साहित्य/मीडिया
-अरविंद दास
रेत समाधि: बुकर पुरस्कार के करीब हिंदी उपन्यास‘रेत समाधि’ (टॉम्ब ऑफ सैंड) अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट की गई है.
हिंदी भाषा और साहित्य के लिए यह गर्व की बात है कि गीतांजलि श्री का उपन्यास ‘रेत समाधि’ (टॉम्ब ऑफ सैंड) अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट की गई है. उल्लेखनीय है कि यह हिंदी की पहली कृति है जिसे अंतिम छह की सूची में शामिल किया गया है. अब अगले महीने लंदन में होने वाले पुरस्कार समारोह पर सबकी नजर रहेगी. अन्य चयनित (शॉर्टलिस्ट) पांच किताबों में बोरा चुंग की ‘कर्स्ड बनी’, जॉन फॉसे की ‘ए न्यू नेम: सेप्टोलॉजी VI-VII’, मीको कावाकामी की किताब ‘हेवेन’, क्लाउडिया पिनेरो द्वारा लिखित ‘एलेना नोज़’ और ओल्गा टोकार्ज़ुक की ‘द बुक्स ऑफ जैकब’ शामिल है.
उल्लेखनीय है कि पोलिश लेखिका ओल्गा टोकार्ज़ुक को साहित्य के लिए वर्ष 2019 में नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, साथ ही वर्ष 2018 में ‘फ्लाइट्स’ उपन्यास के लिए बुकर पुरस्कार से भी वे सम्मानित हुई थीं. 50,000 पाउंड के इस पुरस्कार को अनुवादक और लेखिका के बीच बांटा जाएगा. ‘रेत समाधि’ उपन्यास को डेजी रॉकवेल ने अनुवाद किया है.
यह किताब अपनी विषय-वस्तु, भाषा, किस्सागोई और समय-काल के बदलते परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य को लेकर चर्चा में रही है. ज्यूरी ने भी इस किताब की प्रशंसा करते हुए इसे रेखांकित किया है. उन्होंने इसे ‘लाउड और इरेसिस्टेबिल’ कहा है. हालांकि आम पाठकों के लिए इस उपन्यास का शिल्प दुरूह है.
पीठ, धूप, हद-सरहद जैसे खंडों में बंटे इस उपन्यास के केंद्र में अस्सी वर्षीय विधवा है. बेटी और मां के रिश्ते के माध्यम से हम घर-परिवार में दाखिल होते हैं और विभिन्न किरदारों केके, सिड, रोजी (ट्रांसजेंडर), अली अनवर से रू-ब-रू होते हैं. दीवार की ओर पीठ किए दादी का चित्रण देखिए:
उट्ठो
नहीं
धूप
नहीं.
सूप नहीं.
पीठ. चुप. दीवार
सुबह से पड़ी है
बाथरूम भी देर से गई और आकर पड़ रही
खाना नहीं पीना नहीं चाय मुँह तक ले जाना नहीं
फूल खिले हैं परवाह नहीं
गुलदाउदी, पर देखना नहीं.
इससे पहले गीतांजलि श्री के चार उपन्यास – ‘माई’, ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘तिरोहित’, ‘खाली जगह’ पुरस्कृत और चर्चित हो चुके हैं. अपने पहले उपन्यास ‘माई’ और ‘तिरहोति’ में भी गीतांजलि श्री ने स्त्री जीवन को चित्रित किया है. ‘रेत समाधि’ पढ़ते हुए खास कर उनके पहले उपन्यास ‘माई’ याद आती है, पर रेत समाधि का फलक काफी व्यापक है. बीस साल पहले हिंदी के आलोचक मैनेजर पांडेय ने गीतांजलि श्री के कथा-विन्यास में मौजूद ‘विनोदी और विद्रोही स्वभाव’ का जिक्र किया था. यह ‘स्वभाव’ रेत समाधि में खुल कर अभिव्यक्त हुआ है. इस मामले में ‘रेत समाधि’ समकालीन हिंदी उपन्यासों में अनूठा है.
यह किताब वर्ष 2018 में प्रकाशित हुई. इस साल हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, ऐसे में सरहद और विभाजन की त्रासदी भी हमारे जेहन में है. हद-सरहद खंड के शुरुआत में लिखी इन पंक्तियों पर गौर कीजिए: ‘वाघा आ गए तो गाथा ड्रामा और कथा पार्टीशन.’
यहाँ आपको मोहन राकेश के मलबे का मालिक मिलेगा, मंटो का टोबा टेक सिंह भी. यहां कृष्णा सोबती हैं, खुशवंत सिंह हैं. इंतजार हुसैन, शानी और राही मासूम रजा हैं.
जब चंद्रप्रभा देवी पाकिस्तान जाती है तो हमारे मन में बॉर्डर का सवाल उठता है? इसका क्या मतलब है? रेत समाधि का प्रसंग है: “जिसे कहते हैं बार्डर उसके पार खड़ी औरत पृथ्वी की तरह धीमे धीमे चकरा रही है, इधर जाना है कि किधर? आज ही के लिए जैसे उसने दर्वेशाना पोशाक पहनी थी. पोशाक भी चकरा रही है. बेटी उसका चक्कर रोक के सामने को घुमा देती है. लाहौर को जाती सड़क पे. जिस सड़क पे वे हैं उसे ग्रैंड ट्रंक रोड कहते हैं जो इधर भी जाती है, उधर भी.”
पिछले दिनों कई पुरस्कारों से सम्मानित फिल्मकार अनूप सिंह से मैं बातचीत कर रहा था, जिन्होंने विभाजन (पार्टीशन) को लेकर चर्चित फिल्म ‘किस्सा’ बनाई है. उनके दादा ने विभाजन के दंश को झेला था जो इस फिल्म में अंबर सिंह (इरफान खान) के रूप में मौजूद हैं. वे कहते हैं कि ‘हम सब रिफ्यूजी हैं और एक-दूसरे में ही बसते हैं- वही हमारा वतन है.’ राजनीति जो नहीं कहती है वह बात साहित्य, सिनेमा कहता है. इस उपन्यास में एक पंक्ति है- ‘मत मानो बार्डर को. बार्डर से अपने टुकड़े मत करो.’
इस किताब में एक कथा के साथ कई कथाएँ जुड़ी हुई आती हैं जिसके लिए पाठक पहले से तैयार नहीं रहता और अचंभित होता है. शुरुआत में जो विधवा स्त्री- अम्मा, दीवार की तरफ पीठ किए है वही पाकिस्तान में गोली खा कर मरती है. क्या यह प्रेम कहानी है?
पिछले दिनों एक इंटरव्यू में गीतांजलि श्री ने स्वीकार किया कि वे लिखते समय ‘ध्वनि के प्रति बहुत सजग रहती हैं’. यह सजगता उपन्यास के हर पन्ने पर दिखती है. इस उपन्यास में किस्सागोई है, पर विन्यास कविता का है. जाहिर है पौने चार सौ पेज के इस उपन्यास का आस्वाद हमें तभी मिलता है. जब हम ठहर-ठहर कर कविता की तरह इसे पढ़ते हैं.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है) (news18.com)
हसरत मोहानी का जन्म 14 अक्टूबर 1878 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव में हुआ था. उनका असली नाम सय्यद फ़ज़लुल हसन था. पढ़ें, उनके लिखे मशहूर शेर
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है,हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
नहीं आती तो याद उन की महीनों तक नहीं आती,मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं
तेरी महफ़िल से उठाता ग़ैर मुझ को क्या मजाल,देखता था मैं कि तू ने भी इशारा कर दिया
आरज़ू तेरी बरक़रार रहे,दिल का क्या है रहा रहा न रहा
वफ़ा तुझ से ऐ बेवफ़ा चाहता हूँ,मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ
इक़रार है कि दिल से तुम्हें चाहते हैं हम,कुछ इस गुनाह की भी सज़ा है तुम्हारे पास (news18.com)
शहरयार के शेर : 'शहरयार' का जन्म 16 जून 1936 को उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ था. उनका मूल नाम अख़लाक़ मोहम्मद ख़ान शहरयार था. ख़लील-उर-रहमान आज़मी उनके गुरु थे. जानकारी के मुताबिक साल 1987 में उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाजा गया था. उन्होंने फ़िल्म उमराव जान के गीत भी लिखे थे. पढ़ें, उनके चुनिंदा अशरार
है कोई जो बताए शब के मुसाफ़िरों को, कितना सफ़र हुआ है कितना सफ़र रहा है
शिकवा कोई दरिया की रवानी से नहीं है, रिश्ता ही मिरी प्यास का पानी से नहीं है
जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूँ है, ज़िंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूँ है
शाम होते ही खुली सड़कों की याद आती है, सोचता रोज़ हूँ मैं घर से नहीं निकलूँगा
जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने, इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का, यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का (साभार-रेख़्ता) (news18.com)
जब भी क्रांति का जिक्र होता है, तब कई ऐसी हस्तियों का नाम भी लोगों की जुबान पर जरूर आता है जिन्होंने अपने तरीके से बुराई के खिलाफ आवाज उठाई. साहित्य के जरिए भी कई लोगों ने समाज में बदलाव लाने की कोशिश की. उन क्रांतिकारी कवियों की फेहरिस्त में ‘पाश’ का नाम जरूर लिया जाता है. इंकलाबी पंजाबी कवि ‘पाश’ का मूल नाम अवतार सिंह संधू था. जानकारी के मुताबिक उन्हें क्रांति का कवि माना जाता है. उन्होंने 15 साल की उम्र से ही कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. साल 1967 में उनकी कविताओं का पहला प्रकाशन हुआ था. जानकारों के अनुसार उनकी कविताओं में गांव की मिट्टी की खूशबू, क्रांति, विद्रोह और इंसानों से जुड़ी भावनाएं मिलती हैं. उनकी कलम की धार से डर कर 23 मार्च, 1988 को आतंकवादियों ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी.
आज ‘पाश’ की पुण्यतिथि है. पढ़ें, उनकी रचना- ‘हम लड़ेंगे साथी’, ‘मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से’ और क़ैद करोगे अंधकार में’
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, सवाल नाचता है
सवाल के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े गाँठों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब बन्दूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
हम लड़ेंगे कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता, हम लड़ेंगेहम लड़ेंगे कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता, हम लड़ेंगे
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वाले की
याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक़्त इसी का नाम है
कि घटनाएँ कुचलती हुई चली जाएँ
मस्त हाथी की तरह
एक समूचे मनुष्य की चेतना को ?
कि हर सवाल
केवल परिश्रम करते देह की ग़लती ही हो
क्यों सुना दिया जाता है हर बार
पुराना लतीफ़ा
क्यों कहा जाता है हम जीते है
ज़रा सोचें –
कि हममे से कितनो का नाता है
ज़िन्दगी जैसी किसी चीज़ के साथ!
रब्ब की वह कैसी रहमत है
जो गेहूँ गोड़ते फटे हाथो पर
और मंडी के बीच के तख़्तपोश पर फैले माँस के
उस पिलपिले ढेर पर
एक ही समय होती है ?
आख़िर क्यों
बैलों की घंटियों
पानी निकालते इंज़नो के शोर में
घिरे हुए चेहरों पर जम गई है
एक चीख़ती ख़ामोशी ?
कौन खा जाता है तलकर
टोके पर चारा लगा रहे
कुतरे हुए अरमानो वाले पट्ठे की मछलियों ?
क्यों गिड़गिडाता है
मेरे गाँव का किसान
एक मामूली पुलिस वाले के सामने ?
क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीख़ने को
हर बार कविता कह दिया जाता है ?
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीख़ने को हर बार कविता कह दिया जाता है ? मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज सेक्यों कुचले जा रहे आदमी के चीख़ने को हर बार कविता कह दिया जाता है ? मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
यह भी पढ़ें- पढ़ें, सावित्रीबाई फुले की कविताएं- ‘शूद्रों का दुख’ और ‘श्रेष्ठ धन’
क़ैद करोगे अंधकार में
क्या-क्या नहीं है मेरे पास
शाम की रिमझिम
नूर में चमकती ज़िंदगी
लेकिन मैं हूं
घिरा हुआ अपनों से
क्या झपट लेगा कोई मुझ से
रात में क्या किसी अनजान में
अंधकार में क़ैद कर देंगे
मसल देंगे क्या
जीवन से जीवन
अपनों में से मुझ को क्या कर देंगे अलहदा
और अपनों में से ही मुझे बाहर छिटका देंगे
छिटकी इस पोटली में क़ैद है आपकी मौत का इंतज़ाम
अकूत हूँ सब कुछ हैं मेरे पास
जिसे देखकर तुम समझते हो कुछ नहीं उसमें(अनुवाद: प्रमोद कौंसवाल)
साभार- कविता कोश
आज 23 मार्च है. आज ही के दिन 1988 में आतंकवादियों ने अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की हत्या कर दी थी. संभवतः पाश भारत के एकमात्र कवि रहे हैं, जिनकी हत्या आतंकवादियों ने की है. स्पेन के लोककवि फेडेरिको गार्शिया लोर्का भी मारे गए थे. कहा जाता है कि लोर्का की कविता ‘एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत’ का टेप जब जनरल फ्रैंको ने सुना तो उन्होंने कहा कि यह आवाज बंद होनी चाहिए. पाश के लिए लोग कहते हैं कि पंजाब को भी एक लोर्का मिला था. पाश की कविताएं खालिस्तान समर्थक आतंकवादियों के आकाओं को सुहाती नहीं थीं. उन्हें दिखता था कि पाश की आवाज में जो बुलंदी है, वह उनके मिशन के रास्ते में बड़ा बाधक है. और यही वजह रही कि आतंकवादियों ने उस बुलंद आवाज को हमेशा-हमेशा के लिए खामोश कर देना चाहा. लेकिन पाश को मारने के बाद उनकी आवाज और दबंग हो गई. पंजाबी भाषा तक सीमित उनकी आवाज पसरकर हिंदी साहित्य का अहम हिस्सा बन गई. आज ही के दिन 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी. आज ही के दिन 1910 में उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया का जन्म हुआ था और 12 अक्टूबर 1967 में उनका निधन हुआ था.
पाश का जन्म 1950 में हुआ था. पाश के जन्म के 19 साल पहले आजादी के दीवाने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु फांसी पर चढ़ा दिए गए थे और जब लोहिया का निधन हुआ तब पाश 17 साल के रहे होंगे. पाश की कविताओं में उनके तेवर, संदेश और विचारों को महसूस करते हुए यह सोचना सुखद लगता है कि पाश अपने तेवर में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के काफी करीब हैं और उनके विचारों में लोहिया के अंश हैं.
पाश के दौर को समझने के लिए उनके समकालीन कवि सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की कविताएं भी याद की जानी चाहिए. वैसे, धूमिल का निधन 1975 में हो चुका था यानी पाश की हत्या से लगभग 13 साल पहले धूमिल दुनिया छोड़ चुके थे. धूमिल का जन्म 1936 में हुआ था. यानी, उन्होंने पाश से 1 साल ज्यादा जिया. 38 की उम्र में पाश मार दिए गए जबकि 39 की उम्र में धूमिल का निधन हुआ. इन दोनों परंपराभंजक कवियों की कविताओं में विषय साम्य तो है, लेकिन उनके कहने में बड़ा अंतर है.
वह दौर प्रतीकों में लोहे का दौर था. चाहे वह लोहा हथकड़ियों का हो या गोली का – देश की आजादी के बाद विकास की नाकामी से उपजी मोहभंग की पीड़ा सबके मन में थी. कवि इस मोहभंग से उबरना चाहते थे. वे चाहते थे कि देश के विकास के जो सपने देखे गए, आजादी के बाद वे साकार हों. कल-कारखानों (बुनियाद में लोहा) का विकास हो, रोजगार और शिक्षा के अवसर मिलें. चिकित्सा व्यवस्था बेहतर हो. पर जब जनता की उम्मीदों पर शासन खरा नहीं उतर पा रहा था तो लोग तैयार थे सरकार की इस नाकामी से लोहा लेने को. तो कुल मिलाकर 19वीं सदी के सातवें दशक में क्रांतिकारी कवियों ने नाकाम सरकार को लोहे के चने चबवा दिए. ये कवि महज कवि नहीं थे, सही अर्थों में क्रांतिकारी थे, जो हर बात के लिए राजी थे कि चाहे हाथों में हथकड़ियां डालो या सीने में उतार दो लोहा, लेकिन हमें हमारे सपनों के साथ जीने दो, हमारे सपने साकार करो. शायद यही वजह है कि धूमिल और पाश दोनों की कविताओं में ‘लोहा’ दिखता है.
धूमिल की कविता है ‘लोहे का स्वाद’. कहा जाता है कि यह उनकी अंतिम कविता थी. गौर करें –
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज है या
मिट्टी में गिरे हुए खून
का रंग
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है.
पाश ने अपने पहले काव्य संग्रह का नाम रखा था – लौहकथा. इस नाम को सार्थक करनेवाली उनकी कविता है लोहा. कवि ने इस कविता में लोहे को इस कदर पेश किया है कि समाज के दोनों वर्ग सामने खड़े दिखते हैं. एक के पास लोहे की कार है तो दूसरे के पास लोहे की कुदाल. कुदाल लिए हुए हाथ आक्रोश से भरे हैं, जबकि कारवाले की आंखों में पैसे का मद है. इस वर्ग संघर्ष में पाश को जो अर्थपूर्ण अंतर दिखता है, वह यह है कि :
आप लोहे की चमक में चुंधियाकर
अपनी बेटी को बीवी समझ सकते हैं
(लेकिन) मैं लोहे की आंख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
भी पहचान सकता हूं
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो.
धूमिल अपनी कविता में लोहे का ‘स्वाद’ तलाशते दिखते हैं, जबकि पाश बताते हैं कि उन्होंने लोहा ‘खाया’ है. इन दोनों कवियों की भाषा इतनी सहज और इतनी तरल है कि गुस्सा हो या प्यार – सीधे-सीधे पाठकों के दिल में उतर जाते हैं. पाश की रचनाओं से गुजरने के बाद यह पुख्ता तौर पर कहा जा सकता है कि उनकी जिंदगी में महज दो रंग थे – या तो वहां ब्लैक था या फिर वाइट, पाश के जीवन में कहीं कोई ग्रे शेड नहीं मिलता. जबकि धूमिल के लेखन में ग्रे शेड खूब आसानी से दिख जाएंगे, जहां वे समझौता करते हुए दिखते हैं.
पाश का जीवन सहज नहीं था. उनके जीवन में भटकाव था. उनके पिता फौज में थे. नतीजतन हमेशा घर से बाहर रहे. मां अशिक्षित थीं सो घर में पढ़ाई का कोई माहौल नहीं था. लिहाजा पाश कभी भी विधिवत और क्रमबद्ध तरीके से पढ़ाई नहीं कर सके. किसी तरह इंटर की परीक्षा पास कर ली. लेकिन जीवन की पाठशाला में पाश ने जो कुछ पढ़ा, वे विश्वविद्यालयों की खाक छानकर भी नहीं पढ़ पाते. विधिवत शिक्षा उन्हें उस तरह नहीं रच पाती, जिस तरह उनके भटकाव ने उन्हें जितना रचा. हो सकता है कि शिक्षा का असर उनपर यह होता कि वे कुलीन और शालीन कवि के रूप में उभरते, लेकिन वे वह खरा पाश नहीं बन पाते जो अपने खुरदरे व्यक्तित्व के कारण वे बन पाए. अपने इस खुरदरे व्यक्तित्व को पाश खूब पहचानते थे. अपनी एक कविता में वे लिखते हैं –
तुम्हें पता नहीं
मैं शायरी में किस तरह जाना जाता हूं
जैसे किसी उत्तेजित मुजरे में
कोई आवारा कुत्ता आ जाए
तुम्हें पता नहीं
मैं कविता के पास कैसे जाता हूं
कोई ग्रामीण यौवना घिस चुके फैशन का नया सूट पहने
जैसे चकराई हुई शहर की दुकानों पर चढ़ती है।
सुदामा पांडेय धूमिल ने अपनी लंबी कविता ‘पटकथा’ में तार-तार होते भारत की तस्वीर खींची है. उन्होंने बताया है कि इस तार-तार होने में भी हाथ हमारा ही है. क्योंकि अक्सर हमारे विरोध की भाषा चुक जा रही है. हम चुप होते जा रहे हैं. इतना ही नहीं, अपनी चुप्पी को हम अपनी बेबसी के रूप में पेश कर उसे सही और तार्किक बता रहे हैं. कुछ इस तरह –
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठंडा आदमी नहीं हूं
मुझमें भी आग है
मगर वह
भभक कर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ चक्कर काटता
एक पूंजीवादी दिमाग है
जो परिवर्तन तो चाहता है
आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीजों की शालीनता बनी रहे
कुछ इस तरह कि कांख भी ढंकी रहे
और विरोध में उठे हुए हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे
और यही वजह है कि बात
फैलने की हद तक आते-आते रुक जाती है
क्योंकि हर बार
चंद टुच्ची सुविधाओं के लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है…
पर पाश की कविताएं बीच का रास्ता नहीं जानतीं, न बताती हैं. वे तो प्रेरित करती हैं विद्रोह करने के लिए, सच को सच की तरह देखने के लिए, उससे आंखें मूंद कर समझौता करने के लिए नहीं –
…हाथ अगर हों तो
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ अगर हों तो
‘हीर’ के हाथों से ‘चूरी’ पकड़ने के लिए ही नहीं होते
‘सैदे’ की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
‘कैदो’ की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
लुटेरे हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं.
पाश को पढ़ते हुए लगता है कि वे ‘खतरनाक’ कवि थे. उनके पास चमकती हुई एक ऐसी भाषा और ऐसे बिंब थे, जिनसे आम आदमी सहज ही जुड़ जाता है. यही वजह है कि पाश की कविताएं पाठकों के भीतर, कहीं गहरे भीतर तक धंस जाती हैं. और जब विद्रोह की कविताएं दिलो-दिमाग में रच-बस जाएं, धंस जाएं तो कहने की जरूरत नहीं कि पाठक भी विद्रोही हो जाता है –
मेहनत की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
लोभ और गद्दारी की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाये पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप्पी में जकड़े जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ना बुरा तो है
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
पर सबसे खतरनाक नहीं होता।
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब कुछ सहन कर लेना
घर से निकलना काम पर और काम से घर लौट जाना
सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना…
वैसे तो पाश की राजनीतिक गतिविधियां काफी तेज रही हैं. विभिन्न पार्टियों से जुड़कर आमजन के लिए लड़ना उनका धर्म रहा है. पर उनकी मुख्य पहचान किसी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में नहीं बनी, बल्कि एक क्रांतिकारी और जुझारू कवि के रूप में बनी. पार्टियों के बदलते स्टैंड और वहां पैठी अवसरवादिता पाश को कचोटती थी। यह पाश की खीज ही थी जो हमारे समय में पूरे चरम पर दिखती है –
यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्द ने
बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं
मार्क्स का सिंह जैसा सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे समयों में होना था…
पाश की कविताओं से गुजरते हुए एक खास बात यह लगती है कि उनकी कविता की बगल से गुजरना पाठकों के लिए मुश्किल है. इन कविताओं की बुनावट ऐसी है, भाव ऐसे हैं कि पाठक बाध्य होकर इनके बीच से गुजरते हैं और जहां कविता खत्म होती है, वहां आशा की एक नई रोशनी के साथ पाठक खड़े होते हैं. यानी, तमाम खिलाफ हवाओं के बीच भी कवि का भरोसा इतना मुखर है, उसका यकीन इतना गहरा है कि वह पाठक को युयुत्सु तो बनाता ही है, उसकी जिजीविषा को बल भी देता है.
मैं किसी सफेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हजारों चेहरों में से एक हूं
मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है.
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है.
तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है
मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में गलत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं
अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं
अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है.
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंजरों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की.
पाश विद्रोही कवि थे. उनका यह विद्रोह गांधी परिवार और खास तौर पर इंदिरा गांधी के खिलाफ खुलकर सामने आया है. स्वर्ण मंदिर परिसर में चले ऑपरेशन ब्लूस्टार की वजह से उन्होंने इंदिरा गांधी का खूब विरोध किया था. नवंबर ’84 के सिख विरोधी दंगों से सात्विक क्रोध में भर कर पाश ने ‘बेदखली के लिए विनयपत्र’ जैसी रचना भी की. इस कविता में मारे गये निर्दोष सिखों के प्रति गहरी सहानुभूति थी, तो दूसरी तरफ सत्ता की गलत नीतियों के प्रति विद्रोह भी –
मैंने उम्रभर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफसोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें …
… इसका जो भी नाम है – गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो.
तो सवाल उठता है कि आखिर पाश के लिए भारत क्या है? कैसा देश है? और अपने भारत के प्रति पाश क्या विचार रखते हैं? उस भारत के प्रति पाश के भीतर कैसा सम्मान है? पाश के ही शब्दों में –
भारत
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहां कहीं भी इस्तेमाल होता है
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं…
पर पाश इस भारत को किसी सामंत पुत्र का भारत नहीं मानते. वह मानते हैं कि भारत वंचक पुत्रों का देश है. और भारत को अपने लिए सम्मान मानने वाले पाश कहते हैं –
इस शब्द के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर है
जहां अनाज उगता है
जहां सेंध लगती है…
पाश ने ताउम्र अपने सपनों की हिफाजत की. सपनों को जिंदा रखने के लिए जंग किया. पर सवाल यह भी है कि पाश का सपना क्या था? जाहिर है पाश का सपना था गैरबराबरी से मुक्त समाज. एक ऐसा समाज जहां न कोई राजा हो न कोई प्रजा. जिस समाज में लोगों को आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक बराबरी का अधिकार मिले. शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी जरूरतें जो समाज पूरी कर सके, ऐसा समाज रचना चाहते थे पाश. इसीलिए तो वे लिखते हैं –
हम लड़ेंगे साथी
उदास मौसम से
हम लड़ेंगे साथी
गुलाम इच्छाओं से
हम चुनेंगे साथी
जिंदगी के सपने…
सच है कि पाश जैसा कवि दुनिया में रेयरेस्ट ऑफ द रेयर होता है और ऐसा कवि कभी मर नहीं सकता. वह तो अपनी मौत को भी लताड़ चुका होता है, उससे पार पा चुका होता है.
आवाज़ दे के देख लो शायद वो मिल ही जाए, वर्ना ये उम्र भर का सफ़र राएगाँ तो है
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए, उन में जा कर मगर रहा न करो
ग़म की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं, तू ने मुझ को खो दिया मैं ने तुझे खोया नहीं
मोहब्बत अब नहीं होगी ये कुछ दिन ब'अद में होगी, गुज़र जाएँगे जब ये दिन ये उन की याद में होगी
थके लोगों को मजबूरी में चलते देख लेता हूँ, मैं बस की खिड़कियों से ये तमाशे देख लेता हूँ
ख़्वाहिशें हैं घर से बाहर दूर जाने की बहुत, शौक़ लेकिन दिल में वापस लौट कर आने का था (साभार-रेख़्ता)
आज महिलाएं हर सेक्टर में आगे हैं. सफलता के मार्ग में लगातार आगे बढ़ रही हैं लेकिन उनके यहां तक पहुंचने की राह आसान नहीं रही. इसी समाज में कई ऐसी कुप्रथाएं थीं जिन्होंने सदियों तक लड़कियों और महिलाओं को बेड़ियों में बांध कर रखा लेकिन फिर 18वीं सदी में एक क्रांति आई. सावित्रीबाई फुले के नाम से आई इस क्रांति ने बाल-विवाह, सती प्रथा, जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई.
सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1931 को महाराष्ट्र के सतारा में स्थित नायगांव में हुआ था. आपको यह जानकार हैरानी और सावित्रीबाई पर गर्व होगा कि उन्होंने साल 1848 से लेकर 1852 के बीच लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले थे. महज 17 साल की उम्र में ही वह अध्यापिका और प्रधानाचार्या बन गईं थीं. कम उम्र में उनके इस ऐतिहासिक कदम में उनका साथ उनके पति व सामाजिक क्रांतिकारी नेता ज्योतिबा फुले ने दिया था.
साल 1897 में सावित्रीबाई फुले प्लेग-पीड़ितों की मसीहा बनीं. जिसके बाद वह खुद भी प्लेग पीड़ित हो गईं. इसी साल 10 मार्च को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. आज भारत की पहली अध्यापिका और सामाजिक क्रांति की अगुआ सावित्रीबाई फुले की पुण्यतिथि पर पढ़ें उनकी लिखी चुनिंदा कविताएं. आपको बता दें कि उनकी मूल कविताएं मराठी में हैं. यहां आप उनकी रचनाओं का अनुवाद पढ़ेंगे. इसके साथ ही आपको यह जानकारी भी दे दें कि कविताओं के अलावा उन्होंने पत्र, भाषण, लेख और पुस्तकें आदि भी लिखी हैं. उन्होंने 2 काव्य संग्रहों की रचना की थी.
पढ़ें, सावित्रीबाई फुले की रचनाएं
शूद्रों का दुख
दो हजार वर्ष पुराना
शूद्रों से जुड़ा एक दुख।
ब्राह्मणों की सेवा की आज्ञा देकर
झूठे-मक्कार स्वयं घोषित
धरती के देवताओं ने उसे पछाड़ा।
शुद्रों की बदहाली, लाचारी देखकर
हाय उद्गार होठों से फूट पड़े
मुक्ति का सुलभ उपाय, राह कौन सी
सोच-विचार के मति रिक्त-खाली हुई।
शूद्रों के लिए कहने योग्य
है शिक्षा की राह प्रकाशित
शिक्षा प्राप्ति से मिले इंसानियत
पशुता कभी आती नहीं निकट।
श्रेष्ठ धन
सुबह-सवेरे उठे जो बच्चा,
शौच आदि मुखमार्जन करे
हो जाए नहा-धोकर तैयार
और करे माता-पिता को अभिवादन।
स्मरण करके गुरू का
मन लगाकर करे पढ़ाई
लाभकारी है दिन जीवन के व्यर्थ ना गवाएं।
करे नित पढ़ाई ज्ञान पाने के लिए
विद्या को समझकर सर्वोच्च
लीजिए लाभ विद्या का
मन के एकाग्र करते हुए।
विद्या ही धन है
सभी धन-दौलत से सर्वश्रेष्ठ अच्छा
जिसके पास है ज्ञान का भण्डार
है वह ज्ञानी जनता की नजरों में सच्चा।(मूल कविताओं का अनुवाद- शेखर पवार और फ़ारूक शाह)
-सुधांशु गुप्त
Book Review: अगर माना जाए तो यह प्रेम कहानी है- एक दुखद प्रेम कहानी. तटस्थ आत्मीयता से लबरेज प्रेम कहानी. एक दुखद प्रेम कहानी. हिंदी या अन्य भाषाओं में भी ऐसा देखने को नहीं मिलता कि किसी प्रेमिका ने अपने प्रिय लेखक को लेकर इतनी आत्मीयता से लिखा हो. इस प्रेम कहानी के नायक हैं रूस (विश्व) के महानतम लेखक चेखव और नायिका हैं मास्को में पैदा हुईं लीडिया एविलोव.
लीडिया चेखव से चार वर्ष छोटी थीं. जब चेखव से वह पहली बार मिलीं तो उनकी उम्र महज 25वर्ष थी. उनका नौ माह का एक बेटा भी था. 1889 से लेकर 1899 के बीच लीडिया की चेखव से केवल आठ मुलाकातें हुईं. यह भी मुमकिन है कि दोनों के बीच और मुलाकातें भी हुई हों. लेकिन प्रेम में मुलाकातों की अधिकता कोई मायने नहीं रखती.
चेखव स्वयं कहते हैं, ‘जानती हो कि अगर मैंने शादी की होती तो मैं अपनी पत्नी से अलग रहने के लिए कहता…ताकि ज्यादा समय साथ बिताने से आपसी व्यवहार में जो असावधानी या अशिष्टता का पुट आ जाता है, वह हमारे बीच न आ पाए.’
लीडिया ने दस वर्षों में चेखव से हुई आठ मुलाकातों का जिक्र ‘चेखव इन माई लाइफ’ शीर्षक से लिखी पुस्तक में किया. लेकिन यह पुस्तक 78 वर्ष की आयु में लीडिया की मृत्यु के कई वर्षों बाद प्रकाशित हुई. इसके भी काफी सालों बाद यह किताब हिन्दी में ‘मेरी ज़िन्दगी में चेखव’ शीर्षक से प्रकाशित हुई.
डेविड मैगार्शक के अंग्रेजी अनुवाद से इसकी पुनर्पस्तुति की है रंजना श्रीवास्तव से. संपादकत्व की जिम्मेदारी संभाली राजेन्द्र यादव ने. इस पुस्तक में चेखव के जीवन के भी बहुत से पहलुओं को देखा जा सकता है. लीडिया से मुलाकात के बाद चेखव अपने लेखन के प्रति गंभीर हुए. लीडिया की चेखव से मुलाकात, उनकी बड़ी बहन के पति (जो एक बड़े अखबार से सम्पादक-प्रकाशक थे) के सौजन्य से हुई. एक दिन लीडिया को नाद्या का यह संदेश मिला-चेखव से मिलना है तो तुरंत चली आओ. लीडिया दौड़ी-दौड़ी चेखव से मिलने चली गईं. इसके बाद दोनों आध्यात्मिक और आत्मिक रूप से एक दूसरे से जुड़ गए. जीवनभर जुड़े रहे.
लीडिया चेखव से अपने प्रेम को बाकायदा स्वीकारती हैं. एक पत्र में उन्होंने लिखा, ‘आप बखूबी जानते हैं कि मैं (लीडिया) आपके लिए क्या महसूस करती हूं और यह लिखने में मुझे किंचित भी लज्जा नहीं. मैं यह भी जानती हूं कि आपके मन में मेरे प्रति सौहार्द और विरक्ति के सिवा कुछ नहीं. मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस विकट स्थिति से खुद को उबारूं, पर अपने आप इसे कर पाना मेरे लिए बड़ा कठिन है. आपसे विनती है कि मेरी सहायता करें. कृपया मुझसे न कहें कि मैं आपसे मिलूं और न ही मुझसे मिलने का प्रयास करें.’
1892 में लीडिया और चेखव की दूसरी मुलाकात हुई. तब लीडिया के पति को अपनी पत्नी के विषय में कई जानकारियां मिल चुकी थीं. इसके बाद चेखव अत्यंत सावधान हो गए कि लीडिया को ऐसी किसी बात से बचाएँ, जिससे उसे बदनामी की हवा भी लग सके. चेखव को इस बात का भी पूर्वाभास हो गया था कि एक दुखदायी प्रेम प्रसंग से गुजरना उनकी नियति है. उन्होंने लीडिया से पहली मुलाकात के बाद उन्हें एक पत्र में जीवन की अनेक परेशानियों के बाद लिखा था, बस अब मुझे एक दुखद प्रेम प्रसंग की जरूरत है. लीडिया ने मन बना लिया था कि वह पति को छोड़कर चेखव के साथ जीवन शुरू करेंगी.
लीडिया एक जौहरी की दुकान पर गईं और घड़ी की चेन में पहनने के लिए पुस्तक की आकृति का पेंडेंट बनवाने का आदेश दिया. पुस्तक के एक और लिखवाया-‘चेखव की लघुकथाएँ’ और दूसरी ओर ‘पृष्ठ 267, पंक्ति 6 और 7’. इन पंक्तियों में लिखा था, अगर कभी मेरे प्राणों की जरूरत हो तो आना और निस्संकोच ले लेना. लीडिया ने सीधे-सीधे कोई संदेश इसलिए नहीं भेजा ताकि चेखव के मन में संदेह बना रहे और जरूरत पड़ने पर मेरे लिए पीछे हटने की गुंजाइश भी बची रहे.
लीडिया लिखती हैं, अपनी पूरी जिंदगी उन्हें कैसे दे सकती थी? यह केवल मेरा नहीं मेरे तीन बच्चों के जीवन का भी प्रश्न था. क्या मिखाइल (लीडिया के पति) मुझे अपने बच्चों को ले जाने की अनुमति देते? और क्या चेखव ही उन्हें स्वीकार कर पाते?
पेंडेंट चोखव तक पहुंच गया था. इधर लीडिया ने कई दिन दुश्चिन्ता और व्याकुलता में बिताए. वह लगातार चेखव के ख़त का इंतज़ार करती रहीं. न चेखव आए न उनका ख़त. कुछ भी नहीं हुआ. कुछ भी तो नहीं हुआ.
लीडिया पुस्तक में यह स्वीकार करती हैं कि मुझे चेखव से प्रेम था. केवल उनकी प्रतिभा से नहीं, स्वयं उनसे, उनकी कही हर बात से, हर बात हर नज़रिये से. लीडिया स्यवं भी कहानियां लिखती थीं और साहित्य की दुनिया में अपना स्थान बनाना चाहती थीं. एक बार चेखव ने लीडिया से कहा था- तुम्हारे भीतर एक सहज नैतिक बोध है. बहुत बड़ी बात है यह.
चेखव ने पेंडेंट वाली घटना का इस्तेमाल अपने नाटक ‘द सी गल’ में किया. चेखव लीडिया से एक ऐसे नृत्य में मिले, जहां सभी दर्शकों ने नकाब पहना हुआ था. चेखव और लीडिया की भी यहीं मुलाकात हुई. चेखव ने लीडिया से कहा कि वह उसके संदेश का जवाब नाटक के माध्यम से देगा. ऐसा लगता है कि चेखव का वास्तिवक संदेश नाटक के किरदार नीना के दुखान्त प्रेम प्रसंग में छिपा है. यह संदेश कहता है कि जब नीना जैसी युवा लड़की के प्रेम की परिणति इतनी दुखद हुई तो लीडिया तीन बच्चों की मां होकर भी कैसे आशा कर सकती है कि उसका प्रेम सफल होगा. यह चेखव का अपना तरीका था लीडिया के बलिदान को अस्वीकार करने का क्योंकि अपनी गहरी नज़र से उन्होंने जान लिया होगा कि उनके प्रेम का सफल होना कठिन है.
या यह भी संभव है कि वह जानते थे कि इस तरह ही उनका प्रेम अमर हो सकता है. ठीक वैसे ही जैसे वह अपनी एक कहानी-एक छोटी सी चुहुल में दिखाते हैं. ‘मेरी ज़िन्दगी में चेखव’ में लीडिया एविलोव न केवल अपनी और चेखव की आत्मीयता को दर्शाती हैं बल्कि चेखव के जीवन के अनेक पहलुओं को भी उजागर करती हैं. इस पुस्तक को पढ़ना चेखव और प्रेम के व्यापक-गहन रूप को देखना है.
पुस्तकः मेरी ज़िन्दगी में चेखव
लेखकः लीडिया एविलोव, डेविड मैगार्शक के अंग्रेजी अनुवाद से पुनर्पस्तुतिः रंजना श्रीवास्तव
सम्पादकः राजेन्द्र यादव
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 175 रुपए
प्रेमचंद के उद्धरण : मुंशी प्रेमचंद का जन्म 21 जुलाई 1880 को उत्तर प्रदेश के लमही में हुआ था. उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. प्रेमचंद उर्दू और हिन्दी दोनों भाषाओं के एक बड़े लेखक के तौर पर याद किए जाते हैं. पढ़ें, उनके प्रसिद्ध उद्धरण
माज़ी चाहे जैसा हो उसकी याद हमेशा ख़ुशगवार होती है।
जवानी पुर-जोश होती है वो ग़ुस्से से आग बन जाती है और हमदर्दी से पानी।
दौलत से आदमी को जो इज़्ज़त मिलती है वह उसकी नहीं, उसकी दौलत की इज़्ज़त होती है।
आर्ट का राज़ ऐसी हक़ीक़त-नुमाई में है जिस पर असलियत का गुमान हो।
आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन उसका ग़ुरूर है।
सोने और खाने का नाम ज़िंदगी नहीं है। आगे बढ़ते रहने की लगन का नाम ज़िंदगी है। (साभार-रेख़्ता)
आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानी इंटरनेशनल वुमन्स डे है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हर साल एक थीम रखी जाती है. जानकारी के लिए बता दें कि इस बार की थीम- ‘एक स्थायी कल के लिए आज लैंगिक समानता जरूरी’ है. आज महिलाएं हर सेक्टर में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं और सफलता की राह पर भी चल रही हैं. साहित्य में भी महिलाओं ने अपना परचम लहराया है. आज पढ़ें सुभद्राकुमारी चौहान और महादेवी वर्मा की मशहूर कविताएं
झांसी की रानी- सुभद्राकुमारी चौहान
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रश्मि- महादेवी वर्मा
चुभते ही तेरा अरुण बान!
बहते कन कन से फूट फूट,
मधु के निर्झर से सजल गान।
इन कनक रश्मियों में अथाह,
लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग;
बुदबुद से बह चलते अपार,
उसमें विहगों के मधुर राग;
बनती प्रवाल का मृदुल कूल,
जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान।
नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,
बन गए इन्द्रधनुषी वितान;
दे मृदु कलियों की चटक, ताल,
हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;
धो स्वर्णप्रात में तिमिरगात,
दुहराते अलि निशि-मूक तान।
सौरभ का फैला केश-जाल,
करतीं समीरपरियां विहार;
गीलीकेसर-मद झूम झूम,
पीते तितली के नव कुमार;
मर्मर का मधु-संगीत छेड़,
देते हैं हिल पल्लव अजान!
फैला अपने मृदु स्वप्न पंख,
उड़ गई नींदनिशि क्षितिज-पार;
अधखुले दृगों के कंजकोष–
पर छाया विस्मृति का खुमार;
रंग रहा हृदय ले अश्रु हास,
यह चतुर चितेरा सुधि विहान! (साभार-रेख़्ता)
असअ’द बदायुनी का जन्म 25 फरवरी 1952 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में हुआ था. उनका मूल नाम असअद अहमद था. उनकी गिनती प्रमूख उत्तर-आधुनिक शायरों में की जाती है. जानकारी के मुताबिक वह साहित्यिक पत्रिका दायरे के संपादक थे. आज पढ़ें असअ’द बदायुनी की नज़्में - ‘तल्ख़ियाँ’, ‘ये जो शाम ज़र-निगार है’ और ‘जो लोग रातों को जागते थे’
छोटे छोटे होटलों में शहर के
मुज़्तरिब दिल की तसल्ली के लिए
आने वाले कल के मंसूबों में गुम
चंद इंसाँ
चाय सिप करते हुए
पी रहे हैं
सारे दिन की तल्ख़ियाँ
ये जो शाम ज़र-निगार है
एक उदास चाँद से लगाओ के दिनों की यादगार है
मैं मंज़रों से सरसरी गुज़रने वाला शख़्स था
यूँही सी एक शाम थी और एक झील थी
कि जिस में उस का अक्स था
सो मैं वहीं ठहर गया
वो चाँद मेरे सारे जिस्म में उतर गया
ये एक हिज्र जो अज़ल से मेरे उस के दरमियान था
मगर अजब जुनून था जो चाहता था
दूरियों को तोड़ दे
लगाम-ए-अस्प-ए-आसमाँ ज़मीं की सम्त मोड़ दे
अचानक एक सुब्ह मेरी आँखें बुझ गईं
या उदास चाँद को सहर निगल गई
ये जो शाम ज़र-निगार है
एक उदास चाँद से लगाओ के दिनों की यादगार है
जो लोग रातों को जागते थे
सितारे जितने भी आसमाँ पर
मिरी तमन्ना के ज़ौ-फ़िशाँ थे
ज़मीं के अंदर उतर गए हैं
जो लोग रातों को जागते थे वो मर गए हैं
वो फूल वो तितलियाँ कि जिन से
बहार की दिलकशी सिवा थी
वो रिज़्क़-ए-ख़ाशाक बन चुके थे
तमाम मंज़र तमाम चेहरे जो धीरे धीरे सुलग रहे थे
सो अब वो सब राख बन चुके हैं
मैं रफ़्तगाँ की उदास यादों के साए में दिन गुज़ारता हूँ
अगरचे ख़्वाबों का पैरहन तार तार सा है
पर मैं उसे कब उतारता हूँ
मिरी सदा का जवाब अब कोई भी न देगा
ये जानता हूँ मगर मुसलसल किसी को अब तक पुकारता हूँ
अजीब ये खेल है कि जिस को न जीतता हूँ न हारता हूँ
मिरी कहानी में कोई शय भी नई नहीं है
ये नन्हे मुन्ने हसीन ख़्वाबों से है इबारत
मिरी कहानी में नर्म दिन ख़ुश-गवार शामों
उदास रातों की एक रौ है
वजूद मेरा किसी दिए की हक़ीर लौ है
मैं यूँ तो कहने को अक़्ल ओ मंतिक़ के दौर का आदमी हूँ लेकिन
मिरा रवैया है ज़िंदगी को गुज़ारने का बहुत पुराना
मैं सोचता हूँ कि इक सदी क़ब्ल पैदा होता तो ठीक रहता
कि मुझ से कोई भी कुछ न कहता
जो ख़ाक का रिज़्क़ हो चुके हैं
मैं उन ज़मानों का नौहागर हूँ
विसाल ओ हिज्राँ की दास्तानों का नौहागर हूँ
जिन्हें ये दुनिया हज़ार-हा बार सुन चुकी है
मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुआ था. उनका मूल नाम रघुपति सहाय था. जानकारी के मुताबिक वसीम ख़ैराबादी उनके गुरु थे. साल 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड और 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया था.
3 मार्च 1982 को फ़िराक़ गोरखपुरी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था. आज उनकी पुण्यतिथि है. पढ़ें, उनकी लिखी ग़ज़ल- ‘बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं’ और’ज़िंदगी दर्द की कहानी है’
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ओ ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं
निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना
तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं
तबीअ’त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं
हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की
मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं
तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं
अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा’नी जान लेते हैं
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं
रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है
तिरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं
ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं
‘फ़िराक़’ अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
ज़िंदगी दर्द की कहानी है
चश्म-ए-अंजुम में भी तो पानी है
बे-नियाज़ाना सुन लिया ग़म-ए-दिल
मेहरबानी है मेहरबानी है
वो भला मेरी बात क्या माने
उस ने अपनी भी बात मानी है
शोला-ए-दिल है ये कि शोला-साज़
या तिरा शोला-ए-जवानी है
वो कभी रंग वो कभी ख़ुशबू
गाह गुल गाह रात-रानी है
बन के मासूम सब को ताड़ गई
आँख उस की बड़ी सियानी है
आप-बीती कहो कि जग-बीती
हर कहानी मिरी कहानी है
दोनों आलम हैं जिस के ज़ेर-ए-नगीं
दिल उसी ग़म की राजधानी है
हम तो ख़ुश हैं तिरी जफ़ा पर भी
बे-सबब तेरी सरगिरानी है
सर-ब-सर ये फ़राज़-ए-मह्र-ओ-क़मर
तेरी उठती हुई जवानी है
आज भी सुन रहे हैं क़िस्सा-ए-इश्क़
गो कहानी बहुत पुरानी है
ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा
और अगर रोइए तो पानी है
है ठिकाना ये दर ही उस का भी
दिल भी तेरा ही आस्तानी है
उन से ऐसे में जो न हो जाए
नौ-जवानी है नौ-जवानी है
दिल मिरा और ये ग़म-ए-दुनिया
क्या तिरे ग़म की पासबानी है
गर्दिश-ए-चश्म-ए-साक़ी-ए-दौराँ
दौर-ए-अफ़लाक की भी पानी है
ऐ लब-ए-नाज़ क्या हैं वो असरार
ख़ामुशी जिन की तर्जुमानी है
मय-कदों के भी होश उड़ने लगे
क्या तिरी आँख की जवानी है
ख़ुद-कुशी पर है आज आमादा
अरे दुनिया बड़ी दिवानी है
कोई इज़हार-ए-ना-ख़ुशी भी नहीं
बद-गुमानी सी बद-गुमानी है
मुझ से कहता था कल फ़रिश्ता-ए-इश्क़
ज़िंदगी हिज्र की कहानी है
बहर-ए-हस्ती भी जिस में खो जाए
बूँद में भी वो बे-करानी है
मिल गए ख़ाक में तिरे उश्शाक़
ये भी इक अम्र-ए-आसमानी है
ज़िंदगी इंतिज़ार है तेरा
हम ने इक बात आज जानी है
क्यूँ न हो ग़म से ही क़िमाश उस का
हुस्न तसवीर-ए-शादमानी है
सूनी दुनिया में अब तो मैं हूँ और
मातम-ए-इश्क़-ए-आँ-जहानी है
कुछ न पूछो ‘फ़िराक़’ अहद-ए-शबाब
रात है नींद है कहानी है
मत देख कि फिरता हूँ तिरे हिज्र में ज़िंदा, ये पूछ कि जीने में मज़ा है कि नहीं है
कुछ मोहब्बत को न था चैन से रखना मंज़ूर, और कुछ उन की इनायात ने जीने न दिया
तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है, तेरे आगे चाँद पुराना लगता है
आग का क्या है पल दो पल में लगती है, बुझते बुझते एक ज़माना लगता है
ज़िंदगी शायद इसी का नाम है,दूरियाँ मजबूरियाँ तन्हाइयाँ
दाग़ दुनिया ने दिए ज़ख़्म ज़माने से मिले,हम को तोहफ़े ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले
सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें, आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत- बशीर बद्र
जंग तो ख़ुद ही एक मसअला है, जंग क्या मसअलों का हल देगी- साहिर लुधियानवी
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों- बशीर बद्र
अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर, चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए- अहमद फ़राज़
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें, मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे- जिगर मुरादाबादी
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है, आदमी आदमी को भूल गया- जौन एलिया
हिंदी के क्लासिकी शैली में उर्दू ग़ज़ल के लिए प्रसिद्ध शायर भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सिंतबर 1850 को उत्तर प्रदेश के बनारस में हुआ था. उनका उपनाम ‘रसा’ है. भारत दुर्दशा, सत्य हरीश, नील देवी और अंधेर नगरी उनके द्वारा लिखे गए उल्लेखनीय ड्रामा हैं.
आज पढ़ें, उनकी चुनिंदा ग़ज़लें- ‘गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में’, ‘आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया’ और ‘उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले’
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में
नहीं ये है गुलाल-ए-सुर्ख़ उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक़ की है उमड़ी आह-ए-आतिश-बार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझ को भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जान-ए-मन त्यौहार होली में
‘रसा’ गर जाम-ए-मय ग़ैरों को देते हो तो मुझ को भी
नशीली आँख दिखला कर करो सरशार होली में
आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया
आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया
ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया
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बाग़बाँ है चार दिन की बाग़-ए-आलम में बहार
फूल सब मुरझा गए ख़ाली बयाबाँ रह गया
इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ऐ दस्त-ए-जुनूँ
बाक़ी गर्दन में फ़क़त तार-ए-गरेबाँ रह गया
याद आई जब तुम्हारे रूप रौशन की चमक
मैं सरासर सूरत-ए-आईना हैराँ रह गया
ले चले दो फूल भी इस बाग़-ए-आलम से न हम
वक़्त-ए-रहलत हैफ़ है ख़ाली ही दामाँ रह गया
मर गए हम पर न आए तुम ख़बर को ऐ सनम
हौसला अब दिल का दिल ही में मिरी जाँ रह गया
ना-तवानी ने दिखाया ज़ोर अपना ऐ ‘रसा’
सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम मैं बस नुमायाँ रह गया
उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले
उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले
इधर तो देखिए बहर-ए-ख़ुदा किधर को चले
मिरी निगाहों में दोनों जहाँ हुए तारीक
ये आप खोल के ज़ुल्फ़-ए-दोता किधर को चले
अभी तो आए हो जल्दी कहाँ है जाने की
उठो न पहलू से ठहरो ज़रा किधर को चले
ख़फ़ा हो किस पे भंवें क्यूँ चढ़ी हैं ख़ैर तो है
ये आप तेग़ पे धर कर जिला किधर को चले
मुसाफ़िरान-ए-अदम कुछ कहो अज़ीज़ों से
अभी तो बैठे थे है है भला किधर को चले
चढ़ी हैं तेवरियाँ कुछ है मिज़ा भी जुम्बिश में
ख़ुदा ही जाने ये तेग़-ए-अदा किधर को चले
गया जो मैं कहीं भूले से उन के कूचे में
तो हँस के कहने लगे हैं ‘रसा’ किधर को चले(साभार-रेख़्ता)
हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़', जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं
वफ़ा करेंगे निबाहेंगे बात मानेंगे, तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
दिल दे तो इस मिज़ाज का परवरदिगार दे, जो रंज की घड़ी भी ख़ुशी से गुज़ार दे
ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया, तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया
लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से, इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे
तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता, वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता.
हिंदी साहित्य की दुनिया में प्रकाशन जगत का मशहूर नाम राजकमल प्रकाशन अपनी स्थापना की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. 28 फरवरी को राजकमल प्रकाशन 75 साल का हो जाएगा. इस मौके पर एक साहित्यिक जलसे एक आयोजन किया जाएगा. इसमें साहित्य समेत विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े सात चर्चित युवा अपने अनुभव और विचार पेश करेंगे. साथ में चर्चा होगी हिंदी भाषाभाषी समाज के साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक परिवेश को उन्नत बनाने में राजकमल प्रकाशन की भूमिका पर. यह समारोह इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में होगा.
राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने बताया कि 75वें स्थापना दिवस का आयोजित ‘भविष्य के स्वर’ में सात चर्चित ऐसी युवा प्रतिभाएं अपनी बात रखेंगी जिन्होंने अपने काम से सबका ध्यान आकर्षित किया है और भविष्य के लिए बड़ी संभावनाएं जगाई हैं. इनमें शामिल हैं यायावर-लेखक अनुराधा बेनीवाल; अनुवादक, यायावर-लेखक अभिषेक श्रीवास्तव; लोकनाट्य अध्येता, रंग-आलोचक अमितेश कुमार; अध्येता-आलोचक चारु सिंह; लोक-साहित्य अध्येता, कथाकार जोराम यालाम नाबाम; कथाकार, गीतकार-गायक नीलोत्पल मृणाल और चित्रकार, फैशन डिजाइनर मालविका राज.
अशोक महेश्वरी ने बताया कि लगातार बदल रहे परिदृश्य में राजकमल सकारात्मक हस्तक्षेप करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है. हमारी इसी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति है ‘भविष्य के स्वर’. यह हमारा विचारपर्व है. ‘भविष्य के स्वर’ के जरिये हमारा मकसद साहित्य समेत विभिन्न क्षेत्रों में नई लकीर खींच रहे युवाओं के अनुभवों और सपनों को स्वर देना है.
बता दें कि राजकमल प्रकाशन की स्थापना 28 फरवरी,1947 को हुई थी. राजकमल का स्थापना दिवस, प्रकाशन दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस बार का आयोजन विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि इस बार राजकमल प्रकाशन अपने 75वें वर्ष की शुरुआत करेगा.
भविष्य के स्वर
राजकमल प्रकाशन अब तक दो बार ‘भविष्य के स्वर’ का आयोजन कर चुका है. पहली बार ‘भविष्य के स्वर’ का आयोजन 2019 में राजकमल के स्थापना दिवस पर किया गया था. इसमें कथाकार अनिल यादव, कवि अनुज लुगुन, कवि-कथाकार गौरव सोलंकी, कलाकार-डिजाइनर अनिल आहूजा, मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार, आरजे सायमा और पत्रकार अंकिता आनंद ने वक्तव्य दिया था.
2020 में राजकमल के स्थापना दिवस पर भी सात युवा प्रतिभाओं ने भविष्य के स्वर के तहत अपने अपने क्षेत्र व विषय के अनुभव और विचार पेश किये थे. इन युवाओं में कवि सुधांशु फिरदौस, कवि जसिंता केरकेट्टा, किस्सागो हिमांशु वाजपेयी, सिने आलोचक मिहिर पांड्या, कथाकार चंदन पांडेय, वंचित बच्चों में कलात्मक कौशल के विकास के लिए सक्रिय जिज्ञासा लाबरु और कवि-आलोचक मृत्युंजय शामिल थे.
राजकमल प्रकाशन
राजकमल प्रकाशन सिर्फ एक प्रकाशन नहीं है बल्कि हिंदी भाषा-साहित्य और समाज के लिए गौरव है. अपनी 75 वर्ष की यात्रा में एक प्रकाशन से आगे बढ़ कर यह राजकमल प्रकाशन समूह बन चुका है. इसने अब तक 20 से अधिक विधाओं में लगभग 50 विषयों की किताबें प्रकाशित की हैं.
साहित्य अकादेमी पुरस्कार के 68 साल के इतिहास में हिंदी के लिए पुरस्कृत कृतियों में से 32 कृतियां राजकमल से प्रकाशित हैं. इसने आठ भारतीय भाषाओं की 16 से ज्यादा उन कृतियों को भी हिंदी में प्रकाशित किया है जिन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.
राजकमल से प्रकाशित लेखकों में 29 ऐसे हैं जिन्हें भारतीय साहित्य का नोबेल पुरस्कार माने जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.
राजकमल प्रकाशन समूह अब तक दस हजार से अधिक किताबें प्रकाशित कर चुका है. इसके सम्मानित लेखकों में नोबेल पुरस्कार विजेता बीस, पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता दो और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त छह लेखक शामिल हैं. देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से विभूषित चार शख्सियतें भी राजकमल के सम्मानित लेखकों में शुमार हैं. (news18.com)
किसी भी जगह कोई शायरी की बात करे तो मिर्ज़ा ग़ालिब के बिना बात पूरी नहीं होती. असदउल्लाह बेग खान जिन्हें हम मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानते हैं वह आगरा में पैदा हुए लेकिन दिल्लीवाले शायर हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी में तमाम उतार-चढ़ाव देखे. 15 फरवरी 1869 को मिर्ज़ा ग़ालिब का निधन हो गया था. आज इस बात को 153 साल हो गए हैं. इतने वर्ष बाद भी ग़ालिब पुरानी ही नहीं, नई पीढ़ी के बीच भी अपनी शायरी से जिंदा हैं. मिर्ज़ा ग़ालिब शब्दों से खेलना जानते थे. उनकी शायरी का दुनिया की सभी जुबानों में अनुवाद हुआ है. उन्होंने जो पत्र अपने मित्रों और शागिर्दों को लिखे उन पर भी न जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं. उनके द्वारा लिखे गए पत्र आज उर्दू साहित्य का कीमती और बहुमूल्य संकलन हैं. आइए आज के दिन उन्हें याद करते हुए उनकी कुछ शायरियां पढ़ते हैं.
तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको,ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है....
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है...
मुहब्बत में उनकी अना का पास रखते हैं,हम जानकर अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हैं....
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर–ए–नीम–कश कोये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता...
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछोहज़र करो मिरे दिल से कि उस में आग दबी है...
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदालड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं....
रोक लो गर ग़लत चले कोई,बख़्श दो गर ख़ता करे कोई....
भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी,बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया....
कुछ लम्हे हमने ख़र्च किए थे मिले नहीं,सारा हिसाब जोड़ के सिरहाने रख लिया....
दिल–ए–नादाँ तुझे हुआ क्या हैआख़िर इस दर्द की दवा क्या है.....
-अरविंद दास
मैथिली साहित्य की अप्रतिम रचनाकार लिली रे का गुरुवार को दिल्ली में निधन हो गया. वे पिछले कुछ वर्षों से पार्किंसन बीमारी से पीड़ित थी. मैथिली साहित्य में एक वर्ग विशेष के पुरुष रचनाकारों का वर्चस्व रहा है. लिली रे ने अपने लेखन से उस वर्चस्व को चुनौती दी, जिसकी अनुगूँज अखिल भारतीय स्तर पर सुनी गई. पर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आधुनिक मैथिली साहित्यकार हरिमोहन झा, नागार्जुन और राजकमल चौधरी आदि के रचनाकर्म पर जिस तरह विचार-विमर्श हुआ है, जिस रूप में साहित्य की समीक्षा हुई उस रूप में लिली रे के कथा-साहित्य की नहीं हुई. एक तरह से उनकी उपेक्षा हुई. जबकि मैथिली साहित्य में उन्हें ‘मरीचिका’ उपन्यास के लिए वर्ष 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. बाद में नीरजा रेणु, उषा किरण खान और शेफालिका वर्मा को भी मैथिली में साहित्य अकादमी मिला.
मधुबनी जिले में 26 जवरी 1933 को एक संपन्न परिवार में उनका जन्म हुआ और घर पर ही शिक्षा-दीक्षा हुई. जैसा कि उस समय प्रचलन था उनकी शादी महज बारह वर्ष की आयु में पूर्णिया जिले में हो गई, पर उनमें पढ़ने-लिखने की उत्कट आकांक्षा थी. उन्होंने अपनी आत्मकथा-‘समय के घड़ैत’ में लिखा है: “सबसँ पहिने हमर रचना सब वैदेही मे कल्पनाशरणक नाम सँ बहराइत छल. वैदेही के सम्पादक छलाह-श्री कृष्णकांत मिश्र, लालबाग, दरभंगा. प्रथम रचनाक शीर्षक छल-रोगिणी. सब रचना संभवत: 1954 सँ 1958 केर बीच छपल छल. तदुपरांत, 1978 सँ लिली रेक नाम सँ लिखए लगलहुँ. (सबसे पहले मेरी रचना सब वैदेही (पत्रिका) में कल्पना शरण के नाम से छपी. वैदेही के संपादक थे श्री कृष्णकांत मिश्र, लालबाग, दरभंगा. पहली रचना का शीर्षक था-रोगिणी. सब रचना संभवत: 1954 से 1958 के बीच छपी. उसके बाद वर्ष 1978 से लिली रे नाम से लिखने लगी.”
पहली रचना ‘रोगिणी’ और ‘रंगीन परदा’ से ही लिली रे का मैथिली साहित्य में विशिष्ट स्वर सुनाई देने लगा था. मैथिली स्त्री लेखन में ऐसी परंपरा नहीं थी. ‘रंगीन परदा’ में मिथिला के सामंती समाज का पाखंड मालती और मोहन के बीच विवाहेतर संबंध के माध्यम से व्यक्त हुआ. इस कहानी में दामाद और सास के बीच जो शारीरिक संबंध दिखाया गया है उससे मिथिला के साहित्यक दुनिया में अश्लीलता को लेकर बहस छिड़ गई. लेकिन राजकमल चौधरी जैसे साहित्यकार से लिली रे को प्रशंसा के पत्र भी मिले थे. उनके कथा साहित्य की स्त्रियाँ अपने स्वंतत्रता के प्रति सचेष्ट है. ‘रोगिणी’ की विधवा रेनू आत्महत्या के बदले जीवन को चुनती है.
लिली रे के उपन्यास (पटाक्षेप) और कहानियों (बिल टेलर की डायरी) को हिंदी में अनुवाद करने वाली मैथिली लेखिका विभा रानी ने ठीक ही लिखा है कि “लिली रे की कहानियों में स्थानीय मिथिला के साथ-साथ देश भर मुखरित है, जो कथा संसार की सार्वभौमिकता का व्यापक फलक है. दिल्ली से लेकर दार्जिलिंग व सिक्किम तक तथा मजदूर से लेकर राजदूत तक तथा देशी से लेकर विदेशी तक- सभी इनकी कथाओं के पात्र व कैनवास में फैले हुए हैं.” लिली रे का ज्यादातर जीवन मिथिला के परिवेश से बाहर बीता. इस लिहाज से लिली रे का अनुभव संसार व्यापक है जो उनकी कथा साहित्य के विषय वस्तु के चयन में दिखता है. जहाँ दो खंडों में फैले ‘मिरीचिका’ उपन्यास में जमींदारी, सामंतवाद और उसके ढहते अवशेष के साथ जीवन का चित्रण है वहीं पटाक्षेप (1979) उपन्यास के मूल में नक्सलबाड़ी आंदोलन है.
प्रसंगवश, वर्ष 1960 के दशक में उनका लेखन मंद रहा, लेकिन फिर ‘पटाक्षेप’ (मिथिला मिहिर पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशन) से लेखन ने जोर पकड़ा. मेरी जानकारी में नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रखकर मैथिली में शायद ही कोई और उपन्यास लिखा गया है. बांग्ला की चर्चित रचनाकार महाश्वेता देवी ने भी ‘हजार चौरासी की मां’ उपन्यास लिखा, बाद में इसको आधार बनाकर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने फिल्म भी बनायी. ‘पटाक्षेप’ में बिहार के पूर्णिया इलाके में दिलीप, अनिल, सुजीत जैसे पात्रों की मौजूदगी, संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के लिए किसानों-मजदूरों को तैयार करने की कार्रवाई पढ़ने पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह रबिंद्र रे और उनके साथियों की कहानी है. रबिंद्र लिली रे के पुत्र थे जिनका वर्ष 2019 में निधन हो गया. अपनी आत्मकथा में भी लिली रे नक्सलबाड़ी आंदोलन में पुत्र रबिंद्र रे (लल्लू) के भाग लेने का जिक्र करती हैं कि किस तरह लल्लू हताश होकर आंदोलन से लौट आए और फिर अकादमिक दुनिया से जुड़े.
इस उपन्यास का एक पात्र सुजीत कहता है- ‘हमारी पार्टी का लक्ष्य है- शोषण का अंत. श्रमिक वर्ग को उसका हक दिलाना.’ मानवीय मूल्यों को चित्रित करने वाला यह उपन्यास आत्मपरक नहीं है. सहज भाषा में, बिना दर्शन बघारे लिली रे ने सधे ढंग से वर्णनात्मक शैली में उस दौर को संवेदनशीलता के साथ ‘पटाक्षेप’ में समेटा है. उनकी दृष्टि प्रभावित करती है. लिली रे निधन के साथ ही मैथिली साहित्य के एक युग का भी पटाक्षेप हो गया.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है) (news18.com)
गुल पर क्या कुछ बीत गई है अलबेला झोंका क्या जाने
बड़े ताबाँ बड़े रौशन सितारे टूट जाते हैं सहर की राह तकना ता सहर आसाँ नहीं होता
रीत भी अपनी रुत भी अपनी दिल रस्म-ए-दुनिया क्या जाने
हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना
मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ तुम मुझ से पूछते हो मिरा हौसला है क्या
हाथ काँटों से कर लिए ज़ख़्मीफूल बालों में इक सजाने को (news18.com)
माखनलाल चतुर्वेदी: देशद्रोह के आरोप में जेल गए, मुख्यमंत्री की कुर्सी ठुकराई, पद्मभूषण लौटाया और लिखी- पुष्प की अभिलाषा...आज यह दोहराने की आवश्यकता है कि दादा माखनलाल चतुर्वेदी देश के महान राष्ट्र कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर देश सेवा का पथ चुना था? हमारी पीढ़ी तो अपने स्कूल की किताबों में पुष्प की अभिलाषा पढ़ कर ही बढ़ी हुई है.
आज तीस जनवरी है. महात्मा गांधी का शहीदी दिवस. यही दिन ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से प्रसिद्ध भावधरा के कवि, निर्भिक पत्रकार, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की पुण्यतिथि भी है. ऐसे मनीषी जिसने साहित्य साधना के लिए मुख्यमंत्री का पद भी नकारा और हिंदी को लेकर सरकार के रवैये का विरोध करते हुए पद्मविभूषण भी. दादा माखनलाल चतुर्वेदी का उल्लेख करते ही हमें उनकी ख्याल कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ याद आती है. राष्ट्र प्रेम के साहित्य को भारी-भरकम शब्दावली से मुक्त करवा कर उसे सहज रूप से जनता तक पहुंचाने का श्रेय दादा माखनलाल चतुर्वेदी को जाता है. उनकी रचनाओं में जितना राष्ट्र प्रेम मुखरित हैं उतनी ही पर्यावरण चेतना भी. जो खुद कभी ईमान से डिगे, जिन्होंने अपने आचरण से हमेशा संघर्ष की सीख दी उनकी रचनाओं में प्रकृति के सहारे जीवन उन्नत बनाने की प्रेरणा बारम्बार रेखांकित होती है. आकाश, धरा, पुष्प, कांटें, मास, गंगा, बादल आदि प्रतीक जीवन सूत्र के रूप में मौजूद हैं. इन कविताओं से गुजरना प्रकृति की गोद में विचरण करते हुए अपनी मन की उलझनों के तालों की चाबी पाने जैसा है. एक-एक कविता पढ़ते जाइये और अपने लिए एक खास तरह का प्राकृतिक संदेश पाते जाइये.
क्या आज यह दोहराने की आवश्यकता है कि दादा माखनलाल चतुर्वेदी देश के महान राष्ट्र कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर देश सेवा का पथ चुना था? हमारी पीढ़ी तो अपने स्कूल की किताबों में पुष्प की अभिलाषा पढ़ कर ही बढ़ी हुई है. दादा का नाम साहित्य के क्षेत्र में जितने आदर से लिया जाता है पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उतने की सम्मान से संबोधित किया जाता है. आज भी पत्रकारित की बालवाड़ी में उनके ‘कर्मवीर’ को संविधान की तरह देखा जाता है. सहज साहित्यकार एवं निर्भीक पत्रकार दादा माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बावई में हुआ था. 30 जनवरी 1968 को वे ब्रह्मलीन हुए. 79 वर्ष के जीवन का विस्तार इतना है कि दादा का हर कर्म क्षेत्र अपने आप में एक पूर्ण जीवन जितना योगदान रखता है. लगभग 16 वर्ष की आयु में ये आजीविका के लिए शिक्षण कार्य आरंभ किया लेकिन अंग्रेज सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद शिक्षण कार्य त्याग दिया. तत्कालीन क्रांतिकारियों एवं पत्रकारिता के पुरोधा माधवराव सप्रे से मुलाकात के बाद जीवन दिशा परिवर्तित हुई.
दादा के पत्रकारिय जीवन का आरंभ 1913 में हुआ जब उन्होंने ‘प्रभा’ नामक पत्रिका का संपादन आरंभ किया. इसी दौरान उनकी मुलाकात गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि से हुई. माधवराव सप्रे ने कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके दादा माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन में देशभक्ति के भावों को मुखर किया. सप्रे जी ही बाद में दादा के राजनीतिक गुरु भी बने. सप्रे जी के प्रधान संपादन में जबलपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार ‘कर्मवीर’ से 1920 में दादा आ जुड़े. तथ्य है कि ‘कर्मवीर’ नाम भी दादा माखनलाल ने ही सुझाया था. दादा को अपनी निर्भीक पत्रकारिता के कारण ‘राजद्रोह’ के मुकदमे में जेल भी जाना पड़ा, लेकिन पत्रकारिता का पैनापन कभी खत्म न हुआ. अंदाज ऐसा कि 15 से ज्यादा रियासतों ने ‘कर्मवीर’ पर पाबंदियां लगा दी मगर पत्रकारिता की धार वैसी ही बनी रही. जब अंग्रेज सरकार ने गणेशशंकर विद्यार्थी को गिरफ्तार कर लिया तो विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ को कुछ समय तक दादा माखनलाल ने संभाला.
दादा माखनलाल की साहित्य यात्रा का उल्लेख करते हैं तो ‘हिम किरीटिनी’, ‘हिमतरंगिणी’, ‘समर्पण’, ‘युग चरण’ ‘मरण ज्वार’ (कविता-संग्रह), ‘कृष्णार्जुन युद्ध’, ‘साहित्य के देवता’, ‘समय के पांव (गद्य रचना) जैसे नाम याद आते हैं. ‘हिम किरीटिनी’ के लिए ‘देव पुरस्कार’ तो ‘हिमतरंगिणी’ के लिए दादा माखनलाल को ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
1963 में भारत सरकार ने दादा को ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया. जब 1967 में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की प्रक्रिया के दौरान विधेयक पारित किया गया तो इसके विरोध में उन्होंने ‘पद्मभूषण’ सम्मान लौटा दिया था. इसके पहले आजादी के बाद जब 1 नवंबर 1956 को मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो पहले मुख्यमंत्री के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी, रविशंकर शुक्ल और द्वारका प्रसाद मिश्र के नाम सुझाए गए. तब दादा ने यह कहते हुए पद ठुकरा दिया था कि मैं पहले से ही शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘देवगुरु’ के आसन पर बैठा हूं. तुम लोग मुझे ‘देवराज’ के पद पर बैठना चाहते हो. यह पदावनति है जो मुझे सर्वथा अस्वीकार्य है.
अपने कर्म और आचरण से ऐसे संदेश देने वाले दादा माखनलाल की रचनाओं में भी खास तरह का संदेश है. राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत इस संदेश की मुख्यधारा में प्रकृति प्रेरणा एक अंतर्धारा के रूप में उपस्थित है. ‘पुष्प की अभिलाषा’ में जो संदेश मिला है उसे प्रेरणा बना कर आगे साहित्यकारों में कई तरह की अभिलाषा को व्यक्त करती रचनाएं लिखी हैं.
जैसे यह रचना :
ये अनाज की पूलें तेरे काँधें झूलें
तेरा चौड़ा छाता
रे जन-गण के भ्राता
शिशिर, ग्रीष्म, वर्षा से लड़तेभू-स्वामी, निर्माता !
कीच, धूल, गन्दगी बदन पर
लेकर ओ मेहनतकश!
…
ये उगी बिन उगी फ़सलें
तेरी प्राण कहानी
हर रोटी ने, रक्त बूँद ने
तेरी छवि पहचानी !
…
यह शासन, यह कला, तपस्या
तुझे कभी मत भूलें.
किसान के परिश्रम और उनके योगदान को न भूलने का संदेश देती इस रचना का सरल अंदाज पाठकों को प्रभावित करता है. ‘ये वृक्षों में उगे परिन्दे’ में पुष्प के प्रतीक के सहारे वे लिखते हैं –
ये वृक्षों में उगे परिन्दे
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये
अग जग में अपनी सुगन्धित का
दूर-पास विस्तार किये.
…
हो कल्याण गगन पर-
मन पर हो, मधुवाही गन्ध
हरी-हरी ऊँचे उठने की
बढ़ती रहे सुगन्ध!
पर ज़मीन पर पैर रहेंगे
प्राप्ति रहेगी भू पर
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि
मूर्त्ति रहेगी भू पर.
‘फुंकरण कर रे, समय के साँप’ कविता भी बार-बार पढ़े जाने को ललचाती है. अहा, कितना बड़ा संदेश कितने प्रभावी अंदाज में! दादा लिखते हैं –
क्या हुआ, हिम के शिखर, ऊँचे हुए, ऊँचे उठ
चमकते हैं, बस, चमक है अमर, कैसे दिन कटे!
और नीचे देखती है अलकनन्दा देख
उस हरित अभिमान की, अभिमानिनी स्मृति-रेख.
डग बढ़ाकर, मग बनाकर, यह तरल सन्देश
ऊगती हरितावली पर, प्राणमय लिख लेख!
दौड़ती पतिता बनी, उत्थान का कर त्याग
छूट भागा जा रहा उन्मत्त से अनुराग !
मैं बनाऊँ पुण्य मीठा पाप
फुंकरण कर रे, समय के साँप.
शिखर की ओर तकने वाले, शिखर की ओर बढ़ने वाले, ऊंचाई के लिए स्वयं को गिरा देने वाले इस समय में ‘गंगा की विदाई’ में निराली प्रेरणा उद्घाटित होती है.
शिखर शिखारियों मे मत रोको,
तुम ऊंचे उठते हो रह रह
यह नीचे को दौड़ जाती,
तुम देवो से बतियाते यह,
भू से मिलने को अकुलाती,
रजत मुकुट तुम मुकुट धारण करते,
इसकी धारा, सब कुछ बहता,
तुम हो मौन विराट, क्षिप्र यह,
इसका बाद रवानी कहता,
तुमसे लिपट, लाज से सिमटी, लज्जा विनत निहाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
यह हिमगिरि की जटाशंकरी,
यह खेतीहर की महारानी,
यह भक्तों की अभय देवता,
यह तो जन जीवन का पानी !
इसकी लहरों से गर्वित ‘भू’
ओढे नई चुनरिया धानी,
देख रही अनगिनत आज यह,
नौकाओ की आनी-जानी,
इसका तट-धन लिए तरानियाँ, गिरा उठाये पाल चली,
अगम नगाधिराज, जाने दो, बिटिया अब ससुराल चली |
और बादलों को बहाने से दादा ने क्या कहा, यह पढ़ लेंने तो शायद समझ आ जाए कि कहां आवश्यकता हैं वहां होना हमारे जीवन की सार्थकता है.
बदरिया थम-थनकर झर री
सागर पर मत भरे अभागन
गागर को भर री.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है) (news18.com)
Bharat Mahima By Jaishankar Prasad: हिंदी साहित्य के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक जयशंकर प्रसाद का जन्म 30 जनवरी 1989 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था. कामायनी, आंसू, कानन-कुसुम, प्रेम पथिक, झरना, लहर आदि उनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं.
जानकारी के लिए बता दें कि जयशंकर प्रसाद ने तितली, इरावती और कंकाल जैसे उपन्यास व मधुआ, आकाशदीप और पुरस्कार जैसी मशहूर कहानियां भी लिखी थीं. आज उनकी जयंती पर पढ़ें उनकी प्रसिद्ध रचना ‘भारत महिमा’
भारत महिमा
हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत
यह भी पढ़ें- जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘छोटा जादूगर’
बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं
जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान
जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष (साभार- कविता कोश)
जो गुज़ारी न जा सकी हम से हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
बहुत नज़दीक आती जा रही हो बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या
हमला है चार सू दर-ओ-दीवार-ए-शहर का सब जंगलों को शहर के अंदर समेट लो
मेरी बाँहों में बहकने की सज़ा भी सुन ले अब बहुत देर में आज़ाद करूँगा तुझ को
कैसे कहें कि तुझ को भी हम से है वास्ता कोई तू ने तो हम से आज तक कोई गिला नहीं किया
Kishwar Naheed Nazms: किश्वर नाहीद का जन्म 17 जून 1940 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुआ था. ‘नाहिद’ खासतौर पर अपने स्त्री वादी विचारों के लिए मशहूर हैं. उनकी उर्दू शायरी विदेशों में भी प्रकाशित हो चुकी हैं. जानकारी के मुताबिक मुख़्तार सिद्दीक़ी उनके गुरु थे.
पढ़ें, उनकी नज़्म (Nazm) ‘हम गुनहगार औरतें’ और ‘ख़ुदाओं से कह दो’
हम गुनहगार औरतें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ
न जान बेचें
न सर झुकाएँ
न हाथ जोड़ें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि जिन के जिस्मों की फ़स्ल बेचें जो लोग
वो सरफ़राज़ ठहरें
नियाबत-ए-इम्तियाज़ ठहरें
वो दावर-ए-अहल-ए-साज़ ठहरें
ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि सच का परचम उठा के निकलें
तो झूट से शाहराहें अटी मिले हैं
हर एक दहलीज़ पे सज़ाओं की दास्तानें रखी मिले हैं
जो बोल सकती थीं वो ज़बानें कटी मिले हैं
ये हम गुनहगार औरतें हैं
कि अब तआक़ुब में रात भी आए
तो ये आँखें नहीं बुझेंगी
कि अब जो दीवार गिर चुकी है
उसे उठाने की ज़िद न करना!
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ
न जान बेचें
न सर झुकाएँ न हाथ जोड़ें!
ख़ुदाओं से कह दो
जिस दिन मुझे मौत आए
उस दिन बारिश की वो झड़ी लगे
जिसे थमना न आता हो
लोग बारिश और आँसुओं में
तमीज़ न कर सकें
जिस दिन मुझे मौत आए
इतने फूल ज़मीन पर खिलें
कि किसी और चीज़ पर नज़र न ठहर सके
चराग़ों की लवें दिए छोड़ कर
मेरे साथ साथ चलें
बातें करती हुई
मुस्कुराती हुई
जिस दिन मुझे मौत आए
उस दिन सारे घोंसलों में
सारे परिंदों के बच्चों के पर निकल आएँ
सारी सरगोशियाँ जल-तरंग लगें
और सारी सिसकियाँ नुक़रई ज़मज़मे बन जाएँ
जिस दिन मुझे मौत आए
मौत मेरी इक शर्त मान कर आए
पहले जीते-जी मुझ से मुलाक़ात करे
मिरे घर-आँगन में मेरे साथ खेले
जीने का मतलब जाने
फिर अपनी मन-मानी करे
जिस दिन मुझे मौत आए
उस दिन सूरज ग़ुरूब होना भूल जाए
कि रौशनी को मेरे साथ दफ़्न नहीं होना चाहिए(साभार-रेख़्ता)
‘वे सोलह दिन; नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन’ भारतीय संविधान के प्रथम संशोधन की दिलचस्प कहानी है. प्रचंड संसदीय बहसों और विरोध के बीच जून, 1951 में पहला संविधान संशोधन किया गया. इस संशोधन ने कुछ नागरिक स्वतंत्रताओं और संपत्ति के अधिकारों को सीमित कर दिया और कानूनों की एक विशेष अनुसूची तैयार की, जो न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर थी.
यह संशोधन देश के पहले आम चुनाव से ठीक पहले हुआ. कांग्रेस घोषणापत्र में जिन सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का उल्लेख था, उन्हें उदार संविधान और स्वतंत्र प्रेस से चुनौतियां मिल रही थीं. इसका सामना करने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कार्यपालिका की सर्वोच्चता को फिर से स्थापित करते हुए संविधानिक नियंत्रण और दवाब का एक ढांचा खड़ा कर दिया.
आखिर संविधान लागू होने के महज़ एक ही साल बाद ऐसी कौन-सी चुनौती देश के सामने आ खड़ी हुई थी? संसदीय बहसों, न्यायिक दस्तावेज़ों और विद्वानों की राय के आधार पर यह पुस्तक नेहरू, आम्बेडकर, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे दिग्गजों के बारे में हमारी पारंपरिक समझ को एक चुनौती देती है. साथ ही यह पुस्तक, भारतीय संविधान के उदारवादी स्वरूप और उसकी पहली सरकार के अधिनायकवादी आवेगों के बीच की खाई को भी सामने लाती है.
26 जनवरी, 1950 के संविधान सभा के सदस्यों ने नए संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए और भारत एक गणराज्य बन गया. ठीक उसके बारह महीनों के बाद, संविधान के उन्हीं निर्माताओं ने, जो स्वतंत्रता के बड़े पैरोकार थे, जिन्होंने उस संविधान पर सहमति दी थी, उन्होंने ही अपनी कृति में ये कहकर संशोधन कर दिया कि इसमें अत्यधिक स्वतंत्रता है.
आखिर अपनी ही कृति के निर्माण के ठीक पंद्रह महीनों के बाद संविधान निर्माताओं को ऐसी कौन सी मजबूरी का सामना करना पड़ा था, आखिर भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी को उन असाधारण कदमों को उठाकर संविधान में ऐसे क्रांतिकारी बदलाव की क्या ज़रूरत महसूस हुई थी जिसे उन्होंने खुद ही सन् 1950 में मान्यता दी थी? जून 1951 में हुए संविधान के पहले संशोधन पर हुए उस घनघोर बहस का क्या नतीजा निकला जिसका संसद के अंदर और बाहर भारी विरोध हुआ था?
‘वे सोलह दिन; नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन’ में लेखक ने विस्तार से बताया है. त्रिपुरदमन सिंह की इस पुस्तक के बारे में तमाम प्रतिक्रियाएं भी मिली हैं.
वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन पुस्तक के बारे में लिखते हैं- ‘गहन शोध के बाद लिखी इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि यह भारत के संवैधानिक इतिहास को लेकर मौजूद गौरवान्वित और अतिशयोक्तिपूर्ण अवधारणाओं को बदल कर रख देगी. इसके पन्नों को पलटते हुए हमें केंद्र में अत्यधिक बहुसंख्यकवादी सरकारों के फायदों को (और उसके कुछ ख़तरों को भी) बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है.’
राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता कहते हैं- ‘स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों के मनोहर चित्रण और राजनीति के असहज यथार्थ के बीच की खाई को त्रिपुरदमन सिंह ने इस किताब में बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है. यह संशोधनवादी इतिहास नहीं है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों एवं राजनीतिक प्राथमिकताओं के बीच के पहले तनावों की स्पष्ट छवि है. इस किताब में नेहरू एक खलनायक की तरह नहीं, बल्कि एक मँझे हुए राजनेता की तरह उभरकर सामने आते हैं. इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए’
भारतीय मूल के अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई लिखते हैं- ‘यह किताब धमाकेदार है. यह उन लोगों को बड़ा झटका देगी, जो संविधान और उसके द्वारा नागरिकों को दी गई स्वतंत्रताओं को बड़े सुहाने ढंग से देखते हैं. . . अब तक अनकही रही इस कहानी से इतिहास और संविधान की विषयवस्तु के गंभीर पुनर्निरीक्षण की शुरुआत होनी चाहिए. इसे एक ऐसे आंदोलन को प्रेरित करना चाहिए, जो मूल संविधान की ओर ले जाए और उसमें बाद में लाई गई विकृतियों का तिरस्कार कर दे.’
लेखक के बारे में
त्रिपुरदमन सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ कॉमनवेल्थ स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में ब्रिटिश अकेडेमी पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो हैं. उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में जन्मे त्रिपुरदमन ने यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरविक में राजनीति एवं अंतरराष्ट्रीय अध्ययन की पढ़ाई की और यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज से मॉर्डन साउथ एशियन स्टडीज़ में एमफिल तथा इतिहास में पीएचडी की डिग्री हासिल की. वह नीदरलैंड्स के यूनिवर्सिटी ऑफ लाइडेन में विजिटिंग फेलो और और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च फेलो रहे हैं. त्रिपुरदमन रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के फेलो भी हैं. इससे पहले उनकी इम्पेरियल सोवर्निटी, लोकल पॉलिटिक्स और नेहरू नाम की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. (news18.com)