विशेष रिपोर्ट
कैबिनेट उपसमिति ने दी थी सहमति
‘छत्तीसगढ़’ विशेष रिपोर्ट
रायपुर, 12 जून (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। राजधानी रायपुर की तीन बड़ी परियोजना शांति नगर, नूतन राइस मिल, और बीटीआई परिसर में आवासीय व व्यावसायिक कॉम्पलेक्स निर्माण की योजना पर ब्रेक लग गया है। इन परियोजनाओं पर कैबिनेट उपसमिति में मंथन चल रहा था। कहा जा रहा है कि विवादों की वजह से फिलहाल परियोजना का क्रियान्वयन रोक दिया गया है। इन योजनाओं पर अब विधानसभा चुनाव के बाद ही फैसला होगा।
हाऊसिंग बोर्ड के चेयरमैन कुलदीप जुनेजा ने ‘छत्तीसगढ़’ से चर्चा में कहा कि शांति नगर योजना पर कैबिनेट उपसमिति में फैसला लिया जाना है। उपसमिति की मंजूरी के बाद ही आगे की कार्रवाई हो सकती है।
बोर्ड के एक अफसर ने ‘छत्तीसगढ़’ से चर्चा में कहा कि कुछ स्थानीय विरोध को देखते हुए फिलहाल योजना पर आगे कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। परियोजना के क्रियान्वयन के लिए सलाहकार कंपनी नियुक्त भी किया गया था, लेकिन इसका डीपीआर तक तैयार नहीं हो पाया है। उन्होंने संकेत दिए कि चुनाव के बाद ही परियोजना पर काम आगे बढ़ेगा।
बताया गया कि शांति नगर में आवासीय-व्यावसायिक निर्माण का प्रस्ताव है। इस पर कार्रवाई 3 साल पहले शुरू हुई थी। इसके लिए सौ साल पुरानी सिंचाई कॉलोनी को हटाई जा चुकी है। कुल मिलाकर 19 एकड़ जमीन पर निर्माण होना है। इसके लिए गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू, और आवास-पर्यावरण मंत्री मोहम्मद अकबर व नगरीय प्रशासन मंत्री डॉ. शिवकुमार डहरिया की तीन सदस्यीय उपसमिति में कई बार चर्चा हो चुकी है। मगर अब आगे की कार्रवाई रूक गई है।
इसी तरह नूतन राइस मिल को हटाकर 11 एकड़ जमीन आरडीए को देने का फैसला लिया गया था। आरडीए ने इसके लिए ऑफर भी बुलाए थे। बंद मिल मार्कफेड की है, और शहर के बीचों-बीच रेलवे स्टेशन के काफी नजदीक होने के कारण बेशकीमती भी है। इसके लिए मार्कफेड प्रबंधन ने बदले में राशि देने की मांग भी की थी। सरकार के हस्तक्षेप के बाद जमीन से जुड़ा विवाद कुछ हद तक सुलझा लिया गया, मगर अब आगे की कार्रवाई पर ब्रेक लग गई है।
हालांकि आरडीए प्रबंधन ने मिल में अवैध कब्जा रोकने के लिए बाउंड्रीवाल का निर्माण कर रही है। इस पूरी योजना का क्रियान्वयन बीओटी के आधार पर होना है। इस पूरे मामले पर आरडीए के एक पदाधिकारी ने ‘छत्तीसगढ़’ से चर्चा में कहा कि नूतन राइस मिल योजना से आरडीए को कोई ज्यादा फायदा नहीं होगा। वजह यह है कि 90 फीसदी राशि उस विभाग को दे दी जाएगी, जिसकी जमीन है। ऐसे में आरडीए को अधिकतम 10 करोड़ ही मिल पाएगा। उन्होंने यह भी बताया कि चूंकि आरडीए इस परियोजना में काफी कुछ खर्च कर चुकी है। इसलिए अब इससे पीछे नहीं हटा जा सकता। बावजूद इसके योजना पर ब्रेक लगता दिख रहा है। इस पर काम अब बारिश के बाद ही शुरू होने की उम्मीद है। तब तक विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। ऐसे में माना जा रहा है कि आगे का काम नई सरकार के आने के बाद ही शुरू होने की उम्मीद है।
इसी तरह शंकरनगर बीआईटी आवासीय परिसर को हटाकर आवासीय, और व्यावसायिक निर्माण के लिए कैबिनेट उपसमिति में चर्चा हुई थी, लेकिन अब आगे की कार्रवाई रोक दी गई है। इस पर भी फैसला जल्द होने के आसार नहीं दिख रहे हैं।
जानकारों का मानना है कि परियोजनाओं पर पहले विवाद हो चुका है। इसलिए कैबिनेट उपसमिति तुरंत कोई फैसला लेने से बच रही है। अब सारा फैसला नई सरकार में होने की उम्मीद है।
विशेष रिपोर्ट : रजिंदर खनूजा
पिथौरा, 27 अप्रैल (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। पावरलूम के दौर में भी छत्तीसगढ़ का हैंडलूम बचे खुचे सांसों के साथ मुकाबला कर रहा है। अपनी पुरखों से मिली संबलपुरी साड़ी बुनने के शिल्प और हुनर को बनाये रखते हुए छत्तीसगढ़ के इस गाँव का एक परिवार, बिना शासकीय सहायता के आजादी के बाद से ही अपने पूर्वजों के इस व्यवसाय को थामे हुए है।
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के पिथौरा के समीप ग्राम चिखली का एक पूरा परिवार संबलपुरी हैंडलूम साड़ी निर्माण कर रहा है। आज के इस मशीनी युग मे पूरा परिवार दिन रात मेहनत कर एक हैंडलूम से दो दिनों में एक साड़ी तैयार करता है।
मिट्टी का घर टीन लगी छत, अंदर एक अल्प रोशनी वाले कमरे में साड़ी बुनती एक नाबालिग बालिका को देख कर पहले तो ऐसा लगा कि उक्त किशोर वय की बालिका सोशल मीडिया में अपना फोटो अपलोड करने इस तरह का काम दिखाने बैठी है, परन्तु कुछ ही देर देखने पर रंग-बिरंगे उलझे धागों को संवारती लडक़ी के बारे में समझ आया कि यह सोशल मीडिया पर अपना वीडियो अपलोड नहीं करना चाहती, बल्कि यह तो अपने पेट की उलझी लड़ाई को सुलझाने के लिए मेहनत कर रही है।
यह दास्तान कोई कहानी का हिस्सा नहीं, पिथौरा से महज 10 किलोमीटर दूर विकासखण्ड के ग्राम चिखली निवासी सफेद मेहेर के घर के एक कमरे में साड़ी बुन रही एक नाबालिग बालिका की है।
इस नाबालिग बालिका से चर्चा करने पर उसने अपना नाम गीता मेहेर बताया। 10वीं कक्षा में अध्ययनरत गीता पढ़ाई के साथ अपने पेट की लड़ाई भी लड़ती है। परिवार जनों के साथ उसे भी प्रतिदिन कुछ घण्टे साड़ी बुनाई कार्य में हाथ बंटाना पड़ता है।
4 परिवार - 14 हथकरघा
सफेद मेहेर के 4 परिवार के लोग ग्राम चिखली में रहते हैं। सभी परिवार में 2 से 4 मशीनें हैं। कुल मिलाकर सभी परिवारों में कुल 14 मशीनों हैं, जिसमें वे साड़ी बुनने का काम करते हैं। परिवार के मुखिया सुफ़ेद ने ‘छत्तीसगढ़’ को बताया कि उसके 2 पुत्र , 2 बहू एवं 4 नाती हैं। सभी साड़ी बुनाई सीख चुके हैं। अब सभी बारी-बारी से दिनभर साड़ी बुनने का काम करते हैं। दो दिन में पूरा परिवार एक हथकरघे में एक साड़ी बना लेता है।
मार्केटिंग बेहराबाजार बरगढ़
संबलपुरी साड़ी आम दुकानों में आमतौर पर 6 से 8 हजार रुपयों तक बेची जाती है, परन्तु चिखली के बुनकर परिवार साडिय़ों को बना कर इसे ओडिशा के बरगढ़ के समीप स्थित बेहरा बाजार में बेचने ले जाते हैं, जहां थोक में प्रति साड़ी 3000 रुपये में बेची जाती है, जबकि साड़ी की वास्तविक कीमत इन बुनकरों को मात्र 1000 रुपये मिलती है। इन बुनकरों को साड़ी बुनने के लिए 2000 रुपये के सूत और रंग भी दिए जाते हैं, या यूं कहें कि बरगढ़ के व्यवसायी उक्त बुनकरों को प्रति साड़ी एक हजार रुपयों की मजदूरी ही देते हैं।
सफेद सूत में रंग करने के बाद बुनाई
बुनकरों के अनुसार इन्हें बरगढ़ से सफेद रंग का सूत ही दिया जाता है, जिसे इनके परिवार के सदस्य ही रंगते हंै और डिजाइन के साथ इससे साड़ी बुनाई करते हैं। साडिय़ों में रंग और डिजाइन खरीदार दुकानदार के अनुसार रखा जाता है, और दुकानदार मांग के अनुसार साड़ी बनवाते हैं।
शासन की अनदेखी से कर्ज बढ़ रहा
बुनकर परिवार के सदस्यों ने शासन की किसी भी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिलने की बात कही है। इनका कहना है कि घर में आपात या मांगलिक कार्यो एवम अन्य जरूरी काम के लिए उन्हें कर्ज लेकर काम करना पड़ता है। किसी भी परिवार को प्रधानमंत्री आवास तक उपलब्ध नहीं मिल सका है, जिसके कारण आज भी ये परिवार अपने कच्चे मकानों में ही पारंपरिक बुनाई का कार्य कर अपनी जीविका चला रहे हैं। यह कार्य उनका पुरखोती कार्य है, इसमें अल्प आय होती है, परन्तु पीढ़ी दर पीढ़ी यह कार्य हम लोग कर रहे है और करते रहेंगे।
बचपन से ही यह हुनर सिखाते हैं
बुनकर परिवार के युवक खेमराज ने ‘छत्तीसगढ़’ से चर्चा करते हुए बताया कि वे जाति के अनुसार अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं। घर में बच्चे पढ़ लिख रहे हैं, परन्तु सरकार द्वारा रोजगार नहीं देने के कारण वे अपना पुस्तैनी हैंडलूम संबलपुरी साड़ी का काम कर रहे हैं। इसके लिए बच्चे के होश संभालते ही उसे हथकरघा का हुनर सिखाया जाता है जिससे वे अपने हुनर से कम से कम अपनी जीविका तो कमा ही लें। ये परिवार चाहते हंै कि उनके पढ़े लिखे बच्चों को रोजगार दे एवं हाथ से साड़ी निर्माण की मशीन लगाने हेतु भवन एवम कच्चा समान सुत आदि खरीदने हेतु आर्थिक सहायता भी मुहैया कराएं।
15 डीई में दोषी पाए गए, 53 के खिलाफ ईओडब्ल्यू-एसीबी में जांच
विशेष रिपोर्ट : शशांक तिवारी
रायपुर, 18 अप्रैल (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। निर्माण विभागों में पीडब्ल्यूडी एक ऐसा विभाग है जहां तमाम सीनियर अफसर भ्रष्टाचार की जांच के घेरे में हैं। और तो और 15 इंजीनियर विभागीय जांच में दोषी भी पाए गए हैं। यही नहीं, 53 अफसरों के खिलाफ तो ईओडब्ल्यू-एसीबी में केस दर्ज हैं। इनमें से कई तो रिटायर भी हो गए हैं।
प्रदेश में पीडब्ल्यूडी का सालाना बजट करीब 6 हजार करोड़ से अधिक है। चुनावी साल में सडक़ से लेकर ब्रिज का निर्माण तेजी से चल रहा है। इन सबके बीच निर्माण से जुड़े तमाम बड़े अफसरों के खिलाफ अलग-अलग तरह की जांच चल रही है। हाल यह है कि कई अफसर तो रिटायर हो गए हैं, लेकिन ईओडब्ल्यू-एसीबी में उनके खिलाफ भ्रष्टाचार की पड़ताल हो रही है।
बताया गया कि दो पूर्व ईएनसी जीएस सोलंकी, और पीएस क्षत्रिय के खिलाफ ईओडब्ल्यू-एसीबी में केस दर्ज है। उनके खिलाफ जांच अभी भी खत्म नहीं हुई है। यही नहीं, मौजूदा ईएनसी केके पिपरी, और उनके पूर्ववर्ती प्रभारी ईएनसी वीके भ्रतपहरी के खिलाफ भी ईओडब्ल्यू-एसीबी में केस दर्ज है। कुल मिलाकर 53 इंजीनियरों के खिलाफ अकेले ईओडब्ल्यू-एसीबी में केस दर्ज है।
दूसरी तरफ, पीडब्ल्यूडी के 36 अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में विभागीय जांच चल रही है। इनमें से 15 अफसरों के खिलाफ तो विभागीय जांच प्रमाणित भी हो चुकी है। भण्डार क्रय नियम का उल्लंघन करने, और एस्कलेशन भुगतान में अनियमितता पर कार्यपालन यंत्री बीआर ठाकुर, नरेश स्वामी, और प्रभारी कार्यपालन यंत्री आरपी गौर के खिलाफ विभागीय जांच में आरोप प्रमाणित हुए हैं। इनमें नरेश स्वामी 28 लाख की वसूली उनके वेतन से करने के आदेश दिए गए हैं। साथ ही साथ दो वेतन रोकने के आदेश के बाद विभागीय जांच प्रकरण समाप्त करने के आदेश दिए गए हैं।
इसी तरह बीआर ठाकुर से रामानुजगंज में खरीदी गई सामग्री में अनियमितता के मामले में 56 लाख 75 हजार रूपए वसूलने के आदेश दिए गए हैं। दो वेतन वृद्धि भी रोकी गई। इसी तरह आरपी गौर से 20 लाख की वसूली के आदेश वेतन से करने के दिए गए। इसी तरह उपयंत्री एमएलसी से 2 लाख 90 हजार रूपए की वसूली रेहण्ड नदी में सेतु निर्माण कार्य में अनियमितता के आरोप पर की गई है।
विभागीय जांच में दोषी पाए गए अफसरों में एके जोशी सहायक अभियंता, रणबीर बेक एसडीओ, आरपी कुम्हारे तत्कालीन कार्यपालन अभियंता, आरएन पाल एसडीओ, पीएस मरकाम, पीएस चंदेल कार्यपालन अभियंता, एसडीओ टीएल ठाकुर, प्रभारी कार्यपालन अभियंता बीआर ठाकुर, नरेश स्वामी कार्यपालन अभियंता, आरपी गौर प्रभारी कार्यपालन अभियंता, वीके बेदिया कार्यपालन यंत्री, एमएल सिंह उपअभियंता, मोहन राम भगत एसडीओ सराईपाली, संजय सूर्यवंशी कार्यपालन यंत्री, आरके वर्मा तत्कालीन एसडीओ हैं।
जिन अफसरों के खिलाफ ईओडब्ल्यू-एसीबी में भ्रष्टाचार के प्रकरणों की जांच चल रही है, उनमें तीन पूर्व प्रमुख अभियंता से लेकर मौजूदा प्रमुख अभियंता, और जीएस सोलंकी प्रमुख अभियंता, पीएस क्षत्रिय प्रमुख अभियंता, सुरेश शर्मा तत्कालीन कार्यपालन यंत्री, अशोक खंडेलवाल कार्यपालन यंत्री, एसएस गड़ेवाल, एके निगम दोनों सहायक यंत्री, बीआर ठाकुर कार्यपालन यंत्री, एन खुंटे, आरएस राम एसडीओ, आरएस कोगे उपअभियंता, आर के गोयल तत्कालीन मुख्य अभियंता, सीएस त्रिवेदी तत्कालीन परियोजना संचालक एडीबी, विजय कुमार भारती उपअभियंता, वायके गोपाल कार्यपालन अभियंता, पीएम कश्यप अधीक्षण अभियंता, ओपी चंदेल कार्यपालन अभियंता, सीएल सिंह एसडीओ, वेद प्रकाश एसडीओ, एसके मिश्रा एसडीओ, आरके गोयल मुख्य अभियंता, भावेश सिंह एसडीओ, निर्मल सिंह ठाकुर एसडीओ, राज किशोर उपअभियंता, आशीष नागपुरे उपअभियंता, आरके सोनवानी उपअभियंता, डीके अग्रवाल प्रोजेक्ट डायरेक्टर शामिल हैं।
इसके अलावा आरपी अग्रवाल प्रभारी कार्यपालन अभियंता, विजय लाल लेखा अधिकारी, केके पीपरी मुख्य अभियंता, अनुज मोहबिया उपअभियंता, भगतराम साहू एसडीओ रायगढ़, मनहरण लाल शर्मा कार्यपालन यंत्री, मदन मोहन श्रीवास्तव एसई, आरके गोयल सीई, एसएल सिंह कार्यपालन यंत्री, वेद प्रकाश पांडेय एसडीओ, विजय कुमार भत प्रहरी प्रमुख अभियंता, लक्ष्मीनारायण राठौर सहायक अभियंता, डीके माहेश्वरी कार्यपालन अभियंता, मोचन प्रसाद कश्यप, एके मंधान मुख्य अभियंता, राम मोहन दुबे उपअभियंता, महेश्वर प्रसाद कार्यपालन अभियंता, राम सजीवन चौरसिया एसडीओ, एके यादव तत्कालीन उप महाप्रबंधक, सुभाषचंद्र आर्या उपमहाप्रबंधक, रूबेन केरकेटा, खुटे एई, अजय कुमार टेम्भूने, सुशील कुमार उडक़ुरे एसडीओ, डी राम कार्यपालन अभियंता, विकास श्रीवास्तव कार्यपालन अभियंता, प्रभात सक्सेना, और परियोजना निदेशक कोरी हैं।
400 कैदियों को काष्ट शिल्प कला के लिए किया प्रेरित
नाव का खिलौना बना पानी में बहाते मिली प्रेरणा
हरिलाल शार्दूल
कांकेर, 8 अप्रैल (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। नक्सलियों के हाथों से बंदूक छुड़ाकर काष्ठ शिल्प कला सिखाकर 400 लोगों का जीवन संवारने वाले कांकेर निवासी अजय कुमार मंडावी को राष्ट्रपति के हाथों पद्मश्री पुरस्कार मिला। भटके हुए युवाओं को राह दिखाने वाले श्री मंडावी ने जिले के साथ साथ प्रदेश का भी नाम रौशन किया है।
काष्ठ शिल्पकला के क्षेत्र में गोल्डन बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में अजय मंडावी का नाम आया है।
दिल्ली प्रवास पर रहने के कारण अजय कुमार मंडावी से ‘छत्तीसगढ़’ की मोबाइल से चर्चा हुई। उन्होंने युवा पीढ़ी को प्रेरणा दी कि वे अपनी अस्मिता को जानें और अपने आपको बेशकीमती समझें। हर क्षेत्र में जॉब का मौका है। बशर्तें वे किसी भी विधा का चयन कर उसमें पारंगत होंवे। प्रसन्नचित रह कर लगन से अपने लक्ष्य को पाने जुट जाएं।
आमतौर पर राष्ट्रपति भवन में सूटबूट के साथ सम्मान लेने जाते हुए देखा जाता है, लेकिन अजय नंगे पांव पद्मश्री लेने पहुंचे थे। नक्सल प्रभावित क्षेत्र के राह भटके जेल में सजा काट रहे 4 सौ से अधिक युवाओं को उन्होंने काष्ठ शिल्प कला का प्रशिक्षण दे कर उनकी जिंदगी को नई दिशा दी। इन युवा हाथों को उन्होंने बंदूक छोडक़र छीनी पकडऩे के लिए प्रेरित किया है। उनके इन्हीं कार्यों के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
अक्टूबर 1967 में कांकेर में अजय कुमार मंडावी का जन्म हुआ। उनके पिता प्राथमिक शाला में हेड मास्टर थे। परिवार में पांच सदस्य पत्नी अन्नु मंडावी, बहन स्मिता अखिलेष, पुत्र आकाश मंडावी और पुत्री अनुमेहा मंडावी हैं।
अजय कुमार मंडावी ने बताया कि बचपन में वे कापी के पु_ों, डिब्बों और लकडिय़ों से खिलौना बनाया करते थे। वे लकड़ी के छोटे- छोटे टुकड़ों से नाव बनाकर पानी में बहाते थे। लकड़ी के टुकड़ों से वे गेड़ी, भौंरा, गिल्ली, आदि खिलौने बनाया करते थे। इस कला के प्रति उनके रूझान को देखते उनके पिता ने भी उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया। उनके पिता गणेश मूर्ति बनाते थे।
पिता को गणेश मूर्ति बनाते हुए देख अजय की भी कला के प्रति रूचि बढऩे लगी। वे भी लोहे की हथौड़ी से पीट-पीट कर कुछ मूर्तियां बनाए थे। उनकी यह कला समाचार पत्रों में छपने पर उन्हें काफी प्रसन्नता हुई और उनका उत्साह कई गुना बढ़ गया।
वर्ष 2006 में उन्होंने वंदे मातरम गीत को काष्ठ शिल्प कला में उकेरा था। उसके बाद उन्होंने 2007 में बाइबिल लिखना शुरु कर दिया, जो ढाई साल में पूरा हुआ। इसे पूरा करने में उनके साथ 10 से 15 लोगों की टीम भी लगी हुई थी। उन्होंने बताया कि काष्ठ कला में लिपि करने के लिए लकड़ी की व्यवस्था करना और उसे आकार देने का कार्य भी एक बड़ी समस्या है।
2009 में बाइबिल पूरा होने के बाद देश और विदेशों तक उनका नाम हुआ। 2010 में वे लाल रंग के मुरूम से ईंट बनाने में जुटे गए। उन्होंने बताया कि लाल रंग के मुरूम में एक विशेषता है कि उसे इक_ा़ कर दबा दिया जाए तो काफी मजबूत ईंट बन जाता है। इसके उपर सौ टन का ट्रक चढ़ाने के बाद भी वह नहीं टूटता है। इसका प्रयोग भी किया गया है। उन्होंने ईंट बनाने कार्य शुरू ही किया था। तभी तत्कालीन कलेक्टर ने उन्हें जेल में बंद कैदियों को उनके खाली समय के उपयोग करने काष्ठ कला सिखाने कहा। तब से वे काष्ठ शिल्प कला से मूर्ति, नेम प्लेट, चाबी रिंग आदि बनाने का प्रशिक्षण दे रहे हैं।
काष्ठ कला के भविष्य के बारे में उन्होंने कहा कि युवा इसे रोजगार के रूप में अपना सकते हैं। छोटे- छोटे लकड़ी के टुकड़े जिसे बेकार समझ कर फेंक दिया जाता है। कलाकार उसे बखूबी उपयोग में लाकर उसे बेशकीमती बना सकता है। युवा पीढ़ी को उन्होंने संदेश दिया कि किसी एक विधा को चुनकर उसमें पारंगत होकर उसे अपने कैरियर बना सकते हैं।
चंद्रकांत पारगीर
बैकुंठपुर (कोरिया), 31 मार्च (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। एक अप्रैल को प्रोजेक्ट टाइगर के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। काफी विरोध के बाद देश की आयरन लेडी कही जाने वाली पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1 अप्रैल 1973 को इसकी आधारशीला रखी थी, 50 साल बाद कोरिया के गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान को राज्य सरकार ने टाइगर रिजर्व बनाने की घोषणा तो कि परन्तु अब तक यह अधर में लटका हुआ है। एनटीसीए की अनुमति के बाद राज्य सरकार इसे अधिसूचित नहीं कर पाई है, जबकि यहां बढ़ते टाइगर यहां के उनके हिसाब की आबोहवा के परिचायक साबित हो रहे है। मप्र के सीधी जिले से सटे होने के साथ अब यह झारख्ंाड के पलामू जिले तक टाइगर के लिए बेहद लंबा कॉरिडोर साबित हो रहा है।
इस संबंध में गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान के संचालक रामाकृष्णन का कहना है कि पार्क में बाघों की उपस्थित दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो यहां निवासरत है। उसके अलावा मप्र से बाघ यहां आकर आगे तक विचरण कर रहे है, उन्हें यहां खाने के लिए शाकाहारी जानवरों के साथ रहने के लिए घने जंगल के साथ पानी की सुविधा भी है। एशिया का सबसे बड़ा टाइगर कॉरिडोर बनता हुआ दिख रहा है।
पूर्व में संजय पार्क का हिस्सा रहा, बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व और तमोर पिंगला अभ्यारण से लगा हुआ गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान अब नया रूप ले चुका है। 2301.57 वर्ग कि मी में फैला हुआ यह उद्यान अब तमोर पिंगला अभ्यारण के साथ जोड़ एशिया का सबसे बड़ा टाइगर कॉरिडोर बनने जा रहा है। इसमें संजय टाइगर रिजर्व मप्र का 1774 वर्ग किमी और 483 वर्ग किमी बगदरा को जोडक़र बाघों के आने जाने के लिए एशिया का सबसे बडा टाइगर कॉरिडोर कहलाने लगा है, जो कि अब तक का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर सबसे 209 किमी लंबा होगा। इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा प्राकृतिक जल स्त्रोत मौजूद है, जिसके कारण आसपास के क्षेत्रों से वन्य जीव यहां चले आते हंै।
कोरिया जिले मेें स्थित गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान में दुर्लभ वन्य जीवों के लिए अब सबसे सुरक्षित आरामगाह बन चुका है। वन्य प्राणियों के संरक्षण संवर्धन के लिए अच्छी जगह साबित हो रही है।
बांधवगढ़ से पलामू टाइगर कॉरिडोर
मनेंन्द्रगढ़ वनमंडल के केल्हारी परिक्षेत्र में एक व्यक्ति की जान लेने वाला बाघ झारखंड के पलामू में देखा गया, इससे पहले वो गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान के बाद तमोर पिंगला अभ्यारण्य उसके बाद बलरामपुर वनमंडल में काफी समय तक लोगों को दिखा, बाद में वो झारखंड की सीमा में प्रवेश कर गया, पहले गढ़वा और फिर बाद में पलामू जिले में देखा गया। वन विभाग के अधिकारी इसे एक बाघों के लिए शानदार कोरिडोर मानते है। गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान की सीमा संजय टाइगर रिजर्व से लगी हुई है, जिससे ये बाघ पार्क क्षेत्र में आया और फिर यहां से विचरण करता वो झारखंड में पहुंच गया।
रानी या कोई और ...
गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान कोरिया, सूरजपुर और बलरामपुर जिले में फैला हुआ है। कोरिया में 2019 को एक शावक को जन्म देने वाली रानी कुछ महिनों से सामने नहीं आई है, वहीं सूरजपुर जिले में बाघिन ने दो लोगों को मार डाला, उसे भी गंभीर चोटें आई, जिसके बाद उसका इलाज जंगल सफारी रायपुर में जारी है। अभी यह तय नहीं हो पाया है कि वो बाघिन रानी है या कोई और। पार्क प्रबंधन इसे लेकर संजीदगी से पता लगा रहा है कि आखिर सूरजपुर में मिली बाघिन कहां की है।
सैंपल भेजे जा रहे दिल्ली
बाघ से जुड़ी हर जानकारी समय समय पर दिल्ली भेजी जा रही है। पार्क अधिकारियों की माने तो बाघ के मल को टेस्ट के लिए दिल्ली भेजा जा रहा है, जीपीएस ट्रेकिंग भी जा रही है। उन्होंने बताया कि बाघ एक ही बार में 15 दिन तक का भोजन खा लेता है, हर दिन वो 15 से 20 किमी चलता है, ऐसे में उसे आम लोगों से दूर रखना बेहद जरूरी है।
26 प्रकार के है जीव जन्तु
पार्क क्षेत्र में कई बाघ बाघिन के अलावा तेंदुआ, चीतल, सांभर, कुटरी, चौरसिंगा, नीलगाय, गौर, जंगली सुअर, चिंकारा, माउस डियर, भालू, जंगली बिल्ली, सियार, लोमड़ी, पैगोलिन, साही, पाम सिवेट, छोटा सिवेट, बुश रेट, काले बंदर, लाल बंदर, बड़ी गिलहरी के साथ दुर्लभ उदबिलाव, कवर बिज्जू, ट्री शिओ भी यहां मौजूद है। इसके अलावा जंगली हाथियों का झुंड का आना-जाना लगा रहता है। इसके अलावा गुरूघासीदास राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में नीलगाय व तेंदुओं की संख्या भी काफी तादात में है।
बारहमासी नदियों के उद्गम का है केन्द्र
गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान कई बड़ी बाहरमासी नदियों के उद्गम का केन्द्र है, यहां पूरे क्षेत्र में नदियों के साथ उसकी सहायक नदियों का जाल बिछा हुआ है, यही कारण है कि अन्य टाइगर रिजर्व से अलग है, और इसे जंगली जीव-जन्तुओं के रहने के लिए सबसे अच्छी जगह मानी गई। यहां से पैरी, गोपद, रांपा, दौना, महान, जगिया, बैरंगा, लोधार, झांगा, नेउर और खारून जैसे नदियां पूरे साल भर बहती रहती है।
रोज सुबह यहां घड़ों में पानी भर दिया जाता है और दिन भर में पानी बूंद बूंद करके पेड़ों की जड़ों तक पहुंचते रहता है
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद,18 मार्च। यह तस्वीर महासमुंद से तुमगांव मार्ग पर कौंदकेरा जंगल की है। इस चट्टानी जमीन पर हरे पेड़ों की कहानी कुछ और है। छत्तीसगढ़ में अपनी तरह की इस पहली योजना में पौधे लगाने से लेकर इनमें पानी पहुंचने तक की पूरी प्रक्रिया एक नया प्रयोग हुआ है। पत्थरों पर रोपित इन पेड़ों के नीचे आज भी घड़े रखे हुए हैं। इन घड़ों में हल्की सुराख है। रोज सुबह यहां घड़ों में पानी भर दिया जाता है और दिन भर में घड़ों का पानी बूंद-बूंद करके पेड़ों की जड़ों तक पहुंचते रहता है।
पथरी जमीन पर पेड़ लगाने का काम महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत 14.50 लाख की लागत से वर्ष 2010-11 में हुआ है। इस कार्य से गांव के54 मनरेगा जॉब कार्डधारी परिवारों को 7 हजार 741 मानव दिवस का रोजगार भी प्राप्त हुआ। इसके लिए उन्हें 9 लाख 44 हजार 410 रुपए का मजदूरी भुगतान किया गया था।
ग्राम कौंदकेरा में जंगल के बीच एक बड़ा क्षेत्र चट्टान पत्थरों का है। जगह पथरीली होने के कारण यहां हरियाली सामान्य से कम थी। ऐसे में वन विभाग के सामने बड़ा सवाल था कि इस पथरीली जमीन को कैसे इस्तेमाल में लाया जाए? कुछ तत्कालीन अफसरों ने मिलकर एक योजना बनाई कि क्यों न इसी पथरीली-चट्टानी जमीन पर पौधे लगाई जाए? फिर पथरीली जमीन पर ऐसे पौधे लगाने की योजना बनी जो पर्यावरण को बनाने में महत्वपूर्ण होते हों और जो एक बार लग जाएं तो इनकी जड़े पत्थरों को भी तोडऩे में दक्षता रखती हो। जैसे बरगद, पीपल, डूमर आदि। अब बड़ा सवाल था कि पौधे कैसे लगाएं?
जिले के वन विभाग में अफसरों ने बैठकर सोचा कि मनरेगा के तहत काम करा लिया जाए। इसके लिए मनरेगा से 14 लाख 50 हजार रुपए स्वीकृत किए गए। लगातार दो बरसों तक वन विभाग के मार्गदर्शन में यहां 44 महिला और 93 पुरुष मनरेगा श्रमिकों ने तगड़ी मेहनत और देखरेख कर एक हजार पौधे लगाए। चूूंकि पत्थरों को काटकर उसमें मिट्टी-खाद आदि डालकर पौधे रोपे गए थे। लिहाजा पौधे मुरझाए नहींं, इसके लिए पौधरोपण के बाद पौधों की सिंचाई मटका के माध्यम से टपक पद्धति से की गई। आज जब पाौधों ने पेड़ का रूप ले लिया है, तब भी यहां गर्मी के दिनों में मटकों में पानी भरकर रखा जाता है।
देखा जा सकता है कि पौधे बेहतर तरीके से बढ़े इसके लिए पौधों के बीच लगभग 8 मीटर की दूरी रखी गई है। समय-समय पर आज भी इन पौधों को गोबर खाद, डीएपी, यूरिया और सुपर फॉस्फेट भी डाला जाता है। यहां रोपे गए पौधे अब 20-25 फ ीट के हरे-भरे पेड़ बन गए हैं और यह क्षेत्र सामूहिक प्रयास से हरा-भरा होकर ऑक्सीजोन में बदल गया है। अब इसे देखने और यहां घूमने-फिरने आस-पास के लोग आते हैं।
प्रदीप मेश्राम
राजनांदगांव, 10 सितंबर (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। जिले के खैरागढ़ वन क्षेत्र के भीतरी जंगलों में प्रतिबंध के बावजूद बांस करील को वनों से सफाया किया जा रहा है। बेखौफ तरीके से अंदरूनी इलाकों में बसे वन बाशिंदे बांस की नई पौध को खुलकर हानि पहुंचा रहे हैं। वहीं जंगली बंदर भी बांस करील को चट कर रहे हैं। व्यवहारिक रूप से वन महकमे के पास इस समस्या से निपटने के लिए कारगर तरीका नहीं है।
खासतौर पर बंदरों के जरिये हो रहे नुकसान को रोकने की दिशा में भी वन अमला असहाय दिख रहा है। बताया जा रहा है कि जायकेदार सब्जी का स्वाद चखने के लिए बांस करील को अंकुरित होने के कुछ दिनों में ही लोग उखाड़ रहे हैं। लिहाजा बांस की नई पैदावार खड़ी नहीं हो पा रही है। नए बांस की उपज नहीं होने से जंगलों की रौनकता गायब हो रही है।
खैरागढ़ वन मंडल के मलैदा, जुरलाखार और भावे के घने जंगल बांस से लदे हुए हैं। हर साल वन महकमे द्वारा बांस कटाई के लिए अभियान चलाया जाता है। कटाई के लिए चिन्हांकित बांस के कूप बनाए जाते हैं। बांस की वनोपज में गिनती होती है।
लिहाजा संरक्षित और रिजर्व जंगली क्षेत्रों में बांस की तोड़ाई महकमे की देखरेख में होती है। इसलिए शासन के निर्देश पर हर साल अलग-अलग कूपों में बांस की कटाई होती है। कटे हुए बांसों को सरकार द्वारा नीलाम किया जाता है और उससे हुए आय का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा लाभांश के तौर पर वन समितियों को दिए जाने का प्रावधान है।
मिली जानकारी के मुताबिक प्रतिबंधित बांस करील को काटने की सूरत में वन्य अधिनियम 33 (संरक्षित) और 26 (आरक्षित) के तहत सख्त अपराध दर्ज करने का प्रावधान है। इस संबंध में खैरागढ़ डीएफओ रामावतार दुबे ने ‘छत्तीसगढ़’ से कहा कि वन्य प्राणियों के द्वारा बांस करील को खाने के दौरान नुकसान पहुंचता है। वहीं वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों को बांस करील नहीं तोडऩे की हिदायत समय-समय पर दी जाती है।
इस बीच खैरागढ़ वन मंडल के कटेमा, महुआढ़ार, नक्टी घाटी, घाघरा समेत मलैदा और अन्य इलाकों में बांस करील व्यापक रूप से अंकुरित हुए हैं।
बताया जा रहा है कि साप्ताहिक बाजारों में भी इसका धड़ल्ले से कारोबार किया जा रहा है। बांस की खासियत यह है कि वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बनडाई ऑक्साईड का आदान-प्रदान कर प्रकृति को संरक्षित करने में अहम भूमिका अदा करता है।
29 जुलाई : राष्ट्रीय बाघ दिवस
प्रदीप मेश्राम
राजनांदगांव, 28 जुलाई (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। राजनांदगांव जिले के घने जंगलों में भले ही बाघों का स्थाई ठिकाना नहीं है, लेकिन यहां के जंगल बाघों की निगाह में सुरक्षित कारीडोर रहा है। साल में कम से कम दो बार देश के दो बड़े प्रख्यात राष्ट्रीय अभ्यारण्य ताड़ोबा (गढ़चिरौली) और कान्हा नेशनल पार्क (मध्यप्रदेश) के बीच बाघ राजनांदगांव जिले के जंगल को एक सुरक्षित कारीडोर मानकर आवाजाही करते हैं।
वन महकमे को बाघों की मौजूदगी के प्रमाण उनके पदचिन्हों से मिलता है। बताया जाता है कि बाघनदी के रास्ते दोनों नेशनल पार्क से बाघों का आना-जाना होता है। यह बाघ एक तरह से इसे कारीडोर के रूप में इस्तेमाल करते हैं। हालांकि बीते दो दशक में राजनांदगांव जिले में बाघों का स्थाई ठौर नहीं रहा है।
बताया जा रहा है कि यहां की आबो-हवा पूरी तरह से अनुकूल है। पिछले कुछ सालों में बाघों का शिकार होने के कारण भी राजनांदगांव जिले से उनकी बसाहट खत्म हो गई है। ताड़ोबा और कान्हा नेशनल पार्क को बाघों के लिए ही जाना जाता है। बाघ औसतन सालभर में दो बार राजनांदगांव के भीतरी जंगलों से होकर दोनों पार्कों के बीच फासला तय करते हैं। बताया जाता है कि बाघनदी के रास्ते साल्हेवारा के जंगलों से होकर बाघ कान्हा नेशनल पार्क में पहुंचते हें। यह एक सुखद पहलू है कि बाघों की आवाजाही के लिए यहां का जंगल अनुकूल है।
बताया जाता है कि 70-80 के दशक में ही बाघों की नांदगांव जिले में दहाड़ सुनाई देती थी। साल्हेवारा क्षेत्र में विशेषकर बाघों का स्थाई डेरा रहता था। धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे बाघों की संख्या घटना के कारण जिले में उनकी धमक कम हो गई। इस संबंध में राजनांदगांव डीएफओ बीपी सिंह ने च्छत्तीसगढ़’ से कहा कि बाघ अब इस जिले को कारीडोर के रूप में उपयोग कर रहे हैं। एक निश्चित रास्ता बनाकर यहां से बाघों की आवाजाही होती है।
मिली जानकारी के मुताबिक राजनांदगांव वन मंडल 925 वर्ग किमी में फैला हुआ है। बाघों के लिए बाघनदी से लेकर साल्हेवारा का इलाका बेहतर माना जाता है। इन इलाकों में पहाड़ी होने के कारण बाघों की सुरक्षा में कोई अड़चने नहीं होती है। लंबे समय से साल्हेवारा क्षेत्र बाघों की मौजूदगी के लिए माना जाता रहा है।
गौरतलब है कि 2012-13 में छुरिया इलाके में ग्रामीणों की भीड़ ने बाघ को मार डाला था। उस समय भी बाघ ताड़ोबा से भटककर राजनांदगांव जिले के जंगल में दाखिल हुआ था। दो साल पहले भी बाघनदी क्षेत्र में बाघ भटककर सडक़ में नजर आया था। कुल मिलाकर राजनांदगांव के जंगल में अनुकूल वातावरण है। बाघ के लिए हिरण और जंगली सूअरों की जिले में भरमार भी है। फिलहाल नांदगांव के जंगल से बाघों का सालों से गुजरने का सिलसिला जारी है।
सुरेन्द्र सोनी
बलौदा (जिला जांजगीर चांपा), 22 जून। उत्तरप्रदेश के ईंट भठ्ठे में काम करने वाले 65 मजदूरों को ईंटा भठ्ठा ने पूरी मजदूरी ने देकर अकबरपुर रेलवे स्टेशन में छोड़ दिया, यहां से रेलवे ने रांची भेज दिया। रांची में भटकने के बाद प्रशासन ने छत्तीसगढ़ के बॉर्डर में उतार कर बस वापस लौट गई। पैदल ही छत्तीसगढ़ की सीमा रायगढ़ में पहुंचे। किसी तरह मजदूरों की गुहार पर अफसरों ने बस से रवाना किया गया, लेकिन बस चालक और कंडक्टर ने कोरबा बलौदा के बीच कनकी पंतोरा बेरियर के पहले ही इन्हें उतार दिया। बलौदा पुलिस थाना के बाद इन्हें जबरन उतार कर दो हजार लेकर बस चालक वहां से वापस लौट गया।
तीन चार दिनों से भूखे प्यासे मजदूर बच्चों के साथ शाम को सडक़ में खड़े रहे, लेकिन थाने से भी मदद नहीं मिली। नगर के युवक ने सूखा राशन दिया तो चूल्हा जलाकर भोजन बनाया। रात में ही मजदूरों ने मस्तूरी ब्लॉक बिलासपुर में परिजनों को वाहन के प्रबंध कराने की सूचना दिए। आज सुबह मस्तूरी बिलासपुर प्रशासन, जनप्रतिनिधियों और परिजनों के सहयोग से मजदूर बलौदा से सुबह 8 बजे अपने गृह ग्राम के लिए रवाना हुए।
च्छत्तीसगढ़’ संवाददाता ने रविवार शाम 5 बजे बलौदा के सब्जी बाजार में उतरे मजदूरों को देखा। मजदूरों ने बताया कि उत्तरप्रदेश के अम्बेडकर नगर जिले के ईंटा भ_े में काम करने वाले महिला पुरुष और 20 बच्चे सहित 65 मजदूरों को छत्तीसगढ़ जाने के लिए पांच दिन पहले ईंटा भ_ा मालिक ने अकबरपुर रेलवे स्टेशन में छोड़ दिया।
बारिश होने के कारण से ईंटे भ_े का काम बंद हो गया तो र्इंटा भ_ा मालिक ने काम बंद होने का हवाला देकर बाहर का रास्ता दिखा दिया, जबकि कोरोना काल के लॉकडाउन में इन लोगों से भरपूर काम लिया और इनकी मेहनत की कमाई भी पूरा नहीं देकर जगह खाली करने को कहा। जहां पर श्रमिक काम बंद होने से अपने राज्य अपने गांव जाने के लिए दिनभर इधर-उधर भटकते रहे।
बेहाल मजदूरोंं की काफी जद्दोजहदऔर गुहार लगाने के बाद वहां से रेलवे के द्वारा इनको एक ट्रेन जो झारखण्ड के मजदूरों को ले कर रांची झारखण्ड जा रही थी उसी में बैठा के रांची के लिए भेज दिया, जबकि इन्हें छत्तीसगढ़ के बिलासपुर आना था। रांची झारखण्ड में इन्हें उतार दिए और अपने साधन से छत्तीसगढ़ जाने को कह रेलवेस्टेशन से बाहर कर दिए रांची में फिर से मजदूर भटकते रहे। फिर वहां के प्रशासन के द्वारा इन्हें बस की व्यवस्था कर छत्तीसगढ़ के बॉर्डर में उतार कर बस वापस लौट गए।
वहां से सभी मजदूर बच्चों सहित भारी भरकम अपना सामान लादे पैदल ही छत्तीसगढ़ की सीमा रायगढ़ में पहुंचे यहां भी इन्हें सहयोग मिलने के बजाए ताने सुनने को मिला। किसी तरह मजदूरों की गुहार उच्चाधिकारियों तक गई जहां से इनके निवास स्थान तक पहुंचाने का भरोसा दिलाया कर बस में बैठाया गया और बस रवाना हुआ, लेकिन बस चालक और कंडक्टर ने कोरबा बलौदा के बीच कनकी पंतोरा बेरियर के पहले ही इन्हें उतार दिया। इसकी जानकारी वहां बेरियर के पास कोरबा एसडीएम को हुई तो उनके चर्चा के बाद बस चालक बलौदा के बछोद पॉइंट तक छोडऩे पर राजी हुआ। इस बीच बस चालक के द्वारा डीजल हेतु पैसे की मांग की गई तब अधिकारियों ने असमर्थता बताई और मजदूरों को ही पैसे देने को कहा। लेकिन मजदूरों का कहना है कि पैसे देने की कोई सहमति नहीं हुई थी और इसी वजह से बस चालक ने बलौदा पुलिस थाना के बाद दैनिक सब्जी बाजार के पास इन्हें जबरन उतार कर इन लोगों से दो हजार लेकर बस चालक वहां से वापस लौट गया।
अब बेसहारा, तीन चार दिनों से भूखे प्यासे मजदूर छोटे छोटे बच्चों के साथ शाम को 5 बजे बीच सडक़ में खड़े रहे। उन्होंने नजदीक बलौदा के पुलिस थाना में मदद की गुहार लगाई, लेकिन बलौदा पुलिस ने भी इन्हें दूसरे जिले से हो कह कर वहां से भगा दिया।
जांजगीर-चांपा जिले बलौदा नगर के एक युवा गोपेश गौरहा ने देखा कि मजदूर और छोटे-छोटे बच्चे भूखे प्यासे हंै तो गोपेश ने उन सभी के लिए चावल, दाल सब्जी प्याज टमाटर, सोयाबीन बड़ी, और लकड़ी, दोना पत्तल की व्यवस्था कर उन्हें भोजन बनाने के लिए दिया। चार दिनों के भूखे प्यासे श्रमिकों ने सब्जी बाजार के सेड के नीचे ही चूल्हा जला कर भोजन बनाया और खा कर रात्रि वहीं विश्राम किये। तब तक बलौदा के अधिकारियों को इसकी खबर नहीं थी, जबकि बलौदा पुलिस इन्हें पहले ही आगे के लिए चलता कर दिए थे।
रात में ही मजदूरों ने मस्तूरी ब्लाक बिलासपुर में अपने-अपने परिजनों को यहां पहुंचने और कोई वाहन के प्रबंध करने कराने की सूचना दिए। आज सुबह मस्तूरी बिलासपुर प्रशासन,जनप्रतिनिधियों और परिजनों के सहयोग से मजदूर बलौदा से सुबह 8 बजे अपने गृह ग्राम के लिए रवाना हुए।
बड़ा नाला लबालब होने से बच्चे आंगनबाड़ी-स्कूल नहीं जा पाते
चंद्रकांत पारगीर
बैकुंठपुर, 17 जून । कोरिया जिले का एक ऐसा आश्रित ग्राम जो बारिश में पूरी तरह अपने ग्राम पंचायत मुख्यालय से कट जाता है। बारिश के दिनों में बड़े नाले में पानी रहने के कारण कुछ बच्चे आंगनबाड़ी भी नहीं जा पाते है, तो कुछ स्कूल। वहीं जिले की बॉर्डर का अंतिम ग्राम होने के कारण विकास की किरण यहां अब तक नहीं पहुंच पाई है। काफी दूर होने के कारण अफसर ग्रामीणों की सुध नहीं लते है। यही कारण है कि ज्यादातर विकास कार्य कागजों में ही सिमट कर रह गए है। ‘छत्तीसगढ़’ ने मंगलवार को गांव जाकर हाल जाना व ग्रामीणों से बातचीत भी की।
ज्ञात हो कि कोरिया जिले के खडग़वां तहसील के ग्राम पंचायत मुगुम के आश्रित ग्राम कांसाबहरा जाने के लिए पंचायत मुख्यालय से दो किमी की दूरी तय कर एक जिंदा नाले को पार करना पड़ता है। बारिश के दिनों में इस नाले को पार करना बेहद कठिन काम होता है। ग्राम के कुछ लोगों के साथ कई मवेशी भी इस नाले के बहाव में कई बार बह चुके हैं। करीब 12 वर्ष पहले तत्कालीन संसदीय सचिव नाले तक पहुंचे थे और नाले पर पुल बनाने का आश्वासन दिया था। मंत्री बनने के बाद चुनाव के समय फिर वो नाले तक पहुंचे, वोट मांगा और इस बार फिर पुल बनाने का आश्वासन दे दिया, पर पुल आज तक नहीं बना और ग्रामीणों की परेशानियां भी खत्म नहीं हुई। वहीं ग्रामीणों को अपना राशन लेने ग्राम पंचायत मुगुम जाना पड़ता है, वह भी नाले को पार करके। वहीं कुछ बच्चों को आंगनबाड़ी जाना होता है तो 6वीं से आगे की पढ़ाई करने वाले बच्चों को भी मुगुम जाने के लिए इसी रास्ते से होकर गुजरना पड़ता है। ऐसे में नाले को पार करने का खतरा हमेशा बना रहता है। ग्राम से बाहर जाने का दूसरा रास्ता है जो कोरबा जिले की तरफ खुलता है। धनपुर से जंगल के बीच होकर ग्रामीण मुख्य मार्ग तक पहुंच जाते है परन्तु उनको अपने काम के लिए ग्राम पंचायत मुगुम की जाना पड़ता है, जो बिना नाला पार किए नहीं जा सकते है।
कागजों पर बन गए कई विकास कार्य
ग्राम पंचायत मुगुम का आश्रित ग्राम कांसाबहरा में कई कार्य स्वीकृत हुए और कागजों पर बन भी गए। ग्रामीणों की मानें तो यहां हैडपंप के करीब स्नानागार बनाया जाना था, पैसा आया और कागजों पर स्नानागार बनकर पैसा निकल भी गया, परन्तु भौतिक रूप में अब तक किसी भी हैंडपंप में स्नानागार नहीं बन सका है। वहीं देवगुड़ी में चबूतरा निर्माण होना था, यहां त्यौहार में पूरा गांव जुटता है, परन्तु यह भी कागजों पर भी बना दिया गया।
इसी तरह इस गांव में एक भी सीसी रोड का निर्माण नहीं हुआ है। बारिश के इस मौसम में सडक़ों पर पैदल चलना भी दूभर है। पीली और चिकनी मिट्टी होने के कारण पैदल लोग फिसल कर घायल हो रहे है। सडक़ों में कई वर्षों से मुरूमीकरण तक नहीं हुआ है। इसी तरह यहां सामुदायिक भवन भी आया था, परन्तु बना आज तक नहीं है।
किसी काम के नहीं शौचालय
कांसाबहरा में 303 वोटर है, यहां की जनसंख्या में 500 के आसपास है, ऐसे में वर्ष 2017-18 में कई ग्रामीणों के शौचालय आज तक नहीं बनाए गए हैं। ग्रामीणों का कहना है कि जो शौचालय बने भी है वो किसी काम के नहीं है, सिर्फ शौचालयों को खड़ा कर दिया गया, ना तो सोखता बनाया गया और ना ही शौचालय में शीट लगाई गई। वहीं शौचालय में काम करने वाले स्थानीय मजदूरों को आज तक मजदूरी नहीं दी गई है, और पूरे ग्राम पंचायत को ओडीएफ घोषित कर दिया गया। ग्रामीणोंं ने कई बार मजदूरी की मांग की, परन्तु किसी ने सुध नहीं ली।
आंगनबाड़ी स्कूल जर्जर
कांसाबहरा ग्राम में स्थित आंगनबाड़ी भवन जर्जर हो चुका है, वहीं प्राथमिक स्कूल की हालत बेहद खराब है, ग्रामीणों का कहना है कि दोनों ही भवन का प्लास्टर कई बार गिर चुका है, आंगनबाड़ी भवन की छत तो एकदम ही खराब हो चुकी है। स्कूल भवन के साथ रसोईघर की दीवार भी टूट कर गिर चुकी है। वहीं ग्रामीणों की मांग है कि उनके गांव में एक सामुदायिक भवन, एक मिनी आंगनबाड़ी के साथ जल्द से जल्द नाले पर पुलिया निर्माण करवाई जाए।
इस संबंध में बैकुंठपुर विधायक अंबिका सिंहदेव का कहना है कि बारिश के मौसम में वहां ये परेशानी प्राय: देखी जाती है। उक्त पुल निर्माण के लिए मेरे द्वारा प्रस्ताव बनाने को कहा गया है, मैं मुगुम गई थी तभी मुझे वहां के लोगों ने बताया था, दूसरी ओर से वहां दो हैंडपंप का खनन कार्य भी करवाया गया है, जो हैंडपंप बिगड़े है, उन्हें भी सुधार कार्य करवाने के लिए विभाग को कहा गया है।
हाथियों का रहवास
कोरिया जिले के खडग़वां में आने वाले हाथियों का कांसाबहरा रहवास माना जाता है, कुछ माह पूर्व आए हाथी का दल यहां दो माह रूका, कुछ ग्रामीणों की फसल खाई, एक दो ग्रामीणों के घरों को हल्का नुकसान पहुंचाया, ग्रामीण बताते हैं कि इस बार दो माह रूके हाथियों दल में दो शावकों का जन्म यही हुआ, उनके बच्चे जब तक चलने लायक नहीं हो जाते, तक तक उन्हें रूकना पड़ता है, ऐसे में हाथी रात के साथ साथ दिन भी गांव में घूमते रहते थे। इस दौरान किसी प्रकार की जनहानि नहीं हुई थी।