संपादकीय
पुर्तगाल में एक भारतवंशी गर्भवती पर्यटक महिला को वहां के सबसे बड़े अस्पताल में ले जाया गया, लेकिन वहां उसे भर्ती नहीं किया गया, और दूसरे अस्पताल भेजा गया। लेकिन दूसरे अस्पताल पहुंचने के पहले हार्टअटैक से उसकी मौत हो गई। इस बात को अपनी निजी कामयाबी मानते हुए वहां की स्वास्थ्य मंत्री डॉ. मार्ता टेमिडो ने इस्तीफा दे दिया है। खबरें बताती हैं कि वे 2018 से स्वास्थ्य मंत्री थीं, और कोरोना के दौर में उन्होंने हालात बहुत अच्छी तरह सम्हाले थे। अपने विभाग या अपनी सरकार की किसी बहुत बड़ी चूक की वजह से अपनी कुर्सी छोड़ देना हिन्दुस्तान में कुछ दशक पहले तक एक लोकतांत्रिक परंपरा मानी जाती थी, और किसी बड़ी रेल दुर्घटना के बाद रेलमंत्री इस्तीफा देते थे, हालांकि कोई मंत्री खुद तो रेलगाड़ी चलाते नहीं हैं, न ही वे सिग्नल देते पटरियों के किनारे रहते हैं, लेकिन कानूनी जवाबदेही से परे नैतिक जवाबदेही का दायरा बड़ा होता है, और उसे मानने वाले लोग सचमुच के बड़े लोग होते हैं। आज जब किसी कुर्सी पर तब तक चिपके रहना, जब तक कि कानून के लंबे हाथ आकर टेंटुआ दबाकर घसीटकर न ले जाएं, का चलन है, तब हिन्दुस्तान में नैतिकता के अधिकार पर इस्तीफे की बात भी सुने लंबा अरसा गुजर गया है। पिछले दिनों किसान आंदोलन के दौरान जब एक केन्द्रीय मंत्री के बददिमाग और खूनी बेटे ने अपनी गाड़ी से किसानों को कुचलकर मार डाला था, तब उसकी गिरफ्तारी और चार्जशीट के बाद भी, देश भर से मांग उठने के बाद भी इस बेशर्म मंत्री ने कुर्सी नहीं छोड़ी थी। बिहार और गुजरात जैसे शराबबंदी वाले राज्यों में लोग थोक में जहरीली शराब पीकर मरे हैं, लेकिन इसके लिए किसी जिम्मेदार ने कोई इस्तीफा नहीं दिया। आज सत्ता पर पहुंच गए लोग जिस तरह कुर्सी से चिपककर बैठते हैं, उसे देखकर देह में चिपक जाने वाली जोंक भी शरमा जाती है कि वह मुकाबले में कहीं नहीं टिकती।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र अब पूरी तरह से अदालत से सजा मिल जाने के ठीक पहले तक सत्ता का मजा पाते रहने वाली हो गई है। अब या तो सरकार और पार्टी के मुखिया ही किसी की कुर्सी छीन लें, तो अलग बात है, अपने खुद के जुर्म किसी को यह अहसास नहीं कराते कि उन्हें अपनी पार्टी और सरकार को और अधिक बदनाम न करना चाहिए, न होने देना चाहिए। इस बुनियादी इंसानियत की जगह भी आज लोगों के नैतिक मूल्यों में नहीं रह गई है। जो लोग, बड़े-बड़े ताकतवर मंत्री भी, जिन बड़े जुर्मों में पकड़ा रहे हैं, वे भी आखिरी सांस तक सत्ता पर बने रहना चाहते हैं, और शर्मिंदगी के साथ चुप घर बैठने का सिलसिला खत्म ही हो गया है। और बेशर्मी का यह सिलसिला बहुत नया भी नहीं है। मायावती और लालू यादव सरीखे लोग सैकड़ों करोड़ की अनुपातहीन सम्पत्ति के मामले में अपने कुनबे सहित पकड़ाए जा चुके हैं, एक पांव अदालत में है, और एक पांव पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर है, और भविष्य जेल में है, लेकिन पार्टी के सुप्रीमो बने हुए हैं। उधर दक्षिण में जयललिता की अथाह काली कमाई का यही हाल था, देश भर में जगह-जगह नेताओं की दौलत भ्रष्टाचार की आदी जनता को भी हक्का-बक्का करने की ताकत रखती है। रबर स्लीपर पहनने वाली, बिना कलफ की सादी साड़ी वाली ममता बैनर्जी की सादगी किस काम की जब भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे उनके मंत्री की महिलामित्र के घर से पचास करोड़ के नोट निकलते हैं?
हिन्दुस्तान की राजनीति में जिम्मेदारी, वफादारी, ईमानदारी, इन सबका विसर्जन कर दिया गया है। अब लोग कालेधन की गुंडागर्दी से पार्टी में आगे बढ़ते हैं, साम्प्रदायिकता और जातिवाद की हिंसा से बड़े नेता बनते हैं, और चापलूसी या कुनबापरस्ती से बड़े ओहदे पाते हैं। फिर बड़े ओहदों की ताकत से वे और बड़ी गुंडागर्दी करते हैं, अपने पसंदीदा मुजरिमों को कारोबारी बनवाते हैं, और अपना भविष्य तिजौरियों में महफूज रखते हैं। यह सिलसिला इतना आम हो गया है, और जनता का एक बड़ा हिस्सा इनको लोकतंत्र मानने का इतना आदी हो गया है कि इनमें से कोई खामी लोगों को चुनाव नहीं हरवाती। इसलिए अब लोग इस परले दर्जे के बेशर्म हो गए हैं कि उनके मंत्रालय के मातहत, या उनके देश-प्रदेश में कितने भी बुरे काम होते रहें, वे खुद कितनी भी बड़ी गलतियां करते रहें, उनके मन में कभी भी कुर्सी से हटने का कमजोर खयाल नहीं आता। हिन्दुस्तान के नेता अब अपनी मुसीबत को देखते हुए कभी यह कहते हैं कि उनका फैसला जनता की अदालत में होगा, और कभी यह कहते हैं कि उनका फैसला कानून की अदालत में होगा। जिस अदालत में वे हार जाते हैं, वहां से निकलकर वे दूसरी अदालत का रूख करने लगते हैं।
जेलों से निकले संगठित हत्यारों और बलात्कारियों का माला और मिठाई से, तिलक और आरती से स्वागत करने वाला समाज अब किसी भी तरह की नैतिकता के बोझ से मुक्त हो गया है। लोकतंत्र अब पूरी तरह अदालतों के फैसलों से तय होने लगा है, यह एक अलग बात है कि अदालतों में फैसला देने वाले लोग किस तरह तय होने लगे हैं, यह भी लगातार खबरों में है, और वे किन वजहों से कैसे फैसले देते हैं, यह भी खबरों में है। जिस देश में लोकतंत्र की सभी संस्थाएं एक संगठित माफिया की तरह मिलकर काम करने लगें, उस देश में सुरंग के आखिरी सिरे पर दिखती रौशनी की एक किरण सरीखी भी रौशनी नहीं दिखती। हिन्दुस्तान का लोकतंत्र आज एक ऐसे ही पूर्ण सूर्यग्रहण से ढंक गया दिखता है, और यह ग्रहण घटता नहीं दिख रहा है। इसलिए एक मौत को लेकर देश की स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे जैसी खबरें हमें दुनिया के दूसरे देशों से ही मिलती रहेंगी, जहां सूर्यग्रहण इतना पूर्ण नहीं होगा।
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झारखंड की राजधानी रांची में पुलिस ने एक शिकायत के बाद भाजपा की एक महिला नेता सीमा पात्रा को गिरफ्तार किया है जिस पर अपनी घरेलू नौकरानी को बंधुआ मजदूर बनाकर रखने और उसकी भयानक प्रताडऩा करने का आरोप है। यह महिला भाजपा महिला विंग की राष्ट्रीय कार्यसमिति की सदस्य हैं, और उन्हें इस शिकायत के सामने आने के बाद बीजेपी ने निलंबित किया है। इस महिला के पति एक रिटायर्ड आईएएस अफसर हैं, और इसका बेटा अपनी मां के जुर्म से असहमत था, और उसी से यह जानकारी बाहर निकली, और पुलिस ने जाकर किसी तरह उस आदिवासी नौकरानी को कैद से निकाला जिसे यह महिला गर्म तवे और डंडों से पीटती थी जिससे उसके दांत भी टूट गए थे, और वह बहुत खराब शारीरिक-मानसिक हालत में आठ बरस से कैद थी। झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस ने भी इस पूरे मामले के उजागर होने पर राज्य के पुलिस प्रमुख से पूछा है कि इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई है। इस महिला नौकरानी ने मजिस्ट्रेट के सामने पूरा बयान दिया है।
घरेलू नौकरों को बंधुआ मजदूर की तरह रखकर उन पर तरह-तरह के जुल्म ढहाते हुए उनसे अमानवीय काम करवाना बहुत अनोखी बात नहीं है। गांव से जो नौकरों को लाकर शहरों में रखते हैं, वे बहुत से मामलों में उन्हें बंधुआ मजदूर से बेहतर नहीं रखते। न उन्हें इंसानों की तरह जीने की सहूलियत रहती, न नौकरी और तनख्वाह की कोई गारंटी रहती, और न ही इलाज या किसी और तरह के कानूनी अधिकार उन्हें मिलते हैं। गांव में भी घरवाले इतनी कमजोर आर्थिक स्थिति के रहते हैं कि किसी को शहर में जिंदा रहने लायक काम ही मिल जाए, तो उसे वे बहुत समझ लेते हैं। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों, कुछ पहाड़ी इलाकों, और अधिकतर आदिवासी इलाकों से लडक़े-लड़कियों को गुलाम की तरह ले जाया जाता है, और वे गांव के मुकाबले बेहतर जिंदगी की उम्मीद में चले जाते हैं। इनमें से कई लोग तो ईसाई स्कूलों की मेहरबानी से कुछ पढ़े-लिखे भी होते हैं, और उन्हें लगता है कि वे एक बार शहर पहुंच जाएंगे, तो ऊपर का सफर वे खुद तय कर लेंगे। लेकिन शहर बेरहम होता है, और अड़ोस-पड़ोस के लोग बेबस नौकर-नौकरानी पर, बाल मजदूरों पर जुल्म देखते हुए भी चुप रहते हैं, क्योंकि उनके मालिक पड़ोसियों के वर्ग-मित्र रहते हैं, और उनसे बुराई भला क्यों मोल ली जाए।
अभी झारखंड की राजधानी रांची में जुल्म की शिकार इस गरीब आदिवासी का मामला सामने आया है जो कि उसी राज्य की रहने वाली थी। जब ऐसे लोग महानगरों में जाकर वहां संपन्न घरों में बंधुआ मजदूरी करते हैं, तो वे और अधिक कमजोर और बेबस हो जाते हैं। वे अपने इलाके से, अपनी जुबान से बहुत दूर चले जाते हैं, और महानगरों की हमदर्दी किसी कमजोर के साथ रहती नहीं है। नतीजा यह होता है कि बहुत से मामलों में ऐसे मजदूर लडक़े-लड़कियों का देह शोषण भी होता है, और उन्हीं में से हर बरस दसियों हजार लोगों को देह के धंधे में धकेलकर कई लोग कमाई कर लेते हैं। ये दोनों-तीनों किस्म के मामले मिले-जुले रहते हंै, और कब घरेलू जुल्म से निकलकर इनमें से कुछ लड़कियां रेड लाईट एरिया पहुंच जाती हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता।
कुछ प्रदेशों में अगर ऐसा कानून होगा भी तो भी उस पर अमल जरा भी नहीं है कि घरेलू नौकर-नौकरानी की पूरी जानकारी करीब के थाने में दी जाए, और कोई सरकारी अमला या सामाजिक कार्यकर्ता बीच में कभी जाकर ऐसे नौकरों का हालचाल पूछकर आएं, यह समझकर आएं कि उन्हें किन स्थितियों में रहना पड़ रहा है, उनकी पूरी तनख्वाह मिलती है या नहीं। आज सरकारों के श्रम विभाग भी सिर्फ संगठित मजदूरों वाले संस्थानों तक अपनी दिलचस्पी सीमित रखते हैं, घरेलू नौकर-नौकरानी, या घरों में पूरे वक्त के लिए रखे जाने वाले दूसरे कामगार किसी तरह के कानूनी अधिकार नहीं पाते हैं। राज्यों को अधिक सुधारवादी रूख अपनाना चाहिए, और इस बात को दंडनीय अपराध बनाना चाहिए, अगर सरकार को लिखित जानकारी दिए बिना लोग घरेलू या व्यापारी संस्थानों में नौकर रखते हैं।
झारखंड और छत्तीसगढ़ उन आदिवासी इलाकों में से सबसे आगे हैं जहां से लड़कियां और महिलाएं महानगरों की प्लेसमेंट एजेंसियों द्वारा बाहर ले जाई जाती हैं, और वहां उन्हें काम से लगाया जाता है, या रेड लाईट एरिया में बेच दिया जाता है। मानव तस्करी के आंकड़े भयानक हैं, और सरकारें इस सामाजिक खतरे को मानने के लिए तैयार नहीं होती हैं क्योंकि दूसरे शहरों में बसे हुए मजदूर किसी पार्टी या नेता के संगठित वोटर नहीं होते हैं। सरकार के साथ-साथ इस बात को रिहायशी इमारतों की भी जिम्मेदारी बनाना चाहिए कि वहां के घरों में काम करने वाले लोगों का पूरा रिकॉर्ड इकट्ठा करके पुलिस को देना वहां के निवासी संघ या बिल्डर की कानूनी जिम्मेदारी रहे। सरकारों को नमूने के तौर पर ऐसे कुछ लोगों पर कार्रवाई करनी भी चाहिए, और ऐसे गैरजिम्मेदार लोगों पर मोटा जुर्माना भी लगाना चाहिए, इसकी खबरें और लोगों पर असर करेंगी।
झारखंड के इस मामले में फंसी हुई महिला भाजपा की ऐसी नेता है जिसका फेसबुक पेज और ट्विटर पेज पिछले कई हफ्तों से सिर्फ तिरंगे झंडे लिए हुए अपनी तस्वीरों वाला है। उसने अलग-अलग नेताओं के साथ, अलग-अलग कार्यक्रमों में अपनी खुद की सैकड़ों तस्वीरें झंडा थामे हुए पोस्ट की हैं। अब घरेलू नौकरानी को गर्म लोहे से पीटना, सलाखों से उसके दांत तोड़ देना, और बाहर तिरंगा यात्रा निकालना, घर-घर तिरंगा फहराना, यह सार्वजनिक जीवन में कथनी और करनी का बहुत बड़ा विरोधाभास है। कानून को कड़ाई से काम करना चाहिए, इस महिला को कई बरस की कैद होनी चाहिए, और इसकी दौलत का एक बड़ा हिस्सा इसकी शिकार महिला को मुआवजे में मिलना चाहिए। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जब कभी अपने विधायकों के साथ राज्य को सुरक्षित पाकर लौट सकें, तब उन्हें वहां की गरीब आदिवासी जनता की सुरक्षा भी करनी चाहिए।
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यूक्रेन पर रूस के हमले को छह महीने से अधिक हो गए हैं। दैत्याकार रूस की सेना के सामने यूक्रेन बहुत छोटा और कमजोर है, और पश्चिमी हथियार मिलने के बावजूद वह लगातार नुकसान झेल रहा है। यूक्रेन के काफी हिस्से पर रूसी फौज का कब्जा हो गया है, और यूक्रेन के इन इलाकों में बचे हुए, मोटेतौर पर बूढ़ों, महिलाओं, और बच्चों की आबादी को रूस अपने में शामिल करने की कोशिश भी कर रहा है। ऐसी आबादी लगातार जिस तनाव में जी रही है उसका एक अंदाज इससे लगता है कि जब ऐसे एक यूक्रेनियन से पूछा गया कि वे ऐसे हालात में किस तरह जी रहे हैं, तो उसने कहा- अपने-आपको खबरों से दूर रखकर।
जब चारों तरफ बहुत ही बुरी बातें हो रही हों, हौसले को तोडऩे की बात हो रही हो, हैवानियत नाच रही हो, तथाकथित इंसानियत दुबककर बैठ गई हो, तब अपने को खबरों से दूर रखना शायद अपने बचे-खुचे हौसले को बचाए रखने की एक तरकीब हो सकती है। हिन्दुस्तान में भी हम देखत हैं कि बहुत से लोग सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहते हैं, और लगातार वहां आ रही नकारात्मक खबरों को देख-सुनकर वे दिमागी रूप से टूटने लगते हैं। जो लोग थोड़े से संवेदनशील होते हैं, वे कुछ दिनों के लिए सोशल मीडिया से अलग हो जाते हैं। टीवी की खबरों से भी बहुत से लोग परहेज करने लगे हैं क्योंकि किसी नापसंद खबर को छोडक़र आगे बढ़ जाना टीवी पर मुमकिन नहीं होता है। अखबार में तो पन्ना पलटाया जा सकता है, दूसरी खबर पर जाया जा सकता है, ऐसी ही सहूलियत इंटरनेट पर खबरों के साथ रहती है, लेकिन टीवी की खबरें रेल के डिब्बों की तरह एक के बाद एक चलती हैं, और उन्हें छोडक़र आगे नहीं बढ़ा जा सकता। वैसे तो सोशल मीडिया पर भी बाकी इंटरनेट की तरह खबरों को छोडक़र आगे बढ़ा जा सकता है, लेकिन वहां फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर आपको आपकी पसंदीदा और चुनिंदा चीजें दिखाते चलते हैं, और जब आप उनसे थक चुके रहते हैं, तब भी आपकी थकान का अंदाज लगाने में इन कम्प्यूटरों को कुछ वक्त लग जाता है। फिर यह भी रहता है कि फेसबुक जैसी जगह आप जिन्हें फॉलो करते हैं, या जो आपके दोस्त रहते हैं, उन्हीं की पोस्ट आपको अधिक दिखाई जाती है, और अगर वे किसी एक विचारधारा के हैं तो उनकी हिंसा, या उनकी नफरत, या उनकी निराशा आप तक भी पहुंचती है।
जिस तरह हम बीच-बीच में लिखते हैं कि जिंदगी में धर्म की एक सीमित भूमिका रहनी चाहिए, उसी तरह खबरों की भी एक सीमित जगह रोज की जिंदगी में होनी चाहिए। और जब हम इस जगह को सीमित करने की बात करते हैं, तो पाठक की पसंद और प्राथमिकता की गुंजाइश सबसे ऊपर रहना चाहिए। टीवी के साथ यह बिल्कुल भी नहीं है। रेडियो की खबरों के साथ भी यही दिक्कत है कि गैरजरूरी या नापसंद खबर को छोडक़र आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। इसलिए लोगों को खबर पाने, समाचार या विचार पाने के अपने जरिये सोच-समझकर तय करना चाहिए। टीवी के आधे घंटे के एक बुलेटिन में जितनी जानकारी किसी दर्शक को मिलती है, उतनी जानकारी वे दर्शक पाठक बनकर दस मिनट में किसी अखबार या जिम्मेदार वेबसाइट से पा सकते हैं, या तो बीस मिनट बचा सकते हैं, या टीवी के मुकाबले तीन गुना खबरों को जान सकते हैं।
और यह बात हम महज समाचार-विचार के लिए नहीं कह रहे हैं, बल्कि जिंदगी में रोज लोग जितना समय जानकारी, विचार, और मनोरंजन पाने के लिए रखते हैं, उसका बड़ी सावधानी से इस्तेमाल होना चाहिए। अब अगर कोई किताब पढऩा शुरू किया गया है, और वह बेकार निकल गई है, तो उसे पूरा पढऩे की जहमत नहीं उठाई जाती, उसे छोड़ दिया जाता है, और किसी बेहतर किताब को उठाया जाता है। ठीक इसी तरह लोगों को अखबार, या कोई पत्रिका, या टीवी चैनल का समाचार या बहस का कार्यक्रम छांटना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है कि आप धीरे-धीरे वैसे ही इंसान बनने लगते हैं जैसी सोच आप समाचार-विचार, या मनोरंजन से रोज पाते हैं। अगर आप रोज हॅंसने के ऐसे कार्यक्रम देखते हैं जिनमें लोगों के रूप-रंग, उनकी शारीरिक कमजोरियों को लेकर उनकी खिल्ली उड़ाई जाती है, तो धीरे-धीरे आप असल जिंदगी में भी वैसी खिल्ली उड़ाने वाले बन जाते हैं। आप जिन टीवी चैनलों पर वक्त बर्बाद करते हैं, उन्हीं चैनलों की सोच आपकी भी सोच बन जाती है। इसलिए लोग किन लोगों के बीच रोज बैठते हैं, किन बातों पर बातें करते हैं, उतनी ही अहमियत इस बात को भी देनी चाहिए कि वे रोज क्या देखते और सोचते हैं।
इसके साथ-साथ जिस बात से हमने आज की चर्चा शुरू की है, वह भी मायने रखती है। आसपास अगर चारों तरफ सिर्फ निराशा और तकलीफ की खबरें हैं, तो उन्हीं खबरों को पूरे वक्त देखते रहना, सुनते रहना भी ठीक नहीं है। अपनी जानकारी के लिए इन बातों को एक बार जान लेना जरूरी है, लेकिन उन्हीं बातों को दस-दस, बीस-बीस अलग-अलग जरियों से जानने का मतलब अपने आपको निराशा में डुबा देना है। हिन्दुस्तान में आज जब हवा में जहरीली नफरत काले बादलों सरीखी जम गई है, तब पूरे वक्त इस नफरत को ही पढऩा, उसे ही जानते रहना दिमागी सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकता है। जहां खुद के करने लायक कुछ न हो, वहां पर पूरे ही वक्त जहरीली नफरत से घिरे रहना ठीक नहीं है। लोगों को जिस तरह धर्म और आस्था पर खर्च किया जाने वाला अपना वक्त सीमित रखना चाहिए, ठीक उसी तरह आसपास की हिंसा और नफरत को देखने-समझने का वक्त भी सीमित रखना चाहिए। अब जब लोग असल जिंदगी के दोस्तों के दायरे की तरह सोशल मीडिया पर भी अपना एक आभासी दायरा बना लेते हैं, तब यह बात और जरूरी हो जाती है कि उन्हें एक ही सोच के सीमित दायरे के बाहर भी निकलना चाहिए, जिस तरह कि शहरी जिंदगी से घिरे हुए लोगों को कभी-कभी जंगल और कुदरत के बीच जाने का फायदा होता है। लोगों को आभासी दुनिया के अपने दायरे में धर्म, जाति, जेंडर, पेशे, राजनीतिक सोच, प्रादेशिकता की विविधता रखनी चाहिए, ताकि सारे ही वक्त उन्हें एक सरीखी नकारात्मकता में सांस न लेना पड़े।
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भाजपा सरकार वाले कर्नाटक की आठवीं की एक सरकारी पाठ्य पुस्तक को लेकर एक दिलचस्प विवाद उठ खड़ा हुआ है। कर्नाटक इन दिनों विनायक दामोदर सावरकर को महान देशभक्त साबित करने की कोशिशों से गुजर रहा है, और चूंकि सिर्फ इतने से हवा में साम्प्रदायिक जहर नहीं घुल सकता था, वहां साथ-साथ टीपू सुल्तान का विरोध भी किया जा रहा है ताकि इस मुद्दे को हिन्दू-मुस्लिम में तब्दील किया जा सके, मुस्लिमों के ध्रुवीकरण का सामान पेश किया जा सके, और उसकी प्रतिक्रिया में हिन्दू ध्रुवीकरण की उम्मीद की जा सके। इसी सिलसिले में अभी इस किताब का एक हिस्सा सामने आया है जिसमें यह दावा किया गया है कि सावरकर जब अंडमान की जेल में थे, जहां उनकी कोठरी में एक चाबी के लिए छेद भी नहीं था, वहां बुलबुल उडक़र कोठरी में पहुंचती थीं, और सावरकर उनके पंखों पर बैठकर रोज मातृभूमि घूमकर आते थे। अब जब इस बात को लेकर विवाद हो रहा है तो किताब के बचाव में यह तर्क दिया जा रहा है कि यह साहित्य की अलंकारिक भाषा है, और उसका शाब्दिक अर्थ निकालना गलत है। आलोचकों का कहना है कि इस कन्नड़ पाठ्य पुस्तक को सीधी-सपाट भाषा में लिखा गया है, और इसमें किसी अलंकार या प्रतीक जैसी कोई बात नहीं है। यह बच्चों के दिमाग में सावरकर की करिश्माई महानता को बैठाने की एक बड़ी भोथरी कोशिश है, और यह कोशिश अपने आपमें अकेली नहीं है, सावरकर को महान बताने की कोशिशें गांधी से जुड़े एक सबसे प्रमुख संस्थान की पत्रिका में भी हाल ही में हुई है।
दरअसल झूठ को फैलाने और स्थापित करने की एक सीमा होनी चाहिए। सावरकर ने देश की आजादी के लिए जब तक, जो कुछ किया था, उसका सम्मान इंदिरा गांधी के समय भी हो चुका है जब प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने सावरकर पर डाक टिकट निकाली थी। और सावरकर की तारीफ भी की थी। लेकिन हकीकत यह है कि सावरकर का जीवन दो अलग-अलग हिस्सों में महानता और पलायन में बंटा हुआ था। एक वक्त उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ काम किया, और उस वजह से उन्हें कालापानी की सजा देकर अंडमान जेल में बंद किया गया था। लेकिन जेल में रहते हुए सावरकर ने अंग्रेज सरकार पर माफीनामों और रहम की अपीलों की बौछार कर दी थी। कुछ इतिहासकार बताते हैं कि उन्होंने कम से कम आधा दर्ज दया याचिकाएं भेजी थी जिनमें से पहली तो जेल में छह महीने गुजारने के बाद ही चली गई थी। इन दया याचिकाओं में सावरकर ने अंग्रेज सरकार की किसी भी रूप में सेवा करने का मौका देने की अपील की थी, और कहा था कि वे राह से भटके हुए और लोगों को भी सरकार की तरफ लेकर आएंगे। आज जिस गांधी-स्मृति की पत्रिका में केन्द्र सरकार के मनोनीत आरएसएस के ट्रस्टी सावरकर की स्तुति छाप रहे हैं, उसके बारे में इतिहासकारों ने लिखा है कि सावरकर खुलेआम गांधी को गालियां देते थे, और गांधी के लिए उनका दिल नफरत से भरा हुआ था। यह एक और बात थी कि सावरकर की रहम की अपीलें अंग्रेज सरकार के पास जाने का दौर शुरू हो जाने के बाद उनके भाई की चिट्ठियों में की गई अपील के जवाब में गांधी ने महज यह सुझाया था कि सावरकर को केस की जानकारी देते हुए किस तरह अपील करनी चाहिए। गांधी के इस जवाब को आज इस तरह प्रचारित किया जा रहा है कि मानो गांधी ने सावरकर को रहम की अपील करना सुझाया था। जबकि गांधी से सावरकर के भाई के पहले संपर्क के चार बरस पहले सावरकर का पहला माफीनामा अंग्रेज सरकार को पहुंच चुका था। सावरकर की जिंदगी के शुरू के एक हिस्से में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी को लेकर जब-जब उनके गौरवगान की कोशिश होगी, तब-तब लोगों को उनकी आगे की जिंदगी याद आएगी, याद दिलाई जाएगी कि अंग्रेजों से रहम की अपील में उन्होंने क्या-क्या लिखा था, और किस तरह अंग्रेज सरकार से वे बरसों तक माहवारी पेंशन पाते थे। जिस वक्त देश के हजारों स्वतंत्रता सेनानी जेलों में कैद थे, उस वक्त सावरकर अंग्रेज सरकार की वफादारी और उसकी सेवा करने का लिखित वायदा करके जेल के बाहर आए थे, और अंग्रेजी पेंशन पर रहते थे।
दरअसल यह दिक्कत सावरकर के साथ ही नहीं है, सार्वजनिक जीवन के बहुत से लोगों के साथ ऐसा होता है कि जब वे आसमान जैसी ऊंचाई पर पहुंचते हैं, और वहां से नीचे गिरते हैं, तो बहुत नीचे गिर जाते हैं। उनकी जिंदगी को मिलाजुला ही देखना चाहिए। जब कभी कोई उन्हें महज आसमान तक ले जाकर वहीं एक सिंहासन पर बिठा देना चाहेंगे, तो लोग तुरंत याद करेंगे कि वे कितने नीचे भी गिरे हुए थे। और फिर जो लोग इतिहास का हिस्सा हो चुके हैं, उन लोगों का समग्र मूल्यांकन अगर अभी नहीं होगा, और अभी भी अगर सिर्फ उनकी अच्छी बातें ही गिनी जाएंगी, तो फिर वे एक विचारधारा के महज प्रचार के लिए बनाए गए मुखौटे रह जाएंगे। जेल के नियमों में माफी मांगकर बाहर निकलने की कोशिश तो रहती है, लेकिन यह तो लोगों की अपनी पसंद रहती है कि वे अंग्रेजों से माफी मांगें, या रहम की भीख मांगें, या जलियांवाला बाग जैसे भयानक हत्याकांड करने वाले अंग्रेजों से पेंशन लें, या फिर वे जेल की सलाखों के पीछे मरने के लिए तैयार रहें। सावरकर ने अपने कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए यह किया था, और आज उनकी स्मृतियों को इन्हीं का भुगतान करना पड़ रहा है। जब देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, जब भगतसिंह जैसे नौजवान सीना ताने हुए देशभक्ति के गाने गाते हुए किसी भी रहम की अपील से दूर खुशी-खुशी फांसी पर झूल गए, तो वैसे दौर के सावरकर की रहम की अपीलों और अंग्रेजों की सेवा करने की गिड़गिड़ाहट को कैसे भुलाया जा सकता है। सावरकर को देश के इतिहास की किताबों में छोड़ देना चाहिए। आज स्कूली किताबों के रास्ते सावरकर को महान साबित करने की कोशिशें जब-जब होंगी, तब-तब सावरकर की अंग्रेजों की चापलूसी और रहम की भीख भी लोगों को याद आएगी। आज सावरकर को महान साबित करने वाले उनका भला नहीं कर रहे हैं, वे इतिहास के पन्नों को बार-बार सामने लाने को मजबूर कर रहे हैं कि आज वीर कहा जाने वाला यह आदमी किस कदर कमजोर था, और उसने किस तरह रिहाई की भीख मांगी थी।
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कुछ दिन पहले जापान में एक चुनाव प्रचार में लगे हुए वहां के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एब पर एक नौजवान ने सार्वजनिक जगह पर ही घरेलू बनाई बंदूक से हमला कर दिया था, और इन्हीं जख्मों से शिंजो की मौत हो गई थी। अब खबर आई है कि इस हत्यारे ने इसलिए कत्ल किया था कि शिंजो जापान के एक विवादित धार्मिक सम्प्रदाय, यूनिफिकेशन चर्च से जुड़े हुए थे, और हत्यारे की मां ने अपनी पूरी दौलत चर्च को दान कर दी थी, और इससे वह भयानक गरीबी का शिकार हो गया था। अब जब हत्यारे के कम्प्यूटर से यह चिट्ठी मिली है तो इस चर्च की तरफ लोगों का ध्यान गया है, और यह खबर भी सामने आई कि जापान के मौजूदा प्रधानमंत्री फुकियो किशिदा ने हाल ही में अपने कई मंत्रियों को इस वजह से बर्खास्त कर दिया है कि वे इसी विवादास्पद यूनिफिकेशन चर्चा से जुड़े हुए थे।
ईसाई धर्म के तहत बहुत से अलग-अलग किस्म के सम्प्रदायों वाले अलग-अलग चर्च रहते हैं, इनकी रीति-नीति अलग रहती है, और इनके धार्मिक संस्कारों में भी फर्क रहता है। कुछ देशों में तो इस किस्म के चर्च भी हैं जो कि पूरी तरह से अंधविश्वासों पर भरोसा करते हैं, और वहां की प्रार्थना सभाओं में लोग अजगर और सांप लेकर नाचते हैं। यूनिफिकेशन चर्च नाम का यह नया धार्मिक आंदोलन दक्षिण कोरिया के सियोल में 1954 में शुरू हुआ और इसके तीस लाख सदस्य बताए जाते हैं। कोरिया और जापान बौद्ध धर्म से भी जुड़े हुए देश हैं, लेकिन इस ईसाई चर्च की कुछ नीतियों की वजह से इसे खतरनाक सम्प्रदाय भी माना जाता है। विकीपीडिया की जानकारी के मुताबिक यह चर्च राजनीति में खुलकर हिस्सा लेता है, यह घोर साम्यवादविरोधी चर्च है, और यह शैक्षणिक, राजनीतिक, और कारोबारी संगठनों से भी जुड़ा रहता है। यह चर्च उत्तर और दक्षिण कोरिया को एक करने के राजनीतिक अभियान में भी लगे रहता है, और यह अपने कोरियाई और जापानी अनुयाईयों के बीच बड़े-बड़े सामूहिक विवाह करवाता है ताकि दोनों देशों के बीच एकता बढ़ सके।
लेकिन इस चर्च पर अधिक लिखने का हमारा इरादा नहीं है। हम सिर्फ एक ऐसी खतरनाक नौबत के बारे में लिखना चाहते हैं जिसकी राजनीतिक सरगर्मी से उसके धार्मिक पहलू का नुकसान हो रहा है, और उसके साथ संबंधों को लेकर एक देश की सत्तारूढ़ पार्टी तोहमतें झेल रही है, और उसके मंत्रियों को बर्खास्त करना पड़ रहा है। और तो और अभी कातिल का शिकार बने पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एब के भाई को भी मंत्री पद खोना पड़ा क्योंकि जनता इस चर्च को लेकर बौराई हुई है। जापान की इन बातों से दुनिया के बाकी देशों को भी सबक लेना चाहिए कि धर्म और राजनीति का घालमेल लोगों को कहां ले जा सकता है। अभी तक हमने इस्लामिक आतंकी संगठनों की दुनिया भर में हिंसक वारदातें देखी हैं, और म्यांमार और श्रीलंका जैसे देशों में बौद्ध लोगों की की गई हिंसा के शिकार मुस्लिमों और तमिलों को भी देखा है। हिंदुस्तान में हिंदू हिंसक संगठनों की जगह-जगह की जा रही हिंसा बीच-बीच में सामने आते ही रहती है। इजराइल में यहूदियों की कट्टरता पूरी तरह से फिलिस्तीन पर हो रहे जुल्मों के साथ रहती है।
दुनिया में धर्म का इतिहास हमेशा से हिंसक रहा है। एक ही धर्म के भीतर अलग-अलग सम्प्रदायों के लोग एक-दूसरे को मारने में भी लगे रहते हैं। ईरान से लेकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक हर कहीं मुस्लिमों के बीच एक-दूसरे को सम्प्रदायों के नाम पर मारने की होड़ लगी रहती है। हिंदुस्तान का पुराना इतिहास बताता है कि किस तरह अपने आप के शांतिप्रिय होने का दावा करने वाले हिंदू और बौद्ध सम्प्रदायों के बीच एक-दूसरे के सिर काटने का मुकाबला चलता था। इसलिए आज जब जापान के इन ताजा विवादों से यह बात सामने आ रही है कि किस तरह धर्म और राजनीति, धर्म और कारोबार का घालमेल न सिर्फ जानलेवा हो सकता है, बल्कि वह देश के लोगों के भीतर ऐसे धर्म के लिए नफरत भी खड़ी कर सकता है।
खासकर हिंदुस्तान के संदर्भ में इस बात को समझने की जरूरत है क्योंकि यहां पर आज सत्ता की मेहरबानी से, हिंदुत्व के नाम पर कई तरह की हिंसा चल रही है, देश में हिंदू-मुस्लिम विभाजन किया जा रहा है, मुस्लिमों के आर्थिक बहिष्कार का फतवा दिया जा रहा है, हिंदू धर्म और योग के नाम पर देश का एक सबसे बड़ा कारोबार खड़ा किया जा चुका है। भारत में आज हिंदुत्व के आक्रामक संस्करण को राजनीति, कारोबार, लोकतंत्र के संस्थानों सभी पर लादा जा रहा है। इस देश के लोगों को जापान के इन विवादों को कुछ अधिक ध्यान से देखना चाहिए कि वहां जब धर्म अखंड कोरिया, अखंड जापान-कोरिया बनाने की मुहिम में इस तरह लग गया है कि उससे जनता को नफरत होने लगी है, और प्रधानमंत्री को इस चर्च से जुड़े मंत्रियों को बर्खास्त करना पड़ा है। लोगों के लिए भी यह सोचने का मौका है कि जिंदगी में धर्म का महत्व कितना होना चाहिए, और इसमें से कितना हिस्सा निजी आस्था की तरह रहना चाहिए और उसका कितना हिस्सा सार्वजनिक जीवन का रहना चाहिए। लोग जब दुनिया के इतिहास से सबक लेने की बात करते हैं, तो उसका मतलब महज इतिहास से सबक लेना नहीं रहता, वह दुनिया के दूसरे हिस्सों के वर्तमान से भी सबक लेने का रहता है। देखें कि कुछ देशों के धर्म के हिंसक या राजनीतिक पहलुओं से बाकी देशों के लोग क्या सबक लेते हैं।
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कांग्रेस छोडऩे वाले पार्टी के एक सबसे पुराने और बड़े नेता गुलाम नबी आजाद पर पार्टी नेताओं के हमले का पहला दौर हो चुका है, और कांग्रेस की कल की प्रेस कांफ्रेंस इस मायने में कुछ गलत होते दिख रही है कि आज गुलाम नबी आजाद ने कश्मीर में नई पार्टी बनाने का ऐलान किया है, और कहा है कि वे भाजपा में नहीं जा रहे। कल ही कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने तीखे शब्दों में कहा था कि गुलाम नबी आजाद का डीएनए मोदीफाईड हो गया है। कांग्रेस पार्टी का हक बनता था कि पूरी जिंदगी उसके भीतर महत्व पाने वाले आजाद के इस तरह आरोप लगाकर जाने के बाद उनके खिलाफ मनचाही बातें की जाएं, उन्हें धोखेबाज करार दिया जाए, यह भी कहा जाए कि दिल्ली में बंगला बने रहने के लालच में उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ी है। आने वाले दिनों में गुलाम नबी आजाद के खिलाफ और भी सौ किस्म की बातें हो सकती हैं। उसमें भी कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि राजनीति में साथ छोडक़र जाने वाले अगर आरोप लगाते हुए जाते हैं, तो उनके खिलाफ भी आरोप लग सकते हैं।
लेकिन फिलहाल हम गुलाम नबी आजाद नाम के इंसान से परे, उनकी कही हुई बातों पर चर्चा करना चाहते हैं जो कि महज उनके दिमाग में ही नहीं है, बहुतों के दिमाग में है। दो बरस पहले जिस तरह कांग्रेस के 23 प्रमुख नेताओं के, जी-23 समूह ने सोनिया गांधी को एक चिट्टी लिखकर पार्टी की दशा और दिशा पर सवाल खड़े किए थे, कुछ मांगें रखी थीं, और कुछ सलाह दी थी, उसमें आजाद अकेले नहीं थे। उस चिट्ठी में दस्तखत करने वाले लोगों मेें से दो-चार अब पार्टी में नहीं हैं, और एक-दो शायद पार्टी के पदाधिकारी बना दिए गए हैं, लेकिन उस चिट्ठी पर अफसोस जाहिर करने वाले भी कोई नहीं है। जिन्होंने उसे लिखा था वे उसके साथ कायम हैं। उस चिट्ठी पर उस वक्त इसी जगह पर लिखना हो चुका था, इसलिए आज उसे दुहराने के बजाय आज गुलाम नबी आजाद के उठाए गए मुद्दों पर चर्चा की जानी चाहिए। इन मुद्दों पर चर्चा आजाद के किसी हक को लेकर नहीं होनी चाहिए, बल्कि कांग्रेस पार्टी के भले के लिए बात होनी चाहिए। और ईमानदारी की बात तो यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव को हारने के बाद राहुल गांधी ने जिस तरह पार्टी और अपने खुद के भले के लिए अध्यक्ष पद छोड़ा था, और उनके परिवार से बाहर के किसी को अध्यक्ष बनाने की मांग की थी, उस पर पार्टी के ही बहुत से चापलूस नेताओं ने अमल नहीं होने दिया। उसका नतीजा आगे देखने मिला जब कांग्रेस ने एक-एक करके तकरीबन तमाम राज्य खो दिए, और अपनी बुनियाद, उत्तरप्रदेश में तो अब उसका नामलेवा भी नहीं दिखता है। ऐसी नौबत में भी अगर आज आधी सदी पार्टी में गुजारने वाले, छोड़क़र जा रहे एक नेता के उठाए मुद्दों को अगर उसके नाम की तख्ती सहित कचरे की टोकरी में डाल दिया जाएगा, तो पार्टी को न अपने भविष्य की फिक्र है, न ही अपने वर्तमान की।
गुलाम नबी आजाद ने जो लिखा है, वह बात कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता बंद कमरों में करते हैं, और जब उन्हें घुटन अधिक होती है, किसी दूसरी पार्टी में संभावना अधिक दिखती है, तो वे वहां भी चले जाते हैं। भारत की आज की राजनीति में इस आवाजाही में कुछ भी अटपटा नहीं है, और हो सकता है कि कांग्रेस से अभी लोगों का जाना जारी भी रहे। इसलिए भी इस पार्टी को अपने बचे हुए जनाधार, बचे हुए नेताओं, बची हुई इज्जत, और बची हुई संभावना की फिक्र करते हुए आजाद की लिखी बातों पर सोचना चाहिए। यह कहते हुए हम पल भर के लिए भी यह नहीं मानते कि कांग्रेस के भीतर के जिस चापलूस और चाटुकार गिरोह का आजाद ने विरोध किया है, वे खुद भी संजय गांधी के वक्त से ऐसे ही गिरोह के सदस्य नहीं थे। लेकिन पार्टी छोड़ते वक्त श्मशान वैराग्य की तरह, या कि निकलते हुए चेहरा छुपाने के लिए तोहमतों का जो नकाब उन्होंने ओढ़ा है, उस पर चर्चा कांग्रेस को अपने भले के लिए करनी चाहिए, गुलाम नबी आजाद तो अपने भले की फिक्र खुद कर लेंगे।
उन्होंने चिट्टी में लिखा है कि कांग्रेस आज अपरिपक्व लोगों के हाथों में है, और इसकी सबसे बड़ी मिसाल है कि राहुल गांधी ने मीडिया के सामने (मनमोहन सिंह सरकार के) एक सरकारी अध्यादेश को फाडक़र फेंका था, जिसे कि कांग्रेस के अनुभवी नेताओं ने गहन विचार-विमर्श करके तैयार किया था। उन्होंने इस हरकत को बचकाना करार देते हुए कहा- इस हरकत की वजह से प्रधानमंत्री और भारत सरकार की गरिमा को भारी ठेस पहुंची। आजाद की लिखी हुई यह बात थोड़ी सी अधूरी भी है। वह अध्यादेश अकेले कांग्रेस पार्टी का नहीं था, वह यूपीए मंत्रिमंडल द्वारा मंजूर था जिसमें दूसरी पार्टियां भी शामिल थीं, और किसी भी एक पार्टी के किसी भी नेता को उसे फाडक़र फेंकने का हक नहीं था, जिसके बाद कि उसकी इस मनमानी को सरकार को मानना भी पड़ा था। यह पूरे गठबंधन का अपमान था।
लोगों को यह याद रहना चाहिए कि 2019 का आम चुनाव हारने के बाद जब कांग्रेस पार्टी के भीतर एक चिंतन शिविर करने की बात उठी, तो राजस्थान में मई के महीने में हुए इस आयोजन में उसका नाम ही बदलकर नवसंकल्प चिंतन शिविर कर दिया गया था। जरूरत चिंतन की थी, लेकिन आयोजन को नवसंकल्प का मौका बना दिया गया था, उसमें हारे हुए चुनाव के बारे में कोई भी चर्चा नहीं हुई थी, बस आगे क्या-क्या करना है वही बात हुई थी। लोगों को यह भी याद होगा कि उसमें राहुल गांधी ने बिना किसी प्रसंग के क्षेत्रीय पार्टियों के खिलाफ बहुत कुछ कहा था, और उससे कांग्रेस के साथीदल हक्का-बक्का भी रह गए थे।
गुलाम नबी आजाद ने साफ-साफ लिखा है कि सोनिया गांधी महज नाम की अध्यक्ष हैं, और सारे महत्वपूर्ण फैसले राहुल गांधी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब पार्टी के 22 बड़े नेताओं ने पार्टी की बदहाली की तरफ सोनिया गांधी का ध्यान खींचने के लिए चिट्ठी लिखी, तो चाटुकारों की मंडली ने उन पर हमला बोला, उन्हें विलेन बनाने की कोशिश की, बहुत बुरी तरह अपमानित किया गया, इन्हीं के इशारे पर जम्मू में उनका जनाजा निकाला गया, और जिन लोगों ने यह काम किया उनकी तारीफ पार्टी के महासचिवों और राहुल गांधी ने की। उन्होंने गांधी परिवार के लिए कानूनी मामले लडऩे वाले पार्टी के एक बहुत पुराने और वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल पर भी चापलूसों द्वारा हमला करने का जिक्र चिट्ठी में किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि यह दुर्दशा इसलिए हुई क्योंकि पार्टी के ऊपर एक ऐसे आदमी (राहुल गांधी) को थोप दिया गया है जो गंभीर नहीं है।
इन बातों को गुलाम नबी आजाद के दस्तखत से हटाकर देखें, तो इनमें कुछ भी नाजायज और अटपटा नहीं है। कांग्रेस पार्टी अगर यह कहती है कि वह ऐतिहासि चुनौती से गुजर रही है, गरीबों के लिए लड़ रही है, साम्प्रदायिकता और तानाशाही के खिलाफ लड़ रही है, और ऐसे में पार्टी छोडक़र जाना इन तमाम सिद्धांतों से गद्दारी है, तो पार्टी को यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी ‘गद्दारी’ की नौबत न आने देने के लिए उसने क्या किया है? जी-23 नेताओं ने पार्टी को जो चिट्ठी लिखी उसकी तकरीबन तमाम ही जायज बातों में से किस पर कुछ किया गया? अभी-अभी एक अलग इंटरव्यू में कांग्रेस के एक और बड़े नेता पृथ्वीराज चव्हाण ने कहा कि उन्हें कई सालों से राहुल गांधी से मिलने का समय नहीं मिल पाया है। कुछ ऐसी ही बात पंजाब के मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कही थी। अब अगर बिना किसी ओहदे पर रहते हुए अगर पार्टी के तमाम फैसले राहुल गांधी ही कर रहे हैं, और वे बरसों तक पार्टी के बड़े नेताओं को मिलने का समय भी नहीं दे रहे हैं, वे नियमित रूप से अनियमित रहने वाले पार्टी नेता हैं, तो ऐसे में कोई किस उम्मीद से इस कांग्रेस में रह सकते हैं? आज भारत की चुनावी राजनीति ओवरटाईम करने वाले मोदी-शाह के मुकाबले की है, और यह राजनीति पार्टटाईम काम से नहीं चल सकती है।
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झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को लेकर ऐसी खबरें हैं कि चुनाव आयोग ने उन्हें भ्रष्ट आचरण का दोषी पाकर विधानसभा की उनकी सदस्यता खारिज कर देने की सिफारिश की है, या उन्हें अपात्र घोषित कर दिया है। चुनाव आयोग को यह मामला झारखंड के राज्यपाल रमेश बैस ने भेजा था, और खबरें हैं कि आयोग ने सीलबंद लिफाफे में अपना फैसला राज्यपाल को भेजा है जो कि अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है। इस बीच अलग से खबरें आ रही हैं कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपने विधायकों की बैठक लेना शुरू कर दिया है। ऐसी चर्चा है कि अगर उनके हटने की नौबत आती है, तो वे अपनी पत्नी को गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री बना सकते हैं। फिलहाल हम यहां इस बढ़ते और बदलते हुए घटनाक्रम पर नहीं लिख रहे हैं, बल्कि उन वजहों पर लिख रहे हैं जिनकी वजह से यह नौबत आई है।
देश के कुछ विपक्षी राज्यों को लेकर हाल के बरसों में यह चर्चा बहुत बुरी तरह बढ़ी है कि केन्द्र की मोदी-सरकार की अगुवाई में इंकम टैक्स, ईडी, और सीबीआई जैसी एजेंसियां लगातार विपक्षी नेताओं को घेरती हैं, और वे अगर भाजपा में शामिल हो जाते हैं, तो उनके खिलाफ जांच थम भी जाती है। कल ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने ऐसे कई भूतपूर्व गैरभाजपाई नेताओं के नाम गिनाए जिनके खिलाफ बड़े-बड़े मामले दर्ज हुए, लेकिन वे भाजपा में आ गए, तो उन मामलों को इन्हीं एजेंसियों ने किनारे धर दिया। लेकिन ये आरोप पिछले कई बरसों से लग रहे हैं, इसलिए आज यहां पर एक दूसरे पहलू पर चर्चा करने की जरूरत है।
हमने अभी कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के मामले में देखा कि ममता बैनर्जी के एक विवादित मंत्री की एक महिला मित्र के दो मकानों से 50 करोड़ रूपये की नगदी बरामद हुई। यह रकम अविश्वसनीय किस्म की है, और किसी नेता से जुड़े मामलों में इतनी बड़ी बरामदगी देश में पहली बार हुई। ममता के कई दूसरे मंत्री और नेता पिछले बरसों में चिटफंड कंपनियों के मामलों में फंसे, और फिर उनमें से कुछ भाजपा में जाकर राहत हासिल पाने में कामयाब हुए। लेकिन यह बात तो अपनी जगह थी ही कि वे लोग ऐसे मामलों में शामिल थे। खुद ममता बैनर्जी देश में सबसे अधिक सादगी से जीने वाली नेता हैं, लेकिन उनके करीबी सत्तारूढ़ नेता मोटी कमाई के काम में लगे मिले हैं, और मंत्री रहते हुए अभी कुछ हफ्ते पहले जो गिरफ्तारी हुई है, और जितनी रकम मिली है, वह ममता बैनर्जी की राष्ट्रीय छवि और संभावना दोनों को बर्बाद करने का सामान भी है।
अब महाराष्ट्र के बहुत से नेताओं को देखें, तो संजय राऊत जैसे शिवसेना के एक सबसे दिग्गज नेता के बारे में वहां की जमीन को लेकर जिस तरह के घोटाले की खबरें आ रही हैं, वे संजय राऊत और शिवसेना दोनों की साख को खराब करती हैं। यह पूरी तरह से मुमकिन है कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां छांट-छांटकर भाजपा के विरोधियों के दरवाजे जा रही हैं, लेकिन इस बात को भी समझने की जरूरत है कि क्या ये एजेंसियां किसी ईमानदार नेता के घर भी जा रही हैं? हेमंत सोरेन से जुड़े हुए कुछ लोगों पर कुछ महीने पहले भी छापे पड़े थे, अब जिस मामले को लेकर चुनाव आयोग से उनकी अपात्रता की चर्चा है वह मामला भ्रष्ट आचरण का है जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए एक खदान अपने ही नाम आबंटित कर ली, जो कि बहुत बचकाने किस्म का लालच था, और बहुत ही सतही दर्जे की बेवकूफी भी थी। कोई व्यक्ति कुर्सी पर रहते हुए अपने को ही कुछ आबंटित कर दे, तो वह तो भ्रष्ट आचरण है ही। अब चुनाव आयोग केन्द्र सरकार की एक एजेंसी नहीं है, और उसने उसे मिली हुई शिकायत पर यह कार्रवाई अगर की है, तो हेमंत सोरेन की एक गलती, या उसके एक गलत काम की वजह से ही ऐसा हो पाया है।
हम राजनीतिक बदले की भावना से अपने से असहमति रखने वाले लोगों पर केन्द्र सरकार की कार्रवाई से इंकार नहीं कर रहे, लेकिन ऐसे असहमत नेताओं में से जो भ्रष्टाचार में शामिल हैं, या दूसरे किस्म के जुर्म में शामिल हैं, वे अपने आपको कुछ या बहुत हद तक खतरे में तो खुद ही डालते हैं। अब इसी झारखंड की चर्चा करें तो इसी मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता शीबू सोरेन को 2006 में अपने ही एक भूतपूर्व निजी सहायक के अपहरण और कत्ल के मामले में कुसूरवार पाया गया था। वे उस समय मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में कोयला मंत्री थे, और देश के इतिहास में पहली बार एक केन्द्रीय मंत्री को हत्यारा करार दिया गया था। उन्हें उम्रकैद सुनाई गई थी, और अदालत ने उन्हें जमानत भी नहीं दी थी। लेकिन जल्द ही हाईकोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया था। उनके साथ और भी कई तरह के विवाद जुड़े हुए थे, और उस वक्त तो वे केन्द्रीय मंत्री थे, और जांच सीबीआई ने ही करके उन्हें हत्या में शामिल साबित किया था।
बगल के बिहार में लालू यादव कई मामलों में सजा पाकर, इलाज की छुट्टी पर अभी घर बैठे हैं, कुछ और मामलों में उन्हें सजा होने के आसार भी हैं, और यह सब उनके अपने ही कुकर्मों की वजह से हुआ है। इसलिए उन पर अगर छापे पड़ रहे हैं, तो वे बदनीयत तो हो सकते हैं, लेकिन उनका खतरा तो लालू यादव और उनके परिवार का खुद ही का खड़ा किया हुआ है। ऐसा हाल महाराष्ट्र में एनसीपी के कई नेताओं का है, या दूसरे कई प्रदेशों में भी है। जब सत्ता की ताकत लोगों को पकड़ में आने लायक परले दर्जे के भ्रष्टाचार करने का हौसला भी देती है, तो फिर वे अपने आपको आसान निशाना बनाकर पेश कर देते हैं, और उसके बाद यह महज वक्त की बात रहती है कि उनसे असहमत और सत्तारूढ़ राजनीतिक ताकत कब उनके घर अपनी एजेंसियों को पहुंचाती है। इसी देश की राजनीति में कई ऐसे मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री भी रहे हैं जिनके बारे में किसी भ्रष्टाचार की कल्पना भी किसी ने नहीं की, और जो कार्यकाल खत्म होने के बाद एक रिक्शे में सामान लादकर सरकारी घर छोडक़र चले गए थे।
हम किसी केन्द्र या किसी राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा बदनीयत से की जा रही कार्रवाई का बचाव करना नहीं चाहते, लेकिन सार्वजनिक जीवन के लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि वे क्या भ्रष्टाचार से जरा भी दूर नहीं रह सकते? और आज जब देश में असहमति के खिलाफ जांच एजेंसियों का माहौल बना हुआ है, तो यह भी सोचने की जरूरत है कि क्या ऐसी जांच और कार्रवाई के दबाव में देश में भ्रष्टाचार कुछ कम भी हो सकता है? यह एक अलग बात है कि टैक्स और कालेधन से जुड़े हुए मामलों की जांच और उन पर कार्रवाई करने की एजेंसियां सिर्फ केन्द्र सरकार के हाथ हैं, और वहां सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक विरोधी ही निशाने पर हैं, लेकिन राज्य सरकारों के हाथ भी कुछ दूसरे किस्म के भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के लिए पुलिस और कुछ मामूली एजेंसियां हैं। राजनीतिक दलों के बीच पसंद और नापसंद, सहमति और असहमति पर टिकी ऐसी जांच और कार्रवाई देश में राजनीतिक कटुता तो बढ़ा रही हैं, लेकिन हो सकता है कि इससे राजनीति में संगठित और व्यापक भ्रष्टाचार घट भी सके। दिक्कत यही रहेगी कि केन्द्र और अधिकतर राज्यों में जिस एक पार्टी की सरकार है, उसके भ्रष्ट लोगों पर कोई कार्रवाई मुमकिन नहीं हो सकेगी। लेकिन लोकतंत्र में हर समस्या का तो कोई इलाज भी नहीं है। अपने को नापसंद भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई होती रहे, और अपने को पसंद भ्रष्ट बचे रहें, यह आज भारतीय राजनीति का एक आम नजारा हो गया है, और जांच एजेंसियों की स्वायत्तता के बिना यह नजारा बदलने वाला भी नहीं है।
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योरप के बारे में डरावनी रिपोर्ट है कि वह पिछले पांच सौ साल का सबसे भयानक सूखा झेल रहा है। यूरोपियन यूनियन की रिसर्च रिपोर्ट कहती है कि फसलों का इलाका घटते चल रहा है, बिजली उत्पादन घटते चल रहा है, जंगलों की आग बढ़ते जा रही है, और अंधाधुंध बढ़ी हुई गर्मी से हवाई आवाजाही पर असर पड़ा है, हजारों लोग बेघर हुए हैं, और गर्मी और लू की वजह से सैकड़ों मौतें हुई हैं। यह रिसर्च रिपोर्ट कहती है कि करीब आधा योरप चेतावनी जारी करने के स्तर पर चल रहा है। बिजली से लेकर अनाज तक का उत्पादन इस गर्मी और सूखे की वजह से गिर गया है। नदियां सूख गई हैं, और कई बड़ी नदियों में पानी की कमी से सैकड़ों बरस से चले आ रहा जल परिवहन भी रोक दिया गया है। बांधों में पानी इतना कम है कि पनबिजली का उत्पादन एक चौथाई तक कम हो गया है। साठ हजार हेक्टेयर से ज्यादा जंगल जल चुके हैं। पिछले दस बरस में जंगल हर बरस जितने जलते थे, उससे यह साढ़े चार गुना अधिक है।
अब योरप से बिल्कुल परे के एक दूसरे इलाके को देखें तो चीन से पिछले कुछ दिनों से खबर आ रही है कि वहां के बहुत से बड़े शहरों में शॉपिंग मॉल बंद करवा दिए गए हैं, पर्यटन केन्द्र बंद कर दिए गए हैं, कारखानों में उत्पादन बंद कर दिया गया है, और शहरी इलाकों में भी बिजली काट दी गई है, क्योंकि नदियां सूख गई हैं, बांधों में पानी नहीं है, और पनबिजली बन नहीं पा रही है। चीन में यह 61 साल की सबसे भयानक गर्मी बताई जा रही है, और इसकी वजह से बिजली की खपत भी बढ़ी है, और नदियां सूखने से बिजली का उत्पादन गिरा है। डेढ़ सौ से अधिक शहरों में बुरी लू की चेतावनी जारी की गई है, और लोगों को घर पर ही रहने कहा गया है। कोरोना लॉकडाउन की वजह से महीनों से चीन के कई शहरों की जिंदगी थमी हुई थी, कारोबार रूका हुआ था, और अब वहां खेती से लेकर कारखाने तक, सभी कुछ बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। चीन की सबसे लंबी, और दुनिया की तीसरे नंबर की लंबी नदी, यांग्त्जी से 40 करोड़ लोगों को पानी मिलता है, और खेतों को भी, लेकिन पिछले पांच बरस में इसमें पानी पचास फीसदी से भी कम रह गया है, जो कि पिछले डेढ़ सौ बरस का रिकॉर्ड है।
लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले जब ब्रिटेन के ग्लास्गो में क्लाइमेट समिट हुई थी तो दुनिया के बहुत से देशों के शासन प्रमुख वहां पहुंचे थे, और वहां इस बात पर बड़ी फिक्र हुई थी कि दुनिया का तापमान जो लगातार बढ़ते चल रहा है, उसकी बढ़ोत्तरी को रोकना जरूरी है, वरना दुनिया में बड़ी तबाही आएगी जिसे झेल पाना मुश्किल होगा। लेकिन जिस तरह श्मशान वैराग्य के माहौल में बहुत सी बातें की जाती हैं, उसी तरह देशों ने ग्लास्गो में तरह-तरह के वायदे किए, घोषणापत्र पर दस्तखत किया, और अपने-अपने देश लौटकर सब भूल गए। अमरीका में पर्यावरण को बचाने के लिए वाइडन सरकार जो कोशिश कर रही थी, उस पर वहां के सुप्रीम कोर्ट ने ही रोक लगा दी है। इस अदालती फैसले को बहुत ही निराशाजनक कहा जा रहा है, लेकिन उसके खिलाफ कुछ इसलिए नहीं किया जा सकता कि वहां का सुप्रीम कोर्ट पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी की सोच वाले जजों के बहुमत का हो चुका है, और वहां से किसी सुधारवादी, प्रगतिशील, उदारवादी फैसले की कोई उम्मीद नहीं की जा रही है।
लेकिन सिर्फ योरप, चीन, और अमरीका की फिक्र करना आज का मकसद नहीं है। आज हिन्दुस्तान के कितने ही प्रदेशों में जैसी बुरी बाढ़ आई हुई है, बादल फटने से उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में जितनी तबाही हो रही है, वह सब बेकाबू लग रहा है। एक तरफ तो पिछले कई महीनों से हिन्दुस्तान में चल रही बेमौसम की अंधाधुंध गर्मी ने गेहूं जैसी परंपरागत फसल को तबाह किया है, तो दूसरी तरफ आने वाले बरसों में यह गर्मी कम होते नहीं दिख रही है, और इस पूरी सदी में यूपी, राजस्थान, और गुजरात में बहुत बुरी गर्मी पडऩे का मौसम का अंदाज सामने आया है। एक तरफ कई प्रदेश बाढ़ से बेहाल हैं, दूसरी तरफ कई प्रदेश भयानक गर्मी और सूखा झेल रहे हैं, ऐसे में मौसम की सबसे बुरी मार भी बढ़ते चल रही है, और वह बार-बार भी हो रही है। फिर मौसम सडक़ के ट्रैफिक जैसा नहीं होता है जिसे कि लालबत्ती दिखाकर रोक दिया जा सके।
लोगों को याद होगा कि पिछले एक बरस में ही इसी योरप में भयानक बाढ़ आई थी जिसमें विकसित देशों के जमे-जमाए शहर तबाह हुए थे। और मौसम की उस एक किस्म की मार से ठीक उल्टे जाकर अब सूखे की मार आ रही है। अब सवाल यह है कि क्या बाढ़ के वक्त का पानी किसी तरह धरती के भीतर बचाने की कोई योजना बनाई जा सकती थी जो कि उस वक्त बाढ़ की मार को कम करती, और आज पानी की जरूरत को? हिन्दुस्तान में नदियों को जोडऩे की एक योजना सुप्रीम कोर्ट तक जाकर वहां के हुक्म से चल रही है, लेकिन उसकी किसी रफ्तार की कोई खबर सुनाई नहीं पड़ती है। पर्यावरण शास्त्रियों और आंदोलनकारियों की एक बड़ी फिक्र उससे जुड़ी हुई यह है कि धरती के ढांचे में फेरबदल करके नदियों को दूसरी तरफ भी कुछ हद तक मोड़ा जाएगा, तो उससे नदियों के प्राणियों की जिंदगी पर कैसा असर पड़ेगा? अभी वह बहस चल ही रही है, नदी-जोड़ योजना से अधिक रफ्तार से चल रही है, लेकिन इसी बीच देश के किसी हिस्से में बाढ़ से तबाही, और किसी दूसरे हिस्से में सूखे से तबाही दोनों साथ-साथ चल रही हैं, और नदियां जोडक़र, पानी मोडक़र संतुलन बनाने के अलावा और कोई रास्ता सूझ भी नहीं रहा है। महाराष्ट्र जैसे कई प्रदेश हैं जहां पर ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी कुओं में उतरकर खतरनाक तरीकों से रोज पानी निकालने में गुजर जा रही है, और असम, बिहार जैसे प्रदेश हैं जहां पर हर बारिश में लोगों की जिंदगी बचाव दल की बोट की वजह से बच पाती है।
हम यहां पर ग्लास्गो के बड़े-बड़े और 2070 तक के वायदों के बारे में अधिक कहना नहीं चाहते, लेकिन इस पर सोचने की जरूरत है कि इंसानों की जिंदगी के लिए पर्यावरण, पेड़ और पशु के साथ-साथ पानी और फसल भी उतने ही जरूरी माने जाएं या नहीं? न सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि दुनिया के हर देश को अंधाधुंध बारिश के दौरान गिरने वाले पानी को जमीन के भीतर डालने की वैज्ञानिक तरकीब पर अमल करना होगा, उसी से बाढ़ घटेगी, समुद्र का जलस्तर बढऩा कम होगा, और अधिक गर्मी के वक्त वह पानी जमीन से निकाला जा सकेगा। दुनिया के अधिक बारिश वाले इलाकों में बंजर जमीनों पर ऐसे विशाल जलाशय बनाने की जरूरत है जो कि पानी को सहेजकर रख सकें, और वह पानी भूजल भंडारों की भरपाई कर सके। सिर्फ यही नुस्खा कोई रामबाण दवा नहीं है, और मौसम में बदलाव के जिम्मेदार बाकी भी बहुत से पहलुओं पर सोचना होगा। कुल मिलाकर यह है कि इन बातों पर चर्चा बढऩी चाहिए, उसे बढ़-बढक़र जागरूकता में तब्दील होना चाहिए, और वह जागरूकता अमल में आनी चाहिए।
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मिजोरम के मुख्यमंत्री जोरमथंगा की बेटी का एक वीडियो खबरों में आया जिसमें वह एक क्लिनिक में डॉक्टर को पीट रही है। समाचार बताता है कि वह बिना समय लिए डॉक्टर से मिलने गई थी, और डॉक्टर ने जब अपाइंटमेंट लेकर आने कहा तो भडक़कर उसने डॉक्टर पर बुरी तरह हमला किया। इसके खिलाफ पूरे मिजोरम के डॉक्टरों ने विरोध करते हुए काली पट्टी लगाकर काम किया, और आईएमए ने बयान जारी किया। यह सब देखते हुए मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से इस डॉक्टर से माफी मांगी, और कहा कि मेरी बेटी के व्यवहार के बचाव में मैं कुछ कहना नहीं चाहता, हम जनता और डॉक्टर से माफी मांगते हैं। उन्होंने लिखा कि उनकी बेटी पर कठोर कार्रवाई न करने को लेकर वे आईएमए के आभारी हैं। इसके पहले मुख्यमंत्री के बेटे ने भी सोशल मीडिया पर माफी मांगी थी कि मानसिक तनाव की वजह से उनकी बहन बेकाबू हो गई थीं।
मिजोरम देश के उन बेहतर प्रदेशों में से है जहां कानून का राज कुछ अधिक कड़ाई से चलता है, और इसीलिए मुख्यमंत्री-परिवार की तरफ से ऐसे माफीनामों की नौबत आई है। शायद वहां पर शराफत के पैमाने भी थोड़े अलग होंगे, और जनता शायद अधिक संवेदनशील होगी। वरना ऐसी ही हरकत देश के कई दूसरे प्रदेशों में होकर गुजर गई होती, और पिटा हुआ डॉक्टर खुद छुपते रहता कि मीडिया उससे कोई बयान न निकलवा ले। लोगों को याद होगा कि किस तरह मध्यप्रदेश के इंदौर में भाजपा के एक सबसे बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय के विधायक बेटे ने क्रिकेट के बल्ले से खुलेआम एक म्युनिसिपल अफसर को पीटा था जो कि एक अवैध निर्माण गिराने वाले दस्ते के साथ गया था। क्रिकेट बैट से बार-बार मारते हुए इसका साफ वीडियो चारों तरफ आया था, तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उसे गिरफ्तार किया था, जमानत पर छूटने पर भाजपा ने उसका ऐसा जमकर स्वागत किया था कि उसमें हवाई फायर तक किए गए थे। दूसरी तरफ जब इस मामले की सुनवाई हुई तो इसी अफसर ने अदालत में यह बयान दिया कि वह नहीं देख पाया कि उस पर किसने हमला किया। देश के अधिकतर हिस्सों में मिजोरम जैसी माफी कम दिखेगी, इंदौर की तरह पिटने के बाद की मुकरी हुई गवाही अधिक दिखेगी, क्योंकि सत्ता का आतंक कम नहीं रहता है।
आज इस मुद्दे पर लिखने की बात इसलिए सूझी कि अभी-अभी योरप के एक देश फिनलैंड की खबर आई थी जिसमें वहां की काफी कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री सना मारिन कुछ नशे की हालत में एक पार्टी में खुलकर डांस करते दिख रही हैं, वहां के विपक्ष ने उनके व्यवहार को लेकर आपत्ति की, और यह शक जाहिर किया कि हो सकता है कि उन्होंने ड्रग्स (प्रतिबंधित नशा) भी ली हो। इसके जवाब में 36 बरस की इस प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक घोषणा की कि वे आरोपों का जवाब देने के लिए मेडिकल जांच करवा रही हैं जिससे यह साफ हो जाएगा कि उन्होंने ड्रग्स ली थीं, या नहीं। लेकिन यह अकेली बात नहीं है जो कि सार्वजनिक जीवन में जवाबदेही दिखा रही है। एक और खबर अमरीका से आई है जहां अमरीकी निर्वाचित संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी के पति पॉल पेलोसी को शराब के नशे में गाड़ी चलाने के आरोप में पांच दिन जेल की सजा सुनाई गई है। उन्होंने नशे में गाड़ी चलाते हुए उनके घर के पास ही खड़ी एक दूसरी गाड़ी को टक्कर मार दी थी जिससे दोनों गाडिय़ां टूट-फूट गई थीं। 82 बरस के पॉल पेलोसी को अब कार चलाते हुए हर बार कार के उपकरण पर अपनी सांस का नमूना देना होगा जिससे यह पता लगेगा कि उन्होंने शराब तो नहीं पी रखी है, और अगर वे नशे में मिले तो गाड़ी शुरू नहीं होगी।
क्या हिन्दुस्तान में कोई लोकसभा अध्यक्ष के जीवनसाथी के बारे में ऐसी कल्पना कर सकते हैं? इस देश में तो सत्तारूढ़ छोटे से नेताओं के जुर्म भी ढांकने के लिए पुलिस आमतौर पर अपनी पूरी ताकत से टूट पड़ेगी, और जरूरत पडऩे पर किसी दूसरे बेगुनाह को तलाशकर, छांटकर उसे मुजरिम बताकर पेश भी कर दिया जाएगा।
इन तीन-चार घटनाओं से दो बातें सामने आती हैं, एक तो यह कि कानून लागू करने वाली पुलिस अगर अमरीकी कड़ाई वाली हो, तो छोटे-बड़े किसी भी तरह के लोग जुर्म करने से पहले हिचकेंगे। संसद की अध्यक्ष के पति को आखिर पकड़ा तो किसी सिपाही ने ही होगा, जिसे यह भी मालूम हो चुका होगा कि वह किसका चालान कर रहा है, किसे जेल ले जा रहा है। यहां पिछले बरस कोरोना लॉकडाउन के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री निवास पर हुई दारू पार्टी की जांच करने वाली लंदन पुलिस को भी याद करना ठीक होगा जिसने कि जांच के बाद पार्टी में मौजूद लोगों पर जुर्माना भी लगाया। क्या हिन्दुस्तान में कोई किसी थानेदार के घर पर भी हुई पार्टी पर जुर्माने की कल्पना कर सकते हैं? दूसरी बात यह कि जहां नेताओं के मन में जनता के प्रति जवाबदेही और सम्मान रहता है, वहां पर वे फिनलैंड की प्रधानमंत्री की तरह अपनी खुद की जांच को भी तैयार हो जाते हैं, या मिजोरम के मुख्यमंत्री की तरह खुलकर माफी भी मांग लेते हैं।
हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में लोकतंत्र इतना बदहाल हो चुका है कि हत्यारे और बलात्कारी लोगों को सरकार नाजायज तरीके से रिहा कर रही है, और समाज उन्हें माला पहनाकर, मिठाई खिलाकर उनका स्वागत कर रहा है। हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में कानून और तथाकथित इंसानियत की बस इतनी ही इज्जत रह गई है। एक वक्त था जब इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी और उसके गिरोह की गुंडागर्दी के बारे में जनता पार्टी की सरकार आने पर फिल्म भी बनाई गई, कई किताबें भी लिखी गईं। लेकिन क्या आज सत्ता पर काबिज लोगों की गुंडागर्दी पर खबरें भी दो-चार दिन में दम नहीं तोड़ देती हैं? हिन्दुस्तानी लोकतंत्र सभ्यता में जहां तक भी पहुंचा था, वह बहुत तेज रफ्तार से वापिस जा रहा है। हवा में न सिर्फ साम्प्रदायिकता का हिंसक जहर बढ़ते चल रहा है, बल्कि लोगों के बीच कानून का किसी भी तरह का सम्मान तेज रफ्तार से खत्म हो रहा है। यह देश खुद दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक ताकत बनने का दंभ भर रहा है, लेकिन यहां लोकतंत्र, सभ्य जीवन, और तथाकथित इंसानियत के बुनियादी पैमानों पर भी लगातार गिरावट जारी है, और सबसे बड़ी बात यह कि यह गिरावट न सिर्फ राजनीतिक सत्ता की ताकत से हो रही है, बल्कि इसमें न्यायपालिका और मीडिया की ताकत से भी गिरावट हो रही है।
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दुनिया में अपनी शैक्षणिक उत्कृष्टता के साथ-साथ लंबे समय से वामपंथी रूझान के लिए पहचाने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की साख बड़ी ऊंची है। हाल के बरसों में किसी भी वामपंथी रूझान के खिलाफ देश भर में चलाए जा रहे अभियान के तहत जेएनयू में भी केन्द्र सरकार की तरफ से दक्षिणपंथी कोशिशें हुईं, और वहां कुलपति से लेकर कोर्स तक कई फैसलों पर सरकारी रूझान की झलक दिखाई दी। लेकिन अभी मोदी सरकार की मनोनीत कुलपति प्रोफेसर शांतिश्री धुलिपुडी पंडित का एक लंबा व्याख्यान अचानक खबरों में आया है जो कि दक्षिणपंथी लोगों में खासी असुविधा पैदा कर सकता है। वे दिल्ली में केन्द्र सरकार की एक अम्बेडकर व्याख्यान माला के दौरान ‘जेंडर जस्टिस पर अम्बेडकर के विचार : समान नागरिक संहिता की व्याख्या’ विषय पर बोल रही थीं। उनकी बातों को काफी खुलासे से यहां लिखना पड़ेगा जो कि खबर सरीखा लगेगा, लेकिन उसके बिना उस पर कोई टिप्पणी करना ठीक नहीं होगा।
वाइस चांसलर शांतिश्री ने कहा कि हिन्दुओं के कोई भी देवता अगड़ी जातियों के नहीं हैं, भगवान शिव भी दलित या आदिवासी रहे होंगे, भगवान जगन्नाथ भी आदिवासी थे, और ऐसी स्थिति में अगर हम (हिन्दू) अभी भी जातियों को लेकर भेदभाव बनाए हुए हैं, तो यह बहुत ही अमानवीय है। उन्होंने भारत की हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था पर तगड़ी मार करते हुए यह कहा है कि हमारे देवताओं की उत्पत्ति को मानव शास्त्र या वैज्ञानिक लिहाज से समझना चाहिए, कोई भी देवता ब्राम्हण नहीं है, सबसे ऊंचा देवता भी क्षत्रिय है। उन्होंने कहा कि भगवान शिव भी एससी या एसटी समुदाय के होंगे क्योंकि वे श्मशान में गले में सांप डालकर बैठते हैं, उनके पास पहनने के लिए कपड़े भी बहुत कम है, मुझे नहीं लगता कि ब्राम्हण श्मशान में बैठ सकते हैं। वाइस चांसलर ने आगे कहा कि लक्ष्मी, शक्ति, या भगवान जगन्नाथ भी मानवविज्ञान के लिहाज से अगड़ी जाति के नहीं हैं, ऐसे में आज समाज इस जाति व्यवस्था को क्यों ढो रहा है?
उन्होंने महिलाओं के बारे में कहा कि मनुस्मृति के अनुसार सभी महिलाएं शूद्र हैं, इसलिए कोई भी महिला ये दावा नहीं कर सकतीं कि वे ब्राम्हण या कुछ और हैं। महिलाओं को जाति केवल पिता या विवाह के जरिये पति से मिलती है, और मुझे लगता है कि ये पीछे ले जाने वाला विचार है। शांतिश्री ने आगे कहा कि महिलाओं के लिए आरक्षण की जरूरत है क्योंकि आज भी देश के 54 विश्वविद्यालयों में से कुल 6 में महिला कुलपति हैं। वाइस चांसलर का मनुस्मृति के बारे में दिया गया यह बयान इस संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए कि अभी-अभी एक हाईकोर्ट महिला जज ने मनुस्मृति को महिलाओं का सम्मान बढ़ाने वाला कहा था। जेएनयू वीसी ने कहा कि कुलपति के लिए कुलगुरू शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए, और वे विश्वविद्यालय कार्य परिषद में यह प्रस्ताव रखेंगी।
लेकिन जेएनयू वीसी का केन्द्र सरकार के कार्यक्रम में समान नागरिक संहिता को लेकर अम्बेडकर के विचारों पर दिया गया यह व्याख्यान इतना मासूम भी नहीं दिख रहा है कि वह हिन्दू धर्म की जाति व्यवस्था पर चोट करने, और मनुस्मृति की आलोचना करने के लिए आयोजित किया गया हो। वाइस चांसलर की आगे की बात इस कार्यक्रम के रूझान को साफ करती है जिसमें वे कहती हैं कि जेंडर जस्टिस के प्रति सबसे बड़ा सम्मान यह होगा कि हम बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की महत्वाकांक्षा के अनुरूप समान नागरिक संहिता लागू करें। उन्होंने मिसाल दी कि गोवा में पुर्तगालियों ने अपने शासन के दौरान इसे सभी धर्मों के लिए लागू किया था, और सभी ने इसे मंजूर कर लिया है, तो बाकी देश में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? उन्होंने कहा कि यह नहीं हो सकता कि देश में अल्पसंख्यकों को सारे अधिकार दे दिए जाएं, लेकिन बहुसंख्यकों को वे सभी अधिकार न मिले। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर ऐसा होता रहा तो एक दिन यह चीज इतनी उल्टी पड़ जाएगी कि इसे सम्हालना मुश्किल हो जाएगा। वाइस चांसलर ने कहा कि अम्बेडकर पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करना चाहते थे, आधुनिक भारत का कोई भी नेता उनके जितने महान विचारक नहीं था।
जैसी कि उम्मीद की जा सकती थी जेएनयू वीसी के व्याख्यान का देवी-देवताओं के ब्राम्हण न होने, और महिलाओं को लेकर मनुस्मृति के खिलाफ कहा हुआ बयान ही सुर्खियों में आया है। खबरें बहुत आसान चीजों को ही, बहुत आकर्षक बातों को ही सुर्खियां बनाती हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि कुलपति की कही हुई इन बातों के भीतर इस आयोजन का मकसद समान नागरिक संहिता को अम्बेडकर की कही बातों से जोडक़र लोगों के सामने दुहराना था, और वह मकसद कामयाब भी रहा है। जेएनयू वीसी को मौजूदा केन्द्र सरकार ने ही मनोनीत किया है इसलिए उनकी विचारधारा को लेकर कोई संदेह करने की जरूरत नहीं है। आज उनसे दूसरी बातों के साथ-साथ समान नागरिक संहिता की जरूरत को बखान करवाना एक राजनीतिक विचारधारा को आगे बढ़ाने का काम भी है, और वह खबरों में जगह पाते हुए केन्द्र सरकार ने ठीक तरीके से करवा दिया है। जब सरकार आयोजक हो, और सरकार की मनोनीत वीसी वक्ता हो, तो इसमें कोई दिक्कत होनी भी नहीं थी। दूसरी बात यह कि जब समान नागरिक संहिता जैसे व्यापक असर वाले एक राजनीतिक इरादे को लागू करना हो, तो कुछ देर के लिए हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था की आलोचना में भी कोई बुराई नहीं है, और मनुस्मृति की महिलाओं पर ज्यादती गिनाने में भी कोई नुकसान नहीं है। जब भारत के आम चुनावों में सभी जातियों के लिए वोटर रहते हैं, और वोटरों में महिलाओं की आधी संख्या रहती है, तो उनकी हिमायती दिखती ऐसी बातें भी किसी नुकसान की न होकर फायदे की ही हैं। इस व्याख्यान से ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार का अगला एक बड़ा फैसला समान नागरिक संहिता का हो सकता है, जो कि भाजपा के राजनीतिक घोषणापत्र की एक पुरानी बात भी है। ऐसे में इसे एक अग्रिम सूचना मानना चाहिए कि सरकार अगले आम चुनाव के पहले एक समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश करेगी, और जिन लोगों को इसकी बारीकियां मालूम हैं, उन लोगों को अभी से इस मुद्दे पर अपने तर्क तैयार कर लेने चाहिए। आज अलग-अलग कई धर्मों के लिए अलग-अलग नागरिक संहिताएं हैं, उन सबको मिलाकर एक करना कई किस्म की जटिलताएं पैदा कर सकता है। खासकर अल्पसंख्यकों की अलग खास धार्मिक पहचान, उनके सांस्कृतिक रीति-रिवाज को समान नागरिक संहिता कुचल सकती है, इसलिए उन्हें और उनके हिमायती लोगों को कागज-कलम लेकर बहस की तैयारी रखनी चाहिए।
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पिछले दस दिनों में हिन्दुस्तान की राजधानी दिल्ली के आसपास के इलाकों से निकले कुछ ऐसे वीडियो आए हैं जिनमें संपन्न तबके की महिलाएं अपनी दौलत और अपनी ताकत का दंभ दिखाते हुए रिहायशी इलाकों के सुरक्षा कर्मचारियों को पीट रही हैं। इसके साथ-साथ वे उन्हें ऐसी गंदी गालियां भी दे रही हैं जिन्हें आमतौर पर मर्दों की जुबान से ही सुना जाता है। ये महिलाएं सिर्फ संपन्नता के नशे में थीं या उन्होंने कोई और भी नशा कर रखा था, इसे वे ही जानें। लेकिन भारत की आम संस्कृति में महिला का सार्वजनिक रूप से ऐसा अश्लील बर्ताव करना भी अटपटा लगता है, और जब संपन्नता की गुंडागर्दी छोटे और मजबूर कर्मचारियों पर हिंसा करती है, तो वह गैरकानूनी तो होता ही है। ताजा मामले में नोएडा में सुरक्षा कर्मचारी को पीटने वाली और अश्लील बर्ताव करने वाली, वीडियो पर कैद महिला को गिरफ्तार करके 14 दिन की हिरासत में भेज दिया गया है। यहां पर हम मर्दों के किए हुए ऐसे ही जुर्म की बात नहीं कर रहे हैं, जिनके बारे में अक्सर ही लिखना हो जाता है, और वे बहुत आम भी हैं। एक महिला का मर्दों के साथ ऐसा करना कोई अतिरिक्त बड़ा जुर्म नहीं है, लेकिन इसमें जिस बात को समझना चाहिए वह संपन्नता से जुड़ी हिंसा की है। एक अकेली महिला तीन-चार वर्दीधारी सुरक्षा कर्मचारियों को मां-बहन की गालियां देते हुए धक्के दे रही है, और अधिक हिंसा करने की धमकी दे रही है, तो उस हिंसक अहंकार को जरूर समझना चाहिए।
आज हिन्दुस्तान में मोबाइल फोन के कैमरों की मेहरबानी से ऐसे सुबूत जुट जा रहे हैं जो कि तरह-तरह के जुर्म, और ज्यादतियों को साबित करते हैं। अगर ये न रहें तो संपन्न तबके के लोगों के खिलाफ छोटे कर्मचारी भला कौन सी शिकायत कहां कर सकते हैं, और उसे किस तरह से साबित कर सकते हैं? इस हिसाब से अगर देखें तो एक छोटे से सामान ने आज समाज के सबसे कमजोर लोगों को भी एक अभूतपूर्व ताकत दे दी है, और वे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की कुछ उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन इन दो-चार महिलाओं के जो वीडियो सामने आए हैं, उनमें से एक वीडियो में वह इलाके के कुत्ते भगाने के खिलाफ सुरक्षा कर्मचारियों को लाठी से पीट भी रही है, और उसे धमकी भी दे रही है कि वह मेनका गांधी को फोन करने वाली है। लोगों को याद होगा कि एक-दो बरस पहले मेनका गांधी के एक सरकारी पशु चिकित्सक को फोन पर धमकाने की रिकॉर्डिंग सामने आई थी जिसमें वे उस सरकारी डॉक्टर को सेक्स से जुड़ी बड़ी असंभव किस्म की हरकतों वाली धमकियां दे रही थीं। मेनका गांधी केन्द्रीय मंत्री और सांसद रहते हुए भी इस तरह की जुबान और धमकियों के लिए जानी जाती हैं, और इसीलिए खुद हिंसा कर रही एक संपन्न महिला गंदी गालियां बकते हुए मेनका गांधी को भी बीच में लाने की बात कहती है।
कुल मिलाकर यह संपन्न तबके का एक ऐसा हिंसक अहंकार है जो कि संपन्न बस्तियों में अलग-अलग कई शक्लों में देखने मिलता है। बीच-बीच में सोशल मीडिया पर महानगरों के कई ऐसे नोटिस दिखते हैं जिनमें बहुमंजिली इमारतों में काम करने वाले लोगों के लिफ्ट इस्तेमाल करने पर मनाही लिखी रहती है। अब पांच-दस मंजिल ऊपर बसे घरों तक काम वाले लोग किस तरह जाएंगे, किस तरह सामान ले जाएंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी इमारतों में जब कामगारों या बाहर से पार्सल लेकर आने वाले लोगों के लिफ्ट इस्तेमाल करने पर रोक रहती है, तो वह मानवाधिकारों के खिलाफ रहती है। हमारा ख्याल है कि इन प्रदेशों के मानवाधिकार आयोगों को ऐसे किसी भी नोटिस पर तुरंत कार्रवाई करना चाहिए, और इमारत का मैनेजमेंट देखने वालों पर जुर्माना लगाना चाहिए।
आम जिंदगी में यही देखने में आता है कि जैसे-जैसे संपन्नता बढ़ती है, वैसे-वैसे इंसानियत घटने लगती है। ये महिलाएं अपने महिला होने की वजह से हिंसा नहीं कर रहीं, ये अपनी संपन्नता की बददिमागी में हिंसा कर रही हैं, और इसे उनकी संपन्नता से ही जोडक़र देखना चाहिए। फिलहाल तो ऐसी एक महिला की गिरफ्तारी से सभी किस्म के संपन्न औरत-मर्दों को थोड़ी सी समझ मिल सकती है कि उनकी बदसलूकी की वीडियो रिकॉर्डिंग उन्हें जेल भेज सकती है, और सोशल मीडिया पर उन्हें बदनाम तो कर ही सकती है। कमजोर तबकों को अपने बराबरी के लोगों का साथ देने के लिए ऐसे वीडियो सुबूत जुटाने की कोशिश करनी चाहिए, जहां कहीं सरकारी अमला ज्यादती करे, या कोई भी ताकतवर अमला कमजोर पर जुल्म करे, उसकी रिकॉर्डिंग करके उसे फैलाना चाहिए, और पुलिस तक भी पहुंचाना चाहिए। अगर ऐसे सुबूत न रहें तो भला कमजोर की बात का कौन भरोसा करे? करोड़ों रूपये के फ्लैट में रहने वाले अरबपति के खिलाफ एक मामूली सुरक्षा कर्मचारी की शिकायत पर शायद जिंदगी भर कोई पुलिस कार्रवाई न करती, लेकिन वीडियो सुबूत सोशल मीडिया पर फैल जाने के बाद इन दोनों के मिलेजुले दबाव ने पुलिस से कार्रवाई करवाई। इसलिए आम लोगों को इन दोनों चीजों की ताकत को अच्छी तरह समझना चाहिए, ऑडियो-वीडियो सुबूत भी जुटाने चाहिए, और उन्हें सोशल मीडिया पर फैलाना भी चाहिए।
अब आम और संपन्न लोगों की इस चर्चा के बीच एक खास आदमी की चर्चा और हो जानी चाहिए। राजस्थान के एक भूतपूर्व भाजपा विधायक ज्ञानदेव आहूजा का एक वीडियो सामने आया है जिसमें वे लोगों के बीच में गर्व से कहते दिख रहे हैं कि उन्होंने अब तक पांच (लोगों को) मारे हैं, लालवंडी में मारा, चाहे बहरोड़ में मारा, अब तक पांच मारे हैं। आहूजा लोगों को कह रहे हैं कि मैंने खुल्लम-खुल्ला छूट दे रखी है कार्यकर्ताओं को कि जो गाय को मारते दिखे, उसे मारो, हम जमानत भी करवाएंगे, बरी भी करवा देंगे। आहूजा जिन दो गांवों का जिक्र कर रहे हैं, उनमें लालवंडी में 2018 में रकबर खान, और बहरोड़ में पहलू खान की भीड़त्या की गई थी। कांग्रेस सांसद दिग्विजय सिंह ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से इस वीडियो सुबूत पर कार्रवाई करने की मांग की थी, और राजस्थान पुलिस ने अभी जुर्म दर्ज कर लिया है। इस सुबूत को देखते हुए राजस्थान भाजपा ने पार्टी को अपने पूर्व विधायक के बयान से अलग कर लिया है, और कहा है कि पार्टी कानून अपने हाथ में लेने के पक्ष में नहीं है। कुल मिलाकर बात यह है कि वीडियो सुबूतों के आधार पर कई तरह की कार्रवाई मुमकिन है, और पुलिस को इसका इस्तेमाल करते हुए तेजी से कार्रवाई करनी चाहिए।
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एक ताजा वैज्ञानिक कामयाबी मिली है जिसमें सोयाबीन के पौधों को सूरज की रौशनी को बेहतर तरीके से सोखने के लायक तैयार किया गया है, और इससे उन पौधों से फसल 20 से 24 फीसदी तक अधिक मिली है। वैज्ञानिकों का यह मानना है कि बाकी पौधों में भी सूरज की रौशनी से खुराक पाने की फोटो सिंथेसिस की प्रक्रिया इसी तरह की रहती है, और ऐसी कामयाबी उन फसलों में भी पाई जा सकती है। अमरीका के एक विश्वविद्यालय ने अपने नए शोध के ये नतीजे अभी प्रकाशित किए हैं, और इन्हें दुनिया की भूख मिटाने के लिए एक सबसे बड़ी कामयाबी माना जा रहा है। सूरज की रौशनी से पौधों में अनाज या दूसरी उपज प्रभावित होती है, और सोयाबीन में जेनेटिक फेरबदल करके यह कामयाबी पाई गई है। लेकिन वैज्ञानिक प्रयोगशाला से निकलकर ये नतीजे जब तक खेतों तक पहुंचेंगे, और लोगों के खाने में शामिल होंगे तब तक हो सकता है कि इसमें कुछ और सकारात्मक या नकारात्मक बातें सामने आएं, लेकिन आज जब दुनिया में चारों तरफ हर किस्म की निराशा की खबरें आ रही हैं, यह एक खबर भुखमरी की शिकार इस धरती पर एक उम्मीद जगाने वाली है।
आज बहुत से लोगों को जीएम फसलों से परहेज है, और तरह-तरह की आशंका भी है। जेनेटिकली मॉडीफाईड फसलों का कारोबार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है, और बहुत से मामलों में किसानों को हर फसल के लिए नए बीज खरीदने पड़ते हैं, जिसकी लागत अधिक रहती है। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि जीएम बीजों से दुनिया की खेती पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का एक नाजायज काबू हो जाएगा। हम ऐसी किसी भी तरह की फिक्र को खारिज किए बिना केवल वैज्ञानिक नजरिये से यह देख रहे हैं कि किसी तकनीक से अगर फसल 20 फीसदी या उससे अधिक बढ़ सकती है, तो यह दुनिया की भूख मिटाने में एक बहुत कारगर कदम होगा। हम अपने आसपास यह देखते हैं कि एक वक्त जो देसी अमरूद मिलते थे, वे अब नए किस्म के पौधों से निकलने वाले बड़े-बड़े अमरूद रहते हैं, जिनका स्वाद पुराने देसी अमरूदों जितना अच्छा नहीं रहता है, लेकिन वे धीरे-धीरे बिकने लगे हैं, और लोगों के बीच उसकी जगह बन गई है। यह तो फलों की बात हुई, जिसमें छोटे आकार के देसी पपीते के मुकाबले दो-तीन गुना वजन के नए हाईब्रीड पपीते आने लगे हैं, और भी कई फल-सब्जियों का ऐसा ही नया अवतार सामने आया है।
इससे परे जब अनाज की बात आती है, तो आज दुनिया में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा करीब 70 करोड़ लोगों के भूखे रहने का अंदाज है। यह दुनिया की आबादी का करीब 9 फीसदी है, और यह संख्या बढ़ती चल रही है। कई देश तो इस बुरी तरह भुखमरी के शिकार हैं कि अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों ने अब आबादी के कुछ हिस्से को ही पेट भर अनाज देना शुरू किया है कि पूरी आबादी को तो बचाना मुमकिन नहीं है, इसलिए आबादी के कुछ हिस्से को ही पेट भर अनाज देकर बचा लेना बेहतर है। कुछ दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठनों का अंदाज संयुक्त राष्ट्र से भी अधिक खराब है, और 2022 का एक अनुमान करीब 83 करोड़ लोगों के भूखे रहने का है, और यह दुनिया की आबादी का 10 फीसदी है। जब भूख के ऐसे आंकड़ों को देखा जाए तब यह समझ आता है कि अगर किसी तरह से अनाज की उपज 20 फीसदी बढ़ाई जा सकती है, तो उससे दुनिया के भूखे पेटों को भर पेट खाना दिया जा सकता है। अभी यहां पर हम इस पर जाना नहीं चाहते कि ऐसे गरीब देशों के पास अनाज को खरीदने की ताकत कहां से रहेगी। आज भी संयुक्त राष्ट्र सहित कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठन लगातार बहुत से देशों में भूखे लोगों को अनाज पहुंचा रहे हैं, और आज तो एक दिक्कत यह भी है कि रूस और यूक्रेन के बीच जंग के चलते हुए अनाज की उपलब्धता ही घट गई है। इसलिए अगर सोयाबीन पर किया गया यह प्रयोग, वैज्ञानिकों की उम्मीद के मुताबिक अगर बाकी फसलों पर भी कामयाब होता है, तो इससे दुनिया को एक बहुत बड़ी मदद मिल सकती है, दुनिया भुखमरी से उबर सकती है।
हिन्दुस्तान के कुछ पीढ़ी पहले के लोगों को याद होगा कि किस तरह हरित क्रांति के पहले तक यहां पर अनाज की कमी थी, और हिन्दुस्तान 1960 के पहले अमरीका के साथ हुए एक खाद्यान्न समझौते पीएल480 (पब्लिक लॉ 480) के तहत अनाज पाता था, और लोग अमरीकी गेहूं के लाल होने, और उससे रोटियां बहुत कड़ी बनने की शिकायत करते थे, लेकिन वैसी मदद से ही उस वक्त हिन्दुस्तानी राशन दुकानों के रास्ते लोगों का पेट भरता था, और लोग भूखे मरने से बचते थे। जब धीरे-धीरे हिन्दुस्तान में अनाज का उत्पादन बढ़ा, और यह देश अनाज के मामले में दुनिया के दूसरे देशों पर निर्भर नहीं रह गया, तब यहां पर भुखमरी धीरे-धीरे खत्म हुई। लेकिन आज दुनिया के दर्जनों देश भुखमरी के शिकार हैं, और जहां पर भूख से मौत हो रही है, वहां पर जिंदा बचे हुए लोगों में भी कुपोषण का कैसा बुरा हाल होगा, यह अंदाज लगाया जा सकता है। इसलिए आज अगर कोई वैज्ञानिक तरीका ऐसा निकल रहा है जो कि महज सूरज की रौशनी के बेहतर इस्तेमाल से उपज बढ़ा सकता है, तो यह बहुत बड़ी कामयाबी है।
जाहिर है कि एक अमरीकी विश्वविद्यालय की ऐसी खोज अमरीका की सरकार या कंपनियों के रास्ते दुनिया भर में तेजी से फैल सकती है, और हिन्दुस्तान कृषि अनुसंधान में एक विकसित देश है। आने वाले बरसों में हम हिन्दुस्तानी खेतों में उपज बढऩे का सपना देख सकते हैं, और आज हिन्दुस्तानी किसान जिस तकलीफ से इस काम को करता है, उसे भी ऐसी नई तकनीक एक नई राहत दे सकती है। हम खबर आने के दो दिन के भीतर ही इतनी सारी उम्मीदें लिख रहे हैं, लेकिन उम्मीदों पर ही तो दुनिया जिंदा है।
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यह बात सुनने में कुछ हैरान कर सकती है कि अदना सी दवा की टेबलेट पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है। सुप्रीम कोर्ट के सामने यह बताया गया है कि पिछले दो दौर की कोरोना महामारी के दौरान बुखार और बदन दर्द में काम आने वाली पैरासिटामॉल टेबलेट के एक खास ब्रांड डोलो-650 की बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनी ने डॉक्टरों को रिश्वत दी, ताकि वे इसे अंधाधुंध लिखें। अदालत में यह जनहित याचिका फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने दायर की है, जिसका कहना है कि इस कंपनी ने डॉक्टरों को रिश्वत देने पर हजार करोड़ रूपये खर्च किए हैं। कंपनी ने इस खर्च को गलत बताया है और कहा है कि यह कोरोना के दौरान का खर्च नहीं है, यह पिछले कई बरसों का मार्केटिंग का खर्च है। अभी यह मामला अदालत में चलना है, और जज भी इसे गंभीरता से ले रहे हैं। अदालत ने उपहारों के नाम पर डॉक्टरों को दी गई रिश्वत पर कंपनी से जानकारी मांगी है। कुछ समय पहले आयकर विभाग ने भी यह दवा बनाने वाली कंपनी के 9 राज्यों के 36 ठिकानों पर छापा मारा था।
लेकिन हम आज की बात को इसी एक दवा पर शुरू और खत्म करना नहीं चाहते, क्योंकि देश की सबसे बड़ी अदालत इस पर सुनवाई कर ही रही है, और वहां से कोई न कोई नतीजा सामने आएगा। हम चिकित्सा और दवा कारोबार में फैले हुए भारी भ्रष्टाचार की बात जरूर करना चाहते हैं जो कि बहुत ही संगठित है, इस कारोबार से जुड़े लोगों की नजरों में हैं, लेकिन उसे रोकने की कोशिश नहीं होती है। बड़े-बड़े कामयाब कारोबारी-अस्पताल और डॉक्टर मरीज लेकर आने वाले दलालों को कमीशन देते हैं, मरीज भेजने वाले छोटे डॉक्टरों को इलाज के बाद की निगरानी के नाम पर चेक से भुगतान करते हैं। इसके अलावा तरह-तरह की जांच करने वाले जो मेडिकल सेंटर हैं, वे भी अपने को मरीज भेजने वाले लोगों को संगठित तरीके से कमीशन देते हैं। यह पूरा कारोबार चिकित्सकों के संगठनों की नीतियों के खिलाफ है, वहां से कई बार नोटिस जारी होते भी हैं, लेकिन जिंदगी से जुड़े इस पेशे और कारोबार से इस गंदगी को दूर करने की कोई ठोस कोशिश दिखाई नहीं देती है।
दरअसल चिकित्सा से जुड़ा हुआ यह पूरा कारोबार निजी मेडिकल कॉलेजों में दाखिले में होने वाले पूरी तरह से संगठित भ्रष्टाचार से शुरू होता है, और सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए दी जाने वाली रिश्वत पर खत्म होता है। फिर एक बात यह भी है कि इलाज के तौर-तरीके, जांच का फैसला, और दवाओं की पसंद, इन सबमें अलग-अलग डॉक्टरों की अलग-अलग सोच हो सकती है, और किसी को भी तेजी से तब तक खारिज नहीं किया जा सकता, जब तक उनके इन फैसलों को किसी रिश्वत से प्रभावित साबित न किया जा सके। अभी सुप्रीम कोर्ट में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स का जो संगठन कंपनी और डॉक्टरों के बीच बेईमान रिश्ते का आरोप लेकर पहुंचा है, वह एक जागरूक संगठन है, और वह समय-समय पर कंपनियों की बेईमानी के खिलाफ लड़ते भी रहता है। हिन्दुस्तान में मरीजों का तो कोई संगठन न है, और न बन सकता, लेकिन मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स का संगठन ही दवाओं की बढ़ती हुई कीमतों के खिलाफ हर समय आवाज उठाते रहता है, और दवा उद्योग के दूसरे नाजायज तौर-तरीकों का भांडाफोड़ भी करता है। इसलिए ऐसे संगठन की कोशिशों का साथ देने की जरूरत है ताकि वह मरीजों के हित के लिए लड़ सके, और दवा कंपनियों और डॉक्टरों के अनैतिक गठबंधन के खिलाफ भी।
आज हिन्दुस्तान में निजी चिकित्सा कारोबार लगातार बढ़ते चल रहा है, और केन्द्र और राज्य सरकारें भी मरीजों को दिए जाने वाले स्वास्थ्य बीमा कार्ड को इन अस्पतालों से जोड़ते जा रही हैं। नतीजा यह है कि आज सरकारी अस्पताल लगातार उपेक्षित हो रहे हैं, और निजी चिकित्सा कारोबार बढ़ते ही जा रहा है। जब गरीब बीमार होते हैं, तो अगर सरकारी स्वास्थ्य बीमा कार्ड उस खर्च को नहीं उठा पाता, तो लोग गहने और मकान बेचकर भी इलाज करवाते हैं। ऐसे में उनके साथ अगर दवाओं के रेट को लेकर बेईमानी होती है, गैरजरूरी जांच करवाई जाती है, जांच में कमीशन लिया जाता है, तो इन सबका भांडाफोड़ होना चाहिए। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब कई अस्पतालों ने अपने दलालों के मार्फत यह पाया कि लोगों के स्वास्थ्य बीमा कार्ड पर अभी और इलाज करवाने लायक रकम बाकी है, तो कुछ अस्पतालों ने गांव के गांव की महिलाओं को उठवा लिया, और उनकी उम्र देखे बिना भी उनके गर्भाशय निकाल दिए गए थे। अस्पतालों ने तो छप्पर फाडक़र कमाई कर ली थी, लेकिन बाद में जब यह पूरी धोखाधड़ी उजागर हुई तो कई डॉक्टरों और अस्पतालों को ब्लैकलिस्टेड किया गया था, और उनका कारोबार रोका गया था। इसलिए सरकारी स्वास्थ्य बीमा जहां सबसे गरीब लोगों के लिए मुफ्त इलाज का एक जरिया है, वहीं गैरजरूरी इलाज करके गरीबों के बदन का नुकसान भी किया जाता है, और सरकार को चूना भी लगाया जाता है। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले मेडिकल कॉलेजों के दाखिलों को लेकर बड़ा भ्रष्टाचार पकड़ाया था, और मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने वाली कमेटी एमसीआई में भी फेरबदल किया गया था। आज जरूरत यही है कि जिस तरह दवा प्रतिनिधियों के संगठन ने सुप्रीम कोर्ट तक पहल की है, बाकी सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी चिकित्सा कारोबार की बाकी गड़बडिय़ों के खिलाफ पहल करनी चाहिए, और जरूरत हो तो स्टिंग ऑपरेशन भी करना चाहिए। देश की राजधानी में यह बात आम प्रचलित है कि निजी मेडिकल कॉलेजों से लेकर निजी अस्पतालों, और दवा कंपनियों तक के खेमे सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में करने की अपार ताकत रखते हैं। ऐसी लॉबियों की मर्जी के खिलाफ कुछ कर पाना सरकारों के लिए भी आसान नहीं रहता है। ऐसे में सुबूतों और स्टिंग ऑपरेशनों के साथ अदालतों तक जनहित याचिका लेकर जाना एक असरदार तरीका हो सकता है।
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हिन्दुस्तान के हजारों बरस पुराने कहे जाने वाले कई किस्म के धर्म और दूसरे ग्रंथों में महिलाओं के खिलाफ जितनी हिंसक बातें लिखी गई हैं, जिनका हिन्दुस्तान में खुलकर इस्तेमाल भी होता है, उन बातों ने हिन्दुस्तान की अदालतों के जजों के दिल-दिमाग पर बहुत गहरा असर किया हुआ है। और यह असर कभी-कभार किसी एक मामले में दिखता है तो लोग हैरान हो जाते हैं कि ऐसी सोच वाले लोग अगर फैसले कर रहे हैं, तो वे फैसले किस कदर महिला-विरोधी होंगे। केरल के एक जिले कोझीकोड के एक जज ने यौन उत्पीडऩ के एक मामले में अभियुक्त को जमानत दे दी क्योंकि उसका यह तर्क था कि शिकायतकर्ता महिला ने उस वक्त उत्तेजक कपड़े पहन रखे थे। मतलब यह कि अगर किसी महिला के कपड़े उत्तेजक हैं, तो वह महिला बलात्कार के लायक है। यह जज एस. कृष्णकुमार इसके दस दिन पहले यौन उत्पीडऩ के एक दूसरे मामले में भी आरोपी को जमानत दे चुका है, और उसने लिखा था- यह मानना विश्वास से बिल्कुल परे है कि अभियुक्त ने यह अच्छी तरह से जानते हुए भी कि पीडि़ता दलित है, उसे छुआ होगा।
इन दो आदेशों ने इस जज की सोच भयानक स्तर पर महिला-विरोधी भी है, और दलित-विरोधी भी है। वह महिला के कपड़ों की पसंद के आधार पर उसे एक किस्म से बलात्कार के लायक पा रहा है, और दूसरी तरफ एक दलित महिला के बारे में कह रहा है कि उसे दलित जानते हुए भी कैसे कोई छू सकता है? जज का नजरिया तालिबानों सरीखा दिखता है जो कि महिला की पोशाक तय कर रहे हैं। लेकिन यह अकेला जज ऐसा नहीं है, अभी हफ्ते भर पहले ही दिल्ली हाईकोर्ट की एक महिला जज प्रतिभा एम.सिंह के एक बयान के खिलाफ बहुत सी महिला कार्यकर्ताओं ने जमकर बयान दिया था जिसमें इस जज ने मनुस्मृति की वजह से भारतीय महिला को सम्मानजनक स्थान मिलने की बात कही थी। मनुस्मृति की चर्चा हिन्दुस्तान में महिलाओं को नियंत्रित करने वाली सोच की तरह होती है, और उसमें महिलाओं के लिए बहुत ही अपमानजनक बातें लिखी हुई हैं। ऐसे में अगर हाईकोर्ट की एक जज मनुस्मृति से प्रभावित है तो जाहिर है कि उसके फैसले इस सोच से प्रभावित होंगे। मनुस्मृति के मुताबिक एक महिला को पुरूष द्वारा सुरक्षित किया जाता है। जब वह बालिका है तो उसकी रक्षा की जिम्मेदारी उसके पिता की है, शादी के बाद वह अपने पति की जिम्मेदारी है, और अगर वह विधवा हो जाए तो वह उसके पुत्र की जिम्मेदारी है। मनुस्मृति महिलाओं के न करने के छह काम गिनाती है जिनमें से एक शराब पीना है। महिलाओं को बिना काम के इधर-उधर घूमने की मनाही की गई है। महिलाओं को बेवक्त और देर तक सोने की मनाही की गई है। मनुस्मृति में महिलाओं के बारे में लिखा गया है कि वे हमेशा दूसरे मर्दों को आकर्षित करने और संभोग के लिए आतुर रहती हैं। वे अपने पति के प्रति भी वफादार नहीं रहतीं। लेकिन इस तरह की अनगिनत भेदभाव की बातें उसमें महिलाओं के खिलाफ हैं, और इसके साथ-साथ मनुस्मृति बहुत बुरी तरह ब्राम्हणवादी और पुरूषवादी सोच भी है। इसमें शूद्रों को नीच माना गया है, और कहा गया है कि अगर कोई शूद्र ब्राम्हण को धर्मउपदेश दे, तो राजा को उसके मुंह और कानों में खौलता हुआ तेल डलवा देना चाहिए। शूद्रों के पास सम्पत्ति होने का भी विरोध किया गया है, शूद्र अगर ब्राम्हण या उसकी जाति का नाम बदतमीजी से ले, तो उसके मुंह में दस अंगुल लंबी लोहे की दहकती हुई कील डाल देना चाहिए।
हिन्दुस्तान में निचली अदालतों के जजों को लिखित इम्तिहान के मुकाबले से छांटा जाता है, और उनकी राजनीतिक-सामाजिक सोच के बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता है। नतीजा यह होता है कि उनका दलित-विरोधी, महिला-विरोधी पूर्वाग्रह सिर चढक़र बोलता है, और उन अदालतों से इन तबकों को किसी इंसाफ की गुंजाइश भी नहीं रहती है। हमारा तो ख्याल यह है कि लिखित परीक्षा में कामयाब होने के बाद ऐसे उम्मीदवारों को सामाजिक कार्यकर्ताओं के सवालों का सामना करना चाहिए या लिखित परीक्षा में ही सामाजिक सोच के बारे में पूछना चाहिए, और उस आधार पर उनका मूल्यांकन करना चाहिए। अब सवाल यह भी उठेगा कि ऐसा मूल्यांकन कौन करेंगे, क्योंकि जिन लोगों को यह काम दिया जाएगा उनकी अपनी सोच पुरूषवादी और दलित-विरोधी होने का पूरा खतरा रहेगा। पिछले एक दशक में हिन्दुस्तान में मनु के प्रशंसकों, और भारत की हजारों साल पुरानी सोच के प्रशंसकों के दिन निकल आए हैं। यही वजह है कि दलितों को देश भर में तरह-तरह से मारा जा रहा है, और बलात्कारियों का तरह-तरह से अभिनंदन हो रहा है।
केरल के इस जज की सोच के खिलाफ तो वहां लोगों की आवाज उठने लगी है। कुछ रिटायर्ड जजों ने यह भी कहा है कि इस जज की टिप्पणियों के खिलाफ ऊपर की अदालत में जाने की जरूरत है। आज हिन्दुस्तान में सामाजिक न्याय के आंदोलनकारियों के बीच इस सक्रियता की जरूरत है कि अदालतों की बेइंसाफ बयानबाजी, और उनके फैसलों के खिलाफ एक सामाजिक जागरूकता फैलाई जाए। जब तक ऐसे जजों के खिलाफ सार्वजनिक और सामाजिक सवाल नहीं उठेंगे, तब तक उनका ऐसा ही रूख जारी रहेगा। इसलिए जब कभी ऐसा कोई अपमानजनक बयान या फैसला किसी अदालत का आता है, तो तुरंत उसका विरोध करने की जरूरत है। केरल के एक जिले के इस जज की टिप्पणियों के खिलाफ सोशल मीडिया पर खूब लिखा जा रहा है, और इस बात को आगे बढ़ाना चाहिए।
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सुप्रीम कोर्ट में अभी इस बात पर बहस चल रही है कि हिंदुस्तान के चुनावों में राजनीतिक दल मुफ्त के तोहफों के जो वायदे करते हैं, क्या उन पर रोक लगाई जानी चाहिए? यह मामला चुनाव आयोग के सामने भी आया था, और देश के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इस आधार पर ऐसी घोषणाओं पर रोक लगाने की मांग की थी कि उनसे राज्यों के बजट पर गैरजरूरी बोझ बढ़ता है, और विकास कार्य के लिए रकम नहीं बचती है। पिछले कुछ दशकों में हिंदुस्तानी चुनावों में ऐसा हुआ भी है कि राजनीतिक दलों ने एक-दूसरे से आगे बढक़र ऐसी लुभावनी घोषणाएं की हैं कि जिनसे सत्ता पर पहुंचने से पहले ही वे बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर चुके होते हैं। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से ही कहा है कि वह एक संवैधानिक संस्था है, और सुप्रीम कोर्ट चुनावी तोहफों को लेकर जो विशेषज्ञ पैनल बना रहा है, उससे आयोग को बाहर रखा जाए। आयोग का यह मानना है कि यह तय करना अदालत का काम होना चाहिए कि चुनावी घोषणाओं में क्या-क्या कहा जा सके और क्या-क्या नहीं कहा जा सके। सुप्रीम कोर्ट में यह बहस चल ही रही है कि इस दौरान संसद में मोदी सरकार के मंत्रियों ने जनता को दिए जाने वाले अनाज को मुफ्त का तोहफा करार देकर यह बहस शुरू कर दी है कि जिंदा रहने के लिए जनता का जो बुनियाद हक है, उसे मुफ्त का कैसे कहा जा सकता है? विपक्ष के बहुत से नेताओं ने इस पर संसद के भीतर और बाहर, दोनों जगह आपत्ति की है कि इसे मुफ्त कहना देश की जनता के हक का अपमान है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के तय किए गए विशेषज्ञ पैनल के लोग यह तय करेंगे कि चुनावी घोषणापत्र में राजनीतिक दल जनता से किन चीजों का वायदा कर सकते हैं, और किन चीजों का नहीं? इस बात में जागरूक और जानकार सामाजिक कार्यकर्ता एक बड़ी खामी देखते हैं कि देश के तथाकथित विशेषज्ञ एक अलग ही दुनिया में जीते हैं, और वे देश के सबसे गरीब लोगों की जरूरतों का अहसास ही नहीं रखते। ऐसे सामाजिक आंदोलनकारियों का यह मानना है कि अपने-आपको अर्थशास्त्र का जानकार समझने वाले ये लोग आमतौर पर सरकारों की पूंजीवादी सोच का साथ देते हैं, और जिंदा रहने के लिए जो न्यूनतम जरूरतें आम जनता को चाहिए, ये उन्हें भी रियायत या राहत की तरह देने के खिलाफ रहते हैं। लोगों को याद होगा कि किस तरह बड़े-बड़े सरकारी अर्थशास्त्री मनरेगा जैसी योजना के खिलाफ थे, जो कि आज हिंदुस्तान में एक बड़ी आबादी को जिंदा रखने का सबसे बड़ा जरिया साबित हो रही है। किस तरह सरकारी अर्थशास्त्री रियायती राशन या स्कूलों में दोपहर के भोजन के खिलाफ थे जिनकी वजह से आबादी के एक बड़े हिस्से का पोषण आहार संभव हो सका, और करोड़ों बच्चों का विकास बेहतर हो सका। सामाजिक विकास के पैमानों को अगर तात्कालिक आर्थिक विकास और उत्पादकता से जोडक़र देखा जाएगा, तो वह एक गड़बड़ अनुमान ही सामने रखेगा। सरकार की ऐसी जनकल्याणकारी योजनाओं का दीर्घकालीन फायदा होता है, और कुछ दशक इनके चलते रहने के बाद इनका फायदा पाने वाली आबादी की औसत उम्र में भी बेहतरी दिखेगी, और इनकी उत्पादकता में भी। अब पूरे देश में यह बात निर्विवाद रूप से मान ली गई है कि देश की करीब आधी आबादी को रियायती या नि:शुल्क अनाज देना जरूरी है, और उसे पाना उनका बुनियादी हक है।
लोगों ने सुप्रीम कोर्ट की इस अतिरिक्त दिलचस्पी को लेकर भी उसकी कड़ी आलोचना की है कि उसके सामने देश की राजनीति को साफ करने के लिए दर्जनों जलते-सुलगते मामले खड़े हैं, लेकिन वह उनकी सुनवाई नहीं कर रही है, बल्कि चुनावी लुभावनी घोषणाओं का विश्लेषण करने में लगी है जो कि संसद और विधानसभाओं का काम होना चाहिए। लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार का यह हक रहता है कि वह संविधान के दायरे के भीतर अपनी मर्जी से बजट के मुद्दे तय करे। अगर वह गलत फैसले लेती है तो पांच बरस बाद उसे फिर जनता के बीच जाना पड़ता है, और उसका हिसाब-किताब जनता ही चुकता करती है। जहां तक लुभावनी घोषणाओं पर सरकारों का दीवाला निकल जाने के खतरे की बात है, तो उसके लिए भी देश-प्रदेश में विपक्ष भी है, केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक के सलाह-मशविरे भी हैं, मीडिया भी है, और जनता के बीच से भी आवाज उठती है। इसलिए अगर कोई विशेषज्ञ कमेटी बुनियादी लोकतांत्रिक मुद्दों को तय करेगी, तो उसका सोचने का नजरिया गरीबों के खिलाफ होने का एक बहुत बड़ा खतरा है।
यहां पर तमिलनाडु के वित्त मंत्री पीटीआर का कल का एक टीवी इंटरव्यू देखने लायक है जिसमें उन्होंने सवाल पूछ रहे उत्साही चैनल-मुखिया को बेजवाब कर दिया। प्रधानमंत्री ने जनता को दिए जाने वाले रियायती सामानों को लेकर या दूसरी छूट को लेकर रेवड़ी जैसे शब्द का इस्तेमाल किया था, और इस बारे में तमिल वित्त मंत्री ने कहा कि राज्यों से किस आधार पर प्रधानमंत्री अपनी नीतियां बदलने को कह सकते हैं? उन्होंने कहा कि या तो कोई संवैधानिक आधार होना चाहिए तो आप जो कहेंगे उसे हम सब सुनेंगे, या फिर आपकी कोई ऐसी विशेषज्ञता होनी चाहिए, आपके पास अर्थशास्त्र में दोहरी पीएचडी होनी चाहिए, या फिर आपको नोबेल पुरस्कार मिला होना चाहिए, या फिर कोई ऐसी बात होनी चाहिए जो बताए कि आप हमसे बेहतर हैं। या आपका काम का रिकॉर्ड ऐसा हो जो बताए आपने अर्थव्यवस्था को आसमान पर पहुंचा दिया है, या कर्ज को जमीन पर ला दिया है, या प्रति व्यक्ति आय बढ़ा दी है, या रोजगार खड़े कर दिए हैं। तमिलनाडु के वित्त मंत्री ने कहा कि जब इनमें से कोई बात सच नहीं है तो हम उनके नजरिए से क्यों देखें? उन्होंने कहा कि तमिलनाडु ने बहुत से पैमानों पर केंद्र सरकार से बेहतर काम किया है, ऐसे में यह राज्य प्रधानमंत्री के कहे अपनी नीतियां क्यों बदले? उन्होंने कहा कि क्या यह स्वर्ग से आ रहा कोई संविधानेतर हुक्म है? तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी डीएमके सुप्रीम कोर्ट गई है और उसने इस मामले में फ्रीबीज (बोलचाल की जुबान में रेवड़ी) की परिभाषा तय करने की मांग की है, और कहा है कि जनजीवन को सुरक्षित रखने के लिए और आर्थिक न्याय के लिए लिए जाने वाले फैसले फ्रीबीज नहीं कहे जा सकते।
अभी यह बहस अगले कुछ हफ्ते या कुछ महीने चलती रहेगी, और सुप्रीम कोर्ट शायद ही सरकार से यह पूछ सकेगी कि देश के बड़े कारोबारियों को बैंकों से दिए गए कर्ज का दस-दस लाख करोड़ रुपया डूब जाना किस आकार की रेवड़ी कहलाएगा? और यह भी कि राष्ट्रीय सूचना आयोग के बार-बार के आदेश के बाद भी देश के राजनीतिक दल उन्हें मिले चंदे का हिसाब देने को तैयार क्यों नहीं हैं? क्या बड़े कारोबारियों से उन्हें मिलने वाला मोटा देशी और विदेशी चंदा भी रेवड़ी कहलाएगा, या कुछ और?
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गुजरात में गोधरा कांड के बाद 2002 में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों में एक मुस्लिम युवती बिलकिस बानो के परिवार पर हमला हुआ था, भीड़ ने इस पांच महीने की गर्भवती युवती की तीन साल की बेटी को मार डाला था, परिवार के सात लोगों का कत्ल कर दिया था, और बिलकिस के साथ गैंगरैप किया था। 2002 के इस मामले पर प्रदेश के बाहर हुई सुनवाई में 2008 में सीबीआई कोर्ट ने मुंबई में ग्यारह लोगों को उम्रकैद सुनाई थी जिसे कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी कायम रखा था। इसके बाद पन्द्रह बरस कैद काटने के बाद इन्होंने सजा माफी के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की, और अदालत ने राज्य सरकार को इस पर विचार करने कहा। राज्य सरकार की एक कमेटी ने इन सारे लोगों को पन्द्रह अगस्त को उस वक्त रिहा किया जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कुछ घंटे पहले ही लालकिले पर से महिलाओं के सम्मान की अपील करके हटे थे। सुप्रीम कोर्ट ने इन लोगों की सजा माफी करने को नहीं कहा था, उस पर विचार करने कहा था, और यह गुजरात सरकार का अपना फैसला है, जिसे वह आज सुप्रीम कोर्ट का नाम लेकर बचने की कोशिश कर रही है। इस एक खबर ने प्रधानमंत्री की एक बड़ी घोषणा को पल भर में खोखला साबित कर दिया क्योंकि गुजरात की राज्य सरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अपनी ही है, और ऐसा तो हो नहीं सकता कि वह राज्य सरकार अपनी पार्टी और अपने गृहमंत्री, प्रधानमंत्री को बताए बिना इतना नाजुक फैसला ले। यह भी समझने की जरूरत है कि केन्द्र सरकार के ऐसे बहुत से निर्देश पहले से हैं, 2014 की एक सजामाफी नीति भी है जिसमें साफ लिखा है कि बलात्कार जैसे भयानक अपराधों के मुजरिमों को माफी नहीं दी जाएगी। गुजरात सरकार के इस फैसले के बाद जानकार वकीलों का कहना है कि राज्य का यह फैसला केन्द्र की इसी नीति के तहत होना था।
लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के मुख्य न्यायाधीश की मौजूदगी में अदालतों से विचाराधीन कैदियों को जल्द छोडऩे के बारे में कुछ कहा था। यह मामला विचाराधीन कैदियों का तो नहीं है, लेकिन यह राज्य सरकार के विवेक का मामला जरूर है जो कि सजा का एक वक्त पूरा हो जाने के बाद सजामाफी की अपील पर विचार कर सकती है। अब जब गुजरात सरकार के इस फैसले के बाद प्रधानमंत्री की हाल ही में कैदियों की रिहाई के बारे में कही गई बातों को देखें तो ऐसा लगता है कि क्या वे गुजरात की इस कार्रवाई के पहले एक जमीन तैयार कर रहे थे?
स्वतंत्रता दिवस के दिन जब इन कैदियों को रिहा किया जा रहा था तो जिस तरह से उन्हें मालाएं पहनाई गईं, उनकी आरती उतारी गई, उससे भी देश बहुत विचलित है। प्रधानमंत्री के भाषण को लेकर देश भर में यह विवाद चल ही रहा था कि देश में उनके समर्थक और प्रशंसक महिलाओं पर सबसे अधिक ओछे हमले करने के लिए जाने जाते हैं, और खुद प्रधानमंत्री ने पिछले बरसों में महिलाओं के बारे में बहुत से आपत्तिजनक बयान दिए थे। इसके ठीक बाद जब गुजरात में हत्यारों और बलात्कारियों की रिहाई ऐसे दिन को छांटकर की गई, तो उसकी तस्वीरें और उसके वीडियो देखकर लोग हक्का-बक्का रह गए। यहां पर इस बात को समझने की जरूरत है कि चार महीने बाद दिसंबर में गुजरात में विधानसभा के चुनाव होने हैं, और वहां के पिछले कई चुनाव हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच एक आक्रामक ध्रुवीकरण करके भाजपा ने जीते थे, और 2014 के पहले तक तो नरेन्द्र मोदी ही वहां के कई बार के मुख्यमंत्री थे। ऐसे में अभी हिन्दुस्तान के इतिहास के सबसे चर्चित साम्प्रदायिक हमले के इन ग्यारह गुनहगारों को जिस तरह जेल से छोड़ा गया है, जिस तरह उनका स्वागत हुआ है, उससे लगता है कि यह चुनाव के ठीक पहले का एक ऐसा सरकारी फैसला है जिसका निशाना तात्कालिक ध्रुवीकरण पर है। देश के सबसे मुखर मुस्लिम नेता, असदुद्दीन ओवैसी ने कल से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा, और गुजरात की भाजपा सरकार पर बड़ा तीखा हमला शुरू कर दिया है, और कल ही विश्व हिन्दू परिषद ने उसका बड़ा लंबा आक्रामक जवाब दिया है। मतलब यह कि यह नूरा कुश्ती अगले कुछ महीनों में चुनाव का एक अखाड़ा बनाने में लग गई है। ओवैसी को हम पहले भी भाजपा के चुनाव अभियान में शामियाना खड़ा करने वाला लिख चुके हैं, और आज वे जितने अधिक हमलावर तेवर दिखाएंगे, वह दिसंबर के चुनाव में भाजपा के उतने ही अधिक काम आएगा। जाहिर है कि इस रिहाई से गुजरात की मुस्लिम बिरादरी बहुत बुरी तरह विचलित रहेगी, और गुजरात का इतिहास बताता है कि विचलित मुस्लिम बिरादरी हिन्दुओं के ध्रुवीकरण का काम करती है। इस बात को कुछ हफ्ते पहले उन दो लोगों की गिरफ्तारी से न जोडऩा ठीक नहीं होगा जिन्हें गुजरात दंगों के बाद मोदी सरकार के खिलाफ बागी तेवरों वाला माना गया था क्योंकि वे मुस्लिमों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे, या दंगों में मोदी सरकार के रूख को लेकर जिन्होंने बयान दिए थे। सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, और एक रिटायर्ड आईपीएस पुलिस अफसर आर.बी. श्रीकुमार को गिरफ्तार किया गया, और जिला अदालत से उन्हें जमानत देने से मना कर दिया गया है। दिसंबर के चुनावों के पहले कुछ महीने पहले की इन घटनाओं को चुनाव से न जोड़ऩा मुमकिन नहीं है, खासकर तब, जब मोदी की भाजपा चुनाव के वक्त के एक-एक दिन को अपने पक्ष में तय करने की चतुराई रखती है। वह हिन्दुस्तान के किसी मतदान के दिन नरेन्द्र मोदी को नेपाल के मंदिरों में घूमता दिखाती है, तो किसी और मतदान के दिन बांग्लादेश के मंदिरों में। टीवी पर दिन-दिन भर मंदिरों में छाए हुए मोदी भारत की किसी चुनावी आचार संहिता से भी बचे रहते हैं। इसलिए अभी गुजरात में हक्का-बक्का कर देने वाली यह रिहाई पूरी तरह से कानून की भावना के खिलाफ है, केन्द्र सरकार की 2014 की नीतियों के खिलाफ है, और चुनावी ध्रुवीकरण की गारंटी करने वाली है।
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मद्रास हाईकोर्ट ने चार दिन पहले राज्य के बड़े पुलिस अफसरों के घरों पर तैनात किए गए पुलिस के निचले दर्जे के कर्मचारियों को गुलामीप्रथा करार देते हुए फटकार लगाई है। अदालत इसके खिलाफ पहले भी कड़ा आदेश कर चुकी है, लेकिन इसका कोई असर सरकार और अफसरों पर नहीं हुआ। सरकारी वकील ने कहा कि अदालत के पिछले आदेश के बाद 19 पुलिस कर्मचारियों को अर्दली ड्यूटी से मुक्त किया गया है, लेकिन जज ने कहा कि इसके बाद भी बड़ी संख्या में छोटे स्तर के पुलिस कर्मचारी बड़े अफसरों के बंगलों पर तैनात हैं। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसा करके ये बड़े पुलिस अफसर पुलिस फोर्स में अनुशासन लागू करने का अपना नैतिक अधिकार खो देते हैं। अदालत ने इसे इस देश के संविधान और लोकतंत्र पर तमाचा कहा है, और यह भी कहा कि यह अंग्रेजों के वक्त की गुलामीप्रथा की जारी परंपरा है।
तमिलनाडु में अदालत पहुंचे इस मामले से परे देश के अधिकतर राज्यों में पुलिस के निचले कर्मचारियों का यही हाल है। बड़े पुलिस अफसरों के बंगलों पर अविश्वसनीय संख्या में सिपाही तैनात कर दिए जाते हैं। वे घरेलू कामकाज करते हैं, कुत्तों और बच्चों को साफ करते हैं, उन्हें घुमाते हैं, बंगला बड़ा हो तो डेयरी और सब्जी-भाजी का बगीचा भी देखते हैं। एक प्रदेश की राजधानी में बैठे हुए जानकार लोग बतलाते हैं कि अफसर की अपनी मोटी तनख्वाह से कई गुना अधिक तनख्वाह कर्मचारियों की उन बंगलों पर खर्च होती है जो अपने आपमें अंग्रेजी राज का प्रतीक हैं। सरकार को बंगलों और नौकर-चाकर का यह इंतजाम खत्म करना चाहिए, और इसके लिए एक भत्ता अफसरों को देना चाहिए, या मकान भत्ता तो उन्हें मिलता ही है। यह बात सिर्फ आईपीएस अफसरों के साथ नहीं है, जंगल विभाग के आईएफएस अफसरों के पास रोजी पर मजदूर रखने के अनगिनत काम रहते हैं। ऐसे में अफसरों के बंगलों पर बहुत से रोजी वाले लोग तैनात रहते हैं जिनका सरकारी भुगतान होता है। आईएएस अफस चूंकि इन दोनों से ऊपर माने जाते हैं, इसलिए उनके बंगलों पर हर तरफ से कर्मचारी बुलाए जाते हैं, और भेजे जाते हैं।
यह बात सरकार के फिजूलखर्च से अधिक खतरनाक है। जिन लोगों को पुलिस की ड्यूटी के लिए नौकरी पर रखा जाता है, जिन्हें पुलिस के काम की ट्रेनिंग दी जाती है, उनसे घरेलू काम लेकर उनका मनोबल तोड़ दिया जाता है। कुछ बरस किसी बंगले पर गुलामी करने के बाद ये सिपाही किसी चुनौतीपूर्ण या खतरनाक मोर्चे के लायक रह भी नहीं जाते। रसोई में काम करते हुए, ट्रे थामे हुए, चाय-पानी परोसते हुए, जानवर नहलाते हुए, बच्चों का पखाना धोते हुए किस इंसान का मनोबल मुजरिमों को पकडऩे, आतंकियों से लडऩे, अराजक लोगों को रोकने के लायक रह जाएगा? यह बात पूरी तरह से अमानवीय भी है कि नियम-कायदों के खिलाफ, सरकारी सेवा शर्तों के खिलाफ मातहत लोगों को उनकी ड्यूटी से हटाकर इस तरह गुलाम बनाकर रखा जाए। हम पहले भी इसी जगह इस बात की वकालत कर चुके हैं कि ऐसे गुलाम-कर्मचारियों को अपने ऐसे मालिकों के खिलाफ बगावत करनी चाहिए, उन्हें गुलामी के वीडियो बनाकर शिकायत करनी चाहिए, उन्हें चारों तरफ फैलाना चाहिए। इससे कुछ लोगों की नौकरी पर खतरा आ सकता है, लेकिन वर्दीधारी कर्मचारियों के ऐसे अपमानजनक इस्तेमाल के सिलसिले को खत्म करने के लिए कुछ लोगों को तो ऐसा खतरा उठाना ही होगा। यह एक अकेली वजह हमें पुलिस कर्मचारियों की यूनियन बनाने के लिए काफी लगती है। कुछ प्रदेशों में ऐसी यूनियन है, और छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में सरकारों ने बड़ी कोशिश करके पुलिस कर्मचारियों के परिवारों को भी संगठित होने से रोका है। उन्हें रोक तो दिया गया है, लेकिन उनकी कोई मांग पूरी नहीं हुई है।
तमिलनाडु के मद्रास हाईकोर्ट के इस मामले की मिसाल देते हुए, उससे सबक लेते हुए बाकी प्रदेशों में भी सरकारी कर्मचारियों को अर्दलियों की तरह अफसरों और नेताओं के बंगलों पर इस्तेमाल करने के खिलाफ कानूनी पहल करनी चाहिए। यह बात छोटे सरकारी कर्मचारियों के मानवीय अधिकारों के खिलाफ भी है, और पूरी तरह से अलोकतांत्रिक और गैरकानूनी तो है ही। एक-एक बड़े अफसर और सत्तारूढ़ नेता पर लाखों रूपये महीने की तनख्वाह छोटे कर्मचारियों की भी लगती है, और यह पूरी तरह से अघोषित खर्च है जो कि गरीब जनता के ही सिर पर आता है। सरकारों को बड़े-बड़े सरकारी बंगलों का इंतजाम पूरी तरह से खत्म करना चाहिए। एक-एक परिवार के लिए बड़े-बड़े बंगले, और जनता पर उनका खर्च, पूरी तरह नाजायज है। अफसरों को अपनी तनख्वाह के अलावा जिस मकान भत्ते की पात्रता रहती है, उस भत्ते पर जो मकान उन्हें मिलेगा, उसमें कर्मचारियों की फौज की जरूरत भी नहीं रहेगी।
पुलिस कर्मचारी चूंकि वर्दीधारी हैं, और उनके संघ को छूट नहीं है, इसलिए किसी न किसी को यह बात उठानी होगी। कोई जनसंगठन भी इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग जा सकते हैं, या अदालत में जनहित याचिका लगा सकते हैं।
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आज जब पूरा हिन्दुस्तान तिरंगे झंडे को लहराते हुए घूम रहा है, और कल आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने की तैयारी कर रहा है, उस वक्त राजस्थान के जालौर में इंटरनेट बंद किया गया है। आमतौर पर साम्प्रदायिक घटनाओं को लेकर देश में जगह-जगह ऐसी नौबत आती है, लेकिन जालौर में तो हिन्दुओं के बीच ही ऐसी नौबत आई है। वहां के एक निजी स्कूल में 9 बरस के एक दलित बच्चे ने मास्टर छैलसिंह की अलग रखी हुई मटकी से पानी पी लिया, तो मास्टर ने उसे मार-मारकर जख्मी कर दिया, और तीन हफ्ते बाद इन्हीं जख्मों की वजह से अस्पताल में उसकी मौत हो गई। मास्टर की मार से इस दलित बच्चे के चेहरे और कान बुरी तरह जख्मी हुए थे, और इन जख्मों से वह उबर ही नहीं पाया। अब वहां के तनाव को देखते हुए राज्य सरकार ने वहां इंटरनेट बंद किया है।
आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर आजादी का अमृत महोत्सव मना रही भारत सरकार के जलसे के बीच यह एक बुरी खबर है जो कि हिन्दुस्तान में उस दलित तबके की हकीकत बताती है जो कि आज देश पर राज कर रही सोच के पांवों तले जी रहा तबका है। आज इस देश में हाईकोर्ट की एक जज उस मनुस्मृति को महिमामंडित कर रही है जिसमें दलितों के खिलाफ तमाम किस्म की हिंसक बातें लिखी गई हैं, जहां महिलाओं को तिरस्कार के लायक पाया गया है। जिस हिन्दू सोच के मुताबिक दलित के कानों में ज्ञान का एक शब्द पड़ जाने पर उसमें पिघला हुआ सीसा भर देने की व्यवस्था है, उस सोच के तहत इस मास्टर ने तो दलित बच्चे को महज पीटा ही था, और यह तो उसके दलित बदन का कुसूर था कि वह मास्टर की मार को बर्दाश्त नहीं कर पाया, और चल बसा।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, और उत्तर भारत के कुछ दूसरे हिस्से दलितों के साथ ऐसे जुल्म करने की परंपरा की गिरफ्त में हैं। हिन्दुस्तान के जिन लोगों को यह लगता है कि अब जाति व्यवस्था खत्म हो चली है, और अब आरक्षण की जरूरत नहीं है, उन लोगों को सीमेंट और डामर की सडक़ों से कुछ नीचे उतरकर देखना चाहिए कि जमीनी हकीकत क्या है। मध्यप्रदेश के कई इलाकों में दलित चप्पल पहनकर सवर्णों की बस्ती से नहीं गुजर सकते, और जो लोग भारत के गांवों के परंपरागत ढांचों के जानकार हैं, उनका कहना है कि आम गांवों में ऊंचे इलाकों में सवर्ण बसते हैं, और वहां से नालियों का पानी जिस तरफ बहता है, वहां ढलान की तरफ दलित बसते हैं, ताकि दलितों की नालियों का पानी कभी भी सवर्ण बस्तियों की तरफ न आ सके। हर बरस दर्जनों ऐसी खबरें आती हैं कि दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढक़र बारात में निकलने के लिए पुलिस की हिफाजत मांगनी पड़ी, और पुलिस की मौजूदगी में भी उन पर हमले हुए। कहीं दलितों को मूंछ रख लेने पर मारा जाता है, तो कहीं संगीत जोर से बजाने पर। देश को आजाद हुए पौन सदी हो गई है, लेकिन दलितों के लिए सवर्ण नफरत में कोई कमी नहीं है। तृणमूल कांग्रेस की धारदार वक्ता महुआ मोइत्रा ने कुछ दिन पहले ही यह कहा था कि हिन्दुस्तान में जब तक मुस्लिम हैं, तभी तक हिन्दू हिन्दू हैं। जब मुस्लिम खत्म हो जाएंगे तो हिन्दू नहीं रह जाएंगे, उनकी जगह ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अछूत बच जाएंगे। यह बात सौ फीसदी सही है। लेकिन दिक्कत की बात यह है कि जो दलित जाति व्यवस्था में पैरों से पैदा हुए माने जाते हैं, और अछूत समझे जाते हैं, जिन्हें इंसानी हकों का दावा करते ही मार दिया जाता है, वे दलित भी उन्हीं सवर्ण हिन्दुओं के देवी-देवताओं की पूजा करने के लिए मरे पड़े रहते हैं, जिन देवी-देवताओं ने इन दलितों को कभी नहीं बचाया। हिन्दू धर्म की व्यवस्था में मंदिर प्रवेश, और ईश्वर की उपासना का अधिकार मांगने का मतलब ही ब्राम्हणवादी सवर्ण व्यवस्था को मजबूत करना है। इन दलितों को हिन्दू समाज के ऐसे जातिवादी ढांचे से बाहर निकलकर अपना खुद का ईश्वर ढूंढने या बनाने की कोशिश करनी चाहिए थी, लेकिन सदियों की गुलाम मानसिकता उन्हें मंदिर प्रवेश का एक ऐसा अधिकारों का सपना दिखाती है जिसे हासिल करना उन्हें बहुत बड़ी बात लगती है। जिस दिन दलित समुदाय एकमुश्त हिन्दू समाज के ढांचे के बाहर निकल आएंगे, बचे हुए गैरदलित हिन्दुओं की अकल ठिकाने आ जाएगी। सवर्ण हिन्दुओं का यह दंभ, और उनकी यह हिंसा, तभी तक कायम हैं, जब तक दलित 21वीं सदी में भी गुलाम मानसिकता के शिकार बने हुए हैं, और मंदिर-प्रवेश को एक अधिकार का दावा मानकर चल रहे हैं।
ऐसी व्यवस्था को धिक्कारकर, लानत भेजकर दलितों को हिन्दू व्यवस्था को ही खारिज करना चाहिए जिसने कि उन्हें शोषण का सामान बनाकर रखा है। यह तो इस देश में दलितों और आदिवासियों के साथ जुल्म और ज्यादती करने पर एक अलग कानून का इंतजाम है, उसके बाद भी सवर्ण तबका धड़ल्ले से हिंसा करते रहता है, क्योंकि उसे भारत की जांच और न्याय व्यवस्था पर अपनी बिरादरी के कब्जे पर अतिआत्मविश्वास है। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए, और राजस्थान, मध्यप्रदेश सरीखे राज्यों में कानून के कड़ाई से इस्तेमाल से हालात सुधारने चाहिए। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों, और तैनात अफसरों में अगर दलितों की बराबरी का सम्मान नहीं है, तो उन्हें चुनावों से दूर करना चाहिए, और उनकी नौकरी खत्म करनी चाहिए। यह इस देश के लिए आजादी की सालगिरह के इस मौके पर शर्म से डूब मरने की एक बात है कि एक दलित बच्चे को इसलिए मार डाला गया कि उसने गैरदलित का पानी छू लिया था। जहां तक इस सालगिरह को आजादी का अमृत महोत्सव करार देने की भाषा का सवाल है, तो यह भाषा अपने आपमें उसी हिन्दू धर्म से निकली हुई है जिसमें समुद्र मंथन से निकले अमृत पर देवताओं का हक तय किया गया था। यह भाषा आज भी इस देश में उसी धर्म व्यवस्था को मजबूत करती है, और किसी के लिए अमृत और किसी के लिए विष की सोच आगे बढ़ाती है।
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भारत में जन्मे और पश्चिम में बसे विख्यात लेखक सलमान रुश्दी पर कल अमरीका के न्यूयॉर्क में एक कार्यक्रम के मंच पर एक नौजवान ने जाकर चाकू से हमला किया, और बुरी तरह जख्मी कर दिया। रुश्दी लंबे समय से मुस्लिम या इस्लामी आतंकियों के निशाने पर थे। उनकी एक किताब ‘सैटेनिक वर्सेज’ पर 1988 में ईरान ने उनकी मौत का फतवा जारी किया था, जो कि ईरान के सत्तारूढ़ धार्मिक मुखिया की तरफ से सार्वजनिक रूप से दिया गया था। इस किताब को मोहम्मद पैगंबर का अपमान करार दिया गया था, और रुश्दी के कत्ल पर दसियों लाख डॉलर का ईनाम भी रखा गया था। एक विश्लेषण यह कहता है कि ईरान और इराक के बीच आठ साल चली लड़ाई खत्म हुई ही थी, और ईरान के हर घर में किसी न किसी शहीद की तस्वीर टंगी थी, देश का बुरा हाल था, सिर्फ कब्रिस्तान पनपे हुए थे, ऐसे में वहां के धार्मिक नेता अयातुल्ला खुमैनी को रुश्दी की शक्ल में एक दुश्मन खड़ा करके लोगों के दुख-दर्द को भुलवाने का एक जरिया सूझा था, और उन्होंने ईरानियों को इस धार्मिक कट्टरता के उन्माद में झोंक दिया था। इसका एक असर यह भी हुआ था कि बात की बात में दुनिया के दर्जनों देशों में मुस्लिमों के बीच बिना इस किताब को पढ़े हुए उसका लेखक ईशनिंदक साबित हो गया था, और उसके कत्ल की मांग करते हुए चारों तरफ जुलूस निकलने लगे थे। दशकों से रुश्दी कुछ हमदर्द देशों की हिफाजत के घेरे में जी रहे थे, लेकिन धार्मिक उन्माद और नफरत को जानने वाले यह भी जानते थे कि यह दिन एक न एक दिन आना ही था। इस हमले के बाद रुश्दी अस्पताल में वेंटिलेटर पर हैं, धर्मान्ध लोग खुशियां मना रहे हैं, और समझदार लोग इस बात की फिक्र कर रहे हैं कि एक धर्म के हत्यारों की कामयाबी से दूसरे धर्म के कट्टर लोगों को भी हत्यारा बनने का हौसला मिलता है।
यह हमला एक इंसान या एक लेखक पर नहीं है, यह सोच की आजादी पर हमला है। एक लेखक अपने काल्पनिक लेखन में कुछ किरदार गढ़ता है और उन्हें अपनी आस्था का अपमान मानते हुए कुछ कट्टर और धर्मान्ध लोग उसके कत्ल का फतवा जारी कर देते हैं। यह तो रुश्दी पश्चिमी देशों की सरकारी हिफाजत में जी रहे थे, वरना यह हमला कब का हो चुका रहता। लोगों को याद रखना चाहिए कि फ्रांस की एक व्यंग्य पत्रिका में मोहम्मद पैगंबर पर बनाए गए कार्टूनों का विरोध इस कदर हिंसक हुआ था कि पेरिस में हथियारबंद लोगों ने इसके दफ्तर पर हमला करके दर्जन भर लोगों को मार डाला था, और दर्जन भर दूसरे लोग घायल कर दिए गए थे। इन कार्टूनों के खिलाफ योरप के दूसरे देशों में भी जगह-जगह तरह-तरह के हमले हुए थे, और इसने योरप में बसे हुए मुस्लिमों, और वहां पहुंचने वाले मुस्लिम शरणार्थियों की जिंदगी का सबसे बड़ा नुकसान किया था। यह बात समझने की जरूरत है कि किसी धर्म के नाम पर जो हमला होता है, वह बहुत बार तो सबसे बड़ा नुकसान उसी धर्म को मानने वाले लोगों को करता है। आज जो लोग इस्लाम को मानते हुए भी अलग-अलग देशों में वहां के कानून को भी मानते हुए अमन-चैन से जी रहे हैं, उनके खिलाफ भी इसी तरह की दहशत आज चारों तरफ फैलेगी, और दूसरे धर्मों के कुछ कट्टर लोग हो सकता है कि मुस्लिमों पर हिंसक या आर्थिक किसी तरह के हमले भी करें।
यह बात सिर्फ ईरान की नहीं है, बल्कि उन तमाम देशों की है जहां पर किसी एक धर्म, या कई धर्मों के लोग अपनी आस्था को देश और दुनिया के कानून से ऊपर मानकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। आज अगर इस्लामिक आतंक को देखा जाए, तो उसके सबसे अधिक शिकार दुनिया के मुस्लिम ही हैं। आज जिस सलमान रुश्दी को लेकर यह बात हो रही है वह मुम्बई में एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में ही पैदा हुए थे, और मुम्बई की एक ईसाई स्कूल में पढ़े थे। वे कुछ अरसा पाकिस्तान में भी अपने परिवार के साथ रहे थे, और अब वे इस्लामी आतंकियों के निशाने पर हैं। पिछले दशकों में रुश्दी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक प्रतीक की तरह भी बन गए थे, और उन्होंने अपने विचारों को नहीं छोड़ा था। अभी से कुछ घंटे पहले हुआ यह हमला दुनिया में हर किस्म की कट्टर ताकतों को मजबूती देगा, और कई दूसरे आतंकी गिरोह और धर्मान्ध लोग इस बात को लेकर हीनभावना के शिकार हो जाएंगे कि वे इस काम को नहीं कर पाए।
हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र के लिए ऐसी कट्टरता एक बहुत बड़ा खतरा इसलिए है कि यहां बीते दशकों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर अलग-अलग लोगों के खिलाफ जुबान काट देने और सिर काटकर लाने के फतवे दिए गए, ऐसी हिंसा पर ईनाम रखा गया। हिन्दुस्तान के सभी तरह के धार्मिक आतंकियों को रुश्दी पर हमले से एक प्रेरणा मिलेगी, और मुस्लिमों के खिलाफ कट्टरता की जो बात कही जाती है, उसे एक मजबूती मिलेगी। यह सिलसिला किसी एक व्यक्ति या किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है, यह संक्रामक रोग की तरह है, और समाज के बीच धार्मिक कट्टरता, और साम्प्रदायिकता को बढ़ाते चलने वाला है। हिन्दुस्तान उन देशों में से था जिसने दुनिया के इस्लामिक और मुस्लिम देशों से भी पहले रुश्दी की इस किताब पर रोक लगा दी थी, और वह आज भी जारी है। भारत की बड़ी मुस्लिम आबादी को देखते हुए राजीव गांधी की सरकार ने यह रोक लगाई थी, और उसने बहुत से लोगों को हैरान भी किया था कि ऐसी तेज रफ्तार प्रतिक्रिया तो किसी इस्लामिक देश की भी नहीं थी। इतिहास बताता है कि भारत पहला देश था जिसने इस उपन्यास को बैन कर दिया था, इसके बाद फिर पाकिस्तान और दूसरे इस्लामी देशों ने रोक लगाई।
यह मौका इस बात को भी समझने का है कि क्या किसी सरकार को इस रफ्तार से रोक लगानी चाहिए, या अपने देश के लोगों को उदारता की बात भी समझानी चाहिए। जब सरकार ही तेजी से धर्मान्धता को मान्यता देती है, तो फिर समाज के भीतर किसी उदारता की अधिक गुंजाइश बचती नहीं है। इस हमले के बाद लोगों में बड़े पैमाने पर चर्चा शुरू हो चुकी है, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नए सिरे से दुबारा बात बढऩी चाहिए।
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आजादी की 75वीं सालगिरह पर भारत सरकार ने हर घर तिरंगा नाम का एक अभियान शुरू किया है, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी अपने स्तर पर भी अधिक से अधिक घरों में तिरंगा पहुंचाने की घोषणा के साथ कुछ कोशिश कर रही है। रेलवे के करोड़ों कर्मचारियों को बाजार भाव से काफी अधिक दाम पर अनिवार्य रूप से तिरंगा झंडा खरीदने के लिए कहा जा रहा है, जिसे लेकर विरोध भी हो रहा है, और लोग यह हिसाब भी पोस्ट कर रहे हैं कि ठेकेदार को इससे कितने करोड़ की कमाई होने जा रही है। पिछले कुछ दिनों से हरियाणा की राशन दुकानों के ऐसे वीडियो पोस्ट हो रहे हैं जहां पर राशन दुकानदार ही यह बता रहा है कि उसे ऊपर से हुक्म मिला है कि जो लोग बीस रूपये का झंडा खरीदें, उन्हें ही राशन देना है। अब सीमित आय वाले जो लोग राशन कार्ड लेकर गिने-चुने नोट लेकर राशन दुकान पहुंच रहे हैं, वहां उन्हें पता लग रहा है कि पहले बीस रूपये तो झंडे के देने होंगे। इसके अलावा पोस्ट ऑफिस से भी झंडा बेचा जा रहा है जिसके बारे में सोशल मीडिया पर यह पढऩे मिला कि वह गलत तरह से छपा हुआ झंडा है जिसमें अशोक चक्र एक तरफ खिसका हुआ है, और यह पढक़र जब इस अखबार ने पोस्ट ऑफिस से झंडा खरीदकर मंगवाया तो अशोक चक्र बीच के बजाय एक तरफ बहुत बुरी तरह खिसका हुआ छपा था। झंडे को लेकर ही यह विवाद भी हुआ कि सरकार ने झंडा कानून बदलकर अब सिंथेटिक कपड़ों के तिरंगे झंडे को भी छूट दे दी है, जबकि खादी के कपड़ों से बनने वाले परंपरागत झंडे कपास उगाने वाले किसानों से लेकर बुनकरों तक को रोजगार देते थे, वह पूरा काम अब खत्म सा हो गया।
लेकिन बात अगर महज झंडे तक सीमित रहती, तो भी ठीक था। झंडों के साथ जिस तरह राष्ट्रवाद का उन्माद फैलाया जा रहा है, और एक सकारात्मक राष्ट्रवाद से परे जाकर जिस तरह बिना झंडे वाले लोगों को देशद्रोही और गद्दार करार देने की पहल शुरू हो रही है, वह भयानक है। इस देश में अब देशप्रेमी होना काफी नहीं है, एक खास विचारधारा को देशप्रेम के जो प्रतीक पसंद हैं, उन प्रतीकों को अनिवार्य रूप से मानना, दिखाना, और प्रदर्शित करना भी जरूरी है। उत्तराखंड के भाजपा प्रदेशाध्यक्ष महेश भट्ट ने एक आमसभा में कहा कि जो लोग तिरंगा अभियान के दौरान अपने घरों में राष्ट्रीय ध्वज नहीं लगाते, उनकी देशभक्ति पर सवाल खड़ा हो सकता है। उन्होंने कहा जिनके घर में तिरंगा नहीं लगेगा, हम उन्हें विश्वास की नजर से कभी नहीं देख पाएंगे। उन्होंने कहा मुझे उस घर का फोटो चाहिए जिस घर में तिरंगा न लगा हो।
पिछले बरसों में हिन्दुस्तान ने ऐसे बहुत से प्रतीकों का प्रदर्शन देखा है जिन्हें मोदी की स्तुति के रूप में देखना तो ठीक था, लेकिन जो उस प्रदर्शन में शामिल नहीं थे, उन्हें देश का गद्दार करार देना लोकतंत्र के मुताबिक तो बहुत बड़ी ज्यादती थी। हर किसी के देशप्रेम के तौर-तरीके अलग-अलग होते हैं। हर धर्म और संस्कृति, इलाके और जुबान में देशप्रेम के नारे अलग हो सकते हैं, मातृभूमि की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है, देशप्रेम के गाने अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन पिछले बरसों में इस देश ने जिस तरह-हिन्दुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा, या, हिन्दुस्तान में रहना है तो जयश्रीराम कहना होगा जैसे नारे लगाए गए, जो कि किसी के सम्मान में कम थे, धमकी अधिक थे। ऐसे में अलग धर्म और अलग संस्कृति वाले लोगों को तेजी से देशद्रोही करार देकर पाकिस्तान भेजने की बात भी कुछ बरस चली थी, फिर ऐसा लगता है कि पाकिस्तान ने फतवों के आधार पर वीजा देना बंद कर दिया, और सारे ‘देशद्रोही’ लोग इसी देश पर बोझ बने हुए यहीं कायम हैं।
राष्ट्रीयता और देशप्रेम को कुछ खास प्रतीकों से अनिवार्य रूप से जोडक़र उन्हें हर किसी पर लादकर इस तरह का उन्माद खड़ा करना किसी भी लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। एक तबके को ऐसे उन्माद में मजा आ सकता है, लेकिन इसके तौर-तरीकों से असहमत दूसरे कहीं अधिक बड़े देशप्रेमी लोगों को यह सजा भी लग सकती है कि उस पर कोई बात थोपी जा रही है। लोकतंत्र ऐसे प्रतीकों का नाम नहीं हो सकता जिन्हें सरकारी खर्च पर, राजनीतिक फतवों से, धमकी-चमकी और दबाव से, लोगों का अनाज रोककर उन पर लादा जाए, और उसे आजादी का अमृत महोत्सव कहा जाए। हरियाणा की जिन राशन दुकानों पर बेबस गरीब महिलाओं का आक्रोश निकल रहा है, उनके बीस रूपये में खरीदे झंडों से क्या उनके घर पर आजादी का जश्न मनेगा, या वे लोग जश्न के इस जबरिया तौर-तरीके को कोसेंगे? जिस आजादी के नाम पर यह जलसा मनाया जा रहा है, उसी आजादी को कुचलते हुए यह खुली राजनीतिक धमकी दी जा रही है कि जो लोग झंडा नहीं फहराएंगे उनके घरों की तस्वीरें भेजी जाएं, उन पर यह देश कभी भरोसा नहीं कर सकेगा।
विविधता से भरा हुआ यह देश अपनी राजनीतिक और सामाजिक विविधताओं की वजह से ही आजाद दिखता है, और माना जाता है। अगर सारी आबादी की पोशाक, खानपान, राजनीतिक विचारधारा, और सांस्कृतिक तौर-तरीके सभी को एक सरीखा किया जाए, और तभी उन्हें देशप्रेमी माना जाए, तो यह तो आजादी के ठीक खिलाफ होगा। लोगों को आज तिरंगा झंडा अच्छा लग सकता है, लेकिन घरों पर इसे फहराना उन्हीं लोगों को अच्छा लगेगा जिनके मन में ऐसा करने की बात है। नसबंदी बहुत अच्छी बात थी, और हिन्दुस्तान की बढ़ती आबादी को घटाने में कारगर भी हो सकती थी, लेकिन जब इमरजेंसी में संजय गांधी नाम के एक तानाशाह ने पूरे देश पर नसबंदी को जबरिया थोप दिया था, तो अगले चुनाव के वक्त लोगों ने इसे याद रखा था। कोई अच्छी चीज भी लोकतंत्र में दूसरों पर जबरिया कैसे थोपी जा सकती है? और आज जिस तरह सार्वजनिक धमकी देते हुए ऐसे लोगों को अविश्वसनीय करार दिया जा रहा है, जो घरों पर झंडा नहीं फहराएंगे, ऐसे नेता यह तो बताएं कि देश का कौन सा संविधान उन्हें किसी को अविश्वसनीय करार देने का हक देता है?
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मुम्बई फिल्म उद्योग के एक बहुत ही औसत दर्जे के अभिनेता मुकेश खन्ना का नाम बच्चों के लिए बनाए गए शक्तिमान नाम के एक किरदार से जुड़ा हुआ था, और एक वक्त था जब छत्तीसगढ़ में स्कूलों का जाल बिछाने वाले, और साथ-साथ अखबार चलाने वाले एक जालसाज ने मुकेश खन्ना को ब्रांड एम्बेसडर बनाकर दसियों हजार मध्यमवर्गीय मां-बाप को लूटा था। ऐसे मुकेश खन्ना ने अभी एक गंदा बयान दिया है जिसमें उन्होंने कहा है- कोई भी लडक़ी अगर किसी लडक़े को कहे कि मैं तुम्हारे साथ सेक्स करना चाहती हूं तो वो लडक़ी लडक़ी नहीं है, वो धंधा कर रही है। इस तरह की निर्लज बातें कोई सभ्य समाज की लडक़ी नहीं करेगी, और अगर वो करती है तो वो सभ्य समाज की नहीं है, उसका धंधा है ये, उसकी भागीदार मत बनिये। मुकेश खन्ना के इस बयान का वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहा है, और लोग सोशल मीडिया पर ही उन्हें जमकर धिक्कार भी रहे हैं। इसके अलावा दिल्ली के महिला आयोग ने दिल्ली पुलिस को एक नोटिस भेजकर इस बारे में जानकारी मांगी है, एफआईआर की कॉपी भेजने कहा है, और इस पर की गई कार्रवाई के बारे में बताने कहा है। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा स्वाती मालीवाल ने इस चिट्ठी को ट्वीट करते हुए कहा है कि महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों पर एफआईआर दर्ज करवाने हेतु दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी किया है।
दरअसल महिलाओं को बर्दाश्त कर पाना आसान बात नहीं होती है। सोशल मीडिया पर कई लोग इस बात को लिखते हैं कि लोगों को कामयाब महिलाएं दूर से तो अच्छी लगती हैं, लेकिन जब उनसे रूबरू सामना होता है, तो मर्द उन्हें पसंद नहीं कर पाते। ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि कामयाबी किसी भी महिला में एक आत्मविश्वास पैदा करती है, और महिला का आत्मविश्वास आदमी में हीनभावना पैदा करता ही है। अपने आपको बच्चों के बीच एक आदर्श किरदार की तरह पेश करने वाले इस अभिनेता की बकवास में आदमियों की कोई जगह नहीं है कि अगर कोई आदमी किसी औरत से ऐसी बात कहे तो वह आदमी भी क्या पेशा करने वाला होगा? इक्कीसवीं सदी के दो दशक निकल चुके हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी आदमी, और खासे पढ़े-लिखे और सार्वजनिक जीवन के कामयाब लोग, सार्वजनिक रूप से भी अठारहवीं सदी की ऐसी दकियानूसी बात करते हैं।
और मुकेश खन्ना तो फिर भी एक छोटा सा आदमी है, इस देश के कई मुख्यमंत्री और कई केन्द्रीय मंत्री एक से बढक़र एक घटिया और अश्लील बातें महिलाओं के बारे में कहते आए हैं। इनमें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल सरीखे लोग भी शामिल हैं, और इनको सहूलियत यह भी रहती है कि इनके ऐसे महिलाविरोधी बयानों के बाद भी न तो ये चुनाव हारते, और न ही इनकी पार्टी चुनाव हारती। मतलब यह है कि जनता के एक छोटे और मुखर तबके को ऐसे बयान खटकते हैं, लेकिन ऐसे बयान वोट नहीं बिगाड़ पाते जबकि वोटरों में आधी महिलाएं हैं। जब तक वोटरों की जागरूकता नहीं बढ़ेगी, और महिलाओं के बीच एक तबके के रूप में स्वाभिमान नहीं जागेगा, तब तक महिलाओं के खिलाफ खाप पंचायतों से लेकर देश की संसद और विधानसभाओं तक बकवास चलती रहेगी, और उनके साथ बेइंसाफी जारी रहेगी।
लोगों को खाप पंचायतों की इन बातों को नहीं भूलना चाहिए जो कि लड़कियों के जींस पहनने पर पाबंदी लगाती हैं, उनके मोबाइल फोन रखने पर पाबंदी लगाती हैं। अभी-अभी हिन्दुस्तान के लिए राष्ट्रमंडल खेलों में सोना जीतकर आने वाली निखत जरीन को बॉक्सिंग के कपड़े पहनने के लिए मुस्लिम समाज के भीतर से लगातार चेतावनी दी जाती थी। कुछ ऐसा ही सानिया मिर्जा को भी झेलना पड़ता था। और जब इनकी कामयाबी आसमान पर पहुंची तब जाकर इनके खिलाफ ओछे हमले बंद हुए, वरना इन्हें भी अपने कपड़ों के लिए मर्दों के वैसे ही हमले झेलने पड़ते थे जैसे हमले घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों को योगियों और मनोहरलालों के झेलने पड़ते हैं।
दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा इन मामलों में जागरूक हैं, और देश की राजधानी में बैठे हुए वे बहुत से मामलों में जागरूकता दिखाती हैं। अगर और योजना आयोग, बाल आयोग, या महिला आयोग अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करते, तो बकवास पर कुछ लगाम लग सकती थी। लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश के बड़बोले समाजवादी नेता आजम खान ने जब बलात्कार की शिकार बारह बरस की एक बच्ची की शिकायत को राजनीतिक साजिश कहा था, तो सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ी थी, और इस बड़बोले नेता को अदालत में माफी मांगनी पड़ी थी। हिन्दुस्तान में आज जरूरत ऐसी ही कार्रवाई की है जिससे हिंसक और अश्लील बकवास करने वाले लोगों को अदालत तक घसीटा जा सके, और वहां उनकी जुबान पर लगाम लगाई जा सके।
दूसरा एक और तरीका लोकतांत्रिक जागरूकता वाले सभ्य समाज में हो सकता है, लेकिन उसकी गुंजाइश हिन्दुस्तान में कम ही दिखती है। यहां पर अगर ऐसी गंदगी की बात करने वाले लोगों से जुड़े हुए सभी सामानों का बहिष्कार किया जा सकता, तो भी बहुत से लोगों के होश ठिकाने आ जाते। लेकिन एक तरफ तो पश्चिम के जागरूक देशों में तीसरी दुनिया के देशों में बहुत कम मजदूरी देकर, अमानवीय स्थितियों में बनवाए गए सामानों का बहिष्कार किया जाता है, और वैसे बहिष्कार के असर से सामान बनाने वाले इन देशों में मजदूरों की हालत कुछ सुधरती है। भारत जैसे देश में बाल मजदूरों से बनवाए गए कालीनों का दुनिया के दूसरे देश बहिष्कार करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी घरों में बाल मजदूरों को बंधुआ बनाकर रखा जाता है, और दफ्तरों और बाजारों में बाल मजदूर चाय पहुंचाते हैं, जिनसे किसी को परहेज नहीं होता। दरअसल इस देश और इसके प्रदेशों में संवैधानिक जिम्मेदारियों के आयोगों में राजनीतिक मनोनयन होने से वहां बैठे लोग अपने राजनीतिक आकाओं को असुविधा का कोई काम नहीं करना चाहते, और इस तरह सुधार की संवैधानिक-संभावना खत्म हो जाती है।
आज जरूरत तो यह भी लगती है कि मानवाधिकार आयोग, बाल आयोग, महिला आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग की कुर्सियों पर राजनीतिक मनोनयन खत्म होना चाहिए, और किसी भी राज्य में इन ओहदों पर राज्य के बाहर की एक राष्ट्रीय फेहरिस्त से लोगों को मनोनीत करने का एक संवैधानिक ढांचा खड़ा करना चाहिए। जब तक राजनीति से संवैधानिक पदों को अलग नहीं किया जाएगा, तब तक समाज के कमजोर तबकों के खिलाफ हिंसक बकवास जारी रहेगी। अभी दिल्ली के करीब यूपी में भाजपा के बताए जा रहे एक नेता ने जिस गंदी जुबान में एक महिला को धमकाया, उस पर भारी जनदबाव के चलते पुलिस कार्रवाई तो हुई है, लेकिन उत्तरप्रदेश में कोई महिला आयोग भी है, ऐसा पता नहीं लगा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
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बिहार में कल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस तरह एनडीए को छोडक़र और मुख्य विपक्षी लालू यादव और कांग्रेस से हाथ मिलाकर नई सरकार बनाने का रास्ता बना लिया है, वह पिछले दो दिनों का सबसे बड़ा भूचाल रहा। कांग्रेस ने इस मौके पर पिछली बार के नीतीश के साथ के गठबंधन की तरह बिना शर्त नीतीश का समर्थन करने की घोषणा की है, और हर विधायक के समर्थन के जरूरत आज इस नई गठबंधन सरकार को होगी। लेकिन इसके पहले कि नीतीश कुमार एक बार और शपथ लें, या सरकार बनाएं, उसके पहले ही उनके समर्थकों ने नीतीश कुमार के अगले प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी होने की घोषणाएं शुरू कर दी हैं। और शायद लालू यादव की राजद ने भी इन घोषणाओं को अपना अपमान मानने के बजाय तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने की संभावना मानकर उनका स्वागत ही किया है। देश में एक दिन के भीतर राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी के खिलाफ विपक्ष की एक बड़ी उम्मीदवारी की उम्मीद बंध गई है। जिन लोगों को यह लगता था कि मोदी चाहे अच्छे न हों, उनके मुकाबले कौन? उन लोगों को अब एक ऐसा विकल्प मिल गया है जो कि कांग्रेस के मुकाबले अधिक पार्टियों को मंजूर हो सकता है। लेकिन जिस कांग्रेस ने आज बिहार की सरकार से भाजपा को बाहर करने के लिए नीतीश का साथ दिया है, वह कल प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए क्या करेगी? क्योंकि देश में आम चुनाव के हिसाब से, और वोटरों की गिनती के हिसाब से कांग्रेस आज भी नीतीश कुमार की जेडीयू से बड़ी पार्टी है, यह एक अलग बात है कि उसके पास नीतीश जितना वजनदार, और अधिक सर्वमान्य कोई नेता नहीं है, राहुल गांधी भी नहीं।
इसलिए बिहार तो आज निपट जाएगा, या कि यह कहना बेहतर होगा कि निपट चुका है, लेकिन अभी से लेकर 2024 के आम चुनाव तक मुद्दा यह रहेगा कि राष्ट्रीय स्तर पर लीडरशिप के मामले में मोदी के एकाधिकार को जो चुनौती नीतीश कुमार दे सकते हैं, उसमें कौन सी पार्टी किस हद तक उनके साथ रहेगी? पल भर के लिए कांग्रेस को किनारे करके बाकी पार्टियों को देखें, तो आरजेडी और वामपंथियों ने बिहार सीएम के लिए तो नीतीश का जिस तरह साथ दिया है, ऐसा नहीं लगता कि प्रधानमंत्री पद के लिए एनडीए विरोधी चेहरा बनाने के लिए वे नीतीश के साथ नहीं रहेंगे। बल्कि मोदी जिस तरह एक टीना फैक्टर (देयर इज नो ऑल्टरनेटिव), कोई विकल्प नहीं है का मजा ले रहे थे, वह मजा रातोंरात खत्म हो गया है। और अब लोगों का अंदाज यह है कि मोदी सरकार के हाथों बुरी तरह जख्मी और प्रताडि़त तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बैनर्जी अपनी सीमित अपील पर दांव लगाना छोडक़र शायद मोदी-विरोधी उम्मीदवार के रूप में नीतीश का साथ देंगी। ऐसा भी दिखता है कि दक्षिण भारत में तेलंगाना के केसीआर से लेकर तमिलनाडु के द्रमुक सीएम स्टालिन तक कई लोग नीतीश के हिमायती हो सकते हैं। फिर महाराष्ट्र में भाजपा से जख्मी शिवसेना के साथ कांग्रेस और एनसीपी अब तक बने हुए हैं, और इन तीनों पार्टियों के अनगिनत लोग मोदी सरकार की मार के शिकार हैं, और महाराष्ट्र में भाजपा के मुकाबले नीतीश की लीडरशिप वाले किसी गठबंधन में ये तीनों पार्टियां शामिल हो सकती हैं। फिर भाजपा से त्रस्त और नष्ट कुछेक और पार्टियां भी हैं, पंजाब में अकाली हैं, कश्मीर में महबूबा हैं, और अलग-अलग जगहों पर कुछ दूसरी पार्टियां हैं। भाजपा से तमाम रिश्तेदारी के बावजूद नीतीश कुमार कई अजीब वजहों से अब तक साम्प्रदायिक तमगे से बचे हुए हैं, मुसलमानों के बीच उनकी ठीकठाक विश्वसनीयता कायम है, और छोटी-छोटी बहुत सी पार्टियां उनका साथ दे सकती हैं।
अब सबसे बड़ा सवाल अगले आम चुनाव के वक्त कांग्रेस के सामने रहेगा जिसके पास देश में पिछले आम चुनाव के करीब 12 करोड़ वोट थे, और उसके सहयोगियों के पास और भी वोट थे। ऐसे में जेडीयू से बड़ी पार्टी होने के नाते उसकी महत्वाकांक्षा अपने नेता राहुल गांधी पर केन्द्रित हो सकती है, और अपने अस्तित्व को खोकर कांग्रेस किस सीमा तक नीतीश कुमार की अगुवाई मंजूर करेगी, यह अंदाज लगाना आज आसान नहीं है। लेकिन नीतीश कुमार के भाजपा-गठबंधन से बाहर आने से देश में एनडीए विरोधी प्रधानमंत्री की संभावना जितनी बढ़ी है, नीतीश की वजह से ही कांग्रेस के किसी नेता की प्रधानमंत्री-प्रत्याशी होने की संभावना उतनी ही घट गई है। यह कांग्रेस के सामने एक ऐतिहासिक मौका रहेगा कि वह मोदी-विरोधी गठबंधन की नेता बनने के बजाय बेहतर संभावनाओं वाले एक बड़े गठबंधन की भागीदार बने, या न बने। अभी 2024 खासा दूर है, इसलिए कांग्रेस तुरंत ही अपना कोई रूख दिखाने के लिए दबाव में नहीं है, लेकिन नीतीश के आने से भाजपा-विरोधी पार्टियों के भीतर जो उत्साह दिख रहा है, वह इन चर्चाओं को बहुत दबने भी नहीं देगा। यह सिलसिला कांग्रेस पार्टी के भीतर एक बड़ा और नया दबाव भी पैदा करेगा क्योंकि पार्टी आज वैसे भी घरेलू बेचैनी और निराशा से गुजर रही है, अपने संगठन के चुनाव करवाने की हालत में नहीं है, और उसके पास आज कुल दो राज्यों में सरकार रह गई है। कांग्रेस की एक दिक्कत यह भी है कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान, इन दोनों ही राज्यों में संगठन के भीतर एक बेचैनी बनी हुई है, और सोनिया परिवार ईडी के दफ्तर में बैठा हुआ तो इन मुद्दों को देख भी नहीं सकता।
कुल मिलाकर बिहार में भाजपा की एक बहुत बड़ी शिकस्त, राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती लेकर आई है, पहले तो उसे 2024 के चुनाव तक अपनी दो राज्य सरकारों को सम्हालना है, संगठन के नेताओं को सम्हालना है, अदालती मामलों और ईडी की जांच को देखना है, और 2024 के किसी संभावित विपक्षी गठबंधन में अपनी जगह को महत्वपूर्ण और सम्मानपूर्ण बनाने की कोशिश भी करनी है। ऐसी किसी भी संभावना के लिए कांग्रेस को अपने आपको मजबूत भी करना होगा, और उसकी मजबूती का सबसे बड़ा सुबूत उसकी दो राज्य सरकारों का मजबूत रहना, और ठीकठाक चलना होगा क्योंकि उसके पास अपनी नीतियों पर अमल की बस यही दो जगहें तो हैं। आने वाला वक्त जितना नीतीश को देखने का रहेगा, उतने का उतना कांग्रेस को भी देखने का रहेगा, क्योंकि अगर किसी विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस शामिल नहीं रहेगी, वह मैदान में अलग से रहेगी, तो वह मोदी के लिए क्रिकेट की जुबान में वॉकओवर जैसा रहेगा।
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आज 9 अगस्त को दुनिया भर में मूल निवासियों का अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाया जा रहा है। हिन्दुस्तान में इन्हें आदिवासी कहा जाता है, लेकिन एक राजनीतिक सोच इस शब्द के खिलाफ है, और वह इन्हें वनवासी कहने पर अड़ी रहती है। खैर, आज की चर्चा इस छोटी सोच से परे की है, और आदिवासियों के मुद्दे पर इस सीमित जगह में एक व्यापक बात करने के लिए है। 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर दुनिया भर में बिखरी आदिवासियों या मूल निवासियों की दुनिया के अस्तित्व को मान्यता देने के हिसाब से, उनका सम्मान करने के हिसाब से 9 अगस्त को यह दिन मनाना तय किया गया। हिन्दुस्तान में भी आदिवासियों की एक बड़ी आबादी है, और आज इस सालाना जलसे में क्या सचमुच उनके लिए खुशी मनाने का कुछ है?
दुनिया के विकसित देशों में पिछले कुछ दशकों में यह जागरूकता पैदा हुई है कि वहां के शहरी शासकों ने लोकतंत्र के नाम पर, और शहरी-संगठित धर्म के नाम पर मूल निवासियों के साथ पीढिय़ों तक जो जुल्म किया, उनके लिए आज की सरकार, और संसद को माफी मांगनी चाहिए। कुछ ऐसा ही कैथोलिक ईसाईयों के मुखिया पोप को भी लगा, और उन्होंने अभी कनाडा जाकर वहां के मूल निवासियों से माफी मांगी कि चर्च ने पीढिय़ों तक उनके साथ उन्हें ‘शहरी और सभ्य’ बनाने के नाम पर जुल्म किए। आज जब हिन्दुस्तान में केन्द्र और राज्य सरकारों की तरफ से आदिवासी समुदाय को बधाई दी जा रही है, तो ऐन उसी वक्त उन पर तरह-तरह के गैरकानूनी, कानूनी, और संवैधानिक जुल्म जारी हैं। लोगों को लग सकता है कि भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में संवैधानिक जुल्म कैसे ढहाए जा सकते हैं, लेकिन इस बात के पुख्ता सुबूत हैं कि इस देश में आदिवासियों पर गैरकानूनी मार जितनी पड़ रही है, उतनी ही मार उन शहरी कानूनों की पड़ रही है जो कि शहरियों ने अपनी सहूलियत के लिए बनाए हैं, और जिन्हें आदिवासियों पर लादा जा रहा है।
छत्तीसगढ़ में ही आदिवासी इलाके, हसदेव, के सबसे घने जंगल आज केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, और अडानी के निशाने पर हैं, और वहां की प्रकृति का क्या होगा, वहां बसे लोगों का क्या होगा, और छत्तीसगढ़ के इस फेंफड़े का क्या होगा, कुछ भी तय नहीं है। इसी छत्तीसगढ़ के एक दूसरे सिरे पर बस्तर में आदिवासियों के साथ हिंसा का एक लंबा इतिहास है, और पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के वक्त जो जुल्म हुए हैं, आदिवासियों को थोक में मारा गया है, उसकी जांच रिपोर्ट आ जाने के बाद भी मौजूदा कांग्रेस सरकार उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। आदिवासियों के मामले में इन दो अलग-अलग पार्टियों के रूख में क्या फर्क समझा जाए? क्या कुछ आदिवासियों को मंत्री बना देने से ही देश-प्रदेश में आदिवासियों को हक मिल जाते हैं? हकीकत तो यह है कि दलित, आदिवासी, या ओबीसी, किसी भी तबके के नेता सत्ता पर पहुंचने के बाद अपने वर्ग-चरित्र को खो बैठते हैं, अपने वर्गहित को इस्तेमाल किए गए कंडोम की तरह फेंक देते हैं, और सत्ता-चरित्र में ढल जाते हैं। इसलिए किसी सरकार की आदिवासी नीति वही मानी जानी चाहिए जो काम उसने किए हैं। आज भारत सरकार का एक फैसला खबरों में अधिक नहीं आया है, खुद आदिवासी समाज के भीतर इस पर अधिक चर्चा नहीं हुई है, लेकिन आदिवासियों के बीच के कुछ जागरूक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस बात को उठाया है, और इस बात पर तुरंत ही आगे व्यापक चर्चा होनी चाहिए।
अंग्रेजों के वक्त हिन्दुस्तान में 1872 से हर दस बरस में की जा रही जनगणना को अगर देखें तो शुरू से लेकर 1941 तक जनगणना में आदिवासियों, या मूल निवासियों के लिए अलग से एक दर्जा था। बाकी धर्मों के लिए अलग कॉलम थे, और आदिवासियों के लिए अलग कॉलम। पूरी दुनिया की तरह हिन्दुस्तान के आदिवासी भी किसी भी आधुनिक, शहरी, और संगठित धर्म से अलग थे, और अंग्रेजों की जनगणना में उन्हें वैसा रखा भी गया था। लेकिन आजादी के बाद 1951 की पहली जनगणना में आदिवासियों का कॉलम हटा दिया गया, और ‘अन्य’ नाम के कॉलम में उन्होंने अपनी जगह पाई। वह सिलसिला भी 2011 तक चलते रहा, जब छह प्रमुख शहरी धर्मों को कॉलम मिले, और आदिवासियों को ‘अन्य’ कॉलम में खड़े रहने की जगह मिली। अभी झारखंड की एक आदिवासी कार्यकर्ता गीताश्री उरांव ने एक इंटरव्यू में इस मुद्दे को उठाया है कि 2021 की जनगणना में इस ‘अन्य’ कॉलम को ही खत्म कर दिया गया है, और इसके साथ ही आदिवासियों की पहचान ही जनगणना में खत्म हो गई है। कोरोना की वजह से यह जनगणना समय पर नहीं हो पाई है, और 2023 में यह होने वाली है। लेकिन आज सवाल यह उठता है कि अगर हाल के तीन हजार बरस में पैदा हुए शहरी धर्मों के बीच दसियों हजार बरस से चले आ रहे आदिवासियों की पहचान को बांटने पर इस देश की सरकार आमादा है, तो फिर आज आदिवासी दिवस मनाने की क्या जरूरत है?
संविधान में आदिवासी इलाकों में से कुछ इलाकों में आदिवासी समुदायों, और गांवों को विशेष अधिकार दिए गए हैं। उनकी ग्रामसभाओं के फैसलों को शहरी लोकतंत्र भी नहीं कुचल सकता। लेकिन हो इसका ठीक उल्टा रहा है, छत्तीसगढ़ में ही राज्यपाल ने पिछली रमन सिंह सरकार को भी चिट्ठियां लिखी थीं कि आदिवासी अधिसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकार अपने अधिकार से बाहर जाकर काम कर रही है। और वैसी ही चिट्ठियां राज्यपाल ने आज की कांग्रेस सरकार को भी लिखी हैं। लेकिन इन चिट्ठियों ने सरकारों को आदिवासी अधिसूचित क्षेत्रों में अपने फैसले लादने से नहीं रोका है, और छत्तीसगढ़ के एक के बाद एक कई राज्यपालों ने सरकारों को चिट्ठियां लिखने से अधिक कुछ नहीं किया। राज्यपालों ने तो आदिवासियों की थोक में की गई हत्याओं की जांच रिपोर्ट पर भी कार्रवाई करने को नहीं कहा। यह पूरा सिलसिला अपने आपमें भयानक है, लेकिन यह अधिक भयानक इसलिए है कि देश भर की सरकारें आदिवासियों का भला करने का दावा भी करती हैं, लेकिन उनके बुनियादी मानवाधिकार भी कुचले जा रहे हैं, उनका कत्ल किया जा रहा है।
जब कभी कोई दिन मनाया जाता है, तो उस दिन ये तमाम बातें और तल्खी से सूझती हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि अभी चार दिन बाद हिन्दुस्तान में आजादी की कमी की बात सूझेगी। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और किसी भी तरह के दिवस मनाने का पाखंड भी खत्म होना चाहिए। ऐसे दिन मनाना धर्मों के उन दिनों की तरह है जब अपने किए जुर्म को पाप मानकर उनका प्रायश्चित किया जाता है, और फिर धुली हुई साफ आत्मा पाकर अगले एक साल फिर जुर्म किया जाता है। कुछ ऐसा ही आजादी की सालगिरह पर भी होता है, और आदिवासी दिवस पर भी। हिन्दुस्तान में एक मजबूत किसान आंदोलन ने यह साबित किया है कि बिना हिंसा के लोकतांत्रिक आंदोलनों से हक किस तरह पाया जा सकता है। आज हिन्दुस्तान में ऐसे ही आदिवासी आंदोलन की जरूरत है, क्योंकि ऑस्ट्रेलिया या कनाडा की सरकारों की तरह हिन्दुस्तान की सरकारें आदिवासियों से अगले सौ बरस में भी माफी तो मांगने से रहीं। और आदिवासियों को ऐसी किसी माफी का इंतजार भी नहीं करना चाहिए, ऐसा इंतजार मंदिरों के बाहर दाखिले के इंतजार में खड़े दलितों के इंतजार की तरह का होगा जो कि पाखंड के अलावा कुछ नहीं है। इसलिए आदिवासियों को इस देश में रही-सही अदालती संभावनाओं पर भी काम करना चाहिए, और सडक़ की लड़ाई भी लडऩी चाहिए। आज जब उन्हें संविधान की नोंक पर मजबूर किया जा रहा है कि वे तीन हजार बरस में पैदा हुए धर्मों में से किसी एक को मानें, तो उन्हें संविधान के इस बेजा इस्तेमाल के खिलाफ भी खुलकर लडऩा चाहिए।
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राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कल देश में बलात्कार की घटनाओं पर कहा है कि 2012 में निर्भया गैंगरेप के बाद कानून में हुए बदलाव की वजह से बलात्कार के बाद हत्या के मामलों में बढ़ोत्तरी हुई है। उन्होंने कहा कि जब से कानून बदलकर बच्चियों से रेप करने वाले को फांसी की सजा देने का प्रावधान किया गया है तब से हत्याएं ज्यादा होने लगी हैं। उन्होंने कहा कि बलात्कारी जब देखता है कि पीडि़ता उसके खिलाफ कल गवाह बन जाएगी, तो वो रेप भी करता है, और बच्चियों की हत्या भी कर देता है।
जिस वक्त इस कानून में बदलाव की बात हो रही थी, कानून और समाज के बहुत से और जानकारों की तरह हमने भी इसी जगह पर यह बात लिखी थी कि बलात्कार पर हत्या के बराबर सजा कर देने से बलात्कार की शिकार को मार डाले जाने का खतरा बढ़ जाएगा। लोगों को लगेगा कि जब बलात्कार की सजा भी उतनी ही मिलनी है, तो फिर हत्या करके एक गवाह खत्म कर दिया जाए, और सजा तो उससे भी उतनी ही मिलेगी। कई कानून ऐसे जनदबाव के बीच बनते हैं जब सत्तारूढ़ लोगों, या कि अदालत के जजों को भी फैसले लेते-देते हुए यह ख्याल रहता है कि लोग क्या कहेंगे? जज भी इस दबाव से परे नहीं रह पाते, और लोगों के वोट से जीतने वाले नेता तो लोगों का चेहरा देख-देखकर ही फैसले लेते हैं। इसलिए बहुत से ऐसे मौके रहते हैं जब जनता के आंदोलन के चलते पुलिस किसी बेकसूर को भी पकडक़र अदालत में पेश कर देती है, और वहां से वे छूट जाते हैं। कई बार पुलिस और दूसरे सुरक्षाबल अपने साथियों की बड़ी मौतों के बाद उनकी भावनाओं का ख्याल रखते हुए बेकसूर लोगों को या तो मुठभेड़ बताकर मार डालते हैं, या फिर बेकसूरों को पकडक़र उन पर मुकदमा चलाने लगते हैं, जैसा कि हाल ही में बस्तर में 120 से अधिक बेकसूर आदिवासियों की रिहाई से साबित हुआ है। दूसरी तरफ उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में सांप्रदायिक तनाव के चलते सत्तारूढ़ पार्टी अपने को नापसंद लोगों के घर-दुकान पर बुलडोजर चलाने लगती है क्योंकि उसे अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों की साम्प्रदायिक हिंसक भावनाओं को शांत करना है, और दूसरे धर्म के लोगों को सबक सिखाना है।
दबाव में किया गया कोई भी काम न्यायोचित नहीं हो पाता है। संसद या विधानसभा में कई बार सत्ताबल के दबाव में ऐसे विधेयक पास हो जाते हैं, और कानून बन जाते हैं जो कि जनविरोधी होते हैं, या जिनके साथ बेजा इस्तेमाल का खतरा अधिक बड़ा होता है, बजाय उनसे फायदा होने के। भारतीय संसद में ऐसे बहुत से कानून बने हैं, जो कि जनदबाव में बने, या जनता को लुभाने के लिए बने, या संसद के भीतर सत्ता के अपार बाहुबल के मुकाबले विपक्ष की सीमित आवाज को कुचलते हुए बने। ये सारे कानून आगे जाकर बड़ी दिक्कत खड़ी करते आए हैं, और उनमें कई किस्म की सुधार की नौबत भी आती है। बच्चियों से बलात्कार पर फांसी की सजा का प्रावधान इसी तरह का एक कानून था जिसे लेकर कम से कम अब केन्द्र और राज्य सरकारों को यह सर्वे करना चाहिए कि क्या ऐसे मामलों में बलात्कार की शिकार बच्चियों की हत्याओं के मामले बढ़े हैं?
अभी बहुत से अलग-अलग ऐसे मामलों के वीडियो सामने आते हैं जिनमें राजनीतिक ताकत से लैस कोई बाहुबली किसी महिला से बदसलूकी कर रहा है, या कि कोई अफसर अपनी मातहत महिला से। ऐसे तमाम मामलों को लेकर कानून में एक संशोधन की जरूरत है कि जब कभी अधिक ताकतवर लोग कमजोर लोगों पर कोई जुल्म ढाते हैं, उन ताकतवर लोगों को आम लोगों के मुकाबले अधिक कड़ी सजा भी दी जानी चाहिए, और उनकी संपन्नता के अनुपात में उन पर जुर्माना भी लगाना चाहिए। आज जब अदालत किसी अरबपति पर दो हजार रूपये का जुर्माना लगाती है, और जब किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता पर जनहित याचिका लगाने पर पांच लाख रूपये का जुर्माना लगाती है, तो अदालत के इंसाफ पर से भरोसा उठ जाता है। कल ही देश के एक बड़े वकील, और यूपीए सरकार के समय कानून मंत्री रहे हुए कपिल सिब्बल ने कहा है कि अब सुप्रीम कोर्ट पर से उनका भरोसा उठ गया है। जिस आदमी की पूरी जिंदगी ही कानून के साथ गुजरी हो वह अगर आज सार्वजनिक रूप से मंच से माईक पर यह बात कह रहा है, तो इससे आम गरीब लोगों के कानून पर से भरोसा उठ जाने में कोई हैरानी नहीं रहनी चाहिए। कपिल सिब्बल ने कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर अपना सदमा जाहिर करते हुए निराशा में यह बात कही है, लेकिन आज देश के बहुत से लोगों का यह मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी नाजायज आ रहे हैं। दूसरी तरफ बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि देश की संसद बहुत से गलत कानून बना रही है। जिन तीन किसान कानूनों को मौजूदा मोदी सरकार ने अपने संसदीय बाहुबल से बना ही दिया था, उन्हें एक बरस से अधिक लगातार चले अभूतपूर्व किसान आंदोलन ने वापिस लेने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन अगर उतना लंबा आंदोलन नहीं चला होता तो वे कानून तो देश पर लागू हो ही चुके थे। इसलिए एक बात बिल्कुल साफ है कि संसद या विधानसभा के भीतर असंतुलित ताकत लोकतंत्र को मजबूत करने के काम की नहीं रहती, उससे सत्तारूढ़ पार्टी गलत कानून बनवा सकती है, बनाती है। अब इस एक संदर्भ को छोडक़र बात करें, तो लोगों का यह तर्क भी हो सकता है कि भारतीय लोकतंत्र में जब संसद या विधानसभा में किसी पार्टी या गठबंधन का बाहुबल पर्याप्त नहीं होता है, तो उसके लोगों को तोड़-फोडक़र, खरीदकर सरकार गिराई भी जा सकती है, गिराई जाती है।
आज यहां पर लिखी गई बातें टुकड़ा-टुकड़ा कई मुद्दों को छूती हुई हैं, और इन सब पर अलग-अलग सोचने की जरूरत है, और एक साथ मिलाकर भी।
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लोकतंत्र जब कमजोर होता है, तो कई तरफ से होने वाले हमलों की वजह से कमजोर होता है, किसी एक वजह से नहीं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान एक ही दिन दो आजाद मुल्क बने थे, और हिन्दुस्तान अभी कुछ बरस पहले तक लोकतंत्र के पैमानों पर एक मजबूत देश माना जाता था। हाल के बरसों में इस देश में लोकतांत्रिक ढांचा बुरी तरह कमजोर हुआ है, लेकिन फिर भी जब कभी पड़ोस के पाकिस्तान से इसकी तुलना की जाती है तो यह एक बेहतर, और एक अधिक विकसित लोकतंत्र दिखता है। दरअसल लोगों की नजरों में आर्थिक विकास और लोकतांत्रिक विकास के बीच कई बार कोई फर्क नहीं भी रह जाता है। लोग देश के बेहतर ढांचे को बेहतर लोकतांत्रिक विकास भी मान लेते हैं। इस पैमाने से तो तेल की दौलत से रईस बने हुए खाड़ी के देश सबसे अधिक लोकतांत्रिक मान लिए जाने चाहिए क्योंकि वहां आधुनिक सुविधाओं का ढांचा सबसे विकसित है, या उस सिंगापुर को अधिक लोकतांत्रिक मान लेना जाना चाहिए जहां लोगों के नागरिक अधिकार कम हैं। इसलिए भारत के आर्थिक विकास को भारत का लोकतांत्रिक विकास भी मान लेना एक खुशफहमी की बात हो सकती है, जिससे समझदार लोगों को बचना चाहिए।
अब आज इस तुलना और चर्चा की जरूरत इसलिए आ पड़ी है कि ताजा खबर यह है कि पाकिस्तान में पिछले प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी, पीटीआई, के 123 सांसदों के इस्तीफों के बाद किश्तों में मंजूर किए जा रहे इस्तीफों से अब तक ग्यारह सीटें खाली हुई हैं, और इमरान खान ने उनमें से जनरल सभी नौ सीटों पर खुद चुनाव लडऩे की घोषणा की है। वहां की मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी के साथ संसद के भीतर और बाहर चल रही लगातार तनातनी के बीच अपनी पार्टी का बाहुबल दिखाने के लिए इमरान खान ने यह घोषणा की है, पिछली बार भी वे पांच सीटों पर लड़े थे, और कानून के मुताबिक उन्हें जीती गई पांच सीटों में से चार से इस्तीफा देना पड़ा था। इस बार अगर वे सभी ग्यारह सीटों पर जीतते हैं, तो दस सीटों पर उपचुनाव की नौबत आएगी जो कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में कम खर्चीला काम नहीं होता है। पड़ोस के श्रीलंका में सरकार पर से लोगों का भरोसा खत्म हो चुका है, हर कोई यही मान रहे हैं कि यह चुनाव करवाने का सही मौका है, लेकिन वहां चुनाव करवाने के लिए भी पैसे नहीं हैं। इसलिए हर उस देश में जहां गरीबी है, यह भी देखना चाहिए कि लोग संवैधानिक अधिकारों का ऐसा बेजा इस्तेमाल न करें जो कि जनता पर ही खर्च बनकर टूट पड़े। हिन्दुस्तान में भी कई बार बड़े-बड़े नेताओं को जब यह आशंका रही कि किसी एक सीट पर उन्हें बुरी तरह हराया जा सकता है, या उनके खिलाफ कोई साजिश की जा सकती है, तो उन्होंने दो सीटों से भी चुनाव लड़ा है। लेकिन इसे अच्छी नजर से नहीं देखा जाता, और यह माना जाता है कि यह हौसले की कमी का नतीजा है। इमरान खान के बारे में यह कहा जा रहा है कि उनके खिलाफ चल रही तरह-तरह की जांच में जांच एजेंसियों पर दबाव बनाने के लिए वे ऐसी हरकत कर रहे हैं कि बहुत सी सीटों पर जीतकर वे अधिक वजनदार साबित हो सकें, और जांच प्रभावित हो सके। जो भी हो, यह सिलसिला सिरे से गलत है, और हिन्दुस्तान में आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सौ चुनिंदा सीटों पर भी लडक़र उनमें से अधिकतर सीटों पर जीत सकते हैं, और बाकी तमाम सीटों पर बाद में एक मिनी आम चुनाव की नौबत आ सकती है। लेकिन इसका खर्च तो देश पर ही आएगा।
हिन्दुस्तान में बहुत सी जगहों पर ऐसा हुआ है कि कोई मुख्यमंत्री इस्तीफे की नौबत आने पर बीवी या बच्चों को चुनाव लड़वाकर तब तक सीट भरी रखते हैं, जब तक वे खुद दुबारा चुनाव लडऩे लायक नहीं हो जाते। मध्यप्रदेश में ही कमलनाथ का मामला ऐसा ही था, उन्हें एक विवाद के चलते लोकसभा सीट छोडऩी पड़ी थी, उन्होंने अपनी पत्नी को चुनाव लड़वाकर जिता दिया, और फिर खुद चुनाव लडऩे की नौबत आने पर पत्नी से इस्तीफा दिलवाकर खुद चुनाव लड़ा, और शायद इस रूख को अहंकारी मानते हुए जनता ने उन्हें उनकी परंपरागत सीट से हरा ही दिया था। लेकिन पाकिस्तान में जिस तरह इमरान पांच सीटों पर लड़े और इस बार ग्यारह सीटों पर लडऩे की मुनादी की है, उसकी तो कोई मिसाल किसी तानाशाही में भी नहीं मिलती। जिस पाकिस्तान में लोकतंत्र ठीक से पनप नहीं पाया है, उसी पाकिस्तान में कोई नेता लोकतंत्र के नाम पर इस दर्जे की तानाशाही और बेशर्मी दिखा सकते हैं।
लेकिन हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका और ऐसे दूसरे देशों से भी लोकतंत्र को कुछ सीखते चलने की जरूरत रहती है। जिस तरह हिन्दुस्तान में बहुत से लोकतांत्रिक मूल्य कुचले जा रहे हैं, और लोकतांत्रिक परिपक्वता, राजनीतिक जागरूकता खत्म की जा रही है, वह जरूरी नहीं है कि सिर्फ चुनावों को प्रभावित करे, वह रोज की जिंदगी को भी प्रभावित कर सकती है, और उसका नुकसान राजनीति से परे भी रोज की जिंदगी में देखने मिल सकता है। पाकिस्तान में किसी वक्त फौज को बढ़ावा दिया गया, तो किसी वक्त एक धर्म को देश का राजकीय धर्म बना लिया गया। इससे आगे चलकर लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर होते चले गए, और धर्म बढ़ते-बढ़ते धार्मिक आतंकवाद में तब्दील हो गया। वहां अल्पसंख्यक मारे जाने लगे, और अब तो पाकिस्तान की सरकार भी अगर चाहती है कि अल्पसंख्यक न मारे जाएं, तो भी वह रोक पाना सरकार के बस में नहीं रह गया है। जब लोकतांत्रिक संस्थान कमजोर होते हैं तो देश में ताकतवर संस्थाएं भ्रष्ट होने लगती हैं, पाकिस्तान बहुत बुरी तरह इसका शिकार रहा, वहां के प्रधानमंत्री और फौजी तानाशाह देश छोडक़र दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हुए क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के बहुत से मामले रहे। लेकिन आज पाकिस्तान में एक सहूलियत या दिक्कत यह हो गई है कि तकरीबन तमाम पार्टियां भ्रष्ट हैं, और किसी पर इस बात को लेकर बदनामी का कोई खास खतरा नहीं रह गया है। हिन्द महासागर के इस इलाके में ये देश अड़ोस-पड़ोस के हैं, और भारत को अपने इन सरहदी देशों के साथ तजुर्बों से सबक लेना भी सीखना चाहिए। पाकिस्तान और श्रीलंका आज जिस बदहाली में पहुंचे हुए हंै, उसमें धर्मान्धता का खासा हाथ रहा है, अल्पसंख्यकों पर ज्यादती का खासा हाथ रहा है, और इस एक बात का सबक तो भारत को तुरंत ही लेना चाहिए। इन देशों के मुकाबले भारत की बेहतर अर्थव्यवस्था भारत में लोकतंत्र की बेहतर स्थिति का सुबूत नहीं है, इस धोखे में आने से भी लोगों को बचना चाहिए।
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