विचार/लेख
मोहर सिंह मीणा
पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से विस्थापित होकर भारत आए गैर मुसलमानों को नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधित कानून (सीएए) देश में लागू कर दिया गया है।
यह कानून न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चाओं में बना हुआ है।
पाकिस्तान से सटे राजस्थान में बड़ी संख्या में विस्थापित हिंदू परिवार रहते हैं। सीएए लागू होने के बाद इनमें से कुछ परिवारों में खुशी है। लेकिन, अधिकतर परिवार परेशान हैं।
‘हमारे कई परिचित लोगों को सीएए के तहत भारतीय नागरिकता मिलने से राहत मिलेगी। लेकिन, अंदरूनी रूप से मैं बहुत परेशान हूं।’
‘मैं अपने परिवार को लेकर 11 जनवरी, 2015 को भारत आया था। सीएए के मुताबिक़, मैं 11 दिन की देरी से भारत आया हूं, सिफऱ् इसलिए मेरे परिवार को भारतीय नागरिकता नहीं मिलेगी। जबकि, हम भी हिंदू हैं, हम भी पाकिस्तान से प्रताडि़त होकर ही भारत आए हैं।’
यह कहना है हेम सिंह का। वे अपने परिवार के साथ पाकिस्तान से भारत आए थे। वो और उनका परिवार जोधपुर की आंगणवा सेटलमेंट में रह रहा है।
सीएए कानून के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के ऐसे अल्पसंख्यक जो 31 दिसंबर, 2014 को या उससे पहले भारत में आए वो भारत की नागरिकता पाने के पात्र हैं।
सीएए से खुशी भी और गम भी
जोधपुर जि़ला मुख्यालय से करीब 13 किलोमीटर दूर आंगणवा सेटलमेंट है, जहां करीब ढाई सौ परिवारों के आठ सौ लोग रहते हैं।
इनमें से अधिकतर लोग मूल रूप से गुजरात से हैं, जिनके बुजुर्ग दशकों पहले पाकिस्तान जा बसे थे।
यहां रहने वाले करीब चालीस लोगों को सीएए के नियमानुसार नागरिकता मिल सकती है।
बस्ती की एक झोपड़ी के अंदर कऱीब बीस लोग बैठे हुए सीएए पर चर्चा कर रहे थे। इनमें से एक रामचंद्र सोलंकी हैं। जो दो बेटी, दो बेटे और पत्नी के साथ 31 दिसंबर 2014 को भारत आए थे।
बीबीसी से वो कहते हैं, ‘बहुत खुशी का माहौल है क्योंकि अब हम आधिकारिक रूप से भारत के नागरिक हो जाएंगे।’
वह झोपड़ी में बैठे दूसरे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, ‘सीएए के बाद हमें जितनी खुशी है, उतना गम भी है। हमारी बस्ती में अगर दो घरों में खुशी का माहौल है तो तीन सौ घरों में गम भी है। क्योंकि सीएए के तहत 31 दिसंबर 2014 के बाद भारत आए लोगों को नागरिकता नहीं मिलेगी।’
इसी बस्ती में रहने वाले हेम भील अपने भाई, चार बच्चों और पत्नी के साथ 2014 में भारत आए हैं।
हेम भील कहते हैं, ‘हमने सुना है कि सरकार ने कानून बनाया है कि अब हमें नागरिकता मिल जाएगी। हमारा तो वैसे ही भविष्य निकलने वाला था मजदूरी में। लेकिन सुनकर अच्छा लगा अब कि बच्चों का भविष्य सुधरेगा।’
हेम भील की पत्नी अमर बाई कहती हैं, ‘पाकिस्तान में रहकर मज़दूरी करने वाले रिश्तेदारों से आज बात हुई तो वह भी कह रहे थे कि तुम लोगों को नागरिकता मिल जाएगी।’
विस्थापितों के पढऩे वाले बच्चों को उम्मीद
हेम भील और अमर बाई की आठवीं कक्षा में पढऩे वाली बेटी कविता को पासपोर्ट के आधार पर स्कूल में दाखिला मिला था।
वो कहती हैं, ‘कल ही पिता ने बताया था कि हम 2014 में भारत आए हैं इसलिए हमें नागरिकता मिल जाएगी। अब हम भारत के हो जाएंगे।’
‘हमें उम्मीद है कि नागरिकता के मिलने के बाद पढ़ाई और नौकरी में लाभ मिलेगा। पढ़ाई करके आईपीएस अधिकारी बनना चाहती हूं।’
इसी बस्ती में हेमी बाई का घर है जिनकी बीते साल सितंबर में शादी हुई थी। वह अपने परिवार के साथ सितंबर, 2014 में भारत आई थीं।
वह कहती हैं, ‘मुझे बीते दिन ही जानकारी मिली कि भारत सरकार ने सीएए लागू किया है।’
जोधपुर के सरकारी गर्ल्स कॉलेज से वो बीए की पढ़ाई कर रही हैं।
वह कहती हैं, ‘पाकिस्तान में पांचवीं तक ही पढ़ी थी। भारत आने के बाद कोर्ट के जरिए स्कूल में दाखिला हुआ था। नागरिकता मिलने से उम्मीद है कि हमारे भविष्य में काफी सुधार होगा। इससे ज्यादा खुशी की बात नहीं हो सकती है कि हम भारत के हो जाएंगे। नागरिकता मिल जाएगी तो नौकरी भी लग जाएगी। मैं बीए के बाद बीएड करूंगी और शिक्षिका बनना चाहती हूं।’
‘हमें भी मिलनी चाहिए नागरिकता’
सीएए कानून के तहत हेम सिंह को भारत की नागरिकता नहीं मिलेगी क्योंकि वो इसके लिए जरूरी डेडलाइन के 11 दिन बाद भारत आए।
वो कहते हैं, ‘हमें जो सुविधा मिलनी चाहिए अभी तक नहीं मिली है। हमें भारत आए नौ साल हो गए हैं। मैं चाहता हूं कि मेरे माता-पिता और बच्चों को सुविधा मिलनी चाहिए। जो भारत के अन्य लोगों को सुविधाएं मिल रही हैं, हमें भी मिलनी चाहिए।’
रामचंद्र सोलंकी उन लोगों में शामिल हैं जिन्हें नागरिकता मिल सकती है।
वह कहते हैं, ‘हम चाहते हैं कि हमारे साथ सबकी नागरिकता हो जाए तो और अच्छा है। साल 2015, 2016 या बाद में भी जो आए हैं उन सबको इसमें शामिल किया जाए।’
‘अस्सी साल की उम्र के बुज़ुर्ग चाह रहे हैं कि हम भी नागरिकता देख लें और भारत का बनकर मरें। इसी आस में जी रहे हैं।’
पाकिस्तान विस्थापित परिवारों के लिए काम कर रही संस्था सीमांत लोक संगठन के अध्यक्ष हिंदू सिंह सोढा भी सीएए में 2014 की डेडलाइन के खिलाफ हैं।
वह कहते हैं, ‘2014 से 2024 तक दस साल का सफर है, इन्हें भी सीएए के तहत नागरिकता की श्रेणी में रखना चाहिए। जिसने भी भारत में छह साल पूरे कर लिए हैं उन्हें उन्हें नागरिकता मिलनी चाहिए।’
नागरिकता से क्या होगा बदलाव?
राजस्थान हाई कोर्ट में अधिवक्ता अखिल चौधरी कहते हैं, ‘भारतीय नागरिकता प्राप्त होने के बाद अन्य भारतीयों की तरह ही सभी सुविधाएं, सरकारी योजनाओं का लाभ और कानूनी हक़ इन्हें प्राप्त होंगे।’
जोधपुर की काली बेरी सैटलमेंट में रहने वाले गोविंद भील 1997 में पाकिस्तान से भारत आए थे। उन्हें 2005 में नागरिकता भी मिल गई।
वह कहते हैं, ‘नागरिकता मिलने से पहले सब परेशान करते थे। लेकिन, नागरिकता मिलने के बाद से जीवन आसान हो गया। हालाँकि नागरिकता मिलने के बाद भी खुद की छत नहीं है।’
वहीं हेम भील कहते हैं, ‘अभी हमें बहुत परेशानी हो रही है। स्कूलों और अस्पताल में जो सुविधाएं भारतीय लोगों को मिलती है, वो अभी हम पाकिस्तानी विस्थापितों को नहीं मिलती है। नागरिकता मिलने के बाद हमें भी मिलेगी।’
सोढ़ा कहते हैं, ‘प्रताडि़त होकर भारत आए इन लोगों को सिर्फ नागरिकता ही नहीं बल्कि उनके पुनर्वास की व्यवस्था भी की जानी चाहिए।’
वह कहते हैं, ‘इनके पास अभी बिजली नहीं है, पानी नहीं है, स्कूल नहीं हैं, शौचालय नहीं हैं, रोड नहीं हैं। जब यह सभी सुविधाएं मिलेंगी तो ही बदलाव आएगा।’
पाक विस्थापितों की एक और बस्ती
जोधपुर जिला मुख्यालय से करीब बारह किलोमीटर दूर काली बेरी है। जोधपुर किले के बगल से गुजऱ रही सडक़ सूरसागर से होते हुए काली बेरी पहुंचती है।
काली बेरी के नजदीक इलाकों में पत्थर की खदानें हैं। इनमें पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए बहुत से लोग मजदूरी करते हैं।
काली बेरी में डॉ अंबेडकर नगर कॉलोनी से होते हुए एक पक्का रास्ता भील बस्ती के लिए जाता है। यह करीब 2,800 लोगों की भील बस्ती चार सौ पाकिस्तान विस्थापित परिवारों की है।
मुख्य सडक़ के बाईं ओर इस भील बस्ती में कच्ची-पक्की सडक़ें हैं, एक सरकारी स्कूल है। उसके बोर्ड पर लिखा है ‘राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय पाक विस्थापित।’
स्कूल के बगल में माया का घर है। वो 2013 में अपने दस सदस्यों के परिवार के साथ भारत आईं थीं।
वह कहती हैं, ‘नागरिकता के लिए बहुत प्रयास किया। खूब भाग-दौड़ी की। लेकिन नागरिकता नहीं मिली। थक गए।’
जब हमने ये पूछा कि क्या उन्हें सीएए के बारे में कुछ पता है तो माया कहती हैं, ‘फोन पर देखा था कि सरकार नागरिकता देने जा रही है। हमें खुशी हुई। अच्छा है यह हमारा मुल्क है।’
वह कहती हैं, ‘नागरिकता मिल जाए तो बच्चों की कोई नौकरी लग जाएगी। कहीं आने-जाने पर रोक नहीं होगी।’
माया के छह बेटों में से बड़े बेटे की मौत हो गई है, उनके पति और दो बच्चे भी माया के साथ रहते हैं। पांच में से तीन बेटे पत्थर की खदानों में काम करते हैं और दो पढ़ाई करते हैं।
इसी बस्ती में रहने वाली गुड्डी अपने परिवार के साथ मार्च 2014 में भारत आईं।
बात करने में हिचकिचाते हुए वह कहती हैं, ‘दीपावली की तरह ख़ुशी हो रही है। परिवार में चार बेटे दो बेटी और मेरे पति हैं।’
‘एक पढ़ता है और तीन काम करते हैं पत्थर खदानों में। अपनी जमीन खरीद सकते हैं, गाड़ी ले सकते हैं। सरकारी लाभ नागरिकता वालों को मिलता है। हमें कुछ लाभ नहीं मिलता है।’
माया के पति मनु राम कहते हैं, ‘नागरिकता के लिए दो साल पहले आवेदन किया था। एनओसी भी मिल गई है लेकिन अभी तक नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं मिला है।’
‘अब सरकार कानून लाई है तो हमें नागरिकता मिल जाएगी। सरकारी योजनाओं का लाभ मिल जाएगा, गाड़ी खरीद पाएंगे, बिना नागरिकता के सिर्फ मजदूरी के अलावा कोई काम नहीं कर सकते हैं।’
वह कहते हैं, ‘पासपोर्ट और लॉन्ग टर्म वीजा के आधार पर आधार कार्ड तो बन गया था।’
सीएए कानून की खामियां
सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने बीबीसी से कहा, ‘मुझे लगता है कि यह कानून ही संविधान में दिए गए हमारी समानता के प्रावधान का विरोध करता है। यह एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है इस कानून के ऊपर।’
अरुणा रॉय कहती हैं, ‘इसमें न किसी से कंसल्ट किया गया है, न कानून के बारे में बातचीत हुई हैं।’
‘आरटीआई, नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कानून में सार्वजनिक भागीदारी रही है। जहां लोगों से बातचीत हुई, लोगों के विचार सुने गए और फिर लागू किया गया। लेकिन सीएए में किसी से बातचीत नहीं की गई है।’
वहीं, हिंदू सिंह सोढा कहते हैं, ‘हमें अफसोस है कि सरकार ने सीएए में 31 दिसंबर, 2014 की डेड लाइन रखी है।’
वो कहते हैं, ‘जो भी धार्मिक उत्पीडऩ के बाद आ रहा है सभी को नागरिकता देनी चाहिए। सीएए में सीमित लोगों को ही नागरिकता देने का नियम है। सीएए के तहत भी टाइम बेस्ड प्रोसेस होना चाहिए, नहीं तो इस प्रक्रिया में समय बहुत लगेगा।’
क्या विस्थापित मुसलमान को भी नागरिकता मिलनी चाहिए।
इस सवाल पर हिंदू सिंह सोढ़ा कहते हैं, ‘वो इस्लामिक देश से आ रहे हैं तो उनका धार्मिक उत्पीडऩ नहीं हो सकता है। लेकिन, भारत में और पाकिस्तान के बॉर्डर के पास दोनों देशों के बीच शादी होती है। इसलिए मैंने 2004 में भी प्रशासन को बोला था कि इन्हें भी नागरिकता मिलनी चाहिए।’
प्रशासन क्या कहता है?
सीएए के तहत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से विस्थापित गैर मुसलमानों को नागरिकता देने का प्रावधान है।
राजस्थान गृह विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी राजेश जैन ने बीबीसी को बताया कि राजस्थान में 27,674 विस्थापित लोग लॉन्ग टर्म वीजा पर रह रहे हैं।
अब तक कितने विस्थापितों को नागरिकता दी गई है, इस सवाल पर वह कहते हैं, ‘साल 2016 से अब तक 3,648 विस्थापितों को नागरिकता दी जा चुकी है। जबकि, 1,926 विस्थापितों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया हुआ है, जो प्रक्रियाधीन है।’
राजस्थान में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए लोग ही रहते हैं। इसमें भी सबसे अधिक 18 हज़ार लोग जोधपुर में रहते हैं।
सीएए के नियमों के तहत भारत आने के डेडलाइन की वजह से बेहद कम विस्थापितों को ही नागरिकता मिलती नजर आ रही है।
जोधपुर के कलेक्टर गौरव अग्रवाल ने बताया, ‘जोधपुर जि़ले में करीब 18 हजार पाकिस्तान विस्थापित परिवार रहते हैं। इनमें से करीब 3300 लोगों को नागरिकता मिल चुकी है।’
‘नए संशोधित क़ानून के तहत तीन से चार हज़ार अन्य लोगों को नागरिकता मिल जाएगी। जोधपुर के गंगाणा, काली बेरी, बासी तंबोलियान, जवर रोड़, आंगणवा के आसपास यह लोग रहते हैं।’
सीएए लागू होने के बाद सरकार ने नागरिकता देने के लिए रजिस्ट्रेशन पोर्टल शुरू किया है।
क्या राज्य सरकार को केंद्र से निर्देश मिले हैं, इस सवाल पर राजस्थान गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव आनंद कुमार ने बीबीसी से कहा कि केंद्र सरकार से फिलहाल हमें कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है।
फॉर्नर रजिस्ट्रेशन ऑफिसर (एफआरओ) एडिशनल एसपी रघुनाथ गर्ग भी कहते हैं कि ‘हमें भी कोई गाइडलाइंस नहीं मिली है। निर्देश प्राप्त होने पर जो भी प्रक्रिया होगी उसी अनुसार प्रॉसेस को आगे बढ़ाएंगे।’
सीएए से पहले कैसे मिलती थी नागरिकता
सीएए से पहले नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत पाकिस्तान से आए विस्थापितों को नागरिकता दी जाती रही है। अधिनियम के अंदर 51 (ए) से 51(ई) तक में इनकी नागरिकता के संबंध में विस्तार से बताया गया है।
इस अधिनियम में हुए संशोधन के बाद केंद्र सरकार ने जयपुर, जोधपुर और जैसलमेर के कलेक्टरों को नागरिकता देने के लिए अधिकृत किया हुआ है।
जिलाधिकारियों के स्तर पर योग्य विस्थापित लोगों को प्रक्रिया अनुसार नागरिकता प्रदान की जाती रही है। गृह विभाग के अनुसार नवंबर 2009 में अंतिम बार नागरिकता देने के लिए कैंप लगाया गया था। (bbc.com/hindi)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
-रिचर्ड महापात्रा
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने 12 साल के अंतराल के बाद अगस्त 2022 से लेकर जुलाई 2023 के दौरान पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) किया। 4 फरवरी 2024 को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने इस सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए।
नए सर्वेक्षण के निष्कर्ष के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में मासिक प्रति व्यक्ति उपयोग व्यय (एमपीसीई) 3,773 रुपए (वर्तमान मूल्य) और शहरी क्षेत्रों में यह 6,459 रुपए है।
इसका अर्थ यह है कि ग्रामीण क्षेत्र का एक भारतीय अपने दैनिक खर्च जैसे भोजन, दवा, शिक्षा, बच्चों की देखभाल, यातायात, कपड़ों और अन्य जरूरतों पर प्रतिदिन 126 रुपए और शहरी व्यक्ति प्रतिदिन 215 रुपए खर्च करता है।
सबसे निचले पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत ग्रामीण भारतीय प्रतिदिन 45 रुपए खर्च करते हैं जबकि शहरी भारतीय का यह आंकड़ा 67 रुपए है। इतना ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में ऊपरी पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत परिवार निचले पायदान पर खड़े पांच प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की तुलना में करीब आठ गुणा अधिक खर्च करते हैं।
पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण देश में आय की गरीबी निर्धारित करने का आधार है। हालांकि, वर्तमान में इस सर्वेक्षण के आधार पर गरीबी के आकलन का कोई आधिकारिक अनुमान मौजूद नहीं है। पूर्व में योजना आयोग सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल गरीबी का अनुमान लगाने में करता था, लेकिन उसका स्थान लेने वाले नीति आयोग ने इस काम को आगे नहीं बढ़ाया। और न ही राष्ट्रीय गरीबी रेखा का निर्धारण किया।
इसे देखते हुए ताजा सर्वेक्षण गरीबी निर्धारण के लिए एक चुनौती पेश करता है, क्योंकि यह 1972 से 2012 तक हुए पहले के नौ सर्वेक्षणों से अलग है। अलग इसलिए भी क्योंकि सर्वेक्षण में शामिल वस्तुएं, प्रश्नों का तरीका, आंकड़ों की संग्रहित करने की अवधि और उसका तरीका बदल गया है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बीवीआर सुब्रमण्यम अब भी पुराने ‘व्यक्तिगत अनुमान’ ही जारी कर रहे हैं, जो बताते हैं कि नए उपभोग व्यय के आंकड़ों के आधार पर गरीबी का स्तर 10 प्रतिशत से नीचे है।
सुब्रमण्यम का यह अनुमान 2011-12 में प्रकाशित 32 रुपए प्रतिदिन की गरीबी रेखा के मद्देनजर है। इसमें अगर मुद्रास्फीति समायोजित कर दी जाए तो वह राशि 60 रुपए होगी। अगर इस संशोधित गरीबी रेखा को ताजा उपभोग व्यय के आंकड़ों पर लागू किया जाए तो सुब्रमण्यम के मुताबिक, गरीबी रेखा 10 प्रतिशत से नीचे दिखेगी।
हाल के महीनों में आय की गरीबी के विभिन्न अनुमान जारी हुए हैं। ये मुख्यत: व्यक्तिगत अर्थशास्त्रियों के हैं। ये अनुमान बताते हैं कि चरम गरीबी लगभग शून्य के स्तर पर है। इस अनुमान का एक अहम पहलू है मुफ्त की सेवाएं और सब्सिडी, जो सरकार ने प्रदान की हैं। इन सेवाओं और सब्सिडी के मूल्य को आय की गणना में शामिल किया गया है।
सुब्रमण्यम अपने आकलन में समझाते हैं कि अगर मुफ्त के अनाज और परिवार को मिलने वाली सब्सिडी का मूल्य जोड़ा जाए तो गरीबी का स्तर पांच प्रतिशत से नीचे होगा। यह संकेत है कि लोगों के जीवन में अभाव तेजी से कम हुए हैं।
एनएसएसओ के सर्वेक्षण में मुख्यत: दो प्रकार के एमपीसीई आंकड़े शामिल रहते हैं। पहले में एक घर में उत्पादित उपभोग योग्य वस्तुओं के मूल्य की गणना अथवा उत्पादित स्टॉक, उपहार, कर्ज, मुफ्त का संग्रहण और सेवा के बदले वस्तुओं के आदान-प्रदान का मूल्य शामिल रहता है।
एमपीसीई के रूप में यह आंकड़े व्यापक रूप से स्वीकार्य हैं। दूसरे आंकड़े में सरकारी योजनाओं जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत प्राप्त मुफ्त राशन और गैर खाद्य पदार्थ जैसे लैपटॉप व मोबाइल फोन का मूल्य शामिल रहता है। बहुत से अर्थशास्त्री मानते हैं कि दूसरे आंकड़े परिवार की आय में ठीक-ठाक बढ़ोतरी कर देते हैं, जिससे अंतत: गरीबी घट जाती है।
उपर्युक्त स्रोतों से प्राप्त लाभ और उपभोग व्यय पर उनके प्रभाव की जांच से पता चलता है कि ऐसी सभी मुफ्त या सब्सिडी वाली वस्तुओं के कारण नवीनतम सर्वेक्षण में ग्रामीण क्षेत्रों का एमपीसीई 3,860 रुपए और शहरी क्षेत्रों का 6,521 रुपए (वर्तमान कीमतों पर) पहुंच गया है।
यह इंगित करता है कि ग्रामीण व्यक्तियों को केवल 87 रुपए प्रति माह और शहरी व्यक्तियों को 62 रुपए फ्रीबीज (मुफ्त या सब्सिडी में दी जाने वाली चीजें) के रूप में मिलते हैं।
यह बढ़ोतरी ग्रामीण उपभोग व्यय का केवल 2.25 प्रतिशत और शहरी उपभोग व्यय का 1.33 प्रतिशत ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि फ्रीबीज के नाम पर मचने वाले हो हल्ले की कोई ठोस वजह है या इसे बेमतलब में ही तूल दिया जा रहा है? (downtoearth.org.in/hindistory/)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारी भोगवादी पाश्चात्य जीवन शैली और सरकारों के अंधाधुंध भौतिक विकास का काला चेहरा अब आए दिन और भयावह होता जा रहा है। यह चेहरा कभी हमारे महानगरों के जीवन को कठिनाई में डाल रहा है और कभी गांव देहात की खेती किसानी को मौसम का कहर बनकर बर्बाद कर रहा है।गत वर्ष दिल्ली में जब सर्दी और धुंए ने मिलकर सांस लेने में तकलीफ पैदा कर दी थी तब सर्वोच्च न्यायालय को आगे आकर कहना पड़ा था कि केन्द्र और राज्य की सरकारें इस समस्या पर एक दूसरे पर दोषारोपण करने की बजाय एक साथ मिलकर काम करें।
दिल्ली की यह हालत तब हुई थी जब एक तरफ वहां उन नरेंद्र मोदी की केन्द्र सरकार थी जिनकी गारंटी के विज्ञापन हम आए दिन अखबारों के पहले पन्ने पर देखते हैं और जो भारत को शीघ्र विश्व गुरु बनाने की गर्जना हर रोज करते हैं। इसी दिल्ली की आम आदमी पार्टी की राज्य सरकार मुफ्त में पानी देने के लिए वाहवाही तो लूटती है लेकिन यमुना जल सफाई और दिल्ली में जल सरंक्षण पर उसने भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया। दिल्ली में यमुना विश्व की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में शुमार है।
हमे याद रहना चाहिए कि पिछली गर्मियों में चेन्नई नगर निगम ने किस तरह एक दिन अचानक हाथ खड़े कर दिए थे कि उसके पास केवल कुछ दिन के लिए ही पानी उपलब्ध है। इस साल कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर से कुछ कुछ इसी तरह के गंभीर जल संकट की खबरें आ रही हैं। भू जल स्तर बहुत ज्यादा गिरने से अधिकतर बोरवेल सूख गए।कई कॉलोनी के लोग पानी के टैंकर मंगाने पर मजबूर हैं। टैंकरों के मालिकों ने आपदा में अवसर खोजकर पानी के दाम काफी बढ़ा दिए हैं।कोई भी सरकार, चाहे वह स्थानीय निकाय प्रशासन हो या राज्यों की सरकारें, यहां तक कि केंद्र सरकार भी अपने दम पर जल संकट से निजात नहीं दिला सकती। इसका समाधान केवल और केवल जन जागरूकता और जन सहयोग से ही संभव है। जब भी कोई प्राकृतिक या मानव जनित आपदा आती है सरकारी तंत्र की सजगता की पोल खुल जाती है। जल संकट हमारे समय का बड़ा संकट है जिसके दो प्रमुख आयाम हैं। जल संकट का जो दृश्य हमें सबसे पहले दिखाई देता है वह गर्मी की शुरुआत होते ही सूखती नदियों, झीलों, तालाबों और बॉरवेलों की वजह से पानी की चौतरफा कमी है। जल संकट का दूसरा उतना ही महत्त्वपूर्ण आयाम है शुद्ध पेयजल की कमी। हमें जिस पानी की आपूर्ति की जा रही है वह खेती की जमीन में डाले जाने वाले रासायनिक खादों और कीटनाशकों के जल स्रोतों तक पहुंचने से अत्यंत प्रदूषित हो चुका है। शहरों से निकले गंदे नालों का सीवेज भी इन्हीं जलस्रोतों में मिलकर प्रदूषण में इजाफा कर रहा है। जल और वायु के प्रदूषण से गंभीर बीमारियों में भी विगत दो तीन दशक में तेज वृद्धि हुई है। पंजाब में हरित क्रांति के दौरान पेस्टीसाइड के अंधाधुंध प्रयोग से खाद्य पदार्थों से लेकर जल, वायु और जमीन में इतना प्रदूषण हुआ कि कुछ इलाकों में घर घर कैंसर की दस्तक पड़ गई। सिंचाई के लिए अत्यधिक पानी लेने के कारण भूजल स्तर तेजी से सिकुड़ गया। धीरे धीरे पंजाब सिंड्रोम भी देश भर मे पैर पसार रहा है।
पंजाब का नाम तो पांच जल भरी सदानीरा नदियों के नाम पर पड़ा है इसलिए वहां वैसा जल संकट अभी दूर है जैसा चेन्नई और बैंगलोर एवम देश के पानी की कमी वाले कुछ अन्य क्षेत्रों में है, लेकिन देर सवेर बैंगलोर जैसा जल संकट भी हर जगह दस्तक देने की तैयारी कर रहा है। समझदारी इसी में है कि सरकारों और स्थानीय निकायों के भरोसे न रहकर हम सबको अपने अपने स्तर पर जल संसाधन को बचाने और बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए।बोतलबंद पानी का कारोबार हर साल दुत्र गति से बढ़ रहा है। यदि जल संकट का यही हाल रहा तो शुद्ध पानी दूध से महंगा हो जाएगा क्योंकि दूध के बगैर जीवन संभव है लेकिन पानी के बगैर नहीं।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भारत सरकार के अधीन ठीक उसकी नाक के नीचे काम करने वाला सार्वजनिक उपक्रम है जिसे देश और देश की सरकार का बैंक नंबर वन भी कहा जाता है। अब यह साबित हो गया है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद बैंक ने इलेक्टोरल बॉन्ड की जो जानकारी मात्र चौबीस घंटे में उपलब्ध करा दी आखिर उसे देने में तीस जून तक का लम्बा समय मांगकर बैंक यह सूचना उपलब्ध कराने में जान बूझकर इतनी हीलाहवाली कर रहा था। इसीलिए इस नाटकीय घटनाक्रम पर विपक्षी दल सीधे सीधे मोदी सरकार को कटघरे मे खड़ा कर रहे हैं और कह रहे हैं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया केंद्र की मोदी सरकार के इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले पर लोकसभा चुनाव तक पर्दा डालने के लिए ऐसी हरकत कर रहा था। यह तो स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के आला अफसरान या भगवान श्री राम ही जानते हैं कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया पर किस तरह का दबाव था।
क्या उसके डायरेक्टर्स अपनी तरफ से ही सरकार को खुश करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश कर रहे थे या उन पर ऐसा करने का ऊपर से दबाव था। बैंक ने जिस सूचना को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद चौबीस घंटे में केंद्रीय सूचना आयोग को सौंप दिया उस पर वह पंद्रह दिन से कुंडली मारे बैठा था और आगे भी तीन महीने कुंडली मारकर बैठना चाहता था। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया सार्वजनिक बैंक है इसलिए भारत की जनता के प्रति उसकी जवाबदेही बनती है। जिन परिस्थितियों में इस बैंक की छवि धूमिल हुई है उसके कारणों को बैंक द्वारा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर स्पष्ट किया जाना चाहिए। यदि इस पूरे घटनाक्रम में सरकार यह मानती है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया पर उसका कोई दबाव नहीं तो वित्त मंत्रालय या प्रधानमन्त्री कार्यालय को आगे आकर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के निदेशक मंडल पर बैंक की छवि खराब करने के लिए कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। यदि सरकार इस मामले में कोई कड़ा कदम नहीं उठाती तो यही निष्कर्ष निकाला जाएगा कि बैंक सरकार के दबाव में सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह कर रहा था। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को अक्षरस : मानना हम सबकी जिम्मेदारी है।क्योंकि अभी संसद स्थगित है और लोकसभा के आम चुनाव सर पर खड़े हैं इसलिए सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए अन्यथा तमाम विपक्षी दल इस मुद्दे को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाएंगे और स्थिति स्पष्ट नहीं होने की स्थिति में अफवाहों का बाज़ार गर्म होगा जिसकी शुरुआत सोशल मीडिया पर हो चुकी है।
जो सूचना स्टेट बैंक ने केंद्रीय चुनाव आयोग को उपलब्ध कराई है उसे चुनाव आयोग ने तय समय सीमा के अंदर अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिया है। इस बात के लिए भी केन्द्रीय चुनाव आयोग की सराहना बनती है कि उसने बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर मीडिया के माध्यम से जनता को यह सूचित किया है कि बैंक से प्राप्त इलेक्टोरल बॉन्ड की सूचना जिस फार्म में उपलब्ध कराई गई है वह जस की तस अपलोड कर दी है। इस विज्ञप्ति में चुनाव आयोग ने यह भी स्पष्ट किया है कि चुनाव आयोग चुनावों में हर तरह की पारदर्शिता के प्रति कृत संकल्पित है। बेहतर होगा कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भी इसी तरह की विज्ञप्ति जारी करता तो उसकी साख को लगा बट्टा कुछ कम अवश्य होता। अभी भी बैंक की तरफ से यह जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई है कि कि विभिन्न कंपनियों और व्यक्तियों द्वारा खरीदे गए बॉन्ड किन किन पार्टियों को गए हैं। केंद्रीय चुनाव आयोग को भी सभी राजनितिक दलों को यह घोषणा करने के लिए बाध्य करना चाहिए कि उन्हें किन किन कंपनियों और व्यक्तियों ने इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से चंदा दिया है। क्योंकि सबसे ज्यादा चंदा भारतीय जनता पार्टी को मिला है और उसकी ही केन्द्र में सरकार है। ऐसे में उसकी जिम्मेदारी सर्वाधिक है। जब तक बैंक से पूरी जानकारी सामने नहीं आएगी तब तक केन्द्र सरकार और भाजपा पर विपक्षी दलों के आरोप लगते रहेंगे।
भारत के निर्वाचन आयोग ने गुरुवार को अपनी वेबसाइट पर चुनावी बॉन्ड के आंकड़े सार्वजनिक कर दिए. देश की बड़ी कंपनियों के अलावा ऐसी कई छोटी कंपनियों ने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे जिनका नाम कम ही सुना गया है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद निर्वाचन आयोग ने चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जानकारी अपनी वेबसाइट पर डाल दी है। कोर्ट ने यह जानकारी साझा करने के लिए आयोग को 15 मार्च तक की समय सीमा दी थी, आयोग ने एक दिन पहले ही जानकारी साझा की है। यह जानकारी भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) द्वारा दी गई है। बैंक ने ही चुनावी बॉन्ड जारी किए थे।
चुनाव आयोग की वेबसाइट पर दो लिस्ट हैं। पहली सूची में उन कंपनियों के नाम हैं जिन्होंने मूल्य और तारीखों के साथ चुनावी बॉन्ड खरीदे। दूसरी लिस्ट में राजनीतिक दलों के नाम के साथ-साथ बॉन्ड के मूल्य और उन्हें भुनाए जाने की तारीखें शामिल हैं।
चुनावी बॉन्ड खरीदने वाले कौन
अंग्रेजी अखबार द इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि 2019 और 2024 के बीच राजनीतिक दलों को शीर्ष पांच चुनावी बॉन्ड डोनर्स में से तीन ऐसी कंपनियां हैं जिन्होंने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और आयकर जांच का सामना करने के बावजूद बॉन्ड खरीदे हैं।
इनमें लॉटरी कंपनी फ्यूचर गेमिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी मेघा इंजीनियरिंग और खनन दिग्गज कंपनी वेदांता शामिल हैं। चुनाव आयोग की ओर से जारी डाटा के मुताबिक चुनावी बॉन्ड का नंबर 1 खरीदार सैंटियागो मार्टिन द्वारा संचालित फ्यूचर गेमिंग एंड होटल्स प्राइवेट लिमिटेड है। इस लॉटरी कंपनी ने 2019 से 2024 के बीच 1,368 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं।
चुनावी बॉन्ड के विवादित खरीदार
अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक ईडी ने 2019 की शुरुआत में फ्यूचर गेमिंग के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग जांच शुरू की थी। उस साल जुलाई तक उसने कंपनी से संबंधित 250 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति जब्त कर ली थी। 2 अप्रैल, 2022 को ईडी ने मामले में 409।92 करोड़ रुपये की चल संपत्ति कुर्क की थी।
इन संपत्तियों की कुर्की के पांच दिन बाद 7 अप्रैल को फ्यूचर गेमिंग ने 100 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड खरीदे। कथित तौर पर फ्यूचर गेमिंग के मालिक दक्षिण भारत के ‘लॉटरी किंग’ सैंटियागो मार्टिन हैं। रिपोर्टों के मुताबिक उन्होंने लॉटरी का कारोबार 13 साल की उम्र में शुरू किया था।
ईडी के मुताबिक मार्टिन और अन्य ने लॉटरी विनियमन अधिनियम, 1998 के प्रावधानों का उल्लंघन करने और सिक्किम सरकार को धोखा देकर गलत लाभ प्राप्त करने के लिए एक आपराधिक साजिश रची थी।
दूसरे नंबर पर कौन
बांध और बिजली प्रोजेक्ट्स बनाने वाली कंपनी मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (एमईआईएल) ने साल 2019 और 2024 के बीच 1,000 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं। यह कंपनी हैदराबाद में स्थित है और इसके मालिक हैं कृष्णा रेड्डी।
मेघा इंजीनियरिंग तेलंगाना सरकार की प्रमुख परियोजनाओं में शामिल है जिसमें कालेश्वरम बांध परियोजना भी शामिल है। कंपनी जोजिला सुरंग और पोलावरम बांध का भी निर्माण कर रही है।
अक्टूबर 2019 में आयकर विभाग ने कंपनी के दफ्तरों पर छापेमारी की थी। इसके बाद प्रवर्तन निदेशालय की ओर से भी जांच शुरू की गई। संयोग से उसी साल 12 अप्रैल को एमईआईएल ने 50 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे थे।
अनिल अग्रवाल का वेदांता समूह पांचवां सबसे बड़ा दानकर्ता है, जिसने 376 करोड़ रुपये के बॉन्ड खरीदे हैं, जिसकी पहली किश्त अप्रैल 2019 में खरीदी गई थी।
गौरतलब है 2018 के मध्य में ईडी ने दावा किया था कि उसके पास वीजा के बदले रिश्वत मामले में वेदांता समूह की कथित संलिप्तता से संबंधित सबूत हैं, इस मामले में आरोप है कुछ चीनी नागरिकों को नियमों को कथित रूप से तोडक़र वीजा दिया गया था।
जिंदल स्टील एंड पावर भी शीर्ष 15 दानदाताओं में से एक है, कंपनी ने इस अवधि में बॉन्ड के माध्यम से 123 करोड़ रुपये का दान दिया है। जबकि कंपनी को कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में केंद्रीय एजेंसियों द्वारा जांच का सामना करना पड़ा है। ईडी ने अप्रैल 2022 में विदेशी मुद्रा उल्लंघन के एक ताजा मामले के संबंध में कंपनी और उसके प्रमोटर नवीन जिंदल के परिसरों पर छापे मारे थे।
किस पार्टी ने भुनाए कितने रुपये के बॉन्ड
निर्वाचन आयोग द्वारा जारी चुनावी बॉन्ड के डाटा से पता चला है कि बीजेपी ने राजनीतिक दलों के बीच अब तक के सबसे अधिक बॉन्ड को भुनाया है।
पिछले पांच वर्षों में राजनीतिक दलों द्वारा भुनाए गए 12,769 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड में से लगभग आधा सत्तारूढ़ बीजेपी को मिला और इसका एक तिहाई हिस्सा 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान आया।
यही नहीं बीजेपी ने 2024 के महत्वपूर्ण लोकसभा चुनावों से पहले इस साल जनवरी में 202 करोड़ रुपये के चुनावी बॉन्ड भुना भी लिए।
बॉन्ड से जुड़े डाटा के मुताबिक राजनीतिक दलों के बीच बीजेपी ने सबसे अधिक (कुल 6,060।52 करोड़ रुपये) के बॉन्ड भुनाए। इसके बाद टीएमसी को 1,609।53 करोड़ रुपये मिले। कांग्रेस के खाते में 1,421।87 करोड़ के बॉन्ड गए। बीआरएस को 1,214।71 करोड़ के बॉन्ड मिले और बीजेडी को 775।50 करोड़ रुपये बॉन्ड के जरिए मिले।
15 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड योजना पर रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह योजना असंवैधानिक है। कोर्ट ने अपने फैसले में भारतीय स्टेट बैंक को 12 अप्रैल 2019 से खरीदे गए बॉन्ड की जानकारी निर्वाचन आयोग को सौंपने को कहा था। एसबीआई चुनावी बॉन्ड जारी करने के लिए अधिकृत संस्थान है। (dw.com)
-जुगल पुरोहित
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद चुनाव आयोग ने गुरुवार शाम अपनी वेबसाइट पर इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा डेटा जारी किया।
यह डेटा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने उसे 12 मार्च को उपलब्ध करवाया था। हालांकि अभी भी बैंक ने इलेक्टोरल बॉन्ड के यूनिक (अल्फान्यूमेरिक) नंबरों की जानकारी नहीं दी है।
यह जानकारी देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को 17 मार्च का समय दिया है।
इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा सामने आने के बाद राजनीतिक फंडिंग को लेकर बहस एक बार फिर से तेज हो गई है।
देश के पूर्व वित्त और वरिष्ठ कांग्रेस नेता मंत्री पी। चिदंबरम मानते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड ने बीजेपी को गलत तरीके से फायदा पहुंचाया है।
वहीं दूसरी तरफ गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड को राजनीति से काले धन की भूमिका ख़त्म करने के लिए लाया गया था और सुप्रीम कोर्ट को इस बॉन्ड को असंवैधानिक कऱार देने के बजाय इसमें सुधार लाने की कोशिश करनी चाहिए।
बीबीसी के साथ एक ख़ास बातचीत में चिदंबरम ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड लोकसभा में बीजेपी को दूसरी राजनीतिक पार्टियों के मुकाबले बेहतर स्थिति में रखेगा क्योंकि वो प्रचार पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकेगी।
चिदंबरम ने कहा कि इलेक्टोरल बॉन्ड के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद सामने आई जानकारी से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
उन्होंने कहा, ‘जिन्होंने बॉन्ड खऱीदे हैं, उन सबके सरकार के साथ नज़दीकी रिश्ते रहे हैं। खनन, फ़ार्मा, कंस्ट्रक्शन और हाइड्रोइलेक्ट्रिक कंपनियों के केंद्र सरकार से नज़दीकी रिश्ते होते ही हैं। कई बार कुछ मामलों में ऐसा राज्य सरकारों के साथ भी होता है।’
उन्होंने कहा, ‘लेकिन सवाल ये है कि सरकार ने ऐसी कपट भरी योजना बनाई ही क्यों? जिसमें राजनीतिक चंदा किसको दिया जा रहा है, इसे जाहिर नहीं किया जा रहा है।
सरकार को तो ऐसी योजना बनानी चाहिए थी, जिसमें कोई भी राजनीतिक दलों को चेक, ड्राफ्ट और पे ऑर्डर से भुगतान कर सकता था।’
वे कहते हैं, ‘राजनीतिक दलों और चंदा देने वालों को अपनी-अपनी बैलेंस शीट में इसे ज़ाहिर करना चाहिए था।’
चिदंबरम ने कहा, ''पहले कॉरपोरेट घराने राजनीतिक दलों को खुले और पारदर्शी तरीक़े से चंदा दे रहे थे, लेकिन वे अपने मुनाफे का कुछ निश्चित प्रतिशत रकम ही चंदा दे रहे थे।’
‘घाटा उठाने वाली कंपनी चंदा नहीं दे पा रही थी। हमें वापस वही तरीक़ा अपनाना चाहिए कि खुले और पारदर्शी तरीके से कोई भी चंदा दे पाए।’
बीबीसी ने चिदंबरम से पूछा कि क्या इलेक्टोरल बॉन्ड ने बीजेपी को आने वाले लोकसभा चुनावों में गलत तरीके से फायदे की स्थिति में पहुंचा दिया है। इस पर उन्होंने कहा कि हां बीजेपी को इससे गैरवाजिब फायदा हुआ है।
चिदंबरम ने कहा, ''देखिए सवाल तो उठेगा कि आखऱि इलेक्टोरल बॉन्ड की कुल रकम का 57 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी को ही क्यों मिला? तमाम पार्टियों को मिलाकर भी कम रकम मिली है। दूसरा सवाल यह भी उठेगा कि कहीं ये मिलीभगत का मामला तो नहीं था।’
‘अगर आप इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये पैसा देने और सरकार के कुछ फैसलों को मिलाते हैं तो कोई यह अनुमान लगा सकता है या मान सकता है कि यह मिलीभगत का मामला होगा।’
इलेक्टोरल बॉन्ड की कहानी जिस से तरह से सामने आई है उससे क्या आने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी फायदे में दिख रही है?
बीबीसी के इस सवाल के जवाब में चिदंबरम ने कहा, ‘निश्चित तौर पर उनको फ़ायदा है। पिछले पांच छह सालों में उन्होंने भारी संसाधन जमा कर लिया है। इलेक्टोरल बॉन्ड को इस तरह से डिज़ाइन ही किया गया था जिससे उनको मदद मिले। उन्होंने इसका पूरा फ़ायदा उठाया, इसके चलते वो बेहतर स्थिति में हैं।’
‘चुनाव के वित्तीय प्रबंधन के पहलू में वे दूसरों से काफ़ी बेहतर स्थिति में है, कोई उनको चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। वे अपने उम्मीदवारों की फंडिंग के मामले में दूसरों से कहीं अच्छी स्थिति में हैं।’
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की भूमिका पर क्या कहा?
इस पूरे मामले में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की भूमिका पर बोलते हुए चिदंबरम ने कहा, ‘इसे ही संस्थानों पर कब्जा करना कहा जाता है। एसबीआई को सरकार के इशारों पर काम करने की क्या ज़रूरत थी?’
‘मैं पहले दिन से कह रहा हूं। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से पहले से कह रहा हूं कि अगर वो आंकड़े सार्वजनिक करने का निर्देश देता है तो एसबीआई 24 घंटे में ऐसा कर सकता है।’
उन्होंने कहा, ‘दरअसल प्रत्येक बॉन्ड का एक यूनिक नंबर होता है। इसलिए आपको यूनिक नंबर के हिसाब से ये आंकड़े जारी करने थे कि किस नंबर का बॉन्ड किसने खरीदा। इसके साथ ही ये सूची भी जारी करनी थी कि किस यूनिक नंबर के बॉन्ड को किस पार्टी ने इनकैश किया। बाक़ी इसे मिलाकर हम, आप और आम जनता देख लेती। एसबीआई ने चार महीने का समय मांगा था। उसके इस रवैये ने मुझे खासा निराश किया।’
कुछ लोग कहेंगे कि एसबीआई के सामने क्या विकल्प रहा होगा? वो तो बस जहां से आदेश आ रहा था उसका पालन कर रहा था।
बीबीसी के इस सवाल पर चिदंबरम बोले, ‘कौन से आदेश?, उन्हें सुप्रीम कोर्ट से आदेश मिला था। देश में सुप्रीम कोर्ट से भी बड़ी कोई अथॉरिटी है क्या? मेरी तो एसबीआई को सलाह है कि वे हर बॉन्ड का अल्फा न्यूमेरिक यूनिक नंबर जारी कर दे। वो इससे पीछे ना हटे, नहीं तो उनका और मजाक़ बनेगा और आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा।
इलेक्टोरल बॉन्ड प्रकरण के सबक
बीबीसी ने चिदंबरम से पूछा कि उनकी नजऱ में इलेक्टोरल बॉन्ड प्रकरण के क्या सबक हैं? क्योंकि इस पूरे मामले की जड़ में राजनीतिक दलों और उनके चुनावी कैंपेन की फंडिंग है। इस पर उन्होंने कहा, ''पूरी दुनिया में चुनाव प्रचार काफी महंगे हो गए हैं। चुनाव खर्च आगे बढ़ते जाएंगे और हमें इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। चुनावी प्रचार के तौर-तरीक़ों ने छिपी हुई शक्ल अख्तियार कर ली है। अब तो ये पार्टी कार्यकर्ताओं और वोटरों को पैसा बांटने तक जा पहुंचा है।’
चिदंबरम ने कहा, ‘चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है। सबसे पहले हमें इसमें खुलापन लाना होगा। नंबर दो, हमें व्यावहारिक तौर पर हर उम्मीदवार के खर्च की सीमा को भी बढ़ाना होगा। उम्मीदवार को वह पैसा ख़र्च करने देना चाहिए।’
उन्होंने कहा, ‘तीसरे नंबर पर हमें चुनाव के लिए राज्यों की ओर से फंड जारी करने यानी स्टेट फंडिंग के बारे में सोचना होगा।''उन्होंने कहा, ‘लोगों को पार्टियों के लिए चेक या ड्राफ्ट के ज़रिए खुले तौर पर पार्टियों को पैसे देने की इज़ाज़त मिलनी चाहिए। हां ये जरूरी है कि वो अपने वित्तीय स्टेटमेंट में इसका खुलासा करें। साथ ही चंदा लेने वाली पार्टी को भी अपने रिटर्न में इसका जि़क्र करना होगा।’
बीबीसी ने पूछा कि क्या कांग्रेस स्वेच्छा से चुनावी चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक करेगी?
इसके जवाब में चिदंबरम ने कहा, ‘अगर सुप्रीम कोर्ट या चुनाव आयोग ऐसा चाहेगा तो हमें ऐसा करना चाहिए।’
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है। यह एक वचन पत्र की तरह है जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खऱीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है।
भारत सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था। इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता था।
केवाईसी की जानकारियों के साथ कोई भी खाताधारक इस बॉन्ड को खरीद सकता था। इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता था।
योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदे जा सकते थे।
भारत सरकार ने इस योजना की शुरुआत करते हुए कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड देश में राजनीतिक फ़ंडिंग की व्यवस्था को साफ़ कर देगा। हालांकि 15 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड की वैधता पर अपना फ़ैसला सुनाते हुए इस पर रोक लगा दी थी। सर्वोच्च अदालत ने इसे असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था। (bbc.com/hindi)
निशा साहनी
दांपत्य जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए होते हैं। जिस तरह एक पहिया के नहीं रहने से गाड़ी नहीं चल सकती ठीक उसी प्रकार पति या पत्नी के अभाव में जीवन पहाड़ बन जाता है। पुरुष प्रधान समाज में पत्नी के गुजर जाने पर पुरुष की दूसरी शादी करने का प्रस्ताव आने लगते हैं। मगर पति के मर जाने के बाद आज भी समाज विधवा के पुनर्विवाह की इजाजत नहीं देना चाहता है। उसे ताउम्र बच्चों के लालन-पालन व सास-ससुर की देखभाल करना ही जीवन का उद्देश्य समझाया जाता है। जबकि जीवनसाथी के बिछडऩे का दुख स्त्री और पुरुष दोनों का एक जैसा होता है। संवेदनाएं पुरुष की तरफ और सारी जिम्मेदारियां व पाबंदियां स्त्री के हिस्से हो जाती हैं। समाज विधुर पुनर्विवाह के लिए गाजे-बाजे तक की व्यवस्था करता है, वहीं स्त्रियों के हिस्से वेदना, परिवार की देखभाल और कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का हवाला दिया जाता है।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर समाज में विधवाओं को अशुभ क्यों माना जाता है? उसके लिए जीवन इतना कठिन क्यों हो जाता है? सदियों से विधवा को उसके पति की मृत्यु का जिम्मेदार माना जाता है। विधवा महिलाओं को शारीरिक व मानसिक हिंसा का भी सामना करना पड़ता है। उसपर सामाजिक परंपरा के नाम पर रहन-सहन, खान पान, उठना-बैठना, हंसना-बोलना यहां तक कि उसके कहीं आने-जाने पर भी पाबंदी लगा दी जाती है।
रूढि़वादी विचारों में जकड़े ग्रामीण इलाकों में विधवा के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। सुबह-सुबह विधवा स्त्री का मुंह देखना अशुभ माना जाता है। उसके लिए श्रृंगार करना, सजना-संवरना, किसी पुरुष से बातचीत करना, शुभ कार्यों व अनुष्ठानों में शामिल होना आदि घोर पाप माना जाता है। इतना ही नहीं, कम उम्र में पति के गुजर जाने के बाद विधवा महिलाओं को यौन हिंसा का भी शिकार होना पड़ता है। हालांकि शहरी परिवेश में लोगों की धारणा धीरे-धीरे बदली है। पढ़े-लिखे परिवार में इक्का-दुक्का पुनर्विवाह भी कराया जा रहा है। इसका व्यापक असर टीवी सीरियल, फिल्मों व सोशल मीडिया पर आये दिन विधवा पुनर्विवाह की सकारात्मक खबरों से हुआ है। लेकिन देश का अधिकतर ग्रामीण क्षेत्र आज भी विधवा पुनर्विवाह पर अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर नहीं निकला है।
बिहार के मुजफ्फरपुर जिला मुख्यालय से करीब 25 किमी दूर कुढऩी प्रखंड का छाजन गांव इसका एक उदाहरण है। पूर्वी और पश्चिमी, दो भागों में बंटे इस गांव की कुल आबादी करीब बारह हजार है। पूर्वी छाजन जहां अनुसूचित जाति (मल्लाह और मुसहर) बहुल है, वहीं पश्चिमी छाजन पिछड़ा और अति पिछड़ा बहुल गांव है। यहां उच्च वर्गों की संख्या सीमित है। दोनों ही गांव में विधवा महिलाओं की जिंदगी चारदीवारी में कैद रहती है। घर से बाहर निकलने या आवश्यकता वश किसी पराये लोगों से बात करने पर पूरा गांव चारित्रिक लांछन लगा कर उसे बदनाम करने का प्रयास करता है।
इस संबंध में गांव की एक 35 वर्षीय महिला सविता देवी (बदला हुआ नाम) बताती है कि ‘मेरी शादी 23 वर्ष की उम्र हुई थी। पति शराब का आदि था। शादी के कुछ साल बाद ही शराब के अत्यधिक सेवन के कारण पति की मौत हो गई। लेकिन समाज उसकी मौत का कारण मुझे ठहराने लगा और मुझे कुलटा, कुलक्षणी, अभागिन आदि कहा जाने लगा। लोगों ने कहा कि यह पापिन है जिसके कारण पति की मौत हुई है।’ दरअसल पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं का दर्जा उसके पति से होता है। ऐसे में विधवाओं को हमेशा कठिन भाग्य का पात्र माना जाता है।
इसी गांव की 49 वर्षीय एक अन्य महिला कविता (नाम परिवर्तित) कहती है कि ‘मेरी शादी 15 साल की आयु में हो गई थी। शादी के 8 साल बाद ही मेरे पति की बीमारी के कारण मौत हो गई। पति के मौत के बाद मेरे ऊपर दुखों का पहाड़ तोड़ा गया। समाज में मुझे हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। पति की मौत का कारण बता कर मुझे घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया। घर से लेकर समाज तक किसी भी शादी या उत्सव में भाग लेने पर मुझे पाबंदी लगा दी गई। पूरी जिंदगी मैंने अरमानों का गला घोट कर जीया है। मैं आज तक समझ नहीं सकी कि मेरे पति की मृत्यु जब बीमारी से हुई तो इसके लिए मैं कहां से जिम्मेदार हो गई? मुझे क्यों अभागन माना गया?’ वहीं 45 वर्षीय संजू देवी कहती हैं कि ‘मेरा विवाह 19 वर्ष की आयु में हुआ था। शादी के 15 साल बाद अत्यधिक शराब पीने के कारण मेरे पति की मृत्यु हो गई। आज मैं मजदूरी करके अपने बच्चों का पालन-पोषण कर रही हूं। लेकिन मेरी किसी प्रकार की मदद की जगह समाज पति के मौत के लिए मुझे ही जिम्मेदार ठहराता है।’
2011 की जनगणना क अनुसार देश में लगभग साढ़े पांच करोड़ से अधिक महिलाएं विधवा की जि़ंदगी व्यतीत कर रही हैं। इसमें 58 प्रतिशत महिलाओं की उम्र 60 वर्ष से अधिक है, जबकि 32 प्रतिशत 40-59 आयु वर्ग की और 9 प्रतिशत 20 से 39 आयु वर्ग की विधवा महिलाएं हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि बाल विवाह निषेध अधिनियम के बावजूद 2011 की जनगणना में देश भर में लगभग 1।94 लाख बाल विधवाओं (10-19 वर्ष) की संख्या भी दर्ज की गई है। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों की संख्या अधिक है। जिन्हें कई प्रकार की रूढि़वादी विचारधारा के कारण बंदिशों वाली जि़ंदगी व्यतीत करनी पड़ रही है। वास्तव में, समाज का दोहरा चरित्र महिलाओं को वर्षों से प्रताडि़त और शोषित करता रहा है। समाज और परंपरा के नाम पर महिलाओं की दुर्दशा होती रही है।
पहले बाल विवाह फिर कम उम्र में मां बनना और फिर पति की मौत से सामाजिक बंदिशों व कुत्सित परंपराओं में जकडक़र जीवन की आशा, आकांक्षा, स्वतंत्रता, समानता से महरूम रहना यही नारी की नियति बन जाती है। आजादी से कई साल पहले समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह कानून को लागू करवा कर इस दिशा में पहल तो की, लेकिन इसके बावजूद समाज रूढिय़ों में जकड़ा रहा। शिक्षा और जागरूकता के कारण शहरी क्षेत्रों में विधवाओं के जीवन में परिवर्तन तो आया लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी यह बुराई अपनी जड़ें जमाए हुई है। (चरखा फीचर)
नासिरुद्दीन
दिल्ली के इंद्रलोक में सजदे में झुके इंसान को पुलिसकर्मी ने ठीक उसी अंदाज में किक किया था जैसे कि फुटबॉल को मारते हैं।
फर्क इतना था कि फुटबॉल की जगह इंसान का बदन था, जो इबादत कर रहा था।
किक तो एक या दो लोगों को लगा लेकिन धक्के कइयों ने खाए। इसकी तस्वीर के वायरल होने के बाद दिल्ली पुलिस ने जिम्मेदार पुलिस वाले पर कार्रवाई कर एक बेहतर संदेश जरूर दिया।
लेकिन ये पूरा वाकया किसी भी सभ्य समाज को कमतर करने के लिए काफी था।
गलती क्या थीज् मस्जिद में जगह नहीं थी तो अनेक लोग सडक़ के किनारे नमाज के लिए बैठ गए। मुमकिन है, पहले भी ऐसा हुआ हो। इन्हें रोका भी गया हो।
मगर रोकने का यह तरीका काफी वायरल हो गया। वजह साफ थी- इंसान से इंसान का सुलूक कैसे होगा?
अगर सडक़ पर नमाज पढऩा गलत है तो उस गलत काम को रोकने का तरीका क्या यही होगा?
नमाज में खड़े लोगों को धकियाना, गिराना, सजदे में बैठे लोगों को ठोकर मारनाज्यह तो छोटे से वीडियो में जो दिख रहा था उसकी झलक है।
नमाज और अजान पिछले दिनों काफी विवाद का मुद्दा रहे हैं। मुसलमानों के खिलाफ नफरती अभियान का भी यह आधार रहा है।
पिछले साल इसी रमजान के दौरान कई जगहों पर नमाज को लेकर विवाद हुआ था। कई जगह रमज़ान के दौरान पढ़ी जाने वाली विशेष नमाज तरावीह पर लोगों ने एतराज़ किया।
मगर सवाल है कि किन्हें और क्यों इबादत से एतराज है?
अफवाह और नफरत के बीच बँटा समाज
देश में मुसलमानों के बारे में पिछले दिनों अफवाहों की तरह बातें ज्यादा होने लगी हैं।
सोशल मीडिया और खासकर व्हाट्सऐप जैसे मंच मुसलमानों के खिलाफ प्रचार में ख़ूब इस्तेमाल हो रहे हैं।
मुसलमानों के बारे में समाज के बड़े तबके में नफऱत अब आम विचार की तरह पसरता जा रहा है।
खासतौर पर हिन्दू और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ाने या नफरत की खाई चौड़ी करने के लिए मीडिया और खासकर सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लगातार चलता रहता है।
इसमें मीडिया की भूमिका भी काफी अहम है।
मीडिया पर होने वाली बहसें दूरी पाटने या नफरत की खाई को कम करने का काम नहीं करतीं बल्कि वे तो समुदायों के बीच अफवाह को और विस्तार देती हुई देखी जा सकती हैं।
संविधान के रक्षकों पर भी पड़ा है असर
सवाल है, जिनके हाथ में कानून की हिफाजत की जिम्मेदारी है, उनका व्यवहार ऐसा क्यों है? इन सबसे हमारे समाज का हर तबका प्रभावित हुआ है।
इसमें पढ़े-लिखे या बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग भी शामिल हैं। इसलिए इसके असर से किसी वर्दी वाले का बचा रहना कैसे मुमकिन है।
हालाँकि, वर्दी वाले ने जो शपथ ली है, वह संविधान को बचाने की है। सडक़ पर वह राज्य का प्रतिनिधि है और संविधान के मूल्यों की हिफाजत उसका धर्म।
मगर जब वह वर्दी पहनकर किसी को इबादत के दौरान ठोकर मारता है, तो देखने की बात है कि क्या यह महज प्रशासनिक ठोकर है या इससे इतर भी कुछ है।
अगर यह प्रशासनिक किक या ठोकर है तो सब पर एक जैसा चलेगा। हालाँकि, अगर यह चयनित तौर पर कुछ लोगों के खिलाफ उठता है तो यह नफरती कदम है।
दिल्ली में जो हुआ, वह प्रशासनिक ठोकर नहीं दिखता। अगर प्रशासनिक ठोकर होता तो वह सबको ऐसा ही दिखता। मगर ऐसा हुआ नहीं।
कुछ लोगों ने किक को सही ठहराया। बल्कि वे उस पुलिस वाले के पक्ष में दलील देते देखे गए। बल्कि यहाँ तक कहते पाए गए कि जो किया सो सही किया।
इसका मतलब है कि वह किक कुछ संदेश दे रहा है। संदेश भी तीन तरह के हैं। एक, जिन्हें किक मारा गया उनके सम्मान को भी ठोकर मारी गई।
जिन्होंने देखा और अपने को इस घटना से जोड़ा। उन्हें भी यह कहीं न कहीं बुरा लगा या सम्मान को ठेस पहुँचाने वाला लगा।
लेकिन एक तीसरा तबका भी है, जिसे इस ठोकर में किसी के अपमान का मज़ा दिखा। इसीलिए यह कहना बेमानी है कि पुलिस वाला महज अपनी ड्यूटी निभा रहा था।
यह ड्यूटी के दौरान की कार्रवाई है। सवाल है, उसकी यह ड्यूटी किस तरह का संदेश दे रही है।
एक और महत्वपूर्ण बात है कि कानून व्यवस्था का पालन कराने का यह कौन सा तरीका है?
किसी को इस तरह पैर से ठोकर मारना, मानवीय तरीका नहीं है। यह मानवाधिकार के दायरे में नहीं आता है।
सडक़ पर नमाज और पूजा
इस तर्क में दम है कि सडक़ पर नमाज नहीं पढऩी चाहिए। सडक़ पर आने-जाने में असुविधा होती है। मगर सडक़ पर आमतौर पर रोजाना नमाज़ नहीं पढ़ी जाती है।
नमाज रोजाना पाँच वक़्त होती है। रोजाना के नमाज और शुक्रवार यानी जुमे की नमाज में फर्क होता है।
अनेक लोग हफ्ते में एक दिन जुमे के रोज खास नमाज पढ़ते हैं। इसलिए उस दिन बहुत ज्यादा भीड़ होती है।
ठीक उसी तरह जैसे बहुत सारे लोग मंगलवार या शनिवार को खास पूजा करने मंदिरों में जाते हैं। उस दिन मंदिरों में और आसपास काफी भीड़ होती है।
कई मौक़ों पर विशेष पंडाल लगते हैं। भंडारा लगता है। बड़े-बड़े जुलूस निकलते हैं। रास्ते रोके और बदले जाते हैं। आना-जाना दुश्वार होता है। परेशानी होती है।
मगर हम इसी के साथ जीते हैं। पुलिस तब कैसी व्यवस्था में लगी रहती है।
क्या हमें उस दिन यानी मंगलवार या शनिवार या विशेष पूजा के दिन लगने वाली भीड़ से यह लगता है कि सडक़ पर किसी ने कब्जा कर लिया है?
या तब हमारी प्रतिक्रिया किस तरह की होती है? पुलिस किस तरह व्यवहार करती है?
जिस दिन दिल्ली में जुमे के दौरान यह घटना हुई, उस दिन महाशिवरात्रि के मौके पर कई जगह जुलूस निकले थे।
क्या कहीं से कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए ऐसी किसी घटना की जानकारी मिलती है। बल्कि ज्यादातर जगहों पर तो पुलिस के सहयोग से ही जुलूस निकले होंगे।
विशेष इंतजाम किए जाएं
विशेष दिनों की पूजा-अर्चना या नमाज के लिए विशेष व्यवस्था होनी जरूरी है। इन दिनों में भीड़ रोजाना से ज़्यादा होगी, यह भी तय है। नमाज घंटों या दिन भर चलने वाली प्रक्रिया नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा से दस-पंद्रह मिनट।
कई मस्जिदों ने भीड़ को देखते हुए कई दौर में नमाज शुरू कर दी है। मगर शहरों में जहाँ इंसान की तुलना में मंदिरों-मस्जिदों में जगह नहीं है, वहाँ तो भीड़ बढ़ रही है।
सवाल है, इस भीड़ को काबू में कैसा रखा जाए। यही नहीं, पूजा करने वाले हों या नमाजी दोनों के साथ एक जैसा सुलूक कैसे किया जाए।
कोई नियम बने तो सब पर एक जैसे कैसे लागू हों ताकि किसी को यह न लगे कि उसके साथ भेदभाव या ज़्यादती हो रही है।
राज्य का काम नागरिक व्यवस्था का बेहतर इंतजाम करना है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य में वह इंतजाम भी धर्म से निरपेक्ष होकर ही किया जा सकता है।
ऐसा नहीं हो कि कहीं तो फूल बरसे और कहीं डंडा। राज्य का काम जिसमें पुलिस शामिल है, व्यवस्था को सुचारू बनाना है और कानून का पालन कराना है। अराजकता न फैले यह देखना है।
कोई कानून तोड़ता नजऱ न आए, यह देखना है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में अगर एक धर्म के कार्यक्रम के लिए सुचारू रूप से चलने की पूरी निष्ठा, गंभीरता और बिना किसी दुराव के व्यवस्था की जा सकती है तो बाकी धर्मों के लिए भी ऐसा किया जा सकता है।
यही बेहतर तरीका है। अगर ऐसा नहीं होगा तो एक समुदाय को हमेशा अपने साथ भेदभाव नजर आएगा। (bbc.com/hindi)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
दिनेश श्रीनेत
क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म ‘ओपनहाइमर’ एक लंबे मुकदमे की कहानी है। फिल्म के दौरान पूरे समय आप बहुत बारीकी से जांच कमेटी की कार्यवाही को देखते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद कई वर्षों तक अमेरिका और यूरेशिया भू-भाग के बीच चले शीत युद्ध ने ऐसी जाने कितनी रोमांचक कहानियों को जन्म दिया था, जिनमें पहचान बदलकर काम करने वाले जासूस थे, डबल एजेंट थे, खुफिया जानकारी पहुँचाने वाली खूबसूरत नर्तकियां थीं।
एटम बम के अविष्कारक जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर का जीवन उन तमाम रोमांचक किस्सों से अलग नहीं था। शायद यही वजह रही हो कि जब नोलन ने बीसवीं शताब्दी के इस विवादास्पद वैज्ञानिक के जीवन पर फिल्म बनाने का फैसला किया तो उसे एक नॉयर सिनेमा की शैली दी।
‘नॉन लीनियर’ स्टोरी टेलिंग पसंद करने वाले नोलन सिनेमा के स्क्रीन पर ओपनहाइमर की इस दिलचस्प कहानी को बयान करने के लिए एक जटिल संरचना का इस्तेमाल करते हैं। फिल्म का कुछ हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट है और काफी हिस्सा कलर में।
नोलन ने एक इंटरव्यू में खुद ही यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसा उन्होंने फिल्म में सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव टोन के संतुलन के लिए किया है। रंगीन हिस्से की पटकथा ‘फस्र्ट परसन’ में लिखी गई है और यह हिस्सा ओपनहाइमर की निजी स्मृतियों, उसके अवसाद, उसके प्रेम संबंधों, वामपंथी राजनीति की ओर झुकाव और क्वांटम फिजिक्स के प्रति उसके ऑब्सेशन से भरा हुआ है।
रंगीन दृश्य क्योंकि ‘फस्र्ट परसन’ में हैं तो वहां पर हम नोलन की फिल्म मेकिंग पर उपन्यासों की चिर-परिचित शैली ‘स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस’ का असर भी देख सकते हैं। जैसे हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए जाने के बाद जब पहली बार ओपनहाइमर (सिलियन मर्फी) स्टेज पर जाता है तो हॉल में जोश में भरे लोग खुशी से लकड़ी के फर्श पर अपने पैर पटक रहे होते हैं, जूतों की यह लयबद्ध आवाज इससे पहले भी कई बार सुनाई देती है मगर वह ध्वनि ओपनहाइमर के भीतर गूंज़ रही थी।
इसी तरह ट्रायल के दौरान जब फिल्म के नायक पर मानसिक रूप से गहरा दबाव पड़ता है, तो उसका फिल्मांकन भी देखते बनता है। फिल्म की शुरुआत में शांत जल पर गिरती बूंदे दिखती हैं, जिसे फिर हम बिल्कुल अंत में आइंस्टीन के साथ ओपनहाइमर की मुलाकात में देखते हैं। फिल्म के इस रंगीन हिस्से में कई समानांतर टाइम लाइन चलती है।
बतौर पटकथा लेखक नोलन ने इतनी सफाई से ओपनहाइमर के निजी जीवन, अतीत, बंद कमरे में चल रहे आरोपों की सुनवाई जैसे तमाम हिस्सों में आवाजाही करते हैं और संपादन के दौरान इन्हें इस तरह एक-दूसरे के साथ समानांतर कट से जोड़ा है कि फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं बल्कि एक विचार या फिर कहें कि एक बहस की तरह आगे बढ़ती है।
हालांकि इस तरह की शैली में अगर एक पल के लिए आपका ध्यान स्क्रीन से हटता है तो कहानी के सूत्रों को दोबारा पकडऩे में बहुत मुश्किल हो सकती है। उदाहरण के लिए ओपनहाइमर से आइंस्टीन की मुलाकात, हवा से आइंस्टीन की कैप गिरने और उन दोनों के बीच बातचीत वाला दृश्य फिल्म में दो बार आता है।
शुरुआत में यह दृश्य हम लेविस (रॉबर्ट डाउनी जूनियर) के नजरिये से देख रहे होते हैं और वह सारा हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट में दिखाया गया है, इस दौरान दोनों के बीच क्या बातचीत होती है हम नहीं जान पाते क्योंकि लेविस खुद नहीं जानता कि आइंस्टीन और ओपनहाइमर के बीच क्या बात हुई। फिल्म के क्लाइमेक्स में यही दृश्य दोबारा आता है, इस बार यह दृश्य रंगीन है क्योंकि सिनेमा के नजरिये से यह ओपनहाइमर के ‘प्वाइंट ऑफ व्यू’ है।
यहां पर दोनों के बीच जो संवाद है, उसे एक ‘कन्क्लयूडिंग स्टेटमेंट’ की तरह देखा जा सकता है। हालांकि, खुद नोलन स्वीकार करते हैं कि उन्होंने फिल्म का अंत खुला छोड़ा है, यानी यह ‘ओपन एंडेड’ फिल्म है। इसके बावजूद ‘ओपनहाइमर’ अंतिम निष्कर्ष में यह बात बड़े साफ तरीके से कहती है कि सत्ता देश की प्रतिभाओं का इस्तेमाल ‘पॉलिटिकल प्रॉपगैंडा’ के लिए करती है, लेकिन अगर उन प्रतिभाओं में से कोई सत्ता के लिए तकलीफ का सबब बनता है तो बड़ी आसानी से उसे ठिकाने भी लगा देती हैं।
फिल्म बड़ी खूबसूरती से ओपनहाइमर के निजी और सार्वजनिक जीवन में आवाजाही करती है और ठीक इसी तरह से वह उसके भय, अवसाद, प्रेम और असुरक्षा को भी दिखाती चलती है। नोलन इस फि़ल्म के बहाने में हमें जिस बहस में ले जाते हैं, उसमें बहुत सारे सवाल खुलते हैं। अमेरिका को सुपर पॉवर बनाने वाला ओपनहाइमर देखते-देखते एंटीनेशनल कैसे हो गया? एटम बम का अविष्कार करने वाला व्यक्ति उस देश में चल रहे हाइड्रोजन बम प्रोजेक्ट के खिलाफ क्यों हो गया था?
बतौर निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन के पॉलीटिकल स्टेटमेंट बहुत स्पष्ट हैं। फिल्म दिखाती है कि कैसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रशिया के बीच चल रहे शीत युद्ध के दौरान अमेरिका में उदारवादी सोच पर हमले शुरु हो गए थे। एटॉमिक विस्फोट तक सब ठीक था, मगर हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिरने के बाद ओपनहाइमर भीतर से दरकने लगता है, समय बीतता है और अमेरिका को परमाणु ऊर्जा की ताकत देने वाला व्यक्ति ही एटॉमिक एनर्जी की पॉलिसी की आलोचना शुरू कर देता है।
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को इससे दिक्कत होने लगती है। फिल्म के ब्लैक एंड व्हाइट हिस्से में हम अमेरिका की एटॉमिक एनर्जी कमीशन (एईसी) के चीफ लेविस स्ट्रास और ओपनहाइमर के आरोपों की सुनवाई को देखते हैं। सन् 1954 की सुरक्षा मंजूरी की सुनवाई में ओपनहाइमर पर यह आरोप लगा कि उसका जुड़ा कम्यूनिस्ट पार्टी से था और वह देश के राजनीतिक शत्रुओं के साथ उठता-बैठता था।
ओपनहाइमर बतौर वैज्ञानिक किसी एक राजनीतिक विचारधारा पर आस्था नहीं रखते थे। लेकिन 1930 के दशक में कई युवा बुद्धिजीवियों की तरह, ओपेनहाइमर सामाजिक बदलाव के समर्थक थे। जिसे फिल्म उनके समाजवादी विचारों की तरफ झुकाव में देखती है। फिल्म में अमेरिकी सिनेटर जोसेफ मैक्कार्थी के समय की झलक बहुत बेहतरीन तरीके से दिखाई गई है, जब अमेरिकी सरकार वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों की जासूसी करती थी।
फिल्म में ओपनहाइमर को स्पेनिश गृहयुद्ध और वामपंथी संगठनों की मदद करते हुए दिखाया गया है। वास्तविकता यह थी कि ओपनहाइमर ने भले कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने से इनकार किया हो, वे साम्यवादी सिद्धांतों से सहमति रखते थे। हालांकि उन्होंने कभी किसी पार्टी के आदेशों का आँख बंद करके पालन नहीं किया।
फिल्म में गीता के एक श्लोक ‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:’ का भी जिक्र है। इस श्लोक का जिक्र ओपनहाइमर अपने एक साक्षात्कार में भी करते हैं, जिसे देखा जा सकता है लेकिन फिल्म में नायक इस श्लोक को अपनी वामपंथी प्रेमिका जीन टैटलॉक के साथ के अंतरंग पलों में पढ़ता है।
फिल्म का एक और बहुत ही उल्लेखनीय दृश्य है जब ओपेनहाइमर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रूमैन से मिलते हैं। बातचीत के दौरान वे कहते हैं कि उन्हें लगता है कि उनके ‘हाथों पर खून लगा है’। इस टिप्पणी से ट्रूमैन असहज हो जाते हैं और जेब से रुमाल निकालकर ओपनहाइमर की तरफ बढ़ा देते हैं। यह कई जगह दर्ज है कि ट्रूमैन ने ओपनहाइमर को ‘क्राइ बेबी साइंटिस्ट’ और ‘सन ऑफ अ बिच’ कहा था।
‘ओपेनहाइमर’ को देखते हुए डेविड लीन की ‘डॉक्टर जिवागो’ याद आती है। उसकी तरह यह एक भव्य ‘एपिक ड्रामा’ तो है, मगर इससे भी आगे यह एक वैचारिक फिल्म है। फिल्म देखते हुए आप बंधे तो रहते हैं मगर लगातार सोचते भी रहते हैं। नोलन ओपनहाइमर को क्लीन चिट नहीं देते। वे उसके कमजोर पलों को भी दिखाते हैं। यह फिल्म बुद्धिजीवी और राजनीति के रिश्तों, राष्ट्रवाद, राज्य के नियंत्रण जैसे मुद्दों पर सोचने के लिए आपको खुला छोड़ती है।
आज जब हम हम सारी दुनिया में कट्टरपंथ और राष्ट्रवाद का उभार देख रहे हैं तो यह फिल्म और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद एक नई दुनिया उभर कर सामने आई थी, जिसमें वैज्ञानिकों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने अपनी पक्षधरता तय की और यह समझा कि इस बदली हुई दुनिया में उनकी भूमिका सिर्फ अपने काम तक सीमित नहीं रहेगी। अल्बर्ट आइंस्टीन, बर्ट्रेड रसेल, ओपनहाइमर और टीएस एलिएट जैसे लोगों ने युद्ध के खिलाफ आवाज उठाई। वे उन संभावित खतरों को लेकर भी चिंतित थे जो वैज्ञानिक आविष्कार भावी मानवता के लिए पैदा कर सकते थे।
हर तकनीक नई आशंकाएं लेकर आती है। आर्टिफीशियल इंटैलिजेंस नई चिंताओं को जन्म रहा है। आने वाली दुनिया बहुत से बदलावों से होकर गुजरेगी। ये बदलाव बहुत कुछ देकर जाएंगे और बहुत कुछ हमसे खो भी जाएगा। तीन घंटे की इस फिल्म को देखते हुए बार-बार मन में यह सवाल उठता है कि क्या सभ्यताएं इतिहास से कोई सबक नहीं लेतीं?
पाकिस्तान में आसिफा भुट्टो जरदारी देश की फस्र्ट लेडी बनाए जाने के कारण सुर्खियों में हैं।
आम तौर पर फर्स्ट लेडी किसी देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री की पत्नी को माना जाता है।
मगर पाकिस्तान में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने ऐतिहासिक एलान करते हुए कहा कि उनकी बेटी आसिफा मुल्क की फस्र्ट लेडी होंगी।
आसिफ अली जरदारी की पत्नी और पाकिस्तान की पूर्व पीएम बेनजीर भुट्टो की साल 2007 में हत्या कर दी गई थी।
आसिफा भुट्टो तब महज 14 साल की थीं। बेनज़ीर भुट्टो इस्लामिक देश पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं और 1998 में पीएम बनने के बाद ही वह तीन बच्चों की माँ बनी थीं।
जऱदारी पहली बार 2008 में राष्ट्रपति बने थे और 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या हो गई थी। तब आधिकारिक रूप से किसी को फस्र्ट लेडी के रूप में नियुक्त नहीं किया गया था। जरदारी 2013 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे थे।
मगर इस बार जब पाकिस्तान में नई सरकार बनी और इसके बाद आसिफ अली जरदारी ने देश के 14वें राष्ट्रपति के तौर पर बीते रविवार को शपथ ली तो फस्र्ट लेडी पद पर अपनी छोटी बेटी आसिफा के नाम का ऐलान किया गया। अभी आसिफा 31 साल की हैं।
जरदारी के इस एलान पर पाकिस्तान में सवाल उठ रहे हैं कि आखिर बेटी को फस्र्ट लेडी कैसे बनाया जा सकता है?
2020 से राजनीति में सक्रिय हैं आसिफा
बख़्तावर भुट्टो जरदारी आसिफ़ा की बड़ी बहन हैं।
बख़्तावर भुट्टो ने रविवार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘आसिफा अली जरदारी-जेल से रिहाई के लिए कोर्ट की सुनवाइयों के दौरान आसिफ अली जरदारी के साथ मौजूद रहने से लेकर पाकिस्तान की फस्र्ट लेडी बनने तक।’
आसिफा अली जऱदारी को फस्र्ट लेडी को मिलने वाली सुविधाएं भी मिलेंगी।
आसिफा पाकिस्तान में सबसे कम उम्र की फर्स्ट लेडी बनी हैं।
वो पाकिस्तान पीपल्स पार्टी यानी पीपीपी के चुनावी अभियान के दौरान सक्रिय रही थीं।
आसिफा ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत नवंबर 2020 में पीपीपी की रैली से की थी।
ऐसे में जब पाकिस्तान की फस्र्ट लेडी बनाने का फैसला हुआ तो इस पर सवाल भी उठे।
कानून के जानकार क्या कह रहे हैं
पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने कानून के जानकारों से बात की है।
इन जानकारों का कहना है कि राष्ट्रपति के पास ये अधिकार है कि वो अपने परिवार की किसी महिला सदस्य को फर्स्ट लेडी का पद दे सकता है।
इन जानकारों का कहना है कि कानून में इसे लेकर कोई बाध्यता नहीं है। 1975 के कानून में राष्ट्रपति को मिले अधिकारों में फस्र्ट लेडी का कोई जिक्र नहीं है। गृह मंत्रालय के जारी दस्तावेज़ों में भी फस्र्ट लेडी या फस्र्ट हसबैंड का जिक्र नहीं मिलता है।
संविधान और कानून के तहत राष्ट्रपति को मिलने वाली सुविधाएं परिवार के सदस्यों, बच्चों को भी मिलती हैं। कानून के तहत राष्ट्रपति के परिवार के सदस्य सरकारी आवास, एयरक्रॉफ्ट का इस्तेमाल कर सकते हैं।
जियो टीवी की वेबसाइट की खबर के मुताबिक, सैन्य शासन के दौरान राष्ट्रपति बनने के बाद साल 1958 में अयूब खान ने भी अपनी बेटी नसीम औरंगजेब को फस्र्ट लेडी बनाने का एलान किया था। तब अयूब खान की पत्नी जीवित थीं।
मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना भी अपने भाई के साथ कई मौकों पर साथ नजर आती थीं।
अतीत में दूसरे कई देशों में ऐसे मामले देखने को मिले थे, जिसमें पत्नी के ना होने पर राष्ट्रपतियों ने अपनी बेटियों, बहनों को फस्र्ट लेडी बनाने के लिए कहा था।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति एंड्रू जैक्शन की पत्नी नहीं थी। उन्होंने अपनी भांजी एमिली डोनेल्सन को फस्र्ट लेडी बनाने के लिए कहा था।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, दो और अमेरिकी राष्ट्रपतियों चेस्टर आर्थर और ग्रोवर क्लीवलेंड ने अपनी बहनों को फस्र्ट लेडी के तौर पर अपनी सेवाएं देने के लिए कहा था।
पाकिस्तान में राष्ट्रपति के साथ रहने के अलावा फस्र्ट लेडी स्वास्थ्य और समाजिक कार्यक्रमों में भी शामिल होती हैं।
हालांकि पाकिस्तान के मामले में कुछ फस्र्ट लेडी राजनीति में भी सक्रिय रह चुकी हैं।
आसिफा की दादी नुसरत भुट्टो, जिय़ा उल हक की पत्नी शफीक जिया फस्र्ट लेडी होने के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय थीं।
आसिफा के बारे में कुछ बातें
आसिफा पाकिस्तान के विदेश मंत्री रह चुके बिलावल भुट्टो की बहन हैं। आसिफा अपने पिता के साथ ज़्यादा नजर आती रही हैं।
आसिफा ने ऑक्सफर्ड ब्रुक्स यूनिवर्सिटी से समाज और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई की है। आसिफा ने 21 साल की उम्र में ऑक्सफर्ड यूनियन में भाषण दिया था।
आसिफा समाजिक कार्यों में भी सक्रिय नजर आई हैं।
जब आसिफ अली जरदारी अपना इलाज करवा रहीं मलाला यूसुफजई से मिलने बर्मिंगम गए थे, तब आसिफा भी उनके साथ गई थीं।
आसिफा सोशल मीडिया पर भी सक्रिय नजऱ आती हैं।
पाकिस्तान पोलियो की समस्या से अब तक जूझ रहा है और वहां पोलियो की दवा बच्चों को पिलाना एक चुनौती है।
आसिफा पोलियो से जुड़े अभियानों में भी काफी सक्रिय रही थीं।
भाई बिलावल की शख्सियत
27 दिसंबर, 2007 में बिलावल भुट्टो को माँ बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद पाकिस्तान पीपल्स पार्टी का उत्तराधिकार घोषित किया गया था।
तब बिलावल महज 19 साल के थे और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के क्राइस्ट कॉलेज में इतिहास से ग्रैजुएशन कर रहे थे। अब बिलावल जब 33 साल के हैं तो उन्हें पाकिस्तान का विदेश मंत्री बना दिया गया है।
2009 में बिलावल को अमेरिका-पाकिस्तान-अफग़़ानिस्तान के एक समिट में पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनाया गया था। तब बिलावल 21 साल के थे और उनके पिता आसिफ़ अली जरदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति। कहा जाता है कि इस अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल के अलावा कूटनीतिक मामलों में बिलावल के पास कोई अनुभव नहीं है। (bbc.com/hindi)
कांग्रेस नेता राहुल गांधी बीते दिनों ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में ओबीसी की भागीदारी पर बात करते दिख रहे हैं।
राहुल गांधी ने ब्यूरोक्रेसी में भी ओबीसी अधिकारियों की संख्या का मुद्दा संसद में उठाया था।
लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस बीजेपी को इस संबंध में घेरती हुई नजर आती रही है।
दूसरी तरफ बीजेपी ने हरियाणा में मंगलवार को अहम फैसला लिया।
मनोहर लाल खट्टर के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े के बाद जाटों के दबदबे वाले हरियाणा में बीजेपी ने अपने ओबीसी चेहरे नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया है।
इससे पहले मध्य प्रदेश में भी मोहन यादव को सीएम बनाया गया था। वो भी ओबीसी समुदाय से आते हैं।
खट्टर के इस्तीफा देते ही साढ़े चार साल पुराना बीजेपी और जननायक जनता पार्टी यानी जेजेपी का सरकार में गठबंधन में खत्म हो गया।
ऐसे में सवाल पूछा जा रहा है कि लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आखिर बीजेपी ने खट्टर को सीएम पद से क्यों हटाया और नायब सैनी को सीएम क्यों बनाया?
चुनाव से पहले चेहरे बदलना बीजेपी की रणनीति का हिस्सा
चुनाव से पहले राज्यों में मुख्यमंत्री बदलना बीजेपी की परखी हुई रणनीति है।
इसकी शुरुआत 2021 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के इस्तीफे से होती है। विजय रूपाणी के इस्तीफे के बाद पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल को बीजेपी ने गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया था।
अगले साल ही यानी 2022 में गुजरात में विधानसभा चुनाव होना था। रूपाणी की पूरी कैबिनेट ने इस्तीफ़ा दे दिया था और रातोंरात मुख्यमंत्री से लेकर गुजरात का पूरा मंत्रिमंडल नया हो गया था।
एक साल बाद गुजरात में चुनाव हुआ और बीजेपी ऐतिहासिक बहुमत के साथ सातवीं बार सत्ता में लौटी थी।
बीजेपी ने गुजरात के बाद कर्नाटक, उत्तराखंड और त्रिपुरा में भी मुख्यमंत्रियों को बदल दिया था। कर्नाटक को छोड़ दें तो मुख्यमंत्री बदलने की रणनीति बीजेपी के हक़ में गई थी।
हरियाणा में मुख्यमंत्री बदलने की रणनीति को बीजेपी की ओबीसी केंद्रित राजनीति के आईने में देखा जा रहा है।
बीजेपी संदेश देना चाहती है कि कांग्रेस भले ओबीसी की बात कर रही है लेकिन वो हकीकत में इसे करके दिखा रही है।
77 सदस्यों वाले मोदी मंत्रिमंडल में सबसे ज़्यादा 27 मंत्री ओबीसी हैं। बीजेपी के 303 लोकसभा सांसदों में 85 ओबीसी हैं।
हरियाणा में जाति का आंकड़ा
हरियाणा में कऱीब 44 फ़ीसदी आबादी ओबीसी है। माना जा रहा है कि पार्टी सैनी को सीएम बनाकर ओबीसी मतदाताओं को लुभाना चाहती है।
हरियाणा में बीजेपी के एक तबके का कहना है कि खट्टर को बदलने की पहल एक साल से हो रही थी, पार्टी कोशिश कर रही थी कि ज़्यादा दलित, ओबीसी चेहरों को सामने लाया जाए।
इसके अलावा फरवरी 2024 में खट्टर के खिलाफ कांग्रेस अविश्वास प्रस्ताव लाई थी। हालांकि ये प्रस्ताव गिर गया था। मगर खट्टर के कार्यकाल में लाया गया ये दूसरा अविश्वास प्रस्ताव था।
कहा जा रहा है कि खट्टर के प्रति अविश्वास की स्थिति बीजेपी के अंदर भी थी। पार्टी कार्यकर्ताओं में खट्टर को लेकर नाराजग़ी थी।
ऐसे में खट्टर को हटाकर बीजेपी की कोशिश है कि चुनावों में नए चेहरे के साथ उतरा जाए।
द टेलीग्राफ अखबार से एक बीजेपी नेता ने कहा, ‘खट्टर और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कटाव सा था। काम तो अच्छा ही कर रहे थे।’
बीजेपी के कई नेताओं ने कहा कि खट्टर के बारे में पार्टी को फीडबैक दिया गया था।
कुछ महीने पहले हरियाणा के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर ने बीजेपी का हाथ थामा था। तंवर के रूप में बीजेपी को राज्य में दलित चेहरा मिला, जिनकी हरियाणा की आबादी में हिस्सेदारी 20 फीसदी है।
बीजेपी की कोशिश है कि ओबीसी-दलित चेहरों की बदौलत जाटों की नाराजग़ी से हो सकने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके।
हरियाणा की 90 सीटों में से 40 सीटों पर जाटों का दबदबा रहता है। कहा जा रहा है कि बीते साल अक्तूबर में जाट ओपी धनखड़ को अध्यक्ष पद से हटाए जाने से नाखुश हैं।
खट्टर और धनखड़ के बीच पार्टी और सरकार में मतभेद थे।
बीजेपी के लोगों की मानें तो खट्टर पीएम मोदी के ख़ास हैं और लोकसभा चुनावों में उन्हें करनाल से टिकट दी जा सकती है। वहीं तंवर को कुरुक्षेत्र से टिकट दी जा सकती है। नायब सैनी कुरुक्षेत्र सीट से सांसद थे।
जाट वोट और खट्टर के इस्तीफे की वजह
हरियाणा की राजनीति जाट और गैर-जाट वोट के इर्द-गिर्द घूमती है।
इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि सैनी को सीएम बनाकर बीजेपी पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों के वोट हासिल करना चाहती है क्योंकि बीजेपी ब्राह्मण, पंजाबी, बनिया और राजपूत वोटों को लेकर आश्वस्त है।
बीजेपी ने पार्टी सर्वे में ये पाया कि किसान आंदोलन और महिला पहलवानों के प्रदर्शन के कारण खट्टर के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर है।
बीजेपी के लिए हरियाणा में जाट वोट चुनौती की तरह हैं।
2019 लोकसभा चुनावों में राज्य की 10 सीटें बीजेपी जीतने में सफल रही थी। इन चुनावों में बीजेपी को 58 फ़ीसदी वोट मिले थे और इसमें जाटों ने अहम भूमिका अदा की थी।
2019 लोकसभा चुनाव बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद हुए थे और बीजेपी की जीत में जानकार इस घटना को भी अहम मानते हैं।
वहीं जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी का वोट शेयर घटकर 36 फीसदी हो गया था।
बीजेपी हरियाणा में बदलाव करके आगामी चुनावों में ख़ुद को मजबूत करना चाहती है।
दुष्यंत चौटाला बीजेपी के लिए कितने ज़रूरी?
लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले और हरियाणा विधानसभा चुनाव से सात महीने पहले प्रदेश में इस परिवर्तन के कई संदेश हैं।
2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी और जेजेपी में हुआ गठबंधन अब भी संदिग्ध बना हुआ है। दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी के 10 विधायक हैं और इसी के दम पर वह उपमुख्यमंत्री बने थे।
खट्टर के इस्तीफे के बाद वह भी हरियाणा की सरकार से बाहर हो गए हैं। लेकिन बीजेपी और जेजेपी दोनों की ओर से स्पष्ट तौर पर गठबंधन टूटने पर कुछ नहीं कहा गया।
दोनों तरफ़ के नेता इस पर चुप हैं।
कहा जा रहा है कि हरियाणा बीजेपी में यह मांग ज़ोर पकड़ रही थी कि लोकसभा चुनाव में उसे बिना किसी गठबंधन के अकेले जाना चाहिए।
लेकिन ये स्पष्ट है कि लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने जेजेपी को छोड़ दिया है।
90 सदस्यों वाली हरियाणा विधानसभा में बीजेपी के 41 विधायक हैं और उसे सात निर्दलीय विधायकों समर्थन मिला है। 48 सदस्यों के साथ बीजेपी को हरियाणा विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिल गया है। ऐसे में बीजेपी को जेजेपी की जरूरत भी नहीं थी।
जेजेपी 2018 में बनी थी जब अजय चौटाला अपने पिता और इंडियन नेशनल लोकदल की सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला से अलग होने का फ़ैसला किया था। 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में आईएनएलडी एक सीट ही जीत पाई थी जबकि जेजेपी 10 सीट जीतकर किंगमेकर बन गई थी।
दुष्यंत चौटाला की मुश्किलें
मंगलवार को खट्टर के इस्तीफे और सैनी के सीएम बनते ही दुष्यंत चौटाला ने सोशल मीडिया पर दो पोस्ट लिखी।
दुष्यंत चौटाला ने लिखा, ‘सीमित समय और सीमित संख्या के साथ हमने दिन रात हरियाणा के हितों की रक्षा के लिए लगाए हैं। हमने हरियाणा के हर वर्ग और हर क्षेत्र के काम सरकार में करवाए हैं। हमारे मुश्किल और संघर्ष के दौर में आपने हम पर जो भरोसा लगातार जताया है और जो साथ हमेशा दिया है उसके लिए मैं आपका सदैव आभारी रहूँगा।’
नायब सैनी को बधाई देते हुए दुष्यंत चौटाला ने लिखा, ‘मुझे पूरा विश्वास है कि गरीब, किसान और प्रदेश के विकास की जिन योजनाओं को हमने लागू किया, आप उन्हें आगे बढ़ाते हुए जन-हितैषी सरकार चलाएंगे। मुझे पूरी उम्मीद है कि जनता की सुनवाई के लिए आपके निवास के द्वार हमेशा खुले रहेंगे।’
चौटाला ने हरियाणा में हुए सियासी फेरबदल के बाद मंगलवार को विधायकों की बैठक बुलाई थी।
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस बैठक में पांच विधायक शामिल नहीं हुए। इसके बाद ये कयास लगाए जा रहे हैं कि जेजेपी के अंदर भी टूट हो सकती है।
पार्टी बैठक के बाद जब जेजेपी के हरियाणा प्रमुख निशान सिंह ने बैठक में मौजूद विधायकों की संख्या नहीं बताई और कहा कि बैठक की बातचीत के बारे में बुधवार को हिसार रैली में बताया जाएगा।
जेजेपी के चार विधायक नई सरकार के शपथग्रहण समारोह में भी दिखे थे।
द हिंदू ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि सोमवार को दुष्यंत चौटाला ने अमित शाह से मुलाकात की थी और 2024 चुनावों के लिए दो लोकसभा सीटों की मांग की थी।
मगर 2024 चुनावों में बीजेपी हरियाणा में अकेले मैदान में उतरने का सोच रही है।
जशपुर जिले के ग्राम बगिया के विष्णुदेव साय छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री पद की शपथ 13 दिसंबर 2023 को ली थी। आदिवासी सरगुजा संभाग, जशपुर जिले के यह पहले व्यक्ति है, जो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने। विष्णु देव साय ने महज नब्बे दिनों में तीन करोड़ से अधिक प्रदेशवासियों के जीवन में खुशहाली बिखेरने में सफलता अर्जित की है।
ईमानदार प्रयास नया मिसाल
वैसे तो किसी भी सरकार के लिए तीन माह का कार्यकाल बहुत ही कम होते हैं। लेकिन मुख्यमंत्री श्री साय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ग्रामीणों के हित में कई निर्णय लिए। प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के तहत प्रदेश के 18 लाख से अधिक आवासहीनों को पक्का मकान देने के निर्णय ने इन लाखों गरीबों के चेहरे में खुशियां बिखेर दीं। प्रदेश के करीब 68 लाख अंत्योदय एवं प्राथमिकता राशनकार्डधारी परिवारों को अगले पांच वर्ष तक नि:शुल्क खाद्यान्न देने के फैसले से इन परिवारों को भरपेट भोजन भी मिलेगा।
युवाओं के भविष्य सुरक्षित
प्रदेश के युवाओं के भविष्य को सुरक्षा प्रदान करते हुए छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा-2021 की शिकायतों की जांच सीबीआई से जांच कराने व यूपीएससी की तर्ज पर परीक्षा प्रणाली लागू करने जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए। बेरोजगारों के हित में फैसला लेते हुए शासकीय सेवा में भर्ती हेतु स्थानीय निवासियों को अधिकतम आयु सीमा में दिसंबर 2028 तक छूट दी गई है।
किसानों के पीड़ा को किया दूर
मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय दूरस्थ आदिवासी अंचल से होने के साथ एक मंजे हुए किसान पुत्र भी हैं, इसीलिए किसानों की पीड़ा को वे बेहतर समझते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन 25 दिसंबर को सुशासन दिवस के अवसर पर राज्य के किसानों को दो साल के बकाया धान बोनस के भुगतान की गारंटी को पूरा करते हुए 13 लाख किसानों को 3 हजार 716 करोड़ रूपए का भुगतान की गई।
सबसे बड़ी राशि किसानों के खातों में
अपने वादे के अनुरूप किसानों के हित में खरीफ वर्ष 2023-24 में समर्थन मूल्य पर प्रदेश के किसानों से प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी की गई, 24 लाख 72 हजार किसानों से 144.92 लाख मीट्रिक टन रिकॉर्ड धान खरीदी की गई और अन्नदाताओं को 31 हजार 914 करोड़ रूपए का भुगतान भी किया गया तो 12 मार्च को ‘‘कृषक उन्नति योजना‘‘ के तहत समर्थन मूल्य की अंतर राशि 13 हजार 320 करोड़ रूपए अन्नदाताओं के खाते में प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव ने डीबीटी के माध्यम से पहुँचाने का काम किया है ।
आदिवासियों के हित में बड़ा निर्णय
प्रदेश के लाखों आदिवासी भाई-बहनों को आर्थिक रूप से सशक्त करने के लिए तेंदूपत्ता संग्राहकों को संग्रहण पारिश्रमिक दर 4 हजार रूपए प्रतिमानक बोरा से बढ़ाकर 5 हजार 500 रूपए किया गया साथ ही तेंदूपत्ता संग्राहक सामाजिक सुरक्षा हेतु नवीन योजना संचालित किए जाने का निर्णय भी लिए हैं।
आस्था-विश्वास व भावनाओं का रखा ध्यान
प्रदेशवासियों के विश्वास व आस्था की भावनाओं को सम्मान देते हुए विष्णु देव सरकार ने रामलला दर्शन (अयोध्या धाम) योजना शुरू की। इस योजना के तहत प्रदेश के 18 से 75 आयु वर्ग के पात्र हितग्राहियों को अयोध्या धाम दर्शन के लिए विशेष ट्रेन शुरू की है, वहीं छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर नगरी राजिम के वैभव को फिर से स्थापित करने के लिए राजिम कुंभ (कल्प) की शुरूआत भी की।
मातृ शक्ति का किया वंदन
डबल इंजन वाली विष्णु देव सरकार ने मोदी की गारंटी पर मुहर लगाते हुए महतारी वन्दन योजना के तहत प्रदेश के 70 लाख से अधिक विवाहित महिलाओं के खाते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाबा विश्वनाथ की धरती काशी से शुभारंभ किए और प्रथम किस्त की राशि करीब 700 करोड़ रुपए इन महिलाओं के खाते में अंतरित हुई।
विष्णुदेव साय सरकार ने एक अहम फैसले लेते हुए छत्तीसगढ़ आबकारी नीति वित्तीय वर्ष 2024-25 का अनुमोदन किया है। साथ ही प्रदेश की आधी आबादी यानी माताओं एवं बहनों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया है कि कोई भी नई मदिरा दुकान नहीं खोली जाएगी। मुख्यमंत्री श्री साय ने लोकतंत्र सेनानियों (मीसाबंदियों) की भावनाओं का सम्मान करते हुए 430 लोकतंत्र सेनानियों-आश्रितों को सम्मान निधि देने का निर्णय लिया।
एल.डी.मानिकपुरी
(सहायक जनसम्पर्क अधिकारी, कोरिया)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
राजनीति में विचारधारा का जैसा विचलन इधर देखने में आ रहा है उससे लगता है कि राजनीति से विचार और सेवा तत्व लगभग नदारद हो गया है और राजनीति मात्र सत्ता की असीमित शक्ति और ऐशो आराम की जिंदगी जीने का सर्वोत्तम माध्यम बन गई है।सबसे ज्यादा ताज्जुब तो तब होता है जब इस जमात के वरिष्ठ नेता तीन सौ साठ डिग्री टर्न लेकर अपनी धुर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दल की शरणागत होकर अचानक नए दल के उन नेताओं के स्तुति गान गाने लगते हैं जिन्हें वे कई साल से पानी पी पीकर बुरी तरह गलियाते रहते थे।
दुर्भाग्य से हमारा संविधान, केन्द्रीय चुनाव आयोग और जन प्रतिनिधि कानून इस तरह के स्वार्थी और विचार रहित नेताओं पर लगाम कसने में अक्षम हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन महा स्वार्थी नेताओं को विरोधी राजनीतिक दल चुनाव मे टिकट भी दे देते हैं और राज्य सभा के उच्च सदन में पहुंचाकर माननीय भी बनाते हैं।जाति और धर्म के नाम पर बंटे हुए नागारिक भी इन्हें सर आंखों पर बिठाकर अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं। निश्चित रूप से इन नेताओं की राजनीतिक दुकान चलवाने के लिए सबसे बड़ा दोष तो मतदाताओं का ही है क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नागरिकों को शासन चलाने के लिए वैसे ही शासक मिलते हैं जैसे वे खुद हैं।
कभी हरियाणा में भजनलाल से राजनीति में आयाराम गयाराम की शुरुआत हुई थी जिसे हमारे समय में नीतीश कुमार ने और आगे बढ़ाकर वैचारिक राजनीति को गर्त मे पहुंचाया है। नीतीश कुमार की वर्तमान छवि जोड़ तोड़ से सरकार बनाने के पितामह की बन गई है। अमूमन हर राज्य में उनकी तरह के नेताओं का एक ऐसा बड़ा वर्ग पैदा गया है जो ज्यादा दिन सत्ता से दूर नहीं रह सकते। यह देखने में आया है कि इन नेताओं के परिवार के विविध व्यापारिक हित भी होते हैं और आर्थिक घोटालों के काले कारनामें भी होते हैं जिसकी वजह से ये जांच एजेंसियों के रडार से बचने के लिए सत्ता के आसपास मंडराते रहते हैं।
महाराष्ट्र से अशोक चव्हाण और उत्तर प्रदेश से स्वामी प्रसाद मौर्य और मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया और सुरेश पचौरी आदि नेता इसी वर्ग में आते हैं। ऐसे नेताओं को लुभाकर अपना अश्वमेध अजेय रखने के लिए सत्ता पक्ष भी जीजान से जुटता है और विपक्ष भी उन पर सवार होकर सत्ता पाने के लिए लालायित रहता है।2024 के लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से अपनी खोई हुई जमीन वापिस हासिल करने की कोशिश कर रही है वहीं भाजपा नई रणनीति के तहद इस चुनाव को कांग्रेस मुक्त चुनाव बनाने में लगी है।हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह का एक बयान प्रमुखता से अखबारों में प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने स्थनीय नेताओं से कांग्रेस के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं को भाजपा में लाने का निर्देश दिया है और कहा है कि सांसदों और विधायकों को भाजपा में शामिल कराने का काम भाजपा हाई कमान करेगा।
ऐसे में विपक्ष का यह आरोप सही लगता है कि भाजपा खुद को लॉन्ड्री मशीन मानती है जिसमे घुसकर दागी नेता साफ हो जाते हैं। इसका प्रमाण हाल ही में कांग्रेस से भाजपा में आए महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण हैं जिन पर भाजपा ने आदर्श घोटाले में खूब कीचड़ उछाली थी। हाल ही में भाजपा में शामिल होने पर उन्हें राज्य सभा के उच्च सदन में प्रतिष्ठित किया गया है। इसके पहले यही घटनाक्रम मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ घटित हुआ था।महाराष्ट्र में अजीत पवार को उप मुख्यमंत्री बनाकर भी यही संदेश दिया गया था कि भाजपा के साथ आने से जांच एजेंसियों के एंटीना का रुख आपकी पूर्व की संदिग्ध गतिविधियों पर नहीं रहेगा। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति अत्यन्त घातक है। अंतिम उम्मीद की किरण मतदाता ही हैं। मतदाताओं की जागरूकता के बगैर लोकतंत्र निरंतर भोंथरा होता जाएगा।
रियाज सोहैल
‘राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तारिक अजीज ने मुझे बताया है कि वह (तारिक) पिछले चार दिनों के दौरान आसिफ जरदारी से दो बार मुलाकात कर चुके हैं।’
विकीलीक्स की ओर से उजागर किए जाने वाले कूटनीतिक दस्तावेजों के अनुसार यह बात अमेरिकी राजदूत एन पीटरसन ने 16 फरवरी 2008 को अमेरिकी सरकार को भेजे अपने पत्र में लिखी थी।
ध्यान रहे कि पाकिस्तान में आम चुनाव 18 फरवरी 2008 को होने वाले थे। विकीलीक्स की ओर से उजागर दस्तावेजों के अनुसार इस चुनाव से पहले आसिफ जरदारी ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के सलाहकार तारिक के साथ इस बात की चर्चा की थी कि अगर पीपुल्स पार्टी चुनाव जीत गई तो किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए।
उन दस्तावेज़ों के अनुसार तारिक़ अज़ीज़ और उस समय के आईएसआई प्रमुख जनरल नदीम ताज आसिफ़ जऱदारी को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह प्रधानमंत्री न बनें और पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मखदूम अमीन फहीम का इस पद के लिए समर्थन करें।
एन पीटरसन की ओर से 7 फऱवरी 2008 को लिखे गए एक और पत्र के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तारिक़ अज़ीज़ ने उन्हें (पीटरसन को) बताया कि राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने आसिफ़ जऱदारी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के प्रस्ताव को सख़्ती से ठुकरा दिया है।
उस पत्र के अनुसार तारिक़ अज़ीज़ का कहना था कि जिस डील के नतीजे में बेनज़ीर भुट्टो की वापसी हुई थी उसी के ज़रिए आसिफ़ जऱदारी के प्रधानमंत्री बनने से राष्ट्रपति मुशर्रफ की साख प्रभावित हो सकती है।
पत्र के अनुसार, ‘तारिक अजीज ने कहा कि जरदारी अगर पर्दे के पीछे रहें और अपनी पार्टी का नेतृत्व करें तो उनका समर्थन किया जाएगा। अजीज ने कहा कि यह स्थिति वर्तमान (सैनिक) नेतृत्व के लिए बेहतर होगी क्योंकि बेनजीर भुट्टो की तुलना में जरदारी के साथ मामले तय करना अधिक आसान है।’
लगभग डेढ़ दशक पहले विकीलीक्स के ज़रिए उजागर होने वाले इन अमेरिकी कूटनीतिक दस्तावेजों और उनमें लिखी गई घटनाओं के बारे में पूर्व राष्ट्रपति जरदारी या पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
हालांकि यह सच्चाई है कि 2008 के चुनाव के बाद आसिफ जरदारी प्रधानमंत्री नहीं बल्कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने थे।
शनिवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे में उन्हें सफल घोषित किया गया है। अब वह पाकिस्तान के पहले ऐसे राजनेता बन गए हैं जो दो बार राष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे।
इस रिपोर्ट में हमने आसिफ अली जरदारी के राजनीतिक जीवन के बारे में जानने की कोशिश की है। तो चलिए शुरू करते हैं काउंसलर के उस चुनाव से जिसमें आसिफ अली जरदारी को हार का सामना करना पड़ा था।
जब आसिफ जरदारी काउंसलर का चुनाव हार गए
सन् 1955 में पैदा होने वाले आसिफ अली जरदारी अपने माता-पिता के इकलौते बेटे हैं और उनकी तीन बहनें हैं।
आसिफ जरदारी ने शुरुआती शिक्षा सेंट पैट्रिक स्कूल से ली। इसके बाद वह सिंध के पिटारो स्थित कैडेट कॉलेज चले गए। उनकी अधिकृत जीवनी के अनुसार उन्होंने लंदन से बिजनेस में ग्रेजुएशन की है।
आसिफ अली जरदारी के पिता हाकिम अली जरदारी जमींदारी के अलावा कराची में सिनेमाघरों और कंस्ट्रक्शन के काम से जुड़े थे। किसी जमाने में वह शेख मुजीब की अवामी नेशनल पार्टी का हिस्सा भी रहे थे। पाकिस्तान चुनाव आयोग के रिकॉर्ड के अनुसार हाकिम जऱदारी सन 1985 में जनरल जिय़ाउल हक़ के दौर में नवाबशाह से राष्ट्रीय असेंबली का चुनाव लड़े लेकिन हार गए। वह चुनाव गैर-दलीय हुआ था।
अपने पिता से पहले आसिफ़ अली जऱदारी नवाबशाह की जि़ला काउंसिल के चुनाव में हिस्सा ले चुके थे। इसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। सन 1983 का यह वह दौर था जब सिंध में लोकतंत्र बहाल करने का आंदोलन जोरों पर था। इस साल नवाबशाह के शहर सकरंड के पास ‘पिन्हल चांडियू’ गांव में सेना की ़ायरिंग में पीपुल्स पार्टी के सोलह कार्यकर्ता मारे गए और लगभग पचास घायल हो गए थे।
देश-विदेश के मीडिया में आसिफ जरदारी को घाघ नेता बताया जाता है।
पाकिस्तान के लोग सन 1987 से पहले आसिफ जरदारी का नाम नहीं जानते थे। जब दिसंबर 1987 में उनकी शादी पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से हुई तो उनका नाम देशभर में जाना पहचाना बन गया।
उस शादी के अगले ही साल ही यानी 1988 में होने वाले आम चुनाव में भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने बहुमत प्राप्त किया और बेनजीर भुट्टो देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं। बेनजीर अपने साथ अपने पति को भी प्राइम मिनिस्टर हाउस ले आईं। यही वह वक्त था जबसे आसिफ जरदारी की राजनीति, उनसे जुड़े विवाद और कथित भ्रष्टाचार के मुकदमों की शुरुआत हुई।
‘मिस्टर टेन पर्सेंट’ की छाप
राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक खान ने बेनजीर भुट्टो की सरकार को चुने जाने के दो साल के अंदर ही बर्खास्त कर दिया और असेंबलियों को भंग कर दिया। असेंबली को भंग करने और देश में नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग की सरकार आने के कुछ ही समय बाद 10 अक्टूबर 1990 को आसिफ जरदारी पहली बार गिरफ्तार हुए। जब नवाज शरीफ की सरकार बर्खास्त हुई तो फरवरी 1993 में उन्हें रिहाई मिली।
आसिफ जरदारी पर आर्थिक भ्रष्टाचार, अपहरण और अधिकारों के दुरुपयोग जैसे आरोप लगाए गए थे जो कभी अदालतों में साबित नहीं हो पाए।
1990 के दशक का यही वह दौर था जब कथित तौर पर सरकारी ठेकों में करप्शन जैसे आरोप के कारण उनके नाम के साथ ‘मिस्टर टेन पर्सेंट’ का ठप्पा लग गया जिसने कई दशकों तक उनका पीछा किया। यह भी वह आरोप था जो कभी अदालत में साबित नहीं हुआ।
साल 1993 में हुए आम चुनाव में पीपुल्स पार्टी ने एक बार फिर कामयाबी हासिल की और बेनजीर भुट्टो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन यह सरकार भी अपनी संवैधानिक अवधि पूरी न कर सकी और नवंबर 1996 में उन्हें हटा दिया गया।
बेनजीर के दूसरे कार्यकाल में आसिफ जरदारी पर राजनीतिक जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार जैसे आरोप लगाए गए। बेनजीर की दूसरी सरकार को हटाए जाने से पहले आसिफ जरदारी दुबई में थे और दुबई से पाकिस्तान वापसी पर अगले ही दिन उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया।
सबसे लंबी क़ैद
दूसरी बार होने वाली उनकी गिरफ़्तारी लंबी थी। आसिफ़ जऱदारी की क़ैद के दौरान पाकिस्तान में दो सरकारें बदलीं। पहले नवाज़ शरीफ़ की सरकार आई और उसके बाद जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ का मार्शल लॉ आया। हालांकि उस समय के पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व की राय थी कि सरकार बदलने से जरदारी की रिहाई हो पाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
आसिफ जरदारी पर भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगे थे। उन पर बेनजीर भुट्टो के भाई मुर्तजा भुट्टो की हत्या का आरोप भी था लेकिन बाद में उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया गया।
आसिफ जरदारी की सन 2004 में रिहाई उस वक़्त तक नहीं हुई जब तक जनरल परवेज मुशर्रफ ने एनआरओ (नेशनल रिकॉन्सिलिएशन ऑर्डिनेंस) जारी नहीं किया। एनआरओ के तहत उन पर दायर मुकदमे स्थगित हुए और बाद में उन मुक़दमों में अदालतों ने उन्हें बरी कर दिया।
लंबी क़ैद की वजह से वह पाकिस्तान में हाल में जेल में सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारने वाले नेता बन गए। बाद में दिए गए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बात मानी कि उन्होंने जेल में बहुत कुछ सीखा है। उनकी अनुपस्थिति में बच्चों की परवरिश की पूरी जि़म्मेदारी बेनज़ीर भुट्टो ने निभाई।
कैद के दौरान ब्रितानी अखबार ‘गार्डियन’ को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वह अपने बच्चों को बड़े होते हुए देखने की ख़ुशी से महरूम हैं। उन्होंने कहा था कि वह बाग में चहलकदमी करने, अपने क्षेत्र नवाबशाह की धूल और गर्मी, अपने क़बीले के लोगों और अपने राजनीतिक साथियों से मुलाकातों और अपने दोस्तों के साथ गपशप करने और ठहाके लगाने और पोलो मैच में भाग लेने से वंचित हैं। रिहाई के बाद वह पहले दुबई और बाद में अमेरिका चले गए।
बेनजीर भुट्टो ने जब 18 अक्टूबर 2007 को स्व-निर्वासन खत्म करके पाकिस्तान वापस आने का फैसला किया तो आसिफ जरदारी अपने बच्चों के साथ दुबई में मौजूद रहे।
रावलपिंडी के लियाकत बाग में 27 दिसंबर 2007 को हुए एक आत्मघाती हमले में बेनज़ीर भुट्टो की मौत के बाद वह पाकिस्तान वापस आए। बेनज़ीर भुट्टो को दफनाए जाने के बाद जब गुस्साए लोगों की ओर से ‘न खपे पाकिस्तान’ (नहीं चाहिए पाकिस्तान) का नारा लगाया गया तो जरदारी ने अपनी पहली जनसभा में ‘पाकिस्तान खपे’ (पाकिस्तान चाहिए) का नारा दिया। यह नारा बाद में उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और खुद आसिफ जरदारी की राजनीति का नारा बनकर सामने आया।
पीपुल्स पार्टी का नेतृत्व अपने पास रखने की बजाय उन्होंने इसे उस समय शिक्षा प्राप्त कर रहे अपने युवा बेटे बिलावल भुट्टो को सुपुर्द कर दिया। उन्होंने उनका नाम बिलावल जरदारी से बदलकर बिलावल भुट्टो जऱदारी के रूप में दुनिया के सामने पेश किया। यह एक बेहतर रणनीति साबित हुई। इस तरह उन्हें पार्टी में किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। असल में पार्टी जरदारी संभाल रहे थे लेकिन नेतृत्व बिलावल के पास था।
सन् 2008 के चुनाव में पीपुल्स पार्टी ने सफलता प्राप्त की और प्रधानमंत्री के लिए यूसुफ़ रज़ा गिलानी को उम्मीदवार बनाया गया। हालांकि इससे पहले आम राय यह थी कि यह पद सिंध से संबंध रखने वाले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनियर नेता मखदूम अमीन फ़हीम को मिलेगा। लेकिन यह पहली बार हुआ कि पीपुल्स पार्टी का प्रधानमंत्री सिंध से नहीं बल्कि पंजाब से बन रहा था।
पीपुल्स पार्टी की सरकार का शुरुआत में मुस्लिम लीग (नवाज) ने भी साथ दिया लेकिन यह गठबंधन देर तक नहीं चला। जनरल परवेज मुशर्रफ की ओर से अपदस्थ किए गए चीफ जस्टिस इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी और दूसरे जजों की बहाली के मामले पर दोनों दलों में मतभेद सामने आए।
राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ पर महाभियोग लगाने के मामले पर भी दोनों की सहमति थी, लेकिन इसी दौरान जरदारी का यह बयान भी सामने आया कि अगर मुशर्रफ इस्तीफा दे दें तो उन्हें ‘सुरक्षित रास्ता’ दिया जा सकता है। इसके बाद मुशर्रफ ने इस्तीफा दे दिया और जरदारी राष्ट्रपति पद के लिए ख़ुद उम्मीदवार बन गए।
एमक्यूएम (मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट), एएनपी (अवामी नेशनल पार्टी), जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम, आफ़ताब शेरपाओ और मुस्लिम लीग (क़ायद-ए-आज़म) के फ़ारवर्ड ब्लॉक ने जऱदारी को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दिया। मुस्लिम लीग (नवाज़) और मुस्लिम लीग (क़ायद-ए-आज़म) ने अपना उम्मीदवार खड़ा किया लेकिन उनका उम्मीदवार हार गया।
कार्यकाल पूरा करने वाले पहले राष्ट्रपति
आसिफ जरदारी 2008 से 2013 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे। वह पहले नागरिक राष्ट्रपति थे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। राष्ट्रपति के रूप में उनके उल्लेखनीय फैसलों में असेंबली को भंग करने का अधिकार संसद को वापस करना, 18वें संवैधानिक संशोधन के जरिए राज्यों की स्वायत्तता बहाल करना और फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज) के सुधार प्रमुख थे।
इसके अलावा उनके फैसलों में सूबा-ए-सरहद को खैबर पख़्तूनख़्वा नाम देना, गिलगित बल्तिस्तान को स्वायत्तता देना और बलूचिस्तान को अधिकार देने का पैकेज भी शामिल है।
इस्टैब्लिशमेंट से टकराव न लेने की नीति
जनरल परवेज मुशर्रफ के पाकिस्तान पर आठ साल के शासनकाल के बाद आसिफ जरदारी ने जब नागरिक राष्ट्रपति के तौर पर पद संभाला तो उन्होंने इस्टैब्लिशमेंट के साथ संबंध में संतुलन बनाने की कोशिश की।
विकीलीक्स में उजागर किए गए कूटनीतिक दस्तावेजों के अनुसार अमेरिकी राजदूत पीटरसन ने अपनी सरकार को लिखे एक पत्र में कहा कि अशफाक कयानी (पूर्व आर्मी चीफ़) यह इशारा कर चुके हैं कि वह जऱदारी को हटाना चाहते हैं। लेकिन उन्हीं दिनों आसिफ जरदारी का यह बयान भी सामने आया था कि वह ‘राष्ट्रपति भवन से एंबुलेंस में बाहर निकलेंगे।’
पाकिस्तानी फौजी इस्टैब्लिशमेंट से टकराने वाले नेताओं की आमतौर पर दोबारा सत्ता में वापसी कठिन हो जाती है, लेकिन आसिफ अली जरदारी दूसरी बार राष्ट्रपति बन रहे हैं तो यह सवाल पैदा हुआ कि परवेज मुशर्रफ और अशफाक परवेज कयानी समेत सेना प्रमुखों की नापसंदीदगी के बावजूद वह सत्ता में कैसे आ जाते हैं?
विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार सोहैल वड़ैच कहते हैं, ‘जब से पीपुल्स पार्टी का नेतृत्व जऱदारी के पास आया है, उन्होंने कोशिश की है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सेना विरोधी राजनीति की छवि को बदला जाए। यही वजह है कि उन्होंने आज तक कोई आंदोलन नहीं चलाया और अगर इस्टैब्लिशमेंट से कोई शिकायत हुई भी तो उसको तुरंत दूर कर लिया।’
‘जब वह राष्ट्रपति भवन में थे तो मेमो गेट स्कैंडल आया। एक बार उनका जनरल राहिल शरीफ़ के साथ विवाद भी हुआ लेकिन उन्होंने इसको हल कर लिया था। वह ख़ुद और अपनी पार्टी को दोनों विवादों से बाहर निकलने में कामयाब हुए। उनके नेतृत्व में अब शायद यही रणनीति है कि अब हमें न जेल जाना है और न कोड़े खाने हैं। शायद यही सोच है कि जब मुश्किल वक़्त आता भी है तो वह उससे निपट कर आगे बढ़ जाते हैं।’
शहीद जुल्फिकार अली भुट्टो इंस्टीट्यूट आफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर रियाज शेख कहते हैं कि आसिफ जरदारी में राजनीतिक तौर पर लचक ज़्यादा है जो उनके प्रतिद्वंद्वी नेताओं नवाज शरीफ और इमरान खान में कम नजर आती है।
डॉक्टर रियाज़ के अनुसार आसिफ़ जऱदारी के पहले राष्ट्रपति काल में चार-पांच मौक़े ऐसे आए जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का इस्टैब्लिशमेंट के साथ टकराव हो सकता था लेकिन उन्होंने कामयाबी के साथ इससे बचकर इस्टैब्लिशमेंट की बात भी मानी और मामले को सुलझा लिया।
डॉक्टर रियाज़ के अनुसार पहला मामला मुंबई हमलों का था। ‘आसिफ जरदारी जैसे ही सत्ता में आए तो उस समय मुंबई हमले हो चुके थे और आसिफ जरदारी को इस मामले की गंभीरता का शायद बहुत अंदाज़ा नहीं था। उन्होंने अपने तौर पर यह कह दिया कि भारत आरोप लगा रहा है तो ‘हमारा डीजी, आईएसआई भारत चला जाए और बातचीत करके समस्या को हल करे क्योंकि हमारे हाथ साफ हैं।’ सेना ने उनके बयान पर आपत्ति की तो उन्होंने एक और बयान में कह दिया कि डीजी, आईएसआई नहीं जाएगा।
‘उन्होंने इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और इस्टैब्लिशमेंट की बात मान ली। इसकी तुलना में अगर इमरान खान का विश्लेषण किया जाए तो जनरल फैज हमीद के मामले में उन्होंने अहम् दिखाया जिससे एक नया विवाद खड़ा हो गया। इसी तरह नवाज शरीफ का जहांगीर करामात के साथ उस समय टकराव हुआ जब उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल बनाने की बात की थी और नवाज शरीफ नहीं माने थे। इसके अलावा करगिल के मामले पर उनका मुशर्रफ के साथ विवाद हुआ। लेकिन आसिफ जरदारी ने इसके उलट किसी समय भी टकराव की नीति नहीं अपनाई।’
डॉक्टर रियाज़ शेख़ एक और घटना के बारे में बताते हैं जो आसिफ़ जऱदारी के राष्ट्रपति काल के दौरान घटी। उनके अनुसार कैबिनेट ने फ़ैसला लिया था कि इंटेलिजेंस ब्यूरो और आईएसआई केंद्रीय गृह मंत्रालय के मातहत रहेंगे। इसका नोटिफिक़ेशन भी जारी हो गया मगर इस फैसले पर इस्टैब्लिशमेंट की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई और सरकार को नोटिफिक़ेशन वापस लेना पड़ा।
डॉक्टर रियाज़ के अनुसार इसी तरह अमेरिकी नागरिक रेमंड डेविस की गिरफ़्तारी का मामला हो या एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की मौत की कहानी, जऱदारी ने वही स्टैंड लिया जो इस्टैब्लिशमेंट का था। ‘यह लचक ही है जिसकी वजह से वह सुरक्षित रहे हैं।’
‘लम्स’ (लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनेजमेंट साइंसेज़) के प्रोफेसर और ‘पॉलिटिकल कनफ़्िलक्ट ऑफ़ पाकिस्तान’ नाम की किताब के लेखक मोहम्मद वसीम कहते हैं कि आसिफ जरदारी इस्टैब्लिशमेंट के लिए कभी ख़तरा नहीं रहे।
प्रोफेसर वसीम के अनुसार ज़ुल्फिक़़ार अली भुट्टो और बेनज़ीर भुट्टो के उलट आसिफ़ अली जऱदारी कभी करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक नहीं रहे, वह सीधे कभी जनता में नहीं गए और न ही जनता को कभी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ किया।
आसिफ जरदारी ने दूसरी बार राष्ट्रपति पद क्यों संभाला
आसिफ अली जरदारी ने 2008 में राष्ट्रपति चुनाव मुस्लिम लीग (नवाज़) के उम्मीदवार के खिलाफ लड़ा लेकिन इस बार वह पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग (नवाज़) के साझा उम्मीदवार थे। बिलावल भुट्टो ने कुछ दिन पहले कहा था कि हालांकि पीपुल्स पार्टी केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं बनेगी लेकिन उनकी इच्छा है कि उनके पिता देश के राष्ट्रपति बनें।
तो सवाल यह है कि आखिर आसिफ अली जऱदारी ने राष्ट्रपति पद का ही चुनाव क्यों किया?
डॉक्टर रियाज शेख कहते हैं कि राष्ट्रपति को संवैधानिक तौर पर छूट मिली होती है। पाकिस्तान के संविधान और कानून के अनुसार जब तक राष्ट्रपति अपने पद पर होते हैं उनके खि़लाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती और न ही कोई मुक़दमा दायर हो सकता है।
‘पाकिस्तान एक संसदीय प्रणाली है जिसमें असल अधिकार प्रधानमंत्री के पास होता है। तो आसिफ़ जऱदारी यह जताएंगे कि जो काम हो रहा है वह तो मुस्लिम लीग की सरकार और उसका प्रधानमंत्री कर रहा है। और 18वें संवैधानिक संशोधन के बाद तो राष्ट्रपति के अधिकार कुछ ख़ास हैं ही नहीं। इसलिए सरकारी फ़ैसलों का दोष पीपुल्स पार्टी को नहीं दिया जा सकता।’
डॉक्टर रियाज़ शेख़ की राय में दूसरी बात यह होगी कि जब मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार निजीकरण और दूसरे इसी तरह के कड़े फैसले लेगी तो हर क़ानून को राष्ट्रपति के पास से गुजऱना होगा। वह सरकार के प्रस्ताव को वापस भेज सकते हैं या उसका विरोध कर सकते हैं, मगर इसके बावजूद कुछ समय के बाद संसद से पास होने वाले बिल स्वत: क़ानून बन जाएंगे। दूसरी ओर संभावित तौर पर राष्ट्रपति को लोकप्रियता मिलेगी कि उन्होंने ‘जन विरोधी’ बिल पर हस्ताक्षर नहीं किए और ‘जनता के एजेंडे’ पर बात की।
‘इस स्थिति में बदनामी मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार की होगी जबकि राष्ट्रपति अपना काम करके जनता की सहानुभूति भी लेंगे और राष्ट्रपति का काम भी चलता रहेगा।’
लेकिन प्रोफ़ेसर मोहम्मद वसीम आसिफ जरदारी की ओर से राष्ट्रपति पद संभालने के फैसले को ‘कमजोर फैसला’ बताते हैं।
उनकी राय है कि पीपुल्स पार्टी की यह सोच है कि यह सरकार अधिक दिन तक नहीं चलेगी क्योंकि सरकार को बहुत से आर्थिक और सुरक्षा के गंभीर मामलों का सामना करना होगा, इसलिए इस समय कोई बड़ी जिम्मेदारी न ली जाए।
‘अगर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सरकार का हिस्सा बनती है तो जि़म्मेदारी लेनी पड़ेगी इसलिए केवल संवैधानिक पद लिए जाएं, जिसका मतलब गवर्नर और राष्ट्रपति के पद हैं जो पांच साल तक चल सकते हैं।’
आसिफ जरदारी के लिए चुनौती क्या होगी?
डॉक्टर रियाज शेख का कहना है कि आसिफ़ जऱदारी जिस राजनीतिक माहौल में राष्ट्रपति भवन में बैठेंगे उसमें उन्हें संतुलन के साथ चलना होगा।
‘एक ओर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में इमरान ख़ान की सरकार होगी, कई ऐसी बातें हैं जिसमें वह केंद्र सरकार से संपर्क करेंगे और जब जवाब नहीं मिलेगा तो वह फिर राष्ट्रपति से संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा पंजाब सरकार को भी बैलेंस करके चलना पड़ेगा।’
विश्लेषक सोहैल वड़ैच कहते हैं, ‘राष्ट्रपति का पद संवैधानिक पद है, इसे प्रशासनिक फैसले तो नहीं करने होते। वह सरकार और प्रशासन के बीच एक पुल हैं और राज्यों के बीच भी। वह संघीय शासन के प्रतीक हैं। ऐसे में उनके लिए कोई विशेष चुनौती नहीं होगी। इसलिए उन्हें चाहिए कि सरकार को चलने दें। राज्यों के साथ सामंजस्य बनाए रखने की कोशिश करें और फैसले लेने में सकारात्मक रवैया अपनाएं।’
सोहैल वड़ैच के अनुसार मुस्लिम लीग (नवाज) को विश्वास है कि वह रुकावट नहीं बनेंगे। ‘इसीलिए ख़ुशी-ख़ुशी राष्ट्रपति पद पर सहमति जता दी। अगर उन्हें शक होता कि कोई मुश्किल पैदा करेंगे तो यह मामला इतनी आसानी से तय नहीं हो पता।’
प्रो. मोहम्मद वसीम कहते हैं कि नवाज लीग में शहबाज शरीफ की राजनीतिक शैली आसिफ जरदारी की राजनीतिक शैली से मेल खाती है यानी समझौते की राजनीति। ‘दोनों इस्टैब्लिशमेंट के साथ मामला निभाने में माहिर हैं। इसलिए इस बार शायद तकरार जल्दी न हो।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे संविधान निर्माताओं ने जब आजाद देश के लिए नया संविधान गढ़ा था तब उन्होंने सपनों में भी यह कल्पना नहीं की होगी कि सेवा के लिए राजनीति में आने वाले नेता आज़ादी के कुछ साल बाद मेवा के लिए राजनीति में आने लगेंगे और राजनीति अपराधी तत्वों के लिए सबसे सुरक्षित पनाहगाह बन जाएगी। संविधान निर्माताओं ने संसद और विधानसभाओं को लोकतंत्र के सबसे पवित्र सेवास्थल मानते हुए ही यह प्रावधान किए होंगे कि सासंद और विधायक जब इन पूजा स्थलों में प्रादेशिक और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर चर्चा करेंगे तो संसद और विधानसभाओं के अंदर होने वाली अप्रिय गतिविधियों को भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। इसी का फायदा उठाकर अपराधी प्रवृत्ति के सासंद और विधायक संसद और विधानसभाओं में गाली गलौज, एक दूसरे पर अनर्गल आरोप और मारपीट तक कर लेने के बावजूद सजा पाने से बच जाते हैं।
1998 में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय बैंच ने तीन दो के बहुमत से यह फैसला दिया था कि घूस लेकर संसद में सरकार के पक्ष मे वोट देना भी सांसदों के विशेष अधिकार में आता है इसलिए उन्हें सजा नहीं दी जा सकती। यह फैसला तर्क संगत नहीं लगता था।अब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय बैंच ने सर्वसम्मति से इस फैसले को पलट दिया है। यह अजीब सा लगता है कि नरसिंह राव और लालकृष्ण आडवानी को इस वर्ष भारत रत्न से नवाजा गया है। विगत में इन दोनों की भूमिका अपराधी सांसदों को बचाने की रही है। नरसिंह राव तो सांसदों की खरीद फरोख्त के सबसे बड़े लाभार्थी थे। लाल कृष्ण आडवाणी उन सांसदों के निष्कासन को बडी सजा बता रहे थे जिन्हें पैसा लेकर संसद में प्रश्न पूछने पर निष्कासित किया गया था। वे ऐसे सांसदों के पक्ष मे सदन से वाक आउट कर रहे थे जब कोबरा के स्टिंग ऑपरेशन में कई दलों के सासंद फंसे थे। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा पर इसी तरह के आरोप लगे हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उनके लिए भी मुसीबत का पहाड़ साबित हो सकता है। हालांकि उनके मामले में तकनीकी कारण से यह राहत मिल सकती है कि उनकी घटना इस फैसले से आने के पहले की है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कुछ महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी की हैं जिनसे निष्कर्ष निकलता है कि जन प्रतिनिधियों को अपने संविधानिक दायित्वों के निर्वहन के दौरान किए गए किसी भी तरह के भ्रष्ट आचरण को संसदीय संरक्षण की आड़ में माफ नहीं किया जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब घूस लेकर संसद और विधानसभाओं में प्रश्न पूछने, मोटी रकम लेकर दल बदल कर चुनी हुई सरकार गिराने या अल्पमत की सरकार बनवाने वाले भ्रष्ट जन प्रतिनिधि ऐसा करके बच नहीं पाएंगे और संबंधित राजनीतिक दल ऐसे नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही कर सकेंगे।
यह बात भी गौरतलब है कि दो दशक पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के पक्ष मे निर्णय दिया था तब पांच सदस्यीय पीठ में दो न्यायधीश उस निर्णय के पक्ष मे नहीं थे। नए फैसले में सात न्यायाधीशों ने सर्व सम्मति से भ्रष्ट जन प्रतिनिधियों के खिलाफ फैसला दिया है। इसका एक बड़ा कारण यह भी लगता है कि विगत कुछ वर्षों में सरकारों को बनाने और गिराने की उठापटक के कई मामले अखबारों की सुर्खियां बने हैं और याचिकाओं के रुप में विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी आए हैं जिससे न्यायपालिका को भी यह अहसास हुआ कि जन प्रतिनिधियों में बढ़ता भ्रष्ट आचरण लोकतंत्र को खोखला कर रहा है।
सिद्धार्थ ताबिश
अगर आप चालीस या पैंतालीस के हो चुके हैं तो जान लीजिये कि अब ये समय आपके लिए नयी यात्रा शुरू करने वाला है। पुरानी सारी यात्राएं, सारे पुराने ढर्रे, पुराने रीति रिवाज और पुराने सब कुछ सीखे हुवे को पीछे छोडक़र आपको बिल्कुल नए तरीके से अब आगे बढऩा है.. वो आपको इसलिए करना है ताकि मरते समय आप वो हो सकें जिसके लिए आप यहाँ जीने आये हैं। यानि ‘स्वयं’ हो सकें।
उसके लिए सबसे पहला काम ये करना है कि अगर आप बड़े हैं तो आपको लोगों यानि इंसानों को ‘कण्ट्रोल’ यानि ‘नियंत्रित’ करना बंद करना होगा.. पूरी तरह से.. वो चाहे आपका बेटा हो, पत्नी हो, भाई हो या बहन हो, आपको हर किसी पर से अपना ‘नियंत्रण’ हटाना होगा। इसे धीरे धीरे शुरू करना होगा। ये स्वीकार करना होगा कि कोई कुछ भी कर रहा है उस से आप ‘प्रभावित’ नहीं होंगे.. किसी अन्य द्वारा किया गया कोई भी कार्य जो उसने अपने लिए किया है वो आपको ‘प्रभावित’ नहीं करेगा। उदाहरण के लिए आपका बेटा स्कूल में फेल हो गया तो वो आपको प्रभावित नहीं करेगा, दुखी नहीं करेगा, और आपको पागल नहीं बनाएगा। और आपको उसके लिए अपना जी जान अब नहीं लगाना है। आप सिर्फ लोगों को रास्ता दिखा देंगे, उनको समझा देंगे और अगर वो मार्गदर्शन मांगते हैं तो उन्हें देंगे। वरना नहीं.. बिना मांगे किसी को कोई मार्गदर्शन आपको नहीं देना है, चाहे वो आपका अपना बेटा ही क्यूँ न हो.. आपको लगता है कि आप ये सब कुछ नहीं संभालेंगे तो बर्बाद हो जाएगा। नहीं.. ऐसा कहीं नहीं होता है.. इस मानसिकता से बाहर आ जाइए। अपना नियंत्रण पूरी तरह से खोना शुरू कर दीजिये
बड़ी उम्र के लोगों की सबसे बड़ी समस्या यही होती है.. वो अपने हिसाब से अपना घर, खानपान, रहन सहन, पढ़ाई-लिखाई, सब का जीना और मरना नियंत्रित करने में लगे रहते हैं। भारत में हर घर में आपको यही हाल मिलता है.. और ये नियंत्रित करने वाले व्यस्क और बूढ़े कभी ये समझ ही नहीं पाते हैं कि जिन्हें वो नियंत्रित करने में फंसे हैं, वो दरअसल भीतर से उनके मरने का इंतजार कर रहे हैं। जैसे ही वो मरेंगे, पूरा घर अपने हिसाब से जीना शुरू कर देगा।
आप लोगों को अपने हिसाब से जीने ही नहीं दे रहे हो और आप अपने ‘नियंत्रण के पागलपन’ को अपना धर्म, संस्कृति, परंपरा और जाने क्या क्या बोलकर जस्टिफाई किया करते हो।
जिस दिन आपने लोगों पर नियंत्रण छोड़ दिया। आप आजाद हो जाते हैं और आप जैसे ही दूसरों को आजाद करते हैं, आप अपने आप ही आजाद हो जाते हैं जो ये कहता है कि उसे जीने की आजादी नहीं मिल रही है वो दरअसल दूसरों को नियंत्रित करने में फंसा रहता है। इसलिए अपनी आजादी चाहते हो और स्वयं का साक्षात्कार करना चाहते हो तो नियंत्रण करना छोड़ो.. लोगों से दूरी बनाकर उन्हें ऐसे देखना शुरू करो जैसे तुम मर चुके हो.. और ये जो भी कर रहे हैं सब तुम्हारे मरने के बाद कर रहे हैं। उन्हें जीने दो अपने हिसाब से.. फिर वो भी तुम्हें जीने देंगे तुम्हारे हिसाब से।
दयानिधि
दुनिया भर के कई हिस्सों में जारी अल नीनो की घटना के कारण जून 2024 तक सतही हवा का तापमान रिकॉर्ड पर पहुंचने की आशंका जताई गई है। अध्ययन के मॉडलिंग से पता चलता है कि मध्यम या शक्तिशाली अल नीनो के कारण समान अवधि के दौरान वैश्विक औसत सतही तापमान के चरम को छूने के 90 फीसदी आसार हैं।
यहां बताते चलें कि दुनिया भर के कई हिस्सों, जिनमें बंगाल की खाड़ी, फिलीपींस और कैरेबियन सागर में अल नीनो की घटना जारी है।
अध्ययन में कहा गया है कि अल नीनो-दक्षिणी दोलन, जो उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में केंद्रित है, दुनिया भर में जलवायु में बदलाव का एक प्रमुख कारण है। इसका गर्म चरण, अल नीनो और ठंडा चरण, ला नीना, दोनों मौसम में बदलाव करने के लिए जाने जाते हैं। अल नीनो के दौरान पश्चिमी प्रशांत महासागर से वायुमंडल में जारी गर्मी के कारण वार्षिक वैश्विक औसत सतही तापमान (जीएमएसटी) में तेजी से वृद्धि होती है।
वार्षिक वैश्विक औसत सतही तापमान (जीएमएसटी) में मामूली वृद्धि क्षेत्रीय आधार पर अत्यधिक तापमान की घटनाओं के दौरान सतह के हवा के तापमान में भारी वृद्धि से जुड़ी हुई है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययन के मुताबिक, अध्ययनकर्ता कांगवेन झू और उनके सहयोगियों ने जुलाई 2023 से जून 2024 के बीच 1951 से 1980 के औसत सतही हवा के तापमान में क्षेत्रीय भिन्नता पर 2023-24 में अल नीनो के प्रभावों का मॉडल तैयार किया। उन्होंने इस अवधि का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए किया कि अल नीनो की चरम पर होने का समय यानी नवंबर और जनवरी के बीच की घटना को हमेशा शामिल किया।
अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि मध्यम अल नीनो परिदृश्य के तहत, बंगाल की खाड़ी और फिलीपींस में इस अवधि के दौरान रिकॉर्ड-तोड़ औसत सतही हवा के तापमान होने का पूर्वानुमान लगाया गया।
एक शक्तिशाली अल नीनो के तहत, कैरेबियन सागर, दक्षिण चीन सागर और अमेजन और अलास्का के क्षेत्रों में भी औसत सतही हवा के तापमान के रिकॉर्ड-तोड़ होने का पूर्वानुमान लगाया गया था।
अध्ययनकर्ताओं ने इसी अवधि में वार्षिक वैश्विक औसत सतही तापमान (जीएमएसटी) पर अल नीनो के प्रभावों का भी मॉडल तैयार किया और पाया कि मध्यम या शक्तिशाली अल नीनो के तहत, 90 फीसदी तक के आसार थे कि जीएमएसटी ऐतिहासिक रिकॉर्ड तोड़ देगा।
मध्यम परिदृश्य में, अध्ययनकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि 2023-24 जीएमएसटी 1951-1980 के बेंचमार्क औसत से 1.03-1.10 डिग्री सेल्सियस ऊपर है, जबकि मजबूत परिदृश्य के तहत, उन्होंने अनुमान लगाया कि जीएमएसटी उस औसत से 1.06-1.20 डिग्री सेल्सियस ऊपर है।
अध्ययनकर्ताओं ने चेतावनी देते हुए कहा है कि रिकॉर्ड तोडऩे वाला औसत तापमान हो सकता है अतिरिक्त गर्मी के परिणामों से निपटने के लिए उन इलाकों की मौजूदा क्षमता को चुनौती देगा।
उन्होंने इस बात पर भी गौर किया कि सतही हवा का तापमान बहुत अधिक होने से चरम मौसम की घटनाओं में भारी वृद्धि होने की आशंका है। इन घटनाओं में जंगल की आग, उष्णकटिबंधीय चक्रवात और लू या हीटवेव की घटनाएं शामिल हैं। ये घटनाएं समुद्री और तटीय क्षेत्रों में जहां समुद्र में बढ़ती गर्मी के कारण यह जलवायु परिस्थितियों को जन्म दता है और इस तरह यह लंबे समय तक बना रह सकता है।
(डाऊन टू अर्थ)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
इस साल यूरोप में एक बड़ा बदलाव हो रहा है, यह बदलाव दिखाई दे रहा है यूरोपीय देशों में शिशुओं की संख्या में। पिछले साल फ्रांस में छह लाख 78 हजार बच्चों का जन्म हुआ। दूसरे महायुद्ध के बाद से पहली बार देश में एक साल में इतने कम बच्चे पैदा हुए हैं।
देश में घटती जन्म दर की समस्या केवल फ्ऱांस में ही नहीं बल्कि इटली, स्पेन और पुर्तगाल में भी है, जहां दशकों से जन्म दर घटती जा रही है।
यूरोप के कई अन्य देशों में भी जन्म दर में रिकॉर्ड गिरावट आ रही है। वहां कि सरकारों को चिंता है कि अगर इस समस्या का हल नहीं निकाला गया तो भविष्य में अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखना मुश्किल हो जाएगा।
कई यूरोपीय देशों की आबादी बूढ़ी हो रही है। इस समस्या को सुलझाने के लिए यूरोपीय सरकारों ने आबादी बढ़ाने के लिए अरबों यूरो का निवेश भी किया है लेकिन अभी तक उसका कोई फल नजर नहीं आ रहा क्योंकि स्थिति में कोई खास फर्क नहीं आया है।
इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या यूरोप अपनी गिरती प्रजनन दर को दोबारा बढ़ा सकता है?
प्रेगनेंसी पॉज
फिनलैंड की पॉप्यूलेशन रिसर्च इंस्टिट्यूट की शोध निदेशक एना रोथकेर बताती हैं कि सदी की शुरुआत में फिनलैंड की प्रजनन दर ऊंची थी और बढ़ रही थी।
लेकिन आगे बढऩे से पहले कुछ परिभाषाओं को समझना ज़रूरी है। प्रजनन दर का मतलब है- सैद्धांतिक रूप से प्रति महिला औसत शिशु जन्म दर, बशर्ते कि वह उस समय तक जीवित रहे जब तक वह गर्भधारण कर सकती है। यूरोपीय संघ की औसत प्रजनन दर 1.53 है।
एना रोथकेर कहती हैं, ‘2011 में फिऩलैंड में प्रजनन दर 1.9 थी जो फिऩलैंड के हिसाब से काफी अच्छी दर थी लेकिन 2023 में वो घट कर 1.3 से भी कम हो गई है। यानि प्रजनन दर में 32 फीसद की गिरावट आयी है।’
जन्म दर का अर्थ है प्रति एक हज़ार लोगों के हिसाब से औसतन कितने बच्चे जन्म लेते हैं। तो जन्म दर में भी भारी गिरावट देखी गई। एना रोथकेर कहती हैं कि 2010 के बाद से फिनलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और डेनमार्क जैसे दूसरे नॉर्डिक देशों में जन्म दर में गिरावट आना शुरू हो गया था। वह कहती हैं हालांकि यहां शिशु और माताओं के स्वास्थ्य की बेहतरीन सुविधाएं हैं और अच्छी परिवार कल्याण योजनाएं हैं जो कि नॉर्डिक देशों की विशेषता है, मगर उसके बावजूद प्रजनन दर गिर रही है। ऐसे में इसके क्या कारण हो सकते हैं?
एना रोथकेर ने कहा, ‘बेरोजग़ारी और साथी ढूंढने में दिक्कत का भी गर्भधारण पर प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा समाज और संस्कृति में आ रहे परिवर्तन का भी इस पर असर पड़ रहा है।’
एना रोथकेर के अनुसार फिनलैंड में सरकारी संस्थाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों में पाया गया कि सर्वेक्षणों में भाग लेने वालों में पंद्रह फीसद लोग बच्चे पैदा करना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनके रहन-सहन में बड़ा बदलाव आएगा। इस शोध के दौरान लोगों की माता-पिता बनने से जुड़ी कई धारणाएं भी सामने आईं जिनमें कुछ सकारात्मक थीं और कुछ नकारात्मक।
एना रोथकेर कहती हैं, ‘जो लोग बच्चे पैदा करना नहीं चाहते उन्होंने यह वजह बताई कि मां-बाप बनने से वह कम सो पाएंगे और कम आराम कर पाएंगे। या करियर को आगे बढ़ाने में दिक्कत आएगी। और जो लोग बच्चे पैदा करना चाहते हैं वो इसके सकारात्मक पहलू को देखते हैं।’
‘वैसे देखा जाए तो नॉर्डिक देशों में लोगों की आय अच्छी है, उनके पास पैसे भी हैं और समय भी। और वह बच्चों और परिवार की जिम्मेदारी आसानी से निभा सकते हैं। लेकिन शायद उन्हें यह बात सही तरीके से समझाई नहीं गई है।’
यह एक कारण है जिससे इन देशों में प्रेगनेंसी पॉज आ गया है यानि महिलाओं में गर्भधारण बहुत कम हो गया है। कई महिलाओं के सामने यह समस्या है कि जब तक वह मां बनने का फैसला करें तब तक समय निकल जाता है या उम्र बढऩे से उसमें दिक्कतें पेश आती हैं।
मगर क्या यह ट्रेंड बदलने के कोई आसार दिखाई दे रहे हैं? एना रोथकेर कहती हैं कि कोविड की महामारी के दौरान 2021 में कुछ समय के लिए नॉर्डिक देशों में जन्म दर बढ़ गई थी लेकिन 2022 में वह फिर नीचे आ गई। इस दौरान कुछ समय के लिए जन्मदर स्थिर भी हुई। लेकिन पिछले कई सालों में प्रजनन दर में जिस प्रकार की गिरावट आई है उसकी किसी को अपेक्षा नहीं थी।
प्रजनन दर में लगातार गिरावट
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष में अर्थशास्त्र और जनसांख्यिकी यानि डेमोग्राफिक्स के वरिष्ठ सलाहकार माइकेल हर्मन की राय है कि अगर प्रजनन दर बहुत नीचे आ जाए तो उसे दोबारा बढ़ाना बहुत मुश्किल होता है।
यह संस्था विश्वभर में जनसंख्या से जुड़े मामलों पर काम करती है। माइकेल हर्मन ने बताया कि यूरोप में इटली, पुर्तगाल, ग्रीस, सर्बिया और दक्षिण पूर्वी यूरोपीय देशों में प्रजनन दर 1।3 के करीब आ गई है। हम कह सकते हैं कि यूरोपीय देश दुनिया को डेमोग्राफिक्स में आ रहे नए बदलाव की दिशा में ले जा रहे हैं। इससे पहले हमने कभी जनसंख्या में इस प्रकार लगातार गिरावट नहीं देखी है।
दुनिया में सबसे कम प्रजनन दर दक्षिण कोरिया में है। साथ ही ईरान, मॉरिशस और लातिन अमेरिका के कुछ गऱीब देशों में भी पिछले कुछ सालों में प्रजनन दर घटी है।
कुछ देशों में प्रजनन दर घटने के विशेष कारण रहे हैं। मिसाल के तौर पर चीन में जहां जनसंख्या नियंत्रण के लिए 1979 में प्रति दंपत्ति केवल एक बच्चे का नियम लागू कर दिया गया था जिसे अभी नौ साल पहले ही रद्द किया गया।
माइकेल हर्मन ने कहा, ‘इस ट्रेंड को बदल कर प्रजनन दर बढ़ाना बहुत मुश्किल होता है। चीन में भी यही हो रहा है। दरअसल काम और घरेलू जीवन के बीच संतुलन बनाने में आने वाली दिक्कत भी इसका एक कारण है। वहीं बच्चों की देखभाल के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती। इस वजह से फिलहाल चीन में कई लोग दो या तीन बच्चे पैदा नहीं करना चाहते।’
माइकेल हर्मन कहते हैं कि जन सर्वेक्षणों के अनुसार कई देशों में लोगों के बच्चे पैदा ना करने के अन्य कारण भी हैं। जैसे कि कुछ लोग बिगड़ते पर्यावरण की वजह से या अपने देश की बदहाल राजनीतिक स्थिति की वजह से भी बच्चे पैदा करना नहीं चाहते। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में सुधार आने से प्रजनन दर बढ़ जाएगी। यह मसला काफी पेचिदा है।
माइकेल हर्मन ने कहा, ‘जापान, कोरिया और यूरोप कई देश प्रजनन दर बढ़ाने के लिए अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं। हम कह सकते हैं कि इस दिशा में हंगरी को इसमें सफलता जरूर मिली है। 2010 से 2022 के बीच हंगरी की कुल प्रजनन दर में 25 फीसद वृद्धि हुई है।’
हंगरी की राष्ट्रवादी सरकार ने प्रवासन यानि इमीग्रेशन के बजाय प्रजनन को प्राथमिकता देने की नीति अपनाई हुई है। सरकार लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए टैक्स में भारी छूट देती है। जो विवाहित लोग बच्चे पैदा करना चाहते हैं, उन्हें मकान खरीदने के लिए आर्थिक सहायता दे रही है। मगर समलैंगिक जोड़ों को यह सहायता नहीं दी जाती। अफ्रीका में प्रजनन दर ऊंची है लेकिन वहां भी कई देशों में वह कम है।
माइकेल हर्मन के अनुसार पचास साल पहले अफ्ऱीका में औसत प्रजनन दर 6.5 थी। अब वह घट कर 4.1 हो गई है। अनुमान है कि साठ साल बाद यह घट कर 2.1 रह जाएगी। मगर एरिट्रिया में प्रजनन दर 6.5 है जो कि काफी ऊंची है।
विश्व की आबादी बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार दुनिया की आबादी 2022 में आठ अरब के ऊपर चली गई है। लेकिन अनुमान है कि गिरती प्रजनन दर की वजह से भविष्य में आबादी की वृद्धि दर धीमी हो जाएगी। अब लोगों की अधिक अपेक्षित आयु बढ़ रही है। कई देशों की सरकारों के सामने समस्या है कि बूढ़ी आबादी के पेंशन का खर्च कैसे उठाया जाए क्योंकि जन्म दर के घटने से बाजार में नए श्रमिकों की किल्लत बढ़ती जा रही है। इसका सीधा असर देशों की उत्पादकता पर पड़ रहा है। प्रजनन दर बढ़ भी जाए तब भी इसके जरिए श्रमिकों की कमी को पूरा करने में कई दशक लग जाएंगे।
प्रजनन संबंधी सरकारी नीतियां
इटली के मिलान शहर की बोकोनी यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस सेंटर में डेमोग्राफ़ी यानि जनसांख्यिकी के प्रोफेसर एमस्टेन आसेव की राय है कि जिन देशों में महिला और बाल कल्याण की अच्छी योजनाएं कायम रही हैं जिसके तहत महिलाओं को मैटरनिटी लीव या छुट्टी और बच्चों की देखभाल के लिए बेहतर सुविधाएं और आर्थिक सहायता मिलती रही है, वहां प्रजनन दर अच्छी रही है। उसमें गिरावट कम आई है।
‘महिलाओं और परिवार संबंधी नीतियां प्रजनन दर बढ़ाने के उद्देश्य से नहीं बल्कि महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए बनायी गयी थीं। लेकिन इससे प्रजनन दर बढऩे में भी मदद मिली। इसका मतलब है कि प्रजनन दर बढ़ाने के लिए नीतियां बनाते समय हमें कई और बातों के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि केवल प्रजनन दर को बढ़ाने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियां संभवत: उतनी सफल ना हों।’
जो संदेह एमस्टेन आसेव जता रहे हैं वैसी ही बात फ्रांस में भी देखी जा रही है, जहां इन नीतियों के जरिए लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने में दिक्कत आ रही है।
एमस्टेन आसेव कहते हैं, ‘फ्रांस उन देशों में है जिसकी परिवार संबंधी नीतियों को काफ़ी बेहतर माना जाता रहा है। यूरोप के अन्य देशों की तुलना में फ्ऱांस की प्रजनन दर हमेशा अच्छी रही है। इसमें पिछले कुछ सालों में जो गिरावट आई है वो भविष्य में भी जारी रहेगी या नहीं यह कहना मुश्किल है। दूसरा उदाहरण जर्मनी का है जहां कुछ सालों पहले घटती प्रजनन दर को लेकर काफ़ी चिंता थी लेकिन उसने नॉर्डिक देशों की तजऱ् पर परिवार कल्याण संबंधी नीतियां लागू कीं और परिवारों को बच्चों की परवरिश के लिए सहायता देना शुरू किया। यह नीति काफ़ी हद तक सफल भी हुई है क्योंकि जर्मनी के प्रजनन दर में वृद्धि हुई है।’
मगर यूरोप के कई देश कई पीढिय़ों से प्रजनन दर बढऩे का इंतजार कर रहे हैं।
एमस्टेन आसेव के अनुसार इटली और स्पेन में पिछले करीब 30 सालों से प्रजनन दर कम रही है। ऐसा नहीं है कि वहां प्रजनन दर घटती गई है बल्कि वह कम ही रही है। जाहिर सी बात है कि उन सरकारों के लिए यह चिंता का विषय है।
इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने हाल में कहा था कि देश में जन्मदर बढ़ाना उनकी सरकार की प्राथमिकता होगी। वहीं 2022 में इटली में 18 से 35 वर्ष की आयु के सत्तर फीसद लोग अपने माता पिता के साथ ही रह रहे थे। यानि उनमें से कई लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं। ऐसे में उनके लिए बच्चे पैदा करने का फ़ैसला करना मुश्किल हो जाता है।
एमस्टेन आसेव का मानना है कि युवाओं को सहायता देने से लाभ हो सकता है मगर इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि सरकार की नीतियों में निरंतरता बनी रहे ताकि लोग आश्वस्त हो सकें कि बच्चे पैदा करने के बाद भी सहायता जारी रहेगी।
प्रजनन दर और कितनी गिर सकती है?
ऑस्ट्रियन एकेडमी ऑफ साइंसेज की विएना इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेमोग्राफ़ी के उपनिदेशक टोमस सोबोत्का मानते हैं कि कई देशों में प्रजनन दर रिकॉर्ड स्तर तक नीचे आ गयी है और वह यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह और कितना गिर सकती है।
‘प्रजनन दर जितना नीचे गिरेगी उतना ही भविष्य में उसे बढ़ाना मुश्किल होगा। कई देशों को इसके गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा।’
यह भी एक गंभीर प्रश्न है कि नीति निर्माताओं को किस हद तक लोगों के प्रजनन संबंधी फ़ैसलों को प्रभावित करना चाहिए या लोगों के परिवार संबंधी फ़ैसलों में किस हद तक दख़ल देना चाहिए।
टोमस सोबोत्का का कहना है, ‘हम समाज कल्याण पर आधारित देशों में रहते हैं जिस वजह से इस क्षेत्र में सरकार का दख़ल तो हमेशा से रहा है। मगर हमने इतिहास में यह भी देखा है कि प्रजनन दर बढ़ाने की इस प्रकार की सरकारी नीतियों से लंबे समय में उतनी सफलता नहीं मिलती।’
लोग बच्चे पैदा करें या नहीं और कितने बच्चे पैदा करें इस बारे में लोगों के रूख़ को बदलने के बजाय उसे स्वीकार कर लेना और कम होती आबादी के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था को ढालना भी क्या सही विकल्प हो सकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है किसी देश में प्रजनन दर कितनी तेजी से कम हो रही है।
टोमस सोबोत्का का मानना है कि जिन देशों में जनसंख्या लंबे समय के दौरान धीमी गति से कम हो रही है, वहां की अर्थव्यवस्था और लेबर मार्केट अपने आपको उस स्थिति के अनुसार ढाल सकते हैं। लेकिन जहां जनसंख्या प्रतिवर्ष लगभग एक फीसद से घट रही है, वहां इस समस्या से जूझना चुनौतिपूर्ण होगा क्योंकि लेबर मार्केट में नए श्रमिकों की कमी का असर ढांचागत व्यवस्थाओं पर पड़ेगा। संचार और परिवहन से लेकर सरकारी तंत्र को चलाने के लिए भी लोगों की किल्लत होगी जिसके चलते वो सुचारू तरीके से नहीं चल पाएंगे।
कनाडा जैसे कुछ देश इस समस्या के समाधान के लिए दूसरे देशों से प्रवासियों को लाकर अपने देश में बसाने का रास्ता अपना रहे हैं। लेकिन कई देशों में प्रवासन या इमिग्रेशन के मुद्दे को लेकर ध्रुवीकरण हो रहा है।
टोमस सोबोत्का का कहना है कि घटती प्रजनन दर को एक अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है। यानि जिन देशों में कम बच्चे पैदा हो रहे हैं वहां उन्हें बेहतर शिक्षा और सामाजिक सुविधाएं दी जा सकती हैं जो देश की उत्पादकता बढ़ाने में मददगार होगी और जब यह बच्चे बड़े होंगे तो वहां प्रतिस्पर्धा कम होगी और उन्हें अच्छी तनख़्वाह मिल सकती है।
इसके साथ ही आबादी के घटने से मकानों की उपलब्धता की समस्या भी कम होगी और युवाओं को बेहतर जीवन प्राप्त होगा। तो क्या यूरोप अपनी गिरती प्रजनन दर को दोबारा बढ़ा सकता है? जैसा कि हमने उत्तर यूरोपीय यानि नॉर्डिक देशों में देखा कि लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए उदार आर्थिक सहायता देने की नीति कुछ खास कामयाब नहीं रही है।
ऐसे में सरकार की सामाजिक नीतियों में स्थिरता और निरंतरता बनी रहे तो उसके सफल होने की संभावना अधिक है। पहले जैसी ऊंची प्रजनन दर तक पहुंचना अत्यंत चुनौतिपूर्ण होगा। ऐसे में यूरोपीय देशों के लिए सबसे बेहतर विकल्प यह होगा की वो प्रजनन दर को तेज़ी से गिरने से रोकने पर ध्यान केंद्रित करें। (bbc.com/hindi)
बिना खर्च की शादी करके उत्तर दे सकते हो क्या?
लेकिन क्या तुम्हारे भीतर एक अंबानी सेठ नहीं बैठा है?
*वह दूल्हा जिसने घोड़े को दस मीटर दूर से देखा होता है वह उस दिन घुड़सवार होगा!
*वह दूल्हा जो किसी किसी तरह नये कपड़े पहनता है वह विवाह के दिन लाखों की शेरवानी पहनेगा!
*घर की पुताई रोक कर दिन बिताने वाले लोग होटल या रिसोर्ट की ओर भागते हैं और
*दाल भात तरकारी के लिए तरसने वाले भी छप्पन भोग की आकांक्षा लेकर बारात में जाते हैं!
*दुल्हन के लिए उधार के गहने और लाखों की साडिय़ां खरीदने वाले माँ बाप अगले अनेक साल जोड़ गाँठ से बकाया चढ़ाते हैं!
*न हुआ बड़ा बैंड तो क्या कोई स्थानीय गवैया तो आना ही चाहिए!
*बुआ फूफा चाचा ताऊ जीजा आदि पुराने जूते पहन कर आने में लज्जित होते हैं, आखिर लोग क्या कहेंगे!
*रात भर भयानक तेज संगीत पर नाचना किस विधान में लिखा है, लेकिन नाचना है और वह सब करना है जो सेठ कर रहा है!
*वैसे बस में चलने के लिए किराए पर विचार होगा लेकिन बारात में जाने के बाद एसी कार न हुई तो जन्म जन्मांतर तक लडक़ी वालों को गाली देंगे! और घीसू माधव की तरह पिछली किसी शादी या भोज की स्मृति में विलमते रहेंगे! और विवाह वाले वर कन्या पक्ष इसी में मरता रहता है कि लोग क्या कहेंगे!
फिल्म मदर इण्डिया में सारी समस्या उधार लेकर सैकड़ों बैलगाड़ी से गई बारात है!
याद करिए उन लोगों को जो आय और गाँठ के मूल धन से कई गुना अधिक खर्च करने को ही जीवन का सर्वोत्तम पल मान लेते हैं! वे भी यथार्थ समझे रहे होते हैं लेकिन लोग क्या कहेंगे के फंदे से बाहर झांके तो कैसे!
सारी समस्या लोग क्या कहेंगे में है! जेब क्या कह रही है उसकी रुकी हुई रुलाई अनसुनी करके लोग सेठ की नकल पर पागल होते रहते हैं!
भाड़े की कार पर चिपके फूल की तरह का वैभव लेकर लोग घर लौटते हैं और खुशी की जगह कर्ज और खर्च का विशद विषाद रिटर्न गिफ्ट में लाते हैं!
तो सोच और विचार में औकात हो तो सादा आ मिलन जुलन का आयोजन करो! जो हर दिन खाते हो उससे बेहतर खाओ विवाह में जो हर दिन पहनते हो उससे बेहतर पहनो लेकिन अपने को गिरवी रखकर या सेठ का ताम झाम देखकर कुछ मत करो तो सेठ के खर्चे पर सवाल करो!
-बोधिसत्व
ऋतु तिवारी
आज महिला दिवस पर बधाइयों के बीच मुझे वो दिन याद आ रहा है जिस दिन मैं कोलकाता के सोनागाछी गई थी सेक्स वर्कर्स से मिलने और जानने और समझने कि सोनागाछी के बारे में शहर से लेकर देश -विदेश में जो मिथक हैं उनमें कितनी सच्चाई है और जिन पर फिल्में बनाकर फिल्मकारों ने जाने कितने अवार्ड बटोरे।
सबसे पहला संघर्ष रहा उस गली तक पहुँचना जो उन तक जाती थी।उनके संगठन के ऑफि़स तक पहुँचने में कोई मुश्किल नहीं हुई और संगठन के सेक्रेटरी से बात करने के बाद जब उन्हें संतोष हुआ कि हम किसी गलत नीयत से नहीं आये हैं, एक रास्ता खुला कि उन तक पहुँचा जा सके।
पर वहाँ उस गली में पहुँचते पहुँचते जाने कितनी बार हम पर शक किया गया..पर हम ये बताने में सफल रहे कि हम उनलोगों में से नहीं हैं जिनसे उन्हें डर है। (हमसे डरने का कारण उन्होंने बताया, जिसकी चर्चा एथिक्स के हिसाब से गलत होगा।)
आखिरकार शहर के एक आम रास्ते से होते हुए हम उस गली में पहुँच ही गये जिसके हर मकान की खिडक़ी को बाहर से गुजरने वाला एक ऐसी नजऱ से देखता है मानो उस खिडक़ी के पार दुनिया की सबसे खराब औरत रहती है।
जब हम एक मकान के भीतर घुसे तो दृश्य बिल्कुल वैसा था जैसा सिनेमा में आप सबने देखा होगा कि रात को शरीर बेचने वाली भी दिन में बैठकर बालों में तेल लगा रही है, कोई बच्चे को खाना खिला रही है।जिस बात ने सबसे पहले मुझे चोट पहुँचाई वो ये कि एक अजीब सी हिकारत से हमें देखा गोया हम बाहरी उनकी दुनिया में इतनी आसानी से कैसे घुस आये।
धीरे-धीरे उनके बीच हमने विश्वास कायम किया और उन्होंने हमसे बातचीत शुरू की।
आश्चर्य होगा आप सबको ये जानकर कि उनके बीच जब हम थे तो हमपर बाहर से कुछ युवक नजर रखे हुए थे और बीच बीच में आकर तस्दीक करते थे कि कहीं कुछ संदेहास्पद तो नहीं।
लेकिन अंतत: हम पर भरोसा किया गया और फिर जो सुना, उनकी आँखों से देखा और समझा उसकी बात एक साथ लिखते हुए फोन हैंग हो जायेगा।
पर इतना जरूर देखा हमने कि उन्होंने हमारी आँखों में आँखें डाल कर जिस तरह बात की,बयान किया..हम शर्मिंदा थे..हमारी आँखें नीची थी और उनकी आत्मा पर लगे घाव हम सिर्फ महसूस करने की कोशिश कर रहे थे।
कितना अद्भुत संयोग है कि हम जिसको प्यार करते हैं उसे बाबू कहकर पुकारते हैं, उनके बाबू वो हैं जो उनके लिये ग्राहक लाकर देते हैं।
कितने ही अनुभव उन क्षणों में हमने सुना, उनके दर्द को सुना (हम समझने का दावा कर लें पर ये आसान नहीं तो मैं खुद को नहीं छल सकती।)लेकिन सबसे ऊपर रहा उनके अपने आत्मसम्मान की भावना जिसको बयान किया ही नहीं जा सकता।
वो तो सिर्फ ‘धंधा’ करती हैं कि कोई अपनी अपाहिज बच्ची का इलाज करा सके या कोई अपनी बहन-भाई को पढ़ा सके या फिर किसी के पति ने उसे छोड़ दिया और उसके पास अपने बच्चों को जीवन देने के लिये इसके अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा जो उसकी जरूरत पूरी कर पाये।
फिर हमारे लौटने का वक्त हुआ तो एक उम्रदराज ‘बाबू’ ने मुझे अपना नम्बर देते हुए सिफ$ इतना कहा कि मेरा नम्बर रख लें। शायद आप किसी की कोई भला करना चाहेंगी तो मैं मदद कर सकता हूँ।
इस दुनिया में सेक्स वर्क होम का होना किसी महिला का नहीं बल्कि पुरुषों का चरित्र प्रमाणपत्र है।
संजय ढकाल
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने एक बार फिर से पाला बदल लिया है।
सोमवार को प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) ने नेपाली कांग्रेस से गठबंधन तोड़ नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के साथ गठबंधन बना लिया है।
प्रचंड के इस हालिया फ़ैसले से नेपाली संसद में सबसे ज़्यादा 88 सीटें जीतने वाली नेपाली कांग्रेस पार्टी विपक्ष में हो गई है।
प्रचंड और ओली की पार्टी का कहना है कि दोनों के बीच सरकार को लेकर नया समझौता हो गया है। एक साल से कुछ ही ज़्यादा समय हुआ है कि एक बार फिर से नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का गठबंधन तैयार हुआ है।
प्रचंड और ओली की पार्टी के बीच बने गठबंधन में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (आरएसपी) और जनता समाजवादी पार्टी भी शामिल हैं। सोमवार की शाम प्रचंड ने अपने सभी मंत्रियों को हटा दिया था और अपनी पार्टी, ओली की पार्टी के अलावा आरएसपी से एक-एक नए मंत्रियों को शामिल किया था। प्रचंड ने बाकी के सभी 25 मंत्रालय अपने पास रखे हैं।
नेपाल में 2022 के आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के बीच गठबंधन था। लेकिन चुनाव बाद प्रचंड ने ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत माक्र्सवादी-लेनिनवादी) से गठबंधन कर लिया था।
फिर से साथ आए ओली और प्रचंड
ओली की पार्टी नेपाल में 78 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। नेपाली कांग्रेस ने 25 दिसंबर 2022 को प्रचंड की उस मांग को खारिज कर दिया था, जिसमें वह तीसरी बड़ी पार्टी (32 सीटें) होने के बावजूद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।
लेकिन पिछले साल फऱवरी में ही ओली की पार्टी ने प्रचंड से गठबंधन तोड़ लिया था। प्रचंड की पार्टी ने नेपाल के राष्ट्रपति चुनाव में नेपाली कांग्रेस के नेता रामचंद्र पौडेल का समर्थन किया था।
ओली चाहते थे कि प्रचंड राष्ट्रपति चुनाव में उनकी पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन करें। रामचंद्र पौडेल के राष्ट्रपति बनने के बाद नेपाली कांग्रेस ने एक बार फिर से प्रचंड से हाथ मिला था। लेकिन एक साल से कुछ ही ज़्यादा वक्त हुआ है और प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस से खुद को अलग कर लिया।
नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच सरकार में कई मुद्दों पर मतभेद खुलकर सामने आ रहे थे। लेकिन नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष को लेकर सबसे ज़्यादा कलह थी। नेपाली कांग्रेस नहीं चाहती थी कि नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष का पद प्रचंड की पार्टी के पास जाए।
नेपाली कांग्रेस से मतभेद
नेपाल की नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष का पद अहम होता है क्योंकि संवैधानिक निकायों में सदस्यों की नियुक्तियां उसी की सिफारिश से होती हैं।
12 मार्च को नेपाल में नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष के लिए चुनाव है। नेपाल में बार-बार नई सरकार का बनना कोई नई बात नहीं है। 2008 में नेपाल में राजशाही ख़त्म होने के बाद से 11 सरकारें बन चुकी हैं।
नेपाल की चुनावी व्यवस्था में किसी भी पार्टी के लिए अपने बहुमत पर सरकार बनाना संभव नहीं है। 275 सदस्यों वाली नेपाल की प्रतिनिधि सभा में 165 सदस्यों को सीधे जनता अपने मतों से चुनती है और बाक़ी 110 सदस्यों का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रक्रिया से होता है।
2018 में ओली और प्रचंड ने अपनी पार्टियों का विलय कर बड़ा कम्युनिस्ट फोर्स नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाई थी लेकिन दोनों के बीच सत्ता संघर्ष इस कदर बढ़ा कि 2021 में अलग हो गए और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई थी। इसके बाद दोनों ने अपनी-अपनी पार्टी बना ली थी।
कहा जाता है कि नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियों की एकता को चीन हमेशा से पसंद करता रहा है। वहीं भारत के बारे में कहा जाता है कि वह नेपाली कांग्रेस को सत्ता में किसी ने किसी रूप में हिस्सेदार देखना चाहता है।
भारत के हक में नहीं
विश्लेषकों का कहना है कि नेपाल में नया सत्ता समीकरण बनने के बाद काठमांडू के प्रति उसके पड़ोसी देशों भारत और चीन की राय बदल सकती है।
करीब 13 महीने पहले नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच गठबंधन से भारत सहज था।
कहा जाता था कि उससे पहले जब वामपंथी दल एक साथ आए तो चीन इससे सहज था।
तो, क्या अब फिर चीन ख़ुश हो गया है और दिल्ली उस नए गठबंधन को लेकर चिंतित है, जिस पर कम्युनिस्टों का वर्चस्व होगा?
विश्लेषकों के मुताबिक, इससे देश की बुनियादी विदेश नीति तो नहीं बदलेगी लेकिन नेपाल के प्रति धारणा बदल सकती है।
नेपाल की विदेश नीति
नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमिरे कहते हैं कि चूंकि नेपाल का संविधान गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को अपनाता है, इसलिए भले ही सरकार बदल जाए, एक ‘संतुलित’ विदेश नीति रखी जाएगी। ख़ासकर पड़ोसियों के मामले में ऐसा ही होगा।
घिमिरे कहते हैं, ‘हालांकि, यह सच है कि अतीत में, जब कम्युनिस्ट एकजुट हुए थे तो चीन ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी।’
उन्होंने कहा, ‘इसलिए, चीन के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई समझौते अमल में लाना भविष्य में प्राथमिकता बन सकता है।’
पूर्व मंत्री राम कार्की के मुताबिक, नए गठबंधन से नेपाल की विदेश नीति ‘अधिक संतुलित’ होगी।
उन्होंने कहा, ‘नेपाल को विदेशी मामलों में अपनी तटस्थता को अधिक मजबूत तरीके से दिखानी होगी।’
जब पुराना गठबंधन था तो क्या वह तटस्थ नहीं था? इस सवाल के जवाब में कार्की ने कहा, ‘यह ऐसी बात है, जिसे हर कोई जानता है।’
पिछले कुछ समय से कुछ समूह नेपाल में हिंदू राष्ट्र की वापसी की मांग कर रहे हैं। नेपाली कांग्रेस के अंदर भी एक गुट यह मांग उठाता रहा है।
यह सवाल भी उठाया जाता रहा है कि अगर हिंदू राष्ट्र का एजेंडा- जो भारत की मौजूदा सत्ता के लिए रुचिकर हो सकता है- एक नया गठबंधन बन गया तो क्या होगा।
हालांकि भारत ने नेपाल में हिंदू राष्ट्र या संघीय शासन या गणतंत्र के बहस पर औपचारिक रूप से प्रतिक्रिया नहीं दी है या कोई रुचि व्यक्त नहीं की है।
पत्रकार घिमिरे ने कहते हैं, ‘देश के भीतर भी, मुझे नहीं लगता कि इन मुद्दों को बड़ी पार्टियों ने ईमानदारी से उठाया है।’
‘विश्वसनीयता का नुकसान’
नेपाल में सत्ता गठबंधन बदलना सामान्य बात हो गई है।
पिछले आम चुनाव के डेढ़ साल से भी कम समय में, सिंह दरबार पर शासन करने वाला सत्ता गठबंधन तीन बार बदल चुका है।
लेकिन हर बार संसद में तीसरी ताकत माओवादी पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दाहाल ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे हैं।
प्रचंड के नेतृत्व वाली पिछली गठबंधन सरकार के दौरान जिसमें उदारवादी मानी जाने वाली नेपाली कांग्रेस मुख्य भागीदार थी, यह टिप्पणी की गई थी कि चीन के साथ बीआरआई समझौते के तहत परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ीं।
लेकिन इसी अवधि में भारत के साथ नज़दीकियां बढ़ीं और ऊर्जा व्यापार पर एक महत्वपूर्ण समझौता भी हुआ, जबकि अमेरिका के साथ मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन के तहत एमसीसी नामक कॉम्पैक्ट समझौते को मंजूरी दी गई।
नेपाल मुद्दे पर भारत के टिप्पणीकार भी कह रहे थे कि प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के बीच गठबंधन दिल्ली के लिए ‘अच्छा’ है। लेकिन देश के अंदर कुछ विश्लेषक गठबंधन का झुकाव दिल्ली की ओर अधिक होने की आलोचना करते रहे हैं।
पिछले चुनाव में, नेपाली कांग्रेस ने संसद के निचले सदन में 88 सीटें जीतीं, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने 78 सीटें जीतीं और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) ने 32 सीटें जीतीं। बाकी सीटें अन्य पार्टियों ने जीतीं।
संविधान के मुताबिक सरकार बनाने के लिए 275 सीटों में से 138 सीटों की जरूरत होती है।
नेपाल के पूर्व राजनयिक दिनेश भट्टराई ने कहा कि जब सत्ता गठबंधन में बार-बार बदलाव होंगे तो देश के अंदर और बाहर ‘विश्वसनीयता में कमी’ आएगी।
भट्टराई, जो अतीत में नेपाली कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों के विदेशी मामलों के सलाहकार भी रह चुके हैं, कहते हैं, ‘नेपाल के भीतर सत्ता के लिए हाथापाई बाहरी शक्तियों को अपनी चालें चलने के लिए प्रोत्साहित करेगी।’
‘नेपाल की भू-राजनीति चीन और भारत जैसे बड़े देशों के बीच होने के कारण बहुत संवेदनशील मानी जाती है। इसलिए, यहां की अस्थिरता को लेकर बाहर भी दिलचस्पी और चिंता है।’
क्या कहते हैं प्रचंड?
पहले कहा जा रहा था कि कांग्रेस और अन्य छोटी पार्टियों के साथ मिलकर माओवादियों का बनाया गठबंधन पाँच साल तक सरकार चलाएगा।
अनौपचारिक रूप से यह भी कहा गया था कि पहले दो साल के लिए प्रचंड प्रधानमंत्री होंगे और उसके बाद नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा और कुछ समय के लिए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड सोशलिस्ट) के अध्यक्ष माधव कुमार नेपाल सत्ता का नेतृत्व करने वाले थे।
लेकिन सोमवार को प्रचंड ने जो नई राजनीतिक चाल चली उसके बाद वो सभी समझौते टूट गए हैं।
लगातार राजनीतिक समीकरण बदल कर सत्ता में बने रहने में कामयाब रहे प्रचंड इसे स्वाभाविक मानते हैं।
सोमवार को राजनीतिक तनाव के बीच राजधानी काठमांडू में प्रचंड ने कहा, ‘जब तक मैं मर नहीं जाऊंगा, देश में उथल-पुथल मची रहेगी।’
उन्होंने यह भी कहा कि वह ‘बड़ी वामपंथी एकता की शुरुआत’ कर रहे हैं।
बैठक में उन्होंने अपनी विदेश नीति के बारे में भी बताया।
नेपाल की भौगोलिक स्थिति की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘अगर हम एक उचित, वैज्ञानिक, स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति अपनाने में विफल रहते हैं और अगर हम नेपाली लोगों के साथ एकजुट होने में विफल रहते हैं, तो नेपाल किसी भी समय कठिन स्थिति में जा सकता है।’ (bbc.com/hindi)