क्योंकि पटाकों का बनना और बिकना उसके हाथ में होता है, कारखानों से प्रदूषण, कोयले से बिजली, निर्माण कार्य का प्रदूषण, खेतों में ठूंठ का जलाना, और जगह-जगह कचरा जलाना, इन सबको रोकने की जिम्मेदारी सरकार पर आती है। दूसरी तरफ दिल्ली जैसे महानगर में सार्वजनिक यातायात का इंतजाम करना भी सरकारों का ही जिम्मा रहता है, और जब इसकी कमी होती है, तभी लोग निजी गाडिय़ों पर अधिक निर्भर करते हैं। न सिर्फ महानगर, बल्कि अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी बस, मेट्रो, या किसी और किस्म का सार्वजनिक परिवहन बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग निजी गाडिय़ों की तरफ कम से कम जाएं। लोग एक बार अपनी गाडिय़ों पर चलना शुरू कर देते हैं, तो फिर उनका सार्वजनिक परिवहन की तरफ जाना कुछ मुश्किल हो जाता है। लोगों को यह भी समझना चाहिए कि वे अपने घर-दफ्तर को कुछ हद तक तो वायु प्रदूषण से बचा सकते हैं, लेकिन हर किसी को बाहर तो निकलना ही होता है, और सार्वजनिक जगहों पर कुछ मिनटों में ही कुछ शहरों में लोग ऐसी हवा लेते हैं कि मानो उन्होंने सिगरेट पी ली हो। जब नुकसान का ऐसा हाल रहता है, तो फिर यह नुकसान पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता है।
आज हिन्दुस्तान जैसे देश में एक सीमित तबके की संपन्नता लगातार बढ़ते जाने की वजह से उसकी ईंधन की खपत अंधाधुंध बढ़ रही है। बिजली से लेकर पेट्रोल-डीजल तक संपन्न तबका अंधाधुंध इस्तेमाल करता है क्योंकि वह उसका खर्च उठा सकता है। और सरकारों को लगता है कि जितनी भी बिजली की खपत हो रही है, उससे अधिक बिजली बनाना उसकी जिम्मेदारी है। यह बाजार की तरह डिमांड और सप्लाई का कारोबार हो गया है, और सरकारें इस बात को नहीं देख रहीं कि लोगों की एयर कंडीशनिंग की जरूरतें कम कैसे हो सकती हैं, किस तरह निजी गाडिय़ों के पेट्रोल और डीजल को बचाया जा सकता है, और कम ईंधन पर मेट्रो और बस चलाई जा सकती हैं। सरकारें यह भी नहीं देखती हैं कि भवन निर्माण में, इंजीनियरिंग की डिजाइनों में, पैकिंग मटेरियल में किस तरह की किफायत की जा सकती है, ताकि धरती पर कार्बन बनना कम हो, और प्रदूषण कम हो। इन सबके लिए एक कल्पनाशीलता की जरूरत होती है, और धरती के लिए एक ऐसी संवेदना की जरूरत रहती है जो कि पांच-पांच बरस के चुनावी कार्यकाल में बांटकर नहीं देखी जा सकती। दरअसल सरकार और कारोबार, इनका चाल-चलन और मिजाज ऐसा रहता है कि वह धरती को बर्बाद करने और कानूनी-गैरकानूनी कमाऊ धंधों को आबाद करने में दिलचस्पी रखता है। दरअसल देश में जब ग्रीन ट्रिब्यूनल बनाया गया था, तो उसके पीछे सोच यही थी कि कानूनी मामलों के बोझ से लदी हुई अदालतों से निकालकर पर्यावरण से जुड़े मामलों को एक ऐसे ट्रिब्यूनल में ले जाया जाए जहां पर्यावरण और प्रदूषण जैसे मुद्दे ही रहें, वही प्राथमिकता रहे, और उनकी बेहतर समझ रहे। लेकिन भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों ने लगातार पेशेवर मुजरिमों के अंदाज में ग्रीन ट्रिब्यूनल सरीखी पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी दूसरी संवैधानिक संस्थाओं को भी बेवकूफ बनाना जारी रखा, और आज हालत यह है कि हर शहर कांक्रीट का जंगल बन गया है, जंगल घटते चले गए हैं, लोगों को पितृपक्ष पर अपने पुरखों को खाना खिलाने के लिए कौव्वे नसीब होना भी बंद हो गया है। आज लोग अगर चाहें तो भी अपने बच्चों को गौरैय्या नहीं दिखा सकते हैं।
हम फिर से शहरों में जहरीली होती हवा की तरफ लौटें, तो दुनिया के अलग-अलग देश अपनी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से बचने की कोशिश कर रहे हैं, और सबसे संपन्न देश अपनी खपत को किसी भी तरह घटाने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। दिल्ली का वायु प्रदूषण तो दिल्ली शहर और पंजाब के खेतों से पैदा हुआ दिखता है, लेकिन सरकारों के हाथ में इसे काबू में रखना और घटाना था, है, लेकिन सरकारें अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से नहीं निभा रही हैं। इस बारे में लोगों को भी सरकारों पर दबाव बनाना पड़ेगा, वरना लोग अपने बच्चों के लिए घर-दुकान तो छोड़ जाएंगे, लेकिन उनके फेंफड़ों को खोखला करने वाली जहरीली हवा के बीच ही वह जायदाद रहेगी। लोगों को आज अपनी खुद की जिंदगी चाहे प्यारी न हो, लेकिन आने वाली पीढिय़ों से तो इतनी मोहब्बत करनी चाहिए कि उनके लिए जहर छोडक़र न जाएं। यह देश पूरी दुनिया में कामयाब इंजीनियर और मैनेजर देता है, लेकिन पता नहीं क्योंकि आईआईटी और आईआईएम से निकली काबिलीयत का इस देश की सरकारों और स्थानीय संस्थाओं में इस्तेमाल नहीं दिखता है क्योंकि यहां नेता ही हर हुनर में हरफनमौला की तरह तमाम फैसले लेते हैं। यही वजह है कि देश में कुछ भी सुधरते हुए नहीं दिखता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा में इजराइल और गाजा के हमास नाम के संगठन के बीच गाजा की जमीन पर चल रही जंग को रोकने के लिए जॉर्डन ने एक प्रस्ताव रखा था, इस पर 120 देशों ने इसका समर्थन किया, 14 इसके खिलाफ थे, और 45 देशों ने मतदान नहीं किया। मतदान न करने वाले देशों में भारत भी एक था। भारत के अलावा पश्चिम के देश, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, जापान, यूक्रेन, और ब्रिटेन भी मतदान से गैरहाजिर रहे। लेकिन समर्थन करने वाले देशों में बांग्लादेश, मालदीव, पाकिस्तान, रूस, और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश थे। जंग को रोकने के इस प्रस्ताव में बाद में संशोधन भी सुझाया गया जिसमें यह कहा गया कि महासभा 7 अक्टूबर को इजराइल में हुए हमास के आतंकी हमलों और बंधक बनाने को साफ-साफ खारिज करती है, और उसकी निंदा करती है। बंधकों के साथ मानवीय व्यवहार हो, और उनकी तत्काल बिना शर्त रिहाई सुनिश्चित की जाए। इस संशोधन पर 87 लोगों ने मतदान किए, जिनमें भारत भी शामिल था, 55 देशों ने इसके खिलाफ वोट डाला, और 23 देश गैरहाजिर रहे।
इस पूरे मामले को समझने की जरूरत है कि आज फिलीस्तीन के गाजा पर जिस अंदाज में इजराइली बमबारी चल रही है, और हमास के आतंकियों को मारने के नाम पर नागरिक इलाकों पर बमों और मिसाइलों से हमले किए जा रहे हैं, और तीन हजार से अधिक तो बच्चे ही मारे गए हैं, जिन्हें खुद इजराइल भी हमास के आतंकी नहीं कह सकता। आज इसे दुनिया का सबसे अमानवीय हमला करार दिया जा रहा है, और इजराइल के भीतर और बाकी दुनिया में जगह-जगह बसे हुए यहूदी और इजराइली भी तुरंत रोकने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इजराइल का साथ देने वाले कुछ पश्चिमी देशों के साथ-साथ भारत भी खड़ा हो गया, और उसने जंग रोकने के मूल प्रस्ताव पर वोट नहीं डाला। सदस्य देशों के दो तिहाई से कम लोगों ने ही हमास का नाम जोडऩे के संशोधन का साथ दिया, इसलिए यह संशोधन मंजूर नहीं हुआ, लेकिन भारत इस संशोधन के साथ खड़े रहा। फिलीस्तीन पर गांधी और नेहरू के वक्त से लेकर मोरारजी सरकार के विदेश मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तक का जो साफ-साफ रूख था, आज भारत की मोदी सरकार उसके ठीक खिलाफ है। आज इजराइल के साथ भारत के कारोबारी रिश्ते इतने बड़े और इतने मजबूत हैं कि गरीब फिलीस्तीन बेइंसाफी झेल रहा है, लेकिन उसके जायज और ऐतिहासिक हक के लिए भारत मुंह खोलने को भी तैयार नहीं है। हालत यह है कि आज भारत के भीतर अगर कोई पार्टी या कोई पत्रकार फिलीस्तीन पर हो रहे जुल्म और मारे जा रहे हजारों लोगों को बचाने के लिए, और वहां फंसे हुए लाखों लोगों तक मानवीय राहत पहुंचाने के लिए बात करें, तो भी इस देश का एक तबका उसे देश का विरोध करार देने लगता है। लोकतंत्र में सरकार की नीति से असहमति का हक शामिल रहता है, और भारत सरकार की बहुत सी नीतियों से अलग-अलग समय पर देश के कई तबके असहमत रहे हैं, और उसे कभी देश के साथ गद्दारी नहीं माना गया था।
आज फिलीस्तीन में जितने लोग मारे जा रहे हैं, और एक मुल्क का हक छीना जा रहा है, वह पूरा का पूरा एक मुस्लिम समाज है। आज हिन्दुस्तान के एक तबके को यह सुहा सकता है कि मुस्लिम दुनिया में कहीं भी मारे जाएं। लेकिन सवाल यह उठता है कि आज अगर किसी एक कमजोर मुल्क पर फौजी हमला करके दुनिया की एक बड़ी फौजी ताकत बेइंसाफी कर सकती है, तो फिर कल दुनिया के कुछ दूसरे देश भी अड़ोस-पड़ोस के देशों पर यही कर सकते हैं। इस बार इजराइल और फिलीस्तीन के बीच जंग का मामला फिलीस्तीन के एक हिस्से पर काबिज हमास नाम के एक संगठन के इजराइल पर किए हमले से शुरू हुआ है, लेकिन दुनिया में जंग के लिए जो नियम बने हुए हैं उनमें से हर नियम को कुचलते हुए इजराइल जिस तरह से गाजा पर अनुपातहीन हवाई हमले कर रहा है, नागरिक इलाकों पर बम बरसा रहा है, वह अभूतपूर्व है। इसे किसी आतंकी संगठन पर हमले से होने वाला कोलैटरल डैमेज कहने से काम नहीं चल सकता। कुछ हजार हमास-आतंकियों को मारने के लिए अगर दसियों हजार फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का काम किया जा रहा है, और 20-25 लाख नागरिकों को गाजा खाली करने पर मजबूर किया जा रहा है, तो यह जवाबी फौजी कार्रवाई नहीं है, और यह एक किस्म की गुंडागर्दी है, जिसके पीछे अमरीका की शह भी है।
हिन्दुस्तान को आज अपने लंबे इतिहास को ध्यान में रखते हुए, और दुनिया में इंसाफ की वकालत करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ में एक अधिक सक्रिय भूमिका निभानी थी, उससे भारत चूक गया, या सोच-समझकर दूर रहा। इन दिनों लगातार विदेश नीति के मोर्चे पर भारत को सदमे झेलने पड़ रहे हैं। मालदीव जैसे रणनीतिक महत्व के छोटे से देश ने नई सरकार बनते ही यह कह दिया है कि भारत वहां से अपने हर सैनिक को हटा दे। दूसरी तरफ श्रीलंका के साथ भारत की कुछ तनातनी चल रही है। और इन दोनों ही देशों के पीछे आज चीन की बड़ी मदद है, जाहिर है कि चीन एक किस्म से भारत की रणनीतिक घेरेबंदी कर रहा है। कुछ ऐसा ही भूटान के साथ हो रहा है, और अभी-अभी चीन और भूटान के बरसों से रूके हुए कुछ मामले अभी सुलझे हैं, और यह भी भारत के लिए एक फिक्र की बात हो सकती है। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि चीनी सरहद पर भारत किस तरह उस देश का अवैध कब्जा झेल रहा है, और एक बड़ा फौजी तनाव वहां पर लंबे समय से बना हुआ है। एक अलग ही मोर्चे पर मध्य-पूर्व के कतर में अभी-अभी भारत के 8 भूतपूर्व नौसेना-अफसरों को इजराइल के लिए जासूसी करने के लिए मौत की सजा सुनाई गई है। भारत में बहुत से लोगों ने यह याद दिलाया है कि वे भारत सरकार को इस बारे में कुछ अरसे से कहते आ रहे थे, लेकिन पता नहीं क्यों भारत सरकार कतर सरकार से बात करके इस नौबत को आने से रोक नहीं पाई। यह बात भी बड़ी अजीब है कि भारत के ये भूतपूर्व नौसेना अफसर कतर में इजराइल के लिए जासूसी कर रहे थे, ऐसी नौबत भारत की विदेश नीति की एक चूक या गलती ही साबित करती है।
भारत में विदेश नीति की अपनी कामयाबी को साबित करने के लिए इस देश में पिछले दिनों बहुत बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय जलसे किए जिन पर हजारों करोड़ खर्च किया गया। लेकिन ऊपर जिन देशों के साथ खराब रिश्तों की बात हमने गिनाई है, उनसे बेहतर संबंध तो बिना किसी लागत के हो सकते थे, लेकिन वे बिगड़ते चल रहे हैं। आखिर में विदेश नीति की एक बड़ी नाकामयाबी को गिनाना जरूरी है कि किस तरह आजाद हिन्दुस्तान के इतिहास में पहली बार कनाडा के साथ भारत के रिश्ते इस हद तक खराब हो गए हैं कि दिल्ली से कनाडा के कूटनीतिक अफसरों की थोक में रवानगी करवा दी गई है। यह याद रखना चाहिए कि कनाडा में लाखों भारतवंशी कामयाब कारोबारी या कामगार हैं, वहां से वे अपनी ढेरों कमाई हिन्दुस्तान भेजते हैं, कनाडा भारत के छात्र-छात्राओं के लिए एक लोकप्रिय जगह है, और वहां पर हिन्दुस्तानियों को काम करने की छूट बड़ी उदारता से मिलती है। खालिस्तान के मुद्दे पर कनाडा सरकार के रूख को लेकर भारत से उसके संबंध अंधाधुंध बिगड़ गए हैं, और पश्चिम के अमरीका और ब्रिटेन सरीखे कुछ बड़े देश इस मुद्दे पर भारत के साथ नहीं दिख रहे हैं कि कनाडाई जमीन पर एक खालिस्तान-समर्थक नेता के कत्ल में भारत का नाम लिया जा रहा है। उन्होंने भारत को सलाह दी है कि वह जांच में कनाडा का सहयोग करे। ये तमाम बातें विदेश नीति के मोर्चे पर चकाचौंध जलसों से परे नाकामयाबी और जटिलता बता रही हैं, और इस बारे में मोदी सरकार को संसद या बाकी दलों को भी भरोसे में लेकर काम करना चाहिए क्योंकि देश की विदेश नीति किसी सरकार के कार्यकाल के बाद भी जारी रहती है, और उसमें बहुत तेज रफ्तार से महज सत्ता की मर्जी से फेरबदल नहीं होना चाहिए।
देश के आईटी सेक्टर के एक बड़े कारोबारी नारायण मूर्ति ने अभी एक दूसरे कारोबारी मोहन दास पई से एक लंबे इंटरव्यू में इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि हिन्दुस्तान के नौजवान कामगार काम कम करते हैं। उन्होंने कहा कि उन्हें हर हफ्ते 70 घंटे काम करना चाहिए। इसका मतलब हर दिन औसत 10 घंटे काम करना होता है। इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना भी शुरू हो गई है। कुछ लोगों का कहना है कि ऐसा करना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह भी होगा, और भारत जैसे देश में जहां पर कि कामगारों को न तो ठीक तनख्वाह मिलती है, न मेहनताना, और न ही काम की जगहों पर कानूनी सहूलियतें मिलतीं। लोगों का यह भी कहना है कि नारायण मूर्ति के तर्क कारोबारियों की भलाई के हैं, और कामगारों का शोषण करने वाले हैं। कुछ और लोगों ने यह मुद्दा भी उठाया है कि हफ्ते में 70 घंटे काम की उम्मीद का मतलब महिलाओं को काम से हटा देना ही है क्योंकि आमतौर पर महिलाएं परिवार का काम करने के बाद नौकरी या रोजगार की जगह पर इतने घंटे काम नहीं कर सकतीं। नारायण मूर्ति का पूरा इंटरव्यू हमने अभी नहीं देखा है, और उन्होंने इसे देश के विकास के साथ जोडक़र कहा है कि नौजवानों को अपने देश के लिए हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए, और उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के जर्मनी और जापान की मिसालें दी हैं कि किस तरह कुछ बरस तक ये लोग हर दिन कुछ घंटे ज्यादा काम करते रहे। उन्होंने कहा कि जब तक लोग अतिरिक्त कोशिश नहीं करेंगे, तब तक सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि कोई सरकार उतनी ही अच्छी हो सकती है जितनी कि जनता की कार्य-संस्कृति होती है।
हो सकता है कि नारायण मूर्ति के पूरे इंटरव्यू से कुछ और बातें भी निकलकर आएं, लेकिन हम इसे उनकी कही बातों से परे भी देश की संस्कृति से जोडक़र आज कुछ चर्चा करना चाहते हैं। नारायण मूर्ति की यह बात अगर 70 घंटों को छोड़ दिया जाए, तो यह इस तरह से एक सही सलाह है कि आज हिन्दुस्तान के स्कूल-कॉलेज राजनीतिक नीयत से बढ़ती चली जा रही छुट्टियों के हमले के शिकार हैं। पढ़ाई के दिन साल में घटते चले जा रहे हैं, हर दिन पढ़ाई के घंटे घटते चले जा रहे हैं, और कुल मिलाकर पढ़ाई का माहौल भी खत्म होते चल रहा है, क्योंकि अब बच्चे अलग-अलग तरह के दाखिला-इम्तिहानों को पढ़ाई से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनकी दिलचस्पी ज्ञान प्राप्त करने में नहीं रहती है, दाखिला पाने में रहती है। इसलिए कम ज्ञान, और मुकाबले की अधिक तैयारी इन्होंने मिलाकर बच्चों के कुछ सीखने का माहौल खत्म कर दिया है। फिर दूसरी बात यह भी है कि स्कूल और कॉलेज से परे जो वक्त बच्चों के पास रहता है, उस वक्त का मनोरंजन, कुछ सीखने, या आत्मविकास करने जैसे किसी काम के लिए बेहतर इस्तेमाल की सोच हिन्दुस्तान में बहुत कम है। बच्चे हों या बड़े, टीवी के सामने बैठ जाते हैं, या मोबाइल फोन पर उलझे रहते हैं, और बाकी दुनिया की जानकारी तो दूर रही, अपने ही देश के असल सामाजिक सरोकारों को वे छू भी नहीं पाते। कॉलेज से निकलकर लोग बेरोजगार की तरह बरसों गुजार देते हैं, लेकिन अपने आपको अधिक हुनरमंद बनाने, या मौजूदा हुनर को बेहतर करने की सोच बहुत ही कम लोगों में रहती है, और खासकर उत्तर भारत तो ऐसी सोच से अछूता सा लगता है। एक तरफ उत्तर भारत, दूसरी तरफ हिन्दीभाषी बाकी राज्य भी किसी जिम्मेदार सोच से एकदम आजाद लगते हैं। यही वजह रहती है कि दक्षिण के राज्यों के लोग दुनिया के तमाम देशों में छोटे कामगारों से लेकर सबसे बड़ी कंपनी चलाने तक पहुंचे रहते हैं, और उनके मुकाबले अधिक आबादी वाले उत्तर भारत की कोई जगह नहीं रहती।
हम पल भर के लिए नारायण मूर्ति की बात से असहमत होने को भी तैयार हैं कि इतना ज्यादा काम करके हिन्दुस्तानी कामगारों को कुछ हासिल नहीं होता है। लेकिन दूसरी तरफ यह देखा जाए कि हिन्दुस्तानी कामगार, खासकर नौजवान किस अंदाज में उन सरकारी नौकरियों के लिए मुकाबला करते हैं जिनमें नौकरी की गारंटी रहती है, और कामचोरी की भी, जिनमें रिश्वत की गुंजाइश रहती है, और जिन्हें पूरी जिंदगी तनख्वाह और पेंशन का जुगाड़ माना जाता है। इसके मुकाबले जब निजी नौकरियों की बात करें, तो बहुत से लोग कम तनख्वाह की, कम गारंटी वाली निजी नौकरी करने के बजाय ठलहा बैठना बेहतर समझते हैं। मतलब यह है कि अगर भरपूर तनख्वाह नहीं मिलती है, तो लोग खाली बैठ जाएंगे, लेकिन न कम तनख्वाह का काम करेंगे, और न ही अधिक घंटे काम करेंगे। मालिकों और कंपनियों की तरफ से कर्मचारी का शोषण एक हकीकत है, और यह भी सही है कि मजदूरों के हक बचाने के लिए जो कानून है वे हिन्दुस्तान में बेअसर हैं। लेकिन क्या इन कानूनों पर अमल के बेहतर हो जाने पर लोगों को अधिक मेहनत नहीं करनी चाहिए? और यह मेहनत न सिर्फ सरकारी और निजी नौकरियों की बात है, बल्कि बेरोजगारी के दिनों, उसके भी पहले कॉलेज के पढ़ाई के दिनों की बात है, जब कोई मालिक नहीं रहते, और लोग अपनी मर्जी के मालिक रहते हैं, तब भी हिन्दुस्तान के अधिकतर राज्यों में लोग मेहनत नहीं करते।
नारायण मूर्ति की बात से देश में कार्य-संस्कृति को जोडक़र देखने की जरूरत है, उनके गिनाए घंटों को लेकर लाठी लेकर उन पर टूट पडऩे से कुछ हासिल नहीं होना है। अधिक और बेहतर काम करना न सिर्फ मालिक, सरकार, या देश के लिए अच्छी बात होगी, बल्कि लोगों को अपने-अपने स्वरोजगार में, अपने व्यक्तित्व विकास में, अपना ज्ञान और समझ बढ़ाने में अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना चाहिए, जो कि आज हिन्दुस्तान की संस्कृति नहीं है। यह बात जाहिर है कि दक्षिण के राज्यों में यह संस्कृति है, और वहां के लोग भारत के दाखिला-इम्तिहानों में भी अधिक कामयाब होते हैं, और पूरी दुनिया के खुले बाजार में जाकर वहां भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। उत्तर और दक्षिण का फर्क देखना हो, तो इन आंकड़ों को देखने की जरूरत है जिनमें कर्नाटक में प्रति व्यक्ति आय 2.36 लाख सालाना है, तमिलनाडु में 2.12, केरल में 2.05, आन्ध्र में 1.76, और छत्तीसगढ़-एमपी में 1.04, झारखंड में 0.71, यूपी में 0.61, और बिहार में 0.43 लाख प्रति वर्ष है। इसलिए अगर नारायण मूर्ति ने कुछ कहा है, तो वे देश के कमजोर मजदूर कानूनों के लिए या उन पर कमजोर अमल के लिए जिम्मेदार नहीं है, उसके लिए सरकारें, और उन्हें चुनने वाली जनता भी जिम्मेदार हैं। उनकी बात से यह समझने की जरूरत है कि जिस किसी के लिए यह मुमकिन हो, वे अपनी जवानी के बरसों में अगर अधिक काम करके उसका अधिक भुगतान पा सकते हैं, तो उन्हें उसकी कोशिश करनी चाहिए। नारायण मूर्ति उत्तर भारत में कोई कारखाना नहीं चलाते, बल्कि वे दक्षिण भारत में एक आईटी कंपनी चलाते रहे हैं, और वे मजूदरों के हक अपने कारोबार के हिसाब से ही मानकर यह बात कह रहे हैं। अगर लोगों को लगता है कि बिना काम किए सरकारी नौकरी का इंतजार उनके लिए बेहतर है, तो वे जरूर खाली बैठ सकते हैं, सरकार के पास उन्हें किसी हल में जोतने का कोई कानून तो है नहीं। जिन लोगों को लगता है कि वे अपने नौजवानी के अधिक ताकत के बरस अधिक काम कर सकते हैं, तो वे किसी नौकरी में अधिक कर लें, स्वरोजगार में अधिक कर लें, या कि अपने व्यक्तित्व विकास पर अधिक मेहनत कर लें। वरना ठलहा बैठकर वक्त बर्बाद करना हिन्दुस्तान की मौजूदा संस्कृति तो है ही, और लोकतंत्र में उस पर कोई रोक भी नहीं है।
अमरीका में आज फिर एक बंदूकबाज ने सार्वजनिक जगह पर गोलीबारी करके 22 लोगों को मार डाला है, और 60 से अधिक लोग घायल हो गए हैं। अभी जब यह लिखा जा रहा है तब तक तस्वीरों में कैद यह हमलावर पकड़ में नहीं आया है, और इस शहर में लोगों को घरों में रहने कहा गया है। हर कुछ दिनों में अमरीका में इसी तरह बंदूक की हिंसा होती है, लेकिन उस पैमाने पर भी एक हमलावर के हाथों इतनी मौतें कुछ बड़ा आंकड़ा है। कुल 38 हजार आबादी का ल्यूइस्टन नाम का शहर वहां के मेन नाम के राज्य में है, और संदिग्ध हमलावर की तस्वीरों से वह एक गोरा दिखाई पड़ रहा है। लेकिन इससे अधिक जानकारी अभी सामने नहीं आई है। हमलावर ने 10 मिनट की दूरी की तीन जगहों, एक रेस्त्रां, और एक मनोरंजक खेल स्थल, और एक वॉलमार्ट इन तीन जगहों पर हमला किया है। हमलावर को सेना से जुड़ा हुआ हथियार-प्रशिक्षक बताया जा रहा है, जो कि कुछ अरसा पहले एक मानसिक चिकित्सालय में भर्ती था। पिछली बड़ी घटना मई 2022 में हुई थी जिसमें एक बंदूकधारी ने एक स्कूल में घुसकर गोलियां चलाई थीं, जिनमें 19 बच्चों, और 2 शिक्षकों की मौत हो गई थीं। 2022 और 2023 में हर बरस साढ़े 6 सौ या अधिक ऐसे हमले हुए हैं।
आज का यह हमला नस्लवादी है या नहीं यह अभी साफ नहीं है, लेकिन अमरीका में ऐसे कई हमले नस्लवादी होते हैं, आमतौर पर काले लोगों, या अल्पसंख्यकों के खिलाफ होते हैं, या किसी भड़ास से भरे हुए लोग अपनी ही पिछली स्कूल या कॉलेज पर हमला करते हैं। हमलों के पीछे की कई किस्म की वजहें हैं, लेकिन लगातार ऐसे हमले होते हैं जिसे लेकर अमरीका के आज के राष्ट्रपति जो बाइडन फिक्रमंद रहते हैं, लेकिन वहां विपक्ष की रिपब्लिकन पार्टी नागरिकों के निजी हथियारों में किसी भी तरह की कमी के खिलाफ रहती है। दरअसल अमरीका में हथियार कारोबारियों का दबाव-समूह इतना मजबूत है कि वह किसी भी सरकार को हथियारों पर रोकथाम, या कटौती करने ही नहीं देता। सच तो यह है कि जहां-जहां रिपब्लिकन पार्टी के कार्यक्रम होते हैं, वहां सम्मेलन स्थल के आसपास हथियारों की प्रदर्शनी और बिक्री रखी जाती है क्योंकि पार्टी के कार्यक्रमों में दूर-दूर से आने वाले लोग आमतौर पर हथियारों के शौकीन रहते हैं। बाकी दुनिया के लिए इस नौबत की कल्पना करना मुश्किल है कि अमरीका में एक-एक नागरिक फौजी दर्जे के दर्जनों हथियार घर पर रख सकते हैं, और वहां की फिल्मों से लेकर उपन्यासों तक में बंदूक की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है, और एक सबसे असरदार पुलिस के बावजूद अमरीकी नागरिक अपने को हमेशा खतरे में मानकर चलते हैं, और घरों में हथियार रखने को ही हिफाजत का अकेला तरीका मानते हैं। कुछ अमरीकियों का यह भी मानना रहता है कि हर नागरिक के पास हथियार रहने से देश में कभी भी कोई फौजी बगावत नहीं हो सकती क्योंकि फौजी बंदूकों से कई गुना अधिक नागरिक बंदूकें रहेंगी, और फौज ऐसा दुस्साहस नहीं कर सकेगी।
अमरीका में बंदूक खरीदने वालों और रखने वालों की दिमागी हालत को जांचने का भी कोई चलन नहीं है, नतीजा यह होता है कि मानसिक रूप से कमजोर या बीमार लोग भी कई-कई हथियार रखते हैं, और किसी धर्म, जाति, रंग की नफरत के चलते, या किसी निजी भड़ास को निकालने के लिए लोगों को थोक में मारने से नहीं हिचकते। एक सर्वे बताता है कि अमरीका की आबादी 33 करोड़ है, और वहां 40 करोड़ पिस्तौल-बंदूक हैं। अमरीका में 60 हजार से अधिक पिस्तौल-बंदूक दुकानदार हैं, और वहां हर बरस दसियों हजार करोड़ रूपए के हथियार बिकते हैं। ऐसे ही कारोबार को बढ़ावा देने वाली गन-लॉबी राजनीतिक प्रभाव खरीदती है, और इसलिए डेमोक्रेटिक पार्टी की तमाम कोशिशों के बावजूद संसद से कभी हथियारों में कमी की बात मंजूर नहीं हो पाती। यह नौबत अकेले अमरीका के साथ है, क्योंकि दुनिया में शायद ही किसी और देश में आबादी से इतनी अधिक बंदूकें हों। 2017 के एक सर्वे के मुताबिक यह देखा गया कि प्रति सौ व्यक्तियों पर कितनी बंदूकें हैं, तो उनमें अमरीका में 120 से अधिक बंदूकें निकलीं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में सौ लोगों पर 5.3 बंदूकों का औसत है। दुनिया में 110 देश ऐसे भी हैं जहां हिन्दुस्तान से भी कम अनुपात में बंदूकें हैं। पांच देश तो ऐसे हैं जहां नागरिकों के पास कोई बंदूक नहीं हैं, जिनमें इंडोनेशिया भी है। एक अनुमान यह भी है कि पूरी दुनिया में निजी हथियारों में से अधिकतर का इस्तेमाल खुद को या जीवनसाथी को मारने में होता है। ऐसे में दुनिया भर में बढ़ते चल रहे पारिवारिक तनाव देखें तो बंदूकों की मौजूदगी खतरे को कई गुना बढ़ाने वाली हो सकती है, शायद होती होगी।
दुनिया की जिन देशों में अमरीका की तरह बंदूकें नहीं हैं, उन्हें अपने नागरिकों के बीच खतरे भी उतने अधिक नहीं हैं। लेकिन कुछ दूसरे किस्म के खतरे जरूर हैं जो कि भारत जैसे देश में भी लगातार सामने आते हैं। यहां पर शराब या किसी दूसरे नशे में लोग अपने परिवार के सबसे करीबी लोगों को मार डालते हैं, कई मामलों में गरीबी, कर्ज में डूबकर भी ऐसी नौबत आती है कि लोग पूरे के पूरे परिवार को हत्या और आत्महत्या से खत्म कर देते हैं। अमरीका के मामले के लेकर यहां सीधे-सीधे कुछ सीखने की जरूरत नहीं है, लेकिन निजी हिंसा का मामला जरूर सीखने लायक है कि किस तरह की मानसिक तनाव से गुजर रहे, धर्म, जाति, या रंग की नफरत से भरे हुए लोग किस तरह की हिंसा कर सकते हैं। अभी चार दिन पहले ही हमने इसी जगह लिखा था कि किस तरह महाराष्ट्र के विदर्भ में एक बहू ने ससुराल के लोगों के तानों से थककर धीमे असर करने वाले एक जहर का जुगाड़ किया, और पति सहित पांच-छह लोगों को मार डाला। शराब के लिए पैसे न देने वाले मां-बाप को मारने की खबर हमें आसपास से ही तकरीबन रोजाना सुनने मिलती है। हर समाज को यह सोचना चाहिए कि निजी हिंसा की वजहों को किस तरह घटाया जा सकता है, जिससे कि हत्या या आत्महत्या सबमें कमी आए। जो बात हिन्दुस्तान के काम की हो सकती है वह यह है कि समाज के भीतर किसी भी तरह की नफरत को, किसी धर्म या जाति से दहशत को बढ़ावा नहीं देना चाहिए, क्योंकि आज नहीं तो कल एक सामूहिक या सार्वजनिक हिंसा में भी तब्दील हो सकती है। और यह भी जरूरी नहीं है कि तनाव या नफरत से भरे हुए लोग कानूनी हथियारों से ही हिंसा करें, हिन्दुस्तान में धड़ल्ले से गैरकानूनी हथियार भी मौजूद हैं, और जब परिवार के भीतर ही कोई जहर से थोक में हत्याएं करने पर उतारू हो जाए, तो उसका क्या अंत हो सकता है? जहर से तो किसी भी सार्वजनिक या बड़े कार्यक्रम में भी एक साथ बड़ी संख्या में लोगों को मारा जा सकता है। कोई बुलेटप्रूफ जैकेट, या कितनी भी संख्या में पुलिस ऐसी निजी हिंसा को नहीं रोक सकती जिसमें लोग आत्मघाती अंदाज में कई लोगों को मारने पर उतारू हो जाते हैं, इससे बचाव का अकेला तरीका उन शांत देशों को देखकर कुछ सीखना है कि जनता को किस तरह खुशमिजाज रखा जाए, किस तरह सार्वजनिक तनाव खत्म किया जाए, और किस तरह परिवार के भीतर के तनाव घटाए जाएं। भारत जैसे चुनावी लोकतंत्र में ऐसी अमूर्त सलाह सत्ता और समाज का ध्यान नहीं खींच सकती, लेकिन समाज के जागरूक तबकों को इस पर चर्चा जरूर करनी चाहिए, और समाज की सोच को सकारात्मक बनाने का काम करना चाहिए।
लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस की धुआंधार और धांसू बोलने वाली सांसद महुआ मोइत्रा इन दिनों एक अजीब सी मुसीबत में फंसी हुई हैं। उनके एक भूतपूर्व प्रेमी ने सीबीआई को यह शिकायत की है कि महुआ लोकसभा में अडानी के खिलाफ जितने सवाल करती थीं, उनके पीछे कारोबारी दुनिया में अडानी एक प्रतिद्वंद्वी, हीरानंदानी था। अब जब तक एक भूतपूर्व प्रेमी की यह बात कमजोर पड़ पाती, दुबई में बसे हुए इस हीरानंदानी ने खुद होकर वहां भारतीय कांउसलेट जाकर एक हलफनामा दिया कि अडानी के खिलाफ महुआ मोइत्रा को जानकारी देने का एक बड़ा काम उन्होंने भी किया, और वे महुआ की तरफ से लोकसभा में सीधे सवाल लगा सकें इसलिए महुआ ने संसद के अपने ईमेल बॉक्स को हीरानंदानी के हवाले कर दिया था, और वे भी कुछ सवाल बनाकर सीधे लोकसभा सचिवालय भेज देते थे। भाजपा के लिए इतने आरोप दशहरे पर महुआ का पुतला जलाने के लिए भी काफी थे, और उससे अधिक के लिए भी। पहली बार सांसद बनी यह तृणमूल नेता अडानी को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर भी असाधारण हमले कर रही थीं, और ऐसे में तमाम मोदीविरोधी, और अडानीविरोधी लोग महुआ के साथ हो गए थे। अब अगर यह सांसद इस दर्जे की लापरवाही या गलत काम की कुसूरवार साबित होती है, तो वह बहुत बड़ी बात होगी। भूतपूर्व प्रेमी और एक अलग वर्तमान कारोबारी, इन दोनों की शिकायत और हलफनामे में यह भी कहा गया है कि महुआ ने इस कारोबारी हीरानंदानी से अपने पर बहुत बड़े-बड़े खर्च करवाए थे। इसे संसद की एक कमेटी को दे दिया गया है जो यह जांच कर रही है कि क्या इसे सवाल पूछने के एवज में लिए गए अहसान, या ली गई रिश्वत की तरह देखा जाना चाहिए। ये दोनों ही बातें दो करीबी रह चुके लोगों के बागी तेवरों के साथ इस सांसद को बहुत कमजोर हालत में लाकर खड़ा कर रही है।
अब तक महुआ मोइत्रा ने उन पर लगे हुए आरोपों को एक भूतपूर्व प्रेमी के जले दिल की आह करार दिया है, और कारोबारी हीरानंदानी को अपना दोस्त माना है। लेकिन इन दोनों ही लोगों ने लिखकर जो आरोप लगाए हैं उनके बारे में महुआ ने कुछ भी नहीं कहा है। उन्होंने जवाबी हमले में अडानी और दूसरे लोगों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच पहले करने, और उसके बाद उन पर लगे आरोपों की जांच करने की बात कही है। चूंकि अपने खिलाफ लगे बहुत ठोस आरोपों पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया है, कोई तथ्य पेश नहीं किए हैं, उनसे पहली नजर में ऐसा लगता है कि वे बहुत खोखली जमीन पर खड़ी हुई हैं, और अपने बचाव में कहने को उनके पास कुछ नहीं है, इसलिए वे हमलावर हो रही हैं। बहुत वक्त पहले किसी समझदार ने कहा था कि कई मौकों पर हमला ही सबसे असरदार बचाव होता है, महुआ आज वही कर रही है। खबरों पर अगर भरोसा करें, तो उनकी तृणमूल कांग्रेस ने भी उनके इस विवाद में उनके साथ खड़े होने से इंकार कर दिया है। धीरे-धीरे अगर ये आरोप सच साबित होते हैं, तो विपक्ष के मोडानी-विरोधी और मीडिया का मोडानी-विरोधी तबका भी महुआ का साथ छोडऩे को मजबूर हो जाएंगे। अडानी के अच्छे और बुरे काम देश की जांच एजेंसियों और अदालतों के प्रति जवाबदेह हैं, लेकिन संसद सदस्य संसद के प्रति जवाबदेह है। ऐसे में महुआ का जवाबी हमला खोखला है, और दूसरों की जांच के बाद उनकी जांच शुरू करने की उनकी मांग नाजायज है।
देश की संसद देश की सबसे बड़ी पंचायत है, और इसके नीति-सिद्धांतों के खिलाफ अगर कोई सांसद सोच-समझकर काम करते हैं, तो उसे एक बड़ा जुर्म मानना चाहिए। लोगों के याद होगा कि कई बरस पहले कुछ सांसद सवाल पूछने के एवज में रिश्वत लेते स्टिंग ऑपरेशन में पकड़ाए थे। उन सबकी संसद सदस्यता खत्म कर दी गई थी, लेकिन उनके खिलाफ देश की अदालत कुछ नहीं कर पाई थी क्योंकि संसद को अदालती दखल से बाहर रखा गया है। अब कई बरस बाद उस मामले का भूत सुप्रीम कोर्ट में खड़ा हुआ है और अदालत में अभी यह बहस चल ही रही है। इस बीच महुआ का यह मामला सामने आने के पहले ही केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में अपना जवाब रखा है कि संसद और विधानसभा के सदस्यों को अदालती कार्रवाई से जिन संसदीय मामलों में हिफाजत हासिल है, उनमें भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत होने वाली कार्रवाई शामिल नहीं है। अभी इसी महीने पहले हफ्ते में सात जजों की एक संविधानपीठ के सामने केन्द्र सरकार ने कहा कि संसद और विधानसभा का विशेषाधिकार सांसदों और विधायकों को सदन के बाहर रिश्वत लेने पर कोई हिफाजत नहीं देता। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लगातार सांसदों के रिश्वत लेने के खिलाफ लिखते आए हैं, और यह वकालत करते रहे हैं कि उन्हें आपराधिक अदालती कार्रवाई से कोई छूट नहीं मिलनी चाहिए। 2005 में लोकसभा की एक विशेष कमेटी ने सवाल पूछने के लिए रिश्वत लेने वाले सांसदों की सदस्यता खत्म कर दी थी, लेकिन उन पर कोई आपराधिक मुकदमा नहीं चल पाया था। हम उस समय से लगातार इस बात की मांग करते आ रहे थे, और अब जाकर सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार यह रूख सामने रख रही है।
महुआ मोइत्रा ने अपने असाधारण प्रभावशाली संसदीय प्रदर्शन के बावजूद अपने आपको एक ऐसी मुसीबत में डाल लिया है कि उसकी पुख्ता जांच के सिवाय उन्हें कोई रियायत नहीं मिल सकती। हमारा ख्याल है कि हर सांसद और विधायक को इस बात के लिए तैयार भी रहना चाहिए, क्योंकि यह लोकतंत्र उनके सवालों के लिए पूरे देश को जवाबदेह बनाकर रखता है। ऐसे सवालिया लोगों को खुद भी जवाबदेह होना चाहिए, कम से कम ऐसे आचरण के लिए जिसमें संसदीय विशेषाधिकार को तोहफों और उपकार के एवज में बेच देने के आरोप हों। यहां पर महुआ मोइत्रा का योगदान, या उनके लगाए गए आरोप महत्वहीन हो जाते हैं, और उनकी यह मांग बेतुकी है कि पहले उनके लगाए आरोपों की जांच हो, और फिर उनके खिलाफ आरोपों की जांच हो। जांच इस तरह रेलगाड़ी की डिब्बों की तरह आगे-पीछे नहीं चलती।
ऐसा लगता है कि महुआ मोइत्रा से या तो एक चूक हुई है, या उन्होंने गलत काम किया है, और इन दोनों ही किस्म की बातों के लिए वे संसद की कड़ी जांच की हकदार हैं। इससे बाकी तमाम लोगों को एक बात सीखने मिलती है कि जब देश के सबसे ताकतवर लोगों पर कोई हमला करना हो, तो अपने खुद के कामकाज साफ-सुथरे रखने चाहिए। दूसरी नसीहत यह मिलती है कि आज के दोस्त जब कल दुश्मन बनते हैं, तो वे नए दुश्मनों के मुकाबले कई गुना अधिक खतरनाक रहते हैं।
गुजरात हाईकोर्ट ने वहां के कुछ मुस्लिम आरोपियों को पकडऩे के बाद उन्हें एक खंभे से बांधकर लाठियों से पीटने के वीडियो सामने आने पर चार पुलिसवालों को 14-14 दिन की कैद सुनाई है। पिछले बरस गरबा पर पत्थर चलाने के आरोप में पांच मुस्लिमों को गिरफ्तार किया गया था, और अभी से साल भर पहले उन्हें खंभे से बांधकर लाठियों से बुरी तरह पीटा गया था। यह करने वाले पुलिसवाले सर्विस रिवाल्वर भी टांगे हुए दिख रहे थे, हालांकि सारे के सारे बिना वर्दी के थे। इन सबने मिलकर इन मुस्लिमों को बारी-बारी से खंभे में बांधा और उनके बदन पर लाठियां बरसाईं। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इन आरोपी पुलिसवालों ने इस अंदाज में संदिग्ध लोगों के मानव अधिकार खत्म किए, उनकी गरिमा खत्म की, मानो कि पुलिस को ऐसा करने का विशेषाधिकार हासिल है। अदालत ने कहा कि गिरफ्तार किए गए लोगों को भी जीने का अधिकार रहता है जिसमें गरिमा से जीने का अधिकार शामिल है, और इसे गिरफ्तारी के बाद भी छीना नहीं जा सकता। जजों ने अपने फैसले में कहा है कि मानवाधिकार सरकार द्वारा दिया गया विशेषाधिकार नहीं है, वे हर इंसान का बुनियादी हक है। फैसले में मदर टेरेसा की कही एक बात का जिक्र किया गया कि किसी के जीने का हक किसी दूसरे की मर्जी पर टिका नहीं होना चाहिए, यहां तक कि मां-बाप की मर्जी पर भी नहीं। अदालत ने कहा कि पुलिस को कानून-व्यवस्था का रक्षक बनाया गया है, और अपना काम करते हुए उन्हें लोगों की नागरिक स्वतंत्रता के रक्षक रहना चाहिए, न कि उसके भक्षक। एक जज ने फैसले के साथ यह जुबानी कहा कि उन्होंने कभी यह सोचा भी नहीं था कि एक ऐसा दिन आएगा जब उन्हें पुलिस को कैद सुनानी होगी। हालांकि इन पुलिसवालों की वकील ने अदालत में यह अपील की थी कि उन्हें सजा देने से उनके रिकॉर्ड में भी यह बात आएगी और 10-15 बरस विभाग में काम कर चुके इन लोगों पर विपरीत असर पड़ेगा। एक खबर के मुताबिक इन पुलिसवालों में से एक ने अदालत को कहा था कि इन याचिकाकर्ताओं के नितम्बो पर तीन से छह लाठियां मारने को हिरासत प्रताडऩा नहीं कहा जा सकता। इस हिंसा का जो वीडियो सामने आया था उसमें सार्वजनिक जगह पर इस तरह से पीटा जा रहा था, और आसपास के लोग इस पर खुशी जाहिर कर रहे थे।
हिन्दुस्तान में पुलिस की हिंसा, उसके भ्रष्टाचार, और उसकी अक्षमता का अंत ही नहीं होता। हर दिन कहीं न कहीं से ऐसी खबरें आती हैं जिनमें इन तीनों में से कोई एक बात, या ये तमाम बातें लागू होती हैं। अभी उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट ने निठारी हत्याकांड के निचली अदालत से सजा पाए हुए लोगों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि सीबीआई ने बहुत ही खराब और कमजोर जांच की थी, और वह संदेह से परे कुछ भी साबित नहीं कर सकी। ऐसे कितने ही मामले आते हैं जिनमें पुलिस का भ्रष्टाचार सिर चढक़र बोलता है, और हम छत्तीसगढ़ राज्य में ही देखते हैं कि सत्ता चाहे जिसकी हो, पुलिस के कुछ लोग सबसे भ्रष्ट और दुष्ट भी बने रहते हैं, और वे सत्ता के पसंदीदा भी रहते हैं। समय-समय पर ऐसी भी चर्चा होती है कि बोलियां लगाकर कुर्सियां पाते हैं, और बेचने वाले लोगों के मुंह और आंखें सब बंद रहते हैं। यह भी देखने में आता है कि पुलिस सत्ता की राजनीति की चापलूस बने काम करती है, और सत्ता की राजनीतिक पसंद और नापसंद से अपनी कार्रवाई तय करती है। पूरे देश में यह देखने में आता है कि रिपोर्ट दर्ज करने से लेकर जांच को मजबूत या ढीला करने तक, तेज या धीमा करने तक, सुबूत या गवाह जुटाने या मिटाने तक पुलिस बहुत ही अश्लील तरीके से पक्षपात करती है, और सत्ता की मर्जी के खिलाफ सजा तकरीबन नामुमकिन रहती है।
गुजरात हो, यूपी, या एमपी, जब सत्ता का नजरिया साम्प्रदायिक रहता है, तो पुलिस बढ़-चढक़र नेताओं से अधिक साम्प्रदायिक होकर काम करती है, और गुजरात में मुस्लिमों को इस तरह से पीटना उसी रूख का एक हिस्सा था। यह तो एक वीडियो रिकॉर्डिंग सामने आ गई, वरना कोई गुंजाइश थोड़ी थी कि जख्मी मुस्लिम लोगों को आसपास कोई गवाह मिल जाते, अदालत तक कोई सुबूत पहुंच पाते, और सजा हो पाती। आज भी हाईकोर्ट से इन पुलिसवालों को जो सजा हुई उस पर उनके वकील ने इसी कोर्ट से तीन महीने का स्थगन ले लिया है ताकि इस फैसले के खिलाफ अपील की जा सके। प्रदेश की जिस सरकार को अपने पुलिसवालों की ऐसी हिंसा के खिलाफ खुद होकर कार्रवाई करनी थी, वह इन्हें बचाने में लगी थी, और उसने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी के खिलाफ काम किया था।
अभी जब हम यह लिख रहे हैं उसी वक्त तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से आया हुआ एक वीडियो ट्विटर पर देखने मिल रहा है जिसमें पुलिस एक मुस्लिम नौजवान को लाठियों से अंधाधुंध पीट रही है, और वहां के मुस्लिम विधायक ने पुलिस के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है। आज पूरे देश में जगह-जगह मुस्लिमों को सरकारी हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। साम्प्रदायिक ताकतें सार्वजनिक मुनादी करके उनके कारोबारी बहिष्कार की मांग कर रही हैं। उन्हें कई इलाकों में मकान न खरीदते मिलते न किराये पर। जाहिर है कि निजी संस्थानों में उन्हें नौकरी मिलने में भी भेदभाव हो ही रहा होगा। आसपास कोई भी जुर्म होने पर मुस्लिमों को सबसे पहले शक के घेरे में लिया जाता है, वे ट्रेन में सफर कर रहे हैं तो पुलिस का बंदूकधारी उन्हें भून दे रहा है, उनके बच्चों को स्कूलों में पीटा और पिटवाया जा रहा है। जिस देश में मुस्लिम होना दूसरे या दसवें दर्जे का नागरिक होना हो गया है, वहां पर मुस्लिमों से पल-पल देश के लिए वफादारी साबित करने की भी उम्मीद की जाती है।
जब किसी समाज को धर्म के नाम पर इस तरह अलग-थलग किया जाता है, इतनी हिंसा उस पर की जाती है, उसके घर-दुकानों पर बात-बात पर बुलडोजर चला दिए जाते हैं, तो फिर उस समाज की सोच एक जख्मी की सोच सरीखी हो जाना तय है। हिन्दुस्तान में मुस्लिम आबादी 20 करोड़ के करीब है, जो कि देश के 15 फीसदी से कुछ कम है। यह मुस्लिम समुदाय एक हकीकत है, और वक्त की घड़ी को सैकड़ों बरस पीछे ले जाकर देश से इस्लाम और मुस्लिमों को मिटाया नहीं जा सकता। आज देश में धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए जिन लोगों को मुस्लिमों पर हमला एक आसान रास्ता दिखता है, उन्हें यह भी समझना चाहिए कि अगर ऐसी हिंसा की प्रतिक्रिया होने लगेगी, तो क्या होगा? किसी भी व्यक्ति या समाज के बर्दाश्त की एक सीमा होती है, और उसके बाद उन्हें लग सकता है कि जब इस मुल्क में गद्दार ही कहलाना है, पुलिस के हाथों हर कहीं पिटना ही है, तो फिर सचमुच ही बुरा बन जाने में क्या हर्ज है? ऐसे दिन की कल्पना करना भी मुश्किल है जब देश के किसी भी एक धर्म या समुदाय के लोगों में से एक तबके का देश के कानून से, लोकतंत्र से, और मुल्क के लोगों की इंसानियत पर से भरोसा पूरी तरह उठ जाए, और वे कानून अपने हाथ में ले लें। आज हिन्दुस्तान में कहीं अल्पसंख्यकों को, कहीं दलितों और आदिवासियों को, कहीं मांसाहारियों को इसी तरह नफरती हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है, और इससे मुल्क की हिफाजत गहरे खतरे में पड़ रही है। जिस दिन यह खतरा समझ में आएगा उस दिन तक इसे काबू में करने का वक्त निकल चुका होगा।
कलकत्ता हाईकोर्ट ने अपने एक ताजा फैसले में की गई टिप्पणी को लेकर देश के महिला अधिकारवादियों के बीच विरोध खड़ा करवा दिया है। दो पुरूष जजों की बेंच ने पॉक्सो के एक मामले में एक नाबालिग लडक़ी के सहमति से बनाए गए देह-संबंधों पर लड़कियों के लिए एक किस्म से नैतिकता की नसीहत दे डाली है। बड़ी अदालतों के बहुत से जज जब फैसले लिखते हैं तो उनमें कानून की न्यूनतम जरूरतों से परे जाकर अपने विचार खुलासे से लिखते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन इसमें की गई व्याख्या फैसले की गुणवत्ता से परे कभी-कभी विवाद खड़ा करती है। कुछ जज धर्म और जाति को लेकर मनुस्मृति की तारीफ पर उतर आते हैं, तो कुछ भारतीय संस्कृति में लडक़ी या महिला पर अतिरिक्त नैतिक दबाव बनाने लगते हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट के इस फैसले ने जजों ने नाबालिग लडक़ी से उसकी सहमति से संबंध बनाने वाले उसके ही करीबी रिश्तेदार और बाद में बने पति को बरी कर दिया है। निचली अदालत ने इस नाबालिग लडक़ी के मामा को सहमति के देह-संबंधों पर भी लागू होने वाले पॉक्सो कानून के तहत 20 बरस की कैद सुनाई थी। इन संबंधों के चलते लडक़ी गर्भवती हो गई थी, बाद में उसकी शादी भी उसी मामा से हो गई, लेकिन मामला अदालत में जा चुका था, और वहां से उसे सजा हो गई। अब इस लडक़ी ने ही हाईकोर्ट में बयान दिया था कि वह अपने पति के बिना बीमार सास और छोटे बच्चे को लेकर अकेले घर नहीं चला पा रही है, इसलिए कैद भुगत रहे उसके पति को रिहा किया जाए। इन दोनों के इस बयान को भी हाईकोर्ट ने ठीक माना कि ये दोनों गांव में रहते थे, और इन्हें यह नहीं मालूम था कि नाबालिग देह-संबंध कोई जुर्म है।
इस मामले में दोनों जजों ने यह सलाह दी है कि हर नाबालिग लडक़ी को अपनी सेक्स-भावनाओं को काबू में रखना चाहिए, और अपनी साख और अपने शरीर की हिफाजत करनी चाहिए। जजों ने फैसले में लिखा है कि नाबालिग लड़कियों को अपने अधिकारों और अपनी शरीर की रक्षा करनी चाहिए, अपनी गरिमा और आत्मसम्मान का ख्याल रखना चाहिए, और जेंडर बाधाओं को पार करते हुए अपने संपूर्ण विकास की कोशिश करनी चाहिए। जजों ने लिखा है कि समाज की नजरों में किसी नाबालिग लडक़ी के सेक्स के मजे को उसकी गरिमा खो देना मान लिया जाता है, इसलिए उसे अपना अधिक ख्याल रखना चाहिए। इसके साथ-साथ पुरूष नाबालिगों के लिए भी जजों ने कहा है कि उन्हें भी किसी लडक़ी या महिला का सम्मान करना सीखना चाहिए, उसके महत्व, गरिमा, और नीजता का ख्याल रखना चाहिए, और उसके शरीर पर उसके हक को समझना चाहिए।
बहुत से महिला आंदोलनकारियों को यह बात खटक रही है, और कई लोग सोशल मीडिया पर यह लिख रहे हैं कि लड़कियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए अब जजों की ही जरूरत रह गई थी।
हम इस फैसले को देखते हुए उनकी टिप्पणियों को सिर्फ आलोचना की नजर से नहीं देखेंगे, बल्कि भारतीय समाज में हकीकत के हिसाब से भी उन्हें तौलेंगे। यह सामाजिक हकीकत है कि लड़कियों के देह-संबंध उन्हीं के लिए अधिक खतरा रहते हैं। बराबरी का हक तो कानून की किताबों में लिखा गया है, लेकिन गर्भवती तो सिर्फ लड़कियां हो सकती हैं, बलात्कार अमूमन लड़कियों के साथ ही होता है, और देश में ब्लैकमेलिंग के मामले देखें तो उनमें से अधिकतर में लड़कियां ही अपनी तस्वीरों या वीडियो को लेकर ब्लैकमेल होती हैं। जब समाज का ढांचा ऐसा ही बना हुआ है, और जब कुदरत ने ही लड़कियों को गर्भवती होने की संभावना दी है जो कि किसी जबर्दस्ती के मामले में आशंका में भी तब्दील हो जाती है। इसलिए लडक़े और लड़कियों के शरीर और उन पर सामाजिक खतरों को अनदेखा करके सिर्फ इस बात को लेकर बागी नहीं होना चाहिए कि हाईकोर्ट जजों ने लड़कियों को ही यह नसीहत दी है। इस बात को कैसे अनदेखा किया जाए कि 21वीं सदी में भी समाज का नजरिया, उसके पैमाने लडक़ों और लड़कियों के लिए अलग-अलग हैं।
कानून की किताबों में जेंडर की बराबरी जमीन पर नहीं उतरती है। आज भी हिन्दुस्तान में देह के धंधे में बिकने वाले बदनों में तकरीबन तमाम बदन लड़कियों और महिलाओं के ही हैं, तकरीबन तमाम बलात्कार उन्हीं से होते हैं, और सेक्स-अपराध के बाद गर्भवती होने का खतरा तो सौ फीसदी लड़कियों पर ही रहता है। इसलिए अगर लड़कियों को अधिक सावधान रहने की कोई सलाह दी जा रही है तो उसे लडक़ों को मनमानी करने के लाइसेंस सरीखा मान लेना ठीक नहीं है। हम इस तरह से चीजों को देखना नहीं चाहते कि किसी को दी गई सलाह उसका शोषण मान ली जाए, उस पर ज्यादती मान ली जाए। यह भारत के आज के समाज की सच्चाई को देखते हुए दी गई एक अच्छी सलाह है, और इसे शब्दों के साथ-साथ इसकी भावना और इसके पीछे की नीयत के साथ जोडक़र देखना चाहिए।
पारिवारिक तनाव किस हद तक जानलेवा हो सकते हैं इसका एक मामला किसी अपराध कथा या क्राइम थ्रिलर फिल्म की तरह सामने आया है। छत्तीसगढ़ से लगे हुए महाराष्ट्र के विदर्भ में एक बहू ने ससुराल वालों से परेशान होकर ऐसा जहर ढूंढा जिसका असर एकदम से न दिखे, और फिर उसने पति सहित ससुराल के कुछ लोगों को रोजाना वह धीमा जहर देना शुरू किया, और पहले तो लोगों की तबियत बिगड़ी और फिर अस्पताल में उन्होंने कुछ दिनों के फासले में ही एक-एक करके दम तोड़ दिया। बच्चे-बड़े मिलाकर तीन हफ्तों में ऐसे पांच लोग गुजर गए, और अब पुलिस ने उस बहू को गिरफ्तार कर लिया है जो कि कृषि विज्ञान की डिग्री वाली है, और ससुराल के तानों से परेशान होकर उसने यह काम किया था। यह हाल उस बहू के प्रेम विवाह के बाद हुआ था जिससे निराश उसके पिता ने कुछ महीने पहले ही खुदकुशी कर ली थी। मौतों वाले इस परिवार की एक और बहू भी कत्ल के इस सिलसिले में साथ थी।
परिवारों के भीतर हिंसा बहुत अनोखी बात भी नहीं है, लेकिन घर की बहू इस दर्जे की हिंसा करे, इतने सारे लोग मारे जाएं, ऐसी खबर रोज-रोज नहीं आती है। अब पहली नजर में जो जानकारी है उसके मुताबिक ससुराल वाले ताना देते थे, और बहू ने हिसाब चुकता कर दिया। ससुराल वालों का ताना देना कोई बहुत अनोखी बात नहीं है, और आमतौर पर हिन्दुस्तान में प्रताडि़त बहू ही खुदकुशी करती है, वह ऐसी हिंसा नहीं करती। लेकिन अब वक्त बदला हुआ दिख रहा है, वह खुदकुशी करने या ससुराल छोडक़र जाने के बजाय इस तरह की और इस दर्जे की हिंसा करे, यह बात चौंकाती है, लेकिन इस सामाजिक हकीकत को समझने की जरूरत है। अब लोग इस बात को अपना हक मानकर नहीं चल सकते कि दूसरे परिवार से आई, या लाई गई बहू के साथ वे जैसा चाहे वैसा बर्ताव कर सकते हैं। एक तो कानून की तरफ से नवविवाहिता को कुछ खास किस्म की हिफाजत हासिल है, और शादी कुछ बरस बाद तक अगर उसके साथ कोई हादसा होता है तो उसकी अलग से जांच होती है। दूसरी बात यह कि अब मोबाइल और इंटरनेट की मेहरबानी से परिवार की बहू भी बाकी दुनिया के संपर्क में रह सकती है, और वह भी अच्छे या बुरे कई तरह विकल्पों पर काम कर सकती हैं। महिला की शिक्षा, आर्थिक-आत्मनिर्भरता, उसका कामकाजी होना, सोशल मीडिया पर दुनिया के लोगों से उसके संपर्क होना, इन सबसे भी उसके विकल्प बढ़ते हैं, और वह कल तक की छुई-मुई, घूंघट वाली घरेलू महिला नहीं रह गई है, और यही वजह है कि कई ऐसे जुर्म सामने आ रहे हैं जिनमें वह पति के साथ मिलकर किसी परेशान कर रहे प्रेमी का कत्ल करती है, या प्रेमी के साथ मिलकर पति को मार डालती है, या भाड़े के कातिल ढूंढकर इनमें से किसी एक का कत्ल करवा देती है। अब भारतीय नारी को अबला समझकर तबला की तरह पीटना ठीक नहीं है, क्योंकि अब वह हिसाब चुकता भी कर सकती है। कल तक उसे गिनती नहीं आती थी, लेकिन अब वह किसी कत्ल की सुपारी देने का हिसाब भी जानती है। ऐसी ही ताकत से लैस महाराष्ट्र की इस बहू ने धीमे जहर का इंतजाम किया, और एक-एक करके पांच लोगों को मार डाला।
इससे एक बात यह भी समझ आती है कि परिवार के भीतर तनाव ठीक बात नहीं है। अगर लोगों का सुख-चैन से साथ नहीं निभता, तो उन्हें अपने अलग-अलग घर बना लेने चाहिए। महाराष्ट्र में अलग घर बनाना आम बात है, पता नहीं इस मामले में तनाव इतना बढऩे तक भी परिवार क्यों इस बारे में नहीं सोच पाया। आज के वक्त किसी को भी न पारिवारिक संबंधों में, न प्रेम या यारी-दोस्ती में तनाव इस हद तक बढऩे देना चाहिए। अब हिन्दुस्तान में भाड़े के हत्यारे इतने सस्ते में मिलने लगे हैं, और लोगों को यह भरोसा रहता है कि वे पकड़ाएंगे नहीं, इसलिए ऐसे जुर्म आए दिन हो रहे हैं। इनकी खबरों के बाद भी जुर्म करने वालों को डर नहीं लगता, और खतरा उठाने वाले को बचना नहीं सूझता। और यह तो बात परिवार के भीतर इस असाधारण दर्जे की हिंसा की है, लेकिन इससे परे छोटे-छोटे तनाव किस तरह किसी परिवार के सुख-चैन को खत्म करते हैं, और बड़े होते बच्चों के मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं, उसके बारे में भी सोचना चाहिए। मामले जब तक पुलिस या अदालत तक नहीं जाते, खबरों में नहीं आते, तब तक उनकी चर्चा नहीं होती। लेकिन हमारा मानना है कि कत्ल या खुदकुशी तक पहुंचे हर मामले की तुलना में कम से कम हजार मामले पारिवारिक और मानसिक तनाव के रहते हैं, और उन्हें किसी हिंसा तक पहुंचने के पहले सुलझा लेने में ही समझदारी है। कोई भी एक हिंसा परिवार के कई लोगों को कई बरस, या पूरी उम्र की कैद दिला सकती है, और ऐसी नौबत से बचना चाहिए।
दुनिया के जिन पश्चिमी देशों को तथाकथित भारतीय संस्कृति के प्रशंसक खराब मानते हैं, वहां पर बच्चे जवान होने के बाद शादी के पहले भी मां-बाप से अलग रहने लगते हैं, और ससुराल के हाथों प्रताडि़त जैसी नौबत शायद वहां आती ही नहीं है। हिन्दुस्तान में बहू की शिकायत पर ससुराल के कई-कई लोगों की एक साथ गिरफ्तारी की खबर भी हर कुछ दिनों में आती है, लेकिन ससुराल के लोग हैं कि वे सुधरने का नाम नहीं लेते। अब देश के हर तनाव में तो परामर्शदाता हासिल नहीं हो सकते, लेकिन पारिवारिक तनाव घटाने की मामूली समझबूझ की बातें तो समाज के अलग-अलग मंचों पर हो ही सकती है। यह बात याद रखने की जरूरत है कि धर्म और जाति के आधार पर बने संगठन अमूमन दकियानूसी रहते हैं, और वहां पर पाखंडियों का राज रहता है, इसलिए धर्म और जाति के संगठन कभी बदलते हुए वक्त के मुताबिक बदलाव नहीं सुझा सकते। इसके लिए धर्म और जाति से परे के साधारण मंच अधिक कारगर हो सकते हैं जो कि ससुराल और बहू को बेहतर तरीके से साथ, या अलग-अलग रहने के तरीके सुझा सकें, या एक परिवार के भीतर भी दूसरे रिश्तों को भी साथ रहने का बेहतर रास्ता बता सकें।
यह भी याद रखने की जरूरत है कि पारिवारिक तनाव से घिरे हुए लोगों की जिंदगी की उत्पादकता घट जाती है। वे बेहतर पढ़ नहीं पाते, और न ही बेहतर काम कर पाते। उनके दिल-दिमाग का एक हिस्सा तमाम वक्त परिवार के गैरजरूरी तनाव में उलझा रहता है। इसलिए पारिवारिक तनाव को घटाने और खत्म करने का हर मुमकिन रास्ता तलाशना चाहिए।
हालांकि चुनावी राज्यों के लोग चुनाव से परे अभी शायद ही कुछ देखने-पढऩे में अधिक दिलचस्पी रखते हों। जिंदगी में राजनीति और चुनाव से परे भी बहुत सी बातों की अहमियत है। कुछ अलग-अलग खबरें मिलकर पिछले दो-तीन दिनों से हमें यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हिन्दुस्तान एक देश के भीतर अलग-अलग संस्कृतियों के कई योरप की तरह है, जहां प्रदेशों से कई गुना अधिक संस्कृतियां हैं। अब मुम्बई की एक खबर है कि वहां प्रेमविवाह करने वाले एक जोड़े का कत्ल कर दिया गया था। एक मुस्लिम लडक़ी ने हिन्दू लडक़े से शादी की थी। लडक़ी के मां-बाप अधिक खफा थे, और यह जोड़ा यूपी के बांदा जिले से आकर मुम्बई में रह रहा था। अब मुम्बई पुलिस ने इस लडक़ी के बाप-भाई, परिवार के दोस्त, और तीन और मुस्लिम नाबालिगों को गिरफ्तार किया है। बाप-भाई ने मुम्बई में एक रिश्तेदार के घर इस बेटी-दामाद को मिलने बुलाया, और उन्हें मारकर लाश ठिकाने लगा दी। दूसरी तरफ एक खबर यह है कि कर्नाटक से खबर है कि एक रोजी-मजदूर की बेटी ने बैंगलोर विश्वविद्यालय से आठ गोल्ड मैडल के साथ केमेस्ट्री में एम.एस.सी. किया है, और तीन नगद पुरस्कार भी जीते हैं। बाप ने हमेशा बेटी को आगे बढ़ाया, और बेटी आसमान पर पहुंच गई। वह बेंगलुरू से 50 किलोमीटर दूर रहती थी, और रोज बस से कॉलेज आती-जाती थी। बस का सफर वह पढऩे में लगाती थी, और पिता की इस हसरत को पूरा करना चाहती है कि उसे टीचर बनना है। एक दूसरी खबर है कि यूपी के प्रयागराज में एक बहुत व्यस्त न्यूरोसर्जन ने अपनी बेटी का नीट इम्तिहान के लिए हौसला बढ़ाने को खुद भी 30 साल बाद मेडिकल दाखिले का इम्तिहान दिया, और उन्हें 89 फीसदी और बेटी को 90 फीसदी नंबर मिले। लेकिन आज हम जिस मामले को लेकर यहां लिखना शुरू कर रहे हैं, वह बिल्कुल ही अलग मामला है। झारखंड में एक पिता ने बेटी की शादी धूमधाम से की थी, और जब उन्हें पता लगा कि दामाद पहले से दो-दो शादियां किया हुआ था, अपनी इस तीसरी बीवी के साथ रहता नहीं था, और उसके साथ बुरा सुलूक करता था, तो पिता बैंडबाजा बारात लेकर बेटी के ससुराल पहुंचे, और अपनी बेटी को धूमधाम से अपने घर लेकर आए।
ये सारी ही खबरें पिछले तीन दिनों की हैं, और हिन्दुस्तान की ही हैं। इनसे पता लगता है कि यह देश किस तरह धर्म, जाति, और मां-बाप की निजी पसंद या परहेज से बंधा हुआ देश है, कहां तो एक मजदूर बाप अपनी बेटी को एम.एस.सी. तक पहुंचाता है, जिसका गला गोल्ड मैडलों से भर जाता है, और कहां दूसरा बूढ़ा बाप बेटी के दूसरे धर्म में शादी करने पर अपने कुनबे के साथ मिलकर उसका गला काट देता है, और बाकी पूरी जिंदगी जेल में गुजारने को तैयार रहता है। यह हैरानी होती है कि किसी लडक़ी के आगे बढऩे की संभावनाएं किस हद तक उसके परिवार से मिले हौसले पर टिकी रहती हैं, और खासकर भारतीय समाज में मुखिया माने जाने वाले बाप के रूख पर बेटी का भविष्य कुछ या अधिक हद तक निर्भर करता ही है। ऐसा लगता है कि आगे बढऩे वाली बहुत सी लड़कियां बाप की वजह से आगे बढ़ती हैं, या फिर बाप के बावजूद आगे बढ़ जाती हैं। हमने हॉलीवुड के कुछ सबसे मशहूर और कामयाब फिल्म अभिनेताओं की तस्वीरें देखी हैं कि किस तरह वे अपनी बेटियों को अपने चेहरों पर अंधाधुंध पेंटिंग करने देते हैं, नेलपॉलिश लगाने देते हैं। ऐसे भी पिता देखे हैं जो बच्चों को कैंसर हो जाने पर उनके गिर गए बालों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए खुद भी सिर मुंडाकर रखते हैं। हिन्दुस्तान में भी ऐसी कमी नहीं है, और बनिया समुदाय का एक बाप जिस तरह झारखंड में बारात ले जाकर बैंडबाजे के साथ अपनी बेटी को ससुराल की प्रताडऩा से निकालकर लाता है, वह देखने लायक बात है, उससे सीखने लायक बात है।
सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इसे लेकर भारत की एक प्रचलित बात को याद भी दिलाया है कि बेटी को बिदा करते हुए मां-बाप कहते हैं कि डोली तो मायके से उठ रही है, अब अर्थी ससुराल से उठनी चाहिए। इस दकियानूसी और पाखंडी सोच के चलते उस लडक़ी के भाई तो खुश हो सकते हैं कि उन्हें जायदाद में हिस्सा नहीं देना पड़ेगा, या लौटी हुई बहन को पूरी जिंदगी घर में नहीं रखना होगा। लेकिन यह अकेली बात एक लडक़ी को ससुराल नाम की एक हिंसक दुनिया में पूरी तरह अकेला बनाकर छोड़ती है, और बहुत से मामलों में तो वह जवानी में ही पति के घर से अर्थी चढ़ जाती है, हिंसा झेलती है, कभी मारी जाती है, और कभी खुद को मार डालती है। यह सिलसिला हिन्दुस्तानी समाज को हिंसक बनाते चलता है क्योंकि इसमें मान लिया जाता है कि एक बार शादी हो जाने के बाद कोई भी लडक़ी अपने पति और ससुराल के रहमोकरम पर रहती है, उसी के लायक रहती है। मां-बाप की जमीन-जायदाद से परे भी यह सिलसिला मानसिक रूप से एक शादीशुदा लडक़ी को तोड़ देता है, उसे गहरे अवसाद का शिकार बना देता है, और जीने की उसकी चाह खत्म हो जाती है। एक इंसान के रूप में उसकी संभावनाओं को किनारे भी रख दें, तो भी समाज के एक उत्पादक सदस्य के रूप में उसका योगदान शून्य हो जाता है, और वह कुछ मायनों में समाज पर बोझ भी बन सकती है, मानसिक रोगों की शिकार हो सकती है।
इसलिए झारखंड के एक पिता की यह बहादुर पहल हमें आज खुलकर उसकी तारीफ के लायक लग रही है कि उसने अपनी बेटी की घरवापिसी को भी जश्न की शक्ल दे दी। अपनी बच्ची को प्रताडऩा में मरने के लिए छोड़ देना पारिवारिक जिम्मेदारी से दूर भागने के अलावा और कुछ नहीं होता, ऐसे में धूमधाम से लडक़ी को उसके घर वापिस लाकर इस पिता ने एक मिसाल पेश की है, और इस पर अलग-अलग समाजों में चर्चा भी होनी चाहिए। देश का कोई कानून किसी लडक़ी को मां-बाप की जायदाद में बरसों की अदालती कार्रवाई के बाद हक तो दिला सकता है, लेकिन कोई भी कानून मां-बाप को मजबूर नहीं कर सकता कि वे मुसीबतजदा अपनी बेटी को वापिस घर लेकर आएं। और आज तक प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को कभी ऐसे हौसले की गवाह नहीं रही है कि बेटी को इस तरह वापिस लाया जाए। इसलिए हम इस पारंपरिक रीति-रिवाज के बिल्कुल नए और मौलिक किस्म के इस्तेमाल की तारीफ करते हैं कि इससे समाज के और लोगों को भी एक राह दिखेगी, एक हौसला दिखेगा।
इस पिता की पहल, कर्नाटक के रोजी-मजदूर का बेटी को आसमान पर पहुंचाना, प्रयागराज के न्यूरोसर्जन पिता का बेटी के साथ इम्तिहान देना, जब इन बातों को हम यूपी से मुम्बई आकर बेटी-दामाद का कत्ल करने वाले कुनबे की खबर के साथ रखकर देखते हैं तो लगता है कि हिन्दुस्तान एक साथ कई सदियों को जी रहा है। कुछ लोग 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं, और कुछ लोग 18वीं सदी में जी रहे हैं। शायद ही कभी इस देश में समाज में बराबरी की, इंसाफ की सोच एक सरीखी बिखर सकेगी।
छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव सामने खड़े हैं। चुनाव कार्यक्रम आ चुका है, पार्टियों के उम्मीदवार घोषित होते चल रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो मतदाता वोट डालने नहीं निकलते हैं, उनका क्या किया जाए? दुनिया के कुछ देशों में वोट डालने को अनिवार्य भी किया गया है ताकि नागरिकों अगर अधिकार चाहिए तो उन्हें कुछ जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। लेकिन कई लोगों का यह भी मानना है कि वोट डालने की अनिवार्यता भी अलोकतांत्रिक होती है। लोगों के पास यह भी पसंद रहना चाहिए कि वे वोट न डालें। शायद ऐसी ही सोच के बाद भारत के वोट में नोटा नाम का एक प्रावधान जोड़ा गया था जिसका मतलब था, नन ऑफ द अबव, यानी इनमें से कोई नहीं। नोटा किसी बैलेट पेपर या ईवीएम मशीन पर सबसे आखिर में रहता है, और जो मतदाता पोलिंग बूथ तक पहुंचते हैं, लेकिन जिन्हें वहां जाकर कोई भी नाम पसंद नहीं आते, वे नोटा में वोट डाल सकते हैं। नोटा के विकल्प ने उन लोगों को पोलिंग बूथ तक जाने का उत्साह दिया जो हर उम्मीदवार और पार्टी से निराश हैं। यह इंतजाम कई और देशों की चुनाव प्रणाली में भी है, और यह लोगों को सबको खारिज करने के लिए भी मतदान केन्द्र तक जाने का उत्साह देता है जो कि चुनाव में शामिल होने के बराबर रहता है।
अब हम यह देखें कि वोट डालने न जाने वाले लोगों से क्या फर्क पड़ता है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ को देखें जहां 2003 से विधानसभा चुनाव शुरू हुए हैं, और अब तक चार चुनाव हो चुके हैं, यह पांचवां चुनाव होने जा रहा है। इस बीच दो सबसे प्रमुख दलों, कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फर्क दस फीसदी से लेकर 0.75 फीसदी तक रहा है। कभी सत्ता पर आने वाली पार्टी 10 फीसदी वोटों से आगे रही, तो कभी महज पौन फीसदी वोटों से। अब यह कल्पना करें कि 2013 में कुल पौन फीसदी के फर्क से भाजपा को 49 सीटें मिली थीं, और कांग्रेस को 39! कुल पौन फीसदी के फासले ने एक पार्टी को 10 सीटें दिलवाकर उसकी सरकार बनवा दी थी। अब अगर उस चुनाव में कांग्रेस को भाजपा से एक फीसदी वोट अधिक मिले रहते, तो हो सकता है कि उसकी सरकार बन गई होती। 2013 के छत्तीसगढ़ के आंकड़े देखें तो ऐसा भी नहीं था कि कांग्रेस या भाजपा के वोट नहीं बढ़े थे। दोनों ही पार्टियों के वोट अपने पिछले चुनावों के वोट से बढ़े थे, उसके बावजूद पौन फीसदी आगे रहकर भाजपा 10 सीटें ज्यादा पाकर सरकार बनाने वाली साबित हुई। जबकि इस चुनाव में पहले के मुकाबले 6.79 फीसदी वोट अधिक गिरे थे, और छत्तीसगढ़ के चार चुनावों का रिकॉर्ड मतदान, 77.45 फीसदी उसी चुनाव में हुआ था।
किसी खास पार्टी के नफे और नुकसान से परे जब यह देखें कि एक फीसदी के फासले से किस तरह दस सीटों का अंतर हो सकता है, और कई प्रदेशों में तो एक-दो सीटों के फासले से भी सरकारें बनती हैं, या बनने से रह जाती हैं। मतलब यह कि किसी पार्टी के वोटर अगर सौ के बजाय 101 रहते, तो हो सकता है वह पांच बरस विपक्ष के बजाय पांच बरस सत्ता पर रहती। यह तो बात हुई पार्टियों के नजरिए से इन आंकड़ों को देखने की। लेकिन इससे परे जनता की नजर से भी इन्हें देखने की जरूरत है। वह यह है कि कई सीटों पर चार-पांच सौ वोटों से भी विधायक जीत या हार जाते हैं, कभी-कभी यह आंकड़ा सौ-पचास से नीचे भी चले जाता है। और अगर ऐसे में वहां पर कोई दुष्ट या भ्रष्ट जीत जाए, तो उसके लिए घर बैठे हुए वे कुछ सौ वोटर जिम्मेदार रहते हैं जो अगर वोट डालने गए रहते तो हो सकता है कि तस्वीर बदल गई रहती।
आज राजनीतिक दलों के तमाम चुनाव सर्वे और विश्लेषण देखें, तो वे पूरी तरह पिछले कुछ चुनावों के आंकड़ों को लेकर किए जाते हैं। अब अगर छत्तीसगढ़ के 2013 के आंकड़ों को 2018 के विधानसभा चुनाव से मिलाकर देखें, तो कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फर्क 10 फीसदी हो गया था, और सीटें कांग्रेस की 68, और भाजपा की 15 रह गई थी। इस चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले करीब आधा फीसदी कम मतदान हुआ था, लेकिन दोनों पार्टियों के बीच वोटों का फर्क जमीन-आसमान जैसा हो गया था। अब इस बात को देखा जाए कि 77 फीसदी से कम वोटों के बाद भी 20 फीसदी से अधिक तो ऐसे वोटर थे ही जो कि जिंदा होंगे, चुनाव क्षेत्र में होंगे, और वोट डालने नहीं गए। अगर वे भी गए होते तो छत्तीसगढ़ के इन दोनों चुनावों, खासकर 2013, और 2018 का भी, नतीजा कुछ का कुछ हो सकता था। 10 फीसदी का फर्क तो शायद नहीं पटता, लेकिन 2013 का पौन फीसदी का फर्क तो बिल्कुल गायब हो सकता था।
इसलिए घर बैठे आलसी, लापरवाह, गैरजिम्मेदार वोटरों को यह सोचना चाहिए कि अगर उनके इलाके से गलत और बुरे सांसद, विधायक, महापौर-पार्षद, सरपंच-पंच चुने जाते हैं, तो वे घर बैठे रहने के नाते इस बर्बादी के जिम्मेदार रहते हैं। आज ही यह कल्पना करें कि 2013 के चुनाव में अगर 10 फीसदी और लोग निकलकर वोट डालते, तो न सिर्फ सरकार कोई और बन सकती थी, बल्कि नेताओं और पार्टियों के होश उड़ गए रहते। अभी 2023 के चुनाव में भी अगर 20 फीसदी से अधिक वोटर हाथ-पैर चलते हुए भी, घर बैठे हुए भी अगर वोट डालने नहीं जाते हैं, तो उन्हीं के सरीखे मुर्दों की वजह से यह लोकतंत्र मरघट और कब्रिस्तान में तब्दील हो रहा है। हिन्दुस्तान में वोट डालना अकेला ऐसा काम है जो कि महंगाई से बेअसर है, जिस पर कोई जीएसटी नहीं है, मनोरंजन तो है पर कोई मनोरंजन टैक्स भी नहीं है, जिसके लिए इलाके के बड़े-बड़े नेता हाथजोड़े गिड़गिड़ाते खड़े रहते हैं, और गरीब से गरीब आम वोटर भी शान के साथ जाकर करोड़पतियों के साथ कतार में लगकर वोट डाल सकते हैं। अपने इलाके, प्रदेश और देश के भविष्य को तय करने का जो बड़ा मौका लोकतंत्र लोगों के हाथ देता है, उसकी अहमियत खासी बड़ी है। हिन्दुस्तान में यही अकेला ऐसा हक है जो जेंडर, जाति, धर्म, संपन्नता या विपन्नता, इन सबसे पूरी तरह आजाद है। आज देश में यही एक हक सबसे गरीब और सबसे कमजोर तबके को भी सबसे अमीर और सबसे मजबूत तबके के बराबर हासिल है। ऐसे में जो कोई भी इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं, वे लोहिया के शब्दों में मुर्दा लोगों से भी गए-गुजरे हैं, क्योंकि लोहिया का कहना था कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करती। हिन्दुस्तान के गैरजिम्मेदार घर बैठे वोटर तो ऐसे कई पांच बरस निकाल देते हैं, इसलिए वे मुर्दों से भी गए-गुजरे हैं। लोगों को लोकतंत्र में अपने जिंदा रहने का सुबूत देना चाहिए, और वोट डालने जरूर जाना चाहिए। लोगों को अपने आसपास के लोगों को भी तैयार करना चाहिए, और दोपहर-शाम तक किसी काम में फंसने के बजाय सुबह-सुबह किसी बुरे को निपटाने के इरादे से, या किसी भले को बनाने के हिसाब से वोट डालने चले जाना चाहिए।
फिलीस्तीन के गाजा में बीती रात जनसंहार का जो मंजर पेश हुआ, उससे दुनिया के सबसे हिंसक दिल भी शायद हिल जाएंगे। पांच सौ से अधिक मरीजों और जख्मियों वाले इस अस्पताल में हजारों ऐसे नागरिकों ने भी शरण ले रखी थी जो अपाहिज थे, घायल या बूढ़े थे जो बिना मदद गाजा छोडक़र नहीं जा सकते। यह अस्पताल एक बाहरी ईसाई चर्च चला रहा था, जिसका फिलीस्तीन के किसी भी गुट से कोई लेना-देना नहीं था। इस अस्पताल के बारे में इजराइल की फौज को भी खबर थी। इसके बावजूद कल वहां जो हवाई हमला हुआ है उसमें पांच सौ से अधिक लोगों के मारे जाने की खबर है, और इतने ही लोगों के जख्मी होने की। मरीजों का ऑपरेशन चल रहा था, और अस्पताल की इमारत के कई हिस्से बमबारी में गिर गए। एक ब्रिटिश मूल के प्रोफेसर हमले के वक्त अस्पताल के करीब थे, और उन्होंने बताया कि फाइटर विमानों से दो रॉकेट नीचे गिरे, और उन्होंने अस्पताल को तबाह किया। उन्होंने आंखों देखा हाल बताया कि धमाके के बाद आग लगी, और मदद करने पहुंचे लोगों के पास आग बुझाने को कुछ नहीं था। इजराइल ने इस हमले से हाथ झाड़ लिए हैं, और कहा है कि यह उसका काम नहीं है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के राजदूत ने कहा है कि इजराइल और वहां के प्रधानमंत्री झूठ बोल रहे हैं। राजदूत ने कहा कि इजराइली प्रधानमंत्री के डिजिटल प्रवक्ता ने ट्वीट किया था कि इजराइल ने ये हमला यह सोचते हुए किया कि अस्पताल के आसपास हमास का बेस है। और इसके बाद वो ट्वीट डिलीट कर दिया गया। फिलीस्तीनी अधिकारी ने कहा कि उनके पास उस ट्वीट की कॉपी मौजूद है, और बाद में इजराइल फिलीस्तीनियों पर आरोप लगाने के लिए कह रहा है कि यह हमला इस्लामी संगठनों की मिसाइल बैकफायर होने से हुआ है। उल्लेखनीय है कि इजराइली सेना के प्रवक्ता ने एक बयान दिया था कि फिलीस्तीन के इस अस्पताल को खाली करने के लिए कहा जा चुका है। इस माहौल के बीच जब पूरी दुनिया में इजराइल को इस हमले के लिए धिक्कारा जा रहा है, हमास के हमले से जख्मी हुए इजराइल के साथ एकजुटता दिखाने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन इजराइल रवाना हो चुके हैं, और इन शब्दों के छपने तक वे वहां पहुंच चुके रहेंगे। इस बीच पड़ोसी देश जॉर्डन में अमरीकी राष्ट्रपति, फिलीस्तीनी राष्ट्रपति, और मिस्र की राष्ट्रपति की होने वाली बैठक को जॉर्डन ने रद्द कर दिया है। फिलीस्तीनी अस्पताल पर इस भयानक हमले ने किसी भी तरह की शांति की संभावनाओं को पूरी तरह खत्म कर दिया है। अब दुनिया भर के देशों में फिलीस्तीनियों के समर्थन में, और इजराइल के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, और मुस्लिमों और अरब लोगों को सडक़ों पर उतरने के लिए कहा जा रहा है।
इजराइल पर हुए हमास के आतंकी हमले के तुरंत बाद से फिलीस्तीन के गाजा के आम लोगों पर जिस तरह अंधाधुंध हवाई हमले हो रहे हैं, उसमें इजराइल अब तक हजारों बेकसूरों को मार चुका है। इसी शहर में जगह-जगह हमास के लोगों और दफ्तरों, हथियारबंद ठिकानों का आरोप लगाते हुए इजराइल वहां अंधाधुंध हवाई हमले कर रहा है, और उसे इस शहर में बसे 20-25 लाख फिलीस्तीनियों को शहर छोडक़र चले जाने की चेतावनी दी है। आज फिलीस्तीन के हजारों बेकसूर मुस्लिमों के इस तरह मारे जाने, और दसियों लाख के बेघर होने से उन पर दशकों से चले आ रही इजराइली गुंडागर्दी, और फौजी ज्यादतियों का मुद्दा एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है, और अब मुस्लिम और इस्लामिक देश एक अभूतपूर्व तनाव में हैं कि क्या वे फिलीस्तीन के दसियों लाख मुस्लिमों को इस तरह इजराइल के हमलों से मरने के लिए छोड़ सकते हैं, और उसके बाद भी इस्लामिक दुनिया के नेता बने रह सकते हैं? यह दुविधा आज बहुत से देशों को परेशान कर रही है। हिन्दुस्तान के कांग्रेसशासित राज्य कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू की खबर है कि वहां पर एक प्रमुख बस्ती में फिलीस्तीन के पक्ष में बहुत्व कर्नाटक संगठन के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे थे, पुलिस ने उनके खिलाफ जुर्म दर्ज किया है कि वे बिना इजाजत प्रदर्शन कर रहे थे। लोगों ने इस पर कहा है कि कांग्रेस एक तरफ तो फिलीस्तीनियों के साथ का दावा करती है, दूसरी तरफ उसकी सरकार फिलीस्तीनियों के हक के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर जुर्म दर्ज कर रही है।
आज संयुक्त राष्ट्र से लेकर रेडक्रॉस तक तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठन बहुत तकलीफ के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं, और इसे एक भयानक जनसंहार बतला रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस बात का भी विरोध कर रहा है कि इजराइल ने जिस तरह गाजा की फौजी नाकाबंदी करके वहां पानी, बिजली, खाना, दवा कुछ भी जाना बंद कर दिया है, वह अपने आपमें एक युद्ध अपराध है। जहां पर दसियों लाख आम नागरिक बसे हुए हैं, वहां पर इस तरह की फौजी नाकाबंदी मानवता के खिलाफ अपराध है। लेकिन मानवता के खिलाफ अपराध का यह इजराइली और अमरीकी जुर्म नया नहीं है। वे दशकों से यही करते आ रहे हैं, और इजराइली फौजों के किए गए जनसंहार को बचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में अमरीका वीटो का इस्तेमाल करके इजराइल को हर कार्रवाई से बचाते रहा है। इस तरह हिटलर के बाद दुनिया के इस एक सबसे बड़े जुर्म में अमरीका इजराइल का भागीदार है।
बीती रात के इस अस्पताल पर हमले पर भी अगर दुनिया नहीं जागती है, तो यह कई मुस्लिम देशों में अमरीका के किए हुए हमलों का इजराइली विस्तार होगा। और यह मुस्लिम और अरब देशों के लिए डूब मरने की बात भी होगी कि वे अपने पड़ोस के फिलीस्तीनी, मुस्लिमों को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं, और महज तेल की कमाई खाते हुए अय्याशी में डूबे हुए हैं। इतिहास उन तमाम मुल्कों को याद रखेगा जिन्होंने इस दौर में बेकसूर और गरीब, बेबस और कमजोर फिलीस्तीनियों को उनके हाल पर छोड़ दिया था।
दिल्ली के करीब नोएडा में 2006 में बच्चों से सिलसिलेवार बलात्कार और उनके कत्ल का एक ऐसा मामला सामने आया था जिसने सबको हिलाकर रख दिया था। निठारी कांड नाम से कुख्यात इस मामले में दर्जन भर अलग-अलग कत्ल के लिए एक मकान के मालिक और नौकर को फांसी की सजा हुई थी, और अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के इन फैसलों को पूरी तरह खारिज कर दिया है। मकान मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर को तो हाईकोर्ट ने फांसी की दर्जन भर सजाओं से बरी करते हुए कहा है कि सीबीआई सुबूतों के आधार पर संदेह से परे यह साबित नहीं कर पाई कि ये दो लोग मुजरिम थे। 2006 में एक नाले से 8 बच्चों के कंकाल मिले थे, और इन दो आरोपियों से एक के तथाकथित बयान पर पुलिस ने पूरा केस खड़ा किया था कि किस तरह बच्चों से बलात्कार के बाद मालिक और नौकर उनके टुकड़े करते थे, उन्हें नाले में बहा देते थे, और उस वक्त शायद ऐसा भी बयान सामने आया था कि कुछ बच्चों के टुकड़े पकाकर खा भी लेते थे। अब हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने कहा है कि जांच एजेंसी ने परले दर्जे की लापरवाही से सुबूत जुटाए, ढंग से बयान भी दर्ज नहीं किया, कोई कानूनी औपचारिकताएं नहीं निभाईं, और गरीब नौकर को दैत्य बनाकर उसे इस मामले में फंसा दिया। अदालत ने यह भी माना है कि जांच की गंभीर खामियों के कारण निचली अदालत से सजा के बाद भी ये अपीलकर्ता चतुराई से निष्पक्ष सुनवाई से बच गए हैं। 2017 में इन्हें मिली सजा को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है।
पंढेर नाम के मालिक और कोली नाम के नौकर पर 2006 में कत्ल, रेप, मानव तस्करी, और सुबूत मिटाने के आरोप थे। जब पंढेर के बंगले के पीछे से बच्चों के कंकाल मिलने शुरू हुए, तो उन खबरों से देश हिल गया था। बहुत से गरीब मां-बाप ने अपने बच्चे इस मामले में खोए थे, और वे इस मामले की सुनवाई में अपनी जमीन बेचकर भी इंसाफ की तलाश में लगे हुए थे। यह मामला खबरों में इतना अधिक आया था कि इसे सीबीआई को दे दिया गया था, और यूपी पुलिस की प्रारंभिक जांच के बाद आगे का काम सीबीआई ने किया था। अब हाईकोर्ट ने पूरी की पूरी जांच को घटिया, और खामियों भरी बताते हुए उसकी वजह से दोनों अभियुक्तों को बरी किया है। हम न तो निचली अदालत के फैसले पर कोई टिप्पणी करना चाहते, और न ही अब हाईकोर्ट से इन दो लोगों की रिहाई पर। लेकिन यह सवाल जरूर उठाना चाहते हैं कि पहली नजर में जो मामला इतना आसान लग रहा था, उस मामले की जांच अगर इतनी कमजोर की गई कि हाईकोर्ट के पास इन्हें छोडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं था, तो यह शर्मिंदगी की बात है, खासकर जांच एजेंसी के लिए, या उसके पहले सुबूत जब्त करने वाली यूपी पुलिस के लिए। बहुत से मामलों में सीबीआई के दाखिले के पहले राज्य पुलिस ही सुबूत जब्त करती है, और अगर उसमें कानून बारीकियों का ख्याल नहीं रखा जाता, तो फिर पूरा मामला ही कमजोर हो जाने का खतरा रहता है। अभियुक्तों के वकील, बचाव पक्ष के पास कानूनी नुक्तों के आधार पर सुबूतों को खारिज करवाने का हक रहता है, और एक ही सुबूत खामियों सहित जब्त करने के बाद उन्हें दुबारा बिना खामियों के जब्त करने की कोई गुंजाइश तो रहती नहीं है, नतीजा यह होता है कि पुलिस, या सीबीआई की जांच की लापरवाही बचाव पक्ष का हथियार बन जाती है, और फिर मुजरिमों के छूट जाने की बड़ी गुंजाइश खड़ी हो जाती है। इस मामले में इतने सारे कत्ल के बाद भी, निचली अदालत से इतनी-इतनी फांसियों की सजा पाने के बाद भी अगर हाईकोर्ट में लोग पूरी तरह छूट जा रहे हैं, तो यह देश की जांच और न्याय व्यवस्था के लिए शर्मिंदगी और फिक्र दोनों की बात है।
और यह बात तो आज हम इसलिए कर रहे हैं कि निठारी कांड देश का अपने किस्म का सबसे कुख्यात मामला था, और उसने देश को हिलाकर रख दिया था। ऐसा माना जा रहा था कि इंसानों की शक्ल में ये दो लोग हैवान थे, जो छोटे बच्चों से बलात्कार के बाद उन्हें काटकर, पकाकर खाते भी थे, और नाले में फेंक देते थे। अब ऐसा मामला भी अदालत में बिना कलफ, बिना नाड़े के पैजामे की तरह गिर पड़ा। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी, सीबीआई की जांच के बाद अगर यह नतीजा निकला है, और अदालत की ऐसी टिप्पणी एजेंसी के खिलाफ आई है, तो इस बारे में जांच की बारीकियों पर सीबीआई और राज्य पुलिस दोनों को काम करना चाहिए।
हम इस मामले को जोडक़र तो यह बात नहीं बोल रहे, लेकिन देश भर में राज्य की पुलिस के तैयार किए गए बहुत से मामले अदालतों में रेत के महलों की तरह ढह जाते हैं क्योंकि जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों का न तो प्रशिक्षण ठीक होता है, न उन्हें लापरवाही से बचने की फिक्र रहती है। छत्तीसगढ़ में बेमेतरा की जिला अदालत से अभी एक फैसला हुआ जिसमें बिरनपुर गांव में एक झोपड़े में लगाई गई आग के मामले में जिम्मेदार बताए गए 8 लोगों को अदालत ने बरी कर दिया कि इन्हें बिना किसी भी सुबूत के गलत तरीके से पकड़ा गया था, पुलिस के पास कोई सुबूत नहीं थे, और जिले के तत्कालीन एसपी और एडिशनल एसपी ने अपनी निगरानी में एक छोटे पुलिस अफसर से जांच करवाई थी। बेमेतरा जिला अदालत के एक जज पंकज कुमार सिन्हा ने जिले के एसपी और एडिशनल एसपी के खिलाफ जांच करने के निर्देश पुलिस महानिदेशक और दुर्ग आईजी को दिए हैं। पुलिस ने एक झोपड़ेनुमा मकान में लगाई गई आग के वक्त आसपास खड़े 8 लोगों को गिरफ्तार करके उन पर मुकदमा चलाया था। यह घटना 10 अप्रैल की थी, और 6 महीने के भीतर ये सारे लोग छूट गए क्योंकि पुलिस कोई सुबूत पेश नहीं कर सकी।
जब राज्य की पुलिस अपने निकम्मेपन, समझ की कमी, या भ्रष्टाचार की वजह से जांच सही नहीं करती है, गवाही और सुबूत दर्ज करने में ही कानूनी खामियां छोड़ती है, तो मुजरिमों के बच निकलने की गुंजाइश बहुत रहती है क्योंकि अदालत किसी पर भी आरोप संदेह से परे साबित करने की उम्मीद रखती है। निठारी कांड पर यूपी पुलिस और सीबीआई की इस ताजा नाकामयाबी का देश के सभी राज्यों के पुलिस को अध्ययन करना चाहिए, अपने प्रदेश के ऐसे दूसरे मामलों का भी अध्ययन करना चाहिए, और अपने जांच अधिकारियों का कानूनी प्रशिक्षण भी करवाना चाहिए ताकि जांच की कमजोरी या खामी से मुजरिम बच न निकलें। जो सच में ही मुजरिम रहते हैं, उनका रिहा होकर समाज में खुला घूमना समाज के लिए खतरा भी रहता है।
जब लोगों के पास अपनी कोई समझ नहीं रह जाती, तो फिर धर्म उनके बहुत काम आता है। किसी धर्म की आराधना के संगीत में लोगों को जोडऩे की जितनी ताकत रहती है, उससे हजार गुना ताकत किसी धर्म के लोगों से नफरत करने में विधर्मी-धर्मान्ध लोगों के बीच रहती है। एक धर्म से नफरत दूसरे धर्म के लोगों को तुरंत एकजुट कर देती है। जिस गुजरात के जय शाह बीसीसीआई के सचिव हैं, उनके ही गुजरात में जब नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में पाकिस्तान की टीम खेलने उतरी तो उनका स्वागत करने के लिए दर्शकों के पास सिर्फ आक्रामक नारों के साथ हवा में मुट्ठी लहराते जयश्रीराम के नारे थे। एक मेहमान टीम से नफरत पैदा करने के लिए मेजबान दर्शकों में अपने धर्म के प्रति धर्मान्ध होना जरूरी था, और वही काफी भी था। लोगों ने सोशल मीडिया पर इस बर्ताव के बारे में लिखा भी, और अफसोस भी जाहिर किया। लेकिन ऐसी समझ रखने वाले लोग जहरीली धर्मान्धता वाले लोगों के मुकाबले कम मुखर रहते हैं, और इसीलिए कम दिखते हैं। हवा में नफरत घोलने वाले लोग चाहे गिनती में कम रहते हों, वे दिखते अधिक हैं। धर्मान्धता का ऐसा ही असर आज हिन्दुस्तान के उन लोगों में दिख रहा है जो बेकसूर फिलीस्तीनी नागरिकों को मार रहे इजराइल पर फिदा हैं, क्योंकि वह मुस्लिमों को मार रहा है। पूरी दुनिया में जो भी मुस्लिमों के खिलाफ बात करे, वैसे ट्रम्पों को चुनाव में जितवाने के लिए हिन्दुस्तान में एक तबका यज्ञ और हवन करने लगता है। जब कोई मुस्लिम देशों पर बम बरसाए तो उसकी लंबी उम्र की कामना करने लगता है। और आज जब इजराइल एक जंग के नाम पर बेकसूर फिलीस्तीनियों को मारकर अपनी घरेलू एकता कायम कर रहा है, तो उस पर भी हिन्दुस्तान का एक धर्मान्ध तबका फिदा है कि वह मुस्लिमों को मार रहा है।
किसी भी देश या समाज के आगे बढऩे की क्षमता उस वक्त खत्म होने लगती है जब उसकी सोच इतनी तंगदिल और तंगनजरिए की हो जाती है कि किसी दूसरे की बर्बादी उसे अपनी कामयाबी लगने लगती है। किसी और को आए जख्म, उनकी गिरी लाशें जिन्हें सुहाने लगती हैं, वे खुद जिंदगी में कुछ और हासिल करना नहीं चाहते क्योंकि खुद की मेहनत के बिना दूसरों की लाशें देखकर उन्हें खुशी और गर्व दोनों हासिल हो रहे हैं। ऐसा समाज आगे बढऩा बंद कर देता है, और हिन्दुस्तान के एक बड़े तबके के साथ आज यही हो रहा है कि उसे पाकिस्तान में आटे की कतार में लगे लोगों की भगदड़ में दर्जन भर मौतें हो जाने से तसल्ली हो रही है, जिसे पाकिस्तान में तीन-चार सौ रूपए लीटर पेट्रोल होने पर हिन्दुस्तानी पेट्रोल महंगा लगना बंद हो गया है, जबकि दोनों देशों के रूपयों के दाम में ये रेट बराबर ही है। धार्मिक नफरत समझ को खोखला और कमजोर कर देती है।
लोगों के तर्कपूर्ण और न्यायसंगत होने का एक बड़ा रिश्ता उनकी वैज्ञानिक समझ से जुड़ा रहता है। और वैज्ञानिक समझ का मतलब कहीं भी धर्मविरोधी होना नहीं होता है। दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक धर्म पर अपनी निजी आस्था रखते आए हैं, लेकिन उन्होंने अपनी आस्था को अपनी वैज्ञानिक समझ पर हावी नहीं होने दिया, इसीलिए वो वैज्ञानिक बन पाए। अगर इंसानी पुरखों को महज ईश्वर के भरोसे बैठना होता, तो वे आसमानी बिजली गिरने पर लगने वाली आग की राह तकते, वे चकमक पत्थर का आविष्कार नहीं करते। वे पत्थर को तराशकर गोल चक्का नहीं बनाते, और वे न पकाना सीखते, न कपड़े पहनना। ये तमाम चीजें एक वैज्ञानिक सोच के साथ आईं, धर्म ने अगर कुछ किया, तो वह इस वैज्ञानिक सोच की धार को भोथरा करने का काम ही किया, विज्ञान की रफ्तार को घटाने का काम किया। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि जिस वक्त योरप विज्ञान और तकनीक से हो रही औद्योगिक क्रांति से गुजर रहा था, उस वक्त हिन्दुस्तान में बादशाह रास-रंग में डूबे हुए किले और महल बनवा रहे थे। ऐसी ही वजहें थी कि विज्ञान और तकनीक की अहमियत समझने वाले देश आगे बढ़ते चले गए, और धर्म को ही सब कुछ समझने वाले देश पीछे रह गए, गुलाम भी बन गए। हिन्दुस्तान में एक तबके का अपार भरोसा इस बात पर है कि इस देश के किसी खालिस हिन्दू इतिहास में देश के पास ब्रम्हास्त्र थे। लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जब अंग्रेज बंदूकें लेकर आए, तो वे सारे ब्रम्हास्त्र कहां चले गए थे?
इसलिए झूठे गौरव में डूबा समाज कभी अपनी सारी संभावनाओं को नहीं छू पाता। आज पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को हिन्दुस्तानी क्रिकेट टीम अगर बुरी तरह से हरा रही है, तो वह किसी धर्म या मजहब की वजह से नहीं है, खेल की वजह से है। लेकिन खेलभावना को कुचलकर अगर सिर्फ धार्मिक नफरत से किसी टीम को खारिज करना है, हिन्दुस्तान की तथाकथित अतिथि सत्कार की परंपरा को कचरे की टोकरी में डाल देना है, तो इतनी ताकत महज धर्म में है, इतनी नफरत महज धर्म सिखा सकता है। और यही नफरत आज हिन्दुस्तान के एक तबके को फिलीस्तीन के साथ हो रही ऐतिहासिक बेइंसाफी समझने से परे रखती है, यही नफरत एक जुल्मी और हमलावर इजराइल की तारीफ करवाती है। और ऐसी नफरत ही मणिपुर में बड़ी संख्या में मारे जाते ईसाई-आदिवासियों के लिए किसी भी तरह की हमदर्दी रोकती है। यही नफरत हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर आमादा है, और यही नफरत हिन्दुस्तान को एक अखंड भारत बनाने पर भी आमादा है, फिर चाहे एक साधारण सा गणित बता देगा कि ऐसे अखंड भारत में मुस्लिम आबादी कितना गुना बढ़ जाएगी। धर्मान्धता, और धार्मिक नफरत ये लोगों से अंकगणित की बुनियादी समझ भी छीन लेते हैं।
आज जिन लोगों को इजराइल सुहा रहा है, उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस दिन उसके पड़ोसी इजराइल की तरह उनके घरों को धराशायी करेंगे, उन्हें बेदखल करके उनकी जमीन पर अपना घर बना लेंगे, उनके बच्चों को बेघर कर देंगे, उस दिन उन्हें पता लगेगा कि बेघर फिलीस्तीनियों का दर्द क्या होता है।
अभी बस इतना लिखना हुआ ही था कि अमरीका से एक खबर आई है, वहां पर एक 71 बरस के ईसाई मकान मालिक ने अपनी एक फिलीस्तीनी मुस्लिम महिला किराएदार और उसके 6 बरस के बेटे को उनके घर में घुसकर दर्जनों बार चाकू घोंपा, और चीखते रहा कि तुम मुस्लिमों को मार डाला जाना चाहिए। यह इजराइल-फिलीस्तीन मुद्दे को लेकर अमरीका में हुआ एक नफरती अपराध है जिसमें छोटा सा बेकसूर बच्चा इस तरह मार डाला गया। किसी धर्म से नफरत लोगों को 71 बरस की उम्र में भी हत्यारा बनाकर बाकी जिंदगी जेल भेज सकती है, इसकी यह एक जलती-सुलगती मिसाल है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने इस बच्चे की हत्या को नफरत का भयानक जुर्म बताया है, लेकिन यह कहते हुए वे अपनी उस मुनादी को भूल गए हैं जिसमें उन्होंने इसी हफ्ते इजराइल को फिलीस्तीनी नागरिकों पर हमले की खुली छूट दी थी, खुला उकसावा दिया था। हमास के लड़ाकों पर हमले के नाम पर इजराइल ने फिलीस्तीन के नागरिक इलाकों पर जो बमबारी की है उसमें ढाई हजार से अधिक लोग मारे गए हैं, जिनमें से अधिकतर आम नागरिक हैं। अमरीकी राष्ट्रपति का ऐसा खुला उकसावा अमरीका के कुछ धर्मान्ध नागरिकों को भी उसी तरह प्रभावित कर रहा है जिस तरह भारत के अहमदाबाद के क्रिकेट दर्शकों को।
वैसे तो कम्प्यूटर तकनीक और मशीनों को इंसान ने बनाया है, लेकिन यह जरूरी नहीं होता कि खुद ने जो बनाया है उससे हमेशा सबक भी लिया जा सके। कम्प्यूटर की जितनी खूबियां हैं, उनसे इंसानी दिल-दिमाग बहुत सी चीजें सीख सकते हैं, और इंसान का दिमाग जिस हद तक लचीला है, उसके लिए अपने आपको ऐसा ढालना नामुमकिन तो बिल्कुल नहीं है।
अब कम्प्यूटर की एक खूबी तो यह है कि उसकी याददाश्त से चीजों को हटाया जा सकता है। जैसे-जैसे कंप्यूटर की हार्डडिस्क या किसी और किस्म की मेमोरी भरती जाती है, उसका काम धीमा होते जाता है। जब वह पूरी तरह भरने लगती है, तो कंप्यूटर जटिल हिसाब-किताब नहीं कर पाता, और उसकी मेमोरी खाली करनी होती है। ऐसा ही मोबाइल फोन के साथ भी होता है जो कि एक छोटा कम्प्यूटर ही है, और जब उसमें फोटो और वीडियो भरते-भरते गले तक भर जाते हैं, वह काम करना लगभग बंद कर देता है।
लोगों की याददाश्त पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर किसी नए विचार पर काम करना है, तो दिमाग में पहले से चल रहे बहुत से विचारों को रोकना या कम करना जरूरी होता है। ऐसा करने से बहुत सी तकलीफों से भी बचा जा सकता है, और कुछ बातों को भूले बिना आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। यह बात कुछ उसी तरह की है कि कार को चलाते हुए अगर आगे ले जाना है, तो पीछे का दिखाने वाले आईने में झांकना बंद करना पड़ता है। यह मुमकिन नहीं होता कि पूरे वक्त पीछे देखते चलें, और आगे बढ़ते चलें। यह कुछ इस किस्म का भी है कि क्लासरूम का ब्लैकबोर्ड, या स्कूल के बच्चे की स्लेट-पट्टी, इन पर लिखे हुए को जब तक मिटाया नहीं जाता, तब तक इन पर आगे कुछ लिखा भी नहीं जा सकता। कम्प्यूटरों की चर्चा के बिना भी यह बात कही जाती है कि कोई नया काम करना हो तो क्लीन स्लेट से शुरुआत करनी चाहिए। पुराने जमाने की एक कहावत भी है, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले।
बीते वक्त की यादों की भारी-भरकम टोकरी को सिर पर लादे हुए आगे का बड़ा और लंबा सफर मुमकिन नहीं होता। लोगों को पुराने रिश्तों या रंजिशों के बोझ से छुटकारा पाकर ही अपने को आगे के सफर के लिए तैयार होने का मौका मिलता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि दिमाग की याददाश्त की क्षमता और सोचने की क्षमता दोनों का कोई मुकाबला कम्प्यूटर नहीं कर सकते, लेकिन जिस तरह कंप्यूटर में अलग-अलग बिखरी हुई बातों को एक साथ करने से भी उसकी क्षमता बढ़ती है, ठीक उसी तरह इंसानी दिमाग को डीफ्रेगमेंट करना सबके लिए तो मुमकिन नहीं है, लेकिन योग-ध्यान करने वाले, प्राणायाम करने वाले अपने सोचने पर कुछ या अधिक हद तक काबू कर पाते हैं।
प्राणायाम में जिस तरह बाहरी दुनिया से धीरे-धीरे अपने को अलग करते हुए अपनी ही सांसों के साथ, उसी पर ध्यान देते हुए कुछ वक्त रहने का काम होता है, वह दिमाग पर एक किस्म से काबू पाने की एक तकनीक भी है। और बाकी सबको भूलकर कुछ वक्त के लिए अपने में जीना, महज अपने साथ जीना, यह भी उतने वक्त के लिए बाकी यादों से परे जीने का काम होता है। जिस तरह कम्प्यूटर की मेमोरी खाली करने पर उसका प्रदर्शन बेहतर होने लगता है, वैसा ही इंसानों के साथ भी होता है, फिर चाहे वे उसे मानें, या न मानें। होता यही है कि यादों में बहुत उलझे हुए लोग, बीती जिंदगी की गलियों में ही भटकते हुए लोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाते।
अपने ही बनाए हुए कंप्यूटर से सीखने की बहुत सी बातें इंसानों को और भी मिलती हैं। गैरजरूरी पन्नों को बंद करना, गैरजरूरी एप्लीकेशन बंद करना बेहतर कामकाज के लिए कितना जरूरी है, यह भी कंप्यूटर से सीखने की जरूरत रहती है। लोग मल्टीटास्किंग करते हुए बहुत सारे काम शुरू कर देते हैं जिन्हें वे साथ-साथ करते चलते हैं, लेकिन कम्प्यूटर की भी ऐसा करने की एक सीमा रहती है। लोग कई बार अपनी सीमाओं को नहीं पहचान पाते, और एक साथ बहुत से काम छेड़ देते हैं, और फिर उनमें से कोई भी काम किसी किनारे नहीं पहुंच पाता। अपनी खुद की क्षमता की सीमाओं को पहचानना, और फिर उसके भीतर-भीतर काम करना, यह कामयाब होने की कई शर्तों में से एक शर्त रहती है।
जिस तरह इंसान बाकी कुदरत से, जंगलों और पेड़ों से, नदियों के बहाव से, समंदर के फैलाव से, आसमान और पंछियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, उसी तरह अपनी बनाई मशीनों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर प्रेरणा का एक पोस्टर पोस्ट किया था जिसमें सीढिय़ों के सामने खड़े एक इंसान के सामने पहली सीढ़ी बाकी के मुकाबले चार-छह गुना अधिक ऊंचाई की थी, और लिखा था कि पहला कदम ही सबसे भारी होता है। इस बात को लोगों ने कई अलग-अलग तरह से लिखा है, और कुछ ने हौसला बढ़ाने वाली यह बात भी लिखी है कि हजार मील का सफर भी पहला कदम बढ़ाने के बाद ही शुरू होता है। किसी भी बड़े और कड़े काम की शुरुआत कुछ मुश्किल होती है। जो लोग किसी भी तरह की कार या मोटरसाइकिल चलाते हैं, वे जानते हैं कि खड़ी गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए जो पहला गियर लगता है, वही इंजन की सबसे अधिक ताकत होती है, और फिर जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, अगले गियर कम ताकत के रहते हैं। जब गाड़ी पूरी रफ्तार पर आ जाती है, तो टॉप गियर सबसे ही कम ताकत का रहता है। असल जिंदगी में भी इंसान अगर देखे तो किसी भी चुनौती का शुरुआती वक्त सबसे कठिन होता है, और इसके बाद धीरे-धीरे कठिनाई कम होते चलती है, जब लोग मंजिल की तरफ अपने सफर पर कुछ आगे बढ़ निकलते हैं, तो जिंदगी का गियर भी कम ताकत वाला टॉप गियर लगता है।
ये तमाम चीजें बनाई हुई तो इंसानों की हैं, लेकिन इन सबकी जो सीमाएं या खूबियां हैं, उनको देखकर सभी लोग पहले की देखी-भाली बातों को भी एक नए नजरिए से देख सकते हैं, और सीख सकते हैं। यहां पर हम कुल दो-तीन चीजों की मिसाल दे रहे हैं, लेकिन लोग अपने-अपने दायरे में अपने काम आने वाली बाकी मशीनों, बाकी चीजों को याद करके उनसे बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। फिलहाल जिस बात से शुरू किया था, उसी पर लौटें तो वह यह है कि लोगों को गैरजरूरी यादों से छुटकारा पाना सीखना चाहिए। लोगों को सुबह उठने के बाद रात के सपनों के बारे में सोचने के बजाय दिन में क्या-क्या करना है इस बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के बहुत से दार्शनिकों ने दुश्मनी को भुला देने, दर्द को भुला देने की नसीहत भी हजारों बरस से दी है। जहां से निकलकर आगे बढ़ चुके हैं उसे भी भुला देने को कहा है। और मशीनें भी कुछ-कुछ वैसा ही सुझाती हैं और हमारे सामने अधिक ठोस तरीके से यह सामने रखती हैं कि ऐसा करने से काम कैसे आसान हो जाता है।
इजराइल और फिलीस्तीन के मुद्दे ने दुनिया को इनमें से किसी एक के पक्ष में उलझा दिया है। यह उलझन धर्म की वजह से है, या लोगों के अपने देश की विदेश नीति की वजह से है, या जिन लोगों ने इतिहास को बेहतर जाना और समझा है, उनके लिए इंसाफ के तर्कों की वजह से वे इनमें से किसी एक के साथ हैं। इंसाफ की बात करने वाले अधिकतर लोग फिलीस्तीन के साथ हैं, लेकिन दुनिया के कामयाब कारोबारी इजराइल को बेहतर समझते हैं क्योंकि वह दुनिया का एक सबसे कामयाब कारोबारी मुल्क है। अंतरराष्ट्रीय संगठन अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, और उन्होंने इस मौके पर बेकसूर इजराइली नागरिकों पर हुए फिलीस्तीनी आतंकी संगठन हमास के हमले की निंदा की है, और साथ-साथ अगले ही वाक्य में बेकसूर फिलीस्तीनी आबादी पर इजराइली बमबारी की भी निंदा की है, जिसमें मारे जाने वाले अधिकतर लोग हमास से परे के आम फिलीस्तीनी हैं।
फिलीस्तीन और इजराइल के बीच विवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि गांधी अपने अखबार हरिजन और यंग इंडिया में फिलीस्तीनियों के हक की वकालत करते थे। पौन सदी पहले से भी इजराइलियों का यह जुल्म चले आ रहा था, और पूरी दुनिया में जो बेघर शरणार्थी रहते हैं, उनके लिए फिलीस्तीनी शब्द एक विशेषण की तरह इस्तेमाल होता है। अपने ही घर में बेघर, अपने ही देश में एक खुली जेल के कैदी की तरह रहते फिलीस्तीनियों को इजराइली हिंसा और जुल्म से संयुक्त राष्ट्र संघ भी नहीं बचा पाया जबकि उसने दर्जनों प्रस्ताव इजराइल के खिलाफ पास किए हुए हैं। ऐसी नौबत में इस जटिल मुद्दे को लेकर एक बेहतर समझ की जरूरत है क्योंकि यह मुद्दा खबरों में बने रहेगा, और लोग अपने धर्म के पूर्वाग्रहों की वजह से बेइंसाफी का साथ देते रहेंगे। ऐसे में न सिर्फ इस मुद्दे को, बल्कि इस किस्म के दूसरे जटिल मुद्दों को समझने के लिए एक तर्कपूर्ण नजरिए की जरूरत रहती है, और आज हम इस प्रसंग में बात करते हुए इस तरह की दूसरी नौबतों की भी चर्चा करना चाहते हैं।
जिस तरह हमास ने अपनी ताकत और औकात के बाहर जाकर इजराइल जैसी बड़ी फौजी ताकत पर इतना कड़ा हमला किया, और सोच-समझकर सैकड़ों नागरिकों को मारा, दर्जनों या सैकड़ों का अपहरण भी किया, उससे यह तो साफ था कि इजराइल की प्रतिक्रिया क्या होगी, लेकिन यह अभी तक साफ नहीं है कि उतनी भयानक प्रतिक्रिया का अंदाज रहते हुए भी हमास ने यह हमला क्यों किया? हमास तो एक आतंकी संगठन है जो कि गाजा पट्टी जैसे छोटे से इलाके पर काबिज है, वह न तो फौज है, और न ही निर्वाचित सरकार है, यह एक अलग बात है कि उसे ईरान जैसे ताकतवर मुल्क का साथ हासिल है, लेकिन हमास के हमले के जवाब में इजराइल जिस तरह से गाजा पर फौजी हमला कर रहा है, उसका अंदाज तो कोई फिलीस्तीनी बच्चे भी लगा सकते थे। यह भी जाहिर था कि इजराइल अपने हजार-दो हजार नागरिकों की मौत का हिसाब चुकता करने के लिए उससे अधिक संख्या में फिलीस्तीनियों को मारेगा, ताकि अपने सहमे हुए नागरिकों को वह चेहरा दिखा सके। हुआ भी वही। और यह भी हुआ कि फिलीस्तीन पर हवाई हमलों में हमास के कब्जे वाली कुछ इमारतों से परे सैकड़ों या हजारों आम फिलीस्तीनी मारे जा रहे हैं, जिन पर संयुक्त राष्ट्र से लेकर इजराइल के सबसे बड़े मददगार अमरीका तक को मुंह खोलना पड़ रहा है। ऐसे में सैकड़ों की संख्या में मारे जा रहे बेकसूर फिलीस्तीनियों के पक्ष में कई अरब मुस्लिम देशों के बीच एक हमदर्दी पैदा हो रही है, और इजराइली हमले के खिलाफ इन देशों से आवाजें उठ रही हैं।
अब हमास के हमले से जो नौबत उठ खड़ी हुई है उसे देखें, तो जो इजराइल अपने नागरिकों के एक बड़े तबके के इतिहास के सबसे बड़े विद्रोह को झेल रहा था, वह पल भर में खत्म हो गया। इजराइली जनता अपनी भ्रष्ट और दकियानूसी सरकार के खिलाफ सडक़ों पर थी, आंदोलन कर रही थी, और रिजर्व फौजी ड्यूटी का भी बहिष्कार कर रही थी, वह सब कुछ पल भर में खत्म हो गया, और दूसरे देशों में बसे इजराइली भी अपने देश की फौज में शामिल होने के लिए लौट रहे हैं। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपनी जिंदगी की सबसे बुरी घरेलू चुनौती झेल रहे थे, और अब वे मुसीबत की इस घड़ी में अपने देश के सबसे बड़े दुश्मन से जंग में उतरे हुए सेनापति की तरह हो गए हैं, और तमाम नागरिक उनसे मतभेद भूलकर उनके साथ खड़े हैं, फौज की ड्यूटी की कतार में लगे हैं। जब कभी कोई देश आतंकी हमला या किसी देश की जंग झेलता है, तो उसके मौजूदा नेता पूरे देश का समर्थन पाते हैं। इसलिए हमास के इस हमले का पहला सबसे बड़ा फायदा इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को हुआ है कि उनके सारे घरेलू संकट खत्म हो गए हैं, और जंग में अपने देश की अगुवाई करने वाले नेता की तरह वे अब तमाम मजबूती पा चुके हैं। पूरी दुनिया का इतिहास बताता है कि जंग से जीतकर लौटे मुखिया अपनी पार्टी को अगला चुनाव जिता देते हैं। लोगों को भारत का 1971 का युद्ध याद रखना चाहिए जिसके बाद विपक्षियों ने भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से की थी।
अब नेतन्याहू को इस नौबत से नुकसान भी बहुत हुआ है क्योंकि इजराइल अपनी सारी खुफिया निगरानी की साख खो बैठा है। लेकिन वह साख कारोबार के काम की थी, और नेतन्याहू को राजनीतिक मुसीबत से बचाने के काम की नहीं थी। दूसरी तरफ फिलीस्तानी में हमास है जो कि फिलीस्तीनियों के मुद्दों पर दुनिया का ध्यान खींचना चाहता है, लेकिन वैसा हो नहीं पा रहा था। अब इजराइल पर हमले के बाद हमास की निंदा चाहे जितनी हुई हो, दो-चार दिन के भीतर ही इजराइली फौजी प्रतिक्रिया ने हमास को खलनायक दिखाना बंद कर दिया है, और अब इजराइल खलनायक दिखने लगा है। यह नौबत फिलीस्तीनियों के बुनियादी मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय चर्चा के केन्द्र में ला चुकी है। और इससे कुछ हजार मौतें जरूर हुई हैं, लेकिन इतने बेकसूर मुस्लिम-फिलीस्तीनियों के मारे जाने से अब मुस्लिम-अरब देशों के लिए भी यह मजबूरी हो गई है कि वे इस मुद्दे पर साथ बैठें और कुछ सोचें।
हम हमास के हमले और इजराइल की प्रतिक्रिया इन दोनों को किसी एक, या अलग-अलग साजिश का हिस्सा नहीं कह रहे हैं, लेकिन इन दोनों कार्रवाईयों के बाद क्या होगा, इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं था। हमले से जख्मी इजराइल की मौजूदा सरकार का जनविरोध खत्म हो जाना तय था, और इजराइली हमले से जख्मी फिलीस्तीन का अरब और मुस्लिम हमदर्दी पाना भी तय था। अब सोचने की बात यह है कि हमारे सरीखे दूर बैठे लोगों को अपनी सीमित रणनीतिक और कूटनीतिक समझ के साथ अगर इन दो हमलों के ऐसे असर सूझ रहे हैं, जो कि पहले से सोचे जा सकते थे, तो फिर यह समझने की भी जरूरत है कि क्या इन दोनों ताकतों ने पहले यह अंदाज नहीं लगाया होगा? इजराइल के साथ हमास की छोटी-मोटी लड़ाई उसे किसी किनारे नहीं पहुंचा रही थी, और अपने नागरिकों से जूझते हुए इजराइल की सरकार किनारे लग गई थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इजराइल की आज की सरकार में वहां के इतिहास की एक सबसे ही कट्टरपंथी पार्टी सत्ता में भागीदार है। तो क्या इनमें से कोई भी कार्रवाई उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया का अंदाज लगाकर की गई थी? ऐसे बहुत से रहस्यमय सवाल हैं, और दुनिया के दूसरे देशों में भी ऐसे रहस्यमय सवाल वक्त-वक्त पर उठते रहते हैं। कोई भी आतंकी या फौजी हमला उसे झेलने वाले देश की मौजूदा सरकार को मजबूत करता है, और अपने कुछ फौजी या नागरिक मारे जाएं, तो उससे भी आम जनता की हमदर्दी बढ़ जाती है। दुनिया की कई घटनाओं को इस रौशनी में देखने-समझने की जरूरत है।
एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगठन द्वारा हर बरस तैयार की जाने वाली ग्लोबल हंगर इंडेक्स में लगातार भारत की जगह गिरती चली जा रही है। देश में लोगों के कुपोषण और भूखे रहने की हालत लगातार खराब मिल रही है। 125 देशों में किए गए इस सर्वे में भारत पिछले साल 107वीं जगह पर था, इस साल वह 111वीं जगह पर आ गया है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के किए जाने वाले इस सर्वे को भारत सरकार भरोसेमंद नहीं मानती, और पिछले दो बरस से वह इसे खारिज करते आ रही है। भारत सरकार का कहना है कि सर्वे का आधार एक ऐसा गलत पैमाना है जो भारत की वास्तविक स्थिति नहीं बताता। सरकार कहती है कि देश में भूख का आंकलन करने के इस सर्वे के चार पैमानों में से तीन बच्चों से संबंधित हैं। और सिर्फ बच्चों के स्वास्थ्य के पैमानों से पूरी आबादी की भूख का अनुमान लगाया जाना गलत है। इस सर्वे के मुताबिक भारत में भूख का स्कोर 28.7 फीसदी है जो कि भूख और भुखमरी की एक बेहद गंभीर स्थिति बताता है।
किसी भी अंतरराष्ट्रीय सर्वे में अगर भारत में प्रेस की स्वतंत्रता, यहां धार्मिक आजादी, महिलाओं के हक, या भूख और कुपोषण के पैमानों पर भारत को कमजोर बताया जाता है तो भारत सरकार तुरंत ही उन्हें खारिज कर देती है। अब अगर भारत यह कहता है कि भूख नापने के चार पैमानों में से तीन बच्चों से संबंधित हैं, तो यह भी समझने की जरूरत है कि किसी भी परिवार में अगर सबसे पहले कोई खाना नसीब होता है, तो वह बच्चों को ही होता है। ऐसा शायद ही किसी घर में होता हो कि बच्चों को भूखा रखकर पहले बड़े खा लें। इसलिए सरकार की यह बात पहली नजर में हमारे गले नहीं उतरती है कि बच्चों की सेहत के पैमाने पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। बच्चों की सेहत उनकी माताओं की सेहत का प्रतिनिधित्व तो सीधे-सीधे करती है क्योंकि मां तो भूखे रहकर भी बच्चों को पहले खिलाती है। देश में अगर गरीबी और कुपोषण का बेहाल नहीं होता, तो भारत सरकार या प्रदेश सरकारें गरीबों को बिना दाम के राशन, या बहुत ही रियायती राशन क्यों देती होतीं? यह जाहिर है कि लोगों के पास खाने का इंतजाम नहीं है, इसीलिए स्कूलों में दोपहर के भोजन का इंतजाम किया गया, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए पोषण आहार का इंतजाम किया गया। अगर हर घर में खाना-पीना होता, तो सरकार को ये इंतजाम करने ही नहीं पड़े होते। इसलिए किसी सर्वे के पैमानों को गलत करार देने के पहले देश की इस हकीकत को भी देख लेना चाहिए कि आबादी को किस तरह खाना देने के लिए सरकारों को कई तरह की योजनाएं चलानी पड़ रही हैं, और बच्चों को, गर्भवती महिलाओं को कुपोषण से बचाने के लिए सरकारी केन्द्र चलाने पड़ रहे हैं। जाहिर है कि लोगों के अपने घरों में इंतजाम पर्याप्त नहीं है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लंबे समय से इस बात की वकालत कर रहे हैं कि स्कूलों में दोपहर के भोजन की तरह सुबह के नाश्ते का इंतजाम करना चाहिए क्योंकि सबसे गरीब परिवारों के बच्चे पिछली शाम के खाने के बाद से अगले दिन स्कूल के मिड-डे-मील के बीच कुछ खाए हुए नहीं रहते हैं। बहुत गरीब घरों में नाश्ते का इंतजाम नहीं रहता है, और मजदूर मां-बाप सुबह जल्दी काम पर भी निकल जाते हैं। देश में तमिलनाडु ने सबसे पहले मिड-डे-मील शुरू किया था, और उसी ने स्कूलों में नाश्ता भी शुरू किया है। उसके बाद तेलंगाना में भी अभी इसकी घोषणा हुई है। छत्तीसगढ़ सरकार के पास सरकारी स्कूलों के अनुमानित 30 लाख बच्चों के लिए नाश्ते की योजना पर सालाना तीन सौ करोड़ के खर्च का प्रस्ताव रखा हुआ है, लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में उसे अब तक जगह नहीं मिली है। हो सकता है कि इस विधानसभा चुनाव में किसी राजनीतिक दल को अपने घोषणापत्र में इसे जोडऩे की सूझे, और उस पार्टी की सरकार भी आ जाए, तो हो सकता है कि अगले बरस के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की हालत थोड़ी सी बेहतर हो जाए। वैसे तो यह योजना पूरे देश में भारत सरकार को ही लागू करनी चाहिए, और प्रदेश अपने स्तर पर उसमें कुछ जोड़ सकते हैं जिस तरह की आज केन्द्र के मिड-डे-मील कार्यक्रम में राज्य अपनी तरफ से भी कुछ जोड़ते हैं। भारत सरकार को यह लग रहा है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स के चार पैमानों में से तीन बच्चों के स्वास्थ्य पर केन्द्रित हैं, इसलिए हम बच्चों से जुड़ी इस योजना की वकालत कर रहे हैं।
भारत में सरकारी सेवाओं की कागज पर स्थिति, और जमीन पर उनकी असलियत के बीच एक बड़ा फासला है। सरकारें आमतौर पर अपनी योजनाओं के आंकड़ों को ही अमल और असर के आंकड़े मान बैठती हैं, जो कि सही बात नहीं है। अमल और कामयाबी के आंकड़े फाइलों में दर्ज किए जाने वाले सरकारी आंकड़ों के मुकाबले खासे कम रहते हैं। सरकारी योजनाओं की उत्पादकता हैरान करने की हद तक कम रहती है। इसलिए दूसरे देशों की तटस्थ एजेंसियों के किए गए बेहतर और ईमानदार सर्वे भारत सरकार को खटकते हैं। आईना देखने से इतना परहेज भी नहीं करना चाहिए, अपनी शक्ल जैसी भी है, उसे बिना मेकअप भी कभी-कभी देख लेना चाहिए, ताकि अचानक खुद को देखना पड़े तो पहचान सकें।
चीन, जापान, और दक्षिण कोरिया की अलग-अलग खबरें हैं कि वहां महिलाओं ने कामकाज की जगह पर सिर्फ महिलाओं के लिए बनाए गए कई किस्म के कपड़ों, जूतों, या मेकअप के पैमानों का विरोध करना शुरू किया है। बहुत से दफ्तरों में महिलाओं को आकर्षक और खूबसूरत दिखाने के लिए उनकी कद-काठी के नाप से लेकर बालों और मेकअप तक, उनके जूते-सैंडलों की एड़ी तक बहुत सी चीजों को लादा जाता है। जापान में अभी महिलाएं जो आंदोलन कर रही हैं उसमें नामी-गिरामी अभिनेत्री और लेखिका ने भी दस्तखत किए हैं, और इसे ऊंची एड़ी के विरोध का आंदोलन कहा जा रहा है। महिलाएं सोशल मीडिया पर लगातार ऐसी शर्तों के खिलाफ लिख रही हैं। जापान में यह आम बात है कि वहां ग्राहकों से बात करने वाली दुकानों की लड़कियों और महिलाओं को चश्मा पहनने से मना किया जाता है, और कांटैक्ट लैंस लगाने कहा जाता है क्योंकि चश्में को खूबसूरती के खिलाफ मान लिया गया है। दूसरी तरफ मर्दों के चश्मा पहनने पर कोई रोक नहीं है, और उनके जूतों पर भी किसी तरह के प्रतिबंध नहीं है। महिलाओं ने वहां नारा दिया है कि वे क्या पहनें, इसे कोई और तय न करें।
अब दूसरे देशों में शुरू हुए ऐसे आंदोलनों को छोड़ें, और हिन्दुस्तान की देखें, तो यहां भी सैकड़ों बरस से महिलाओं की पोशाक पर ही रोक-टोक चली आ रही है। सम्मान से लेकर सौंदर्य तक के सारे पैमाने उन्हीं पर लादे जाते हैं। एक वक्त महिलाओं को चेहरा घूंघट से ढांककर रखना पड़ता था, और अब भी वह राजस्थान के कई इलाकों में प्रचलित है, हो सकता है कुछ और प्रदेशों में भी यह चल रहा हो। महिलाओं के कपड़े, उनके गहने, उनके शादीशुदा होने, कुंवारी होने, या पति खो चुकी विधवा होने के हिसाब से अलग-अलग किस्म से तय होते हैं। महिलाओं के साथ पोशाक को लेकर शायद सबसे हिंसक और भयानक बात केरल के त्रावणकोर राज में थी, जहां पर 1859 तक दलित महिलाओं के सीना ढांकने पर टैक्स लगाया गया था, ताकि दलित महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर भी सीना न ढांक सकें। इस इतिहास का एक भयानक तथ्य यह है कि इसके खिलाफ विरोध करते हुए एक दलित महिला ने टैक्स वसूलने आए आदमी को अपने वक्ष काटकर पत्ते पर रखकर दे दिए थे। इसके खिलाफ महिलाओं को आंदोलन करना पड़ा था। मर्दों की चलाई गई सत्ता का महिलाओं के लिए ऐसा रूख था। यह आंदोलन इसी महिला नांगेली के नाम से जाना जाता है। उसने टैक्स के लिए चावल देने की बजाय हंसिए से अपना सीना काटा, और पत्ते पर रखकर सरकारी कर्मचारी को दे दिया। इसमें इतना खून बहा कि वह मर गई, लेकिन उसने एक आंदोलन को जन्म दिया।
हिन्दुस्तान की संस्कृति में महिलाओं के लिए कपड़ों और गहनों के सारे पैमाने मर्दों के लादे हुए हैं, बहुत समय तक उसके गहनों की आवाज उसके चलने-फिरने से आती रहती थी, ताकि सबको उसकी हलचल का पता लगता रहे। और हिन्दुस्तान से परे भी पूरी दुनिया में अगर खूबसूरती के पैमानों को देखा जाए तो उनको महिलाओं पर ही लादा गया है जिसे निभाने के लिए उन्हें खासा वक्त लगाना पड़ता है, खर्च करना पड़ता है, और इसमें कमी रह जाने पर वे हीनभावना में डूब जाती हैं। समाज में महिलाओं का सम्मान उनके रूप-रंग के रख-रखाव, उनके हुलिए, गहनों-कपड़ों और उनके मेकअप जैसी चीजों से तय होता है। जो मर्द चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ रखकर ऐंठते हैं, वे महिला के हाथ-पैर पर रोएं भी देखना नहीं चाहते। इस काम में मर्दों का अपना स्वार्थ था कि वे महिलाओं को बेहतर दिखने वाली बनाए रखना चाहते थे, दूसरी तरफ इसमें बाजार व्यवस्था का स्वार्थ भी था जो कि तरह-तरह की चीजें महिलाओं को बेचती थीं, और महिलाएं फैशन के सैलाब में अधिक से अधिक चीजों की तरफ दौड़ती रहती थीं, आज पहले के मुकाबले और अधिक दौड़ती हैं।
बाजार और कामकाज की जगहों पर रूप-रंग को, कद-काठी, और पहरावे की समझ को इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया है कि कामकाज के हुनर को भी अधिक महत्व नहीं मिलता। और तो और टीवी समाचारों की दुनिया में आज लड़कियों और महिलाओं को इन्हीं पैमानों की वजह से सबसे पहले छांटा जाता है।
चीन, जापान, या दक्षिण कोरिया में जो महिला आंदोलन शुरू हुए हैं इस पर बाकी दुनिया को भी सोचना चाहिए। वे मर्द जो कि मातहत, या साथ में काम करने वाली महिलाओं को नयनसुख, या आईकैंडी मानते हैं, वे तो कभी नहीं चाहेंगे कि महिलाओं के रूप-रंग के पैमानों को नर्म किया जाए। वे अपने आसपास कामकाजी महिलाओं को भी तितलियों की तरह देखना चाहेंगे। लेकिन महिलाओं को इसके खिलाफ अदालत तक भी जाना चाहिए, और रूप-रंग, मेकअप, और पोशाक के नियमों को औरत-मर्द के लिए बराबरी का बनाने की मांग करनी चाहिए। अगर मर्द की दाढ़ी-मूंछ से उनका कामकाज प्रभावित नहीं होता है, तो महिला के हाथों पर रोएं आ जाने से यह काम कैसे प्रभावित हो जाएगा? जहां तक ऊंची एड़ी के सैंडलों का सवाल है, तो मेडिकल साईंस इस बात का गवाह है कि इनसे महिलाओं की रीढ़ की हड्डी पर एक नाजायज जोर पड़ता है, और उन्हें हमेशा के लिए नुकसान हो सकता है, आमतौर पर नुकसान होता ही है। इसी तरह लड़कियों के खेलने के लिए बनाई गई आधुनिक गुडिय़ा, बार्वी के छरहरे बदन को देखकर लड़कियां उसे ही जिंदगी का असल पैमाना बना लेती हैं, और वैसी ही छरहरी बनने के लिए, बनी रहने के लिए भूखों मरने लगती हैं। आज दुनिया में दसियों लाख लड़कियां और महिलाएं बार्वी जैसा बदन पाने के संघर्ष में लगी हुई हैं, और वैसा न होने पर वे हीनभावना की शिकार हो जाती हैं, मानसिक अवसाद से घिर जाती हैं। प्रकृति ने अलग-अलग लोगों की कद-काठी अलग-अलग किस्म की बनाई है, और उनके सामने फैशन की दुनिया, ग्लैमर की दुनिया, मर्दों की उम्मीदों की फेहरिस्त ऐसे पैमाने पेश कर देती हैं कि महिलाएं उसी जाल में फंसी रह जाती हैं। अपने आसपास महिलाओं पर लादे गए खूबसूरती और फैशन के पैमानों के बारे में सभी को सोचना चाहिए, और उन्हें मर्दों पर लादे गए पैमानों के बराबर लाना चाहिए, ताकि लैंगिक असमानता खत्म हो सके। तमाम लोगों को इन बातों पर चर्चा करनी चाहिए क्योंकि कोई भी संघर्ष चर्चा से उपजी जागरूकता के बाद ही शुरू हो सकता है।
मोबाइल फोन ऐप के मार्फत मिनटों में लोन देने वाले एप्लीकेशन इसके तुरंत बाद कर्जदार से वसूली के लिए उनसे जुर्म की हद तक जाकर वसूली और उगाही करने वाले मुजरिमों के गिरोहों का पर्दाफाश बीबीसी की एक खोजी रिपोर्ट में हुआ है। यह रिपोर्ट बताती है कि कर्ज वसूली और उगाही करने के नाम पर लोगों को जिस तरह ब्लैकमेल किया जाता है, उसकी वजह से हिन्दुस्तान में कम से कम 60 लोग खुदकुशी कर चुके हैं। और ऐसे अनगिनत लोग होंगे जो चारों तरफ से और कर्ज लेकर ब्लैकमेलरों को पैसा देते हैं। ऐसे साहूकार-ऐप लोगों को कर्ज देने के साथ-साथ उनके फोन पर अपने एप्लीकेशन इंस्टाल करते हैं, और उसके साथ ही उनकी फोनबुक उनके सारे फोटो और निजी जानकारियों पर कब्जा कर लेते हैं। इसके बाद दिए गए कर्ज से कई गुना अधिक वसूली करते हुए वे लोगों की तस्वीरों को छेड़छाड़ करके उन्हें नग्न और अश्लील बनाकर, उनके फोनबुक के संपर्कों को भेजकर तरह-तरह से उन्हें ब्लैकमेल करते हैं, उनका जीना हराम कर देते हैं, इन कंपनियों के कॉलसेंटर चौबीस घंटे कर्जदारों को फोन करते हैं, गालियां बकते हैं, और दी गई रकम और ब्याज से कई गुना अधिक वसूल करते हैं। बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि यह दुनिया के कम से कम 14 देशों में फैला हुआ जुर्म का ऐसा कारोबार है जो टेलीफोन पर ही आसान कर्ज देने के नाम पर लोगों को फंसा लेता है, और फिर उन्हें बेइज्जत करके जायज वसूली से कई गुना अधिक वसूली करता है। बीबीसी ने छानबीन में पाया है कि भारत में जिन 60 लोगों ने परेशान होकर डर और दहशत में खुदकुशी की है उसमें से आधे लोग तेलंगाना और आन्ध्र में थे। कर्ज लेकर शर्मिंदगी में खुदकुशी करने वालों में 4 किशोर भी थे।
अब इस रिपोर्ट से भारत सरकार की आंखें खुल जानी चाहिए कि हिन्दुस्तानी लोगों को ऑनलाईन मुजरिम किस तरह लूट रहे हैं और मरने को मजबूर कर रहे हैं। वैसे तो राज्य सरकारों के पास भी इस तरह की ब्लैकमेलिंग पर कार्रवाई करने के लिए बहुत से अधिकार हैं, लेकिन जब कई देशों तक फैला हुआ अंतरराष्ट्रीय मुजरिमों का कारोबार पकडऩा हो, तो उसके लिए भारत सरकार के अधिकार अधिक काम आते हैं। आज अगर टेलीफोन कॉल और इंटरनेट पर जुर्म को पकडऩे के लिए सरकारों के पास काफी अधिकार हैं, तो उनका इस्तेमाल होना चाहिए, और बेकसूरों की जिंदगी बचानी चाहिए। इसके अलावा भी लोगों से अगर उनकी देनदारी से अधिक वसूली की जा रही है, ब्लैकमेल किया जा रहा है, तो ऐसे आर्थिक अपराध पर भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय पुलिस संस्थानों के साथ मिलकर कार्रवाई करनी चाहिए।
अब सरकार को उसकी जिम्मेदारी गिना देने के बाद लोगों को भी यह समझाना जरूरी है कि वे आसान कर्ज के चक्कर में न पड़ें। दुनिया में ऐसे कोई साहूकार नहीं हो सकते जो बिना किसी गारंटी के, घर बैठे मोबाइल फोन पर ही कर्ज मंजूर करने जैसी समाजसेवा करें। जिंदगी में जब भी कुछ बहुत आसानी से हासिल होने लगे, बहुत जल्दी हासिल होने लगे, बहुत आकर्षक दिखता हो, तो लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं हो सकता है। इसलिए देश के भीतर भी और आसपास कहीं किसी के दफ्तर भी खुले हुए हों तो भी ऐसे लालच में नहीं पडऩा चाहिए कि आसानी से कर्ज मिल जाए, या कि आसानी से मोटी कमाई हो जाए। हमने पिछले बरसों में छत्तीसगढ़ में देखा है कि किस रफ्तार से चिटफंड कंपनियों ने कारोबार खोला, लोगों ने उसमें अपनी पूंजी लगाई, और कंपनियों ने मोटी कमाई की गारंटी दी, और हजारों करोड़ रूपए लेकर भाग गईं। बाजार का तरीका यही है। और हर दशक में अलग-अलग किस्म के तरीकों की जालसाजी का फैशन आता है। अभी कुछ बरस पहले तक एक जालसाजी बड़ी लोकप्रिय और कामयाब थी जिसमें लोग किसी कंपनी में रोज एक रकम जमा कराते थे, और कुछ महीने बाद वह रकम दुगुनी होकर मिल जाती थी। जब शुरुआती लोगों को मोटे मुनाफे के साथ रकम मिलती थी, तो वे दुगुने उत्साह से खुद भी अपना पैसा इसमें डालने लगते थे, और अपने आसपास के लोगों का भी पैसा जमा करवाते थे। यह सौ बरस से भी पुरानी जालसाजी की एक ऐसी विदेशी तकनीक है जिसमें यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक आगे और बेवकूफ लोग मिलते रहते हैं। उनसे मिले हुए पैसों से पिछले लोगों का पैसा भुगतान किया जाता है। लेकिन अगर यह सिलसिला चलता ही रहे, तो भी दुनिया के आखिरी इंसान के पूंजीनिवेश के बाद रकम कहां से आएगी? यह एक ऐसा सिलसिलेवार धोखा रहता है जिसमें बहुत से लोग पैसा लगाते हैं। लोगों को याद होगा पहले इस तरह की दूसरी घरेलू योजनाएं चलती थीं जिनमें लोग कुछ कूपन खरीदते थे, और जब वे कूपन दूसरों को बेचते थे, तो कंपनी उनका अपना पैसा वापिस कर देती थी। मतलब यह कि जो मूर्ख चार नए मूर्ख ढूंढकर लाएगा, उसे उसका पैसा वापिस मिल जाएगा, और अब यह नए चार मूर्खों पर निर्भर करेगा कि वे 16 और मूर्ख ढंूढकर लाएं।
मीडिया और सोशल मीडिया पर लगातार ऐसी धोखेबाजी और जालसाजी की खबरें आती रहती हैं, और इसके बाद भी अगर लोग सावधान नहीं होते हैं, तो सरकार और समाज दोनों को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। लोगों में जागरूकता फैलाने की जरूरत है ताकि वे इस तरह धोखा खाने से बचें।
पिछले करीब एक सदी में नोबेल पुरस्कार कमेटी ने 93 लोगों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया है, इनमें से कल यह पुरस्कार पाने वाली क्लॉडिया गोल्डिन तीसरी महिला हैं। और एक दूसरे नजरिए से देखें तो अर्थशास्त्र में किसी पुरुष के साथ संयुक्त रूप से यह पुरस्कार पहले दो महिलाओं को मिला है लेकिन अकेले यह पुरस्कार जीतने वाली क्लॉडिया पहली महिला हैं। 1901 से शुरू हुए नोबेल पुरस्कारों में इकॉनामिक्स का पुरस्कार 1969 से शुरू हुआ, और कभी दो, कभी तीन लोगों को मिलते हुए वह अब तक 93 लोगों को मिला है। खैर, नोबेल पुरस्कार या अर्थशास्त्र के नोबेल के इतिहास को बताना आज का मकसद नहीं है बल्कि क्लॉडिया को उनके जिस अध्ययन के लिए यह सम्मान मिला है, वह चर्चा के लायक है। उन्होंने पिछले दो सौ बरसों में कामकाजी महिलाओं की भागीदारी का अध्ययन किया है, और इससे पता लगता है कि लगातार आर्थिक विकास के बाद भी, और कामकाज में हिस्सेदारी के बाद भी समान काम के लिए महिलाओं का वेतन पुरूषों के बराबर नहीं है। महिलाएं जहां अधिक पढ़ी-लिखी हैं, वहां भी उन्हें बराबरी की तनख्वाह नहीं मिलती।
अब इस अर्थशास्त्री के निष्कर्षों से परे हम अपने स्तर पर इस मुद्दे को देखें तो कामकाजी महिला को समान काम के लिए समान वेतन या मजदूरी मिले, ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता है। उन्हें काम मिलने की संभावना कम रहती है, जब कहीं छंटनी होती है, तो सबसे पहले उनकी बारी आती है, अधिकतर संस्थानों में महिलाओं के छुट्टी और इलाज के हक को अनदेखा किया जाता है, काम की जगहों पर उनके शोषण की शिकायतों के निपटारे की कानूनी जरूरतें पूरी नहीं की जाती हैं, और उनकी मेहनत और उत्पादकता का मूल्यांकन पुरूषों के बराबर नहीं होता है। और यह बात कोई नई नहीं है, जब लोकतंत्र नहीं था, कानून नहीं थे, तब भी ऐसा ही हाल था, और आज भी ऐसा ही हाल है। हिन्दुस्तान की आजादी के पहले आंदोलन 1857 की क्रांति को देखें, तो लखनऊ की एक तवायफ की बेटी, और खुद भी तवायफ, अजीजन बाई के कोठे पर आजादी की लड़ाई की योजना बनती थी। वे नाना साहब, तात्या टोपे, जैसे क्रांतिकारियों के साथ बैठकों में शामिल होती थीं, और जेएनयू की एक प्रोफेसर ने भारत की आजादी की लड़ाई मेें तवायफों के योगदान पर एक रिसर्च पेपर लिखा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि विनायक दामोदर सावरकर ने भी अपने लेखों में अजीजन बाई के बारे में लिखा है। एक दूसरी तवायफ रसूलन बाई ने गांधी से प्रेरित होकर गहने पहनने छोड़ दिए थे, और अपनी महफिल में मिले पैसे क्रांतिकारियों को दे देती थीं। ऐसी बहुत सी तवायफें थीं जिन्होंने अपना सब कुछ आजादी की लड़ाई को दिया, और दूसरी तरफ इस देश ने उन्हें तवायफ नाम की बेइज्जती से अधिक कुछ नहीं दिया। ऐसा ही एक दूसरा इतिहास धर्म के इतिहासकार देवदत्त पटनायक बताते हैं कि किस तरह कई तवायफों ने मठ बनाने के लिए, मंदिर के लिए, धर्म और सन्यासियों के लिए बहुत कुछ दान दिया। लेकिन समाज ने उन्हें अपमान के अलावा कुछ नहीं दिया।
एक महिला की नजर से देखें, या कि एक इंसाफपसंद की नजर से देखें तो औरतों ने अपनी कमाई धर्म के लिए दान दी, और धर्म ने उन्हें देवदासी बनाकर छोड़ा। इन दोनों सच्चाईयों को एक साथ अगर रखकर देखें तो महिलाओं से होने वाली बेइंसाफी समझ आती है। हिन्दुस्तान जिस तरह मां के त्याग की महिमा गाते थकता नहीं है, उसकी कोई भी नीयत मां का सम्मान करने की नहीं रहती, बल्कि लड़कियों को यह प्रेरित करने की रहती है कि उन्हें आगे चलकर अपनी जिंदगी की तमाम जरूरतों और खुशियों को भूलकर कैसा त्यागी बनना है, किस तरह देवी की प्रतिमा के आठ हाथों की तरह उन्हें दूसरे इंसानों के मुकाबले चार गुना अधिक काम करना है, और एक मां या गृहिणी किस तरह मल्टीटास्किंग कर सकती है, यानी एक साथ कई किस्म के काम कर सकती है। महिला के लिए मन में सचमुच सम्मान रहता तो घर के मर्द और लडक़े उसका हाथ बंटाते, उसका बोझ कम करते। लेकिन नीयत जब उसे बरगलाकर और अधिक त्यागी बनाने की रहती है, तो फिर उसकी महिमा का गान होता है, और उसे झोंक दिया जाता है।
हिन्दुस्तान जैसे देश में जिस महिला पर घर की पूरी जिम्मेदारी रहती है, और जो बाहर काम करने नहीं जा पाती, उसकी उत्पादकता को तो कुछ गिना ही नहीं जाता है। आम हिन्दुस्तानी बातचीत में घर पर ही काम करने वाली महिला का जिक्र करते हुए यही कहा जाता है कि वह कुछ काम नहीं करती, घरेलू महिला है, घर पर रहती है। घर पर इतने काम करने के लिए, इतनी ईमानदारी और निष्ठा से करने के लिए परिवार को कितनी मजदूरी चुकानी पड़ती, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जाता है। कुल मिलाकर मतलब यह है कि महिलाएं हर किस्म की गैरबराबरी की शिकार हैं, और अभी इस बरस का अर्थशास्त्र का जो नोबेल एक अकेली महिला को पहली बार मिला है, वह महिलाओं के मुद्दों की तरफ, उन पर थोपी गई गैरबराबरी की तरफ दुनिया का ध्यान कुछ वक्त के लिए तो खींच सकता है। अगर कोई सभ्य और समझदार समाज है, तो उसे चाहिए कि ऐसे हर मौके पर पुरस्कृत या सम्मानित लोगों के अध्ययन, उनके शोध, उनके लिखे या कहे हुए मुद्दों को अपने आसपास के माहौल पर भी लागू करके देखे। कामकाजी महिलाओं के साथ जो गैरबराबरी होती है, उसमें क्लॉडिया गोल्डिन ने हिन्दुस्तान आकर तो काम शायद नहीं किया होगा, लेकिन उनके निष्कर्ष ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान पर भी लागू होते हैं। हिन्दुस्तान के सामाजिक संगठनों को भी चाहिए कि उनके काम की तकनीकी जटिलताओं से परे, उनके निष्कर्षों को लेकर देश भर में जगह-जगह चर्चा हो, और उन्हें हिन्दुस्तानी संदर्भों से जोड़ा जाए। ऐसा करने पर हम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एक अर्थशास्त्री के काम का स्थानीय उपयोग भी कर सकेंगे।
इजराइल पर हमास के हमले के जवाब में इजराइल के गाजापट्टी पर इजराइल का हमला भयानक है। हमास तो फिलीस्तीन में बसा हुआ एक आतंकी संगठन है, जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है, और जिसे दुनिया आतंकी संगठन ही मानती है, लेकिन इजराइल तो संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य देश है, जो कि दुनिया के बाकी देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों वाला भी है। इसलिए उसकी कार्रवाई एक देश की कार्रवाई की तरह होनी चाहिए। आज वह हमास के आतंकी ठिकानों पर हवाई हमलों के नाम पर गाजा के 20 लाख से अधिक आम नागरिकों की रिहायशी बस्तियों पर भी अंधाधुंध हमले कर रहा है, और मुस्लिम अरब देशों के खिलाफ जो पश्चिमी देश कई वजहों से एक रणनीति पर चलते हैं, वे आज इजराइल के साथ हैं जिसने हमास के आतंकी हमले में हजार-पांच सौ मौतें झेली हैं। उसने इसे अपने पर हमास की थोपी हुई जंग माना है, और हमास को तबाह करने का बीड़ा उठाया है। बार-बार पश्चिमी दुनिया इसकी 11 सितंबर के उस आतंकी हमले की मिसाल देते हुए चर्चा कर रही है जिसमें ओसामा-बिन-लादेन के विमानों ने न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारत में विमान घुसाकर उसे ध्वस्त कर दिया था। वह किसी देश पर आतंकी हमले के इतिहास की सबसे बड़ी मिसाल बना हुआ है, और इजराइल इसे अपने पर उसी किस्म का हमला मान रहा है।
लेकिन हमास के इस आतंकी हमले के पीछे की वजहों को अनदेखा करके दुनिया किसी सुख-चैन के मुकाम पर नहीं पहुंच सकती। इजराइल की रोज की फौजी हुकूमत अगर फिलीस्तीन के लोगों को आए दिन मारती है, उन्हें अपनी ही जमीन पर इंसानों से गया-बीता बनाकर रखा है, तो उसकी हिंसक और आतंकी प्रतिक्रिया तो किसी न किसी दिन होनी ही थी। लेकिन एक देश के रूप में इजराइल की प्रतिक्रिया मुस्लिम अरब देशों के बीच यह फिक्र खड़ी करेगी कि एक मुस्लिम देश के बेकसूर नागरिकों पर दशकों से चली आ रही इजराइली आतंकी हिंसा को देखते हुए बाकी मुस्लिम देश चुप बैठे रहें कि फिलीस्तीन सरीखे गरीब और कमजोर मुस्लिम देश का साथ दें? इसलिए हमास का यह ताजा हमला सैकड़ों जिंदगियों को खत्म करने वाला तो है, लेकिन साथ-साथ यह दुनिया को एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि क्या फिलीस्तीनियों पर इजराइलियों का दशकों का रोजाना का हमला आगे भी अनदेखा किया जाना चाहिए?
दुनिया के जो देश आज इजराइली मौतों को लेकर उसके साथ खड़े हैं, जिनमें हिन्दुस्तान भी एक है, उनकी प्रतिक्रिया बेकसूर फिलीस्तीनियों को हवाई हमले में मारने पर क्या होगी, यह भी देखना होगा। क्या ऐसा कोई फौजी हमला जायज हो सकता है जो आतंकी ठिकानों को खत्म करने के लिए किया बताया जा रहा हो, और जो आतंकियों और बेकसूर नागरिकों में कोई फर्क न करता हो? लोगों को याद होगा कि भारत ने भारत में एक आतंकी हमला करने के आरोप में पाकिस्तान पर एक सर्जिकल स्ट्राईक करने की बात कही थी, और कहा था कि यह आतंकियों के प्रशिक्षण केन्द्र पर किया गया हवाई हमला था। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने बताया था कि वहां पर कोई आतंकी प्रशिक्षण केन्द्र नहीं था, और हिन्दुस्तानी हवाई हमले में कोई मौत नहीं हुई, सिर्फ एक कौंवा मरा था। अब अगर हिन्दुस्तानी हवाई हमले में पाकिस्तान की किसी रिहायशी बस्ती के सैकड़ों लोग मारे गए होते, तो क्या वे मौतें जायज कही जातीं? 11 सितंबर के हमले के बाद अमरीका ने जिस तरह कई देशों पर हवाई हमले किए, अपनी फौज भेजी, वहां सत्ता पलट करवाया, उनसे किसका भला हुआ, खुद अमरीका का भी कोई फायदा उससे नहीं हुआ, और इन तमाम देशों से अमरीकी फौजों को पूरी नाकामयाबी के साथ छोडक़र जाना पड़ा। इसलिए किसी आतंकी हमले का बदला लेने के नाम पर जख्मी देश अगर दूसरे देश के बेकसूर लोगों पर हवाई हमला करता है, और आतंकियों को मारने के नाम पर सैकड़ों बेकसूर नागरिकों को मारता है, तो आज तो दुनिया के कई देश इजराइल को पूरी छूट देकर खड़े हुए हैं, लेकिन यह कौन से सभ्य लोकतंत्र का सुबूत है कि एक गरीब और लाचार देश में एक गुंडे देश के हवाई हमले से बेकसूर लाशें गिर रही हैं? अमरीका ने जब म्यांमार पर हुए आतंकी हमले का बदला लिया, तो उसने कई देशों में मरने वाले बेकसूर दसियों हजार लोगों के बारे में यही तर्क दिया था कि यह कोलैटरल डैमेज है, यानी गेहूं के साथ घुन पिस जाने की तरह। आज इजराइली हमलों में जो कोलैटरल मौतें हो रही हैं, वे फिर एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करेंगी, जो अपने जीते-जी इजराइल से दुश्मनी भूल नहीं पाएगी।
कुछ अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि यह सही मौका है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिलीस्तीन और इजराइल के झगड़े पर सोच-विचार होना चाहिए, और उसका एक शांतिपूर्ण समाधान निकालना चाहिए। फिलीस्तीनी लोग अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बने हुए हैं, और उन्हें हर दिन बेदखल करके वहां इजराइली कॉलोनियां बनाने से दुनिया का यह हिस्सा कभी भी अमन-चैन नहीं देख पाएगा। पश्चिमी देश इजराइल के साथ खड़े हैं, लेकिन इस नौबत के पीछे इजराइल की जो हमलावर नीति दशकों से चली आ रही है, और जो लगातार फिलीस्तीनियों से जिंदा रहने का हक छीन रही है, उस बारे में इन देशों ने कभी कुछ नहीं किया, और फिलीस्तीनियों को इजराइली गुंडागर्दी और आतंक के रहम पर छोड़ रखा था।
इजराइल जैसे महफूज और ताकतवर देश पर हुआ यह आतंकी हमला यह साफ करता है कि आतंक के लिए किसी देश की फौज जितनी ताकत नहीं लगती, बहुत कम ताकत से भी आतंकी हमले हो सकते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि अधिकतर आतंकियों को दुनिया में कहीं न कहीं से मददगार भी हासिल हो सकते हैं। इसलिए तमाम देशों को अपनी-अपनी जमीन पर, या अपने पड़ोसियों के साथ कोई भी जुल्म करने के पहले याद रखना चाहिए कि जुल्म का जवाब बेकाबू और खतरनाक हो सकता है क्योंकि फौजें तो आत्मघाती नहीं होतीं, आतंकी आत्मघाती हो सकते हैं, अक्सर होते हैं। आज भी जो ताकतें इजराइल को खुली छूट देने की हिमायती हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि उनकी सारी ताकत सिर्फ फौजों के बदौलत हैं, वह ताकत आतंकी हमलों के मुकाबले नहीं हैं, और इजराइल में अभी-अभी यह साबित हुआ है। पूरी दुनिया में खुफिया निगरानी, सुरक्षा, और फौजी कार्रवाई की हर तरह की टेक्नालॉजी बेचने वाला दुनिया का यह बड़ा कारोबारी आज जिस तरह जख्मी पड़ा है, उससे उसकी बाजारू साख भी चौपट हुई होगी। इजराइल अपने शोकेस में ही नंगा हो गया है। फिलीस्तीनी जनता के रिहायशी इलाकों में उसका हमला यही बताता है कि वह बचाव में नाकामयाबी के बाद अब हमले की साख बचाकर रखना चाहता है। दुनिया को ऐसी तमाम बातों को समझना चाहिए, और मौके की नजाकत को समझते हुए फिलीस्तीनी मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए। वरना दूसरे देशों के शोक संदेशों का कोई मतलब नहीं है। हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिजली की रफ्तार से इजराइल को अपनी हमदर्दी भेजी है। इससे अधिक लाशें मणिपुर में गिर जाने के बाद भी 75 दिनों तक उनका मुंह भी नहीं खुला था। इसलिए दुनिया की प्रतिक्रिया के शब्दों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिसे रेवड़ी कहा है, और जिसे अलग-अलग राजनीतिक दल अपने-अपने कब्जे वाले राज्यों में जनकल्याणकारी कार्यक्रम कह रहे हैं, उस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एक चर्चित वकील अश्विनी उपाध्याय बहुत से मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाते रहते हैं, और उन्होंने चुनावी घोषणाओं के तहत राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त में दिए जाने वाले तोहफों के खिलाफ रोक लगाने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की है। अदालत ने इसे लेकर राज्य सरकारों से पूछा है कि वे कर्ज लेकर चुनावी तोहफे क्यों बांट रहे हैं? अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें से मध्यप्रदेश, और राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबे हुए हैं। एमपी पर कर्ज 4 लाख करोड़ रूपए से अधिक हो गया है, और शिवराज सरकार ने अभी-अभी चार बार कर्ज लिया है। दूसरी तरफ राजस्थान में भी कर्ज 5.37 लाख करोड़ से अधिक हो गया है। आरबीआई की जानकारी के मुताबिक देश में पंजाब के बाद राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबा हुआ राज्य है। और ये दोनों राज्य अपनी जनता को क्या-क्या मुफ्त में दे रहे हैं, उसके दो-दो पेज के इश्तहार हर दिन छत्तीसगढ़ के अखबारों में भी छप रहे हैं जहां के लोग इन दोनों प्रदेशों के लिए वोट डालने वाले नहीं हैं।
अब सवाल यह उठता है कि अंग्रेजी में जिसे फ्रीबीज कहा जा रहा है, यह हिन्दी में रेवड़ी, मतदाताओं को सीधे फायदा पहुंचाने की इन घोषणाओं की सीमा क्या रहे? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद चाहे इसे रेवड़ी कहते रहें, उनकी सरकार की तरफ से भी लगातार ऐसी रियायतों और सहूलियतों की घोषणा की जा रही है। उनका शायद ही कोई बड़ा कार्यक्रम चुनावी राज्यों में ऐसा हो रहा हो जहां पर ये घोषणाएं न हों। आखिर भारत जैसे संघीय ढांचे में राज्यों के इस किस्म के फैसलों पर क्या कोई रोक लग सकती है? क्या यह रोक केन्द्र और राज्यों के किसी मिलेजुले फोरम पर तय हो सकती है? या क्या पार्टियों के आपसी संबंध इस हद तक कड़वे हो चुके हैं कि अब कोई भी सहमति सिर्फ किसी अदालती हुक्म से ही हो सकती है? लोगों को याद होगा कि मनमोहन सरकार के समय तक देश में एक योजना आयोग था जिसमें राज्य सरकारें जाकर अपने राज्य के हक और अपनी योजनाओं की चर्चा करती थीं, और देश के जाने-माने अर्थशास्त्री उन पर विचार-विमर्श करते थे। वह एक ऐसा मंच था जहां पर प्रदेशों को केन्द्र से किसी योजना को मंजूर करवाने के लिए, रकम पाने के लिए अपने मौजूदा फैसलों के बारे में जवाब भी देना होता था। आज हालत यह है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार केन्द्र सरकार की किसी सार्वजनिक परियोजना में अपना हिस्सा देने से मना कर रही है कि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट को केजरीवाल सरकार से हिसाब मांगना पड़ रहा है कि उसने विज्ञापनों पर कितना खर्च किया है।
क्या आज मध्यप्रदेश और राजस्थान सरीखे जो राज्य चार-पांच लाख करोड़ रूपए के कर्ज में डूब गए हैं, उनसे भी देश में कोई यह हिसाब ले सकते हैं कि वे दूसरे राज्यों के आम मतदाताओं के सामने अपने राज्य के छोटे-छोटे फैसलों के महंगे इश्तहार क्यों कर रहे हैं? इससे मध्यप्रदेश या राजस्थान की जनता का क्या भला हो रहा है? या फिर चुनाव के बाद सरकार बना लेने वाले नेताओं को तमाम किस्म की मनमानी करने का हक मिल जाता है? राज्य की अर्थव्यवस्था को देखते हुए उसके बजट का कितना हिस्सा सरकारी अमले पर (स्थापना व्यय) करना चाहिए, कितना खर्च जनता को सीधे फायदे पहुंचाने वाले कामों पर, और कितना खर्च दीर्घकालीन ढांचागत योजनाओं पर करना चाहिए? क्या अब यह अनुपात भी अदालतें तय करेंगी? क्योंकि योजना आयोग जैसी संस्था को मोदी सरकार ने खत्म करके नीति आयोग नाम का एक छोटा सा दफ्तर छोड़ दिया है, जो कि राज्यों को कुछ समझाने की, उन्हें राय देने की कोई ताकत नहीं रखता।
अब अगर देश में कुछ राज्य बंदरगाहों की वजह से, या खदानों की वजह से दूसरे राज्यों के मुकाबले अधिक संपन्न रहेंगे, तो क्या इन राज्यों को अपनी जनता को बेहिसाब सीधे फायदे पहुंचाने का हक रहेगा? या फिर जिस तरह कर्ज लेकर आज कुछ राज्य वोटरों को खुश करने में जुटे हुए हैं, क्या उसकी बेहिसाब आजादी राज्य सरकारों और राज्य की पार्टियों को होनी चाहिए? आखिर इसकी सीमा क्या होगी? क्या देश के अमीर और गरीब राज्यों के बीच बहुत बड़ा फासला राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह नहीं होगा? क्या प्रदेशों में दस-बीस साल में पूरी होने वाली किसी बड़ी जनकल्याणकारी योजना पर कोई काम ही नहीं किया जाएगा कि उसके एवज में पांच बरस के भीतर होने वाले चुनावों में तो कोई फायदा मिल नहीं सकेगा? ऐसी कई बातें हैं। दिक्कत यह है कि आज देश में किसी भी तरह से चुनाव जीत लेना सबसे बड़ी चुनौती मान ली गई है। गरीबी से जीतना, अभाव से जीतना, बेरोजगारी और महंगाई से जीतना अहमियत नहीं रखता, सिर्फ चुनाव जीतना मायने रखता है। यह नौबत हिन्दुस्तान को गड्ढे में डाल रही है। जब सत्तारूढ़ पार्टियां अपने-अपने राज्य में जनता के खजाने का आखिरी सिक्का भी लुटा देने के बाद कर्ज लेकर जनता के तलुवे सहलाने में लग गई हैं, और यूपी-पंजाब की ऐसी सरकारी योजनाओं के इश्तहार दूर-दूर के प्रदेशों में छप रहे हैं, तो लोकतंत्र के नाम पर क्या इसकी आजादी भी दी जा सकती है, दी जानी चाहिए?
एक बहुत बड़ा फैसला जिसे लुभाने वाला भी कहा जा सकता है, और रिटायर्ड सरकारी कर्मचारियों की भलाई का भी कहा जा सकता है, वह ओल्ड पेंशन स्कीम का है। हिमाचल चुनाव के पहले कांग्रेस ने इसकी घोषणा की थी, और चुनावी वायदा किया था, इस पहाड़ी राज्य में नौकरीपेशा लोग बहुत हैं, और कांग्रेस को इसका फायदा हुआ। इसके पहले वह अपने दूसरे राज्यों में इसकी घोषणा कर चुकी थी, और बाद में भी यह घोषणा जारी है। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार मोंतेक सिंह अहलूवालिया ने ओल्ड पेंशन स्कीम के खतरे बताए थे, और कहा था कि इसमें देश डूब जाएगा। मनमोहन सिंह के समय नई पेंशन योजना लागू हुई, और उन्हीं की पार्टी की राज्य सरकारों ने इसे खारिज करते हुए कर्मचारियों को खुश करने के लिए पुरानी योजना को लागू किया है जिसका बोझ कोई भी अर्थव्यवस्था ढो नहीं पाएगी।
हिन्दुस्तान और इसके प्रदेशों में बहुत सी पार्टियां और उनकी सरकारें चुनावों को ध्यान में रखकर इतने बुरे फैसले ले रही हैं कि इतने लोकतांत्रिक हक देश की अर्थव्यवस्था की नाकामयाबी की गारंटी सरीखे लग रहे हैं। देखते हैं सब कुछ बर्बाद होने में और कितने चुनाव लगेंगे।
नोबल शांति पुरस्कार के लिए ईरान की एक महिला आंदोलनकारी नर्गिस मोहम्मदी का नाम घोषित किया गया है। वे वहां पर बरसों से जेल में बंद हैं क्योंकि सरकार उनके मुद्दे पसंद नहीं करती है। महिलाओं पर जुल्म के खिलाफ वे लड़ते रहती हैं, और अभी जो खबर आई है उसके मुताबिक ईरान की सरकार उन्हें 13 बार गिरफ्तार कर चुकी है, 5 बार उन्हें सजा सुनाई गई है, और 31 बरस की कैद से वे गुजर रही हैं। उनके दो बच्चे अपने पिता के साथ फ्रांस में रह रहे हैं, और मां 8 बरस से उनसे दूर जेल में बंद है, और वे बेटे-बेटियों से मिली भी नहीं हैं। ईरान में महिलाओं के हक की लड़ाई आसान नहीं है, क्योंकि वहां अपने आपको क्रांतिकारी कहने वाली इस्लामिक सरकार इस्लाम के एक कट्टर तौर-तरीकों से चलती है जिनमें महिलाओं के लिए हिजाब बांधकर रखना अनिवार्य है, और ऐसा न करने पर उनकी गिरफ्तारी हो सकती है, उन्हें जेल होती है, और ऐसी ही एक युवती की पिछले बरस कैद में संदिग्ध मौत हो गई थी, और उसके बाद से ईरान में आंदोलन भडक़ उठे थे। अभी भी ईरान की महिलाएं हिजाब के नियमों को तोड़ते हुए सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही हैं, और सरकार पर यह तोहमत लग रही है कि उसने लड़कियों के बीच दहशत फैलाने के लिए लड़कियों के स्कूलों में रहस्यमय तरीके से गैस छोड़ी थी जिससे बहुत सी लड़कियां बीमार भी हुई थीं। ऐसी घटनाएं दर्जनों स्कूलों में अलग-अलग शहरों में हुई थीं, और यह माना जा रहा है कि सरकार के अलावा इसे और कोई नहीं करवा सकता था।
आज नर्गिस मोहम्मदी को नोबल शांति पुरस्कार मिलना ईरान की तमाम आंदोलनकारी महिलाओं का सम्मान है। इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए भी नर्गिस ने जेल में और कैदियों से बातचीत को दर्ज किया है, और उनकी लिखी एक किताब भी सामने आई है। वे ईरान में एक मानवाधिकार संगठन में काम कर रही थीं, और जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों की मदद करने के आरोप में उन्हें एक से अधिक बार सजा हुई है। फिलहाल वे 12 बरस की कैद काट रही हैं, और दूसरी कई सजाएं भी उन्हें सुनाई जा चुकी हैं। नर्गिस को मिला यह पुरस्कार दुनिया में महिलाओं की आजादी और उनके हक की लड़ाई का एक प्रतीकात्मक सम्मान है। ईरान और उसके समर्थक देश नोबल शांति पुरस्कार को पश्चिमी देशों के प्रभाव वाला पुरस्कार कह सकते हैं, लेकिन उससे इस सच्चाई पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि नोबल पुरस्कार कई बार दुनिया के कुछ बड़े शांतिपूर्ण संघर्षों और सामाजिक न्याय की लड़ाईयों की तरफ सबका ध्यान खींचते रहता है।
यह भी कुछ अजीब सी बात है कि एक तरफ तो गांधी का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिए बार-बार लिस्ट में आया, लेकिन उन्हें कभी दिया नहीं गया। जब गांधी की हत्या हुई तो उसके बाद का नोबल शांति पुरस्कार किसी को भी नहीं दिया गया, क्योंकि बार-बार गांधी का नाम खारिज करने वाली नोबल शांति पुरस्कार कमेटी गांधी की हत्या से हिली हुई थी। दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को बिना किसी चर्चा के, बिना किसी न्यायसंगत आधार के नोबल शांति पुरस्कार दे दिया गया था, जिससे वे खुद भी चौंक गए थे। और यह तथ्य तो इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है जिस वक्त उन्हें 2009 का नोबल शांति पुरस्कार मिला, उस वक्त उन्हीं के आदेशों से सात अलग-अलग देशों पर बम बरसाए गए थे। इनमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, लीबिया, यमन, सोमालिया, इराक, और सीरिया थे। एक सबसे अधिक बमबारी करने वाले अमरीकी राष्ट्रपति को भी शांति के लिए किसी योगदान के बिना नोबल शांति पुरस्कार दिया गया था। इससे परे भी कुछ और मौके रहे जब नोबल शांति पुरस्कार विवादों से घिरा रहा, लेकिन आज ईरान की महिला आंदोलनकारी को इसे देने की घोषणा दुनिया में संघर्षरत महिलाओं का सम्मान है, और उनके हक पर इस सम्मान से एक बार फिर चर्चा हो सकेगी, होगी।
ईरान में महिलाओं की लड़ाई सिर्फ उस देश में महिलाओं के हक का मुद्दा नहीं है, बल्कि इस्लाम के नाम पर महिलाओं पर एक गैरबराबरी लादने वाले बहुत से देशों में महिलाओं पर चल रहे जुल्म की तरफ भी इससे ध्यान जाएगा। ऐसे देश अपने आपको कहीं लोकतांत्रिक कहते हैं, तो कहीं वे तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान की तरह के हैं, जहां लड़कियों से स्कूल जाने का हक भी छीन लिया गया है, और महिलाओं को काम करने की इजाजत भी नहीं है। आज अफगानिस्तान दुनिया के अधिकतर देशों के लिए इसी महिला-नीति की वजह से अछूत बना हुआ है, लेकिन अड़ा हुआ है। आज दुनिया के अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन चाहकर भी अफगानिस्तान के जरूरतमंद लोगों की मदद नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि अफगानिस्तान महिलाओं को कोई अधिकार देना नहीं चाह रहा है, और इसके बिना दुनिया के देश उसे किसी तरह की मान्यता नहीं दे रहे, और अंतरराष्ट्रीय संगठन वहां काम नहीं कर पा रहे।
ईरान की महिला आंदोलनकारी को कल घोषित नोबल शांति पुरस्कार दुनिया भर की महिलाओं के मुद्दों को उठाने वाला साबित होगा। दुनिया के इतिहास में ऐसी कुछ और महिलाएं भी रही हैं, और उनसे दुनिया भर की महिलाओं को हौसला मिला है। आज मोटेतौर पर महिलाओं के संघर्ष का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम महिलाओं तक सीमित है, और दुनिया को इस पर गौर करना चाहिए।
बिहार की जातीय जनगणना ने देश की हजारों बरस से चली आ रही व्यवस्था की चर्बी पर जोर डाला है। वे लोग भी अब जातीय व्यवस्था पर बात कर रहे हैं जो कि हजारों बरस से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था के तहत फायदे की जगह पर थे, सवर्ण थे, दूसरों को कुचलने वाले तबकों के थे, और उस व्यवस्था से बहुत संतुष्ट भी थे। अब एकाएक उन्हें विशेषाधिकारों का यह फौलादी ढांचा चरमराते दिख रहा है, इसलिए उनकी बेचैनी बहुत अधिक है। वी.पी.सिंह के शब्दों में कहें तो जिन पैरों में चमड़े के तल्ले वाले जूते थे, और जिनके तले दूसरे कुचलते रहते थे, अब एकाएक उनके पैरों से जूते उतर गए हैं, और जूते गांठने वाले तबके जूते पहनने का हक मानने लगे हैं, तो एकाएक दहशत सरीखी हो गई है। इसका सबसे बड़ा नजारा सोशल मीडिया पर देखने मिल रहा है।
कल तक के ट्विटर, और आज के एक्स नाम के माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म पर अंधाधुंध बहस चल रही है, और मनु के वंशज अपने तर्क दे रहे हैं, और मनु से जख्मी हुए तबके अपने तर्क। बिहार के जाति के आंकड़ों ने सोए हुए लोगों को जगा दिया है, और सबको अपने हक सूझ रहे हैं। जो लोग अब तक नाजायज हकों पर कब्जा करके बैठे हुए थे, वे अपनी आने वाली पीढिय़ों को सामाजिक न्याय मिलने की आशंका से भर गए हैं। लेकिन यह सिलसिला थमना अब उसी तरह मुश्किल है जिस तरह केदारनाथ, उत्तराखंड, हिमाचल, या अभी सिक्किम में पहाड़ी नदी उफान पर रहती है, ढलान की तरफ दौड़ती है, और उसे थामना नामुमकिन होता है। आज जाति व्यवस्था की इस पहाड़ी नदी के जंगली उफान से सबसे अधिक परेशान वे तबके हैं जिन्होंने इन नदियों के किनारे सवर्णों के मंदिर बनाए हुए थे, और दलित-आदिवासी के बाद अब ओबीसी जनजागरण से ये मंदिर ही सबसे पहले बह रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित बहुत से लोग इसे देश को बांटने वाला काम कह रहे हैं। और सोशल मीडिया पर उनके दसियों लाख भक्तजन भी इसी सोच को चारों तरफ फैला रहे हैं कि यह एक भारतविरोधी काम है। देश में जातीय जनगणना उसे टुकड़ों में बांट डालेगी। चूंकि राहुल गांधी ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बनाया है, और पूरे देश में इसे करवाने की घोषणा की है, इसलिए यह हमला मोदी खेमे की तरफ से राहुल और इंडिया गठबंधन पर है। लेकिन जो हकीकत हजारों बरस के जुल्मों के बाद भी जमीन पर बनी हुई है, वह अगर अब तक खतरा नहीं बनी थी, अब तक वह गुलामी की हीनभावना की शिकार थी, तो आज महज गिनती हो जाने से वह कैसे खतरनाक हो सकती है? और मनुवादी व्यवस्था के तहत जिन दलितों को सबसे अधिक कुचला गया था, जिन आदिवासियों को रामकथाओं में बंदर बना दिया गया था, वे लोग अगर सवर्ण तबकों के लिए आज तक खतरा नहीं बने, तो आज एकाएक ओबीसी जनजागरण कैसे खतरा बन सकता है? लेकिन जिन लोगों को ये नए आंकड़े खतरा लग रहे हैं, उनकी आशंकाओं में भी झांका जा सकता है।
दलित और आदिवासी आरक्षण देश की आजादी के आसपास से चले आ रहा था, और वे तबके सवर्ण तबकों से बहुत दूर भी थे, सवर्ण-बेइंसाफी के शिकार होकर कमजोर भी थे, और उनके लिए तय किए गए आरक्षण से भी उनका बहुत भला नहीं हो रहा था। लेकिन ओबीसी तबका तो दलित और आदिवासी के ठीक ऊपर है, और सवर्णों के ठीक नीचे है। इसलिए ओबीसी से सवर्ण सोच को खतरा पड़ोसी से खतरे सरीखा हो रहा है। और दलित-
आदिवासी से खतरा दूर की चमार बस्ती या जंगल में बसे लोगों से खतरे सरीखा दूर का था। अब ओबीसी तबका आरक्षण के मौजूदा, और आगे हो सकने वाले आरक्षणों का फायदा उठाने के लिए अधिक ताकतवर रहेगा, और वह हर किस्म से सवर्णों को टक्कर देने के करीब रहेगा। इसलिए जाति आधारित यह जनगणना सवर्ण-बेचैनी की एक बड़ी वजह है। दलित और आदिवासी आरक्षण तो चले आ रहा था, यह ओबीसी तबका देश का सबसे बड़ा बवाल रहेगा, और संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की बात जब होगी, तो यह ओबीसी तबका ही अब तक के अनारक्षित चले आ रहे बहुत बड़े उस हिस्से में सबसे बड़ा हिस्सा मांगेगा जिस पर अब तक अनुपातहीन तरीके से सवर्णों का कब्जा चले आ रहा है। यह नौबत, या इस तरह की नौबत पूरी दुनिया में कहीं भी हमेशा नहीं चलती है, और वंचित तबके कभी न कभी अपने हक पाते हैं। इसलिए भारत में आज मनुवाद की सवर्ण व्यवस्था के सबसे बड़े संरक्षक, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत को भी अब यह लग रहा है कि आरक्षण और सौ-दो सौ बरस जारी रह जाए तो सवर्णों को उससे बर्दाश्त करना चाहिए। हालांकि मोहन भागवत का यह ताजा चर्चित बयान बिहार की जातीय जनगणना के पहले का है, और वह मोटेतौर पर ओबीसी से जुड़ा हुआ नहीं है, लेकिन अब जब ओबीसी के दानवाकार आंकड़े एक हकीकत बनकर सामने आए हैं, तो मोहन भागवत का बयान शायद उस पर भी लागू होना चाहिए।
देश में सवर्ण तबके की हड़बड़ाहट और दहशत नाजायज और गैरजरूरी है। अवसरों पर उनका एकाधिकार ही नाजायज था, और अब अगर वह टूट रहा है, तो उसे लेकर सच्चाई को मानने की कोशिश करनी चाहिए, और यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र में आज एक नई सामाजिक चेतना आई है, और सदियों से चले आ रही सामाजिक बेइंसाफी के दिन अब लद गए हैं। आने वाला वक्त एक-एक करके तमाम प्रदेशों, या पूरे देश में जातीय जनगणना का रहेगा, और अब तक के सवर्ण-कुलीन तबकों को, अपने लिए अवसरों के खुले मैदान का बड़ा हिस्सा छोडऩा पड़ेगा। स्कूल-कॉलेज से लेकर नौकरियों और संसद-विधानसभा तक सभी जगहों पर कुछ तबकों को कुर्सियां खाली करनी पड़ेंगी, और सदियों से खड़े हुए कुछ लोगों को बैठने की जगह मिलेगी। फिलहाल यह भी एक अच्छी बात है कि जातियों के आंकड़ों को लेकर लोगों के बीच सामाजिक हकीकत की लंबी और आक्रामक बहस चल रही है, और इससे अन्याय का इतिहास सामने आने का मौका मिलेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)