विचार/लेख
-संजीव कुमार
वह रोज की तरह अपनी किराने की दुकान बंद करके गली में थोड़ी देर टहलने निकले ही थे कि पीछे से एक मासूम सी आवाज आई — ‘अंकल... अंकल...’
वे पलटे। एक लगभग 7-8 साल की बच्ची हांफती हुई उनके पास आ रही थी।
‘क्या बात है... भाग कर आ रही हो?’ उन्होंने थोड़े थके मगर सौम्य स्वर में पूछा।
‘अंकल पंद्रह रुपए की कनियाँ (चावल के टुकड़े) और दस रुपए की दाल लेनी थी...’ बच्ची की आंखों में मासूमियत और ज़रूरत दोनों झलक रहे थे।
उन्होंने पलट कर अपनी दुकान की ओर देखा, फिर कहा —
‘अब तो दुकान बंद कर दी है बेटा... सुबह ले लेना।’
‘अभी चाहिए थी...’ बच्ची ने धीरे से कहा।
‘जल्दी आ जाया करो न... सारा सामान समेट दिया है अब।’ उन्होंने नर्म मगर व्यावसायिक अंदाज़ में कहा।
बच्ची चुप हो गई। आंखें नीची कर के बोली —
‘सब दुकानें बंद हो गई हैं... और घर में आटा भी नहीं है...’
उसके ये शब्द किसी हथौड़े की तरह उनके सीने पर लगे।
वे कुछ देर चुप रहे। फिर पूछा, ‘तुम पहले क्यों नहीं आई?’
‘पापा अभी घर आए हैं... और घर में...’ वो रुकी, शायद आँसू रोक रही थी।
उन्हें कुछ और पूछने की ज़रूरत नहीं थी। उन्होंने बच्ची की आंखों में देखा और बिना कुछ कहे, ताले की चाबी जेब से निकाल ली। दुकान का ताला खोला, अंदर घुसे, और समेटे हुए सामान को हटाते हुए कनियाँ और दाल बिना तोले ही थैले में डाल दी।
बच्ची ने थैला पकड़ते हुए कहा-‘धन्यवाद अंकल...’
‘कोई बात नहीं। अब घर ध्यान से जाना।’
इतना कह कर उन्होंने दुकान फिर से बंद कर दी।
उस रात वह जल्दी सो नहीं पाए। मन में बच्ची की उदासी, उसका मासूम चेहरा और वो शब्द ‘घर में आटा भी नहीं है...’ गूंजते रहे।
उन्हें अपना बचपन याद आ गया।
एक ब्रिटिश चैरिटी की रिपोर्ट के मुताबिक चीनी दवा ‘एजियाओ’ की मांग के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 60 लाख गधों को मार दिया जाता है। यह स्थिति गधों के व्यापक अवैध व्यापार को जन्म दे रही है।
पारंपरिक चीनी औषधि ‘एजियाओ’ की बढ़ती मांग के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 60 लाख गधों को मारा जा रहा है। इससे अफ्रीकी गांवों में रहने वाले लाखों लोगों का दैनिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। यह बात ब्रिटेन स्थित चैरिटी संस्था ‘द डॉन्की सैंक्चुरी’ द्वारा हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में कही गई है।
एजियाओ एक जेली जैसा हेल्थ सप्लीमेंट है, जिसमें गधे की खाल से प्राप्त कोलेजन का इस्तेमाल किया जाता है। चीन की रिसर्च कंपनी कियानझान के मुताबिक, चीन में इस उद्योग का मूल्य 6।8 अरब डॉलर तक पहुंच गया है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है।
दवा के लिए मारे जा रहे गधे
साल 1992 में चीन में गधों की आबादी 1 करोड़ दस लाख थी जो साल 2023 में घटकर 15 लाख रह गई है। उसने अपनी मांग को पूरा करने के लिए अफ्रीका और पाकिस्तान का रुख किया है।
गधों की तेजी से घटती आबादी को देखते हुए अफ्रीकी संघ ने पिछले साल गधों के वध पर 15 साल का प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन इसके बावजूद अवैध व्यापार जारी है।
द डॉन्की सैंक्चुरी ने कहा कि एजियाओ उद्योग बड़े पैमाने पर वैश्विक व्यापार की तरह चलाता है और इसका अधिकांश हिस्सा अवैध है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल अकेले दुनिया भर में 59 लाख गधे मारे गए, जबकि अनुमान है कि 2027 तक एजियाओ उद्योग को कम से कम 68 लाख गधों की खाल की जरूरत होगी।
फि़ल्म निर्माता और निर्देशक इम्तियाज अली का सोशल मीडिया पर ट्रेंड करना कोई नई बात नहीं है लेकिन पिछले 29 जून को उनका अचानक ट्रेंड करना थोड़ा अजीब सा था।
जब इसकी वजह जानने के लिए ट्रेंड देखना शुरू किया तो पता चला कि एक न्यूज चैनल पर उनका इंटरव्यू आया है, जिसकी वजह से वह ट्रेंड कर रहे हैं।
एक यूजऱ के कॉमेंट ने अपनी ओर ध्यान खींच लिया, जिसमें लिखा गया था कि इम्तियाज़ अली फि़ल्मों का निर्देशन नहीं करते बल्कि वह भावनाओं का निर्देशन करते हैं।
एनडीटीवी के प्रोग्राम ‘क्रिएटर मंच’ पर इम्तियाज़ अली ने अपनी फिल्मों के बारे में बात की, जहां उनसे प्यार को परिभाषित करने के लिए कहा गया।
जवाब में उन्होंने कहा, ‘जो प्यार पूरा हो जाता है, वह ख़त्म हो जाता है, जो अधूरा रह जाता है, वह जि़ंदा रहता है और यही वजह है कि ‘हीर-रांझा’ से लेकर ‘लैला-मजनूं’ तक मोहब्बत की सभी महान दास्तानें अधूरी हैं।’
अधूरा प्यार
उन्होंने विस्तार से बताया, ‘सब पूरा होकर ख़त्म हो जाता है। जो आधा है, वह जि़ंदा है क्योंकि जब कोई चीज़ अपने अंजाम को पहुंच जाती है तो वह ख़त्म हो जाती है। फिर इसमें कोई जिज्ञासा बची नहीं रहती।’
‘कोई दिलचस्पी नहीं रह जाती है, कोई ऊर्जा नहीं रह जाती है लेकिन जब कोई चीज अधूरी रह जाती है तो वह शख़्स और उसे देखने वाला उसके बारे में सोचता रहता है। वह चीज़ उसकी जिंदगी का हिस्सा बनी रहती है, शायद यही वजह है।’
जब उनसे यह कहा गया कि उनकी फिल्मों और ख़ास तौर पर 'रॉकस्टार' में हीर अपने पति को धोखा दे रही होती है, तो उन्होंने कहा, ‘आप मोहब्बत की सभी बड़ी दास्तानें देखें तो उसमें महिलाएं शादीशुदा होती हैं लेकिन वह अपने प्यार को भुला नहीं पातीं और अपने प्रेमी से मिलती हैं।’
दिलजीत सिंह पर सवाल
एनडीटीवी के पत्रकार और प्रोग्राम के प्रेज़ेंटर शुभंकर मिश्रा ने इम्तियाज़ अली से दिलजीत सिंह के बारे में भी एक सवाल किया। यह सवाल था कि उनका पाकिस्तानी अभिनेत्री के साथ काम करना कितना सही था?
इम्तियाज अली ने उनके साथ ‘अमर सिंह चमकीला’ बनाई है।
इम्तियाज अली ने कहा कि वह दिलजीत सिंह को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं, इसलिए कह सकते हैं कि ‘वह एक देशभक्त हैं और इस धरती के बेटे हैं। वह कंसर्ट्स के अंत में भारत का झंडा लहराते हैं और पंजाब की धरती का बखान करते हैं।’
उन्होंने कहा कि किसी कलाकार को फि़ल्म में कास्ट करना किसी अभिनेता का नहीं बल्कि यह फिल्म बनाने वालों का फैसला होता है।
इससे पहले ‘हाईवे’ और ‘रॉकस्टार’ जैसी संवेदनशील और सुपरहिट फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर इम्तियाज अली ने एक बार कहा था कि फिल्मी दुनिया के लोग राजनीतिक बयानों के लिए फिट नहीं हैं।
उन्होंने कहा था कि डायरेक्टर और फि़ल्म प्रोड्यूसर के तौर पर, ‘मैं मानता हूं कि देश या विदेश में होने वाली घटनाओं से हम प्रभावित ज़रूर होते हैं। हम उन्हें समझ सकते हैं, दिखा भी सकते हैं लेकिन पूरी जानकारी के बिना इस पर कोई राय नहीं दे सकते।’
उनसे एक सवाल उनके व्यक्तिगत जीवन में प्रेम के बारे में किया गया जिस पर उन्होंने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि वह अपनी मोहब्बत को ढूंढने में एक दिन कामयाब हो जाएंगे।
-जैस्मिन फॉक्स स्केली
दुनिया के कई हिस्सों में वीगन खाने का चलन बढ़ रहा है। हालांकि इस बारे में आंकड़े सीमित हैं लेकिन 2018 में दुनिया की लगभग तीन फ़ीसदी आबादी वीगन खाना खा रही थी।
वीगन भोजन में नॉन वेज और डेयरी उत्पाद समेत कोई भी एनिमल प्रोडक्ट शामिल नहीं होते हैं। सिफऱ् पेड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थों को ही खाया जाता है।
अमेरिका में 2023 में हुए एक गैलप पोल में एक फ़ीसदी लोगों ने कहा कि वे वीगन डायट लेते हैं। हाल में द वीगन सोसाइटी के सर्वे में कहा गया है कि ब्रिटेन की लगभग तीन फ़ीसदी आबादी यानी लगभग 20 लाख लोग पूरी तरह वीगन खाना खाते हैं।
वीगन भोजन के फ़ायदों के पुष्टि हो चुकी है। पहला तो ये कि इसमें मांस और डेयरी प्रोडक्ट का इस्तेमाल नहीं होता, जो पर्यावरण को नुक़सान पहुंचाने वाले माने जाते हैं। दूसरी ओर पेड़-पौधों से मिलने वाला भोजन ज़्यादा टिकाऊ विकल्प माना जाता है।
संतुलित और विविधता से भरे वीगन आहार सेहत के लिए फ़ायदेमंद हैं, इसके सबूत भी हैं।
हालांकि कुछ मामलों में शिशुओं में गंभीर कुपोषण के मामले सामने के बाद लोगों ने कहना शुरू किया कि वीगन डायट बच्चों के लिए ठीक नहीं है।
लेकिन इस बारे में विशेषज्ञों की राय बँटी हुई है कि वीगन डायट से बच्चों को नुक़सान पहुंचता है।
अमेरिका और ब्रिटेन के आधिकारिक पोषण संगठनों का कहना है कि सही तरीके से प्लान किया जाए तो ये शिशुओं और बच्चों के लिए सुरक्षित हो सकता है। लेकिन फ्रांस, बेल्जियम और पोलैंड में स्वास्थ्य अधिकारी इसे लेकर चिंता जताते रहे हैं।
दुर्भाग्य से अभी तक बच्चों के स्वास्थ्य पर वीगन डायट के असर पर बहुत कम रिसर्च हुई है। हालांकि अब जो अध्ययन हो रहे हैं वो इस बारे में नई जानकारी दे रहे हैं।
आखिर वीगन आहार लेने वाले क्या नहीं खाते हैं।
दरअसल वो कोई भी एनिमल प्रोडक्ट नहीं खाते। वो मांस, मछली, दूध और अंडे से परहेज करते हैं। उनके आहार में फल, फूल, सब्जिय़ां और पत्तियां होते हैं। इनमें सब्जियां, फल, मेवे, बीज, दालें, ब्रेड,पास्ता और हमस जैसी चीज़ें शामिल हैं।
रिसर्च क्या बताती है?
इंपीरियल कॉलेज लंदन की पोषण वैज्ञानिक और जेओई कंपनी में प्रमुख पोषण विशेषज्ञ फेडेरिका अमाती कहती हैं, ‘हमें इस आहार का सबसे बड़ा लाभ हृदय स्वास्थ्य को बेहतर रखने में दिखा है। जो लोग वीगन डायट लेते हैं, उनका एलडीएल कोलेस्ट्रॉल (खऱाब कोलेस्ट्रॉल) कम होता है। रक्त धमनियों में ब्लॉकेज कम होते हैं और हार्ट अटैक और स्ट्रोक का जोख़िम कम होता है। वे आम तौर पर दुबले-पतले होते हैं। उनमें मोटापा बढऩे का ख़तरा कम होता है।’
वीगन आहार मेटाबॉलिक बीमारियों जैसे टाइप 2 डायबिटीज और कुछ कैंसर जैसे कोलोरेक्टल कैंसर के ख़तरे को भी कम करता है।
दरअसल पौधे फाइबर से भरपूर होते हैं। फाइबर वह पोषक तत्व है, जिसकी कमी 90 फ़ीसदी लोगों में पाई जाती है। पौधों में पॉलीफेनोल पाए जाते हैं। इनमें एंटीऑक्सीडेंट होते हैं, जो हार्ट अटैक, स्ट्रोक और डायबिटीज जैसी बीमारियों के ख़तरे को कम करते हैं।
मीट और डेयरी प्रोडक्ट में आम तौर पर सेचुरेटेड फैट होता है। इन्हें ज़्यादा खाने से शरीर में खऱाब कोलेस्ट्रॉल बढ़ सकता है। ये हृ़दय रोग का ख़तरा बढ़ाता है।
अमाती कहती हैं, ‘भोजन के मामले में यह देखना ज़रूरी है कि वह हमारे शरीर को क्या दे रहा है और किस तरह दे रहा है।’
‘अगर आप एक स्टीक (बीफ का टुकड़ा ) खा रहे हैं, तो आपको उससे प्रोटीन, आयरन, जिंक और कुछ माइक्रो न्यूट्रिएंट्स मिलते हैं। लेकिन इसके साथ ही आप सेचुरेटेड फैट और कार्निटिन जैसे केमिकल भी ले रहे होते हैं। इस तरह का भोजन आपकी एनर्जी बढ़ा सकता है लेकिन माना जाता है कि यह आंत में सूजन बढ़ा सकता है।’
वो कहती हैं, ‘लेकिन अगर आप एडामेमे (एक तरह का सोयाबीन) खा रहे हैं तो इसमें भरपूर प्रोटीन होता है। इसमें फाइबर, विटामिन, खनिज और पॉलीफेनोल जैसे हेल्दी कंपाउंड भी होते हैं।’
लेकिन वीगन डायट तभी अच्छा हो सकता है, जब ये संतुलित हो।
भोजन के लिए पौधों पर बहुत ज़्यादा निर्भरता से आपके शरीर में कुछ ज़रूरी पोषक तत्वों की कमी हो सकती है। ये पोषक तत्व सिर्फ मांस मछली, अंडे और दूध में मिलते हैं।
विटामिन बी-12 की कमी
शरीर में विटामिन बी12 की पूर्ति एक बड़ी चुनौती है। ये एक माइक्रो न्यूट्रिएंट्स है, जो केवल जानवरों के शरीर में पाए जाने वाले बैक्टीरिया बनाते हैं और यह मांस, मछली, अंडे, डेयरी प्रोडक्ट वगैरह में पाया जाता है।
इसके वीगन स्रोत हैं-न्यूट्रिशनल यीस्ट, मार्माइट, नोरी सीविड फोर्टिफाइड दूध या अनाज और सप्लीमेंट्स। लेकिन वीगन भोजन करने वाले बहुत से लोग सप्लीमेंट नहीं लेते हैं। उनमें ये कमी दिखती है।
विटामिन बी12 मस्तिष्क में नसों के लिए जरूरी होता है और स्वस्थ लाल रक्त कोशिकाएं बनाने में भी मदद करता है।
वयस्कों में इसकी कमी देर से सामने आती है क्योंकि उनका शरीर इसे स्टोर कर सकता है। लेकिन बच्चों में ये कमी जल्द दिख सकती है। जैसे, कुछ रिपोर्ट में पाया गया कि वीगन डायट लेने वाली मांओं के स्तनपान पर निर्भर शिशुओं में बी12 की कमी की वजह से न्यूरोलॉजिकल दिक्कतें आईं।
अमाती कहती हैं, ‘बच्चों को सबसे ज़्यादा पोषण की ज़रूरत होती है, क्योंकि वे उनके शरीर में नए टिश्यू बन रहे होते हैं। आपके सामने उनका शरीर बन रहा होता है।’
वो कहती हैं, ‘अगर बच्चों के शरीर बढऩे के इस अहम दौर में उन्हें बी12 जैसे पोषक तत्व न मिलें, तो यह तंत्रिका तंत्र और लाल रक्त कोशिकाओं को नुक़सान पहुंचाता है। इससे उनके सीखने की क्षमता और मस्तिष्क के विकास पर असर पड़ सकता है।’
ओमेगा-3 की भी हो सकती है कमी
वीगन डायट लेने वाले बच्चों में ओमेगा-3 फैटी एसिड की भी कमी हो सकती है।
ये पॉली अनसेचुरेटेड फैट एक ऐसा बिलिपिड झिल्ली बनाता है।
ये शरीर की हर कोशिका को घेरे रहती है। मस्तिष्क के काम करने के लिए ये बहुत जरूरी है।
ओमेगा-3 सेहत को ये फ़ायदा पहुंचाते हैं। लेकिन ईपीए (इकोसापेंटेनोइक एसिड) और डीएचए (डोकोसाहेक्सैनोइक एसिड), केवल मछली और शैवाल में पाए जाते हैं।
ओमेगा-3 की एक किस्म, अल्फा-लिनोलेनिक एसिड (एएलए) चिया सीड्स और अलसी के बीजों के साथ-साथ पत्तीदार हरी सब्जियों में पाई जाती है।
हालांकि एएलए सेहत के लिए उतना फ़ायदेमंद नहीं हैं, जितने ईपीए और डीएचए।
अन्य पोषक तत्व जैसे कैल्शियम, विटामिन डी और आयोडीन भी पौधों में मिलते हैं, लेकिन कम मात्रा में।
पोषण की कमी
वीगन आहार लेने वाले बच्चोंं में पोषण के कुछ अलग-अलग लेकिन गंभीर मामले सामने आए हैं।
2016 में, इटली के मिलान शहर में एक साल के वीगन बच्चे को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। क्योंकि उसके खूऩ में कैल्शियम का स्तर ख़तरनाक तौर पर कम था।
2017 में बेल्जियम में एक सात महीने के शिशु की मौत हो गई। उसके माता-पिता उसे केवल वीगन दूध (जई, अनाज, चावल, किनोआ से बना) पिला रहे थे।
वीगन लोगों के लिए ये अच्छी बात है कि इन न्यूट्रिएंट्स की कमी सप्लीमेंट्स और फ़ोर्टिफाइड अनाज और दूध से पूरी की जा सकती है।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लीनिकल डाइटिशियन और मानद रिसर्च फेलो मालगोर्टज़ा डेसमंड कहती हैं, ‘बी-12 की कमी को हम पूरी तरह सप्लीमेंट से पूरी कर सकते हैं। इसके लिए ये सबसे आसान तरीका है।’
लेकिन आयरन और जि़ंक जैसे अन्य पोषक तत्वों पर ज्ज्यादा ध्यान जरूरी है।
ये तत्व हरी सब्जियों में होते हैं, लेकिन मांस या डेयरी प्रोडक्ट की तुलना में शरीर में इनका अवशोषण कम होता है।
हालांकि एक बच्चे को सभी ज़रूरी पोषक तत्व सप्लीमेंट्स और योजना बना कर तैयार किए गए आहार से मिल जाएं। लेकिन अध्ययन बताते हैं असल में हमेशा ऐसा नहीं होता।
सावधानी से करनी होगी डायट प्लानिंग
2021 में, डेसमंड और उनके सहयोगियों ने पोलैंड में 187 बच्चों पर एक अध्ययन किया। ये बच्चे या तो वीगन थे या शाकाहारी या फिर वीगन या ग़ैर वीगन आहार, दोनों ले रहे थे।
दो-तिहाई वीगन और शाकाहारी बच्चों ने बी-12 सप्लीमेंट्स लिए थे। लेकिन कुल मिलाकर वीगन बच्चों में कैल्शियम का स्तर कम था और वो आयरन, विटामिन डी और बी-12 की कमी के जोखिम से जूझ रहे थे।
इस अध्ययन के मुताबिक़ वीगन बच्चों का स्वास्थ्य दोनों तरह यानी वीगन और एनिमल प्रोडक्ट खाने वाले बच्चों से कुछ मामलों में अलग था।
हालांकि अच्छी बात ये थी कि वीगन डायट लेने वाले दुबले-पतले थे और उनमें कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम था। इससे भविष्य में उनके हृदय रोग से जूझने की आशंका कम हो सकती थी। उनके शरीर में सूजन के भी कम संकेत मिले।
बच्चों की लंबाई पर असर
अध्ययन के मुताबिक़ वीगन डायट लेने वाले बच्चों की एनिमल प्रोडक्ट लेने वाले बच्चों से लंबाई कम पाई गई।
वीगन डायट लेने वाले बच्चे उनसे तीन से चार सेंटीमीटर छोटे पाए गए। हालांकि वीगन डायट लेने वाले बच्चों की लंबाई उनकी उम्र के हिसाब से सामान्य थी।
डेसमंड कहती हैं, ‘वे (वीगन डायट लेने वाले बच्चे) कद में थोड़े छोटे और वजन में हल्के हो सकते हैं। लेकिन हमें ये नहीं पता कि क्या ये किशोरावस्था आने तक ये कद में उन बच्चों की बराबरी कर लेंगे या नहीं, जो एनिमल प्रोडक्ट ले रहे थे।’
हालांकि ज्य़ादा चिंता की बात यह थी कि शाकाहारी बच्चों की हड्डियों की बोन डेनसिटी एनिमल प्रोडक्ट लेने वाले बच्चों की तुलना में छह फ़ीसदी कम थी।
इसका मतलब ये कि भविष्य में उन्हें ऑस्टियोपोरोसिस और फ्रैक्चर का खतरा अधिक हो सकता है।
डेसमंड कहती हैं, ‘हमारे पास हड्डियों को मज़बूत बनाने का समय बहुत सीमित होता है। यह लगभग 25 से 30 वर्ष की उम्र तक ही होता है। इसके बाद हमारी हड्डियों में मिनरल्स की मात्रा धीरे-धीरे कम होती जाती है। अगर आपकी हड्डियों में 25 साल की उम्र तक पर्याप्त मिनरल नहीं बने तो फिर ये कम ही होने लगता है।’
वीगन आहार लेने वाले वयस्क लोगों पर हुई रिसर्च के मुताबिक़ उनकी हड्डियों में भी एनिमल प्रोडक्ट लेने वालों की तुलना में मिनरल्स डेनसिटी कम होती है। जिससे उनमें फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है।
हालांकि इस मिनरल की कमी का सही वजह अभी पूरी तरह समझी नहीं जा सकी है।
विटामिन डी और कैल्शियम दोनों ही हड्डियों को मज़बूत बनाने और बनाए रखने के लिए जरूरी हैं लेकिन डेसमंड का कहना है कि 2021 के उनके अध्ययन में वीगन बच्चों में कैल्शियम का सेवन दूसरों बच्चों की तुलना में कम था। लेकिन ये अंतर बहुत ज्य़ादा नहीं था।
डेसमंड कहती हैं, ‘मुझे लगता है ये कई वजहों का मेल है। यह केवल कैल्शियम की गोली लेने से हल नहीं होगा।’ क्योंकि यह पौधों से मिलने वाले प्रोटीन की गुणवत्ता पर भी निर्भर हो सकता है, जो पशु प्रोटीन की तुलना में बच्चों के विकास को कम रफ़्तार से बढ़ाता है।’
माना जाता है कि ज्यादा एनिमल प्रोटीन से शरीर का विकास ज्यादा हो सकता है। बच्चों के विकास के लिए शरीर के अंदर जो स्राव होती उसें इससे तेजी आ सकती है। आमतौर पर प्रोटीन शरीर को तेजी से बढऩे के संकेत भेजते हैं।
ये हड्डियों के विकास और मरम्मत दोनों में अहम भूमिका निभाते हैं।
हालांकि अमाती बताती हैं कि ये नतीजे सिर्फ एक स्टडी से लिए गए हैं। इसलिए बचपन में वीगन डायट और हड्डियों की डेनिसिटी के बीच कोई पक्की कड़ी अभी साबित नहीं हुई है।
-सुजाता
हाल ही में अहमदाबाद विमान दुर्घटना की एक ख़बर ने पूरे देश का दिल दहला दिया। इस हादसे में कई मासूम लोग, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, अपनी जान गंवा बैठे।
अचानक इस त्रासदी के बीच खबरें आने लगीं कि विमान में रखी भगवद गीता का एक प्रतिलिपि जलने से बच गई जिसे कोई पैसेंजर अपने साथ ले गया? होगा।
न्यूज चैनलों ने इस बात को चमत्कार बता कर बार-बार दिखाया। लोगों ने भी इसे ‘ईश्वर की महिमा’ बताकर सोशल मीडिया पर फैलाना शुरू कर दिया।
लोगों की तो बात खैर रहने ही दीजिए लेकिन इन जिम्मेदार न्यूज़ चैनल्स को तो इस दुर्घटना पर अतिवादी होने से बचना चाहिए था।
लेकिन अब इस पूरे प्रकरण पर जब देश के प्रमुख धर्मगुरु शंकराचार्य ने प्रतिक्रिया दी तो उन्होंने एक सच्चाई की ओर ध्यान खींचा। उन्होंने कहा —‘इतने मासूम लोग जलकर मर गए, फूल से बच्चे मर गए और एक गीता बच गई और ये लोग इस बात का बखान कर रहे हैं।
बात तो तब होती कि जब गीता जल जाती लेकिन लोग और फूल से बच्चे बच? जाते।’
शंकराचार्य का यह कथन न केवल तार्किक है, बल्कि सनातन धर्म और अध्यात्म की सच्ची भावना से ओत-प्रोत है। क्या सचमुच कोई भी ईश्वर, चाहे वह सनातन धर्म का हो या किसी भी मत का, यह चाहेगा कि उसकी किताब तो सुरक्षित रहे लेकिन उसके ही बनाए जीव नष्ट हो जाएं?
आप और हम सब जानते हैं कि गीता क्या सिखाती है।
गीता स्वयं कहती है कि आत्मा अमर है। शरीर का नाश होना प्रकृति का नियम है। गीता तो ज्ञान का स्रोत है, और उसका सच्चा पालन तभी है जब हम उसके संदेश को जीवन में उतारें , यानी करुणा, धर्म, और जीव रक्षा को महत्व दें। अगर किसी दुर्घटना में किसी ग्रंथ की पुस्तक बच जाए तो यह केवल भौतिक घटना है, इसे चमत्कार कहना हमारी समझ का अपमान है।
हम सभी जानते हैं कि गीता का उपदेश देने वाले श्रीकृष्ण ने स्वयं कितने लोगों की रक्षा की है!
उन्होंने अर्जुन को धर्म युद्ध का मर्म समझाया,
द्रौपदी की लाज बचाई, गोकुल में पूतना, कालिया नाग, कंस जैसे अत्याचारियों से निर्दोषों को बचाया,
हर युग में संकट में पड़े जन को अपनी लीला से उबारा।
श्रीकृष्ण का जीवन स्वयं यह बताता है कि ईश्वर की कृपा केवल किताबों में नहीं,
बल्कि हर जीव की रक्षा में है।
जो कृष्ण ने सिखाया- ‘सबसे पहले जीवन की रक्षा करो, धर्म उसकी सेवा में है।’
यही गीता का सार है, यही हमारा कर्तव्य भी है।
मीडिया और अंधविश्वास-
अक्सर हम मीडिया की सनसनी में उलझ जाते हैं। किताब बच गई, मंदिर बच गया, मूर्ति पर खरोंच नहीं आई — ऐसे शीर्षक हमें तसल्ली जरूर देते हैं लेकिन क्या इससे उन परिवारों का दु:ख कम होता है जिन्होंने अपने लोग खो दिए? नहीं। असली चमत्कार तो तब होता जब कोई हादसा ही न होता, या हादसे के बावजूद हर मानव जीवन बचा लिया जाता।
-कनुप्रिया
औरतें भी कोई सती सावित्री नहीं हैं, इतनी निहायत ही फालतू और सदियों पुरानी बात कहकर कम से कम ठरकी यौन अपराधियों को डिफेंड मत कीजिये।
हाँ नहीं हैं सती सावित्री, और कम से कम आपकी मर्जी से तो नही ही होंगी। और न भी हों तब भी किसी भी यौन अपराधी को उन्हें छूने का हक़ नहीं है। हरेक की देह उसकी अपनी होती है उसकी मर्जी के बिना छूना उसका boundary violation है, ये बात बिल्कुल ठीक से समझ आ जानी चाहिए। हालाँकि यह बात लागू तो शादी में भी होनी चाहिये क्योंकि मैरिटल रेप भी बड़ी समस्या हैं, मगर वहाँ ॥ ज़्यादा हैं और हमारा समाज भी अभी मानसिक और कानूनी तौर पर उतना विकसित नही हुआ है कि उसकी complexity को हैंडल कर सके। इसके अलावा शादी में conjugal relationship न होना उसके टूटने का भी आधार बनती है, वो विमर्श और भी ज़्यादा व्यापक है। और मुझे यकीन है कि आज से 10 साल बाद उस पर भी ख़ूब बात होगी।
मगर शादी के बाहर तो कोई भी रिश्ता, कम या ज़्यादा, किसी भी हद तक बिना consent के नही होना चाहिए। ‘अदाएँ प्यार की पहचानता ही नहीं’ वाला युग गया। हँसी तो फँसी वाला भी। अगर मुस्कुराए तो हाँ नहीं है, हँस दे तो हाँ नही है, शर्माए तो भी हाँ नहीं है, सकुचाए या confused हो तो भी नही, और ना तो बिल्कुल भी हाँ नहीं है, सिर्फ हाँ ही हाँ है।
और जितना आप स्त्रियों के चरित्र पर ही सवाल उठाते रहेंगे दिक्कत आपको ही होगी, क्योंकि वो हाँ नहीं करेंगी, पहल नहीं करेंगी, और स्क्रीन शॉट्स आपके ही लगेंगे।
जहाँ तक इज़्ज़त की बात है तो वो अब भी स्त्रियों के लिये ही बड़ा मसला है , वो यौन शोषित होकर भी हज़ार बार सोचती हैं FIR करने से पहले क्योंकि यौन अपराधी के अब भी सीना चौड़ा करके घूमने के
चांस विक्टिम के सर उठाकर चलने से ज़्यादा हैं।
-परमानंद वर्मा
जिस काम को भगवान श्रीकृष्ण नहीं कर सके, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा जैसे महारथी भी असफल रहे, उसी तरह के कठिनतम, दुष्कर कार्य को अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने चुटकी बजाते हुए चंद मिनटों में कर दिखाया। द्वापर में महाभारत युद्ध तो होकर ही रहा लेकिन कलियुग में ट्रम्प ने भारत-पाकिस्तान और ईरान-इजराइल के मध्य जारी युद्ध को रुकवाने का श्रेय ले लिया। एक महाविनाश रुक गया। उनके शांति प्रस्ताव के प्रयास से इसी संदर्भ में पढिय़े यह छत्तीसगढ़ी आलेख...
वाह... वाह..! कतेक कमाल के हस ट्रम्प साहेब, थैंक्यू... थैक्यूं...! जरूर नोबेल पुरस्कार के हकदार हस। अउ ये तोला मिलना चाही। चाही का मिल के रइही।
मंय ओला केहेंव, अतेक बड़े दू-दू ठन युद्ध आतंक ला रुकवा देय, ये दोनों काम कम बड़े बात हे? भारत-पाकिस्तान अउ इजराइल-ईरान जिहां घमासान मचे रिहिसे, जन, धन, घर दु्आर सबके नुकसान होवत रिहिसे, चारों डहर हाहाकार मचे रिहिसे, आगी कस बरत रिहिस ओ देश मन तेला रोकवा देस, कोनो कम बड़े बात हे? थैंक्यू... थैंक्यू...।
सुखराम जब अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप संग मोबाइल मं बात करते रिहिसे तब ओकर नाती राम परसाद ओकर मन के बात ला सुनत रिहिसे।
राम परसाद अपन बबा सुखराम ल हांसत कहिथे- ये बबा, तंय बिलकुल आज ले अड़हा के अड़हा रहिगेस गा।
नाती पूछथे-‘कइसे का होगे रे बुजा, तेमा मोर बात ल सुनके हांसत हस।
‘हांसत येकर सेती हौं बबा, अरे ओतेक बड़े काहत लागे अमरीका के राष्ट्रपति ट्रम्प अउ ओला तैं ठैंक्यू...ठैंक्यू... काहत हस, तोला कोन मास्टर अंगरेजी पढ़ाय हे, कोदो देके पढ़ाय हे का तोर दाई-ददा मन।
- कइसे का होगे संगवारी, कुछु गलती बोल परेंव का, तैं हासत हस?
- ठैंक्यू...ठैंक्यू नहीं, थैक्यू... थैक्यू बोले जाथे। नइ आवय अंगरेजी तब छत्तीसगढ़ी मं जोहार साहेब... जोहार साहेब बोले कर। अपन भाखा मं बात करे मं कांही लाज शरम के बात नइहे।
फेर हमर मास्टर हा तो तीन-तीन विषय मं एम.ए. करे रिहिसे। अंगरेजी, संस्कृत अउ छत्तीसगढ़ी में। अतेक बड़े विद्वान करा पढ़े हौं। कोनो कम बात हे का? आजकल के टूरा तुमन का जानिहौ अंगरेजी? ट्यूशन पढ़-पढक़े बोदा होगे हौ, अउ आय हस मोर गलती निकाले बर।
-‘गलती तो गलती हे बबा, तोर बात ला सुनके मोला हांसी घला आवत हे। ओतेक बड़े धनी-मानी देश अमरीका के राष्ट्रपति ट्रंप अउ तंय भारत जइसन छोटे देस के छोटे शहर के रहइया अउ पटवारी हस तेकर से भला ओहा का बात करही?
सुखराम बबा नाती राम परसाद ल समझावत कहिथे- तंय नइ जानस रे लपरहा, हमर ओकर मन के कतेक पारिवारिक संबंध हे। हमर गांव के गउंटिया गनेश राम नायक विधायक रिहिसे तेकरे संग हमर ददा अमरीका गे रिहिसे. तब ट्रम्प के बाप संग विधायक के अच्छा दोसती रिहिसे। ओ सब बात ला मोला बताय रिहिसे तब ले ट्रंप के परिवार संग हमर मन के संबंध आज ले बने हे।
राम परसाद कहिथे- अइसे का, अतेक बड़े मनखे से तोर संबंध बने हे। बड़े खुशी के बात हे, अतेक दिन ले काबर नइ बताय बबा?
मौका परे मं कोनो बात खुलथे। आज ओ ट्रम्प अमरीका के राष्ट्रपति बने हे, एकर पहिली घला चुने गे रिहिसे तभो ओला ठैंक्यू... ठैंक्यू... के हे रेहेंव फोन लगा के।
- ‘फेर उही ठैंक्यू... ठैंक्यू... काहत हस, जब मंय तोला सुधार के बतावत हौं थैंक्यू... थैंक्यू... काह तब ले...!
- ‘ठीक हे बेटा, अब सुधार के बोलिहौं।
यूरोपीय संघ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इस्राएल गजा में मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहा है। ऐसे में यूरोपीय संघ स्राएल के साथ एक बड़ा व्यापारिक समझौता रोक सकता है लेकिन वह ऐसा कर नहीं रहा है।
डॉयचे वैले पर एला जॉयनर का लिखा-
यूरोपीय संघ की एक रिपोर्ट में गाजा में इस्राएल के मानवाधिकार रिकॉर्ड को लेकर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। जिसके बाद स्पेन के प्रधानमंत्री, पेद्रो सांचेज ने यूरोपीय संघ कड़ी आलोचना की है। उन्होंने कहा कि जब गाजा में ‘नरसंहार जैसी भयानक स्थिति’ बन रही है, तब भी ईयू इस्राएल के साथ व्यापारिक समझौते बंद करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठा रहा है।
हमास प्रशासित गाजा के अधिकारियों के अनुसार, पिछले 18 महीनों में इस्राएल हमलों में 55,000 से ज्यादा फलीस्तीनियों की मौत हो चुकी है। हालांकि, इस्राएल नरसंहार के आरोपों को सख्ती से खारिज करता है और कहता है कि वह हमास के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है। हमास ने अक्टूबर, 2023 में इस्राएल पर बड़ा आतंकी हमला किया था।
यूरोपीय संघ की विदेश नीति सेवा ने हाल ही में सदस्य देशों के बीच एक रिपोर्ट साझा की, जिसमें अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जांच और आरोपों के आधार पर यह कहा गया कि इस्राएल मानवाधिकारों का सम्मान करने की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ रहा है।
हालांकि, यह दस्तावेज सार्वजनिक नहीं है, लेकिन डीडब्ल्यू ने इसकी कॉपी देखी है। इसमें बताया गया है कि इस्राएल की ओर से आम लोगों को निशाना बनाकर किए गए हमले, भोजन और दवाओं की नाकेबंदी, और अस्पतालों पर हमले मानवाधिकार का उल्लंघन हैं। रिपोर्ट में साफ कहा गया है, ‘ऐसे संकेत हैं कि इस्राएल अपने मानवाधिकार संबंधित कर्तव्यों का उल्लंघन कर रहा है।’
ब्रसेल्स में ईयू शिखर सम्मेलन में पहुंचे स्पेन के प्रधानमंत्री, पेद्रो सांचेज ने कहा, ‘यह तो बिल्कुल साफ है कि इस्राएल, ईयू-इस्राएल समझौते के अनुच्छेद-2 का उल्लंघन कर रहा है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘हमने रूस के खिलाफ यूक्रेन पर हमले को लेकर 18 बार प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन जब बात इस्रायल की आती है, तो यूरोप अपनी दोहरी नीति दिखाता है। और एक सामान्य समझौते को निलंबित करने की भी हिम्मत नहीं करता है।’
समझौता रद्द होने की कोई संभावना नहीं
ईयू के 27 देशों में से केवल स्पेन और आयरलैंड ही हैं, जो खुलकर इस्राएल के साथ हुए समझौते को पूरी तरह से निलंबित करने की मांग कर रहे हैं। हालांकि ऐसा फैसला तभी लिया जा सकता है, जब सभी सदस्य देश एकमत हो और यही कारण है कि यह मांग गंभीर रूप से सामने नहीं आ पाई है। हालांकि, ग्रीस, जर्मनी, हंगरी, ऑस्ट्रिया और बुल्गारिया जैसे देश अभी भी इस्राएल के नजदीकी सहयोगी बने हुए हैं।
खासकर जर्मनी ने इस मुद्दे पर अपना रुख साफ कर दिया है। जर्मन चांसलर फ्रीडरिष मैर्त्स ने इस प्रस्ताव को खारिज करते हुए कहा, ‘जर्मनी की संघीय सरकार के लिए यह फैसला विचार योग्य नहीं है।’
इस्राएल पर दबाव बनाने के लिए स्पेन में अरब और यूरोपीय देशों की बैठक
अगर इस समझौते को निलंबित किया जाता है, तो यह एक बड़ी व्यापारिक बाधा हो सकती है। खासकर इस्राएल के लिए, जो अपना एक-तिहाई सामान यूरोपीय संघ से खरीदता है। यह समझौता साल 2000 से चल रहा है। जिसमें दोनों पक्षों के बीच व्यापार (जो सिर्फ वस्तुओं के मामले में ही हर साल 50 अरब डॉलर तक का है), राजनीतिक बातचीत और शोध व तकनीकी सहयोग तक सब कुछ शामिल है।
एक और विकल्प यह हो सकता है कि समझौते का आंशिक निलंबन किया जाए। जैसे मुक्त व्यापार से जुड़े प्रावधानों को रोका या फिर इस्राएल को यूरोपीय संघ के रिसर्च फंडिंग प्रोग्राम से बाहर किया जा सकता है। हालांकि, इसके लिए 27 में से कम से कम 15 देशों की सहमति जरूरी है। कुछ कूटनीतिक सूत्रों ने डीडब्ल्यू को बताया कि इतने समर्थन की संभावना दिख नहीं रही है।
इस्राएल को ‘सजा देना’ उद्देश्य नहीं
इस सप्ताह की शुरुआत में यूरोपीय संघ के विदेश मामलों के प्रमुख, काया कलास ने यह रिपोर्ट औपचारिक रूप से सदस्य देशों के सामने पेश की। जिसमें उन्होंने साफ कर दिया कि तुरंत कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा सकता है।
उन्होंने सोमवार को कहा, ‘इसका मकसद इस्राएल को सजा देना नहीं है, बल्कि गाजा के लोगों के जीवन में सुधार लाना है। अगर हालात नहीं सुधरे, तो जुलाई में हम इस पर फिर से चर्चा कर सकते हैं और आगे के कदमों पर विचार कर सकते हैं।’ गुरुवार को ब्रसेल्स में यूरोपीय संघ के नेताओं की बैठक में इस रिपोर्ट को केवल ‘नोट’ किया गया यानी रिपोर्ट को ध्यान में लाया गया। इसमें इस्रायल की ओर से मानवाधिकार उल्लंघन का कोई जिक्र नहीं किया गया। नेताओं ने सिर्फ यह कहा कि इस मुद्दे पर अगले महीने फिर से चर्चा होना चाहिए। साथ ही, 27 देशों के नेताओं ने एक स्वर में गाजा की भयावह मानवीय स्थिति, आम नागरिकों की मौत, और भुखमरी के हालात पर चिंता जताई।
-सुशान्त कुमार
सम्पादक दक्षिणकोसल
भारत की आजादी का ही नहीं, दुनिया का इतिहास बहादुर और ताकतवरों का इतिहास रहा है। जिसे चालक शासक वर्ग ने अपने हिसाब से लिखा। जिन्होंने 1857 में मंगल पांडेय के नेतृत्व में हुए सिपाही विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू, चांद-भैरव एवं फूलो-झानो के नेतृत्व में लगभग 30,000 से अधिक संथालों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, जिसमें लगभग 15,000 संथाल मारे गये थे एवं सिदो-कान्हू को फांसी पर लटकाया गया था। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि मंगल पांडे नहीं, तिलका मांझी और सिदो-कान्हू और उनके परिवार के लोग थे पहले स्वतंत्रता संग्रामी। आदिवासी नेत्री दयामनी बारला कहती है कि मैं आजादी की पहली लड़ाई यानी संथाल हूल को ही मानती हूं। चारों भाइयों सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के साथ फूलो और झानो ने अंग्रेजों और महाजनों से जमकर लोहा लिया था। रानी लक्ष्मीबाई से काफी पहले इन्होंने आजादी की ज्वाला जलाई थी। फूलो-झानो को इतिहास में शायद ही लोग जानते हैं। अब समय आ गया है कि इतिहास को दुरूस्त करें इन्हें झांसी की रानी के पहले लोग नाम लें।
हूल दामिन ए कोह (पुराना संताल परगना) के क्षेत्र में बसने वाले संथालों और अन्य ग्रामीण-गरीब खेतिहर समाज के लोगों द्वारा अपनी खोई हुई जमीन की वापसी, सूदखोर-महाजनों और सरकारी अमलों के शोषण तथा अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने हेतु एक स्वाधीन राष्ट्र कायम करने के लिए था। इसमें नेतृत्व भले ही संथालों का था, लेकिन इसमें शामिल होकर हूल की अग्नि में न्योछावर तथा गिरफ्तार हुए कई लोगों में गैर-संताल समुदाय के लोगों का नाम भी सरकारी दस्तावेजों में देखे जा सकते हैं। संथालों ने अंग्रेज आला अफसरों के पास कई बार अपने कष्टों का शिकायत-पत्र भेज कर गुहार लगायी, जिसमें महाजनों-जमींदारों द्वारा सूदखोरी, जमीन से बेदखली, सरकारी अमलों द्वारा लूट और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इन समस्याओं के प्रति उपेक्षा की ढेरों शिकायतें थीं।लेकिन हुकूमत द्वारा उसे अनसुना किये जाने से थक-हार कर विद्रोह करना ही एकमात्र विकल्प रह गया था। आज का दिन कई मायनों में महत्व का है अर्थात आज संथाल हूल दिवस है। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का दिन। ब्रिटिश इतिहास के दृष्टि से देखा जाए तो अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह 1857 है, यहां हमारे इतिहास को दुरूस्त कर देखने की जरूरत है अर्थात आदिवासियों के इतिहास के नजरिए से देखते हैं तो पहला विद्रोह 1771 में ही तिलका मांझी ने शुरू किया था।
इसके बाद एक ही परिवार के छह लोगों ने 30 जून 1855 को संथाल आदिवासियों ने सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो के नेतृत्व में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के लगभग 30,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया था। गिरधारी राम गंझू कहते हैं कि संथाल हूल में पहली बार नारे लगे ‘अबुआ राज’, ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’, ‘हमने खेत बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं’। आंदोलन राजमहल, बांकुड़ा, हजारीबाग, गोला, चास, कुजू, बगोदर, सिंदरी, हथभंगा, बीरभूम, जामताड़ा, देवघर, पाकुड़, गोड्डा, दुमका, मधुपुर सहित कई क्षेत्रों में फैल गई। सिदो ने इस पर जोर देते हुए कहा था, ‘समय आ गया है अंग्रेजों को खदेड़ देश से बाहर भगाने का। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा को संताल विद्रोहियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संथाल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक फैल गया। जब जब आदिवासी इतिहास, परंपरा, संस्कृति तथा उनके जल, जंगल जमीन को अधिग्रहण की कोशिश हुई है जन प्रतिरोध भडक़ उठी है। महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब तब उनके खिलाफ आदिवासियों (मूलनिवासियों) का गुस्सा बिना समर्पण के इस लड़ाई में एक ही परिवार के छह लोग सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो सहित लगभग 20 हजार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी जान न्योछावर कर दिए।
इतिहासकारों के अनुसार इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संताल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर मुंह की नहीं खाई हो। अपने ही बीच मौजूद विभीषण के कारण सिदो और कान्हू को पकड़ लिया गया और भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी गई। बताया जाता है कि लगभग 20 हजार संथालों ने जल, जंगल, जमीन जैसे सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा के लिए न्योछावर हो गए। प्रसिद्ध इतिहासकार बीपी केशरी कहते लिखते हैं कि संथाल हूल ऐसी घटना थी, जिसने 1857 के संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन के बाद ही अंग्रेजों ने संथाल क्षेत्र को बीरभूम और भागलपुर से हटा दिया। 1855 में ही संथाल परगना को ‘नॉन रेगुलेशन जिला’ बनाया गया। क्षेत्र भागलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था, जिसका मुख्यालय दुमका था। 1856 में पुलिस रूल लागू हुआ। 1860-75 तक सरदारी लड़ाई, 1895-1900 ई. तक बिरसा आंदोलन इसकी अगली कड़ी थीं। अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा और मार्शल लॉ लागू कर दिया। हजारों संताल आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया, लाठियां चली, गोलियां चलाई गई। यह लड़ाई तब तक जारी रही, जब तक अंतिम आंदोलनकारी जिंदा रहा।
विशद कुमार लिखते हैं कि इसके पूर्व 1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडिय़ा ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और सामंती महाजनों-अंग्रेजी की नींद उड़ा दी। पहाडिय़ा लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाडिय़ा भारत के पहले आदिविद्रोही हैं। जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाडिय़ों पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए। इन पहाडिय़ा लड़ाकों में तिलका मांझी ने 1778 ई. में अंचल के सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेडक़र कैंप को मुक्त कराया था। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकूट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और तिलका को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह तिलका मांझी जीवित था। बताया जाता है कि खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थीं। अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर लटका दिए गए। वह दिन 13 जनवरी 1785 का था।
तिलका मांझी संथाल थे या पहाडिय़ा इसे लेकर विवाद है। इतिहासकार बताते हैं कि तिलका मांझी मूर्म गोत्र के थे। अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संथाल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संथाल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संथाल परगना की तरफ आए और बसे।वे आगे लिखते हैं कि ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, 1868 के पहले खंड (पृष्ठ संख्या 219-227) में सर विलियम विल्सर हंटन ने लिखा है कि संथाल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका पलायन आज के संथाल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों का नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संथाल परगना में संथालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया गया (पृ. 224)।1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संथाल परगना’, वॉल्यूम 13 में एलएसएस ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संथालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांथार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिने कोह में संथालों के बसने का प्रमाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर:संथाल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।
-सुजाता चोखेरबाली
हफ्ता भर पुरानी बात है। गाड़ी चला रही थी। रेडियो में एक एंकर बोल रहा था-भाई, बड़े मुश्किल दिन हैं लडक़ों के, आजकल लडक़े हनीमून मनाने जाते हैं लोटे में वापस आते हैं। मुझे नहीं याद कौन चैनल था, कौन एंकर। मैं बस हैरान थी कि औरतों के खिलाफ हिंसा को जिन्होंने धर्म की किताबों में भी जायज बताया है वे एक औरत के क्राइम से डर गए? जबकि उनके साथ पूरा इतिहास, समाजशास्त्र, परम्पराएँ, रीति-रिवाज, नियम-कानून, पॉवर, सत्ता और सो कॉल्ड सुपर मर्दानगी भी है!!
जबकि किसी महिला ने महिलाओं के क्राइम करने को जस्टिफ़ाई नहीं किया जैसे मर्द करते हैं मर्दों को! ऐसी दलील देकर कि कपड़े छोटे पहने होंगे, रात को अकेली बाहर निकली होगी, ज़बान लड़ाती होगी, खाना टाइम पर नहीं देती होगी, अफ़ेयर होगा किसी और से, बेटा पैदा नहीं किया होगा, बांझ होगी, कैरेक्टर ठीक नहीं होगा वगैरह-वगैरह।
क्या यह एंकर न्यूज़ नहीं देखता? इसे देखना चाहिए अपने आस-पास कि कैसे डरे हुए मर्द पत्नियों का गला घोट कर मार रहे हैं अपनी ही बच्चियों के सामने, बाप-भाई के साथ मिलकर छत से नीचे पटक के मार रहे हैं पत्नी को, बलात्कार तो रुकने का नाम ही नहीं लेते, इतने डरे हुए मर्द रोज़ औरतों के इनबॉक्स में कूद रहे हैं यह सोचकर कि शायद फँस जाए!
बदला कुछ नहीं है। क्राइम अगेंस्ट वुमन अब भी वैसे ही बदस्तूर पितृसत्ता के हवाले है। इसके जवाब में आप क्राइम अगेंस्ट मैन जैसा फ्रेज बना नहीं सकते क्योंकि वहाँ औरतें नहीं मर्द ही दोषी मिलेंगे। हत्या, चोरी, डकैती, लड़ाई, झगड़ा, युद्ध, षड्यंत्र सबमें मर्द मर्दों को मार रहे हैं।
पुरुष को पुरुष होने के लिए स्त्रियां मार रही हैं ऐसा कोई साक्ष्य इतिहास में नहीं। एक समाज जिसमें पुरुष का जन्म एक उत्सव हो स्त्री के लिए, गर्व का विषय हो, वहाँ मर्दों के खिलाफ जेंडर्ड क्राइम नहीं होता बल्कि वहाँ मर्द पॉवर के लिए मर्दों से संघर्ष करता है और उसी में सबसे ज़्यादा हताहत होता है। स्त्री का जन्म अब भी लानत है, अपने आस पास के शिक्षित परिवारों को मत देखिए सिर्फ। उन पाँच बहनों को भी देखिए जिनका जन्म एक लडक़े की आस में हुआ है।
एकाध सोनम के आ जाने से सूरज पश्चिम से नहीं उगने लगेगा यह उन्हें भी पता है जो कह रहे हैं मर्द डरे हुए हैं! मर्द बस शॉक में हैं क्योंकि क्राइम औरत पर सूट नहीं करता, क्योंकि उन्हें लगता था औरतें पीटी जाती हैं, जलाई जाती हैं, भोगी जाती हैं, इस्तेमाल की जाती हैं, मवेशी की तरह पाली जाती हैं, बेची-खऱीदी जाती हैं, अगवा की जाती हैं, दास बनाई जाती हैं और औरतों पर आँसू, मजबूरी, त्याग, बलिदान, असहायता सूट करती है। वह रोती, बिलखती, दया की भीख मांगती ही अच्छी लगती है।
स्त्री अधिकारों की किसी जंग में एक क़तरा ख़ून नहीं बहा है।
उन्हें मर्दों के बहकावे में आकर अपना जीवन नहीं खऱाब करना चाहिए।
मैं भी कहती हूँ, औरतों पर क्राइम सूट नहीं करता!
-रमेश अनुपम
बस्तर से मेरे रिश्ते को अर्धशती होने जा रहा है। वर्ष 1980 से मेरा बस्तर से प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 1992 तक मैं बस्तर के बैलाडीला ,दंतेवाड़ा ,जगदलपुर और कांकेर जैसी जगहों पर डाक विभाग और बाद में शासकीय महाविद्यालयों में पदस्थ रहा ।
कामरेड लक्ष्मण झाड़ी , कामरेड रामनाथ सर्फे, पत्रकार मित्र किरीट दोषी, भरत अग्रवाल ,धनुज साहू से मित्रता के चलते मुझे बस्तर के दुर्गम इलाकों में घूमने फिरने और भटकने का अनेक बार अवसर मिला । संभवत: इन्हीं सब आत्मीय मित्रों के कारण मैं बस्तर को थोड़ा बहुत जान पाया।
याद करता हूं मैने अबूझमाड़ की पहली दुर्गम यात्रा वर्ष 1983 में की थी , जब अबूझमाड़ में प्रवेश करने से पूर्व गृह मंत्रालय मध्य प्रदेश से अनुमति लेने की जरूरत पड़ती थी ।
लेकिन हम लोगों ने इस तरह की कोई अनुमति नहीं ली थी और एक जोखिम भरी यात्रा को अंजाम दिया था। हमें मालूम था कि मध्य प्रदेश सरकार हमें अबूझमाड़ जाने की अनुमति कभी देगी ही नहीं ।
’देशबंधु’ के बस्तर ब्यूरो भरत अग्रवाल तब तक मेरे मित्र और उससे बढक़र मेरे अग्रज हो चुके थे । एक दिन वे कांकेर आए तब तक मैं शासकीय महाविद्यालय कांकेर में सहायक प्राध्यापक के पद पर आ चुका था उन्होंने मेरे सामने अबूझमाड़ चलने का प्रस्ताव रखा । तब तक मैं नारायणपुर भी नहीं देख पाया था । मुझे भरत भाई का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। हम दोनों बिना देर किए बस में बैठकर नारायणपुर की ओर रवाना हो गए । रात हम दोनों ने नारायणपुर के सरकारी डाक बंगला में गुजारी ।
दूसरे दिन भरत अग्रवाल के साथ हम पी .डब्लू. डी. विभाग की शासकीय जीप में जो भरत अग्रवाल ने अपने नारायणपुर में पदस्थ पी डब्ल्यू डी के एस डी ओ मित्र कुमरावत से नारायणपुर में जुगाड़ कर ली थी , हम जैसे _तैसे अबूझमाड़ की ओर रवाना हुए । हमें अबूझमाड़ के विकास खंड या कहें प्रवेश द्वार ओरछा पहुंचना था।
नारायणपुर के ओरछा के रास्ते में मैंने पहली बार बस्तर की शानदार बीयर कही जाने वाली सल्फी पी थी और उसके अपूर्व स्वाद को मैं जान पाया था । सल्फी , लांदा और महुआ से बनने वाली शराब बस्तर के आदिवासियों की जीवन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है।
सल्फी से पहले 1980 के दिनों में बचेली के मेरे मित्र पत्रकार धनुज साहू के साथ कभी बैलाडीला के किसी दुर्गम गांवों में तो कभी बचेली में ही लक्ष्मी के देशी दारू के अड्डे पर बस्तर के महुआ का स्वाद मैं चख ही चुका था ।
धनुज साहू के साथ बैलाडीला के आदिवासी गांवों में न जाने मेरी कितनी रातें पिकी लोगों के साथ अलाव के सामने महुआ पीते हुए बीती थी। तब मैं फ़ख्त अठ्ठाईस वर्ष का एक नवयुवक था, जो माना कैंप के समुद्र से भटकते हुए न जाने कैसे बैलाडीला के बंदरगाह पहुंच गया था।
फिलहाल मैं अपने पत्रकार मित्र भरत अग्रवाल के साथ अबूझमाड़ के प्रवेश द्वार ओरछा की दुर्गम यात्रा पर था । जीप अपनी गति से आगे बढ़ रही थी, दूर दूर तक किसी भी तरहके वाहन को देखने के लिए तरस गए थे । कुछ आदिवासी पैदल चलते हुए जरूर दिख जाते थे ।
ओरछा अभी दूर था । रास्ते भर सागौन और तरह _ तरह के वृक्ष जैसे अपने बाहे पसार कर हमारा स्वागत कर रहें थे । मन रोमांचित हो रहा था एक दुर्गम अंचल को देखने के लिए, जो अबूझ है और माड़ भी। अबूझ को भला कौन बूझ सकता है मैं तो केवल अबूझ से इस माड़ से मिलने चला आया था ।
शाम होने में अभी काफी देर थी ।
एक जगह एक छोटा सा जलाशय देख जीप रुकवा देते हैं । वहां तीन चार आदिवासी नवयुवतियां नहा रहीं थीं । यह जीप के रुक जाने पर ही हम देख पाए थे। हमें जीप से उतरते देख कर वे वहां से भागने लगी थीं। वे कमर के नीचे एक छोटा सा वस्त्र भर लपेटी हुई थी। यह दृश्य मेरे लिए बहुत भयानक और हृदय विदारक था । शायद हमारे जैसे शहरी लोगों को देख कर भागना उनका सही फैसला था ।
जीप पर सवार जंगल विभाग के अफसरान , ठेकेदार के चरित्र से वे पहले से ही भली भांति वाकिफ थीं कि किस तरह ये सभ्य कहे जाने वाले शहरी बाबू आदमी के भेष में छिपे हुए भेडि़ए से कम नहीं होते हैं ।
हम शाम होने के पहले ही ओरछा पहुंच गए थे। तब तक ओरछा एकदम छोटा सा गांव भर था । भरत अग्रवाल नारायणपुर मेंं हीं पता कर चुके थे कि ओरछा में दो कमरों का एक नया रेस्ट हाउस बन गया है। हम सीधे रेस्ट हाउस पहुंचते हैं। रेस्ट हाउस एकदम नया है । दरवाजे खिड़कियां नए हैं , दीवारों में पेंट होना अभी बाकी है।
हम शायद इस रेस्ट हाउस में रुकने वाले पहले लोग थे । पता नहीं तब तक न जाने कैसे बी डी ओ साहब को हमारे आने की खबर मिल चुकी थी । वे अपनी मोटरसाइकिल में रेस्ट हाउस पहुंच गए थे। भरत अग्रवाल ने उन्हें अपना परिचय दिया । उन्हें बताया कि हम दो दिनों तक यहां रुककर विभिन्न गांवों का सर्वे कर यहां हुए विकास कार्यों को देखेंगे ।
बी डी ओ साहब हमें रेस्ट हाउस के ठीक सामने एक छोटे से और ओरछा के एक मात्र होटल में ले जाकर चाय पिलाते हैं। होटल में बाहर कडक़नाथ मुर्गा बंधा हुआ है । बी डी ओ साहब होटल वाले से रात के भोजन में कडक़नाथ बनवाने के लिए कहते हैं । तब तक मैं कडक़नाथ के लोभ में गिरफ्त हो चुका था । बी डी ओ के इस अनोखे प्रस्ताव से मैं मन ही मन खुश भी हो रहा था यह जानते हुए भी कि भरत भाई विशुद्ध शाकाहारी प्राणी हैं।
लेकिन भरत अग्रवाल तो एक अलग ही तरह के खाटी इंसान है । वे होटल वाले से कहते हैं कि रात के खाने में खाली दाल और चावल बनाना यह भी कि खाने का पेमेंट हम करेंगे । यह सुनकर बी डी ओ साहब के चेहरे पर मायूसी तैर आई थी । भरत भाई उन्हें जल्दी विदा कर देते हैं।
शाम ढल चुकी है। अंधेरा गहराने लगा है । भरत भाई किसी का इंतजार कर रहे हैं । थोड़ी देर में एक स्थानीय आदिवासी नवयुवक उसेंडी रेस्ट हाउस में भरत अग्रवाल से मिलने आ पहुंचा है । भरत अग्रवाल ने ही अपने संपर्क सूत्रों से उसे ढूंढकर बुलवाया है।
भरत भाई उसआदिवासी नवयुवक उसेंडी से मेरा परिचय करवाते हैं कि ये दो दिनों तक हमारे साथ रहेंगे और दुभाषिया का काम करेंगे , ये आसपास के गांवों से भी अच्छी तरह से परिचित हैं इसलिए इनका साथ रहना हमारे लिए अच्छा रहेगा। तय होता है कि कल तीन सायकिल का इंतजाम किया जाएगा और अबूझमाड़ की यात्रा पर हम सुबह _सुबह निकल पड़ेंगे ।
अभी उस टपरे नुमा होटल में खाना बनने में देर है ,अभी अंधेरा पूरी तरह से घिरा नहीं है । सात भी नहीं बजे होंगे ।
बी डी ओ साहब अपनी मोटर साइकिल में फिर आ गए हैं और आसपास के गांवों में जाने से हमें मना कर रहें हैं। वे हमें सचेत करते हुए कहते हैं कि साइकिल से भी आस पास के गांवों में पहुंचना दुरूह और एक तरह से जोखिम भरा काम है ,रास्ते में नदी _नाले हैं, उसे पार करना मुश्किल है । भरत अग्रवाल कहते हैं कि कल की कल देखेंगे । वे किसी तरह बी डी ओ साहब को फिर विदा करते हैं ।
हमारा दुभाषिया उसेंडी एक तेज मुरिया नवयुवक है। उसकी आंखों में चीते जैसी चमक है । थोड़ा पढ़ा लिखा होने के कारण वह हिंदी समझता और बोल लेता है । अभी खाना बनने में देर है और ठीक सामने ही होटल है ,सो इत्मीनान है कि किसी तरह की कोई हड़बड़ी की जरूरत नहीं है ।
हम उस दुभाषिए नवयुवक उसेंडी के साथ गपशप में लग जाते हैं।
उसके परिवार के बारे में पूछते हैं । वह कुछ देर के लिए जैसे किसी और दुनिया में खो जाता है , फिर हम दोनों के चेहरे पर गहरी दृष्टि डालते हुए कुछ देर के लिए चुप हो जाता है । शायद वह तय नहीं कर पा रहा है कि वह क्या कहे । थोड़ी देर बाद उसके गले से बमुश्किल आवाज निकलती है।
वह बताना शुरू करता है। अभी दो _ तीन महीने पहले उसकी छोटी बहन ने आत्म हत्या कर ली है । वह बताता है कि मेरी छोटी बहन इस वर्ष आठवीं कक्षा पास करके नवमी में पहुंची थी। वह पूरे अबूझमाड़ में पहली लडक़ी थी जो नवमी कक्षा तक पहुंच सकी थी। उसका गला रूंध आया है आवाज में एक अजीब सी बेबसी उभर आई है।
IFAS (Indian Frontier Administrative Services)...
-तपेश झा
छत्तीसगढ़ के बस्तर, सरगुजा और बिलासपुर के घने जंगलों में बीते समय के दौरान एक बात मैंने बार-बार महसूस की कि आदिवासी क्षेत्रों में विकास की बातें अक्सर बाहर से तय की जाती हैं। बहुत कम ऐसे मौके होते हैं जब स्थानीय लोगों की भाषा, परंपरा, सोच और जरूरतों को ध्यान में रखकर योजनाएं बनाई जाती हैं। और अकसर यह दो रूप में ही सामने आता है।
एक पक्ष कंप्लीट आइसोलेशन में रखने की बात करता है तो दूसरा पक्ष कम्प्लीट ऐसीमिलेशन की बात करता है।
इन्हीं विचारों के बीच हाल ही में मैंने एक बेहद दिलचस्प शख्सियत को फिर से पढ़ा-वेरियर एल्विन। एक अंग्रेज जो भारत आया था ईसाई मिशनरी बनकर, लेकिन यहां के आदिवासी समाज को देखकर खुद को ही बदल बैठा। उसने न सिर्फ अपना धर्म और उद्देश्य बदला, बल्कि अपना जीवन आदिवासियों के बीच जीने में लगा दिया।
कोलकाता विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग द्वारा प्रकाशित एक पुस्तिका में एल्विन के जीवन से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ संकलित हैं-उसकी पत्नी लीलाजी, बेटे वसंत, साथी अफसरों और कई आदिवासी मित्रों की जुबानी। इनमें एल्विन की असल छवि सामने आती है-एक ऐसा इंसान जो सरकार के लिए सलाहकार था, लेकिन गांवों में बैठकर, पैदल चलकर, उनकी भाषा और परंपरा में रच-बसकर काम करता था।
एल्विन का योगदान केवल मध्य भारत तक सीमित नहीं था (उनके बस्तर और मंडला क्षेत्र में मारिया और बैगा जनजातीय पर Anthropological studies उल्लेखनीय है)। 1950 के दशक में उन्हें उत्तर-पूर्व भारत के NEFA (अब अरुणाचल प्रदेश) में आदिवासी मामलों के सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया।
उन्होंने वहाँ ‘Philosophy for NEFA’ तैयार की, जिससे ‘Tribal Panchsheel’ -पाँच मूलभूत सिद्धांतों की नींव पड़ी:-
1. आदिवासियों को आत्मनिर्भर बनाया जाए
2. उनकी संस्कृति का सम्मान हो
3. विकास थोपा न जाए, साझेदारी से आए
4. प्रशासन को उनका मित्र और मार्गदर्शक माना जाए
5. उनकी ज़मीन और पहचान की रक्षा हो
लेकिन सबसे खास बात ये रही कि उस समय एक नई प्रशासनिक सेवा शुरू की गई- Indian Frontier Administrative Service (IFAS)। इसमें वन , सेना, पुलिस, शिक्षा और प्रशासन के ऐसे लोग लिए गए जो कठिन आदिवासी इलाकों में काम करने का जज़्बा रखते थे। इन अधिकारियों को NEFA भेजने से पहले बाकायदा स्थानीय संस्कृति और दृष्टिकोण से परिचित कराया जाता था, और इस पूरे प्रयोग में डॉ. एल्विन को प्रमुख मार्गदर्शक की भूमिका दी गई थी।
उन्होंने केवल सलाह नहीं दी, उन्होंने इन इलाकों में जाकर काम किया-गांवों में रहे, मोनपा जनजाति के घरों में रातें बिताईं, और हर इलाके के लोगों के साथ बैठकर जाना कि उन्हें कैसा विकास चाहिए।
ऐसा ‘Anthropologist–Administrator’ मॉडल आज के समय में भी बेहद प्रासंगिक है, खासकर बस्तर, झारखंड और अन्य जनजातीय इलाकों में।
सरकारी सेवा में आने वाले हर अधिकारी के लिए यह एक जरूरी उन्मुखीकरण (orientation)हो सकता है कि किसी भी योजना को थोपने से पहले वहां के लोगों को समझा जाए-और उनकी सांस्कृतिक गरिमा का आदर करते हुए योजना बनाई जाए।
-डॉ. संजय शुक्ला
बीते दिनों छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले से ‘सेक्सटॉर्शन’ से जुड़ी दो बेहद चिंताजनक खबरें सामने आई जिसमें एक मामले में पीडि़त ने जहां खुदकुशी कर ली वहीं दूसरा मामला दो करोड़ की ब्लैकमेलिंग से जुड़ा है। खबरों के मुताबिक लड़कियों के एक सेक्सटॉर्शन ग्रुप ने एक युवक को अपने हनी-ट्रैप में फंसाकर वीडियो कॉल के जरिए उसका अश्लील वीडियो बना लिया था। इस ग्रुप द्वारा मृतक से वीडियो को सोशल मीडिया पर वायरल करने की धमकी देकर बार- बार पैसे मांगे गए। आखिरकार इस ब्लैकमेलिंग से तंग आकर पीडि़त ने ट्रेन से कटकर आत्महत्या कर ली। दूसरी खबर एक बुजुर्ग सराफा व्यवसाई से जुड़ा है जिसमें एक दंपत्ति ने उस बुजुर्ग का अश्लील वीडियो बनाकर इसे सोशल मीडिया में वाइरल करने की धमकी देकर उससे दो करोड़ रुपए ऐंठ लिए। बहरहाल साइबर धोखाधड़ी का मामला सिर्फ सेक्सटॉर्शन से ही जुड़ा नहीं है बल्कि डिजिटल अरेस्ट भी इस ठगी का अहम जरिया बना हुआ है।? भिलाई से ही जुड़े एक मामले में एक महिला से डिजिटल अरेस्ट से लगभग 55 लाख ठगने की घटना ने इंटरनेट तकनीक की दुश्वारियों को उजागर कर दिया है। इस मामले में आरोपियों ने खुद को सीबीआई अफसर बताते हुए पीडि़ता को वाट्सएप कॉल कर धमकाया कि उनके पिता के एकाउंट में मनी लांड्रिंग के जरिए दो करोड़ आए हैं और यदि आपने पैसे नहीं लौटाए तो जेल जाना होगा। इस धमकी के बाद पीडि़ता एक महीने डिजिटल अरेस्ट में रही और आरोपियों के खाते में पैसा ट्रांसफर करती रही। अलबत्ता उक्त दोनों मामलों पर गौर करें तो एकबारगी जहां इन घटनाओं के लिए साइबर ठगी के प्रति जागरूकता में कमी बड़ी वजह है तो दूसरी ओर यह सीधे तौर पर यह चारित्रिक कमजोरी से जुड़ा भी मामला है जिसमें लोग बड़ी आसानी से सेक्सटॉर्शन गिरोह के झांसे में फंस रहे हैं।
सेक्सटॉर्शन दरअसल ‘सेक्स’ और ‘एक्सटॉर्शन’ इन दोनों शब्दों से मिलकर बना है जो एक तरह का ब्लैकमेल है। इसमें साइबर अपराधी सोशल मीडिया पर किसी महिला या युवती के नाम से मित्रता के लिए संदेश भेजते हैं जिसे स्वीकार करने के बाद गिरोह लोगों से अश्लील बातें और चैटिंग कर उन्हें वीडियो कॉल के लिए उकसाते हैं। इस झांसे में आने के बाद यूजर्स द्वारा वीडियो कॉल करने पर न्यूड वीडियो दिखाई पड़ता है जिसका अपराधी विडियो बना लेते हैं। इसके बाद गिरोह के सदस्य पुलिस अधिकारी बनकर यूजर को पैसों के लिए धमकाते हैं कई बार इस अश्लील वीडियो को यूट्यूब पर अपलोड करने की धमकी दी जाती है। आमतौर पर पीडि़त पक्ष अपनी बदनामी के डर से मामले को पुलिस में ले जाने के लिए हिचकता है और ठगी गिरोह के चंगुल में फंसकर लाखों लूटा बैठता है। जानकारी के मुताबिक सेक्सटॉर्शन के चक्रव्यूह में अनेक प्रभावशाली अधिकारी, व्यापारी, राजनेता, नौकरीपेशा से लेकर युवा फंस रहे हैं जो अपनी प्रतिष्ठा धूमिल होने की भय में पूंजी के साथ ही अपनी जान गंवाने के लिए विवश हो रहे हैं।
दरअसल इंटरनेट आज आम जनजीवन का अहम हिस्सा बन चुका है, इस प्रौद्योगिकी पर बढ़ती निर्भरता के साथ ही अब इससे जुड़ी दुश्वारियां भी सामने आने लगी है।ऐसा कोई भी दिन नहीं गुजरता जब हमें सायबर ठगी से जुड़ी खबरें न मिलती हों। आम जनता को इस धोखाधड़ी से बचाव के लिए बैंक, पुलिस सहित तमाम एजेंसियां लगातार अपील कर रही हैं कि वे किसी भी व्यक्ति को बैंक एकाउंट नंबर, पिन, पासवर्ड, ओटीपी आदि न बताएं और न ही किसी अनजाने लिंक को क्लिक करें और न ही किसी अनजाने विडियो काल को उठाएं बावजूद लोग इस गिरोह के चंगुल में फंसकर जीवन भर की गाढ़ी कमाई गंवा रहे हैं। साइबर जालसाज आम लोगों को शेयर बाजार में रकम दोगुना करने, घर बैठे लाखों कमाने और मोटा इनाम का सपना दिखाकर उनसे लाखों करोड़ों रुपए ठग रहे हैं। यह कहना गैर लाजिमी नहीं होगा कि इन दिनों चोरी, डकैती, ठगी, लूट और राहजनी के मामलों में गिरावट देखी जा रही है बल्कि इसकी जगह जालसाजों ने लूट नया तरीका डिजिटल धोखाधड़ी को ढूंढ लिया है। आश्चर्यजनक तौर पर साइबर फ्रॉड का शिकार केवल अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लोग ही नहीं हो रहे हैं बल्कि डॉक्टर, सॉफ्टवेयर इंजीनियर, उच्च शिक्षित प्रोफेसर, सैन्य व आला प्रशासनिक अधिकारी भी हो रहे हैं।
सायबर अपराध के शोध के लिए बनी अंतरराष्ट्रीय टीम के मुताबिक भारत सायबर अपराध के मामलों में दसवें स्थान पर है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अनुसार 2023-24 में कार्ड और इंटरनेट से हुए धोखाधड़ी के कुल 29082 मामले सामने आए हैं। भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र के अनुसार इस साल जनवरी से मई के बीच कुल 1,203 करोड़ रुपए के डिजिटल धोखाधड़ी के 4,599 मामले दर्ज किए गए मतलब औसतन रोज 7000 से ज्यादा ठगी के शिकायतें दर्ज हुई। अनुमान के मुताबिक बीते चार महिनों में तकरीबन 400 करोड़ रुपए की डिजिटल फ्रॉड हुआ है। इस प्रकार के धोखाधड़ी के मामलों पर गौर करें तो इसके पीछे व्यक्ति का लालच,भय और अज्ञानता जैसे कारण ही मुख्य रूप से जवाबदेह हैं। संसद में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में पांच राज्यों उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और हरियाणा में दर्ज हुए हैं जिसमें उत्तरप्रदेश अव्वल है। साइबर अपराध से जुड़े मामलों की जांच कर रहे अधिकारियों के मुताबिक सायबर धोखाधड़ी में एक गिरोह काम करता है जिसका संचालन देश के विभिन्न राज्यों सहित दक्षिण पूर्व एशिया के प्रमुख शहरों से हो रहा है। भारत में झारखंड का जामताड़ा शहर इस ठगी के मामले में सबसे ज्यादा बदनाम था लेकिन अब देवधर, दिल्ली,उत्तरप्रदेश का आजमगढ़, मथुरा, बिहार का गोपालगंज, हरियाणा का मेवात, भिवानी और नूह, गुजरात का अहमदाबाद और सूरत, राजस्थान का भरतपुर, पश्चिम बंगाल का दुर्गापुर और आसनसोल तथा आंध्रप्रदेश का चित्तूर ठगी के लिए कुख्यात हो चुका है। आश्चर्यजनक तौर पर इस अंतर्राज्यीय गिरोह के तार दुबई सहित चीन, श्रीलंका, नेपाल, कंबोडिया, म्यांमार और लाओस जैसे देशों से जुड़े हैं।
बहरहाल भारत में मुख्य रूप से आम लोग हैकिंग, सेक्सटॉर्शन, फेक सोशल मिडिया एकाउंट और फेक वाट्सएप कॉल, फेक ट्रेडिंग एप्स, लोन, गेमिंग, मनी लांड्रिंग, डेटिंग और मैट्रिमोनियल एप्स, क्रिप्टो, पेटीएम और यूपीए पासवर्ड या पिन, मोबाइल पर प्राप्त ओटीपी के जरिए साइबर ठगी का शिकार हो रहे हैं। बहरहाल सेक्सटॉर्शन जैसे ठगी से सावधानी और संयम के जरिए बचा जा सकता है। यूजर्स को किसी भी महिला या युवती के फ्रेंड रिक्वेस्ट को स्वीकार करने से पहले ठीक तरह से तस्दीक करना चाहिए। सोशल मीडिया में यदि कोई यूजर आपको अश्लील संदेश या वीडियो भेजता है तब इसकी तुरंत शिकायत साइबर सेल में करना चाहिए ताकि अपराधियों पर अंकुश लगे।
-गोकुल सोनी
साथियों, आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप : एक अद्भुत किस्सा..
साथियों, मेरा पूरा जीवन प्रेस और पत्रकारिता के इर्द-गिर्द बीता है। इसी संसार में मैंने ना सिर्फ अपने विचारों को आकार दिया, बल्कि ऐसे-ऐसे अनुभवों से गुजरा जो जीवनभर स्मरणीय रहेंगे। आज मैं आप सभी को एक ऐसे ही अविश्वसनीय और प्रेरणादायक प्रसंग से परिचित कराना चाहता हूँ, जो आपातकाल की पृष्ठभूमि से जुड़ा है।
बात तब की है जब देश में आपातकाल लगा था । उन दिनों हमारे प्रेस, नवभारत रायपुर में एक मशीन मैन हुआ करते थे-धरमपाल जी, जो हरियाणा के जाट थे। वे बेहद मेहनती, तेजतर्रार और ठेठ देसी अंदाज के इंसान थे। अक्सर वे हमें अपने पुराने दिनों की एक रोचक घटना सुनाया करते थे।
धरमपाल जी बताते थे कि आपातकाल के दौरान वे दिल्ली के एक बड़े अखबार में प्रिंटिंग मशीन चलाने का कार्य करते थे। एक रात अखबार की छपाई के ठीक पहले दफ्तर की बिजली काट दी गई-यह सेंसरशिप का वो दौर था जब अखबारों को चुप कराना सत्ता का हथियार था। उस समय तक सारी कंपोजिंग और लेआउट का काम हो चुका था, बस मशीन को चालू करना बाकी था।
बिजली के बिना अखबार छपना असंभव था। जनरेटर भी उस दिन उपलब्ध नहीं हो पाया। दफ्तर में बेचैनी फैल गई। इसी बीच धरमपाल जी की नजर एक ट्रैक्टर पर पड़ी, जो प्रेस में कुछ माल छोडऩे आया था। यहीं से शुरू होती है उनकी जुगाड़ तकनीक की कहानी।
-ध्रुव गुप्त
सुप्रसिद्ध फिल्म लेखक और पत्रकार दिलीप कुमार पाठक की किताब ’मैं जि़ंदगी का साथ निभाता चला गया’ मेरे हाथों में है। हिन्दी सिनेमा के पहले तीन महानायकों में एक देव आनंद के जीवन, कृतित्व और व्यक्तित्व के जाने अनजाने पहलुओं को समेटे यह किताब संभवत: उनके बारे में पहली समग्र किताब है। देव साहब ऐसे अभिनेता रहे हैं जिनके जीवनकाल में ही उनका एक-एक अंदाज़ , उनकी एक एक अदा किंवदंती बनी। उनकी चाल, उनका पहनावा और उनके बालों का स्टाइल उस दौर के युवाओं के क्रेज थे। असंख्य युवतियों के क्रश तो वे थे ही। यह अजीब है कि इस हरदिलअज़ीज़ अभिनेता के सिनेमा में अविस्मरणीय योगदान और देश के आम आदमी तक उसे पहुंचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करने की कोशिशें बहुत कम हुई हैं। उनकी अपनी आत्मकथा ’रोमांसिंग विद लाइफ’ के अलावा मेरी नजरों से ऐसी कोई किताब नहीं गुजरी। दिलीप कुमार पाठक की यह किताब उस कमी को पूरी करती दिखती है। इसमें देव साहब के जीवन, उनके संघर्षों, उनकी अभिनय और निदेशकीय क्षमताओं के मूल्यांकन के साथ अपने समकालीन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के साथ उनके रिश्तों, सुरैया के साथ उनके अधूरे प्रेम, कल्पना कार्तिक के साथ उनके दांपत्य जीवन, उनकी इश्कबाजी के कई किस्सों, जीवन और काम के प्रति उनके समर्पण, उनकी अशेष ऊर्जा और जिंदादिली, उनके व्यक्तिगत जीवन के विरोधाभासों और उनकी राजनीतिक सोच का भी लेखाजोखा है। एक तरह से देव साहब का सम्पूर्ण जीवन इस किताब के पन्नों में सिमट आया है। लेखक की बात कहने की कला और प्रवाहपूर्ण भाषा पाठक की दिलचस्पी किताब में अंत तक बनाए रखती है। मेरा सौभाग्य है कि लेखक ने इस किताब की भूमिका लिखने का अवसर मुझे दिया।
-सैयद मोजिज इमाम
गायत्री देवी चाहती हैं कि उनके पति इसराइल से वापस भारत आ जाएं
ईरान और इसराइल के बीच करीब 10 दिनों से हमले जारी है।
बीते शुक्रवार को इसराइल ने ईरान के परमाणु ठिकानों और अन्य सैन्य केंद्रों को निशाना बनाकर हमला शुरू किया था।
इसके बाद ईरान ने भी इसराइल पर जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी। इन हमलों में दोनों देशों ने एक-दूसरे को नुक़सान पहुंचाया है, जिसमें कई लोगों की जान गई है। फि़लहाल दोनों देशों के बीच तनाव लगातार बढ़ रहा है।
ईरान ने इसराइल के तेल अवीव और हाइफ़ा पोर्ट पर भी मिसाइलें दागी हैं।
इसराइल और ईरान में भारतीय
ईरान और इसराइल दोनों देशों में भारतीय नागरिक फंसे हुए हैं।
भारत ने ईरान से भारतीय नागरिकों की निकासी के लिए ‘ऑपरेशन सिंधु’ शुरू किया है।
ईरान-इसराइल संघर्ष की वजह से फि़लहाल हवाई मार्ग बंद है। इसलिए ईरान से आर्मीनिया के रास्ते भारतीय नागरिकों को निकाला जा रहा है।
इसराइल में रह रहे भारतीय कामगारों के परिवार वाले ज़्यादा परेशान नजऱ आ रहे हैं।
इसराइल में कऱीब 18 हज़ार भारतीय हैं। इनमें 6,694 कामगार हैं, जो अलग-अलग कंपनियों में काम कर रहे हैं।
इन कामगारों में उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र और कई अन्य राज्यों के लोग हैं।
भारत में इन कामगारों के परिवार वाले उनके वापस आने का इंतज़ार कर रहे हैं। कामगारों के परिवार वाले परेशान हैं। वे चाहते हैं कि सरकार उन्हें किसी तरह वापस लाए।
न्यूज एजेंसी एएनआई के मुताबिक भारत में इसराइल के राजदूत रेव्यून अजार ने कहा, ‘हम लोग विदेश मंत्रालय से लगातार संपर्क में हैं। जब भारतीय नागरिकों को वहां से निकालने की बात आएगी, तो हम पूरा सहयोग करेंगे। जो राजनयिक और विदेशी नागरिक जाना चाहते हैं, उन्हें पूरी तरह मदद दी जाएगी। हालांकि, सिर्फ सडक़ और समुद्री मार्ग का विकल्प उपलब्ध है।’
घर वालों का क्या कहना है?
उत्तर प्रदेश के बहराइच जि़ले की मिहींपुरवा तहसील के कऱीब 150 लोग इसराइल में कामकाज के सिलसिले में रह रहे हैं।
यहीं के अडग़ोड़वा गांव के 42 साल के अरविंद कुमार पिछले एक साल से इसराइल के तेल अवीव में इलेक्ट्रिशियन के तौर पर काम कर रहे हैं।
उनके पिता स्कूल में शिक्षक हैं। उनकी पत्नी गांव में हैं और उनके तीन बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। ताजा हालात के बाद उनके परिजन परेशान हैं।
अरविंद के पिता रामानंद ने बीबीसी से कहा, ‘16 अप्रैल 2024 को वह इसराइल गए थे। बुधवार सुबह 9 बजे उनसे बात हुई थी। उन्होंने बताया कि वे लोग बंकर में हैं और बीच-बीच में काम पर जाते हैं।’
उन्होंने कहा, ‘हम लोग डरे हुए हैं। वहां हवाई मार्ग बंद है। हम चाहते हैं कि वे जल्दी घर वापस आ जाएं, क्योंकि उन्होंने बताया है कि उनसे कुछ दूरी पर बम गिरा है।’
अरविंद की पत्नी ममता ने बताया, ‘हमें कहा है कि माहौल सही नहीं है। उन्होंने बम को गिरते हुए देखा है। जब अलार्म बजता है, तो बंकर में चले जाते हैं। हम लोग डरे हुए हैं और चाहते हैं कि वे जल्दी वापस आ जाएं।’
श्रवण कुमार मदेशिया यहां के पूर्व ब्लॉक प्रमुख हैं। उन्होंने बताया, ‘इसराइल जाने के लिए कऱीब 250 लोगों ने फ़ॉर्म भरा था। लेकिन ब्लॉक के 100 से ज़्यादा लोग इस समय इसराइल में हैं।’
उन्होंने बताया कि इलाक़े के ज़्यादातर लोग इसराइल में इलेक्ट्रिशियन का काम करते हैं।
बहराइच की गायत्री देवी के पति अर्जुन कुमार भी इसराइल में हैं।
बीबीसी से बातचीत में गायत्री देवी ने कहा, ‘हम चाहते हैं कि वे वापस आ जाएं, क्योंकि बात करने पर उन्होंने कहा था कि हालात ठीक नहीं हैं। हालांकि उन्होंने बताया है कि वे सुरक्षित हैं और काम कर रहे हैं।’
इसी तरह उत्तर प्रदेश के ही बाराबंकी जि़ले के सालेहनगर गांव के कई लोग इसराइल में हैं। इनमें ज़्यादातर लोग मज़दूरी का काम करते हैं।
यहां के उमेश सिंह के भाई दिनेश सिंह इसराइल में हैं।
उमेश का कहना है, ‘मेरे भाई ने बताया है कि इससे पहले यहां के हालात इतने खऱाब नहीं थे। लेकिन अब ख़तरा बढ़ गया है। बंकर में भी रात भर जागते हुए बिताना पड़ रहा है।’
-केदार सिरोही
भारतीय राजनीति में दिग्विजय सिंह एक ऐसा नाम है, जो हमेशा सक्रिय और मुखर रहा है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 1993 से 2003 तक उनके कार्यकाल के बाद भी, वे राजनीति में पूरी तरह सक्रिय हैं। कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता आज भी उनसे सीधे जुड़े हुए हैं, और उनकी स्वीकार्यता इतनी व्यापक है कि उनके यहाँ सत्ताधारी दल के नेताओं की अपेक्षा अधिक लोग जुटते हैं। यही कारण है कि वे हमेशा भाजपा के निशाने पर रहते हैं। दिग्विजय सिंह का कार्यकाल सामाजिक सुधार, ग्रामीण सशक्तिकरण, कृषि विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और प्रशासनिक नवाचारों का दौर रहा है। यह वह दौर था जब भारत में आर्थिक उदारीकरण शुरू हुआ था, और राज्यों को वैश्विक बदलावों के साथ तालमेल बिठाने की चुनौती थी।
दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश को 'बीमारू' राज्य की छवि से बाहर निकालने का साहसिक प्रयास किया। हालाँकि, राजनीतिक साजिशों, प्राकृतिक आपदाओं और मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ बँटवारे के कारण वित्तीय और बुनियादी ढाँचे की कृत्रिम कमियाँ गिनाई गईं, जिससे उनकी छवि को नुकसान पहुँचाने की कोशिश हुई। लेकिन आज 20 साल बाद उनके योगदान की चर्चा हो रही है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का बँटवारा शांतिपूर्ण ढंग से हुआ, जो दिग्विजय सिंह के कुशल नेतृत्व को दर्शाता है। दिग्विजय सिंह का दस वर्ष का कार्यकाल पूरे देश में एक अनोखा उदाहरण है जिस पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा।
बीमारू का सच और दिग्विजय के सामने चुनौती
1980 के दशक में अर्थशास्त्री अशोक मित्रा ने बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को 'बीमारू' का दर्जा दिया था, जो दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री बनने से 13 साल पहले की बात है। उस समय 1977 से 1980 तक मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार थी, और कैलाश चंद्र जोशी, वीरेंद्र कुमार सकलेचा और सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री रहे। 1980 से 1993 तक कांग्रेस के अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा और श्यामाचरण शुक्ल भी मुख्यमंत्री रहे। 1993 में जब दिग्विजय सिंह ने सत्ता संभाली, तो उन्होंने 'बीमारू' राज्य का टैग हटाने के लिए आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक सुधारों पर जोर दिया।
2003 के विधानसभा चुनाव से पहले, भाजपा ने दिग्विजय सिंह को 'श्रीमान बंटाधार' कहकर प्रचारित किया। बिजली संकट, खराब सड़कें और कथित भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को उछाला गया। कुछ कांग्रेसी नेताओं की चुप्पी ने भी सवाल उठाए। लेकिन इसका मूल कारण राजनीतिक साजिशें, प्राकृतिक आपदाएँ और बँटवारे से उत्पन्न वित्तीय संकट था। दिग्विजय सिंह ने इनका डटकर मुकाबला किया और अपनी नीतियों पर अडिग रहे। उनकी यह दृढ़ता अभिमन्यु जैसी थी, जो चक्रव्यूह में घिरकर भी लड़ता रहा।
प्रगति के साथ चुनौतियाँ
* 1993 में मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 40% कम थी (₹1,500 बनाम ₹2,500)। साक्षरता दर 27.1% थी, और राज्य का कर्ज ₹9,000 करोड़ था।
* दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में राज्य का बजट ₹8,000 करोड़ से बढ़कर ₹24,000 करोड़ हुआ, जिसमें 60% से अधिक विकास कार्यों पर खर्च हुआ।
* कृषि विकास दर 3.5% प्रति वर्ष रही, जो राष्ट्रीय औसत (2.5%) से अधिक थी।
* सोयाबीन उत्पादन 10 लाख टन से बढ़कर 40 लाख टन हुआ, जिसने मध्य प्रदेश को 'सोयाबीन की राजधानी' बनाया।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार के दौरान मध्य प्रदेश के साथ पक्षपात के आरोप लगते रहे। योजना आयोग के आँकड़े भी बताते हैं कि नवीं पंचवर्षीय योजना में मध्य प्रदेश को प्रति व्यक्ति केंद्रीय सहायता राष्ट्रीय औसत से 20% कम मिली। बँटवारे के कारण मध्य प्रदेश का 30% हिस्सा, कई बिजली परियोजनाएँ और औद्योगिक इकाइयाँ छत्तीसगढ़ को चली गईं, जिससे 35% राजस्व की कमी हुई। केंद्र ने संसाधनों का बँटवारा सही नहीं किया, और मध्य प्रदेश को बिजली खरीदनी पड़ी। सूखे और बँटवारे के कारण प्रशासनिक खर्च बढ़ा, और गैर-योजनागत खर्च (वेतन, पेंशन, ब्याज) में तेजी आई। केंद्र से मिलने वाला राजस्व (30-35%) समय पर नहीं मिला, जिससे 2000-03 के बीच विकास व्यय 15% कम हुआ।
सामाजिक सुधार: ग्रामीण सशक्तिकरण का मॉडल
दिग्विजय सिंह का सबसे बड़ा योगदान सामाजिक और ग्रामीण सशक्तिकरण में रहा। उनका कार्यकाल स्थानीय स्वशासन को सशक्त करने के लिए एक निर्णायक मोड़ था। मध्यप्रदेश वह पहला राज्य बना जिसने 73वें संविधान संशोधन को ज़मीनी हकीकत में बदला। ग्राम सभाओं को महज़ औपचारिकता मानने की बजाय, उन्हें निर्णय लेने की ताकत दी गई। यह मॉडल इतना प्रभावी रहा कि बाद में इसे दूसरे राज्यों और केंद्र सरकार ने भी अपनाया। दिग्विजय सिंह ने सत्ता का केंद्रीकरण तोड़ा और योजनाओं की निगरानी खुद जनता के हाथ में सौंपने का साहस दिखाया जो भारत में शासन की पारदर्शिता की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल थी।
दिग्विजय सिंह का विकास मॉडल केवल सड़कों और भवनों तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय को भी उतनी ही प्राथमिकता दी। 'राजीव गांधी शिक्षा मिशन' जैसी पहलें दूरदराज़ के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में बाल शिक्षा के अधिकार को हकीकत बनाने की कोशिश थीं। उन्होंने महिलाओं के लिए स्व-सहायता समूहों को बढ़ावा देकर उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने की नींव रखी। यह वह दौर था जब राज्य की राजनीति में सामाजिक सरोकारों को सिर्फ भाषणों का हिस्सा नहीं, बल्कि बजट और योजनाओं में जगह मिलने लगी थी।
शिक्षा गारंटी योजना (EGS): ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में 90 दिनों के भीतर स्कूल खोले गए। 26,000 नए प्राथमिक स्कूल खुले। साक्षरता दर 43.5% (1993) से 63.7% (2003) हो गई। महिला साक्षरता में 21% की वृद्धि हुई, जो राष्ट्रीय औसत (14%) से कहीं अधिक थी। यूनेस्को ने इस मॉडल की सराहना की।
पंचायती राज: 52,000 ग्राम सभाएँ स्थापित हुईं। पंचायतों को वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार मिले। 33% महिला आरक्षण से 1 लाख से अधिक महिलाएँ नेतृत्व में आईं। 'जिला सरकार' मॉडल से जिलों को स्वतंत्र बजट और निर्णय लेने की शक्ति मिली।
जल संरक्षण: जलाभिषेक अभियान और राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के माध्यम से 3.5 लाख जल संरचनाएँ बनीं, जिससे 6 लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित हुई। भूजल स्तर में सुधार और कृषि उत्पादकता में वृद्धि हुई।
कृषि सुधार: मंडियों में बिचौलियों की भूमिका कम हुई, नगद भुगतान की व्यवस्था हुई, और अनुसूचित जाति-जनजाति के किसानों को भूमि का स्वामित्व दिया गया। 2001-02 में सूखे के कारण खरीफ उत्पादन 15-25% गिरा। केंद्र से ₹1,200 करोड़ की माँग के बावजूद केवल ₹400 करोड़ मिले। फिर भी, कृषि विकास दर 3.5% रही।
-उज्जवल दीपक
इस तस्वीर को ध्यान से देखिए । रायपुर, छत्तीसगढ़ के केंद्रीय जेल के बाहर मीसा एक्ट के तहत बंदी किए गए लोकतंत्र सेनानियों की । 19 महीने जेल में एक कष्ट भरा वक्त गुजारने के बाद मई 1977 में रिहा होने की तस्वीर है ये ।
तस्वीर में प्रमुख रूप से जनसंघ से प्रांत के बड़े नेतागणों में स्व.बाबू पंडरी राव जी कृदत्त, स्व.पंडित हनुमान प्रसाद जी मिश्रा, स्व. शारदा प्रसाद जी शर्मा, स्व. सोम प्रकाश जी गिरी, स्व.जयंती लाल जी गाँधी, स्व. वि_ल राव म्हस्के (दीपक म्हस्के जी के पिताजी ) और हमारे पिता स्व. वीरेंद्र दीपक उपस्थित हैं।
तो हुआ ये था की 1975 में हमारे पिताजी और माताजी का रिश्ता तय हो चुका था । नानाजी सरकारी शिक्षक थे. माताजी उस समय कॉलेज में थीं। पिताजी महासमुंद / राजिम क्षेत्र में छात्र आंदोलन में सक्रिय थे और पत्रकारिता की शुरुआत भी कर रहे थे।
नाना जी ने पंडित सुंदरलाल शर्मा जी के परिवार की प्रतिष्ठा देखकर शादी तय की थी और जल्द ही समारोह होने की उम्मीद थी । आज से ठीक 50 साल पहले 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए देश में आपातकाल लगवा दिया । पिता जी क्रांतिकारी देशभक्त थे और वो भी कूद पड़े लोकतंत्र की रक्षा करने। आंदोलन, विद्रोह और उनकी लेखनी ने सरकार के कान खड़े किए और 25 अक्टूबर 1975 को उनको गिरफ़्तार कर लिया गया ।
उस समय पिता जी की उम्र केवल 26 वर्ष थी। घरवालों को इस गिरफ़्तारी की ख़बर बाद में पता चली । नानाजी को थोड़े अंतराल में पता चल ही गया था । मध्यमवर्गीय ब्राह्मण, सरकारी शिक्षक के लिए होने वाले दामाद का जेल जाना बहुत बड़ी बात थी । दूसरी बड़ी बात थी की जुर्म का पता ही नहीं था । पता नहीं कौन से कानून में उनको गिरफ्तार किया गया था । पता ही नहीं चल पा रहा था
कुछ दिनों तक यह असमंजस ही चलता रहा।
आखिरकार नाना जी ने सबसे सलाह मशवरा कर ये फैसला किया की अब ये शादी नहीं होगी।
-घनाराम साहू, सहा.प्राध्यापक, रायपुर
25 जून 1975 को समाजवादी नेता एवं सांसद मधु लिमये छत्तीसगढ़ की यात्रा पर थे। वे छत्तीसगढ़ के समाजवादी आंदोलनकारियों को संगठित कर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से जोडऩा चाहते थे। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के समाजवादी कार्यकर्ता किसानों से जबरन लेवी वसूली के विरुद्ध आंदोलित थे।
किसान फरवरी के प्रथम सप्ताह से आरंग में गिरफ्तारी दे रहे थे, लेकिन 13 फरवरी 1975 को तत्कालीन केंद्रीय मंत्री स्व. विद्याचरण शुक्ल के आरंग पहुंचने और किसानों से अनुचित व्यवहार के कारण किसान उग्र हो गए। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, किसान नेता स्व. जीवन लाल साव पर गोलियां चलाई गईं और सभी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
किसानों की गिरफ्तारी के विरोध में महासमुंद के तत्कालीन विधायक स्व. पुरुषोत्तम लाल कौशिक ने छत्तीसगढ़ बंद की घोषणा की। बंद पूरे राज्य में अभूतपूर्व रूप से सफल रहा और स्व. कौशिक सहित अनेक नेता गिरफ्तार कर लिए गए। सभी बंदी नेताओं को दो-तीन दिनों में क्रमश: रिहा कर दिया गया, किंतु किसान नेता स्व. जीवन लाल साव पर मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट (मीसा) लगाकर उन्हें जेल में निरुद्ध कर दिया गया। इस प्रकार वे मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के प्रथम मीसा बंदी बन गए। वे 7 जून 1975 को कोर्ट के आदेश से रिहा हुए।
रिहाई के बाद स्व. साव किसानों को संगठित करने के अभियान में जुट गए थे। सांसद मधु लिमये 25 जून को बिलासपुर में बैठक ले रहे थे और 26 जून को प्रात: रायपुर पहुंचे, लेकिन तब तक 25 जून की मध्यरात्रि से देश में आपातकाल घोषित हो चुका था। वे आजाद चौक स्थित कुर्मी बोर्डिंग में कार्यकर्ताओं की बैठक के लिए पहुंचे। बैठक के बाद स्व. कमल नारायण शर्मा सहित कुछ समाजवादी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
इस समय ईरान में स्वतंत्र जानकारी पाना असंभव है. इस्राएल में सैन्य ठिकानों और तबाही को दिखाने वाले वीडियो को सेंसर किया जा रहा है. पर्यवेक्षकों की चेतावनी है कि इस्राएल में व्यापक संघर्ष की रिपोर्टिंग पर भी अंकुश हैं.
डॉयचे वैले पर जेनिफर होलाइज | योहाना नाज्दी का लिखा-
इस्राएल और ईरान के बीच युद्ध के दूसरे हफ्ते की शुरुआत से ही संघर्ष के बारे में जानकारी पाना कई मायनों में और अधिक कठिन हो गया है. हुआ यह कि ईरान ने पहले तो इंटरनेट की स्पीड को कम किया और फिर आगे चलकर अपना इंटरनेट ही बंद कर दिया.
ईरान की सरकार ने दावा किया कि इस्राएली ड्रोन सिम कार्ड इंटरनेट कनेक्शन के जरिए काम कर रहे थे और इंटरनेट बंद करना इस्राएल की साइबर युद्ध छेड़ने की क्षमता को सीमित करने के लिए जरूरी था. नतीजतन, ईरान में वेबसाइट, मोबाइल ऐप और ऑनलाइन मैसेंजर उपलब्ध नहीं हैं. इसका मतलब है कि ईरानियों को युद्ध, मरने वालों की संख्या, विनाश या हाल ही में हुए अमेरिकी हमलों के बारे में जो भी खबरें मिलती हैं, वे केवल ईरान की सरकार और उसके सरकारी मीडिया से आती हैं.
ईरानी अधिकारियों ने डीडब्ल्यू के पत्रकारों समेत अंतरराष्ट्रीय संवाददाताओं पर भी जमीनी स्तर पर संघर्ष की रिपोर्टिंग करने पर प्रतिबंध लगा दिया है. जर्मनी में रहने वाले एक ईरानी व्यक्ति ने डीडब्ल्यू को बताया, "मेरी मां ने मुझसे कहा कि मैं उन्हें बताऊं कि क्या हो रहा है." यह व्यक्ति वीकेंड पर कुछ मिनटों के लिए तेहरान में अपनी मां को फोन कर पाया था. अपने खिलाफ कार्रवाई की आशंका से उसने डीडब्ल्यू से अपना नाम प्रकाशित नहीं करने के लिए कहा है. वह कहते हैं, "उन्हें (मां को) इस बात का कोई अंदाजा नहीं था कि तेहरान के किस हिस्से पर हमला हुआ है."
उधर इस्राएल के भीतर चल रहे संघर्ष के बारे में भी न्यूज पाना संभव तो है, लेकिन पिछले हफ्ते इस्राएली सेंसर गाइडलाइंस को अपडेट कर नियमों को और सख्त करने पर चर्चा हुई. ये गाइडलाइंस स्थानीय पत्रकारों और अंतरराष्ट्रीय संवाददाताओं के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी हैं. जाहिर है कि नए नियम डीडब्ल्यू के येरुशलम स्टूडियो की प्रमुख तानिया क्रेमर पर भी असर डालते हैं. उन्होंने येरुशलम से बताया, "अब तक, सैन्य प्रतिष्ठानों या सैनिकों के किसी भी फुटेज को प्रकाशित करने से पहले मिलिट्री सेंसर से पास कराना होता था."
उन्होंने बताया कि आम तौर पर सेंसर ऑफिस वीडियो को काफी जल्दी रिलीज कर देता है लेकिन "सैनिकों के चेहरे को धुंधला करना पड़ता था." इस हफ्ते से नियमों में बदलाव किया गया है. क्रेमर ने कहा, "अब ऐसा लगता है कि हमें मिसाइलों के गिरने की लाइव लोकेशन दिखाने की अनुमति नहीं है."
इस्राएली समाचार पत्र हारेत्ज के अनुसार, इस्राएली राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतामार बेन-ग्वीर और संचार मंत्री श्लोमो कारही ने पुलिस को नए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसके तहत पुलिस को पत्रकारों को हटाने या गिरफ्तार करने की अनुमति दी गई है, अगर उन्हें लगे कि मीडिया संगठन किसी जगह का डॉक्यूमेंटेशन कर रहे हैं.
-रेहान फ़ज़ल
अगर इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाइकोर्ट का फ़ैसला उस समय आया होता जब उनकी लोकप्रियता चरम पर थी, यानी बांग्लादेश की लड़ाई के तुरंत बाद, तो माहौल बिल्कुल अलग होता.
लेकिन 1971 के बाद अगले तीन सालों में देश का मूड पूरी तरह से बदल गया था.
बहुत कम लोग इलाहाबाद हाइकोर्ट के फ़ैसले के बाद इंदिरा गाँधी के पक्ष में सार्वजनिक तौर पर खड़े होने के लिए तैयार थे.
एक मशहूर ब्रिटिश पत्रकार जेम्स कैमरन ने टिप्पणी की थी, "ये तो उसी तरह हुआ कि सरकार के प्रमुख को ग़लत जगह गाड़ी पार्क करने के लिए इस्तीफ़ा देने के लिए कहा जाए."
12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गाँधी का चुनाव रद्द कर दिया था.
इलाहाबाद हाइकोर्ट का फ़ैसला आने के तुरंत बाद उनके मंत्रिमंडल के सदस्य उनके निवास 1 सफ़दरजंग रोड पहुंचना शुरू हो गए थे लेकिन इंदिरा गाँधी उस समय कुछ ही लोगों की सुन रही थीं.
जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने अपनी किताब 'इंदिरा गाँधी अ पर्सनल एंड पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी' में लिखा था, "12 जून, 1975 को एक समय ऐसा आया जब इंदिरा गाँधी ने इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था. वो अपनी जगह स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सोच रही थीं."
"उनकी सोच थी कि सुप्रीम कोर्ट में उनकी अपील स्वीकार होने और उनकी प्रतिष्ठा पुन: स्थापित होने के बाद वो दोबारा प्रधानमंत्री बन जाएंगीं, लेकिन वरिष्ठ मंत्री जगजीवन राम ने ये संकेत देने शुरू कर दिए कि वो इंदिरा के नेतृत्व में तो ख़ुशी से काम करने के लिए तैयार हैं, लेकिन अगर उन्होंने अस्थायी रूप से भी स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सोची तो वो वरिष्ठता के आधार पर अपना दावा पेश करेंगे."
इंदिरा ने इस्तीफ़ा देने का अपना फ़ैसला बदला
इंदिरा गाँधी को ये अंदाज़ा था कि अगर वो सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फ़ैसले से पहले त्यागपत्र दे देती हैं तो इसका जनता पर अच्छा असर पड़ेगा और अगर सुप्रीम कोर्ट उनके पक्ष में फ़ैसला सुनाता है तो वो शायद दोबारा सत्ता में भी आ सकती हैं.
इंदिरा गाँधी के सचिव रहे पीएन धर अपनी किताब 'इंदिरा गाँधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी' में लिखते हैं, "अगर विपक्षी नेताओं, ख़ास तौर पर जेपी ने इस्तीफ़े के बारे में फ़ैसला लेने का विचार सिर्फ़ उनके ऊपर छोड़ा होता तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था कि वो शायद इस्तीफ़ा दे ही देतीं. लेकिन वो हालात का फ़ायदा उठाना चाहते थे और दुनिया को ये दिखाना चाहते थे कि उन्होंने इंदिरा गाँधी को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया है."
"अपने सभी सार्वजनिक बयानों में उन्होंने इंदिरा गाँधी को निर्दयतापूर्वक नीचा दिखलाने की कोशिश की. निजी दुश्मनी की इस नुमाइश ने इंदिरा के जुझारूपन को सामने ला दिया और उनके इस फ़ैसले को बल मिला कि उन्हें हर क़ीमत पर ख़ुद का बचाव करना है."
कांग्रेस के बड़े नेता चाहते थे इंदिरा का इस्तीफ़ा
वैसे ऊपरी तौर से कांग्रेस का हर बड़ा नेता इंदिरा के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था लेकिन हर एक को ये भी अंदाज़ा था कि प्रधानमंत्री का पद उनकी पहुंच में है.
कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी, अ पर्सनल हिस्ट्री' में लिखती हैं, "सार्वजनिक रूप से इंदिरा का समर्थन करने के बावजूद बहुत से कांग्रेसी नेता आपस में फुसफुसाकर कहते थे कि इंदिरा को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. ऐसा विचार रखने वालों में शामिल थे जगजीवन राम, कर्ण सिंह. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वेंगल राव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स. लेकिन इनमें से किसी में हिम्मत नहीं थी कि वो ये बात इंदिरा गाँधी से सीधे कह पाते."
कर्ण सिंह ने इस बारे में ज़रूर परोक्ष रूप से इंदिरा गाँधी को सलाह दी थी.
नीरजा चौधरी अपनी किताब 'हाउ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड' में लिखती हैं कि इंदिरा गाँधी के कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री रहे कर्ण सिंह ने उन्हें बताया था उन्होंने इंदिरा गाँधी को इस मामले में सुझाव दिया था.
कर्ण सिंह ने इंदिरा गाँधी से कहा, "अच्छा विचार है कि आप अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद को भेज दीजिए. वो आपका इस्तीफ़ा अस्वीकार कर दें और आप से तब तक अपने पद पर बने रहने के लिए कह दें जब तक सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फ़ैसला नहीं आ जाता."
उस समय इंदिरा गाँधी ने इस प्रस्ताव पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी लेकिन कर्ण सिंह ने नीरजा चौधरी को बताया, "मुझे लग गया था कि इंदिरा गाँधी को ये बात पसंद नहीं आई है."
संजय गाँधी थे इंदिरा के इस्तीफ़े के ख़िलाफ़
इंदिरा के छोटे बेटे संजय गाँधी, उनके सहायक निजी सचिव आरके धवन और हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल इंदिरा के इस्तीफ़े के ख़िलाफ़ थे.
पुपुल जयकर इंदिरा गाँधी की जीवनी में लिखती हैं, "संजय गाँधी को जब इंदिरा गाँधी की त्यागपत्र देने की मंशा के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें अलग कमरे में ले जाकर कहा कि वो उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे."
"संजय को देवकांत बरुआ के उस सुझाव पर भी बहुत ग़ुस्सा आया कि इंदिरा गाँधी उनका कांग्रेस अध्यक्ष का पद ले लें और बरुआ सुप्रीम कोर्ट में अपील का फ़ैसला आने तक थोड़े समय के लिए प्रधानमंत्री का पद संभाल लें. संजय ने इंदिरा से कहा कि हर कोई निष्ठा का दिखावा भर कर रहा है. दरअसल, हर शख़्स ताक़त के पीछे दौड़ रहा है."
कांग्रेस में इंदिरा का विकल्प ढूंढने पर मंथन
इमरजेंसी घोषित करने के पीछे इंदिरा गाँधी की असुरक्षा की भावना की बहुत बड़ी भूमिका थी.
इसके पीछे इलाहाबाद हाइकोर्ट का फ़ैसला और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की भूमिका तो थी ही, इंदिरा गाँधी को इस बात की भी चिंता थी कि उनकी अपनी पार्टी के लोग पीठ पीछे उनको सत्ता से हटाने का षड्यंत्र कर रहे थे.
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब 'द जजमेंट' में लिखा था, "क़रीब सौ से अधिक कांग्रेसी इंदिरा को हटाने की मुहिम में लगे हुए थे. यहाँ तक कि उनके सबसे बड़े समर्थक होने का दावा करने वाले देवकांत बरुआ, कांग्रेस के नेता चंद्रजीत यादव के घर हुई बैठक में इंदिरा का साथ छोड़ने के बारे में सोच रहे थे. उस बैठक में मौजूद कुछ कैबिनेट मंत्रियों में इस बारे में एक राय नहीं थी कि उनकी जगह सबसे वरिष्ठ जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाया जाए या 1952 से केंद्रीय मंत्री रहे स्वर्ण सिंह को."
जहाँ बरुआ और यादव रात को इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ माहौल बनाने की कोशिश कर रहे थे, युवा नेता कहे जाने वाले चंद्रशेखर, कृष्णकांत और मोहन धारिया खुलेआम प्रेस और जनता के सामने इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए थे.
क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो और प्रतिनव अनिल अपनी किताब 'इंडियाज़ फ़र्स्ट डिक्टेटरशिप, द इमरजेंसी 1975-77' में लिखते हैं, "इन नेताओं का तर्क था कि पार्टी को बचाना प्रधानमंत्री के करियर से ज़्यादा महत्वपूर्ण है. फ़रवरी 1976 में होने वाले चुनाव में कांग्रेस ऐसे प्रधानमंत्री के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ सकती जिसके ख़िलाफ़ जाँच चल रही हो. कृष्णकांत का तो यहाँ तक मानना था कि अगर कांग्रेस इंदिरा गाँधी के रक्षण में सामने आती है तो देश क्रांति की तरफ़ बढ़ जाएगा. वो तो डूबेंगी ही, उनके साथ पार्टी भी डूब जाएगी."
इंदिरा को विपक्ष से ज़्यादा अपनी पार्टी में विद्रोह की चिंता
दूसरी तरफ़, जगजीवन राम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा और कृष्णकांत से लगातार संपर्क में थे. ये दोनों इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ विद्रोह के समर्थन में थे.
इंदिरा के समर्थक यशवंत राव चव्हाण मोहन धारिया से पार्टी में एकता बनाए रखने की अपील कर रहे थे.
क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो और प्रतिनव अनिल लिखते हैं, "ऐसा लगता है कि 12 से 18 जून के बीच कांग्रेस सांसदों के बीच जगजीवन राम का समर्थन बढ़ता जा रहा था. कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अमृत डांगे और कांग्रेस के वामपंथी नेता केडी मालवीय उनके लिए समर्थन जुटाने की मुहिम में कूद पड़े थे."
मशहूर पत्रकार निखिल चक्रवर्ती का मानना था, "इंदिरा गाँधी को अपने दुश्मनों से अधिक अपनी पार्टी वालों की चिंता ज़्यादा सता रही थी."
दूसरा उनके बाहरी विरोधियों को भी लगने लगा था कि इस समय इंदिरा गाँधी से अधिक असुरक्षित कोई नहीं है.
ओरियाना फ़लाची ने न्यू रिपब्लिक के 9 अगस्त, 1975 के अंक में 'मिसेज़ गाँधीज़ अपोज़िशन, मोरारजी देसाई' शीर्षक लेख में मोरारजी देसाई को कहते बताया था, "हमारा इरादा उनको इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर करने का है. इंदिरा गाँधी की वजह से अब मुझे इस बात का पक्का यकीन हो चला है कि महिलाएं देश का नेतृत्व नहीं कर सकतीं. ये महिला हमारे इस आंदोलन का सामना नहीं कर पाएगी."
इंदिरा और जगजीवन राम के बीच मनमुटाव का पुराना इतिहास
कांग्रेस के युवा नेताओं के पास इंदिरा गाँधी का विरोध करने के निजी कारण थे. तीन महीने पहले इंदिरा गाँधी ने मोहन धारिया को ये सुझाव देने के लिए अपने मंत्रिमंडल से बर्ख़ास्त किया था कि कांग्रेस को जयप्रकाश नारायण से बातचीत करनी चाहिए.
चंद्रशेखर इंदिरा गाँधी के विरोध के बावजूद 1972 में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य बन गए थे.
क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो और प्रतिनव अनिल लिखते हैं, "जगजीवन राम का ये कहना कि सुप्रीम कोर्ट इंदिरा गाँधी के पक्ष में फ़ैसला देगा, एक ग़लत आश्वासन था क्योंकि वो ख़ुद प्रधानमंत्री का पद लेने की ताक में थे. ये बात किसी से छिपी नहीं थी कि इंदिरा और जगजीवन राम में मनमुटाव का पुराना इतिहास रहा था."
इंटेलिजेंस ब्यूरो की परेशान कर देने वाली रिपोर्ट
इंटेलिजेंस ब्यूरो ने इंदिरा गाँधी को बताया था कि उन्हें कांग्रेस के 350 सांसदों में सिर्फ़ 191 सदस्यों का समर्थन प्राप्त है.
इंदिरा गाँधी के सचिव रहे पीएन धर ने शाह आयोग में गवाही देते हुए कहा था कि "इंटेलिजेंस ब्यूरो के तत्कालीन निदेशक आत्म जयराम ने उन्हें बताया था कि बाक़ी 159 सांसद पार्टी के क्षत्रपों के समर्थक हैं.
युवा नेताओं के पास 24 सांसद. यशवंतराव चव्हाण के पास 17, जगजीवन राम के पास 13, ब्रह्मानंद रेड्डी के पास 11, कमलापति त्रिपाठी के पास 8, हेमवती नंदन बहुगुणा के पास 5, डीपी मिश्रा के पास 4 और श्यामाचरण शुक्ला के पास 3 सांसद हैं. इसके अलावा 15 अन्य सांसद निजी, राजनीतिक और अन्य कारणों से उनके विरोधी हैं." (शाह कमीशन पेपर्स,सबजेक्ट फ़ाइल 1, पेज 25-26)
इंदिरा गाँधी दोतरफ़ा संकट से जूझ रही थीं. क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो और प्रतिनव अनिल लिखते हैं, "एक तो उनके पास संसद में संविधान संशोधन के लिए ज़रूरी बहुमत नहीं था. दूसरे इस बात की बहुत संभावना थी कि अगर इंदिरा गाँधी के समर्थकों की संख्या 191 से घटकर 175 या इससे नीचे रह जाती है तो इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस सांसद किसी नैतिक शक्ति वाले अनजान नेता के नेतृत्व में उनका साथ छोड़ सकते हैं."
हवा का रुख़ बदला
लेकिन 18 जून आते-आते हवा इंदिरा के पक्ष में बनना शुरू हो गई थी. इसका कारण ये था कि तब तक चुपचाप तमाशा देख रहे यशवंतराव चव्हाण और स्वर्ण सिंह उनके पक्ष में आ गए थे.
तब तक जगजीवन राम को भी अंदाज़ा लग गया था कि उनके सामने बहुत बड़ी चुनौती है.
एक तरफ़ तो दिल्ली में ख़ाली होने वाले संभावित स्थान के कई दावेदार थे और दूसरा उनका मुक़ाबला इंदिरा गाँधी से था जो दिल्ली में भले ही कमज़ोर दिखाई देती हों लेकिन पार्टी के संगठन पर उनकी पकड़ कमज़ोर नहीं हुई थी.
-वंदना
हाल ही में बॉलीवुड कलाकार आमिर खान की एक फिल्म रिलीज हुई है जो अपने स्टार कास्ट के लिए चर्चा में है। इस फिल्म में कई न्यूरोडाइवरजेंट कलाकारों ने काम किया है जिनमें डाउन सिंड्रोम, ऑटिज़्म जैसी स्थितियों वाले कलाकार हैं।
फि़ल्म ‘सितारे ज़मीन पर’ में एक संवाद है जो विकलांगता को लेकर लोगों के नजरिए को भी दर्शाता है। इस संवाद में एक सुनवाई के दौरान जज निर्देश देती हैं कि कोच (आमिर) इंटलेक्चुएली डिसएबल्ड लोगों की बास्केटबॉल टीम को प्रशिक्षित करें।
जवाब में आमिर ख़ान कहते हैं, ‘मैडम तीन महीनों के लिए पागलों को सिखाऊँगा मैं? और ये क्या बात हुई पागल को पागल मत बोलो?’
वैसे साल भर में बनी कुल हिंदी फिल्मों का नाममात्र हिस्सा ही विकलांग किरदारों पर बनता है- चाहे वो शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति हो या इंटेलेक्चुअली डिसएबल्ड।
स्पर्श का नसीर-‘हमें मदद चाहिए तरस नहीं’
यहाँ 1980 में सई परांजपे की हिंदी फिल्म ‘स्पर्श’ याद आती है, जिसमें नसीरुद्दीन शाह देख नहीं सकते। वो एक ऐसे स्कूल के प्रिंसिपल हैं जहां वो बच्चे पढ़ाई करते हैं जो देख नहीं सकते।
फिल्म का एक सीन है जहाँ शबाना आज़मी इन बच्चों को पढ़ाने में दिलचस्पी दिखाती हैं और कहती हैं, ‘मैं यही चाहूँगी कि बेचारों को ज़्यादा से ज्यादा दे सकूँ।’
ये सुनकर नसीरुद्दीन शाह बोलते हैं, ‘एक छोटी-सी अर्ज है। एक लफ्ज आप जितनी जल्दी भूल जाएँ उतना अच्छा होगा- बेचारा। हमें मदद चाहिए तरस नहीं। ये मत भूलिए कि अगर आप उन्हें कुछ देंगी तो वो भी आपको बहुत कुछ देंगे। किसी का किसी पर एहसान नहीं। कोई बेचारा नहीं। ठीक?’
जब किसी विकलांग व्यक्ति को ज़रूरत से ज़्यादा तरस या मदद या बेचारगी से देखा जाता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है, वही अहसास नसीर के चेहरे पर दिखता है।
कोशिश- न सुन, न बोल पाने वालों का प्रेम
कुछ ऐसी ही कोशिश गुलजार ने फिल्म ‘कोशिश’ में की थी।
इस फिल्म में मुख्य किरदार निभा रहे संजीव कुमार और जया भादुड़ी, दोनों ही सुन और बोल नहीं सकते। किसी भी अन्य दंपती की तरह कैसे वो अपनी दुनिया बसाते हैं, ‘कोशिश’ इसी कोशिश की कहानी है।
फिल्म का एक सीन है जहाँ शादी के बाद रात को दूल्हा और दुल्हन दोनों कमरे में बैठे हैं। संजीव कुमार कागज की एक छोटी-सी चिट निकाल कर जया को देते हैं जिस पर लिखा होता है, ‘मैं तुमसे प्यार करता हूँ।’
दुल्हन के लिबास में सजी जया भी कागज की एक पुडिय़ा लेकर आई हुई होती हैं जिस पर लिखा है, ‘पहली बार जो मैंने (शादी से) इंकार किया था, उसके लिए मुझे माफ़ कर देना। मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि मुझे आपके जैसा पति मिला है।’
न कोई शब्द, न कोई स्पर्श। सिर्फ एक दूसरे के साथ का अहसास। शादी के बाद प्रेम का इज़हार करते दो लोगों के बीच ऐसा सुंदर दृश्य शायद ही किसी फि़ल्म में देखा गया होगा।
गुलजार अपनी इस फिल्म में ये बताने की कोशिश करते हैं कि दोनों विकलांग किरदार हैं, लेकिन वो भी हर किस्म के जज्बात को उसी तरह शिद्दत से महसूस करते हैं जैसे बाकी लोग।
हालांकि ‘कोशिश’ फिल्म के आखिर में संजीव कुमार नैतिकता के आधार पर अपने बेटे को ‘जबरदस्ती’ अपने बॉस की बेटी से शादी करने को कहते हैं क्योंकि वो बोल-सुन नहीं सकती।
विकलांग किरदार- न तरस खाएं, न महान मानें
निपुण मल्होत्रा अपनी संस्था के ज़रिए विकलांग लोगों के मुद्दों पर काम करते हैं। जन्म से ही उन्हें आर्थोग्रीपोसिस है। यानी उनकी बाजुओं और टाँगों की माँसपेशियाँ पूरी तरह विकसित नहीं हैं और वो व्हीलचेयर पर हैं।
निपुण इस बात के खिलाफ हैं कि फिल्मों में विकलांग किरदारों को इस तरह दिखाया जाए कि लोग उस पर तरस खाएं।
जबकि स्पर्श या 2024 में आई ‘श्रीकांत’ जैसी फिल्मों की खास बात ये है कि ये विकलांग किरदारों पर न तरस खाती हैं न उन्हें महान बनाती हैं।
फिल्म श्रीकांत में मूल भूमिका निभाने वाले व्यक्ति एक उद्योगपति हैं, जो देख नहीं सकते। वो हुनरमंद तो हैं, पर थोड़े अहंकारी भी। स्पर्श का नसीर भी कई तरह के कॉम्पलेक्स से ग्रस्त है।
जब स्मिता पूछती हैं, ‘क्या अब भी सुंदर हूँ’
फिल्म ‘एल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ में नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल
फि़ल्म ‘एल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ (1980) में निर्देशक सईद मिर्जा ने एक विकलांग महिला के नजरिए को बख़ूबी दिखाया है जो कम ही देखने को मिलता है।
फिल्म का एक सीन है जहाँ स्मिता पाटिल एक दुकान में बतौर सेल्सवुमन काम करती हैं।
साड़ी खरीद रहा एक पुरुष ग्राहक लगातार स्मिता को गलत नजर से देखता है और कहता है, ‘क्या बताऊँ आप मेरी बहन से कितना मिलती हैं बल्कि आप उससे बेहतर हैं। ये साड़ी पहनकर दिखाएंगी आप। देखता हूँ कितनी सुंदर लगती है मेरी बहन।’
बिना उसके जवाब का इंतजार किए या सहमति के वो ग्राहक स्मिता के कंधों पर साड़ी डाल देता है।
जब स्मिता सीट से उठकर दुकान में चलने लगती हैं तो पुरुष ग्राहक को पता चलता है कि स्मिता ठीक से चल नहीं पातीं।
स्मिता ग्राहक से पूछती हैं, ‘मैं आपकी बहन जैसी हूँ न? और आपकी बहन मेरी जैसी? बिल्कुल मेरे जैसी? क्या मेरे जैसी लंगड़ी भी है? बड़ी सुंदर है न?’
सीन यहीं ख़त्म हो जाता है लेकिन ये बहुत असहज कर देने वाला सीन था। स्मिता का सवाल फि़ल्म ख़त्म होने के बाद भी आपका पीछा करता है।
सेरेब्रल पाल्सी वाले रोल में लिया असल किरदार
फिल्म श्रीकांत के एक दृश्य में राजकुमार राव (दाएं)
बहस इस बात पर भी होती रही है कि फि़ल्मों में कम विकलांग कलाकारों को ही काम करने का मौका मिलता है।
2022 में विद्या बालन की फिल्म ‘जलसा’ में सूर्या कासीभटला नाम के जिस बाल कलाकार ने ये रोल किया था उन्हें असल जिंदगी में भी सेरेब्रल पाल्सी है।
सूर्या ने बीबीसी से बातचीत में कहा था, ‘मैं उम्मीद करता हूँ कि मुझे सेरेब्रल पाल्सी वाले बच्चे के किरदार में कास्ट किए जाने से मेरे जैसे उन लोगों को उम्मीद मिलेगी। वो भी सपना देख सकते हैं और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का हिस्सा बन सकते हैं। मुझे ख़ुशी है कि बॉलीवुड को विविध और इन्क्लूसिव इंडस्ट्री बनाने की कोशिश में मैंने भी अपना रोल निभाया।’
‘सितारे ज़मीन पर’ फिल्म में काम करने वाले एक्टर नमन मिश्रा को इनविजिबल ऑटिज़्म है। वे कहते हैं कि वे हमेशा से एक्टर बनना चाहते थे।
फिल्म के एक्टर गोपीकृष्णन को डाउन सिंड्रोम है। वे कहते हैं, ‘मैं स्टार बनना चाहता हूँ-स्टाइलिश।’
‘हाउसफुल’, ‘गोलमाल’...कॉमेडी या लोगों का मजाक
अक्सर इस बात को लेकर हिंदी फिल्मों की आलोचना भी होती है कि कॉमेडी की आड़ में विकलांग लोगों का मजाक बनाया जाता है या उनके किरदार को लेकर संवेदनशीलता नहीं बरती जाती।
हाउसफुल-3 की सारी कॉमेडी विकलांगता के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म में न देख पाने वाले व्यक्ति की एक्टिंग करने वाले रितेश देशमुख कहते हैं, ‘मेरे दोस्त मुझे कानून बुलाते हैं क्योंकि कानून भी अंधा होता है।’
या फिर ‘गोलमाल’ में न बोल सकने वाले तुषार कपूर के दोस्त उनसे कहते हैं, ‘जब उस लडक़ी को पता चलेगा कि तुम्हारा स्पीकर फटा हुआ है तो ये लडक़ी भी हाथ नहीं आएगी।’
-उमंग पोद्दार
ऑफिस के लिए लाखों रुपए का महँगा सामान खरीदना, जमीन कब्जा करना, पैसों की हेराफेरी, भ्रष्टाचार और यौन उत्पीडऩ – ऐसे ही कुछ आरोपों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों को महाभियोग या इंपीचमेंट के जरिए हटाने की कोशिश भारत के इतिहास में कई बार हुई है।
हालाँकि आज तक किसी भी जज को महाभियोग की प्रक्रिया से हटाया नहीं गया है।
कई बार ऐसा हुआ है कि किसी हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा के अध्यक्ष/सभापति के सामने लाया गया, इसके बाद भी वे अलग-अलग कारणों से आगे नहीं बढ़ पाए।
कभी पर्याप्त सांसदों ने महाभियोग का समर्थन नहीं किया तो कभी जज ने प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही पद से इस्तीफा दे दिया।
मौजूदा समय में भारत में दो जजों के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की बात चल रही है। पहले हैं, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा। इनके घर पर कथित तौर से बड़ी मात्रा में नकदी मिली थी।
जबकि दूसरे हैं, इलाहाबाद हाई कोर्ट के ही एक और जज, जस्टिस शेखर यादव। इन्होंने विश्व हिंदू परिषद के एक कार्यक्रम में भाषण दिया था। इसमें उन्होंने तीन तलाक़ और यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दों पर बात करते हुए कहा था कि ‘हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यक के अनुसार ही देश चलेगा।’
जस्टिस यशवंत वर्मा के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जाँच समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास भेजी है।
अंग्रेजी अखबार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक इस मानसून सत्र में सरकार जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाने पर विचार कर रही है। वहीं, 55 सांसदों ने जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ महाभियोग कार्यवाही शुरू करने के लिए राज्यसभा के सभापति को प्रस्ताव भेजा है।
जज को हटाने की लंबी प्रक्रिया
किसी जज को पद से हटाना बड़ा ही मुश्किल काम है और इसकी प्रक्रिया भी लंबी है। पहले तो लोक सभा के सौ सांसद या राज्य सभा के पचास सांसद महाभियोग प्रस्ताव पर अपना दस्तख़त कर संबंधित सदन के अध्यक्ष/सभापति को भेजते हैं।
अब अध्यक्ष/सभापति पर यह निर्भर करता है कि वे इस प्रस्ताव को स्वीकार करें या नहीं। अगर अध्यक्ष/सभापति इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं तो वे तीन सदस्यों की एक समिति का गठन करते हैं। फिर वह इस मामले की तहकीकात करती है।
अगर समिति यह पाती है कि जज के ख़िलाफ़ आरोप बेबुनियाद हैं तो मामला वहीं ख़त्म हो जाता है।
अगर समिति जज को दोषी पाती है तो फिर उनकी रिपोर्ट की चर्चा संसद के दोनों सदनों में होती है। इसके बाद इस पर वोटिंग होती है।
किसी महाभियोग प्रस्ताव को पार?ित होने के लिए दोनों सदन में विशेष बहुमत यानी दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। इतना बहुमत होने पर महाभियोग प्रस्ताव पारित होता है और आखिरकार राष्ट्रपति के पास जाता है। फिर वह जज को हटाने का आदेश देती हैं।
महाभियोग प्रस्ताव की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ा जा सकता है। कई लोगों का मानना है कि न्यायालय की स्वतंत्रता बरकरार रखने के लिए इस प्रक्रिया को जानबूझ कर कठिन बनाया गया है।
चलिए समझते हैं कि इनसे पहले आए महाभियोग प्रस्ताव में क्या-क्या हुआ है।
जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव
साल 1993 में सुप्रीम कोर्ट के जज वी। रामास्वामी भारत के पहले ऐसे जज बने जिनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर सांसदों ने मतदान किया था।
इससे पहले साल 1970 में सुप्रीम कोर्ट के जज जेसी शाह के खिलाफ भी करीब 200 सांसदों ने एक महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा अध्यक्ष के पास भेजा था। हालाँकि, अध्यक्ष जीएस ढिल्लों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से मना कर दिया।
साल 1949 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज एसएन सिन्हा को महाभियोग द्वारा हटाया गया था। लेकिन यह भारत का संविधान लागू होने से पहले की बात है।
जस्टिस रामास्वामी के ख़िलाफ़ महाभियोग की एक लंबी प्रक्रिया चली। इनका नाम तब से ही विवादों में घिरा हुआ था, जब इन्हें मद्रास हाई कोर्ट का जज बनाया गया था।
जस्टिस रामास्वामी को जज नियुक्त करने वाले उनके ससुर और भारत के तब के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वीरस्वामी थे। जस्टिस वीरस्वामी ने साल 1976 में आपातकाल के दौरान इस्तीफ़ा दिया था। उनके घर से सीबीआई को पैसे मिले थे और वो इसका हिसाब नहीं दे पाए थे।
साल 1989 में जस्टिस रामास्वामी ने बतौर सुप्रीम कोर्ट जज शपथ ली। उसके कुछ समय बाद ही पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस रहने के दौरान की कुछ खबरें बाहर आईं।
इनमें उन पर आरोप थे कि उन्होंने अपने आधिकारिक घर की साज-सज्जा करवाने में लाखों रुपए की धनराशि का दुरुपयोग किया है। जस्टिस रामास्वामी के महाभियोग पर एस सहाय द्वारा संपादित एक किताब ‘गॉन ऐट लास्ट?’ भी लिखी गई है।
किताब के मुताबिक उन पर लगे आरोप में शामिल थे-दो सौ से ज़्यादा पर्दे सिलवाना, करीब सौ तौलिए और 18 अटैचियों की खरीदारी करना। साथ ही, करीब दस लाख रुपए का फोन का बिल।
यही नहीं, उन पर यह भी आरोप था कि वे अपनी ऑफिस की गाडिय़ों से चंडीगढ़ से मद्रास (अब चेन्नई) गए थे। इसके बाद उनके स्टाफ़ मेम्बर को मद्रास जाकर गाडिय़ाँ वापस लानी पड़ीं।
साल 1990 में सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्ठ वकीलों ने भी उनके इस्तीफ़े की माँग की। इसके बाद जस्टिस रामास्वामी ने कुछ हफ़्तों की छुट्टी ले ली। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की एक अंदरूनी जाँच ने उन्हें निर्दोष पाया और उसके बाद वह वापस कोर्ट में बैठने लगे।
साल 1991 में लोक सभा के 108 सांसदों ने लोक सभा के अध्यक्ष को जस्टिस रामास्वामी के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव भेजा। अध्यक्ष ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
इस मामले की जाँच के लिए तीन सदस्यों की एक समिति बनाई। समिति ने उन्हें कई चीज़ों के लिए दोषी पाया और उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की सिफ़ारिश की। हालाँकि, इस बीच लोकसभा भंग हो गई और फिर से आम चुनाव हुए। कऱीब दो साल तक यह मामला लंबित रहा। इस बीच यह सवाल भी उठा कि क्या लोकसभा के भंग होने से पहले शुरू की गई महाभियोग प्रक्रिया, नई लोकसभा में भी आगे बढ़ाई जा सकती है या यह प्रक्रि?या फिर से शुरू करनी होगी।
मामला सुप्रीम कोर्ट के पास गया। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि पुरानी महाभियोग प्रक्रिया ही आगे बढ़ाई जा सकती है। आखऱिकार मई 1993 में लोक सभा में उनके खिलाफ महाभियोग प्रक्रिया शुरू हुई।
हालाँकि, इसके बाद इस प्रक्रिया ने एक राजनीतिक रूप भी ले लिया। ख़बरों के मुताबिक, उस वक्त के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने एक मौखिक निर्देश जारी क?िया क?ि कांग्रेस के सदस्य महाभियोग प्रस्ताव पर मतदान नहीं करें।
उस समय ऐसी भी ख़बरें आई थीं कि रामास्वामी राजीव गांधी के कऱीबी थे। जस्टिस रामास्वामी के बेटे भी तमिलनाडु में कांग्रेस पार्टी के विधायक थे।
कई जानकारों का मानना है कि इस महाभियोग पर उत्तर और दक्षिण भारत के सांसदों में भी मतभेद था। कई सांसदों को लग रहा था कि दक्षिण भारत के एक जज को सज़ा दी जा रही है। दूसरी ओर, ऐसे ही मामलों में उत्तर भारत के जजों के खिलाफ कुछ नहीं होता है।
जस्टिस रामास्वामी के वकील कपिल सिब्बल ने भी उनका पक्ष संसद के सामने रखा। उन्होंने कहा कि जस्टिस रामास्वामी को ग़लत तरीक़े से फँसाने की यह एक साजि़श है।
लोकसभा में दो दिनों तक चली लंबी बहस के बाद सांसदों ने मतदान किया। 196 सांसदों ने रामास्वामी को हटाने के लिए ‘हाँ’ कहा जबकि 205 सांसदों ने मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। मतदान में हिस्सा नहीं लेने वाले सांसद कांग्रेस पार्टी के थे।
इसकी वजह से जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ लाया गया महाभियोग प्रस्ताव असफल रहा। उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। वे फरवरी 1994 में रिटायर हुए।
साल 1999 में उन्होंने ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (एआईएडीएमके) पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर तमिलनाडु विधान सभा का चुनाव लड़ा लेकिन कामयाब नहीं हुए। जस्टिस रामास्वामी का निधन इसी साल मार्च महीने में हुआ।
इन पर लगा था जमीन कब्जा करने का आरोप
यह तो थी जस्टिस रामास्वामी की कहानी। इसके बाद भी दो और महाभियोग प्रस्ताव संसद में लाए गए। हालाँकि, इन दोनों मामलों में जज ने इस्तीफ़ा दे दिया।
जस्टिस रामास्वामी के बाद जस्टिस पीडी दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही चली। जस्टिस पीडी दिनाकरन कर्नाटक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस थे। उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और जमीन पर कब्जा करने के आरोप थे।
उनका नाम सुप्रीम कोर्ट में जज के पद के लिए भेजा गया था। बाद में इन आरोपों की वजह से उनका नाम वापस ले लिया गया। इसके बाद उन्हें सिक्किम हाई कोर्ट भेज दिया गया।
दिसंबर 2009 में राज्यसभा के 75 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए दस्तखत किए। एक महीने बाद उप-राष्ट्रपति और राज्य सभा के सभापति हामिद अंसारी ने तीन-सदस्यों की एक समिति का गठन किया।
जस्टिस दिनाकरन ने इस समिति का विरोध किया। उन्होंने तीन में से एक सदस्य के खिलाफ पक्षपात के आरोप भी लगाए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में उस सदस्य को हटाने का आदेश दिया। (बाकी पेज 8 पर)
हालाँकि, इस समिति की जाँच पूरी होने से पहले ही जुलाई 2011 में जस्टिस दिनाकरन ने इस्तीफ़ा दे दिया। इससे उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की प्रक्रिया रद्द हो गई।
जस्टिस दिनाकरन का कहना था कि उन्हें इस समिति के निष्पक्ष होने पर संदेह है। उन्होंने अपने ख़िलाफ़ लगे आरोपों को झूठा बताया। उन्होंने कहा कि वह राजनीतिक और कानूनी प्रक्रिया के शिकार हैं।
उन्होंने यह भी कहा था कि दलित-ईसाई होने के कारण उन्हें प्रताडि़त किया जा रहा है, उनका उत्पीडऩ हो रहा है।
हालाँकि, अख़बार ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में छपी एक ख़बर के मुताबिक, एक हफ़्ते बाद उन्होंने अपना इस्तीफा वापस लेने की कोशिश की। लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया गया।
जस्टिस सौमित्र सेन और लाखों रुपए की हेराफेरी का मामला
महाभियोग की बात करें तो अब तक का सबसे आगे जाने वाले मामला कलकत्ता हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस सौमित्र सेन का है। उन्हें साल 2003 में कलकत्ता हाई कोर्ट का जज बनाया गया था।
उस वकत उनके खिलाफ एक आरोप सामने आया। आरोप था कि जब वह वकील थे तब कुछ मामलों में उन्होंने 50 लाख रुपए से ज़्यादा की हेराफेरी की थी। साल 2006 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने उन्हें ये पैसे वापस लौटाने को कहा।
साल 2007 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने उनके ख़िलाफ़ एक अंदरूनी जाँच बैठाई।
इसमें उन्हें दोषी पाया गया। फिर, साल 2009 में राज्य सभा के 58 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की माँग की। इसके बाद फरवरी 2009 में राज्य सभा ने तीन-सदस्यों की एक समिति का गठन किया।
साल 2010 में इस समिति ने उन्हें दोषी पाया। इस समिति की रिपोर्ट को राज्यसभा के सामने रखा गया। इस पर बहस हुई। इस दौरान जस्टिस सौमित्र सेन ने भी वकील के ज़रिए अपना पक्ष रखा।
18 अगस्त 2011 को 189 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग के पक्ष में मतदान किया। केवल 17 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग का विरोध किया।
ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी जज के ख़िलाफ़ संसद के एक सदन में महाभियोग प्रस्ताव सफल रहा। अब बारी थी इस प्रस्ताव के लोकसभा में जाने की।
हालाँकि, इसके पहले ही जस्टिस सौमित्र सेन ने इस्तीफा दे दिया। इससे यह महाभियोग प्रस्ताव वहीं खत्म हो गया।
जस्टिस गंगेले और महिला जज के यौन उत्पीडऩ का मामला
साल 2015 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के जज जस्टिस एसके गंगेले के खिलाफ भी राज्य सभा में महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। उन पर आरोप था कि उन्होंने निचली अदालत की एक महिला जज का यौन उत्पीडऩ किया है।
महिला जज का यह भी आरोप था कि जब उन्होंने जस्टिस गंगेले की बात नहीं मानी तो उनका तबादला कर दिया गया। इसके बाद महिला जज ने अपना इस्तीफा दे दिया।
इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए भारत के उप राष्ट्रपति और राज्य सभा के सभापति हामिद अंसारी ने एक समिति बनाई। इस समिति ने कहा कि जस्टिस गंगेले के खिलाफ यौन उत्पीडऩ के आरोप साबित नहीं हो पाए हैं।
हालाँकि, समिति ने महिला जज के तबादले को ग़लत ठहराया। फरवरी 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने महिला जज को वापस नियुक्त किया।
सिंगापुर के सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व सीजेआई दीपक मिश्रा के एक फैसले में ‘कॉपी-पेस्ट’ की कही बात, क्या है पूरा मामला
कुछ अन्य मामले
ये तो कुछ ऐसे मामले थे जहाँ संसद में महाभियोग के प्रस्ताव को अध्यक्ष/ सभापति ने स्वीकार किया और एक समिति का गठन किया।
हालाँकि, ऐसे कई मामले हैं जब सांसद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लेकर आए लेकिन अनेक कारणों से ये प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाए।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ भी महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश की गई थी। उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने एक प्रेस-कांफ्रेंस भी की थी।
उन्होंने आरोप लगाए थे कि जस्टिस दीपक मिश्रा कुछ संवेदनशील मामले चुनिंदा जजों को सौंप रहे हैं।
अप्रैल 2018 में 71 राज्यसभा सांसदों ने उन्हें पद से हटाने के लिए एक महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश की थी। लेकिन, उस वक्त के उप राष्ट्रपति और राज्य सभा के सभापति वेंकैया नायडू ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया था।
भविष्य में बनने वाले एक चीफ जस्टिस के खिलाफ भी महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश की गई थी।
साल 2015 में जस्टिस जे बी पारदीवाला गुजरात हाई कोर्ट के जज थे। उनके खिलाफ राज्यसभा के 58 सांसदों ने महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश की। यह प्रस्ताव उनके एक फैसले के खिलाफ था। इसमें उन्होंने आरक्षण की आलोचना की थी।
हालाँकि, इस प्रस्ताव के तुरंत बाद फैसले से उनकी टिप्पणियाँ हटा दी गईं। इस तरह यह महाभियोग प्रस्ताव ख़त्म हो गया। जस्टिस पारदीवाला फि़लहाल सुप्रीम कोर्ट के जज हैं। वह साल 2028 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बन सकते हैं। (बीबीसी)
-प्रियंका झा
कांग्रेस सांसद शशि थरूर के पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से मतभेद स्वीकार करने के बाद, उनके और कांग्रेस के बीच बढ़ती दूरी को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है।
इससे पहले भी कांग्रेस के कुछ नेताओं की नाराजगी तब सामने आई थी, जब केंद्र सरकार ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर भारत का पक्ष रखने वाले प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई शशि थरूर को सौंपी थी, जबकि कांग्रेस पार्टी ने उनके नाम की सिफ़ारिश नहीं की थी।
शशि थरूर और कांग्रेस पार्टी के बीच टकराव का जिक्र इसलिए भी तेज़ हो गया है क्योंकि उन्होंने ये कहा है कि केरल की निलांबुर विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में प्रचार के लिए पार्टी ने उन्हें नहीं बुलाया।
हालांकि, शशि थरूर ने ये साफ़ नहीं किया कि उनके मतभेद राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व से हैं या फिर राज्य स्तर पर। तिरुवनंतपुरम के सांसद थरूर ने ये संकेत ज़रूर दिए कि वो निलांबुर उपचुनाव के नतीजों के बाद इन मतभेदों पर बात करेंगे।
शशि थरूर ने क्या कहा?
शशि थरूर केरल के निलांबुर में हो रहे उपचुनाव से जुड़े सवालों पर जवाब दे रहे थे।
उन्होंने मलयालम में कहा, ‘आप जानते हैं कि मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व के साथ मेरे कुछ मतभेद रहे हैं। कई बातें सार्वजनिक हैं। लेकिन ये मेरे लिए बेहतर होगा कि मैं सीधे पार्टी के अंदर ही बात करूं। आज इस तरह की चर्चा का दिन नहीं है। मेरे दोस्त और यहां (निलांबुर) के प्रत्याशी को चुनाव जीतने देते हैं।’
मेरे पार्टी कार्यकर्ताओं को इसके लिए हर कोशिश करने देते हैं। मैं उनके कामों का अच्छा नतीजा देखना चाहता हूं। कुछ चीजें हैं जिन्हें कोई छिपा नहीं सकता लेकिन मैं उनके बारे में आज बातचीत नहीं करना चाहता हूं। मैं उनसे सीधे मिलकर इस बारे में बात करना चाहता हूं। जब समय आएगा, मैं ये करूंगा लेकिन चुनाव हो जाने देते हैं।’
निलांबुर विधानसभा सीट पर उपचुनाव के लिए कैंपेन में शामिल न होने के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘अभी तक तो मुझसे किसी ने संपर्क नहीं किया है। लेकिन कोई बात नहीं। जब समय आएगा, जब जरूरत होगी तो हम एक-दूसरे से बात कर लेंगे।’
उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस के मूल्य और कांग्रेस के कार्यकर्ता मेरे काफी करीब हैं। मैं अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ 16 सालों से काम कर रहा हूं। मैंने उनकी प्रतिभा, आत्मविश्वास और आदर्शवाद देखा है। मुझे कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और पार्टी के बीच प्रेम और दोस्ती पर कोई शक नहीं है। ये हमेशा बरकरार रहेगा।’
मोदी सरकार के रुख़ की तारीफ के बाद पार्टी से बढ़े मतभेद
पहलगाम हमले के बाद केंद्र की मोदी सरकार के रुख़ का समर्थन करने के बाद शशि थरूर अपनी ही पार्टी के कई नेताओं के निशाने पर आ गए थे।
हमले के बाद केंद्र सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ भारत की स्थिति को वैश्विक मंचों पर रखने के लिए कुल सात प्रतिनिधिमंडल बनाए थे। इनमें से एक की अगुवाई शशि थरूर को सौंपी गई।
हालांकि, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने ये आरोप लगाया कि सरकार ने कांग्रेस से चर्चा किए बगैर शशि थरूर का नाम सूची में शामिल किया। उन्होंने इसके बाद एक सोशल मीडिया पोस्ट किया, ‘कांग्रेस में होना और कांग्रेस का होना, दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क है।’
इसे शशि थरूर पर परोक्ष निशाना माना गया।
वहीं, शशि थरूर ने सरकार की ओर से मिली जिम्मेदारी को स्वीकार करते हुए एक्स पर लिखा कि ‘सरकार द्वारा मुझे 5 प्रमुख देशों में जाने वाले प्रतिनिधि मंडल का नेतृत्व करने का आमंत्रण मिला, इसके लिए मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं। जब बात राष्ट्रीय हित की हो और मेरी जरूरत हो, तो मैं पीछे नहीं हटूंगा।’
सात प्रतिनिधिमंडल में कुल 59 सदस्य थे, जिनमें कांग्रेस के अमर सिंह, सलमान खुर्शीद, शशि थरूर, आनंद शर्मा और मनीष तिवारी शामिल थे। हालांकि, पार्टी ने जिन सांसदों के नाम सरकार को सौंपे थे उनमें आनंद शर्मा, गौरव गोगोई, सैयद नासिर हुसैन, अमरिंदर राजा सिंह वारिंग थे।
प्रतिनिधिमंडल के अगुवा के तौर पर शशि थरूर ने कई मौकों पर 'ऑपरेशन सिंदूर' की तारीफ़ की। उनके एक के बाद एक कई बयानों को देखते हुए कांग्रेस के पूर्व सांसद उदित राज ने थरूर को बीजेपी का 'सुपर प्रवक्ता' बता दिया था।
हालांकि, शशि थरूर और उन पर होने वाली टिप्पणियों के बारे में कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की ओर से अभी तक कोई बयान नहीं आया है और न ही उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई ही देखने को मिली है। मगर ये माना गया कि जबसे शशि थरूर का नाम सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल के लिए चुना गया, तब से पार्टी में उनको लेकर बेचैनी बढ़ी है।
कांग्रेस को कऱीब से जानने वाले वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई शशि थरूर के बयानों और उस पर कांग्रेस के आलाकमान की चुप्पी को शह-मात का खेल बताते हैं।
वो इस पर कहते हैं, ‘शशि थरूर की उम्र 69 साल हो चुकी है। वो अपने राजनीतिक अस्तित्व को खोज रहे हैं। अपने आप को वो केरल के मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। केरल में अगले साल चुनाव है लेकिन उसके बाद जो चुनाव होगा, तब उनकी उम्र 75 के करीब होगी। इसलिए वो अभी राजनीतिक दांव खेलना चाह रहे हैं और उन्हें पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश नहीं किया जा रहा। यही मूल कारण है उनकी नाराजगी का।’
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया ताकि पाकिस्तान और भारत के बीच युद्ध को रोकने में उनकी भूमिका के लिए आभार व्यक्त किया जा सके। ट्रंप ने यह बात जनरल मुनीर से मुलाक़ात के बाद पत्रकारों से बातचीत के दौरान कही।
मुलाकात के बाद ट्रंप ने बताया कि जनरल मुनीर से ईरान के मुद्दे पर भी चर्चा हुई थी।
उन्होंने कहा, ‘वह (जनरल मुनीर) ईरान को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, शायद दूसरों से बेहतर और वह मौजूदा हालात से ख़ुश नहीं हैं।’
अमेरिकी राष्ट्रपति ने आसिम मुनीर के सम्मान में व्हाइट हाउस में लंच आयोजित किया था। इस लंच में मीडिया को आने की अनुमति नहीं थी।
लंच के बाद मीडिया से बातचीत में ट्रंप ने कहा, ‘जनरल आसिम मुनीर ने पाकिस्तान-भारत युद्ध को रोकने में अहम भूमिका निभाई और मैं उनके साथ मुलाक़ात को अपने लिए सम्मान की बात मानता हूं।’
ट्रंप ने फिर कहा- मैंने युद्धविराम करवाया
राष्ट्रपति ट्रंप ने बताया कि कुछ सप्ताह पहले उनकी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाक़ात हुई थी।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों परमाणु ताक़तें हैं और उनके बीच परमाणु युद्ध हो सकता था, लेकिन ‘दो समझदार लोगों ने युद्ध रोकने का फ़ैसला किया।‘
उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान और भारत दोनों के साथ व्यापार समझौते पर बातचीत चल रही है।
लंच से पहले उन्होंने एक बार फिर ये बात कही कि उन्होंने ही भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रुकवाई।
ट्रंप का यह बयान बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फ़ोन पर हुई बातचीत के बाद आया है।
बातचीत को लेकर विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने कहा था, ‘प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप से स्पष्ट रूप से कहा कि इस पूरे घटनाक्रम (भारत-पाकिस्तान संघर्ष) के दौरान कभी भी किसी भी स्तर पर भारत-अमेरिका ट्रेड डील या अमेरिका द्वारा भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता जैसे विषयों पर बात नहीं हुई थी।’
ईरान पर हमले को लेकर ट्रंप ने क्या कहा?
पत्रकारों ने ट्रंप से पूछा कि क्या उन्होंने पाकिस्तानी जनरल से ईरान को लेकर कोई बातचीत की थी।
इस पर ट्रंप ने कहा, ‘वे (जनरल मुनीर) ईरान को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, शायद किसी और से भी बेहतर, और वे मौजूदा हालात से ख़ुश नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि उनके इसराइल से संबंध खऱाब हैं। वे दोनों को जानते हैं और वास्तव में शायद ईरान को बेहतर जानते हैं। लेकिन वे जो कुछ हो रहा है, उसे देख रहे हैं और वे मुझसे सहमत हैं।’
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा, ‘मैंने उन्हें यहां आमंत्रित किया क्योंकि मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहता था कि उन्होंने जंग की ओर कदम नहीं बढ़ाया।’
ट्रंप पहले भी कई बार कह चुके हैं कि उनके प्रयासों से पाकिस्तान और भारत के बीच परमाणु युद्ध का खतरा टल गया।
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं प्रधानमंत्री मोदी को भी धन्यवाद देना चाहता हूं, जो कुछ दिन पहले यहां आए थे। हम भारत और पाकिस्तान दोनों के साथ व्यापार समझौते पर काम कर रहे हैं।’
ट्रंप ने कहा कि ‘ये दोनों बहुत समझदार लोग हैं और उन्होंने उस युद्ध को आगे न बढ़ाने का फ़ैसला किया, जो संभावित रूप से परमाणु युद्ध बन सकता था। पाकिस्तान और भारत दोनों ही प्रमुख परमाणु शक्तियां हैं। इसलिए आज उनसे (आसिम मुनीर) मिलना मेरे लिए सम्मान की बात थी।’
पाकिस्तानी सेना प्रमुख 14 जून से अमेरिका की यात्रा पर हैं और अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ उनकी बैठक पहले से तय थी।
पाकिस्तान के सेना प्रमुख फील्ड मार्शल जनरल आसिम मुनीर और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच मंगलवार को व्हाइट हाउस में हुई बैठक को इस्लामाबाद में एक बड़ी कूटनीतिक सफलता के रूप में देखा जा रहा है।
यह बैठक ऐसे समय में हुई है, जब 13 जून को ईरान पर इसराइल के हमले के बाद दोनों देशों के बीच संघर्ष तेज़ हो गया है और यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि अमेरिका क्या ईरान के ख़िलाफ़ किसी अभियान का हिस्सा बनेगा।
जब ट्रंप से पूछा गया कि क्या वह ईरान पर इसराइल के हमले में शामिल होंगे, तो उन्होंने जवाब दिया, ‘शायद शामिल हो सकता हूं, शायद नहीं। कोई नहीं जानता कि मैं क्या करने वाला हूं।’
ईरानी सरकार में बदलाव को लेकर पूछे गए सवाल पर उन्होंने कहा, ‘बिल्कुल, कुछ भी हो सकता है।’
ईरान और इसराइल के बीच जारी तनाव ने इस आशंका को बढ़ा दिया है कि यह संघर्ष फैल सकता है और इस इलाके के अन्य देश भी इसकी चपेट में आ सकते हैं।
आसिम मुनीर मई के अंत में ईरानी सेना के चीफ ऑफ स्टाफ जनरल मोहम्मद हुसैन बाकरी से भी मिले थे, जो इसराइली हमले में मारे गए।
आसिम मुनीर उस पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा भी थे, जिसने सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली खामेनेई से मुलाकात की थी।
यह पहला मौक़ा है, जब ट्रंप ने किसी विदेशी सेना प्रमुख को इस तरह की वन-ऑन-वन बैठक के लिए व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया है।
इससे पहले 2001 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने राष्ट्रपति और सेना प्रमुख दोनों की हैसियत से अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से मुलाक़ात की थी।